‘सोनी पिक्चर्स नेटवर्क्स इंडिया’ के नए एमडी और सीईओ गौरव बनर्जी ने एक्सचेंज4मीडिया के साथ बातचीत में ACC डील और नेटवर्क की भविष्य की योजनाओं पर विस्तार से चर्चा की।
‘सोनी पिक्चर्स नेटवर्क्स इंडिया’ (SPNI) के नए मैनेजिंग डायरेक्टर (MD) व चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर (CEO) गौरव बनर्जी ने पदभार संभालने के बाद करीब तीन महीने में ही कई बड़े और अहम फैसले लिए हैं। इस दौरान सोनी टीवी की कंटेंट स्ट्रैटेजी में बदलाव करके व्युअरशिप (दर्शकों की संख्या) बढ़ाने से लेकर 2024-2031 के लिए ‘एशियन क्रिकेट काउंसिल’ (एसीसी) के मीडिया राइट्स हासिल करने तक उन्होंने कई साहसिक और रणनीतिक कदम उठाए हैं।
‘सोनी पिक्चर्स नेटवर्क्स इंडिया’ का नेतृत्व संभालने के बाद हमारी सहयोगी वेबसाइट 'एक्सचेंज4मीडिया' (e4m) को दिए अपने पहले इंटरव्यू में गौरव बनर्जी ने एसीसी डील और नेटवर्क की भविष्य की योजनाओं पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले तो तीन महीने के सफल कार्यकाल के लिए आपको बधाई। आपके लिए इस सफर में क्या खास बिंदु रहे?
बहुत-बहुत धन्यवाद! यह अनुभव काफी रोमांचक रहा। शुरुआती कुछ हफ्ते मैंने अपनी टीम के साथ समय बिताकर उनकी बातें सुनीं कि क्या चीज़ उन्हें भविष्य को लेकर उत्साहित करती है और किन चीजों को लेकर उनकी चिंताएं हैं। उसके बाद हमने यह तय करना शुरू किया कि हमें आगे कहां जाना है। हमने कुछ शुरुआती सफलता भी हासिल की है, जो हमारे आत्मविश्वास को और बढ़ाती है।
आपने हाल ही में 2024 से 2031 तक के सभी एसीसी टूर्नामेंट्स के एक्सक्लूसिव मीडिया राइट्स हासिल किए हैं। यह स्पोर्ट्स ब्रॉडकास्टिंग के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि है। भारत में सोनी अपने खेल प्रसारण को कैसे विविध बनाएगा और इस विस्तार के दीर्घकालिक लक्ष्य क्या हैं?
सोनी ने भारत की स्पोर्ट्स ब्रॉडकास्टिंग इंडस्ट्री में हमेशा मजबूत भूमिका निभाई है। हम सोनी की मुख्य क्षमताओं को बरकरार रखते हुए चुनिंदा और समझदारी भरे निवेश करेंगे। हमारा उद्देश्य उन खेलों में निवेश करना है, जिन्हें हम इनोवेटिव प्रोडक्ट्स के जरिए विकसित कर सकते हैं, जो प्रशंसकों के लिए आकर्षक हों।
सोनी ने ‘एक्स्ट्रा इनिंग्स’ जैसे इनोवेटिव कॉन्सेप्ट्स की शुरुआत की, जो हमारी ब्रैंड आइडेंटिटी का अभिन्न हिस्सा हैं। 360-डिग्री कवरेज, प्रीमियम कंटेंट और प्रभावी मार्केटिंग में हमारे स्ट्रैटेजिक निवेश हमारी सफलता के मुख्य कारण रहे हैं।
हमारा लक्ष्य इन सिद्धांतों को हर खेल में लागू करना है। खासकर क्रिकेट, जो प्रमुख इवेंट्स के जरिए कई रोमांचक अवसर प्रदान करता है। आगामी भारत-इंग्लैंड टेस्ट सीरीज़ और T20 एशिया कप हमें सोनी की एंटरटेनमेंट और स्पोर्ट्स क्षमताओं को दिखाने का शानदार मौका देंगे।
सोनी द्वारा एसीसी के मीडिया राइट्स हासिल करने में भारी निवेश किया गया है। इन प्रॉपर्टीज से अधिकतम लाभ उठाने, प्रीमियम ब्रैंड्स को आकर्षित करने और निवेश पर मजबूत रिटर्न सुनिश्चित करने के लिए क्या स्ट्रैटेजी है?
हम इस पहल को लेकर बड़ी योजनाएं बना रहे हैं, लेकिन यह कई कारकों पर निर्भर करता है। मुख्य प्रश्न यह है कि हम एक व्यापक पैकेज कैसे तैयार कर सकते हैं, जो ब्रैंड्स को हमारे साथ साझेदारी के लिए प्रेरित करे। इसके लिए हमें इनोवेशन से भरपूर दृष्टिकोण अपनाना होगा और अगले कुछ महीनों में इसे ध्यानपूर्वक तैयार करना होगा।
सौभाग्य से, हमारे पास समय है। अगर हम इसे सही तरीके से लागू करते हैं, तो यह पहल हमारे टॉप लाइन में बड़ा योगदान दे सकती है। इन निवेशों के पीछे हमारा विश्वास है कि ब्रैंडिंग और स्पोर्ट्स में अपने अनुभव के साथ हम बहुत ज्यादा व्यूअरशिप नंबर हासिल कर सकते हैं। क्रिकेट का दायरा सही तरीके से पेश करने पर खास होता है, और हम इसे पूरी क्षमता से इस्तेमाल करना चाहते हैं।
ACC के मीडिया राइट्स में भारत-पाकिस्तान मैच जैसे हाई-प्रोफाइल मुकाबले शामिल हैं। इन खास मैचों से व्युअरशिप, लोगों का जुड़ाव और ज्यादा से ज्यादा ऐडवर्टाइजिंग रेवेन्यू जुटाने के लिए सोनी की योजना क्या है?
पिछले दो वर्षों के आंकड़ों को देखें तो भारत-पाकिस्तान मैचों के अलावा सबसे ज्यादा रेटिंग्स भारत के ग्लोबल टूर्नामेंट फाइनल्स से आती हैं। उपभोक्ता दृष्टिकोण से देखें तो इन मैचों की मांग शानदार है और डेटा से इसे आसानी से समझा जा सकता है। हमारी ज़िम्मेदारी है कि प्रशंसकों को इन आयोजनों के बारे में पूरी तरह से जागरूक किया जाए और उनका उत्साह बढ़ाया जाए।
इसके अलावा, नए खिलाड़ियों का उदय और मैच-अप्स दर्शकों को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, यह पहली बार हो सकता है कि यशस्वी जयसवाल जैसे नए सितारे शाहीन अफरीदी के खिलाफ खेलें। इस ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्विता की यही खूबी है।
एक क्रिकेट प्रशंसक के रूप में, मेरी सबसे अच्छी यादें कुछ ऐतिहासिक मुकाबलों से जुड़ी हैं। जैसे, सचिन तेंदुलकर बनाम वसीम अकरम और वकार यूनिस, सुनील गावस्कर बनाम इमरान खान और हाल ही में विराट कोहली बनाम हारिस रऊफ। ऐसे मैच-अप्स प्रशंसकों को सबसे ज्यादा रोमांचित करते हैं। सही खिलाड़ियों और मुकाबलों की पहचान करना दर्शकों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
हम थोड़े समय के अंतराल के बाद एलीट क्रिकेट प्रसारण में लौट रहे हैं, जिससे सोनी की पूरी टीम बेहद उत्साहित है। व्यक्तिगत रूप से, यह मेरे लिए भी पहला मौका है। मैं आशावादी हूं कि हम कुछ नए और इनोवेटिव विचार लेकर आएंगे, जो प्रशंसकों के अनुभव को बढ़ाएंगे और इसे अविस्मरणीय बनाएंगे।
यह डील 2031 तक जारी रहेगी। एसीसी डील के साथ सोनी के दीर्घकालिक लक्ष्य और लाभ क्या हैं?
हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने पार्टनर्स और दर्शकों को यह दिखा सकें कि क्रिकेट हमारे टेलीविजन और डिजिटल प्लेटफॉर्म दोनों का अभिन्न हिस्सा है। इस डील के जरिए हम इसे पूरी मजबूती के साथ साबित कर सकते हैं।
हमने अब इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड, श्रीलंका और एसीसी के क्रिकेट राइट्स हासिल किए हैं, जिससे हम अगले आठ वर्षों तक भारतीय टीम के बड़े क्रिकेट इवेंट्स का प्रसारण कर सकते हैं। यह निरंतरता इस डील की एक बड़ी उपलब्धि है, और हम इससे बेहद संतुष्ट हैं।
हमारा लक्ष्य ऐसा नेटवर्क बनना है, जहां क्रिकेट के सबसे प्रतिष्ठित और रोमांचक पल बनते और दिखाए जाते हैं। भारत-पाकिस्तान मैच एक बड़ी खासियत है, लेकिन हम अन्य प्रतिद्वंद्विताओं को लेकर भी उत्साहित हैं, जैसे बांग्लादेश और उभरती हुई पावरहाउस टीम अफगानिस्तान। ये मैच और खिलाड़ी क्रिकेट प्रशंसकों के लिए बेहद आकर्षक हैं और हम इन रोमांचक क्षणों को जीवंत बनाने का प्रयास करेंगे।
क्या क्रिकेट के अलावा अन्य स्पोर्ट्स कैटेगरी में विस्तार की योजना है?
क्रिकेट के अलावा हमारा यूरोपीय फुटबॉल में मजबूत स्थान है। हमने हाल ही में यूरो चैंपियनशिप का आयोजन किया था। इसके साथ ही, हम तीन ग्रैंड स्लैम टेनिस टूर्नामेंट्स का भी सफलतापूर्वक प्रसारण करते हैं। ये क्षेत्र पहले से ही हमारी ताकत हैं और हम भविष्य में अपने खेल पोर्टफोलियो को और बढ़ाने के अवसर तलाशते रहेंगे।
एसीसी डील से जुड़ी सोनी के खेल पहल की चर्चा हो रही है। इसके अलावा नेटवर्क एंटरटेनमेंट पर कैसे ध्यान दे रहा है? सोनी के एंटरटेनमेंट पोर्टफोलियो को आकार देने वाले प्रमुख विकास या पहल कौन सी हैं?
पिछले चार-पांच महीनों में हमने अपने चैनल की ग्रोथ 60 प्रतिशत से अधिक दर्ज की है। मुझे विश्वास है कि हम इस ग्रोथ को और बढ़ा सकते हैं। इसका एक प्रमुख कारण है सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन का मुख्य पहचान पर कायम रहना। यह चैनल अपने अलग तरह के कंटेंट और देश के कुछ सबसे प्रतिष्ठित नॉन-फिक्शन ब्रैंड्स के लिए जाना जाता है।
इस साल की सफलता में कौन बनेगा करोड़पति (KBC) और इंडियन आइडल का बड़ा योगदान रहा है। इंडियन आइडल ने 1.5 TVR के साथ डेब्यू किया और उस हफ्ते हिंदी का नंबर वन नॉन-फिक्शन शो बन गया। इस सीज़न का प्रदर्शन पिछले सीज़न की तुलना में काफी बेहतर है।
इस बार हमारा ध्यान केवल उच्च गुणवत्ता वाली गायन प्रतिभा को सामने लाने पर रहा। इस दृष्टिकोण को दर्शकों ने काफी पसंद किया है और मुझे व्यक्तिगत रूप से इस दिशा में उठाए गए कदमों पर गर्व है।
इस सफलता का श्रेय हमारी टीम और पार्टनर्स को जाता है, जिन्होंने शानदार काम किया है। मेरी यही गुजारिश होगी कि आप इंडियन आइडल और हमारे एंटरटेनमेंट पोर्टफोलियो में हो रहे व्यापक विकास पर नजर बनाए रखें।
‘सीआईडी’ (CID) शो की वापसी को लेकर काफी चर्चा है। इसे वापस लाने को लेकर आप कितने उत्साहित हैं?
यह हमारे लिए बेहद गर्व का विषय है, खासकर जब यह छह साल के अंतराल के बाद वापस आ रहा है। पहले और दूसरे प्रोमो को लेकर मिली प्रतिक्रिया जबरदस्त रही है। जब हमारे प्रतिष्ठित निर्माता बीपी सिंह ने पहला शॉट लिया तो हर किसी को रोंगटे खड़े हो गए।
यह रिवाइवल खास है, क्योंकि इसमें ओरिजिनल क्रिएटर्स और कास्ट वापस आ रहे हैं। यह एक ऐसा प्रोजेक्ट है जिसे लेकर हम बेहद उत्साहित हैं और इसे दर्शकों तक पहुंचाने का हमें बेसब्री से इंतजार है।
तीन महीनों में आपने सोनी की रेटिंग्स में सुधार के लिए कई बड़े बदलाव किए हैं। अगले साल के लिए आपकी मुख्य प्राथमिकताएं क्या होंगी?
हमारे पास आगे बढ़ने का लंबा रास्ता है, और हमें भविष्य को लेकर काफी उत्साह है। हम अपने हर बिजनेस क्षेत्र में क्रिएटिविटी का उपयोग करना चाहते हैं। सोनी एक शक्तिशाली ब्रैंड है और इसे नवाचार का नेतृत्व करना चाहिए। हम भारत की आज की कहानी को दर्शाने वाली दमदार कहानियां सुनाना चाहते हैं। यह रचनात्मक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से हमारे सभी पार्टनर्स के लिए एक रोमांचक स्थान होगा।
(नोट: मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए इस इंटरव्यू को आप यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं।)
ग्लोबल प्रोफेशनल दुनिया में कंटेंट, संवाद और प्रभाव की दिशा किस ओर जा रही है? इस सवाल का उत्तर तलाशने के लिए हमें झांकना पड़ता है लिंक्डइन के एडिटर-इन-चीफ डेनियल रोथ की सोच में
ग्लोबल प्रोफेशनल दुनिया में कंटेंट, संवाद और प्रभाव की दिशा किस ओर जा रही है? इस सवाल का उत्तर तलाशने के लिए हमें झांकना पड़ता है लिंक्डइन के एडिटर-इन-चीफ डेनियल रोथ की सोच में, जो इस प्लेटफॉर्म को केवल एक नेटवर्किंग साइट नहीं, बल्कि एक जीवंत और सतत विकसित होती एडिटोरियल इकोसिस्टम में तब्दील कर रहे हैं।
एक्सचेंज4मीडिया में मार्टेक (MarTech) प्लेटफॉर्म के एडिटोरियल लीड बृज पहवा के साथ डेनियल रोथ ने विशेष बातचीत में विस्तार से बताया कि एल्गोरिदम आधारित इस दौर में एडिटोरियल जिम्मेदारी का क्या मतलब है, कैसे लिंक्डइन वैश्विक बिजनेस और वर्क ट्रेंड्स को दिशा दे रहा है और क्यों आज के CMO को कंटेंट का अगुआ भी बनना पड़ेगा। वह यह भी साझा करते हैं कि जनरेटिव AI के बढ़ते प्रभाव के बीच पत्रकारों और संपादकों की भूमिका कैसे बदल रही है, और लिंक्डइन किस तरह अपनी न्यूज टीम के जरिए न केवल प्रोफेशनल्स को जोड़ रहा है, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखा रहा है।
डेनियल रोथ का यह इंटरव्यू, आज की बदलती कार्य-संस्कृति, थॉट लीडरशिप की नई परिभाषा और डिजिटल संवाद के भविष्य की गहराई से पड़ताल करता है।
यहां पढ़िए पूरा इंटरव्यू-
आप एक ऐसे प्लेटफ़ॉर्म के एडिटर-इन-चीफ़ हैं जो सोशल मीडिया, प्रोफेशनल नेटवर्किंग और पत्रकारिता तीनों का मेल है। ऐसे में आज के एल्गोरिदम-आधारित (algorithm-driven) दौर में आप 'संपादकीय जिम्मेदारी' को कैसे परिभाषित करते हैं?
हमारी संपादकीय टीम का लक्ष्य प्रोफेशनल खबरें और जानकारियों पर होने वाली चर्चाओं को दिशा देना है और अपने सदस्यों को ऐसे उपकरण उपलब्ध कराना है जिससे वे दुनियाभर में विशेषज्ञता को खोज और साझा कर सकें। मेरी टीम के काम का एक बड़ा हिस्सा यह है कि हम अपने सदस्यों को ऐसा मौलिक कंटेंट तैयार करने के लिए प्रेरित करें जो पूरी कम्युनिटी के लिए अर्थपूर्ण और आकर्षक हो।
दिन के अंत में, संपादकीय जिम्मेदारी भरोसे से जुड़ी होती है। यह केवल लोगों तक खबर पहुंचाने का काम नहीं है। यह लोगों को ऐसे विचारों, प्रेरणा और जानकारी से जोड़ने का माध्यम है जो उनके प्रोफेशनल जीवन में उन्हें सफलता दिला सके। हमारा मानना है कि दुनियाभर का प्रोफेशनल ज्ञान लोगों के भीतर है — हमें केवल यह करना है कि उन्हें अपनी बात बाहर लाने और साझा करने में मदद करें। हमारी टीम दुनियाभर में काम कर रही है ताकि ऐसे इनसाइट्स सामने ला सकें जो लोगों को अपने कौशल बढ़ाने, अपडेटेड रहने और महत्वपूर्ण चर्चाओं में अपनी आवाज जोड़ने में मदद करें।
LinkedIn आज की वैश्विक कार्य-संस्कृति (global work culture) का एक अहम हिस्सा बन चुका है। ऐसे में आप कैसे तय करते हैं कि कौन-सी व्यावसायिक, आर्थिक और सामाजिक कहानियां वैश्विक स्तर पर संपादकीय ध्यान पाने लायक हैं? और जब किसी खबर को कवर करने या LinkedIn के ग्रोथ व प्रोडक्ट से जुड़ी सामग्री को प्राथमिकता देने की बात आती है, तो उसके बीच संतुलन कैसे बनाते हैं? आपके संपादकीय निर्णय लेने की प्रक्रिया क्या है?"
हमारी रणनीति सुनने और साझेदारी की है। ‘सुनने’ की बात करें तो हमें यह सौभाग्य प्राप्त है कि हम देख सकते हैं कि किस तरह की बातचीत चल रही है- लोग किन विषयों पर कमेंट कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं, कौन से टॉपिक किस देश या शहर में लोगों के साथ गूंज रहे हैं। फिर हम यह सुनिश्चित करते हैं कि इन विषयों पर सही आवाजें सामने आएं। इसका मतलब है कि हम क्रिएटर्स और पब्लिशर्स के साथ मिलकर काम करते हैं, उन्हें बताते हैं कि क्या ट्रेंड कर रहा है और उनकी बात कहां सबसे ज्यादा असर करेगी। यह सब हर दिन बदलता रहता है, इसलिए लगातार Teams, ईमेल, फोन, और आमने-सामने बातचीत होती रहती है। हम विषय विशेषज्ञों को वहां ले जाने की कोशिश करते हैं जहां उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि हमारी टीम की किसी भी भूमिका के बिना ज्यादातर चर्चाएं अपने आप होती हैं। प्रोफेशनल लोग कामकाज की दुनिया में जो बदलाव देख रहे हैं, उस पर व्यापक और विशिष्ट चर्चाएं करते हैं। हमारा काम बस इतना है कि हम नई आवाजें जोड़ते रहें और चर्चाओं को आगे बढ़ाते रहें।
जहां तक न्यूज कवरेज का सवाल है: कुछ ऐसे विषय होते हैं जो हर प्रोफेशनल को जानने चाहिए, चाहे वे किसी भी इंडस्ट्री में हों। हम उन पर ध्यान देते हैं: जैसे प्रमुख ट्रेंड्स या अधिग्रहण, अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव, नौकरी में अहम फेरबदल — कोई भी ऐसी बात जो कंपनियों या अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिक्रिया को बदल सकती है। उदाहरण के लिए, अदानी एंटरप्राइजेज द्वारा अपने ऑपरेशनल टेक्नोलॉजी साइबरसिक्योरिटी बिजनेस के लिए बर्गेस कूपर की सीईओ के रूप में नियुक्ति या लार्सन एंड टुब्रो द्वारा गुजरात में अपनी इंजीनियरिंग सुविधाओं का विस्तार। हम उन इंडस्ट्रीज को भी कवर करते हैं जो किसी देश की जीडीपी में बड़ी भूमिका निभाती हैं या कई क्षेत्रों पर अधिक प्रभाव डालती हैं। हम अपने सदस्यों को यह दिखाकर अपडेटेड रखना चाहते हैं कि इंडस्ट्री का मूवमेंट कहां है और अगला अवसर कहां पैदा हो सकता है।
हमारा संपादकीय इकोसिस्टम भी अब इस तरह विकसित हुआ है कि हम अपने सदस्यों को वहीं मिलते हैं जहां वे हैं — न्यूज को फ़ीड में दिखाने से लेकर मूल पॉडकास्ट, लाइव कार्यक्रम, और The Path या This is Working जैसी सीरीज तैयार करने तक। हम नेतृत्व और व्यापार से जुड़ी खबरों पर भी नजर रखते हैं जो इनोवेशन, कार्यबल प्राथमिकताओं और आर्थिक परिवर्तन जैसे व्यापक संकेतों को दर्शाती हैं और हमारे सदस्यों को श्रम बाजार के बदलावों से जोड़े रखती हैं।
जब आपकी एडिटोरियल टीम किसी विचारशील लीडर की बातों को आगे बढ़ाती है या उन्हें प्रमुखता देती है, तो आप यह कैसे सुनिश्चित करते हैं कि इसमें निष्पक्षता और संतुलन बना रहे?
हम शीर्षक पर नहीं, इनसाइट पर ध्यान देते हैं। हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई व्यक्ति ऐसा दृष्टिकोण दे रहा है या नहीं जो प्रोफेशनल समुदाय की मदद कर सके, न कि वह किस कंपनी से है या उसके कितने फॉलोअर्स हैं।
एक दिलचस्प ट्रेंड जो हम देख रहे हैं वह यह है कि लीडर्स अब लिंक्डइन पर वास्तविक कहानियां साझा कर रहे हैं — यह बताते हुए कि उन्होंने कौन-से फैसले क्यों लिए और कैसे लिए। चाहे वह कोई सीईओ हो जो नेतृत्व में किए बदलाव को समझा रहा हो, या कोई जनरेशन Z का कर्मचारी जो अपने काम का दिन दिखा रहा हो — जो बात लोगों तक पहुंचती है वह है ईमानदारी, विशेषज्ञता और प्रासंगिकता।
क्या LinkedIn की संपादकीय नेतृत्व (editorial leadership) वास्तव में असली दुनिया की आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित कर सकती है- जैसे कि नौकरियों के ट्रेंड्स बनाना, हायरिंग की नीतियों को दिशा देना या छंटनी को लेकर लोगों की सोच को प्रभावित करना? और आप LinkedIn News की क्या भूमिका देखते हैं वैश्विक वर्क कल्चर के भविष्य में, खासकर तब जब बड़े बदलाव हो रहे हैं जैसे कि रिमोट वर्क का चलन, फ्रीलांस इकॉनॉमी का बढ़ना, और जनरेटिव AI जैसे तकनीकी टूल्स का असर?
काम करने का तरीका बहुत तेजी से बदल रहा है। कहां से काम किया जा रहा है, कैसे किया जा रहा है और AI कैसे हमारी नौकरियों को बदल रहा है। कंपनियां तेजी से इनोवेशन और ग्रोथ के लिए आगे बढ़ रही हैं — और प्रोफेशनलों को भी उतनी ही तेजी से खुद को ढालना पड़ रहा है। ऐसे बदलावों के दौर में, भरोसेमंद मार्गदर्शन ही सबसे बड़ा अंतर लाएगा।
यह बात हमारे डेटा में भी दिखाई देती है — 90% प्रोफेशनलों को पहले से कहीं ज्यादा मार्गदर्शन की जरूरत है ताकि वे अपने करियर में आगे बने रह सकें, और लगभग 80% पहले ही लीडर्स और सहकर्मियों से सलाह ले रहे हैं। भारत में C-सूट एग्जीक्यूटिव्स अब AI लिटरेसी से जुड़ी स्किल्स जैसे कि प्रॉम्प्ट इंजीनियरिंग और जेनरेटिव AI को अपने प्रोफाइल में शामिल करने की संभावना दो साल पहले की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा है। वे व्यापक कार्यबल की तुलना में 1.2 गुना अधिक AI fluency भी प्रदर्शित कर रहे हैं, हालांकि कई लोग इन टूल्स के साथ आत्मविश्वास अभी भी बना रहे हैं।
यहीं हमारी भूमिका सबसे खास बनती है। हम अपने प्लेटफॉर्म को एक ऐसे वर्कप्लेस की गलियारों की तरह देखते हैं — जहां ईमानदार, वास्तविक और प्रासंगिक प्रोफेशनल बातचीत होती है। आज जो कुछ भी कामकाज की दुनिया में घट रहा है, उसकी शुरुआत या तो लिंक्डइन पर होती है या वह यहां तक पहुंचता है। इस प्रोफेशनल इकोसिस्टम को ज्ञान साझा करने के लिए केंद्र में रखकर, हम लोगों को अधिक उत्पादक, सफल और प्रेरित बनने में मदद कर सकते हैं — और इसी के जरिए अधिक अवसरों के द्वार भी खुल सकते हैं।
क्या आपको लगता है कि आने वाले वक्त में मार्केटिंग प्रमुख (CMO) को अपने साथ कंटेंट की जिम्मेदारी भी संभालनी पड़ेगी, यानी उन्हें एक ‘चीफ कंटेंट ऑफिसर’ की भूमिका भी निभानी होगी? क्योंकि LinkedIn पर थॉट लीडरशिप का रास्ता साफ दिख रहा है, ऐसे में मार्केटिंग का काम और कैसे बदल रहा है?
हमें केवल CMO के ग्रोथ की बात नहीं करनी चाहिए — इससे कहीं बड़ी एक रचनात्मक और रणनीतिक बदलाव की लहर चल रही है कि C-सूट अब संवाद कैसे करता है। लिंक्डइन अब नेताओं के लिए सबसे पसंदीदा चैनल बन गया है — वे यहीं पर खबरें ब्रेक कर रहे हैं, फैसलों को समझा रहे हैं और सीधे तौर पर कर्मचारियों, ग्राहकों और निवेशकों से जुड़ रहे हैं।
हमने देखा है कि बीते दो वर्षों में लिंक्डइन पर मुख्य कार्यपालक अधिकारियों (chief executives) के पोस्ट्स में 52% की बढ़ोतरी हुई है। हमारे डेटा के मुताबिक, CEO द्वारा किए गए पोस्ट्स को 7 गुना ज्यादा इंप्रेशंस और 4 गुना ज्यादा एंगेजमेंट मिलता है — यह साबित करता है कि वास्तविक और प्रामाणिक विचार-नेतृत्व की जबरदस्त मांग है। यह ट्रेंड अब बाकी विभागों में भी फैल रहा है, और कई C-सूट लीडर्स अपने दर्शकों और उद्योग के साथ सीधे जुड़ रहे हैं।
CMOs इस बदलाव में निर्णायक और अत्यंत प्रभावशाली भूमिका निभाएंगे, अपने संगठनों के लिए विचार नेतृत्व की रणनीति को आकार देने में।
आज के समय में एक LinkedIn न्यूजलेटर को सफल क्या बनाता है? जब इतने सारे ब्रैंड इस न्यूजलेटर स्पेस में आ गए हैं, तो अब भी कौन सी चीज सबसे ज्यादा असर छोड़ती है?
न्यूजलेटर्स आज भी एक मूल्यवान माध्यम हैं, खासकर उनके लिए जो समुदाय बनाना चाहते हैं और लगातार मूल्यवान जानकारी साझा करना चाहते हैं। सदस्यों और लीडर्स द्वारा लिखी गई न्यूजलेटर्स के अलावा, हमारे कई एडिटर्स भी अपनी न्यूजलेटर्स से सब्सक्राइबर्स को लगातार जोड़कर रखते हैं। उदाहरण के लिए, LinkedIn एडिटर तान्या दुआ द्वारा लिखी गई Tech Stack नॉन-टेक्निकल पाठकों के लिए AI और टेक ट्रेंड्स को सरल बनाती है, वहीं Get Hired न्यूजलेटर (एंड्रयू सीमैन द्वारा) लोगों को अपनी अगली नौकरी पाने में मदद करता है।
हमारे प्लेटफॉर्म पर अब तक कुल 938 मिलियन से ज्यादा न्यूजलेटर सब्सक्रिप्शन हो चुके हैं।
आप हमारी Newsletter best practices को देख सकते हैं, जहां आपको स्वरूप और सुझावों से जुड़ी और जानकारी मिलेगी।
जब ChatGPT जैसे AI टूल बड़ी मात्रा में कंटेंट लिख पा रहे हैं, तो ऐसे में आप संपादकों और पत्रकारों की भूमिका को आगे कैसे बदलते हुए देखते हैं?
हम काम के हर क्षेत्र में AI के भविष्य को लेकर उत्साहित हैं, और हमने इसे अपनी संपादकीय प्रक्रिया में भी शामिल किया है — फिलहाल इसका इस्तेमाल मुख्यतः टीम के कामकाज को और कुशल बनाने के लिए हो रहा है। AI के एक शक्तिशाली सक्षमकर्ता के रूप में उभरने के साथ, अब एडिटर्स और पत्रकार प्रॉम्प्ट इंजीनियर्स की भूमिका निभा रहे हैं। हम AI का उपयोग इनसाइट्स खोजने, डेटा की पुष्टि करने और नए विचार उत्पन्न करने के लिए कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए, हमारे LinkedIn Lists तैयार करने के लिए पहले 500 घंटे का रिसर्च करना पड़ता था, लेकिन अब AI की मदद से यही काम केवल 2 घंटे में हो जाता है। इसके बावजूद, मानवीय निर्णय, कहानी कहने की क्षमता और पत्रकारिता की सूझबूझ अभी भी हमारी प्रक्रिया में केंद्र में हैं और भविष्य में पत्रकारिता की भूमिका और भी महत्वपूर्ण होती जाएगी।
अनुज सिंघल, जो CNBC-आवाज और CNBC-बाजार के मैनेजिंग एडिटर हैं, पिछले बीस साल से भारत में फाइनेंशियल जर्नलिज्म की जटिल दुनिया को समझते और समझाते आ रहे हैं।
रुहैल अमीन, सीनियर स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।
अनुज सिंघल, जो CNBC-आवाज और CNBC-बाजार के मैनेजिंग एडिटर हैं, पिछले बीस साल से भारत में फाइनेंशियल जर्नलिज्म की जटिल दुनिया को समझते और समझाते आ रहे हैं। "e4m Headline Makers" सीरीज में एक बेबाक बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि आज की तेज रफ्तार मीडिया में सटीकता और स्पीड के बीच संतुलन कैसे बनाए रखते हैं, अलग-अलग दर्शकों के लिए वित्तीय बाजारों को कैसे सरलता से समझाते हैं और डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को किस तरह देखते हैं। उनकी बातचीत इस बात पर गहराई से सोचने का मौका देती है कि पुरानी मीडिया संस्थाएं डिजिटल दौर में कैसे अपनी अहमियत बनाए रख सकती हैं।
पढ़िए, बातचीत के मुख्य अंश:
फाइनेंशियल जर्नलिज्म में सटीकता और तुरंत विश्लेषण- दोनों की जरूरत होती है। आज की तेज रफ्तार खबरों की दुनिया में आप इस संतुलन को कैसे बनाए रखते हैं?
यही हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। जब मैंने 2003 में शुरुआत की थी, तब सिर्फ एक बिजनेस चैनल था और खबर दिखाने से पहले उसे अच्छे से जांचने का समय होता था। अब बहुत सारे बिजनेस और डिजिटल चैनल एक-दूसरे से पहले खबर देने की दौड़ में हैं, तो रफ्तार बेहद जरूरी हो गई है। फिर भी हमारे लिए सबसे अहम चीज है–सटीकता। हम हमेशा भरोसेमंद स्रोतों से मिली पुष्टि की गई खबर को ही प्राथमिकता देते हैं, खासकर एक्सचेंज से जुड़ी खबरों को, जिन्हें हम तुरंत और सही तरीके से दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन यदि खबर WhatsApp या Twitter जैसे अनौपचारिक चैनलों से आती है, तो हम बहुत सतर्क रहते हैं–पहले पुष्टि करते हैं, चाहे हमें खबर दिखाने में देर ही क्यों न हो जाए।
CNBC Awaaz मुख्य रूप से हिंदी बोलने वाले रिटेल निवेशकों और व्यापारियों के लिए है। आप जटिल फाइनेंशियल कॉन्सेप्ट को कैसे आसान बनाते हैं, बिना उसकी गहराई खोए?
हमारा एक सीधा-सा सिद्धांत है- क्या हमारी मां यह समझ पाएंगी? यदि कोई चीज हमें खुद जटिल लगे, तो हम उसे दोबारा सोचते हैं। हम जानबूझकर तकनीकी शब्दों को सरल करते हैं और यह नहीं मानते कि दर्शक सब कुछ पहले से जानते हैं। जैसे CASA (करंट और सेविंग्स अकाउंट) जैसा शब्द भी हर कोई नहीं समझता, तो हम पूरी तरह से स्पष्टता रखते हैं। हमारा मकसद है हर किसी तक पहुंचना- न सिर्फ अनुभवी निवेशक, बल्कि नए लोग, महिला निवेशक और वो युवा जो अभी मार्केट में आ रहे हैं।
जब YouTube और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर का असर बढ़ रहा है, तब पुराने फाइनेंशियल न्यूज चैनल अपनी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता कैसे बनाए रखते हैं?
लगातार खुद को नया करना बहुत जरूरी रहा है। डिजिटल बदलाव को समय पर समझते हुए हमने YouTube, Instagram, Twitter और Facebook पर अपनी मौजूदगी को तेजी से बढ़ाया। आज, सोशल मीडिया के ज्यादातर पैमानों पर CNBC Awaaz टॉप बिजनेस चैनल है। मेरी अपनी डिजिटल मौजूदगी, खासकर Instagram Reels के जरिए, काफ़ी बढ़ी है जिससे मैं सीधे युवा दर्शकों से जुड़ पाता हूं। यही डिजिटल रुख हमें छोटे-छोटे फॉर्मेट में आने वाले कंटेंट की भीड़ में भी प्रासंगिक और भरोसेमंद बनाए रखता है।
खासकर मोबाइल-फर्स्ट और युवा दर्शकों में आपने क्या बड़ा बदलाव देखा है?
सबसे बड़ा बदलाव निवेश की सोच में आया है। पहले लोग 'लॉन्ग टर्म' निवेश का मतलब कई साल मानते थे, अब वो एक ट्रेडिंग डे भी नहीं होता। इस बदलाव में 24x7 लाइव मार्केट कवरेज की बड़ी भूमिका है। इसी वजह से अब हमें दर्शकों को जिम्मेदारी के साथ निवेश करने के लिए प्रेरित करना पड़ता है। COVID-19 के बाद नए निवेशकों की बड़ी संख्या आई है, जिससे उनकी उम्मीदें भी बदल गई हैं—तेज, लेकिन सटीक विश्लेषण की जरूरत अब ज्यादा है।
बजट या RBI पॉलिसी जैसे बड़े वित्तीय इवेंट्स के लिए एडिटोरियल प्लानिंग कैसे होती है?
ऐसी कवरेज के लिए गहराई से तैयारी की जाती है। बजट के लिए प्लानिंग तीन महीने पहले से शुरू हो जाती है। हम एक्सपर्ट पैनल, जूरी डिस्कशन और खास प्रोग्रामिंग को बारीकी से प्लान करते हैं, ताकि बजट वाले दिन किसी भी स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार रहें। RBI पॉलिसी कवरेज के लिए भी ऐसे ही तैयारियां होती हैं, जिसमें खास तौर पर ऐसे समय में लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टमेंट की सोच को जोर दिया जाता है, जब मार्केट में हलचल हो।
जब कंटेंट एल्गोरिदम से तय हो रहा है, तब न्यूजरूम में एडिटोरियल जजमेंट की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
AI का आना अब टालना मुश्किल है। CNBC-Awaaz में हम इसे अपनाने में पीछे नहीं हैं—AI के जरिए कंटेंट डिलीवरी और एनालिसिस बेहतर किया जा रहा है। लेकिन एडिटोरियल जजमेंट अब भी बेहद अहम है। एडिटर का काम अब AI के साथ मिलकर काम करने का है, मुकाबला करने का नहीं। यदि AI को अपनाने में देरी करेंगे तो पीछे छूट सकते हैं, इसलिए बदलाव के साथ चलना और उसे अपनी ताकत बनाना जरूरी है।
क्या पारंपरिक पत्रकारिता की पढ़ाई और आज के फाइनेंशियल न्यूजरूम की जरूरतों के बीच कोई स्किल गैप है?
मेरे लिए फॉर्मल जर्नलिज्म की डिग्री कोई बड़ी प्राथमिकता नहीं है। मैं ऐसे लोगों को देखता हूं जो लाइव न्यूजरूम के दबाव में भी अच्छा काम कर सकें, टीम के साथ मिलकर चल सकें और बदलती स्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकें। आज की मीडिया की दुनिया में असली स्किल्स, डिग्री से ज्यादा मायने रखते हैं।
टीवी पत्रकारिता को हमेशा हाई-प्रेशर जॉब माना जाता है। इतने लंबे करियर में आपने बर्नआउट से कैसे बचाव किया?
मेरी दिनचर्या में साफ़ सीमाएं तय हैं—मैं दिन की शुरुआत जल्दी करता हूं, लेकिन वर्क-लाइफ बैलेंस पर पूरा ध्यान रहता है। मैं जिम्मेदारियां बांटता हूं, अपनी टीम पर भरोसा करता हूं, जिससे थकावट नहीं आती। मेरे लिए बर्नआउट की पहचान आसान है—यदि सुबह का अनुशासित रूटीन ढीला पड़ने लगे, तो समझ जाता हूं कि कुछ बदलने की जरूरत है। अभी तक ये संतुलन मुझे मोटिवेटेड बनाए रखता है।
फाइनेंशियल जर्नलिज्म को आगे प्रासंगिक और असरदार बने रहने के लिए कौन-सी रणनीतियां अपनानी चाहिए?
डिजिटल-फर्स्ट अप्रोच और लगातार इनोवेशन अब जरूरी हो गया है। पुराने फॉर्मेट अब काफी नहीं हैं। आज जर्नलिस्ट को एक साथ कई डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दर्शकों से जुड़ना आता हो। इसके अलावा, AI को अपनाना भी जरूरी है ताकि कंटेंट और ऑपरेशंस दोनों में सुधार हो सके। फाइनेंशियल जर्नलिज्म को लगातार खुद को रीडिजाइन करते रहना होगा ताकि वो न सिर्फ दर्शकों की बदलती पसंद के साथ चले, बल्कि तकनीकी बदलावों से भी कदम से कदम मिला सके।
वरिष्ठ पत्रकार व बिजनेस स्टैंडर्ड के एडिटोरियल डायरेक्टर ए.के. भट्टाचार्य से संपादक पंकज शर्मा ने उनके अनुभवों, बिजनेस पत्रकारिता में आ रहे परिवर्तनों, चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की।
वरिष्ठ पत्रकार व बिजनेस स्टैंडर्ड के एडिटोरियल डायरेक्टर ए.के. भट्टाचार्य ने चार दशकों से अधिक के अपने पत्रकारिता अनुभव में भारतीय मीडिया, खासकर बिजनेस जर्नलिज्म में आए बड़े बदलावों को करीब से देखा और जिया है। समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा ने उनके अनुभवों, बिजनेस पत्रकारिता में आ रहे परिवर्तनों, चुनौतियों और नए पत्रकारों के लिए जरूरी कौशल पर विस्तार से चर्चा की। यहां पढ़िए बातचीत के प्रमुख अंश
सबसे पहले आप अपने शुरुआती सफर के बारे में बताइए। पत्रकारिता में आने से पहले किन अनुभवों से आप गुजरे?
शुरुआत में मैंने एक साल अध्यापन का काम किया। उस समय 1977 के दशक में नौकरियों के विकल्प सीमित थे – या तो सिविल सर्विस, टीचिंग या फिर पत्रकारिता। चूंकि मेरी रुचि अध्यापन में ज्यादा नहीं थी, इसलिए मैंने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में पत्रकारिता शुरू की। फिर फाइनेंशियल एक्सप्रेस, इकोनॉमिक टाइम्स और पायनियर जैसे संस्थानों में काम किया और अब बिजनेस स्टैंडर्ड में हूं। इतने वर्षों में पत्रकारिता का आकर्षण कभी कम नहीं हुआ।
बिजनेस जर्नलिज्म में आपने इतने सालों में क्या बड़े बदलाव देखे हैं?
जब मैंने करियर शुरू किया था, बिजनेस पत्रकारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। उनके लिए छोटे कॉलम होते थे। लेकिन उदारीकरण के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था खुली और बिजनेस जर्नलिज्म का दायरा तेजी से बढ़ा। अब स्टॉक मार्केट, कॉरपोरेट्स और पॉलिसी कवरेज का महत्व बहुत बढ़ चुका है। साथ ही, आज के बिजनेस जर्नलिस्ट को ज्यादा टेक्निकल स्किल्स और गहरी समझ की जरूरत है।
आज कंटेंट की भरमार है। ऐसे में हाई-क्वालिटी और विश्वसनीय बिजनेस कंटेंट तैयार करने की क्या चुनौतियां हैं?
आज सबसे बड़ी चुनौती है कि पाठकों को साधारण खबरों से अलग कुछ ऐसा दिया जाए जो उनकी समझ को बेहतर बनाए। कंटेंट तो हर जगह उपलब्ध है, फर्क हमारी एनालिटिकल क्षमता से पड़ता है। एक बिजनेस जर्नलिस्ट को डाटा को समझना और उसे संदर्भ के साथ सरल भाषा में पेश करना आना चाहिए।
ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने से बिजनेस पत्रकारिता में क्या बदलाव आ रहे हैं?
मैं इसे चुनौती नहीं बल्कि अवसर मानता हूं। जैसे टाइपराइटर से कंप्यूटर आने पर मेंटल डिसिप्लिन बदली थी, वैसे ही एआई से एडिटिंग और बेसिक काम आसान होंगे। इसका सही इस्तेमाल कर हम और भी गुणवत्तापूर्ण एडिटिंग और एनालिसिस कर सकते हैं। हालांकि, चेक्स एंड बैलेंस बहुत जरूरी रहेंगे।
आप लंबे समय से "Raisina Hill" कॉलम लिख रहे हैं। इसके बारे में कुछ बताइए।
"Raisina Hill" कॉलम का मकसद सरकारी नीतियों और आर्थिक फैसलों का विश्लेषण करना है। इसकी शुरुआत मैंने करीब 1990 में की थी। तब से हर पखवाड़े मैं सरकार के निर्णयों और उनके असर पर लिखता हूं। इसका उद्देश्य नीतिगत फैसलों के पीछे के आर्थिक तर्क और उनके समाज पर प्रभाव को समझाना है।
आपने 'The Rise of the Goliath' और 'India’s Finance Ministers' जैसी किताबें लिखी हैं। इनके पीछे क्या प्रेरणा रही?
'The Rise of the Goliath' में मैंने 1947 से लेकर 2016 तक भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर बड़े-बड़े डिसरप्शन (जैसे डिमोनेटाइजेशन, टेलीकॉम रेवोल्यूशन) का असर दिखाने की कोशिश की है। वहीं 'India’s Finance Ministers' श्रृंखला में वित्त मंत्रियों के नजरिए से भारतीय आर्थिक नीतियों के विकास का अध्ययन किया है। तीसरा वॉल्यूम जल्द आने वाला है।
2025 में मीडिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती और अवसर क्या हैं?
सबसे बड़ी चुनौती है तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी और दर्शकों के पास बढ़ते विकल्पों के बीच अपनी विश्वसनीयता और गुणवत्ता को बनाए रखना। पत्रकारों को अब सिर्फ खबर देना नहीं बल्कि पाठकों की समझ को भी समृद्ध करना होगा।
बिजनेस जर्नलिज्म में करियर बनाना चाहने वाले युवाओं को किन स्किल्स पर फोकस करना चाहिए?
सबसे पहले करंट अफेयर्स पर मजबूत पकड़ होनी चाहिए। इसके साथ ही, नंबरों से डरना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें संदर्भ के साथ पेश करना आना चाहिए। आंकड़ों को समझना, उनका विश्लेषण करना और सरल भाषा में सही संदर्भ में पेश करना एक सफल बिजनेस पत्रकार बनने की कुंजी है।
जैसा कि ए.के. भट्टाचार्य जी ने बताया, बिजनेस जर्नलिज्म आज चुनौतियों और अवसरों का संगम है। नई तकनीकों को अपनाते हुए नंबरों की गहरी समझ और संदर्भात्मक विश्लेषण ही इस क्षेत्र में सफलता दिला सकता है।
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एक ऐसे न्यूज माहौल में, जो अक्सर तेज-तर्रार बहसों और विभाजनकारी एजेंडों के लिए आलोचना का शिकार रहता है, CNN-News18 के मैनेजिंग एडिटर जक्का जैकब एक शांत बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं।
एक ऐसे न्यूज माहौल में, जो अक्सर तेज-तर्रार बहसों और विभाजनकारी एजेंडों के लिए आलोचना का शिकार रहती है, CNN-News18 के मैनेजिंग एडिटर जक्का जैकब एक शांत बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं। उनकी अगुवाई में, नेटवर्क ने एक शांत व शालीन पत्रकारिता अपनाई है, जो इस समय के ''क्लिकबाइट'' और लगातार "ब्रेकिंग न्यूज" के दौर में अब कम ही देखने को मिलती है।
'हेडलाइन मेकर्स' शो में, जक्का जैकब नए स्क्रीन डिजाइन, संपादकीय मूल्यों, बढ़ती डिजिटल प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ यह बताते हैं कि उनके लिए खबरें ही सबसे अहम हैं, न कि सिर्फ शोर।
आपका शो शांत और समझाने वाली शैली में है, जो आमतौर पर दिखने वाले शोर-शराबे के न्यूज शोज से काफी अलग है। यह फॉर्मेट कहां से आया और आपने इसे क्यों अपनाया?
COVID-19 के दौरान हमे दर्शकों से यह प्रतिक्रिया मिल रही थी कि वे शोर-शराबे वाली बहसें नहीं चाहते। वे समझना चाहते थे कि क्या हुआ, क्यों यह महत्वपूर्ण है और यह उनके लिए कैसे असरदार है। इसलिए हमने पारंपरिक पैनल डिबेट को छोड़कर गहरे विश्लेषण और समझाने वाले कंटेंट पर ध्यान दिया। शुरुआत में यह बहुत कम था, जैसे हर घंटे में 5-10 मिनट, लेकिन अब हमारे शो का 90-95% हिस्सा इसी शैली का है। यह दर्शकों की मांग पर आधारित है, ट्रेंड्स पर नहीं।
आप किस तरह से संपादकीय सीमा तय करते हैं, जहां आप आकर्षक बनें लेकिन सनसनीखेज नहीं?
आपको आकर्षक होना चाहिए, क्योंकि कोई भी बोरिंग न्यूज नहीं देखना चाहता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तथ्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करें। एक पत्रकार का काम सच के करीब रहना है। अगर खबर मजबूत है, तो उसे ज्यादा मसाले की जरूरत नहीं होती। जैसे फिल्मों में, अगर स्क्रिप्ट अच्छी है तो वह काम करती है, वही न्यूज पर भी लागू होता है।
यूट्यूब पत्रकारिता और डिजिटल-फर्स्ट मीडिया के बारे में आपकी क्या राय है? क्या यह प्रतिस्पर्धा है या सहयोग?
मैं इसे सहयोगात्मक मानता हूं। यूट्यूबर्स CNN-News18 जैसे बड़े ब्रांड की स्केल और इंफ्रास्ट्रक्चर से मुकाबला नहीं कर सकते। हालांकि, वे पारंपरिक मीडिया को ज्यादा लचीला और तेज बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हम यूट्यूब, इंस्टाग्राम और शॉर्ट्स के लिए टीम्स बनाकर तेजी से काम कर पा रहे हैं और युवा दर्शकों से जुड़ने में सफल हो रहे हैं।
क्या आपको लगता है कि टीवी न्यूज, खासकर युवा दर्शकों के बीच, अब उतनी लोकप्रिय नहीं रही है?
दर्शकों के देखने का तरीका बदल चुका है। अब लोग पहले से तय वक्त पर न्यूज नहीं देखते। कंटेंट को अब मोबाइल, कनेक्टेड टीवी और सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म्स पर पहुंचाना पड़ता है। दर्शक अब भी न्यूज चाहते हैं, लेकिन वे उसे ऐसे फॉर्मेट में चाहते हैं, जो वे समझ सकें। एक मिनट के एक्सप्लेनर्स, रील्स, वर्टिकल स्टोरीटेलिंग – यह सब अब की न्यूज का हिस्सा बन चुका है।
हाल में हुए आपके चैनल की दृश्यात्मक बदलावों के बारे में बताएं। नए स्क्रीन डिजाइन के पीछे क्या सोच थी?
यह भी दर्शकों की प्रतिक्रिया पर आधारित था। उन्हें स्पष्टता चाहिए थी, ना कि अव्यवस्था। हम अब सेलेब्रिटी विजुअल्स, शोर-शराबा और चटकीले रंगों से दूर हो गए हैं। यहां तक कि मोबाइल पर भी, दर्शक साफ और आसानी से समझने वाले विजुअल्स चाहते हैं। हम यह कहना चाहते हैं कि "CNN-News18 आपके दुनिया, आपके दिन और आपके हेडलाइंस को समझता है।" यही हमारे नए स्क्रीन दर्शन का आधार है।
क्या आपको लगता है कि टीवी न्यूज पिछले कुछ सालों में ज्यादा समझदार हो गई है?
मुझे लगता है, हां। अब दर्शक ज्यादा अर्थपूर्ण कंटेंट चाहते हैं। वे हमें और ज्यादा तेज और सोच-समझ कर न्यूज देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हम अब कम शोर-शराबे वाली बहसें करते हैं और गहरे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह शोर को कम करने और इसके बजाय प्रकाश डालने के बारे में है।
आज के टीवी न्यूज के बारे में सबसे बड़ी गलतफहमी क्या है?
यह है कि हम या तो बिके हुए हैं या बहुत लिबरल हैं। असलियत कहीं ज्यादा जटिल है। हम अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहे हैं: सत्ता को जवाबदेह ठहराना, सच को सामने लाना और सीमाओं के भीतर काम करना। पोलराइजेशन (ध्रुवीकरण) केवल मीडिया में नहीं है, यह दर्शकों में भी है।
आज के समय में एक न्यूज रूम लीडर के रूप में आपकी सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
प्रतिभा को आकर्षित करना और उसे बनाए रखना। युवा पत्रकार अक्सर दो या तीन साल के बाद छोड़ देते हैं, लेकिन असली ग्रोथ चार या पांच साल बाद होता है। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां वे खुद को मूल्यवान महसूस करें और भविष्य देख सकें।
क्या आपको लगता है कि भारतीय न्यूज चैनल्स वैश्विक स्तर पर प्रभाव बना रहे हैं?
हां, बढ़ते हुए। जैसे-जैसे भारत की वैश्विक स्थिति मजबूत हो रही है, वैसे-वैसे हमारी बातों में भी दिलचस्पी बढ़ रही है। रूस-यूक्रेन संघर्ष और गाजा युद्ध के दौरान, दुनिया ने भारत के दृष्टिकोण को सुना। हमारे जैसे चैनल्स इन दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने और भारत की आवाज को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने में मदद करते हैं।
आखिर में, आप टीवी न्यूज के भविष्य को कैसे देखते हैं? क्या लीनियर टीवी टिकेगा?
मीडिया में बदलाव आएगा, लेकिन जिज्ञासा कभी नहीं मरेगी। लोग हमेशा जानना चाहेंगे कि क्या हो रहा है, क्यों यह महत्वपूर्ण है। चाहे टीवी हो, मोबाइल हो, या सोशल मीडिया, काम वही रहेगा। दर्शक जहां हैं, वहीं जाइए। उन्हें मूल्य दीजिए। उनकी दुनिया को समझाइए।
चावला बताते हैं कि कंपनी अब सिर्फ प्रिंट पर नहीं, बल्कि डिजिटल, इवेंट्स और अन्य मीडिया से जुड़ी वेंचर्स पर भी फोकस कर रही है- यहां तक कि कुछ ऐसे पुराने फॉर्मैट्स को भी फिर से शुरू करने की तैयारी है
कंचन श्रीवास्तव, सीनियर एडिटर व ग्रुप एडिटोरियल इवैन्जिलिस्ट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।
जब सुरिंदर चावला ने पिछले साल जुलाई में बैंकिंग सेक्टर से भारत के सबसे बड़े प्रिंट मीडिया हाउस बेनट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (BCCL), जिसे टाइम्स ग्रुप भी कहा जाता है, में रिस्पॉन्स डिवीजन के प्रेजिडेंट और हेड के तौर पर जिम्मेदारी संभाली, तो यह बदलाव थोड़ा नाटकीय (drastic) लग सकता था।
उस समय देश की अखबार इंडस्ट्री अब भी कोविड के बाद के झटके से उबरने की कोशिश कर रही थी और खुद टाइम्स ग्रुप भी दो हिस्सों में विभाजित होने के बाद पुनर्गठन के दौर से गुजर रहा था। उनका यह बदलाव कितना चुनौतीपूर्ण था? चावला मुस्कुराते हुए बताते हैं, "असल में बिजनेस का सार है मैनेजमेंट- लोगों को समझना, संचालन करना और मार्केट की गति को पकड़ना। जब ये सिद्धांत समझ में आ जाएं, तो प्रोडक्ट की कैटेगरी (जैसे बैंकिंग या प्रिंट) उतनी मायने नहीं रखती। मैंने बैंकिंग में एसेट्स और लाइबिलिटीज दोनों पर काम किया है- प्रोडक्ट बदल सकते हैं, लेकिन सिद्धांत नहीं बदलते।"
वह आगे कहते हैं, "मुझे इस नई भूमिका में ढलने में ज्यादा समय नहीं लगा और सच कहूं तो यहां किसी ने मुझे बाहरी (outsider) नहीं समझा। BCCL पहले से ही मार्केट में अग्रणी है और हमारे पास बड़े विजन हैं। हम अपने पोर्टफोलियो को बढ़ा रहे हैं, नए इनिशिएटिव्स जोड़ रहे हैं और कुछ पुराने ब्रैंड्स को दोबारा लॉन्च कर रहे हैं। यह प्रिंट मीडिया के लिए खत्म होने का समय नहीं है, जैसा कुछ लोग मानते हैं। यह एक परिपक्व (mature) मार्केट है, लेकिन अब भी इसमें जबरदस्त संभावना है।”
BCCL (टाइम्स ग्रुप) जिन बदलावों की तैयारी कर रहा है, उनमें सबसे बड़ी और चर्चित पहल है मुंबई मिरर को फिर से एक डेली अखबार के रूप में लॉन्च करना। यह कदम दिखाता है कि ग्रुप अब भी अपने पुराने मजबूत ब्रैंड्स को दोबारा जोर देने और शहरी पाठकों से जुड़ाव बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
चावला कहते हैं, "हम मुंबई मिरर को एक डेली अखबार के तौर पर दोबारा ला रहे हैं। यह एक बहुत पसंद किया जाने वाला प्रोडक्ट रहा है और यह हमारे पोर्टफोलियो को नई रफ्तार देने की रणनीति का हिस्सा है।"
चावला बताते हैं कि कंपनी अब सिर्फ प्रिंट पर नहीं, बल्कि डिजिटल, इवेंट्स और अन्य मीडिया से जुड़ी वेंचर्स पर भी फोकस कर रही है- यहां तक कि कुछ ऐसे पुराने फॉर्मैट्स को भी फिर से शुरू करने की तैयारी है जिन्हें पहले बंद कर दिया गया था। हमारे ग्रुप ने कई चीजें अपने समय से पहले की थीं। कुछ आइडिया उस वक्त नहीं चले, लेकिन अब माहौल बदल गया है। हमें लगता है कि अब उन्हें दोबारा लाने का सही वक्त है।
जब आज का मीडिया पूरी तरह डिजिटल हेडलाइंस और एल्गोरिदमिक डेटा पर केंद्रित होता जा रहा है, चावला अब भी प्रिंट की 'गूंज' और प्रभाव को लेकर दृढ़ हैं। वह कहते हैं, "यदि आप भरोसा, विश्वसनीयता और ब्रैंड की गंभीरता चाहते हैं, तो प्रिंट से बेहतर कोई माध्यम नहीं है। हमारे कई क्लाइंट्स को प्रिंट कैंपेन से सीधे बिजनेस में असर दिखता है। इसलिए वो बार-बार लौटते हैं।"
इसका कुल मिलाकर मतलब ये है कि टाइम्स ग्रुप अब भी प्रिंट को एक मजबूत माध्यम मानता है और मुंबई मिरर जैसे ब्रैंड को दोबारा शुरू करके वे अपने पुराने ब्रैंड्स में नई जान फूंकना चाहते हैं। साथ ही वे डिजिटल और अन्य वेंचर्स के जरिए एक बहुआयामी ग्रोथ स्ट्रैटेजी पर काम कर रहे हैं।
चावला कहते हैं कि प्रिंट के प्रभाव में उनका भरोसा सिर्फ एक फिलॉसफी नहीं है, बल्कि इसके पीछे ठोस आर्थिक तर्क भी हैं। भले ही मीडिया इंडस्ट्री में यह चर्चा हो रही हो कि प्रिंट से कंपनियां पीछे हट रही हैं, लेकिन BCCL ने प्रिंट विज्ञापनों की दरों में रणनीतिक रूप से बढ़ोतरी की है।
उनका कहना है, "यह कोई अचानक लिया गया फैसला नहीं है। यह दरें मांग, महंगाई और उस स्थायी वैल्यू पर आधारित हैं जो हम अपने विज्ञापनदाताओं को देते हैं। हमारे क्लाइंट्स को ROI (रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट) अच्छे से समझ आता है।"
अब कंपनियां सिर्फ एक शहर तक सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि अपने कैंपेन पूरे भारत में फैला रही हैं। साथ ही ब्रैंड अब अपनी ऑडियंस की जरूरतों के हिसाब से अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं (वर्नैक्युलर) के बीच शिफ्ट भी कर रहे हैं।
आज के विज्ञापनदाता Gen-Z (नई पीढ़ी) के डिजिटल की ओर बढ़ते रुझान को लेकर चिंतित हैं। हालांकि, अलग-अलग उम्र के लोग आज भी प्रिंट, टीवी और दूसरे माध्यमों से जुड़े हुए हैं, लेकिन Gen-Z जो देश की सबसे बड़ी जनसंख्या है, वो अब लगभग पूरी तरह ऑनलाइन चली गई है।
जब पूछा गया कि आप अपने प्रिंट ऑफरिंग्स के जरिए विज्ञापनदाताओं की चिंताओं को कैसे संबोधित करेंगे, तो चावला ने बताया कि कोविड के दौरान डिजिटल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा और फिजिकल मीडिया (जैसे अखबार) लगभग बंद हो गया था। लेकिन अब स्थिति बदल रही है, नौजवान फिर से अखबारों की ओर लौट रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, कई शैक्षणिक संस्थान छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अखबार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।
इसी को ध्यान में रखते हुए BCCL स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर युवाओं के लिए उपयुक्त उत्पाद तैयार कर रहा है। ऐसा ही एक प्रोग्राम है Newspaper in Education (NIE), जो अभी भी मजबूती से चल रहा है। चावला ने बताया कि इसे और अधिक रोचक और छात्रों के लिए उपयोगी बनाने के लिए इसे फिर से डिजाइन किया जा रहा है।
हालांकि इस बदलाव की सारी जानकारी अभी तय नहीं है, लेकिन मकसद साफ है, युवाओं में अखबार पढ़ने की आदत को फिर से विकसित करना। लोगों को लगता है कि यह आदत अब खत्म हो चुकी है, लेकिन चावला का मानना है कि इसके पुनरुत्थान के संकेत मिलने लगे हैं।
रणनीतिक गहराई के साथ रीजनल विस्तार
महामारी के बाद क्षेत्रीय समाचार पत्रों ने अपनी स्थिति को फिर से सुधार लिया है। जैसे कि दैनिक भास्कर ने हाल ही में अपनी प्रसार संख्या में जबरदस्त बढ़त देखी है।
जब पूछा गया कि Times Group इस विकास का लाभ उठाने की योजना बना रहा है या नहीं, तो यह सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि टाइम्स ग्रुप ने पहले अपना बांग्ला दैनिक Ei Samay बेचा था और अपनी कुछ लोकप्रिय सप्लीमेंट्स और टैब्लॉयड्स Mumbai Mirror और Pune Mirror बंद कर दिए थे।
Chawla ने कहा, "हम अपने प्रतिस्पर्धियों की तरह हर राज्य में उच्च प्रसार संख्या का पीछा नहीं करते हैं। बीसीसीएल का क्षेत्रीय विकास ज्यादा सटीक और क्लाइंट-केंद्रित है। हम संख्याओं के खेल में नहीं हैं। हम वहां जाते हैं जहां हमारे विज्ञापनदाता चाहते हैं कि हम हों—नेतृत्व के साथ या फिर वहां पहुंचने का स्पष्ट मार्ग। हमारा ध्यान उन महत्वपूर्ण घरों में परिणाम देने पर है, जहां निर्णय लिए जाते हैं।"
यह बयान दर्शाता है कि बीसीसीएल अपने विकास को रणनीतिक क्षेत्रों तक सीमित रखेगा और हर जगह समान रूप से विस्तार नहीं करेगा। यह जियोग्राफिक क्षेत्रों के बारे में चयनात्मक है और प्रमुख स्थानों में मार्केट नेतृत्व प्राप्त करने का लक्ष्य रखता है।
Measurability, Digital Fatigue, और Hybrid Futures पर चर्चा करते हुए Chawla ने कहा कि जैसे-जैसे विज्ञापनदाता अपनी कैम्पेन के ROI और मापनीयता की मांग कर रहे हैं, प्रिंट के मीट्रिक को और व्यापक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, "डिजिटल आंकड़े प्लेटफार्मों से आते हैं, लेकिन जो सच में मायने रखता है वह यह है कि आपने जिन 100 लोगों तक पहुंच बनाई, उनमें से कितनों ने आपका उत्पाद खरीदा?"
Chawla ने डिजिटल थकावट (digital fatigue) को भी महसूस किया और कहा, "डिजिटल शोर करता है, लेकिन कन्वर्जन की कहानियां हमेशा मेल नहीं खातीं। स्मार्ट मार्केटर्स अब संतुलित मिश्रण की तलाश कर रहे हैं—प्रिंट, डिजिटल, टीवी, और आउट-ऑफ-होम—जो उनके उत्पाद और दर्शकों से मेल खाता हो।"
Industry Growth के बारे में बात करते हुए Chawla ने कहा कि उनकी कंपनी का विकास उद्योग के प्रदर्शन से जुड़ा है। उनका कहना है कि जब आप पहले से ही 45-47% मार्केट हिस्सेदारी के साथ काम कर रहे होते हैं, तो आपका विकास उद्योग के साथ जुड़ा होता है। जितना अधिक उद्योग बढ़ता है, उतना ही आपका विकास होता है और इसके विपरीत भी। यह बीसीसीएल का मुख्य ध्यान है—उद्योग-व्यापी वृद्धि को प्रोत्साहित करना।
आखिरकार, Indian Readership Survey (IRS) के बारे में पूछे जाने पर Chawla ने कहा कि यह निर्णय उद्योग निकायों पर निर्भर करता है और वे वर्तमान में इस पर विचार कर रहे हैं।
सीनियर एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया।
जाने-माने एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा है कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान धीरे-धीरे अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया। उन्होंने कहा कि जहां सोशल मीडिया पर करोड़ों फॉलोअर्स वाले इंफ्लुएंसर्स हैं, वहीं न्यूज इंडस्ट्री में ऐसा कोई स्टार नहीं बन पाया है।
उन्होंने कहा, “सबसे कम इनोवेशन न्यूज ब्रॉडकास्ट में ही हुआ है। हर नई तकनीक के साथ मौजूदा फॉर्मेट को खुद को बदलना पड़ता है। आज उपभोक्ता के पास अनगिनत विकल्प हैं- न्यूज अब वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, टीवी, प्रिंट और सोशल मीडिया सभी पर उपलब्ध है। अब एक ही स्टोरी को अलग-अलग प्लेटफॉर्म्स पर, अलग-अलग फॉर्मेट और समय में पेश करना होता है। इससे दर्शकों को अधिक विकल्प मिले हैं और उन्हें सबसे ज्यादा फायदा हुआ है।”
वे श्री अधिकारी ब्रदर्स के मैनेजिंग डायरेक्टर कैलाशनाथ अधिकारी के साथ एक पॉडकास्ट में बातचीत कर रहे थे।
सुधीर चौधरी ने कहा कि आज देश में लगभग 400 न्यूज चैनल हैं, लेकिन इनमें से 10–15 प्रमुख चैनल एक ही फॉर्मेट पर चलते हैं—रेड टिकर, एक जैसे हेडलाइंस, एक जैसे स्टूडियोज और टेबल्स, एक जैसे पैनलिस्ट्स और एक जैसे मुद्दों पर बहस। न्यूजरूम में टीआरपी और रेटिंग को देखकर कंटेंट का सुझाव दिया जाता है, और इंडस्ट्री का 99% हिस्सा इसी ‘रिएक्टिव’ तरीके से चलता है।
उन्होंने कहा, “इंडस्ट्री रास्ता भटक गई है। एक ही फॉर्मूला बार-बार दोहराने के बजाय अच्छा कंटेंट तैयार किया जा सकता है। टीआरपी, रेटिंग्स और पैसा—ये सब अच्छे कंटेंट का परिणाम होते हैं। मैंने अपने शो में यही सिद्धांत अपनाया।”
अपनी रिसर्च पद्धति को लेकर उन्होंने बताया कि उनके समाचार रिपोर्ट्स आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी होती थीं और शुरुआत में अन्य चैनल्स ने उनका मजाक उड़ाया, क्योंकि वे पारंपरिक राजनीतिक खबरों जैसे कैबिनेट मीटिंग और पार्टी अलायंस पर टिके थे। बाद में जब उनके समाचार विश्लेषण की शैली लोकप्रिय हुई, तब कई चैनलों ने उसे अपनाया, लेकिन केवल रेटिंग्स के लिए, आत्मसात करने के लिए नहीं।
उन्होंने कहा, “जब तक एंकर खुद अपनी स्टोरी को महसूस नहीं करेगा, तब तक वह दर्शकों से जुड़ नहीं पाएगा। न्यूज रिपोर्टर को छोटे अखबारों में छपी कहानियों को तलाशना चाहिए और उन्हें आम आदमी के लिहाज से प्रभावशाली बनाना चाहिए।”
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों के बढ़ते झुकाव पर उन्होंने कहा, “रेडियो और प्रिंट के समय में टीवी आया, फिर डिजिटल और अब AI। सब साथ में चलते रहे हैं, लेकिन हर बार पुराने फॉर्मेट्स को खुद को बदलना पड़ा। पहले फिल्में तीन घंटे की होती थीं, अब डेढ़ घंटे की हैं। पहले टेस्ट क्रिकेट पांच दिन चलता था, अब टी20 हो गया है। सब कुछ वही है—क्रिकेटर, बैट, बॉल, रन, स्टेडियम, दर्शक—लेकिन क्रिकेट ने खुद को दोबारा परिभाषित किया है।”
उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया कैसे इकोसिस्टम को बदल रहा है। “पहले लोग कहते थे, हमने आपको टीवी पर देखा। अब कहते हैं, हम आपको फॉलो करते हैं। यह बड़ा बदलाव है। यूट्यूब और रील्स जैसे प्लेटफॉर्म पर लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं, वहीं पारंपरिक मीडिया में वर्षों से काम कर रहे लोगों के उतने फॉलोअर्स नहीं हैं। आने वाले समय में चुनौती होगी—रफ्तार और सटीकता दोनों को बनाए रखना। रफ्तार के लिए सच्चाई की बलि नहीं दी जा सकती।”
फेक न्यूज की पहचान कैसे करें, इस पर उन्होंने कहा कि न्यूज चैनल्स के पास मल्टी-सोर्स होते हैं, जबकि सोशल मीडिया पर कंटेंट क्रिएटर्स के पास स्रोत तो ज्यादा होते हैं लेकिन प्रोसेस नहीं होता। “बड़ी एजेंसियां खबरों को जुटाने और उन्हें जांचने में बड़ा निवेश करती हैं। चैनलों के पास मल्टी-लेयर सिस्टम होता है, जहां खबरें जांची जाती हैं। लेकिन यूट्यूबर, जो अकेले काम करता है, उसके पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं होता, जिससे कई बार गलत खबरें सामने आ जाती हैं।”
उन्होंने कहा कि खबरों को संख्याओं के जरिए समझाना और पेश करना बेहद जरूरी है। न्यूज निर्माण एक गंभीर काम है—इसमें अनुशासन चाहिए और कंटेंट क्रिएटर्स को लगातार खुद को अपग्रेड करते रहना चाहिए।
अपने भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि अब वे टीआरपी या नंबर के पीछे नहीं भागना चाहते, बल्कि स्वतंत्र रूप से कंटेंट बनाना चाहते हैं। उन्होंने सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर्स से अपील की कि वे उनके काम को आगे बढ़ाने में सहयोग करें।
क्रिकेट प्रेमियों की जुड़ाव की आदतें सिर्फ स्टेडियम और टेलीविजन तक सीमित नहीं रही हैं। इस डिजिटल युग में, YouTube क्रिकेट कंटेंट का सबसे पसंदीदा मंच बन चुका है
शांतनु डेविड, स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ।।
जैसे ही भारत एक और रोमांचक इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) सीजन के लिए तैयार हो रहा है, क्रिकेट प्रेमियों की जुड़ाव की आदतें सिर्फ स्टेडियम और टेलीविजन तक सीमित नहीं रही हैं। इस डिजिटल युग में, YouTube क्रिकेट कंटेंट का सबसे पसंदीदा मंच बन चुका है, जो लाइव मैचों से इतर दर्शकों को जोड़ने और विज्ञापनदाताओं को अपने उपभोक्ताओं तक पहुंचने के अनूठे अवसर प्रदान करता है।
Google India में YouTube सेल्स व सॉल्यूशंस की हेड शुभा पाई इस बदलते परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए क्रिकेट, डिजिटल के इस्तेमाल करने के तरीके और विज्ञापन के मेल पर चर्चा करती हैं। वे कहती हैं, "भारत में क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि संस्कृति और समुदाय है।" उन्होंने 1984 की अपनी एक यादगार घटना साझा की, जब उनके पिता ने विश्व कप मैच देखने के लिए बिजली की समस्या को ठीक करने की कोशिश में गंभीर रूप से जलने तक का जोखिम उठा लिया था। वे कहती हैं, "आज भी यदि आप उनसे पूछेंगे, तो वे यही कहेंगे कि उन्हें इसका कोई पछतावा नहीं है। भारत में क्रिकेट का महत्व यही है।"
पिछले 12 महीनों में YouTube पर क्रिकेट से जुड़ी सामग्री को 50 अरब से अधिक बार देखा गया, जो यह दर्शाता है कि आधुनिक क्रिकेट उपभोग में यह प्लेटफॉर्म कितना महत्वपूर्ण हो गया है। IPL 2024 के दौरान, दर्शकों ने गैर-लाइव कंटेंट पर 20% अधिक समय बिताया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पारंपरिक लाइव प्रसारण की तुलना में ऑन-डिमांड कंटेंट देखने का चलन बढ़ रहा है। शुभा पाई कहती हैं, "YouTube वह जगह है जहां प्रशंसक सिर्फ मैच के दौरान ही नहीं, बल्कि उससे पहले, बाद में और बीच में भी खेल से जुड़े रहते हैं।"
यह बदलाव सिर्फ एक ट्रेंड नहीं, बल्कि देखने की आदतों में एक बड़ा परिवर्तन है। Smith Grieger के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 14 से 44 वर्ष की आयु के 95% ऑनलाइन खेल प्रेमी हर हफ्ते कम से कम एक बार YouTube पर अपने पसंदीदा खेल या खिलाड़ियों के बारे में कंटेंट देखते हैं। इनमें से 67% क्रिकेट कंटेंट देखते हैं, जिससे YouTube खेल जुड़ाव के लिए सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला डिजिटल प्लेटफॉर्म बन गया है।
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, और इसी के साथ क्रिकेट विज्ञापन की दुनिया भी बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है। लंबे समय से खेल विज्ञापन के लिए सबसे प्रभावी माने जाने वाले पारंपरिक लाइव ब्रॉडकास्ट मॉडल में अब अत्यधिक प्रतिस्पर्धा हो गई है। शुभा पाई कहती हैं, "क्या आपको पता है कि पिछले साल IPL में कितने ब्रैंड्स ने विज्ञापन दिए थे? लगभग 1,400। लेकिन अगर मैं आपसे पूछूं कि आपको कितने ब्रैंड्स याद हैं, तो आप शायद केवल 3 से 5 के ही नाम लेंगे।"
यह उपभोक्ता ध्यान के लिए चल रही कड़ी प्रतिस्पर्धा दूसरे स्क्रीन पर सक्रिय रहने के व्यवहार से और जटिल हो जाती है। "90% क्रिकेट प्रशंसक लाइव मैच देखते समय किसी अन्य स्क्रीन पर भी सक्रिय होते हैं," पाई बताती हैं। यह आंकड़ा Gen Z दर्शकों के लिए 93% तक बढ़ जाता है, जो एक साथ तीन गतिविधियांं करते हैं—स्कोर चेक करना, सोशल मीडिया स्क्रॉल करना और खाना ऑर्डर करना। वे कहती हैं, "कल्पना कीजिए कि जब दर्शक एक ही समय में इतनी चीजें कर रहे हों, तो पारंपरिक विज्ञापन कैसे प्रभावी रह सकते हैं?"
इस चुनौती का सामना करने के लिए ब्रैंड्स अब तेजी से YouTube के AI-आधारित विज्ञापन समाधानों का उपयोग कर रहे हैं, जो उन्हें दर्शकों के साथ बेहतर जुड़ने में मदद करता है। पाई कहती हैं, "लॉन्ग-फॉर्म वीडियो, शॉर्ट्स और कनेक्टेड टीवी—YouTube विज्ञापनदाताओं को विभिन्न मार्केटिंग उद्देश्यों के लिए कई फॉर्मेट्स प्रदान करता है। और इसमें AI की महत्वपूर्ण भूमिका है।"
वे AI-आधारित उत्पादों के उदाहरण देती हैं, जैसे कि Target Frequency, जो विज्ञापन की सही संख्या सुनिश्चित करता है और Video View Campaigns, जो विभिन्न YouTube प्रारूपों में एक निश्चित संख्या में व्यूज़ की गारंटी देता है। Demand Gen एक अन्य AI-संचालित समाधान है, जो YouTube की पहुंच को Google Discover और Gmail जैसे प्लेटफॉर्म तक बढ़ाता है। Connected TV (CTV) पर QR Code Ads उपभोक्ताओं को तुरंत कार्रवाई करने की सुविधा देते हैं। पाई कहती हैं, "लंबे समय तक हमने टेलीविज़न पर विज्ञापन देखे, लेकिन उन पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दे सकते थे। अब, बस एक QR कोड स्कैन करें और तुरंत जुड़ जाएं।"
इस AI-चालित रणनीति ने IPL 2023 के दौरान Swiggy जैसे ब्रैंड्स के लिए प्रभावशाली परिणाम दिए। पाई बताती हैं, "उन्होंने पाया कि 90% दर्शक दूसरी स्क्रीन पर सक्रिय थे और उनके मुख्य उपभोक्ता आधार—फूड डिलीवरी यूज़र्स—और क्रिकेट प्रशंसकों के बीच बड़ा ओवरलैप था। इसी वजह से उन्होंने YouTube को जुड़ाव बढ़ाने के लिए चुना।"
YouTube पर क्रिकेट कंटेंट का दायरा केवल आधिकारिक मैच हाइलाइट्स या विशेषज्ञ विश्लेषण तक सीमित नहीं है। वर्षों से, इस प्लेटफॉर्म ने क्रिकेट कंटेंट क्रिएटर्स का एक समृद्ध इकोसिस्टम विकसित किया है। पाई कहती हैं, "YouTube पर क्रिकेट से जुड़ी एक पूरी दुनिया है, जिसमें बॉल-बाय-बॉल विश्लेषण, मीम्स, रिएक्शन वीडियो और रणनीति पर गहराई से चर्चा शामिल है।" Breakfast with Champions, हर्षा भोगले और Two Sloggers जैसे लोकप्रिय कंटेंट क्रिएटर्स ने समर्पित फैनबेस बना लिए हैं, जो मैचों से पहले, दौरान और बाद तक उनसे जुड़े रहते हैं।
YouTube की पहुंच अब नए दर्शक समूहों तक भी बढ़ रही है। "भारत में 500 मिलियन क्रिकेट प्रशंसकों में से 30% महिलाएं हैं और 60% ग्रामीण क्षेत्रों से हैं," पाई Kantar की एक रिसर्च के हवाले से बताती हैं। "क्रिकेट अब सिर्फ एक शहरी, पुरुष-प्रधान खेल नहीं रह गया है। YouTube हर क्षेत्र और हर भाषा में हर किसी के लिए कुछ न कुछ पेश करता है।"
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि लगातार मैचों की वजह से क्रिकेट की लोकप्रियता घट सकती है, पाई इससे असहमत हैं। वे कहती हैं, "एक सच्चे क्रिकेट प्रशंसक के लिए खेल आखिरी गेंद के साथ खत्म नहीं होता। वे YouTube पर रिप्ले देखते हैं, आंकड़े जांचते हैं और यह देखते हैं कि बाकी लोग क्या कह रहे हैं। वे तब तक नहीं सोते जब तक वे एक घंटे का अतिरिक्त जुड़ाव नहीं कर लेते।"
IPL 2025 से प्रायोजन और विज्ञापन राजस्व के मामले में नए रिकॉर्ड तोड़ने की उम्मीद है। पिछले साल, इस टूर्नामेंट की ब्रैंड वैल्यू $10 अरब से अधिक थी और विज्ञापन राजस्व ₹10,000 करोड़ को पार कर गया था। YouTube खुद को उन विज्ञापनदाताओं के लिए आदर्श प्लेटफॉर्म के रूप में स्थापित कर रहा है, जो उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। पाई कहती हैं, "IPL सिर्फ एक खेल आयोजन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्षण है। चाहे आप एक नया अभियान लॉन्च कर रहे हों, ब्रैंड रिकॉल बना रहे हों, या उपभोक्ताओं को कार्रवाई के लिए प्रेरित कर रहे हों—YouTube के AI-आधारित समाधान आपको सही समय पर, सही संदेश के साथ सही दर्शकों तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं।"
एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप द्वारा आयोजित 'वुमेन समिट' में जानी-मानी पत्रकार और न्यूज18 इंडिया की कंसल्टिंग एडिटर रुबिका लियाकत ने न्यूज रूम में विविधता के महत्व पर अपनी बेबाक राय रखी।
एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप द्वारा आयोजित 'वुमेन समिट' में जानी-मानी पत्रकार और न्यूज18 इंडिया की कंसल्टिंग एडिटर रुबिका लियाकत ने न्यूज रूम में विविधता के महत्व पर अपनी बेबाक राय रखी। 'समाचार4मीडिया' के संपादक पंकज शर्मा के साथ बातचीत में उन्होंने पत्रकारिता में संतुलित प्रतिनिधित्व और बदलाव की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने बताया कि विविधता न सिर्फ पत्रकारिता को समृद्ध बनाती है, बल्कि दर्शकों तक अधिक प्रभावी और संतुलित खबरें पहुंचाने में भी मदद करती है।
हाल ही में हमने वूमेंस डे मनाया। क्या आपको लगता है कि ऐसे दिन केवल एक दिन तक सीमित रहते हैं, या इन मुद्दों पर हमेशा चर्चा होनी चाहिए?
मैंने इस सवाल पर बहुत मंथन किया है। एक दिन मनाना बहुत जरूरी है, क्योंकि यह एक चिंगारी की तरह काम करता है। जो जन्म होता है, वो एक ही दिन होता है, पर 364 दिन आपको काम करना होता है। कई लोग हैं, जो सिर्फ एक दिन ही ऐसे कार्यक्रमों को मनाते या चर्चा करते हैं। लेकिन कई लोग हैं, जो पहली बार इस तरह के कार्यक्रमों को सुन रहे होते हैं और ऐसे में इस दस मिनट की चर्चा में यदि उनके दिल में 30 सेकंड भी कुछ बातें बैठ जाए, तो वह बदलाव ला सकता है। इसलिए, भले ही यह अजीब लगे, लेकिन यह जरूरी है।
आपने पत्रकारिता में एक अलग पहचान बनाई है। एक महिला के तौर पर क्या इस दौरान आपको किसी तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा?
चुनौतियां बहुत सारी होती हैं। मैं एक किस्सा शेयर करना चाहूंगी। मैं तीन महीने प्रेग्नेंट थी और ऑफिस में किसी को नहीं बताया था। 'माझी' फिल्म रिलीज होने वाली थी। बिहार में जहां पर वह पहाड़ तोड़ा गया था वहां पर पूरी टीम को ले जाया जा रहा था और जब मैंने रोहित सरदाना जी को बताया कि मैं प्रेग्नेंट हूं, तो उन्होंने हंसकर कहा, "मजाक कभी और करना, मना करने के और भी तरीके होते हैं! और तुम ही तो कहती थी एडवेंचर वाली जगह पर जाना है, तो अब जा।" लिहाजा मैं उस जगह गई, जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं। वो जगह ऐसी है, जहां पर आज भी मिट्टी के घर हैं तो आप समझ लीजिए उस वक्त ना तो शौचालय नाम की कोई चीज होती थी और वाशरूम जाना होता था, तो औरतों को झाड़ियों में जाना पड़ता था, लेकिन चूंकि वहां पर इतने तादाद में एक्टर्स और एक्ट्रेसेस मौजूद थे, वीवीआईपी लोग थे, तो चारों तरफ वहां झाड़ियों में भी पुलिस वाले खड़े हो गए थे और मैं इतना तकलीफ में थी मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं अब करूं तो करूं। मुझे प्यास लग रही थी लेकिन मैं पानी नहीं पी सकती थी क्योंकि बार-बार मुझे वॉशरूम इस्तेमाल करना पड़ता। वहां रेस्ट रूम भी नहीं थे। तब मुझे रिलाइज हुआ कि वहां मर्दों के लिए तो बड़ा आसान था, लेकिन मेरे लिए बहुत सारी दिक्कतें थी, पर शुक्र है एक बुजुर्ग औरत का जिसको मैंने अपनी समस्या बताई, तो वह अपने घर के पीछे मुझे ले गई, जहां चढ़कर मुझे जाना पड़ा। साड़ी से चारों तरफ बांधा हुआ था। यह सब देख मैं डर गईं, तब मुझे लगा कि यह कोई मजाक नहीं है। कुछ और देर रुक गई तो मैं क्या करूंगी। यह छोटा सा चैलेंज है और ऐसे बहुत सारे चैलेंज महिलाओं के सामने आते हैं लेकिन फिर आप उससे सीखते हैं और उससे ही आप आगे बढ़ते हैं।
क्या आपको लगता है कि न्यूज रूम में विविधता जरूरी है?
बिल्कुल! लेकिन धर्म और जाति से ज्यादा जरूरी है टैलेंट। जब मैं आई थी, तब मेरे माथे पर नहीं लिखा था कि मैं मुसलमान हूं। मुझे एडमिशन इसलिए नहीं मिला कि मैं महिला हूं या मुस्लिम हूं, बल्कि इसलिए कि मुझमें टैलेंट था।
क्या विविधता से खबरों की कवरेज पर असर पड़ता है?
नहीं, ऐसा नहीं है। अगर न्यूज रूम में महिलाएं ज्यादा होंगी, तो महिला सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दे ज्यादा उठेंगे। लेकिन आज के समय में यह कहना गलत होगा कि महिलाओं को मौके नहीं मिल रहे। न्यूज रूम में विविधता बढ़ रही है और यह बदलाव जरूरी भी है।
आंकड़ों के अनुसार, न्यूज इंडस्ट्री में महिलाओं की भागीदारी 12-20% के बीच है। क्या इसे बढ़ाने की जरूरत है?
हां, लेकिन यह सिर्फ संख्या का सवाल नहीं है। यह महिलाओं की जिद और जज्बे का भी सवाल है। 12% महिलाएं जो इस फील्ड में बनी हुई हैं, वे कठिन परिस्थितियों के बावजूद आगे बढ़ रही हैं। आसान होता है छोड़ देना, लेकिन हमें लड़ते रहना होगा।
सोशल मीडिया पर नेगेटिव कमेंट्स को आप कैसे डील करती हैं?
शुरू में बहुत बुरा लगता था, क्योंकि मेरे माता-पिता भी सोशल मीडिया पर हैं। लेकिन फिर समझ आया कि जो लोग मुझे जानते ही नहीं, वे क्या कह रहे हैं, इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अब मैं सोशल मीडिया को भोपू की तरह इस्तेमाल करती हूं - अपनी बात कहती हूं और फिर उसे साइड रख देती हूं!
अंत में, आप इस मंच से क्या संदेश देना चाहेंगी?
बदलाव लाने के लिए हमें खुद आगे बढ़ना होगा। यदि आप में टैलेंट है, तो आपको कोई रोक नहीं सकता। चुनौतियां आएंगी, लेकिन हार मान लेना कोई हल नहीं है। हमें अपने हिस्से की लड़ाई खुद लड़नी होगी।
ये पूरा इंटरव्यू आप यहां देख सकते हैं:
एक्सचेंज4मीडिया के सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रुहैल अमीन ने उनसे उनकी प्रेरणादायक जर्नी, पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की।
पत्रकारिता की दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने वालीं चित्रा त्रिपाठी आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। गोरखपुर जैसे छोटे शहर से निकलकर राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता तक का सफर तय करना आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास से इसे संभव बनाया। एक्सचेंज4मीडिया के विशेष कार्यक्रम Women in Media, Digital & Creative Economy Summit के दौरान सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रुहैल अमीन ने उनसे उनकी प्रेरणादायक जर्नी, पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की। आइए, जानते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।
सबसे पहले हम आपकी जर्नी के बारे में जानना चाहेंगे। एक छोटे शहर गोरखपुर से लेकर राष्ट्रीय राजधानी तक का यह सफर कैसे तय हुआ?
मुझे मीडिया इंडस्ट्री में 20 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन खास बात यह है कि मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की। मैंने डिफेंस स्टडीज में एमए किया है और गोरखपुर यूनिवर्सिटी में अपने विषय में टॉपर रही हूं। मेरी जर्नी काफी दिलचस्प रही है।
एनसीसी में मेरी बहुत रुचि थी और लोग कहते थे कि मैं आर्मी में जाऊंगी। 2001 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे, मैंने गार्ड ऑफ ऑनर कमांड किया और मुझे गोल्ड मेडल मिला। उसी दौरान गोरखपुर में एक लोकल चैनल ‘सत्या टीवी’ लॉन्च हुआ, जिसमें एक घंटे की न्यूज़ पढ़ने के लिए 100 रुपये मिलते थे। दोस्तों ने कहा, ‘तुम्हारी हिंदी अच्छी है, तुम जाकर बोलो।’ मैंने यह चैलेंज लिया और वहां से मेरी जर्नी शुरू हो गई।
धीरे-धीरे, मैंने ‘दूरदर्शन’ के कृषि दर्शन कार्यक्रम में भी काम किया, जहां मुझे खेती से जुड़े कार्यक्रम करने का मौका मिला। फिर, मैं ईटीवी हैदराबाद चली गई और एक साल बाद दिल्ली आ गई। यहां से मेरे नेशनल चैनलों में काम करने की शुरुआत हुई।
जब आप छोटे शहर से आईं, तो क्या कभी लगा कि यह किसी तरह का डिसएडवांटेज था?
बिल्कुल! जब हम छोटे शहरों से बड़े शहरों में आते हैं, खासकर हिंदी बेल्ट की लड़कियां जिनकी अंग्रेजी थोड़ी कमजोर होती है, तो शुरुआत में हमें कम आंका जाता है। एक तरह का परसेप्शन बना हुआ था कि जो अंग्रेजी में धाराप्रवाह नहीं हैं, वे उतने सक्षम नहीं हैं। लेकिन समय के साथ चीजें बदलीं। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार और फिर 2014 में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने हिंदी को बहुत बढ़ावा दिया। इससे हमें आत्मविश्वास मिला और आज स्थिति यह है कि देशभर में लोग हमें पहचानते हैं।
क्या आपको लगता है कि छोटे शहरों से आने वाले पत्रकारों का ग्राउंड कनेक्शन ज्यादा मजबूत होता है?
बिल्कुल! जब हम छोटे शहरों से आते हैं, तो जमीनी हकीकत को बेहतर समझते हैं। रिपोर्टिंग करते वक्त यह अनुभव बहुत काम आता है।
2014 की कश्मीर बाढ़ के दौरान जब मैं रिपोर्टिंग कर रही थी, तब हालात बहुत मुश्किल थे। हमें कई बार इंडियन मीडिया के खिलाफ प्रदर्शन झेलने पड़े। वहां हमने एक गुरुद्वारे में जाकर लंगर खाया, क्योंकि पांच दिन से सिर्फ मैगी खा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में खुद को ढालना और मजबूती से रिपोर्टिंग करना, यह अनुभव छोटे शहरों से आने वाले पत्रकारों के लिए अधिक स्वाभाविक होता है।
आपकी एक रिपोर्टिंग से एक गांव की महिला को राष्ट्रपति अवाॉर्ड मिला था। क्या आप उसके बारे में बता सकती हैं?
जी हां, यह उत्तर प्रदेश के बहराइच के टेढ़िया गांव की कहानी है। 2014 तक, 5000 की आबादी वाला यह गांव वोट डालने के अधिकार से वंचित था। वहां पर बिजली नहीं थी, पानी के लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता था। जब मुझे इसकी जानकारी मिली, तो मैंने वहां जाकर स्टोरी की।
गांव की महिलाओं ने हमारा स्वागत ‘जय आज़ादी’ कहकर किया, जो हमें थोड़ा अजीब भी लगा क्योंकि वहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं थीं। मैंने इस स्टोरी को कवर किया और इसकी वजह से एक 65 वर्षीय महिला को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों ‘100 वुमन अवॉर्ड’ मिला। यह मेरे करियर के सबसे गर्व भरे लम्हों में से एक है।
आजकल पत्रकारिता की आलोचना होती है कि यह जमीन से कट रही है। आप इस पर क्या सोचती हैं?
आलोचना दो तरह की होती है- एक जो आगे बढ़ने में मदद करती है और एक जो सिर्फ खींचने के लिए होती है। जब हम मजबूत होते हैं, तो हमें आलोचना भी झेलनी पड़ती है। लेकिन हमें इससे घबराना नहीं चाहिए।
आज सोशल मीडिया बहुत प्रभावशाली हो गया है। जब हम सही काम कर रहे होते हैं, तो आलोचना होना स्वाभाविक है। हमें इसे सकारात्मक रूप में लेकर अपनी पत्रकारिता को और बेहतर बनाना चाहिए।
यहां देख सकते हैं पूरा इंटरव्यू:
महिलाएं हर विषय में रुचि रखती हैं, चाहे वह चुनाव हो, राष्ट्रीय नीति हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध। लेकिन मीडिया अक्सर उन्हें इन विषयों से अलग कर देता है।
मीडिया सिर्फ खबरें नहीं दिखाता, यह समाज की सोच को आकार भी देता है। लेकिन क्या हमारे न्यूजरूम्स में जेंडर सेंसिटिविटी को उतनी ही प्राथमिकता दी जाती है जितनी जरूरी है? क्या महिलाओं और अन्य जेंडर्स को मीडिया में समान प्रतिनिधित्व मिल रहा है? इन्हीं अहम सवालों पर मंथन करने के लिए एक्सचेंज4मीडिया ने अपने विशेष कार्यक्रम Women in Media, Digital & Creative Economy Summit में खास पैनल आयोजन किया गया, जिसका विषय था— 'राइटिंग द नैरेटिव: द रोल ऑफ जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म इन शेपिंग ए मोर इक्वल मीडिया', यानि यह विषय इस बात पर केंद्रित है कि किस तरह पत्रकारिता में जेंडर सेंसिटिविटी (लिंग संबंधी संवेदनशीलता) को अपनाकर मीडिया को अधिक समावेशी और समानता पर आधारित बनाया जा सकता है और इस चर्चा को और गहराई देने के लिए इस कार्यक्रम में मौजूद रहीं 'द कलेक्टिव न्यूजरूम' की को-फाउंडर और सीईओ, रूपा झा। कार्यक्रम का संचालन समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा ने किया।
दोनों के बीच हुई बातचीत का प्रमुख अंश:
सबसे पहले हम 'जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म' शब्द को समझना चाहेंगे। यह क्या है? अभी भी कई लोग इसे ठीक से नहीं समझते, खासकर हिंदी भाषी समुदाय में।
देखिए, 9 मार्च को हम सभी महिलाओं की विजिबिलिटी के बारे में अधिक चर्चा करते हैं, और यह महत्वपूर्ण है। जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें पत्रकारिता को समानता और समावेशिता के नजरिए से देखा जाता है। दरअसल, दुनिया की आधी आबादी महिलाएं हैं, तो मीडिया में भी आधी भागीदारी, आधा प्रतिनिधित्व और आधे निर्णय महिलाओं के होने चाहिए। लेकिन ऐतिहासिक रूप से, समाज और मीडिया पुरुष प्रधान दृष्टिकोण से संचालित होता रहा है। इसलिए, अब एक संतुलित और संवेदनशील पत्रकारिता की जरूरत है, जहां महिलाओं और अन्य जेंडर्स को समान अवसर और प्रतिनिधित्व मिले।
जब हम जेंडर की बात करते हैं, तो अक्सर न्यूजरूम में महिलाओं की संख्या को मापा जाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या वे अहम फैसलों का हिस्सा हैं? क्या उनकी राय ली जाती है?
बिल्कुल, यही असल मुद्दा है। केवल न्यूजरूम में महिलाओं की गिनती कर लेना काफी नहीं है। यह सिर्फ एक प्रारंभिक कदम है। असली चुनौती यह है कि न्यूजरूम में जेंडर बैलेंस से ज्यादा 'जेंडर लेंस' की जरूरत है।
जेंडर लेंस का मतलब है कि हम समाज में स्थापित पुरुषवादी सोच को पहचानें और उसे चुनौती दें। मीडिया अक्सर बिना जाने या समझे जेंडर आधारित भेदभाव को दोहराता रहता है। इसीलिए हमें यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं की भागीदारी सिर्फ न्यूजरूम तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनके विचार और दृष्टिकोण भी न्यूज कवरेज का हिस्सा बनने चाहिए।
क्या आपको लगता है कि मुख्यधारा की मीडिया महिलाओं के मुद्दों को पर्याप्त रूप से कवर कर रही है? या ये मुद्दे सिर्फ डिजिटल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तक सीमित रह गए हैं?
नहीं, मुख्यधारा की मीडिया अभी भी महिलाओं के मुद्दों को पूरी तरह कवर नहीं कर रही। मीडिया में अब भी महिलाओं के मुद्दों को पारंपरिक ढंग से देखा जाता है। महिलाओं के लिए बनाई गई खबरों में अक्सर सौंदर्य, परिवार, करवा चौथ, फैशन जैसी बातें प्रमुख होती हैं। लेकिन क्या महिलाओं के लिए राजनीति, अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी के मुद्दे कम महत्वपूर्ण हैं? बिल्कुल नहीं। महिलाएं हर विषय में रुचि रखती हैं, चाहे वह चुनाव हो, राष्ट्रीय नीति हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध। लेकिन मीडिया अक्सर उन्हें इन विषयों से अलग कर देता है। अगर मीडिया सही तरीके से महिलाओं के मुद्दों को शामिल करे, तो उनका नजरिया और भागीदारी दोनों ही बढ़ सकते हैं।
सोशल मीडिया ने महिलाओं को एक प्लेटफॉर्म जरूर दिया है, लेकिन इसके साथ ऑनलाइन ट्रोलिंग भी बढ़ी है। साथ ही, महिलाओं की निजी जिंदगी को पुरुषों की तुलना में ज्यादा हाईलाइट किया जाता है। आपकी क्या राय है?
यह बिल्कुल सही बात है। यह समस्या गहरी सामाजिक सोच से जुड़ी है।
मीडिया में महिलाओं को अक्सर एक 'ऑब्जेक्ट' की तरह दिखाया जाता है। उदाहरण के लिए, अगर हम मधुबाला पर कोई रिपोर्ट बनाते हैं, तो हेडलाइन होती है - "मधुबाला जिसे देखकर शम्मी कपूर खाना खाना भूल गए"। क्यों? मधुबाला एक महान अभिनेत्री थीं, तो उनकी प्रतिभा पर बात क्यों नहीं होती? पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं होता।
राजनीति में भी देखिए - अगर पांच खूबसूरत महिला उम्मीदवार चुनाव में खड़ी हैं, तो मीडिया उन्हें "चुनावी दंगल की पांच हसीन चेहरे" कहता है। क्या पुरुषों के लिए इस तरह की हेडलाइन दी जाती हैं? यही जेंडर भेदभाव है, जिसे हमें बदलने की जरूरत है।
यदि मीडिया संस्थानों को जेंडर इक्वलिटी को बढ़ाने के लिए कदम उठाने हों, तो आप तीन प्रमुख सुझाव क्या देंगी?
मेरे पास सिर्फ सुझाव नहीं हैं, बल्कि अनुभव भी है। मैंने बीबीसी इंडिया की हेड के रूप में काम किया है और अब 'द कलेक्टिव न्यूजरूम' का संचालन कर रही हूं। मैंने बदलाव को होते देखा है।
तीन प्रमुख सुझाव:
संस्थानों को यह स्वीकार करना होगा कि जेंडर असमानता उनकी भी समस्या है। जब तक वे यह नहीं मानेंगे, बदलाव संभव नहीं है।
महिलाओं को सिर्फ संख्या के आधार पर न आंका जाए, बल्कि उन्हें निर्णय लेने की भूमिका में भी रखा जाए।
मीडिया में भाषा और रिपोर्टिंग के तरीकों में बदलाव किया जाए। उदाहरण के लिए, "ऑनर किलिंग" शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है? इसे "हत्यारा अपराध" कहा जाना चाहिए। ऐसे ही कई शब्द और धारणाएं बदलने की जरूरत है।
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