अंग्रेजी अखबारों ने इस खबर को नहीं छापा, पर 'दैनिक जागरण' ने आज मन खुश कर दिया....

भारत के सर्वोच्च न्यायालय की इस खबर ने आज मुझे बहुत खुश...

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 06 February, 2019
Last Modified:
Wednesday, 06 February, 2019
Vaidik


डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वरिष्ठ पत्रकार।।

शिक्षाः अदालतः खुश-खबर

भारत के सर्वोच्च न्यायालय की इस खबर ने आज मुझे बहुत खुश कर दिया है। मेरे पास लगभग 20 अखबार रोज़ाना आते हैं। लेकिन यह खबर मैंने आज सिर्फ ‘दैनिक जागरण’ में देखी है। किसी भी अंग्रेजी अखबार ने इस खबर को नहीं छापा है।

खबर यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव अनूपचंद्र पांडेय को अदालत की बेइज्जती करने का नोटिस भेजा है। उ.प्र. सरकार ने अदालत की बेइज्जती कैसे की है? इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 18 अगस्त 2015 को एक आदेश जारी किया था, जिसके मुताबिक प्रदेश के सभी चुने हुए जनप्रतिनिधियों, सरकारी कर्मचारियों और न्यायपालिका के सदस्यों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में ही पढ़ना पड़ेगा।

अदालत ने यह भी कहा था कि इस नियम का उल्लंघन करने वालों के लिए सजा का प्रावधान किया जाए। सरकार से वेतन पाने वाला कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को यदि किसी निजी स्कूल में पढ़ाता है तो वहां भरी जाने वाली फीस के बराबर राशि वह सरकार में जमा करवाएगा और उसकी वेतन वृद्धि और पदोन्नति भी रोकी जा सकती है।

इस आदेश का पालन करने के लिए अदालत ने छह माह का समय दिया था लेकिन साढ़े तीन साल निकल गए। न तो अखिलेश यादव और न ही योगी आदित्यनाथ की सरकार ने कोई कदम उठाया। अब शिवकुमार त्रिपाठी नामक एक प्रबुद्ध नागरिक की याचिका पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने उप्र के मुख्य सचिव को कठघरे में खड़ा किया है।

आप पूछ सकते हैं कि इस फैसले से मैं इतना खुश क्यों हूं? क्योंकि यह सुझाव 2015 में मैंने अपने एक लेख में दिया था। बाद में मुझे पता चला कि उस लेख को उन न्यायाधीशों ने भी पढ़ा था। उसमें मैंने सरकारी लोगों के इलाज के मामले में भी यही नियम लागू करने की बात कही थी। मैं हमेशा कहता हूं कि विचार की शक्ति परमाणु बम से भी ज्यादा होती है। यदि शिक्षा और स्वास्थ्य के मामलों में मेरे इस विचार को सरकारें लागू कर दें तो भारत के स्कूलों और अस्पतालों की हालत रातोंरात सुधर सकती है। शिक्षा से मन प्रबल होता है और स्वास्थ्य रक्षा से तन सबल होता है। ऐसे प्रबल और सबल राष्ट्र को विश्व की महाशक्ति बनने से कौन रोक सकता है?

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

सेलिब्रिटी और बैंक: क्या विज्ञापनों में स्टार्स भरोसा दिला सकते हैं?

AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Friday, 05 December, 2025
Last Modified:
Friday, 05 December, 2025
Ganpathy654213

गणपति स्वामिनाथन, इंडिपेंडेंट कम्युनिकेशन कंसल्टेंट ।।

AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं। इससे पहले बैंक ने आमिर खान और कियारा आडवाणी के साथ भी काम किया था। इतने जल्दी-जल्दी चेहरे बदलने से जाहिर है लोगों की नजर इस पर जाती है। और AU अकेला नहीं है- फेडरल बैंक के लिए विद्या बालन, ICICI के लिए अमिताभ बच्चन, HSBC के लिए विराट कोहली और एक्सिस बैंक के लिए दीपिका पादुकोण… बैंकिंग सेक्टर को बॉलीवुड का सहारा लेना जैसे आम बात हो गई है। मगर बड़ा सवाल ये है कि आखिर फिल्म स्टार बैंक जैसे भरोसे और सावधानी पर आधारित सेक्टर के लिए क्या कर पाते हैं?

क्यों करते हैं बैंक सितारों का इस्तेमाल 

सच कहें तो बैंकिंग कोई मजेदार या ग्लैमरस कैटेगरी नहीं है। सेविंग्स अकाउंट और FD रेट्स में ग्लैमर ढूंढना मुश्किल है। ऐसे में सेलिब्रिटीज इन ads में जान डाल देते हैं। उनकी मौजूदगी से बैंक भीड़ में अलग दिखते हैं और कैंपेन को तुरंत पहचान मिल जाती है।

सेलिब्रिटीज पहले से ही लोगों की नजरों में भरोसा, सफलता, आत्मविश्वास और स्थिरता जैसी इमेज लेकर आते हैं। बैंक कोशिश करते हैं कि ये इमेज उनके ब्रांड पर भी चिपक जाए। AU जैसे नए बैंक के लिए बड़े स्टार्स के साथ काम करना यह दिखाने का तरीका भी है कि “हम छोटे नहीं हैं, बड़े खेल में आ चुके हैं।”

क्या कोई सेलिब्रिटी सच में भरोसा दिला सकता है?

यहीं मामला मुश्किल हो जाता है। एक बैंक में भरोसा तब बनता है जब वह सालों तक लोगों का पैसा सुरक्षित रखे, मुश्किल समय में साथ दे, और रोजमर्रा की सेवाओं में भरोसेमंद साबित हो।
सेलिब्रिटी ध्यान जरूर खींच सकता है, लेकिन वह किसी को अपनी लाइफ सेविंग्स बदलने के लिए मनाए- ये कम ही होता है।

सेलिब्रिटी सिर्फ “पहली मुलाकात” को आसान बनाते हैं। भरोसा तो ब्रांच के काउंटर, मोबाइल ऐप या मुश्किल समय में बैंक की मदद से बनता है—30 सेकंड के खूबसूरत ऐड से नहीं।

क्या सेलिब्रिटी बैंक की छवि या उसकी आइडिंटिटी से मेल खाते हैं?

अक्सर यहीं गलती हो जाती है। मान लीजिए बैंक की इमेज बहुत गंभीर और स्थिर है, और सेलिब्रिटी बहुत ज्यादा ग्लैमरस या फन-लविंग। तब ऐड अच्छा तो लगता है, लेकिन दिल को छू नहीं पाता—कनेक्शन मिस हो जाता है।

अच्छे पार्टनरशिप वहीं बनती हैं, जहां फिट सही हो:

  • अमिताभ बच्चन और ICICI की मजबूत, भरोसेमंद इमेज

  • विद्या बालन और फेडरल बैंक की सीधी, अपनापन भरी टोन

  • दीपिका और एक्सिस बैंक की स्टाइलिश, आधुनिक ब्रांडिंग

AU का आमिर–कियारा से रणबीर–रश्मिका की तरफ जाना शायद उसकी नई योजनाओं को दिखाता है- उन्हें अब और युवा, डिजिटल और आधुनिक दिखना है।

अल्पकालिक रणनीति, स्थायी योजना नहीं

ज्यादातर बैंक सेलिब्रिटीज को लंबे समय के लिए नहीं रखते। उन्हें बस एक तेज, जोरदार कैंपेन चाहिए होता है- नई मार्केट में प्रवेश, किसी नए प्रोडक्ट का लॉन्च, या ब्रांड रिफ्रेश के समय। लेकिन मीडिया का खर्च इतना बढ़ गया है कि लंबे समय तक ऐसे ऐड चलाना मुश्किल हो गया है।

इसके अलावा, किसी स्टार को सालों तक रखना महंगा भी है, और अगर उस स्टार से जुड़ा कोई विवाद हो जाए तो बैंक की इमेज पर खतरा हो सकता है। इसलिए बैंक चाहते हैं छोटी, लेकिन प्रभावी साझेदारी।

निष्कर्ष यह है कि: सेलिब्रिटीज मदद जरूर करते हैं, लेकिन सब कुछ नहीं हैं।

सेलिब्रिटीज बैंक को खास तौर पर दिखाते हैं। वे कैंपेन में ऊर्जा, आकर्षण और ताजगी लाते हैं। लेकिन वो भरोसा नहीं बना सकते।
वह दरवाजा खोल देते हैं- अंदर बुलाने का हक बैंक को अपने काम से कमाना पड़ता है।

लंबे समय में बैंक की साख उन्हीं चीजों से बनती है जो दिखती नहीं हैं- बेहतर सेवा, तेज डिजिटल सुविधाएं, साफ-सुथरी कम्युनिकेशन और सबसे बढ़कर ग्राहक को ये भरोसा कि उसका पैसा सुरक्षित है। 

(लेखक MASTERING THE MESSAGE नामक किताब के लेखक हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ नाम की भी चिड़िया होती है: नीरज बधवार

गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते।

Samachar4media Bureau by
Published - Thursday, 04 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 04 December, 2025
neerajbadhwar.

नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

पहले वनडे में टीम इंडिया साढ़े तीन सौ के करीब रन बनाकर हारने वाली थी और दूसरे वनडे में तो वो 359 रन बनाकर भी हार ही गई। कारण बड़ा सिंपल है। आप स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ों की इज़्ज़त नहीं करते और आपने यहाँ भी 'bits and pieces' वाले प्लेयर भर रखे हैं।

गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते। हर्षित जैसा गेंदबाज़ कभी-कभार आपको विकेट दिला सकता है, लेकिन वो इतना 'inconsistent' है कि वो कभी भी आपका मुख्य गेंदबाज़ नहीं बन सकता।

अर्शदीप अच्छे बॉलर हैं, लेकिन वनडे फॉर्मेट में वो बेहद नए हैं। सिराज और शमी जैसे गेंदबाज़ों के होते प्रसिद्ध कृष्णा टीम में क्यों हैं, इस बात पर तो खुद प्रसिद्ध कृष्णा भी हैरान हैं। मैं इस बात पर भी हैरान हूँ कि वरुण चक्रवर्ती जैसा क्लास स्पिनर वनडे टीम से क्यों बाहर है।

आप उनकी जगह जडेजा या सुंदर को इसलिए खिला रहे हैं कि वो बैटिंग भी कर सकते हैं, लेकिन भाई अगर आपके पास मैच विनर बॉलर हो तो वो ढाई सौ रन भी डिफेंड करवा सकता है। जिस दिन आप आठ बल्लेबाज़ खिलाकर साढ़े तीन सौ रन बनाने के बजाय, चार क्लास बॉलर खिलाकर 250 रन डिफेंड करने की सोचने लगेंगे, तो आपको अपने आप समझ आ जाएगा कि किसे टीम में रखना है और किसे नहीं।

मगर जब कोच के सिर पर थके हुए ऑलराउंडर्स को टीम में भर्ती करने का भूत सवार हो और स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ जैसी चिड़िया उसके शब्दकोष में शामिल ही न हो, तो टीम का वही हाल होगा जो टेस्ट के बाद वनडे सीरीज़ में हुआ है।

जागो, बीसीसीआई जागो, इससे पहले कि गंभीर अर्शदीप और कुलदीप को टीम से निकालकर ग्यारहवें नंबर तक बैटिंग मज़बूत करने के लिए उनकी जगह शार्दुल ठाकुर और नीतीश कुमार रेड्डी को न खिला ले।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

वेब सीरीज में घटनाओं का काल्पनिक कोलाज: अनंत विजय

ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 01 December, 2025
Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हाल ही में दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुई। ‘द फैमिली मैन’ का सीजन तीन और महारानी का सीजन चार। महारानी सीजन चार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज हुई। बिहार की राजनीति को केंद्र में रखकर बनी ये वेबसीरीज उस दौरन चर्चा में रही। प्रधानमंत्री कार्यालय के खबर रोकने के लिए फोन किए जाने के दृश्य को लेकर चुनाव के दौरान विपक्षी ईकोसिस्टम के कुछ लोगों ने माहौल बनाने का प्रयास किया था।

इन दोनों सीरीज में समानता है। दोनों कहीं न कहीं राजनीति और उसके दाव-पेंच पर आधारित है। राजनीति के साथ-साथ अपराध और आतंकवाद भी समांतर कहानी के तौर पर चलती है। दोनों वेबसीरीज में लेखक ने पिछले दशकों की राजनीतिक घटनाओं को उठाया है और उसका काकटेल बनाकर एक काल्पनिक कहानी गढ़ने का प्रयास किया है।

ऐसी काल्पनिक कहानी जिसमें भारतीय राजनीति की कुछ घटनाएं तो दिखती हैं लेकिन उसका कालखंड मेल नहीं खाता है। कई प्रधानमंत्रियों के स्वभाव और उनके कालखंड में घटी घटनाओं को जोड़कर एक ऐसा प्रधानमंत्री बना दिया गया जिससे कि इसको काल्पनिक कहा जा सके। महारानी सीरीज में जिस प्रधानमंत्री को दिखाया गया है उसमें नरसिम्हाराव से लेकर अटल जी की छवि दिखती है।

इसी तरह से फैमिली मैन में महिला प्रधानमंत्री दिखाया गया है लेकिन घटनाएं अलग अलग दौर की जोड़ दी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है। दर्शकों के सामने ये चुनौती होती है कि वो राजनीति के पात्रों को सीरीज में पहचाने और फिर घटनाओं का आनंद ले।

एक और चीज जो दोनों वेबसीरीज में समान रूप से प्रमुखता से उपस्थित है। वो है इसका अंत। फैमिली मैन के सात एपिसोड देखने के बाद भी दर्शकों को पूर्णता का एहसास नहीं होता और एक जिज्ञासा रह जाती है कि आगे क्या? म्यांमार में आपरेशन के बाद तमाम भारतीय सिपाही और एजेंट भारत लौट आते हैं लेकिन नायक मनोज वाजपेयी म्यांमार की सीमा में ही अचेत होकर गिरते दिखते हैं। सीरीज समाप्त हो जाती है।

खलनायक की भूमिका निभा रहे जयदीप अहलावत भी फरार हो जाते हैं और दर्शकों के मन में प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि उसका क्या हुआ? वो भी घायल है। महारानी सीरीज में हुमा कुरैशी ने रानी भारती का किरदार निभाया है जिसको पहले सीजन से ही राबड़ी देवी से प्रेरित बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इस सीजन में वो प्रधानमंत्री बनना चाहती है लेकिन उसके मंसूबों पर प्रधानमंत्री जोशी पानी फेर देते हैं। राजनीति के इन चालों के बीच उसके बेटे जयप्रकाश भारती और उसके दोस्त की लाश मिलती है।

जयप्रकाश क्षेत्रीय दलों को रानी भारती के समर्थन केक लिए तैयार कर रहा था। रानी भारती की बेटी जिसको बिहार की मुख्यमंत्री दिखाया गया है उसको भी एक घोटाले का आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। इस सीरीज में भी कई घटनाक्रम भारतीय राजनीति से जुड़े हैं। रानी भारती की पार्टी के अधिकतर विधायक उसका साथ छोड़कर नई पार्टी बना लेते हैं।

रानी के विश्वस्त मिश्रा के नेतृत्व में बिहार में नई सरकार बनती है। ये दृष्य कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का विभाजन याद दिलाती है। रानी भारती के बड़े बेटे की लाश मिलती है, बेटी जो मुख्यमंत्री थी अब जेल में है। रानी बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। विदेश में पढ़ रहा उसका दूसरा बेटा उसके साथ खड़ा हो जाता है। रानी भारती को पता चलता है कि उसके बेटे की योजनाबद्ध तरीके से हत्या की गई है।

जब प्रधानमंत्री जोशी उसके पुत्र के निधन पर संवेदना प्रकट करने आते हैं तो वो उनसे कहती है कि जिस तरह से उसने अपने पति भीमा भारती के हत्यारों को सजा दी उसी तरह से वो अपने बेटे जयप्रकाश के हत्यारों को भी ढूंढ निकालेगी और सजा देगी या दिलवाएगी। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।

दोनों वेब सीरीज के अंत में दर्शकों को पूर्णता का अहसास नहीं होता है। ऐसा लगता है कि निर्माता या प्लेटफार्म अगले सीजन के लिए उत्सुकता बनाए रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि निर्माता और प्लेटफार्म दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने के लिए कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं ताकि दर्शकों को इस बात का अनुमान रहे कि अगले सीजन में कहानी आगे बढ़ेगी।

प्रश्न यही उठता है कि जो दर्शक सात और आठ एपिसोड देख रहा है और तीन या चार सीजन देख रहा है उसको पूरी कहानी के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी चाहिए। सीक्वल का एक तरीका तो ये भी हो सकता है जो साधरणतया फिल्मों में अपनाया जाता है। फिल्म दबंग या फिर एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है और टाइगर 3 को देखा जा सकता है। तीनों फिल्म अपने आप में पूर्ण है लेकिन सीक्वल की संभावना भी बनी हुई है।

पर वेब सीरीज तो जैसे दर्शकों के धैर्य की प्रतीक्षा लेना चाहते हैं। क्या दर्शकों को छह सात घंटे देखने के बाद कहानी की पूर्णता नहीं मिलनी चाहिए। इन दोनों सीरीज के आखिर में लगता है कि कुछ मिसिंग है। इस मीसिंग को सीक्वल की संभावना बताकर सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह का व्यवहार दर्शकों के साथ किया जाता रहा तो संभव है कि दर्शकों का वेब सीरीज से मोहभंग हो जाए। वेब सीरीज के लेखक को, फिल्म के निर्देशक को और उसको प्रसारित करनेवाले प्लेटफार्म को इसपर विचार करना चाहिए।

एक और बात जो इन वेब सीरीज से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि जिस कालखंड की कहानी दिखा रहे हैं उस कालखंड में वो सारी चीजें होनी चाहिए जो वेब सीरीज में दिखाई जा रही हैं। अगर 2005 के कालखंड की घटनाओं को मुंबई में घटित होते दिखा रहे हैं तो बांद्रा वर्ली सी लिंक कैसे दिखा सकते हैं। 2005 में तो वो बना ही नहीं था। उस कालखंड की कहानी दिखाते समय इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि उस समय ट्वीटर प्रचलन में था या नहीं।

अगर नहीं था तो फिर उस दौर की घटनाओं को ट्वीटर पर ट्रेंड करते हुए कैसे दिखा सकते हैं। ये छोटी बाते हैं लेकिन इनका अपना एक महत्व है। घटनाओं का कोलाज बनाने के चक्कर में इस तरह की छोटी पर महत्वपूर्ण भूल दिख जाती है जो लेखक और निर्देशक की सूझबूझ पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। आज के दौर की कई वेबसीरीज में इस तरह की घटनाएं आपको दिख जाएंगी।

कहानी जिस कालखंड में सेट होती है उस कालखंड की विशेषताओं का ध्यान रखना होता है। अलग अलग समय पर हुए प्रधानमंत्रियों के गुणों और अवगुणों को मिलाकर एक चरित्र तो गढ़ सकते हैं लेकिन उस दौर की स्थायी चिन्हों को नहीं बदल सकते। किसी पात्र को संसद भवन ले जाते हैं तो उसको नई संसद के गेट पर उतरते हुए दिखाना होगा ना कि पुरानी संसद के पोर्टिको में। काल्पनिकता को भी एक प्रकार की प्रामाणिकता की जरूरत होती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

Google Gemini का इस्तेमाल कैसे करें? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

मैंने Google Gemini का फ्री वर्जन इस्तेमाल किया है। आप इसे Apple App Store या गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं। आप Jio के यूजर हैं तो प्रीमियम वर्जन 18 महीने के लिए फ्री में मिलेगा।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 01 December, 2025
Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
googlegemini

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

Google Gemini ने AI की दुनिया में धूम मचा दी है। आप इसका इस्तेमाल कैसे करेंगे यह जानने से पहले दो बातें समझ लीजिए। पहली बात तो यह है कि यह ChatGPT की टक्कर का माना जा रहा है और दूसरा इसके पीछे NVIDIA की GPU (Graphic Processing Unit) नहीं लगी है बल्कि Google ने अपनी TPU ( Tensor Processing Unit) का इस्तेमाल किया है। Gemini के आने से ChatGPT और NVIDIA दोनों की मोनोपॉली को चुनौती मिली है। हिसाब किताब में इसकी चर्चा आगे कभी करेंगे लेकिन अभी पिछले हफ़्ते के वादे को निभा रहा हूँ। Google Gemini का इस्तेमाल हफ़्ते भर किया है। आपको अपने अनुभव बताऊंगा।

मैंने Google Gemini का फ्री वर्जन इस्तेमाल किया है। आप इसे Apple App Store या गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं। आप Jio के यूजर हैं तो प्रीमियम वर्जन 18 महीने के लिए फ्री में मिलेगा। जैसे Airtel यूज़र्स को Perplexity फ्री में मिल रहा है या ChatGPT हर किसी को फ्री में मिल रहा है। तो Gemini का आप तीन तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं।

पहला Vibe Coding मतलब आप को एप या वेबसाइट बनाने के लिए कोडिंग जानना ज़रूरी नहीं है। आप जानते होंगे कि कम्प्यूटर की भाषा को कोडिंग कहते हैं जैसे HTML, इसी भाषा को इस्तेमाल करके इंजीनियर सॉफ़्टवेयर बनाते हैं। अब आपको सिर्फ़ यह लिखना है कि आप क्या प्रोडक्ट बनाना चाहते हैं जैसे मैंने लिखा है कि SIP Calculator बना दो।

करोड़पति ( या लखपति) बनने के लिए हर महीने के लिए कितने पैसे इन्वेस्टमेंट करना होगा? आप तय करें कि कितने साल में करोड़पति बनना है और कहाँ कितना पैसा लगाना होगा जैसे म्यूचुअल फंड, सोना, PPF, Gemini को मैंने यह Prompt दिया। जवाब में उसने Prompt ठीक किया और HTML कोड लिख दिया। दूसरा काम किया मैंने ग्राफिक्स बनाने का।

Gemini के भीतर ग्राफिक्स या फ़ोटो बनाने के लिए Nano Banana मॉडल है। आप जो चाहें बनवा सकते हैं। मैंने कहा कि यह बताइए कि Gemini काम कैसे करता है उसने यह ग्राफिक्स बना दिया। हालाँकि हिंदी में ग़लतियाँ हुई, अंग्रेज़ी ठीक है। तीसरा काम है कि आपका ट्रैवल एजेंट। आप बजट बताइये, तारीख़ बताइए, ये आपके Google Calendar में जाकर देखेगा कि आप फ्री है या नहीं।

फिर आपको एयरलाइन या होटल की बुकिंग तक ले जाएगा, बुकिंग के लिए ज़रूरी जानकारी जैसे आपका नाम, नंबर खुद भर सकता है। पेमेंट फ़िलहाल आपको करना OK करना पड़ेगा। आगे चलकर यह काम भी वो खुद कर लेगा। तो अब देर किस बात की है, आप भी टेस्ट कीजिए और बताइए कि आपने क्या बनाया है?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

राहुल की सरकार करे तो पुण्य, मोदी सरकार करे तो पाप क्यों: आलोक मेहता

इसी पृष्ठभूमि में गृह मंत्री के रूप में पी. चिदंबरम ने कहा था कि 'भारत को एक मजबूत नागरिक पहचान प्रणाली चाहिए, जो केवल निवास नहीं, बल्कि नागरिकता को भी दर्ज करे।'

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 01 December, 2025
Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
alokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी भारतीय नागरिकता की पहचान कर मतदाता सूची बनाए जाने के मोदी सरकार के कदम का विरोध कर रही है, लेकिन उनको और जनता को यह क्यों नहीं याद दिलाया जाता कि जब 2008-2009 में राहुल बाबा की सरकार थी, तब नागरिकता पहचान पत्र की योजना का कार्यान्वयन मिस्टर चिदंबरम ने शुरू कर दिया था।

गृह मंत्री के नाते चिदंबरम ने अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ रोकने और भारत की सुरक्षा के लिए इसके लिए करोड़ों रुपयों का बजट स्वीकृत करवाकर कई राज्यों में नागरिकता के स्मार्ट कार्ड के लिए बाकायदा फॉर्म भरवाकर सूचियां बनवानी तक शुरू करवा दी थी। मेरे जैसे पत्रकार सहित देश के लाखों लोगों ने संबंधित सरकारी केंद्रों पर फोटो खिंचवाकर पहचान की तकनीकी औपचारिकता पूरी की थी।

लेकिन कुछ महीनों बाद पता चला कि गांधी परिवार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने न जाने किस दबाव में इस योजना को रुकवा दिया। फिर यह बताया गया कि आधार कार्ड की योजना को ही प्राथमिकता दी जाए। यही नहीं, करोड़ों की संख्या में ‘स्मार्ट कार्ड्स’ बनवाने के लिए निजी कंपनियों को ठेके देने में घोटाले के आरोप सामने आए थे। इसीलिए सवाल उठ रहा है कि राहुल कांग्रेस की सरकार नागरिकता पहचान करे तो पुण्य और मोदी सरकार करे तो पाप क्यों?

भारतीय राजनीति में “पहचान”, “नागरिकता” और “मतदाता सत्यापन” जैसे विषय हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। लेकिन पिछले डेढ़ दशक में इन मुद्दों पर कांग्रेस पार्टी के भीतर ही जो वैचारिक और राजनीतिक परिवर्तन दिखाई देता है, वह अत्यंत विवादास्पद है। एक समय था जब कांग्रेस सरकार में गृह मंत्री पी. चिदंबरम स्वयं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) जैसी कठोर पहचान परियोजना के प्रमुख सूत्रधार थे।

2008–2012 का कालखंड भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौतीपूर्ण था। एक ओर 26/11 जैसे आतंकी हमले, दूसरी ओर पूर्वोत्तर और सीमावर्ती इलाकों में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ, और तीसरी ओर फर्जी दस्तावेजों से जुड़ा संगठित अपराध। इसी पृष्ठभूमि में गृह मंत्री के रूप में पी. चिदंबरम ने कहा था कि “भारत को एक मजबूत नागरिक पहचान प्रणाली चाहिए, जो केवल निवास नहीं, बल्कि नागरिकता को भी दर्ज करे।” इसी सोच से ‘नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर’ को मंत्रिमंडल से योजना और बजट की स्वीकृति मिली।

उस समय सरकार ने इस योजना के लिए प्रत्येक व्यक्ति का घर-घर जाकर सत्यापन, निवासी और संभावित नागरिक के बीच प्राथमिक अंतर, आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस और अवैध प्रवास की पहचान का प्रारंभिक ढांचा आवश्यक माना था। तब कांग्रेस का तर्क था कि: “राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक पहचान पर राजनीतिक संवेदनशीलता नहीं, बल्कि प्रशासनिक साहस दिखाना होगा।”

2009–10 के दौरान NPR और स्मार्ट कार्ड परियोजना के लिए: प्रारंभिक बजटीय प्रावधान: ₹3,700 करोड़ से अधिक, बाद में संशोधित अनुमान ₹6,000 करोड़ तक का प्रावधान रखा गया। यह राशि सर्वे एजेंसियों को भुगतान, बायोमेट्रिक उपकरण, स्मार्ट कार्ड निर्माण, केंद्रीय सर्वर अवसंरचना और राज्य सरकारों को अनुदान मदों पर व्यय होनी थी। तभी प्रकट हुआ आधार: दो पहचान प्रणालियों का टकराव। 2009 में भारत सरकार ने समानांतर रूप से UIDAI की स्थापना कर दी और आधार परियोजना शुरू कर दी।

चिदंबरम के कार्यकाल में NPR (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) को एक सुरक्षा-प्रधान परियोजना के रूप में देखा गया। यह कोई केवल जनगणना जैसी योजना नहीं थी। इसका आधार यह था कि बिना सत्यापित पहचान के आतंकवाद और अपराध से लड़ना मुश्किल है। अवैध प्रवासी मतदाता सूची और राशन प्रणाली दोनों को प्रभावित कर रहे हैं।

उस समय सरकार ने यह दावा किया था कि NPR किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है, यह केवल प्रशासनिक शुद्धिकरण है, इससे असली नागरिकों को लाभ और फर्जी पहचान को नुकसान होगा। उसी दौर में कांग्रेस सरकार ने योजना आयोग के माध्यम से ‘आधार’ पहचान पत्र को भी आगे बढ़ाया। यहीं से पार्टी के भीतर ही दोहरी नीति से टकराव होने लगा और चिदंबरम की योजना को रुकवा दिया गया।

कई राज्यों में NPR का केवल आंशिक क्रियान्वयन हुआ। स्मार्ट कार्ड कभी राष्ट्रव्यापी स्तर पर जारी ही नहीं हो पाए। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद मूल उद्देश्य—नागरिकता सत्यापन—पूरा नहीं हो सका। स्मार्ट कार्ड के ठेकों में गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगे। डेटा संग्रह के लिए निजी कंपनियों को बड़े पैमाने पर ठेके दिए गए। कुछ एजेंसियों पर मानक पूरे न करने और गलत डेटा अपलोड के आरोप लगे।

कई स्थानों पर दोबारा सर्वे कराना पड़ा, जिससे दोहरा खर्च हुआ। NPR और आधार दोनों में एक ही व्यक्ति का बायोमेट्रिक डेटा दो बार लिया गया। इससे उपकरणों की दोहरी खरीद, मानव संसाधन पर दोहरा खर्च, हजारों करोड़ का अनुत्पादक अपव्यय हुआ। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक CAG ने अपनी रिपोर्टों में कहा कि परियोजनाओं के बीच समन्वय का अभाव, लागत-लाभ विश्लेषण अधूरा, नीति स्पष्ट न होने से सार्वजनिक धन का प्रभावी उपयोग नहीं हुआ।

2009 में आधार पहचान पत्र का काम शुरू हुआ। यह विश्व की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक पहचान परियोजना बनी। आधार पर अब तक (लगभग 2010–2024 के बीच) अनुमानतः 14,000 से 16,000 करोड़ रुपये से अधिक का सार्वजनिक धन खर्च हो चुका है।

फिर आधार पहचान पत्र में दुरुपयोग और अनियमितताओं के आरोप सामने आए। फर्जी नामांकन और डुप्लीकेट आधार शुरुआती वर्षों में कई स्थानों पर, एक व्यक्ति के दो-दो आधार, फर्जी बायोमेट्रिक, दलालों द्वारा अवैध नामांकन, बाद में लाखों आधार संख्या रद्द की गई। समय-समय पर मीडिया में आरोप लगे कि कुछ राज्यों की वेबसाइटों से आधार डेटा लीक हुआ, निजी एजेंसियों द्वारा आधार विवरण का व्यापार किया गया। हालांकि सरकार ने कहा कि “कोर बायोमेट्रिक डेटा सुरक्षित है।”

आधार की अनिवार्यता पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। न्यायालय ने कहा कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं, निजी सेवाओं में अनिवार्य करना असंवैधानिक और केवल सीमित सरकारी योजनाओं में वैध उपयोग। इससे स्पष्ट हो गया कि आधार: “कल्याण वितरण का उपकरण है, राष्ट्रीय नागरिकता पहचान नहीं।” जहां तक चुनाव आयोग का मामला है, इसका वार्षिक बजट आम तौर पर ₹1,000–₹2,000 करोड़ के बीच रहता है। इसमें शामिल होते हैं: वोटर कार्ड छपाई, डिजिटल वोटर डेटाबेस, बूथ लेवल ऑफिसर्स नेटवर्क, मतदाता सूची संशोधन अभियान और साइबर सुरक्षा। हर बड़े चुनाव (लोकसभा/विधानसभा) से पहले विशेष पुनरीक्षण का काम होना चाहिए।

2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस विपक्ष में आ गई। यहीं से कांग्रेस के लिए पहचान सत्यापन जैसे विषय: “सुरक्षा प्रश्न” से अधिक “सामाजिक-राजनीतिक जोखिम” बन गए। यहां यह स्पष्ट दिखने लगा कि जिस NPR को चिदंबरम ने एक समय सुरक्षा ढाल माना था, वही कांग्रेस के नए नेतृत्व के लिए “मानवाधिकार और लोकतांत्रिक चिंता” का विषय बन गया।

अब चुनाव आयोग द्वारा लागू की जा रही मतदाता सूची शुद्धिकरण प्रक्रिया को लेकर राहुल गांधी और विपक्ष ने कड़ा विरोध दर्ज किया है। उनका कहना है कि यह प्रक्रिया गरीब, प्रवासी और अल्पसंख्यक मतदाताओं के नाम काटने का माध्यम बन सकती है, इससे चुनावों की निष्पक्षता प्रभावित होगी, यह सत्तारूढ़ दल के पक्ष में वोटर सूची को “री-इंजीनियर” करने का प्रयास हो सकता है। राहुल गांधी का तर्क यह है कि: “मतदाता सत्यापन के नाम पर लोकतांत्रिक अधिकारों से छेड़छाड़ की जा रही है।”

चिदंबरम के गृह मंत्री काल में NPR को उन्होंने प्रशासनिक सुधार और सुरक्षा उपाय माना। आज वही चिदंबरम कहते हैं कि: ऐसी कोई भी सूची, जो नागरिकता या मताधिकार को चुनौती देती है, उसे अत्यंत सीमित, पारदर्शी और न्यायिक रूप से नियंत्रित होना चाहिए। “अवैध बांग्लादेशी” शब्द के प्रयोग पर भी चिदंबरम की आपत्ति है। उनका कहना है कि अवैध प्रवासी की पहचान सरकार का दायित्व है, लेकिन नागरिक को बार-बार अपनी वैधता सिद्ध करने के लिए खड़ा कर देना लोकतांत्रिक राज्य की परिभाषा के विरुद्ध है।

NPR यदि पूरी शक्ति के साथ लागू होता तो अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की वास्तविक पहचान संभव होती, फर्जी वोटर सूचियां समाप्त होतीं, NRC प्रक्रिया सरल हो चुकी होती। परंतु राजनीतिक संवेदनशीलता और राज्य सरकारों के विरोध के चलते NPR को केवल एक सांख्यिकीय रजिस्टर बनाकर छोड़ दिया गया। नागरिकता जैसे प्रश्नों को “स्वैच्छिक” कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अवैध प्रवास पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाया और आधार जैसा पहचान पत्र नागरिकता का प्रमाण बने बिना ही देश की मुख्य पहचान प्रणाली बन गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अब चुनाव आयोग को सही नागरिकता के साथ मतदाता सूची के शुद्धिकरण के लिए स्वीकृति दे दी। मतदाता पहचान पत्र सीधे-सीधे लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा हुआ है। यदि मतदाता सूची ही संदिग्ध हो जाए, तो चुनाव की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। मतदाता सूचियों में लंबे समय से फर्जी नाम, एक व्यक्ति के कई वोटर कार्ड, मृत व्यक्तियों के नाम, अवैध प्रवासियों के नाम, बार-बार स्थानांतरण के बाद भी नाम न कटना समस्याएं रही हैं।

इसी पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग समय-समय पर मतदाता सूची शुद्धिकरण और अब मतदाता सूची शुद्धिकरण जैसी प्रक्रियाएं लागू करता है, ताकि मतदाता सूची को शुद्ध किया जा सके। इसका उद्देश्य यह होता है कि प्रत्येक मतदाता का पुनः सत्यापन किया जाए, गलत प्रविष्टियों को हटाया जाए, दोहरे नामों को समाप्त किया जाए, स्थान परिवर्तन के अनुसार नई प्रविष्टियां की जाएं।

यह एक नियमित प्रशासनिक प्रक्रिया है, जिसे चुनाव आयोग स्वतंत्र रूप से समय-समय पर करता रहा है। यही प्रक्रिया वर्तमान में कुछ राज्यों में विशेष रूप से लागू की जा रही है, ताकि आगामी चुनावों से पहले मतदाता सूची को अधिक विश्वसनीय बनाया जा सके। बहरहाल, दीर्घकालिक समाधान यही है कि भारत को अंततः एक स्पष्ट, वैधानिक और सर्वमान्य नागरिकता आधारित राष्ट्रीय पहचान प्रणाली बनानी ही होगी, ताकि बार-बार मतदाता सत्यापन जैसे विवाद खड़े न हों।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

कर्नाटक में कांग्रेस का टूटना तय: समीर चौगांवकर

राहुल, उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका एक साथ राजनीति में सक्रिय हैं उसके बाद भी पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ और देशभर में कांग्रेस इससे ज्यादा कमजोर पहले कभी नहीं थी।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 29 November, 2025
Last Modified:
Saturday, 29 November, 2025
congress

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

कर्नाटक कांग्रेस में वर्चस्व की लड़ाई बेशर्मी के साथ सड़कों पर आ गई है। कांग्रेस का कर्नाटक संकट यह बताता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ऐतिहासिक गलतियों के बाद भी सुधरना नहीं चाहता और मोदी और शाह की कार्यशैली से सीखना नहीं चाहता। भाजपा में सत्ता का हस्तातंरण जिस सहजता, स्वीकार्यता और सभी की सहभागिता के साथ होता है वह कांग्रेस के संस्कारों में कभी नहीं रहा।

एक दल के रूप में दयनीय हालत में पहुंचने के बाद भी सत्ता के लिए आपस में खून खच्चर करना,पार्टी से बगावत करना और रत्तीभर कांग्रेस का न सुधरना बताता है कि कांग्रेस को मिट्टी में मिलाने की तैयारी विपक्ष नहीं, कांग्रेस हाईकमान खुद कर रहा है।

राहुल, उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका एक साथ राजनीति में सक्रिय हैं उसके बाद भी पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ और देशभर में कांग्रेस इससे ज्यादा कमजोर पहले कभी नहीं थी। यह पारिवारिक तिकड़ी पार्टी में पकड़ और जनता में असर को लगातार खोते जा रही है।

कांग्रेस की भौगोलिक सिकुड़न भी सोनिया और राहुल को परेशान नहीं करती। सिर्फ तीन राज्यों- कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में सत्ता में है और झारखंड़ में सत्तारूढ़ गठबंधन में जूनियर पार्टनर है। पार्टी पिछले कई सालों से बड़े पैमाने पर दलबदल की गवाह बनी है और पार्टी के विधायक भाजपा और दूसरे दलों का दामन थामते रहे और कांग्रेस की सरकार गिराते रहे।

कर्नाटक में गुटबाजी, तलवारबाजी और खून खच्चर कांग्रेस के नेता आपस में ही कर रहे हैं और बीजेपी को सत्ता में आने का मौका खुद ही मुहैया करा रहे हैं। कांग्रेस के राज्यों के ज्यादातर ताकतवर और वफादार नेता या तो फीके पड़ रहे हैं, दरकिनार कर दिए गए हैं या फिर कांग्रेस को छोड़ कर अन्य दलों का दामन थाम रहे हैं।

कांग्रेस के देशभर में गिरते ग्राफ को देखने के बाद भी सोनिया और राहुल गांधी ने पार्टी संगठन का ढांचा सुधारने की कोई कोशिश नहीं की है और न ही प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह के अगुआई में भाजपा के बढ़ते कारवां का मुकाबला करने की कोई विचाराधारात्मक और रणनीतिक योजना बनाने की कोशिश की।

शाश्वत कांग्रेस पर गांधी परिवार के नियंत्रण ने कांग्रेस को एक अलग सांचे में ढाल दिया है। निरंतर कांग्रेस पर गांधी परिवार के नियंत्रण ने संगठन को खत्म कर दिया। कांग्रेस के खिलाफ देशभर में उपजे असंतोष और कमजोर संगठन ने विपक्षी दलों को अपने खोटे सिक्कों को भी आसानी से चुनाव जीतने में मदद की है।

कांग्रेस मर रही है और सारे कांग्रेसी और देश की जनता कांग्रेस को तिल तिल कर मरता हुआ देख रही है। कांग्रेस की कमजोरियों से कांग्रेस की मुक्ति का दिन अभी दूर है, इसलिए कांग्रेस में बगावत होना और कांग्रेस का टूटना तय है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

समाप्त नहीं हुआ है भारतीय भाषाओं का संघर्ष: प्रो.संजय द्विवेदी

अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय भाषा समिति की ओर से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर चर्चा हुई।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 29 November, 2025
Last Modified:
Saturday, 29 November, 2025
profsanjay

प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

राजनीतिक परिवर्तन के नाते भारतीय भाषाओं को मिल रहा सम्मान स्थाई नहीं हैं, क्योंकि उपनिवेशवाद की गहरी छाया से हमारे समाज को मुक्त करने में अभी हम सफल नहीं हो सके हैं। भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने के लिए शासकीय प्रयासों के बाहर भी हमें देखना चाहिए कि क्या अकादमिक, न्याय, चिकित्सा, प्रशासन के तंत्र में भारतीय भाषाएं स्थापित हो रही हैं। सच तो यह है कि दो भारतीय भाषाओं में संघर्ष का वातावरण बनाकर हर जगह अंग्रेजी के लिए जगह बनाई जा रही है। आप देखें सड़कों और दुकानों पर लगे सूचना पट, नाम पट और होर्डिंग इसकी गवाही देगें।

वे प्रायः स्थानीय भाषा और अंग्रेजी में होते हैं। या सिर्फ अंग्रेजी में होते हैं। पिछले सप्ताह अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय भाषा समिति की ओर से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर चर्चा हुई। इस अवसर पर भारतीय भाषा समिति की ओर अंग्रेजी में प्रकाशित दो पुस्तकों ‘भारतीय भाषा परिवारः ए न्यू फ्रेमवर्क इन लिंगग्विस्टिक्स’ और ‘भारतीय भाषा परिवारः पर्सपेक्टिव एंड होरिजोंस’ का लोकार्पण भी हुआ।

इस पुस्तक में भारतीय भाषाओं के विविध पक्षों पर लेखकों ने विद्वतापूर्ण लेख लिखे हैं। संस्कृत को लोकमानस में प्रतिष्ठित करने वाले श्री चमू कृष्ण शास्त्री भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष के रुप में बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। हम जानते हैं भाषाएं और माताएं अपने पुत्र और पुत्रियों से ही सम्मानित होती हैं। आजादी के आठ दशक के बाद भी हमारी भारतीय भाषाओं का आत्मसंघर्ष समाप्त नहीं हुआ है तो इसका दोष हम किसी अन्य को नहीं दे सकते। भारतीय समाज स्वभाव से बहुभाषी है, और उसे किसी भाषा को अपनाने में कभी संकोच नहीं रहा।

इसका ही परिणाम है कि अंग्रेजी को भी हमने अपनी एक भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है। उसका पठन, पाठन और अध्ययन शौक से करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ हमारी उदारता के कारण है या इसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक कारण भी हैं। दूसरा यह कि क्या किसी भाषा के कारण हम अपनी भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करें और उनके व्यापक अवदान की अनदेखी करें। सच तो यह है कि कोई भी देश अपनी भाषा और लिपियों के सहारे ही स्वयं को बनाता है। उसकी सघन स्मृति में उसकी भाषा, उसकी लिपि, प्रदर्शन कलाओं, साहित्य, संगीत, सिनेमा और रंगमंच के दृश्य और नाद रचे बचे-बसे होते हैं।

इन्हीं स्मृतियों के सहारे वह बड़ा होता है, उसी नजर से दुनिया को देखता है। ऐसे में हमारी नयी पीढ़ी पर मातृभाषा के स्थान पर एक अन्य भाषा आरोपित कर क्या हम अपने बच्चों के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं? हम उसे एक ऐसी भाषा में तैयार कर रहे हैं, जो उसकी स्मृति का, परिवार का, समाज का हिस्सा नहीं रही है। उसकी मौलिकता को, उसके स्वभाव और रचनात्मकता को कुचल देने का जतन हम होता हुआ देख रहे हैं। भाषा को एक ‘कौशल’ के बजाए उसे ‘ज्ञान’ का पर्याय मान लेना हमारा मूल संकट है।

भारतीय भाषाओं को स्वतंत्र भारत में जो संघर्ष करना पड़ रहा है, उसका बड़ा कारण हमारा शैक्षिक परिवेश है, जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त है। उसे इससे मुक्त करना बड़ी चुनौती है। क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी में दिखता हो तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, उसे शिक्षा से हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी और भारतीय भाषाओं को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात है।

कितना अच्छा होता कि हमारे न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। चिकित्सा और दवाएं हमारी भाषा में मिल पातीं। काश , शिक्षा का माध्यम हमारी भारतीय भाषाएं बन पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए चुना है। कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब लोग, मजबूर लोग, अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते तो हिंदी और भारतीय भाषाएं कहां दिखती। मदरसे में गरीब का बच्चा, संस्कृत विद्यालयों में गरीब ब्राम्हणों के बच्चे और अन्य गरीबों के बच्चे, हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे। कई बार लगता है कि गरीबी मिट जाएगी तो हिंदी और भारतीय भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगीं।

गरीबों के देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। लेकिन समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर, दो घंटे ज्यादा करके अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। उसने यह काम शुरू कर दिया है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में हिंदी का क्या होगा, उसकी बहनों भारतीय भाषाओं का क्या होगा। हिंदी को मनोरंजन,बाजार,विज्ञापन और वोट मांगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान- विज्ञान, उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आंकी जा रही है किंतु उसकी गहराई कम हो रही है।

देश की भाषाओं को हम उपेक्षित करके अंग्रेजी बोलने वाली जमातों के हाथ में इस देश का भविष्य दे चुके हैं। ऐसे में देश का क्या होगा? संतोष है कि इस देश के सपने अभी भारतीय भाषाओं में देखे जा रहे हैं। पर क्या भरोसा आने वाली पीढ़ी अपने सपने भी अंग्रेजी में देखने लगे। संभव है कि वही समय, अपनी भाषाओं से मुक्ति का दिन भी होगा। आज अपने पास-पड़ोस में रह रहे बच्चे की भाषा और ज्ञान के संसार में आप जाएं तो वास्तविकता का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू कर दिया है।

उसे भारतीय भाषाओं में लिखते हुए मुश्किलें आ रही हैं, वह अपनी कापियां अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में करता है। इसे रोकना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी पर गौरवान्वित और गलत अंग्रेजी पर दुखी हैं। हिंदी का यही आकाश है और हिंदी की यही दुनिया है। हिंदी की चुनौतियां दरअसल वैसी ही हैं जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं। चालीस वर्ष की आयु के बाद लोग गीता पढ़ रहे थे, संस्कृत के मूल पाठ को सीखने की कोशिशें कर रहे थे।

अंततःसंस्कृत लोकजीवन से निर्वासित सी हो गयी और देश देखता रह गया। आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया है। वे खत्म हो रही है और अपने साथ-साथ हजारों हजार शब्द और अभिव्यक्तियां समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएं विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं आएगा, इस पर भी सोचिए। वे ताकतें जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहती हैं, एक से वस्त्र पहनाना चाहती हैं,एक से विचारों, आदतों और भाषा से जोड़ना चाहती हैं, वे साधारण नहीं हैं। कपड़े, खान-पान, रहन-सहन, केश विन्यास से लेकर रसोई और घरों के इंटीरियर तक बदल गए हैं।

भाषा कब तक और किसे बाँधेगी? समय लग सकता है, पर सावधान तो होना ही होगा। आज भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक होकर देखा जा रहा है, उसकी तारीफ की जा रही है कि “आपकी हिंदी बहुत अच्छी है।” वहीं शेष भारत के संवाद की शुरूआत 'मेरी हिंदी थोड़ी वीक है' कहकर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

जब सादगी ही ब्रैंड की असली पहचान बन जाए: शान्तोमय रॉय

परंपरागत ब्रैंड बनाने का तरीका पूरी तरह उल्टा हो गया है। दशकों तक कंपनियां अपने प्रॉडक्ट्स अलग दिखें, पहचान में आएं, इसके लिए बहुत पैसा और मेहनत करती थीं।

Samachar4media Bureau by
Published - Thursday, 27 November, 2025
Last Modified:
Thursday, 27 November, 2025
Advision784

शान्तोमय रॉय, फाउंडर व डायरेक्टर, के-फैक्टर कम्युनिकेशंस ।।

एक युवा महिला एक कॉफी शॉप में प्रवेश करती है, हाथ में एक साधारण हल्के भूरे रंग का कपड़े का बैग लिए हुए। बैग पर कोई लोगो नहीं है, फिर भी कतार में खड़े हर व्यक्ति को यह तुरंत पहचान में आ जाता है। कॉफी बनाने वाला युवक उसकी ओर सिर हिलाता है। एक अन्य ग्राहक पूछता है कि उसने यह बैग कहां से खरीदा। इस बैग की कीमत डिजाइनर विकल्पों से अधिक है, जिन पर मोनोग्राम छपे होते हैं, लेकिन इसकी खासियत बिल्कुल विपरीत है: इसमें कोई भी स्पष्ट ब्रैंडिंग नहीं है। यह रोजमर्रा का एक आम दृश्य है। यह बदलाव इस बात का संकेत है कि आज के ब्रैंड्स सिर्फ दिखावे या लोगो पर भरोसा नहीं करते, बल्कि ग्राहकों से जुड़ाव और सांस्कृतिक महत्व बनाने के नए तरीके अपना रहे हैं।

परंपरागत ब्रैंड बनाने का तरीका पूरी तरह उल्टा हो गया है। दशकों तक कंपनियां अपने प्रॉडक्ट्स अलग दिखें, पहचान में आएं, इसके लिए बहुत पैसा और मेहनत करती थीं। इसके लिए लोगो, रंग और डिजाइन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। पुराने समय में Nike का ‘swoosh’, McDonald’s के ‘golden arches’ और Apple का ‘कट-सा लगा हुआ सेब’- ये सब इतने मशहूर हो गए कि पूरा ब्रैंड इनके इन लोगो से पहचान लिया जाता था। लेकिन अब एक नई तरह की कंपनियां कुछ उल्टा कर रही हैं। आज के मार्केट में हर जगह लोगो और विज्ञापन भरे हुए हैं, इसलिए कई ब्रैंड मानते हैं कि सबसे बड़ी लग्जरी वही है जो दिखने में बिल्कुल सादा हो, जहां कोई लोगो ही न हो। 

ये 'इनविजिबल ब्रैंड्स' यानी बिना लोगो वाले ब्रैंड बिल्कुल अलग तरह से काम करते हैं। वे अपने प्रॉडक्ट पर बड़े लोगो या नाम नहीं लगाते। उनकी पहचान कुछ बहुत हल्के और खास संकेतों से होती है, जैसे एक अलग-सा ग्रे शेड, एक अनोखा मटेरियल या कोई विशिष्ट डिजाइन। ऐसे संकेत सिर्फ वे लोग पहचान पाते हैं जो इस ब्रैंड को समझते हैं, बाकी लोगों को पता भी नहीं चलता। इससे यह एक तरह का ‘इनसाइडर क्लब’ बन जाता है, जहां पहचानना ही एक तरह की 'एंट्री टिकट' होती है।

यह ट्रेंड फैशन से कहीं आगे बढ़ चुका है। टेक्नोलॉजी में कई लैपटॉप स्लीव्स और फोन केस बिना किसी लोगो के ही महंगे बिकते हैं। होम डेकोर और लाइफस्टाइल ब्रैंड साधारण, मिनिमलिस्ट सिरेमिक चीजें और लिनेन बनाते हैं, जिनकी खूबसूरती केवल उनकी क्वॉलिटी और डिजाइन में होती है। सप्लीमेंट कंपनियां भी पैकेजिंग इतनी सादी बनाती हैं कि नाम भी मुश्किल से दिखता है। यहां तक कि खाने-पीने के ब्रैंड भी बिना चमकदार पैकिंग के, सादा और भरोसा जगाने वाला डिजाइन इस्तेमाल करने लगे हैं।

लोग ऐसे प्रॉडक्ट्स पर ज्यादा पैसे क्यों खर्च करते हैं जिनमें ब्रैंड का नाम ही नहीं दिखता? वजह यह है कि आज के समय में 'लग्जरी' का मतलब बदल गया है। पहले महंगे ब्रैंड का बड़ा लोगो दिखाना ही स्टेटस माना जाता था, लेकिन अब जब लोगो हर जगह मिल जाते हैं, कॉपी में भी। लिहाजा असली खासियत कुछ और बन गई है। अब लोग दिखावे से ज्यादा समझदारी को अहमियत देते हैं। अब पहचान ये नहीं कि आपके पास कौन-सा लोगो है, बल्कि यह है कि आप बिना लोगो के भी अच्छा और असली प्रॉडक्ट पहचान सकते हैं। यही नया स्टेटस बन गया है।

इन ब्रैंड्स का प्रचार भी अलग तरीके से होता है। ये बड़े विज्ञापन नहीं चलाते। ये अपने ग्राहक समुदाय पर निर्भर रहते हैं, लोग एक-दूसरे को बताकर इन ब्रैंड्स को आगे बढ़ाते हैं। कभी ब्रैंड का फाउंडर अपनी सोच एक लंबे इंस्टाग्राम पोस्ट में समझा देता है। ग्राहक खुद दूसरों को ब्रैंड की कहानी बताते हैं। कई बार ये ब्रैंड अचानक किसी अनोखी जगह पर पॉप-अप शॉप खोल देते हैं, जिससे लोगों में एक तरह की खोज और 'इनसाइडर' होने की भावना बनती है। ये ब्रैंड जानबूझकर अपने आपको ढूंढने में थोड़ा मुश्किल रखते हैं और जल्दी-जल्दी बड़े मार्केट में नहीं जाते, ताकि उनका स्टाइल और पहचान खास बनी रहे।

इन 'इनविजिबल ब्रैंड्स' की लोकप्रियता इसलिए बढ़ रही है क्योंकि ये सिर्फ दिखावे पर नहीं, बल्कि गहरे मूल्यों और ईमानदार काम पर जोर देते हैं। ये ब्रैंड तेज फैशन और ज्यादा खरीदारी वाली संस्कृति के उलट काम करते हैं। ये लंबे समय तक चलने वाले, अच्छे से बनाए गए और सादगी वाले प्रॉडक्ट बनाते हैं। इनकी मार्केटिंग भी बहुत शांत और साधारण होती है। महंगे मॉडल या चमकीले ऐड्स नहीं, बल्कि असली कारीगरों और उनके काम की कहानी दिखाते हैं। जैसे कोई कपड़ों का ब्रैंड अपने फैब्रिक बनाने वाली जापानी मिल या हाथ से काम करने वाले कारीगरों का वीडियो दिखाता है। इससे ग्राहकों के साथ भरोसा और कनेक्शन बनता है।

भारत में ये ट्रेंड अपनी अलग ही तरह से बढ़ रहा है। मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली के युवा उद्यमी ऐसे ब्रैंड बना रहे हैं जो सादगी और आधुनिक डिजाइन को भारतीय पारंपरिक कारीगरी से जोड़ते हैं। वे गुजरात के बुनकरों या राजस्थान के ब्लॉक प्रिंटर्स के साथ मिलकर ऐसे प्रॉडक्ट बनाते हैं जिनमें पुरानी कला और नई सोच दोनों झलकती हैं। इनके ब्रैंडिंग में कोई बड़ी-बड़ी बातें या चमक-दमक नहीं होती, ये बस अपने काम की क्वॉलिटी और कारीगरों की कहानी को दिखाते हैं। इंस्टाग्राम पर भी ये अपनी लाइफस्टाइल नहीं दिखाते, बल्कि बताते हैं कि उनका कपड़ा कैसे बना, कौन-कौन से कारीगर जुड़े।

भारत में 'इनविजिबल ब्रैंडिंग' का मतलब सिर्फ बिना-लोगो वाले प्रॉडक्ट नहीं है, बल्कि उसके साथ एक सोच जुड़ी होती है- पर्यावरण बचाना, ईमानदार काम करना और दिखावे से दूर रहना। ये ब्रैंड खुद को तेज फैशन और लोगो से भरे पारंपरिक भारतीय ब्रैंड्स के विकल्प के तौर पर पेश करते हैं। आज की नई पीढ़ी, जो असली और नैतिक चीजों को महत्व देती है, लेकिन दिखावे वाली लाइफस्टाइल नहीं चाहती, उन्हीं को ये ब्रैंड पसंद आते हैं। एक सादी खादी की कुर्ता या पीतल का साधारण बर्तन भी अब सिर्फ चीज नहीं, बल्कि एक सोच का प्रतीक बन जाता है।

शहरों में रहने वाले मिलेनियल्स और Gen Z ऐसे प्रॉडक्ट्स चाहते हैं जो एक साथ भारतीय भी हों और आधुनिक भी। इनविजिबल ब्रैंड इसी वजह से सफल होते हैं- उनके प्रॉडक्ट बांद्रा के कैफे में भी फिट बैठते हैं और बर्लिन की आर्ट गैलरी में भी और क्योंकि उन पर कोई बड़ा लोगो नहीं होता, लोग उन्हें अपने तरीके से समझते और अपनाते हैं; वे किसी एक संस्कृति में बंधे नहीं होते।

सोशल मीडिया भी इन ब्रैंड्स की ग्रोथ में जरूरी है, लेकिन ये कंपनियां सोशल मीडिया का इस्तेमाल अलग ढंग से करती हैं। ये लगातार ऐड नहीं डालते, बल्कि अपने अकाउंट को एक तरह की कहानी की तरह पेश करते हैं। असली लोगों के घरों में खींची तस्वीरें, कारीगरों की कहानी, प्रॉडक्ट बनाने की प्रक्रिया- ये सब मिलकर एक भरोसा बनाते हैं। उनके कमेंट सेक्शन भी मिनी-समुदाय बन जाते हैं, जहाँ ग्राहक अपने अनुभव और विचार साझा करते हैं। ब्रैंड का अकाउंट किसी बड़ी कंपनी की तरह नहीं बल्कि एक इंसान की तरह बातचीत करता है।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि बिना लोगोज के भी इन ब्रैंड्स की पहचान और भी तेज हो जाती है। एक बिल्कुल सादा काला कैप भी 'पहचान' का हिस्सा बन जाती है- उसे देखने वाला तुरंत समझ जाता है कि यह किस तरह के ब्रैंड और सोच को दर्शाता है। ये प्रॉडक्ट उन लोगों के बीच एक 'सीक्रेट सिग्नल' की तरह काम करते हैं जो इस तरह की चीजों को पहचानते हैं।

लोगों को इन ब्रैंड्स के प्रॉडक्ट इसलिए भी पसंद आते हैं क्योंकि वे उनके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन जाते हैं और वे खुद को व्यक्त करते हैं, किसी कंपनी का विज्ञापन नहीं बनते। लोग अपनी कहानी खुद इस प्रॉडक्ट से जोड़ते हैं, क्योंकि उस पर कोई लोगो नहीं है।

कुछ लोग कहते हैं कि यह भी एक तरह की चालाक मार्केटिंग है- लोग अपनी जेब से ज्यादा पैसा देकर इन ब्रैंड्स का प्रचार खुद करते हैं। और भारत जैसे देश में जहाँ ज्यादातर लोग क़ीमत देखते हैं, ऐसे ब्रैंड सिर्फ एक छोटे वर्ग तक सीमित रहते हैं। लेकिन इनके चाहने वालों का कहना है कि ये ब्रैंड असली और ईमानदार काम दिखाते हैं, कारीगरों का सम्मान करते हैं और दिखावे वाली दुनिया से राहत देते हैं- इसलिए यह सब सिर्फ दिखावा नहीं, बल्कि एक नई सोच है।

अब बड़े-बड़े ब्रैंड भी इस ट्रेंड को कॉपी करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ज्यादातर सफल नहीं होते। वजह यह है कि 'इनविजिबल ब्रैंडिंग' केवल लोगो हटाने से नहीं आती- पूरी कंपनी को उसी सोच पर काम करना पड़ता है। ग्राहक बहुत जल्दी पहचान लेते हैं कि कौन असली है और कौन सिर्फ नकल कर रहा है।

आगे चलकर, जब लोग ज्यादा समझदारी से खरीदारी करेंगे और रोज-रोज के ब्रैंड शोर से थक जाएंगे, तब शायद ऐसी शांत और सादगी वाली ब्रैंडिंग एक नया मानक बन जाए। भारत के बड़े शहरों- मुंबई, दिल्ली- में यह बदलाव पहले ही साफ दिखने लगा है। नई पीढ़ी ब्रैंड को सिर्फ चीज नहीं, बल्कि एक सोच, एक पहचान और एक संस्कृति की तरह देख रही है।

 

 

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

गंभीर के अहंकार ने टीम इंडिया को बर्बाद कर दिया: नीरज बधवार

आपने अपने सिरफिरे प्रयोगों से टीम का बेड़ा गर्क कर दिया। आपको अपने जवाबों में विनम्रता दिखानी चाहिए थी। बैकफ़ुट पर होना चाहिए था। आपका दुख भी झलकना चाहिए था।

Samachar4media Bureau by
Published - Thursday, 27 November, 2025
Last Modified:
Thursday, 27 November, 2025
neerajbadhwar

नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

गंभीर की प्रेस कॉन्फ्रेंस सुनी। गुस्ताख़ी माफ़ हो, मगर मानसिक रूप से इतना असंतुलित व्यक्ति को आप कोच कैसे बना सकते हैं? पिछले 7 साल में आप घर में 5 टेस्ट हार चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया में भी 3-1 से हारे थे, अगर हैरी ब्रूक ने पाँचवें टेस्ट में खराब शॉट न खेला होता तो इंग्लैंड से भी 3-1 से हारकर आते। इस बीच जीते किससे? बांग्लादेश और वेस्टइंडीज़ से?

आपने अपने सिरफिरे प्रयोगों से टीम का बेड़ा गर्क कर दिया। आपको अपने जवाबों में विनम्रता दिखानी चाहिए थी। बैकफ़ुट पर होना चाहिए था। आपका दुख भी झलकना चाहिए था। बावजूद इसके आपकी सफ़ाई में भी इतना अहंकार है, इतना गुस्सा है। जैसे आप इस बात पर नाराज़ हों कि लोग इतनी बड़ी हार के बाद नाराज़ क्यों हैं।

कोच के तौर पर आपको खिलाड़ियों को खेल नहीं सिखाना होता, आपको उनके इमोशन्स मैनेज करने होते हैं। लेकिन अगर ख़ुद ही इतना भावनात्मक रूप से कमज़ोर और असुरक्षित हैं, तो खिलाड़ियों से कैसे डील करेंगे? यही वजह है कि अश्विन से लेकर कोहली, रोहित जिस-जिस खिलाड़ी में रीढ़ थी, गंभीर ने चुन-चुनकर उनको टीम से निकाल दिया। क्योंकि असुरक्षित इंसान को हर वक़्त अपनी अथॉरिटी दिखाने की ज़रूरत पड़ती है।

उसे ज़िंदा लोग अच्छे नहीं लगते, उसे अपने आसपास जी-हुज़ूरों का टोला चाहिए होता है जो अपनी ग़ैरत, अपना आत्मसम्मान, अपनी सोच-समझ उनके चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित कर दें। गंभीर बार-बार कहते हैं कि मैं बहुत निष्पक्ष हूँ। मैं सिर्फ़ टीम की बात करता हूँ, खिलाड़ियों की नहीं। उनका बार-बार यह दावा करना भी अहंकार का घृणित रूप है।

बार-बार ऐसा कहकर वे यह जतलाते हैं कि यह दुनिया कितनी नासमझ है और इस नासमझ दुनिया में मेरी नैतिकता कितनी ऊँची है। ऐसा बोलने से अंदर का अहंकारी आदमी ख़ुश होता है। वह अहंकारी आदमी जिसे यह तकलीफ़ है कि 2011 की जीत का क्रेडिट धोनी को क्यों मिलता है।

वह अहंकारी आदमी जिसे ऑस्ट्रेलिया में दो-दो बार टेस्ट सीरीज़ जितवाने वाले रवि शास्त्री की उपलब्धियों को भी कोई भाव नहीं देता। लेकिन एशिया कप जैसे थके हुए टूर्नामेंट में पाकिस्तानी जैसी पैदल टीम को हराने को वह अपने कोचिंग करियर की बड़ी सफलता मानता है।

गंभीर की साइकोलॉजिकल प्रोफ़ाइलिंग एक अहंकारी और भावनात्मक रूप से अस्थिर व्यक्ति की कहानी बयान करती है। ऑस्ट्रेलियाई टीम के हेड कोच एंड्र्यू मैकडॉनल्ड को देखिए। पहले तो बोलते ही कम हैं। जब भी बोलते हैं -एकदम नपा-तुला।

कहीं यह कोशिश नहीं कि अपने स्टेटमेंट से किसी को हैरान कर दूँ। अपनी मौजूदगी दर्ज करने के लिए कोई चमकदार बयान दे दूँ। कोच को ऐसा ही होना चाहिए। वो होते हुए भी दिखना नहीं चाहिए। दिखे भी तो बिना शोर-शराबे के निकल जाना चाहिए, क्योंकि यह उसका काम ही नहीं है।

लेकिन अहंकार को हर वक़्त मान्यता चाहिए होती है। इसलिए वह गंभीर की तरह लाउड और बड़बोला होता है।
गंभीर एक अच्छे खिलाड़ी ज़रूर थे, मगर वह सिरफिरे और अहंकारी कोच हैं। ऐसे कोच जिनके अहंकार ने टीम इंडिया का बेड़ा गर्क करके रख दिया है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

क्या 'AI' का बुलबुला फटेगा: पढ़िए इस सप्ताह का हिसाब किताब

डेटा सेंटर में कम्प्यूट का काम GPU यानी ग्राफ़िक्स प्रोसेसिंग यूनिट करता है। GPU बाज़ार पर 90% क़ब्ज़ा NVIDIA का है। पिछले हफ़्ते शेयर बाज़ार की नज़र उसके रिज़ल्ट पर थी।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 24 November, 2025
Last Modified:
Monday, 24 November, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) की दुनिया में गूगल ने पिछले हफ़्ते बड़ा धमाका किया। AI मॉडल Gemini 3 लॉन्च किया। यह मॉडल कई मायनों में ChatGPT से बेहतर बताया जा रहा है। मैं अभी भी इसे चलाना सीख रहा हूँ, इसलिए Gemini के बारे में आगे लिखूँगा। AI को लेकर इस हफ़्ते एक और चर्चा तेज़ हो गई कि क्या यह बुलबुला है? क्या ये बुलबुला भी 25 साल पहले फटे डॉट कॉम बबल की तरह फटेगा और शेयर मार्केट को ले डूबेगा।

AI बबल की चर्चा पिछले साल भर से होती रही है, लेकिन हाल में इसने ज़ोर पकड़ा क्योंकि गूगल के सुंदर पिचाई, OpenAI के फाउंडर सैम ऑल्टमैन और माइक्रोसॉफ़्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने बयान दिए हैं। उनका सार यह है कि इन्वेस्टर AI कंपनियों को लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हैं। इस कारण वैल्यूएशन यानी शेयरों की क़ीमत बहुत बढ़ गई है। यह बुलबुला हो सकता है।

बुलबुले यानी बबल को लेकर अलग-अलग चेतावनी दी जा रही है। बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने पिछले महीने शेयर बाज़ार में AI शेयरों को लेकर चिंता जताई थी कि यह डॉट कॉम की तरह फट सकता है। JP Morgan की रिपोर्ट में कहा गया कि AI में जितना इन्वेस्टमेंट हो रहा है, उसका रिटर्न सालाना 10% भी रखना है तो हर साल 650 बिलियन डॉलर की कमाई करनी होगी। अभी सबसे बड़ी जेनरेटिव AI कंपनी OpenAI की आय क़रीब 10 बिलियन डॉलर है।

हम पहले बता चुके हैं कि AI को काम करने के लिए बड़े-बड़े डेटा सेंटर की ज़रूरत है। इनका काम तकनीकी भाषा में कम्प्यूट करना है या यूँ कहें कि जो काम AI को दिया गया है, उसको पूरा करने के लिए यह गणना डेटा सेंटर में होती है। डेटा सेंटर में कम्प्यूट का काम GPU यानी ग्राफ़िक्स प्रोसेसिंग यूनिट करता है। GPU बाज़ार पर 90% क़ब्ज़ा NVIDIA का है। पिछले हफ़्ते शेयर बाज़ार की नज़र उसके रिज़ल्ट पर थी। NVIDIA की चिप्स की बिक्री ज़बरदस्त बढ़ रही है। पिछले क्वार्टर में उसका मुनाफ़ा 32 बिलियन डॉलर हुआ है। पिछले साल इसी अवधि के मुक़ाबले 65% ज़्यादा है।

इसके शेयरों की क़ीमत हाल में 5 ट्रिलियन डॉलर पार कर गई थी। यह दुनिया की सबसे क़ीमती कंपनी बन गई है। अच्छे रिज़ल्ट के बाद भी NVIDIA के शेयरों में गिरावट हुई है। बाज़ार में डर बना हुआ है कि कहीं AI बुलबुला सबको न डूबा दे, जैसे डॉट कॉम में हुआ था।

अमेरिका के शेयर बाज़ार में Magnificent 7 के नाम से मशहूर टेक्नोलॉजी कंपनियों के शेयरों की क़ीमत कुल बाज़ार के क़रीब 36% है। इसमें Apple, Microsoft, Google, Meta, Amazon, NVIDIA और Tesla शामिल हैं। अमेरिकी शेयर बाज़ार में पिछले साल भर में जो फ़ायदा हुआ है, उसका आधे से ज़्यादा हिस्सा इन कंपनियों का है। ये गिरेंगे तो बाक़ी बाज़ार पर भी असर पड़ सकता है।

तो फिर हम क्या करें? JP Morgan के CEO जैमी डायमन्ड कहते हैं कि बाज़ार में बुलबुला है, कई लोगों को नुक़सान होगा, लेकिन AI टेक्नोलॉजी ठीक है। यही बात सुंदर पिचाई भी कह रहे हैं कि डॉट कॉम बबल फूट गया था, मगर इंटरनेट बच गया बल्कि दुनिया को बदल दिया। यही संभावना AI के साथ है। जब बिजली और रेल आई थी, तब भी शेयर बाज़ार में बुलबुला था। वह फूटा भी, लेकिन ट्रेन और बिजली आज भी चल रही है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए