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क्या समाज जब खुलकर हमारे खिलाफ मोर्चा खोलेगा, तभी हम जागेंगे मिस्टर मीडिया!

अमेरिका से खबर है कि सीएनएन के पत्रकार जिम अकोस्टा को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों से इतनी धमकियां मिलीं कि उन्हें निजी सुरक्षा कर्मी रखने पर मजबूर होना पड़ा

राजेश बादल by
Published - Friday, 28 August, 2020
Last Modified:
Friday, 28 August, 2020
Rajesh Badal


राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

अमेरिका से खबर है कि सीएनएन के पत्रकार जिम अकोस्टा को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों से इतनी धमकियां मिलीं कि उन्हें निजी सुरक्षा कर्मी रखने पर मजबूर होना पड़ा। सुनने में अटपटा लगता है। प्रजातंत्र का एक बड़ा स्तंभ इस कदर उतारू हो जाए तो आप इसे कौन सा तंत्र कहेंगे? वैसे तो डोनाल्ड ट्रंप जबसे राष्ट्रपति बने हैं, पत्रकारों से उनकी कभी नहीं बनी। वहां एक तरह से लंगड़ा लोकतंत्र है।

लेकिन हम हिन्दुस्तान के लोकतंत्र और मीडिया की बात करते हैं। इन दिनों अनेक राज्यों में पत्रकारों के साथ मारपीट से लेकर उनकी हत्या तक की खबरें मिल रही हैं। क्या अर्थ लगाया जाए कि पत्रकारों को अब राज नेताओं से बचने के लिए प्रबंधकों से बॉडीगार्ड भत्ता मांगना चाहिए। भत्ता मिले या न मिले, जान सलामत रह जाए, यही बहुत है।

इसलिए आंकड़ों में नहीं जाते हुए चालीस-इकतालीस साल पहले के हिन्दुस्तान की एक घटना बताना चाहता हूं, जब हम लोगों को अपनी पत्रकारिता के शुरुआती दौर में राजनेता और प्रशासन के आपराधिक गठजोड़ से जान बचाने के लिए निजी सुरक्षा तंत्र की मदद लेनी पड़ी थी। उन दिनों जवान थे, इसलिए खोजी पत्रकारिता का जुनून था। बलात्कार की एक घटना का विरोध कर रहे जुलूस पर पुलिस ने गोलियां चलाई। कुछ लोग घायल हुए। इसकी मजिस्ट्रेट ने जांच की। गोपनीय जांच रिपोर्ट हम नौजवान पत्रकारों के हाथ लगी। हमारे एक साथी शिव अनुराग जी ने स्थानीय समाचार पत्र में छाप दिया। छपते ही हड़कंप मच गया। कलेक्टर बौखला गए। गुप्त रिपोर्ट छपी कैसे?

उन्होंने हम पत्रकारों को धमकाना शुरू कर दिया। वे पत्रकारों से रिपोर्ट का स्रोत जानना चाहते थे। हम बाध्य नहीं थे। कलेक्टर की मदद स्थानीय विधायक कर रहे थे। वे सत्ता पक्ष के थे। इसलिए हमें और मुश्किल पेश आ रही थी। डाकू समस्या वाले ज़िले में हमें जान से मारने की धमकियां मिल रही थीं। इस कारण हम लोगों ने निजी सुरक्षा कर्मियों का सहारा लिया। बात बिगड़ती गई। त्रस्त हम लोगों ने भोपाल कूच किया। करीब पंद्रह पत्रकार कई दिन भोपाल की सड़कों पर भटकते रहे। आखिरकार मेहनत रंग लाई। मुख्यमंत्री को सात घंटे की मैराथन बहस के बाद ज्यूडिशियल जांच का ऐलान करना पड़ा। भारत की आजादी के बाद पत्रकारों के उत्पीड़न की जांच करने वाला पहला और अब तक का आखिरी जांच आयोग। आयोग की सुनवाई महीनों चली। पत्रकार निजी सुरक्षा में सुनवाई और गवाही के लिए जाते थे। आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति डीपी पांडे ने पत्रकारों की शिकायतें सच पाईं। कलेक्टर की भर्त्सना हुई। यही नहीं, प्रेस काउंसिल ने भी सुओमोटो जांच कराई। उसका दल जांच करने आया। उसने भी शिकायतें सच पाईं। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में यह पहला मौका था, जब किसी एक मामले की दो अर्धन्यायिक जांचें हुईं और दोनों में पत्रकार सच पाए गए थे। अफसोस। पत्रकार लड़ाई जीत कर भी हार गए। राज्य सरकार ने कलेक्टर और अन्य अफसरों तथा राजनेता के खिलाफ कार्रवाई नहीं की।

राजनीति और नौकरशाही के गठजोड़ के चलते भले ही हम लोगों को न्याय नहीं मिला। मगर यहां तक अगर बात पहुंची तो इसलिए कि उस दौर की सियासत में सारे लीडर एक जैसे नहीं थे। कुछ थे, जो गन्दी राजनीति करते थे और नौकरशाही को भी अपने घिनौने खेल में घसीटते थे। हमाम में सारे नंगे नहीं थे। हम लोगों का संघर्ष अगर एक अंजाम तक पहुंचा था तो उसकी वजह यही थी कि लोकतंत्र के तीन स्तंभ मिलकर इस चौथे स्तंभ का समर्थन करते थे। आज हालत एकदम उलट गई है। दुर्भाग्य यह है कि राह भटककर पगडण्डी पर चलने वाला मीडिया भी अपने को राजमार्ग पर चलता हुआ समझता है। इस मानसिकता का क्या किया जाए? क्या समाज जब खुलकर हमारे खिलाफ मोर्चा खोलेगा, तभी हम जागेंगे मिस्टर मीडिया!

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

इसी तर्ज पर हिन्दुस्तान में झोलाछाप मीडिया भी विकराल आकार लेता जा रहा है मिस्टर मीडिया!

मीडिया के हमाम में ये मेहमान अपने को निर्वस्त्र होते क्यों देखना चाहते हैं मिस्टर मीडिया!

इस सच को चैनलों के संपादक-प्रबंधक भुला देंगे तो वक्त के गर्त में समा जाएंगे मिस्टर मीडिया!

टीवी संस्कृति में चैनल ऐसा अध्याय लिख रहे हैं, जिसे कोई भी नहीं पढ़ेगा मिस्टर मीडिया!  

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योगी ने दीपोत्सव पर राजनीति करने वालों को करारा जवाब दिया: रजत शर्मा ?>

अयोध्या का ये दीपोत्सव इसलिए भी विशेष है क्योंकि 500 साल बाद ये पहली दिवाली है, जब अयोध्या में फिर से भगवान राम का विशाल मंदिर बन चुका है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 02 November, 2024
Last Modified:
Saturday, 02 November, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

अयोध्या नगरी 25 लाख से ज़्यादा दीपों के बीच जगमगायी। दीपोत्सव का दिव्य नज़ारा देखने को मिला। अय़ोध्या के 55 घाटों पर एक साथ 25 लाख 12 हजार 585 दीए जलाकर गिनीज़ बुक का विश्व रिकॉर्ड बनाया गया। सरयू के तट पर 1,121 वेदाचार्यों ने एक साथ सरयू की आरती की। ऐसा अयोध्या में पहली बार हुआ है।  

अयोध्या में सनातन धर्म की विरासत औऱ त्रेतायुग की दिवाली की झलक दिखाई दी। दीपोत्सव से पहले 1,121 संतों-महंतो ने  सरयू घाट पर भव्य आरती की। योगी ने दीपोत्सव पर राजनीति करने वालों को करारा जवाब दिया। सनातन धर्म का विरोध करने वालों को कड़ी चेतावनी दी। राम मंदिर के निर्माण पर योगी आदित्यनाथ ने डंके की चोट पर कहा कि हमने जो कहा वह करके दिखाया।

अयोध्या में रिकॉर्ड दीये जलाने के उत्सव में कई संदेश छिपे हैं। एक तो ये कि रामलला के मंदिर में विराजमान होने के बाद ये दीपोत्सव का पहला उत्सव है, जो याद दिलाता है कि नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा पूरा किया। इसलिए योगी ने याद दिलाया, जो कहा वह करके दिखाया है। दूसरा, दीपोत्सव के बहाने योगी ने हिंदू समाज को एक होने का आह्वान किया। सनातन पर हमला करने वालों को चेतावनी दी।

तीसरी बात, राम मंदिर को लेकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने अपनी गलती दोहराई। उन्होंने एक बार फिर अयोध्या में दीपोत्सव का विरोध किया। एक ने भेदभाव का नाम लिया तो दूसरे ने दीयों के तेल से फैलने वाली गंदगी को बहाना बनाया।

अयोध्या में दिवाली के अवसर पर दीपोत्सव के प्रति लोगों के उत्साह को देखते हुए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का स्टैंड बचकाना लगता है।  ये वही काम है जो उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा के समय किया था । अयोध्या में राम का मंदिर बना है, रामलला विराजमान हुए हैं, इसके बाद पहली दीपावली है। सबको इसे मिलकर मनाना चाहिए। इसपर विवाद खड़ा करने का क्या फायदा? लेकिन विवाद सिर्फ अयोध्या के दीपोत्सव को लेकर नहीं हुआ, पटाखों और आतिशबाजी पर भी सवाल उठाए गए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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‘भारत की निडर आवाज थे सरदार वल्लभभाई पटेल’ ?>

सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन ऐसी विजयों से भरा था कि दशकों बाद भी वह हमें आश्चर्यचकित करता है। उनकी जीवन कहानी दुनिया के अब तक के सबसे महान नेताओं में से एक का प्रेरक अध्ययन है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 29 October, 2024
Last Modified:
Tuesday, 29 October, 2024
Sardar Vallabhbhai Patel

डॉ. भुवन लाल, प्रसिद्ध भारतीय लेखक।।

यह नई दिल्ली में मानसून का मध्यकाल था। 2 सितंबर 1946 को सुबह साढ़े दस बजे, वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी के पैर छूने के लिए और उनका आशीर्वाद लेने के लिए झुके। आशीर्वाद और मालाएं प्राप्त करने के बाद, पटेल और उनके सहयोगी राजेंद्र प्रसाद, जगजीवन राम और शरत चंद्र बोस वाइसरीगल हाउस की ओर चले गए। यहां उन्होंने गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद, जिसे अंतरिम सरकार भी कहा जाता है, में पद की शपथ ली। कुछ ही मिनटों बाद नए शपथ ग्रहण करने वाले सदस्यों को वायसराय हाउस के बाहर भारतीयों के दो समूहों का सामना करना पड़ा। उत्साही कांग्रेस पार्टी के सदस्य बेतहाशा जयकार कर रहे थे और मुस्लिम लीग के सदस्य काले झंडे के साथ विरोध कर रहे थे। पत्रकारों ने नोट किया कि हंगामे के बावजूद आज़ाद हिंद फ़ौज की वर्दी पहने एक पांच वर्षीय लड़के ने भीड़ में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया।

उस वर्ष की शुरुआत में नई दिल्ली में लाल किले पर आज़ाद हिंद फौज के सैन्य कोर्ट मार्शल से पूरा देश स्वतंत्रता की ओर आकर्षित हो गया था। देशभक्त बने तीन पूर्व ब्रिटिश भारतीय सैन्य अधिकारियों कैप्टन शाह नवाज खान, कैप्टन प्रेम सहगल और लेफ्टिनेंट गुरबख्श सिंह ढिल्लों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा था। रातों-रात, उनके नेता सुभाष चंद्र बोस और उनकी सेना आजाद हिंद फौज ने युद्ध के मैदान में अपनी बहादुरी की कहानियों से लाखों भारतीयों का दिल जीत लिया। सरोजिनी नायडू ने घोषणा की, कि यदि वह अपने बेटों को चुन सकतीं तो वह ख़ुशी से इन तीन आईएनए अधिकारियों को चुनेंगी।

उस समय पटेल आईएनए राहत समिति के अध्यक्ष और नेताजी की सेना के प्रति हुकुमत-ए-ब्रिटानिया के रवैये के सबसे मुखर आलोचक थे। आख़िरकार, जनवरी 1946 में, हुकुमत-ए-ब्रिटानिया ने सज़ा कम कर दी और तीनों लोगों को आज़ाद कर दिया। इससे कुछ ही हफ्तों में नौसेना गदर शुरू हो गया, जिसके बाद जबलपुर में ब्रिटिश भारतीय सेना के रैंकों में विद्रोह हुआ। जब बड़ी संख्या में सेना के सैनिक गांधी से मिलने गए, तो उन्होंने उनसे कहा, "मुझे पता है कि आज सेना के सभी रैंकों में एक नया उत्साह और एक नई जागृति है... इस सुखद बदलाव का श्रेय नेताजी बोस को है..." सैनिकों ने “जय हिन्द” नारे के साथ जवाब दिया और भारत का आकाश 'जय हिन्द' के घोष से गूंज उठा। सशस्त्र बलों की हुकुमत-ए-ब्रिटानिया के प्रति बेवफाई के भयानक और मंडराते खतरे ने भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।

हुकुमत-ए-ब्रिटानिया ने तेजी से आगे बढ़ने का फैसला किया। 2 सितंबर 1946 तक, भारत के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू करने के लिए एक अंतरिम सरकार की शपथ ली गई। उस दिन, पटेल ने गृह विभाग का कार्यभार संभाला और नई दिल्ली में रायसीना हिल पर नॉर्थ ब्लॉक में प्रवेश किया। गृह सचिव अल्फ्रेड अर्नेस्ट पोर्टर ने 70 वर्षीय नेता को उनकी मेज पर रखी फाइलों की सामग्री के बारे में सावधानीपूर्वक जानकारी दी। अचानक, राष्ट्र की चुनौतियों की व्यापक विविधता, मात्रा और जटिलता स्पष्ट हो गई।  लंदन में डेली हेराल्ड ने कहा, “नई सरकार में बहुत कम लोगों के पास पूर्व प्रशासनिक अनुभव है। उन्होंने अपना जीवन विपक्ष में बिताया है-कभी-कभी जेल में भी - उस उद्देश्य की लड़ाई में जिसे वे प्रिय हैं। कार्य के इस क्षेत्र से रचनात्मक उपलब्धि की भूमिका में परिवर्तन आसान नहीं है।'' हमेशा की तरह, ब्रिटिश अखबार के संपादकों ने भारतीयों को गलत समझा। वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि पटेल शायद ही कभी अभिभूत हुए हों।

वल्लभभाई झावेरीभाई पटेल लाडबा और एक किसान झावेरीभाई पटेल के चौथे पुत्र थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 1857 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के पक्ष में लड़ाई लड़ी थी। अहमदाबाद से पचहत्तर मील दक्षिण में नडियाद में जन्मे, वल्लभभाई पटेल की जन्मतिथि मैट्रिक प्रमाणपत्र में 31 अक्टूबर 1875 थी। गोधरा में एक वकील के रूप में शुरुआत करते हुए, उन्होंने अपने बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल के पक्ष में लंदन में प्रशिक्षित बैरिस्टर बनने का अवसर खुशी-खुशी त्याग दिया। बाद में वे मात्र दो वर्ष के भीतर मिडिल टेम्पल से बैरिस्टर बन गए और रोमन कानून में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। विवेकपूर्ण दिमाग और समझौता न करने वाले धैर्य के धनी, उन्होंने जल्द ही खुद को अहमदाबाद में एक कानूनी विद्वान के रूप में स्थापित कर लिया।

शीर्ष कानूनी दिग्गज पटेल, जो अपने हास्य की भावना के लिए जाने जाते हैं, अप्रैल 1916 में दक्षिण अफ्रीका के नायक गांधी से पहली बार अहमदाबाद में मिले। अहिंसा और सत्याग्रह की ओर आकर्षित होने में उन्हें थोड़ा समय लगा। 1918 की गर्मियों में खेड़ा के युद्धक्षेत्र में, उन्होंने भू-राजस्व पर हुकुमत-ए-ब्रिटानिया की शक्ति को चुनौती दी और एक अथक प्रचारक के रूप में उभरे। 1928 में सफल 'नो-टैक्स' आंदोलन के बाद, बारडोली की महिलाओं ने उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि से सम्मानित किया, और गांधी ने उन्हें अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपना उप कमांडर चुना। अत्यधिक अंग्रेजीदां पटेल ने अपने अच्छे कट वाले सूट उतार दिए और बेदाग सफेद कुर्ता धोती पहनने और गंदी जेलों में समय बिताने के लिए अपनी सफल कानूनी प्रैक्टिस छोड़ दी। प्रत्येक कारावास के साथ, वह और भी अधिक मजबूत होकर बाहर निकले । स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, उनका उपनाम 'भारत का लौह पुरुष' था। मार्च 1931 में, कराची में छियालीसवीं कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बाद, पटेल ने कहा, “आपने एक साधारण किसान को सर्वोच्च पद पर बुलाया है।”

उथल-पुथल भरे स्वतंत्रता संग्राम के अंत में, जैसे ही भारत गुलामी से स्वराज की ओर उभरा, पटेल जिन्होंने अपनी विशेष प्रशासनिक प्रतिभा के साथ कांग्रेस मशीन का निर्माण किया, उनका प्रधानमंत्री बनना निश्चित था। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से गांधी की पसंद युवा नेहरू पर गिरी। नेहरू की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और भारत में अपार लोकप्रियता के साथ, पटेल को राजनीतिक रूप से हार का सामना करना पड़ा। लेकिन कांग्रेस के अनौपचारिक नेता और गांधी के सबसे प्रमुख शिष्य एक शांत कर्मठ व्यक्ति थे, जो अपने जीवन के प्रत्येक चरण में चीजों के बारे में व्यापक दृष्टिकोण तक पहुंचने में कामयाब रहे। मानव जाति के पांचवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्र के शक्तिशाली उप प्रधान मंत्री के रूप में, उन्होंने अपने स्पष्ट नेतृत्व का प्रदर्शन किया। लोदी गार्डन में सुबह से पहले अपनी अनुशासित दैनिक सैर के दौरान, उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को सावधानी से राजधानी से दूर रखा ताकि निहित स्वार्थी लोग अनुग्रह के लिए उनसे संपर्क न कर सकें। गांधीजी ने अपनी पत्रिका में लिखा, "सरदार ईमानदार हैं"।

हुकुमत-ए-ब्रिटानिया ने अपने समापन कार्य में भारत का रक्तरंजित विभाजन किया। बीसवीं सदी के सबसे खराब रक्तपात में से एक में लाखों टूटे हुए, प्रताड़ित, असहाय और क्रोधित पुरुष, महिलाएं और बच्चे पूर्वी और पश्चिमी दोनों सीमाओं से शरणार्थियों के रूप में भारत में आ रहे थे। आज़ादी के कुछ ही घंटों के भीतर, अनेक गाँव जलकर खाक हो गए, आदमी आदमी नहीं रहे और कानून, कानून नहीं रहा। निराशा के भविष्यवक्ताओं ने भविष्यवाणी की कि भारतीय संघ का नया लॉन्च किया गया जहाज आगे की चट्टानों से बच नहीं पाएगा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भारत विनाश की ओर अग्रसर है। उस महत्वपूर्ण मोड़ पर, पटेल ने सांप्रदायिक फ्रेंकस्टीन का मुकाबला किया जिसने देश को अभिभूत कर दिया था। वह एक विशालकाय व्यक्ति में बदल गया जो अपने खून बहते और टूटे हुए देश को बचा रहे थे। अपने जीवन को जोखिम में डालते हुए, उन्होंने उग्र संकटों को सख्ती से शांत किया और संकटग्रस्तों को सहायता प्रदान की। वह धीरे बोलते थे लेकिन उनके शब्दों में पहाड़ों का वजन था। हर सार्वजनिक संबोधन में स्पष्ट शब्द कहने के उनके साहस ने सीमा के दोनों ओर अनगिनत मौतों को टाल दिया। नागरिक प्रशासन के प्रति अपने विशिष्ट व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ, उन्होंने लगातार भारत के भीषण संघर्ष को पूर्ण नियंत्रण में ला दिया। पटेल के शांत स्वभाव और दूर दृष्टिकोण ने साबित कर दिया कि उस तूफानी युग में राष्ट्र का उन पर दांव लगाना सही था।

शुक्रवार, 30 जनवरी 1948 की ठंडी शाम को, शाम 4 बजे के ठीक बाद जब भारत में सूरज फीका पड़ रहा था, गांधी अपने करीबी विश्वासपात्र पटेल के साथ दिल्ली में चर्चा कर रहे थे। नेहरू के साथ पटेल के नाजुक रिश्ते टूटने की स्थिति पर पहुँच गये थे। पटेल को लगा कि चौदह साल छोटे व्यक्ति के साथ उनके मतभेद सुलझने योग्य नहीं हैं। उन्होंने अपने करियर का सबसे कठिन फैसला लेते हुए कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। गांधीजी के लिए कैबिनेट में पटेल की मौजूदगी जरूरी थी। अपनी रोजमर्रा की प्रार्थना सभा के लिए निकलने से ठीक पहले, गांधी ने सब कुछ तय करने के लिए अगले दिन तीन पुराने सहयोगियों के बीच एक संयुक्त परामर्श का सुझाव दिया। उनकी सलाह पर, पटेल अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए सहमत हो गए और अपने घर वापस चले गये। कुछ ही मिनटों बाद एक हत्यारे की गोलियों से दुनिया ने महात्मा को खो दिया। हत्या के बारे में सुनकर सदमे में आए पटेल लौट आए। डॉक्टर द्वारा मृत्यु की पुष्टि करने के बाद, दुखी शिष्य अपने गुरु के चरणों के पास मौन होकर बैठ गए। इसके तुरंत बाद नेहरू आए और वे गांधी के निर्जीव शरीर को देखकर एक बच्चे की तरह रोने लगे। जैसे ही राष्ट्रपिता की मृत्यु हुई, उनकी सुलह की अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए, यथार्थवादी पटेल और आदर्शवादी नेहरू दोनों ने राष्ट्र का नेतृत्व करने के लिए एक-दूसरे को गले लगा लिया।

भारत की आजादी के समय पटेल के लीये सबसे बड़ी चुनौती विंस्टन चर्चिल की भारत के भीतर 562 स्वतंत्र स्वदेशी राजाओं को शामिल करते हुए प्रिंसेस्तान बनाने की इच्छा थी। चर्चिल ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, “भारत की सरकार को इन तथाकथित राजनीतिक वर्गों को सौंपकर भारत हम को भूसे से भरे लोगों को सौंप रहे हैं”। पटेल और राज्य मंत्रालय के प्रतिभाशाली सचिव वी.पी. मेनन ने 1947 के विभजन के मलबे से ]भारत को बचाने के लिए संघर्ष किया। अक्टूबर 1947 में, पाकिस्तान ने श्रीनगर पर तेजी से कब्ज़ा करने के लिए अपनी सेना भेजी थी। पटेल ने स्थिति की कमान संभाल ली। उन्होंने घटनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उनकी दीक्षा पर, जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने विलय के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर किए और इसे वी.पी. मेनन को सौंप दिया। उस दस्तावेज़ ने भारत सरकार द्वारा सैन्य हस्तक्षेप को सक्षम किया और श्रीनगर को समय रहते बचा लिया गया।

मृदुभाषी लेकिन सख्त वार्ताकार पटेल ने रियासतों के अधिकांश शासकों को नवगठित भारतीय संघ में सद्भावना और पारस्परिक समायोजन की भावना से क्षेत्रीय और प्रशासनिक रूप से विलय करने के लिए राजी किया। एक शाही उस्मान अली खान आसफ जाह VII, हैदराबाद के निज़ाम फिर भी डटे रहे। माना जाता है कि वह दुनिया का सबसे अमीर आदमी था और उसने एक स्वतंत्र राज्य की कल्पना की थी। पटेल साहसपूर्वक कार्य करने से नहीं डरते थे। भारत के बिस्मार्क ने 17 सितंबर 1948 तक हैदराबाद को भी शानदार ढंग से एकीकृत कर लिया और भारत के बाल्कनीकरण की ब्रिटिश योजनाओं को ध्वस्त कर दिया। भारतीय रियासतों का महाद्वीपीय आकार के एक विविध देश में एकीकरण समकालीन भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी सफलता की कहानियों में से एक है। अपने निडर सहयोगी की प्रशंसा करते हुए, जवाहरलाल नेहरू ने कहा, “उन्होंने स्वतंत्र भारत का नक्शा बनाया है। भारत की आजादी हासिल करने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है और बाद में उन्होंने इसे संरक्षित करने में भी बहुत योगदान दिया।”

पटेल ने कुछ ही समय में भारत और पाकिस्तान की संपत्ति और देनदारियों के जटिल विभाजन को समाप्त करने के लिए सिविल सेवकों को एक संयुक्त टीम में शामिल कर लिया। विभाजन परिषद की अंतिम बैठक में पाकिस्तान आंदोलन के दिग्गज नेता अदबुर रब निश्तर ने विदा लेते समय पटेल की दूरदर्शिता की प्रशंसा की और घोषणा की कि पाकिस्तान के मंत्री उन्हें अपने बड़े भाई के रूप में देखते रहेंगे। अपने निर्भीक, स्पष्ट और चट्टानी स्वभाव के पीछे पटेल का दिल सोने का था और उन्होंने तुरंत इसकी प्रशंसा सिविल सेवकों तक पहुंचा दी। इसके बाद, दूरदर्शी पटेल दुनिया के सातवें सबसे बड़े राष्ट्र को एकजुट करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सार्वजनिक प्रशासन ढांचे के चैंपियन बन गए।

उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि एक अखिल भारतीय लोक प्रशासन सेवा संवर्ग, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), अन्य केंद्रीय सेवाओं के साथ, भारत सरकार की कार्यकारी शाखा के रूप में स्थापित हो। 21 अप्रैल 1947 को, पटेल ने दिल्ली में आईएएस के पहले बैच के एक प्रेरक भाषण में उन्हें 'भारत का स्टील फ्रेम' कहा। आजादी के बाद, 30 करोड़ से अधिक बहुभाषी, बहु-धार्मिक, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक भारतीय लोकतांत्रिक संवैधानिक ढांचे के बिना दुनिया के मानचित्र पर तैर रहे थे। पटेल भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने में शामिल प्राथमिक व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने महत्वपूर्ण अनुभागों और प्रमुख प्रावधानों का भी संचालन किया। उन्होंने एक बिल्कुल नये उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्र की आशाओं और सपनों को गर्व के साथ अपने चौड़े कंधों पर उठाया।

उन पर गोलियां चलाई गईं-उनका स्वास्थ्य ख़राब हो रहा था और वह एक हवाई दुर्घटना में भी बचे फिर भी वह मौजूदा काम पर केंद्रित रहे। फिर 15 दिसंबर 1950 की सुबह, बॉम्बे (अब मुंबई) में, भारत के पहले उप प्रधान मंत्री के निजी सचिव विद्या शंकर ने नेहरू को फोन पर सूचित किया कि सरदार अब नहीं रहे। वह 75 वर्ष के थे। अपनी अंतिम सांस तक, जैसा कि महात्मा से वादा किया गया था, पटेल ने अत्यधिक तनावपूर्ण परिस्थितियों में प्रधानमंत्री के साथ एक कुशल साझेदारी बनाए रखी और भारत के स्थिर भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।

उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा ने बाद में नोट किया; “जबकि मैं आम तौर पर गांधी से मिलने से उत्साहित और प्रेरित होकर वापस आता था, लेकिन हमेशा थोड़ा सशंकित रहता था, और जवाहरलाल के साथ भावनात्मक उत्साह से भरी बातचीत से अक्सर भ्रमित और असंबद्ध होकर लौटता था… वल्लभभाई के साथ मुलाकात एक खुशी थी, जिससे मैं भारत के भविष्य में नए आत्मविश्वास के साथ लौटता था। मैंने अक्सर सोचा है कि अगर भाग्य ने यह तय किया होता कि जवाहरलाल के बजाय वल्लभभाई दोनों में से छोटे होते, तो भारत बहुत अलग रास्ते पर चलता और आज की तुलना में बेहतर आर्थिक स्थिति में होता।” सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन ऐसी विजयों से भरा था कि दशकों बाद भी वह हमें आश्चर्यचकित करता है। उनकी जीवन कहानी दुनिया के अब तक के सबसे महान नेताओं में से एक का प्रेरक अध्ययन है। और वह भारत की निडर आवाज़ थे।

(डॉ. भुवन लाल सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और हर दयाल के जीवनी लेखक और विश्व मंच पर भारतीय लेखक हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है)

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भारत और चीन की सहमति से दुनिया सीख ले सकती है: रजत शर्मा ?>

सबसे पहले दोनों सेनाओं ने डेपसांग और डेमचोक में अपने एक-एक टेंट हटाए, LAC पर जो अस्थायी ढांचे बनाए गए थे, उन्हें तोड़ा गया। भारत और चीन के सैनिक LAC से पीछे हटने शुरू हो गए।

Last Modified:
Monday, 28 October, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

इस साल दीवाली के दिन भारत-चीन सीमा पर माहौल थोड़ा बदला हुआ होगा। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर साढ़े चार साल बाद दोनों देशों की पेट्रोलिंग फिर से शुरू होगी। सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा भी कम होगा क्योंकि सीमा पर शान्ति का समाझौता होने के बाद LAC पर भारत और चीन की सेना पीछे हटने लगी है। मंगलवार को भारत और चीन के लोकल सेना कमांडरों की मीटिंग हुई जिसके बाद 23 अक्टूबर से दोनों तरफ की सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया शुरु हो गई। सबसे पहले दोनों सेनाओं ने डेपसांग और डेमचोक में अपने एक-एक टेंट हटाए, LAC पर जो अस्थायी ढांचे बनाए गए थे, उन्हें गुरुवार को तोड़ा गया। शुक्रवार सुबह से भारत और चीन के सैनिक LAC से पीछे हटने शुरू हो गए।

डेमचोक में भारतीय सेना के जवान चार्डिंग नाले से पश्चिम की तरफ़ पीछे हटे, वहीं चीन की सेना इस नाले से पूरब की तरफ़ पीछे हट रही है। डेमचोक में दोनों देशों ने अपने सैनिकों के लिए करीब एक दर्जन अस्थायी ढांचे बनाए थे, उन्हें तोड़ा जा रहा है। डेपसांग में चीनी सेना ने गाड़ियों के बीच तिरपाल लगाकर अपने सैनिकों को तैनात किया था चीनी सेना ने अपनी कुछ गाड़ियां पीछे हटाईं हैं। दोनों देशों ने डेपसांग और डेमचोक में सैनिकों की तैनाती में करीब 50 प्रतिशत की कमी की है। पीछे हटने की प्रक्रिया 28-29 अक्टूबर तक पूरी होने की उम्मीद है। इसके बाद, भारत और चीन के सैनिक अपने अपने इलाक़ों में पैट्रोलिंग करेंगे।

इससे पहले भारत और चीन दोनों ही एक दूसरे के सैनिकों के पीछे हटने का ज़मीनी स्तर पर सत्यापन करेंगे। यानी मौक़े पर जाकर देखेंगे कि सच में सैनिक पीछे हटें हैं या नहीं, गाड़ियां हटाई गई हैं या नहीं, और अस्थायी ढांचे तोड़े गए हैं या नहीं। ड्रोन से भी डिसएंगेजमेंट का वीडियो बनाया जाएगा ताकि दोनों देशों के कमांडर पूरी प्रक्रिया की समीक्षा कर सकें। दोनों सेनाओं के लोकल कमांडर्स दिन में दो बार एक दूसरे से बात करेंगे।

फिर कोर कमांडर स्तर की बातचीत होगी। दो दिन पहले रूस के कज़ान में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बातचीत हुई थी और दोनों नेताओं ने 62 साल पुराने सीमा विवाद के हल के लिए अपने अपने देश के विशेष प्रतिनिधियों को जल्द मुलाक़ात करके बातचीत करने को कहा था।

भारत के विशेष प्रतिनिधि अजित डोभाल हैं, जबकि चीन के विशेष प्रतिनिधि वहां के विदेश मंत्री वांग यी हैं।  पिछले हफ्ते तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस बार दिवाली पर हमारे जवान और अफसर चीन की सीमा पर पहले की तरह गश्त लगाएंगे। हमारे बहादुर जवान चीन की सीमा पर बिना किसी तनाव के दिवाली मनाएंगे। पिछले दो साल में चीन के सवाल पर नरेंद्र मोदी की खूब आलोचना की गई।

कहा गया कि मोदी चीन से डरते हैं, चीन ने हमारी ज़मीन पर कब्जा कर लिया, मोदी ने चीन के सामने सरेंडर कर दिया। मोदी ने ऐसी किसी बात का जवाब नहीं दिया। वो उत्तेजित नहीं हुए। मोदी चुपचाप काम करते रहे, डिप्लोमेसी का इस्तेमाल किया, सैन्य  ताकत भी दिखाई। न चीन से डरे, न  चीन के आगे झुके।

मुझे तो ये भी लगता है कि मोदी ने चीन से संबंध सुधारने के लिए पुतिन से भी अपनी दोस्ती का थोड़ा बहुत फायदा उठाया होगा। पुतिन को भी सूट करता है कि भारत और चीन दोनों साथ रहें और रूस के साथ खड़े दिखाई दें, तभी वो अमेरिका के सामने एक बड़ी ताकत होने का दावा कर सकते हैं। अब हमारे यहां चीन की लाल आंख की बात करने वालों की आंखें लाल हो जाएंगी।

चीन और भारत के रिश्ते सुधरे, तो राहुल को काफी मुश्किल होगी। उन्हें इस बात का अहसास होगा कि उन्होंने मोदी की बात मानने की बजाय चीन के दावों पर विश्वास किया। चीन के साथ समझौते की आज पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है कि किस तरह एशिया की दो बड़ी ताकतों ने आपसी विवाद को बातचीत से हल किया। यह यूरोप और मध्य पूर्व में चल रहे युद्धों को ख़त्म करने की दिशा में उदाहरण बन सकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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दीपावली पर भारत के बही खाते में सुनहरी चमक के दर्शन: आलोक मेहता ?>

आने वाले वर्ष में इसके कार्य देश के लिए अगले पांच वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की नींव रख सकते हैं।

Last Modified:
Monday, 28 October, 2024
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

आधुनिक अर्थव्यवस्था ने भारत में बहुत कुछ बदला है। महानगरों से सुदूर गांवों तक जीवन में बदलाव नजर आ रहा है। संघर्ष और विषमता के रहते विकास का रथ रुका नहीं है। भारत की सांस्कृतिक पहचान आज भी विश्व में अनूठी है। अपने विचार, अपना भोजन , अपने कपड़े , अपनी पम्पराएं , अपनी भाषा - सम्भाषण , अपनी मूर्तियां , अपने देवता , अपने पवित्र ग्रन्थ और अपने जीवन मूल्य , यही तो है अपनी संस्कृति। इसी संस्कृति का दीपावली पर्व कई अर्थों में समाज को जोड़ने वाला है।

भारतीय पर्व और संस्कृति आनंद और का संदेश देती है। दीपावली पर छोटा सा घर हो या महल, बही खातों और तिजोरियों पर शुभ लाभ के साथ लिखा जाता है - " लक्ष्मीजी सदा सहाय ", दार्शनिक स्तर पर भारतीय मान्यता रही है कि निराकार ब्रह्म स्वयं निष्क्रिय हैं और इस सृष्टि को उसका स्त्री रूप, उसकी शक्ति ही  चलाती है। लक्ष्मी के साथ नारायण, राम के नाम आगे सीता , कृष्ण के आगे राधा , शिव के साथ पार्वती का नाम लिए बिना उनकी महत्ता नहीं स्वीकारी जाती।

व्यावहारिक रूप से देखें तो सामान्य स्त्रियां किसी भी मर्द से अधिक कर्मठ और जिम्मेदार होती हैं। विभिन्न देशों की सरकारों , मुंबई से न्यूयॉर्क तक कारपोरेट कंपनियों ,को ही नहीं सुदूर पूर्वोत्तर , कश्मीर से केरल , छतीसगढ़ , बिहार , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश, हरियाणा , पंजाब के  ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में महिलाऐं घर और खेत खलिहान का काम बहुत अच्छे ढंग से संभालती हैं। परम्परा के अनुसार भारतीय परिवारों में लक्ष्मी पूजा के साथ बही खाते पर कुमकुम लगाकर नए पन्ने से भविष्य का हिसाब लिखा जाता था। इस दृष्टि से अमावस्या के अँधेरे से निकल रही आर्थिक रोशनी की चमक पर ख़ुशी मनाई जा सकती है।

मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षित स्त्रियां अब कमाऊ बनकर सही अर्थों में लक्ष्मी हो गई हैं। यूरोप , अमेरिका , जापान ही नहीं भारत में महिलाएं सामाजिक  राजनैतिक आर्थिक वैज्ञानिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इसलिए भारत में बहू और बेटी को लक्ष्मी कहा जाना हर दृष्टि से उचित है। भारत ही नहीं अंतर राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से साबित हुआ है कि बेटियां अपने माता पिता, घर परिवार की चिंता देखभाल अधिक अच्छे ढंग से करती हैं। अपने देश के विभिन्न राज्यों में अनगिनत दुर्गा, लक्ष्मी , सरस्वती की प्रतिमूर्ति समाज सेविकाएं सामाजिक चेतना, पर्यावरण , साक्षरता , स्व रोजगार के अभियान में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।

लाखों आंगनवाड़ियों को महिलाएं चला रही हैं। विश्व बैंक ने कहा है कि वर्ष 2024 में भारत की अर्थव्‍यवस्‍था 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ने का अनुमान है। भारत के लिए अपने पहले के अनुमान में संशोधन करते हुए विश्व बैंक ने इसमें 1.2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। हाल के विकास अपडेट के अनुसार वर्ष 2024 में दक्षिण एशिया की समग्र वृद्धि दर 6 प्रतिशत रहने की संभावना है। ऐसा मुख्य रूप से भारत में तेज विकास तथा पाकिस्‍तान और श्रीलंका में आर्थिक बहाली के कारण संभव होगा।रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण एशिया वर्ष 2025 में 6.1 प्रतिशत की अनुमानित आर्थिक वृद्धि दर के साथ अगले दो वर्ष तक विश्व में सबसे तेज आर्थिक वृद्धि दर वाला क्षेत्र बना रहेगा।

चुनौतीपूर्ण वैश्विक परिदृश्य के बीच, भारत एक महत्वपूर्ण आर्थिक और भू-राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है। आने वाले वर्ष में इसके कार्य देश के लिए अगले पांच वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की नींव रख सकते हैं, जो समावेशी, सतत आर्थिक विकास, डिजिटल विकास और जलवायु कार्रवाई पर एक उदाहरण स्थापित करेगा। आर्थिक मोर्चे पर, भारत दुनिया के लिए एक प्रमुख विकास इंजन रहा है, जिसने 2023 में वैश्विक विकास में 16% का योगदान दिया है । वित्त वर्ष 2022-2023 में देश की विकास दर 7.2% थी , जो जी20 देशों में दूसरी सबसे अधिक थी और उस वर्ष उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के औसत से लगभग दोगुनी थी।

स्थिरता बनाए रखने और संरचनात्मक सुधारों को लागू करने के भारत के प्रयासों ने वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में इसकी आर्थिक लचीलापन में योगदान दिया है। भारतमाला राजमार्ग कार्यक्रम, बंदरगाह आधारित विकास के लिए सागरमाला परियोजना और स्मार्ट सिटी मिशन जैसी परियोजनाओं सहित बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी को उन्नत करने में निवेश देश के परिदृश्य को बदल रहा है और देश की आर्थिक उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। भारत ने एक दशक से भी ज़्यादा पहले अपने राष्ट्रीय पहचान कार्यक्रम, आधार की शुरुआत के साथ एक ज़्यादा डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए एक ठोस नींव रखना शुरू कर दिया था, जो निवास का प्रमाण स्थापित करने के लिए बायोमेट्रिक आईडी का उपयोग करता है।

आज, एक उभरते हुए तकनीकी उद्योग के साथ, देश नवाचार और प्रौद्योगिकी सेवाओं के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया है, जिसने न केवल आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया है, बल्कि भारत को डिजिटल अर्थव्यवस्था के भविष्य को आकार देने में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में भी स्थापित किया है।जलवायु से जुड़ी बढ़ती चिंताओं के बीच, भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ वैश्विक लड़ाई में भी अहम नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है। पर्यावरण के लिए जीवनशैली के मिशन लाइफ़ की शुरुआत और ग्रीन हाइड्रोजन के लिए ठोस प्रयासों के ज़रिए भारत ने आर्थिक प्रगति और पारिस्थितिकी ज़िम्मेदारी के बीच संतुलन बनाने वाली विकास की दिशा में दृढ़ प्रतिबद्धता दिखाई है।

भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन और आपदा रोधी अवसंरचना के लिए गठबंधन की भी शुरुआत की है, तथा नवीकरणीय ऊर्जा के लिए वैश्विक ग्रिड का प्रस्ताव रखा है। चालू वित्त वर्ष 2024-2025 की पहली तिमाही के दौरान सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने में महाराष्ट्र टॉप पर रहा है। उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (डीपीआईआईटी) के मुताबिक, महाराष्ट्र दूसरे राज्यों के बीच नंबर एक स्थान पर बना हुआ है, क्योंकि अप्रैल से जून 2024-25 की पहली तिमाही में उसे 70,795 करोड़ रुपये का एफडीआई प्राप्त हुआ है।  

पड़ोसी राज्य कर्नाटक 19,059 करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित करके दूसरे स्थान पर रहा। देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 47.8 प्रतिशत बढ़कर 16.17 अरब डॉलर रहा है। सर्विस सेक्टर, कंप्यूटर, टेलीकॉम और फार्मा सेक्टर में बेहतर कैपिटल फ्लो से एफडीआई बढ़ा है। उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (DPIT) के मुताबिक इस साल कुल एफडीआई इन-फ्लो चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 28 प्रतिशत बढ़कर 22.49 अरब डॉलर रहा, जो बीते वित्त वर्ष 2023-24 में अप्रैल-जून में 17.56 अरब डॉलर था। कुल एफडीआई इन-फ्लो में इक्विटी, री-इंवेस्टेड इनकम और अन्य कैपिटल को शामिल किया जाता है।

अगर अप्रैल-जून अवधि के एफडीआई आंकड़ों को देखें, तो इस दौरान मॉरीशस, सिंगापुर, अमेरिका, नीदरलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, केमैन द्वीप और साइप्रस सहित कई प्रमुख देशों से एफडीआई इक्विटी फ्लो बढ़ा है। वित्तीय वर्ष-23 में भारत का रक्षा उत्पादन 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया, जबकि निर्यात 16,000 करोड़ रुपये को पार कर गया। वित्त वर्ष 2024 में उम्मीद है कि रक्षा उत्पादन 1.5 लाख करोड़ रुपये को पार कर जाएगा और 1.75 लाख करोड़ रुपये के लक्ष्य तक भी पहुंच सकता है। उन्होंने कहा कि निर्यात 20,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार करने की राह पर है। सर्विस सेक्टर, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर, टेलीकॉम, फार्मा और केमिकल सेक्टर में पूंजी प्रवाह बढ़ा है।

सबसे पिछड़े कहे जाने वाले बिहार के आर्थिक विकास पर राजनीतिक उठापटक में ध्यान नहीं दिया जा रहा है। पटना के पास बिहटा में राज्य के पहले ड्राई पोर्ट का उद्घाटन हाल ही में हुआ है। ड्राई पोर्ट को निजी कंपनी के सहयोग से बिहार में उत्पादित वस्तुओं के निर्यात को बढ़ावा देने की राज्य की बड़ी पहल के रूप में देखा जा रहा है। एक शुष्क बंदरगाह, या अंतर्देशीय कंटेनर डिपो (ICD), कार्गो हैंडलिंग, भंडारण और परिवहन के लिए बंदरगाह या हवाई अड्डे से दूर एक रसद सुविधा प्रदान करता है। यह समुद्री/हवाई बंदरगाहों और अंतर्देशीय क्षेत्रों के बीच एक पुल के रूप में कार्य करता है, जिससे माल की कुशल आवाजाही की सुविधा मिलती है।

बिहार जैसे राज्य के लिए यह एक बहुत ही उपयोगी पहल है ,जहां इसके निर्यात वस्तुएं - मुख्य रूप से कृषि आधारित, वस्त्र और चमड़े के उत्पाद - विभिन्न स्थानों पर निर्मित होते हैं। विभिन्न शिपर्स के कार्गो को ड्राई पोर्ट पर एकत्रित किया जा सकता है, जिससे परिवहन आसान हो जाता है। ड्राई पोर्ट का सबसे अच्छा लाभ  यह है कि यह कस्टम क्लीयरेंस प्रक्रियाओं को संभालता है, जिससे बंदरगाहों/हवाई अड्डों पर भीड़भाड़ कम होती है। बिहार आलू, टमाटर, केला, लीची और मखाना जैसे फलों और सब्जियों का एक प्रमुख उत्पादक है। इसके अलावा, इसमें मक्का (बिहार के 38 में से 11 जिले मक्का उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करते हैं), स्पंज आयरन, पैक्ड फूड, बेकार कागज, अखबारी कागज, चावल और मांस के निर्यात की भी महत्वपूर्ण क्षमता है।

मक्का उत्पादन मुख्य रूप से उत्तर बिहार के खगड़िया, बेगूसराय , सहरसा और पूर्णिया जैसे जिलों में केंद्रित है। उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण जिलों में कई चमड़ा और परिधान इकाइयाँ खुली हैं। वैशाली, नालंदा , पटना और बेगूसराय में भी खाद्य प्रसंस्करण में निर्यात की अपार संभावनाएँ हैं। शुष्क बंदरगाह से निर्यात की गई पहली खेप चमड़े के जूतों की थी, जो रूस भेजी गई। हाल ही में आधा दर्जन निवेशकों ने राज्य में चमड़ा विनिर्माण इकाइयां खोली हैं। राज्य में चमड़ा और परिधान के निर्यात की अपार संभावनाएं हैं।

शायद बहुत कम लोग यह जानते हैं कि बिहार ने 2022-23 में 20,000 करोड़ रुपये का निर्यात किया। अब, आईसीडी बिहटा की उपलब्धता के साथ, राज्य अपनी निर्यात क्षमता को बढ़ाने की ओर देख रहा है। यह रेलवे द्वारा पश्चिम बंगाल में कोलकाता और हल्दिया, आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम, महाराष्ट्र में न्हावा शेवा , गुजरात में मुंद्रा आदि के गेटवे बंदरगाहों से जुड़ा हुआ है। पूरे पूर्वी भारत की सेवा करते हुए, आईसीडी बिहटा पड़ोसी राज्यों झारखंड, उत्तर प्रदेश और ओडिशा की मदद कर सकता है।

मोदी सरकार के पहले 100 दिन में लगभग 15 लाख करोड़ रूपये की परियोजनाएं  शुरू हुई हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने नीतियों की दिशा, गति और उनके क्रियान्वयन की सटीकता को 10 साल से बरकरार रखा है।  इन्फ्रास्ट्रक्चर के तहत 100 दिन में 3 लाख करोड़ की परियोजनाओं को शुरू किया गया है। महाराष्ट्र के वधावन में 76 हज़ार करोड़ रूपए की लागत से मेगा पोर्ट बनेगा जो पहले दिन से ही दुनिया के 10 प्रमुख बंदरगाहों में शामिल होगा। 49 हज़ार करोड़ रूपए की 25 हज़ार गांवों को सड़क से जोड़ने की योजना की शुरूआत हुई। 50,600 करोड़ रूपए की लागत से भारत के बड़े मार्गों के विस्तार का निर्णय लिया गया है।

वाराणसी में लाल बहादुर शास्त्री इंटरनेशनल एयरपोर्ट, पश्चिम बंगाल में बागडोगरा, बिहार में बिहटा में उन्नयन और अगत्ती और मिनी काय में नई हवाईपट्टी बनाकर पर्यटन को बढ़ावा देने का काम हो रहा है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना की 17वीं किस्त के तहत 9.50 करोड़ किसानों को 20000 करोड़ रूपए वितरित किए गए हैं। अभी तक कुल 12 करोड़ 33 लाख किसानों को 3 लाख करोड़ रूपए वितरित किए गए हैं। खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बढ़ाया गया है। सशक्त युवा किसी भी देश के विकास की प्राथमिक शर्त है। सरकार ने 2 लाख करोड़ के पीएम पैकेज की घोषणा की है जिसके तहत अगले 5 साल में 4 करोड़ 10 लाख युवाओं को लाभ पहुंचाने वाला है।

सरकार ने एक करोड़ युवाओं को टॉप कंपनी में इंटर्नशिप के अवसर, अलाउंस और एकमुश्त सहायता राशि देने का भी निर्णय किया है। केंद्र सरकार ने भी कई हजार नियुक्तियों की घोषणा की है। श्रीकैपिटल एक्सपेंडीचर को बढ़ाकर 11 लाख 11000 करोड़ रूपए तक पहुंचाना अपने आप में एक मील का पुत्थर है। इससे कई युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और हमारा इंफ्रास्ट्रक्चर भी मजबूत होगा। दीनदयाल अंत्योदय योजना के तहत 10 करोड़ से अधिक महिलाओं को संगठित कर 90 लाख से अधिक स्वयं सहायता समूह बनाए गए हैं। गाइड का काम करने के लिए पर्यटन दीदी को पर्यटन मित्रों और ड्रोन दीदी के माध्यम से सेल्फ हेल्प ग्रुप से जोड़ा गया है।

इसके साथ ही युवाओं को पर्यटन से जोड़ने का काम भी किया गया है। जनजातीय उन्नत ग्राम अभियान के तहत 63000 जनजातीय गांवों का पूर्ण विकास किया जाएगा। इससे 5 करोड़ आदिवासियों की आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा। इस योजना के तहत गांव को प्राथमिक जरूरत और सुविधाओं से पूरी तरह युक्त किया जाएगा। हाँ इन सभी सपनों को साकार करने के लिए  सरकार के साथ राज्यों की प्रशासनिक मशीनरी और जिले से पंचायत स्तर तक ईमानदारी से कार्य करने की आवश्यकता होगी। किसी भी धर्म की पूजा अर्चना प्रार्थना में सबके सुख शांति और समृद्धि की कामना होती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अमेरिकी चुनाव में धर्म की राजनीति: अनंत विजय ?>

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार हो रहे हैं। डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच बेहद कड़ा मुकाबला है।

Last Modified:
Monday, 28 October, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

अपने देश में राजनीति में धर्म के उपयोग की खूब चर्चा होती है। एक विशेष वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे कथित विचारक और विश्लेषक इस बात पर चुनाव के समय शोर मचाते हैं। वो राजनीति में धर्म के उपयोग के लिए भारतीय जनता पार्टी को आज से नहीं बल्कि बल्कि इसके गठन के बाद से ही दिम्मेदार ठहराते आ रहे हैं। किसी प्रकार का तर्क नहीं सूझता तो इस तरह के विश्लेषक राम मंदिर मुक्ति के लिए चलाए गए आंदोलन को भी धर्म से जोड़कर कर भारतीय जनता पार्टी पर प्रहार करने से नहीं चूकते। मंदिरों के भव्य और नव्य स्वरूप को देखकर भी इनको धर्म और राजनीति की याद आती है।

धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर इसस ईकोचैंबर में बैठे लोग नेतों के मंदिरों में जाने से लेकर टीका लगाने पर टिप्पणी करते हैं। इस संदर्भ में वो अमेरिका और ब्रिटेन का उदाहरण देते हुए सलाह देते हैं कि भारत के राजनेताओं को अमेरिका से सीखना चाहिए। राजनीति में धर्म के कथित घालमेल को ऐसे लोग देश के सामाजिक तानेबाने के लिए खतरा मानते हैं। कई बार तो धर्मनिरपेक्षता को भी इस तरह परिभाषित करते हैं जैसे उसका अर्थ नास्तिकता हो।

ईकोचैंबर में बैठे इस तरह के कथित विद्वान या विश्लेषक धर्म को समझने में चूक जाते हैं। संभव है कि समझकर भी ईकोचैंबर को प्राणवायु देनेवाली शक्तियों के प्रति स्वामिभक्ति के कारण गलत व्याख्या करते हों। इस तरह के कथित विद्वान आपको कई देशों में मिलेंगे जो भारतीय मूल के होते हुए भी धर्म को लेकर भ्रमित हैं या भ्रमित होने का दिखावा करते हैं।

अब जरा अमेरिका चलते हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार हो रहे हैं। डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच बेहद कड़ा मुकाबला है। कई तरह के सर्वे आ रहे हैं जो इस कड़े मुकाबले में ट्रंप की स्थिति थोड़ी बेहतर दिखा रहे हैं। जो लोग भारत में धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर विलाप करते रहते हैं उनको अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को देखना चाहिए। वहां किस प्रकार से चुनाव में जीजस क्राइस्ट और क्रिश्चियन धर्म की चर्चा होती है। चुनावी रैलियों में धर्म और आस्तिकता को जोर शोर से उठाया जाता है।

राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों की रैली में बार-बार लार्ड जीजस का नाम गूंजता रहता है। इस समय अमेरिका के राजनेता इंटरनेट मीडिया पर निरंतर आस्था और आस्तिकता को लेकर पोस्ट लिख रहे हैं। अपनी रैलियों में बोल रहे हैं। वहां के समाचारपत्रों में भी उम्मीदवारों के जीजस को लेकर रैलियों में दिए गए बयानों की चर्चा हो रही है। अमेरिका के समाज में धर्म को लेकर जिस प्रकार की बातें की जाती हैं या जिस प्रकार से वहां जीजस और बाइबिल को लेकर श्रद्धा और उसका सार्वजनिक प्रकटीकरण होता है उसको भी देखना चाहिए।

चुनावी रैलियों में क्राइस्ट इज किंग और जीजस इज लार्ड जैसे नारे उछाले जा रहे हैं। क्रिश्चियन आबादी में इसको लेकर एक अलग ही तरह का माहैल देखने को मिल रहा है। अमेरिका में जेन जी की बहुत चर्चा है। जो युवा इस चुनाव में वहां पहली बार वोट डालने जा रहे हैं उनमें से कई ने इंटरनेट मीडिया पर लिखा है कि मैं एक प्राउड क्रिश्चियन हूं। पहली बार वोट डालने को लेकर उत्साहित हूं।

मैं डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालूंगा। इस टिप्पणी में गौर करनेवाली बात ये नहीं है कि वो डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालेगा। इस बात को देखा जानिए कि किस तरह वो अपने धर्म को लेकर गौरवान्वित है। जो अमेरिका भारत और भारतीयों को धर्म और कट्टरता पर ज्ञान देता है उस देश के युवा खुलेआम धर्म के आधार पर वोट डालने की बात कर रहा है। लेकिन भारत में वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे लोगों को ये नहीं दिखता है।

अमेरिकी ज्ञान को लेकर यहां शोर मचाने में लग जाते हैं। हमेशा से भारत के बाहर के विचार को लेकर यहां आरोपित करनेवाले इन कथित बौद्धिकों को ये सोचना चाहिए कि इस देश में आयातित विचार लंबे समय तक नहीं चल सकता है। मार्क्सवाद को लेकर भी एक जमाने में रोमांटिसिज्म दिखता था लेकिन समय के साथ वो रोमांटिसिज्म खत्म हो गया। इसका कारण ये रहा कि मार्क्सवादी भारत और भारतीय विचारों को समझ नहीं सके।

अगर भारतीय जनता पार्टी का नेता अपने चुनाव प्रचार के समय किसी मंदिर में चले जाएं तो उसकी ये कहकर आलोचना होने लगती है कि वो हिंदुओं को आकर्षित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रार्थना करते हैं और जीजस के नाम पर लोग उम्मीदवार को आशीर्वाद देते हैं। यहां अगर इस तरह से किसी नेता के लिए प्रार्थना की जाए और उसको धर्म से जोड़ा जाए तो जोड़नेवाले को भक्त या अंध भक्त कहकर उपहास किया जाता है। अपेक्षा ये की जाती है कि धर्म को लेकर हमारी राजनीति उदासीन रहे। क्यों?

इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। अगर उत्तर होता भी है तो वो ये कि इससे अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है। संविधान का हवाला दिया जाने लगता है। क्या भारतीय समाज धर्म के बिना चल सकता है? उत्तर होगा नहीं। मुझे कई बार ये प्रसंग याद आता है। उस प्रसंग को बताने के पहले नेहरू के बारे में आधुनिक भारत के इतिहासकारों की राय देखते हैं। इतिहासकारों ने इस बात पर बल दिया है कि नेहरू धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे। इतिहासकारों से इस आकलन में चूक हुई। नेहरू को जब लगता था कि सत्ता के लिए धर्म का उपयोग आवश्यक है तो वो बिल्कुल नहीं हिचकते थे।

अब उस प्रसंग की चर्चा। 14 अगस्त 1947। शाम के समय दिल्ली में डा राजेन्द्र प्रसाद के घर हवन-पूजा का आयोजन किया गया था। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों से जल मंगवाए गए थे। डा राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे। महिलाओं ने दोनों के माथे पर तिलक लगाया। फिर नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ये स्टैंड लिया था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया था कि सत्ता प्राप्त करने का ये हिंदू तरीका है। नेहरू इस हिंदू तरीके को अपनाने को तैयार हो गए थे।

इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। इंदिरा गांधी तो निरंतर मंदिरों में जाती रही हैं। चुनाव हारने के बाद भी और चुनाव के समय भी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। लेकिन जब से सोनिया गांधी और उसके बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस को संभाला तो धर्म पर ज्यादा ही कोलाहल होने लगा। अब कांग्रेस को अमेरिका में बैठे कुछ लोगों से ज्ञान और योजनाएं मिलने लगी हैं तो ये नैरेटिव और गाढ़ा होने लगा है। पर अब ये समझना होगा कि देश की जनता जागरूक हो चुकी है और धर्म को धारण करने में उनको कोई परेशानी भी नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) - साभार, दैनिक जागरण।

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मस्क के खिलाफ JIO व एयरटेल साथ-साथ, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब' ?>

मुकेश अंबानी भी सेटेलाइट से इंटरनेट देना चाहते हैं लेकिन मस्क की कंपनी तो पहले से सर्विस दे रही है। अंबानी और मित्तल का कहना है कि मस्क को Star link के लिए स्पैक्ट्रम नीलामी में ख़रीदना चाहिए।

Last Modified:
Monday, 21 October, 2024
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

मुकेश अंबानी और सुनील भारती मित्तल टेलीकॉम मार्केट पर क़ब्ज़े के लिए एक दूसरे से खूब लड़े है। अंबानी के जियो ने न केवल मित्तल के एयरटेल को पीछे छोड़ा बल्कि बाक़ी कंपनियों को बाज़ार से लगभग बाहर कर दिया। अब बाज़ार पर इन दो बड़ी कंपनियों का क़ब्ज़ा है। ये दोनों कंपनियाँ अब एलन मस्क को रोकने के लिए साथ आ रही है। मस्क Star link के ज़रिए सेटेलाइट से इंटरनेट देना चाहते हैं और ये दोनों कंपनियाँ रास्ते में रोड़े डाल रही है। फिर भी सरकार मस्क का साथ देने के मूड में है।  

एलन मस्क दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति हैं। उनकी चर्चा X यानी ट्विटर का मालिक होने के कारण ज़्यादा होती रहती है लेकिन Tesla, Space X या Star link जैसी कंपनियों ने टेक्नॉलजी के क्षेत्र में में झंडे गाड़े हैं। Star link सेटेलाइट के ज़रिए इंटरनेट देती है। यह बाक़ी कंपनियों से अलग है जो फ़ाइबर ऑप्टिक केबल के ज़रिए या फिर मोबाइल टॉवर के ज़रिए इंटरनेट दे रही है। इसे Terrestrial इंटरनेट कहते है। भारत में हमें इसी तरह से इंटरनेट मिल रहा है।

इसके लिए फ़ाइबर का जाल बिछाना पड़ता है या फिर जगह जगह टॉवर खड़े करना पड़ते हैं। Star link के पास अपने सेटेलाइट है। आपको सिर्फ़ एक डिश लगानी है। इससे इंटरनेट मिल जाएगा। सुनील मित्तल और मुकेश अंबानी भी सेटेलाइट से इंटरनेट देना चाहते हैं लेकिन मस्क की कंपनी तो बाक़ी दुनिया में पहले से सर्विस दे रही है। अंबानी और मित्तल का कहना है कि मस्क को Star link के लिए स्पैक्ट्रम नीलामी में ख़रीदना चाहिए जैसे टेलीकॉम कंपनियों को ख़रीदना पड़ता है।

सुनील मित्तल ने तो यहाँ तक कह दिया कि लाइसेंस भी लेना चाहिए अगर वो शहरी क्षेत्रों और ग्राहकों को सीधे सर्विस दे रहे हैं। सरकार ने पिछले साल पारित क़ानून का हवाला देकर कहा कि स्पैक्ट्रम आवंटित होगा, नीलाम नहीं। यह आवंटन होते ही मस्क अपनी सर्विस शुरू कर सकेंगे। आप इस वक़्त ये लेख पढ़ पा रहे हैं तो इसके लिए स्पैक्ट्रम को शुक्रिया कहिए।

स्पैक्ट्रम अदृश्य रेडियो तरंगें है जो संदेश एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचाती है। चाहे आप फ़ोन पर बात कर रहे हो या मेसेज भेज रहे हो या कोई वीडियो देख रहे हैं। ये सारी बातें रेडियो स्पैक्ट्रम के ज़रिए संभव है। ये इलेक्टरो मैगनेटिक स्पैक्ट्रम का हिस्सा है जो प्राकृतिक संपदा है। हर देश की सरकार इसे अपने हिसाब से रेग्यूलेट करती है। आपने कभी रेडियो चलाया हो तो आपको स्टेशन पकड़ने के लिए बटन को ऊपर या नीचे घूमाना पड़ता है तब गाना सुनाई देता है।

उसी तरह आप बटन को ऊपर या नीचे घूमाते रहे तो अलग अलग फ़्रीक्वेंसी पर अलग-अलग काम होते है। कुछ बैंड मोबाइल सेवा के लिए होते है। कुछ सेटेलाइट के लिए तो कुछ पर सेना अपना कम्यूनिकेशन करती है। एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल ATC भी इसी के ज़रिए हवाई यातायात को नियंत्रित करती है। ये सारा स्पैक्ट्रम सरकार ट्रैफ़िक पुलिस की तरह नियंत्रित करती है। एक सेवा दूसरे के बैंड में चली जाती है तो कम्यूनिकेशन ठप हो सकता है। वैसे ब्लू टूथ भी स्पैक्ट्रम की वजह से ही चलता है।

बस सरकार उसे कंट्रोल नहीं करती है। मोबाइल सेवा के लिए सरकार स्पैक्ट्रम की नीलामी करती है, जिसे जियो, एयरटेल जैसी कंपनियाँ ख़रीदती है और फिर मोबाइल फ़ोन सेवा देती है। अब यही बात वो सेटेलाइट इंटरनेट पर भी लागू करना चाहते हैं। हालाँकि भारत में सेटेलाइट इंटरनेट कितना सफल होगा यह अभी कहना मुश्किल है क्योंकि यह ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बेहतर मानी जाती है जहां नेटवर्क पहुँचना मुश्किल है। यह Terrestrial के मुक़ाबले महंगा भी है। फिर भी रिलायंस या एयरटेल कोई चांस नहीं लेना चाहते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पूर्व की जागृति ने अमेरिका व यूरोप को भयभीत कर दिया: अनंत विजय ?>

यूरोप से हमारा मतलब संसार की सब गोरी जातियों से है। अर्थात यूरोप और अमेरिका दोनों। अमेरिका तो अभी यूरोप का बच्चा ही है। इन गोरी जातियों ने एशिया से अपना धर्म पाया।

Last Modified:
Monday, 21 October, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

बेहद चर्चित और सफल फिल्म निर्देशक सुभाष घई का एक दिन मैसेज आया। उसमें दिलचस्प सूचना थी। घई साहब ने लिखा था कि 1999 में रिलीज हुई उनकी फिल्म ताल देशभर में रिलीज की जा रही है। उनके इस मैसेज को पढ़कर पहले तो चौंका लेकिन फिर याद आया कि हाल के दिनों में कई पुरानी लेकिन हिट फिल्मों को फिर से प्रदर्शित किया गया। शोले, हम आपके हैं कौन, रहना है तेरे दिल में जैसी फिल्मों को फिर से प्रदर्शित किया गया। दर्शकों ने पसंद भी किया। अमिताभ बच्चन के 80 वर्ष पूरे होने पर भी उनकी कई फिल्मों का प्रदर्शन हुआ था।

हिंदी फिल्मों के व्यवसाय को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि फिल्मों का पुनर्प्रदर्शन दो कारणों से किया जाता है। एक तो क्लासिक फिल्मों के बारे में नई पीढ़ी को जानने समझने का अवसर मिलता है। कई बार जब फिल्मों पर चर्चा होती है तो क्लासिक फिल्मों के बारे में बातें होती हैं तो युवाओं में इनको देखने की ललक पैदा होती है। दूसरा कारण ये कि जब नई फिल्में नहीं चलती हैं तो उनको सिनेमा हाल से हटाना पड़ता है। जल्दी जल्दी नई फिल्में आती नहीं हैं। ऐसे में सिनेमा हाल को अपना कारोबार चलाने के लिए क्लासिक्स का सहारा लेना पड़ता है। हाल के दिनों में ये चलन बढ़ा है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोग ये नहीं चाहते हैं कि फिल्मों के नए दर्शक सिनेमा हाल पहुंचें और उनको निराशा हाथ लगे। विकल्प देकर वो दर्शकों को बांधे रखना चाहते हैं।

फिल्मों के अलावा एक दूसरी बात पता चली जो साहित्य जगत से जुड़ी हुई है। हिंदी के एक प्रकाशन गृह सर्वभाषा ट्रस्ट के केशव मोहन पांडे और कवि आलोचक ओम निश्चल से भेंट हुई। चर्चा के क्रम में केशव जी ने एक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि उनके प्रकाशन गृह से लाला लाजपत राय की 1928 में प्रकाशित पुस्तक दुखी भारत का पुनर्प्रकाशन हो रहा है। ये पुस्तक काफी चर्चित रही है।

1928 में इसका प्रकाशन इंडियन प्रेस, प्रयाग से हुआ था। अधिक चर्चा इस कारण भी हुई थी कि लाला लाजपत राय की ये पुस्तक कैथरीन मेयो की पुस्तक मदर इंडिया के उत्तर में लिखी गई थी। लाला लाजपत राय की पुस्तक के कवर पर ही इस बात का प्रमुखता से उल्लेख था। दुखी भारत के नीचे लिखा था, मिस कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ का उत्तर। लाला लाजपत राय की इस पुस्तक की कहानी बेहद दिलचस्प है। अमेरिका की पत्रकार कैथरीन मेयो ने 1927 में मदर इंडिया के नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक में कथित तौर पर भारत के तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थितियों के बारे में लिखा गया था।

इनकी स्थिति को हिंदू समाज से जोड़कर आपत्तिजनक तरीके से व्याख्यायित किया गया था। पश्चिमी देशों में कैथरीन मेयो की ये पुस्तक काफी चर्चित हुई थी। यूरोप की कई भाषाओ में इसका अनुवाद हुआ था। पुस्तक के कई संस्करण प्रकाशित हुए थे। पराधीन भारत में कैथरीन मेयो की पुस्तक का काफी विरोध हुआ था। माना गया था कि अमेरिकी पत्रकार ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद वो उचित ठहराने के लिए ये पुस्तक लिखी थी। उसके लिए उनको विशेष रूप से भारत भेजा गया था। इस पुस्तक में कैथरीन मेयो ने ना केवल हिंदू समाज और संस्कृति की तीखी आलोचना की थी बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के नायकों और उनके सोच पर भी प्रश्न उठाए थे।

लाला लाजपत राय ने इस पुस्तक का सिलसिलेवार उत्तर देते हुए दुखी भारत के नाम से पुस्तक लिखी। इसमें राय ने लिखा था कि प्रत्येक विद्यार्थी ये जानता है कि यूरोप शताब्दियों तक असभ्यता, मूर्खता और गुलामियों का शिकार रहा है। यूरोप से हमारा मतलब संसार की सब गोरी जातियों से है। अर्थात यूरोप और अमेरिका दोनों। अमेरिका तो अभी यूरोप का बच्चा ही है। इन गोरी जातियों ने एशिया से अपना धर्म पाया। मिस्त्र की कला और उद्योग का अनुसरण किया। भारत से सदाचार संबंधी आदर्श उधार लिए। संसार की आधुनिक उन्नत जातियों में इस समय जो कुछ भी वास्तविक खूबी और अच्छाई है वह अधिकांश में उनको पूर्व से मिली है।...मिस मेयो का मनोभाव एशिया की काली, भूरी और पीली सभी जातियों के विरुद्ध यूरोप की गोरी जातियों का ही मनोभाव है। पूरब को दबानेवालों के मुंह की वो पिपहरी मात्र ही है।

पूर्व की जागृति ने अमेरिका और यूरोप दोनों को भयभीत कर दिया है। इसी से इतनी प्राचीन और सभ्य जाति के विरुद्ध इस पागलपने का प्रदर्शन हो रहा है और खूब अध्ययन के साथ तथा जानबूझकर यह आंदोलन खड़ा किया जा रहा है। लाला लाजपत राय इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने कैथरीन मेयो पर और भी तीखा हमला बोला, मिस कैथरीन मेयो, जैसा कि उसके लेखों से जान पड़ता है, अमेरिका की जिंगो जाति का एक औजार है।

ग्रंथकार होने का उसका दावा केवल इतना ही है कि उसकी लेखन शैली मनोरंजक है, सनसनी पैदा करनेवाले उड़ते हुए शब्दों का प्रयोग करना उसे आता है और संदेहपूर्ण कथाओं को मनोरंजक शैली में लिखने का उसे अभ्यास है। एक मामूली पाठक भी उसके इतिहास और राज-नीति-विज्ञान में उसकी अज्ञानता को दिखला सकता है। अपनी इस पुस्तक के विषय प्रवेश में ही लाला लाजपत राय ने काफी विस्तार से कैथरीन मेयो की स्थापनाओं को ध्वस्त कर दिया था।

दुखी भारत नाम की लाला लाजपत राय की ये पुस्तक खूब पढ़ी गई। इसपर काफी चर्चा हुई। लेकिन कालांतर में ये पुस्तक ना केवल चलन से बाहर हो गई या कर दी गई बल्कि नई पीढ़ी को इसके बारे में बताया भी नहीं गया। अब इसका पुनर्प्रकाशन एक सुखद घटना है। सिर्फ यही एक पुस्तक नहीं बल्कि हिंदी की कई कालजयी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन हो रहा है। जैसे प्रेमचंद पर पहली आलोचनात्मक पुस्तक लिखनेवाले जनार्दन झा द्विज की अनुपलब्ध पुस्तक का प्रकाशन हुआ। निराला जी ने श्रीरामचरितमानस के कुछ अंशों का अवधी से हिंदी में अनुवाद किया था जिसका फिर से प्रकाशन रामायण विनय खंड के नाम से हुआ है।

श्रेष्ठ हिंदी पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन को कई तरह से देखा जा सकता है। एक तो अगर इसको फिल्मों के पुनर्प्रदर्शन से जोड़कर देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जब अच्छी पुस्तकें ना आ रही हों तो पूर्व प्रकाशित अच्छी और अनुपलब्ध पुस्तकों को खोजकर उसका प्रकाशन किया जाए। इसका एक लाभ ये होगा कि पाठकों का जुड़ाव हिंदी के साथ बना रहेगा और वो निराश नहीं होंगे।

दूसरी अच्छी बात ये होगी कि स्वाधीनता के बाद जिस तरह का एकतरफा नैरेटिव बनाया गया उसका भी बहुत हद तक निषेध होगा। लाला लाजपत राय ने जिस तरह से अपनी पुस्तक दुखी भारत में हिंदू समाज और संस्कृति को लेकर कैथरीन मेयो के नैरेटिव को ध्वस्त किया था उसके बारे में आज की पीढ़ी को भी जानना चाहिए। आज भी हमारे समाज में कैथरीन मेयो की अवधारणा के लेकर कई लोग घूम रहे हैं। उनके निशाने पर भारत का हिंदू समाज होता है। अगर लाला लाजपत राय की इस पुस्तक का प्रचार प्रसार होगा तो हिंदू समाज को लेकर फैलाई जानेवाली भ्रांतियां दूर होंगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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भारतीय मीडिया पर विदेशी ताकतों के हमले व घुसपैठ की कोशिश: आलोक मेहता ?>

उन्होंने दावा किया कि पिछले साल हाउस ऑफ कॉमन्स में उनके बयान के बाद, जिसमें उन्होंने सिख अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के लिए भारत को दोषी ठहराया था।

Last Modified:
Monday, 21 October, 2024
alokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देश एक तरफ आतंकवाद से लड़ने आर्थिक सम्बन्ध बढ़ाने और युद्ध प्रभावित देशों को शांति वार्ता की मेज पर लाने के लिए भारत और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की आरती उतारते दिखते हैं, दूसरी तरफ स्वयं आतंकवादियों, भारत विरोधी संगठनों को शरण संरक्षण दे रहे हैं। पराकाष्ठा यह है कि संपन्न देशों के समूह जी 7 के सदस्य कनाडा और अमेरिका आतंकी गतिविधियों के विवादास्पद मामलों में भारतीय मीडिया को भी निशाना बना रहे हैं।  मतलब भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग को  वह दशकों पहले अपनाए तरीकों से अपनी कठपुतली -मोहरे की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।

ऐसा न होने पर वे भारत की नीतियों, सुरक्षा मामलों पर मोदी सरकार के क़दमों को उचित बताने वाले मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को न केवल मोदी समर्थक बल्कि कनाडा या अमेरिका के चुनावों को प्रभावित करने का बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं। जी 7 से जुड़े कनाडा के रैपिड रिस्पांस मेकेनिज्म मीडिया विंग ने  चुनिंदा भारतीय मीडिया संस्थानों और वरिष्ठ सम्पादकों पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों, आतंकवादी संगठनों के विरुद्ध कार्रवाई का समर्थन करने से कनाडा की राजनीति और चुनाव पर असर का बेतुका और भारतीय मीडिया की स्वतंत्रता के विरुद्ध रिपोर्ट जारी की।

स्वयं प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने विदेशी हस्तक्षेप आयोग के समक्ष अपनी गवाही के दौरान आरोप लगाया कि 'कनाडा और उसके नागरिकों पर हमला करने के लिए भारतीय मीडिया का इस्तेमाल किया गया। उन्होंने दावा किया कि पिछले साल हाउस ऑफ कॉमन्स में उनके बयान के बाद, जिसमें उन्होंने सिख अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के लिए भारत को दोषी ठहराया था, भारत सरकार ने अपने मीडिया के माध्यम से कनाडा पर हमलों के साथ जवाब दिया।

ट्रूडो ने कहा कि इन प्रयासों का उद्देश्य “हमारी आलोचना करना, हमारी सरकार और हमारे शासन को कमजोर करना और, स्पष्ट रूप से, हमारे लोकतंत्र की अखंडता को कमजोर करना” था। असल में कनाडा के जस्टिन ट्रूडो पिछले चुनावों में चीनी दखल के मामले में बुरी तरह फंस चुके हैं। भारत पर निशाना डालकर वह खुद को और चीन को बचाना चाहते हैं। कनाडा में उनके खिलाफ विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं। उनकी अपनी ही लिबरल पार्टी में बगावत तेज हो गई है। उनके इस्तीफे की मांग हो रही है। यही वजह है कि कनाडा में सिख वोटरों और खालिस्तान समर्थक वोटरों का साथ पाने के लिए भारत को निशाना बना रहे हैं।

जस्टिन ट्रूडो पर साल 2019 और 2021 के चुनावों में विदेशी हस्तक्षेप से जीतने का आरोप है। इसी मामले में वह जांच का सामना कर रहे हैं। वह साल 2019 और 2021 के चुनावों में विदेशी हस्तक्षेप (चीन और रूस) की जांच कर रही समिति के सामने पेश हुए। यहां उन्हें कनाडाई चुनावों में चीनी दखल पर जवाब देना था। आयोग ने जनवरी 2024 में सार्वजनिक सुनवाई शुरू की थी। जांच में चीन को हस्तक्षेप करने का मुख्य आरोपी माना गया। दावा किया गया कि ट्रूडो ने चुनाव जीतने के लिए चीन की मदद ली थी और चुनाव को अपने पक्ष में प्रभावित करवाया था।

भारतीय मीडिया पर आरोप लगाने वाले ट्रुडो अपने गिरेबान में झांककर वहां के मीडिया को देख लें। कनाडा के अखबार द नेशन पोस्ट ने लिखा है कि ट्रूडो ने कनाडा में अतिवादी सिखों को पनपने का मौका दिया और डायस्पोरा को इतनी छूट प्रदान कर दी कि वे हमारी विदेश नीति को प्रभावित करने लगे। 'कनाडाई मीडिया ने इसे 'असामान्य सार्वजनिक बयान' करार दिया है। अखबार ने लिखा है कि नई दिल्ली ने जो सवाल उठाए हैं, बिना उसका जवाब दिए ही कनाडा ने राजनयिक संबंध खराब कर लिए।

ट्रूडो ने संदिग्ध खालिस्तानी अतिवादियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया, बल्कि डायस्पोरा पर उनकी पैरवी कर दी। मीडिया में लिखा गया है कि कनाडा ने खिख चरमपंथियों को फलने-फूलने का मौका दिया, यहां तक कि उन लोगों ने भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या को सेलिब्रेट किया, क्या इस घटना को कनाडा के हित में बताया जा सकता है। इसी तरह से द नेशनल टेलिग्राफ के हवाले से भी लिखा गया है कि ट्रूडो ने फिर से निराश किया है। उन्होंने कोई भी ऐसा साक्ष्य सामने पेश नहीं किया, जिसे देखकर कहा जा सके कि उनके आरोप सही हैं।

अखबार ने लिखा है कि ट्रूडो के एक्शन की वजह से कनाडा को आर्थिक नुकसान पहुंचेगा और वह ऐसा सिर्फ जगमीत सिंह और खालिस्तानी मंत्रियों को खुश करने के लिए कदम उठा रहे हैं। भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाए जाने की बात तो कह दी गई, लेकिन कनाडा का जो नुकसान होगा, उसका क्या होगा। कनाडाई थिंक टैंक आईसीटीसी के डिप्टी डायरेक्टर फरान जैफरी के हवाले से लिखा गया है कि वास्तव में यह मोदी वर्सेस खालिस्तानी नहीं, बल्कि भारत वर्सेस खालिस्तानी की स्थिति बन गई है। उन्होंने लिखा कि खालिस्तानी अलगाववादी हैं और वे मोदी विरोधी नहीं, बल्कि भारत विरोधी हैं, यह भारत वर्सेस अलगाववाद का मुद्दा है।

ऐसी परिस्थिति में ट्रूडो अलगाववादियों के साथ जाते हुए दिख रहे हैं। भारत कनाडा के कूटनीतिक संबंधों को बिगाड़ने के बाद ट्रुडो ने स्वीकार कर लिया कि उनके पास लिज्जत की हत्या का कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं था। वहीँ अमेरिका में पल रहे आतंकवादी पन्नू ने खुद भी कह दिया कि उसी ने कनाडा सरकार को इस हत्या में हाथ होने की आशंका बताई थी। दूसरी तरफ पन्नू की हत्या के षड्यंत्र के नाम पर अमेरिका ने भी भारतीय एजेंसियों आदि का आरोप लगाना शुरु कर दिया।

मतलब साफ़ है कि खालिस्तानी आतंकवादियों को पिछले तीस चालीस वर्षों से पनाह दे रहा अमेरिका अपने फॉर्मूले से भारत सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। हम जैसे पुराने पत्रकारों को यह बात याद है कि इंदिरा गांधी और शंकर दयाल शर्मा सी आई ए द्वारा भारत की राजनीतिक स्थिरता ख़त्म करने के आरोप 1980 से पहले भी लगाया करते थे। खालिस्तान के नाम पर देश को तोड़ने वाले तत्वों को सी आई ए के समर्थन के तथ्यों पर पंजाब को बहुत करीब से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार जी एस चावला और गुप्तचर एजेंसी रॉ के प्रमुख रहे विक्रम सूद ने विस्तार से अपनी पुस्तकों में बहुत पहले लिखा हुआ है।

अमेरिकी पत्रकारों या सी आई ए में रह चुके जासूसों ने भी विदेशी सरकारों को गिराने के लिए मीडिया को हथियार बनाने के विवरण विस्तार से लिखे हैं। इसलिए अब अमेरिका या ब्रिटेन , कनाडा जैसे देशों को तकलीफ यह है कि भारतीय मीडिया अब कठपुतली नहीं बन रहा और मोदी जैसे प्रधान मंत्री व्यापक जन संमर्थन के बल पर विदेशी शक्तियों का मुकाबला करने में सक्षम हैं। फिर भी बांग्लादेश में शेख हसीना को हटाने की घटना के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रों के प्रति जनता को आगाह किया है।

इस मुद्दे को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। मीडिया संस्थान और संगठनों को भी विदेशी दुष्प्रचार का प्रतिकार करना चाहिए। वहीँ अमेरिका, चीन, पाकिस्तान की संदिग्ध एजेंसियों और कंपनियों के माध्यम से भारतीय मीडिया में घुसने वालों या उनका मोहरा बने तत्वों के विरुद्ध सरकार को कठोर कानूनों का उपयोग करना आवश्यक होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हार के लिए चुनाव आयोग को जिम्मेदार ठहराना बचकानी बात: रजत शर्मा ?>

आज एक बार फिर बताना पड़ेगा कि EVM मशीन एक कैलकुलेटर की तरह होती है। इसका इंटरनेट से ब्लूटूथ से, या किसी और रिमोट डिवाइस से कोई कनेक्शन नहीं होता।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 17 October, 2024
Last Modified:
Thursday, 17 October, 2024
evm

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

आम तौर पर चुनाव नतीजे आने के बाद EVM और चुनाव आयोग पर सवाल उठाए जाते हैं, लेकिन चुनाव की तारीखों के एलान के साथ ही EVM पर सवाल उठ गए। उद्धव ठाकरे की शिवसेना के नेता संजय राउत ने कहा कि महाराष्ट्र में चुनाव की तारीखों का ऐलान भले हो गया हो, उसका स्वागत भी है, लेकिन विरोधी दलों को EVM पर भरोसा नहीं है क्योंकि जो हरियाणा में हुआ, वो महाराष्ट्र में भी हो सकता है। संजय राउत ने कहा कि महाराष्ट्र के चुनाव में चुनाव आयोग को अपनी निष्पक्षता साबित करनी पड़ेगी।

कांग्रेस के नेता राशिद अल्वी ने भी यही आरोप दोहराया। उन्होंने कहा कि इज़रायल ने हिज़बुल्ला के पेजर हैक करके लेबनान में धमाके कर दिए, इज़रायल हैकिंग में माहिर हैं और मोदी के इज़रायल के साथ अच्छे रिश्ते हैं, इसलिए बीजेपी इज़रायल की मदद से EVM भी हैक कर सकती है। राशिद अल्वी ने कहा कि महाराष्ट्र में सभी विपक्षी दलों को EVM के बजाए बैलेट पेपर से चुनाव की मांग करनी चाहिए।

लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने EVM और चुनाव प्रक्रिया पर उठे हर सवाल का विस्तार से जवाब दिया। राजीव कुमार ने कहा कि दुनिया में कहीं भी भारत जैसी पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया नहीं है, इसके बाद भी सवाल उठाने वाले हर बार नए-नए मुद्दे उठा लाते हैं। जो लोग पेजर की हैकिंग को EVM से जोड़ रहे हैं, उन्हें इतना भी नहीं मालूम EVM इंटरनेट या किसी सैटेलाइट से कनेक्ट नहीं होता। ऐसे लोगों को वह क्या जवाब दें?

राजीव कुमार ने कहा कि जहां तक हरियाणा के चुनाव को लेकर की गई शिकायतों का सवाल है तो किसी शिकायत में कोई ठोस आरोप नहीं हैं। चुनाव आयोग हर शिकायत का अलग-अलग जवाब देगा। चूंकि हरियाणा में मतों की गिनती के दौरान EVM की बैटरी को लेकर सवाल उठे थे, इस पर राजीव कुमार ने पूरी प्रक्रिया समझाई।

उन्होंने कहा कि जब EVM में बैटरी डाली जाती है, तो उस पर भी उम्मीदवारों या उनके प्रतिनिधियों के दस्तखत होते हैं, हर पोलिंग बूथ में भेजी गई EVM के नंबर्स भी उम्मीदवारों को दिए जाते हैं। EVM की सील जब भी खोली जाती है, उस  वक्त भी उम्मीदवार मौजूद होते हैं। इसके बाद किसी तरह की हेराफेरी का सवाल कहां पैदा होता है?

मेरी राय में, जो लोग चुनाव से पहले ही EVM पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें बहुत सारे सवालों के जवाब देने होंगे - क्या लोकसभा चुनाव में EVM ठीक था और हरियाणा में हैक हो गया?  क्या कर्नाटक और हिमाचल में EVM ने ठीक काम किया और मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गड़बड़ हो गई? ऐसी बातों पर कौन यकीन करेगा?

आज एक बार फिर बताना पड़ेगा कि EVM मशीन एक कैलकुलेटर की तरह होती है। इसका इंटरनेट से ब्लूटूथ से, या किसी और रिमोट डिवाइस से कोई कनेक्शन नहीं होता। EVM की बैटरी कितनी है, ये मशीन क्लोज़ करते समय फॉर्म में लिखा जाता है, जिसपर उम्मीदवार या उसके एजेंट के दस्तखत होते हैं।

दूसरी बात, इतने बड़े देश में जहां हजारों EVM का इस्तेमाल होता है, जहां लाखों सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया से जुड़े होते हैं, कोई किसी मशीन की हैकिंग कैसे कर सकता है? और अगर कोई हेराफेरी करे तो ये बात छुपी कैसे रह सकती है?

चुनाव में हार जीत होती रहती है पर अपनी हार के लिए चुनाव आयोग को जिम्मेदार ठहराना या EVM मशीन का सवाल उठाना, बचकानी बात लगती है। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। अगर संवैधानिक संस्थाओं पर बिना सबूत के सवाल उठेंगे तो इससे हमारे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हरियाणा के सबक से तय होगी मोदी-राहुल की अगली सियासत: विनोद अग्निहोत्री ?>

इस बार जब सरकार के सौ दिन पूरे हुए तब सरकारी प्रचार उतने जोर शोर से नहीं हुआ जैसा कि नरेंद्र मोदी के पिछली दो सरकारों के सौ दिन पूरे होने पर हुआ था।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 15 October, 2024
Last Modified:
Tuesday, 15 October, 2024
pmmodi

विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।

जम्मू कश्मीर और हरियाणा विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देश का राजनीतिक तापमान एकाएक गरम हो गया है। हरियाणा में कांग्रेस की अप्रत्याशित हार और जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के शानदार प्रदर्शन ने इंडिया गठबंधन में सहयोगी दलों को कांग्रेस पर मुखर होने का जो मौका दिया है उससे कांग्रेस पर फिर वैसा ही दबाव बन गया है जैसा कि नवंबर दिसंबर 2023 में तीन राज्यों मध्य प्रदेश छत्तीस गढ़ और राजस्थान की चुनावी हार के बाद बना था। नतीजा कांग्रेस ने अपने रुख को लचीला बनाया और लोकसभा चुनावों में सहयोगियों के साथ बेहतर तालमेल करके भाजपा को 240 और एनडीए को 293 पर रोक दिया।

उधर हरियाणा की चौंकाने वाली जीत और जम्मू कश्मीर में पिछली बार से ज्यादा सीटों की जीत ने भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फिर से पिछले साल के आखिर में तीन राज्यों की जबर्दस्त जीत जैसा सियासी टॉनिक फिर दे दिया है। वहीं ये नतीजे नेता विपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए भी फिर वैसा ही सबक हैं जैसा उन्हें 2023 में तीन राज्यों की हार के बाद मिला था। अब अगले ही महीने संभावित महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनावों के लिए तैयार हो रहे दोनों दल इन नतीजों से कैसा फायदा उठा पाते हैं इन राज्यों के चुनाव नतीजे इससे तय होंगे।  

मोदी सरकार-तीन जिसे अब एनडीए सरकार भी कहा जा रहा है के डेढ़ सौ दिन होने जा रहे हैं। लेकिन इस बार जब सरकार के सौ दिन पूरे हुए तब सरकारी प्रचार उतने जोर शोर से नहीं हुआ जैसा कि नरेंद्र मोदी के पिछली दो सरकारों के सौ दिन पूरे होने पर हुआ था। इसे समझा जा सकता है क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने सरकार तो बनवा दी लेकिन हनक कमजोर कर दी थी। लेकिन हरियाणा के नतीजे मोदी सरकार की हनक वापस लाने में मददगार हो सकते हैं बशर्ते कि भाजपा अगले महीने संभावित महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में ऐसा ही प्रदर्शन दोहरा सके। क्योंकि हरियाणा में भाजपा के सामने जितनी कड़ी चुनौती थी उतना ही आसान यह भी था कि उसका मुकाबला उस कांग्रेस से था जो जीती हुई बाजी आसानी से हारना जानती है जबकि महाराष्ट्र में उसे कांग्रेस के साथ साथ उन दो क्षत्रीय दलों शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शऱद पवार) की मिली जुली ताकत से भिडना है जिनके लिए यह चुनाव उनके सियासी वजूद का सवाल हैं।

साथ ही हरियाणा में भाजपा अपने दम पर अकेले लड़ रही थी और लोकसभा चुनावों में पांच सीटें गंवाने के बावजूद कांग्रेस के मुकाबले विधानसभा सीटों और मत प्रतिशत में थोड़ा आगे थी। जबकि महाराष्ट्र में उसके अपने दो सहयोगी शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) के साथ सीटों के बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक बेहतर तालमेल बिठाना होगा और उन गड्ढों को भरना होगा जो मौजूदा शिंदे सरकार के जमाने में पैदा हो गए हैं। क्योंकि लोकसभा चुनावों में भाजपा के गठबंधन (एनडीए) को कांग्रेस गठबंधन (इंडिया) के मुकाबले सीटों और मत प्रतिशत दोनों का नुकसान हुआ और विधानसभा सीटों पर भी इंडिया गठबंधन का महाविकास अघाड़ी एनडीए गठबंधन के महायुति से आगे था। इसलिए महाराष्ट्र की चुनौती हरियाणा से ज्यादा कठिन है। जबकि झारखंड में मुकाबला बराबरी का बताया जा रहा है।   

उधर हरियाणा के नतीजों ने भाजपा औऱ उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ पिछले कुछ समय से रिश्तों में आई खटास को भी मिठास में बदलने का सिलसिला शुरु कर दिया है। दोनों के बीच बढ़ी दूरी की वजह से ही शायद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल पूरे होने के बावजूद अभी तक भाजपा के नए अध्यक्ष के नाम पर कोई फैसला नहीं हो सका है। लोकसभा चुनावों के बाद जिन नामों पर मीडिया में कयास लग रहे थे उनमें ज्यादातर केंद्र सरकार में मंत्री बन चुके हैं और जो नहीं बने हैं उनके नाम भी अब चलने बंद हो गए हैं। माना जा रहा है कि यह देर इसलिए भी हो रही है कि भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच नए अध्यक्ष के नाम पर अभी तक सहमति बन नहीं सकी है।

वैसे भी चुनाव नतीजों के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के सांकेतिक बयानों ने भी सरकार और संघ के  बीच सब कुछ ठीक न होने का संदेश भी लगातार दिया है। अटकलें तो यहां तक चली हैं कि संघ प्रमुख इस बार घनघोर मोदी विरोधी माने जाने वाले पर संघ नेतृत्व के दुलारे पूर्व संगठन महासचिव संजय विनायक जोशी को भाजपा अध्यक्ष बनाना चाहता है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और दूसरे भाजपा नेता इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। लेकिन हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत के पीछे एक बड़ा कारण चुनावों में संघ के पूरे तंत्र का भाजपा के पक्ष में सक्रिय हो जाना भी माना जा रहा है।

कहा तो यह भी जा रहा है कि अघोषित रूप से संघ नेतृत्व ने संजय जोशी को भी हरियाणा में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने का निर्देश दे दिया था और पर्दे के पीछे रह कर जोशी ने भी काम किया है। नतीजे जहां एक तरफ जहां मोदी के करिश्मे की कमी के भ्रम को दूर करने में मदद करेंगे वहीं इस तथ्य को भी स्थापित कर रहे हैं कि भले ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनावों में यह कहा हो कि भाजपा अब इतनी बड़ी हो गई है कि उसे चुनाव जीतने के लिए संघ की जरूरत नहीं रह गई है, लेकिन हकीकत ये है कि बिना संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं और अन्य संगठनों के तंत्र की मदद के लिए भाजपा सिर्फ एक मोदी के चेहरे और अपनी रणनीति से चुनाव नहीं जीत सकती है।

यानी मोदी का करिश्मा और संघ की ताकत दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और यही बात अब इनके बीच की कथित दूरी को खत्म कर सकती है। ये दूरी खत्म हुई या नहीं या फिर कितनी कम हुई इसका सबसे बड़ा पैमाना होगा कि भाजपा का नया अध्यक्ष कौन बनता है। क्या संघ पूरी तरह अपनी पसंद के व्यक्ति को अध्यक्ष बनवा पाएगा या मोदी शाह की पसंद के आगे संघ कमजोर पड़ेगा या फिर दोनों पक्षों के बीच इस मुद्दे पर कोई सहमति बनेगी।

उधर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सर्वोच्च न्यायालय से जमानत के बाद जिस तरह केजरीवाल ने नाटकीय तरीके से मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा देकर मंत्री आतिशी मारलेना को अपना उत्तराधिकारी बनाया है उसने भी भाजपा के सामने दिल्ली में नई चुनौती पेश कर दी है। हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की चुनौती को तो भाजपा ने अपनी जीत से बेकार कर दिया है लेकिन अभी महाराष्ट्र झारखंड और उसके बाद दिल्ली में विपक्षी इंडिया गठबंधन की चुनौती बरकरार है। इसको कमजोर करने के लिए ही सरकार ने अपने पिटारे से एक देश एक चुनाव वाली कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को मंत्रिमंडल की मंजूरी देकर संसद के अगले सत्र में इसे विधेयक के रूप में लाने का साफ संकेत दे दिया है। ये राजनीति में अपने मुद्दों की माहौलबंदी की एक कवायद है।

इसका संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में भी दे दिया था कि भले ही उनकी सरकार इस बार सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी हो लेकिन सरकार अपने दोनों एजेंडों एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता पर कदम वापस नहीं खींचेगी और इसी कार्यकाल में इन दोनों पर आगे बढ़ेगी। कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को मंजूर करके मोदी सरकार ने इस ओर एक कदम बढ़ा दिया है। एक देश एक चुनाव को मौजूदा संसद किस रूप में लेगी इसे देखने के बाद ही मोदी सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के अपने भाषण में सेक्युलर सिविल कोड भी कहा था, के अपने अगले एजेंडे पर काम करेगी।

सवाल है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को पता है कि इन दोनों मुद्दों के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन करना होगा जिसके लिए भाजपा ही नहीं पूरे एनडीए के पास भी संसद में पर्याप्त संख्या बल नहीं है तब इन्हें बजाय ठंडे बस्ते में फिलहाल डालने के सरकार इनको आगे क्यों बढ़ा रही है। जबकि यही केंद्र सरकार संसद में ही वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को सौंप चुकी है। बजट में कैपिटल गेन और इंडक्सेशन जैसे मुद्दों पर अपने कदम पीछे खींच चुकी है। आरक्षण को लेकर दलितों में क्रीमी लेयर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को भी सरकार ने बाकायदा मंत्रिमंडल से प्रस्ताव पारित करके नामंजूर कर दिया। इसका एक ही जवाब है कि भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गठबंधन सरकार चला रहे हों लेकिन वह जनता में यह संदेश बनाए रखना चाहते हैं कि जिस हनक और ठसक से मोदी सरकार एक और दो चली हैं, उसी हनक और ठसक से मोदी सरकार तीन भी चल रही है ओर चलेगी।

इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तकरीबन उन्हीं चेहरों को मंत्री बनाया जो मोदी सरकार दो में थे और कमोबेश ज्यादातर मंत्रियों के विभाग भी नहीं बदले गए। यहां तक कि लोकसभा अध्यक्ष भी वही ओम बिड़ला हैं जिन्हें लेकर पिछली लोकसभा में विपक्ष ने खासा विवाद पैदा किया था। बावजूद इसके सरकार को कुछ मुद्दों पर जरूर अपने कदम वापस खींचने पड़े हैं जिनकी भरपाई अपने मूल दोनों मुद्दों एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता को आगे बढ़ाकर प्रधानमंत्री मोदी करना चाहते हैं। हरियाणा और जम्मू के नतीजों ने उन्हें नई ताकत दी है।

उधर कांग्रेस को हरियाणा के नतीजों ने जबर्दस्त झटका दिया है। जहां राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे इन नतीजों को अप्रत्याशित बता रहे हैं वहीं पार्टी प्रवक्ता इनके लिए चुनाव आयोग और ईवीएम को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। कांग्रेस के प्रतिनिधि मंडल ने चुनाव आयोग से कुछ जिलों में ईवीएम मशीनों की बैट्री के 99 फीसदी तक चार्ज रहने पर सवाल उठाते हुए अपनी शिकायत भी दर्ज कराई है। लेकिन नतीजों पर विचार करने के लिए शीर्ष नेतृत्व ने बैठक की जिसमें राहुल गांधी ने कहा कि नेताओं ने पार्टी से ज्यादा अपने हितों को आगे रखा जिसकी वजह से यह अप्रत्याशित हार हुई।

पार्टी ने एक जांच समिति बनाकर कारणों का पता लगाने का फैसला किया है जो हर चुनावी हार के बाद कांग्रेस में होता है लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही होता है। लेकिन इन नतीजों ने इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की हैसियत फिर कमजोर कर दी है जैसी 2023 के आखिर में तीन राज्यों में हुई हार के बाद हुई थी। सहयोगी दलों शिवसेना (उद्धव), समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के साथ साथ जम्मू कश्मीर में साथ लड़ी नेशनल कांफ्रेंस ने भी अपने तेवर तीखे करते हुए कांग्रेस को अपने कील कांटे दुरुस्त करने की नसीहत दी है।

शिवसेना (उद्धव) की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने तो चुनाव नतीजों के बीच में भाजपा को जीत की बधाई देते हुए उसकी रणनीति की सराहना की और कहा कि कांग्रेस जहां भाजपा से अकेले चुनाव लड़ती है वहां हार जाती है। उसे अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए। मतलब साफ है कि महाराष्ट्र में अगर जीतना है तो सहयोगी दलों के पीछे चलना होगा और मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में उद्धव ठाकरे को आगे करना होगा। हरियाणा की 89 सीटों पर चुनाव लड़कर महज पौने दो फीसदी वोट पाने वाली आम आदमी पार्टी ने भी हरियाणा में कांग्रेस की हार के लिए आप से गठबंधन न करने को जिम्मेदार ठहराते हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में अकेले उतरने का ऐलान कर दिया।

लेकिन पहले दिन दस में छह उम्मीदवार घोषित करते हुए कांग्रेस पर निशाना साध चुके सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कांग्रेस को राहत देते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश की दस विधानसभा सीटों के उपचुनावों में सपा कांग्रेस का गठबंधन जारी रहेगा। अब बची चार सीटों में से कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा दो सीटें ही मिल सकेंगी।

कुल मिलाकर कांग्रेस को हरियाणा की हार की कीमत अपने सहयोगियों के सामने नरम होकर चुकानी पड़ेगी क्योंकि उसके लिए भाजपा को महाराष्ट्र झारखंड और दिल्ली में हराना बेहद जरूरी है वरना लोकसभा चुनावों से विपक्ष के हक में बना माहौल पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगा और इंडिया गठबंधन के बिखरने का खतरा भी बढ जाएगा। इससे सबसे ज्यादा नुकसान होगा राहुल गांधी की छवि को जो बमुश्किल उनकी दोनों भारत यात्राओं के बाद न सिर्फ सुधरी बल्कि उससे पार्टी और विपक्ष को चुनावी फायदा भी हुआ।

अब उसके सामने राहुल की छवि और विपक्षी गठबंधन को बनाए और बचाए रखने की कड़ी चुनौती है। इसलिए अगर कांग्रेस ने हरियाणा से सबक लेकर महाराष्ट्र और झारखंड में अपनी रणनीति, अपने संगठन और उम्मीदवारों के चयन के साथ साथ मुद्दों और प्रचार को दुरुस्त कर लिया वह महाराष्ट्र झारखंड में कामयाबी से हरियाणा की हार के झटके से उबर सकती है लेकिन अगर कोई सबक नहीं लिया तो पिछले दो सालों में राहुल गांधी द्वारा की गई मेहनत पर पानी फिर सकता है। अब यह कांग्रेस और राहुल गांधी को तय करना है कि उन्हें किस रास्ते जाना है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।

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