वरिष्ठ पत्रकार डॉ. विनोद पुरोहित ने इस कविता के माध्यम से जीवन के सफर को बहुत ही संजीदगी के साथ बयां किया है
डॉ.विनोद पुरोहित, संपादक
अमर उजाला, आगरा संस्करण।।
दिल मानता है तो अक्ल रुठ जाती है
इसी जद्दोजहद में उम्र छूटती जाती है।
क्या कहूं,उसके आने पर धड़कनें बढ़ जाती हैं
कितनी ही बातें करनी थी, छूट जाती हैं।
मुस्तक़िल है मेरे हर एक लफ्ज़ और इरादे
तुम्हारे सामने जाने क्यों जुबां रुठ जाती है।
हां में हां मिलाने से खुश होते हैं हुजूर
मगर क्या करें, हमारी ही रूह रुठ जाती है।
उनके अंदाज-ए-बयां के क्या कहने
अमराई की मदमाती बौर सी गीत गाती हैं।
अल्फाज़ों से खेलना, रूठना मनाना सुखनवर
जेठ की घनेरी छांव सी सुकून दे जाती है।
मोहब्बत के किस्से तो कई सुने-सुनाए होंगे
जनाब हमसे पूछिए, ये निभाई कैसे जाती है।
इस कविता के माध्यम से कवि ने यह बताने का प्रयास किया है कि कोविड-19 ने हमारी दिनचर्या पर किस तरह का प्रतिकूल प्रभाव डाला है
बड़ी मारक है, वक्त की मार।
हिंद में मचा यूं हाहाकार।।
सड़कें हैं, सवार नहीं।
हरियाली है, गुलजार नहीं।।
बाजार है, खरीदार नहीं।
गुस्सा है, इजहार नहीं।।
सोने वाले सो रहे।
खटने वाले रो रहे।।
खुशनसीबों पर सिस्टम मेहरबान।
बाकी भूखों को तो बस ज्ञान पर ज्ञान।।
जाने कब खत्म होगा नई सुबह का इंतजार।
बड़ी मारक है वक्त की मार।।
(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।जब नहीं रहेगी बच्चों की मुस्कुराहटें, औरतों की फुसफुसाहटें, बात बे बात पर आने वाली खिलखलाहटें, ये दुनिया किस काम की रहेगी...
आकाश वत्स, युवा पत्रकार ।।
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब नहीं रहेगी बच्चों की मुस्कुराहटें
औरतों की फुसफुसाहटें, बात बे बात पर आने वाली खिलखलाहटें,
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब नहीं आएगा मोहल्ले में फेरी वाला,
जब घंटी बजाते हुए नहीं लुभाएगा आइसक्रीम वाला,
जब ख़बरों की गठरी लिए नहीं आएंगे अख़बार वाले भैया,
जब किसी अनजान को देख नहीं भौंकेगा कुत्ता..
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब बैग लिए बच्चे नहीं जाएंगे स्कूल,
जब किसी को छोड़ते हुए स्टेशन पर नहीं रोयेंगे लोग,
जब दूसरे शहर से आने वाले अंकल से बच्चे नहीं मांग पाएंगे टॉफी...
जब गांव से मां नहीं भेज पाएगी अचार,
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब पेड़ की छांव में नहीं बैठेगा कोई पथिक,
तालाब में मछुआरा नहीं फेंकेगा जाल,
जब नहीं होगा नाव में बैठ नदी पार कर लेने का भरम...
जब सूरज के उगते ही खेत में नहीं चलेंगे हल...
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
अब, इंतज़ार है, सड़क को राही का,
पार्कों को बुजुर्गों के आहिस्ते क़दमों का...
रिक्शे वाले को सवारी का...इंतज़ार है,
अम्मा के उस फ़ोन का..
जब वो फिर से डांटते हुए पूछेंगी घर कब तक आओगे,
इंतज़ार है...हॉर्न देकर प्लेटफॉर्म से सरकती ट्रेन में लपककर बैठ जाने का ...
अब जब तक अधूरी रहेगी रोजमर्रा की ख़्वाहिशें...
जब तक अधूरा है उसके गले से लगकर इस दुनिया की कहानी कह देने का सपना...
ये दुनिया किसी काम की नहीं है
इस कविता का विडियो यहां देखें-
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।हम बने, तुम बने एक-दूजे के लिए। हमने माना तुम भी मानो, हम भी रहें और तुम भी रहो घर में एक-दूजे के लिए
प्रो. रमेश चन्द्र कुहाड़,
कुलपति, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय ।।
हम बने, तुम बने
एक-दूजे के लिए
हमने माना तुम भी मानो
हम भी रहें और
तुम भी रहो घर में
एक-दूजे के लिए
घर किसी ने अभी न जाओ
अपने घर से दुआ करो
एक-दूजे के लिए
कष्ट तो होता है
जब बंदिश होती है
लेकिन, जोखिम सामने है
कष्ट उठाना अच्छा है
एक-दूजे के लिए
पाना अच्छा लगता है
पर खोना भी तो पड़ता है
कुछ पाओ, कुछ खोओ
एक-दूजे के लिए
है परीक्षा की तैयारी
जीवन कमरे में बिताना है
पक्षी बच्चों की खातिर
दिनों-दिन घोसले में रहता है
जच्चा माँ की पीड़ा समझो
चालीस दिन से तो गुजरो
फसल की सुरक्षा की खातिर
किसान खेत में रहता है
सीमा-सुरक्षा में तपधारी
जवान की पीड़ा को सहना है
मरीज सुश्रुषा में डूबे
डॉक्टर की पीड़ा को समझो
जो खबरें हम तक आती हैं
जीवन का राज बताती हैं
प्रेस, मीडिया, पुलिस-व्यवस्था में
लगी जिंदगियों को समझो
इतिहास हमारा साक्षी है
हम कष्टों से नहीं घबराते
इस नई आपदा को समझो
हिम्मत से फैसला लेना है
घर के बाहर नहीं जाना है
तुम राज-व्यवस्था को समझो
‘कोरोना’ को भगाना है
प्रधानमंत्री के महामंत्र को सफल बनाना है
एक-दूजे के लिए
एक-दूजे के लिए।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।इस कविता के माध्यम से कवि ने जीवन की संभावनाओं और जीने की इच्छाओं पर प्रकाश डाला है।
राधेश्याम तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार और कवि।।
तुम पेड़ों को काट सकते हो
लेकिन बसंत को आने से
नहीं रोक सकते।।
तुम घोंसला उजाड़ सकते हो
लेकिन चिड़ियों को चहचहाने से
नहीं रोक सकते।।
तुम किसी की गर्दन मरोड़ सकते हो
लेकिन विचारों को
नहीं मरोड़ सकते।।
तुम किसी का दिल तोड़ सकते हो
लेकिन हवा को
नहीं तोड़ सकते।।
तुम जीवन समाप्त कर सकते हो
लेकिन नहीं कर सकते समाप्त
जीवन की संभावनाएं
जीने की इच्छाएं।।
अक्सर कई लोग कहते हुए मिल जाते हैं कि उनका समय नहीं कटता, लेकिन इसी समय में कितनी चीजें कट जाती हैं, कवि ने अपनी कविता के माध्यम से इसका बखूबी वर्णन किया है
राधेश्याम तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार और कवि।।
जब समय नहीं कटता
तब भी कट ही जाता है समय
उसके साथ
बहुत कुछ कट जाता है
कितनी पतंगें कट जाती हैं
कितने लोग कट जाते हैं
कितनी मछलियां कट जाती हैं
कितनी जेबें कट जाती हैं
मालिकों के लिए
गुलाम कट जाते हैं
और कट जाते हैं नाम
स्कूल से बच्चों के
फिर भी किसी का समय
अगर खुशी-खुशी कट रहा है
तो इसलिए
कि वह अपने समय में
किसी के कटने को शामिल नहीं करता।।
आप अपनी राय, सुझाव और खबरें हमें mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं या 01204007700 पर संपर्क कर सकते हैं। (हमें फेसबुक,ट्विटर, लिंक्डइन और यूट्यूब पर फॉलो करें)
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डॉ.विनोद पुरोहित, संपादक
अमर उजाला, आगरा संस्करण।।
हाथ हिलाकर वो वहां से लौट तो आए
जाने कितने फीसदी खुद को छोड़ आए।
अब तक जाने कितने कदम नाप आए
हर बार एक नया तजुर्बा साथ में लाए।
वो तो हर किसी की सिर्फ सुनते आए
बस बुजुर्ग होने का फर्ज निभाते आए।
सुना है वो सबको मिठास बांटते आए
घना दरख्त है, फल के साथ छाया लाए।
पुराने खत लेकर कल रात आए
यादों की कंदील जलाकर लाए।
चेहरे पर मजाल है एक शिकन आए
किसी को दिया वादा है, निभाते आए।
अजीब शख्स है, सारे रिश्ते निभाता जाए
क्या इसने पैर परों से भी हल्के पाए।
इस कविता के माध्यम से कवि का कहना है कि यदि जलना ही है तो इस तरह जलें जिससे किसी को फायदा हो न कि नुकसान
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी।।
आइए जलते हैं
दीपक की तरह।
आइए जलते हैं
अगरबत्ती-धूप की तरह।
आइए जलते हैं
धूप में तपती धरती की तरह।
आइए जलते हैं
सूरज सरीखे तारों की तरह।
आइए जलते हैं
अपने ही अग्नाशय की तरह।
आइए जलते हैं
रोटियों की तरह और चूल्हे की तरह।
आइए जलते हैं
पक रहे धान की तरह।
आइए जलते हैं
ठंडी रातों की लकड़ियों की तरह।
आइए जलते हैं
माचिस की तीली की तरह।
आइए जलते हैं
ईंधन की तरह।
आइए जलते हैं
प्रयोगशाला के बर्नर की तरह।
क्यों जलें जंगल की आग की तरह।
जलें ना कभी खेत लहलहाते बन के।
ना जलें किसी के आशियाने बन के।
नहीं जलना है ज्यों जलें अरमान किसी के।
ना ही सुलगे दिल… अगर जिंदा है।
छोड़ो भी भई सिगरेट की तरह जलना!
नहीं जलना है
ज्यों जलते टायर-प्लास्टिक।
क्यों बनें जलता कूड़ा?
आइए जल के कोयले सा हो जाते हैं
किसी बाती की तरह।
(लेखक जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान) में सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान) के पद पर कार्यरत हैं।)
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अरुण आदित्य, संपादक
अमर उजाला, अलीगढ़ संस्करण।।
तुम्हारे लिये मैं छांव हो जाना चाहता हूं,
पर धूप तो यूं ही नहीं फटकती तुम्हारे आस-पास
तुम्हारे लिये मैं रोशनी हो जाना चाहता हूं
पर सूरज तो खुद डूबता उगता है तुम्हारे हुक्म पर
तुम्हारे लिये मैं तारे तोड़कर लाना चाहता हूं
पर आसमान तो कसमसा रहा है तुम्हारी ही मुट्ठी में
तुम्हारे लिये मैं गीत गाना चाहता हूं
पर सातों सुर तो डेरा जमाए हुए हैं तुम्हारे ही कंठ में
तुम्हारे लिये मैं एक मनोरम चित्र बनाना चाहता हूँ
पर रंग तो सब तुम्हारी आंखों मे जा बसे हैं
मेरी मुश्किल समझो और तुम्हीं बताओ
कि मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए।
इस गजल के द्वारा कवयित्री ने यह बताने की कोशिश की है कि दुनिया व जिंदगी में काफी कुछ घटित होने के बावजूद किस तरह इनसे अनभिज्ञता बनी रहती है
डॉ. कामिनी कामायनी।।
बरकरार थी दिल की तमन्ना, हमको ये मालूम न था
खुद से ही कोई बात कही क्या? हमको ये मालूम न था।
बरस पड़ी थी गरज गरज कर, मौसम देख बहारों का
इतनी तेज चलेगी आंधी, हमको ये मालूम न था।
तोड़ दिया था दरो दीवारें, हसरत के इमारत की
फिर से ये अंगड़ाई लेगी, हमको ये मालूम न था।
मस्त कलंदर समझ के खुद को, दुनिया में खुश रहते थे
दिल के भी कई दरवाजे थे, हमको ये मालूम न था।
बंद पड़े जो मृदंग तबले, उछल उछल सब गाने लगे
सरगम ने क्या शोर मचाया, हमको ये मालूम न था।
हम तो खड़े खड़े उलझे थे, रहबर के मयखाने में
महफिल ने क्यों हमें पुकारा, हमको ये मालूम न था।
अपनी कविता के माध्यम से कवि ने वर्तमान दौर में कश्मीर के हालात को बयां करने का प्रयास किया है
गुणानंद जखमोला, वरिष्ठ पत्रकार।।
बधाई हो मोदी जी, ऐसे लोकतंत्र के लिए जहां
80 लाख लोग 60 दिन से खुली जेल में बंद हैं।
हम खुश हैं कि हमने कश्मीर को जीत लिया।
हम खुश हैं कि वो जो देशद्रोही थे, अब बंद हैं।
और वो भी जो कश्मीर में हमारे साथ खड़े थे।
वो छोटे-छोटे बच्चे जो स्कूल जाते थे कभी
गर्मियों की छुट्टियों का सा आनंद ले रहे सभी।
मां डरी हुई कि बच्चे गली में खेल रहे हैं
पता नहीं कहां से सनसनी हुई मौत आ जाएं।
वो नहीं जाने देती बच्चों को खेलने बाहर
क्योंकि जिंदगी संगीनों के साये में गुजर रही है।
वो गुलमर्ग की खुली वादियां जो बुलाती थीं प्रेमियों को कभी
अब सहमी सी हैं, क्योंकि स्वर्ग अब जमीं पर उतर आया है।
हां, डर के साये में कट रही है जिंदगी
और बर्फ में उग रही तनी हुई मुट्ठियां।
एक बाबा खटखटता है डरे हुए लोगों का द्वार।
हौले से एक सुंदर गोरा मुखड़ा झांकता है अधखुले दरवाजे से
बाबा पूछता है बिटिया, कहां मिलेगी जन्नत।
वह हौले से डरी आवाज में कहती है
गर फिरदौस बर रूये जमी अस्त
हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्त।।