वास्तविक कहानियों पर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का फोकस : अनंत विजय

कोरोना महामारी के बाद भी एक वर्ष ब्रेस्ट क्रिटिक का अवार्ड घोषित नहीं किया गया। तब उसका कारण ये बताया गया था कि जूरी ने किसी भी प्रविष्टि को पुरस्कार के योग्य नहीं माना।

Last Modified:
Monday, 04 August, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है। कोरोना महामारी के कारण राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा में विलंब हुआ है। शुक्रवार को घोषित यह पुरस्कार वर्ष 2023 के लिए हैं। पुरस्कारों में विषयवस्तु और चयन में विविधता स्पष्ट रूप से दिखाई दी। अभिनेता शाहरुख़ ख़ान को पहली बार किसी फ़िल्म में उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। उन्हें यह सम्मान फ़िल्म 'जवान' के लिए तथा विक्रांत मैसी को '12वीं फेल' के लिए संयुक्त रूप से दिया जाएगा।

अभिनेत्री रानी मुखर्जी को भी पहली बार उनकी फ़िल्म 'मिसेज़ चटर्जी वर्सेस नार्वे' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। रानी मुखर्जी ने पूर्व में 'ब्लैक' और 'हिचकी' जैसी अनेक उत्कृष्ट फ़िल्में की हैं, जिनमें उनके अभिनय को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का पात्र माना जा सकता था। संभवतः उन वर्षों में किसी अन्य अभिनेत्री का अभिनय अधिक प्रभावशाली रहा हो। 'ब्लैक' और 'हिचकी' दो ऐसी फ़िल्में हैं, जिन्हें रानी के अभिनय और फ़िल्म की प्रस्तुति के लिए याद किया जाता है। 'मिसेज़ चटर्जी वर्सेस नार्वे' रानी मुखर्जी के करियर की दूसरी पारी की एक सशक्त फ़िल्म मानी जा सकती है।

'हिचकी' में भी रानी ने जिस विषय को प्रस्तुत किया, वह कम चर्चित था। यह फ़िल्म ब्रैड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट ऑफ़ द क्लास: हाउ टॉरेट सिंड्रोम मेड मी द टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित थी। कहा जाता है कि इस फ़िल्म में अभिनय से पूर्व रानी मुखर्जी ने इस सिंड्रोम को समझने में घंटों का समय व्यतीत किया था। उन्होंने इससे पीड़ित लोगों के व्यवहार को समझने के लिए गहराई से अध्ययन किया था। पर्दे पर उनकी यह मेहनत स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुई। कहना आवश्यक है कि फ़िल्म की जूरी के सदस्यों का चयन भी सराहनीय है।

शाहरुख़ ख़ान को फ़िल्म 'जवान' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिलना निश्चित रूप से कई प्रश्न खड़े करता है। राष्ट्रीय पुरस्कारों के चयन में अभिनय प्रमुख आधार होता है, किंतु फ़िल्म की कहानी और समाज पर उसके प्रभाव को भी ध्यान में रखा जाता है। 'जवान' एक ऐसी फ़िल्म है जो व्यवस्थागत तंत्र को चुनौती देती है तथा संवैधानिक संस्थाओं की सीमाओं की ओर इशारा करती है।

इसमें देश की स्वास्थ्य सेवाओं की विफलताओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए मंत्री के अपहरण जैसी घटनाएँ चित्रित की गई हैं। यह फ़िल्म एक एक्शन थ्रिलर है जिसे दर्शकों ने व्यापक रूप से सराहा। बताया गया कि इस फ़िल्म ने ₹1,000 करोड़ से अधिक का व्यापार किया। हालांकि उस समय शाहरुख़ ख़ान के अभिनय की विशेष चर्चा नहीं हुई। संभवतः जूरी अध्यक्ष आशुतोष गोवारिकर और अन्य सदस्यों को उनके अभिनय में ऐसे गुण प्रतीत हुए जो अन्य समीक्षकों की दृष्टि से ओझल रह गए। यह सर्वविदित है कि शाहरुख़ एक उत्कृष्ट अभिनेता हैं और उन्होंने वर्षों के अभिनय से अपनी प्रतिभा सिद्ध की है।

वर्ष 2004 में जब उनकी फ़िल्म 'स्वदेश' प्रदर्शित हुई थी, तब उनके अभिनय की अत्यधिक सराहना हुई थी। परंतु उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार सैफ़ अली ख़ान को प्रदान किया गया था। एक अवसर पर शाहरुख़ ख़ान ने स्वदेश को लेकर यह व्यथा प्रकट भी की थी कि उन्हें उस फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए था। उस वर्ष 'स्वदेश' और 'हम तुम' दो अलग प्रकार की फ़िल्में थीं। संयोग यह रहा कि जब सैफ़ को पुरस्कार मिला तब उनकी माता शर्मिला टैगोर सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष थीं।

वहीं अब शाहरुख़ ख़ान को पुरस्कार मिला है और जूरी अध्यक्ष वही आशुतोष गोवारिकर हैं, जिन्होंने 'स्वदेश' का निर्देशन किया था। इंटरनेट मीडिया पर इन दोनों संयोगों की व्यापक चर्चा हो रही है। परंतु 'स्वदेश' को उस समय पुरस्कार न मिलने का कारण कुछ और था। जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई, तब निर्देशक टी.एस. नागबर्ना ने आरोप लगाया था कि 'स्वदेश' उनकी कन्नड़ फ़िल्म 'चिगुरिदा कनासू' की नकल है। 2004 के पुरस्कारों की जूरी के अध्यक्ष सुधीर मिश्रा थे और टी.एस. नागबर्ना स्वयं भी जूरी में सम्मिलित थे। जब जूरी के समक्ष 'स्वदेश' प्रदर्शित की गई, तब नागबर्ना ने इसे अपनी फ़िल्म की नकल बताया।

तत्पश्चात जूरी को 'चिगुरिदा कनासू' भी दिखाई गई और सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि 'स्वदेश' के लिए शाहरुख़ ख़ान को पुरस्कार नहीं दिया जा सकता। यह पहला अवसर नहीं था जब किसी फ़िल्म या कलाकार को नकल के आधार पर पुरस्कार से वंचित किया गया हो। अतः सैफ़ अली ख़ान को मिला पुरस्कार उनकी माता से जोड़ना अनुचित है।

'12वीं फेल' के लिए विक्रांत मैसी का चयन अत्यंत उपयुक्त है। उन्होंने अपने अभिनय कौशल से दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया है। उनकी हालिया फ़िल्म 'साबरमती रिपोर्ट' में भी उनका अभिनय प्रभावशाली रहा। 'द केरल स्टोरी' के निर्देशक सुदीप्तो सेन ने मुख्यधारा से हटकर फ़िल्म निर्माण किया। इस फ़िल्म को लेकर अनेक विवाद हुए। मामला न्यायालय तक पहुँचा और कई राज्यों में यह फ़िल्म अघोषित रूप से प्रतिबंधित रही।

इसके बावजूद इस फ़िल्म ने समाज में 'लव जिहाद' जैसी ज्वलंत समस्या पर प्रकाश डाला। निर्देशक के रूप में सुदीप्तो सेन ने इस फ़िल्म से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उन्हें सम्मानित करना वैकल्पिक सिनेमा की स्वीकृति का संकेत है। एक अन्य उल्लेखनीय फ़िल्म 'कटहल' रही, जो सीमित बजट में बनी, किंतु अपने कथ्य और प्रस्तुति के कारण चर्चा में रही।

सिनेमा पर सर्वश्रेष्ठ लेखन का पुरस्कार असम के उत्पल दत्ता को मिला है, जो लंबे समय से अंग्रेज़ी और असमी भाषा में फ़िल्मों पर लेखन कर रहे हैं। इस श्रेणी में किसी पुस्तक का चयन न होना आश्चर्यजनक है। जूरी के समक्ष अंबरीश रायचौधरी की श्रीदेवी पर अंग्रेज़ी में लिखी पुस्तक, अमिताव नाग की सौमित्र चटर्जी पर पुस्तक, यतीन्द्र मिश्र की गुलज़ार पर लिखी पुस्तक सहित विभिन्न भाषाओं में दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रस्तुत थीं। पुरस्कार घोषणा के समय लेखन श्रेणी के जूरी अध्यक्ष गोपालकृष्ण पई अनुपस्थित थे।

मंत्री को अनुशंसा सौंपे जाने के समय की जो तस्वीरें जारी की गईं, उनमें भी जूरी अध्यक्ष या सदस्य दृष्टिगोचर नहीं हो रहे। यह अत्यंत दुर्लभ है कि किसी श्रेणी की जूरी के अध्यक्ष या उनके प्रतिनिधि मंत्री को अनुशंसा देने अथवा पुरस्कार घोषणा के समय उपस्थित न रहें। जूरी को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि किस कारणवश किसी पुस्तक का चयन नहीं किया गया। कोरोना महामारी के बाद एक वर्ष 'बेस्ट क्रिटिक' का पुरस्कार भी घोषित नहीं किया गया था।

उस समय कारण यह बताया गया था कि जूरी ने किसी प्रविष्टि को पुरस्कार योग्य नहीं माना। उस वर्ष मान्य प्रविष्टियों की संख्या अत्यंत सीमित थी। अब जबकि वर्ष 2023 के पुरस्कार घोषित हो चुके हैं, यह आवश्यक है कि 2024 के पुरस्कारों का चयन शीघ्र हो ताकि वर्ष 2025 के पुरस्कार समय पर घोषित किए जा सकें।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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संसद में मार्शलों के जरिये जबरन बाहर निकालने की मिसालें : आलोक मेहता

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा लिया गया ताकि सदन की कार्यवाही में शांति रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा के वेल में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के कर्मचारियों की तैनाती को अत्यंत आपत्तिजनक बताया। 2 से 5 अगस्त तक राज्यसभा में विपक्ष लगातार इस मुद्दे पर हंगामा करता रहा, और मॉनसून सत्र में कई दिनों तक विपक्षी सांसदों का प्रदर्शन जारी रहा। उपसभापति हरिवंश ने स्पष्ट किया कि इस सुरक्षा बल की तैनाती सरकार द्वारा नहीं, बल्कि सभामंडल सुरक्षा के लिए की गई है, और “राज्यसभा का संचालन गृह मंत्रालय या किसी बाहरी एजेंसी द्वारा नहीं किया जा रहा है।” उन्होंने यह भी कहा कि सदन में सुरक्षा बल की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है; वे “संसद की ही सुरक्षा व्यवस्था का अंग” हैं, और यह कवायद सदन की गरिमा बनाए रखने के लिए हुई है।

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा ही लिया गया था, ताकि सदन की कार्यवाही में शांति बनी रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया। वस्तुतः 13 दिसंबर 2022 को लोकसभा के भीतर बाहरी लोगों के घुसने की घटना के बाद, संपूर्ण संसद की सुरक्षा व्यवस्था केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को सौंप दी गई थी। मई 2024 से संसद सुरक्षा बल की भूमिका बढ़ी और अंदरूनी कार्यक्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई।

इस बार के हंगामे और विवाद पर मुझे संसद में 1971, 1973, 1974 के दौरान प्रमुख सोशलिस्ट नेता राजनारायण को सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार बाकायदा कंधों पर उठाकर सदन से बाहर निकाले जाने की घटनाएं याद आईं। मैं 1971 से पत्रकार के रूप में संसद की कार्यवाही देखता और लिखता रहा हूँ। उस समय संसद की कार्यवाही का टीवी प्रसारण नहीं होता था। संसद के कर्मचारी विवरण शॉर्टहैंड से लिखकर रिकॉर्ड करते थे। एजेंसी के संवाददाता होने के कारण मुझे लगातार सदन की प्रेस दीर्घा में बैठना होता था, इसलिए वे घटनाएं आज भी याद हैं।

राजनारायण द्वारा बार-बार राज्यसभा में आंदोलनात्मक, आक्रामक और अशोभनीय भाषा का प्रयोग करने से सदन की कार्यवाही में बाधा आती थी। वे अक्सर सभापति की कुर्सी के सामने धरना देकर बैठ जाते थे। सदन के नियमों की अवहेलना के कारण उन्हें सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार कंधों पर उठाकर सदन से बाहर ले जाया गया। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उस समय सभापति उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक थे। राजनारायण एक प्रखर समाजवादी नेता थे, जो कांग्रेस सरकार की नीतियों और कार्यशैली के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने बार-बार संसद में नियमों को चुनौती दी, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे उठे। उनके मामलों ने यह सवाल भी खड़ा किया कि कब विरोध जायज़ होता है और कब वह संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाता है।

राज्यसभा और लोकसभा में मार्शलों का प्रयोग केवल अत्यधिक असाधारण परिस्थितियों में किया जाता है, जब सदन की गरिमा, सुरक्षा और कार्यवाही बनाए रखने में बाधा उत्पन्न होती है। भारतीय संसदीय इतिहास में कुछ उल्लेखनीय घटनाएं हैं जब सांसदों को सदन से बाहर निकालने के लिए मार्शलों का सहारा लिया गया।

लोकसभा में 1989 में बोफोर्स तोप घोटाले पर विपक्ष ने हंगामा किया, तब कई बार मार्शल बुलाए गए। जनता दल और भाजपा के सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास जाकर नारेबाजी की। राज्यसभा में 2010 में महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान समाजवादी पार्टी और राजद के सांसदों ने भारी विरोध किया। इस दौरान 7 सांसदों को मार्शलों द्वारा बाहर निकाला गया। यह एक अत्यंत दुर्लभ घटना थी जब इतने सांसदों को एकसाथ राज्यसभा से बाहर किया गया।

मार्शल संसद भवन की सुरक्षा और अनुशासन बनाए रखने के लिए होते हैं। सभापति (राज्यसभा) या अध्यक्ष (लोकसभा) के आदेश पर ही वे किसी सदस्य को बाहर निकाल सकते हैं। आमतौर पर सदस्य को पहले नाम लेकर चेतावनी दी जाती है, उसके बाद भी नियम तोड़ने पर सस्पेंड या सदन से बाहर करने का आदेश दिया जाता है।

CISF को संसद भवन की सुरक्षा सौंपने का निर्णय भारत सरकार का एक सशक्त कदम है। इससे संसद की सुरक्षा न केवल पहले से अधिक तकनीकी और सुसंगठित हुई है, बल्कि किसी भी आतंकी या आंतरिक खतरे से निपटने की क्षमता भी बढ़ी है। संसद के अंदर 2022 में हुई एक बड़ी सुरक्षा चूक ने पूरे देश को चौंका दिया था। यह घटना 2001 के संसद हमले की 21वीं बरसी पर हुई थी। इस दिन संसद के भीतर कुछ अज्ञात घुसपैठियों ने अचानक विरोध प्रदर्शन किया और सुरक्षा प्रणाली को चुनौती दी।

संसद भवन में चल रही कार्यवाही के दौरान, दो व्यक्ति दर्शक दीर्घा से अचानक नीचे कूद गए। उन्होंने अपने हाथों में धुआँ छोड़ने वाले रंगीन यंत्र पकड़े हुए थे, जिससे पीला और हरा धुआँ निकलने लगा। साथ ही लोकसभा के बाहर (गेट नंबर 1) पर भी दो अन्य प्रदर्शनकारी धुआँ छोड़ने वाले उपकरणों का प्रयोग कर रहे थे। इस घटना ने संसद जैसी संवेदनशील जगह की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि केवल बाहरी ही नहीं, अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है।

इसके बाद संसद की सुरक्षा को और अधिक हाई-टेक और सख्त बनाया गया। मार्शलों का उपयोग आमतौर पर सदन की गरिमा बनाए रखने, वेल में अनुशासन सुनिश्चित करने, और सदस्यीय गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए किया गया है। नियम 256 (राज्यसभा) और नियम 374 (लोकसभा) के अंतर्गत सांसदों को निलंबित किया जा सकता है, लेकिन मार्शलों को भीतर भेजना 2021 में कांग्रेस और अन्य दलों के अत्यधिक विरोध और हंगामे के कारण आवश्यक हुआ। सांसदों द्वारा—पेपर फाड़ना, वेल में आना, मार्शलों से भिड़ना—इन घटनाओं ने यह दर्शाया कि संसदीय लोकतंत्र में विवाद और अनुशासन के बीच संतुलन आवश्यक है।

हाँ, कुछ संपादकों और राजनीतिक विशेषज्ञों का यह तर्क उचित है कि संसद की बाहरी सुरक्षा और अंदर की व्यवस्था में अंतर होना चाहिए। अंदर के सुरक्षा कर्मचारियों की वर्दी पुलिस जैसी न हो और उन्हें अति आधुनिक हथियारों से लैस न रखा जाए, क्योंकि सदन में उन्हें किसी हथियार से मुकाबला नहीं करना होता है। बहरहाल, उम्मीद की जाए कि संसद में नियमों का पालन हो, विरोध की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न हो, और भविष्य में सदन में बहस, सहमति-असहमति, विरोध, बहिर्गमन तक ही सीमित रहे, टकराव की नौबत न आए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पत्रकार त्रिलोक दीप, 90 साल के नौजवान : प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी

भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक।

ये ऊपर वाले की रहमत ही थी कि त्रिलोक दीप सर का मेरी जिंदगी में आना हुआ। दिल्ली न आता तो शायद इस बहुत खास आदमी से मेरी मुलाकातें न होतीं। देश की नामवर पत्रिकाओं में जिनका नाम पढ़कर पत्रकारिता का ककहरा सीखा, वे उनमें से एक हैं। सोचा न था कि इस ख्यातिनाम संपादक के बगल में बैठने और उनसे बातें करने का मौका मिलेगा।

भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो। मुझे नाम तो कई ध्यान में आए किंतु वरिष्ठता की दृष्टि से त्रिलोक जी का नाम सबसे उपयुक्त लगा। बिना पूर्व संपर्क हमने उन्हें फोन किया और वे सहजता से तैयार हो गए। उसके बाद उनका आना होता रहा। वे हैं ही ऐसे कि जिंदगी में खुद-ब-खुद शामिल हो जाते हैं।

इस आयु में भी उनकी ऊर्जा, नई पीढ़ी से संवाद बनाने की उनकी क्षमता, और याददाश्त—सब कुछ विलक्षण है। सच में, वे 90 साल के नौजवान हैं। उनकी स्मृति आज भी अप्रतिम है। दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता में दिनमान और संडे मेल के माध्यम से उन्होंने जो कुछ किया, वह पत्रकारिता का उजला इतिहास है। उनके साथ बैठना, इतिहास की छांव में बैठने जैसा है। वे इतिहास के सुनहरे पन्नों का एक-एक सफा बहुत ध्यान से बताते हैं।

उनमें वर्णन की अप्रतिम क्षमता है। इतिहास को बरतना उनसे सीखने की चीज है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि जिंदगी से कोई शिकायत नहीं, बेहद सकारात्मक सोच और पेशे के प्रति गहरी ईमानदारी। वरिष्ठता की गरिष्ठता उनमें नहीं है। आने वाली पीढ़ी को उम्मीदों से देखना और उसे प्रोत्साहित करने की उनमें ललक है। वे अहंकार से दबे, कुठाओं से घिरे और नई पीढ़ी के आलोचक नहीं हैं।

उन्हें सुनते हुए लगता है कि उनकी आंखें, अनुभव और कथ्य—कुछ भी पुराना नहीं हुआ है। दिल्ली की भागमभाग और जीवन के संघर्षों ने उन्हें थकाया नहीं है, बल्कि ज्यादा उदार बना दिया है। वे इतने सकारात्मक हैं कि आश्चर्य होता है। पाकिस्तान से बस्ती, वहां से रायपुर और दिल्ली तक की उनकी यात्रा में संघर्ष और जीवन के झंझावात बहुत हैं, किंतु वे कहीं से भी अपनी भाषा, लेखन और प्रस्तुति में यह कसैलापन नहीं आने देते। उनकी देहभाषा ऊर्जा का संचार करती है। मेरे जैसे अनेक युवाओं के वे प्रेरक और प्रेरणाश्रोत हैं।

दिनमान की पत्रकारिता अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल जैसे अनेक नायकों से सजी है। इस कड़ी का बेहद नायाब नाम हैं त्रिलोक दीप। यह सोचकर भी रोमांच होता है। दिग्गजों को जोड़कर रखना और उनसे समन्वय बिठाकर संस्था को आगे ले जाना आसान नहीं होता, किंतु त्रिलोक दीप से मिलकर आपको यही लगेगा कि ये काम वे ही कर सकते थे। यही समन्वय और समन्वित दृष्टि उन्हें एक शानदार पत्रकार और संपादक बनाती है। बाद के दिनों में संडे मेल के संपादक के रूप में उनकी शानदार पत्रकारिता आज भी हमारी यादों में ताजा है।

उनकी पत्रकारिता पर कोई रंग, कोई विचार इस तरह हावी नहीं है कि आप उससे उन्हें चीन्ह सकें। वे पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों की जमीन पर खड़े होकर अपेक्षित तटस्थता के साथ काम करते नजर आते हैं। आज जबकि पत्रकारों से ज्यादा पक्षकारों की चर्चा है और सबने अपने-अपने खूंटे गाड़ दिए हैं, त्रिलोक दीप जैसे नाम हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि पत्रकारिता का एकमात्र पक्ष—जनपक्ष होना चाहिए, और इसी से सफल व सार्थक पत्रकारिता संभव है।

आज की दुनिया में हम सोशल मीडिया पर बहुत निर्भर हैं। ऐसे में त्रिलोक सर व्हाट्सऐप और फेसबुक के माध्यम से मेरी गतिविधियों पर नजर रखते हैं। उनकी दाद और शाबाशियां मुझे मिलती रहती हैं। उनका यह चैतन्य और आने वाली पीढ़ी की गतिविधियों पर सतर्क दृष्टि रखना मुझे बहुत प्रभावित करता है। वे सही राह दिखाने वाले और दिलों में जगह बनाने वाले शख्स हैं।

हालांकि उनके साथ काम करने का अवसर मुझे नहीं मिला, लेकिन जिनको मिला, वे सभी उन्हें एक शानदार बॉस के रूप में याद करते हैं। भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय के लिए उन्होंने अपनी सालों से संजोई घरेलू लाइब्रेरी से अनेक महत्वपूर्ण किताबें दान कीं—इसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।

आज वे 90 साल के हो गए हैं। उनकी सक्रियता जस की तस है। वे शतायु हों, उनकी कृपा और आशीष इसी तरह हम सभी को मिलता रहे—यही कामना है।
बहुत-बहुत शुभकामनाएं, सर।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सस्ते रूसी तेल का फायदा किसे मिला? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

यह कहानी 2022 से शुरू होती है। रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया। कच्चे तेल के दाम बढ़ने लगे। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस को सज़ा देने के लिए प्रतिबंध लगाए।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत पर 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया है। कारण है रूस से सस्ता तेल ख़रीदना। ट्रंप का कहना है कि भारत तेल ख़रीदकर यूक्रेन युद्ध में रूस की मदद कर रहा है। अब भारत के सामान पर अमेरिका में 50% टैरिफ़ लगेगा। भारत का तर्क है कि लोगों को सस्ता तेल मुहैया कराना हमारी ज़िम्मेदारी है, और जहां से सस्ता तेल मिलेगा हम ख़रीदेंगे। सवाल यह है कि सस्ते तेल का फ़ायदा आपको-हमें मिला या मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज़ और सरकारी तेल कंपनियों को?

यह कहानी 2022 से शुरू होती है। रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया। कच्चे तेल के दाम बढ़ने लगे। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस को सज़ा देने के लिए प्रतिबंध लगाए। अमेरिका और यूरोप में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें जून महीने तक 30% तक बढ़ गईं। पेट्रोल के दाम 2022 में ₹105 प्रति लीटर तक पहुँच गए थे।

भारत ने इस आपदा में अवसर खोजा और रूस से तेल ख़रीदना शुरू किया। 2021 तक भारत रूस से लगभग ना के बराबर तेल ख़रीदता था, लेकिन अब रूस का हिस्सा भारत की कुल ख़रीद का 35-40% तक पहुँच गया। यह तेल प्रति बैरल 10-12 डॉलर सस्ता भी पड़ रहा था।

फ़ायदा हमें उतना नहीं मिला। सस्ते रूसी तेल के चलते पेट्रोल के दाम दिल्ली में ₹85 प्रति लीटर के आसपास होने चाहिए थे, जबकि अभी ₹95 प्रति लीटर हैं, और कच्चे तेल के दाम यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में 112 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 71 डॉलर प्रति बैरल पर आ गए हैं।

तो फिर फ़ायदा किसको मिला? जवाब है। कच्चे तेल से पेट्रोल-डीज़ल बनाने वाली सरकारी और निजी रिफ़ाइनरी कंपनियों को। सरकारी कंपनियों ने शुरू में दाम नहीं बढ़ाए थे, लेकिन बाद में सस्ते तेल से घाटे की भरपाई कर ली। निजी क्षेत्र में रिलायंस सबसे बड़े फ़ायदे में रही। यूरोपीय देश रूस से प्रतिबंध के कारण सीधे तेल नहीं ख़रीद सकते थे, तो उन्होंने चोर रास्ता निकाला, कच्चा तेल रूस से भारत आया, रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने उससे पेट्रोल-डीज़ल बनाया और यूरोप व अमेरिका में बेच दिया।

इसके चलते रिलायंस को भारी मुनाफ़ा हुआ। फ़ाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक, सस्ते रूसी तेल से 2022 से अब तक भारत की सभी रिफ़ाइनरी को 1.33 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त फ़ायदा हुआ, जिसमें अकेले रिलायंस इंडस्ट्रीज़ का हिस्सा 50 हज़ार करोड़ रुपये था। पिछले साल सरकारी कंपनियों ने सरकार को 8 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक का डिविडेंड दिया, जो 2022-23 की तुलना में 255% ज़्यादा है।

ग्राहकों को सीधे फ़ायदा नहीं मिला, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से लाभ हुआ क्योंकि महंगाई नहीं बढ़ी और अर्थव्यवस्था स्थिर रही। यह स्थिति युद्ध के सालभर तक रही। इसके बाद सरकारी और निजी कंपनियों ने ही अधिक लाभ उठाया, और अब इसके जवाब में अमेरिका अतिरिक्त टैरिफ़ लगा रहा है। सस्ते तेल का सीधा लाभ भले न मिला हो, इसका अप्रत्यक्ष नुक़सान हम सबको झेलना पड़ेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अनंत विजय ने उजागर किया प्रेमचंद पर फैलाए जा रहे साहित्यिक झूठ का सच

इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

परिचित ने यूट्यूब का वीडियो लिंक भेजा। वीडियो के आरंभ में एक पोस्टर लगा था। उसपर लिखा था क्या कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिंदुत्ववादी थे? कौन उनकी विरासत को हड़पना चाहता है? यूं तो यूट्यूब के वीडियोज को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन पोस्टर के प्रश्नों को देखकर जिज्ञासा हुई। देखा तो एक स्वनामधन्य आलोचक से बातचीत थी। सुनने के बाद स्पष्ट हुआ कि एक विशेष उद्देश्य से वीडियो बनाया गया है। इस बातचीत में कई तथ्यात्मक गलतियां और झूठ पकड़ में आईं। स्वयंभू आलोचक ने कई बार प्रेमचंद के एक लेख क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? को उद्धृत करते हुए राष्ट्रवादियों को कठघरे में खड़ा करने का यत्न किया।

इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था। उनका ये लेख स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा गया था बल्कि भारत पत्रिका में ज्योति प्रसाद निर्मल के लिखे गए लेख की प्रतिक्रिया में था। यह ठीक है कि उस लेख में प्रेमचंद ने जाति व्यवस्था की आलोचना की है और एक जातिमुक्त समाज की बात की है। प्रेमचंद ने उस लेख में ज्योति प्रसाद निर्मल को केंद्र में रखकर उनको ब्राह्मणवादी बताया।

ये भी माना कि उनकी कहानियों को कई ब्राह्मण संपादकों ने प्रकाशित किया, जिनमें वर्तमान के संपादक रमाशंकर अवस्थी, सरस्वती के संपादक देवीदत्त शुक्ल, माधुरी के संपादक रूपनारायण पांडे , विशाल भारत के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद अपने इसी लेख में हिंदू समाज को पाखंड और अंधविश्वास से मुक्त करने की बात प्रमुखता से करते हैं लेकिन कहीं भी राष्ट्रवादियों की आलोचना नहीं करते।

वो उन राष्ट्रवादियों की आलोचना करते हैं जो पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देते हैं। पर इसी लेख में वो कहते हैं कि मुरौवत में भी पड़कर आदमी अपने धार्मिक विश्वास को नहीं छोड़ सकता। कुल मिलाकर जिस लेख को आलोचक माने जानेवाले व्यक्ति अपने तर्कों का आधार बना रहे हैं उसका संदर्भ ही अलग है। खैर... वामपंथी आलोचकों की यही प्रविधि रही है, संदर्भ से काटकर तथ्यों को प्रस्तुत करने की।

आलोचक होने के दंभ में इस बातचीत में एक सफेद झूठ परोसा गया। एक किस्सा सुनाया गया जो कल्याण पत्रिका और हनुमानप्रसाद पोद्दार से संबंधित है। कहा गया कि ‘प्रेमचंद धर्म को लेकर इतने सचेत थे कि जब कल्याण पत्रिका के संपादक-प्रकाशक हनुमानप्रसाद पोद्दार ने प्रेमचंद से कहा कि हमारी पत्रिका में सारे बड़े साहित्यकार लिख रहे हैं, सारे बड़े लेखक लिख रहे हैं, आपने अभी तक कोई लेख नहीं दिया। तो प्रेमचंद ने कहा कि आपकी तो धार्मिक पत्रिका है, इस धार्मिक पत्रिका में मेरा की लिखने का स्थान नहीं बनता।

समझ में नहीं आता कि मैं किस विषय पर लिखूं क्योंकि ये हिंदू धर्म पर केंद्रित पत्रिका है। अब जरा खुद को विद्वान मानने और मनवाने की जिद करनेवाले इस व्यक्ति की सुनाई कहानी की पड़ताल करते हैं। वो किस्से के मार्फत बताते हैं कि प्रेमचंद ने हनुमानप्रसाद पोद्दार को धार्मिक पत्रिका कल्याण में लिखने से मना कर दिया था। कथित आलोचक जी से अगर कोई प्रमाण मांगा जाएगा तो वो कागज मांगने की बात करके उपहास उड़ा सकते हैं। हम ही प्रमाण देते हैं। 1931 में प्रकाशित कल्याण के कृष्णांक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित है।

इस लेख का शीर्षक है श्रीकृष्ण और भावी जगत। कल्याण का ये विशेषांक कालांतर में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। अब भी बाजार में उपलब्ध है। इस लेख में प्रेमचंद ने भगवान श्रीकृष्ण को कर्मयोग के जन्मदाता के रूप में संसार का उद्धारकर्ता माना है। वो लिखते हैं कि यूरोप ने अपनी परंपरागत संस्कृति के अनुसार स्वार्थ को मिटाने का प्रयत्न किया और कर रहा है। समष्टिवाद और बोल्शेविज्म उसके वह नये अविष्कार हैं जिनसे वो संसार का युगांतर कर देना चाहता है। उनके समाज का आदर्श इसके आगे और जा भी न सकता था, किंतु अध्यात्मवादी भारत इससे संतुष्ट होनेवाला नहीं है। ये वो प्रमाण है जिससे स्वयंभू आलोचक का सफेद झूठ सामने आता है। आश्चर्य तब होता है जब सार्वजनिक रूप से झूठ का प्रचार करते हैं और प्रेमचंद को अधार्मिक भी बताते हैं।

प्रेमचंद को लेकर इस बातचीत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघियों (इस शब्द को बार-बार कहा गया) पर प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों आरोप लगाता हैं। इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं सिर्फ अज्ञान और प्रेमचंद का कुपाठ झलकता है। ऐसा प्रतीत होता कि बगैर किसी तैयारी के ये साक्षात्कार किया गया। ऐसे व्यक्ति को मंच दिया गया जो झूठ का प्रचारक बन सके। प्रेमचंद ने ना सिर्फ कल्याण के अपने लेख बल्कि एक अन्य लेख स्वराज्य के फायदे में भी लिखा ‘अंग्रेज जाति का प्रधान गुण पराक्रम है, फ्रांसिसियों का प्रधान गुण स्वतंत्र प्रेम है, उसी भांति भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है।

हमारे जीवन का मुख्य आधार धर्म था। हमारा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ था। लेकिन पश्चिमी विचारों के असर से हमारे धर्म का सर्वनाश हुआ जाता है, हमारा वर्तमान धर्म मिटता जाता है, हम अपनी विद्या को भूलते जाते हैं।‘ हिंदू-मुसलमान संबंध पर बात करते हुए प्रेमचंद को इस तरह से पेश किया गया जैसे कि उनको मुसलमानों से बहुत प्रेम था। इसको भी परखते हैं। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को 1 सितंबर 1915 को प्रेमचंद एक पत्र लिखते हैं जिसका एक अंश, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘

इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है। प्रेमचंद के साथ बेईमानियों की एक लंबी सूची है। हद तो तब हो गई जब उनके कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ था। गो-दान कब और कैसे गोदान बन गया उसपर चर्चा होनी चाहिए।।

बेईमान आलोचकों ने सोचा कि क्यों ना उनके उपन्यास का नाम ही बदल दिया जाए ताकि मनमाफिक विमर्श चलाने में सुविधा हो। ऐसा ही हुआ। अगर गौ-दान या गो-दान के आलोक में इस उपन्यास को देखेंगे तो उसकी पूरी व्याख्या ही बदल जाएगी। दरअसल प्रेमचंद पूरे तौर पर एक धार्मिक हिंदू लेखक थे जो अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर निरंतर अपनी लेखनी के माध्यम से वार करते थे।

इस धार पर उनको ना तो कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है और ना ही नास्तिक। हां, झूठे किस्से सुनाकर भ्रम जरूर फैला सकते हैं। पीढ़ियों तक प्रेमचंद के पाठकों को बरगला सकते हैं। प्रेमचंद की धार्मिक आस्था और धर्मपरायणता को संदिग्ध कर उनको कम्युनिस्ट बताने का झूठा उपक्रम चला सकते हैं। पर सच अधिक देर तक दबता नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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‘गुरु की छाया हटने का खालीपन’

डॉ. रामजीलाल जांगिड़ अब हमारे बीच नहीं रहे। यह वाक्य लिखते हुए भीतर कहीं एक खालीपन उतर आता है।

Last Modified:
Sunday, 10 August, 2025
Anuranjha Ramjilal Jangid Tribute

अनुरंजन झा, वरिष्ठ पत्रकार।।

डॉ. रामजीलाल जांगिड़ अब हमारे बीच नहीं रहे। यह वाक्य लिखते हुए भीतर कहीं एक खालीपन उतर आता है। वो सिर्फ़ एक शिक्षक नहीं थे, बल्कि गुरु थे, ऐसे गुरु जिनके शब्द, जिनका भरोसा, जिनकी डांट और जिनका अपनापन, जीवन की दिशा तय कर देते हैं। मेरे लिए तो 1998 का वो दिन आज भी जस का तस है, जब आईआईएमसी के इंटरव्यू के दौरान उन्होंने मेरी ओर देखा और कहा—“तुम्हें यहां आना चाहिए।” यह सिर्फ़ एक प्रवेश की स्वीकृति नहीं थी, बल्कि एक जीवन का मार्ग खोल देने वाला वाक्य था। एक बैंकर को पत्रकार बनने की पहली औपचारिक सीढ़ी दे रहे थे। मैं नहीं जानता था कि यह रिश्ता आने वाले दशकों में मेरी सोच, मेरे पेशे और मेरे साहस का हिस्सा बन जाएगा। 

कुछ ही हफ्ते पहले वरिष्ठ विकास मिश्रा की एक पोस्ट से पता चला कि सर अस्वस्थ हैं। मैं लंदन में था, लेकिन मन दिल्ली में अटक गया। पोस्ट पढ़ते ही सबसे पहले टिकट लिया और विकास जी को ही बताया कि गुरुजी को सूचना दे दें। फिर दिल्ली पहुंचते ही उन्हें फोन किया—“सर, दिल्ली आ गया हूं… कब आपके दर्शन करने आऊं?” उधर से वही पुरानी आत्मीय, ठहरी हुई आवाज़—“मैं तुम्हें जल्द से जल्द देखना चाहता हूँ।”  थोड़ी देर में मैं उनके कमरे में था। वाकई पहली बार जांगिड़ सर बीमार दिखे लेकिन उनके चेहरे पर वही अपनापन, वही गंभीर मुस्कान। मैं घंटों बैठा रहा, तमाम किस्से चलते रहे। दुर्गानाथ स्वर्णकार और नितिन अग्रवाल पहले से मौजूद थे। बीच-बीच में कुछ और लोग आते-जाते रहे। हर बार वो एक ही बात कहते, बार-बार कहते —  ये अनुरंजन झा है… इसको डर नहीं लगता।” उस वाक्य में उनका पुराना विश्वास, और शायद थोड़ा गर्व भी, साफ झलक रहा था।

जांगिड़ सर के बारे में बात करना केवल व्यक्तिगत भावुकता नहीं है, यह भारतीय पत्रकारिता के एक युग को याद करना भी है। उन्हें कई लोग आधुनिक पत्रकारिता का ‘द्रोणाचार्य’ कहते हैं। उनकी कुटिया में प्रवेश के लिए औपचारिक अड़चनें नहीं थीं,जिसे वो योग्य समझते, उसे अपने सान्निध्य में ले लेते। उनके शिष्य देश के लगभग हर बड़े मीडिया संस्थान में फैले हुए हैं। रवीश कुमार, सुप्रियो प्रसाद, सुधीर चौधरी, शालिनी जोशी, दीपक चौरसिया जैसे नाम उनके विद्यार्थियों की लंबी सूची के कुछ उदाहरण भर हैं। लेकिन उनकी नज़र में ये नाम बड़े या छोटे नहीं थे, हर छात्र उनके लिए उतना ही महत्वपूर्ण था।

वो सिर्फ़ क्लास में पढ़ाने तक सीमित नहीं रहते थे। अगर किसी छात्र की आर्थिक स्थिति कमजोर है तो उसकी फ़ीस माफ़ कराने के लिए पूरी ताकत लगा देते, किसी को रिपोर्टिंग का पहला मौका दिलाने के लिए संपादकों से सीधे सिफारिश कर देते, किसी को लिखने में कठिनाई हो तो आधा बोलकर लिखवा देते। उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ अधिकार भी रखा और अपनापन भी। यही कारण था कि उनका क्लासरूम महज एक शैक्षिक जगह नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रशिक्षण की जगह भी था।

1980 के दशक उन्होंने IIMC में हिंदी पत्रकारिता के कोर्स डायरेक्टर के रूप में नया पाठ्यक्रम शुरू किया था। इससे पहले वे अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता के कोर्स पढ़ाते थे, लेकिन हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए उन्होंने जो दिशा तय की, उसने आने वाले वर्षों में हिंदी पत्रकारिता को नई ऊंचाई दी। उनकी क्लास में पढ़ना किसी महाभारत के संजय को सुनने जैसा था।  वो खबर नहीं सुनाते थे, पूरी स्थिति जीने देते थे।

विकास मिश्रा ने उनके साथ बिताए पलों को याद करते हुए कहा था कि उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी अपनापन और अधिकार भाव का अद्भुत संतुलन। वो छात्रों से कह सकते थे—“जाकर कैंटीन से मेरे लिए दही लाओ”—और वही छात्र बाद में देश के नामी पत्रकार बनते। उनके लिए यह कोई फर्क नहीं रखता था कि कौन कहां पहुंचा है, वो अपने विद्यार्थियों को हमेशा उसी ठसक और हक़ से बुलाते, डांटते और आदेश देते थे।

मेरे लिए यह रिश्ता आखिरी मुलाक़ात तक वैसा ही बना रहा। उनके जाने की खबर आई तो लगा जैसे कोई सुरक्षा-कवच हट गया हो। गुरु केवल ज्ञान नहीं देते, वे जीवन जीने का साहस भी देते हैं। जांगिड़ सर मेरे लिए वही थे—साहस का स्रोत, भरोसे की छाया और यह याद दिलाने वाली आवाज़ कि डर के आगे ही असली दुनिया है। कैंपस की दोपहरें, पुराने अख़बार के पन्नों पर प्रैक्टिस, मास कम्युनिकेशन की थ्योरी के बीच अचानक जीवन के बड़े सवाल—ये सब अब स्मृतियों में दर्ज हैं।

आज जब उनके जाने की बात लिख रहा हूं, तो लगता है कि उनके जैसे गुरु अब दुर्लभ हैं। उनका जीवन, उनका काम और उनका असर न सिर्फ़ उनके छात्रों के भीतर, बल्कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में भी दर्ज है। वो चले गए, लेकिन उनकी दी हुई सीख—“डर मत, सच कहने से मत हिचको”—हमेशा साथ रहेगी।

विनम्र श्रद्धांजलि।

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चुनाव आयोग अब दूध का दूध और पानी का पानी करें : अजय कुमार

वास्तविकता यह है कि इन बातों का उल्लेख हर चुनाव में हार के बाद हारने वाली पार्टियाँ करती रही हैं, शिकायतें भी करती हैं, लेकिन ठोस रूप से, प्रमाण सहित बदलाव की सशक्त माँग नहीं करतीं।

Last Modified:
Friday, 08 August, 2025
ajaykumar

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार।

राहुल गांधी ने एक प्रेस वार्ता में बाक़ायदा प्रस्तुति (PPT) के माध्यम से यह साबित करने की कोशिश की कि बंगलूरू की एक लोकसभा सीट पर मतदाता सूची में कई तरह की गड़बड़ियाँ हैं। जैसे गलत पता या पते का न होना, गलत तस्वीर या तस्वीर का न होना, एक ही मतदाता का नाम अनेक मतदान केंद्रों पर दर्ज होना, फ़ॉर्म 6 का अनुचित उपयोग, बुजुर्ग लोगों के नाम पर फर्जी मतदान, वग़ैरा-वग़ैरा। वास्तविकता यह है कि इन बातों का उल्लेख हर चुनाव में हार के बाद हारने वाली पार्टियाँ करती रही हैं, शिकायतें भी करती हैं, लेकिन ठोस रूप से, प्रमाण सहित बदलाव की सशक्त माँग नहीं करतीं।

मैं सन् 1995 से चुनावों को कवर कर रहा हूँ। उस समय बैलेट पेपर पर फर्जी मुहर लगाने का दौर देखा है। पहला चरण था मतदान केंद्रों पर कब्ज़ा करने का, फिर इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीन (ईवीएम) में गड़बड़ी के आरोपों का दौर आया। वर्ष 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने ऐसे आरोप लगाए, और 2014 के बाद से कांग्रेस एवं अन्य गैर-भाजपा दलों ने यह आरोप लगाने शुरू किए। मतदाता सूची में गड़बड़ियों का लंबा दौर भी 1995 से लेकर आज तक चला आ रहा है। अनौपचारिक रूप से चुनाव आयोग के अधिकारियों ने हमेशा माना है कि मतदाता सूची में कुछ न कुछ छोटी-मोटी त्रुटियाँ होती ही हैं।

अब तो देश में लगभग 100 करोड़ मतदाता हैं, और 1996 में भी लगभग 65 से 70 करोड़ मतदाता थे। राहुल गांधी ने जो बड़ा खुलासा करने का दावा किया था, उसे देर से ही सही, लेकिन प्रमाणों के साथ रखने की कोशिश की है। यदि ऐसा प्रयास संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) शासनकाल में हुआ होता, तो संभवतः आज देश की राजनीति की तस्वीर कुछ और होती खैर।

चुनाव आयोग ने 8 अगस्त को शपथपत्र के साथ सबूत प्रस्तुत करने की बात कही है। यह भी स्पष्ट किया गया कि चुनाव से पहले कर्नाटक की मतदाता सूची कांग्रेस सहित सभी दलों को दी गई थी, और उस समय किसी भी दल ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की थी। चलिए, एक वर्ष बाद ही सही, राहुल गांधी और कांग्रेस ने अपनी ओर से गड़बड़ियों के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। अब यह चुनाव आयोग की संवैधानिक और नैतिक ज़िम्मेदारी है कि जहाँ भी गड़बड़ियाँ हों, उन्हें स्वीकारे और सुधार करे; और जहाँ न हों, वहां पूरी निष्ठा और पारदर्शिता से जनमानस के सामने तथ्य प्रस्तुत करे।

अब आयोग के पास कोई बीच का रास्ता नहीं है। एक अंग्रेज़ी कहावत है, या तो झूठ को झूठ साबित करो या स्वयं को दोषी ठहरने दो। अर्थात् या तो चुनाव आयोग राहुल गांधी के दावे को असत्य सिद्ध करे, या फिर अपने ही चूकों के लिए उत्तरदायी बने। अब कोई मध्यम मार्ग नहीं है। केवल प्रक्रिया और शपथपत्रों की चर्चा करने का समय बीत चुका है।

अब चुनाव आयोग को दृढ़तापूर्वक और विश्वासपूर्वक जनता के समक्ष खरा उतरना होगा, नहीं तो आगामी बिहार विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी प्रक्रिया को लेकर “चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता” पर अनेक प्रश्न उठाकर विपक्षी दल जनता के लोकतांत्रिक विश्वास को तोड़ने में सफल हो सकते हैं और यह स्थिति देश के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो सकती है। केवल ईमानदार होना पर्याप्त नहीं है। यह भी आवश्यक है कि जनता को यह दिखाई दे कि चुनाव प्रणाली न केवल निष्पक्ष है बल्कि पूरी तरह भरोसेमंद भी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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गुलाम थे तो एक थे, आजादी मिलते ही बंट क्यों गए : प्रो. संजय द्विवेदी

इसके लिए वासुदेव शरण अग्रवाल, धर्मपाल, रामधारी सिंह दिनकर,मैथिलीशरण गुप्त, जयशकंर प्रसाद, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा जैसे अनेक लेखक हमें रास्ता दिखा सकते हैं।

Last Modified:
Friday, 08 August, 2025
profsanjay

प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष।

भारत गुलाम था तो हमारे नारे थे ‘वंदेमातरम्’ और ‘भारत माता की जय’। आजादी के बहुत सालों बाद नारे गूंजे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगें’। क्या भारत बदल गया है या उसने आजादी के आंदोलन और उसके मूल्यों से खुद को काट लिया है। आजाद भारत की यह त्रासदी है कि बंटवारे की राजनीति आज भी यहां फल-फूल रही है। आजादी का अमृतकाल मनाते हुए भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं।

यह सोचना कितना व्यथित करता है कि जब हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट गए। यह बंटवारा सिर्फ भूगोल का नहीं था, मनों का भी था। इसकी कड़वी यादें आज भी तमाम लोगों के जेहन में ताजा हैं। आजादी का अमृतकाल वह अवसर है कि हम दिलों को जोड़ने, मनों को जोड़ने का काम करें। साथ ही विभाजन करने वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकें और राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ आगे बढ़ें। भारत चौदहवीं सदी के ही पुर्तगाली आक्रमण के बाद से ही लगातार आक्रमणों का शिकार रहा है।

16वीं सदी में डच और फिर फ्रेंच, अंग्रेज, ईस्ट इंडिया कंपनी इसे पददलित करते रहे। इस लंबे कालखंड में भारत ने अपने तरीके से इसका प्रतिवाद किया। स्थान-स्थान पर संघर्ष चलते रहे। ये संघर्ष राष्ट्रव्यापी, समाजव्यापी और सर्वव्यापी भी थे। इस समय में आपदाओं, अकाल से भी लोग मरते रहे। गोरों का यह वर्चस्व तोड़ने के लिए हमारे राष्ट्र नायकों ने संकल्प के साथ संघर्ष किया और आजादी दिलाई। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय सवाल उठता है कि क्या हमने अपनी लंबी गुलामी से कोई सबक भी सीखा है? आजादी के आंदोलन में हमारे नायकों की भावनाएं क्या थीं? भारत की अवधारणा क्या है?

यह जंग हमने किसलिए और किसके विरूद्ध लड़ी थी? क्या यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन का अभियान था? इन सवालों का उत्तर देखें तो हमें पता चलता है कि यह लड़ाई स्वराज की थी, सुराज की थी, स्वदेशी की थी, स्वभाषाओं की थी, स्वावलंबन की थी। यहां ‘स्व’ बहुत ही खास है। समाज जीवन के हर क्षेत्र, वैचारिकता ही हर सोच पर ‘अपना विचार’ चले। यह भारत के मन की और उसके सोच की स्थापना की लड़ाई भी थी। महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, वीर सावरकर हमें उन्हीं जड़ों की याद दिलाते हैं।

आज देश को जोड़नेवाली शक्तियों के सामने एक गहरी चुनौती है, वह है देश को बांटने वाले विचारों से मुक्त कराना। भारत की पहचान अलग-अलग तंग दायरों में बांटकर, समाज को कमजोर करने के कुत्सित इरादों को बेनकाब करना। देश के हर मानविंदु पर सवाल उठाकर, नई पहचानें गढ़कर मूर्तिभंजन का काम किया जा रहा है। नए विमर्शों और नई पहचानों के माध्यम से नए संघर्ष भी खड़े किए जा रहे हैं। खालिस्तान, नगा, मिजो, माओवाद, जनजातीय समाज में अलग-अलग प्रयास, जैसे मूलनिवासी आदि मुद्दे बनाए जा रहे हैं।

जेहादी और वामपंथी विचारों के बुद्धिजीवी भी इस अभियान में आगे दिखते हैं। भारतीय जीवन शैली, आयुर्वेद, योग, भारतीय भाषाएं, भारत के मानबिंदु, भारत के गौरव पुरूष, प्रेरणापुंज सब इनके निशाने पर हैं। राष्ट्रीय मुख्यधारा में सभी समाजों, अस्मिताओं का एकत्रीकरण और विकास के बजाए तोड़ने के अभियान तेज हैं। इस षडयंत्र में अब देशविरोधी विचारों की आपसी नेटवर्किंग भी साफ दिखने लगी है। संस्थाओं को कमजोर करना, अनास्था, अविश्वास और अराजकता पैदा करने के प्रयास भी इन गतिविधियों में दिख रहे हैं। 1857 से 1947 तक के लंबे कालखंड में लगातार लड़ते हुए।

आम जन की शक्ति भरोसा करते हुए। हमने यह आजादी पाई है। इस आजादी का मोल इसलिए हमें हमेशा स्मरण रखना चाहिए। दुनिया के सामने लेनिन, स्टालिन, माओ के राज के उदाहरण सामने हैं। मानवता का खून बहाने के अलावा इन सबने क्या किया। इनके कर्म आज समूचे विश्व के सामने हैं। यही मानवता विरोधी और लोकतंत्र विरोधी विचार आज भारत को बांटने का स्वप्न देख रहे हैं। आजादी अमृत महोत्सव और गणतंत्र दिवस का संकल्प यही हो कि हम लोगों में भारतभाव, भारतप्रेम, भारतबोध जगाएं।

भारत और भारतीयता हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र पहचान है, इसे स्वीकार करें। कोई किताब, कोई पंथ इस भारत प्रेम से बड़ा नहीं है। हम भारत के बनें और भारत को बनाएं। भारत को जानें और भारत को मानें। इसी संकल्प में हमारी मुक्ति है। हमारे सवालों के समाधान हैं। छोटी-छोटी अस्मिताओं और भावनाओं के नाम पर लड़ते हुए हम कभी एक महान देश नहीं बन सकते। इजराइल, जापान से तुलना करते समय हम उनकी जनसंख्या नहीं, देश के प्रति उन देशों के नागरिकों के भाव पर जाएं। यही हमारे संकटों का समाधान है।

समाज को तोड़ने उसकी सामूहिकता को खत्म करने के प्रयासों से अलग हटकर हमें अपने देश को जोड़ने के सूत्रों पर काम करना है। जुड़कर ही हम एक और मजबूत रह सकते हैं। समाज में देश तोड़ने वालों की एकता साफ दिखती है, बंटवारा चाहने वाले अपने काम पर लगे हैं। इसलिए हमें ज्यादा काम करना होगा। पूरी सकारात्मकता के साथ, सबको साथ लेते हुए, सबकी भावनाओं का मान रखते हुए। यह बताने वाले बहुत हैं कि हम अलग क्यों हैं। हमें यह बताने वाले लोग चाहिए कि हम एक क्यों हैं, हमें एक क्यों रहना चाहिए।

इसके लिए वासुदेव शरण अग्रवाल, धर्मपाल, रामधारी सिंह दिनकर,मैथिलीशरण गुप्त, जयशकंर प्रसाद, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा जैसे अनेक लेखक हमें रास्ता दिखा सकते हैं। देश में भारतबोध का जागरण इसका एकमात्र मंत्र है। स्वतंत्रता दिवस को हम अपने संकल्पों का दिन बनाएं, एक भारत-श्रेष्ठ भारत और आत्मनिर्भर भारत का संकल्प लेकर आगे बढ़ें तो यही बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का तिलक बन जाएगी।

हमारी आजादी के आंदोलन के महानायकों के स्वप्न पूरे होंगें, इसमें संदेह नहीं। 9 अगस्त को क्रांति दिवस भी है और 15 अगस्त को आजादी का दिन हम मिलकर मनाएंगें। इस संयुक्त प्रसंग पर हमारा एक ही मंत्र हो सकता है- भारत को जानो, भारत को मानो। भारत के बने, भारत को बनाओ।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पत्रकारिता में राष्ट्रवाद के प्रणेता थे राजेन्द्र माथुर : आलोक मेहता

इतिहास की परतें निकालने के साथ 21वीं सदी की रेखाओं को असाधारण ढंग से कागज पर उतार देने की क्षमता भारत के किसी हिंदी संपादक में देखने को नहीं मिल सकती।

Last Modified:
Thursday, 07 August, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष।

राजेन्द्र माथुर का जन्म 7 अगस्त, 1935 को मध्यप्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा धार में हुई। इंदौर से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य और दर्शन में गहरी रुचि रही। शिक्षा पूरी होने के पहले ही 1955 में इंदौर की ‘नई दुनिया’ में लिखना प्रारंभ कर दिया। 60 के दशक में उनके साप्ताहिक लेख ‘पिछला सप्ताह’ बहुत प्रसिद्ध हुए। 1970 तक वह इंदौर में एक कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन भी करते रहे। 1970 में उन्होंने कॉलेज में अध्यापन-कार्य छोड़ दिया और ‘नई दुनिया’ के संपादन विभाग में आ गए। 1980 में उन्हें द्वितीय प्रेस आयोग का सदस्य मनोनीत किया गया। 1981 में ‘नई दुनिया’ के प्रधान संपादक बने। अक्टूबर 1982 में दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ के प्रधान संपादक का पद संभाला। 9 अपै्रल 1991 को उनका आकस्मिक निधन हो गया।

मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर के लेखन की समय सीमा तय नहीं हो सकती। इतिहास की परतें निकालने के साथ 21वीं सदी की रेखाओं को असाधारण ढंग से कागज पर उतार देने की क्षमता भारत के किसी हिंदी संपादक में देखने को नहीं मिल सकती। इसलिए 1963 से 1969 के बीच राजेन्द्र माथुर द्वारा लिखे गए लेख आज भी सामयिक और सार्थक लगते हैं। अगस्त, 1963 में उन्होंने लिखा था-‘हमारे राष्ट्रीय जीवन में दो बुराइयां घर कर गई हैं जिन्होंने हमें सदियों से एक जाहिल देश बना रखा है। पहली तो अकर्मण्यता, नीतिहीनता और संकल्पहीनता को जायज ठहराने की बुराई, दूसरी पाखंड की बीमारी, वचन और कर्म के बीच गहरी दरार की बुराई।’

कलम के सिपाहियों का महानायक सेनापति संपादक ही कहा जा सकता है। जमाना तलवार, तोप, टैंक, लड़ाकू विमान या जहाज अथवा मिसाइलों का हो, सेनापति निरंतर तैयारी करते हैं। उन्हें युद्ध अवश्य लगातार नहीं करने होते लेकिन संपादक का वैचारिक द्वंद्व व्यूह रचना, अपनी कलम के चमत्कार दिखाते हुए अपनी संपादकीय टीम को निरंतर सजग, सटीक, संयमित धारदार, ईमानदार, निष्पक्ष और सफल बनाने की चुनौती हर दिन बनी रहती है। सैनिकों के घाव दिखते ही उपचार की व्यवस्था होती है। लेकिन संपादक के घाव-दर्द को देखना-समझना आसान नहीं और उपचार भी बहुत कठिन। कलम के चमत्कार देखकर लाखों-करोड़ों लोग अभिभूत होते हैं- प्रशंसा करते हैं, असहमत रहने पर आलोचना भी करते हैं। संपादक की निष्पक्षता और गरिमा से उन्हें ‘स्टार’ मानते हैं। लेकिन उनके संघर्ष की भनक बहुत कम लोगों को मिलती है।

आधुनिक भारत के श्रेष्ठतम हिन्दी संपादकों में अग्रणी अपने संपादक राजेन्द्र माथुर से जुड़ी संघर्ष यात्रा की एक झलक पेश करना जरूरी है। इंदौर के प्रतिष्ठित कॉलेज में प्राध्यापक रहते हुए राजेन्द्र माथुर ने प्रदेश के प्रमुख अखबार नई दुनिया में लिखना प्रारंभ किया। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मामलों पर उनकी टिप्पणियों ने पाठकों को ही नहीं प्रबंधकों और उनके वरिष्ठतम पार्टनर प्रधान संपादक राहुल बारपुते को भी चमत्कृत कर दिया। इसलिये 1970 में अखबार की पृष्ठ संख्या 8 से 12 तक रखने के लिए संपादकीय विस्तार के साथ राजेन्द्र माथुर को प्राध्यापक की नौकरी छोड़ पूर्णकालिक संपादक के रूप में जोड़ लिया गया।

कुछ ही महीनों बाद एक वर्कशाप में लिखित प्रतियोगिता के आधार पर मुझे उज्जैन के अंशकालिक संवाददाता के बजाय इन्दौर में संपादकीय विभाग में उप संपादक-संवाददाता की तरह जुड़ने का प्रस्ताव मिला। इतनी कम उम्र में इतना आकर्षक प्रस्ताव स्वीकारना ही था। राजेन्द्र माथुर को इंदौर नई दुनिया में रखने के लिए 1981 में प्रधान संपादक बना दिया गया। लेकिन उन्हें भी अखबार के विस्तार के बिना छटपटाहट होती रही। 1990 या 2000 के बाद जो लोग संपादक के वर्चस्व का मुद्दा उठाते हैं, उन्हें ऐसे तथ्यों पर भी देखना चाहिए कि अज्ञेय, राजेन्द्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी, एस. निहाल सिंह, कुलदीप नैयर, बी.जी. वर्गीज, खुशवंत सिंह जैसे नामी संपादकों को भी प्रबंधकीय सीमाओं से निपटना पड़ता था और देर सबेर संस्थान छोड़ने भी पड़े।

मैं 1971 में दिल्ली आया। हिन्दुस्थान समाचार, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में काम करने के बाद जर्मनी रेडियो (डॉयचे वेले) के हिन्दी विभाग का संपादक रहने के बाद 1982 में दिल्ली वापस आया। राजेन्द्र माथुर अक्टूबर 1982 में नवभारत टाइम्स के संपादक बनकर आ गए। उन्होंने मेरी खबरें नवभारत टाइम्स में छापनी शुरू कर दीं। स्वाभाविक है कि माथुर साहब तो अखबार के कायाकल्प के लिए आए थे। उन्होंने पुरानी मशीनों की तरह घिसी-पिटी पत्रकारिता को बदलने के लिए सारे मोर्चे खोल दिए। लगभग एक वर्ष के अंतराल में मुझे विशेष संवाददाता के रूप में नवभारत टाइम्स में लाए। राजेन्द्र माथुर की विशेषता यह थी कि राजनेता या प्रबंधकों के विचार या संबंध कैसे भी हों, अपनी बात की निष्पक्षता और पैनेपन में कमी नहीं आने देते थे।

अपने से जुड़े दो-तीन किस्से। सत्ता से जुड़े चन्द्रास्वामी का असली नाम नेमीचन्द जैन था। इसलिये टाइम्स के मालिक जैन परिवार से भी उसने अपने थोड़े संबंध जोड़ लिए थे और कभी कभार उनके बंगले के गेस्ट रूम में ठहर भी जाता था। एक बार मैंने चन्द्रास्वामी के राजनीतिक षडयंत्रों को उजागर करने वाली विस्फोटक खबर लिखी। पहले समाचार संपादक पारसदास जैन की नजर पड़ी। वह दौड़ते हुए मेरी मेज के पास आकर बोले- ‘जानते हैं यह कौन है?’ मैंने सहजता से कहा- ‘हां, वर्षों से जानता हूं- राजनीतिज्ञों को ठगने वाला चन्द्रास्वामी।’

समाचार संपादक ने झुंझलाते हुए कहा- ‘अरे भाई, जरा समझो- यह जो भी हो- मालिकांे के गेस्ट हाउस में भी रहता है। समझते हो छपने पर क्या होगा?’ मैंने फिर सहजता से उत्तर दिया- ‘क्या होगा- यह माथुर साहब जानें। समाचार संपादक ने माथुर साहब के सामने जाकर अपनी बात कही और रिपोर्ट की कापी दिखा दी। माथुर साहब ने पढ़कर बिना कुछ काटे ‘टिक’ लगाया और कहा कि आप इसे छाप दीजिए। अब उनसे बहस की हिम्मत किसे होती? अब वैसी एक नहीं, कम से कम पांच-सात खबरें चन्द्रास्वामी के भंडाफोड़ पर छपीं।

दूसरा किस्सा राष्ट्रपति भवन से जुड़ा हुआ है। ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे। वह हिन्दी के संपादकों और पत्रकारों के साथ बड़ा सम्मान और स्नेहमय व्यवहार रखते थे। नवभारत टाइम्स के संपादक के नाते राजेन्द्र माथुर की इज्जत करते थे और नियमित रूप से अखबार भी पढ़ते थे। पंजाब में आतंकवादी घटनाएं बढ़ने के बाद मैंने नवभारत टाइम्स के लिए एक रिपोर्ट लिखी जिसमें राष्ट्रपति भवन में आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े एक व्यक्ति को अतिथि कक्ष में रखे जाने जैसी गंभीर सूचनाओं का विवरण था।

माथुर साहब ने उस रिपोर्ट में भी एक पंक्ति नहीं काटी और पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से खबर छप गई। सीधे ज्ञानीजी को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया था लेकिन राष्ट्रपति भवन के प्रेस सचिव ज्ञानीजी के वरिष्ठ विश्वसनीय सहयोगी का नाम उसमें आया था। यह खबर भी सरकार के ही प्रवर्तन निदेशालय द्वारा न्यायालय तक पहुंचाए गए प्रकरण से ली गई थी।

इसलिए इसकी प्रामाणिकता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं था लेकिन भारत में संभवतः यह पहला अवसर था जबकि सीधे राष्ट्रपति भवन और आतंकवादी गतिविधियों के सूत्रों की सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किसी अखबार प्रकाशित हुआ। हंगामा स्वाभाविक था। अगले दिन प्रधान संपादक के अलावा कंपनी के अध्यक्ष और कार्यकारी निदेशक तक राष्ट्रपति भवन से नाराजगी पहुंचाई गई। लेकिन वह राजेन्द्र माथुर ही थे जिन्होंने इस मुद्दे पर निडरता दिखाई और किसी तरह की क्षमा-याचना या भूल सुधार जैसी बात नहीं छापी।

चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने पर टाइम्स संस्थान के एक कार्यक्रम में उनकी ही उपस्थिति में माथुर साहब ने अपने भाषण में कुछ व्यंग्यात्मक टिप्पणियां कर दीं। जे.पी. आंदोलन और लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के समर्थक होने के बावजूद चन्द्रशेखर सरल सहज स्वभाव से की गई टिप्पणी को बर्दाश्त नहीं कर सके और अगले दिन प्रबंधकों के समक्ष अपना कड़ा विरोध प्रकट किया। प्रबंधकों ने उनकी नाराजगी माथुर साहब तक पहुंचाई। संवेदनशील माथुर साहब को यह जानकर बेहद दुःख हुआ। उन्हें चन्द्रशेखर से ऐसी उम्मीद नहीं थी। वह अंदर ही अंदर दुःखी रहे।

दूसरी तरफ विश्वनाथ प्रताप सिंह और चन्द्रशेखर के साथ अच्छे संबंध रखने वाले संपादकीय सहयोगी अपने ढंग से प्रबंधन के समक्ष माथुर साहब के नेतृत्व को लेकर अपनी असहमतियां भी बताते रहे। दुर्भाग्य यह था कि जिन वरिष्ठ सहयोगियों को माथुर साहब ने ही अखबार के साथ जोड़ा था, वे अपने निजी स्वार्थों के लिए जाने-अनजाने माथुर साहब को किनारे करने के अभियान चलाते रहे।

नवभारत टाइम्स में व्यापक बदलाव से हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा मिल रही थी। राजेन्द्र माथुर के प्रस्तावों और प्रयासों को प्रबंधन का समर्थन मिल रहा था। इसलिए लखनऊ, पटना और जयपुर से भी अखबार के संस्करण शुरू हुए। मुंबई में तो पहले से ही संस्करण था। माथुर साहब दफ्तर के अंदर और सार्वजनिक मंचों से भी यह कहते रहे कि कोई अखबार राष्ट्रीय अखबार होने का दावा तभी कर सकता है, जबकि देश के अधिकांश राज्यों में उसके संस्करण हों। 1990 के आसपास कुछ सहयोगियों ने समीर जैन के दिमाग में यह विचार फूंका कि नवभारत टाइम्स के साथ-साथ टाइम्स ऑफ इंडिया की भी सामग्री बाजार में पहुंचाने के लिए टाइम्स का एक हिन्दी संस्करण अलग से निकाला जाए। उस समय नवभारत टाइम्स में टाइम्स की एकाध कोई विशेष खबर होने पर अवश्य छप जाती थी, लेकिन अपनी मौलिकता बनाई हुई थी।

सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने तो एक बार यह सुझाव दिया था कि माथुर साहब एक बड़े बुद्धिजीवी संपादक हैं इसलिए उन्हें नवभारत टाइम्स के बजाय रीडर्स डाइजेस्ट जैसी एक श्रेष्ठतम पत्रिका निकालने का दायित्व सौंप दिया जाए। लेकिन धर्मयुग और दिनमान के रहते कंपनी के अध्यक्ष या कार्यकारी निदेशक इस तरह की पत्रिका के लिए सहमत नहीं हो सकते थे। तब टाइम्स के अनुदित अखबार के लिए बड़ी चतुराई से माथुर साहब द्वारा ही लाए गए सहायक संपादक विष्णु खरे को आगे बढ़ा दिया गया। विष्णु खरे के साथ दो सहायक संपादकों की भी नियुक्ति कर दी गई।

अनुदित अखबार की इस योजना के लिए राजेन्द्र माथुर से किसी तरह का विचार-विमर्श नहीं होता था। अपने ही संस्थान में इस तरह के अखबार निकाले जाने की तैयारी पर माथुर साहब और रमेशचन्द्र जैन बेहद दुःखी थे। यह अप्रसन्नता कंपनी के अध्यक्ष अशोक जैन तक भी पहुंची और कुछ महीनों के बाद इसे पूरी तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। वह अनुदित अखबार कभी नहीं निकला।

पटना का संपादक रहते हुए मैंने बहुचर्चित चारा कांड का भंडाफोड़ करने वाली प्रामाणिक और दस्तावेजी खबरें सबसे पहले नवभारत टाइम्स में ही छापी। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के समर्थकों ने टाइम्स की प्रिंटिंग यूनिट पर हमला कर आग लगाने का प्रयास भी किया। लेकिन राजेन्द्र माथुर की संपादकीय दृढ़ता का ही नतीजा था कि मुझे या किसी संपादकीय सहयोगी को प्रबंधन से कभी किसी हस्तक्षेप या विरोध की सूचना नहीं मिली।

माथुर साहब के लेखन में गांधी, नेहरू, मार्क्स, लोहिया के विचारों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। आप उन्हें किसी धारा से नहीं जोड़ सकते। वह भारतीय परंपराओं और संस्कृति का हवाला देते हुए संकीर्णता की बेड़ियां काट आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने पर भी जोर देते रहे। वह सभ्यता को अक्षुण्ण रखने के लिए जंगली जिंदादिली को जरूरी मानते थे। माथुर साहब ने देश के संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के महासचिव के रूप में भी पत्रकारिता के आदर्श मूल्यों तथा अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।

राजेन्द्र माथुर ने फरवरी 1990 में ‘नवभारत टाइम्स’ के पटना संस्करण से जुड़े मेरे सहयोगी पत्रकारों के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अपने सहज अंदाज में कहा थाः ‘जीवन से ज्यादा चरित्र महत्वपूर्ण माना जाता है। जिंदगी क्या है, आदमी मर जाना पसंद करेगा, लेकिन अपने यश का मर जाना मर जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। किसी की यश-हत्या कोई आसानी से कैसे कर सकता है।’

1981 से 1991 के बीच पूरे दशक में भारतीय राजनीति और सामाजिक बदलाव के दौर में माथुरजी के द्वारा लिखे गए लेख निश्चित रूप से पत्रकारिता के इतिहास में सदैव याद रखे जाएंगे। इस दौर में पंजाब का आतकवाद चरम सीमा पर पहुंचा और ‘ब्ल्यू स्टार आपरेशन’ के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या हुई। फिर राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा चंद्रशेखर सत्ता में आए। देश के इतिहास ने इस अवधि में अनेक करवटें लीं। आर्थिक उदारीकरण का सिलसिला भी इन्हीं वर्षों में शुरू हुआ। रूस, चीन और अमेरिका जैसै देशों में भी बड़ी उथल-पुथल हुई।

माथुर साहब ने हर घटना में आशा की एक नई किरण दिखाई। सिद्धांतपरक राजनीति में उनकी गहरी आथा के कारण ही उन्होंने लिखाः ‘यूरोप में भले ही विचारधारा की लड़ाइयां खत्म हों और इतिहास का अंत हो गया हो, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में इतिहास का अंत अभी नहीं हुआ, क्योंकि सारा खेल लंबी प्रतीक्षा का है। इसलिए जिसका धैर्य टूटेगा, वह हार जाएगा।’ यह माथुर साहब की दूरदर्शिता थी कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान द्वारा परमाणु बम बनने से पंद्रह वर्ष पहले ही लिख दिया थाः ‘आज नहीं तो कल पाकिस्तान और भारत दोनों के पास एटम बम होगा और हमें सोच रखना चाहिए कि तब क्या होगा?... एटम बम तैयार कर लेने के बाद दोनों देशों का अपना घर ज्यादा संभालना होगा। संभले हुए देश की एकता को एटम बम मजबूत करेगा, लेकिन टूटते देश की टूटन को वह अधिक सुगम बना सकता है...।’

राजीव गांधी की निर्मम हत्या के बाद जब कई पत्रकार देश के टूटने तक की बात लिख रहे थे, तब माथुर साहब ने लिखा: ‘वरदान हैं अस्थिरिता की भविष्यवाणियां।’ इसी शीर्षक से एक लेख में उन्होंने कहा- ‘विनोबा ने एक धर्मग्रंथ का हवाला देते हुए कभी पूछा था कि यदि आपको यह जानकारी हो कि कल ही मरना है तो आज का दिन आप कितनी सात्विक हड़बड़ी में बिताएंगे? और उन्होंने सलाह दी थी कि आदमी को अपनी जिंदगी का हर दिन इसी अहसास के साथ जीना चाहिए कि यही आखिरी दिन है...खिलकर मुरझाने वाली कुमुदिनी तीन सौ साल तक खड़े रहने वाले बरगद से कहीं ज्यादा सुंदर है। यदि खिले हुए फूल की पंखुड़ियों पर इस फिक्र की सलवटें पड़ने लगीं कि सारी खूबसूरती आनी-जानी है तो बताइए इस संसार का क्या होगा!’

इस तरह के विचार लिखते समय माथुर साहब को क्या कभी यह महसूस होता था कि अचानक भारतीय पत्रकारिता का सूर्य सुदूर बादलों में कहीं छिप जाएगा? किसी ने कल्पना नहीं की थी कि सैकड़ों पत्रकारों को अदम्य विश्वास देने वाला महान संपादक केवल 56 वर्ष की आयु में अचानक उनके बीच से चला जाएगा। ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘दिनमान टाइम्स’ में नियमित रूप से छप रहे माथुर साहब के लेखों पर देश-भर में बड़ी संख्या में पाठकों के पत्र आते थे। एक दिन अचानक खबर मिली कि वह अनंत विश्राम के लिए चले गए हैं और उनके दर्शन अब कभी नहीं होंगे। यह हम सबके लिए निजी आघात तो था ही, संपूर्ण हिंदी पत्रकारिता के लिए एक सुनहरे अध्याय पर आकस्मिक पटाक्षेप जैसी स्थिति थी।

( यह लेखकके निजी विचार हैं)

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कभी एक बड़ी संभावना थे सत्यपाल मलिक : विनोद अग्निहोत्री

मेरा सत्यपाल मलिक से रिश्ता 40 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है। मेरे पत्रकारिता में आने से पहले भी सत्यपाल मलिक समाजवादी लोकदल धारा के छात्रों युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय नेता थे।

Last Modified:
Wednesday, 06 August, 2025
vinodagnihotri

विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और जम्मू कश्मीर के सर्वाधिक चर्चित पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक आज इस दुनिया से चले गए। मलिक पिछले कुछ वर्षों से चर्चा और विवादों में इसलिए रहे, क्योंकि कभी मोदी सरकार के वह इतने भरोसेमंद थे कि उन्हें न सिर्फ बिहार, ओडिशा, जम्मू-कश्मीर, गोवा और मेघालय का राज्यपाल बनाया गया, बल्कि जनसंघ के जमाने से भाजपा का प्रमुख राजनीतिक वैचारिक एजेंडा रहे जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने में मलिक ही वाहक बने। ये अलग बात है अपने लंबे राजनीतिक जीवन में अनुच्छेद 370 हटाने के धुर विरोधी रहे सत्यपाल मलिक बतौर जम्मू कश्मीर राज्यपाल की सिफारिश से ही उसे हटाया गया।

मेरा सत्यपाल मलिक से रिश्ता 40 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है। मेरे पत्रकारिता में आने से पहले भी सत्यपाल मलिक समाजवादी लोकदल धारा के छात्रों युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय नेता थे। 1967 में मेरठ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे सत्यपाल मलिक समाजवादी आंदोलन का प्रमुख युवा चेहरा थे। फिर वो चौधरी चरण सिंह के प्रिय शिष्य बने और 1947 में पहली बार बागपत क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए। तब वो देश प्रदेश के सबसे युवा विधायक थे।

सत्यपाल मलिक को एक समय चरण सिंह के राजनीतिक वारिस के रूप में देखा जाता था। आपातकाल में जेल में रहने के बावजूद मलिक बाद में कांग्रेस में शामिल हो गये। 1977 में बनी जनता पार्टी के टूटने के बाद इंदिरा गांधी और चरण सिंह की राजनीतिक दोस्ती करवाने वालों में मलिक की भी प्रमुख भूमिका थी। अपने समाजवादी तेवर धर्मनिरपेक्ष विचारों और किसानपरस्ती के लिए मशहूर सत्यपाल मलिक से मेरी निकटता अस्सी के दशक में जब मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रिपोर्टिंग करता था काफी ज्यादा हो गई थी।

निस्संदेह पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मलिक की लोकप्रियता थी और इसीलिए उन्हें चरण सिंह की सियासी विरासत में चरण सिंह के बेटे अजित सिंह के प्रतिद्वंदी के तौर पर भी देखा जाता था। सत्यपाल मलिक 1990 में वीपी सिंह सरकार में मंत्री बनें। कांग्रेस में वो अरुण नेहरू के काफी करीब थे और उनके साथ ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ी। वह देवीलाल मुलायम सिंह यादव अजित सिंह के साथ भी रहे, लेकिन बाद में भाजपा में चले गए, लेकिन वहां हमेशा असहज ही रहे।

भाजपा की किसान राजनीति को लेकर हमेशा उनके मन में तीस रही, जिसे वो अक्सर व्यक्त करते रहते थे। वो किसी भी दल और पद पर रहे हों, किसानों के मुद्दों और आंदोलनों का उन्होंने हमेशा पुरजोर समर्थन किया और उनके यही तेवर भाजपा और केंद्र सरकार के साथ गंभीर मतभेद की वजह बने। किसानों के लिए मालिक ने कभी किसी की परवाह नहीं की। मेरठ सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हर इलाके में सत्यपाल मलिक के युवा अनुयायियों की कोई कमी नहीं रही और वीपी सिंह की पूरी मुहिम मलिक के ही कंधों पर चली थी। उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा राजस्थान पंजाब आदि राज्यों में भी उनकी लोकप्रियता थीं।

सत्यपाल मलिक का पूरा जीवन खुली किताब था। विधायक सांसद मंत्री राज्यपाल रहते हुए भी वो सबके लिए सहज सुलभ थे। अपना फोन खुद ही उठाते थे। पहली बार जब वो केंद्र में मंत्री बने तो मैं उनसे छह महीने बाद एक कार्यक्रम में मिला। जबकि इसके पहले मेरी अमूमन हर दूसरे तीसरे रोज उनसे मुलाकात होती थी। उन्होंने शिकायत की पंडित जी क्या नाराज हो कोई खोज खबर नहीं। मैंने कहा अब आप मंत्री हैं आपके पास समय कहां है। ठहाका लगा कर बोले जिस दिन ये नौबत आएगी मैं कुर्सी छोड़ दूंगा। फिर मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा जब भी जी चाहे आ जाया करो।

मैं वही सत्यपाल मलिक हूं और वही रहूंगा। अपनी इस बात को उन्होंने हमेशा निभाया। राज्यपाल बनने के बाद जब मैंने उन्हें महामहिम कहा तो बोले सतपाल भाई कहते हो वही कहो। कई बार उन्होंने जम्मू कश्मीर गोवा मेघालय बुलाया पर मैं जा नहीं सका। बीमार होने से पहले मैंने उनका इंटरव्यू किया था। शरीर कमजोर हो गया था, पर मन वैसा ही मजबूत था। इसीलिए सीबीआई की चार्जशीट भी उन्हें अपने इरादों से डिगा नहीं सकी।

बागपत जिले में उनके गांव हिसावदा से शुरू हुई सत्यपाल मलिक की जीवन यात्रा आज नई दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में समाप्त हुई। मैं हमेशा उनसे कहता था कि आप राजनीति के जीतने अंदरूनी किस्से हमें बताते हैं, उन्हें एक किताब में सिलसिलेवार लिखिए। वो कहते थे लिखूंगा तो कई छवियां धूमिल हो जाएंगी। आज सत्यपाल भाई अपने उन किस्सों के साथ दुनिया से विदा हो गए। मेरी ये निजी क्षति है, क्योंकि मेरे लिये वो सिर्फ एक नेता ही नहीं, बड़े भाई जैसे भी थे। सत्यपाल मलिक गैर कांग्रेस, गैर भाजपा राजनीति में कभी एक बड़ी संभावना थे, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें वो संभावना बनने नहीं दिया। विनम्र श्रद्धांजलि।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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तेजस्वी के पास दो-दो वोटर कार्ड कहां से आये : रजत शर्मा

चुनाव आयोग ने अब तेजस्वी यादव से उस वोटर कार्ड की डिटेल देने को कहा है जो उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखाकर वोटर लिस्ट से नाम कटने का दावा किया।

Last Modified:
Wednesday, 06 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण (Voter List Revision) मामले को लेकर सोमवार को तेजस्वी यादव का कोई बयान सामने नहीं आया। न ही कांग्रेस के किसी नेता ने इस पर कुछ कहा और न ही RJD के किसी नेता ने यह बताया कि तेजस्वी यादव के दो-दो वोटर कार्ड (Voter ID Card) कैसे बने।

असल में तेजस्वी यादव ने दो दिन पहले स्वयं यह दावा किया था कि मतदाता सूची के पुनरीक्षण में उनका नाम ही वोटर लिस्ट से हटा दिया गया है। इस दावे के बाद चुनाव आयोग (Election Commission) ने जांच की और कुछ ही समय में स्पष्ट कर दिया कि तेजस्वी का नाम मतदाता सूची में मौजूद है, लेकिन जो वोटर कार्ड और EPIC नंबर तेजस्वी यादव ने सार्वजनिक रूप से दिखाए हैं, वे गलत हैं।

अब चुनाव आयोग ने तेजस्वी यादव से उस वोटर कार्ड का विवरण मांगा है, जिसे उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखाकर यह दावा किया कि उनका नाम ड्राफ्ट रोल (Draft Roll) से हटा दिया गया है। तेजस्वी ने कहा था कि उनका EPIC नंबर RAB2916120 है, जो ड्राफ्ट लिस्ट से गायब है। लेकिन चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि तेजस्वी का सही EPIC नंबर RAB0456228 है, जो दीघा विधानसभा क्षेत्र में पहले से दर्ज है। इसी EPIC नंबर से तेजस्वी यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव (Assembly Election) और लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election) में मतदान किया था।

चुनाव आयोग ने यह भी बताया कि यही EPIC नंबर तेजस्वी ने विधानसभा चुनाव के नामांकन पत्र (Affidavit) में भी दर्ज किया था। इसलिए अब यह जांच आवश्यक हो गई है कि तेजस्वी जो दूसरा EPIC नंबर दिखा रहे हैं, वह कहां से आया, कैसे बना और किसने बनाया। इसी को लेकर चुनाव आयोग ने तेजस्वी यादव को नोटिस जारी किया है और कहा है कि वह अपने द्वारा दिखाए गए दूसरे वोटर कार्ड की जानकारी दें ताकि यह स्पष्ट हो सके कि यह कार्ड असल में कहां बना और किस प्रक्रिया से बना।

तेजस्वी यादव तो आरोप लगा रहे थे कि चुनाव आयोग ने उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया है। जो अपने आप में एक गंभीर आरोप (Serious Allegation) था। लेकिन अब जब उनके दो-दो वोटर ID कार्ड सामने आए हैं, तो तेजस्वी के पास कोई स्पष्ट जवाब नहीं है। चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि बीते दस वर्षों का रिकॉर्ड खंगाला गया और जो EPIC नंबर तेजस्वी यादव दिखा रहे हैं, वह आयोग की किसी भी आधिकारिक सूची या सिस्टम में कभी बना ही नहीं।

अब तेजस्वी यादव को यह स्पष्ट करना चाहिए कि जो वोटर कार्ड वह मीडिया के सामने दिखा रहे हैं, वह कैसे और कहां बना, और किसने बनाया। क्योंकि दूसरों पर आरोप लगाना जितना आसान होता है, जब खुद की गलती सामने आती है, तो उसका जवाब देना उतना ही मुश्किल। तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग की साख (Credibility) पर गंभीर सवाल उठाए, लेकिन अब तेजस्वी यादव की ही विश्वसनीयता पर सवाल उठ खड़ा हुआ है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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