जन्मदिन विशेष: प्रो. (डॉ.) के. जी. सुरेश एक व्यक्तित्व नहीं, प्रेरणा का जीवंत स्रोत

नेपाल का राजमहल नरसंहार, गुजरात का भूकंप और दंगे, अफगानिस्तान का युद्धोत्तर संकट या फिर अडवाणी की पाकिस्तान यात्रा जैसे संवेदनशील घटनाक्रम, उन्होंने हर घटना को गहराई से देखा।

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Friday, 26 September, 2025
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डॉ. अंकित पांडेय।

प्रोफ़ेसर (डॉ.) के. जी. सुरेश का जीवन एक ऐसी प्रेरणादायी यात्रा है, जिसमें पत्रकारिता, शिक्षा, संस्थान निर्माण और जनसंचार के क्षेत्र में उनके अथक प्रयास और योगदान झलकते हैं। उनका व्यक्तित्व विद्यार्थियों, कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए इसलिए आदर्श है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में जो शिखर छुए, वे केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं थे, बल्कि समाज के प्रति उनके गहरे दायित्वबोध और राष्ट्रहित से प्रेरित थे।

26 सितम्बर का दिन केवल उनका जन्मदिन नहीं है, बल्कि यह उस प्रतिबद्धता और समर्पण की याद भी दिलाता है, जिसे उन्होंने अपने जीवन और कार्यों से सबके सामने प्रस्तुत किया। डॉ. अंकित पांडेय ने प्रो. डॉ. के. जी. सुरेश : व्यक्तित्व और कृतित्व, एक वैयक्तिक अध्ययन विषय पर शोध कार्य भी किया है, जो विद्यार्थियों के लिए अत्यंत प्रासंगिक है।

के. जी. सुरेश का आरंभिक जीवन साधारण पृष्ठभूमि से शुरू हुआ, लेकिन उनकी दृष्टि असाधारण थी। वे प्रारंभ से ही मीडिया और जनसंचार की शक्ति को समझते थे। शिक्षा पूरी करने के बाद जब उन्होंने पत्रकारिता की राह चुनी, तो उनके सामने अनेक चुनौतियाँ थीं। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (PTI) में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान उन्होंने न केवल देश की राजनीति और संसद की गतिविधियों को नज़दीक से समझा, बल्कि अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की रिपोर्टिंग कर इतिहास का हिस्सा भी बने। नेपाल का राजमहल नरसंहार, गुजरात का भूकंप और दंगे, अफगानिस्तान का युद्धोत्तर संकट या फिर अडवाणी की पाकिस्तान यात्रा जैसे संवेदनशील घटनाक्रम, उन्होंने हर घटना को गहराई से देखा, समझा और समाज के समक्ष प्रस्तुत किया।

उनका लेखन और रिपोर्टिंग केवल तथ्यों पर आधारित नहीं था, बल्कि उनमें संवेदनशीलता की झलक भी होती थी, जो किसी भी उत्कृष्ट पत्रकार की पहचान होती है। दूरदर्शन में वरिष्ठ सलाहकार संपादक के रूप में उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय रही। यहाँ उन्होंने कई नये और नवाचारी कार्यक्रम शुरू किए, जिन्होंने पत्रकारिता की परिभाषा बदल दी और जनसंचार के क्षेत्र में सकारात्मकता की नई धारा प्रवाहित की।

“वार्तावली”, जो विश्व का पहला संस्कृत टेलीविजन समाचार पत्रिका था, उनकी दूरदर्शिता का उदाहरण है। “गुड न्यूज़ इंडिया” जैसे कार्यक्रमों ने यह संदेश दिया कि समाचार केवल नकारात्मक घटनाओं और विवादों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समाज में हो रही सकारात्मक पहल और प्रेरणादायी कार्यों पर भी ध्यान केंद्रित होना चाहिए। “इंडिया फर्स्ट” और “दो टूक” जैसे कार्यक्रमों ने जनसंचार को नया आयाम दिया, जिसमें गंभीर विमर्श के साथ साहसिक और स्पष्ट संवाद शामिल था। इसके अतिरिक्त, दूरदर्शन का पहला एंड्रॉयड आधारित मोबाइल एप लाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है, जो प्रमाणित करता है कि वे तकनीकी युग के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में विश्वास रखते थे।

संस्थान निर्माता के रूप में उनकी पहचान सर्वविदित है। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में महानिदेशक के रूप में उनका कार्यकाल ऐतिहासिक रहा। उन्होंने भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को सशक्त बनाने हेतु उल्लेखनीय कदम उठाए। अमरावती और कोट्टायम परिसरों में मराठी और मलयालम पत्रकारिता के पाठ्यक्रम आरंभ किए, वहीं दिल्ली परिसर में उर्दू पत्रकारिता को प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम से आगे बढ़ाकर पूर्णकालिक स्नातकोत्तर डिप्लोमा बनाया।

संस्कृत पत्रकारिता को बढ़ावा देते हुए उन्होंने विशेष प्रमाणपत्र कार्यक्रम भी शुरू किया। उनके प्रयासों से IIMC भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के पुनर्जागरण का केंद्र बना। इसी दौरान उन्होंने सामुदायिक रेडियो सशक्तिकरण एवं संसाधन केंद्र और राष्ट्रीय मीडिया फैकल्टी विकास केंद्र की स्थापना की। IIMC की पत्रिकाएँ ‘Communicator’ और इसका हिंदी संस्करण ‘संचार माध्यम’ उनके नेतृत्व में पुनः प्रकाशित होने लगा, जिससे अकादमिक जगत को नई ऊर्जा मिली। उनकी दूरदृष्टि का एक और उदाहरण ‘मीडिया महाकुंभ’ है, जो 2018 में आयोजित हुआ।

यह IIMC का पहला अंतर-विश्वविद्यालयीय युवा महोत्सव था, जिसमें पूरे देश से मीडिया विद्यार्थी एकत्र हुए और उन्होंने अपनी प्रतिभा और सृजनशीलता का प्रदर्शन किया। यह आयोजन इस बात का प्रतीक बना कि पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि विचारों और मूल्यों के आदान-प्रदान का माध्यम है।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति के रूप में भी उन्होंने विश्वविद्यालय की नई पहचान बनाई। विश्वविद्यालय ने उनके नेतृत्व में शोध, पाठ्यक्रम पुनर्गठन और तकनीकी उन्नति के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल कीं। उन्होंने शिक्षा को व्यावहारिक प्रशिक्षण से जोड़ने का विशेष प्रयास किया, जिससे विद्यार्थी और शिक्षक दोनों लाभांवित हुए।

डॉ. सुरेश केवल प्रशासक और पत्रकार ही नहीं, बल्कि एक समर्पित शिक्षक भी हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आपदा अध्ययन केंद्र में संचार कौशल पढ़ाया। साथ ही, वे Academy of Scientific and Innovative Research, Delhi Institute of Heritage Research and Management, दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े रहे। उनके व्याख्यान शैक्षणिक स्तर तक सीमित न होकर, विद्यार्थियों के व्यक्तित्व निर्माण और राष्ट्रीय चेतना को गहराई से प्रभावित करते थे।

उनका नाम केवल शिक्षा और पत्रकारिता तक सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी गूँजता रहा। सियोल में आयोजित World Media Conference, दोहा और वियना में United Nations Alliance of Civilizations Forum, बैंकॉक में World Sanskrit Conference, मॉरीशस में World Hindi Conference, और टोक्यो में India-Japan Global Partnership Summit जैसे अनेक वैश्विक आयोजनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। हर मंच पर उन्होंने भारतीय दृष्टिकोण और अनुभव प्रस्तुत किए और संवाद को अंतरराष्ट्रीय आयाम दिया।

उनके प्रयासों और योगदानों को देश-विदेश में अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। इनमें गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, PRSI Leadership Award, Visionary Leader in Media Education Award, ख्वाजा गरीब नवाज़ अवार्ड और मीडिया शिक्षा में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। राष्ट्रमंडल युवा कार्यक्रम (Commonwealth Youth Programme) द्वारा उन्हें एशिया क्षेत्र से युवा राजदूत बनाया गया, जो उनके वैश्विक कद का प्रमाण है।

उनका जीवन यह सिखाता है कि जब दृष्टि स्पष्ट हो, उद्देश्य समाज और राष्ट्र हो और समर्पण अटूट हो, तो असंभव भी संभव हो जाता है। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि पत्रकारिता केवल समाचार देने का माध्यम नहीं, वह समाज निर्माण का सशक्त साधन है; शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति नहीं, बल्कि राष्ट्र की चेतना को जागृत करने का प्रयास है; और संस्थान केवल भवन नहीं, बल्कि विद्यार्थी, शिक्षक और शोधकर्ताओं की ऊर्जा से जीवित रहने वाली इकाई हैं।

उनके अनेक व्याख्यान विद्यार्थियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। वे बार-बार कहते रहे हैं कि भारतीय भाषाओं को सशक्त करना भारतीय लोकतंत्र की मजबूती की कुंजी है। उनका यह मत कि सकारात्मक समाचार समाज परिवर्तन लाने में उतने ही प्रभावी हो सकते हैं जितने नकारात्मक समाचार, वर्तमान पत्रकारिता के लिए मार्गदर्शक है।

डॉ. सुरेश का जीवन इस तथ्य का प्रतीक है कि व्यक्तिगत संघर्ष और प्रयासों से व्यक्ति केवल स्वयं नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र को नई दिशा दे सकता है। पत्रकारिता, शिक्षा और जनसंचार में किए गए उनके सुधार और नवाचार भविष्य में भी याद किए जाते रहेंगे। आज जब उनके शिष्य, सहकर्मी और भारतीय पत्रकारिता जगत उन्हें स्मरण करता है तो यह उनके कार्यों का ही नहीं बल्कि उनके द्वारा समाज को दी गई प्रेरणा का भी उत्सव है।

उनके जन्मदिवस के अवसर पर यह कहना उचित होगा कि प्रत्येक विद्यार्थी, कर्मचारी और अधिकारी उनके जीवन से यह शिक्षा ले कि अनुशासन, ईमानदारी, समर्पण और नवाचार—ये चार तत्व किसी भी सफलता की नींव हैं। यदि हम इन्हें अपने जीवन में उतारें तो अवश्य ही हम न केवल व्यक्तिगत सफलता अर्जित कर सकते हैं बल्कि अपने कार्यक्षेत्र और समाज को भी नई दिशा दे सकते हैं।

प्रो. (डॉ.) के. जी. सुरेश का जीवन इसी उच्च आदर्श का जीवंत उदाहरण है। जिस प्रकार 5 सितम्बर को देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है, उसी प्रकार 26 सितम्बर को प्रो. (डॉ.) के. जी. सुरेश के जन्मदिन पर राष्ट्रीय मीडिया शिक्षण दिवस का आयोजन होना चाहिए ताकि उनकी प्रेरणा और योगदान को देशभर के विद्यार्थी अनुभव कर सकें।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) डॉ. अंकित पांडेय ने प्रो. डॉ. के. जी. सुरेश : व्यक्तित्व और कृतित्व, एक वैयक्तिक अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है।

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टैरिफ के घाव पर 'H1B' का नमक: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर हथौड़ा चला दिया है। 'H1B' वीज़ा की फ़ीस अब सीधे एक लाख डॉलर कर दी है। पहले कितनी थी इस पर अलग-अलग अनुमान है।

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Monday, 22 September, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारत और अमेरिका के रिश्ते ठीक होते दिखाई दे रहें थे तभी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक और फ़ैसला किया है जिससे हमें नुक़सान होगा। 'H1B' वीजा की फ़ीस बढ़ाकर एक लाख डॉलर कर दी है यानी क़रीब 88 लाख रुपये। कंपनियाँ यह वीजा अमेरिका से बाहर के कर्मचारियों को काम पर रखने के लिए लेती थीं। अब जितनी फ़ीस हो गई हैं उतनी तो भारतीय कर्मचारियों की सैलरी होती है।

पहले समझ लेते हैं कि 'H1B' वीज़ा क्या है? अमेरिकी सरकार कंपनियों को ऐसे कर्मचारियों के लिए यह वीज़ा देती है जो टेक्नोलॉजी, साइंस, मेडिकल जैसे क्षेत्र में काम करते हैं। हर साल 85 हज़ार लोगों को यह वीजा मिलता है। इसकी अवधि तीन साल होती है।

इन 85 हज़ार लोगों में 50 हज़ार से ज़्यादा भारतीय होते हैं। अमेरिका की सोच यह रही है कि जिन क्षेत्रों में उसका अपना टैलेंट नहीं है उसे बाहर से मँगवाया जाएँ। भारतीयों के लिए यही अमेरिका में बसने की पहली सीढ़ी है। इस पर एक्सटेंशन लेते लेते वो ग्रीन कार्ड यानी वहाँ की नागरिकता पा सकते हैं।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर हथौड़ा चला दिया है। 'H1B' वीज़ा की फ़ीस अब सीधे एक लाख डॉलर कर दी है। पहले कितनी थी इस पर अलग-अलग अनुमान है जो चार हज़ार से सात हज़ार डॉलर के बीच में है। जिनके पास पहले से वीज़ा है उन पर अभी कोई असर नहीं पड़ेगा। यह फ़ीस नए वीज़ा पर लागू होगी। ट्रंप प्रशासन का कहना है कि कंपनियाँ इसकी आड़ में बाहर से सस्ते कर्मचारियों को रखती हैं क्योंकि उनकी सैलरी अमेरिकी कर्मचारियों के मुक़ाबले कम होती है।

भारतीय कर्मचारियों को सालाना 90 हज़ार डॉलर से लेकर 1.20 लाख डॉलर सालाना मिलता है यानी कंपनियों को लगभग उतना ही पैसा वीज़ा पर खर्च करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में कंपनियाँ इस रास्ते से लोगों को लाने से बचेंगी तो भारतीय इंजीनियर के लिए अवसर कम हो सकते हैं। भारत की IT कंपनियों पर भी इसका असर पड़ेगा।

Infosys ,Wipro, TCS जैसी कंपनियाँ इस वीज़ा का इस्तेमाल कर कर्मचारियों को अमेरिका में भेजती हैं जहां वो दूसरी कंपनियों के लिए काम करते हैं। अमेरिकी शेयर बाज़ार में भारत की कंपनियों के शेयर (ADR) शुक्रवार को इस ख़बर के बाद गिर गए हैं। ये कंपनियाँ पहले ही AI की मार झेल रही हैं अब ट्रंप ने जले पर नमक छिड़क दिया है। नमक तो खैर टैरिफ़ के घाव पर भी डाला है। कहाँ तो ट्रेड डील की आस बंध रही थी कि यह नई मुसीबत आ गई है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत का 'Gen Z ' अपने धर्म को लेकर उत्सुक: अनंत विजय

भारत का जेन जी आध्यात्मिकता को लेकर उत्सुक है। वो धर्म के नाम पर चलनेवाली कुरीतियों से, जड़ता से, नहीं जुड़ रहा बल्कि उसकी वैज्ञानिकता और आत्मिक संतोष से जुड़ता है।

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Monday, 22 September, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पिछले दिनों दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति की तैयारी के सिलसिले में कुछ शोध संस्थानों में जाकर उनकी कार्यविधि को समझने का प्रयास किया। इसी क्रम में दिल्ली के पब्लिक पालिसी थिंक टैंक, सेंटर आफ पालिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस (सीपीआरजी) में कुछ समय बिताया। संस्था से संबद्ध लोगों से लंबी बातचीत की। बातचीत के क्रम में सीपीआरजी के निदेशक रामानंद जी से बहुत लंबी चर्चा हुई। इस क्रम में उन्होंने कई रोचक प्रोजेक्ट की चर्चा की।

एक प्रोजेक्ट जिसने मेरा ध्यान खींचा वो था कुछ विशेष तिथियों पर नदी किनारे होनेवाले जमावड़ों और उसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव की। इसी क्रम में पता चला कि सीपीआरजी एक शोध वाराणसी और अयोध्या में होनेवाले श्रावण स्नान मेला में गंगा और सरयू के किनारे जुटनेवाले श्रद्धालुओं के मन को टटोलने का प्रयास कर रहा है। वो किस कारण से वहां आते हैं और उनपर इस जुटान का क्या असर पड़ता है, इसको जानने के लिए अध्ययन किया जा रहा है।

कहा जा सकता है कि ये स्नान भक्ति का एक रूप है लेकिन इसमें सामाजिकता और परंपरा के निर्वाह का उमंग भी दिखता है। इस शोध में ये पता करने का प्रयास किया जा रहा है कि इस स्नान का पर्यावरण से कितना संबंध है या कितना प्रभाव पड़ता है। क्या इस स्नान से भारत की संस्कृति और उसके अंतर्गत मनाए जानेवाले विविधता के उत्सव की झलक देखने को मिलती है। इस दौरान प्रशासन किस तरह से कार्य करता है। बातचीत जब आगे बढ़ी को पता चला कि अभी इस अध्ययन का अंतिम परिणाम सामने नहीं आया है। जो आरंभिक बातें सामने आ रही हैं उसके बारे में जानना भी दिलचस्प है।

नदियों के किनारे स्नान के दौरान होनेवाले जुटान को लेकर अधिकतर लोग इसको भक्ति से जोड़कर देखते हैं। वहीं कुछ इसको सामाजिकता के प्रगाढ़ होते जाने के उत्सव के तौर पर इसमें हिस्सा लेते हैं। कई लोग पारिवारिक परंपरा के निर्वाह के लिए नदी तट पर जुटते हैं और सामूहिक स्नान करते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को भी स्नान के लिए साथ लेकर आते हैं। उनको अपनी इस परंपरा की ऐतिहासिकता के बारे में बताते भी हैं। मौखिक रूप से अपनी परंपरा को बताने में कथावाचन के तत्व रहते हैं। मोटे तौर ये वर्गीकरण दिखता है।

जब सूक्षम्ता से विश्लेषण किया गया तो पता चला कि जो युवा इस स्नान में शामिल होते हैं वो इसमें आध्यात्मिकता, सामाजिकता और अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए नदियों के किनारे जुटते हैं। युवाओं के मुताबिक वो स्नान के अपने इन अनुभवों को अपने मोबाइल के कैमरे में समेट भी लेते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों पर उसको साझा भी करते हैं। ये भी एक कारण है कि अन्य युवा भी इस स्सान के लिए प्रेरित होते हैं। वहीं जो अपेक्षाकृत अधिक उम्र के लोग हैं वो भक्तिभाव से अपनी परंपरा और पौऱाणिक स्मृतियों से स्वयं को जोड़ते हैं।

इस कारण वो सरयू और गंगा में डुबकी लगाने के लिए श्रावण स्नान के समय जुटते हैं। इस स्टडी के आरंभिक नतीजों के बारे में जानकर ये लगता है कि कैसे भारतीय परंपरा में एक पर्व की कई परतें होती हैं जो भारतीय समाज को आपस में जोड़ती हैं। इस अध्ययन का जब परिणाम सामने आएगा तो पता चलेगा कि कैसे पुजारी, समाज के वरिष्ठ जन, परिवार, स्थानीय समितियां और युवा इन पर्वों के माध्यम से ना सिर्फ एक दूसरे से जुड़ते हैं बल्कि अपनी परंपरा को भी गाढ़ा करते हैं।

इस तरह के कई शोध और अध्ययन हो रहे होंगे। दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति भी इस तरह के शोध को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है। जिसमें अभ्यार्थियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो नौ महीने तक किसी विशेष भारतीय घटना या परंपरा का अध्ययन करें और उसके आधार पर पुस्तक लिखें। इसके लिए जागरण आर्थिक मदद भी करता है।

इस बीच एक और खबर आई कि भारत सरकार सूर्य उपासना के पर्व छठ पूजा को यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल करवाना चाहती है। इसके लिए प्रयास आरंभ हो गए हैं। छठ पूजा भारत के प्राचीनतम पर्वों में से एक है। ये सूर्य की उपासना से तो जुड़ा ही है इसमें नदियों और घाटों की महत्ता भी है। स्वच्छता पर भी विशेष जोर दिया जाता है।

संस्कृति मंत्रालय ने इसके लिए कई देशों के राजदूतों के साथ बैठक की है और छठ पूजा को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल करवाने में उनका सहयोग मांगा है। दरअसल बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से और बंगाल में छठ पूजा की प्राचीन परंपरा रही है। बिहार से जो श्रमिक काम करने के लिए मारीशस, सूरीनाम, फिजी आदि देशों में गए वो अपने साथ छठ पूजा को लेकर गए। वहां भी प्राचीन काल से छठ पूजा हो रही है। संस्कृति मंत्रालय ये चाहता है कि छठ पूजा की प्राचीनता को लेकर अन्य देश भी भारत के दावे को पुष्ट करें।

छठ पूजा पर भी अगर गंभीरता से कोई अध्ययन किया जाए तो उसके भी रोचक परिणाम सामने आ सकते हैं। इस पर्व में पर्यावरण जुड़ता है। इसमें सामाजिकता है। मुझे याद पड़ता है कि हमारे गांव में जब महिलाएं छठ करती थीं तो अर्घ्य देने के लिए पूरे गांव के लोग जमा होते थे। तालाब के घाटों की सफाई की जाती थी। अगर संभव होता था तो तालाब पानी को भी साफ किया जाता था।

गांव से तालाब तक जाने वाले रास्तों की सफाई की जाती थी ताकि पर्व करनेवाली महिलाओं, जिनको बिहार की स्थानीय भाषा में परवैतिन कहा जाता है, को किसी प्रकार की तकलीफ ना हो। इसमें ये आवश्यक नहीं होता है कि जिनके घर की महिलाएं पर्व कर रही हों वही साफ सफाई के कार्य मे जुटते हैं। ये सामुदायिक सेवा होती है।

इस तरह से ये भारतीय पर्व स्वच्छता से भी जुड़ता है। छठ के अवसर पर सामाजिक जुटान भी होता है। हर समाज के लोग एक ही घाट पर पूजा करते हैं। वहां जात-पात का भेद नहीं होता है। लोग एक साथ पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं। ये सामाजिक समरसता को भी मजबूत करनेवाला पर्व है।

भारत के जो पर्व त्योहार हैं उनके पीछे कहीं ना कहीं किसी तरह से पर्यावरण से जुड़ने की बात देखने को मिलती है। पर्व-त्योहार को जो लोग रूढ़िवादिता से जोड़कर देखते हैं वो दरअसल किसी न किसी दृष्टिदोष के शिकार होते हैं। आज जिस तरह से भारतीय युवा अपने धर्म को लेकर, उसकी आध्यात्मिकता को लेकर उत्सुक है वो एक शुभ संकेत है।

वो धर्म के नाम पर चलनेवाली कुरीतियों से, जड़ता से, नहीं जुड़ता है बल्कि उसकी प्रगतिशीलता से, उसकी वैज्ञानिकता से और उससे मिलने वाले आत्मिक संतोष से जुड़ता है। आज अगर बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं के बीच अपने धर्म से जुड़ने की ललक दिखती है तो वो धार्मिकता और वैज्ञानिकता के संगम के कारण। युवा मन हर चीज में लाजिक खोजता है। जबर वो संतुष्ट होता है तभी वो किसी पर्व के साथ जुड़ता है। यह भारतीय परंपराओं की सनातनता है जो भारतीयों को जोड़ती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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बिहार में अपराधों के आरोपियों की उम्मीदवारी की परीक्षा: आलोक मेहता

243 में से करीब 160 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 123 विधायकों के खिलाफ संगीन अपराधों के आरोप हैं। 19 विधायकों पर हत्या के मामले दर्ज हैं।

Last Modified:
Monday, 22 September, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

बिहार विधान सभा चुनाव के लिए प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने अपराधियों की पृष्ठभूमि वाले नेताओं के मुद्दे पर परस्पर गंभीर आरोप लगाए हैं। अब टिकट बंटवारे यानी उम्मीदवारों पर अंतिम विचार-विमर्श, खींचातानी, गोपनीय या सार्वजनिक रिपोर्ट सामने रखी जा रही है। इसलिए स्वाभाविक है कि सभी पार्टियों के लिए यह अग्नि परीक्षा जैसी है। इस समय बिहार के 49 प्रतिशत विधायक गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं।

243 में से करीब 160 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 123 विधायकों के खिलाफ संगीन अपराधों के आरोप हैं। 19 विधायकों पर हत्या के मामले दर्ज हैं। 31 विधायकों पर हत्या के प्रयास के मामले दर्ज हैं। मामले अदालतों के समक्ष विचाराधीन हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि के मुद्दे में लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के 74 में से 54 विधायक यानी (73%) विधायकों पर मामले दर्ज हैं। वहीं भाजपा के 73 में से 47 विधायक यानी (64%) आपराधिक मामले का सामना कर रहे हैं। जबकि जदयू के 43 विधायकों में से 20 विधायक यानी (46%) पर आपराधिक मामले हैं। कांग्रेस पार्टी के 19 में से 18 विधायक (94%) विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

सवाल यह है कि अदालत में सुनवाई के नाम पर कितने नेताओं को टिकट मिलते हैं और जीत की मोह-माया में कितनों को टिकट मिलते हैं। सही मायने में मतदाता सूची, वोटिंग मशीन आदि अनावश्यक बातों के बजाय जनता अपराध पर कठोर अंकुश और विकास कार्यों में तेजी के लिए वोट देना चाहती है।

चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाली संस्था ए.डी.आर. ने अपनी एक रिपोर्ट में भी कहा था कि राजनीतिक दल ईमानदारी की अपेक्षा चुनावी योग्यता को प्राथमिकता देते हैं तथा जीत सुनिश्चित करने के लिए अक्सर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारते हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के पास अक्सर महत्वपूर्ण वित्तीय संसाधन और स्थानीय प्रभाव होता है, जिससे वे चुनावों पर हावी हो जाते हैं।

विधायिकाओं में अपराधियों की उपस्थिति लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं में जनता के विश्वास को कम करती है। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि आपराधिक विधायकों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में कम मतदान प्रतिशत निराशा को दर्शाता है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायक अक्सर सार्वजनिक कल्याण के स्थान पर निजी हितों को प्राथमिकता देते हैं, जिसके कारण सुधार अवरुद्ध हो जाते हैं। ऐसे विधायकों के प्रभाव के कारण आपराधिक न्याय सुधारों में भी देरी होती है।

सत्ता में बैठे अपराधी दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अपराध दर और भ्रष्टाचार बढ़ता है। धन और बाहुबल के प्रभुत्व के कारण ईमानदार व्यक्तियों को अक्सर राजनीति में प्रवेश मुश्किल होता है।

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश थी कि गंभीर आपराधिक आरोपों वाले उम्मीदवारों के लिए सख्त अयोग्यता नियम लागू होना चाहिए ताकि हत्या या बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के आरोपी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक उम्मीदवारों के मुकदमों में तेजी लाने की ज़रूरत है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2014 के फैसले में इस बात पर समर्थन जताया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बात की आवश्यकता बताई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और सरकार अब तक इस काम के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा सकी है।

राजनीति में अपराधियों के वर्चस्व के प्रभाव बिहार में 1988 से 1991 तक नवभारत टाइम्स के संपादक रहते हुए मैंने भी देखे और कई दिलचस्प रिपोर्ट भी प्रकाशित कीं। कई बार ऐसे नेताओं या उनके साथियों की धमकियां भी मिलीं। एक दिलचस्प मामला मुंगेर की जेल में हत्या के आरोप में बंदी एक विधायक रणवीर यादव का था। हमारे वरिष्ठ संवाददाता दिवाकर जी ने स्वयं मुंगेर के पास खगड़िया जेल जाकर रिपोर्ट लिखी थी। इसमें बताया गया था कि जेलर साहब बाहर खड़े थे और अंदर जेल की कुर्सी पर बैठे कैदी विधायक महोदय मस्ती से बैठे थे और पूरे रौब के साथ हमारे पत्रकार से बात करते रहे थे। फोटो खींचे जाने से भी प्रसन्न थे।

मुंगेर में 11 नवंबर 1985 को तौफिर दियारा (लक्ष्मीपुर) में बिंद जाति के एक टोले पर हमला कर उनके घरों को जला दिया गया था। बताते हैं कि 35 लोगों की हत्या कर दी गई थी। दिवाकर जी के अनुसार वे अपने फोटोग्राफर साथी सुबोध के साथ सुबह साढ़े नौ बजे खगड़िया जेल पहुंच गए। गेट पर हमने कहा कि हम नवभारत टाइम्स से आए हैं और रणवीर यादव से मिलना है।

हम लोग उससे पहले रणवीर यादव से कभी नहीं मिले थे। पर उन विधायक जी की हनक ऐसी थी कि उन्हें सूचना पहुंचाई गई और हम दोनों गेट के अंदर पहुँचे। संतरी ने इशारा किया कि जेलर के ऑफिस में जाइए। ऑफिस के बाहर अच्छे और साफ-सुथरे कपड़े पहने एक सज्जन स्टूल पर बैठे थे। उनसे हमने अपना काम बताया, तो उन्होंने उठकर कहा, "अंदर जाइए।" बाहर निकलते समय उस सज्जन ने बताया कि वही जेलर हैं।

हम लोग अंदर गए तो जेलर की कुर्सी पर झक सफेद कुरता-पायजामे में रणवीर यादव मौजूद थे। मैंने नोटबुक पर उनकी बातें नोट करनी शुरू कीं। सुबोध जी फोटो क्लिक करते रहे। रणवीर के पीछे गांधी जी की फोटो लगी थी। यह फोटो और रिपोर्ट नभाटा में पहले पेज पर प्रमुखता से छपी। दिवाकर जी अब दिल्ली में ही पत्रकारिता कर रहे हैं। मेरे फोन करने पर उन्होंने कुछ यादें ताजा कीं।

इसी तरह जून 1992 में अपने एक लेख में एक घटना का उल्लेख किया था। मेरे पटना कार्यकाल के दौरान बिहार के शिक्षा विभाग की निदेशक अचानक हमारे दफ्तर में आईं। उन्होंने लगभग बिलखते हुए बताया कि किस तरह एक विधायक ने उन्हें अपमानित किया।

पहले तो विधायक इस बात पर खफा हुए कि उनके आने पर वह कुर्सी से खड़ी क्यों नहीं हुईं, जबकि वह उन्हें जानती भी नहीं थीं। फिर दबंग विधायक ने एक सिफारिश का पत्र थमाकर कहा कि इस पर अभी आदेश करो। निदेशक ने केवल इतना कहा कि इस आवेदन पर पूरी जानकारी विभाग से लेकर वह आदेश देंगीं। तब दबंग नेता ने सड़क पर दी जाने वाली गालियां देकर खूब अपमानित किया।

परेशान महिला निदेशक एक महीने की छुट्टी लेकर अपना दुख सुनाने आई थीं। हमने रिपोर्ट छापी, हंगामा हुआ और मामला मुख्यमंत्री तक पहुँच सका। लेकिन विधायक का कुछ नहीं बिगड़ा।

एक अन्य घटना तो एक आई.ए.एस. अधिकारी के साथ हुई। दबंग नेता ने अपने परिवार के सदस्य को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाने में सहायता नहीं करने पर चप्पलों से पीट दिया। 1991 के लालू राज के दौरान ही गया के एक जज सत्यनारायण सिंह की दस साल की बेटी का अपहरण हुआ। इस कांड में भी लालू की पार्टी के दबंग विधायक के खास साथियों का नाम आया।

गया के वकीलों ने आंदोलन भी किया। लेकिन नेता और उनके साथियों पर सरकार ने कोई पुलिस कार्रवाई नहीं होने दी। बहरहाल, संभव है कि अब बिहार में पहले जैसी स्थिति नहीं है। फिर भी यह सही समय है जबकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को चुनावी उम्मीदवार बनाकर सत्ता में लाने के प्रयासों को रोका जाए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या नरेंद्र मोदी दैवीय अवतार हैं?

सार्वजनिक हस्तियों के जीवन का हर पहलू सार्वजनिक होता है, बशर्तें कि उन्होंने अपनी निजी जीवन के कुछ पक्षों को कभी जगजाहिर न किया हो। यही उनके आसपास एक रहस्य और गंभीरता का निर्माण करता है।

Last Modified:
Saturday, 20 September, 2025
Bhavya srivastava

भव्य श्रीवास्तव, लेखक, पत्रकार और Religion World के संस्थापक।।

सार्वजनिक हस्तियों के जीवन का हर पहलू सार्वजनिक होता है, बशर्तें कि उन्होंने अपनी निजी जीवन के कुछ पक्षों को कभी जगजाहिर न किया हो। यही उनके आसपास एक रहस्य और गंभीरता का निर्माण करता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक राजनैतिक व्यक्ति हैं और सार्वजनिक जीवन में वो खुले-खिलें हैं। इस वजह से उन्हें लेकर जो अतिश्योक्ति पूर्ण बातें लोग कह जाते हैं उससे उनके लिए एक नया वजूद गढ़ पाना बहुत सारे लोगों के लिए कठिन और चुनौती भरा होता है।

इसी बीच की जगह में व्यक्तित्व और विचारों के संघर्ष से उनका अतीत और वर्तमान भांपा जाता है। अगर प्रधानमंत्री किसी और धर्म के होते तो शायद उनके अवतार होने की कल्पनी भी किसी के मन में नहीं आती है। पर हिंदू धर्म में संतों की विस्तृत परंपरा, गृहस्थों के सामाजिक योगदान, शिक्षकों-सामाजिक सेवकों के महा-उदाहरण से हमनें कई महापुरुषों को उद्धारक के तौर पर देखा और स्वीकारा है। हां, धर्म के बाने में जाकर यह सरलता से दैवीय कृपा के समीप खड़ा हो जाता है।

नरेंद्र मोदी के जीवन के जिन भी पहलुओं से हम परिचित हैं उसमें बहुत सी ऐसी घटनाएं हैं जो उन्हें धर्म के बहुत समीप लाकर खड़ा करती हैं और उनका दैवीय विश्वासों से गहरा संबंध जोड़ती हैं। बचपन में मंदिरों में समय बिताना, ध्यान करना, युवावस्था में (विवाह के बाद) सबकुछ छोड़कर संन्यास की ओर अभिमुख होना, नदी-तीर्थ-आश्रम-गुरु-पर्वत आदि जगहों पर रहना और फिर समाज में वापसी और कार्य करने का विचार भी एक गुरु (रामकृष्ण आश्रम) से पाना, यह सभी सांकेतिक हैं। किसी के मन में सबकुछ छोड़कर निकल जाने का विचार तभी आता है जब वो उस मार्ग के प्रति बहुत आश्वस्त हो। परमात्मा, सत्य, ज्ञान और चेतना उन्नयन के लिए लाखों लोग धर्म के मार्ग पर विचरण करने आते रहे है, शायद नरेंद्र भी उनमें से एक थे। पर वो अचानक लौट आए। मां के पास। बिना इस विचार को किसी महान व्यक्तित्व के जोड़े कहना चाहूंगा कि ऐसा कई बार कुछ महान संतों के साथ भी हुआ है। किसी ने मुझे बताया कि तोड़ो कारा तोड़ो (नरेंद्र कोहली) पुस्तक उनकी पसंदीदा है।

आरएसएस की नींव में हिंदू धर्म के संगठन की भावना जोर मारती है। वे खुद को सांस्कृतिक संगठन ही कहते हैं। लाखों युवा इस संगठन से अनुशासन और मार्गदर्शन के लिए जुड़ते हैं, अमूमन सेवा के कई रूपों को एक विचार बनाकर इस संगठन ने बहुतों को प्रभावित किया है। नरेंद्र मोदी को भी। बिना विचार के व्यक्ति बड़ा तो हो सकता है, पर पहुंचता कहीं नहीं है। राष्ट्र निर्माण, जनचेतना, सामाजिक सेवा आदि के अपने विचार को आरएसएस पेश करके एक समानांतर सोच का अनुगामी है। नरेंद्र मोदी की मां ने ज्योतिषी से भी उनकी कुंडली दिखाई, आया कि तुम्हारा बेटा राजा बनेगा या फिर शंकर मेरे जैसा कोई महान संत। बचपन के दिनों में नरेंद्र मोदी साधु को देखते ही उनके पीछे-पीछे चलने लग जाते थे। वैराग्य सहज नहीं होता, इसके लिए हिंदू धर्म में माहौल-परंपरा और प्रारब्ध तीनों मायने रखते हैं, नरेंद्र मोदी के बाद शायद केवल प्रारब्ध का ही सहारा दिखता है।

राजनीति में आना, उसे साधना और फिर उसे चलाना यह सब बहुत कुशलता मांगती है। नरेंद्र मोदी ने यह सब कहां से सीखी, इसे लेकर हजारों किस्से और किवदंतियां हैं। पर धर्म में रूचि और उसके मार्ग पर चलने की प्रेरणा किसी को बहुत कुछ उद्धाटित करती है। संतों के जीवन में प्रश्न कम उत्तर ज्यादा होते हैं। नरेंद्र मोदी के लिए शायद किसी संत द्वारा दिखाया गया मार्ग उत्तर ही बना होगा। कई घाट पर पानी पीने से ज्यादा स्नान करने का अवसर मिलना भी एक सौभाग्य रहा होगा। हमारे आसपास जो लोग धार्मिक और धर्म गुरूओं के दर्शन-आशीष-दीक्षा-चमत्कार में यकीन रखते हैं वो आपको कई किस्से सुना देंगे कि धर्म कैसे उन्हें आगे ले गया।  विधानसभा का पहला टिकट भी नरेंद्र मोदी को एक संत के आशीर्वाद से ही मिला।

पर क्या इन सबसे यह सिद्ध होता है कि वो किसी दैवीय कृपा से किसी दैवीय कार्य को करने के लिए बनें हैं। धर्म जगत के लोग बिना किसी संदेह के इस बात को मानते हैं। पर तार्किक और राजनैतिक विचार(शायद उनकी पार्टी के भी) इसे स्वीकारने में कभी सहज नहीं होंगे, वे एक राजनौतिक व्यक्तित्व को राजनैतिक धुरी पर ही परखते आएं हैं। धर्म के क्षेत्र में नरेंद्र मोदी का सक्रिय हस्तक्षेप भी राजनैतिक ही है इसे मानने वालों की बहुत संख्या है। पर उनके दृष्टिकोण से हुए बदलाव - मंदिर, धर्म-जगत, सेवा, तीर्थयात्रा और दर्शन-प्रदर्शन में हुए आमूल चूल बदलाव को लेकर किसी के पास कोई तार्किक जवाब नहीं हैं। सब राजनीति है, कहने वाले यही कहेंगे।

लेकिन क्या वो दैवीय अवतार है ? इसका जवाब उनके पास भी नहीं है। लेकिन हो सकता है, जो आने वाले कुछ साल तय करेंगे। केवल एक ही चीज भारतीय जनमानस को किसी को दैवीय अवतार मानने में सहयोग करती है। वो है संन्यासी-वैरागी जीवन और लोगों की उसमें अकाट्य आस्था। आज नहीं तो कल नरेंद्र मोदी पद के दायरे से बाहर होंगे और फिर जो वो करेंगे वो शायद कुछ और ही रचेगा। यह बात इसलिए कहा रहा हूं कि जिसने पद पर रहते कुछ किया हो, वो आगे खाली नहीं बैठेगा। वो पुन: हिमालय जाएं या नहीं, वो पुन: परमात्मा को तलाशे या नहीं, पर उनके लिए एक अवसर समाज में जगह बना चुका है। हम अब उनकी शैली के नेतृत्व से अवगत हैं, जो किसी और प्रधानमंत्री से अलग इसलिए रहा क्योंकि उसमें संस्कृति और धर्म के बहुत सारे आकाश जुड़े हैं। वे खुद को भी इसलिए इतना बड़ा कर पाएं कि उनकी प्यास धर्म के नेति-नेति से जुड़ी लगती है। दिखने-छपने-कटाक्ष-प्रदर्शन-अमरता के सवाल उन्हें प्रभावित नहीं करते, शायद इसके पीछे भी आध्यात्म और धर्म की शक्ति हो।

बहरहाल, आज वो कोई दैवीय अवतार नहीं है। राजस्थान के लोग संत नहीं, लोकदेवता को मानते हैं और उनके वीर और संत वो स्थान बनाकर अमर हैं। हमारे गांवों और नगरों में कई विभूतियों की मूर्तियां देव भाव से स्थापित हैं। हम जातियों-संप्रदायों के संतों को भी देवता का अंश मानते हैं, कई संतों ने देवताओं को नए रूपों में प्रकट किया और वे खुद पूजे जाने लगे। भारतीय समाज में और हिंदू धर्म में इस प्रवाह की कई गाथाएं और प्रतिमाएं आज भी जीवित हैं। एक राजनेता के तौर वो साम-दाम-दंड-भेद के प्रति सजग हैं और जीत को ही लक्ष्य मानकर डटे हुएं हैं। एक धार्मिक व्यक्ति के तौर पर वो पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार, पंरपरा-रीति, दर्शन-उपासना सबकुछ खुलकर करते हैं। यही उन्हें अलग बनाता है और उनके लिए अतिश्योक्ति पूर्ण संभावना भरे विचारों को जन्म देता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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अडानी को लेकर झूठे निकले हिंडनबर्ग के दावे: रजत शर्मा

हजारों निवेशकों के करोड़ों रुपये डूब गए थे। कोई तो ऐसा तरीका होना चाहिए कि इन लोगों के नुकसान की भरपाई हो और नुकसान पहुंचाने वालों को सज़ा मिले।

Last Modified:
Saturday, 20 September, 2025
adanisebi

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

देश के बड़े औद्योगिक समूह अडानी समूह को बड़ी राहत मिली। प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी ने शेयरों में हेरा-फेरी करने और अंदरूनी कारोबार (इनसाइडर ट्रेडिंग) के आरोपों से अडानी समूह को क्लीन चिट दे दी। अमेरिका की शॉर्ट सेलर कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च ने गौतम अडानी और उनके समूह की कंपनियों, अडानी पोर्ट्स और अडानी पावर, पर विदेश से फंडिंग के ज़रिए अपने समूह में पैसे लगवाने और अंदरूनी कारोबार करने के आरोप लगाए थे लेकिन जांच में ये सारे आरोप बेबुनियाद और झूठे साबित हुए।

सेबी के सदस्य कमलेश चंद्र वार्ष्णेय ने अपने आदेश में कहा कि अडानी समूह पर शेयरों की हेराफेरी के जो आरोप लगाए गए थे, उन्हें साबित करने वाला एक भी सबूत नहीं मिला। सारे आरोप निराधार पाए गए। हिंडनबर्ग ने जनवरी 2023 में अडानी समूह के ख़िलाफ़ अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि अडानी समूह की कंपनियां अंदरूनी कारोबार कर रही हैं, शेयरों में हेरफेर (स्टॉक मैनिपुलेशन) करके उनकी कीमतें बढ़ा रही हैं।

यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाकर मामले की जांच कराई थी। एसआईटी ने भी अडानी समूह को हिंडनबर्ग के लगाए इल्ज़ामों से क्लीन चिट दे दी थी लेकिन सेबी शेयर बाज़ार से जुड़े आरोपों की जांच कर रही थी। आज अडानी समूह को सेबी ने भी क्लीन चिट दे दी। क्लीन चिट मिलने पर गौतम अडानी ने एक बयान में कहा कि उनकी कंपनी शुरू से कह रही थी कि हिंडनबर्ग के आरोप बेबुनियाद और झूठे हैं।

सेबी की अडानी को क्लीन चिट बिलकुल स्पष्ट है। इसमें कोई अगर-मगर नहीं है। हिंडनबर्ग के दावे झूठे निकले। अडानी समूह की सारी लेन-देन (ट्रांजैक्शन) को वास्तविक करार दे दिया गया। न कोई धोखाधड़ी साबित हुई, न धन की हेराफेरी (फंड सिफोनिंग) के सबूत मिले। सारे कर्ज़ ब्याज के साथ लौटा दिए गए। सेबी को किसी नियम-कानून का उल्लंघन नहीं मिला।

अडानी समूह की कंपनियों को तो राहत मिल गई। सवाल ये है कि हिंडनबर्ग की फर्जी रिपोर्ट के कारण हज़ारों निवेशकों का जो नुकसान हुआ, उसके जिम्मेदार कौन हैं? झूठी कहानी (नेरेटिव) के कारण अडानी के शेयरों में भारी गिरावट आई थी। हजारों निवेशकों के करोड़ों रुपये डूब गए थे। कोई तो ऐसा तरीका होना चाहिए कि इन लोगों के नुकसान की भरपाई हो और नुकसान पहुँचाने वालों को सज़ा मिले।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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नए समय की चुनौतियों के बीच मीडिया शिक्षा: प्रो.संजय द्विवेदी

ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो ‘फार्मूला पत्रकारिता’ से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें।

Last Modified:
Saturday, 20 September, 2025
profsanjay

प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष।

मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा।

वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत हैं। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं।

पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है।

मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं, जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।

ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो ‘फार्मूला पत्रकारिता’ से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के सिर्फ पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है।

पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है। मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं।

इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। लेकिन चीजें ठहरी हुई हैं।

दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों।

जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें। सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है।

मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स (संचारक) तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके।

गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है।

दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें।

हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं।

अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना।

भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं।

मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं।

आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है।

ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें।

इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं वे खुद का न्यूज रूम क्रियेट कर सकते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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नफरत की सियासत, मुद्दों पर क्यों नहीं बात: जितेन्द्र बच्चन

जनता और जमीन से जुड़े मुद्दे गायब हो चुके हैं। मोदी जी हों या राहुल गांधी, भाजपा हो या कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियां, गरीबी, बीमारी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई की बात अब कोई नहीं करता।

Last Modified:
Saturday, 20 September, 2025
biharelection2025

जितेन्द्र बच्चन, वरिष्ठ पत्रकार।

अक्टूबर-नवंबर में बिहार के विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद 2026 में तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल में चुनावी रणभेरी बजेगी। बिहार में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार है। जबकि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और तमिलनाडु में डीएमके की सरकार है। इन तीनों राज्यों के चुनावी आहट होते ही नेताओं के सुर बदल चुके हैं।

कल तक जिस पार्टी या दल के मुखिया विकसित प्रदेश, सशक्त भारत, संस्कृति और संस्कार की बात करते नहीं थकते थे, आज वे धर्म और जाति का जहर उगल रहे हैं। वोट बैंक सुरक्षित करने के चक्कर में सारा दृष्टिकोण हिंदू-मुस्लिम पर आकर टिक गया है। मां, बहन और बेटियों तक को गाली दी जा रही है। इतनी गंदी सियासत ! जरा सोचिए, इस फिजा में जीतकर सत्ता तक पहुंचने वाले हमारा क्या भला करेंगे? हर नेता खुद को दूध का धुला तो बताता है पर उसकी जुबान काबू में नहीं रहती।

कहां हम तरक्की पसंद भारत को विश्व गुरु होने का डंका पीट रहे थे और कहां सत्ता हथियाने के लिए नफरत की बिसात बिछाने से बाज नहीं आ रहे हैं। आप किसी भी जाति धर्म को हों, अगर इन्हें वोट देते हैं तो बहुत अच्छा, वरना एक मिनट में ये आपको ‘नमक हराम’ बता देंगे। कहने का मतलब इन्हें लोकतंत्र से कोई मतलब नहीं, ये सिर्फ आपका इस्तेमाल करना चाहते हैं।

इस तरह के बयान, भाषण और बातें अब आम चुकी हैं। क्या तुष्टिकरण बनाम ध्रुवीकरण की राजनीत हो रही है? जनता और जमीन से जुड़े मुद्दे गायब हो चुके हैं। मोदी जी हों या राहुल गांधी, भाजपा हो या कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियां, गरीबी, बीमारी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई की बात अब कोई नहीं करता। पक्ष हो विपक्ष, सभी की एक ही नीति है- ‘हिंदू-मुस्लिम का डर-भय दिखाकर वोट बैंक सुरक्षित करो।

हजारों की संख्या में घुसपैठिए, रोहिंग्या, वक्फ बोर्ड और न जाने क्या-क्या ! कोई इनसे पूछे कि जब आपको सब पता है तो उसका खात्मा क्यों नहीं करते? सरकार आपकी है, शासन आपका है, तो कार्यवाही क्यों नहीं की जाती? लेकिन न कोई पूछने वाला है और न ही कोई कार्यवही होगी, क्योंकि अगर सबकुछ ठीक हो गया तो सियासत कैसे चलेगी?

हर पार्टी या दल एक ही बात समझाता है, अभी तक हम जो पिछड़े हैं, क्षेत्र में विकास नहीं हुआ, सड़कें नहीं बनी, भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी, इसकी सारी जवाबदेही (कांग्रेस हो या भाजपा अथवा कोई अन्य पार्टी) पहले की सरकार की है। अच्छा बहाना है। लेकिन अपने गिरहबान में एक बार भी नहीं झांकते कि अब तो आपकी सरकार है। फिर भ्रष्टाचार चरम पर क्यों पहुंचता जा रहा है?

तमाम कानूनी सुधार के बावजूद बहन-बेटियां सुरक्षित क्यों नहीं हैँ? सबकुछ ऑनलाइन होते हुए भी नौकरशाही में घूसखोरी क्यों बढ़ रही है? दरअसल, सभी का एक ही मकसद है ! धर्म और मजहब के नाम पर लोग भयभीत होंगे तो वोट उन्हीं को देंगे और उनकी सरकार बननी तय है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कब तक इस आग में लोगों को झोंकते रहेंगे? कब तक धर्म को खतरे में बताकर जनता को बेवकूफ बनाते रहोगे? एक तरफ तो शिक्षित समाज का नारा दिया जाता है तो दूसरी तरफ दकियानूसी बातें की जाती हैं।

नफरत की दुकान खोलकर लोगों को डराया-धमकाया जाता है। समाज को भयभीत करने की कोशिश की जाती है। कभी मुसलमानों का भय दिखाकर हमें अपने पक्ष में करते हैं तो कभी हिंदुओं की बात कर आपको डराने की कोशिश होती है। आखिर कब तक यह नफरती सियासत की दुकान चलेगी? जवाब साफ है- जब तक हम आप जैसे इनके ग्राहक बने रहेंगे। राजनीति के पहरेदारों! हमें भय से मत छलो! सत्ता के लिए लोकतंत्र का रास्ता अपनाओ, जनता आपको पलकों पर बैठाकर रखेगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सिर्फ अपनी राष्ट्रीय पहचान के लिए काम करना होगा: नीरज बधवार

अगर अब भी हमने यह बात नहीं समझी, तो हालात यही रहेंगे कि एक के बाँह मरोड़ने पर दूसरे की गोद में जाना पड़ेगा, और दूसरे के धोखे के डर से तीसरे का हाथ पकड़ना पड़ेगा।

Last Modified:
Friday, 19 September, 2025
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नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान जिस तरह किम जोंग, पुतिन और जिनपिंग हाथ पकड़कर चल रहे थे, वो तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखीं। वो तस्वीर साम्यवादी (कम्युनिस्ट) देशों की एकता की प्रतीक थीं। यूरोपीय देशों के पास नाटो (NATO) की सुरक्षा है। मुस्लिम देशों में भले ही ईरान-सऊदी अरब और तुर्की के बीच प्रभुत्व की लड़ाई है, लेकिन वहाँ मुस्लिम ब्रदरहुड (इस्लामी भाईचारा) का तत्व भी काम करता है।

अब सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सुरक्षा समझौता हुआ है, तो यह भी लग रहा है कि मुस्लिम देश भी नाटो जैसा कोई संगठन बना सकते हैं। सवाल यह है कि इस सबके बीच भारत कहाँ खड़ा है? न तो हम साम्यवाद की तरह वैचारिक स्तर पर किसी के स्वाभाविक दोस्त बन सकते हैं, न हमारे पास कोई भाईचारे का फैक्टर है, और न ही हम सैन्य तौर पर पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं।

ऊपर से, हमारा सबसे बड़ा हथियार-आपूर्तिकर्ता (रूस) आज हमारे सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी (चीन) के साथ असीमित मित्रता (Limitless Friendship) की कसमें खा रहा है। और हमारे "ढाई दुश्मनों" में से "आधा" हमारे ही घर के भीतर मौजूद है। ऐसा नहीं है कि इस पूरी स्थिति के लिए केवल हमारी ही गलती ज़िम्मेदार है।

इंसानों की तरह कभी-कभी राष्ट्रों का चरित्र भी (जैसे गुटनिरपेक्ष नीति - Non Alignment Policy) उन्हें अकेला कर देता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम सब पहचान से ऊपर उठकर सिर्फ अपनी राष्ट्रीय पहचान के लिए काम करें — न राज्य, न जाति, न धर्म; सिर्फ और सिर्फ एक भारतीय पहचान।

अगर अब भी हमने यह बात नहीं समझी, तो हालात यही रहेंगे कि एक के बाँह मरोड़ने पर दूसरे की गोद में जाना पड़ेगा, और दूसरे के धोखे के डर से तीसरे का हाथ पकड़ना पड़ेगा। हमारी हस्ती मिटेगी नहीं, लेकिन अगर उसका दायरा सिकुड़ता जा रहा है, तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर रही होगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पाकिस्तान को झटका, अमेरिका मध्यस्थता नहीं कर पायेगा: रजत शर्मा

अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक डार को बताया कि भारत के लिए ये एक द्विपक्षीय मसला है। इसहाक़ डार ने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया।

Last Modified:
Thursday, 18 September, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

पाकिस्तान ने मंगलवार को कबूल किया कि वो भारत के साथ बात करना चाहता है। पाकिस्तान ने माना कि वो एक बार फिर अमेरिका के सामने जाकर रोया लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान को बता दिया कि भारत किसी तीसरे देश की मध्यस्थता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक डार को बताया कि भारत के लिए ये एक द्विपक्षीय मसला है।

इसहाक़ डार ने अल जज़ीरा चैनल को दिए एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया।एक तरफ आतंकवादी भारत के खिलाफ ज़हर उगल रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ पाकिस्तान की सरकार भारत के साथ बातचीत के लिए बेकरार है, बार-बार भारत से बातचीत की टेबल पर आने की गुहार लगा रहा है। इसके लिए अमेरिका से मदद मांग रहा है।

भारत से बातचीत को लेकर इसहाक़ डार का ये बयान ऐसे वक़्त में आया है, जब पाकिस्तान में वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ के अमेरिका दौरे की चर्चा है। शहबाज़ शरीफ़ संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के लिए न्यूयॉर्क जा रहे हैं। न्यूयॉर्क में शहबाज़ शरीफ़ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी मिलेंगे। दावा किया जा रहा है कि इस मीटिंग में पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर भी मौजूद रहेंगे। आसिम मुनीर पिछले तीन महीने में दो बार अमेरिका जा चुके हैं।

पता ये चला है कि पाकिस्तान अमेरिकी संसद में मानवाधिकार हनन के आरोप में पाकिस्तानी जनरलों और अधिकारियों पर sanctions लगाने के एक बिल को रुकवाना चाहता है। इसीलिए शहबाज़ और आसिम मुनीर पूरी शिद्दत से ट्रंप को ख़ुश करने में लगे हुए हैं।न्यूयॉर्क में ट्रंप और शहबाज़ शरीफ़ की मुलाक़ात के दौरान बलूचिस्तान की रेको डिक़ तांबा और सोने की खान पर डील भी हो सकती है।

रेको डिक़ को दुनिया की सबसे बड़ी तांबे की खान बताया जा रहा है। इसको डेवेलप करने में कनाडा, फिनलैंड, जापान और अमेरिका की कंपनियां लगी हैं। ट्रंप चाहते हैं कि पाकिस्तान इस खान में अमेरिका को भी हिस्सा दे।ये बात खुद ट्रंप बता चुके हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कश्मीर के मसले पर मध्यस्थता करने का प्रस्ताव दिया था। ट्रंप ने ये भी बताया था कि मोदी ने साफ इनकार कर दिया था।

ट्रंप ने कहा था कि 'Modi is a tough man'। मोदी ने कहा था कि, हम अपने मसलों को सुलझाने में सक्षम हैं। लेकिन पाकिस्तान बड़ी बेशर्मी से बार बार अमेरिका से गुहार लगाता है।अमेरिका पाकिस्तान को आजकल खुश रखना चाहता है। अलग-अलग लोग इसकी अलग-अलग वजह बताते हैं। कोई कहता है कि ट्रंप के परिवार ने पाकिस्तान के साथ बड़ी Crypto deal की है।

कोई कहता है कि अमेरिका की नजर पाकिस्तान की तांबे और सोने की खान पर है।कुछ दिन पहले ट्रंप ने कहा था कि वो पाकिस्तान की जमीन से तेल निकालेंगे। हो सकता है ये सारी बातें ठीक हों, पर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच कहीं न कहीं, कुछ न कुछ डील तो हुई है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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देश के प्रधान सेवक को जन्मदिन मुबारक! आपका नेतृत्व अद्वितीय है- कार्तिकेय शर्मा

आज, 17 सितम्बर, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। यह केवल एक नेता के जीवन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के एक निर्णायक अध्याय का उत्सव है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 17 September, 2025
Last Modified:
Wednesday, 17 September, 2025
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कार्तिकेय शर्मा, फाउंडर, आईटीवी नेटवर्क ।। 

आज, 17 सितम्बर, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। यह केवल एक नेता के जीवन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के एक निर्णायक अध्याय का उत्सव है। उनके नेतृत्व ने न केवल हमारे राष्ट्र की दिशा बदली है, बल्कि वैश्विक अनिश्चितताओं के दौर में राजनीतिक नेतृत्व का अर्थ भी पुनर्परिभाषित किया है।

पिछले दशक में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था युद्धों, बदलते गठबंधनों और क्षेत्रीय संघर्षों से प्रभावित रही, जिनकी गूंज भारत की सीमाओं तक पहुंची। अस्थिर पड़ोस में भारत के रणनीतिक हितों की रक्षा करने से लेकर वैश्विक व्यवस्था में भारत की जगह स्थापित करने तक, प्रधानमंत्री मोदी ने लगातार अडिग “इंडिया फर्स्ट” नीति को आगे बढ़ाया। उनके नेतृत्व ने दिखाया कि रणनीतिक स्वायत्तता और सैद्धांतिक कूटनीति साथ-साथ चल सकती हैं, जिससे भारत क्षेत्रीय संघर्षों और महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के बीच बिना राष्ट्रीय हित से समझौता किए आगे बढ़ा। इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में साझेदारी मजबूत करने, पारंपरिक सहयोगियों से रिश्ते गहरे करने और जी20, ब्रिक्स और एससीओ जैसे बहुपक्षीय मंचों में भारत की भूमिका बढ़ाने के जरिए उन्होंने भारत को एक निष्क्रिय सहभागी नहीं बल्कि वैश्विक राजनीति में आकार देने वाली ताकत के रूप में स्थापित किया। इस लिहाज से उनका कार्यकाल वह समय माना जाएगा जब वैश्विक शासन में भारत की आवाज को अभूतपूर्व महत्व मिला।

उतना ही परिवर्तनकारी रहा उनका घरेलू एजेंडा, जिसमें संरचनात्मक सुधार महत्वाकांक्षी संस्थागत निर्माण के साथ-साथ हुए। वित्तीय समावेशन की पहलों ने लाखों-करोड़ों नागरिकों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाया, जिससे नागरिक और राज्य के बीच संबंधों की परिभाषा बदली। बैंकिंग क्षेत्र के बड़े सुधारों ने अत्यधिक बोझिल व्यवस्था को स्थिरता दी, वहीं जीएसटी जैसी पहल ने एकीकृत राष्ट्रीय बाजार बनाया। एक्सप्रेसवे से लेकर हाई-स्पीड रेल तक, बिजली उत्पादन से लेकर अक्षय ऊर्जा तक बुनियादी ढांचे पर जोर ने न केवल ऐतिहासिक कमी पूरी की बल्कि विकास के नए स्रोत भी खोले। ये सभी कदम एक साफ समझ का संकेत हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भारत का उदय तभी संभव है जब उसकी नींव आर्थिक ताकत, संस्थागत विश्वसनीयता और नागरिकों के सशक्तिकरण पर टिकी हो।

यह युग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए भी परिवर्तनकारी रहा। उनके नेतृत्व में पार्टी ने अपने सामाजिक और भौगोलिक दायरे से निकलकर एक सच्ची राष्ट्रीय शक्ति का रूप लिया। उत्तर-पूर्व, ओडिशा, हरियाणा और महाराष्ट्र में जीतें इस विस्तार की गवाही देती हैं, जबकि गुजरात निरंतरता और विकास का गढ़ बना रहा। मोदी जी केवल पार्टी के नेता नहीं बने, बल्कि बदलाव के शिल्पकार बने, जिन्होंने भाजपा को व्यापक सामाजिक आधार और वैश्विक राजनीति में पहचान दी। जो कभी सीमित प्रभाव वाली कैडर-आधारित आंदोलन था, आज वह भारतीय लोकतंत्र का मुख्य ध्रुव बन चुका है।

इस दिन को मनाना केवल प्रधानमंत्री को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने तक सीमित नहीं है। यह उनके उन मूल्यों, अनुभवों और विश्वासों पर चिंतन करने का अवसर है जिन्होंने उनकी यात्रा को आकार दिया और उस स्थायी विरासत पर जो वह भारत के ‘प्रधान सेवक’ के रूप में गढ़ते जा रहे हैं।

उनकी सार्वजनिक जीवन की इस सेवा-भावना और नैतिक स्पष्टता की गहरी जड़ें उनकी माता हीराबेन द्वारा impart किए गए मूल्यों में मिलती हैं। जीवन में जल्दी ही विधवा हो जाने के बाद भी परिवार की जिम्मेदारियों को शांत साहस से निभाते हुए, वह शक्ति और ईमानदारी का स्तंभ बनीं। उनका जीवन परिस्थितियों से नहीं बल्कि गरिमा से परिभाषित हुआ, जिसने उनके बच्चों में ईमानदारी, धैर्य और सादगी के संस्कार डाले। जब मोदी जी पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब उनकी माँ के शब्द गर्व के नहीं बल्कि सिद्धांत के थे- “मुझे तुम्हारा सरकारी काम समझ नहीं आता, लेकिन कभी रिश्वत मत लेना।” यही सरल सलाह उनका नैतिक कम्पास बन गई। आत्मनिर्भर जीवन, सादगी और न्यायप्रियता पर उनका आग्रह ही मोदी जी की आजीवन सेवा-भावना का आधार बना। उनकी बाद की नीतियों पर भी उनकी छाप रही: धुएं से भरे रसोईघरों ने उज्ज्वला योजना को प्रेरित किया, जबकि गरिमा पर उनका जोर गरीब कल्याण की नीतियों की नींव बना। उन्होंने केवल एक बेटे को नहीं पाला, बल्कि भारत माता का सच्चा सेवक गढ़ा।

जहाँ परिवार ने उन्हें मूल्य दिए, वहीं संघ ने उन्हें अनुशासन दिया। 1972 में मोदी जी लक्ष्मणराव इनामदार (जिन्हें स्नेह से “वकील साहब” कहा जाता था) के मार्गदर्शन में पूर्णकालिक आरएसएस प्रचारक बने। अपने परिवार से अलग होकर सार्वजनिक जीवन को समर्पित कर चुके युवा नरेंद्र मोदी के लिए इनामदार मार्गदर्शक, गुरु और पिता समान बने। उन्होंने मोदी जी में असाधारण दृढ़ता को पहचाना और उनके विकास में व्यक्तिगत दिलचस्पी ली। उन्होंने शिक्षा जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया और शासन व सार्वजनिक जीवन की गहरी समझ के लिए संसाधन उपलब्ध कराए। सबसे महत्वपूर्ण, उन्होंने मोदी जी में यह विश्वास जगाया कि संगठनात्मक काम केवल संख्या या लामबंदी नहीं है, बल्कि चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण है। उनके मार्गदर्शन में मोदी जी ने विनम्रता और अधिकार, अनुशासन और जनसंपर्क के बीच संतुलन सीखा। सेवा को स्वयं से पहले और राष्ट्रीय एकता को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से पहले रखने पर उनका जोर गहरी छाप छोड़ गया। वर्षों बाद, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए, मोदी जी ने ‘सेतुबंध’ नामक जीवनी सह-लेखन कर अपने गुरु की स्मृति को सम्मान दिया, उन्हें अपने जीवन को दिशा देने वाले सेतु-निर्माता के रूप में चित्रित किया। इनामदार से मोदी जी ने निस्वार्थ परिश्रम, बड़े समुदायों को एकजुट करने की क्षमता और यह आंतरिक विश्वास सीखा कि नेतृत्व का आधार चरित्र ही होना चाहिए। यही गुण आगे चलकर उन्हें अभूतपूर्व पैमाने पर राष्ट्रीय अभियानों को सटीकता और उद्देश्यपूर्ण ढंग से संचालित करने में सक्षम बनाए।

तीसरा प्रभाव मोदी जी के स्वामी विवेकानंद के गहन अध्ययन और सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रति श्रद्धा से आया। विवेकानंद की यह शिक्षा कि मानवता की सेवा ही सबसे बड़ा भक्ति का रूप है, मोदी जी के लिए केवल प्रधानमंत्री नहीं बल्कि ‘प्रधान सेवक’ कहलाने के निर्णय में परिलक्षित हुई। स्वामीजी का यह संदेश कि समाज तभी प्रगति करता है जब समानता सुनिश्चित हो, मोदी जी की कल्याणकारी योजनाओं की प्रेरणा बना- जन धन, आयुष्मान भारत और गरीब कल्याण योजना, जो गरीबों को गरिमा प्रदान करती हैं। वहीं, राष्ट्रीय एकता के प्रति पटेल की अडिग प्रतिबद्धता मोदी जी के राजनयिक दृष्टिकोण की मार्गदर्शक शक्ति बनी, जो अनुच्छेद 370 हटाने जैसे ऐतिहासिक फैसलों और विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा के निर्माण जैसे प्रतीकात्मक उपक्रमों में दिखती है।

ये सभी सूत्र- मातृ मूल्यों, संगठनात्मक अनुशासन और दार्शनिक प्रेरणाओं के- एक साथ आकर वह नेतृत्व बने जिन्होंने पिछले दशक में भारत को रूपांतरित किया। ‘जैम ट्रिनिटी’ ने कल्याणकारी योजनाओं को क्रांतिकारी ढंग से बदल दिया, सीधे लाभ नागरिकों तक पहुंचाए और रिसाव खत्म किए। स्वच्छ भारत अभियान ने पूरे देश में स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुधारा, जबकि डिजिटल इंडिया ने दूर-दराज के इलाकों को अवसरों से जोड़ा। ‘मेक इन इंडिया’ और अक्षय ऊर्जा की पहल ने भारत की वैश्विक आर्थिक उपस्थिति को नया आयाम दिया। कौशल विकास और ग्रामीण बुनियादी ढांचे को समर्थन देने वाले कार्यक्रमों ने सभी वर्गों के लिए समावेशी विकास सुनिश्चित किया। उनके शासन ने महिलाओं के सशक्तिकरण पर भी विशेष जोर दिया- ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं से लेकर संसद और विधानसभा में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने वाले ऐतिहासिक क़ानून तक। पर्यावरण संरक्षण भी उनके दृष्टिकोण का केंद्र रहा, जो ‘लाइफ मिशन’, अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा, वनीकरण अभियान और संरक्षण की पहलों में झलकता है। 2025 के लिए योजनाएं- जैसे 75,000 स्वास्थ्य शिविरों वाला ‘स्वस्थ नारी सशक्त परिवार अभियान’, नए अस्पताल और आयुष्मान आरोग्य मंदिर- नागरिक सशक्तिकरण, स्वास्थ्य अवसंरचना की मजबूती और सामाजिक समानता की दिशा में उनके व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाती हैं।

मैं इन पहलों को अलग-अलग योजनाओं के रूप में नहीं देखता, बल्कि सेवा, सादगी और त्याग से गढ़ी जीवन दृष्टि के विस्तार के रूप में देखता हूं। जो प्रधानमंत्री मोदी ने जिया है, वही अब वे भारत और दुनिया को लौटा रहे हैं। माँ से सीखे मूल्य, संघ से मिला अनुशासन और विवेकानंद व पटेल से मिली प्रेरणा- ये सब एक ऐसे नेतृत्व में मिलते हैं जो शासन को राज करने का नहीं, बल्कि उठाने का माध्यम मानता है।

इसी भावना में, उनका जन्मदिन कोई उत्सव नहीं बल्कि एक अर्पण है। ‘सेवा पर्व’ व्यक्तिगत पड़ावों को राष्ट्रीय सेवा में बदल देता है। सरदार पटेल प्राणी उद्यान (2019) से लेकर एक दिन में दो करोड़ टीकाकरण (2021) तक, पीएम विश्वकर्मा (2023) से लेकर 26 लाख घरों और सुभद्रा योजना (2024) तक- हर कदम अनुभव से जुड़ा हुआ है, केवल इरादे से नहीं। और अब, उनके 75वें जन्मदिन पर 75,000 स्वास्थ्य शिविर और नए आयुष्मान आरोग्य मंदिर अगला कदम हैं। ये केवल नीतिगत घोषणाएं नहीं हैं- ये संघर्षों से गढ़े जीवन का भारत माता को समर्पण हैं।

श्री नरेंद्र मोदी की महानता इस बात में है कि उन्होंने लोकतंत्र में नेतृत्व के अर्थ को विस्तृत किया। वे केवल शासन नहीं करते, बल्कि सहभागिता को प्रेरित करते हैं। ‘मन की बात’ के माध्यम से सीधे नागरिकों से संवाद करके उन्होंने राष्ट्र के नेता और अंतिम घर तक रहने वाले नागरिक के बीच एक अनोखी कड़ी बनाई, जिससे शासन एक साझा राष्ट्रीय अनुभव बन गया। ‘प्रधान सेवक’ के रूप में हस्ताक्षर कर उन्होंने प्रधानमंत्री पद को अधिकार की कुर्सी नहीं बल्कि सेवा के व्रत के रूप में परिभाषित किया। यहां तक कि वह अपना जन्मदिन भी निजी उत्सव की बजाय सेवा को समर्पित करते हैं, जिससे वे अन्य नेताओं से अलग खड़े होते हैं और यह विश्वास मजबूत करते हैं कि नेतृत्व अंततः देने के लिए है, पाने के लिए नहीं। उनके सुधार केवल प्रशासनिक फैसले नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण के कार्य हैं, जिन्हें स्पष्ट उद्देश्य और अनुशासित क्रियान्वयन के साथ पूरा किया गया है। चाहे कल्याण हो, आर्थिक परिवर्तन या विदेश नीति- हर क्षेत्र में उनकी छाप स्पष्ट रही है: निर्णायक, जनकेंद्रित और दूरदर्शी। उन्होंने नीतियों को जनआंदोलनों में और आदर्शों को कार्यों में बदलकर शक्ति नहीं बल्कि सेवा को सर्वोच्च आदर्श के रूप में मूर्त रूप दिया।

जब प्रधानमंत्री 75 वर्ष के हो रहे हैं, तब राष्ट्र केवल अपने नेता का जन्मदिन नहीं मना रहा, बल्कि भारत माता के प्रति उनकी अथक सेवा का सम्मान कर रहा है। उनकी यात्रा केवल आज के लिए प्रेरणा नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए मार्गदर्शक है, जो हमें- विशेषकर सार्वजनिक जीवन में रहने वालों को- यह याद दिलाती है कि सच्चा नेतृत्व सेवा, त्याग और जनता के प्रति अटूट समर्पण में निहित है। इस दिन, जब भारत सेवा पर्व मना रहा है, हम श्री नरेंद्र मोदी जी को हार्दिक शुभकामनाएं देते हैं। ईश्वर उन्हें लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और निरंतर शक्ति प्रदान करें ताकि वे भारत को और भी ऊंचाइयों, समृद्धि, गरिमा और वैश्विक सम्मान की ओर अग्रसर करते रहें। उनकी आत्मनिर्भर, समावेशी और आत्मविश्वासी भारत की दृष्टि आने वाले वर्षों में पूर्ण रूप से साकार हो, जो हमारे महान राष्ट्र के हर नागरिक को प्रगति और गर्व प्रदान करे। 

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