देश के प्रधान सेवक को जन्मदिन मुबारक! आपका नेतृत्व अद्वितीय है- कार्तिकेय शर्मा

आज, 17 सितम्बर, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। यह केवल एक नेता के जीवन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के एक निर्णायक अध्याय का उत्सव है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 17 September, 2025
Last Modified:
Wednesday, 17 September, 2025
ModiandKartikeySharma7845


कार्तिकेय शर्मा, फाउंडर, आईटीवी नेटवर्क ।। 

आज, 17 सितम्बर, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। यह केवल एक नेता के जीवन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र के एक निर्णायक अध्याय का उत्सव है। उनके नेतृत्व ने न केवल हमारे राष्ट्र की दिशा बदली है, बल्कि वैश्विक अनिश्चितताओं के दौर में राजनीतिक नेतृत्व का अर्थ भी पुनर्परिभाषित किया है।

पिछले दशक में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था युद्धों, बदलते गठबंधनों और क्षेत्रीय संघर्षों से प्रभावित रही, जिनकी गूंज भारत की सीमाओं तक पहुंची। अस्थिर पड़ोस में भारत के रणनीतिक हितों की रक्षा करने से लेकर वैश्विक व्यवस्था में भारत की जगह स्थापित करने तक, प्रधानमंत्री मोदी ने लगातार अडिग “इंडिया फर्स्ट” नीति को आगे बढ़ाया। उनके नेतृत्व ने दिखाया कि रणनीतिक स्वायत्तता और सैद्धांतिक कूटनीति साथ-साथ चल सकती हैं, जिससे भारत क्षेत्रीय संघर्षों और महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के बीच बिना राष्ट्रीय हित से समझौता किए आगे बढ़ा। इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में साझेदारी मजबूत करने, पारंपरिक सहयोगियों से रिश्ते गहरे करने और जी20, ब्रिक्स और एससीओ जैसे बहुपक्षीय मंचों में भारत की भूमिका बढ़ाने के जरिए उन्होंने भारत को एक निष्क्रिय सहभागी नहीं बल्कि वैश्विक राजनीति में आकार देने वाली ताकत के रूप में स्थापित किया। इस लिहाज से उनका कार्यकाल वह समय माना जाएगा जब वैश्विक शासन में भारत की आवाज को अभूतपूर्व महत्व मिला।

उतना ही परिवर्तनकारी रहा उनका घरेलू एजेंडा, जिसमें संरचनात्मक सुधार महत्वाकांक्षी संस्थागत निर्माण के साथ-साथ हुए। वित्तीय समावेशन की पहलों ने लाखों-करोड़ों नागरिकों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाया, जिससे नागरिक और राज्य के बीच संबंधों की परिभाषा बदली। बैंकिंग क्षेत्र के बड़े सुधारों ने अत्यधिक बोझिल व्यवस्था को स्थिरता दी, वहीं जीएसटी जैसी पहल ने एकीकृत राष्ट्रीय बाजार बनाया। एक्सप्रेसवे से लेकर हाई-स्पीड रेल तक, बिजली उत्पादन से लेकर अक्षय ऊर्जा तक बुनियादी ढांचे पर जोर ने न केवल ऐतिहासिक कमी पूरी की बल्कि विकास के नए स्रोत भी खोले। ये सभी कदम एक साफ समझ का संकेत हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भारत का उदय तभी संभव है जब उसकी नींव आर्थिक ताकत, संस्थागत विश्वसनीयता और नागरिकों के सशक्तिकरण पर टिकी हो।

यह युग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए भी परिवर्तनकारी रहा। उनके नेतृत्व में पार्टी ने अपने सामाजिक और भौगोलिक दायरे से निकलकर एक सच्ची राष्ट्रीय शक्ति का रूप लिया। उत्तर-पूर्व, ओडिशा, हरियाणा और महाराष्ट्र में जीतें इस विस्तार की गवाही देती हैं, जबकि गुजरात निरंतरता और विकास का गढ़ बना रहा। मोदी जी केवल पार्टी के नेता नहीं बने, बल्कि बदलाव के शिल्पकार बने, जिन्होंने भाजपा को व्यापक सामाजिक आधार और वैश्विक राजनीति में पहचान दी। जो कभी सीमित प्रभाव वाली कैडर-आधारित आंदोलन था, आज वह भारतीय लोकतंत्र का मुख्य ध्रुव बन चुका है।

इस दिन को मनाना केवल प्रधानमंत्री को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने तक सीमित नहीं है। यह उनके उन मूल्यों, अनुभवों और विश्वासों पर चिंतन करने का अवसर है जिन्होंने उनकी यात्रा को आकार दिया और उस स्थायी विरासत पर जो वह भारत के ‘प्रधान सेवक’ के रूप में गढ़ते जा रहे हैं।

उनकी सार्वजनिक जीवन की इस सेवा-भावना और नैतिक स्पष्टता की गहरी जड़ें उनकी माता हीराबेन द्वारा impart किए गए मूल्यों में मिलती हैं। जीवन में जल्दी ही विधवा हो जाने के बाद भी परिवार की जिम्मेदारियों को शांत साहस से निभाते हुए, वह शक्ति और ईमानदारी का स्तंभ बनीं। उनका जीवन परिस्थितियों से नहीं बल्कि गरिमा से परिभाषित हुआ, जिसने उनके बच्चों में ईमानदारी, धैर्य और सादगी के संस्कार डाले। जब मोदी जी पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब उनकी माँ के शब्द गर्व के नहीं बल्कि सिद्धांत के थे- “मुझे तुम्हारा सरकारी काम समझ नहीं आता, लेकिन कभी रिश्वत मत लेना।” यही सरल सलाह उनका नैतिक कम्पास बन गई। आत्मनिर्भर जीवन, सादगी और न्यायप्रियता पर उनका आग्रह ही मोदी जी की आजीवन सेवा-भावना का आधार बना। उनकी बाद की नीतियों पर भी उनकी छाप रही: धुएं से भरे रसोईघरों ने उज्ज्वला योजना को प्रेरित किया, जबकि गरिमा पर उनका जोर गरीब कल्याण की नीतियों की नींव बना। उन्होंने केवल एक बेटे को नहीं पाला, बल्कि भारत माता का सच्चा सेवक गढ़ा।

जहाँ परिवार ने उन्हें मूल्य दिए, वहीं संघ ने उन्हें अनुशासन दिया। 1972 में मोदी जी लक्ष्मणराव इनामदार (जिन्हें स्नेह से “वकील साहब” कहा जाता था) के मार्गदर्शन में पूर्णकालिक आरएसएस प्रचारक बने। अपने परिवार से अलग होकर सार्वजनिक जीवन को समर्पित कर चुके युवा नरेंद्र मोदी के लिए इनामदार मार्गदर्शक, गुरु और पिता समान बने। उन्होंने मोदी जी में असाधारण दृढ़ता को पहचाना और उनके विकास में व्यक्तिगत दिलचस्पी ली। उन्होंने शिक्षा जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया और शासन व सार्वजनिक जीवन की गहरी समझ के लिए संसाधन उपलब्ध कराए। सबसे महत्वपूर्ण, उन्होंने मोदी जी में यह विश्वास जगाया कि संगठनात्मक काम केवल संख्या या लामबंदी नहीं है, बल्कि चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण है। उनके मार्गदर्शन में मोदी जी ने विनम्रता और अधिकार, अनुशासन और जनसंपर्क के बीच संतुलन सीखा। सेवा को स्वयं से पहले और राष्ट्रीय एकता को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से पहले रखने पर उनका जोर गहरी छाप छोड़ गया। वर्षों बाद, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए, मोदी जी ने ‘सेतुबंध’ नामक जीवनी सह-लेखन कर अपने गुरु की स्मृति को सम्मान दिया, उन्हें अपने जीवन को दिशा देने वाले सेतु-निर्माता के रूप में चित्रित किया। इनामदार से मोदी जी ने निस्वार्थ परिश्रम, बड़े समुदायों को एकजुट करने की क्षमता और यह आंतरिक विश्वास सीखा कि नेतृत्व का आधार चरित्र ही होना चाहिए। यही गुण आगे चलकर उन्हें अभूतपूर्व पैमाने पर राष्ट्रीय अभियानों को सटीकता और उद्देश्यपूर्ण ढंग से संचालित करने में सक्षम बनाए।

तीसरा प्रभाव मोदी जी के स्वामी विवेकानंद के गहन अध्ययन और सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रति श्रद्धा से आया। विवेकानंद की यह शिक्षा कि मानवता की सेवा ही सबसे बड़ा भक्ति का रूप है, मोदी जी के लिए केवल प्रधानमंत्री नहीं बल्कि ‘प्रधान सेवक’ कहलाने के निर्णय में परिलक्षित हुई। स्वामीजी का यह संदेश कि समाज तभी प्रगति करता है जब समानता सुनिश्चित हो, मोदी जी की कल्याणकारी योजनाओं की प्रेरणा बना- जन धन, आयुष्मान भारत और गरीब कल्याण योजना, जो गरीबों को गरिमा प्रदान करती हैं। वहीं, राष्ट्रीय एकता के प्रति पटेल की अडिग प्रतिबद्धता मोदी जी के राजनयिक दृष्टिकोण की मार्गदर्शक शक्ति बनी, जो अनुच्छेद 370 हटाने जैसे ऐतिहासिक फैसलों और विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा के निर्माण जैसे प्रतीकात्मक उपक्रमों में दिखती है।

ये सभी सूत्र- मातृ मूल्यों, संगठनात्मक अनुशासन और दार्शनिक प्रेरणाओं के- एक साथ आकर वह नेतृत्व बने जिन्होंने पिछले दशक में भारत को रूपांतरित किया। ‘जैम ट्रिनिटी’ ने कल्याणकारी योजनाओं को क्रांतिकारी ढंग से बदल दिया, सीधे लाभ नागरिकों तक पहुंचाए और रिसाव खत्म किए। स्वच्छ भारत अभियान ने पूरे देश में स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुधारा, जबकि डिजिटल इंडिया ने दूर-दराज के इलाकों को अवसरों से जोड़ा। ‘मेक इन इंडिया’ और अक्षय ऊर्जा की पहल ने भारत की वैश्विक आर्थिक उपस्थिति को नया आयाम दिया। कौशल विकास और ग्रामीण बुनियादी ढांचे को समर्थन देने वाले कार्यक्रमों ने सभी वर्गों के लिए समावेशी विकास सुनिश्चित किया। उनके शासन ने महिलाओं के सशक्तिकरण पर भी विशेष जोर दिया- ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं से लेकर संसद और विधानसभा में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने वाले ऐतिहासिक क़ानून तक। पर्यावरण संरक्षण भी उनके दृष्टिकोण का केंद्र रहा, जो ‘लाइफ मिशन’, अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा, वनीकरण अभियान और संरक्षण की पहलों में झलकता है। 2025 के लिए योजनाएं- जैसे 75,000 स्वास्थ्य शिविरों वाला ‘स्वस्थ नारी सशक्त परिवार अभियान’, नए अस्पताल और आयुष्मान आरोग्य मंदिर- नागरिक सशक्तिकरण, स्वास्थ्य अवसंरचना की मजबूती और सामाजिक समानता की दिशा में उनके व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाती हैं।

मैं इन पहलों को अलग-अलग योजनाओं के रूप में नहीं देखता, बल्कि सेवा, सादगी और त्याग से गढ़ी जीवन दृष्टि के विस्तार के रूप में देखता हूं। जो प्रधानमंत्री मोदी ने जिया है, वही अब वे भारत और दुनिया को लौटा रहे हैं। माँ से सीखे मूल्य, संघ से मिला अनुशासन और विवेकानंद व पटेल से मिली प्रेरणा- ये सब एक ऐसे नेतृत्व में मिलते हैं जो शासन को राज करने का नहीं, बल्कि उठाने का माध्यम मानता है।

इसी भावना में, उनका जन्मदिन कोई उत्सव नहीं बल्कि एक अर्पण है। ‘सेवा पर्व’ व्यक्तिगत पड़ावों को राष्ट्रीय सेवा में बदल देता है। सरदार पटेल प्राणी उद्यान (2019) से लेकर एक दिन में दो करोड़ टीकाकरण (2021) तक, पीएम विश्वकर्मा (2023) से लेकर 26 लाख घरों और सुभद्रा योजना (2024) तक- हर कदम अनुभव से जुड़ा हुआ है, केवल इरादे से नहीं। और अब, उनके 75वें जन्मदिन पर 75,000 स्वास्थ्य शिविर और नए आयुष्मान आरोग्य मंदिर अगला कदम हैं। ये केवल नीतिगत घोषणाएं नहीं हैं- ये संघर्षों से गढ़े जीवन का भारत माता को समर्पण हैं।

श्री नरेंद्र मोदी की महानता इस बात में है कि उन्होंने लोकतंत्र में नेतृत्व के अर्थ को विस्तृत किया। वे केवल शासन नहीं करते, बल्कि सहभागिता को प्रेरित करते हैं। ‘मन की बात’ के माध्यम से सीधे नागरिकों से संवाद करके उन्होंने राष्ट्र के नेता और अंतिम घर तक रहने वाले नागरिक के बीच एक अनोखी कड़ी बनाई, जिससे शासन एक साझा राष्ट्रीय अनुभव बन गया। ‘प्रधान सेवक’ के रूप में हस्ताक्षर कर उन्होंने प्रधानमंत्री पद को अधिकार की कुर्सी नहीं बल्कि सेवा के व्रत के रूप में परिभाषित किया। यहां तक कि वह अपना जन्मदिन भी निजी उत्सव की बजाय सेवा को समर्पित करते हैं, जिससे वे अन्य नेताओं से अलग खड़े होते हैं और यह विश्वास मजबूत करते हैं कि नेतृत्व अंततः देने के लिए है, पाने के लिए नहीं। उनके सुधार केवल प्रशासनिक फैसले नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण के कार्य हैं, जिन्हें स्पष्ट उद्देश्य और अनुशासित क्रियान्वयन के साथ पूरा किया गया है। चाहे कल्याण हो, आर्थिक परिवर्तन या विदेश नीति- हर क्षेत्र में उनकी छाप स्पष्ट रही है: निर्णायक, जनकेंद्रित और दूरदर्शी। उन्होंने नीतियों को जनआंदोलनों में और आदर्शों को कार्यों में बदलकर शक्ति नहीं बल्कि सेवा को सर्वोच्च आदर्श के रूप में मूर्त रूप दिया।

जब प्रधानमंत्री 75 वर्ष के हो रहे हैं, तब राष्ट्र केवल अपने नेता का जन्मदिन नहीं मना रहा, बल्कि भारत माता के प्रति उनकी अथक सेवा का सम्मान कर रहा है। उनकी यात्रा केवल आज के लिए प्रेरणा नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए मार्गदर्शक है, जो हमें- विशेषकर सार्वजनिक जीवन में रहने वालों को- यह याद दिलाती है कि सच्चा नेतृत्व सेवा, त्याग और जनता के प्रति अटूट समर्पण में निहित है। इस दिन, जब भारत सेवा पर्व मना रहा है, हम श्री नरेंद्र मोदी जी को हार्दिक शुभकामनाएं देते हैं। ईश्वर उन्हें लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और निरंतर शक्ति प्रदान करें ताकि वे भारत को और भी ऊंचाइयों, समृद्धि, गरिमा और वैश्विक सम्मान की ओर अग्रसर करते रहें। उनकी आत्मनिर्भर, समावेशी और आत्मविश्वासी भारत की दृष्टि आने वाले वर्षों में पूर्ण रूप से साकार हो, जो हमारे महान राष्ट्र के हर नागरिक को प्रगति और गर्व प्रदान करे। 

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन पर विशेष: बदलते भारत की कहानी, साक्षी रहे पत्रकार की जुबानी

सुधीर चौधरी लिखते हैं कि मोदी का दौर किसी क्रांति से कम नहीं रहा। उन्होंने अपने दो दशक से भी अधिक लंबे सफर को याद किया और कहा कि एक पत्रकार के रूप में मुझे इतिहास को खुलते हुए देखने का सौभाग्य मिला

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 17 September, 2025
Last Modified:
Wednesday, 17 September, 2025
NarendraModi458745

सुधीर चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार व एडिटर-इन-चीफ, डीडी न्यूज ।।

17 सितंबर 2025 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 वर्ष के हो रहे हैं, तब मैं अपने दो दशक से भी अधिक लंबे सफर को याद कर रहा हूं। एक पत्रकार के रूप में मुझे इतिहास को खुलते हुए देखने का सौभाग्य मिला है, अक्सर उस दृष्टिकोण से जिसे बहुत कम लोग देख पाते हैं। मेरी मुलाकातें मोदी जी से उस समय शुरू हुईं, जब वे देश के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंचे थे। इन मुलाकातों के जरिये मैंने न केवल उस व्यक्ति को देखा, बल्कि उस गहन परिवर्तन को भी महसूस किया है, जिसे उन्होंने भारत में साकार किया। एक ऐसे राष्ट्र से, जो जड़ता से जूझ रहा था, लेकर उस भारत तक, जो आज आत्मविश्वास के साथ वैश्विक मंच पर आगे बढ़ रहा है। मोदी युग वास्तव में एक क्रांति से कम नहीं रहा। इस विशेष जन्मदिन पर, मुझे अपने कुछ निजी अनुभव और अवलोकन साझा करने दें, एक ऐसे दौर के गवाह के रूप में जो अद्वितीय रहा है।

मुझे आज भी याद है 2001 की एक शुरुआती मुलाकात, जब नरेंद्र मोदी जी हाल ही में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। मैं उस समय 'जी न्यूज' का युवा रिपोर्टर था, देश को आकार देने वाली कहानियों को समझने की उत्सुकता लिए। मैंने उनसे साक्षात्कार का अनुरोध किया और मेरी आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने बिना हिचकिचाहट इसे स्वीकार कर लिया। हम उनके सादे कार्यालय में मिले, जहां ताजी चाय और दृढ़ संकल्प की खुशबू बसी हुई थी। मोदी जी ने जिस स्पष्टता के साथ अपनी बातें रखीं, उसने मुझे प्रभावित किया। उन्होंने गुजरात के विकास का अपना दृष्टिकोण समझाया, प्रशासनिक सुधारों पर बल दिया और जवाबदेही की आवश्यकता पर जोर दिया। वह उस समय भी आज की तरह निपुण वक्ता थे, एक ऐसे वैश्विक नेता की झलक जिनकी नींव आरएसएस की विचारधारा और अटूट कार्यनीति पर टिकी थी। 20 मिनट की वह बातचीत बढ़कर पूरे एक घंटे में बदल गई, जब उन्होंने जल संरक्षण और औद्योगिक विकास की अपनी योजनाओं को धैर्यपूर्वक विस्तार से बताया। मुझे अंदाजा नहीं था कि यह एक ऐसे प्रोफेशनल रिश्ते की शुरुआत होगी, जिसमें मैं उनके राज्य नेता से राष्ट्रीय प्रतीक बनने तक के सफर का गवाह बनूंगा।

इन वर्षों में मैंने प्रधानमंत्री मोदी का कई बार इंटरव्यू किया और हर मुलाकात ने उनके व्यक्तित्व और नीतिगत समझ की नई परतें खोलीं। एक अविस्मरणीय अनुभव 2014 में था, उनके ऐतिहासिक लोकसभा विजय से ठीक पहले। 'जी न्यूज' पर DNA का एंकर होते हुए मैंने उनसे भारत के एजेंडे पर खुलकर चर्चा की। पूरे दिन के चुनाव प्रचार के बाद भी वे ऊर्जा से भरे हुए आए, जबकि उनका लोकसभा कैंपेन बेहद कठिन और निरंतर चल रहा था। सबसे ज्यादा जो बात उभरकर आई, वह थी उनकी विनम्रता। इंटरव्यू के बाद उन्होंने पूरी टीम का अभिवादन किया। कैमरामैन से लेकर मेकअप आर्टिस्ट तक, सभी के साथ तस्वीरें खिंचवाईं, हालचाल पूछा और चाय-नाश्ते का भी आग्रह किया। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने “नए भारत” का सपना रखा, जो भ्रष्टाचार और अक्षमता की बेड़ियों से मुक्त हो। मैंने बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर सवाल पूछे और उनके जवाब सीधे, आंकड़ों पर आधारित और दृढ़ निश्चय से भरे थे। यह स्पष्ट था कि यह महज भाषणबाजी नहीं थी, बल्कि बदलाव का खाका था। उनकी आंखों में नए भारत के रोडमैप की पूरी स्पष्टता दिख रही थी।

मोदी शासन के दौरान एक पत्रकार के रूप में मैंने भारत के इस परिवर्तन को नजदीक से देखा है- चाहे वह मेरे शो DNA हो, 'आजतक' पर ब्लैक&व्हाइट, या अब 'डीडी न्यूज' पर डिकोड। 2014 में जब उन्होंने पद संभाला, तब भारत नीति-गत गतिरोध से जूझ रहा था, 2जी और कोलगेट जैसे घोटालों ने जनविश्वास को हिला दिया था और अर्थव्यवस्था अस्थिर थी। 2025 तक आकर तस्वीर बदल चुकी है। 2017 में जीएसटी लागू हुआ, जिसकी मैंने गहन कवरेज की। इसने बिखरे टैक्स ढांचे को एकीकृत किया, राजस्व बढ़ाया और कारोबार आसान बनाया। आलोचकों ने शुरुआत में इसे अराजक कहा, लेकिन राज्यों में व्यापारियों और उद्यमियों से मिलते हुए मैंने देखा कि इसने कामकाज को सरल बनाया और भारत को एकल बाजार में बदल दिया। आज हमारी जीडीपी 4 ट्रिलियन डॉलर पार कर चुकी है, हमें दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना रही है और जल्द ही तीसरे स्थान पर पहुंचने का अनुमान है।

बुनियादी ढांचे में यह बदलाव और भी स्पष्ट है। 2014 से पहले उत्तर प्रदेश के दूरदराज गांवों में बिजली एक विलासिता थी। सौभाग्य जैसी योजनाओं ने 2.6 करोड़ से अधिक घरों को रोशन किया। हाई-स्पीड रेल प्रोजेक्ट्स, दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे और अहमदाबाद से कोच्चि तक मेट्रो नेटवर्क का विस्तार- ये सब महज ढांचे नहीं हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था की धड़कनें हैं। गुजरात में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की रिपोर्टिंग के दौरान मैंने स्थानीय लोगों से बात की, जिनकी जिंदगियां पर्यटन से बदल गईं। मोदी जी का “मेक इन इंडिया” अभियान टेस्ला और एप्पल जैसी वैश्विक कंपनियों को भारत लाया, जिससे रोजगार और नवाचार को बढ़ावा मिला। विभिन्न मंचों पर मैंने विदेशी निवेशकों को शुरुआत में सशंकित और बाद में उत्साहित होते देखा।

डिजिटल क्षेत्र में भारत की छलांग अद्भुत रही। जन धन योजना के तहत 50 करोड़ से अधिक बैंक खाते खुले, जिससे वित्तीय समावेशन हुआ। 2016 की नोटबंदी की कवरेज करते हुए मैंने बहसें और कतारें देखीं, लेकिन इसने नकदी रहित अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया। आज यूपीआई हर महीने अरबों लेन-देन संभाल रहा है और फ्रांस व यूएई जैसे देशों में अपनाया गया है। अपने कार्यक्रमों में मैंने अक्सर दिखाया है कि कैसे आधार-लिंक्ड सेवाओं ने कल्याणकारी योजनाओं में रिसाव कम किया और लाभार्थियों तक सीधी सहायता पहुंचाई। कोविड-19 महामारी के दौरान मैंने दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान- कोविन- की रिपोर्टिंग की, जिसने 220 करोड़ से अधिक खुराकें प्रभावी ढंग से दीं। उन अंधेरे दिनों में मोदी जी का नेतृत्व, राष्ट्र के नाम संबोधन और 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त राशन योजना ने मानवीय संकट टाल दिया।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी ने भारत की स्थिति को ऊंचा उठाया। उनकी शुरुआती विदेश यात्राओं से लेकर 2023 के जी20 दिल्ली शिखर सम्मेलन और हालिया चीन में हुए एससीओ सम्मेलन तक, मैंने कूटनीति को प्रतिक्रियात्मक से सक्रिय होते देखा। उरी सर्जिकल स्ट्राइक, 2019 की बालाकोट कार्रवाई और 2025 का ऑपरेशन सिंदूर- इन पर मेरी वास्तविक समय की कवरेज रही- ने आतंकवाद के खिलाफ हमारे संकल्प को दिखाया। इंटरनेशनल सोलर अलायंस और वैक्सीन मैत्री जैसी पहल ने भारत को एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित किया। 2024 में यूक्रेन-रूस संघर्ष में भारत की मध्यस्थता, जिसे विश्व नेताओं ने सराहा, हमारे बढ़ते प्रभाव का प्रमाण बनी।

लेकिन नीतियों से परे, मोदी जी का व्यक्तिगत स्पर्श दिल को छूता है। 2019 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने वडनगर के बचपन की कहानियां साझा कीं- रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय बेचने से लेकर विपक्षियों की तीखी आलोचना पर उनकी भावनाएं। इससे उनका मानवीय रूप सामने आया, यह याद दिलाते हुए कि महान नेता साधारण पृष्ठभूमि से भी उभरते हैं। मैंने उन्हें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले पर बच्चों से बातचीत करते देखा है, आपदाओं जैसे मोरबी पुल हादसे के बाद परिवारों को ढांढस बंधाते देखा है। उनका अनुशासन- सुबह 4 बजे उठना, योग करना- लोगों के लिए उदाहरण है। आलोचक केंद्रीकरण का आरोप लगाते हैं, लेकिन एक पत्रकार के रूप में मैंने देखा है कि उन्होंने राज्यों को “सहकारी संघवाद” के जरिये सशक्त किया, जो पीएम गति शक्ति जैसी योजनाओं में झलकता है।

जब मोदी जी 75वें जन्मदिन का उत्सव मना रहे हैं, भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने की दहलीज पर खड़ा है। चुनौतियां अब भी हैं- असमानता, जलवायु परिवर्तन, भू-राजनीतिक तनाव लेकिन उनका विजन एक स्पष्ट रोडमैप देता है। एक पत्रकार के रूप में 2001 की शंका से लेकर आज की प्रशंसा तक की मेरी यात्रा समृद्ध रही है। उन्होंने न केवल भारत को बदला है, बल्कि नेतृत्व की परिभाषा भी नई गढ़ी है।

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं, प्रधानमंत्री जी। आप हमें और ऊंचाइयों की ओर मार्गदर्शन देते रहें।  

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

अब 75 के मोदी, सेवा का जीवन, जैसा मैंने देखा: आलोक मेहता

किशोरावस्था से ही नरेन्द्र मोदी में नेतृत्व, सेवा और दृढ़ता के गुण दिखाई देते थे। वे सार्वजनिक भाषणों में निपुण थे और गरीबों का जीवन सुधारने का संकल्प रखते थे।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 17 September, 2025
Last Modified:
Wednesday, 17 September, 2025
pmmodiage

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

17 सितम्बर को भारत अपने 21वीं सदी के सबसे प्रभावशाली नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 75वां जन्मदिन मना रहा है। 1950 में गुजरात के वडनगर में जन्मे मोदी की यात्रा एक छोटे कस्बे के चाय विक्रेता से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने तक, असाधारण और प्रेरणादायक है। यह जन्मदिन केवल व्यक्तिगत पड़ाव नहीं है, बल्कि 25 वर्षों के सतत शासन का प्रतीक भी है।

पहले गुजरात के मुख्यमंत्री (2001–2014) और फिर भारत के प्रधानमंत्री (2014 से अब तक)। इन दशकों में मोदी ने शासन और राजनीति को नई दिशा दी, और राष्ट्रवाद, ईमानदारी तथा सामाजिक कल्याण की प्रतिबद्धता का प्रतीक बने। किशोरावस्था से ही नरेन्द्र मोदी में नेतृत्व, सेवा और दृढ़ता के गुण दिखाई देते थे। वे सार्वजनिक भाषणों में निपुण थे और गरीबों का जीवन सुधारने का संकल्प रखते थे। उनके लिए सत्ता और सफलता से अधिक मूल्यवान था अपने आदर्शों पर टिके रहना और संघर्ष करना। बहुत कम पत्रकार होंगे जिन्होंने उनके आरंभिक वर्षों को नज़दीक से देखा होगा।

1973 से 1976 के बीच हिंदुस्तान समाचार में संवाददाता रहते हुए मैंने गुजरात छात्र आंदोलन, कांग्रेस अधिवेशन और आपातकाल की घटनाओं को रिपोर्ट किया। आपातकाल के दौरान मोदी भूमिगत हो गए और आरएसएस तथा जनसंघ नेताओं के बीच संपर्क बनाए रखने, गुप्त सूचनाएँ पहुँचाने और वेश बदलकर अभियानों का नेतृत्व करने का काम किया। यहां तक कि समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस भी गिरफ्तारी से पहले भेष बदलकर गुजरात आए और मोदी से सहयोग माँगा।सामान्यतः लोग सत्ता में साथ होते हैं और कठिन संघर्ष के समय दूरी बना लेते हैं।

लेकिन नरेंद्र मोदी प्रारम्भ से संघर्ष , समस्या और दुःख में किसी अपेक्षा के बिना सहायता के लिए आगे आते रहे। उस समय मोदीजी के छोटे भाई पंकज मोदी हिंदुस्तान समाचार कार्यालय में मेरे साथ कार्यरत थे। उनसे और ब्यूरो प्रमुख भूपत परिख से हुई चर्चाओं से पता चलता था कि मोदी बचपन से ही सामाजिक सेवा और लेखन में निपुण रहे हैं। साधना पत्रिका के संपादक विष्णु पंड्या से भी उन्हीं दिनों मेरा भी परिचय हुआ था। साधना में नरेंद्र मोदी जी के लेख छपते थे।

उन्होंने कभी कभी कविताएं भी लिखी। बाद में अपने अनुभवों और विचारों की पुस्तकें भी लिखी। इस तरह लेखन और पत्रकारिता के प्रति लगाव और सम्मान सदा रहा। मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री रहते हुए पत्रकारों के साथ संबंधों को लेकर अलग अलग राय बनती रही लेकिन शायद बहुत कम लोग इस बात पर ध्यान देते हैं कि गुजरात के ही दो पुराने प्रमुख अख़बारों ने लगातार उनके विरुद्ध समाचार, लेख प्रकाशित किए, लेकिन उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं की। उनका एक ही तरीका रहा कि पूर्वाग्रही आलोचकों से दूरी रखी जाए।

जनता से सीधे संवाद और संचार साधनों का सही उपयोग कर अपनी बात करोड़ों लोगों को पहुंचाई जाए। हिमालय जितना उन्हें प्रिय है, उतनी ही गहरी आत्मीयता नर्मदा नदी से है। मेरा खुद का पृष्ठभूमि उज्जैन–इंदौर–ओंकारेश्वर से जुड़ा रहा और 1973 से नर्मदा विवादों और सांस्कृतिक महत्व पर लिखता रहा हूँ। इसी कारण मेरी और मोदी की इस विषय पर कई बार बातचीत हुई। जब मैंने नर्मदा पर पुस्तक लिखी, मोदीजी ने व्यस्तता के बावजूद उसकी पाण्डुलिपि पढ़कर सुन्दर भूमिका लिखी।

बाद में भारत के सामाजिक बदलावों पर पहले तथा उनके कार्यकाल में हुए निर्णयों पर भी मेरी किताब के लिए विस्तृत संदेश लिखकर भेजा। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनकी पुस्तक पढ़ने की आदतें कम नहीं हुईं। वे देर रात तक पढ़ते हैं और विदेशी राष्ट्राध्यक्ष उन्हें दुर्लभ किताबें भेंट करते हैं। आशा है कि उनके नेतृत्व में भारत में पुस्तकालयों और पुस्तकों तक पहुँच को बढ़ावा मिलेगा। 2001 में जब मोदी मुख्यमंत्री बने, गुजरात भूकंप से तबाह था। बहुतों को शक था कि वे इस संकट को संभाल पाएंगे।

लेकिन कुछ ही वर्षों में गुजरात को आदर्श राज्य कहा जाने लगा। ज्योति ग्राम योजना से गाँवों को 24 घंटे बिजली मिली। जल प्रबंधन से सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों में कृषि पुनर्जीवित हुई। वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलनों से राज्य निवेश का केंद्र बन गया। इन सम्मेलनों में देश विदेश के शीर्ष पूंजीपतियों के अलावा विदेशी मंत्री राजनयिक भी आए। बुनियादी ढाँचा, उद्यमिता और सुशासन पर ध्यान देकर उन्होंने “गुजरात मॉडल” खड़ा किया, जिसने उन्हें राष्ट्रीय नेता बनाया। 2014 तक देश परिवर्तन की तलाश में था।

मोदी का अभियान विकास और राष्ट्रवाद का संगम था। उनका नारा “सबका साथ, सबका विकास” जन-जन तक पहुँचा। उस चुनाव में भाजपा को 30 वर्षों बाद पूर्ण बहुमत मिला और भारत ने नई दिशा व नई नेतृत्व शैली को स्वीकारा। 75 वर्ष की आयु में भी मोदी का परिचय अटूट राष्ट्रवाद से है। धारा 370 हटाना, सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयरस्ट्राइक और आतंकवाद के खिलाफ सिन्दूर ऑपरेशन जैसे कदमों ने भारत की रणनीतिक स्थिति बदल दी। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी नई पहचान दी।

काशी विश्वनाथ धाम का पुनर्निर्माण, अयोध्या में राम मंदिर का नेतृत्व, और भारत की सभ्यतागत अस्मिता को सुदृढ़ करना उनके प्रयासों के उदाहरण हैं। मोदी सरकार की सबसे बड़ी विशेषता है योजनाओं की सीधी और पारदर्शी पहुँच -जन धन योजना। 50 करोड़ से अधिक खाते खुले। उज्ज्वला योजना: महिलाओं को रसोई गैस मिली।स्वच्छ भारत मिशन: 10 करोड़ शौचालय बने। आयुष्मान भारत: 50 करोड़ से अधिक लोगों को स्वास्थ्य बीमा। पीएम किसान: किसानों को सीधे आय हस्तांतरण।इन योजनाओं ने करोड़ों परिवारों का जीवन बदला है।

मोदी ने भारत को उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित किया। 2023 की जी-20 अध्यक्षता में उनका नेतृत्व सराहा गया। अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और आत्मनिर्भर भारत जैसे दृष्टिकोण ने भारत को वैश्विक एजेंडा तय करने वाली शक्ति बना दिया। कोविड-19 महामारी के दौरान भारत का प्रदर्शन कई विकसित देशों से बेहतर रहा। उनकी कूटनीति ने पाकिस्तान को अलग-थलग किया और इस्लामी देशों का समर्थन भारत के पक्ष में लाया।

सत्ता के शिखर पर पहुँचने के बाद भी मोदी की व्यक्तिगत सादगी उनकी पहचान है। वे परिवारवाद से दूर हैं, योगाभ्यास करते हैं, लंबे समय तक काम करते हैं और अनुशासित जीवन जीते हैं। मन की बात, सोशल मीडिया और विशाल जनसभाएँ उन्हें जनता से सीधे जोड़ती हैं। 2024 में उन्होंने तीसरी बार चुनाव जीता और 2029 में चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की योजना की बात भी कही है। उनका लक्ष्य 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है। 1950 में जन्मे मोदी तब 97 वर्ष के होंगे, लेकिन उनके लिए उम्र केवल एक संख्या है। उनका मंत्र है—“जब हम ठान लेते हैं, तो मीलों आगे निकल जाते हैं।”

भारत जब नरेन्द्र मोदी का 75वां जन्मदिन मना रहा है, तब वेद की यह वाणी स्मरणीय है: “जीवेम शरदः शतम्”—हम सौ शरद ऋतु तक जिएं। राष्ट्र, समाज और सेवा को समर्पित इस नेता के लिए यह शुभकामना विशेष रूप से सार्थक है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

प्रधानमंत्री का संवाद देश और दिलों को जोड़ता है: प्रो. संजय द्विवेदी

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 75 वां जन्मदिन आज है। उनकी जीवन यात्रा रचना, सृजन और संघर्ष की त्रिवेणी है। उनके व्यक्तित्व का सबसे खास पक्ष है संचार और संवाद।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 17 September, 2025
Last Modified:
Wednesday, 17 September, 2025
profsanjay

प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

भारत जैसे महादेश को संबोधित करना आसान नहीं है। इस विविधता भरे देश में वाक् चातुर्य से भरे विद्वानों, राजनेताओं, प्रवचनकारों और अदीबों की कमी नहीं है। अपनी वाणी से सम्मोहित कर लेने वाले अनेक विद्वानों को हमने सुना और परखा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्षमताएं उनमें विलक्षण हैं। वे हमारे समय के अप्रतिम संचारकर्ता हैं। संचार का विद्यार्थी होने के नाते मैं उनकी तरफ बहुत विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखता हूं, किंतु वे अपनी देहभाषा, भाव-भंगिमा, शब्दावली और वाक् चातुर्य से जो करते हैं, उसमें कमियां ढूंढ पाना मुश्किल है।

उनका आत्मविश्वास और शैली तो विलक्षण है ही, वे जो कहते हैं उस बात पर भी सहज विश्वास करने का मन होता है। मोदी सही मायने में संवाद के महारथी हैं। वे जनसभाओं के नायक हैं तो एक्स जैसे नए माध्यमों पर भी उनकी तूती बोलती है। पारंपरिक मंचों से लेकर आधुनिक सोशल मीडिया मंचों पर उनकी धमाकेदार उपस्थिति बताती है संवाद और संचार को वे किस बेहतर अंदाज में समझते हैं।

गुजरात के एक छोटे से कस्बे बड़नगर में पले-बढ़े नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या है जो लोंगों को सम्मोहित करता है? उनकी राजनीतिक यात्रा भी विवादों से परे नहीं रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें जिस तरह निशाना बनाकर उनकी छवि मलिन करने के सचेतन प्रयास हुए, वे सारे प्रसंग लोकविमर्श में हैं। बावजूद इसके वे हिंदुस्तानी समाज के नायक बने हुए हैं तो इसके पीछे उनकी संप्रेषण कला और देहभाषा का अध्ययन प्रासंगिक हो जाता है।

नरेंद्र मोदी देश के ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो कभी सांसद नहीं थे और पहली बार लोकसभा पहुंचकर देश के प्रधानमंत्री बने। 2014 के आमचुनावों की याद करें तो देश किस तरह निराशा और अवसाद से भरा हुआ था। लोग राजनीति और राजनेताओं से उम्मादें छोड़ चुके थे। अन्ना आंदोलन से एक अलग तरह का गुस्सा लोगों के मन में पनप रहा था। तभी एक आवाज गूंजती है ‘मैं देश नहीं झुकने दूंगा।’

दूसरी आवाज थी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ ये दो आवाजें थीं नरेंद्र मोदी की, जो देश को एक विकल्प देने के लिए मैदान में थे। राजनीति में आश्वासनपरक आवाजों का बहुत मतलब नहीं होता, क्योंकि राजनीति तो सपनों और आश्वासनों के आधार पर ही की जाती है। किंतु नरेंद्र मोदी ने इस दौर में जो कुछ कहा उसे देश ने बहुत ध्यान से सुना। उनका दल लंबे समय से सत्ता से बाहर था और वे अपने दल की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनाए जा चुके थे।

जाहिर है अवसाद और निराशा से भरी जनता को एक अवसर था परख करने का। मोदी इस अवसर का लाभ उठाते हैं और जनता के मन में भरोसा जगाने का प्रयास करते हैं। वे लगातार अपनी सभाओं में कहते हैं कि वे ही इस देश को उसके संकटों से उबार सकने की क्षमता से लैस हैं। जनता मुग्ध होकर उनके भाषणों को सुनती है। अपनी अप्रतिम संवादकला से वे लोगों में यह भरोसा जगाने में सफल हो जाते हैं कि वे कुछ कर सकते हैं।

2014 में मोदी सत्ता में आते हैं और संचार के सबसे प्रभावकारी माध्यम को साधते हैं। वे आकाशवाणी पर ‘मन की बात’ के माध्यम से लोगों से संवाद का अवसर चुनते हैं। यानि उनका संवाद अवसर और चुनाव केंद्रित नहीं है, निरंतर है। उनमें एक सातत्य है। बदलाव के लिए, परिवर्तन के लिए, लोकजागरण के लिए। वे मन की बात को राजनीतिक विमर्शों के बजाए लोकविमर्शों का केंद्र बनाते हैं। जिसमें जिंदगी की बात है, सफाई की बात है, शिक्षा और परीक्षा की बात है, योग की बात है।

मन की बात के माध्यम से वे खुद को एक ऐसे अभिभावक की तरह पेश करने में सफल होते हैं, जिसे देश और देशवासियों की चिंता है। संवाद की यही सफलता है और यही उसका उद्देश्य है। अपने लक्ष्य समूह को निरंतर अपने साथ जोड़े रखना मोदी की संवाद कला की दूसरी सफलता है। करोना संकट में भी हमने देखा कि उनकी अपीलों को किस तरह जनमानस ने स्वीकार किया, चाहे वे करोना वारियर्स के सम्मान में दीप जलाने और थाली बजाने की ही क्यों न हों। यह बातें बताती हैं कि अपने नायक पर देश का भरोसा किस तरह कायम है।

मोदी अपनी देहभाषा से कमाल करते हैं। कई बार चौंकाते भी हैं। देश की गहरी समझ भी इसका बड़ा कारण है, यही कारण है वे देश के जिस हिस्से में होते हैं वहां की स्थानीय बोली, वस्त्रों और प्रतीकों का सचेत इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ ही उनकी पोशाकें, उनका हाफ कुर्ता, जैकेट्स आज एक तरह से स्टाइल स्टेटमेंट है। उनका अनुसरण कर नौजवान आज खद्दर और सूती कपड़ों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। हम विश्लेषण करें तो पाते हैं कि उनका समर्पित जीवन और ईमानदारी से उनकी वाणी का भी एक रिश्ता है।

जब हम सिर्फ बोलते हैं तो उसका असर अलग होता है। किंतु अगर हम जो बोलते हैं उसमें कृतित्व भी शामिल हो तो बात का असर बढ़ जाता है। नरेंद्र मोदी अपनी असंदिग्ध ईमानदारी, राष्ट्रनिष्ठा और देशभक्ति के प्रतीक हैं। उनका समूचा जीवन राष्ट्र के लिए अर्पित है। ऐसा व्यक्ति जब कोई बात कहता है तो उसका असर बहुत ज्यादा होता है। क्योंकि आपकी वाणी को आपके जीवन का समर्थन है। सिर्फ देश की बात करना और देश के लिए जीना दो बातें हैं। मुझे लगता है जीवन और कर्म में एक रूप होने के नाते मोदी बाकी राजनेताओं से बहुत आगे निकल जाते हैं।

क्योंकि उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर सबको भरोसा है, इसलिए उनकी वाणी पर भी सहज विश्वास आता है। इस तरह उनकी वाणी ‘भाषण’ न होकर ‘ह्दय से ह्दय के संवाद’ में बदल जाती है। लोंगों को भरोसा है कि वे हमारी ही बात कर रहे हैं और हमारे लिए ही कर रहे हैं। मोदी ने अपनी साधारण पृष्ठभूमि की बात कभी छिपाई नहीं, जब भी उनकी साधारण स्थितियों का मजाक बनाया गया तो उसे भी उन्होंने एक सफल अभियान में बदल दिया। ‘चाय पर चर्चा’ का कार्यक्रम किस तरह बना, उसके संदर्भ हम सबके ध्यान में हैं। नरेंद्र मोदी सही मायने में सामान्य जनों में भरोसा जगाते हैं कि अगर संकल्प हों, इच्छाशक्ति हो तो व्यक्ति क्या नहीं कर सकता।

यह एक बात लोगों को उनसे कनेक्ट करती है। अनेक राजनेता हैं, जो साधारण पृष्ठभूमि से आए हैं। किंतु उनका या तो अपनी जड़ों से उनका रिश्ता टूट गया है या वे उन विथिकाओं को याद नहीं करना चाहते। जबकि नरेंद्र मोदी अपनी जड़ों को नहीं भूलते वे हमेशा उसे याद करते हैं और खुद पर भरोसा करते हैं।

यही कारण है उनका कनेक्ट सीधा जनता से बनता है। वे प्रधानमंत्री होकर भी अपने से नजर आते हैं। संचार, संवाद और पोजिशिनिंग की यह कला उनमें सहज है। बिना जतन के भी वे इन सबको साधते हैं और साधते रहेंगें क्योंकि आसमान पर होकर भी माटी की सोंधी महक उन्हें जड़ों से जोड़े रखती है। इसलिए उनका संवाद दिलों को जोड़ता है, देश को भी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

अमेरिका का रुख क्यों बदल रहा है? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

हालांकि, इन सबके बीच भारत और अमेरिका को ट्रेड डील करनी होगी, जो आसान नहीं है। मामला सिर्फ़ रूसी तेल का नहीं है। भारत ख़रीद कम या ज़्यादा कर सकता है।

Last Modified:
Monday, 15 September, 2025
hisabkitabmilind

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारत और अमेरिका के रिश्तों पर जमी बर्फ कुछ पिघलने लगी है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक महीने पहले तक भारत को Dead Economy कह रहे थे, लेकिन अब वे पोस्ट कर रहे हैं कि मोदी मेरे दोस्त हैं और डील में कोई दिक़्क़त नहीं होगी। भारत के कॉमर्स मंत्री पीयूष गोयल भी कह रहे हैं कि नवंबर तक डील हो सकती है। अब सवाल यह है कि अमेरिका का रुख क्यों बदल रहा है?

अमेरिका ने भारत से आने वाले सामान पर 50% टैरिफ़ लगाया हुआ है। इसमें 25% टैरिफ़ Reciprocal है यानी भारत के ज़्यादा टैरिफ़ के जवाब में लगाया गया है, जबकि 25% अतिरिक्त टैरिफ़ रूस से तेल ख़रीदने की वजह से है। भारत इस दबाव में नहीं आया बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन और रूस के राष्ट्रपति से मुलाकात कर अमेरिका को सख्त संदेश दिया।

टैरिफ़ का असर अब अमेरिका पर ही उल्टा पड़ने लगा है। पिछले हफ़्ते दो आंकड़े जारी हुए। अमेरिका में महंगाई दर बढ़कर 2.9% तक पहुंच गई है। कंपनियों ने दूसरे देशों से आने वाले सामान की ऊंची क़ीमत ग्राहकों पर डालनी शुरू कर दी है। कॉफी से लेकर कार तक की क़ीमतें बढ़ रही हैं। वहीं बेरोज़गारी भी बढ़ रही है और नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं। अगस्त में सिर्फ़ 22 हज़ार नौकरियां आईं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से नई नौकरियों की संख्या लगातार कम हो रही है। कंपनियों ने टैरिफ़ के चलते नौकरी देने से हाथ खींच लिए हैं।

महंगाई और बेरोज़गारी की दोहरी मार ने फेड रिजर्व को भी दुविधा में डाल दिया है। बढ़ती बेरोज़गारी की वजह से फेड रिजर्व ब्याज दरों में कटौती करना चाहता है, लेकिन महंगाई को देखते हुए उसे सावधानी रखनी होगी क्योंकि कटौती से महंगाई और बढ़ सकती है। इस हफ़्ते फेड रिजर्व की बैठक में ब्याज दरों पर फ़ैसला होना है। ब्याज दरों में कटौती भारत के शेयर बाज़ार के लिए अच्छी ख़बर होगी क्योंकि ऐसी स्थिति में विदेशी निवेशक आम तौर पर भारत जैसे उभरते बाजारों की ओर रुख करते हैं, जहां रिटर्न बेहतर होता है।

हालांकि, इन सबके बीच भारत और अमेरिका को ट्रेड डील करनी होगी, जो आसान नहीं है। मामला सिर्फ़ रूसी तेल का नहीं है। भारत ख़रीद कम या ज़्यादा कर सकता है, लेकिन अमेरिका कृषि और डेयरी उत्पाद भारत में बेचना चाहता है, जो भारत में किसी भी पार्टी की सरकार के लिए मानना मुश्किल है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

हिंदी आज पूरे राष्ट्र में समादृत और स्वीकृत हो रही हैं: अनंत विजय

बाबू श्यामसुंदर दास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1893 में काशी में स्कूलों में डिबेटिंग क्लब होते थे। बाद में कुछ बच्चों ने अपनी डिबेटिंग सोसाइटी बनाई।

Last Modified:
Monday, 15 September, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हिंदी दिवस के पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित मिरांडा हाउस महाविद्यालय में जागरण संवादी का आयोजन हुआ। दैनिक जागरण के अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने के उपक्रम ‘हिंदी हैं हम’ के अंतर्गत कई शहरों में संवादी का आयोजन होता है। इस आयोजन में हिंदी भाषा को लेकर भी विचार विनिमय होता है। दिल्ली संवादी में भी भाषा को लेकर सत्रों में चर्चा हुई।

हिंदी दिवस के अवसर उन चर्चाओं को याद कर रहा था तो अपनी भाषा हिंदी की व्याप्ति को लेकर गर्व का अनुभव हो रहा है। हिंदी हर तरफ बढ़ रही है। देश के प्रधानमंत्री विभिन्न अंतराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में बोलते हैं। गृह मंत्री अमित शाह हिंदी को लेकर उत्साहित रहते हैं।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के उपर हिंदी में नाम लिखा जाने लगा है। इनके बारे में विचार करते समय एक बात ध्यान में आई कि हिंदी आज पूरे राष्ट्र में समादृत और स्वीकृत हो रही है तो इसका आaधार कहां से तैयार हुआ। हिंदी के किन पुरोधाओं ने इस भाषा को स्वरूप दिया और उसके लिए किस प्रकार का श्रम किया या उनका क्या योगदान था। सबसे पहले नाम याद आता है है भारतेन्दु का।

भारतेन्दु ने हिंदी के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया। उनके अलावा भी कई लोग थे जिन्होंने हिंदी के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। आज अगर हिंदी की धमक वैश्विक स्तर पर महसूस की जा रही है तो उनको याद करना आवश्यक है। कुछ दिनों पहले मैंने किसी पुस्तक में बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा की चर्चा पढ़ी थी।

जिज्ञासा हुई इस पुस्तक के बारे में जानने की। दैनिक जागरण के प्रयागराज के संपादकीय प्रभारी राकेश पांडे से मैंने इस पुस्तक की चर्चा की। उनसे आग्रह किया कि 1941 में इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से प्रकाशित श्यामसुदंर दास की आत्मकथा उपलब्द करवाएं। ये पुस्तक तो उपलब्ध नहीं थी लेकिन प्रयासपूर्वक उनहोंने उसकी फोटो प्रति उपलब्ध करवा दी। उस पुस्तक को पढ़ते ये महसू, हुआ कि व्यक्तियों के अलावा हिंदी को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए कई संस्थाओं ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। इन संस्थाओं में से एक काशी की नागरी प्रचारिणी सभा भी है।

बाबू श्यामसुंदर दास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1893 में काशी में स्कूलों में डिबेटिंग क्लब होते थे। बाद में कुछ बच्चों ने अपनी डिबेटिंग सोसाइटी बनाई। गर्मी की छुट्टियों में सोसाइटी का काम बंद हो गया था। 9 जुलाई 1893 को इस सोसाइटी का एक अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ। इसमें आर्यसमाज के उपदेशक शंकर लाल जी आए थे। उनका बेहद जोशीला भाषण हुआ।

उसके बाद ये निर्णय हुआ कि अगले सप्ताह 16 जुलाई को फिर सभा हो। इसी दिन ये तय किया गया कि नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की जाए। बाबू श्यामसुंदर दास सभा के मंत्री चुने गए। उनके साथ पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकुर शिवकुमार सिंह थे। ये वो समय था जब भारतेन्दु का निधन हो चुका था। हिंदी का नाम लेना भी उस समय पाप समझा जाता था।

कचहरियों में इसकी बिल्कुल पूछ नहीं थी। पढ़ाई में केवल मिडिल क्लास तक इसको स्थान मिला था। अधिक संख्या में विद्यार्थी उर्दू लेते थे। वो कहते हैं कि इस अपमान के वातावरण में लड़कों के खिलवाड़ की तरह नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। वो इसको ईश्वर कृपा मानते हैं। जब सभा की स्थापना हुई तो भारतजीवन पत्र के संपादक बाबू कार्तिकप्रसाद ने इसको आश्रय दिया। धीरे धीरे सभा ने हिंदी के लिए ठोस कार्य करने की पहल की।

अर्थ का संकट आया। दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह से सभा ने हिंदी का शब्दकोश तैयार करने के लिए आर्थिक सहायता मांगी। उन्होने तत्काल 125 रु की सहायता भेजी। साथ में लिखा कि सभा कार्य आरंभ करे भविष्य में और सहायता पर विचार करेंगे। कांकरौली के महाराज ने भी 100 रु की मदद की। इससे ही नागरी प्रचारिणी सभा ने कार्य आरंभ किया। हिंदी के प्राचीन ग्रंथों की खोज आरंभ हुई। लोग सभा से जुड़ते गए और हिंदी की समृद्धि का कार्य चलता रहा।

इनके अलावा हिंदी को विस्तार देने में सरस्वती पत्रिका और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। 1903-04 में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन झांसी से किया। द्विवेदी जी बहुत तीखा लिखा करते थे इस कारण जब वो सरस्वती के संपादक हुए तो वरिष्ठ लेखकों ने उनसे असहयोग शुरू कर दिया। कई बार तो उनको सरस्वती के लिए कई लेख स्वयं लिखने पड़ते थे। 1905 में द्विवेदी जी ने झांसी छोड़ दिया और कानपुर के पास जुहीकलां गांव में रहकर सरस्वती का संपादन करने लगे।

अब जुही कानपुर शहर का हिस्सा है। जुही में उनके मित्र बाबू सीताराम ने उनकी खूब मदद की। उन्होंने अपने मित्र गिरधर शर्मा नवरत्न को लिखा कि ‘ऊपर भी हमारे सीताराम हैं और नीचे भी सीताराम’। सरस्वती के माध्यम से हिंदी सेवा में द्विवेदी जी इतने तल्लीन हो गए कि वो गंभीर रूप से बीमार हो गए। वर्ष 1910 में सरस्वती के अंकों के संपादन उनके मित्र पं देवीप्रसाद शुक्ल ने किया। जब सालभऱ बाद काम पर लौटे तो दिन रात हिंदी को आकार देने के कार्य में जुटे रहे। कुछ सालों बाद फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और 1918 में सरस्वती के संपादन कार्य से दो वर्ष का अवकाश लेना पड़ा।

इस बार भी संपादन का दायित्व शुक्ल जी के पास आया। फिर वो वापस लौटे लेकिन ज्यादा दिनों तक कार्य नहीं कर सके। 1921 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सरस्वती के संपादक बने। द्विवेदी जी अपने गांव दौलतपुर जाकर रहने लगे। 1938 में बीमारियों ने उको जकड़ लिया और दिसंबर में देह त्याग दिया। तब तक द्विवेदी जी हिंदी को ऐसा स्वरूप प्रदान कर चुके थे कि वो युग निर्माता कहलाए।

द्विवेदी जी की सरस्वती में ही सहायक संपादक और फिर संपादक हुए देवीदत्त शुक्ल। सरस्वती के संपादन कार्य के दौरान उन्होंने भाषा और वर्तनी को सुधारने में बहुत श्रम किया। इस दौरान उनकी आंख में भयंकर तकलीफ हुई और उनके आंखों की रोशनी समाप्त हो गई। देवीदत्त शुक्ल ने हिंदी भाषा को और समावेशी बनाया। सरस्वती में साहित्येत्तर विषयों को प्रकाशित किया।

यहां सरस्वती पत्रिका के मालिक चिंतामणि घोष को भी याद करना चाहिए। उन्होंने द्विवेदी जी से लेकर सभी संपादकों को खुली छूट दी, सम्मान भी। मदन मोहन मालवीय ने हिंदी को राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़कर कार्य किया। हिंदी के इन महापुरुषों के अलावा भी अन्य कई विद्वानों ने, राजाओं ने और कुछ अफसरों ने भी हिंदी को विकसित करने में अपनी भूमिका दर्ज करवाई।

सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा समपर्ण और हिंदी को स्वरूप देने की जिद कम ही लोगों में दिखती है। आज हिंदी दिवस के अवसर पर द्विवेदी जी जैसे लोगों को याद करना बहुत आवश्यक है। स्मरण तो हिंदी की उस परंपरा को भी करना होगा जिसने भाषा को समृद्ध करने के लिए हस्तलिखित ग्रंथों की खोज की, शब्दकोश तैयार करवाए। पत्रिकाएं निकालीं और हिंदी को फलने फूलने का अवसर उपलब्ध करवाया।

(यह लेखक के निजी विचार हैं) साभार - दैनिक जागरण।

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

काली स्याही और मिथ्या आरोपों से सत्ता हड़पने के प्रयास: आलोक मेहता

यह बात क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके सहयोगी ने कही है? पहली नज़र में शायद आप यह समझ सकते हैं और सोचेंगे कि मेरे जैसे पत्रकार उनकी बातों को अधिक महत्व दे रहे हैं।

Last Modified:
Monday, 15 September, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

अमेरिका में एक सीनेटर ने बहुत पहले ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिससे हरेक को शक की निगाह से देखा जाने लगा और सीधे-सच्चे लोगों को बहुत परेशान किया गया। उसी तरह आज अपने देश में आलोचकों को हर बात में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार की गंध आती है। हर किसी को संस्थाओं को काली स्याही में रंगकर पेश किया जाता है ताकि कम से कम कुछ लोग तो इन आरोपों को सही मान लेंगे।

विपक्ष के माननीय सदस्यों के भाषणों में ऐसी अनेक झूठी बातें कही गई हैं या आक्षेप लगाए गए हैं। मुझे अपने बचाव में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। अगर देश के लोग चाहेंगे तो वे ही मेरा बचाव करेंगे और मैं उनके निर्णय के आगे सदा नतमस्तक हूँ। यह कहना बड़ी अजीब बात है कि अगर हम चुनाव जीत जाते हैं तो यह काले धन के बल पर होता है, लेकिन अगर दूसरे पक्ष का व्यक्ति जीत जाता है तो वह जनता द्वारा प्राप्त वास्तविक और सच्ची विजय है।

अगर हम चाहें तो हम भी बहुतों के नाम ले सकते हैं—कौन किसके साथ था, किसने कितना पैसा जमा किया। हम खरे उतरे हैं या नहीं, इसका फ़ैसला इस बात से होगा कि हमने जनता की सेवा किस ढंग से की है, एक ज़माने से चले आ रहे अन्यायों और असमानताओं के बोझ को कितना कम किया और किस हद तक एक अधिक सार्थक जीवन की ख़ातिर जनता की आंतरिक क्षमताओं को जगा सकते हैं।

यह बात क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके सहयोगी ने कही है? पहली नज़र में शायद आप यह समझ सकते हैं और सोचेंगे कि मेरे जैसे पत्रकार उनकी बातों को अधिक महत्व दे रहे हैं। जी नहीं। इस तरह की बात संसद में दिए गए भाषणों के दौरान मुझ जैसे संवाददाता प्रेस गैलरी में बैठकर सुनते रहे हैं। तब मैं एक समाचार एजेंसी का संवाददाता था। जी हाँ, ऊपर दिया गया उद्धरण 25 जुलाई 1974 को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का उत्तर देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के भाषण का अंश है।

इसका ध्यान इसलिए दिलाना उचित लगा कि राहुल गांधी और उनके सहयोगी या कांग्रेस गठबंधन के नेता इन दिनों हर संवैधानिक संस्था, केंद्र या राज्यों में बैठे भाजपा के नेताओं पर अनर्गल आरोपों से संपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कालिख पोतने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेसी नेता, सबसे पुरानी पार्टी के नेता, अपने ही शीर्ष नेताओं की बातों को पढ़ने-सुनने का थोड़ा कष्ट उठाएं। राजनीतिक स्वार्थ के लिए घृणित प्रचार के हथकंडों का उपयोग किया जा रहा है।

हमेशा यह रटते रहना कि देश को कुछ नहीं मिल रहा, रसातल को जा रहा है—यह तथ्यों से आँखें मूंद लेना है। अनेक कठिनाइयों के बावजूद न देश रसातल की ओर जा रहा है और न ही बर्बाद हो रहा है। लेकिन अनर्गल दुष्प्रचार से लोगों का अपनी योग्यता, क्षमता और भविष्य के प्रति विश्वास डगमगाने लगता है। वास्तव में यह देश का मनोबल गिराने और अराजकता पैदा करने की कोशिश है। दूसरी तरफ एक वर्ग यह महसूस करता है कि अपने लोकतंत्र में ज़्यादा ही छूट दी जा रही है और समाज में अनुशासन का कोई स्थान नहीं है।

इसमें कोई शक नहीं कि हमारे लोकतंत्र और संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकाधिक अधिकारों का प्रावधान है, लेकिन कर्तव्यों का समावेश नहीं किया गया। महान संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना नहीं की होगी कि सत्ता या विपक्ष के लोग अथवा अन्य क्षेत्रों के लोग स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही नहीं, उश्रृंखलता तक की स्थिति लाएंगे। कई लोकतांत्रिक देशों ने इस महत्व को समझा और नियंत्रण के उपाय का प्रावधान किया। मैं तीन वर्ष जर्मनी में भी रहा और संसद आदि को देखा-सुना।

ब्रिटेन, अमेरिका, जापान जैसे देशों की यात्राओं के दौरान अनेक नेताओं और विशेषज्ञों से बात करने के अवसर मिले हैं। सब जगह कुछ सीमाएँ और मर्यादाएँ हैं। जर्मनी के संविधान में संवैधानिक स्वतंत्रता के दुरुपयोग को रोकने का प्रावधान धारा 18 में है। इसमें कहा गया है कि “जब अभिव्यक्ति की और विशेष रूप से प्रेस की स्वतंत्रता, शिक्षण, सभा करने, संगठन बनाने, डॉक्टर आदि को गोपनीय रखने या संपत्ति तथा शरण लेने के अधिकार का दुरुपयोग स्वतंत्र रूप से बनाई गई लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रहार के लिए किया जाए तो ये मूल अधिकार प्रभावी नहीं माने जाएंगे।”

भारत के ही एक बड़े राजनीतिक चिंतक ने बहुत पहले कहा था—“अतीत में लोकतंत्र का अर्थ मुख्यतः राजनीतिक लोकतंत्र माना जाता था, जिसका आधार मोटे तौर पर एक व्यक्ति का एक वोट था। आप किसी को वोट का अधिकार दिलवा दें तो सिर्फ इसी से व्यक्ति को यह अहसास नहीं होगा कि बहुत बड़ी बात हो गई। जो सर्वहारा है और भूख या जीने के लिए आवश्यक सहयोग चाहता है, उसे अपने खाने-पीने, पहनने, रहने की मूलभूत आवश्यकता में जितनी रुचि होगी, उतनी वोट में नहीं।”

इसलिए राहुल गांधी एंड कंपनी का “वोट” के नाम पर चलाया गया अभियान का कोई असर बिहार या अन्य राज्यों में नहीं होने वाला है। मोदी जनता की नब्ज समझते हैं। इसलिए सामान्य जनता के लिए हर संभव साधन और आत्मनिर्भरता के कार्यक्रमों को सर्वाधिक महत्व दे रहे हैं।

हाल ही में कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के नेताओं या प्रचार विंग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध कुत्सित प्रचार में उनकी स्वर्गीय माताजी के नाम और एआई से बनाए छद्म वीडियो आदि का उपयोग करके सारी मर्यादाएँ त्याग दीं। विरोध तो महात्मा गांधी तक का हुआ और राजमोहन गांधी चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ भी खड़े हुए, लेकिन क्या किसी ने कस्तूरबा गांधी को अभद्र ढंग से पेश किया?

राजनीति में जो महिला नेता आईं, उनके कार्यों, विचारों या सत्ता के दुरुपयोग पर आरोप लगने की स्थितियाँ आई हैं, लेकिन मोदीजी की माताजी या अन्य नेताओं की जिन माताओं-बहनों का राजनीति से कोई संबंध नहीं रहा, उन पर अशोभनीय प्रचार के तरीके कभी नहीं अपनाए गए। आश्चर्य इस बात का है कि कुत्तों से लेकर हर छोटे-बड़े मुद्दों पर सीधे नोटिस लेने वाली सुप्रीम कोर्ट ऐसे संवेदनशील मुद्दों या संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता खत्म करने वाले प्रयासों पर कठोर कार्रवाई के लिए निरंतर सुनवाई कर कानून का प्रावधान क्यों नहीं कर रही है? इसी तरह संसद में भी प्राथमिकता के साथ पुराने नियम-कानून में संशोधन के प्रयास होने चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

हिंदी दिवस 2025: डिजिटल क्रांति और मल्टीमीडिया के माध्यम से हिंदी का सशक्तिकरण

हिंदी, डिजिटलीकरण, नवाचार और अनुकूलन की त्रयी के माध्यम से, भारत के 1.4 बिलियन सपने देखने वालों की आवाज बन रही है।

Last Modified:
Sunday, 14 September, 2025
Hindi Diwas

प्रो. (डॉ.) के.जी सुरेश ।। 

भारत की डिजिटल क्रांति और मल्टीमीडिया की शक्ति हिंदी भाषा को नई ऊंचाइयों तक ले जा रही है। भारत की अनूठी यात्रा को आधार बनाकर, हम एक ऐसे भविष्य की कल्पना कर रहे हैं जहां मल्टीमीडिया केवल मनोरंजन या सूचना का साधन नहीं, बल्कि सशक्तिकरण, समावेशिता और आर्थिक प्रगति का प्रतीक है। हिंदी, जो भारत की आत्मा है, इस डिजिटल युग में वैश्विक मंच पर अपनी पहचान बना रही है।

डिजिटलीकरण: हिंदी मल्टीमीडिया का आधार डिजिटलीकरण ने भारत में मल्टीमीडिया के परिदृश्य को बदल दिया है। 2025 तक, भारत में 900 मिलियन से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जिनमें से 82% मोबाइल के माध्यम से मनोरंजन और मीडिया ऐप्स का उपयोग कर रहे हैं। डेटारिपोर्टल की डिजिटल 2025 इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, 491 मिलियन सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हैं, जो देश की 33.7% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इंस्टाग्राम और लिंक्डइन जैसे मंचों पर वृद्धि अभूतपूर्व है, जहां इंस्टाग्राम का विज्ञापन दर्शक केवल एक तिमाही में 22.8 मिलियन बढ़ा।

हिंदी मल्टीमीडिया इस डिजिटल क्रांति का केंद्र है। 600-650 मिलियन भारतीय 2025 तक शॉर्ट-फॉर्म वीडियो का उपभोग करेंगे, जो प्रतिदिन औसतन 60 मिनट बिताते हैं। डिजिटल इंडिया पहल ने ब्रॉडबैंड हाईवे और यूपीआई जैसे डिजिटल भुगतान सिस्टम के माध्यम से इस क्रांति को गति दी है। हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में 90% से अधिक कंटेंट अब यूट्यूब और शेयरचैट जैसे मंचों पर उपलब्ध है, जो समावेशी कहानी कहने को बढ़ावा दे रहा है। हालांकि, डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन नियम 2025 के तहत डेटा गोपनीयता जैसे मुद्दे चुनौतियां पेश करते हैं। फिर भी, डिजिटलीकरण ने हिंदी को न केवल भारत के कोने-कोने तक पहुंचाया, बल्कि इसे वैश्विक मंच पर एक सशक्त आवाज दी है।

नवाचार: हिंदी मल्टीमीडिया की नई सीमाएं नवाचार मल्टीमीडिया के भविष्य को आकार दे रहा है, और हिंदी इसमें अग्रणी भूमिका निभा रही है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), संवर्धित वास्तविकता (AR/VR), और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकें हिंदी कंटेंट को निजीकरण और दक्षता के नए स्तर पर ले जा रही हैं। मैकिन्से की 2025 टेक्नोलॉजी ट्रेंड्स आउटलुक रिपोर्ट के अनुसार, AI व्यक्तिगत मार्केटिंग और कंटेंट निर्माण में क्रांति ला रहा है। उदाहरण के लिए, जियो और हॉटस्टार जैसे मंच IPL 2025 के लिए AI-आधारित विज्ञापन मापन का उपयोग कर रहे हैं, जिससे रीयल-टाइम डेटा के आधार पर विज्ञापन खर्च को अनुकूलित किया जा रहा है।

AR/VR तकनीक ने हिंदी सिनेमा और गेमिंग को नया आयाम दिया है। 2027 तक भारत का एनिमेशन और VFX क्षेत्र 1.72 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, जो बॉलीवुड को वैश्विक मंच पर और मजबूत करेगा। ऑनलाइन गेमिंग, जिसमें 455 मिलियन गेमर्स शामिल हैं, 2025 तक 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का बाजार बन जाएगा। हिंदी भाषा में गेमिंग और इंटरैक्टिव कंटेंट की मांग तेजी से बढ़ रही है।इनमोबी और ग्लांस जैसे स्टार्टअप्स हिंदी विज्ञापन तकनीक में नवाचार कर रहे हैं, जबकि डिजिटल मीडिया इंडिया 2025 जैसे आयोजन हिंदी कंटेंट क्रिएटर्स को प्रोत्साहित कर रहे हैं। हालांकि, AI और डेटा सुरक्षा के लिए नैतिक दृष्टिकोण अपनाना इस नवाचार की दीर्घकालिक सफलता के लिए महत्वपूर्ण है।

अनुकूलन: हिंदी मल्टीमीडिया का भविष्य अनुकूलन के बिना कोई भी दृष्टिकोण पूर्ण नहीं है। 2025 में, हिंदी मल्टीमीडिया उपभोक्ता व्यवहार, नियामक बदलावों और आर्थिक वास्तविकताओं के अनुरूप ढल रहा है। डेलॉयट की 2025 डिजिटल मीडिया ट्रेंड्स रिपोर्ट के अनुसार, सामाजिक मंच अब मीडिया का प्रमुख स्रोत हैं। भारत में, डिजिटल विज्ञापन 8.1% की वृद्धि के साथ बढ़ रहे हैं, जिसमें हिंदी कंटेंट का योगदान उल्लेखनीय है।5G और एज कंप्यूटिंग ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच की खाई को कम किया है, जिससे हिंदी में कृषि और स्वास्थ्य सेवा से संबंधित मल्टीमीडिया ऐप्स की पहुंच बढ़ी है।

मिसिन्फॉर्मेशन जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए, सोशल मीडिया एंड सोसाइटी इन इंडिया 2025 जैसे सम्मेलनों में फेक्ट-चेकिंग और नैतिकता पर जोर दिया जा रहा है।

निष्कर्ष: हिंदी मल्टीमीडिया का स्वर्णिम भविष्य 2027 तक, भारत का मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र 36.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगा, जिसमें डिजिटल मीडिया का योगदान 12.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर होगा। हिंदी, डिजिटलीकरण, नवाचार और अनुकूलन की त्रयी के माध्यम से, भारत के 1.4 बिलियन सपने देखने वालों की आवाज बन रही है। बॉलीवुड के VFX महाकाव्यों से लेकर क्षेत्रीय रील्स तक, हिंदी मल्टीमीडिया समुदायों को जोड़ रहा है और वैश्विक प्रभाव पैदा कर रहा है।

हिंदी दिवस 2025 हमें एक संदेश देता है: डिजिटल उपकरणों को अपनाएं, साहसिक नवाचार करें, और त्वरित अनुकूलन के साथ एक समावेशी मल्टीमीडिया पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करें। आइए, हिंदी को न केवल भारत की, बल्कि विश्व की आवाज बनाएं।जय हिंद! जय हिंदी।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वर्तमान में भारत पर्यावास केंद्र नई दिल्ली के निदेशक हैं। आप पूर्व में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के कुलगुरु तथा भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक रह चुके हैं। आपको भारत सरकार ने हिंदी पत्रकारिता में उत्कृष्ट योगदान के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित किया है।)

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

‘हिंदी दिवस: महज एक कर्मकांड दिवस’

कालजयी कवियों, लेखकों, भक्तों, विद्वानों ने हिंदी भाषा और साहित्य को नई ऊंचाई दी विस्तार दिया और लोकप्रिय बनाया। हिंदी संघर्ष और स्वतंत्रता आंदोलन की भाषा बनी।

Last Modified:
Sunday, 14 September, 2025
Vinod Agnihotri

विनोद अग्निहोत्री,

सलाहकार संपादक, अमर उजाला।।

आज हिंदी दिवस है।हर साल की तरह इस बार भी हिंदी के प्रचार प्रसार के दावों और वादों के साथ देश में सरकारी गैर सरकारी कार्यक्रम आयोजित हैं। रविवार की छुट्टी होने के कारण इस बार सरकारी दफ़्तरों में हिंदी में कामकाज का ढोंग नहीं हो पा रहा है वरना एक दिन के लिए ये भी हो जाता और साल भर के लिए हिंदी के प्रयोग को विदा कह दिया जाता।

हिंदी की स्वीकार्यता और प्रसार में दो तीन बड़ी बाधायें हैं। पहली हिंदी को कथित सरकारी सरंक्षण जिसने हिंदी को न सिर्फ़ सरकारों पर आश्रित बना कर उसे वैसा लाड़ला बच्चा बना दिया जिसकी संघर्ष क्षमता कमजोर पड़ती है साथ ही वो दूसरों की ईर्ष्या का पात्र भी बनता है। हिंदी के साथ यही हुआ। कथित सरकारी सरंक्षण ने उसे सरकारी कामकाज और संस्थानों में अनुवाद की भाषा बना कर उसके विकास को पंगु कर दिया और अन्य भारतीय भाषा भाषी उसे अपने ऊपर थोपे जाने के भय से उसके अकारण विरोधी हो गये। सरकारी शब्दकोषीय अनुवाद की भाषा ने हिंदी के प्रयोग को दुरूह और अरुचिकर बना दिया।

इसके साथ ही कथित सरकारी सरंक्षण ने हिंदी के विकास के नाम पर भाषायी ठेकेदारों की ऐसी जमात भी पैदा की जो सरकारी अनुदानों पद और सम्मानों के लिए हिंदी की नहीं अपनी चिंता गुटबाज़ी में उलझे रहे। इसने हिंदी को कई मठों में बदल दिया और हिंदी क्षेत्र की बोलियों और भाषाओं की अस्मिता भी हिंदी से टकराने लगी। उनके समर्थकों का आग्रह हिंदी से ज़्यादा अपनी बोलियों और भाषाओं को मान्यता दिलाने के लिए हो गया। जब देश में मुस्लिम बादशाहों और अंग्रेजों का राज था तब हिंदी स्वाभाविक और सहज ढंग से फूली फली।

कालजयी कवियों, लेखकों, भक्तों, विद्वानों ने हिंदी भाषा और साहित्य को नई ऊंचाई दी विस्तार दिया और लोकप्रिय बनाया। हिंदी संघर्ष और स्वतंत्रता आंदोलन की भाषा बनी। गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू जैसे नेताओं ने हिंदी को संवाद और संप्रेषण की भाषा के रूप में स्वीकार किया। अनेक कालजयी रचनाओं ने हिंदी और हिंदी क्षेत्र की बोलियों और भाषाओं को एक सूत्र में पिरोया।

अन्य भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी का स्वाभाविक रिश्ता बना। कोई टकराव नहीं बहनों जैसा प्रेम विकसित होने लगा। ये सिलसिला आज़ादी के कुछ वर्षों तक जारी रहा। लेकिन जैसे-जैसे हिंदी को सरकारी सरकारी सरंक्षण और उसे राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह बढ़ा हिंदी का विरोध और उसकी दुर्दशा का दौर भी शुरू हो गया। भाषाई राजनीति और मठवाद ने हिंदी को सिर्फ़ हिंदी क्षेत्र की भाषा में बदल दिया और रही सही कसर बाज़ार की भाषा के नाम पर शुरू हुए हिंग्लिश के प्रयोग ने हिंदी को बाजारू भाषा में बदलना शुरू कर दिया।

हिंदी के सहज शब्दों की जगह ज़बरन अंग्रेज़ी के शब्दों को ठूँसने से भाषा का वर्ण संकरीकरण होने लगा।बचाव की जगह रेस्क्यू और विस्फोट या धमाके की जगह ब्लास्ट जैसे शब्दों का प्रयोग इसका उदाहरण है। हिंदी की रचनाओं को अंग्रेज़ी रचनाओं की तुलना में कमतर मानना अंग्रेज़ी ज्ञान से ज़्यादा अंग्रेज़ीयत झाड़ना हिंदी भाषी मध्यवर्ग की आम प्रवृत्ति है। जब तक हिंदी क्षेत्र इस हीन भावना से मुक्त होकर बिना सरकारी सरंक्षण के हिंदी के समृद्ध रचना संसार को अपनी पूँजी और थाती नहीं बनाता तब तक कितने भी हिंदी दिवस मना लीजिए हिंदी की दशा नहीं सुधरेगी।

इसकी पहल हिंदी भाषियों को अपने घरों परिवारों से करनी होगी। अपने घरों परिजनों के साथ बोलचाल पठन पाठन में हिंदी का प्रयोग बेहिचक करना होगा। बच्चे अंग्रेज़ी और अन्य भाषायें सीखें पर हिंदी न छोड़ें। हिंदी अख़बार पढ़ें हिंदी साहित्य जानें और हिंदी में कामकाज में हीनता नहीं गौरव का भाव रखें। सिर्फ़ मजबूरी में सब्ज़ी वाले रिक्शे वाले से हिंदी में बात न करें बल्कि जब तक मजबूरी और ज़रूरी न हो अंग्रेज़ी न बोलें। हिंदी भाषियों से हिंदी में ही बात करें। अपने अध्ययन कक्ष में तुलसी कबीर प्रेमचंद प्रसाद दिनकर समेत सभी हिंदी के महान रचनाकारों की रचनाएँ प्रमुखता से रखें।

हिंदी क्षेत्र की बोलियों भाषाओं को हिंदी के मुक़ाबले खड़ा करने की बजाय उन्हें सहोदरी बनायें।जिस दिन से हम हिंदी भाषी ये सब करने लगेंगे तब हिंदी को किसी सरकारी सरंक्षण दिवस मनाने की ज़रूरत नहीं रहेगी। वरना मानते रहिए हिंदी दिवस का कर्मकांड। वैसे भी पितृ पक्ष चल रहा है जो कर्मकांड का ही समय है। आख़िर में हिंदी कर्मकांड दिवस की बधाई।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

हिंदी दिवस पर विशेष: कब तक हिंदी से 'कमाने' वाले दबाते रहेंगे अंग्रेजी के पांव

हिंदी आज भी अंग्रेजी की छाया में जीने को मजबूर है, कभी उसकी अधीन बनकर, तो कभी उसकी सहायिका बनकर।

Last Modified:
Sunday, 14 September, 2025
HindiDiwas89562

आज जब हम हिंदी दिवस मना रहे हैं, यह सवाल बार-बार दिल और दिमाग में गूंजता है कि स्वतंत्रता के इतने दशकों बाद भी हिंदी को उसका वास्तविक स्थान क्यों नहीं मिला। यह वही हिंदी है, जिसने करोड़ों लोगों को जोड़ने का सेतु बनाया, जिसने हमारी मिट्टी की खुशबू और हमारी संस्कृति की आत्मा को दुनिया तक पहुंचाया। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वही हिंदी आज भी अंग्रेजी की छाया में जीने को मजबूर है, कभी उसकी अधीन बनकर, तो कभी उसकी सहायिका बनकर।

नीति-नियंताओं ने हमेशा हिंदी को सम्मान देने और उसके प्रचार-प्रसार की बात जरूर की, लेकिन उनके प्रयास अधूरे ही रहे। हकीकत यह है कि हिंदी ने हमारे समाज और अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, रोजगार दिया, उद्योगों को खड़ा किया, लेकिन स्वयं अपने हक से वंचित रही। हिंदी फिल्मों से लेकर हिंदी पत्रकारिता और मीडिया उद्योग तक- सबकी नींव हिंदी पर खड़ी है। इनसे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी चल रही है, फिर भी विडंबना यह है कि हिंदी आज तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं पा सकी।

प्रिंट, टीवी या डिजिटल- मीडिया का हर माध्यम हिंदी की ताकत से फल-फूल रहा है, लेकिन संवैधानिक रूप से हिंदी आज भी राजभाषा होकर एक “सहायिका” भर है। यह स्थिति हर उस भारतीय को चुभती है, जो अपनी मातृभाषा को सिर्फ संवाद का नहीं, बल्कि आत्मसम्मान का प्रतीक मानता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदी को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान और सम्मान दिलाने का जो साहसिक कदम उठाया है, वह काबिले-तारीफ है। लेकिन असली सवाल यही है कि क्या यही सरकार आने वाले समय में हिंदी को राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्जा दिलाने की हिम्मत दिखाएगी? अगर इस हिंदी दिवस पर यह बड़ा फैसला हो जाता है, तो न सिर्फ हिंदी दिवस सफल होगा बल्कि यह देश के हर उस दिल को तसल्ली देगा, जो वर्षों से हिंदी के हक की प्रतीक्षा कर रहा है।

समाचार4मीडिया ने इस अवसर पर मीडिया में हिंदी की बदलती भूमिका पर विशेष आलेखों का संग्रह प्रस्तुत किया है। यह प्रयास केवल लेखों का संग्रह नहीं है, बल्कि हिंदी के उत्थान और उपेक्षा के बीच के संघर्ष का आईना है। उद्देश्य यही है कि पाठकों तक हिंदी की ताकत, उसकी चुनौतियां और उसके भविष्य की दिशा एक ही मंच पर पहुँच सके।

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए

भाषाई समन्वय का आधार बन सकती है आधुनिक हिंदी: आलोक मेहता

आजादी के आंदोलन के समय से राष्ट्रीय नेताओं की मान्यता रही कि भारत में राष्ट्र की भावना सुदृढ़ करने के लिए एक भाषा से समन्वय जरूरी है।

Last Modified:
Sunday, 14 September, 2025
HindiDiwas78454

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।।

वर्षों तक हिंदी दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा औपचारिकता की तरह मनाया जाता रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विभिन्न स्तरों पर हिंदी का अनिवार्य ढंग से उपयोग कर इसे भाषाई समन्वय का आधार बना दिया है। गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट आदेश देकर अपने मंत्रालय का सारा कामकाज पहले हिंदी में करवाना शुरू कर दिया। विदेशमंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर दक्षिण भारतीय होकर जितने प्रभावशाली ढंग से हिंदी में अपनी बातें रखते हैं, वह लोगों के लिए प्रेरक बन रही है। नई शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओँ को सर्वाधिक प्राथमिकता दिए जाने से हिंदी के उपयोग के विस्तार में महत्वपूर्ण सहायता मिलने वाली है। हां, कुछ राजनीतिक तत्व निहित स्वार्थों के कारण इस नीति का विरोध कर रहे हैं, लेकिन देश के किसी हिस्से में सामाजिक विरोध देखने सुनने को नहीं मिल रहा है।

वास्तव में सारी विविधताओं के बावजूद संपूर्ण भारत का चिंतन एक जैसा रहा है। इसी चिंतन के आधार पर हिंदी को समन्वय भाषा के रूप में अधिकाधिक बढ़ाने का काम किया जा सकता है। आजादी के आंदोलन के समय से राष्ट्रीय नेताओं की मान्यता रही कि भारत में राष्ट्र की भावना सुदृढ़ करने के लिए एक भाषा से समन्वय जरूरी है। इसीलिए लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी ने हिंदी को देश की एकता और उन्नति के लिए आवश्यक बताया। जो लोग आज मोदीजी या भाजपा सरकार द्वारा हिंदी के उपयोग को राजनीति से प्रेरित बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि इस पार्टी और सरकार से बहुत दशकों पहले हिंदी को महत्व देने वाले संत, नेता, विद्वान अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के रहे हैं। राजा राममोहन राय ने जब कलकत्ता से बंगदत्त साप्ताहिक निकाला, तो उसमें हिंदी की रचनाओं को स्थान दिया। केशवचन्द्र सेन ने 1875 में सुलभ समाचार में लिखा कि हिंदी को भारत की भाषा स्वीकारे जाने पर सहज में एकता हो सकती है। सुभाष बोस ने हिंदी को आजाद हिन्द फौज की भाषा बनाया। गांधी तो गुजराती के साथ निरंतर हिंदी का उपयोग करते रहे। गुजराती स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा। सुब्रहण्यम भारती ने राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित होकर हिंदी की कक्षाएं संचालित की। विनोबा भावे मराठी भाषी थे। उनके समय में कुछ इलाकों में हिंदी विरोधी राजनीतिक आंदोलन भी हुए, लेकिन उन्होंने देश भर में भूदान आंदोलन का संदेश हिंदी माध्यम से पहुंचाया। हिंदी पत्रकारिता के पितामह बाबू विष्णुराव पराड़कर मराठीभाषी थे। हिंदी का विकास केवल उत्तर भारत में ही नहीं दक्षिण भारत का बड़ा योगदान रहा है। वहां की हिंदी को दक्खिनी हिंदी कहा गया। दक्खिनी हिंदी का विकास 14 वीं से 19वीं सदी तक बहमनी, कुतुबशाही और आदिलशाही सुलतानों के संरक्षण में हुआ। इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है कि राजकीय कार्यालयों में फारसी के बजाय हिंदी चलती थी। 17वीं सदी में तंजावूर के शासक शाहजी महाराज ने हिंदी भाषा में दो यक्ष गानों की रचना की थी। 1942 के आंदोलन में अल्लुरी सत्यनारायण राजू ने जेल में रहकर हिंदी सीखी और महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन के उपन्यास 'वोल्गा से गंगा तक' का तेलुगु में अनुवाद किया। केरल के महाराजा स्वाति तिरुनाल ने ब्रज भाषा में अनेक गीत लिखे। 1942 में केरल के त्रिचूर से पहली हिंदी पत्रिका हिंदी मित्र निकली, जिसके संपादक के जी नीलकंठन नायर थे।

हिंदी साहित्य और भाषा में गुजरात का योगदान भी महत्वपूर्ण है। स्वामी दयानन्द के अलावा नरसिंह मेहता, केशवराम जैसे संत कवियों ने गुजराती के साथ हिंदी में रचनाएं लिखीं। कच्छ, सौराष्ट्र और राजकोट के शासकों ने हिंदी कवियों को आश्रय दिया तथा हिंदी सिखाने की सुविधाएं प्रदान की। मध्य काल में भक्त कवियों ने उड़िया तथा ब्रज भाषा में आदान प्रदान किया। वंशी वल्लभ, जगबंधु हरिचंदन, रामदास तथा प्रह्लाद राय आदि उड़िया कवियों ने ब्रज भाषा में रचनाएं लिखीं। गुरु नानक देव ने पंजाबी के साथ हिंदी में काव्य लिखे। लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हेमराज, पंडित गुरुदत्त तथा भाई परमानन्द ने स्वयं हिंदी सीखी और लोगों को सिखाई। असम के संत कवी शंकर देव और माधव देव के नाटकों और गीतों में ब्रजबुलि भाषा का प्रयोग मिलता है। बाद में नाथ पंथियों और वैष्णव संतों ने असमिया के साथ हिंदी को आगे बढ़ाया।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में हिंदी भवन की स्थापना की। हिंदी भवन की स्थापना के अवसर पर गुरुदेव टैगोर ने हिंदी के विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी से कहा था, ‘तुम्हारी परम्परा शक्तिशाली है। बड़े-बड़े पदाधिकारी तुमसे कहेंगे कि हिंदी में कौन सा रिसर्च होगा भला? लेकिन तुम उनकी बात में कभी न आना। मुझे भी लोगों ने बंगला में न लिखने का उपदेश दिया था। तुम कभी अपना मन छोटा न करना। कभी दूसरों की और मत ताकना। साहस अधिक जरूरी है। लग पड़ोगे तो सब हो जाएगा। हिंदी के माध्यम से तुम्हें ऊंचे से ऊंचे विचारों को व्यक्त करने का प्रयत्न करना होगा।’ जापान के बौद्ध भिक्षु फुजी गुरूजी 1933 में गांधीजी से मिलने आए और भारतीयों के बीच काम करने की इच्छा व्यक्त की। तब गांधीजी ने उन्हें सलाह दी कि वे अपना काम शुरू करने से पहले हिंदी-हिंदुस्तानी सीख लें। गांधीजी के प्रयासों के कारण 1918 में होमरूल कार्यालय में सी पी रामास्वामी आयंगर की अध्यक्षता में श्रीमती एनी बेसेंट ने पहले हिंदी वर्ष का उद्घाटन किया था। फादर कामिल बुल्के ने बहुत पहले लिखा था, 'हिंदी न केवल देश के करोड़ों लोगों की सांस्कृतिक और संपर्क भाषा है, वरन बोलने और समझने की दृष्टि से दुनिया की तीसरी भाषा है। भारत के सभी धर्मों और विभिन्न भाषा भाषियों ने हिंदी के विकास में योगदान दिया है | यह किसी वर्ग, प्रदेश या समुदाय की भाषा न होकर भारतीय जनता की भाषा है|'

इस गौरवपूर्ण पृष्ठभूमि के बाद वर्तमान दौर मैं हिंदी को सर्वाधिक प्रतिष्ठित यानी देश भर में उपयोग के लिए केवल सरकार पर निर्भर रहने के बजाय पत्रकारिता, शिक्षा, विधि और न्याय से जुड़े लोगों को निरंतर अभियान के रुप में योगदान देना होगा। हिंदी के साथ सभी भारतीय भाषाओँ को सम्मान और ज्ञान की दृष्टि से विदेशी भाषा की शिक्षा के प्रति उदार रुख अपनाने से कट्टरता का भय भी नहीं रहेगा। गंगा में अन्य नदियों के सम्मिलन से गंगा की गरिमा काम नहीं होती। हिंदी के लिए उसी पवित्र भाव से संकल्प और प्रयासों की आवश्यकता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क इंडिया न्यूज और आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं)

न्यूजलेटर पाने के लिए यहां सब्सक्राइब कीजिए