मोटे तौर पर आपका काम रोज एक जैसा है या रेपिटिटिव है, तो यह पैटर्न एआई सीख सकता है। मगर जहां फील्ड का काम है या जो हाथों से ही हो सकता है, वहां एआई को तुरंत करने में दिक्कत होगी।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
पिछले हफ्ते मैंने पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार 'डॉन' की एक क्लिप शेयर की थी। अखबार में गाड़ियों की बिक्री की खबर छपी थी। आखिर में चैटजीपीटी स्टाइल में यह प्रॉम्प्ट भी छप गया था कि 'यह खबर फ्रंट पेज के लिए बना दूं क्या?' दो संभावनाएं हैं। चैटजीपीटी को प्रेस नोट देकर कॉपी लिखने के लिए कहा गया होगा या फिर किसी रिपोर्टर की कॉपी को डेस्क ने एडिट करने के लिए डाला होगा। अखबार का मजाक उड़ा। हिसाब-किताब में चर्चा हुई नौकरी में एआई के बारे में। हमारा साथी बनेगा या नौकरी खा जाएगा?
ईवाई ने भारत में नौकरियों पर एआई के असर को लेकर एक रिपोर्ट बनाई है। यह रिपोर्ट कहती है कि पांच साल में करीब चार करोड़ (38 मिलियन) नौकरियां बदल जाएंगी, मतलब ये लोग जैसा काम आज कर रहे हैं, वैसा आने वाले समय में नहीं रह जाएगा।
तीन सेक्टरों में सबसे ज्यादा असर होगा। रिटेल, फाइनेंस और आईटी में बदलाव सबसे पहले देखने को मिल सकता है। मैंने चैटजीपीटी से ही पूछा था कि किस तरह की नौकरियां जा सकती हैं और किनकी बच सकती हैं। यह आकलन अलग-अलग रिसर्च रिपोर्टों के आधार पर किया गया है, जैसे नीति आयोग, माइक्रोसॉफ्ट और ईवाई।
किसकी नौकरी खतरे में है?
कस्टमर केयर - कस्टमर के सवालों का जवाब देने वाले कॉल सेंटर की जगह एआई तेजी से ले रहा है। आपका ऑर्डर कहीं लेट हो गया या गलत डिलीवरी हो गई, तो सबसे पहले चैटबॉट ही सवाल-जवाब करता है। जरूरत पड़ने पर ही कोई फोन पर आकर बात करता है। कंपनियों के पास आमतौर पर एक जैसी शिकायतें आती हैं, और उनका निदान भी पता होता है। एआई को ट्रेनिंग देकर यह काम कराया जा रहा है।
डेटा एंट्री ऑपरेटर - डेटा भरने के लिए अब व्यक्तियों की जरूरत नहीं रह गई है। अकाउंटिंग क्लर्क का बेसिक काम एआई कर रहा है। आने वाले समय में यह और बेहतर होता जाएगा। पहले बही-खाते में हिसाब लिखा जाता था। फिर कंप्यूटर में इसकी एंट्री होने लगी। इस काम के लिए लोग रखे गए थे, अब कंप्यूटर यह काम खुद कर सकता है।
लेखन/अनुवाद - लिखने और अनुवाद का काम एआई कर रहा है। पहले अनुवाद करने के लिए एजेंसियां काम करती थीं। वे लोगों को काम देती थीं। मीडिया में भी यह काम होता था। यह काम धीरे-धीरे कम होता चला जाएगा।
किसकी नौकरी बचेगी?
फील्ड टेक्नीशियन - जिस काम के लिए आपको फील्ड में जाना होगा, जैसे एसी मैकेनिक, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन।
नर्सिंग - डॉक्टर के काम में तो एआई दखल देने लगा है, लेकिन देखभाल का काम एआई नहीं कर सकता या ब्लड सैंपल लेने का काम।
रिलेशनशिप मैनेजर - बैंकों में या फाइनेंस कंपनियों में आप सामने बैठकर ग्राहकों की समस्या सुलझाने या सलाह देने का काम बना रहेगा। सेल्स पर्सन जो रिटेल स्टोर में आपकी मदद करते हैं।
मोटे तौर पर आपका काम रोज एक जैसा है या रेपिटिटिव है, तो यह पैटर्न एआई सीख सकता है। मगर जहां फील्ड का काम है या जो हाथों से ही हो सकता है, वहां एआई को तुरंत करने में दिक्कत होगी। नौकरियां जाने के बजाय बदलने की संभावना ज्यादा है, इसलिए एआई सीखते रहिए। एआई के साथ-साथ दिमाग का भी इस्तेमाल कीजिए, वरना 'डॉन' अखबार जैसी गलती हो सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राष्ट्रीय प्रेस दिवस (16 नवंबर) के उपलक्ष्य में लिखे अपने लेख में आलोक मेहता का कहना है कि समय के साथ हिंदी पत्रकारिता में भी कई तरह के बदलाव आए हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर पत्रकारिता की चुनौतियां और उपलब्धियां चर्चा में रही हैं। यह धारणा गलत है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने से हिंदी की पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौतियां और समस्याएं आई हैं। सच तो यह है कि मीडिया के विभिन्न माध्यम एक-दूसरे के पूरक भी हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं के बाहुल्य वाले भारतीय शहरों से लेकर गांव तक सूचना, समाचार, विचार पढ़ने, सुनने और देखने की भूख कम होने के बजाय बढ़ती गई है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही क्यों, अब तो सोशल मीडिया भी बड़े पैमाने पर लोगों के बीच लोकप्रिय हुआ है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि समय के साथ हिंदी पत्रकारिता में भी कई तरह के बदलाव आए हैं। तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी युग वाली पत्रकारिता की अपेक्षा वर्तमान परिपे्रक्ष्य में नहीं की जा सकती। लेकिन आधुनिक हिंदी पत्रकारिता की दृष्टि से 70 के दशक से संपादकों और पत्रकारों ने सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरुकता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र माथुर, जैसे संपादकों ने हिंदी के अखबारों के पाठकों के साथ संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित किया। नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, नई दुनिया, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और प्रभात खबर जैसे दैनिक अखबार राजधानी दिल्ली से आगे बढ़कर विभिन्न हिंदीभाषी प्रदेशों में भी निरंतर अपनी छाप छोड़ते रहे।
राजेन्द्र माथुर जब 1982 में नवभारत टाइम्स के संपादक बनकर दिल्ली आए तो उन्होंने कुछ ही सप्ताह बाद एक समारोह में कहा था कि हिंदी का कोई अखबार केवल दिल्ली या मुंबई से प्रकाशित होने से राष्ट्रीय नहीं कहा जा सकता। वह तभी राष्ट्रीय कहला सकता है जब देश के विभिन्न राज्यों में उसके संस्करण हों।
यों अज्ञेय ने भी 1977 में नवभारत टाइम्स के संपादक बनने पर दिल्ली, मुंबई के अलावा बिहार की राजधानी पटना से अखबार का संस्करण निकालने की इच्छा व्यक्त की थी। लेकिन दो वर्ष के संक्षिप्त कार्यकाल के कारण वह सपना पूरा नहीं हुआ। माथुर साहब के आने के बाद लखनऊ, जयपुर, पटना के संस्करण निकले।
इसी तरह जब मुझे दैनिक हिंदुस्तान का संपादक बनने का अवसर मिला, पटना के अलावा लखनऊ यानी उत्तर प्रदेश के संस्करण निकालने के लिए प्रबंधन तैयार हुआ। इसी तरह हरिवंशजी ने प्रभात खबर संभालने के बाद इसे झारखंड और बिहार में प्रतिष्ठित अखबार बना दिया।
जनसत्ता दिल्ली के अलावा मुंबई और कोलकाता से प्रकाशित हुआ। दिलचस्प बात यह भी रही कि राजस्थान पत्रिका जैसे जयपुर के अखबार ने कोलकाता के अलावा दक्षिण भारत में हैदराबाद और बंगलौर जैसे शहरों में हिंदी पाठकों के लिए संस्कारण निकाले। इस दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता ने अपनी गुणवत्ता से व्यापक स्तर पर पाठकों में अपनी पहचान बनाई। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पहले हिंदी अखबारों की प्रगति को उपलब्धि की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टेलीविजन के समाचार चैनल आने से हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या कम नहीं हुई बल्कि अधिकृत आंकड़ों के अनुसार भी इनके पाठक बढ़ते गए। मेरा यह मानना है कि रेडियो या टेलीविजन पर कोई खबर देखने के बाद सामान्य जनता इन्हें विस्तार से देखने, पढ़ने और उस पर होने वाली टिप्पणियों के लिए अखबार या पत्रिका पढ़ती है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से पहले भी दैनिक अखबारों में रंगीन फोटो तथा आधुनिक डिजाइन के आकर्षक प्रस्तुतीकरण के प्रयास होने लगे थे। अन्यथा 70 के दशक के पहले भारत ही नहीं, ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देश में भी अखबारों में रंगीन फोटो नहीं छपते थे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने पर हिंदी अखबारों की डिजाइन और परिशिष्ट में रंगीन फोटो छपने लगे। ररिवारीय संस्करण कुछ हद तक पत्रिका की कमी भी पूरी करने लगे।
असली समस्या यह है कि आधुनिक तकनीक, प्रिंटिंग का खर्च और न्यूजप्रिंट के मूल्य लगातार बढ़ने से बड़े प्रभावशाली कहे जाने वाले अखबार के प्रबंधन घाटे और मुनाफे पर अधिक ध्यान देने लगे। कुछ हद तक राजनीतिक सत्ता का प्रभाव भी इन अखबारों पर पड़ा।
इस संदर्भ में देश के सबसे बड़े प्रकाशन समूह टाइम्स ग्रुप द्वारा मुनाफे को ही सर्वाधिक महत्व देने और अखबार को चटपटा, मसालेदार तथा अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री के अनुवाद को प्रोत्साहित करने की नीति अपनाई जिसका असर अन्य हिंदी अखबारों पर भी पड़ा। लेकिन प्रादेशिक और स्थानीय कम प्रसार संख्या वाले अखबार बहुत हद तक व्यावसायिक नहीं हुए और पाठकों के बीच स्थानीय समाचारों और उपयोगी सामग्री के जरिए अपना स्थान बनाए हुए हैं।
यह कहा जा सकता है कि महानगरों का एक बड़ा वर्ग और युवा पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के आने के बाद अखबारों में कम दिलचस्पी ले रही है। लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में आज भी अखबार पढ़ने की रुचि बनी हुई है। ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में साक्षरता बढ़ने से अखबारों के लिए अब भी संभावनाएं दिखाई देती हैं। सरकारों खासकर नौकरशाहों ने यह गलत धारणा बना रखी है कि अब लोग अखबार, पत्रिका या पुस्तकें नहीं पढ़ना चाहते हैं। वह भूल जाते हैं कि अमेरिका या जापान जैसे आधुनिक संपन्न देशों में भी अखबारों की प्रसार संख्या अच्छी-खासी है।
वास्तव में प्रकाशकों और संपादकों पर यह निर्भर है कि वह बाजार से प्रभावित न होकर ऐसी सामग्री पाठकों को उपलब्ध कराएं जो सामान्यतः टेलीविजन पर भी नहीं मिल सकती। पश्चिमी देशों की तरह भारत में अलग से टैबलाइट अखबार भी निकले लेकिन दुर्भाग्य से कई अखबार सनसनीखेज सामग्री और फोटो आदि से टैबलाइट की तरह अखबार का स्तर गिराने लगे, वहीं मशीन, प्रिंटिंग और प्रसार व्यवस्था पर अधिकाधिक धन खर्च किया जा रहा है लेकिन समाचारों के संकलन और समर्पित पत्रकारों पर खर्च कम से कम करने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसका असर गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
इन दिनों मीडिया की शक्ति और स्वायत्तता को लेकर भी निरंतर सवाल उठ रहे हैं। जहां तक शक्ति का सवाल है, प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अथवा सोशल मीडिया की बात है, उसके व्यापक असर के कारण ही हजारों करोड़ की पूंजी लग रही है और कोई भी सरकार हो उसका यथासंभव उपयोग करने का प्रयास भी करती है। यही नहीं, विदेशी शक्तियां भी भारतीय मीडिया को प्रभावित करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूंजी लगा रही हैं।
बड़े कार्पोरेट घरानों के प्रभाव को लेकर बहुत शोर मचता है लेकिन हम भूल जाते हैं कि 80 के दशक तक दिल्ली, मुंबई, कोलकाता तक मीडिया संस्थानों पर बिड़ला, डालमिया, टाटा के प्रभाव की चर्चा शक्तिशाली प्रधानमंत्री करते थे। इसे जूट प्रेस कहा जाता था। सत्ता के दबाव तब भी थे। मैंने पत्रकारिता पर अपनी पुस्तकों पावर, प्रेस एंड पॉलिटिक्स, कलम के सेनापति, भारत में पत्रकारिता, इंडियन जर्नलिज्मः कीपिंग इट्स क्लीन में इस मुद्दे पर प्रामाणिक तथ्यों के साथ विवरण दिया है।
सत्ता की राजनीति ने पत्रकारिता को पहले भी प्रभावित किया था और आज भी कर रही है। इसलिए मुद्दा यह भी है कि सरकारों को बनाने या हटाने की भूमिका जो अखबार या मीडिया निभाता है उसका असर विश्वसनीयता पर पड़ता है। यदि लक्ष्य केवल प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या दल विशेष रहेगा तो स्वायत्तता कहां होगी अन्यथा प्रामाणिक तथ्यों के साथ सरकार की गड़बड़ियों या जनता की समस्याओं को प्रकाशित या प्रसारित करने पर दबाव नहीं पड़ सकता है।
खोजी रिपोर्ट के लिए संस्थानों को अधिक खर्च भी करना पड़ेगा। नई पीढ़ी को जोड़ने के लिए मीडिया संस्थानों की वेबसाइट और प्रकाशित सामग्री के सोशल मीडिया पर उपलब्ध किए जाने के प्रयास किए जा सकते हैं और कुछ हद तक हो भी रहे हैं। इस दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के अखबारों की संभावना बनी रहेगी। यही बात वैकल्पिक मीडिया यानी सोशल मीडिया पर लागू होती है। जो अच्छी सामग्री उपलब्ध कराएगा उसका भविष्य भी सुरक्षित रहेगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक पद्मश्री से सम्मानित और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं)
नोबेल और बुकर सम्मान लेखकों की कृतियों में अकेलापन और अवसाद दिखता है, वहीं हिंदी लेखन में धर्म-अध्यात्म और भारत की कहानियों के प्रति रुझान दिखता है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले दिनों जब बुकर पुरस्कार की घोषणा हुई तो लेखक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, देर रात बुक प्राइज की घोषणा हुई और इस बार ये पुरस्कार DAVID SZALAY के उपन्यास फ्लेश को मिला। वो कनाडा मूल के लेखक हैं। सबसे पहले उनके नाम का उच्चारण ढूंढा – वह है डेविड सोलले । अमेजन पर इनका उपन्यास खरीदा। सबसे सस्ता किंडल संस्करण मिला, 704 रु में।... एक बात समझ में आई कि इस बार शार्टलिस्ट में एक से अधिक उपन्यास ऐसे थे जिनमें अकेलापन, बेमेल दुनिया की बातें थीं।
यह भी कुछ उसी तरह का उपन्यास है। अलग अलग भाषाओं में इस तरह की कहानियां और उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं। प्रभात रंजन की इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ध्यान वैश्विक लेखन की ओर चला गया। कुछ दिनों पहले साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक लास्जलो क्रास्जनाहोरकाई के लेखन में भी अकेलापन और निराशा कई बार प्रकट होता है। पहले के लेखक भी इस तरह का लेखन करते रहे हैं।
पश्चिमी देशों के अलावा जापान और कोरिया के कई लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में भी अकेलापन और उसका दंश, उससे उपजी निराशा और फिर समाज पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जापान के विश्व प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी के उपन्यासों में भी अकेलापन प्रमुखता से आता है। जापान के समाज में अकेलापन एक बड़ी समस्या है तो जाहिर सी बात है कि वहां के लेखकों पर इस समस्या का प्रभाव होगा।
उनकी कहानियों के पश्चिमी देशों में लाखों पाठक हैं। क्या कारण है कि पश्चिमी दुनिया में उनके अपने लेखकों और अन्य देशों के लेखकों की वो रचनाएं लोकप्रिय होती हैं जिसका विषय अकेलापन और अवसाद होता है। मुराकामी मूल रूप से जापानी में लिखते हैं। अमेरिका में रहते हैं। विश्व की कई अन्य भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद होता है। अनूदित पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं।
क्या पश्चिमी देश के पाठक अकेलेपन की इस समस्या से स्वयं को जोड़ते हैं इसलिए उनको इस तरह का लेखन पसंद आता है ? इसका एक पहलू ये भी है कि नोबेल विजेता से लेकर बुकर से पुरस्कृत कई लेखक अध्यात्म और भारत की चर्चा करते हैं।
बुकर पुरस्कार की घोषणा के पहले दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की जुलाई सितंबर 2025 की तिमाही की सूची प्रकाशित हुई। ये सूची हिंदी में सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों के आधार पर विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन तैयार करती है। इस सूची में कथा, कथेतर, अनुवाद और कविता की पुस्तकें होती हैं। इसमें जो पुस्तकें आई हैं उसकी अनुवाद श्रेणी पर नजर डालते हैं, द हिडन हिंदू (सभी खंड), महागाथा, पुराणों से 100 कहानियां, नागा वारियर्स दो खंड, शौर्य गाथाएं, संसार, देवताओं की घाटी में प्रवेश।
इनको देखने पर ये प्रतीत होता है कि भारत में हिंदी के पाठक धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कथाएं पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। पाठकों को वर्गीकरण करना आसान नहीं है कि किस आयुवर्ग के कितने पाठक हैं और वो कौन सी पुस्तकें पसंद कर रहे हैं। लेकिन सूची को देखने से एक बात तो स्पष्ट होती है कि हिंदी में उन विषयों पर लिखी पुस्तकें खूब बिक रही हैं जहां धर्म है, अध्यात्म है और जहां मन की शांति की बातें है।
पश्चिम के पाठक अकेलेपन, अवसाद और निराशा की कहानियां पढ़ रहें हैं वहीं हिंदी के पाठक उससे बिल्कुल अलग धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कहानियों या पुस्तकों में रुचि दिखा रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं इसपर विचार करने की आवश्यकता है। क्या पश्चिम के समाज में और भारतीय समाज में जो मूलभूत अंतर है वो इसका कारण है या जो पारिवारिक संस्कार भारत में पीढ़ियों से चले आ रहे हैं वो वजह है?
अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम के समाज में जो संस्कार हैं वो भारतीय संस्कारों से अलग है। हमारे यहां जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य, नैतिकता और मर्यादा की स्थापना की बात होती है वैसी बातें पाश्चात्य समाज में नहीं होती है। हमारे समाज में विवाह से संतान प्राप्ति की बात होती है, विवाह संस्कार के बाद सात जन्मों के रिश्ते की बात है। विवाहोपरांत संतानोत्पत्ति की महत्ता स्थापित है और उसको मोक्ष से जोड़ा जाता रहा है। पश्चिमी देशों में सात जन्मों के रिश्ते की बात तो दूर वहां एक ही जन्म में सात रिश्ते की बातें होती हैं।
वहां मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं है इस कारण संतानोत्पत्ति को एक जैविक क्रिया तक ही सीमित रखा जाता है। पश्चिम के लेखन में मानसिक अवसाद एक कला के तौर पर रेखांकित की जाती रही है जिसमें मानवीय संवेदना और सकारात्मकता अनुपस्थित होता है। पश्चिम के नाटकों में ट्रेजडी महत्वपूर्ण है। जबकि हमारे यहां का नाट्यशास्त्र फल-प्राप्ति पर आधारित है। कोई भी काम किया जाता है तो उसके पीछे के संदेश और समाज या मानव के बेहतरी का भाव रहता है। ज्ञान के प्रकार के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 20, 21 और 22 में बताया गया है।
कहा गया है कि जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक -पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहते हैं। अगले श्लोक में बताया गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। ज्ञान के अंतिम प्रकार के बारे में गीता में कहा गया है कि जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है उसको तामस कहा गया है।
गीता के इन तीन श्लोकों के ज्ञान के प्रकार को विश्लेषित करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लेखन क्यों और किस कारण से पश्चिमी लेखन से अलग है। समभाव की बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस भारतीय ज्ञान परंपरा की बात होती है उसके सूत्र भी गीता के इन श्लोकों में देखे जा सकता हैं।
हिंदी में भी निर्मल वर्मा, कृष्ण बदलदेव वैद्य, स्वदेश दीपक जैसे कुछ लेखकों ने अकेलेपन और अवसाद को विषय बनाकर लिखा है लेकिन माना गया कि पाश्चात्य प्रभाव में ऐसा किया गया। वामपंथ के प्रभाव या दबाव में जो लेखन हुआ वो अति यथार्थवाद का शिकार होकर लोक से दूर होता चला गया क्योंकि उसमें विद्रोह तो था पर अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव से देखने की युक्ति नहीं थी।
स्वाधीनता पूर्व का अधिकतर हिंदी लेखन रचनात्मकता समभाव की जमीन पर खड़ी नजर आती है। हिंदी साहित्य में जितना पीछे जाएंगे ये भाव उतना ही प्रबल रूप में दिखता है। यह अकारण नहीं है कि साठोत्तरी कविता और कहानी ने इस भाव से दूर जाकर नई पहचान बनाने की कोशिश की। जब इस तरह का लेखन फार्मूलाबद्ध हो गया तो पाठक इससे दूर होने लगे। आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी लेखन अपनी जड़ों की ओर लौटे, संकेत मिल रहे हैं लेकिन इसको प्रमुख स्वर बनाना होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
बिहार की सामाजिक संरचना जटिल समझी जाती रही है। 2023 की जाति-गणना के मुताबिक, अत्यंत पिछड़ी जातियाँ राज्य की लगभग 36% हैं। पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ सभी का यहाँ महत्वपूर्ण प्रतिशत है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बिहार से राजनीतिक व्यवस्था के लिए 'सम्पूर्ण क्रांति' का आव्हान किया था। इसके 50 साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातीय राजनीति की कलंकित सत्ता व्यवस्था को बदलने में सफलता पाकर नव क्रांति कर दी है। विशेष रूप से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल याप्त लालू यादव के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को फेल करने और कांग्रेस द्वारा दलित-मुस्लिम मतदाताओं को बंधक गुलाम समझने की दादागिरी को भी विफल किया जाना दूरगामी हितों का परिचायक है।
बिहार विधानसभा चुनावों ने एक स्पष्ट संकेत दिया है। जातिगत और सामुदायिक राजनीति की सीमाएँ हैं, और सिर्फ पहचान-राजनीति अब उतनी मजबूत शक्ति नहीं रही जितनी पहले मानी जाती थी। महागठबंधन की हार इस तथ्य को दर्शाती है कि पुराने समीकरण, पुराने वोट बैंक अब बिना आधुनिक और विकास-उन्मुख रणनीति के काम नहीं कर सकते। इसी तरह कम्युनिस्ट माओवादी पार्टियों का लाल किला भी टूट-फूट गया। नक्सल प्रभावित इलाका भी हिंसा से मुक्त हो गया है।
युवा मतदाता, आशावादी सामाजिक परिवर्तन, और बेहतर शासन की मांग ने बिहार की राजनीति को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। भविष्य के लिए, जो दल इन बदलते रुझानों को समझेगा और उसे अपनी राजनीति में आत्मसात करेगा, वह अधिक सफल होगा। मोदी के 'सबका साथ, सबका विकास' का फॉर्मूला जनता ने स्वीकार कर लिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता के 25 वर्ष और नीतीश कुमार की सत्ता के 20 वर्ष के कार्यकाल में दोनों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लग सका। यह इस बात का भी प्रमाण है कि जनता भ्रष्ट, अपराधी और बेईमान नेतृत्व के बजाय ईमानदार और जनता के सर्वांगीण विकास के लिए समर्पित नेतृत्व को पसंद करती है।
बिहार की सामाजिक संरचना जटिल समझी जाती रही है। 2023 की जाति-गणना के मुताबिक, अत्यंत पिछड़ी जातियाँ राज्य की लगभग 36% हैं। पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ, उच्च जातियाँ, सभी का यहाँ महत्वपूर्ण प्रतिशत है। इस प्रकार, बिहार में जातिगत विभाजन राजनीतिक समीकरणों का मूल आधार रहा है। यह वह जमीन है जिस पर दल हमेशा वोट बैंक विकास की रणनीति तैयार करते रहे।
लेकिन हाल के समय में, बिहार के मतदाता “पुराने जातिगत समीकरण” के अलावा नई आशाओं और मुद्दों की ओर भी झुके हैं। यह युवा मतदाता वर्ग, पहली बार वोट देने वाले, विकास, रोज़गार और शासन-पारदर्शिता जैसे एजेंडों को महत्व दे रहा है। इस बदलाव का मतलब यह है कि सिर्फ जाति-गणित अब चुनाव जीतने का पर्याप्त आधार नहीं रहा। लालू यादव की पारंपरिक ताकत मुसलमान + यादव वोट बैंक माना जाता रहा।
यह वोट बैंक लगभग 30% तक पहुँचता है। यह वही वोट बैंक है जिस पर लालू-राज की राजनीति लंबे समय से आधारित रही। लेकिन 2025 में, यह पुराना समीकरण पूरी तरह नाकाम रहा।
तेजस्वी यादव अन्य पिछड़ी जातियों में गहराई तक पैठ नहीं बना सके। इसके साथ ही, गठबंधन के आंतरिक मतभेद और सीट आवंटन की लड़ाइयों ने भी सुनिश्चित सहयोग को कमजोर कर दिया। महागठबंधन के विभिन्न घटक (राजद, कांग्रेस, लेफ्ट) के पास एक राजनीतिक संदेश नहीं था। इस तरह, आम मतदाताओं के लिए गठबंधन की “कहानी” स्पष्ट नहीं थी और यह एक बड़ी कमजोर कड़ी साबित हुई।
महागठबंधन में नेतृत्व का अस्थिर ढांचा था। राजद और कांग्रेस के बीच मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर विवाद, और रणनीति पर तालमेल की कमी सार्वजनिक रूप से दिखी। तेजस्वी यादव ने जो राजनीतिक आक्रामकता दिखाई, वह विशाल वोट बैंक तक नहीं पहुँच पाई क्योंकि उनकी रणनीति कहीं-कहीं अहस्तक्षेपपूर्ण रही। गठबंधन में 'कथित फ्रेंडली' मित्रवत मुकाबले भी हुए।
कुछ सीटों पर राजद, कांग्रेस, वी आई पी आदि के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हुए। महागठबंधन की स्थानीय संगठन उतनी मजबूत नहीं थी जितनी कि मोदी-शाह-नीतीश गठबंधन की थी। बूथ मैनेजमेंट में कमजोरी, उम्मीदवारों की पहचान की कमी और गठबंधन के अंदरूनी मतभेदों ने उनकी चुनावी लड़ाई को कमजोर कर दिया। इसमें यह भी देखा गया कि कांग्रेस द्वारा कुछ उम्मीदवारों का चयन गलत रहा।
स्थानीय समीकरणों की अनदेखी हुई, जिससे मतदाता नाराज हुए। युवा मतदाता, विशेष रूप से नौकरी, आर्थिक भविष्य और विकास एजेंडा पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। पहली बार वोट देने वाले बहुतों ने जातिगत कार्ड की सीमाओं को पहचान लिया है। भाजपा-जदयू गठबंधन ने विकास, सुशासन, कानून-व्यवस्था पर एक स्पष्ट एजेंडा पेश किया, जिसे कई मतदाताओं ने पसंद किया। इसके विपरीत, महागठबंधन का एजेंडा धुंधला रहा—जाति-समर्थित रणनीतियाँ, लेकिन ठोस विकास व शासन की पहल कम दिखाई दी। यही “नवीन राजनीतिक चेतना” कुछ इलाकों में जाति-संकेतों की ताकत को कम कर रही है।
बिहार में “सांप्रदायिक राजनीति” का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा किया गया, लेकिन 2025 में यह उतना निर्णायक नहीं रहा जितना पहले माना जाता था। राजद हमेशा मुसलमान-समर्थित दावेदार समझता रहा, लेकिन महागठबंधन ने मुसलमान वोट को अकेले मुद्दे तक सीमित नहीं रखा—वे बड़े सामाजिक न्याय, गरीबी राहत और आर्थिक मुद्दों पर भी बात करना चाहते थे। लेकिन उनकी पहुँच मात्र पहचान-आधारित राजनीति तक सीमित रही।
इसके अलावा, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सबका साथ के रास्ते को प्राथमिकता दी। गठबंधन में सीटों की टकराहट और बूथ मैनेजमेंट की कमजोरी ने नुकसान पहुँचाया। महागठबंधन में नेतृत्व की वैचारिक अस्पष्टता, भरोसे की कमी और चयन प्रक्रिया सुधारने में असमर्थता ने मतदाताओं के मन में अनिश्चितता पैदा की। इस बीच एनडीए ने एक अधिक केंद्रित, विकास-उन्मुख और संगठनात्मक रूप से मजबूत अभियान चलाया जिसने मतदाताओं को भरोसा हुआ। 2025 का बिहार चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण साबित हुआ कि पारंपरिक जातिगत और पहचान-राजनीति अब “अपर्याप्त” हो गई है।
नए मुद्दे, जैसे रोज़गार, युवा आकांक्षाएँ, आर्थिक समावेश, महिला सशक्तिकरण—मतदाताओं के लिए पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। इसके साथ ही, मतदाता अब केवल जातिगत पहचान से संतुष्ट नहीं हैं; वे “नियंत्रण एवं जवाबदेही”, “प्रभावी शासन” और “दूरगामी विकास” की मांग कर रहे हैं। महागठबंधन के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि सिर्फ पुराने जातिगत समीकरणों को दोहराना और वोट बैंक के भरोसे राजनीति करना अब पर्याप्त नहीं है।
उन्हें अपनी रणनीति को पुनर्गठित करना होगा। बूथ स्तर की मजबूत संगठन, स्थानीय उम्मीदवारों का चयन, वास्तविक विकास-पक्षीय नारे, और नेतृत्व की स्पष्टता। साथ ही, नए मतदाताओं (युवा, पहली बार वोट देने वाले) को लक्षित करने के लिए एजेंडा तैयार करना होगा, ना कि सिर्फ जातिगत समीकरणों पर निर्भर रहना।
वामपंथी दलों में, भाकपा (माले) विपक्ष की सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी रही है। 2020 में 19 में से 12 सीटें जीतने के बाद, इस बार भाकपा (माले) ने 20 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बार 33 उम्मीदवार उतारे, जिनमें केवल 3 जीत पाए। मतलब कम्युनिस्ट अब बिहार से उखड़ गए हैं। वहीं राहुल गांधी का नेतृत्व विफल होने से गठबंधन की दशा-दिशा बदलने वाली है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राष्ट्रीय प्रेस दिवस सिर्फ़ उत्सव नहीं, बल्कि पत्रकारिता की चुनौतियों और जिम्मेदारियों पर ध्यान देने का मौका है। तेज़ी, ट्रोलिंग और डिजिटल शोर के बीच सच को उजागर रखना पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
शमशेर सिंह, सलाहकार संपादक, नेटवर्क18 समूह।।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस (16 नवंबर) सिर्फ़ पेशे का उत्सव नहीं, बल्कि पत्रकारिता की चुनौतियों और जिम्मेदारियों पर ध्यान देने का मौका है। तेज़ी, ट्रोलिंग और डिजिटल शोर के बीच सच को उजागर रखना अब पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है।
प्रेशर, ट्रोलिंग और फेक न्यूज़। ये तीन चुनौतियां हैं आज की पत्रकारिता के लिए। यह दिन हमारे पेशे का उत्सव भर नहीं, एक याद दिलाने वाला मौका भी है कि पत्रकारिता अभी भी लोकतंत्र की रीढ़ है। याद रखिए इन सबके बीच हमे सोशल मीडिया के तूफ़ान से भी बचना है।
न्यूज़ रूम में सबसे पहले, सबसे तेज के साथ अब वायरल करो की भी रेस है। लेकिन असली पत्रकार वही जो इस शोर में भी सच को सामने रखे।
अब हर खबर के पीछे एक डिजिटल भीड़ खड़ी है—गाली, तंज, निजी हमले। ये तोड़ने आते हैं, रोकने आते हैं। पर हमारा जवाब बहस नहीं, तथ्य और सच्चाई होनी चाहिए।
फेक न्यूज़ अब हथियार नहीं, पूरी फैक्टरी है—डीपफेक से लेकर पुराने वीडियो तक। सच को धुंधली करने की ये कोशिशें ही पत्रकार की जिम्मेदारी को और भारी बनाती हैं—तथ्य छांटने, संदर्भ साफ़ करने और झूठ की परतें उघाड़ने की जिम्मेदारी।
लोकतंत्र की रीढ़ पर रोजाना चोट पड़ती है—पर सच की मशाल अभी भी जल रही है। हमारा काम वही है—दबाव में न झुकना, ट्रोलिंग में न टूटना, और झूठ के अंधेरे में रोशनी कम न होने देना।
दबाव, ट्रोलिंग और फेक न्यूज के बीच भी सच की मशाल थामे रहना ही आज की पत्रकारिता की असली पहचान है। यह दिन याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रीढ़ तब मजबूत रहती है जब पत्रकार बिना डर और झुकाव के अपने काम पर कायम रहते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
बिहार में बीजेपी की इस तूफानी जीत ने न सिर्फ भाजपा के आंतरिक समीकरणों को ओर भी दिलचस्प बनाया बल्कि भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को अंदर से हिला दिया हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
यह कहने में अब कोई हिचक नहीं है कि अब हम मोदी गणतंत्र के वासी हैं और यह दौर सिर्फ और सिर्फ मोदी का है। प्रधानमंत्री मोदी का करिश्माई नेतृत्व और अमित शाह का संगठन कौशल ही है जिसने 2014 में मरी हुई भाजपा को जिंदा कर दिया और मोदी-शाह की नई भाजपा का जादू आज पूरे देश में सर चढ़कर बोल रहा है।
लगातार जीतने, अपना आकार बढ़ाने और भारत की राजनीति में अपने दबदबे की भूख और आग कभी मोदी और शाह को शांत नहीं बैठने देती। ‘बस बहुत हुआ अब थोड़ा आराम कर ले’, यह शब्द मोदी और शाह के लिए नहीं बने। मोदी और शाह की अगुवाई वाली भाजपा के लिए हर नाकामी भविष्य की कामयाबी की परियोजना बन जाती है। मतलब दिन दोगुनी और रात चौगुनी मशक्कत करने का आह्वान।
मोदी और शाह की उपस्थिति भाजपा को अजेय के भाव से भर देती है। बिहार बोल चुका है। मोदी और नीतीश का डबल इंजन का योग एनडीए के लिए सपनों से ज्यादा झोली भर के नतीजे ले आया। सरकार की नकारात्मकता मोदी के पैदा की गई सकारात्मकता की हवा में उड़ गई। मोदी राज में हुए विकास, हाईवे, कानून व्यवस्था और कल्याणकारी योजनाएं बिहार के हर वोटर के अपने निजी अनुभव के दायरे में हैं और महिलाओं में सुरक्षा का एहसास तो रोजमर्रा की जिंदगी का सबसे बुनियादी पहलू है ही, जिसमें सांप्रदायिक सीमा को छू लेने का तत्व भी है।
सिर्फ बिहार में ही नहीं पूरे भारत में हम वोटरों के एक नए वर्ग को जन्म लेता देख रहे हैं, जो कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी हैं। बिहार में मोदी और नीतीश के तैयार किए गए इस वर्ग ने जातियों की सभी सीमाएं लांघी हैं। मोदी और शाह के चुनावी अभियान में हिंदुत्व की एक अंतर्धारा बहती है। खासकर युवा और महिलाएं इस नए वोट बैंक का हिस्सा हैं, जिसमें कल्याणकारी योजनाओं का तड़का भी है।
बिहार का यह अचंभित करने वाला चुनाव परिणाम निर्विवाद ब्रांड मोदी के कारण संभव हो सका है। मोदी और शाह ने मिलकर भाजपा को वह जादुई आभा दे दी है, जो वोट आकर्षित करती है। भारतीय राजनीति में अब दरअसल इसका कोई मतलब नहीं है कि मौजूदा चेहरा कमजोर है, या वाकई बोझ है। चेहरा कौन है, यह बेमानी सवाल है। हर चेहरे पर मोदी का चेहरा भारतीय राजनीति में वोटर देखने का आदी हो चुका है। मोदी है तो मुमकिन है। मोदी और भरोसा भारतीय राजनीति में समानार्थी शब्द बन गए हैं। जैसे पानी और दूध घुलमिल जाते हैं, वैसे ही वोटरों की नजर में मोदी और भरोसा घुलमिल गए हैं।
विपक्ष को इसे अलग करना फिलहाल संभव नहीं है। बिहार में मोदी के दम पर एनडीए की प्रचंड जीत ने अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल और उसके बाद 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव के मौसम का रुझान तय कर दिया है। बिहार में भाजपा के इस तूफानी जीत ने भाजपा के आंतरिक समीकरणों को और भी दिलचस्प बना दिया है। बिहार में मोदी और शाह के कमाल ने भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को भी अंदर से हिला दिया है।
सिर्फ बिहार में विपक्ष की पार्टियों में सन्नाटा नहीं पसरा है। कई भाजपा शासित राज्यों और कई दिग्गज नेताओं को भी सांप सूंघ गया है। जो मोदी और शाह बीच बिहार के चुनाव में दिवाली के एक दिन पहले पूरे गुजरात के मंत्रिमंडल को बदल सकते हैं, वह मोदी और शाह बिहार की इस प्रचंड जीत के बाद क्या करेंगे कोई नहीं जानता। मोदी और शाह की इस अनमोल जोड़ी को बिहार जीत पर बहुत बहुत बधाई।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
दहशत फैलाने के लिए आठ डॉक्टर्स की चार टीमें बनाई गई थीं। चार गाड़ियां खरीदी गईं थी। बारूद का इंतज़ाम हो गया था। डेटोनेटर्स भी पहुंच गए थे। 26 जनवरी को दिल्ली में ब्लास्ट होना था।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
अल फलाह यूनिवर्सिटी के डॉक्टर्स की साज़िश कितनी भयानक थी, इसे लेकर कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। डॉक्टर मुजम्मिल की डायरी में तबाही का सीक्रेट प्लान मिला। उसकी गर्लफ्रेंड डॉक्टर शाहीन की डायरी में लड़कियों को रिक्रूट करने के लिए “ऑपरेशन हमदर्द” की डिटेल मिली। दहशत फैलाने के लिए आठ डॉक्टर्स की चार टीमें बनाई गई थीं। चार गाड़ियां खरीदी गईं थी।
बारूद का इंतज़ाम हो गया था। डेटोनेटर्स भी पहुंच गए थे। ब्लास्ट की तारीखें भी तय कर दी गई थीं। 6 दिसंबर को अयोध्या में और 26 जनवरी को दिल्ली में ब्लास्ट होना था। वाराणसी और लखनऊ भी आतंकवादियों के निशाने पर थे लेकिन पुलिस इस गिरोह के 4 सदस्यों तक पहुंच गई, इसीलिए ‘व्हाइट कॉलर मॉड्यूल’ की सारी प्लानिंग फेल हो गई।
अब डॉक्टर्स की जांच जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, एक एक करके सारे राज़ खुलने लगे हैं। एक-एक करके दहशतगर्दों के हमदर्द पकड़े जा रहे हैं। अब तक सात गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। लखनऊ से डॉ। शाहीन का भाई डॉक्टर परवेज़ पकड़ा गया, कानपुर से डॉक्टर आरिफ को गिरफ्तार किया गया। पुलिस अब डॉ. मुजम्मिल के भाई डॉ. मुज़फ्फर को खोज रही है। उसके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया गया है।
डॉ. मुज़म्मिल और डॉ. उमर के साथ डॉ. मुज़फ्फर भी तुर्किए गया था और अगस्त में देश से भाग गया। उसकी लोकेशन फिलहाल अफगानिस्तान में मिली है। इधर फरीदाबाद में पुलिस ने डॉक्टरों के इस मॉड्यूल की वो चौथी कार भी बरामद कर ली है, जो डॉ. शाहीन ने खरीदी थी।
ये कार अल फलाह यूनिवर्सिटी में मिली। इसका इस्तेमाल भी ब्लास्ट में होना था। अल फलाह यूनिवर्सिटी को इस व्हाइट कॉलर मॉड्यूल के डॉक्टर्स ने आतंकवाद का अड्डा बना दिया। पुलिस को अल फलाह यूनिवर्सिटी के कैंपस से एक और कार मिली। ये वो चौथी कार है जिसका इस्तेमाल ब्लास्ट के लिए किया जाना था।
दहशतगर्दों के नेटवर्क में शामिल डॉक्टर्स चार कारों के जरिए चार शहरों में ब्लास्ट की प्लानिंग कर रहे थे। जो चार गाड़ियां खरीदी गईं थीं, उसमे सें दो कारें डॉ शाहीन सईद ने खरीदी थीं और दो डॉ। उमर ने। सबसे पहले शाहीन की गाड़ी पकड़ी गई जिसमें AK-47 और विस्फोटक बरामद हुआ। दूसरी आई-20 कार से उमर ने लाल किले के पास ब्लास्ट किया।
तीसरी इको स्पोर्ट्स गाड़ी जो उमर के नाम पर खरीदी गई थी, वो अल फलाह यूनिवर्सिटी के पास एक गांव से बरामद हुई। डॉ। शाहीन के नाम पर जो ब्रेज़ा कार सितंबर में खरीदी गई, वह भी मिल गई।
डॉ. शाहीन, डॉ. मुज़म्मिल, डॉ. उमर और उनके साथियों की प्लानिंग ये थी कि हर कार में विस्फोटक भरकर अलग अलग शहरों में ब्लास्ट करें। हर ब्लास्ट के लिए दो-दो डॉक्टर्स की चार टीमें भी बन गई थी, कब ब्लास्ट करना है, कहां ब्लास्ट करना है, उसकी प्लानिंग भी हो चुकी थी। डॉ. मुज़म्मिल ने पूछताछ में सब कुछ उगल दिया है। प्लानिंग के मुताबिक, 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद ध्वंस की बरसी पर अयोध्या, वाराणसी और लखनऊ में धमाके का प्लान था।
26 जनवरी को लाल किले में ब्लास्ट किया जाना था। नेटवर्क में शामिल ज्यादातर लोग पकड़े जा चुके हैं। अब पुलिस इनके मददगारों को खोज रही है। इसके लिए एक-एक कड़ी को जोड़ा जा रहा है।
पुलिस ने अल फलाह यूनिवर्सिटी में काम करने वाले फहीम को पकड़ा। फहीम ही वो शख्स है जिसने डॉ. उमर के नाम पर रजिस्टर्ड लाल रंग की EcoSport कार को फरीदाबाद के खंडावली गांव में पार्क किया था। जांच में पता लगा कि जिस घर के सामने ये गाड़ी पार्क की गई थी, वो घर फहीम की बहन का है। फहीम अल फलाह मेडिकल कॉलेज में उमर के असिस्टेंट के तौर पर काम करता था।
गांव वालों का कहना है कि जिस वक्त ये गाड़ी पार्क की गई, उस वक्त कार में एक महिला भी थी जिसने बुर्का पहन रखा था। पुलिस इस महिला के बारे में पता लगाने की कोशिश कर रही है।
अल फलाह मेडिकल कॉलेज में NIA और दूसरी जांच एजसियों के अफसर डेरा डाले हुए हैं। यूनिवर्सिटी के स्टाफ से पूछताछ हुई। जब पुलिस ने अल फलाह यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग नंबर 17 के रूम नंबर 13 की तलाशी ली तो साफ हो गया कि यही कमरा आतंकवादियों का मीटिंग प्वाइंट था। इसी कमरे में सारी प्लानिंग हुई। कमरा नंबर 13 में डॉ. मुजम्मिल और रूम नंबर 4 में डॉ. उमर बैठते थे। रूम नंबर 13 में डॉ. मुजम्मिल की इजाज़त के बगैर किसी के भी घुसने की मनाही थी। यहां से कुछ केमिकल्स और डिजिटल डेटा, कई तरह के डिवाइसेज़ और पेन ड्राइव मिली हैं।
पुलिस को शक है कि डॉ. मुजम्मिल, डॉ. शाहीन और डॉ. उमर ने मेडिकल कॉलेज की लैब से वो केमिकल्स चुराए जिनका इस्तेमाल विस्फोटक तैयार करने में होता है। इन्हीं केमिकल्स के साथ अमोनियम नाइट्रेट और ऑक्साइड मिलाकर विस्फोटक तैयार किए गए। यूनिवर्सिटी के लैब से केमिकल किस तरह यूनिवर्सिटी से बाहर ले जाने हैं, ये भी इसी कमरे में तय होता था।
ये हैरान करने वाली बात है कि अल-फलाह यूनिवर्सिटी में आतंकी साज़िश रची जाती रही, वहां की फैकेल्टी इस काम में शामिल थी, लंबे वक्त से यूनिवर्सिटी के अंदर ये सब चल रहा था लेकिन किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। इसीलिए अल-फलाह यूनिवर्सिटी जांच एजेंसियों के शक के दायरे में है।
यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग नंबर 17 के रूम नंबर 13 और कमरा नंबर 4 से जांच एजेंसियों को डॉ. उमर और डॉ. मुज़म्मिल की डायरियां मिली हैं। एक डायरी धौज गांव के उस कमरे से भी बरामद हुई है जहां डॉ. मुजम्मिल ने 360 किलो विस्फोटक छुपाकर रखा था। इस कमरे से मिली मुजम्मिल की डायरी में कोडवर्ड्स में काफी जानकारी लिखी है। इसमें 8 और 12 नवंबर की तारीख का जिक्र है।
डायरी में करीब दो दर्जन लोगों के नाम है। इनमें ज्यादातर जम्मू-कश्मीर और फरीदाबाद के लोग हैं। जांच में ये तो साफ हो गया है कि ब्लास्ट की साजिश कम से कम दो महीने से चल रही थी। आतंकवादी अल फलाह यूनिवर्सिटी में बैठकर ब्लास्ट की प्लानिंग कर रहे थे, लेकिन किसी को इतनी बड़ी साज़िश की कानों कान खबर न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? इसीलिए अब जांच एजेसियां अल फलाह यूनिवर्सिटी की पूरी कुंडली खंगाल रही है।
इस मामले में ED की एंट्री भी हो गई है। अब ED अल फलाह यूनिवर्सिटी के सारे ट्रांजैक्शन्स का रिकॉर्ड चैक कर रही है। इस यूनिवर्सिटी की फंडिंग की जांच हो रही है। ये भी पता लगाया जा रहा है कि हरियाणा की इस यूनिवर्सिटी में ज्यादातर प्रोफेसर्स, असिस्टेंट प्रोफेसर्स और मेडिकल छात्र जम्मू कश्मीर से ही क्यों आते थे। हालांकि अल फलाह यूनिवर्सिटी की तरफ से अब बार बार सफाई दी जा रही है।
ये कहा जा रहा है कि जो लोग आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े गए हैं, उनका यूनिवर्सिटी के साथ प्रोफेशनल रिश्ता था। वो यूनिवर्सिटी के बाहर क्या कर रहे हैं, इससे यूनिवर्सिटी का कोई लेना-देना नहीं है।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी को चलाने वाले चेरिटेबिल ट्रस्ट के एडवाइज़र मोहम्मद रज़ी ने कहा कि यूनिवर्सिटी जांच एजेंसियों की पूरी मदद कर रही है। ट्रस्ट के चेयरमैन जवाद अहमद सिद्दीकी भी जांच एजेंसियों के संपर्क में हैं। मोहम्मद रज़ी ने कहा कि जवाद अहमद सिद्दीकी की पृष्ठभूमि को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं लेकिन कोर्ट ने उन्हें पुराने सारे मामलों में क्लीन चिट दे दी है।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी की सफाई अपनी जगह है लेकिन यूनीवर्सिटी की तरफ से इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला कि अल फलाह मेडिकल कॉलेज की लैब से विस्फोटक तैयार करने में इस्तेमाल होने वाले केमिकल कैंपस से बाहर कैसे गए। Association of Indian Universities ने अल फलाह की सदस्यता रद्द कर दी। अल-फलाह यूनिवर्सिटी से AIU का LOGO और नाम इस्तेमाल न करने को कहा गया है।
ये भी खुलासा हुआ कि अल फलाह यूनीवर्सिटी ये भी झूठा दावा कर रही थी कि नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडेशन काउंसिल यानि NAAC ने उसे A ग्रेड की रेटिंग दी है। NAAC ने साफ किया कि अल फलाह यूनीवर्सिटी ने न तो कभी रेटिंग के लिए अप्लाई किया और न ही उसे कभी रेटिंग दी गई।
NAAC ने अल फलाह यूनीवर्सिटी से जवाब मांगा है। NAAC का नोटिस मिलने के बाद यूनिवर्सिटी के वेबसाइट डाउन हो गई। अल फलाह यूनिवर्सिटी को इस पूरे मामले में क्लीन चिट कैसे दी जा सकती है? ऐसा कैसे हो सकता है कि कश्मीर से आतंकवादियों द्वारा भेजे गए डॉक्टर्स एक-एक करके यहां आते गए, नौकरी पाते गए और कोई पूछने वाला नहीं था?
जिन डॉक्टरों को बाकी जगहों से देशद्रोह या अनुशासनहीनता के लिए निकाला गया, उनकी नियुक्ति यहां बड़े आराम से हो गई। मौलाना इश्तियाक रोज अल फलाह के चक्कर काटते रहे, डॉक्टरों को जिहाद की सीख देते रहे और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था ?
अल फलाह का मेडिकल कॉलेज आतंकवाद का अड्डा बन गया। अल फलाह के पास गांव में बारूद का ढेर लग गया। ब्लास्ट के लिए तैयार कारें कैम्पस में सजकर खड़ी रहीं और किसी को पता नहीं चला? ये सब कैसे हो सकता है? साज़िश करने वाले डॉक्टर्स को अल फलाह ने पनाह दी, पैसे दिए, विस्फोटक तैयार करने के लिए labs दी और धीरे-धीरे अल फलाह एक बड़े आतंकवादी module का सेंटर बन गया। ये संयोग नहीं, प्रयोग लगता है।
अल फलाह यूनिवर्सिटी का सबसे सनसनीखेज़ किस्सा डॉ. शाहीन के आतंकवादी बनने का है। डॉ. शाहीन के भाई डॉक्टर परवेज को अरेस्ट किया जा चुका है। डॉ। परवेज लखनऊ की इंटीग्रल यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर था। डॉ। परवेज ने दिल्ली ब्लास्ट से तीन दिन पहले सात नवंबर को यूनिवर्सिटी से इस्तीफा दे दिया था।
यूपी ATS ने गुरुवार को लखनऊ की इंटीग्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले जम्मू कश्मीर के करीब 60 छात्रों का बैकग्राउंड चैक किया। परवेज के घर से पुलिस ने जो लैपटॉप, दस मोबाइल और दूसरे गैजेट्स बरामद किए गये, उससे ये साफ हो गया कि डॉ. परवेज भी अपनी बहन डॉ. शाहीन के साथ टेरर मॉड्यूल में शामिल था। वह कश्मीर के कुछ लोगों से लगातार संपर्क में था लेकिन वो टेरर नेटवर्क से जुड़े लोगों को जब भी कॉल करता था या कोई मैसेज करता था तो उसे तुंरत डिलीट कर देता था। अब पुलिस इसके गैजेट्स का सारा डेटा रिकवर करने की कोशिश कर रही है।
डॉ. परवेज से पूछताछ में पुलिस को कानपुर के डॉक्टर आरिफ मीर के बारे में पता लगा। डॉ. आरिफ कश्मीर का रहने वाला है। वह कानपुर के LPS इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोलॉजी और कार्डिएक सर्जरी हॉस्पिटल में रेजीडेंट डॉक्टर के तौर पर काम कर रहा था। डॉ. आरिफ़ कानपुर के अशोक नगर में कमरा किराए पर लेकर रह रहा था। पुलिस ने डॉ. आरिफ को हिरासत में लिया है।
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने यूपी के हापुड़ से डॉक्टर फारूख को डिटेन किया है। डॉ। फारूख कश्मीर का रहने वाला है। वह हापुड़ में GS हॉस्पिटल के gynaecology विभाग में काम करता है। डॉ। फारूख ने अल फलाह यूनिवर्सिटी से ही MBBS और MD किया था। डॉ. फारूख के बारे में जानकारी डॉक्टर मुज़म्मिल से पूछताछ के बाद सामने आई। मुजम्मिल ने अपने बयान में खुलासा किया कि दिल्ली विस्फोट की साजिश में डॉ। फारूख की अहम भूमिका थी। वह डॉक्टर शाहीन के संपर्क में भी था। इसके बाद पुलिस ने डॉ. फारूख को गिरफ्तार कर लिया।
डॉ. मुज़म्मिल की दोस्त डॉ. शाहीन की डायरी पुलिस ने बरामद की है जिससे कई राज सामने आए। जैश-ए-मोहम्मद के हैंडलर्स ने शाहीन को कोड वर्ड में ‘मैडम सर्जन’ का नाम दिया था, देशभर में ब्लास्ट की साजिश को नाम दिया गया था, ‘ऑपरेशन हमदर्द’ ‘मैडम सर्जन’ का काम था मुस्लिम लड़कियों का रिक्रूटमेंट करना। डॉ. शाहीन जैश-ए-मोहम्मद के कमांडर्स के साथ तालमेल का काम करती थी। जांच के दौरान सुरक्षा एजेंसियों को शाहीन के चैटबॉक्स में 'टीम D' का जिक्र मिला है।'टीम D' यानी आतंकी गतिविधियों में शामिल डॉक्टरों की टीम। इस टीम में शाहीन और उसके डॉक्टर साथी शामिल थे जिनको कोड वर्ड के ज़रिए टास्क दिया जाता था।
चैटिंग के दौरान Heart स्पेशलिस्ट, Eye स्पेशलिस्ट, Physician शब्दों का इस्तेमाल होता था। छोटे हथियार के लिए Medicine स्टॉक, रेकी वाली जगह को लेकर ऑपरेशन थिएटर शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। पैसों का इंतज़ाम करने के लिए ऑपेरशन की तैयारी जैसे कोड़वर्ड का इस्तेमाल होता था। शाहीन की डायरी से ही पुलिस को पता चला कि आंतक की साजिश को अंजाम तक पहुंचाने के लिए टीम-D ने 26 लाख रुपये जुटाए थे। इसमें से 3 लाख रुपये से 26 क्विंटल NKP फर्टिलाइज़र, टाइमर और रिमोट समेत कुछ और सामान खरीदा गया।
डॉक्टर शाहीन की डायरी से आफिरा बीबी के बारे में भी पता चला। आफिरा बीबी जैश-ए-मोहम्मद की महिला विंग की कमांडर है। पुलवामा हमले के मास्टरमाइंड उमर फारूक की पत्नी है। डॉक्टर शाहीन को पाकिस्तान से सारे ऑर्डर आफिरा बीबी के ज़रिए मिलते थे। पुलिस को इस बात के भी सबूत मिले हैं कि डॉक्टर शाहीन जैश-ए-मोहम्मद के चीफ मसूद अज़हर की बहन सादिया अज़हर के साथ लगातार संपर्क में थी। आफिरा और सादिया ने ही ऑपरेशन हमदर्द की जिम्मेदारी डॉक्टर शाहीन को दी थी।
ये लोग पैसों के लेन-देन के लिए भी टेलीग्राम चैनल का ही इस्तेमाल कर रहे थे। इस बात में तो कोई शक नहीं कि अल फलाह को आतंक का अड्डा बनाने में पाकिस्तान का हाथ है। इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि इस बार बड़ी चालाकी से डॉक्टरों को जिहादी बनाया गया। पढ़े-लिखे लोग जब दहशतगर्द बनते हैं तो ज्यादा खतरनाक होते हैं। उनसे सुराग निकालना मुश्किल होता है। पाकिस्तान का इस आतंकी नेटवर्क से कनेक्शन स्थापित न हो पाए, इसीलिए इस बार ISI ने तुर्किए का सहारा लिया। तुर्किए की सरकार भारत विरोधी है।
हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो पाकिस्तान का साथ देती है। ऑपरेशन सिंदूर के वक्त भी भारत पर हमले के लिए तुर्किए में बने ड्रोन्स मैदान में आए थे। लेकिन जिस तरह से हमारी पराक्रमी फौज ने एक एक ड्रोन्स को मार गिराया, उसी तरह आतंकवाद के एक एक एजेंट का सफाया होगा। हमें अपने सुरक्षा बलों पर भरोसा रखना चाहिए कि वो पाकिस्तान के कनेक्शन का पर्दाफाश करेंगे और दहशतगर्दों के आकाओं को सज़ा भी देंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आतंकियों के आकाओं को, जो इन बेगुनाहों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं, कभी माफ नहीं किया जा सकता, चाहे वे किसी भी देश में छिपे हुए हों। देश इन बेगुनाहों की हत्या का हिसाब मांग रहा है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
सोमवार को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले के पास हुए बम धमाके में मरने वालों की संख्या बढ़कर 13 हो गई है। अभी 21 घायल लोगों का अस्पताल में इलाज चल रहा है। जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों का कहना है कि यह एक आत्मघाती बम धमाका था, जिसे एक डॉक्टर डॉ. उमर उन नबी ने अंजाम दिया।
हुंडई i20 कार में बैठा यह डॉक्टर लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास एक रेड लाइट पर रुका, और उसी वक्त शाम 6:52 पर धमाका हुआ। शुरुआती जांच से पता चला है कि डॉ. उमर का फरीदाबाद के एक आतंकी ग्रुप से संबंध था। इस आतंकी ग्रुप से सोमवार को जम्मू-कश्मीर और हरियाणा पुलिस ने 2,900 किलो अमोनियम नाइट्रेट ज़ब्त किया था।
उसी के कुछ घंटे बाद ही लाल किले के पास धमाका हुआ। पुलिस सूत्रों का कहना है कि डॉ. उमर जैश-ए-मुहम्मद के आतंकी मॉड्यूल का एक सदस्य था, जिसमें कई डॉक्टर डॉ. मुज़म्मिल और डॉ. अदील अहमद डार शामिल थे। डॉ. मुज़म्मिल को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने 30 अक्टूबर को गिरफ्तार किया था और कुछ दिन बाद ही डॉ. अदील अहमद डार को हिरासत में लिया गया।
पूछताछ से मिली जानकारी के आधार पर फरीदाबाद के एक किराये के मकान की तलाशी ली गई और 2,900 किलो अमोनियम नाइट्रेट ज़ब्त किया गया। आतंकवादियों ने 2,900 किलो विस्फोटक इकट्ठा किया था। उनका इरादा दिल्ली को तबाह करने का था। इतना विस्फोटक पूरे शहर को उड़ा सकता था।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी को आतंकवादियों ने एक आवरण (कवर) की तरह इस्तेमाल किया था। किसी को शक न हो, इसलिए डॉक्टरों को सदस्य बनाया गया और वो भी ऐसे डॉक्टर जो यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। उनमें से एक ने अपनी प्रेमिका डॉक्टर को भी इस खूनी खेल में शामिल किया।
AK-47 राइफल और बाकी असलहा इसी लड़की की कार से बरामद हुआ। अगर ये डॉक्टर न पकड़े गए होते तो बड़ा नुकसान हो सकता था। पुलिस ने लखनऊ से एक महिला डॉक्टर शाहीन को हिरासत में लिया। उसकी कार में एक AK-47 राइफल मिली। डॉक्टर को पूछताछ के लिए विमान से श्रीनगर ले जाया गया। केंद्रीय गृह मंत्री ने मंगलवार को दिल्ली के पुलिस आयुक्त, इंटेलिजेंस ब्यूरो, राष्ट्रीय जांच एजेंसी और अन्य सुरक्षा एजेंसियों के साथ बैठक की। मंगलवार की रात अमित शाह लाल किले के पास घटनास्थल का मुआयना करने गए थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है -मैं हर किसी को आश्वस्त करता हूं कि हमारी जांच एजेंसियां इस षड्यंत्र की तह तक जाएंगी। जो भी लोग इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें किसी भी कीमत पर नहीं बख्शा जाएगा। आतंकियों के आकाओं को जो इन बेगुनाहों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं कभी माफ नहीं किया जा सकता, चाहे वे किसी भी देश में छिपे हों। देश इन बेगुनाहों की हत्या का हिसाब मांग रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अपने लेखन और प्रस्तुति से कहीं भी मीडिया को आतंकवाद के प्रति नरम रवैया नहीं अपनाना चाहिए ताकि जनता में आतंकी गतिविधियों के प्रति समर्थन का भाव न आने पाए।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।
दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद फिर से एक दशक पूर्व तक देश में होने वाली आतंकवाद की घटनाएं ताजा हो गयी हैं। टीवी मीडिया पर मचे हाहाकार को देखकर लोग हैरत में हैं। लगातार और निरंतर करवेज से मीडिया न सिर्फ भय का विस्तार करता है बल्कि आतंकवादियों को शक्ति देता हुआ नजर आता है। हम यह जानते हैं कि आतंकवाद का सारा काम भय का व्यापार ही है।
ऐसे में भारत जैसे वर्षों से आतंकवाद के शिकार देश में, मीडिया कवरेज की चुनौतियां बहुत कठिन हो जाती हैं। तेज और गतिमान कवरेज के बजाए सही और जिम्मेदार होना ही आतंकवाद विरोधी मीडिया की पहली शर्त है। मीडिया को खबरों की गेटकीपिंग (समाचार के चयन और नियंत्रण की प्रक्रिया) पर खास जोर देना चाहिए ताकि इसका दुरूपयोग रोका जा सके। दूसरा बड़ा काम जनमत निर्माण का है, अपने लेखन और प्रस्तुति से कहीं भी मीडिया को आतंकवाद के प्रति नरम रवैया नहीं अपनाना चाहिए ताकि जनता में आतंकी गतिविधियों के प्रति समर्थन का भाव न आने पाए।
आतंकवाद के खिलाफ मुंबई हमलों के बाद मीडिया ने जिस तरह की बहस की शुरूआत की थी, उसे साधारण नहीं कहा जा सकता। उसकी प्रशंसा होनी चाहिए। हमारी आतंरिक सुरक्षा से जुड़े प्रश्न जिस तरह से उठाए गए थे। वे शायद पहली बार इतनी प्रखरता से सामने आए थे। राजनीतिक नेतृत्व की विफलता को रेखांकित करने के अलावा हमारे गुप्तचर तंत्र और उससे जुड़ी तमाम खामियों पर एक सार्थक विमर्श सामने आया। आतंकवाद की खबर अन्य खबरों की तरह एक सामान्य खबर है, यह सोच भी बदलनी होगी।
भारत जैसे देश में जहां विविध भाषा-भाषी, जातियों, पंथों के लोग अपनी-अपनी सांस्कृतिक चेतना और परंपराओं के साथ सांस ले रहे हैं, आतंक को फलने- फूलने के अवसर मिल ही जाते हैं। हमारा उदार लोकतंत्र और वोट के आधार पर बननेवाली सरकारें भी जिस प्रामणिकता के साथ आतंकवाद के खिलाफ खड़ा होना चाहिए, खड़ी नहीं हो पातीं। जाहिर तौर पर ये लापरवाही, आतंकी ताकतों के लिए एक अवसर में बदल जाती है। ऐसे में भारतीय मीडिया की भूमिका पर विचार बहुत जरूरी हो जाता है कि क्या भारतीय मीडिया अपने आप में एक ऐसी ताकत बन चुका है, जिससे आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कोई अपेक्षा पाली जानी चाहिए?
मुंबई हमलों के समय मीडिया कवरेज को लेकर जैसे सवाल उठे थे, वे अपनी जगह सोचने के लिए विवश करते रहे। लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि आतंकवाद जैसे गंभीर विषय पर संघर्ष के लिए क्या हमारा राष्ट्र- राज्य तैयार है। भारत जैसा महादेश जहां दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी रहती है में ऐसी क्या कमजोरी है कि हम आतंकवादी ताकतों का सबसे कमजोर निशाना हैं। आतंकवाद का बढ़ता संजाल दरअसल एक वैश्विक संदर्भ है जिसे समझा जाना जरूरी है। दुनिया के तमाम देश इस समस्या से जूझ रहे हैं।
बात भारत और उसके पड़ोसी देशों की हो तो यह जानना भी दिलचस्प है कि आतंकवाद की एक बड़ी पैदावार इन्हीं देशों में तैयार हो रही है। भारतीय मीडिया के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह आतंकवाद के प्रश्न पर किस तरह की प्रस्तुति करे। आप देखें तो ‘पाकिस्तान’ हिंदुस्तानी मीडिया का एक प्रिय विषय है वह शायद इसलिए क्योंकि दोनों देशों की राजनीति एक-दूसरे के खिलाफ माहौल बनाकर अपने चेहरों पर लगी कालिख से बचना चाहती है। पाकिस्तान में जिस तरह के हालात लगातार बने हुए हैं, उसमें लोकतंत्र की हवा दम तोड़ चुकी है। जिसके चलते वहां कभी अच्छे हालात बन ही नहीं पाए। ‘भारत घृणा’ पाकिस्तानी राजनीति का मूलमंत्र है, वहीं कश्मीर का सवाल इस भावना को खाद-पानी देता रहा है।
पर बात अब आगे जा चुकी है,बात अब सिर्फ पाक की नहीं है उन अतिवादी संगठनों की भी है जो दुनिया के तमाम देशों में बैठकर एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसका अंत नजर नहीं आता। पाक की सरकार भी इनके आगे बेबस नजर आती है। आतंकवाद की तरफ देखने के मीडिया के रवैये पर बातचीत करने के बजाए हमें सोचना होगा कि क्या हम आतंकवाद को कोई समस्या वास्तव में मान रहे हैं या हमने इसे अपनी नियति मान लिया है? दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर हम इसे समस्या मानते हैं तो क्या इसके ईमानदार हल के लिए सच्चे मन से तैयार हैं।
मीडिया के इस प्रभावशाली युग में मीडिया को तमाम उन चीजों का भी जिम्मेदार मान लिया जाता है, जिसके लिए वह जिम्मेदार होता नहीं हैं। मीडिया सही अर्थों में घटनाओं के होने के बाद उसकी प्रस्तुति या विश्लेषण की ही भूमिका में नजर आता है। आतंकवाद जैसे प्रश्न के समाधान में मीडिया एक बहुत सामान्य सहयोगी की ही भूमिका निभा सकता है। भारत जैसा देश आतंकवाद के अनेक रूपों से टकरा रहा है। एक तरफ पाक पोषित आतंकवाद है तो दूसरी ओर वैश्विक इस्लामी आतंकवाद है जिसे अलकायदा,जैस ए मोहम्मद जैसे संगठन पोषित कर रहे हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर राज्यों में चल रहा आतंकवाद तथा अति वामरूझानों में रूचि रखने वाला माओवादी आतंकवाद जिसने वैचारिक खाल कुछ भी पहन रखी हो, पर हैं वे भारतीय लोकतंत्र के विरोधी।
ऐसे समय में जब आतंकवाद का खतरा इतने रूपों में सामने हो तो मीडिया के किसी भी माध्यम में काम करने वाले व्यक्ति की उलझनें बढ़ जाती हैं। एक तो समस्या की समझ और उसके समाधान की दिशा में सामाजिक दबाव बनाने की चुनौती सामने होती है तो दूसरी ओर मीडिया की लगातार यह चिंता बनी रहती है कहीं वह इन प्रयासों में जरा से विचलन से भारतीय राज्य या लोकतंत्र का विरोधी न मान लिया जाए। घटनाओं के कवरेज के समय उसके अतिरंजित होने के खतरे तो हैं पर साथ ही अपने पाठक और दर्शक से सच बचाने की जिम्मेदारी भी मीडिया की ही है। यह बात भी सही है कि आंतकवाद के कवरेज के नाम पर कुछ बेहद फूहड़ प्रस्तुतियां भी मीडिया में देखने को मिलीं, जिनकी आलोचना भी हुयी। किंतु यह कहने और स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए हर संकट के समय भारतीय मीडिया ने अपने देश गौरव तथा आतंकवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट किया है।
मुंबई धमाकों के समय भारतीय मीडिया की भूमिका को काफी लांछित किया गया और उसके सीधे प्रसारण को कुछ लोगों की मौत का जिम्मेदार भी माना गया। किंतु ऐसे प्रसंगों पर सरकार की जबाबदेही भी सामने आती है। मीडिया अपनी क्षमता के साथ आपके साथ खड़ा है। किस प्रसंग का प्रसारण करना किसका नहीं इसका नियमन मीडिया स्वयं नहीं कर सकता। जब सीधे प्रसारण को रोकने की बात सेना की ओर से कही गयी तो मीडिया ने तत्काल इस पर अमल भी किया था।
यह बहुत जरूरी है कि आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय प्रश्न पर मीडिया की भूमिका पर विचार जरूर हो। कवरेज की हदें और सरहदें जरूर तय हों। खासकर ऐसे मामलों में कि जब सेना या सुरक्षा बल कोई सीधी लड़ाई लड़ रहे हों। मीडिया पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह अपराध या आतंकवाद के महिमामंडन का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यही प्रचार आतंकवादियों के लिए मीडिया आक्सीजन का काम करता है। यह गंभीर चिंता का विषय है। इससे आतंकियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं आम जनता में भय का प्रसार भी होता है।
विचारक बौसीओऊनी लिखते हैं कि – “वास्तव में संवाददाता पूर्णतया सत्य खबरों का विवरण नहीं देते । परिणामतः वे इस प्रक्रिया में एक विषयगत भागीदार बन जाते हैं। ये मुख्यतया समाचार लेखक ही होते हैं। आतंकवादी इन स्थितियों का पूर्ण लाभ उठा लेते हैं और बड़ी ही दक्षतापूर्वक इन जनमाध्यमों का उपयोग अपने स्वार्थ एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर लेते हैं।” देश जब एक बड़ी लड़ाई से मुखातिब है तो खास संदर्भ में मीडिया को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। आज असहमति के अधिकार के नाम पर देश के भीतर कई तरह के सशस्त्र संघर्ष खड़े किए जा रहे हैं, लोकतंत्र में भरोसा न करने वाली ताकतें इन्हें कई बार समर्थन भी करती नजर आती हैं। यह भी बड़ा गजब है कि लोकतंत्र में आस्था न रखने वाले, खून-खराबे के दर्शन में भरोसा करने वालों के प्रति भी सहानुभूति रखने वाले मिल जाते हैं, जिन्हें अरबन नक्सल कहकर भी संबोधित किया जा रहा है।
राज्य या पुलिस अथवा सैन्य बलों के अतिवाद पर तो विचार-जांच करने के लिए संगठन हैं, किंतु आतंकवादियों या माओवादियों के विरूद्ध आमजन किसका दरवाजा खटखटाएं। यह सवाल सोचने को विवश करता है। क्रांति या किसी कौम का राज लाना और उसके माध्यम से कोई बदलाव होगा ऐसा सोचने मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा ही है। शासन की तमाम प्रणालियों में लोकतंत्र ही अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद सबसे श्रेष्ठ प्रणाली मानी गयी है। ऐसे में मीडिया को यहां सावधान रहने की जरूरत है कि ये ताकतें कहीं उसका इस्तेमाल न कर ले जाएं।
सूचना देने के अपने अधिकार के साथ ही साथ हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने देश के प्रति भी है। अतएव किसी भी रूप में आतंकवादी हमारी ताकत से प्रचार या मीडिया आक्सीजन न पा सकें यह देखना जरूरी है। विद्वान विलियम कैटन लिखते हैं कि “आतंकवाद बुनियादी रूप से एक रंगमंच की तरह होता है। आतंकवादी गतिविधियों के द्वारा यह समूह जनता में अपनी भूमिकाएं अभिनीत करता है एवं जनमाध्यमों एवं मीडिया द्वारा इसे लोगों तक सुगमता से पहुंचाता है।”
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अभी यह कन्फर्म नहीं हुआ है कि यह आतंकी हमला ही है या नहीं, लेकिन जिस हाई-इंटेंसिटी का यह ब्लास्ट है, उससे यह काफी हद तक आतंकी हमला ही लगता है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।
पहले सहारनपुर से कश्मीरी डॉक्टर मुजम्मिल शकील समेत 8 लोगों की गिरफ्तारी होती है। फिर फरीदाबाद में उसके घर से हथियार बरामद होते हैं। आज लखनऊ से महिला डॉक्टर शाहीन शाहिद को भी AK-47 के साथ गिरफ्तार किया जाता है। पिछले दो दिनों में गुजरात एटीएस ने गांधीनगर से तीन आतंकवादियों को पकड़ा था। ये लोग रिसिन नाम के केमिकल को प्रसाद में मिलाकर बड़े पैमाने पर लोगों को मारने की तैयारी कर रहे थे। और अभी ये सारी गिरफ्तारियाँ चल ही रही थीं कि शाम 7 बजे लाल किले मेट्रो स्टेशन के पास एक ईको वैन में ज़ोरदार धमाका होता है।
इसमें अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। अभी यह कन्फर्म नहीं हुआ है कि यह आतंकी हमला ही है या नहीं, लेकिन जिस हाई-इंटेंसिटी का यह ब्लास्ट है, उससे यह काफी हद तक आतंकी हमला ही लगता है। यह भी लगता है कि यूपी और गुजरात से हुई गिरफ्तारियों के बाद दिल्ली वाला धमाका जल्दबाज़ी में कर दिया गया। शायद ये लोग बाद में यह अटैक करने वाले हों, लेकिन हालिया गिरफ्तारियों के बाद पकड़े जाने के डर से इन्होंने पहले ही इस वारदात को अंजाम दे दिया।
वजह जो भी रही हो, मेरा बस इतना कहना है कि ऐसे हर हमले के बाद इस्लामिक आतंकी सबसे ज़्यादा नुकसान इस्लाम का ही करते हैं। अगर आपने यह हमला मोदी को कमज़ोर करने के लिए किया है तो ऐसे हमले उन्हें राजनीतिक तौर पर और मज़बूत कर देंगे। अगर आपको लगता है कि मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता है, तो ऐसे हमलों के बाद वह शक और बढ़ेगा। अगर आपको लगता है कि देश में कट्टर हिंदुत्व बढ़ रहा है, तो ऐसे हमलों से वो कट्टरता और बढ़ेगी। बाकी दस-बीस लोगों की जान लेने से क्या होगा?
जब इज़राइल अपनी पूरी ताकत और अमेरिकी मदद के बावजूद दो साल में हमास को ख़त्म नहीं कर पाया, तो क्या आपको लगता है कि दो-चार धमाकों से सौ करोड़ हिंदू ख़त्म हो जाएंगे या घबरा जाएंगे? आप अमेरिका को देख लें, इटली को देख लें, नीदरलैंड्स को देख लें, जर्मनी को भी देख लें- पूरी दुनिया में इस्लामी कट्टरपंथ के विरोध में दक्षिणपंथ मज़बूत हुआ है। दक्षिणपंथ की बात करके उलजुलूल लोग भी चर्चा में आ गए हैं। कोई कौम या मुल्क कितना भी लिबरल क्यों न हो, वहाँ दूसरे विचारों के लिए कितना भी स्पेस क्यों न हो, लेकिन जब बात उसके अस्तित्व की आती है, तो वह भी किसी भी तरह के प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाता है।
अगर किसी भी कौम या मज़हब को यह लगता है कि वही सुप्रीम है या उसका ऊपरवाला श्रेष्ठ है, तो यह सह-अस्तित्व के बुनियादी नियम के खिलाफ है। जब आप ऐसे आदमी से दोस्ती नहीं कर सकते जो खुद को Superior मानता हो, तो आप सोसाइटी से यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वह आपके religious belief को इकलौता सच माने। अपने भगवान को आपके भगवान से श्रेष्ठ माने? जैसे आप डिफ़ॉल्ट रूप से किसी धर्म में पैदा होकर उसकी श्रेष्ठता का गुणगान करने को मजबूर होते हैं, वैसे ही सामने वाले की भी वही मजबूरी है।
इसलिए अपनी धार्मिक श्रेष्ठता दूसरों पर ठोपने की ज़िद सिर्फ अलगाव और हिंसा को जन्म देगी। और यह समझ लीजिए, दुनिया में सबसे बड़ी ख्वाहिश ज़िंदा रहने की होती है, और इस ख्वाहिश में इंसान कैसी भी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। इसलिए कैसी भी हिंसा, चालाकी या होशियारी आपको जीत नहीं दिला सकती। और यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना बेहतर है। वरना यूँ ही खून बहता रहेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हम सब Google तो करते आए ही है, तो इसके सामने ChatGPT , Gemini या Perplexity अलग कैसे है? Google Search और ChatGPT ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें हर छोटे बड़े विषयों की किताबें हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
पिछले हफ़्ते मैंने हिसाब किताब में लिखा था कि कंपनियाँ आपको AI का प्रीमियम प्लान फ्री में क्यों दे रही हैं? तो बहुत सारे पाठकों और दर्शकों ने पूछा कि हम AI का इस्तेमाल कैसे करें? आज का हिसाब किताब यह समझाने की कोशिश है कि रोजमर्रा की ज़िंदगी में हम AI यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं।
हम सब Google तो करते आए ही है, तो इसके सामने ChatGPT , Gemini या Perplexity अलग कैसे है? इस तरह से समझिए की Google Search और ChatGPT दोनों ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें दुनिया भर के हर छोटे बड़े विषयों की किताबें है। Google पर आप सर्च करते हैं तो वो आपको उस विषय से संबंधित किताबों की सूची दे देता है। आप किताब यानी वेबसाइट की लिंक खोलिए और पढ़ लीजिए।
ChatGPT उस लाइब्रेरी में बैठे एक प्रोफेसर की तरह है जिन्होंने सारी किताबें पढ़ रखी हैं। आप सवाल ( AI की भाषा में Prompt ) पूछते हैं वो बोलचाल की भाषा में जवाब दे देते हैं। आपको गूगल की तरह किताब खोलने की ज़रूरत नहीं है तो पहली बात यह समझ लीजिए कि आपको किसी भी AI Chat bot पर अपना अकाउंट बनाना है।
हम पहले ही बता चुके हैं कि गूगल Gemini का प्रीमियम वर्जन Jio और Perplexity का Airtel यूज़र्स के लिए अभी फ्री कर दिया गया है। अकाउंट बनाने के बाद आपको बातचीत शुरू कर देनी है। आप उसे अपने बारे में बता सकते हैं। आप कौन हैं? आप क्या करते हैं? आपकी रुचि किन विषयों में है। आपके लिखने का कोई स्टाइल है तो उसे बताकर रख सकते है। यह सब याद कर लेगा।
सबसे महत्वपूर्ण है Prompt यानी आपका सवाल क्या है? यह साफ़ साफ़ लिखेंगे उतना ही सही जवाब मिलेगा जैसे आप उसे रोल दीजिए मेरे फिटनेस कोच/ मैथ्स टीचर/ बिज़नेस गुरु बनिए, आप जो रोल चाहे वो दे सकते है। मन की बात कहने के लिए दोस्त भी बना सकते है। अपने बारे में पहले नहीं बताया है तो अब बताइए कि आप कौन हो ? क्या करते हो? अब काम बताइए कि क्या चाहते हो? यहाँ लिखते - बोलते समय verb यानी क्रिया पद का उपयोग ज़रूर करें जैसे मुझे बच्चा समझकर सरल भाषा में बताइए कि AI काम कैसे करता है? ये डालकर देखिए आपको जवाब क्या मिलता है।
मुझे भी बताइएगा। अब मैं आपको तीन काम बता रहा हूँ जो आप रोज़ इस्तेमाल कर सकते हैं। पहला काम है लिखना। आप ई मेल, मेसेज, सोशल मीडिया के लिए पोस्ट लिखने में मदद ले सकते हैं। भाषा कोई भी हो सकती है। यह अनुवाद भी अच्छा करता है। दूसरा काम है आपका पर्सनल असिस्टेंट। आप रिसर्च करवा सकते हैं, कोई PDF डॉक्यूमेंट देकर पूछ सकते हैं कि इसका सार बताओ, Presentation बनवा सकते हैं आपने कुछ लिखा है या पढ़ा है तो उसे Fact Check करने का काम दे सकते है।
तीसरा काम है आपका कोच या गुरु। आप कोई फ़ैसला लेने में फंस रहे हैं तो आप पूछ सकते हैं कि क्या करूँ? आपको दोनों पहलुओं के साथ जवाब दे देगा। फ़ाइनेंशियल प्लानिंग कर सकते हैं जैसे मुझे एक करोड़ रुपये जमा करने में कितने साल लगेंगे? मैं कैसे जमा कर सकता हूँ? यह करते समय वैधानिक चेतावनी का ध्यान रखें कि AI की हर बात सही नहीं होती है। वो Hallucinate करता है यानी झूठ भी बोलता है। आपको अपने दिमाग़ भी लगाना पड़ेगा। दोबारा पूछना पड़ेगा कि इसका प्रमाण दो। तो देर किस बात की, फ़्री प्लान का फ़ायदा उठाइए और AI का इस्तेमाल शुरू कीजिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )