हिंदी की सेवा करनी है, तो अपना शब्द भंडार समृद्ध कीजिए: जयदीप कर्णिक

हिंदी को लेकर जिस दिन हम यह नजरिया बदलेंगे, सब अपने आप ठीक हो जाएगा

Last Modified:
Sunday, 14 September, 2025
HindiDiwas845


जयदीप कर्णिक

संपादक, अमर उजाला (डिजिटल) ।। 

मेरा मानना है कि हिंदी को लेकर बातें करने का वक्त बहुत पीछे जा चुका है। हमें यहां से वहां पहुंचना है कि हमें हिंदी दिवस मनाने की जरूरत ही न पड़े।

असल में, हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मनाना पड़ रहा है, यही सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है। दिक्कत यह है कि हिंदी को लेकर जो व्यावहारिक कदम उठाए जाने चाहिए थे, वे नहीं उठाए गए। जितनी तेजी से अंग्रेजी शब्द हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में घुसपैठ कर रहे हैं (चाहे मीडिया माध्यमों से हों, चाहे विद्यालयों से) उससे समस्या और बड़ी हो रही है। हम अनजाने में ही अपनी भाषा को खो रहे हैं।

कुछ अच्छे प्रयत्न हुए हैं, सरकारी स्तर पर भी हुए हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। हालांकि मैं आशावादी व्यक्ति हूं, मुझे विश्वास है कि चीजें बदलेंगी। लोगों को चाहिए कि जब वे एटीएम मशीन से पैसा निकालें, तो भाषा का विकल्प आने पर हिंदी चुनें। जब वेबसाइट खोलते हैं और वहां हिंदी का विकल्प मिलता है, तो उसका प्रयोग करें। ऐसा करने से हिंदी में निवेश करने वालों को प्रोत्साहन मिलेगा। हिंदी में अच्छा काम करने से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। अभी संदेश ये जाता है कि हिंदी का विकल्प देने की आवश्यकता ही नहीं है।

आज पत्रकारिता में अच्छी हिंदी लिखने वालों की जरूरत है। लेकिन जो विद्यार्थी पत्रकारिता पढ़कर आते हैं, उन्होंने विद्यालयों और महाविद्यालयों में हिंदी उतनी अच्छी तरह नहीं पढ़ी होती। नतीजतन हमें उन्हें पत्रकारिता सिखाने से पहले भाषा सिखानी पड़ती है।

समस्या की शुरुआत यहीं से होती है। गली-गली में खुले कॉन्वेंट स्कूलों ने लोगों के दिमाग में यह भ्रम बैठा दिया है कि अंग्रेजी ही रोजगार की गारंटी है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। भारतीय भाषाओं में रोजगार के अवसर लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन उन भाषाओं को गहराई से जानने-समझने वाले लोग कम हो रहे हैं। यही वजह है कि भाषा के अच्छे जानकारों की अहमियत और भी ज्यादा हो गई है।

आज न्यूज़ रूम में अच्छे भाषा जानकारों की खोज रहती है। लेकिन अब लोग गूगल पर शब्द ढूंढ लेते हैं, खुद का भाषा ज्ञान अधूरा रह जाता है। यही दोहरा मापदंड है। अंग्रेजी में कठिन शब्द पढ़ते हैं तो गर्व होता है कि हमारी वोकैबुलरी मजबूत हो गई, लेकिन हिंदी में कठिन शब्द पढ़ते हैं तो कहते हैं कि यह क्लिष्ट भाषा है। जबकि भाषा कभी कठिन नहीं होती, हम उसे पढ़ना छोड़ देते हैं।

हमें संस्कृत कठिन क्यों लगती है? क्योंकि हमने उसे पढ़ना छोड़ दिया। यही समस्या हिंदी के साथ भी हो रही है। सबसे पहले हमें अंग्रेजी को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से निकलना होगा। जिस दिन हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपनी जड़ों से प्यार करेंगे, उसी दिन हमारे मन का हीनता-बोध खत्म होगा।

हिंदी शब्दों को भी अंग्रेजी की तरह सीखना और समझना चाहिए। जिस दिन हम यह नजरिया बदलेंगे, सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा।

मैं सौभाग्यशाली हूं कि मेरी पूरी जिंदगी हिंदी और हिंदी पत्रकारिता की सेवा में बीती है। आगे भी मैं मन, धन, प्राण और प्रण से हिंदी के लिए जीता रहूंगा। क्योंकि जो सभ्यता अपनी भाषा और संस्कृति से कट जाती है, वह लुप्त हो जाती है।

यह भी सच है कि संस्कृति को खत्म करने का एक सुनियोजित षड्यंत्र चलता है। हम सबको उसके प्रति सावधान रहना होगा। आज हम धीरे-धीरे शब्दों की हत्या सी कर रहे हैं। जब हमारे पास ‘राजनीतिज्ञ’ जैसा सुंदर शब्द है, तो हमें ‘पॉलिटिशियन’ क्यों बोलना चाहिए? जब ‘खेल’ जैसा सुंदर शब्द है, तो हमें ‘स्पोर्ट्स’ क्यों कहना चाहिए?

अगर हम हिंदी शब्दों का प्रयोग छोड़ देंगे, तो हम आने वाले समय में अपनी ही भाषा के शब्दों की हत्या के गुनाहगार बनेंगे। इसलिए मेरा मानना है कि हिंदी की सेवा करनी है, तो उसका शब्द भंडार समृद्ध कीजिए। अंग्रेजी का शब्दकोश लगभग हर घर में है, लेकिन हिंदी का कितने घरों में है?

अमर उजाला में हमने पिछले चार साल से ‘हिंदी हैं हम’ नाम से एक मुहिम चला रखी है। इसमें हम रोज़ एक नया हिंदी शब्द, उसका अर्थ, भावार्थ और कविता में उसका प्रयोग प्रकाशित करते हैं। इससे लोग नए शब्द सीख रहे हैं। मैं खुद भी इससे कई बार नए शब्द सीखता हूं।

यही तरीका अपनाकर हम हिंदी को समृद्ध कर सकते हैं।

भाषा को सहेजना, उसे समृद्ध करना ये सब हमारे साझा सरोकार हैं। जब ऐसा करने लगेंगे तो हिंदी दिवस की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। 

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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चार्ली की हत्या ने बढ़ा दी ट्रंप की मुसीबतें: रजत शर्मा

चार्ली कर्क ट्रंप के भरोसेमंद सहयोगी थे। राष्ट्रपति चुनाव में चार्ली कर्क ने ट्रंप के लिए जबरदस्त प्रचार किया था। अमेरिकी युवाओं के बीच 31 साल के चार्ली की फैन फॉलोइंग जबरदस्त है।

Last Modified:
Saturday, 13 September, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

अमेरिका में एक युवा आइकॉन की हत्या ने पूरी दुनिया को चौंका दिया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के करीबी चार्ली कर्क का हत्यारा अभी तक पकड़ा नहीं जा सका है और अब तक यह भी साफ नहीं हो पाया है कि चार्ली कर्क को किसने मारा। ट्रंप ने इस हत्या को अति-वाम (Ultra-Left) आतंकवाद का नतीजा बताया है। उन्होंने कहा कि हत्यारे को खोजकर कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी और कातिल का समर्थन करने वालों—चाहे वे व्यक्ति हों या संस्थाएँ—किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, कुछ वीडियो सामने आए हैं जिनमें काले कपड़ों में एक शख्स छत पर बैठकर चार्ली की ओर निशाना साधता हुआ दिख रहा है। लेकिन वारदात के बाद यह शख्स कहाँ गायब हो गया, किसी को नहीं पता। पुलिस का कहना है कि चार्ली पर यूनिवर्सिटी कैंपस में छत से फायरिंग की गई। गोली चलाने के बाद हमलावर जंगल की ओर भाग गया, जहाँ से उसकी राइफल, जूते और कुछ सामान बरामद हुए हैं।

चार्ली कर्क ट्रंप के भरोसेमंद सहयोगी थे और राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ट्रंप के लिए जोरदार प्रचार किया था। 31 वर्षीय चार्ली की अमेरिकी युवाओं में भारी लोकप्रियता थी। हाल ही में वे "The American Comeback Tour" चला रहे थे और इसी कार्यक्रम के तहत यूटा वैली यूनिवर्सिटी पहुँचे थे। हजारों छात्रों के बीच जब कार्यक्रम चल रहा था, तभी एक गोली चली और चार्ली कुर्सी पर गिर पड़े। उनकी गर्दन से खून बहने लगा और चारों ओर भगदड़ मच गई।

चार्ली ने 18 साल की उम्र में Turning Point USA नाम का संगठन बनाया था, जो अमेरिकी युवाओं के बीच कंज़र्वेटिव विचारधारा को बढ़ावा देता है। उनकी किताब The MAGA Doctrine बेस्टसेलर रही। लेकिन कर्क हमेशा अपने दक्षिणपंथी विचारों, गर्भपात (Abortion) और महिलाओं पर दिए बयानों के कारण विवादों में रहे। वे इज़रायल के खुले समर्थक और लिबरल विचारधारा के कट्टर विरोधी थे।

इस हत्या ने अमेरिकी समाज में बढ़ती वैचारिक नफरत को उजागर कर दिया है। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस हत्या पर खुशी जाहिर की, तो कुछ न्यूज़ एंकरों ने इसे “अच्छी खबर” तक बताया। यह सब देखकर साफ है कि अमेरिका में वैचारिक जहर किस हद तक गहरा चुका है। चार्ली कर्क की हत्या ने न केवल देश की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि ट्रंप और उनके समर्थकों के लिए भी बड़ी चिंता पैदा कर दी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पीएम नरेंद्र मोदी, संवाद और कर्मयोग से बना व्यक्तित्व: प्रो. संजय द्विवेदी

असल में नरेंद्र मोदी की यात्रा एक साधारण इंसान के असाधारण बनने की कहानी है। वो आज जिस मुकाम पर हैं, इसमें उनकी संवाद शैली की सबसे अहम भूमिका है।

Last Modified:
Friday, 12 September, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष।

राजनीति में संवाद की बड़ी भूमिका है। कुशल नेतृत्व के लिए नेतृत्वकर्ता का कुशल संवादक होना अत्यंत आवश्यक है। संवाद की इसी प्रक्रिया को भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक क्रांतिकारी दिशा दी है। आम आदमी से जुड़कर सीधे संवाद करने की कला को मोदी ने पुन: जीवित कर जनता को 'प्रधान' का दर्जा दिया है और स्वयं 'सेवक' की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। वे भारत और भारतीय जन को संबोधित करने वाले नेता हैं। उनकी देहभाषा और उनकी जीवन यात्रा भारत के उत्थान और उसके जनमानस को स्पंदित करती है। यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि नरेंद्र मोदी उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं।

नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए अक्सर लोग ये प्रश्न पूछते हैं कि आखिर उनकी सफलता का राज क्या है? आखिर वो कौन सी चीज है, जो उन्हें भारत की मौजूदा राजनीति में नेताओं की भीड़ में सबसे अलग और सबसे खास बनाती है? असल में नरेंद्र मोदी की यात्रा एक साधारण इंसान के असाधारण बनने की कहानी है। वो आज जिस मुकाम पर हैं, इसमें उनकी संवाद शैली की सबसे अहम भूमिका है। उनके भाषणों की गूंज सिर्फ देश में ही सुनाई नहीं देती, बल्कि उन्होंने अपनी अनूठी संचार कला से दुनिया भर को प्रभावित किया है। वो बोलते हैं तो हर किसी के लिए उनके पास कुछ ना कुछ रहता है, वो अपनी बात जिस तरीके से समझाते हैं और लोगों को प्रभावित करते हैं, उससे लोग प्रेरित होते हैं।

अपनी संवाद कला से प्रधानमंत्री मोदी ने देश के नेताओं को लेकर सोचने के बने-बनाए ढर्रे को तोड़ने का काम किया है। आम लोग जब नेताओं के भाषणों से उकता गए थे, जब चारों ओर निराशा घर कर चुकी थी, तब उनके भाषणों ने हताश-निराश माहौल के अंधेरे को छांटने का काम किया। वो आए और लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए। अपने जीवन में मन-वचन-कर्म को एक कर उन्होंने करोड़ों लोगों में अपनी अद्भुत भाषण शैली से नई जान डाल दी।

याद कीजिए 13 सितंबर, 2013 का वो दिन, जब नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव की कमान सौंपी और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। महज 6 महीने के भीतर शुरू हो रहे आम चुनावों में उन्हें पार्टी ने सवा अरब भारतवासियों के साथ संवाद करने की जिम्मेदारी सौंपी। और तब जिस जोरदार तरीके से उन्होंने रैलियों में अपने अनूठे अंदाज वाले भाषणों से समां बांधा, उस चुनाव अभियान ने एक बारगी पूरे विश्व को अचंभित कर दिया।

बगैर थके-बगैर रुके और बगैर एक भी सभा स्थगित किए, नरेंद्र मोदी ने 440 रैलियों के साथ पूरे देश की 3 लाख किलोमीटर की बेहद थकाऊ यात्रा महज 6 महीने में पूरी कर रिकॉर्ड कायम किया। इस चुनावी कैंपेन में उनके ओजस्वी भाषणों में कुछ ना कुछ नया और अनूठा था। काशी में जब मोदी की चुनावी सभा पर प्रशासन द्वारा रोक लगाई गई, तब उन्होंने कहा था, “मेरी मौन भी मेरा संवाद है।” इस एक वाक्य ने पूरे देश को उनके करिश्माई नेतृत्व में ऐसा गूंथ दिया कि भारतीय जनमानस में आत्माभिमान और आत्मगौरव वाले राजनीतिक नेतृत्व को लेकर एक नई बहस पैदा हो गई।

नरेंद्र मोदी ने श्रोताओं के हिसाब से अपने भाषणों में बदलाव किया, जो उनकी शैली की सबसे बड़ी खासियत भी बनी। अपने चुनावी अभियान में मोदी ने युवाओं और वृद्ध दोनों आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित किया। मोदी ने रटे-रटाए भाषणों के बजाय लय में बात रखी, जिसने अपेक्षाकृत अधिक लोगों के दिलों को छुआ। अपनी बॉडी लैंग्वेज में मोदी हाथों और उंगलियों का शानदार इस्तेमाल करते हैं। अपने शब्दों के हिसाब से वह चेहरे पर भाव लाते हैं । तर्कों को जब आंकड़ों और शानदार बॉडी लैंग्वेज का साथ मिलता है, तो भाषण अधिकतम प्रभाव छोड़ता है।

मोदी अपने विजन को लोगों तक पहुंचाने के लिए आंकड़ों का खूब इस्तेमाल करते हैं। जरुरतों और उपलब्धता के आंकड़े अपने भाषणों में इस्तेमाल कर मोदी ने मुश्किल समस्याओं को आसानी से लोगों के सामने रखा। महान वक्ता इतिहास के किस्सों से अपने भाषणों को जीवंत बनाते हैं। अपनी बात को प्रभावी तरीके से रखने के लिए वे मुस्कुराहट, नारों और लयात्मक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कई बार अच्छे वक्ता एक कहानी के माध्यम से ही अपनी बात और इरादे साफ कर देते हैं। नरेंद्र मोदी इस कला में निपुण हैं। उनके ‘वन लाइनर्स’ भाषण को यादगार बना जाते हैं।

विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों को जब वे संबोधित करते हैं, तब भी ऐसा ही होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की ‘सॉफ्ट पॉवर’ को पेश करने के लिए खास तौर पर प्रवासी भारतीयों पर ध्यान दिया है। चूंकि विदेशों में गए प्रवासी भारतीय काफी प्रभावशाली भूमिकाओं में हैं, इसलिए प्रधानमंत्री ने विभिन्न देशों के प्रमुख शहरों (जैसे कि ब्रसेल्स या दुबई) में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए, जिससे मजबूत संदेश दिया जा सके। ये प्रवासी भारतीय विदेश नीति संबंधी प्रयासों में एक अहम तत्व हैं और साथ ही भारत की ‘सॉफ्ट पॉवर’ को आगे भी बढ़ा रहे हैं।

मोदी सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया का जम कर उपयोग करते हैं। मीडिया प्रबंधन की उनके पास कारगर रणनीति है। वे सोशल मीडिया की अहमियत को हमेशा स्वीकार करते रहे हैं और इसलिए लोगों को सीधे इसी के जरिए संबोधित करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी उन शुरुआती नेताओं में से हैं, जिन्होंने हाल के समय में शुरू हुए ‘सेल्फी ट्रेंड’ के महत्व को समझा और इसका उपयोग उन्होंने अपने प्रचार के लिए किया। मोदी के बेहद लोकप्रिय ट्विटर अकाउंट पर सेल्फी को काफी महत्वपूर्ण जगह मिलती है और इस कारण युवाओं में उनकी काफी लोकप्रियता है।

संचार को ले कर वे जैसी रणनीति बनाते हैं, वो सबसे अलग है। साल 2014 के प्रचार के दौरान उन्होंने होलोग्राम तकनीक का इस्तेमाल किया, ताकि एक साथ उन्हें कई जगह पर देखा जा सके। संचार की यह रणनीति उनकी ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि बनाने में मददगार साबित हुई। नरेंद्र मोदी लोगों से सीधा संवाद कायम करने में सक्षम भी हैं और इच्छुक भी हैं।

मोदी जब विदेश जाते हैं, उस दौरान वहां के लिए संदेश देने के लिहाज से भी सोशल मीडिया ही उनकी पहली पसंद है। वे दूसरे देशों के लोगों के सामने उनकी अपनी भाषा में बात रखते हैं। यह भारतीय कूटनीति के तरकश में एक तीर है। सोशल मीडिया के जरिए पब्लिक डिप्लोमेसी आधुनिक कूटनीति का एक अहम साधन है, जिसका उद्देश्य खास तौर पर अपनी ‘सॉफ्ट पॉवर’ को पेश करना है। नरेंद्र मोदी इस कूटनीति के माहिर खिलाड़ी हैं।

लेकिन क्या मोदी का व्यक्तित्व सिर्फ भाषणों ने गढ़ा है? असल में नरेंद्र मोदी ‘मैन ऑफ एक्शन’ हैं। उन्हें मालूम है कि किस चीज को कैसे किया जाता है और भाषण की चीजों को एक्शन में कैसे लाया जाता है। लक्ष्य केंद्रित मोदी को मालूम है कि उनकी जिंदगी का उद्देश्य क्या है? 2014 में ब्यूरोक्रेसी के साथ सारे सहयोगियों को समय पर आने के आग्रह की शुरुआत प्रधानमंत्री खुद दफ्तर में ठीक 9 बजे हाजिर होकर शुरु करते हैं।

उनका ये एक कार्य ही मातहतों के लिए साफ संकेत था कि प्रधानमंत्री किस तरह की कार्यशैली के कायल हैं। एक तंत्र, जो अरसे से चलता आ रहा है, प्रवृत्ति का शिकार है, उस तंत्र को भीतर से दुरुस्त कर उसे इस तरह सक्रिय करना कि देखते ही देखते सारा काम पटरी पर आ जाए। ये कमाल उस नेतृत्व का है, जिसके आते ही प्रशासन में लोग खुद को बदलने के लिए मजबूर हो गए।

जापान दौरे में ताइको ड्रम बजाकर उन्होंने जिस तरह से संसार भर को खुद के भीतर लय-सुर-ताल की समझ रखने वाले शख्स का अहसास कराया, उसने क्षण भर में ही उनके भीतर मौजूद हर मौके पर आम लोगों की दिलचस्पी के मुताबिक काम करने वाले बहुआयामी शख्सियत को सामने ला दिया। जो बताता है कि मोदी को मालूम है कि आखिर उनके सामने दर्शक वर्ग उक्त समय में क्या सुनना पसंद करेगा और किस तरह के बर्ताव और संवाद की अपेक्षा लोग उनसे करेंगे।

लोकप्रिय भाषण देने में वो समकालीन नेताओं में सबसे आगे दिखाई देते हैं, क्योंकि उनके भाषणों के पीछे कठोर तपस्या और कर्म-साधना का बल खड़ा रहता है। हर जगह के हिसाब से उनके भाषणों का मिजाज अलग होता है। स्थानीय बोलियों के साथ देश की अनेक मातृभाषाओं में जनता के साथ वो सीधा संवाद करते हैं। स्थानीय लोकोक्तियों और स्थानीय लोगों की जिंदगी से जुड़े मार्मिक प्रसंगों का वो सहारा लेते हैं। मोदी अपने भाषणों में अक्सर जरुरत के अनुसार कहीं सख्त प्रशासक, तो कहीं नरमदिल और उदार नेता के तौर पर खुद की भावनाओं को आगे रखते हैं।

जिंदगी के रास्ते में उनके ऊपर फेंके गए पत्थरों से कैसे उन्होंने सफलता की सीढ़ियों का निर्माण किया, उनका जीवन और उनके भाषण इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। वो एक ओर देश के युवाओं में आस भरते हैं, तो खिलखिलाकर हंसते भी हैं। मुट्ठी बांधकर आसमान में देश की ताकत का परचम फहराते हैं, तो दोनों हाथ उठाकर करोड़ों भारतीयों के आत्मविश्वास को आवाज देते हैं।

आंखों में आंसू भरकर अपने बचपन की दुखों भरी जिंदगी का हवाला देकर वो आम भारतीय को हार न मानकर हिम्मत के साथ लड़ने और कर्मक्षेत्र में डटने की सीख भी देते हैं। ताकि गांव-गरीब-किसान, झुग्गी-झोपड़ी के इंसान, बेरोजगार नौजवान की जिंदगी में उम्मीदों का नया सवेरा आए। प्रधानमंत्री इन्हीं वजहों से बार बार ‘मुद्रा बैंक योजना’ के जरिए युवकों को स्वरोजगार के लिए कर्ज देने, नए बैंक खातों की योजना को सफल बनाने और ‘स्किल इंडिया’ के जरिए हर नौजवान को देश की जरुरत के हिसाब से हुनरमंद बनाने की बात करते हैं।

‘स्टार्टअप योजना’ के जरिए लाखों नए उद्यमी खड़े करने, स्वच्छता अभियान के जरिए भारत की बदरंग तस्वीर बदलने और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के जरिए महिलाओं और बच्चियों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। वह देश के कॉरपोरेट, विज्ञान, शिक्षा और खेल जगत समेत हर वर्ग और हर क्षेत्र में ‘सबका साथ-सबका विकास’ का महान मंत्र देते हैं, ताकि सबके साथ मिलकर भविष्य के भारत की तस्वीर को बदला जा सके।

प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति सब के बस की बात नहीं है। यह कला सीखी नहीं जा सकती। यह केवल और केवल अनुभव से आती है। जनता के बीच से निकला जमीनी नेता ही इस स्तर तक पहुंच सकता है। जैसे कि नरेंद्र मोदी। उन्हें सुनने वालों की फेहरिस्त में देश के लोग भी हैं और दुनिया के भी। विरोधियों को घेरना हो या मन की बात करनी हो, उनके शब्दों का चयन अनूठा होता है।

पुलवामा हमले के बाद जब उन्होंने कहा, “घर में घुसकर मारेंगे”, तब उनके चेहरे पर जो भाव थे, वे बता रहे थे कि यह महज भाषणबाजी नहीं है। विरोधी भले ही इसे जुमलेबाजी कहें, लेकिन शायद जनता इसे जुमलेबाजी नहीं मानती। अगर मानती तो मोदी का नाम ‘ब्रांड मोदी’ नहीं बन पाता। राष्ट्रीय राजनीति में अपने सेवा भाव, साधारण जीवन शैली, शानदार प्रबंधन और शब्दों के प्रभावी चयन के बूते नरेंद्र मोदी अगली कतार में आ खड़े हुए हैं।

जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने देश की विविध जनता को ध्यान में रखते हुए अपनी संवाद क्षमता का इस्तेमाल किया है, वह उनकी सफलता का बड़ा आधार भी है। ऐसे परिदृश्य में जब भारत के प्रधानमंत्री को वैश्विक नेता के रूप में मान्यता मिली है, उनका प्रत्येक शब्द मूल्यवान हो जाता है। विशाल देश की विशाल जनसंख्या से संवाद करने का इससे ज्यादा प्रभावी तरीका दूसरा नहीं हो सकता।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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युवा आक्रोश का शिकार बनी नेपाल की ओली सरकार: जितेन्द्र बच्चन

नेपाल के घटनाक्रम को कुछ लोग विदेशी ताकतों का खेल बता रहे हैं। कुछ हद तक संभव है, क्योंकि हर शक्ति सुपरबॉस बनना चाहती है। अमेरिका, रूस या चीन कोई भी हो।

Last Modified:
Friday, 12 September, 2025
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जितेन्द्र बच्चन, वरिष्ठ पत्रकार।

बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, म्यांमार और अब नेपाल में तख्तापलट से एक बात साफ हो गई है कि इंटरनेट के साथ पली-बढ़ी इस पीढ़ी को जो चाहिए, वह उसे हासिल करने के लिए हर तरीका आजमाने को तैयार है। नेपाल में सरकार और नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ जेन जी के विद्रोह का तात्कालिक कारण आप भले ही इंटरनेट मीडिया पर प्रतिबंध मान सकते हैँ, लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह रेमिटेंस पर निर्भर अर्थव्यवस्था भी है।

नेपाल बहुत हद तक देश से बाहर रहकर काम कर रहे अपने नागरिकों की कमाई पर निर्भर है। वहां न तो युवाओं के लिए नौकरियां हैं और न ही दूसरे अवसर। ऐसे में आकांक्षाओं की आग में सुलग रहे जेन जी को इंटरनेट मीडिया पर प्रतिबंध ने विस्फोटक बना दिया।

नेपाल के घटनाक्रम को कुछ लोग विदेशी ताकतों का खेल बता रहे हैं। कुछ हद तक संभव है, क्योंकि हर शक्ति सुपरबॉस बनना चाहती है। अमेरिका, रूस या चीन कोई भी हो। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली तो जाते-जाते भारत को ही दोषी ठहरा गए। लेकिन ओली और उनके मंत्री यह नहीं समझ पाए कि देश के जिन युवाओं की वे उपेक्षा कर रहे हैं, उनकी जरूरतों की अनदेखी कर परिवार को आगे बढ़ा रहे हैं, लोगों के साथ अन्याय हो रहा है, देश में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच चुका है, वही लोग एक दिन उनके लिए काल बन सकते हैं।

दरअसल, सत्ता का नशा ही ऐसा है कि जब तक ये तथाकथित नेता कुर्सी पर होते हैं, उन्हें नहीं लगता कि एक दिन उनसे यह सत्ता छिन सकती है। वे भूल जाते हैं कि अत्याचार, भ्रष्टाचार और अन्याय सहन करने वाला जब मरने-मारने पर उतरू हो जाता है तो वह अब पांच साल इंतजार नहीं करता। न संविधान न सरकार, न मुकदमा न अदालत, उसे तो ऑन स्पाट फैसला चाहिए।

बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, म्यांमार और अब नेपाल में यही हुआ है। इसके बावजूद नेता सबक नहीं ले रहे हैं। सत्ता में आते ही वे यह मान कर चलते हैं कि अब इस धरती के असली भगवान वही हैं। स्याह करें या सफेद, वह जो कर रहे हैं, वही सही है और उनका ही निर्णय सर्वमान्य होगा। बस, यहीं गच्चा खा जाते हैं।

ओली सरकार के साथ भी यही हुआ। देश की तरक्की, नवजवानों को रोजगार और भ्रष्टाचार से मुक्ति की शांति तरीके से मांग करने के लिए सरकार के विरोध में प्रदर्शन कर रहे कई लोगों को विद्रोही मानकर पुलिस ने गोलियों से भून दिया। प्रदर्शनकारियों पर सरकारी गाड़ी चढ़ाने की कोशिश हुई। ऐसे तानशाह प्रधानमंत्री और उसकी सरकार को कौन बर्दाश्त करेगा? आंदोलन कर रही युवकों की भीड़ विद्रोह पर उतर आई।

भ्रष्टाचार, अन्याय सह रही आम जनता भी युवाओं के समर्थन में उतर गई। अंतत: अपनी बात मनवाने के लिए राष्ट्रपति भवन, संसद और सुप्रीम कोर्ट तक को आग के हवाले कर दिया गया। कई पूर्व प्रधानमंत्रियों को भी जान-माल का नुकसान हुआ है और मंत्रियों को हिंसा व आगजनी की त्रासदी झेलनी पड़ रही है।

नेपाल के घटनाक्रम ने बता दिया है कि आज की युवा पीढ़ी पांच साल चुनाव का इंतजार करने को तैयार नहीं है। उसकी मानें तो अत्याचार, भ्रष्टाचार और अन्याय सहन करने वाला जब मरने-मारने पर उतरू हो जाता है तो न संविधान न सरकार, मुकदमा न अदालत, वह ऑन स्पाट फैसला चाहता है।

पड़ोसी देशों में यही हुआ है। हमें भी इस घटनाक्रम से सतर्क रहना चाहिए। यद्यपि हमारा संविधान बहुत अच्छा है। यहां हर किसी को बोलने की आजादी है। मानवाधिकार की अनदेखी नहीं की जाती, फिर भी हमें इससे सबक लेना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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शर्म की बात पर ताली बजाना: नीरज बधवार

एक बलात्कारी बाबा कुछ महीनों में 12 बार पैरोल पर बाहर आ जाता है, क्या ये कानून का मज़ाक नहीं है। एक नेता का दूधमुंहा बच्चा किस काबिलियत पर स्टेट क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बन जाता है।

Last Modified:
Thursday, 11 September, 2025
neerajbadhwar

नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

ये देखकर सच में बड़ी हैरानी होती है कि एक देश के तौर पर हममें पहचान का इतना संकट क्यों है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि एक तरफ हम इस बात में भी गौरव तलाशते हैं कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। एशिया में हम ही चीन को चुनौती दे सकते हैं। एक हम ही हैं जो ट्रंप के टैरिफ के दबाव में नहीं झुके। दूसरी तरफ हम इस बात के लिए खुद को शाबाशी दे रहे होते हैं कि देखो भारत के बगल में बांग्लादेश से लेकर नेपाल और श्रीलंका में तख्तापलट हो गया लेकिन हमारे यहां कुछ नहीं हुआ।

अगर आपके नाम ओलंपिक और वर्ल्ड रिकॉर्ड है तो आप इस बात पर खुश कैसे हो सकते हैं कि पूरे ज़िले में मेरे से तेज़ कोई नहीं दौड़ सकता। आप इस बात पर कैसे खुश हो सकते हैं कि देखो फलां गांव का बनवारी तो मेरे आगे कहीं नहीं ठहरता। नेपाल में लोकतंत्र का कोई इतिहास नहीं रहा। पाकिस्तान और बांग्लादेश बनने के बाद से वहां आधे वक्त तक सेना की हुकूमत रही है। अब इन देशों में तख्तापलट हो जाना और हमारे यहां न होना हमारे लिए गर्व का विषय कैसे हो गया।

दरअसल इस तरह का झूठा गौरव आत्महीनता से आता है। अंदर से हम भी जानते हैं कि इन देशों जितने न सही लेकिन राजनीति से लेकर लगभग हर क्षेत्र तक हम भी इतने ही भ्रष्ट हैं। सैकड़ों करोड़ की लागत से सालों के इंतज़ार के बाद पुल बनता है और वो एक महीने की बारिश में गड्ढों में तब्दील हो जाता है। इसके बावजूद क्या कभी किसी इंजीनियर या ठेकेदार को सज़ा होते देखी?

एक बलात्कारी बाबा कुछ महीनों में 12 बार पैरोल पर बाहर आ जाता है, क्या ये कानून का मज़ाक नहीं है। एक नेता का दूधमुंहा बच्चा किस काबिलियत पर स्टेट क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बन जाता है, क्या ये भ्रष्टाचार नहीं है। एक नेता देश की सबसे मुश्किल परीक्षा पास करके पुलिस अधिकारी बनी महिला से गुंडों की ज़बान में बात करता है, क्या ये देश के टैलेंट का मज़ाक नहीं है।

चारों तरफ लोग बाढ़ के पानी में डूबकर मर रहे हैं। हर तरफ सड़क पर आवारा जानवर घूम रहे हैं। प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की पॉकेट से बाहर है। सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने से अच्छा आदमी चाय में फिनाइल घोलकर पी ले। इस पर भी एक मुल्क की गैरत नहीं ललकारती। चीजें ज्यों की त्यों बनी रहती हैं, तो इसलिए नहीं कि हम बड़े सहिष्णु हैं। इस देश की जड़ें बहुत मज़बूत हैं। वो इसलिए क्योंकि ये देश भाग्यवादी है। सड़क हादसे में आदमी इसलिए नहीं मरता कि ये उसकी नियति थी। वो इसलिए मरता है क्योंकि रात के अंधेरे में उसकी बाइक सड़क के बीचों-बीच बने गड्ढे से जा टकराई थी।

मरने वाले के परिवारवाले इसे ईश्वर की मर्ज़ी मानकर संतोष कर लेते हैं। व्यवस्था में बैठे लोगों के शरीर में शर्म का रसायन बनना बंद हो चुका है। जो लोग इस हादसे का हिस्सा नहीं हैं उनके लिए ये लोकल एडिशन के तीसरे पेज के किसी आखिरी कोने में छपी ख़बर है। इसके बावजूद हालात इसलिए नहीं बदलते क्योंकि हर कोई अपने-अपने हिस्से का भारत खाने में लगा है।

नेता और ब्यूरोक्रेसी को मोटे तौर पर देश से इसलिए लेना-देना नहीं क्योंकि वो इस देश में किराएदार की तरह रहते हैं। जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं, जो छुट्टियां विदेशों में मनाते हैं, इलाज विदेशों में करते हैं। जो अपने-अपने शहरों के वीआईपी इलाकों में रहते हैं, जहां न कोई पटरियों पर अवैध कब्ज़े होते हैं, न आवारा पशु घूमते हैं। इसलिए जब ये देश झूठा दंभ भरता है कि हम तो इतने ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी हो गए तो ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात का भान ही नहीं कि भाई असल मुद्दा ये है ही नहीं।

एक देश जो अपनी लगभग पूरी आबादी को पीने का साफ पानी नहीं दे पा रहा है, ना साफ हवा दे पा रहा है, ना उसे ट्रांसपोर्ट की चिंता है, न उसे हर साल रोड एक्सीडेंट्स में मरने वाले लोगों की फिक्र है। जहां खाने की एक भी चीज़ बिना मिलावट के नहीं मिलती, वो देश जब बार-बार अपने उभरने की, अपने विश्व शक्ति बनने की बात करता है तो इससे बड़ी निर्लज्जता और कुछ नहीं हो सकती। मगर हम ऐसे निर्लज्ज बन गए हैं जो दूसरों की बदहाली से खुद की तुलना कर अपने लिए महानता तलाशते हैं। जिस बात पर माथा पीटना चाहिए, उस पर ताली बजाते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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नेपाल में बरसों से सुलगता हुआ गुस्सा फूट पड़ा: रजत शर्मा

नेपाल के युवाओं का गुस्सा उबाल पर है। इन्हें मीडिया में GenZ कहा जा रहा है। बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता सोशल मीडिया पर बैन लगाये जाने के बाद सड़कों पर उतर आई और तख्तापलट कर दिया।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 10 September, 2025
Last Modified:
Wednesday, 10 September, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

नेपाल में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सोशल मीडिया बैन के खिलाफ फूटा जनाक्रोश हिंसक तख्तापलट में बदल गया और दूसरे ही दिन प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा। काठमांडू, पोखरा सहित तमाम शहरों में संसद भवन, प्रधानमंत्री निवास, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट, राजनीतिक दलों के दफ्तरों और बड़े होटलों को भीड़ ने आग के हवाले कर दिया, मंत्रियों और पूर्व पीएम शेर बहादुर देउबा तक को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया और हालात इतने बिगड़े कि काठमांडू अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा बंद करना पड़ा तथा नेताओं को सेना ने हेलीकॉप्टर से सुरक्षित ठिकानों पर पहुंचाया।

सोमवार को पुलिस फायरिंग में 21 युवाओं की मौत और ढाई सौ से ज्यादा के घायल होने से गुस्सा और भड़क गया, मृतकों के सीने पर गोलियां मिलीं और देशभर में आंदोलन "Gen-Z मूवमेंट" के नाम से फैल गया जिसमें 1997 से 2012 के बीच जन्मे डिजिटल युग के युवा शामिल हैं, जो इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय रहते हैं और बेरोजगारी व पलायन जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं।

नेपाल की तीन करोड़ की आबादी में करीब सवा करोड़ सोशल मीडिया अकाउंट्स हैं और विदेशी कमाई देश की GDP का 25% है, इसलिए सोशल मीडिया पर तीन सितंबर को लगाए गए बैन ने युवाओं की नाराज़गी को विस्फोटक रूप दे दिया। गुस्साई भीड़ ने सोशल मीडिया पाबंदी के खिलाफ नहीं बल्कि भ्रष्टाचार, महंगाई और नेताओं की चीनपरस्ती के खिलाफ नारे लगाए और ओली सरकार को जनआक्रोश का सामना करना पड़ा।

नेपाल में पिछले 35 साल में 32 सरकारें बन चुकी हैं और पिछले 10 साल में 9 प्रधानमंत्री बदले हैं, जिससे अस्थिरता और गहरी हुई। ओली पर आरोप था कि वे चीन के दबाव में TikTok को छोड़ बाकी प्लेटफॉर्म्स पर बैन लगाकर नेपाल को बीजिंग के नजदीक ले जा रहे थे, जिससे युवाओं में असंतोष बढ़ा। सरकार के भीतर भी संकट गहराया, गृह मंत्री ने इस्तीफा दिया लेकिन आंदोलन थमा नहीं।

ओली ने अपने त्यागपत्र में राजनीतिक समाधान की बात कही और सर्वदलीय बैठक बुलाने का ऐलान किया, लेकिन जनता का भरोसा टूट चुका है। इस पूरे घटनाक्रम ने भारत को भी सतर्क कर दिया है क्योंकि नेपाल से सीमा और रोटी-बेटी का गहरा रिश्ता है, लिहाज़ा सीमा पर चौकसी बढ़ा दी गई है। यह साफ है कि सोशल मीडिया बैन ने सिर्फ चिंगारी का काम किया, असली आग भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आर्थिक मंदी ने भड़काई, जिसने नेपाल को सबसे बड़े जनआंदोलन और सत्ता परिवर्तन की ओर धकेल दिया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जीएसटी कट का फायदा मिलेगा क्या? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

GST जुलाई 2017 से लागू हुआ था। इस बार प्रचार ऐसे हो रहा है कि पहली बार कटौती हुई है। जबकि पहली बार कटौती नवंबर 2017 में हुई थी। क़रीब 175 चीज़ों को 28% से हटाकर 18% में लाया गया था।

Last Modified:
Monday, 08 September, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) काउंसिल ने रेट कटौती पर मुहर लगा दी है।अब ज़्यादातर सामान और सर्विस 5% और 18% के दायरे में होंगी। केंद्र सरकार को उम्मीद है कि इससे महंगाई कम होगी, लोग ज़्यादा ख़रीददारी करेंगे, अमेरिका के टैरिफ़ की भरपाई होगी और अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी। इसके पीछे भरोसा है कि कंपनियाँ या दुकानदार टैक्स कटौती का फ़ायदा अपनी जेब में नहीं रखेंगे, बल्कि ग्राहकों को सस्ता बेचेंगे।

अब चर्चा इस बात पर है कि क्या सरकार कंपनियों को क़ाबू में रख पाएगी? GST जुलाई 2017 से लागू हुआ था। इस बार प्रचार ऐसे हो रहा है कि पहली बार कटौती हुई है। जबकि पहली बार कटौती नवंबर 2017 में हुई थी। क़रीब 175 चीज़ों को 28% से हटाकर 18% में लाया गया था। केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस आयजेक ने कहा है कि 2018 में GST का औसत रेट 15% से घटाकर 12% पर लाया गया, लेकिन फ़ायदा लोगों को नहीं मिला।

केरल सरकार ने 25 कंपनियों का अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि रेट कट का फ़ायदा कंपनियों ने अपनी जेब में रख लिया। 2017 में GST लागू हुआ तो कानून में दो साल के लिए National Anti Profiteering Agency (NAA) बनाई गई थी। इसका काम था यह देखना कि कंपनियाँ बेमानी तो नहीं कर रही हैं।NAA ने हिंदुस्तान यूनिलीवर, P&G, Domino’s, KFC, Pizza Hut, Samsung जैसी बड़ी कंपनियों की जाँच की।

उन पर आरोप लगे कि टैक्स कट का फ़ायदा ग्राहकों तक नहीं पहुंचाया। हिंदुस्तान यूनिलीवर, Samsung और Domino’s पर तो जुर्माना भी लगाया गया। यह एजेंसी अब अस्तित्व में नहीं है। केंद्र सरकार ने कहा है कि वो सेंट्रल बोर्ड ऑफ इनडायरेक्ट टैक्स एंड कस्टम (CBIC) के ज़रिए कंपनियों पर एक डेढ़ महीने नज़र रखेगी।

बात सिर्फ़ सरकार की नहीं है, बाज़ार को भी कंपनियों पर पूरा भरोसा नहीं है। मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट कहती है कि रेट कट का फ़ायदा ग्राहकों तक कितना पहुँचेगा, इस पर संदेह है। अन्य ब्रोकरेज फर्म का अनुमान है कि FMCG, White Goods और ऑटो कंपनियाँ अपने मार्जिन को बेहतर करने के लिए शायद टैक्स कट का कुछ हिस्सा अपने पास रख लें। सीमेंट कंपनियों को लेकर भी यही आशंका है। यह आशंका सही साबित हुई तो सरकार की कोशिश पर पानी फिर जाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हिंदी साहित्य पर मार्क्सवाद लादने का षडयंत्र: अनंत विजय

हिंदी साहित्य पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े के पीठ पर मेढक लादने से की गई। समय समय पर हिंदी के लेखकों ने इस खतरे के विरुद्ध आवाज उठाई पर उन आवाजों को दबा दिया गया।

Last Modified:
Monday, 08 September, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पिछले महीने स्वाधीनता दिवस के आसपास झारखंड से कवि चेतन कश्यप ने अमृलाल नागर का एक आलोचक को लिखे पत्र, जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है, का स्क्रीनन शाट भेजा। पुस्तक का नाम है मैं पढ़ा जा चुका पत्र। अमृतलाल नागर उस पत्र में लिखते हैं, तुम सौ फीसदी मार्क्सिस्टों को राम-राम कहने से मुझे बहुत आनंद लाभ होता है। प्रियवर रामविलास जी से तो जै बजरंगबली तक हो जाती है इसलिए तुम सबको सस्नेह राम-राम। तब इस पत्र पर चेतन से चर्चा हुई और कुछ अन्य साहित्यिक विषयों पर भी। बात आई गई हो गई।

अभी अचानक एक मित्र ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सर्जक मन का पाठ’ के कुछ अंश भेजे। ये पुस्तक वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द मिश्र को साहित्यकारों ने के लिखे पत्रों का संकलन है। इसका जो अंश मुझे मिला वो अमृतलाल नागर के पत्र की तरह ही दिलचस्प है। शैलेश मटियानी ने गोविन्द मिश्र को लिखा, आपने साहित्य द्वारा आत्मिक से साक्षात्कार का प्रश्न भी कुछ विस्तार से लिया है, क्योंकि यही साहित्य का कर्म रहा है।

जैसे भौतिक विज्ञान वाह्य जगत, वैसे ही अन्त:विज्ञान भीतरी संसार को प्रतिस्थापित करता है। हम सब जानते हैं कि मनुष्य के भीतर का विस्तार बाह्य जगत के विस्तार से तिल भर भी कम नहीं है। क्योंकि शून्य मनुष्य का भी उतना ही अपरिचित है जितना कि पृथ्वी का। यहीं प्रश्न वह उठाया है कि चूंकि विचारधाराएं सिर्फ राज्य का माडल बनाती हैं लेकिन साहित्य समाज का माडल, इसलिए ही दृष्टि का अंतर पड़ जाता है।‘ अपनी इस टिप्पणी में शैलेश मटियानी ने विचारधारा की सीमाओं को स्पष्ट किया है।

शैलेश मटियानी की आगे की टिप्पणी से स्पष्ट होता है कि वो मार्क्सवाद से झुब्ध थे। आलोचकों और लेखक संगठनों द्वारा मार्क्सवाद को हिंदी साहित्य पर लादे जाने को लेकर भी कठोर टिप्पणी करते हैं। वो लिखते हैं कि मार्क्सवाद को जिस तरह से हिंदी साहित्य पर लादा जा रहा है, इससे ही कोफ्त हुई और थोड़ी सी छेड़खानी इसी निमित्त की है, क्योंकि मार्क्सवाद को साहित्य पर लादना घोड़े की पीठ पर मेढ़क को लादना है। मैं साहित्य के सामने मार्क्सवाद की कोई हैसियत नहीं समझता। मनुष्य के लिए जितनी जगह और जितना विस्तार साहित्य में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।

आपसे बहुत ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि लेखक होने का अहसास ध्वस्त हो चुका है और इसलिए अब लात-जूता खाने का डर नहीं रहा। खोपड़ी-भंजन अब इसलिए भी सुहाने लगा है कि शायद इसके बाद कुछ लेखक हो सकने की गुंजाइश निकल आए, क्योंकि वो जड़ता को कुछ तोड़ने की कोशिश में ही है। खुद पर हंसना आना चाहिए, इस कथन का मर्म आज समझ में आ रहा है और खुद की लकड़बुद्धि पर कई बार मुझे ठहाका लगाने का मन होता है।‘ उन्होंने जिस तरह से लेखकों पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े पर मेढ़क लादने की कोशिश से की है उससे ये स्पष्ट होता है कि वो मानते हैं कि लेखकों पर मार्क्सवाद थोपना कितना कठिन कार्य था।

बावजूद इसके मार्कसवादी आलोचकों और लेखक संगठनों ने ये प्रयास तो किया ही। लेखकों पर भले ही मार्क्सवाद नही लाद पाए हों पर हिंदी साहित्य और अकादमिक जगत में उनको सफलता मिली। मार्क्सवाद रूपी मेढ़क को अकादमिक जगत रूपी घोड़े पर लादने में कम्युनिस्ट सफल रहे। उन्होंने वैचारिक रूप से कुछ ऐसे मेढ़क तैयार कर दिए जो घोडे की पीठ पर बैठकर भी यात्रा कर पा रहा है। ये कोई हुनर नहीं है बल्कि मेढ़क को निष्क्रिय करके घोड़े की पीठ पर लाद दिया गया। उसको उसी अवस्था में सबकुछ मिलता रहा और वो सर्वाइव करता रहा।

अब एक तीसरा उदाहरण आपसे समक्ष रखता हूं। ये उदाहरण भी एक पुस्तक से है जिसको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने फेसबुक पर पोस्ट किया है। ये पुस्तक है देसी पल्प फिक्शन पर केंद्रित बेगमपुल से दरियागंज। उसके उस अंश को देख लेते हैं जो अनुपम जी ने साझा किया, कांबोज के दोस्त सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का सिलसिला तबतक चल निकला था।

पाठक जी याद करते हैं, 1970 तक शर्मा जी के प्रकाशन ‘जनप्रिय’ के यहां से लोकप्रिय सीरीज ते तहत उनके उपन्यासों का स्कोर ग्यारह तक पहुंच गया था जिनमें से तीन- अरब में हंगामा, आपरेशन जारहाजा पोर्ट और आपरेशन पीकिंग- जेम्स बांड सीरीज के थे जो कि शर्मा जी के बेटे महेन्द्र के अनुरोध पर लिखे गए थे। आरती पाकेट बुकस के लेटरहेड पर उसी साल अगस्त में उन्हें शर्मा जी के तीसरे पुत्र सुरेन्द्र के दस्तखत से एक चिट्ठी मिली, पिताजी के आदेशानुसार हम निकट भविष्य में आपके उन उपन्यासों को प्रकाशित करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं जो रूस विरोध एवं कम्युनिस्ट विरोधी हों।

यानि के चार जेम्स बांड उपन्यास के बाद वहां चेतना जागृत हुई कि ये उपन्यास रूस विरोधी होते हैं। शायद रूस और कम्युनिज्म से प्रेम का ट्रेड यूनियन काल वहां दस्तक दे रहा था।‘ इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि किस तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक और प्रकाशक रूस और कम्युनिस्ट विरोध के नाम पर रचनात्मकता को बाधित करते थे, करते रहे और अब भी कर रहे हैं। अब भी प्रकाशन जगत में खुलापन नहीं आया। एक बडा प्रकाशक अब भी कम्युनिस्टों को प्रश्रय देता है। कमीशन करके कम्युनिस्टों से पुस्तकें लिखवाता है। ये सब वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दिन रात छाती कूटते रहते हैं। लेकिन जब अवसर मिलता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।

उपरोक्त तीन उदाहरणों से स्पष्ट है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म को लेकर बहुत संगठित और योजनाबद्ध तरीके से साहित्य जगत में कार्य हुआ। लेखन हो, आलोचना हो, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो, पुस्तकों का प्रकाशन हो, पुस्तकों की सरकारी खरीद हो, अकादमिक जगत हो, अकादमियां हों हर जगह अपनी विचारधारा के लोग फिट किए गए।

नामवर जी जब राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में थे तो उनपर एक प्रकाशक विशेष को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे। संसद में भी सवाल उठे थे। एक तरफ तो ये हो रहा था और दूसरी तरफ इन जगहों पर जिन्होंने उस विचारधारा को स्वीकार नहीं किया उनको हाशिए पर डालने में पूरी शक्ति लगा दी गई थी। विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं मिल जाए इसपर नजर रखने के लिए एक टीम रहती थी। जो उम्मीदावारों की वैचारिक पृष्ठभूमि जांचती थी।संस्कृति को भी प्रभावित करने या एक नई संस्कृति बनाने का प्रयास हुआ।

सनातन संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब जैसे भ्रामक पर रोमांटिक शब्दावली से विस्थापित करने का प्रयास हुआ जो आंशिक सफल भी रहा। मार्सवादी विचार और विचारधारा की इस जकड़न में लंबे समय तक रहने से हिंदी साहित्य एकांगी सा होने लगा था। परिणाम ये हुआ कि पाठक साहित्य से दूर होने लगे।

अब पाठकों को विचारधारा मुक्त साहित्य का विकल्प मिलने लगा है तो वो फिर से पुस्तकों की ओर लौट रहा है। दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला से लेकर पटना पुस्तक मेला और रांची पुतक मेला में पाठकों की भीड़ हिंदी प्रकाशकों के स्टाल पर आने लगी है। यह आश्वस्ति प्रदान करने वाला है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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रायसीना की सत्ता के लिए लालू-राहुल का रस्सा आत्मघाती: आलोक मेहता

शायद उस समय दोनों को यह ग़लतफ़हमी हो गई थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं मिलेगा।

Last Modified:
Monday, 08 September, 2025
alokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

लालू यादव और राहुल गांधी का एक ही लक्ष्य है, रायसीना हिल्स यानी भारत के सिंहासन पर कब्जा। लालू यादव की 2019 में प्रकाशित आत्मकथा - 'गोपालगंज से रायसीना' इसी बात का संकेत था। इस किताब की प्रस्तावना कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 13 सितम्बर 2018 को ही लिखकर भेज दी थी।शायद उस समय दोनों को यह ग़लतफ़हमी हो गई थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं मिलेगा और फिर लालू समर्थन वाले कांग्रेस गठबंधन की सरकार राहुल गांधी के नेतृत्व में बन जाएगी।

लेकिन मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह 2019 और 2024 में भी हकीकत में नहीं बदल सके।इसी आत्मकथा में लालू प्रसाद यादव ने अपने बेटे तेजस्वी यादव पर पूरा चैप्टर लिखकर अपने उत्तराधिकारी की तरह पेश कर दिया था। अब बिहार विधानसभा चुनाव से पहले लालू के फार्मूले से तेजस्वी यादव ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने और खुद मुख्यमंत्री बनने की पतंग उड़ाई है।लालू यादव के पुराने फार्मूले पर ही तेजस्वी यादव और राहुल गांधी तथा उनकी पार्टियां घोटालों की जांच करने वाली केंद्रीय एजेंसियों - सीबीआई, ईडी और चुनाव आयोग पर अधिकाधिक हमले कर जनता को भ्रमित करने में लगे हैं, ताकि चुनाव व्यवस्था की विश्वसनीयता ही खत्म हो जाए और पराजय के बाद वे अन्य तरीकों से असंतोष-अराजकता पैदा कर सकें।

असल में 1990 और 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्दशा के कारण लालू यादव के जनता दल (विभाजन के बाद राष्ट्रीय जनता दल नाम) को भारी बहुमत मिलने से उनकी महत्वाकांक्षा शिखर पर पहुँच गई थी। लालू अपने को केंद्र में गठबंधन के प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने लगे थे।अपनी सभाओं में लालू यादव अपनी जाति और मुस्लिम वोट की ताकत दिखाते हुए सार्वजनिक सभाओं में घोषणा करने लगे थे - "कोई माई का लाल अब आपको दिल्ली पर कब्जा करने से नहीं रोक सकता।" दूसरी तरफ कभी राजीव गांधी के कैबिनेट सचिव रहे ईमानदार प्रशासक दक्षिण भारतीय टी. एन. सेशन को नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने चुनाव आयुक्त नियुक्त कर रखा था।

वह पहले की तरह चुनावों में धांधली रोकने के लिए हर संभव कड़े कदम उठा रहे थे। इन क़दमों से बौखलाए मुख्यमंत्री पद पर बैठे लालू यादव ने अपने सुबह के दरबार में समर्थकों के बीच कहा "सेशन पगला सांड जैसा कर रहा है, उसे मालूम नहीं है कि हम रस्सा बाँध के खटाल (जानवरों का बाड़ा) में बंद कर सकते हैं।" बाद में केंद्र में देवेगौड़ा और कांग्रेस की सरकार में भी चारा काण्ड की जांच तेज होने पर लालू यादव ने सीधे धमकियों का इस्तेमाल किया। यह बात स्वयं लालू प्रसाद यादव ने 2008 में एक टेलीविजन इंटरव्यू में बताई।

उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा से हुई मुलाकात का विवरण देते हुए बताया -"मैं 7 रेस कोर्स (पीएम निवास) गया और उनसे कहा आप मुझे क्यों लटका रहे हो? मैं बिहार में कैसे काम करूँगा? फिर हम दोनों में तीखी नोक-झोंक हुई और मैं बहुत उत्तेजित हो गया। बहुत बुरा सुनाया। वह रोने लगे और फेंट (मूर्छित से) हो गए।" फिर देवेगौड़ा को लालू और कांग्रेस के दबाव में हटना पड़ा और इन्दर कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बन गए। सीबीआई अपनी जांच तेज कर रही थी। सीबीआई के निदेशक जोगिन्दर सिंह थे।

उन्होंने मेरे जैसे पत्रकारों को भी बताया कि लालू के कारण गुजराल साहब ने भी 900 करोड़ रुपये के चारा घोटाले की जांच बहुत धीमे करने के निर्देश दिए। यह पृष्ठभूमि यह ध्यान दिलाती है कि इसी फार्मूले से राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जांच एजेंसियों और गठबंधन की सरकार पर दबाव बनाने के लिए हर संभव अभियान चला रहे हैं। केंद्र में सत्ता उखाड़ने-बनाने के प्रदर्शन के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन को बिहार की सड़कों पर घुमाया गया। बिहार के लोग इस बात को हास्यास्पद बता रहे हैं कि स्टालिन से प्रदेश का कोई मतदाता वोट डाल सकता है।

यही नहीं, कांग्रेस पार्टी के बिहार के ही नहीं राष्ट्रीय स्तर के पुराने कांग्रेसी नेता राहुल गांधी के सबसे विश्वस्त दक्षिण भारतीय सहयोगी वेणुगोपाल के हाथों में सारे निर्णय को लेकर परेशान हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक में हिंदी और उत्तर भारतीयों के विरुद्ध डीएमके और कांग्रेस के नेता आए दिन बयानबाजी करते रहते हैं।यही नहीं बिहार में वेणुगोपाल, मल्लिकार्जुन खरगे, जयराम रमेश पर राहुल गांधी की निर्भरता से इंदिरा-राजीव युग के कांग्रेसी परेशान हो नए रास्ते खोज रहे हैं।तेजस्वी-राहुल गांधी के अभियान के मुकाबले के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यू), भारतीय जनता पार्टी, प्रशांत किशोर की जान सुराज पार्टी लालू यादव राज के दौरान अपराधियों-माफिया से प्रदेश में रहे आतंक की याद दिला रहे हैं।

इस बात पर भी चिंता है कि राहुल-तेजस्वी के चुनावी विजय के दावों के कारण अपराधी अभी से हत्या, चोरी, अपहरण की गतिविधि कर रहे हैं, ताकि नीतीश सरकार को बदनाम किया जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माताजी को गालियाँ दी जाने, लालू-तेजस्वी के यादव-मुस्लिम-ईसाई समीकरण से भावनात्मक मुद्दे अंदर ही अंदर गर्म हो रहे हैं। तेजस्वी की पत्नी, स्टालिन और सोनिया गांधी के क्रिश्चियन कनेक्शन पर ध्यान दिलाया जा रहा है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह भाजपा-नीतीश सरकार की कल्याण और विकास योजनाओं से मिले लाभ और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयासों को चुनावी अभियान में महत्व दिया जाए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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गुरुग्राम के लोगों की आवाज को कौन सुनेगा: रजत शर्मा

बारिश की वजह से साइबर सिटी गुरुग्राम का पिछले तीन दिनों में जो हाल हुआ, उसकी तस्वीरें आईं डराने वाली है। मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम के ज्यादातर पॉश इलाके पानी में डूब गए।

Last Modified:
Thursday, 04 September, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

इस समय पंजाब के अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के कई इलाकों में भारी बारिश से हालात खराब हैं। हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और भूस्खलन की वजह से 300 से ज़्यादा लोगों की जान जा चुकी है। दिल्ली में यमुना नदी खतरे के निशान के ऊपर बह रही है और बहुत से निचले इलाकों में बाढ़ का पानी भर गया है।

दिल्ली में पुराने लोहे के रेलवे पुल को बंद कर दिया गया है। बारिश की वजह से साइबर सिटी गुरुग्राम का पिछले तीन दिनों में जो हाल हुआ, उसकी तस्वीरें डराने वाली हैं। मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम के ज्यादातर पॉश इलाके पानी में डूब गए। हर जगह पानी भरा, हर जगह जाम लगा। गुरुग्राम के राजीव चौक, हीरो होंडा चौक, इफको चौक और खिड़की दौला टोल प्लाज़ा की सड़कों पर कई फीट पानी भरा रहा।

इसके अलावा, गुरुग्राम के सदर, नरसिंहपुर, शीतला माता मंदिर रोड, अग्रसेन चौक, सेक्टर 15, मेहरौली रोड, ओल्ड दिल्ली रोड और द्वारका रोड जैसी सड़कों पर इतना पानी था कि लोगों का निकलना मुश्किल हो गया। लगातार बारिश की वजह से राजीव चौक और बजघेरा अंडरपास जैसे प्रमुख मार्गों पर ट्रैफिक थम गया।

दिल्ली से गुरुग्राम जाने वाली और गुरुग्राम से दिल्ली और जयपुर आने वाली सड़कों पर आठ किलोमीटर लंबा ट्रैफिक जाम लगा रहा। जो लोग शाम को दफ्तर से निकले, वे आधी रात के बाद घर पहुंचे। जो दूरी 20 मिनट में तय हो जाती थी, उसे तय करने में चार-पांच घंटे लग गए। गुरुग्राम में जलभराव और जाम के बाद लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकाली। कहा कि सरकार के ख़ज़ाने में हज़ारों करोड़ रुपये देने वाला गुरुग्राम अनाथ है। यहां नगर प्रशासन की पूरी व्यवस्था फेल हो गई है।

गुरुग्राम में करोड़ों के फ्लैट ख़रीदने वाले कीड़े-मकोड़ों जैसी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। आखिर गुरुग्राम के लोगों का कसूर क्या है? उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा है कि उन्हें दो-दो घंटे जाम में खड़े रहना पड़ता है? क्या उनका गुनाह यह है कि गुरुग्राम में रहने वाले और काम करने वाले हर साल एक लाख करोड़ रुपये का टैक्स देते हैं? क्या उनका कसूर यह है कि हरियाणा का 45% जीएसटी सिर्फ गुरुग्राम से आता है? इसी जीएसटी की वजह से हरियाणा का जीएसटी कलेक्शन पंजाब से पांच गुना है।

क्या गुरुग्राम के लोगों का कसूर यह है कि वे एक्साइज के नाम पर हरियाणा को 27% राजस्व देते हैं? गुरुग्राम में रहने वाले लोग रोड टैक्स देते हैं, टोल देते हैं और इन सारे टैक्सों के बदले हर साल गुरुग्राम की सड़कें नदी और नालों में बदल जाती हैं। 50-50 करोड़ के फ्लैट में रहने वालों का घर से बाहर निकलना बंद हो जाता है।

गुरुग्राम में बहुत सारी मल्टीनैशनल कंपनियां हैं, जिनमें काम करने वाले लोग दुनिया के बड़े-बड़े शहरों से आते हैं। बात दूर तक जाती है और पूरी दुनिया में गुरुग्राम का नाम खराब होता है। और यह कोई एक बार की बात नहीं है। हर साल यही कहानी दोहराई जाती है। इसे कौन ठीक करेगा? गुरुग्राम के लोगों की सुध कौन लेगा? इसका जवाब देने वाला भी कोई नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जमीन का टुकड़ा नहीं, आध्यात्मिक भाव है भारत : प्रो .संजय द्विवेदी

सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं।

Last Modified:
Thursday, 04 September, 2025
profsanjay

प्रो .संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष।

भारत का संकट यही है कि हमने आजादी के बाद भारत प्रेमी समाज खड़ा नहीं किया। समूची शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक-प्रशासनिक-न्याय तंत्र में पश्चिम से आरोपित विचारों ने हमारे पैर जमीन से उखाड़ दिए। औपनिवेशिक काल की गुलामी दिमाग में भी बैठ गई। उससे उपजे आत्मदैन्य ने हमें भारत की चिति(आत्मा) से अलग कर दिया। वैचारिक उपनिवेशवाद ने हमारा बुरा हाल कर दिया है।

यह संकट निरंतर है। भारत को न जानने से ही भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। जबकि एक गहरी आध्यात्मिक चेतना से उपजी भारतीयता किसी के विरुद्ध नहीं है। हमारी संस्कृति विश्व बंधुत्व, विश्व मंगल और लोक-मंगल की वाहक है। आध्यात्मिक भाव इसी जमीन की देन है जिसने बताया कि सारी दुनिया के मनुष्य एक ही हैं। मनुष्य और उसके दुखों का समाधान खोजने राम, बुद्ध, महावीर जैसे राजपुत्र वनों में जाते रहे।

वसुधा को कुटुम्ब (विस्तृत परिवार) की संकल्पना भारत की अप्रतिम देन है। धरती के सभी मनुष्य, सभी जीव और सभी अजीव भी इस कुटुम्ब में शामिल हैं। अतः समूची सृष्टि के योगक्षेम की कामना करते हुए भारत सुख पाता है। यही भाव सबके संरक्षण और सबके संवर्धन का प्रेरक है। इसी भावना से 'पृथिव्या लाभे पालने च..' लिखते हुए आचार्य चाणक्य अपने 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अधिकरण में ही पृथ्वी के पालन की कामना की है। यूएनओ अर्थ चार्टर 2000 में धरती जीवंत है, ऐसा मान लिया है।

प्रकृति है ईश्वर का विस्तार-

प्रकृति को लेकर भारत की अपनी समझ है। हम संपूर्ण प्रकृति को ईश्वर का ही विस्तार मानते हैं। हमारी मान्यता है कि देव स्वयं प्रकृति में आया। सृष्टि का निर्माता सृष्टि के साथ ही है। हमारे जीवन के नियंता भी प्रकृति के सूर्य,जल, वायु, अग्नि,वन जैसे अवयव ही हैं। इससे हममें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव आता है। इसलिए हम इन सबको देवता कहकर संबोधित करने लगे। सूर्य देवता, अग्नि देव आदि। यह कृतज्ञता का चरम और प्रकृति से संवाद का अप्रतिम उदाहरण भी है। हम मानते हैं कि जो देता वह देवता है। इसी से हम देव और असुर में भेद करते आए हैं। हमारे वैदिक मंत्र सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस तरह हम एक ऐसी संस्कृति के उत्तराधिकारी बन जाते हैं जो प्रकृति सेवक या पूजक है।

'श्वेताश्वतरोपिषद्'(6.11) कहता है, "एको देव: सर्वभूतेषू गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा" इसलिए हममें प्रकृति के मालिक या स्वामी होने का भाव नहीं आया। प्रकृति के दोहन का विचार हमारा है, शोषण का विचार पराया है। भारतबोध इन्हीं तत्वों से विकसित होता है। भारत ने ज्ञान भूमि के रूप में स्वयं को विकसित किया। जहां 'भा' यानी ज्ञान और 'रत' का मतलब लीन। इस तरह यह ज्ञान की साधना में लीन भूमि है। जिसने मानवता के समक्ष प्रश्नों के ठोस और वाजिब उत्तर खोजे।

कालिदास भी ‘कुमारसंभवम्’ में भारत की उत्तर दिशा में हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं। अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:। पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म स्थित पृथिव्या इव मापदण्ड:।

हिमालय से समुद्र तक इस पवित्र भूमि का विस्तार है। व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि से लेकर आधुनिक समय में बंकिमचंद्र चटोपाध्याय (वंदेमातरम), मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे कवि इसी भूमि का मंगलगान करते हैं। बावजूद इसके किंतु कुछ मूढ़ मति मानते हैं कि अंग्रेजों ने हमें आज का भारत दिया।

जबकि अंग्रेज़ों ने हमारी सांस्कृतिक, सामुदायिक एकता को तोड़कर हमें विखंडित भारत दिया। बंग भंग में असफल रहे अंग्रेज़ों जो बंटवारे का जो दंश हमें दिया, उसे हम आज भी भोग रहे हैं। जिन्हें यह भ्रम है कि हमें 1947 में अंग्रेजों ने भारत बनाकर दिया वे ‘विष्णु पुराण’ के इस श्लोक का पाठ जरूर करें। उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः। यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत, तथा उनकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।

अपने देश के व्यापक भूगोल की समझ होनी ही चाहिए। देश को जोड़ने वाले तत्व क्या हैं, हमें खोजने और बताने चाहिए। क्योंकि कुछ लोग तोड़ने वाले तत्वों (फाल्ट लाइंस) की ही चर्चा करते हैं। जबकि सच यह है कि हर देश में कुछ अच्छी और बुरी बातें होती हैं। कोई भी राष्ट्र जीवन समस्या मुक्त नहीं है। किंतु सिर्फ देश तोड़क बातें करना और उसके लिए संदर्भ गढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता।

हालांकि सच सामने आ जाता है। बावजूद इसके नरेटिव की एक गहरी जंग देश झेल रहा है। यह कितना गजब है कि अकादमिक विमर्श जैसे भी चलते रहे हों, नरेटिव जैसे भी गढ़े जाते रहे हों। किंतु देश पिछले आठ दशकों में निरंतर आगे बढ़ा है। लोगों की अपने मान बिंदुओं के प्रति आस्था बढ़ी है। अपनी माटी के प्रति प्रेम बढ़ा है, भारत प्रेम बढ़ा है। एकत्व और एकात्म भारत हमारी आज हमारी शक्ति है। पूरी दुनिया भी इसे स्वीकार करती है।

सांस्कृतिक एकता के प्रतीक-

भारत की इस पवित्र भूमि पर ही राम, कृष्ण, शिव, गौतम बुद्ध, महावीर,नानक, गुरु गोविंद सिंह, ऋषि वाल्मिकि, गुरु घासीदास, संत रैदास, आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ, स्वामी दयानंद जन्में और सैकड़ों तीर्थों-मठों की स्थापना हुई। चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ के साथ अनेक सिद्धपीठ और मंदिर इसके उदाहरण हैं। जो समाज में सेवा,संवाद और आध्यात्म के वाहक बने हुए हैं। हमारी सप्त पुरियां अयोध्या, मथुरा,माया, काशी, कांची, अवंतिका, द्वारिका हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख गुरुओं के पवित्र स्थान हैं। जो समूचे देश को जोड़ते हैं। नदियों के तट, सरोवर, पर्वतों इसे लोक स्वीकृति प्राप्त है।

असल भारत यही है। ऐसा भाव दुनिया में कहीं विकसित नहीं हुआ। स्थान-स्थान की परिक्रमाएं काशी, ब्रज-गोवर्धन, अयोध्या, चित्रकूट, चारधाम, उत्तराखंड के पृथक चार धाम, नर्मदा, कृष्णा परिक्रमा भारत को जोड़ने वाली कड़ियां हैं। इन यात्राओं से भारत धीरे-धीरे मन में उतरता है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, हिंगलाज से परशुराम कुण्ड तक पुण्य भूमि स्थापित है। अमरनाथ और ननकाना साहिब की कठिन यात्राएं भी इसी भाव बोध का सृजन करती हैं। इस भारत को जीते हुए ही हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी का कवि मन बोल पड़ा- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं/ जीता जागता राष्ट्रपुरुष है/ इसका कंकर कंकर शंकर है/ इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।

सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं। इनसे गुजरता भारत खुद का आत्मसाक्षात्कार करता रहा है। वह प्रक्रिया धीमी हो सकती है, पर रुकी नहीं है। इसे तेज करने से न सिर्फ राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी बल्कि दुनिया में भी सुख, शांति और समृद्धि का विचार प्रसारित होगा।

एक सशक्त भारत ही विश्व शांति और विश्व मंगल की गारंटी है। अरसे बाद भारत में विचारों की घर वापसी हो रही है। वह अपने आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है। आइए, हम भी इस महान देश को जानने की खिड़कियां खोलें और भारत मां को जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजता हुआ देखें।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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