भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा ने FOLK भारत के अगले चार सीज़नों की आधिकारिक घोषणा की है। यह सफर अब और भी व्यापक व भव्य रूप लेगा।
भारत की समृद्ध लोक-संस्कृति और परंपराओं को पुनर्जीवित करने वाले मंच “FOLK भारत” के पहले सीजन का भव्य समापन हुआ। इस मंच ने भारत की मिट्टी से जुड़ी आत्मा को न केवल सजाया, बल्कि उसे देश के कोने-कोने तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया। ग्रैंड फिनाले में कुल 6 प्रतिभागियों ने अपने सुरों और लोककला की अद्भुत प्रस्तुति से समां बाँधा। इनमें 4 प्रतिभागी उत्तर प्रदेश से और 2 प्रतिभागी बिहार से थे।
फाइनल राउंड में तीन प्रतिभागियों ने जगह बनाई, जिनमें विजेता वीरसेन को 5 लाख रुपये का पुरस्कार, प्रथम रनर-अप समरेश चौबे (बिहार) को 3 लाख रुपये तथा द्वितीय रनर-अप नीरज प्रजापति (कुशीनगर, यूपी) को 2 लाख रुपये मिले। कार्यक्रम का संचालन मशहूर अभिनेत्री अक्षरा सिंह ने अपने ऊर्जावान और प्रभावशाली अंदाज़ में किया, जबकि जज की भूमिका में प्रसिद्ध गायक आलोक कुमार और भजन गायिका स्वाती मिश्रा ने प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया।
इसके अलावा, कार्यक्रम में देश के कई नामचीन कलाकारों ने गेस्ट जज के रूप में शिरकत की, जिनमें वंदना भारद्वाज, प्रिया मलिक, त्रिप्ती शाक्य, अंशुमान सिन्हा, मालिनी अवस्थी और भोजपुरी के लोकप्रिय अभिनेता एवं गायक मनोज तिवारी शामिल रहे।
इस भव्य कार्यक्रम का निर्देशन राजीव मिश्रा ने किया, जिन्होंने पूरे शो को कलात्मक दृष्टि और शानदार प्रस्तुति के साथ एक यादगार रूप दिया। भारत समाचार द्वारा आयोजित यह मेगा इवेंट केवल एक शो नहीं, बल्कि भारतीय परंपराओं, लोक गीतों, नृत्यों और विरासत को संजोने व नई पीढ़ी तक पहुँचाने का एक सशक्त आंदोलन बन गया।
इस ऐतिहासिक पहल के सूत्रधार भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा और सीईओ श्री वीरेंद्र सिंह रहे, जिन्होंने न केवल इस विचार को जन्म दिया, बल्कि इसे ज़मीन पर उतारकर लोक संस्कृति को एक भव्य मंच प्रदान किया। उनकी दूरदृष्टि और नेतृत्व में FOLK भारत गांव-देहात से लेकर शहरों तक हर आवाज़ और हर संस्कृति को सम्मान दिलाने वाला एक जनआंदोलन बन गया।
इस मंच ने अनगिनत अनसुने कलाकारों को पहचान दी और लोककला को नया जीवन प्रदान किया। सीजन 1 का समापन भले ही हो गया हो, लेकिन FOLK भारत की यह यात्रा अब यहीं नहीं रुकने वाली है। भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा ने FOLK भारत के अगले चार सीज़नों की आधिकारिक घोषणा की है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय लोक परंपराओं को जन-जन तक पहुँचाने का यह सफर अब और भी व्यापक व भव्य रूप लेगा।
अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है। यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। AI भी नौकरियाँ ले सकता है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
आप कोई भी सर्वे उठाकर देख लीजिए, लोगों की सबसे बड़ी चिंता रोज़गार है। इंडिया टुडे मूड ऑफ द नेशन में साल दर साल 70% से ज़्यादा लोग रोज़गार को लेकर चिंता जताते रहते हैं, किसी भी चुनाव से पहले पार्टियाँ रोज़गार देने का वादा करती हैं लेकिन समस्या अगले चुनाव में भी बनी रहती है। आख़िर इसका तोड़ क्या है?
पहले रोज़गार को लेकर कुछ आँकड़े समझ लीजिए। काम करने योग्य आबादी (15–64 साल) लगभग 96 करोड़ है, काम करने या ढूँढने में लगे लोग (लेबर फोर्स) करीब 55% यानी लगभग 55 करोड़ हैं, इनमें काम कर रहे लोग 50–52 करोड़ हैं जिनमें आधे लोग खेती-किसानी में लगे हैं। नियमित सैलरी वाली नौकरी सिर्फ 12–13 करोड़ में उपलब्ध हैं जबकि सरकारी नौकरी वालों की संख्या मात्र 1.5 करोड़ है।
बेरोज़गार लोग (काम खोज रहे) लगभग 3–4 करोड़ यानी 3–5% हैं, और युवाओं में बेरोज़गारी करीब 17% तक पहुँच चुकी है। मॉर्गन स्टैनली की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले वर्षों में भारत में 8.4 करोड़ नौकरियों की ज़रूरत होगी, अब यह नौकरियाँ आएँगी कहाँ से? इसके जवाब में रिपोर्ट कहती है कि अर्थव्यवस्था को 12% की रफ़्तार से ग्रो करना होगा जबकि अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है।
यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। अभी का स्तर बनाए रखने के लिए भी 9% ग्रोथ की ज़रूरत होगी। यहाँ यह ध्यान रहे कि एआई भी नौकरियाँ ले सकता है। मॉर्गन स्टैनली ने जो उपाय सुझाए हैं उसमें एक्सपोर्ट बढ़ाना शामिल है क्योंकि दुनिया के बाज़ार में हमारा हिस्सा डेढ़ प्रतिशत है।
अमेरिका ने अड़ंगा डाला है तो हमें दूसरे देशों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, इसके अलावा इन्फ़्रास्ट्रक्चर, मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर ज़ोर दिया गया है। सरकार इन सब सेक्टर पर ध्यान दे रही है लेकिन ध्यान डबल देने की ज़रूरत नहीं है, बेरोज़गारी दूर करने के लिए डबल ग्रोथ की ज़रूरत है। नहीं तो विकसित भारत जुमला बनकर रह जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
केरल के सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह की स्वर्णसज्जा 25 वर्षों में पीतल में बदल गई? भगवान अयप्पा के मंदिर से सोना चोरी की घटना के बाद राजनीति तेज हो गई है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
केरल में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्टों के गठबंधन ने केरल में सरकार बनाई। पी विजयन मुख्यमंत्री बने। उनके नेतृत्व में कम्युनिस्ट गठबंधन तीसरी बार राज्य में सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी वामपंथी गठबंधन को चुनावी मात देकर दस साल बाद सत्ता में वापसी के मंसूबे पाले बैठी है।
भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से केरल की राजनीति में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में लगी है। चुनाव की आहट के साथ त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने पिछले महीने वैश्विक अयप्पा संगमम का आयोजन किया। घोषित तौर पर इस संगमम का उद्देश्य सबरीमाला मंदिर की महिमा का वैश्विक स्तर पर विस्तार करना था। केरल के राजनीतिक दलों ने कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगाया कि हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए संगमम का आयोजन किया गया।
संगमम की चर्चा के बीच सबरीमाला मंदिर प्रशासन एक अन्य कारण से विवाद में घिर गया। सबरीमाला मंदिर से करीब पांच किलो सोना चोरी होने की आशंका है। इस समाचार के बाहर आते ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी केरल की कम्युनिस्ट सरकार पर हमलावर है। सरकार ही त्रावणकोर देवोस्थानम बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करती है। बोर्ड की स्थापना तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के अलावा मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा के लिए की गई थी।
सबरीमाला मंदिर से पांच किलो सोना गायब होने का मामला केरल और दक्षिण भारत में इन दिनों खूब चर्चा में है। मंदिर प्रशासन पर आरोप लग रहे हैं मंदिर के गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की मूर्ति और अन्य जगहों पर मढ़े गए सोने का वजन उसकी सफाई या बदलाव के दौरान पांच किलो कम हो गया। पूरा मामला इस तरह से है।
1998-99 में कारोबारी विजय माल्या, जो इन दिनों आर्थिक अपराध के आरोप में देश से फरार हैं, ने सबरीमाला मंदिर में 30 किलो सोने का चढ़ावा दिया था। उस समय ये बात सामने आई थी कि मंदिर प्रशासन ने उस सोना का उपयोग गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की प्रतिमा को स्वर्णसज्जित करने में किया था। करीब बीस वर्षों के बाद जब त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने मंदिर के रखरखाव के लिए स्वर्ण परतों को हटाया तो पता चला कि वो सोने का नहीं था।
अब इस बात की जांच की जा रही है कि सोना लगाते समय ही उसकी जगह किसी अन्य धातु का उपयोग किया गया था या बाद में उसको बदला गया। इस तरह की बात भी आ रही है कि गर्भगृह की दीवारों पर लगी स्वर्ण परतों को साफ सफाई के लिए चेन्नई भेजा गया था। जब वहां से प्लेट्स वापस आईं तो उसका वजन करीब पांच किलो कम था।
त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड की विजिलेंस टीम ने कार्यालय से दस्तावेज जब्त किए हैं। अब इन दस्तावेजों और उनकी प्रामाणिकता पर भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। संपत्तियों की रजिस्टर में एंट्री पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। केरल हाईकोर्ट ने पूर्व हाईकोर्ट जज की देखरेख में मंदिर की संपत्ति का ब्योरा जुटाने का आदेश दिया है। केरल हाईकोर्ट ने त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड को सही तरीके से रिकार्ड नहीं रख पाने के लिए लताड़ लगाई है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने केरल हाईकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच की मांग की है।
जिस तरह के समाचार केरल से आ रहे हैं उससे तो ये प्रतीत होता है कि सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में और उसके बाहर लगी मूर्तियों की स्वर्णसज्जा के साथ छेड़छाड़ की गई है। आरोप ये भी लग रहे हैं कि सोने को निकालकर उसकी जगह पीतल से सज्जा कर दी गई। ये खबरें सिर्फ एक सामान्य चोरी की खबर नहीं है बल्कि भगवान अयप्पा के भक्तों की श्रद्धा पर डाका जैसा है।
केरल की कम्युनिस्ट सरकार की जिम्मेदारी है कि वो दोषियों को जल्द से जल्द पकड़कर मंदिर के सोने की बरामदगी करवाए। मंदिर की फिर से स्वर्णसज्जा हो। भगवान अयप्पा के भक्त सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे भारत और विश्व के अन्य देशों में भी हैं। सबकी आस्था और श्रद्धा इस मंदिर से जुड़ी हुई है। जैसे जैसे इस चोरी की परतें खुल रही हैं हिंदू श्रद्धालुओं के अंदर क्षोभ बढ़ता जा रहा है।
निश्चित है कि भगवान अयप्पा मंदिर से सोना चोरी चुनावी मुद्दा भी बनेगा। आपको याद होगा कि ओडीशा विधानसभा चुनाव के दौरान भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार की चाबी को लेकर विवाद हुआ था। कोर्ट के आदेश के बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की संपत्तियों की जांच और उसकी सूची को लेकर रत्न भंडार खोला गया था। जब इस कार्य को कर रहे लोग रत्न भंडार तक पहुंचे तो वहां ताला बंद था।
उस ताले की चाबी की तलाश की गई। चाबी नहीं मिली। जब 1978 में भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार का सर्वे हुआ तो वहां 149 किलो स्वर्ण आभूषण और 258 किलो के चांदी के बर्तनों की सूची बनी थी। उसके बाद 2018 में फिर से सर्वे का प्रयास हुआ तो चाबी ही नहीं मिल पाई। विधानसभा चुनाव के दौरान रत्न भंडार की चाबी गायब होने का मुद्दा बड़ा हो गया था।
नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली राज्य सरकार कठघरे में आ गई थी। भगवान जगन्नाथ और भगवान अयप्पा में हिंदुओं की आस्था इतनी गहरी है कि उसको जब भी ठेस लगती है तो जनता अपनी प्रतिक्रिया देती है। ओडिशा में नवीन पटनायक की हार का एक बड़ा कारण रत्न भंडार की चाबी का ना मिलना भी बना।
इन दो उदाहरणों से मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। भक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने आराध्य को भेंट अर्पित करते हैं। जिनपर भक्तों की भेंट को सुरक्षित रखने का दायित्व है वो उसका निर्वहन ठीक तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो उसको लेकर सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा। विचार तो इसपर भी करना चाहिए कि मंदिरों की संपत्ति का कस्टोडियन सरकार हो या हिंदू समाज।
इससे संबंधित एक एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिससे प्रभु की संपत्ति में सेंध ना लग सके। क्या अब समय आ गया है कि मंदिरों का प्रबंधन सरकार को हिंदू समाज को सौंप देना चाहिए। कोई ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सरकार और हिंदू समाज साथ मिलकर मंदिरों की संपत्ति की रक्षा कर सकें। आप इस बात की कल्पना करिए कि अगर भगवान अयप्पा के गर्भगृह की स्वर्ण सज्जा को हटाकर उसको पीतल से आच्छादित कर दिया गया तो इसके पीछे कितनी गहरी साजिश रही होगी।
कितने लोगों की मिलीभगत रही होगी तब जाकर इस पाप को किया जा सका होगा। अगर ये साबित हो जाता है कि सोना चोरी करके वहां पीतल लगा दिया गया तो भक्तों की आस्था को कितनी ठेस पहुंचेगी। हिंदू समाज को अपनी आस्था के इन केंद्रों की सुरक्षा को लेकर संगठित होकर एक कार्ययोजना पेश करना होगा, ताकि सरकार उसपर विचार कर सके। दोनों की सहमति से कोई ठोस निर्णय लिया जा सके। समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मंदिर प्रबंधन को लेकर राष्ट्रव्यापी नीति बनाने की आवश्यकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
राहुल गांधी ने विदेश मंचों पर आरोप लगाए कि भारत में आज़ादी की आवाज़ दबाई जा रही है, विपक्षी आवाज़ों को प्रताड़ित किया जा रहा है, और संस्थागत आज़ादी खतरे में है।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पद्मश्री।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस बार भी कोलंबिया और अन्य लैटिन अमेरिकी देशों की विदेश यात्राओं के दौरान में भारत के लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था को लेकर कई गंभीर अनर्गल बयान दिए। उन्होंने दावा किया कि भारत का लोकतंत्र ख़त्म हो गया है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दबाई जा रही है, और अर्थव्यवस्था संकट में है। लेकिन आंकड़ों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टों को देखें, तो वास्तविकता पूरी तरह उनसे भिन्न नज़र आ सकती है।
राहुल गांधी ने विदेश मंचों पर आरोप लगाए कि भारत में आज़ादी की आवाज़ दबाई जा रही है, विपक्षी आवाज़ों को प्रताड़ित किया जा रहा है, और संस्थागत आज़ादी खतरे में है। उन्होंने यह दावा किया कि आज भारत की अर्थव्यवस्था में निवेश कम हो गया है, बेरोजगारी बढ़ रही है, और महंगाई नियंत्रण से बाहर है।
उनका यह आरोप है कि सरकार आर्थिक और सामाजिक असमानता को बढ़ा रही है, नीतियाँ केवल कुछ वर्गों को लाभ पहुँचाती हैं। विदेशों में वह यह कहते हैं कि भारत एक अधिनायकवादी स्वीकार्यता की ओर बढ़ रहा है, और प्रधानमंत्री मोदी की सरकार लोकतंत्र को क्षीण कर रही है। इन आरोपों को यदि गंभीरता से लिया जाए, तो उनका निहितार्थ केवल राजनीतिक लाभ लेना और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को कमजोर करना है।
दूसरी तरफ भारत के प्रवासी भारतीय न केवल विदेशों में अपनी मेहनत, प्रतिभा और नवाचार से विकसित देशों की प्रगति में योगदान दे रहे हैं, बल्कि भारत की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक छवि को भी मज़बूती प्रदान कर रहे हैं। विश्व के कोने-कोने में बसे भारतीय आज विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे हैं। तकनीक, उद्योग, वित्त, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति हर क्षेत्र में प्रवासी भारतीयों का दबदबा बढ़ता जा रहा है।
यही कारण है कि उन्हें भारत की “सॉफ्ट पावर” का सबसे प्रभावशाली प्रतिनिधि माना जाता है। प्रवासी भारतीयों की संख्या लगभग 3.5 करोड़ मानी जाती है, जो अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मध्य पूर्व और यूरोप जैसे देशों में फैले हुए हैं। उनकी मेहनत ने विकसित देशों को आर्थिक मजबूती दी है और भारत को गर्व व पहचान।
वास्तविकता यह है कि भारत का संविधान आज भी देश की सर्वोच्च शक्ति है, जो न्यायालय, चुनाव आयोग, निर्वाचन अधिकारियों और स्वतंत्र मीडिया जैसे स्तंभों को मान्यता देता है। देश में लगातार चुनाव हो रहे हैं। कई राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं और वे केंद्र की मोदी सरकार से विभिन्न मुद्दों पर टकरा रही हैं। यदि लोकतंत्र वास्तव में कमजोर हुआ होता, तो ये संस्थाएँ खुली आलोचना और वैधानिक पुनरावलोकन से बच नहीं पातीं।
मीडिया आज भी भारत में सरकार की आलोचना कर सकती है। नकारात्मक रिपोर्ट, विरोधी स्टैंड, जन–आंदोलनों की रिपोर्टिंग आज भी समाचार पत्रों एवं डिजिटल मीडिया में होती है। यदि लोकतंत्र कमजोर हुआ होता, तो ऐसे मीडिया पर पूरी तरह अंकुश लगा दिया जाता।
सरकार या भाजपा के दावे नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जुलाई 2025 की अपनी रिपोर्ट में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 6.4% रहने का अनुमान लगाया। रिपोर्ट के अनुसार भारत 2025 और 2026 दोनों वर्षों में 6.4% की वृद्धि दर दर्ज कर सकता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत 2025 में जापान को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि 2022 से 2024 के बीच भारत की औसत वास्तविक जी डी पी वृद्धि 8.8% थी, जो एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में सबसे अधिक है। भारत को वैश्विक व्यापार तनाव, अमेरिकी टैरिफ वृद्धि और निवेश अस्थिरता जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका ने अगस्त 2025 से भारत से आयात पर 50% तक शुल्क लगा दिया। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था ने इन बाहरी झटकों को अनुकूल परिस्थिति में समाहित किया है। अंदरूनी खपत और निवेश की मजबूती ने स्थिरता बनाए रखी।
अमेरिका की तकनीकी और आर्थिक प्रगति में भारतीय मूल के लोगों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। सिलिकॉन वैली की लगभग 30% स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना भारतीय मूल के उद्यमियों ने की है। गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला, एडोबी के शांतनु नारायण जैसे नेता यह प्रमाणित करते हैं कि भारतीय प्रतिभा ने अमेरिका को नई दिशा दी है।
भारतीय डॉक्टरों, इंजीनियरों और प्रोफेसरों ने अमेरिका की स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली को मज़बूती प्रदान की है। अमेरिका या यूरोप में नीतियां बदलने पर कई बड़े उद्यमी और युवा लोग भारत वापस आकर अपना उद्यम शुरु कर रहे हैं। लक्ष्मी मित्तल जैसे सम्पन्नतम उद्यमी ने दिल्ली में अपने लिए महंगा बंगला तक खरीद लिया है।
भारत सरकार भी प्रवासी भारतीयों के योगदान को पहचान रही है। सरकार न केवल उनके सम्मान को बढ़ावा देती है, बल्कि भारत में निवेश और नवाचार की संभावनाओं को भी प्रोत्साहन देती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि प्रवासी भारतीय भारत के “राष्ट्रीय दूत” हैं। भविष्य में एनआरआई भारत की आर्थिक वृद्धि, तकनीकी विकास और वैश्विक छवि निर्माण में और बड़ी भूमिका निभाएंगे। स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं में प्रवासी भारतीय पूंजी और अनुभव दोनों प्रदान कर सकते हैं।
ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग राजनीति और व्यवसाय दोनों में शीर्ष स्थान पर हैं। ऋषि सुनक का एक बार ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना न केवल वहां की राजनीति में भारतीयों की स्वीकृति को दर्शाता है, बल्कि विश्व पटल पर भारतीय मूल की क्षमताओं की पहचान को भी मजबूत करता है। लंदन में बसे बड़े भारतीय कारोबारी समूहों ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया है।
कनाडा की संसद में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के सांसद हैं। वहीं ऑस्ट्रेलिया में आईटी और शिक्षा क्षेत्र में भारतीय युवाओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। खाड़ी देशों की निर्माण और सेवाक्षेत्र की अर्थव्यवस्था में भारतीय कामगारों और उद्यमियों की मेहनत का गहरा असर है। दुबई और अबूधाबी जैसे शहरों के विकास में भारतीय इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स और उद्यमियों का योगदान ऐतिहासिक माना जाता है। भारतीय आद्योगिक समूह टाटा, अम्बानी, अडानी न केवल एशिया में वरन अन्य यूरोपीय, अमेरिका, अफ्रीका में पूंजी लगाकर अपनी उपस्थिति की साख बढ़ा रहे हैं।
प्रवासी भारतीय केवल विदेशों में नाम रोशन नहीं कर रहे, बल्कि भारत में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर देश की अर्थव्यवस्था को गति दे रहे हैं। एनआरआई द्वारा भारत में हर साल अरबों डॉलर का रिमिटेंस (विदेश से भेजी गई धनराशि) आता है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का विकास होता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सबसे अधिक रिमिटेंस पाने वाला देश है।
इसके अलावा, प्रवासी भारतीय भारत में स्टार्टअप, रियल एस्टेट, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं और भारत वैश्विक निवेश मानचित्र पर अग्रणी बन रहा है।
हिंदुजा समूह विश्व के सबसे बड़े और प्रभावशाली कारोबारी समूहों में से एक है। इनका कारोबार वित्त, ऑटोमोबाइल, ऊर्जा, आईटी, स्वास्थ्य और रियल एस्टेट जैसे कई क्षेत्रों में फैला हुआ है। हिंदुजा बंधुओं की कुल संपत्ति सैकड़ों अरब डॉलर में आंकी जाती है।
भारत में उन्होंने बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश कर देश की छवि को मजबूत किया है। स्टील के बादशाह कहे जाने वाले लक्ष्मी मित्तल दुनिया के सबसे बड़े स्टील निर्माता “आर्सेलर मित्तल” के अध्यक्ष हैं। उन्होंने यूरोप और अमेरिका में स्टील उद्योग को नई ऊंचाई दी।
भारत में भी मित्तल ने ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में निवेश किया। उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान ने भारत की औद्योगिक छवि को वैश्विक स्तर पर नई पहचान दी। यद्यपि अंबानी और अदानी एनआरआई नहीं हैं, लेकिन उनके कारोबारी साम्राज्य में प्रवासी भारतीयों के बड़े निवेश हैं। अरब देशों और यूरोप में बसे भारतीय निवेशकों ने इन समूहों के प्रोजेक्ट्स में पूंजी लगाई है।
भारत की आईटी क्रांति में प्रवासी भारतीयों ने न केवल निवेश किया बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को ब्रांड बनाया। अमेरिका और यूरोप में बसे भारतीय आईटी पेशेवरों की मेहनत ने भारत को “विश्व की आईटी हब” का दर्जा दिलाया।
प्रवासी भारतीयों ने भारत की पहचान को केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और कूटनीतिक स्तर पर भी मजबूत किया है। वे भारत की संस्कृति, योग, आयुर्वेद और अध्यात्म को विश्व के कोने-कोने में पहुंचा रहे हैं। भारतीय त्योहार, दीवाली, होली, गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा आज अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में धूमधाम से मनाए जाते हैं।
विश्व राजनीति में भारतीय मूल के नेताओं का उदय भी भारत की छवि को मजबूत कर रहा है। चाहे वह अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस हों, या कनाडा की संसद में बैठे भारतीय सांसद सभी भारत की साख बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जनसंचार का सबसे प्राचीन उदाहरण तो हमारे धर्मग्रंथों में देवर्षि नारद द्वारा सूचनाओं के सम्प्रेषण और महाभारत में संजय द्वारा धृतराष्ट्र के लिए युद्ध के सीधे प्रसारण में ही देखने को मिल जाता है।
प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली।
जनसंचार हमारे समाज की एक ऐसी आवश्यकता है, जिस पर इसका विकास, प्रगति और गतिशीलता सर्वाधिक निर्भर करती है। एक विषय के तौर पर यह भले ही नया प्रतीत होता हो, लेकिन समाज के एक अभिन्न अंग के रूप में यह शताब्दियों से हमारे साथ विद्यमान रहा है और एक समाज के तौर पर हमें हमेशा मजबूती, गति व दिशा देता रहा है। फर्क यही आया है कि पहले जनसंचार एक नैसर्गिक प्रतिभा होता था, अब एक कौशल बन गया है, जिसे प्रशिक्षण से विकसित किया जा सकता है।
पारिभाषिक रूप से जनसंचार वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत सूचनाओं को पाठ्य, श्रव्य या दृश्य रूप में बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचाया जाता है। आम तौर पर इस कार्य के लिए समाचार पत्र- पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, सोशल नेटवर्किंग, न्यूज पोर्टल आदि विभिन्न माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। पत्रकारिता, विज्ञापन, इवेंट मैनेजमेंट और जनसंपर्क, जनसंचार के कुछ लोकप्रिय स्वरूप हैं।
सदियों से अस्तित्व में है जनसंचार
अगर हम इतिहास की बात करें तो जनसंचार का सबसे प्राचीन उदाहरण तो हमारे धर्मग्रंथों में देवर्षि नारद द्वारा सूचनाओं के सम्प्रेषण और महाभारत में संजय द्वारा धृतराष्ट्र के लिए युद्ध के सीधे प्रसारण में ही देखने को मिल जाता है। यद्यपि आधुनिक युग के हिसाब से जनसंचार का विधिवत आगमन 15वीं सदी के अंत में माना जा सकता है, जब गुंटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया और शब्दों के लिखित रूप को जन-जन तक पहुंचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसके करीब एक शताब्दी बाद, वर्ष 1604 में जर्मनी में पहले मुद्रित समाचार पत्र ‘रिलेशन एलर फर्नेममेन एंड गेडेनक्वुर्डिगेन हिस्टोरियन’ से इसे एक संस्थागत स्वरूप मिला। इसके बाद वर्ष 1895 में मार्कोनी ने रेडियो की खोज कर शब्दों का श्रव्य रूप लोगों तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया और वर्ष 1925 में जॉन लोगी बेयर्ड ने दुनिया को टेलीविजन के रूप में ऐसी सौगात दी, जिसने शब्दों और ध्वनियों के साथ-साथ दृश्यों को भी हम तक पहुंचाया।
इंटरनेट ने संचार को दी नई ताकत
संचार की दुनिया में सबसे बड़ी क्रांति का सूत्रपात 1990 में ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ यानि इंटरनेट की खोज से हुआ। यह एक ऐसी सुविधा थी, जिसने एक साधारण व्यक्ति को भी संचारक बनने का अवसर उपलब्ध कराया। बीते 30 सालों में इसमें बहुत बदलाव आए हैं और संचार पहले की तुलना में काफी सुगम, सुलभ, सस्ता और द्रुतगति वाला हो गया है। आज लाखों लोग, बहुत कम बजट में और बहुत कम वक्त में अपनी बात दुनिया के करोड़ों लोगों तक पहुंचाने में सक्षम हैं। अनुमान है कि ऐसे लोगों की संख्या चार खरब से भी ज्यादा है, जो इंटरनेट या WWW तक पहुंच रखते हैं।
जनसंचार के इसी फैलते क्षेत्र और व्यापक प्रभाव ने इसे एक अकादमिक अध्ययन का विषय बनाया है और आज यह व्यावसायिक शिक्षा के अंतर्गत पढ़े जाने वाले सर्वाधिक पसंदीदा विषयों में से एक है। आज दुनिया के लगभग सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों और विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में जनसंचार अथवा मास कम्युनिकेशन को स्नातक, स्नातकोत्तर उपाधि पाठ्यक्रम या स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जाता है और इनसे हर साल हजारों की संख्या में पत्रकार, जनसंपर्क एवं विज्ञापन विशेषज्ञ तथा संचारक प्रशिक्षित होते हैं और विभिन्न संस्थानों से जुड़कर अपनी कैरियर यात्रा आरंभ करते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति और जनसंचार
शिक्षा के क्षेत्र में इक्विटी (भागीदारी), अफोर्डेबिलिटी (किफायत), क्वालिटी (गुणवत्ता), एक्सेस (सब तक पहुंच) और अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) सुनिश्चित करने के लिए हमारे प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने वर्ष 2020 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति पेश की थी। शिक्षा को सुलभ, सरल और अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्य से इसमें कई नए प्रावधान सम्मिलित किये गये हैं। हालांकि इसमें स्पष्ट रूप से मीडिया व जनसंचार जैसे विषयों का उल्लेख नहीं किया गया है। लेकिन, सच तो यह है कि ऐसे बहुत सारे विषय हैं, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मीडिया या कम्युनिकेशन पर निर्भर हैं।
जनसंचार में प्रौद्योगिकी के प्रवेश ने इसके प्रभाव क्षेत्र को बहुत व्यापक और विस्तृत कर दिया है। लेकिन, जिस तरह से बीते दो दशकों में मीडिया के क्षेत्र में प्रशिक्षण संस्थानों की संख्या में जो कल्पनातीत वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए यह बहुत आवश्यक हो गया है कि इसमें भी जवाबदेही और गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर विचार किया जाए। मीडिया और जनसंचार लगभग सौ सालों से एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। इन सौ सालों में समाज के स्वरूप, स्वभाव, अपेक्षाओं और आवश्यकताओं में बहुत बदलाव आया है। इस बदलती हुई दुनिया के अनुरूप पत्रकारिता के प्रशिक्षण में भी बदलाव आवश्यक हैं।
नया मीडिया : संभावनाएं और चुनौतियां
21वीं सदी में जिस मीडिया उदय हुआ है, वह प्रिंट, टीवी या रेडियो तक सीमित नहीं है। इंटरनेट की पहुंच और प्रभाव ने मीडिया को बहुत सारी नई चीजें दी हैं, जिनमें समृद्धि और सफलता के लिए बहुत सारी नई संभावनाएं उत्पन्न हुई हैं। ऑनलाइन एजुकेशन, गेमिंग, एनिमेशन, ओटीटी, मल्टीमीडिया, ब्लॉकचेन, मेटावर्स जैसे ऐसे अनेक विकल्प हैं, जिनमें प्रशिक्षित पेशेवरों की बहुत जरूरत है।
ये वे क्षेत्र हैं, जिनके विशाल बाजार और भविष्य की संभावनाओं के आकलन अचंभित करते हैं। उदाहरण के लिए वीडियो गेमिंग को ही लें इसके व्यवसाय के वर्ष 2030 तक 583.69 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है।
इसी प्रकार, एनिमेशन इंडस्ट्री है। एनिमेशन मार्केट 2030 तक बढ़कर 587.1 बिलियन डॉलर हो जायेगा। ओटीटी वीडियो भी ऐसा ही तेजी से बढ़ता हुआ मार्केट है, जिसके यूजर्स की संख्या 2027 तक बढ़कर 4216.3 मिलियन हो जायेगी। जाहिर है कि जब बाजार इतना बड़ा है, तो इसे संभालने के लिए इतनी ही बड़ी संख्या में कुशल व प्रशिक्षित प्रतिभाओं की आवश्यकता भी पड़ेगी। इस जरूरत को पूरा करने में मीडिया और जनसंचार प्रशिक्षण संस्थान काफी सशक्त योगदान दे सकते हैं।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने इस आवश्यकता को अनुभव करते हुए काफी पहले से ही काम आरंभ कर दिया था। वर्ष 2011 में ‘न्यू मीडिया मीडिया विभाग’ आरंभ एक बड़ा कदम था। 2022 में भारतीय जन संचार संस्थान ने भी डिजिटल मीडिया का पाठ्यक्रम प्रारंभ किया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कौशल विकास और आत्मनिर्भर बनने पर काफी जोर दिया गया है। जनसंचार की शिक्षा में भी हमें इसी का ध्यान रखते हुए अपेक्षित बदलाव लाने होंगे, तभी हम परिवर्तन के साथ सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
मोहन भागवत ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर से लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ वॉर और देश में चल रहे तमाम मुद्दों पर बात की। हिन्दुओं की एकता देश के विकास की गारंटी है।
रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।
नागपुर में संघ के विजयादशमी समारोह में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन लोगों को नसीहत दी, जो भारत में श्रीलंका, बांग्लादेश या फिर नेपाल जैसी GEN-Z क्रांति का ख्वाब देख रहे हैं।
मोहन भागवत ने कहा कि लोकतंत्र में जनता सरकार तक अपनी भावनाएं पहुंचा सकती है, व्यवस्था को बदल सकती है लेकिन सड़क पर उतर कर हंगामा करने से सिर्फ अराजकता फैलती है, इससे किसी का भला नहीं होता।
मोहन भागवत ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर से लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ वॉर और देश में चल रहे तमाम मुद्दों पर बात की। चूंकि आजकल कई राज्यों में “आई लव मोहम्मद” को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं, मोहन भागवत ने इसकी तरफ इशारा किया।
उन्होंने कहा कि भारत में हर महापुरूष का सम्मान किया जाता है लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस तरह कानून हाथ में लेकर गुंडागर्दी की जा रही, वो ठीक नहीं। मोहन भागवत ने कहा कि भारत सनातन काल से हिन्दू राष्ट्र है, हिन्दुओं की एकता सबकी सुरक्षा और देश के विकास की गारंटी है।
मोहन भागवत ने RSS की छवि को बदला है। उन्होंने कभी हिंदू-मुसलमान को लड़वाने की बात नहीं कही। वो अपनी हिंदू विचारधारा से पीछे भी नहीं हटते। हमेशा हिंदुओं की एकता को और मजबूत करने की बात करते हैं लेकिन संघ के स्वयंसेवकों से हमेशा कहते हैं कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने की जरूरत नहीं है। इस एक वाक्य का बहुत बड़ा मतलब है कि बात-बात पर टकराने की आवश्यकता नहीं है।
RSS का विरोध करने वाले आरोप लगाते हैं कि संघ के लोग दंगा करवाते हैं, हिंसा भड़काते हैं। आज मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण से RSS को लेकर उठे बहुत सारे सवालों के जवाब मिलेंगे जिनसे संघ के 100वें वर्ष में RSS को समझने में मदद मिलेगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अब तक ऑफिस सॉफ्टवेयर की दुनिया पर अमेरिकी दिग्गज कंपनियों जैसे- Google और Microsoft का दबदबा रहा है। लेकिन अब भारतीय कंपनी Zoho इस एकाधिकार को चुनौती देने के लिए पूरी तरह तैयार नजर आ रही है।
भारत की टेक्नोलॉजी दुनिया तेजी से बदल रही है। अब तक ऑफिस सॉफ्टवेयर की दुनिया पर अमेरिकी दिग्गज कंपनियों जैसे- Google और Microsoft का दबदबा रहा है। लेकिन अब भारतीय कंपनी Zoho इस एकाधिकार को चुनौती देने के लिए पूरी तरह तैयार नजर आ रही है। हाल ही में शिक्षा मंत्रालय द्वारा अपने अधिकारियों को Zoho Office Suite इस्तेमाल करने का निर्देश देना, इस बदलाव की शुरुआत का बड़ा संकेत माना जा रहा है।
शिक्षा मंत्रालय का यह निर्णय केवल सॉफ्टवेयर बदलने का मामला नहीं है, बल्कि यह भारत के डिजिटल आत्मनिर्भरता की दिशा में उठाया गया अहम कदम है। मंत्रालय ने साफ कहा है कि Zoho जैसे भारतीय सॉफ्टवेयर को अपनाना विदेशी निर्भरता कम करने और घरेलू टेक इकोसिस्टम को मजबूत करने का हिस्सा है। यह कदम न केवल Zoho को बढ़ावा देगा, बल्कि यह अन्य भारतीय टेक कंपनियों को भी प्रेरित करेगा कि वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में उतरें।
तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों से शुरू हुई Zoho Corp आज एक ग्लोबल कंपनी बन चुकी है, जिसके 100 से अधिक देशों में ग्राहक हैं। कंपनी के संस्थापक श्रीधर वेम्बू ने बिना किसी विदेशी निवेश के, पूरी तरह स्वदेशी मॉडल पर कंपनी खड़ी की है।
Zoho के Office Suite में डॉक्यूमेंट एडिटिंग, स्प्रेडशीट, प्रेजेंटेशन और टीम कम्युनिकेशन जैसे सभी फीचर मौजूद हैं- यानी यह Google Workspace और Microsoft 365 का भारतीय विकल्प है।
जहां विदेशी टेक कंपनियों पर डेटा प्राइवेसी को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं, वहीं Zoho का पूरा डेटा भारत में ही स्टोर होता है। इससे सरकारी और निजी संस्थाओं को डेटा सुरक्षा को लेकर अधिक भरोसा मिलता है।
कई सरकारी अधिकारी मानते हैं कि Zoho का प्रयोग न केवल सुरक्षित है बल्कि इससे “डेटा संप्रभुता” (Data Sovereignty) का सिद्धांत भी मजबूत होता है।
Zoho के टूल्स का इंटरफेस सरल और सहज है, जिससे इसे अपनाना सरकारी कर्मचारियों या शिक्षण संस्थानों के लिए आसान हो जाता है। साथ ही, इसका खर्च भी Google या Microsoft की तुलना में काफी कम है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि Zoho को सरकारी स्तर पर लगातार समर्थन मिलता रहा, तो यह भारत में किफायती और स्वदेशी डिजिटल सॉल्यूशन की सबसे बड़ी मिसाल बन सकता है।
यह सच है कि Google और Microsoft के पास संसाधन, अनुभव और वैश्विक उपस्थिति कहीं ज्यादा है। लेकिन Zoho का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह भारत की जमीन, जरूरत और भाषा के अनुरूप तकनीक विकसित कर रहा है।
यदि आने वाले वर्षों में Zoho अपने प्रोडक्ट्स में लगातार इनोवेशन करता रहा और सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ निजी कंपनियों ने भी इसे अपनाया, तो यह विदेशी कंपनियों के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है।
Zoho का उभार केवल एक कंपनी की सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि यह भारत के डिजिटल स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी है। जैसे-जैसे भारत अपनी तकनीकी क्षमताओं पर भरोसा बढ़ा रहा है, Zoho जैसी कंपनियां यह साबित कर रही हैं कि विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए अब भारतीय ब्रैंड भी पूरी तरह तैयार हैं।
हाल ही में अमेरिका द्वारा H-1B वीजा फीस में बढ़ोतरी ने भारतीयों के लिए अंतरराष्ट्रीय यात्रा और नौकरी के अवसरों को महंगा और चुनौतीपूर्ण बना दिया है। इस बदलाव के बाद भारतीय कंपनियों और कर्मचारियों की नजर अब स्थानीय और स्वदेशी डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की ओर अधिक हो गई है। ऐसे में Zoho ने अचानक से मार्केट में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और इसे भारत में डिजिटल आत्मनिर्भरता का प्रतीक माना जाने लगा है।
अमेरिका में काम करने के अवसर महंगे होने और सीमित हो जाने के कारण, कई भारतीय पेशेवर अब अपने देश में ही डिजिटल टूल्स और क्लाउड सेवाओं पर निर्भर हो रहे हैं। Zoho की सुविधा यह है कि यह Office Suite, ईमेल, CRM, प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और टीम कम्युनिकेशन जैसी पूरी डिजिटल इकोसिस्टम उपलब्ध कराता है। इस वजह से बड़ी संख्या में भारतीय व्यवसाय और सरकारी संस्थान अब Google और Microsoft की बजाय Zoho को अपनाने लगे हैं।
Zoho की लोकप्रियता में तेज बढ़ोतरी के पीछे कई कारण हैं:
स्वदेशी और सुरक्षित: डेटा पूरी तरह भारत में स्टोर होता है, जिससे प्राइवेसी और डेटा सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
कम लागत, अधिक फायदे: विदेशी सॉफ़्टवेयर की तुलना में Zoho का खर्च कम है और इसमें सारे जरूरी टूल्स शामिल हैं।
सरकारी समर्थन: हाल ही में शिक्षा मंत्रालय और अन्य केंद्रीय विभागों ने Zoho Office Suite को अपनाने के निर्देश दिए हैं।
कुछ समय से सोशल मीडिया और न्यूज पोर्टल्स में यह अफवाहें उड़ रही थीं कि Zoho ने अचानक मार्केट में कब्जा करने के लिए किसी बड़ी विदेशी कंपनी के साथ मिलकर प्रतिस्पर्धा घटाई है या कर्मचारियों को दबाव में रखा गया है। Zoho के संस्थापक श्रीधर वेम्बू ने इन अफवाहों का स्पष्ट खंडन करते हुए कहा, "हमारा उद्देश्य केवल भारत में स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा देना और यूजर्स को सशक्त बनाना है। हमारी सफलता किसी विदेशी दबाव या साजिश का परिणाम नहीं है।"
विशेषज्ञ मानते हैं कि Zoho का यह उभार केवल एक ट्रेंड नहीं बल्कि भारत की डिजिटल आत्मनिर्भरता का संकेत है। जैसे-जैसे भारतीय संस्थान और पेशेवर विदेशी प्लेटफॉर्म्स से दूर होते जा रहे हैं, Zoho और अन्य स्वदेशी सॉफ़्टवेयर कंपनियों को अधिक अवसर मिलेंगे।
अमेरिका की वीजा फीस बढ़ोतरी और अंतरराष्ट्रीय अवसरों में सीमितता ने भारतीयों को देशी डिजिटल टूल्स की ओर मोड़ दिया है। Zoho इस बदलाव का सबसे बड़ा लाभार्थी बनकर उभरा है। अफवाहों के बावजूद, श्रीधर वेम्बू का स्पष्ट संदेश यह है कि Zoho पूरी तरह भारत के हित और तकनीकी आत्मनिर्भरता के लिए काम कर रहा है।
पूरी दुनिया में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की नापाक हरकत का मजाक उड़ाया गया है। हजारों मीम्स बने लेकिन मोहसिन नकवी को बिलकुल शर्म नहीं आई।
रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।
एशिया कप में भारत ने पाकिस्तान को हराया, लेकिन टीम इंडिया को कप नहीं मिला। टीम इंडिया ने जीत का जश्न कप के बगैर मनाया। टीम इंडिया ने एशियाई क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष मोहसिन नक़वी के हाथ से कप लेने से इंकार कर दिया। मोहसिन नक़वी पाकिस्तान के गृह मंत्री हैं और भारत के खिलाफ बे सिर-पैर के बयान देते रहते हैं। आयोजकों ने संयुक्त अरब अमीरात क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष खालिद अल जरूनी के हाथों टीम इंडिया को कप देने का सुझाव दिया, टीम इंडिया तैयार हो गई, पर पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख इस बात पर अड़ गए कि टीम इंडिया को कप मैं दूंगा।
कप्तान सूर्य कुमार यादव और उनकी टीम मैदान पर मौजूद थी। घोषणा होती रही, लेकिन कोई कप और पदक लेने नहीं गया। थोड़ी देर बाद मोहसिन नक़वी मुंह लटका कर मैदान से बाहर निकल गए लेकिन जाते-जाते एशिया कप कप और भारतीय खिलाड़ियों को मिलने वाले पदक अपने साथ ले गए। अब बीसीसीआई ने आईसीसी को चिट्ठी लिखकर मोहसिन नक़वी की हरकत पर सख्त आपत्ति जताई है। पूरी दुनिया में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की इस हरकत का मजाक उड़ाया गया है। हजारों मीम बने लेकिन मोहसिन नक़वी को बिलकुल शर्म नहीं आई। वह अभी भी टीम इंडिया की जीत का कप अपने पास रखकर बैठे हैं।
पाकिस्तान में भी क्रिकेट टीम और मोहसिन नक़वी का खूब मजाक उड़ाया जा रहा है। पाकिस्तान के लोग ही अब कह रहे हैं कि जैसे आसिम मुनीर ने ऑपरेशन सिंदूर में झूठी जीत का दावा किया था, वैसे ही अब मोहसिन नक़वी यह कहेंगे कि तीनों मैच हमने जीते हैं, कप हम लेकर आए हैं। भारत में टीम इंडिया की जीत का जश्न कल पूरी रात मनाया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने टीम को जीत की बधाई देते हुए लिखा कि खेल के मैदान में भी ऑपरेशन सिंदूर... नतीजा वही... भारत की जीत। इस अंदाज में मोदी की बधाई पर सूर्य कुमार यादव ने कहा कि जब देश का नेता आगे आकर खेलता है, तो टीम की जीत तो पक्की हो जाती है।
आखिर यह सारी बातें हद से बाहर क्यों निकल गईं? भारत का रुख पहले दिन से साफ था, वह किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी या अधिकारी के साथ किसी तरह का कोई मेलजोल नहीं करेंगे। एशिया कप के साथ पाकिस्तानी टीम के कप्तान सलमान अली आगा ने अकेले फोटो खिंचवाई, सूर्य कुमार यादव वहां नहीं गए। इसके बाद सूर्य कुमार यादव ने टॉस के दौरान सलमान अली से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। जसप्रीत बुमराह ने जब हारिस रऊफ़ को आउट किया तो रऊफ़ के विमान गिराने के इशारे का मजाक उड़ाया।
मैदान में पुरस्कार समारोह की तैयारी हो रही थी। प्रस्तोता न्यूज़ीलैंड के पूर्व क्रिकेटर साइमन डूल थे। एशियाई क्रिकेट परिषद और पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष मोहसिन नक़वी कप देने के लिए मैदान पर पहुंच गए। कुछ देर बाद सूर्य कुमार यादव पूरी टीम के साथ मैदान पर आए। साइमन डूल ने घोषणा की कि भारत के खिलाड़ियों ने फ़ैसला किया है कि वह एसीसी अध्यक्ष मोहसिन नक़वी से कप नहीं लेंगे। इसलिए भारतीय टीम अपना पुरस्कार आज ग्रहण नहीं करेगी। मोहसिन नक़वी पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिम मुनीर के बेहद क़रीबी हैं।
आसिम मुनीर ने ही मोहसिन नक़वी को पीसीबी का अध्यक्ष और पाकिस्तान का गृह मंत्री बनवाया है। इसीलिए भारतीय टीम ने तय किया कि वह मोहसिन नक़वी से कप नहीं लेगी। हालांकि तिलक वर्मा, दिन के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरस्कार लेने मंच पर गए। अभिषेक शर्मा, प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का और कुलदीप यादव सर्वाधिक मूल्यवान खिलाड़ी का व्यक्तिगत पुरस्कार लेने मंच के पास जरूर गए लेकिन उन्होंने मोहसिन नक़वी को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया। उन्होंने अमीराती क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष ख़ालिद अल ज़रूनी और दूसरे अधिकारियों से अपने पुरस्कार लिए।
लेकिन मोहसिन नक़वी इस बात पर अड़े रहे कि वही टीम इंडिया को कप देंगे। हालांकि अमीराती अफसरों ने मोहसिन नक़वी को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मोहसिन नक़वी इसके लिए तैयार नहीं हुए। करीब एक घंटे तक मैदान पर नाटक चलता रहा। पुरस्कार समारोह में जब टीम इंडिया ने नक़वी का बहिष्कार किया तो मैदान में मौजूद दर्शकों ने 'भारत माता की जय' के नारे लगाए।
आखिर में मोहसिन नक़वी मुंह फुलाकर मैदान से बाहर चले गए। जाते-जाते मोहसिन नक़वी ने पाकिस्तानी अफसरों को हुक्म दिया कि एशिया कप का कप भी वापस होटल पहुंचा दिया जाए, अगर टीम इंडिया ने उनसे कप नहीं लिया, तो फिर उनको नहीं दिया जाएगा। मोहसिन नक़वी जब खुद चले गए तो भारतीय खिलाड़ियों को जो पदक दिए जाने थे, वह पदक भी पाकिस्तान के अफसर मोहसिन नक़वी के आदेश पर होटल ले गए यानी एशिया कप का विजेता होने के बावजूद एसीसी अध्यक्ष ने भारतीय खिलाड़ियों को उनका हक नहीं दिया, न कप दिया, न पदक दिया, अपने साथ सब वापस होटल भिजवा दिए।
जब मैच के बाद प्रेस वार्ता में भारत के कप्तान सूर्य कुमार यादव से पूछा गया कि क्या उनको कप न मिलने का अफ़सोस है, क्या इस बात का दुख है कि टीम इंडिया को बिना कप के ही उत्सव मनाना पड़ा तो, सूर्य कुमार ने बहुत शानदार जवाब दिया। सूर्य कुमार ने कहा कि प्रतियोगिता उन्होंने जीती, उत्सव पूरे देश ने मनाया और पूरे टूर्नामेंट में टीम का प्रदर्शन बहुत शानदार रहा, किसी कप्तान को और क्या चाहिए? सूर्य कुमार यादव ने एलान किया कि एशिया कप के सभी मैचों की अपनी पारिश्रमिक वह भारतीय सेना को समर्पित करते हैं और मुस्कुराते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद है, कम से कम इस पर कोई नया विवाद नहीं होगा।
सूर्य की देखा-देखी पाकिस्तान के कप्तान सलमान अली आगा ने कहा कि उनकी पूरी टीम अपनी मैच पारिश्रमिक उन लोगों के परिवारों को देगी, जो 7 मई को ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत के हमले में मारे गए थे। सूर्य कुमार यादव का यह सवाल बिलकुल सही है कि हमने सारे मैच जीते, पाकिस्तान को तीन-तीन बार हराया, फिर भी पाकिस्तान हमारा कप लेकर भाग गया, एशिया कप जीतने वाली टीम के हाथ खाली हैं और हारने वाला मुल्क कप और पदक को सजाकर बैठा है। जीतने वाली टीम के साथ इससे घटिया मज़ाक और क्या हो सकता है? मोहसिन नक़वी ज़िद पकड़कर क्यों बैठे हैं?
अगर मेज़बान देश अमीरात के क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष टीम इंडिया को कप दे देते तो कौन सा पहाड़ टूट जाता? असल में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख उसी तरह की हरकत कर रहे हैं जैसी उनके सेना प्रमुख ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान की थी। आसिम मुनीर ने भी अपनी तबाही में जीत का दावा किया था। पूरे एशिया कप के दौरान कभी किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी ने बल्ले को बंदूक बनाकर दिखाया, तो किसी ने विमान गिरने का इशारा किया, लेकिन सूर्य कुमार यादव और उनकी टीम ने अपने बल्ले और गेंद से करारा जवाब दिया।
एक बार नहीं तीन-तीन बार दिया। अब अगर मोहसिन नक़वी में ज़रा सी भी शर्म बची है तो उन्हें कप और पदक टीम इंडिया को सौंपने चाहिए वरना आईसीसी को पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। जितना मजाक पाकिस्तान की टीम का बनाया गया, उससे कहीं ज्यादा हंसी पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष की उड़ाई गई।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अब सोचिए अमेरिकी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) पर $328 बिलियन लगा दिए हैं। नतीजा यह निकल रहा है कि याचिका में झूठे जजमेंट पकड़े गए।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
दिल्ली हाईकोर्ट में पिछले हफ़्ते मज़ेदार घटना हुई। गुरुग्राम के Greenopolis Welfare Association (GWA) ने याचिका दायर की थी। ख़रीदारों को बिल्डर से फ्लैट नहीं मिल रहा था। याचिका में जिन जजमेंट का हवाला दिया गया था वो कभी लिखा ही नहीं गया था, जैसे राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी केस के जजमेंट से पैरा 73 का हवाला दिया जबकि जजमेंट सिर्फ़ 27 पैराग्राफ़ है। यह बात दूसरी पार्टी ने पकड़ ली कि यह याचिका ChatGPT ने लिखी है। AI hallucinate कर रहा है यानी झूठ बोल रहा है। याचिका वापस ली गई।
अब सोचिए अमेरिकी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) पर $328 बिलियन लगा दिए हैं। नतीजा यह निकल रहा है कि याचिका में झूठे जजमेंट पकड़े गए। इस खर्चे को ऐसे समझिए कि इतने पैसे में दिल्ली मेट्रो जैसे 40 नेटवर्क बन सकते हैं। अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या यह इन्वेस्टमेंट रिटर्न दे सकेगा या डूब जाएगा?
Open AI को ChatGPT लांच कर तीन साल होने वाले है। इसके बाद सभी बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों में AI में आगे निकलने की होड़ लग गई। इसी होड़ में सब AI पर पैसे लगा रहे हैं लेकिन अब दो अलग-अलग रिपोर्ट ने इसके रिटर्न पर सवाल उठाए हैं।
MIT की रिपोर्ट में कहा गया है कि Generative AI के 95% पायलट प्रोजेक्ट कंपनियों में फेल हो गए हैं यानी कंपनियाँ इसे आगे नहीं बढ़ा पायीं। फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने पाया है कि अमेरिका की 500 बड़ी कंपनियों में बातें तो खूब हो रही हैं लेकिन जब लागू करने की बात हो रही है तो कंपनियाँ अटक जा रही हैं।
AI के आने से नौकरी जाने का डर लगातार बना हुआ है। दो क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल कंपनियाँ कर रही हैं। कस्टमर केयर और कोडिंग। AI से ग्राहकों के सवालों के जवाब chatbot या कॉल से दिए जा रहे हैं। सॉफ़्टवेयर कोडिंग में भी AI मदद कर रहे हैं। इससे भारतीय IT कंपनियों ने नई हायरिंग लगभग बंद कर रखी है। Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन कहते है कि सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों की ज़रूरत बनी रहेगी। AI के चलते सॉफ़्टवेयर की माँग बढ़ रही है। बाक़ी सेक्टर में इसकी भूमिका सहयोगी की रह सकती है यानी लोग जो काम करेंगे उसमें AI मदद करेगा।
AI के आने के बाद से यह अटकलें लगने लगी थीं कि यह आदमी को बेकार कर देगा। वकील, डॉक्टर, पत्रकार, टीचर सबकी जगह ले सकता है। जो भी काम के लिए कंटेंट जनरेट करते हैं। नॉलेज का इस्तेमाल सर्विस देने में करते हैं उन पर गाज गिरेगी। अब भी यह कहना मुश्किल है कि AI क्या बदलाव लाएगा? दिल्ली हाईकोर्ट की घटना का सबक है कि आँख मूँद कर AI का इस्तेमाल नहीं करें, जो कह रहा है वो जाँच लें वरना आप मुश्किल में पड़ सकते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
अभय कुमार दुबे जी ने 1992 में एक पुस्तिका लिखी थी- घोटाले में घोटाला। 40 पेज की इस पुस्तिका में कांग्रेस नेताओं और राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए कोष इकट्ठा करने को लेकर विस्फोटक जानकारी है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
दीवाली के पहले घरों में साफ-सफाई की जाती है। इस परंपरा का पालन हर घर में होता है। हमारे घर भी हुआ। घर के पुस्तकालय की सफाई के दौरान चालीस पेज की एक पुस्तिका मिली जिसने ध्यान खींचा। पुस्तिका का नाम है ‘घोटाले में घोटाला’। इस पुस्तिका का लेखन, संपादन और सज्जा अभय कुमार दुबे का है। अभय कुमार दुबे पत्रकार और शिक्षक रहे हैं।
कुछ दिनों के लिए इन्होंने सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में भी कार्य किया है। इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। समाचार चैनलों पर विशेषज्ञ के रूप में भी दिखते हैं। ‘घोटाले में घोटाला’ पुस्तिका का प्रकाशन जनहित के लिए किया गया था। ऐसा इसमें उल्लेख है। दिल्ली के इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन के पते पर स्थापित पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च ग्रुप ने इसका प्रकाशन किया है।
इसमें एक और दिलचस्प वाक्य है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। ये वाक्य है- इस पुस्तिका की सामग्री पर किसी का कापीराइट नहीं है, जनहित में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका प्रकाशन वर्ष अक्तूबर 1992 है। उस समय देश में कांग्रेस पार्टी का शासन था और पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। इसमें दो दर्जन लेख हैं जो उस शासनकाल के घोटालों पर लिखे गए हैं।
इस पुस्तिका में एक लेख का शीर्षक है, ओलंपिक वर्ष के विश्व रिकार्ड इसका आरंभ इस प्रकार से होता है, दौड़-कूद का ओलंपिक तो बार्सिलोना में हुआ जिसमें भारत कोई पदक नहीं जीत पाया। अगर घोटालों, जालसाजी, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल और चोरी के बावजूद सीनाजोरी का ओलंपिक होता तो कई भारतवासियों का स्वर्ण पदक मिल सकता था।
व्यंग्य की शैली में लिखे गए इस लेख में एम जे फेरवानी, आर गणेश, बैंक आफ करड, वी कृष्णमूर्ति, पी चिदंबरम, हर्षद मेहता और मनमोहन सिंह के नाम हैं। मनमोहन सिंह के बारे में अभय कुमार दुबे लिखते हैं, ‘मासूमियत का अथवा जान कर अनजान बने रहने का स्वर्ण पदक। वित्तमंत्री कहते हैं कि उन्हें जनवरी तक तो कुछ पता ही नहीं था कि शेयर मार्केट में पैसा कहां से आ रहा है। और अगर हर्षद उनसे मिलना चाहता तो भारत के एक नागरिक से मिलने से वो कैसे इंकार कर देते। मनमोहन सिंह को अपनी सुविधानुसार विचार बदल लेने का स्वर्ण पदक भी मिल सकता है।
पहले वो विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के भारी आलोचक हुआ करते थे। पिछले 20 साल से वे भारत की आर्थिक नीति निर्माता मंडली के सदस्य रहे और वे नीतियां भी उन्हीं ने बनाई थीं जिनकी वे आज आलोचना कर रहे हैं।‘ आज मनमोहन सिंह को लेकर कांग्रेस और उनके ईकोसिस्टम से जुड़े लोग बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन समग्रता में अगर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आकलन किया जाएगा तो इन बिंदुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। यह भी कहा जाता है कि मनमोहन सिंह की नीतियों के कारण 2008 के वैश्विक मंदी के समय देश पर उसका असर न्यूनतम हुआ।
इस पर भी अर्थशास्त्रियों के अलग अलग मत हैं। प्रश्न ये उठता है कि मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए शेयर मार्केट में जो घोटाला हुआ था क्या उसको भी उनके पोर्टफोलियो में रखा जाना चाहिए या सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर डाल देनी चाहिए। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी इस समय की सरकार को अदाणी-अंबानी से जोड़ते ही रहते हैं। 1991 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी तब के हालात कैसे थे? 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब कांग्रेस पर किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे या नहीं?
इन दिनों राहुल गांधी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बंद होते जाने पर भी कई बार सवाल खड़े करते हैं और मोदी सरकार पर बेरोजगारी बढ़ाने का आरोप लगाते हैं। उनकी पार्टी के शासनकाल के दौरान विनिवेश को लेकर जो आरोप सरकार पर लगे थे उसपर भी उनको विचार करना चाहिए। सत्ता में रहते अलग सुर और विपक्ष में अलग सुर ये कैसे संभव हो सकता है।
इन दिनों राहुल गांधी और कांग्रेस का पूरा ईकोसिस्टम ईडी-ईडी का भी शोर मचाते घूमते हैं। घोटाले में घोटाला पुस्तिका में उल्लेख है, ‘सीबीआई को जांच में इसलिए लगाया गया था ताकि घोटाले में राजनीतिक हाथ का पता लगाकर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हिसाब साफ कर लिया जाए। इसका दूसरा मकसद यह भी था कि सीबीआई कुछ गिरफ्तारियां करके और कुछ मुकदमे चलाकर जनता के सामने यह दिखा सकती थी कि सरकार घोटाले के अपराधियों को पकड़ने के लिए कितनी गंभीर है।
चूंकि केवल दिखावा करना था इसलिए सीबीआई की एक जांच टीम को ही पूरी जांच नहीं दी गई वरन उसे बांट दिया गया।‘ आगे लिखा है कि सीबीआई ने अनुमान से अधिक मात्रा में राजनीतिक हाथ खोज निकाला जिससे सरकार के लिए थोड़ी समस्या हो गई क्योंकि किसी नेता का भांडाफोड़ उसे इंका (इंदिरा कांग्रेस) की अंदरूनी राजनीति में फायदेमंद लगता था और किसी का नुकसानदेह।
इसलिए माधवन को चलता कर सीबीआई के पर कतर दिए गए।‘ एजेंसियों के दुरुपयोग की कांग्रेस राज में बहुत लंबी सूची बनाई जा सकती है। इस कारण जब राहुल गांधी ईडी को लेकर सरकार पर आरोप लगाते हैं तो जनता पर उसका प्रभाव दिखता नहीं है। उनके पार्टी पर इस तरह के आरोपों का इतना अधिक बोझ है जिससे वो मुक्त हो ही नहीं सकते।
इस पुस्तिका में एक और विस्फोटक बात लिखी गई है, ‘कृष्णमूर्ति के घर पर छापे में सीबीआई ने सोनिया गांधी के दस्तखत वाला एक धन्यवाद पत्र बरामद किया जिसमें राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए कोष जमा करने के लिए फाउंडेशन के चेयरमैन के रूप में उन्हें धन्यवाद दिया गया था। हर्षद मेहता और एक उद्गोयपति ने भी तो फाउंडेशन को 25-25 लाख रुपए के चेक दिए थे।
दुबे यहां प्रश्न पूछते हैं कि ये धन कौन सा था? वही जो दलाल बैंकों से लेकर सट्टा बाजार में लगाते थे। इस धन से कमाई दलालों की संपत्ति तो जब्त कर ली गई पर यही पैसा तो राजीव गांधी फाउंडेशन में पड़ा है। क्या इसे जब्त करना और इसकी परतें खोलना सीबीआई का फर्ज नहीं था। राजीव गांधी फाउंडेशन की निर्लज्जता देखिए, उसने कृष्णमूर्ति के जेल जाने के बावजूद उन्हें अपनी सदस्यता से न हटाने का फैसला किया। हां, हर्षद वगैरह के जरिए मिले चंदे को मुंह दिखाई के लिए कस्टोडियन के चार्ज में जरूर दे दिया।‘
राजीव गांधी फाउंडेशन पर कोष जमा करने के कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। आज की पीढ़ी को को ये जानने का अधिकार तो है ही कि नब्बे के दश्क में कांग्रेस के शासनकाल में किस तरह से कार्य होता था और किस तरह के आरोप लगते थे। क्या राजीव गांधी फाउंडेशन के कोष जमा करने के तरीकों के खुलासे के बाद ही तो गांधी परिवार और नरसिम्हा राव के रिश्तों में खटास आई। क्या इन सब का ही परिणाम था कि नरसिम्हा राव के निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस के कार्यालय में अंतिम दर्शन के लिए नहीं रखा गया। ये सभी ऐसे प्रश्न हैं जो कांग्रेस और राहुल गांधी को परेशान करते रहेंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
जब से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार सत्ता में आई, तो कुछ ही समय बाद उसने दिखा दिया कि वह देश की सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की ढिलाई देने के मूड में नहीं है।
प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी : पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली।
किसी विचारक का कहना है कि तुम्हारा अच्छे से अच्छा सिद्धांत व्यर्थ है, अगर तुम उसे अमल में नहीं लाते। हमारी सुरक्षा चिंताओं से संबंधित कानूनों की भी एक दशक पहले तक यही स्थिति रही है। वर्ष 1947 में तैयार राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को अभी तक ठीक से परिभाषित नहीं किया जा सका है, वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 सुरक्षा से ज्यादा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल के लिए ज्यादा जाना जाता रहा है।
देश को भीतरी-बाहरी खतरों से सुरक्षित रखने के लिए बने ऐसे तमाम कानून कभी उन उद्देश्यों की पूर्ति में सफल नहीं हो पाए, जिनके लिए उनका निर्माण किया गया था। इसके पीछे ईमानदार प्रयासों की कमी रही हो या इच्छाशक्ति की, या फिर दोनों की, देश ने आजादी के बाद के छह दशकों में बहुत कुछ सहा है। सीमाओं के भीतर भी और सीमाओं पर भी।
संकल्पशक्ति से उपजे फैसले
बारह साल पहले, जब से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार सत्ता में आई, तो कुछ ही समय बाद उसने दिखा दिया कि वह देश की सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की ढिलाई देने के मूड में नहीं है। इस क्रम में वर्ष 2018 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में शीर्ष स्तरीय रक्षा योजना समिति (डीपीसी) का गठन एक अच्छी शुरुआत रही है। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाने के लिए गठित किया गया था। भारत सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के अलावा डीपीसी के प्रमुख उद्देश्यों में क्षमता संवर्द्धन योजना का विकास, रक्षा रणनीति से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर काम करना और भारत में रक्षा उत्पादन ईकोसिस्टम को उन्नत बनाना आदि शामिल हैं।
एक राष्ट्र का सम्मान, प्रभुत्व और शक्ति इसमें निहित है कि वह भीतरी और बाहरी चुनौतियों से निपटने में कितना सक्षम है और किसी भी संभावित खतरे से कितना सुरक्षित है। महान कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने एक राष्ट्र की सम्प्रभुता के लिए खतरा साबित होने वाली इन चुनौतियों की चार श्रेणियां निर्धारित की थीं। भीतरी खतरे, बाहरी खतरे, बाहरी सहायता से पनपने वाले भीतरी खतरे और भीतर से सहायता पाकर मजबूत होने वाले बाहरी खतरे। लगभग यही खतरे आज भी नक्सलवाद, अलगाववाद, सीमा पर चलने वाली चीनी-पाकिस्तानी गतिविधियों, आतंकवाद, स्लीपर सेल आदि के रूप में सिर उठाते रहते हैं।
नए दौर में इनके अलावा भी और कई सुरक्षा चुनौतियां हैं, जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित हैं। इनमें आर्थिक सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, साइबर सुरक्षा जैसे और भी कई मुद्दे शामिल हो चुके हैं, जिनके तार भीतर ही भीतर एक-दूसरे से जुड़े हैं।
2014 में भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक जबरदस्त बदलाव हुआ और देश को एक मजबूत इरादों वाली मजबूत सरकार मिली, जिसका नेतृत्व 21वीं सदी के विश्व के सबसे शक्तिशाली नेताओं में से एक श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा किया जा रहा था। और फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में देश में चीजें तेजी से बदलना शुरू हुईं।
प्रधानमंत्री जी की दूरर्शिता और अथक प्रयासों के नतीजे हम लगभग हर क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तनों के रूप में देख रहे हैं। अगर हम एक दशक पहले की परिस्थितियों से तुलना करें तो आज भारत की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले तमाम तत्व नि:शक्त और सहमे-सहमे से नजर आते हैं। आतंकवाद और सीमापार से होने वाली राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब मिला है, तो देश के भीतर चलने वाली नक्सलवादी/ वामसमर्थित अलगाववादी गतिविधियों पर भी लगाम लगी है।
यही नहीं, पूर्ववर्ती सरकारों की गलत नीतियों और उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण देश के विभिन्न भागों, खासकर कुछ पूर्वोत्तर राज्यों, के भीतर दशकों से पनप रहे असंतोष के स्वरों को भी शांतिपूर्ण और स्वीकार्य उपायों से समाधान उपलब्ध कराने में हमें उल्लेखनीय सफलता मिली है।
सही समय पर सही फैसले
इसका पूरा श्रेय जाता है हमारे कुशल, सक्षम और दूरदर्शी नेतृत्व को, जिसमें सही समय पर सही फैसले लेने की सामर्थ्य ही नहीं, बल्कि उन्हें पूरी दृढ़ता के साथ लागू करने की इच्छाशक्ति भी मौजूद है। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सुरक्षा हितों पर प्रतिकूल असर डालने वाली एकतरफा कार्रवाईयों के विरुद्ध मजबूती से खड़े होने का मामला हो या शक्ति संतुलनों के नए समीकरणों में भारत के प्रति मानसिकता और पुरातन सोच में बदलाव लाने का।
आज न सिर्फ हम एकध्रुवीय दुनिया में अपने हितों की रक्षा में सफल रहे हैं, बल्कि पूरा विश्व, इस तेजी से बदलती व्यवस्था में भारत की नई सशक्त और निर्णायक भूमिका को स्वीकार कर रहा है। भारत की भीतरी मजबूती और सुरक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी सख्ती और जीरो टॉलरेंस अप्रोच के साथ हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की 'सॉफ्ट स्टेट' वाली छवि को तोड़ने में सफल रहे हैं।
रणनीतिक स्पष्टता और त्वरित निर्णय लेने की सामर्थ्य के साथ, भारत ने सिर्फ सैन्य मोर्चे पर ही अपनी मजबूती और बढ़त बनाई है, बल्कि वर्तमान और भावी सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए भी भरपूर तैयारियॉं की हैं। इनमें इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, क्षमता निर्माण आदि शामिल है। राष्ट्रीय हित में राजनीति से ऊपर उठकर हमने निष्पक्ष पेशेवरों और विशेषज्ञों की मदद से योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन किया है।
इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल कर विकास को गति देने के लिए हमने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना आरंभ की, जिसके अंतर्गत 2019-20 के दौरान 11,400 किमी सड़कें बनाई गईं और सीमावर्ती क्षेत्रों में छह पुलों का उद्घाटन किया गया। इसके अलावा नागरिक-सैन्य सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए दोहरे इस्तेमाल वाला इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया गया। रक्षा मंत्रालय और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के समन्वय से चिन्हित राजमार्गों के 29 हिस्सों को आपात एयरवे के रूप में इस्तेमाल किए जा सकने योग्य बनाया। 30 सैन्य हवाई क्षेत्रों में सात एडवांस लैंडिंग ग्राउंड तैयार किए गए।
इसी प्रकार स्वतंत्र और समन्वित राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र का विकास और एक इंटेलीजेंस ग्रिड का निर्माण कर हमने अपने इंटेलीजेंस आधारित अभियानों में तेजी लाई है। आज आशंकाओं को वास्तविकता में बदलने से पहले , सूचना मिलते ही तुरंत उन पर कार्रवाई की जाती है। सुरक्षा एजेंसियों में बेहतर तालमेल, सुव्यवस्थित सुधारों और कैपेसिटी बिल्डिंग के माध्यम से आतंकवाद से निपटा गया है।
अगर हम श्री मोदी के देश की बागडोर संभालने से पहले के दस सालों की बात करें, तो पाएंगे कि वर्ष 2004 से 2014 के बीच देश में 25 बड़े आतंकवादी हमले हुए, जिनमें एक हजार से अधिक मौतें हुईं और करीब तीन हजार लोग घायल हुए। लेकिन, 2014 के बाद से नागरिक क्षेत्रों में कोई भी बडी आतंकवादी वारदात नहीं हुई है।
नेटवर्क पर प्रहार, वित्तीय स्रोतों का सफाया
देश भर में अभियान चलाकर सौ से अधिक आतंकवादियों को पकड़ा गया। उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने वाले संस्थानों पर रोक लगाई गई और देश में भारत विरोधी गतिविधियां चला रहे सिमी, जेएमबी, एसएफजे, इस्लामिक फ्रंट और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों के वित्तीय स्रोत खत्म कर उनकी रीढ़ तोड़ी गई। इसके अलावा मित्र देशों के समर्थन का विस्तार करते हुए इन संगठनों के नेटवर्क पर प्रहार कर इसे कमजोर किया गया।
यह हमारे खुफिया तंत्र की एक बड़ी सफलता थी कि हमने अलकायदा मॉड्यूल को समय रहते पहचान कर, भारत में उसकी जड़ें जमने ही नहीं दीं। सेना को स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गई तो उनका मनोबल बढ़ा और उनके अभियानों में तेजी आई।
इसी क्रम में केंद्रीय बलों और राज्य पुलिस के बीच बेहतर इंटेलीजेंस बेस्ड कोऑर्डिनेशन स्थापित कर वामपंथ समर्थित अतिवादियों और भारत विरोधी प्रोपगंडा चला रहे अर्बन नक्सलियों के विरुद्ध सैन्य व वैचारिक अभियान चलाकर उनके हौसले पस्त किए गए और प्रोपेगंडा को कमजोर करने के लिए प्रभावित क्षेत्रों में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विस्तार कर उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया गया।
अशांत पूर्वोत्तर राज्यों में 2019 में त्रिपुरा समझौता, जनवरी 2020 में त्रिपुरा-मिजोरम सीमा विवाद का निपटारा, इसी साल असम समझौता कर और मेघालय व अरुणाचल प्रदेश के कुछ जिलों में अफसा हटाकर वहॉं शांति स्थापित की गई।
अगर हम सीमाओं की सुरक्षा की बात करें तो हमने चीन और पाकिस्तान जैसे हमारे पारंपरिक विरोधियों को कूटनीतिक, सामरिक और आर्थिक मोर्चे पर कड़ी चोट दी है। 2016 में उरी अटैक के बाद पीओके में हमारी सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के पुलवामा अटैक के बाद हमारी बालाकोट एयर स्ट्राइक की जवाबी कार्रवाई के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गया कि यह भारत वह भारत नहीं है, जो उसकी परमाणु बम की गीदड़ भभकी से डरकर, सख्ती से परहेज बरतता था।
इसी प्रकार 2014 में एलएसी पर चीन की भड़काऊ गतिविधियों और 2017 में डोकलम में 1500 चीनी सैनिकों की घुसपैठ जैसी चुनौतियों से निपटने में भी हमने भरपूर राजनीतिक इच्छाशक्ति और कूटनीतिक सामर्थ्य का परिचय दिया। यही वजह थी कि चीन को बैकफुट पर आना पड़ा।
रक्षा सुधारों और अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से बढ़ी ताकत
हमारी इस बढ़ती ताकत और प्रभाव के पीछे हमारे अंतरराष्ट्रीय प्रयासों और रक्षा क्षेत्र में किए गए सुधारों की भी एक अहम भूमिका रही है। हमने ब्रिटेन, अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्रों के साथ सामरिक भागीदारी कर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा दिया है। चीन की विस्तारवादी गतिविधियों से निपटने में भूटान की सहायता की है, बांग्लादेश से संबंध सुधारने की दिशा में आगे बढ़ते हुए लंबे समय से लटके सीमा विवाद को निपटाया है।
रक्षा क्षेत्र को और मजबूत व चुस्त बनाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय का पुनर्गठन कर भूमिकाओं और कार्यों का व्यावहारिक आवंटन कर इन्हें संस्थागत रूप प्रदान किया गया है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, नवाचार, समुद्री सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन जैसे अपारपंरिक सुरक्षा क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तनों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इससे बाहरी, आंतरिक, खुफिया, साइबर और सैन्य कार्रवाईयों से संबंधित तंत्र व संरचानाओं को मजबूती मिलेगी।
ये कुछ बानगियां हैं, उन असंख्य बदलावों की, जो हमने पिछले एक दशक में घटते देखे हैं। इन्हीं का नतीजा है कि नया भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया है, जो अपनी सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं करता और चुनौतियां चाहें भीतरी हों या बाहरी, उनका कठोर जवाब देने में समर्थ है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )