प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए कहा कि वंचितों की सेवा करने के उनके मिशन का अनुकरण करना महत्वपूर्ण है।
आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, स्तम्भकार, वरिष्ठ पत्रकार ।
जी-20 देशों के दिल्ली शिखर सम्मेलन से दुनिया को विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग और विकास के रास्ते खुल रहे हैं, वहीं भारत और इसकी राजनीति पर दूरगामी असर रहने वाला है। खासकर अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्व में प्रतिष्ठा की छवि तथा आर्थिक विकास के लिए अनेक देशों से समझौते से सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी को लाभ मिल सकता है। पाकिस्तान और चीन भी अब दुनिया के दबाव में रहेंगे और भारत विरोधी उनकी गतिविधियों पर अंकुश लग सकेगा। वैश्विक मंच पर भारत की भूमिका लगातार बढ़ रही है और भारत-अमेरिका संबंध परिणामी रिश्तों में से एक हैं। अमेरिका, यूरोप, आसियान, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के देश भारत द्वारा विश्व में शांति, पर्यावरण संरक्षण, स्वास्थ्य रक्षा आदि मानव कल्याण के कार्यक्रमों के लिए सहमत हुए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय कूटनीति की सबसे बड़ी उपलब्धी यह है कि जी - 20 सम्मलेन में अमेरिका , यूरोप के साथ रुस और चीन को किसी भी देश द्वारा परमाणु हथियारों की धमकी न देने, किसी देश की सम्प्रभुता का अतिक्रमण न करने और आतंकवाद के कड़े विरोध का घोषणा पत्र जारी करवा दिया। इसके साथ ही यूक्रेन की युद्ध की स्थिति पर चिंता और शांति पर जोर दिया गया, लेकिन आक्रामक रुस के नाम तक का जिक्र नहीं किया गया। यह मोदी जयशंकर की चतुर राजनयिक क्षमता का परिणाम है। इससे रुस यूक्रेन के बीच शांति प्रयासों में भी सहायता मिल सकती है। दूसरी तरफ भारत पश्चिम एशिया मध्य पूर्व , यूरोप , जर्मनी , इटली और अमेरिका के बीच आर्थिक कॉरिडोर के ऐतिहासिक निर्णय की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने की। इससे समुद्री, वायु और थल मार्गों से विश्व व्यापार का नया अध्याय प्रारम्भ शुरू हो सकेगा। यह चीन द्वारा पाकिस्तान, श्रीलंका , म्यांमार के रास्ते यूरोप की तरफ आर्थिक कॉरिडोर मार्ग के प्रयास का करारा जवाब है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए कहा कि वंचितों, समाज के अंतिम छोर पर खड़े लोगों की सेवा करने के उनके मिशन का अनुकरण करना महत्वपूर्ण है। उन्होंने प्रगति के मानव केंद्रित तरीके पर भारत के जोर को भी रेखांकित किया। श्री मोदी ने कहा, ‘‘हम सतत भविष्य के लिए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी), हरित विकास समझौते की प्रगति में तेजी लाना चाहते हैं और 21वीं सदी के लिए बहुपक्षीय संस्थानों को मजबूत करना चाहते हैं। हम तकनीकी परिवर्तन और डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचे जैसे भविष्य के क्षेत्रों को अत्यधिक प्राथमिकता देते हैं। हम लैंगिक समानता, महिला सशक्तिकरण और विश्व शांति सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक रूप से काम करेंगे। जहां भारत को इस विभाजित दुनिया में अग्रणी भूमिका निभाना है, जिसकी लंबे समय तक छाप छोड़ना भी एक मूलभूत उद्देश्य है। साथ ही विकासशील देशों के सरोकारों को आगे बढ़ाना और उनके मुद्दों को प्राथमिकता से रखना भी भारत की जिम्मेदारी है।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने तो इस यात्रा के दौरान अपने हिंदू होने पर गर्व होने का भी जिक्र किया और यह भी कहा कि वह चरमपंथ को बर्दाश्त नहीं करेंगे, जी-20 पर भारत की थीम 'वसुधैव कुटुंबकम' को लेकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने कहा, "मुझे लगता है कि यह एक बेहतरीन विषय है। जब आप 'एक परिवार' कहते हैं तो मैं उस अविश्वसनीय जीवंत पुल का उदाहरण हूं, जिसका वर्णन प्रधानमंत्री मोदी ने यूके और भारत के बीच किया है- यूके में मेरे जैसे लगभग 20 लाख भारतीय मूल के हैं। इसलिए, ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में उस देश में रहना मेरे लिए बहुत खास है जहां से मेरा परिवार है। " उनका यह सन्देश भारत के विपक्षी दलों के लिए भी महत्वपूर्ण संदेश है।
ऋषि सुनक ने कहा, "जी-20 भारत के लिए एक बड़ी सफलता रही है। भारत इसकी मेजबानी के लिए सही समय पर सही देश है। प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने कहा, "मोदी जी और मैं दोनों हमारे दोनों देशों के बीच एक व्यापक और महत्वाकांक्षी व्यापार समझौते को पूरा होते देखना चाहते हैं। व्यापार सौदों में हमेशा समय लगता है, उन्हें दोनों देशों के लिए काम करने की आवश्यकता होती है। हालांकि, हमने काफी प्रगति की है, लेकिन अभी भी कड़ी मेहनत बाकी है। खलिस्तान मुद्दे पर ऋषि सुनक ने यह विश्वास दिलाया कि मैं, इसे बर्दाश्त नहीं करूंगा। यह वास्तव में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है और मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि यूके में किसी भी प्रकार का उग्रवाद या हिंसा स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए हम विशेष रूप से खालिस्तान समर्थक उग्रवाद से निपटने के लिए भारत सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं।
उन्होंने कहा, ''हमारे सुरक्षा मंत्री हाल ही में भारत में अपने समकक्षों से बात कर रहे थे. हमारे पास खुफिया जानकारी और जानकारी साझा करने के लिए एक साथ कार्य करने वाले समूह हैं, जिससे हम इस तरह के हिंसक उग्रवाद को जड़ से खत्म कर सकें। यह सही नहीं है और मैं इसे यूके में बर्दाश्त नहीं करूंगा। '' यह सन्देश कनाडा और अमेरिका में भी सक्रिय आतंकी खालिस्तानी तत्वों पर अंकुश लगाने का सन्देश भी है। क्षेत्रीय- वैश्विक स्तर पर दक्षिण एशिया का अगुआ देश भारत ही है। इस वजह से दक्षिण एशिया के बाकी देशों के हितों को (जो जी20 का हिस्सा नहीं है) आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी भारत की ही है। पूरी दुनिया में भारत के नाम का डंका बज रहा है।
सिर्फ भारत को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को भी भारत की जरूरत है। ऐसे में दुनिया भर में भारत की बढ़ती हैसियत की घरेलू माहौल में पुष्टि करना भी एक बड़ी जिम्मेदारी है। भारत अपनी पूरी ताकत के साथ दुनिया के प्रमुख 20 देशों का नेतृत्व कर रहा है। भारत से जलवायु परिवर्तन और सतत विकास पर चर्चा का नेतृत्व करने की जो उम्मीद विश्व ने रखी , भारत उस पर खरा उतरा है। इस साल जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत के कई राज्य जैसे- हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड में भारी तबाही मची है। इसमें जान-माल का काफी नुकसान हुआ है। भारत के अलावा कई और देश भी जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। भारत का ध्यान विकासशील देशों को उनके जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए विकसित देशों की आवश्यकता पर केंद्रित करने पर है।
भारत दुनिया के लिए एक देश के साथ एक बड़ा बाजार है, जहां अपनी दुकान लगाने के लिए बाकी देशों में होड़ मची हुई है। इसी का नतीजा है कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। भारत ने विकास को बढ़ावा देने के लिए हाल के वर्षों में आर्थिक सुधारों की एक श्रृंखला लागू की है। दुनिया के सभी देशों को इसका फायदा मिल सके इसके लिए भारत वित्तीय विनियमन के क्षेत्र में सदस्य देशों के बीच अधिक समन्वय के लिए जोर दे रहा है और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के उपायों की मांग को मजबूत कर रहा है। दुनिया की आधी आबादी के पास डिजिटल सुविधाएं नहीं हैं और भारत डिजिटल अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख खिलाड़ी है, सम्मेलन में भारत से टेक्नोलॉजी और डिजिटल अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सदस्य देशों के बीच अधिक सहयोग पर जोर दिया गया है। भारत जन धन-आधार-मोबाइल के जरिए अपने समावेशी डिजिटल क्रांति की विशेषता का लाभ भी दूसरों को दे सकता है। यूपीआई पेमेंट सिस्टम इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। इससे अमेरिका यूरोप के नेता और अन्य अधिकारी भी चकित हुए हैं।
भारत को आजाद हुए 76 साल हो चुके हैं। इस दौरान देश ने कई उपलब्धियां हासिल की है। हम आज कई क्षेत्रों में टॉप-5 में हैं, कई में टॉप-3 तो कुछ जगहों पर टॉप पर हैं। इसके बावजूद भारत को विकासशील देशों में गिना जाता है। इसलिए जी20 एक ऐसा फोरम है जहां भारत अपनी श्रेष्ठता को और बेहतर ढंग से बता सका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी लक्ष्य है कि जब देश आजादी के 100 साल मना रहा होगा, तब 2047 में भारत एक विकसित राष्ट्र होगा। दुनिया को बताने की जरूरत है कि भारत दुनिया का वैश्विक नेता बनने के लिए पूरी तरह तैयार है। भारत ने समय-समय पर दिखाया है कि विकसित देश उन्नत संसाधनों के बावजूद वो मुकाम हासिल नहीं कर पाते, जो भारत अपने सीमित संसाधनों के साथ कर लेता है।
चाहे मंगलयान हो या कोविड जैसी महामारी में 140 करोड़ देशवासियों की रक्षा करना या फिर चंद्रयान-3 हर मामले में भारत औरो से बेहतर है। दुनिया के अन्य देश भी अगर भारत के साथ मिलकर काम करेंगे तो मानव समाज की उन्नति और पृथ्वी संरक्षण के प्रयास में तेजी लाई जा सकती है। जी20 में 19 देश- भारत, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, इटली, जापान, कोरिया गणराज्य, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, तुर्किये, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ शामिल रहे। अब भारत के प्रयासों और नेतृत्व से अफ़्रीकी यूनियन को जी - 20 का सदस्य बना लिया गया। यह ऐतिहासिक निर्णय भारत की ताकत बढ़ाएगा।
हर साल अध्यक्ष देश कुछ देशों और संगठनों को मेहमान के तौर पर भी आमंत्रित करता है। इस बार भारत ने बांग्लादेश, मिस्र , मॉरीशिस, नीदरलैंड, नाइजीरिया, ओमान, सिंगापुर, स्पेन और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) को मेहमान के तौर पर बुलाया। वहीं नियमित अंतर्राष्ट्रीय संगठनों (यूएन, आईएमएफ, डब्ल्यूबी, डब्ल्यूएचओ, डब्ल्यूटीओ, आईएलओ, एफएसबी और ओईसीडी) और क्षेत्रीय संगठनों (एयू, एयूडीए-एनईपीएडी और आसियान) की पीठों के अलावा जी20 के अध्यक्ष के रूप में भारत की ओर से आईएसए, सीडीआरआई और एडीबी को अतिथि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के रूप में आमंत्रित किया गया। दुनिया भर के आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन, सतत विकास, स्वास्थ्य, कृषि, ऊर्जा, भ्रष्टाचार-विरोध और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर चर्चा की गई। भारत ने सहमति बनवाई।
भारत में G20 से का सफल आयोजन हुआ और एक भी घोटाले की खबर सामने नहीं आई है। भारत ने पर्यटन को भी खूब बढ़ावा दिया। इन देशों के संस्कृति मंत्रियों की अलग से बैठक हुई। टूरिज्म वर्किंग ग्रुप्स से लेकर फाइनेंस वर्किंग ग्रुप्स तक की बैठकें हुईं। भारत का सबसे हाईटेक कन्वेंशन सेंटर बना कर दिल्ली में तैयार किया गया 123 एकड़ में, लेकिन कहीं कोई विवाद नहीं हुआ। न सिर्फ इसमें कर्नाटक के भगवान बसवेश्वर से प्रेरित होकर इसका नाम ‘भारत मंडपम’ रखा गया, नटराज की प्रतिमा भी स्थापित की गई जो तमिलनाडु के चिदंबरम मंदिर के प्रमुख देवता हैं।
2700 करोड़ रुपए में बने इस परिसर के निर्माण में कहीं कोई घपले को लेकर आरोप तक नहीं लगे। प्रधानमंत्री मोदी ने मजदूरों को सम्मानित किया सो अलग, यहाँ मजदूरों को समस्या वाली कोई बात भी सामने नहीं आई। बड़ी बात ये है कि जिस कॉमनवेल्थ गेम्स में देश की छवि बिगड़ी थी, आज उसी कॉमनवेल्थ की सेक्रेटरी पैट्रिका स्कॉटलैंड G20 समिट के समय भारत की तारीफ की। उनका कहना है कि इससे वैश्विक चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी। यही नहीं, उन्होंने ISRO के ‘चंद्रयान 3’ और ‘आदित्य एल1’ मिशन की भी प्रशंसा की। साथ ही डिजिटल क्रांति को लेकर भी भारत की वो कायल हैं। उन्होंने कहा कि भारत अभूतपूर्व सफलता प्राप्त कर रहा है।
किसी भी देश को जब किसी अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम की मेजबानी मिलती है तो उसके बाद मौका होता है अपनी ताकत दिखाने का, अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार का और अपने यहाँ चल रही जन-कल्याणकारी योजनाओं से दुनिया को सीख देने का। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की G20 अध्यक्षता का इस्तेमाल ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ को बढ़ावा देने के लिए किया । भारत ने ग्रीन डेवलपमेंट से लेकर महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास को अपनी G20 अध्यक्षता की प्राथमिकताओं में गिनाया ।भारत अपने पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान दोनों की गैर जरूरी नाराजगी की कोई परवाह नहीं करता। देश की एकता, अखंड़ता और इसकी संप्रभुता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। भारत न तो दबता है, न झुकता है। अपने रास्ते पर चलता रहता है। उन्होंने इसी प्रतिबद्धता के साथ जी-20 का नारा वसुधैव कुटुम्बकम् पर भी अपना पक्ष रखा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
एक बलात्कारी बाबा कुछ महीनों में 12 बार पैरोल पर बाहर आ जाता है, क्या ये कानून का मज़ाक नहीं है। एक नेता का दूधमुंहा बच्चा किस काबिलियत पर स्टेट क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बन जाता है।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
ये देखकर सच में बड़ी हैरानी होती है कि एक देश के तौर पर हममें पहचान का इतना संकट क्यों है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि एक तरफ हम इस बात में भी गौरव तलाशते हैं कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। एशिया में हम ही चीन को चुनौती दे सकते हैं। एक हम ही हैं जो ट्रंप के टैरिफ के दबाव में नहीं झुके। दूसरी तरफ हम इस बात के लिए खुद को शाबाशी दे रहे होते हैं कि देखो भारत के बगल में बांग्लादेश से लेकर नेपाल और श्रीलंका में तख्तापलट हो गया लेकिन हमारे यहां कुछ नहीं हुआ।
अगर आपके नाम ओलंपिक और वर्ल्ड रिकॉर्ड है तो आप इस बात पर खुश कैसे हो सकते हैं कि पूरे ज़िले में मेरे से तेज़ कोई नहीं दौड़ सकता। आप इस बात पर कैसे खुश हो सकते हैं कि देखो फलां गांव का बनवारी तो मेरे आगे कहीं नहीं ठहरता। नेपाल में लोकतंत्र का कोई इतिहास नहीं रहा। पाकिस्तान और बांग्लादेश बनने के बाद से वहां आधे वक्त तक सेना की हुकूमत रही है। अब इन देशों में तख्तापलट हो जाना और हमारे यहां न होना हमारे लिए गर्व का विषय कैसे हो गया।
दरअसल इस तरह का झूठा गौरव आत्महीनता से आता है। अंदर से हम भी जानते हैं कि इन देशों जितने न सही लेकिन राजनीति से लेकर लगभग हर क्षेत्र तक हम भी इतने ही भ्रष्ट हैं। सैकड़ों करोड़ की लागत से सालों के इंतज़ार के बाद पुल बनता है और वो एक महीने की बारिश में गड्ढों में तब्दील हो जाता है। इसके बावजूद क्या कभी किसी इंजीनियर या ठेकेदार को सज़ा होते देखी?
एक बलात्कारी बाबा कुछ महीनों में 12 बार पैरोल पर बाहर आ जाता है, क्या ये कानून का मज़ाक नहीं है। एक नेता का दूधमुंहा बच्चा किस काबिलियत पर स्टेट क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बन जाता है, क्या ये भ्रष्टाचार नहीं है। एक नेता देश की सबसे मुश्किल परीक्षा पास करके पुलिस अधिकारी बनी महिला से गुंडों की ज़बान में बात करता है, क्या ये देश के टैलेंट का मज़ाक नहीं है।
चारों तरफ लोग बाढ़ के पानी में डूबकर मर रहे हैं। हर तरफ सड़क पर आवारा जानवर घूम रहे हैं। प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की पॉकेट से बाहर है। सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने से अच्छा आदमी चाय में फिनाइल घोलकर पी ले। इस पर भी एक मुल्क की गैरत नहीं ललकारती। चीजें ज्यों की त्यों बनी रहती हैं, तो इसलिए नहीं कि हम बड़े सहिष्णु हैं। इस देश की जड़ें बहुत मज़बूत हैं। वो इसलिए क्योंकि ये देश भाग्यवादी है। सड़क हादसे में आदमी इसलिए नहीं मरता कि ये उसकी नियति थी। वो इसलिए मरता है क्योंकि रात के अंधेरे में उसकी बाइक सड़क के बीचों-बीच बने गड्ढे से जा टकराई थी।
मरने वाले के परिवारवाले इसे ईश्वर की मर्ज़ी मानकर संतोष कर लेते हैं। व्यवस्था में बैठे लोगों के शरीर में शर्म का रसायन बनना बंद हो चुका है। जो लोग इस हादसे का हिस्सा नहीं हैं उनके लिए ये लोकल एडिशन के तीसरे पेज के किसी आखिरी कोने में छपी ख़बर है। इसके बावजूद हालात इसलिए नहीं बदलते क्योंकि हर कोई अपने-अपने हिस्से का भारत खाने में लगा है।
नेता और ब्यूरोक्रेसी को मोटे तौर पर देश से इसलिए लेना-देना नहीं क्योंकि वो इस देश में किराएदार की तरह रहते हैं। जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं, जो छुट्टियां विदेशों में मनाते हैं, इलाज विदेशों में करते हैं। जो अपने-अपने शहरों के वीआईपी इलाकों में रहते हैं, जहां न कोई पटरियों पर अवैध कब्ज़े होते हैं, न आवारा पशु घूमते हैं। इसलिए जब ये देश झूठा दंभ भरता है कि हम तो इतने ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी हो गए तो ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात का भान ही नहीं कि भाई असल मुद्दा ये है ही नहीं।
एक देश जो अपनी लगभग पूरी आबादी को पीने का साफ पानी नहीं दे पा रहा है, ना साफ हवा दे पा रहा है, ना उसे ट्रांसपोर्ट की चिंता है, न उसे हर साल रोड एक्सीडेंट्स में मरने वाले लोगों की फिक्र है। जहां खाने की एक भी चीज़ बिना मिलावट के नहीं मिलती, वो देश जब बार-बार अपने उभरने की, अपने विश्व शक्ति बनने की बात करता है तो इससे बड़ी निर्लज्जता और कुछ नहीं हो सकती। मगर हम ऐसे निर्लज्ज बन गए हैं जो दूसरों की बदहाली से खुद की तुलना कर अपने लिए महानता तलाशते हैं। जिस बात पर माथा पीटना चाहिए, उस पर ताली बजाते हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
नेपाल के युवाओं का गुस्सा उबाल पर है। इन्हें मीडिया में GenZ कहा जा रहा है। बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता सोशल मीडिया पर बैन लगाये जाने के बाद सड़कों पर उतर आई और तख्तापलट कर दिया।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
नेपाल में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सोशल मीडिया बैन के खिलाफ फूटा जनाक्रोश हिंसक तख्तापलट में बदल गया और दूसरे ही दिन प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा। काठमांडू, पोखरा सहित तमाम शहरों में संसद भवन, प्रधानमंत्री निवास, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट, राजनीतिक दलों के दफ्तरों और बड़े होटलों को भीड़ ने आग के हवाले कर दिया, मंत्रियों और पूर्व पीएम शेर बहादुर देउबा तक को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया और हालात इतने बिगड़े कि काठमांडू अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा बंद करना पड़ा तथा नेताओं को सेना ने हेलीकॉप्टर से सुरक्षित ठिकानों पर पहुंचाया।
सोमवार को पुलिस फायरिंग में 21 युवाओं की मौत और ढाई सौ से ज्यादा के घायल होने से गुस्सा और भड़क गया, मृतकों के सीने पर गोलियां मिलीं और देशभर में आंदोलन "Gen-Z मूवमेंट" के नाम से फैल गया जिसमें 1997 से 2012 के बीच जन्मे डिजिटल युग के युवा शामिल हैं, जो इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय रहते हैं और बेरोजगारी व पलायन जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं।
नेपाल की तीन करोड़ की आबादी में करीब सवा करोड़ सोशल मीडिया अकाउंट्स हैं और विदेशी कमाई देश की GDP का 25% है, इसलिए सोशल मीडिया पर तीन सितंबर को लगाए गए बैन ने युवाओं की नाराज़गी को विस्फोटक रूप दे दिया। गुस्साई भीड़ ने सोशल मीडिया पाबंदी के खिलाफ नहीं बल्कि भ्रष्टाचार, महंगाई और नेताओं की चीनपरस्ती के खिलाफ नारे लगाए और ओली सरकार को जनआक्रोश का सामना करना पड़ा।
नेपाल में पिछले 35 साल में 32 सरकारें बन चुकी हैं और पिछले 10 साल में 9 प्रधानमंत्री बदले हैं, जिससे अस्थिरता और गहरी हुई। ओली पर आरोप था कि वे चीन के दबाव में TikTok को छोड़ बाकी प्लेटफॉर्म्स पर बैन लगाकर नेपाल को बीजिंग के नजदीक ले जा रहे थे, जिससे युवाओं में असंतोष बढ़ा। सरकार के भीतर भी संकट गहराया, गृह मंत्री ने इस्तीफा दिया लेकिन आंदोलन थमा नहीं।
ओली ने अपने त्यागपत्र में राजनीतिक समाधान की बात कही और सर्वदलीय बैठक बुलाने का ऐलान किया, लेकिन जनता का भरोसा टूट चुका है। इस पूरे घटनाक्रम ने भारत को भी सतर्क कर दिया है क्योंकि नेपाल से सीमा और रोटी-बेटी का गहरा रिश्ता है, लिहाज़ा सीमा पर चौकसी बढ़ा दी गई है। यह साफ है कि सोशल मीडिया बैन ने सिर्फ चिंगारी का काम किया, असली आग भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आर्थिक मंदी ने भड़काई, जिसने नेपाल को सबसे बड़े जनआंदोलन और सत्ता परिवर्तन की ओर धकेल दिया।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
GST जुलाई 2017 से लागू हुआ था। इस बार प्रचार ऐसे हो रहा है कि पहली बार कटौती हुई है। जबकि पहली बार कटौती नवंबर 2017 में हुई थी। क़रीब 175 चीज़ों को 28% से हटाकर 18% में लाया गया था।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) काउंसिल ने रेट कटौती पर मुहर लगा दी है।अब ज़्यादातर सामान और सर्विस 5% और 18% के दायरे में होंगी। केंद्र सरकार को उम्मीद है कि इससे महंगाई कम होगी, लोग ज़्यादा ख़रीददारी करेंगे, अमेरिका के टैरिफ़ की भरपाई होगी और अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी। इसके पीछे भरोसा है कि कंपनियाँ या दुकानदार टैक्स कटौती का फ़ायदा अपनी जेब में नहीं रखेंगे, बल्कि ग्राहकों को सस्ता बेचेंगे।
अब चर्चा इस बात पर है कि क्या सरकार कंपनियों को क़ाबू में रख पाएगी? GST जुलाई 2017 से लागू हुआ था। इस बार प्रचार ऐसे हो रहा है कि पहली बार कटौती हुई है। जबकि पहली बार कटौती नवंबर 2017 में हुई थी। क़रीब 175 चीज़ों को 28% से हटाकर 18% में लाया गया था। केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस आयजेक ने कहा है कि 2018 में GST का औसत रेट 15% से घटाकर 12% पर लाया गया, लेकिन फ़ायदा लोगों को नहीं मिला।
केरल सरकार ने 25 कंपनियों का अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि रेट कट का फ़ायदा कंपनियों ने अपनी जेब में रख लिया। 2017 में GST लागू हुआ तो कानून में दो साल के लिए National Anti Profiteering Agency (NAA) बनाई गई थी। इसका काम था यह देखना कि कंपनियाँ बेमानी तो नहीं कर रही हैं।NAA ने हिंदुस्तान यूनिलीवर, P&G, Domino’s, KFC, Pizza Hut, Samsung जैसी बड़ी कंपनियों की जाँच की।
उन पर आरोप लगे कि टैक्स कट का फ़ायदा ग्राहकों तक नहीं पहुंचाया। हिंदुस्तान यूनिलीवर, Samsung और Domino’s पर तो जुर्माना भी लगाया गया। यह एजेंसी अब अस्तित्व में नहीं है। केंद्र सरकार ने कहा है कि वो सेंट्रल बोर्ड ऑफ इनडायरेक्ट टैक्स एंड कस्टम (CBIC) के ज़रिए कंपनियों पर एक डेढ़ महीने नज़र रखेगी।
बात सिर्फ़ सरकार की नहीं है, बाज़ार को भी कंपनियों पर पूरा भरोसा नहीं है। मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट कहती है कि रेट कट का फ़ायदा ग्राहकों तक कितना पहुँचेगा, इस पर संदेह है। अन्य ब्रोकरेज फर्म का अनुमान है कि FMCG, White Goods और ऑटो कंपनियाँ अपने मार्जिन को बेहतर करने के लिए शायद टैक्स कट का कुछ हिस्सा अपने पास रख लें। सीमेंट कंपनियों को लेकर भी यही आशंका है। यह आशंका सही साबित हुई तो सरकार की कोशिश पर पानी फिर जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हिंदी साहित्य पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े के पीठ पर मेढक लादने से की गई। समय समय पर हिंदी के लेखकों ने इस खतरे के विरुद्ध आवाज उठाई पर उन आवाजों को दबा दिया गया।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले महीने स्वाधीनता दिवस के आसपास झारखंड से कवि चेतन कश्यप ने अमृलाल नागर का एक आलोचक को लिखे पत्र, जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है, का स्क्रीनन शाट भेजा। पुस्तक का नाम है मैं पढ़ा जा चुका पत्र। अमृतलाल नागर उस पत्र में लिखते हैं, तुम सौ फीसदी मार्क्सिस्टों को राम-राम कहने से मुझे बहुत आनंद लाभ होता है। प्रियवर रामविलास जी से तो जै बजरंगबली तक हो जाती है इसलिए तुम सबको सस्नेह राम-राम। तब इस पत्र पर चेतन से चर्चा हुई और कुछ अन्य साहित्यिक विषयों पर भी। बात आई गई हो गई।
अभी अचानक एक मित्र ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सर्जक मन का पाठ’ के कुछ अंश भेजे। ये पुस्तक वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द मिश्र को साहित्यकारों ने के लिखे पत्रों का संकलन है। इसका जो अंश मुझे मिला वो अमृतलाल नागर के पत्र की तरह ही दिलचस्प है। शैलेश मटियानी ने गोविन्द मिश्र को लिखा, आपने साहित्य द्वारा आत्मिक से साक्षात्कार का प्रश्न भी कुछ विस्तार से लिया है, क्योंकि यही साहित्य का कर्म रहा है।
जैसे भौतिक विज्ञान वाह्य जगत, वैसे ही अन्त:विज्ञान भीतरी संसार को प्रतिस्थापित करता है। हम सब जानते हैं कि मनुष्य के भीतर का विस्तार बाह्य जगत के विस्तार से तिल भर भी कम नहीं है। क्योंकि शून्य मनुष्य का भी उतना ही अपरिचित है जितना कि पृथ्वी का। यहीं प्रश्न वह उठाया है कि चूंकि विचारधाराएं सिर्फ राज्य का माडल बनाती हैं लेकिन साहित्य समाज का माडल, इसलिए ही दृष्टि का अंतर पड़ जाता है।‘ अपनी इस टिप्पणी में शैलेश मटियानी ने विचारधारा की सीमाओं को स्पष्ट किया है।
शैलेश मटियानी की आगे की टिप्पणी से स्पष्ट होता है कि वो मार्क्सवाद से झुब्ध थे। आलोचकों और लेखक संगठनों द्वारा मार्क्सवाद को हिंदी साहित्य पर लादे जाने को लेकर भी कठोर टिप्पणी करते हैं। वो लिखते हैं कि मार्क्सवाद को जिस तरह से हिंदी साहित्य पर लादा जा रहा है, इससे ही कोफ्त हुई और थोड़ी सी छेड़खानी इसी निमित्त की है, क्योंकि मार्क्सवाद को साहित्य पर लादना घोड़े की पीठ पर मेढ़क को लादना है। मैं साहित्य के सामने मार्क्सवाद की कोई हैसियत नहीं समझता। मनुष्य के लिए जितनी जगह और जितना विस्तार साहित्य में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।
आपसे बहुत ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि लेखक होने का अहसास ध्वस्त हो चुका है और इसलिए अब लात-जूता खाने का डर नहीं रहा। खोपड़ी-भंजन अब इसलिए भी सुहाने लगा है कि शायद इसके बाद कुछ लेखक हो सकने की गुंजाइश निकल आए, क्योंकि वो जड़ता को कुछ तोड़ने की कोशिश में ही है। खुद पर हंसना आना चाहिए, इस कथन का मर्म आज समझ में आ रहा है और खुद की लकड़बुद्धि पर कई बार मुझे ठहाका लगाने का मन होता है।‘ उन्होंने जिस तरह से लेखकों पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े पर मेढ़क लादने की कोशिश से की है उससे ये स्पष्ट होता है कि वो मानते हैं कि लेखकों पर मार्क्सवाद थोपना कितना कठिन कार्य था।
बावजूद इसके मार्कसवादी आलोचकों और लेखक संगठनों ने ये प्रयास तो किया ही। लेखकों पर भले ही मार्क्सवाद नही लाद पाए हों पर हिंदी साहित्य और अकादमिक जगत में उनको सफलता मिली। मार्क्सवाद रूपी मेढ़क को अकादमिक जगत रूपी घोड़े पर लादने में कम्युनिस्ट सफल रहे। उन्होंने वैचारिक रूप से कुछ ऐसे मेढ़क तैयार कर दिए जो घोडे की पीठ पर बैठकर भी यात्रा कर पा रहा है। ये कोई हुनर नहीं है बल्कि मेढ़क को निष्क्रिय करके घोड़े की पीठ पर लाद दिया गया। उसको उसी अवस्था में सबकुछ मिलता रहा और वो सर्वाइव करता रहा।
अब एक तीसरा उदाहरण आपसे समक्ष रखता हूं। ये उदाहरण भी एक पुस्तक से है जिसको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने फेसबुक पर पोस्ट किया है। ये पुस्तक है देसी पल्प फिक्शन पर केंद्रित बेगमपुल से दरियागंज। उसके उस अंश को देख लेते हैं जो अनुपम जी ने साझा किया, कांबोज के दोस्त सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का सिलसिला तबतक चल निकला था।
पाठक जी याद करते हैं, 1970 तक शर्मा जी के प्रकाशन ‘जनप्रिय’ के यहां से लोकप्रिय सीरीज ते तहत उनके उपन्यासों का स्कोर ग्यारह तक पहुंच गया था जिनमें से तीन- अरब में हंगामा, आपरेशन जारहाजा पोर्ट और आपरेशन पीकिंग- जेम्स बांड सीरीज के थे जो कि शर्मा जी के बेटे महेन्द्र के अनुरोध पर लिखे गए थे। आरती पाकेट बुकस के लेटरहेड पर उसी साल अगस्त में उन्हें शर्मा जी के तीसरे पुत्र सुरेन्द्र के दस्तखत से एक चिट्ठी मिली, पिताजी के आदेशानुसार हम निकट भविष्य में आपके उन उपन्यासों को प्रकाशित करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं जो रूस विरोध एवं कम्युनिस्ट विरोधी हों।
यानि के चार जेम्स बांड उपन्यास के बाद वहां चेतना जागृत हुई कि ये उपन्यास रूस विरोधी होते हैं। शायद रूस और कम्युनिज्म से प्रेम का ट्रेड यूनियन काल वहां दस्तक दे रहा था।‘ इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि किस तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक और प्रकाशक रूस और कम्युनिस्ट विरोध के नाम पर रचनात्मकता को बाधित करते थे, करते रहे और अब भी कर रहे हैं। अब भी प्रकाशन जगत में खुलापन नहीं आया। एक बडा प्रकाशक अब भी कम्युनिस्टों को प्रश्रय देता है। कमीशन करके कम्युनिस्टों से पुस्तकें लिखवाता है। ये सब वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दिन रात छाती कूटते रहते हैं। लेकिन जब अवसर मिलता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।
उपरोक्त तीन उदाहरणों से स्पष्ट है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म को लेकर बहुत संगठित और योजनाबद्ध तरीके से साहित्य जगत में कार्य हुआ। लेखन हो, आलोचना हो, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो, पुस्तकों का प्रकाशन हो, पुस्तकों की सरकारी खरीद हो, अकादमिक जगत हो, अकादमियां हों हर जगह अपनी विचारधारा के लोग फिट किए गए।
नामवर जी जब राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में थे तो उनपर एक प्रकाशक विशेष को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे। संसद में भी सवाल उठे थे। एक तरफ तो ये हो रहा था और दूसरी तरफ इन जगहों पर जिन्होंने उस विचारधारा को स्वीकार नहीं किया उनको हाशिए पर डालने में पूरी शक्ति लगा दी गई थी। विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं मिल जाए इसपर नजर रखने के लिए एक टीम रहती थी। जो उम्मीदावारों की वैचारिक पृष्ठभूमि जांचती थी।संस्कृति को भी प्रभावित करने या एक नई संस्कृति बनाने का प्रयास हुआ।
सनातन संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब जैसे भ्रामक पर रोमांटिक शब्दावली से विस्थापित करने का प्रयास हुआ जो आंशिक सफल भी रहा। मार्सवादी विचार और विचारधारा की इस जकड़न में लंबे समय तक रहने से हिंदी साहित्य एकांगी सा होने लगा था। परिणाम ये हुआ कि पाठक साहित्य से दूर होने लगे।
अब पाठकों को विचारधारा मुक्त साहित्य का विकल्प मिलने लगा है तो वो फिर से पुस्तकों की ओर लौट रहा है। दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला से लेकर पटना पुस्तक मेला और रांची पुतक मेला में पाठकों की भीड़ हिंदी प्रकाशकों के स्टाल पर आने लगी है। यह आश्वस्ति प्रदान करने वाला है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
शायद उस समय दोनों को यह ग़लतफ़हमी हो गई थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं मिलेगा।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
लालू यादव और राहुल गांधी का एक ही लक्ष्य है, रायसीना हिल्स यानी भारत के सिंहासन पर कब्जा। लालू यादव की 2019 में प्रकाशित आत्मकथा - 'गोपालगंज से रायसीना' इसी बात का संकेत था। इस किताब की प्रस्तावना कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 13 सितम्बर 2018 को ही लिखकर भेज दी थी।शायद उस समय दोनों को यह ग़लतफ़हमी हो गई थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं मिलेगा और फिर लालू समर्थन वाले कांग्रेस गठबंधन की सरकार राहुल गांधी के नेतृत्व में बन जाएगी।
लेकिन मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह 2019 और 2024 में भी हकीकत में नहीं बदल सके।इसी आत्मकथा में लालू प्रसाद यादव ने अपने बेटे तेजस्वी यादव पर पूरा चैप्टर लिखकर अपने उत्तराधिकारी की तरह पेश कर दिया था। अब बिहार विधानसभा चुनाव से पहले लालू के फार्मूले से तेजस्वी यादव ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने और खुद मुख्यमंत्री बनने की पतंग उड़ाई है।लालू यादव के पुराने फार्मूले पर ही तेजस्वी यादव और राहुल गांधी तथा उनकी पार्टियां घोटालों की जांच करने वाली केंद्रीय एजेंसियों - सीबीआई, ईडी और चुनाव आयोग पर अधिकाधिक हमले कर जनता को भ्रमित करने में लगे हैं, ताकि चुनाव व्यवस्था की विश्वसनीयता ही खत्म हो जाए और पराजय के बाद वे अन्य तरीकों से असंतोष-अराजकता पैदा कर सकें।
असल में 1990 और 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्दशा के कारण लालू यादव के जनता दल (विभाजन के बाद राष्ट्रीय जनता दल नाम) को भारी बहुमत मिलने से उनकी महत्वाकांक्षा शिखर पर पहुँच गई थी। लालू अपने को केंद्र में गठबंधन के प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने लगे थे।अपनी सभाओं में लालू यादव अपनी जाति और मुस्लिम वोट की ताकत दिखाते हुए सार्वजनिक सभाओं में घोषणा करने लगे थे - "कोई माई का लाल अब आपको दिल्ली पर कब्जा करने से नहीं रोक सकता।" दूसरी तरफ कभी राजीव गांधी के कैबिनेट सचिव रहे ईमानदार प्रशासक दक्षिण भारतीय टी. एन. सेशन को नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने चुनाव आयुक्त नियुक्त कर रखा था।
वह पहले की तरह चुनावों में धांधली रोकने के लिए हर संभव कड़े कदम उठा रहे थे। इन क़दमों से बौखलाए मुख्यमंत्री पद पर बैठे लालू यादव ने अपने सुबह के दरबार में समर्थकों के बीच कहा "सेशन पगला सांड जैसा कर रहा है, उसे मालूम नहीं है कि हम रस्सा बाँध के खटाल (जानवरों का बाड़ा) में बंद कर सकते हैं।" बाद में केंद्र में देवेगौड़ा और कांग्रेस की सरकार में भी चारा काण्ड की जांच तेज होने पर लालू यादव ने सीधे धमकियों का इस्तेमाल किया। यह बात स्वयं लालू प्रसाद यादव ने 2008 में एक टेलीविजन इंटरव्यू में बताई।
उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा से हुई मुलाकात का विवरण देते हुए बताया -"मैं 7 रेस कोर्स (पीएम निवास) गया और उनसे कहा आप मुझे क्यों लटका रहे हो? मैं बिहार में कैसे काम करूँगा? फिर हम दोनों में तीखी नोक-झोंक हुई और मैं बहुत उत्तेजित हो गया। बहुत बुरा सुनाया। वह रोने लगे और फेंट (मूर्छित से) हो गए।" फिर देवेगौड़ा को लालू और कांग्रेस के दबाव में हटना पड़ा और इन्दर कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बन गए। सीबीआई अपनी जांच तेज कर रही थी। सीबीआई के निदेशक जोगिन्दर सिंह थे।
उन्होंने मेरे जैसे पत्रकारों को भी बताया कि लालू के कारण गुजराल साहब ने भी 900 करोड़ रुपये के चारा घोटाले की जांच बहुत धीमे करने के निर्देश दिए। यह पृष्ठभूमि यह ध्यान दिलाती है कि इसी फार्मूले से राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जांच एजेंसियों और गठबंधन की सरकार पर दबाव बनाने के लिए हर संभव अभियान चला रहे हैं। केंद्र में सत्ता उखाड़ने-बनाने के प्रदर्शन के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन को बिहार की सड़कों पर घुमाया गया। बिहार के लोग इस बात को हास्यास्पद बता रहे हैं कि स्टालिन से प्रदेश का कोई मतदाता वोट डाल सकता है।
यही नहीं, कांग्रेस पार्टी के बिहार के ही नहीं राष्ट्रीय स्तर के पुराने कांग्रेसी नेता राहुल गांधी के सबसे विश्वस्त दक्षिण भारतीय सहयोगी वेणुगोपाल के हाथों में सारे निर्णय को लेकर परेशान हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक में हिंदी और उत्तर भारतीयों के विरुद्ध डीएमके और कांग्रेस के नेता आए दिन बयानबाजी करते रहते हैं।यही नहीं बिहार में वेणुगोपाल, मल्लिकार्जुन खरगे, जयराम रमेश पर राहुल गांधी की निर्भरता से इंदिरा-राजीव युग के कांग्रेसी परेशान हो नए रास्ते खोज रहे हैं।तेजस्वी-राहुल गांधी के अभियान के मुकाबले के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यू), भारतीय जनता पार्टी, प्रशांत किशोर की जान सुराज पार्टी लालू यादव राज के दौरान अपराधियों-माफिया से प्रदेश में रहे आतंक की याद दिला रहे हैं।
इस बात पर भी चिंता है कि राहुल-तेजस्वी के चुनावी विजय के दावों के कारण अपराधी अभी से हत्या, चोरी, अपहरण की गतिविधि कर रहे हैं, ताकि नीतीश सरकार को बदनाम किया जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माताजी को गालियाँ दी जाने, लालू-तेजस्वी के यादव-मुस्लिम-ईसाई समीकरण से भावनात्मक मुद्दे अंदर ही अंदर गर्म हो रहे हैं। तेजस्वी की पत्नी, स्टालिन और सोनिया गांधी के क्रिश्चियन कनेक्शन पर ध्यान दिलाया जा रहा है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह भाजपा-नीतीश सरकार की कल्याण और विकास योजनाओं से मिले लाभ और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयासों को चुनावी अभियान में महत्व दिया जाए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
बारिश की वजह से साइबर सिटी गुरुग्राम का पिछले तीन दिनों में जो हाल हुआ, उसकी तस्वीरें आईं डराने वाली है। मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम के ज्यादातर पॉश इलाके पानी में डूब गए।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
इस समय पंजाब के अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के कई इलाकों में भारी बारिश से हालात खराब हैं। हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और भूस्खलन की वजह से 300 से ज़्यादा लोगों की जान जा चुकी है। दिल्ली में यमुना नदी खतरे के निशान के ऊपर बह रही है और बहुत से निचले इलाकों में बाढ़ का पानी भर गया है।
दिल्ली में पुराने लोहे के रेलवे पुल को बंद कर दिया गया है। बारिश की वजह से साइबर सिटी गुरुग्राम का पिछले तीन दिनों में जो हाल हुआ, उसकी तस्वीरें डराने वाली हैं। मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम के ज्यादातर पॉश इलाके पानी में डूब गए। हर जगह पानी भरा, हर जगह जाम लगा। गुरुग्राम के राजीव चौक, हीरो होंडा चौक, इफको चौक और खिड़की दौला टोल प्लाज़ा की सड़कों पर कई फीट पानी भरा रहा।
इसके अलावा, गुरुग्राम के सदर, नरसिंहपुर, शीतला माता मंदिर रोड, अग्रसेन चौक, सेक्टर 15, मेहरौली रोड, ओल्ड दिल्ली रोड और द्वारका रोड जैसी सड़कों पर इतना पानी था कि लोगों का निकलना मुश्किल हो गया। लगातार बारिश की वजह से राजीव चौक और बजघेरा अंडरपास जैसे प्रमुख मार्गों पर ट्रैफिक थम गया।
दिल्ली से गुरुग्राम जाने वाली और गुरुग्राम से दिल्ली और जयपुर आने वाली सड़कों पर आठ किलोमीटर लंबा ट्रैफिक जाम लगा रहा। जो लोग शाम को दफ्तर से निकले, वे आधी रात के बाद घर पहुंचे। जो दूरी 20 मिनट में तय हो जाती थी, उसे तय करने में चार-पांच घंटे लग गए। गुरुग्राम में जलभराव और जाम के बाद लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकाली। कहा कि सरकार के ख़ज़ाने में हज़ारों करोड़ रुपये देने वाला गुरुग्राम अनाथ है। यहां नगर प्रशासन की पूरी व्यवस्था फेल हो गई है।
गुरुग्राम में करोड़ों के फ्लैट ख़रीदने वाले कीड़े-मकोड़ों जैसी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। आखिर गुरुग्राम के लोगों का कसूर क्या है? उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा है कि उन्हें दो-दो घंटे जाम में खड़े रहना पड़ता है? क्या उनका गुनाह यह है कि गुरुग्राम में रहने वाले और काम करने वाले हर साल एक लाख करोड़ रुपये का टैक्स देते हैं? क्या उनका कसूर यह है कि हरियाणा का 45% जीएसटी सिर्फ गुरुग्राम से आता है? इसी जीएसटी की वजह से हरियाणा का जीएसटी कलेक्शन पंजाब से पांच गुना है।
क्या गुरुग्राम के लोगों का कसूर यह है कि वे एक्साइज के नाम पर हरियाणा को 27% राजस्व देते हैं? गुरुग्राम में रहने वाले लोग रोड टैक्स देते हैं, टोल देते हैं और इन सारे टैक्सों के बदले हर साल गुरुग्राम की सड़कें नदी और नालों में बदल जाती हैं। 50-50 करोड़ के फ्लैट में रहने वालों का घर से बाहर निकलना बंद हो जाता है।
गुरुग्राम में बहुत सारी मल्टीनैशनल कंपनियां हैं, जिनमें काम करने वाले लोग दुनिया के बड़े-बड़े शहरों से आते हैं। बात दूर तक जाती है और पूरी दुनिया में गुरुग्राम का नाम खराब होता है। और यह कोई एक बार की बात नहीं है। हर साल यही कहानी दोहराई जाती है। इसे कौन ठीक करेगा? गुरुग्राम के लोगों की सुध कौन लेगा? इसका जवाब देने वाला भी कोई नहीं है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं।
प्रो .संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष।
भारत का संकट यही है कि हमने आजादी के बाद भारत प्रेमी समाज खड़ा नहीं किया। समूची शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक-प्रशासनिक-न्याय तंत्र में पश्चिम से आरोपित विचारों ने हमारे पैर जमीन से उखाड़ दिए। औपनिवेशिक काल की गुलामी दिमाग में भी बैठ गई। उससे उपजे आत्मदैन्य ने हमें भारत की चिति(आत्मा) से अलग कर दिया। वैचारिक उपनिवेशवाद ने हमारा बुरा हाल कर दिया है।
यह संकट निरंतर है। भारत को न जानने से ही भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। जबकि एक गहरी आध्यात्मिक चेतना से उपजी भारतीयता किसी के विरुद्ध नहीं है। हमारी संस्कृति विश्व बंधुत्व, विश्व मंगल और लोक-मंगल की वाहक है। आध्यात्मिक भाव इसी जमीन की देन है जिसने बताया कि सारी दुनिया के मनुष्य एक ही हैं। मनुष्य और उसके दुखों का समाधान खोजने राम, बुद्ध, महावीर जैसे राजपुत्र वनों में जाते रहे।
वसुधा को कुटुम्ब (विस्तृत परिवार) की संकल्पना भारत की अप्रतिम देन है। धरती के सभी मनुष्य, सभी जीव और सभी अजीव भी इस कुटुम्ब में शामिल हैं। अतः समूची सृष्टि के योगक्षेम की कामना करते हुए भारत सुख पाता है। यही भाव सबके संरक्षण और सबके संवर्धन का प्रेरक है। इसी भावना से 'पृथिव्या लाभे पालने च..' लिखते हुए आचार्य चाणक्य अपने 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अधिकरण में ही पृथ्वी के पालन की कामना की है। यूएनओ अर्थ चार्टर 2000 में धरती जीवंत है, ऐसा मान लिया है।
प्रकृति है ईश्वर का विस्तार-
प्रकृति को लेकर भारत की अपनी समझ है। हम संपूर्ण प्रकृति को ईश्वर का ही विस्तार मानते हैं। हमारी मान्यता है कि देव स्वयं प्रकृति में आया। सृष्टि का निर्माता सृष्टि के साथ ही है। हमारे जीवन के नियंता भी प्रकृति के सूर्य,जल, वायु, अग्नि,वन जैसे अवयव ही हैं। इससे हममें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव आता है। इसलिए हम इन सबको देवता कहकर संबोधित करने लगे। सूर्य देवता, अग्नि देव आदि। यह कृतज्ञता का चरम और प्रकृति से संवाद का अप्रतिम उदाहरण भी है। हम मानते हैं कि जो देता वह देवता है। इसी से हम देव और असुर में भेद करते आए हैं। हमारे वैदिक मंत्र सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस तरह हम एक ऐसी संस्कृति के उत्तराधिकारी बन जाते हैं जो प्रकृति सेवक या पूजक है।
'श्वेताश्वतरोपिषद्'(6.11) कहता है, "एको देव: सर्वभूतेषू गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा" इसलिए हममें प्रकृति के मालिक या स्वामी होने का भाव नहीं आया। प्रकृति के दोहन का विचार हमारा है, शोषण का विचार पराया है। भारतबोध इन्हीं तत्वों से विकसित होता है। भारत ने ज्ञान भूमि के रूप में स्वयं को विकसित किया। जहां 'भा' यानी ज्ञान और 'रत' का मतलब लीन। इस तरह यह ज्ञान की साधना में लीन भूमि है। जिसने मानवता के समक्ष प्रश्नों के ठोस और वाजिब उत्तर खोजे।
कालिदास भी ‘कुमारसंभवम्’ में भारत की उत्तर दिशा में हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं। अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:। पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म स्थित पृथिव्या इव मापदण्ड:।
हिमालय से समुद्र तक इस पवित्र भूमि का विस्तार है। व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि से लेकर आधुनिक समय में बंकिमचंद्र चटोपाध्याय (वंदेमातरम), मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे कवि इसी भूमि का मंगलगान करते हैं। बावजूद इसके किंतु कुछ मूढ़ मति मानते हैं कि अंग्रेजों ने हमें आज का भारत दिया।
जबकि अंग्रेज़ों ने हमारी सांस्कृतिक, सामुदायिक एकता को तोड़कर हमें विखंडित भारत दिया। बंग भंग में असफल रहे अंग्रेज़ों जो बंटवारे का जो दंश हमें दिया, उसे हम आज भी भोग रहे हैं। जिन्हें यह भ्रम है कि हमें 1947 में अंग्रेजों ने भारत बनाकर दिया वे ‘विष्णु पुराण’ के इस श्लोक का पाठ जरूर करें। उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः। यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत, तथा उनकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।
अपने देश के व्यापक भूगोल की समझ होनी ही चाहिए। देश को जोड़ने वाले तत्व क्या हैं, हमें खोजने और बताने चाहिए। क्योंकि कुछ लोग तोड़ने वाले तत्वों (फाल्ट लाइंस) की ही चर्चा करते हैं। जबकि सच यह है कि हर देश में कुछ अच्छी और बुरी बातें होती हैं। कोई भी राष्ट्र जीवन समस्या मुक्त नहीं है। किंतु सिर्फ देश तोड़क बातें करना और उसके लिए संदर्भ गढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता।
हालांकि सच सामने आ जाता है। बावजूद इसके नरेटिव की एक गहरी जंग देश झेल रहा है। यह कितना गजब है कि अकादमिक विमर्श जैसे भी चलते रहे हों, नरेटिव जैसे भी गढ़े जाते रहे हों। किंतु देश पिछले आठ दशकों में निरंतर आगे बढ़ा है। लोगों की अपने मान बिंदुओं के प्रति आस्था बढ़ी है। अपनी माटी के प्रति प्रेम बढ़ा है, भारत प्रेम बढ़ा है। एकत्व और एकात्म भारत हमारी आज हमारी शक्ति है। पूरी दुनिया भी इसे स्वीकार करती है।
सांस्कृतिक एकता के प्रतीक-
भारत की इस पवित्र भूमि पर ही राम, कृष्ण, शिव, गौतम बुद्ध, महावीर,नानक, गुरु गोविंद सिंह, ऋषि वाल्मिकि, गुरु घासीदास, संत रैदास, आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ, स्वामी दयानंद जन्में और सैकड़ों तीर्थों-मठों की स्थापना हुई। चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ के साथ अनेक सिद्धपीठ और मंदिर इसके उदाहरण हैं। जो समाज में सेवा,संवाद और आध्यात्म के वाहक बने हुए हैं। हमारी सप्त पुरियां अयोध्या, मथुरा,माया, काशी, कांची, अवंतिका, द्वारिका हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख गुरुओं के पवित्र स्थान हैं। जो समूचे देश को जोड़ते हैं। नदियों के तट, सरोवर, पर्वतों इसे लोक स्वीकृति प्राप्त है।
असल भारत यही है। ऐसा भाव दुनिया में कहीं विकसित नहीं हुआ। स्थान-स्थान की परिक्रमाएं काशी, ब्रज-गोवर्धन, अयोध्या, चित्रकूट, चारधाम, उत्तराखंड के पृथक चार धाम, नर्मदा, कृष्णा परिक्रमा भारत को जोड़ने वाली कड़ियां हैं। इन यात्राओं से भारत धीरे-धीरे मन में उतरता है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, हिंगलाज से परशुराम कुण्ड तक पुण्य भूमि स्थापित है। अमरनाथ और ननकाना साहिब की कठिन यात्राएं भी इसी भाव बोध का सृजन करती हैं। इस भारत को जीते हुए ही हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी का कवि मन बोल पड़ा- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं/ जीता जागता राष्ट्रपुरुष है/ इसका कंकर कंकर शंकर है/ इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।
सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं। इनसे गुजरता भारत खुद का आत्मसाक्षात्कार करता रहा है। वह प्रक्रिया धीमी हो सकती है, पर रुकी नहीं है। इसे तेज करने से न सिर्फ राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी बल्कि दुनिया में भी सुख, शांति और समृद्धि का विचार प्रसारित होगा।
एक सशक्त भारत ही विश्व शांति और विश्व मंगल की गारंटी है। अरसे बाद भारत में विचारों की घर वापसी हो रही है। वह अपने आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है। आइए, हम भी इस महान देश को जानने की खिड़कियां खोलें और भारत मां को जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजता हुआ देखें।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जल्द ही IPG इतिहास बन जाएगा। इंटरपब्लिक ग्रुप, जो विज्ञापन व्यवसाय की पहली होल्डिंग कंपनी थी और जो कभी इस इंडस्ट्री में सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली मानी जाती थी
चिंतामणि रॉव, स्ट्रैटजिक मार्केटिंग व मीडिया एडवाइजर ।।
जल्द ही IPG इतिहास बन जाएगा। इंटरपब्लिक ग्रुप, जो विज्ञापन व्यवसाय की पहली होल्डिंग कंपनी थी और जो कभी इस इंडस्ट्री में सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली मानी जाती थी, अब डोडो और जे.डब्ल्यू.टी. की तरह खत्म हो जाएगी।
मैंने अपने करियर के 26 सालों में से 12 साल से ज्यादा IPB में दो अलग-अलग नेटवर्क्स में काम किया।
IPG से मेरा पहला सामना मेरे करियर के लिए निर्णायक रहा, एक कठिन शुरुआत जिसने मुझे आगे के पूरे करियर में सहारा दिया।
तब मेरी उम्र 27 थी, मैं मद्रास में एचटीए में सीनियर एई था। मुझे अभी-अभी पोंड्स का जिम्मा सौंपा गया था, जो एजेंसी का सबसे प्रतिष्ठित खाता था और उस बाजार में सबसे बड़ा एफएमसीजी अकाउंट था। कोलकाता के राम रे इस खाते की निगरानी करते और मुझे सीधे उन्हें रिपोर्ट करना था। जिंदगी अच्छी चल रही थी।
फिर एक दोपहर, लिंटास से कॉल आया, अगले दिन सुबह बैगू ओचाने से नाश्ते पर मिलने का न्योता था। उन्होंने मुझे मद्रास ब्रांच मैनेजर का पद ऑफर किया। एचटीए में मेरी संभावनाएं बेहद अच्छी थीं, लेकिन ब्रांच मैनेजर का पद, और वह भी हिंदुस्तान लीवर की एजेंसी में...!
कुछ दिनों बाद, मैं एक दिन के लिए बॉम्बे गया और गेरसन दा कुन्हा और एलीक पदमसी से मिला; और उसके तुरंत बाद, 1 जुलाई को मैंने लिंटास जॉइन कर लिया।
इस बीच, गेरसन यूनिसेफ चले गए और एलीक चीफ एग्जिक्यूटिव बन गए।
ब्रांच एक छोटा-सा दफ्तर था, जिसमें कुल चार लोग थे, जिनमें मैं भी शामिल था। विजय जेवियर अकाउंट एग्जिक्यूटिव थे और हमारे पास एक सचिव और एक चपरासी था। पूरा काम– क्रिएटिव, मीडिया, सबकुछ बॉम्बे में होता था।
शुरुआत से ही, बैगू से मेरी पहली मुलाकात में ही काम साफ हो गया था: इस ऑफिस को बढ़ाना है। खुला ब्रीफ, कोई डेडलाइन नहीं। एलीक ने बॉम्बे में मुलाकात के दौरान कहा, “हम तुम्हें बिजनेस करने का मौका दे रहे हैं। जो तुम करते अगर एजेंसी तुम्हारी होती, वही करो। बस फर्क इतना है कि नुकसान हम उठाएंगे और तुम्हें हर महीने सैलरी मिलेगी।” उन्होंने क्यों 27 साल के एक सीनियर एई को यह काम सौंपा, मुझे तब भी समझ नहीं आया था और अब भी नहीं आता।
ऑफिस आठ साल पुराना था और हमेशा घाटे में चल रहा था। हमारे पास दो क्लाइंट्स थे, पोंड्स और एमआरएफ। लेकिन यह बात मुझे किसी ने नहीं बताई थी कि एमआरएफ पहले ही हमें निकाल चुका था और हम सिर्फ नोटिस पीरियड पूरा कर रहे थे, जो उस साल के अंत तक था। मुझे पता था कि उन्होंने रेडिफ्यूजन को चुना है (मैं एचटीए में उस पिच का हिस्सा था), लेकिन बाहर किसी को नहीं पता था कि लिंटास को हटा दिया गया है। यही हाल था, और मैं वहां था।
हर साल सितंबर में रीजनल डायरेक्टर जीन फ्रांस्वा लाकुर अपने क्षेत्र के दफ्तरों का दौरा करते थे – भारत में सिर्फ बॉम्बे – ताकि सालाना प्लान्स की लंदन मीटिंग्स की तैयारी हो सके। मैं उनसे मिलने बॉम्बे गया। मेरा ऑफिस बहुत छोटा था और मैं बहुत नया था, इसलिए उन्हें प्रस्तुति देने का सवाल ही नहीं था, यह सिर्फ औपचारिक परिचय होना था।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
औपचारिकताओं और जान-पहचान के बाद आया बड़ा झटका। मेरे बॉस बैगू उतने ही अनजान थे जितना मैं।
तब लिंटास का स्वामित्व यूनिलीवर और एसएससी एंड बी (न्यूयॉर्क की एजेंसी) के पास था। लाकुर ने हमें बताया कि IPG ने एसएससी एंड बी का अधिग्रहण कर लिया है, इसलिए अब वह लिंटास का सह-मालिक है, और यूनिलीवर भी अपने शेयर IPG को बेच रहा है। मार्च 1980 के अंत तक(यानी छह महीने बाद) लिंटास पूरी तरह IPG के स्वामित्व में होगा, वही अमेरिकी होल्डिंग कंपनी जिसके पास मैककैन था।
तो, इसका मेरे लिए क्या मतलब था? “अब हम यूरोपीय कंपनी नहीं रहेंगे। अब अच्छे दिनों का दौर खत्म।” उन्होंने कहा कि IPG, एक अमेरिकी सूचीबद्ध कंपनी होने के नाते, मुनाफे पर केंद्रित है और घाटे वाले संचालन नहीं रखती। “तुम्हारा ऑफिस 1980 में ब्रेक-ईवन होना चाहिए। अगर नहीं हुआ, तो हम इसे बंद कर देंगे। मुझे यक़ीन है कि तुम पूरी कोशिश करोगे, लेकिन यही है।”
उस साल के लिए बजट घाटा राजस्व का 150% था, और सिर्फ तीन महीने बाकी थे। मुझे अगले साल इसे शून्य पर लाना था, वरना नौकरी चली जाती।
तीन महीने पहले, मैं एक खुश युवा अकाउंट मैनेजर था। अब असफल होने और अपना पहला प्रॉफिट सेंटर खोने की शर्मिंदगी सामने थी, और एजेंसी हेड बनने का सपना राख में बदलने वाला था। और मैंने नेतृत्व की तन्हाई सीखी: तीन और लोग, तीन और परिवार मेरे साथ डूबते, लेकिन इस आसन्न खतरे की जानकारी सिर्फ मुझे थी।
ऑफिस लौटकर मैंने समझ लिया कि मेरे पास समय नहीं है। ऐसी स्थिति में सबसे पहले क्या किया जाता है? खर्च कम।
मैंने पी एंड एल देखा। किराया और वेतन 80% खर्च था। किराया तो अल्पावधि में तय था, और जहां तक वेतन का सवाल था, हमारी संख्या चार से घटाना मुमकिन नहीं था!
अगर खर्च कम नहीं कर सकते, तो राजस्व बढ़ाओ।
बाजार में राष्ट्रीय एजेंसियों के फुल-सर्विस ऑफिस पहले से मौजूद थे, जैसे एचटीए और ओबीएम, और मद्रास-आधारित आर.के. स्वामी, जो तब सिर्फ छह साल पुरानी थी, और कई अन्य। ऐसे में हमारा छोटा-सा ऑफिस नया बिजनेस कैसे लाएगा?
लेकिन जैसा कहा जाता है, पुराना बिजनेस ही असली बिजनेस है। इसलिए पहला कदम यही था – न सिर्फ विजय और मैंने बल्कि हमारे दोनों सहयोगियों ने भी – कि एमआरएफ अकाउंट को लगातार, थकान रहित सेवा दी। कोई मेहनत ज्यादा नहीं थी, और ख़र्च – खासकर बॉम्बे जाने का, जहां सारा काम होता था – कोई मायने नहीं रखता था। मेरा ब्रेक-ईवन टारगेट अगले साल के लिए था, इसलिए मौजूदा साल के ख़र्च की मुझे परवाह नहीं करनी थी। वैसे भी, बजट घाटे के पैमाने को देखते हुए, तीन महीने में हम उसमें बस छोटी-सी कमी ही ला सकते थे।
साल के अंत तक, एमआरएफ ने टर्मिनेशन नोटिस वापस ले लिया: हम फिर से साथ थे। यानी हमने साल को एमआरएफ अकाउंट बचाकर बंद किया। और उससे भी बढ़कर, अगले साल की शुरुआत में उन्होंने हमें अतिरिक्त बिजनेस दिया। 1980 के ‘मेक ऑर ब्रेक’ साल की शुरुआत उत्साहजनक थी।
अब तक सब ठीक था, लेकिन अच्छी शुरुआत सिर्फ शुरुआत होती है। साल बीतने के साथ, एमआरएफ और पोंड्स दोनों से और बिजनेस आने लगा, और हम 1980 में ब्रेक-ईवन की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन फिर? उसके बाद क्या?
लाभप्रदता का रास्ता साफ था: विकास। और इसका मतलब था नया बिजनेस। भले ही हमारे दोनों क्लाइंट्स ने हम पर भरोसा जताया था, हमें नए क्लाइंट्स लाने और अपना पोर्टफोलियो विविध बनाने की जरूरत थी, ताकि सतत विकास हो और जोखिम फैले। और फिर वही सवाल: कोई क्यों अपना बिजनेस हमारे छोटे-से ऑफिस को सौंपेगा?
तो, युवा जोश की मासूम आशावादिता के साथ, मैंने एक प्रस्ताव तैयार किया और पेश किया: ब्रांच को फुल-सर्विस ऑफिस में बदलना, शुरुआत एक क्रिएटिव टीम जोड़ने से। खर्च घटाने के बजाय खर्च बढ़ाना, इस उम्मीद में (या कहें आशा में) कि बिजनेस बनेगा। मैंने इसे मंजूरी के लिए भेजा, थोड़े डर के साथ।
एलीक पदमसी को यह बेहद पसंद आया! उन्होंने न सिर्फ इसे मंजूरी दी, बल्कि इसे अपने बॉसेस को लंदन में बेच दिया। अगर कोई ऐसा कर सकता था, तो वह एलीक ही थे।
यह था लिंटास मद्रास का पुनर्जन्म। जब तक मैं 1983 के अंत में बॉम्बे ऑफिस गया, यानी साढ़े चार साल बाद, तब तक हमने चार लोगों के छोटे आउटपोस्ट से 35 लोगों की फुल-सर्विस एजेंसी का रूप ले लिया था और हम बेहद लाभप्रद हो चुके थे।
जब मैंने संकट के समय खर्च घटाने के बजाय विकास में निवेश करने का यह पागलपन भरा प्रस्ताव पेश किया, तो कोई और इसे एक हताश युवा मैनेजर की लापरवाह प्रतिक्रिया मानकर खारिज कर देता। लेकिन एलीक ने कुछ अलग देखा: उन्होंने पहचाना कि कभी-कभी सबसे उलटे कदम ही सबसे जरूरी होते हैं। उनकी यह क्षमता कि उन्होंने न सिर्फ इस असामान्य रणनीति को अपनाया, बल्कि उसे अपने लंदन बॉसेस को जुनून के साथ बेच दिया, वही नेतृत्व था जिसने उन्हें भारतीय विज्ञापन जगत में दिग्गज बनाया। उन्हें पता था कि महान एजेंसियां सुरक्षित खेलकर नहीं बनतीं, बल्कि साहसी विचारों और उन लोगों का समर्थन करके बनती हैं जो उन्हें पेश करने की हिम्मत रखते हैं – चाहे वह बहादुरी हो या मूर्खता।
जैसे IPG दशकों तक वैश्विक विज्ञापन परिदृश्य को बदलने के बाद मंच से विदा लेने की तैयारी कर रहा है, मैं एलीक जैसे नेताओं के बारे में सोचने से खुद को रोक नहीं पाता, जिन्होंने उस दौर में उद्यमशील साहस को साकार किया था। आज जब होल्डिंग कंपनियां एल्गोरिद्म और तिमाही नतीजों से चलती हैं, तो यह याद करना बेहद भावुक करता है कि कभी एक क्रिएटिव दूरदर्शी एक युवा मैनेजर के साहसी दांव का समर्थन कर सकता था, भले ही बंद होने का ख़तरा सामने हो। एलीक ने उस दिन सिर्फ लिंटास मद्रास को बचाया नहीं, बल्कि यह साबित किया कि सबसे बड़े बिजनेस ट्रांसफॉर्मेशन तब होते हैं जब नेता असामान्य प्रस्तावों में छुपी संभावनाओं को पहचानने की दूरदर्शिता रखते हैं और उन पर लड़ने का साहस भी।
IPG शायद जल्द ही इतिहास बन जाएगा, लेकिन वे नेता जिन्होंने सुरक्षा पर विकास को चुना, उनकी विरासत हमेशा वही असली नींव होगी जिस पर महान एजेंसियां खड़ी होती हैं।
(यह केवल लेखक के निजी विचार हैं)
असल दुनिया के उस 'मैंगो विलेज' की रेत अब कभी उमेश जी का स्वागत नहीं करेंगी। हममें से बहुत लोग उन्हें याद करते हैं- जैसे हम हर उस दोस्त को याद करते हैं, जिसके साथ हमारे सबसे ज्यादा मतभेद रहे।
रोहित बंसल, ग्रुप हेड ऑफ कम्युनिकेशंस, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ।।
एक साल पहले, 31 अगस्त को, मेरी और श्री उमेश उपाध्याय की पश्चिमी मीडिया में छपे एक पक्षपाती लेख (biased article) पर काफी बहस हो गई थी। उमेश जी अपने उस विचार पर अडिग थे, जैसा कि उनकी किताब में पश्चिमी मीडिया नैरेटिव्स पर मुख्य विचार है- “जाने दीजिए, ये लोग ऐसे ही हैं?”। मेरा मानना था कि बात इतनी छोटी नहीं है, दांव बहुत बड़े हैं, इसलिए इसे बस “जाने दीजिए” कहकर छोड़ना सही नहीं होगा।
रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड में दस साल पहले जब हमने साथ काम करना शुरू किया था, तो यही तय किया था कि “हीट इन द किचन” यानी मुश्किल हालात और तीखी बहसें काम का हिस्सा होंगी। हम दोनों अपने-अपने विचारों में जुनूनी थे, लेकिन साथ ही निजी रिश्ता भी बराबर चलता रहा।
पूरी सच्चाई बताऊं तो, उमेश-जी और मेरे बीच एक फैमिली वॉट्सऐप ग्रुप भी था जिसका नाम था “मैंगो विलेज”। इसका नाम उस बीच हट के नाम पर रखा गया था, जहां मैं उन्हें एक दिन मेजबान के तौर पर बुलाना चाहता था।
“मैंगो विलेज” पर एक असहमति इतनी बढ़ गई कि मैंने वास्तव में ग्रुप छोड़ दिया!! उमेश-जी ने मुझे बिना कुछ कहे दोबारा जोड़ लिया और फिर उन्होंने कुछ ऐसा पोस्ट किया, जो बिल्कुल उन्हीं जैसा था: “मैंगो विलेज आपका घर है, रोहित। कोई अपना घर नहीं छोड़ता!” इस पर कोई क्या कह सकता था!
उमेश जी असहमतियों को संभालने में एकदम “मैनेजमेंट 101” (मैनेजमेंट का सबसे बुनियादी सिद्धांत) जैसे थे। उनका मानना था कि आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप अप्रिय या कटु हो जाएं। उनकी और मेरी असहमतियां अक्सर नए और बेहतर विचारों का मिश्रण बनाती थीं, न कि यह गिनती कि असल विचार किसका था। मुझे शक है कि हमारी 27+ साल की दोस्ती और 15 साल की सहकर्मी यात्रा (जी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइजेज लिमिटेड, रॉकलैंड हॉस्पिटल्स और आखिर में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड) में ज्यादातर उमेश-जी की शांति-पसंद रणनीति “जाने दीजिए, रोहित-जी” ही हावी रही।
फिर आया वो काला दिन, 1 सितंबर 2025। रोहित दुबे का फोन आया कि उमेश-जी के साथ एक गंभीर हादसा हुआ है और अब वे नहीं रहे। अस्पताल, पुलिस, भारी भीड़ वाला अंतिम संस्कार, अस्थि-विसर्जन के समय मंत्र- लगभग सब कुछ अवास्तविक और निरर्थक सा लग रहा था और वहीं वे प्रभु श्रीराम के साथ एक हो गए। जब शलभ, उनका बहादुर बेटा, उनकी अस्थियां विसर्जित कर रहा था, तब उमेश-जी ने नहीं कहा, “जाने दीजिए, रोहित-जी”। वे बस चले गए…
असल दुनिया के उस 'मैंगो विलेज' की रेत अब कभी उमेश जी का स्वागत नहीं करेंगी। हममें से बहुत लोग उन्हें याद करते हैं- जैसे हम हर उस दोस्त को याद करते हैं, जिसके साथ हमारे सबसे ज्यादा मतभेद रहे।
काश, हमें वह दोस्त एक बार फिर मिल जाता- सिर्फ यह मानने और कहने के लिए कि आप सही थे…। दिमाग में वही गीत गूंजता है-
“दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाता है कहां! कैसे ढूंढे कोई उनको, नहीं कदमों के भी निशान।”
(लेखक पूर्व संपादक चुके हैं।)
वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस पूरे साल वृद्धि दर 6.3% से 6.8% बनी रहेगी। शुल्क का तोड़ तो सरकार ने फ़िलहाल ढूँढ लिया है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अमेरिका ने भारत से आने वाले सामान पर 50% शुल्क 27 अगस्त से लगा दिया है। इससे अटकलें लगने लगीं कि भारत की अर्थव्यवस्था मुश्किल में आ सकती है। शेयर बाज़ार में डर का माहौल है। हिसाब–किताब में समझेंगे कि शुल्क का असर कितना पड़ेगा?
आपको याद होगा कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को ‘मरी हुई अर्थव्यवस्था’ कहा था। शुक्रवार को सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के जो आँकड़े जारी किए, उससे पता चल गया कि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में वृद्धि दर 7.8% रही है। आप कह सकते हैं कि पहली तिमाही में शुल्क लागू नहीं हुआ था। अब लागू हुआ है तो आने वाले महीनों में इसका असर दिखेगा।
शुल्क का कोई असर नहीं पड़ेगा यह कहना ग़लत होगा। भारत हर साल अमेरिका को 86 अरब डॉलर (₹7.3 लाख करोड़) का सामान बेचता है। इसमें से आधे से ज़्यादा सामान पर अब 50% शुल्क लगेगा, जैसे कपड़े, हीरे–जवाहरात। बाक़ी देशों पर शुल्क कम है, इसलिए भारत को यह सामान अमेरिका में बेचने में दिक़्क़त होगी। इतना महँगा कौन ख़रीदेगा? रॉयटर्स के मुताबिक़ इसके चलते भारत में 20 लाख लोगों की नौकरी जा सकती है। भारतीय स्टेट बैंक की रिपोर्ट कहती है कि इससे जीडीपी में 0.2% नुक़सान हो सकता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पूरे साल भर की वृद्धि दर 6% से नीचे जा सकती है।
इस आपदा में ही अवसर है। सरकार ने दो ऐसे फ़ैसले किए हैं, जिससे शुल्क के नुक़सान की भरपाई होने की उम्मीद है। पहला फ़ैसला बजट में ही हो गया था कि ₹12 लाख तक कोई आयकर नहीं लगेगा। दूसरा फ़ैसला यह कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के ज़्यादातर सामान 5% और 18% के दायरे में लाए जाएँगे। जीएसटी का सुधार बहुत समय से लंबित था, लेकिन शुल्क के बाद इस पर तेज़ी से फ़ैसला लिया जा रहा है।
भारतीय स्टेट बैंक की अनुसंधान रिपोर्ट कहती है कि दोनों फ़ैसलों से लोगों के हाथ में पैसा आएगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ साल भर में ₹5 लाख करोड़ की खपत बढ़ेगी। वृद्धि दर में 1.6% की बढ़ोतरी होगी यानी शुल्क से जो नुक़सान होगा, उससे कहीं ज़्यादा फ़ायदा इन फ़ैसलों से होने की उम्मीद है।
वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस पूरे साल वृद्धि दर 6.3% से 6.8% बनी रहेगी यानी जो अनुमान शुल्क से पहले लगाया गया था, सरकार उस पर क़ायम है। उन्होंने यह भी कहा कि शुल्क का मसला इस वित्त वर्ष के दौरान सुलझने की उम्मीद है। शुल्क का तोड़ तो सरकार ने फ़िलहाल ढूँढ लिया है लेकिन अमेरिका के साथ व्यापार को सुगम बनाने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )