फिल्म डायरेक्टर प्रोफेसर फौजिया अर्शी ने एक परंपरागत मुशायरे की श्रृंखला आयोजित करने की पहल की है, जो अपने आप में एक अनोखा प्रयास है।
फिल्म डायरेक्टर प्रोफेसर फौजिया अर्शी ने एक परंपरागत मुशायरे की श्रृंखला आयोजित करने की पहल की है, जो अपने आप में एक अनोखा प्रयास है। फौजिया अर्शी ने इस भव्य समारोह का नाम ‘खुर्शीद’ रखा है, जिसका अर्थ है ‘चमकता सूरज’। इस परम्परा की शुरुआत मुंबई में 10 नवंबर को हुई, जहां ये भव्य मुशायरा आयोजित हुआ।
बता दें श्रृंखला के पहले अंक को मीना कुमारी जो खुद एक बेहतरीन शायरा थी, उन्हें समर्पित किया गया। यह ऐसा समारोह था, जिसमें सुनने वाले फिल्म जगत के तमाम अभिनेता, अभिनेत्री और निर्देशक थे, लेकिन पहली बार इनमें कोई नकलीपन फोन और औपचारिकता नहीं थी, क्योंकि यह समारोह प्रेस, फ्लैश लाइट और कैमरों से दूर मोबाइल विहीन था। इसलिए यह नितांत घरेलू और सभी सेलिब्रिटी के लिए औपचारिकता से दूर उन्हें उर्दू कविता के, मुशायरे का पूरे मनोयोग और प्रसन्नता के रंग में रंग गया।
सभी का यही कहना था कि उन्हें अब तक ऐसे भव्य समारोह के आनंद का पता ही नहीं था। इसके लिए सभी ने प्रो. फौजिया अर्शी को शुभकामनाएं दी। इस समारोह के आयोजन में अभिनेता सचिन पिलगाओंकर का योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण था, जिन्होंने फिल्म जगत से जुड़े सभी अभिनेता और अभिनेत्री को समारोह में आमंत्रित करने में जी जान लगा दी।
‘खुर्शीद’ के इस पहले भव्य समारोह में मशहूर अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन का नाम उल्लेखनीय है, जो ठीक समय पर समारोह में आई और देर से आने वाले फिल्म जगत के लोगों को गुस्से से देखती रहीं। उन्होंने एक पत्रकार और पूर्व सांसद से कहा कि लोग समय पर क्यों नहीं आते। पूर्व सांसद ने उन्हें कहा कि आप तो इसी संस्कृति के बीच की हैं आपको इसका कारण कौन बताएगा।
कहते हैं जया बच्चन को सार्वजनिक समारोह में और संसद की बैठकों में किसी ने मुस्कुराते नहीं देखा। परंतु इस समारोह में जया जी 6 बार हंसी और खूब तालियां बजाईं, जिसे प्रसिद्ध साहित्यकार और संपादक सुरेश शर्मा ने देखा और उल्लेख किया।
फौजिया अर्शी का कहना था कि वे उन्हें जया भादुरी ही कहेंगी क्योंकि उनका अपना अलग वजूद है, जबकि सचिन पिलगाओंकर चाहते थे क्यों नहीं जया बच्चन कहा जाए क्योंकि इसके साथ अमिताभ बच्चन का भी जिक्र हो जाता है।
समारोह में राज बब्बर भी मौजूद रहे और उन्होंने कहा कि वे ‘खुर्शीद’ के हर समारोह में अवश्य आएंगे। वहीं, दिव्या दत्ता जो स्वयं एक कवित्री हैं, उन्होंने फौजिया अर्शी से कहा कि वे ‘खुर्शीद’ के हर समारोह में बिना बुलाए भी आ जाएंगी। जब फौजिया अर्शी ने मीना कुमारी जी की गजल गाई तो सभी को आश्चर्य हुआ कि बिना किसी वाद्य यंत्र के पूरे सुर में प्रोफेसर अर्शी ने इसे गा दिया।
इस भव्य समारोह में एक रहस्य और खुला कि अभिनेता सचिन पिलगाओंकर स्वयं एक बड़े शायर हैं, जो बात अब तक उनके दोस्तों के बीच थी वह इस समारोह के द्वारा दुनिया के सामने आ गई। खुद महान अभिनेत्री जया बच्चन को बहुत आश्चर्य हुआ कि सचिन पिलगाओंकर इतने खूबसूरत शायर हैं। सभी ने सचिन पिलगाओंकर की नज्मों को सुना और उनकी भूरी भूरी प्रशंसा की।
समारोह में गोविंद निहलानी, रूमी जाफरी, सोनू निगम, रितेश देशमुख, दिव्या दत्ता, सतीश शाह, पेंटल, सुमीत राघवन, अनूप सोनी, जूही बब्बर, सुप्रिया पिलगांवकर, श्रेया पिलगांवकर, इनाम-उल हक, इस्माइल दरबार, अली असगर, राजेश्वरी सचदेव, सुदेश भोसले, भारती आचरेकर, नासिर खान, शाहबाज खान, संदीप महावीर, सलीम आरिफ, देविका पंडित, डॉ. टंडन, वी के शर्मा पूर्व-ईडी आरबीआई और अन्य बड़ी हस्तियां मौजूद रहीं और मुशायरे का ऐसा आनंद उठाया जैसा उन्होंने पहले कभी नहीं उठाया था।
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हठ करती थी बचपन में मैं, लेने को चुनरी रंग बिरंगी। कहती थी मुझको भी है, घूंघट वाला खेल खेलना बस आज अभी।
श्वेता त्रिपाठी, कवियत्री ।।
हठ करती थी बचपन में मैं, लेने को चुनरी रंग बिरंगी।
कहती थी मुझको भी है, घूंघट वाला खेल खेलना बस आज अभी।
हंस करके मां जब, ये कह मना करती,
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!
फिर भी मेरी हठ ना रुकती, कभी रोती, मैं कभी रूठती, कभी बिलखती।
थक हार के मेरी हठ से, मां कह देती, ये ले चुनरी रंग बिरंगी।
मिलते ही, ले चुनरी मैं, कर लेती अपने घूंघट के हठ को पूरी।
करके अपना शौक पूरा, जब मैं अपनी खुशी जाहिर करती।
तब मां भी मुस्कुराकर कहती, कर ले अपने मन की,
अभी नहीं है, किसी और की कोई जोर जबरदस्ती।
अब मैं बड़ी होकर, जब हर रोज घूंघट करती, तब घूंघट हटाने की इजाजत हठ करने से भी ना मिलती।
फिर वही चुनरी रंग बिरंगी, मानो जैसे लगती हो चेहरे की रंगीन हथकड़ी!
बचपन वाले घूंघट के हठ का शौक, पल में बन गया एक आडंबर भरी जोर जबरदस्ती!
अब जब जब हूं घूंघट करती, तब तब मां की वो बात याद करती।
जब वो व्यथित हसीं के साथ, ये कह उस वक्त मना करती।
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!घूंघट की हट
हठ करती थी बचपन में मैं, लेने को चुनरी रंग बिरंगी।
कहती थी मुझको भी है, घूंघट वाला खेल खेलना बस आज अभी।
हंस करके मां जब, ये कह मना करती,
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!
फिर भी मेरी हठ ना रुकती, कभी रोती, मैं कभी रूठती, कभी बिलखती।
थक हार के मेरी हठ से, मां कह देती, ये ले चुनरी रंग बिरंगी।
मिलते ही, ले चुनरी मैं, कर लेती अपने घूंघट के हठ को पूरी।
करके अपना शौक पूरा, जब मैं अपनी खुशी जाहिर करती।
तब मां भी मुस्कुराकर कहती, कर ले अपने मन की,
अभी नहीं है, किसी और की कोई जोर जबरदस्ती।
अब मैं बड़ी होकर, जब हर रोज घूंघट करती, तब घूंघट हटाने की इजाजत हठ करने से भी ना मिलती।
फिर वही चुनरी रंग बिरंगी, मानो जैसे लगती हो चेहरे की रंगीन हथकड़ी!
बचपन वाले घूंघट के हठ का शौक, पल में बन गया एक आडंबर भरी जोर जबरदस्ती!
अब जब जब हूं घूंघट करती, तब तब मां की वो बात याद करती।
जब वो व्यथित हसीं के साथ, ये कह उस वक्त मना करती।
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!
(कवियत्री यूपी के अलीगढ़ में केनरा बैंक की मैनेजर भी हैं)
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डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका) ।।
बेबाक वाचन शैली और तथ्यात्मक पत्रकारिता से बनाई विलक्षण पहचान।
दो मासूमों से पिता को छिनने की इतनी क्या जल्दी थी भगवान॥
मीडिया जगत को लगा है गहरा और अविश्वसनीय आघात।
परिवारजन और शुभचिंतकों के लिए यह तो है वज्रपात॥
रोहित सरदाना थे निर्भीक, दबंग और ऊर्जावान।
स्तब्ध है हम सब, क्यों हुआ अकस्मात उनका देहावसान॥
पत्रकारिता जगत के तुम तो थे देदीप्यमान नक्षत्र।
नहीं भूलेंगे हम 2021 का यह क्रूर और निष्ठुर सत्र॥
सच्चा देश भक्त, प्रखर युवा पत्रकार कर गया असमय देवलोकगमन।
सभी प्रशंसको का यह देखकर पीड़ित है मन॥
निष्पक्षता और प्रामाणिकता से किया दिलों पर राज।
तुम्हारी प्रभावी और बेबाक पत्रकारिता पर तो है भारतीयों को नाज॥
प्रतिष्ठित न्यूज़ एंकर ने पाया था गणेश विद्यार्थी पुरस्कार।
निष्पक्ष पत्रकारिता की चला दी थी सुखद बयार॥
नवरात्र पर करते थे कन्या पूजन और मातृशक्ति को नमन।
पिता की छत्रछाया बिन कितना व्यथित होगा मासूमों का मन॥
मीडिया जगत के नायाब हीरे थे रोहित सरदाना पत्रकार।
डॉ. रीना कहती है ईश्वर अब तो खत्म करो ये कोरोना हाहाकार॥
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इस कविता के माध्यम से कवि ने यह बताने का प्रयास किया है कि कोविड-19 ने हमारी दिनचर्या पर किस तरह का प्रतिकूल प्रभाव डाला है
बड़ी मारक है, वक्त की मार।
हिंद में मचा यूं हाहाकार।।
सड़कें हैं, सवार नहीं।
हरियाली है, गुलजार नहीं।।
बाजार है, खरीदार नहीं।
गुस्सा है, इजहार नहीं।।
सोने वाले सो रहे।
खटने वाले रो रहे।।
खुशनसीबों पर सिस्टम मेहरबान।
बाकी भूखों को तो बस ज्ञान पर ज्ञान।।
जाने कब खत्म होगा नई सुबह का इंतजार।
बड़ी मारक है वक्त की मार।।
(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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डॉ.विनोद पुरोहित, संपादक
अमर उजाला, आगरा संस्करण।।
दिल मानता है तो अक्ल रुठ जाती है
इसी जद्दोजहद में उम्र छूटती जाती है।
क्या कहूं,उसके आने पर धड़कनें बढ़ जाती हैं
कितनी ही बातें करनी थी, छूट जाती हैं।
मुस्तक़िल है मेरे हर एक लफ्ज़ और इरादे
तुम्हारे सामने जाने क्यों जुबां रुठ जाती है।
हां में हां मिलाने से खुश होते हैं हुजूर
मगर क्या करें, हमारी ही रूह रुठ जाती है।
उनके अंदाज-ए-बयां के क्या कहने
अमराई की मदमाती बौर सी गीत गाती हैं।
अल्फाज़ों से खेलना, रूठना मनाना सुखनवर
जेठ की घनेरी छांव सी सुकून दे जाती है।
मोहब्बत के किस्से तो कई सुने-सुनाए होंगे
जनाब हमसे पूछिए, ये निभाई कैसे जाती है।
जब नहीं रहेगी बच्चों की मुस्कुराहटें, औरतों की फुसफुसाहटें, बात बे बात पर आने वाली खिलखलाहटें, ये दुनिया किस काम की रहेगी...
आकाश वत्स, युवा पत्रकार ।।
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब नहीं रहेगी बच्चों की मुस्कुराहटें
औरतों की फुसफुसाहटें, बात बे बात पर आने वाली खिलखलाहटें,
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब नहीं आएगा मोहल्ले में फेरी वाला,
जब घंटी बजाते हुए नहीं लुभाएगा आइसक्रीम वाला,
जब ख़बरों की गठरी लिए नहीं आएंगे अख़बार वाले भैया,
जब किसी अनजान को देख नहीं भौंकेगा कुत्ता..
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब बैग लिए बच्चे नहीं जाएंगे स्कूल,
जब किसी को छोड़ते हुए स्टेशन पर नहीं रोयेंगे लोग,
जब दूसरे शहर से आने वाले अंकल से बच्चे नहीं मांग पाएंगे टॉफी...
जब गांव से मां नहीं भेज पाएगी अचार,
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
जब पेड़ की छांव में नहीं बैठेगा कोई पथिक,
तालाब में मछुआरा नहीं फेंकेगा जाल,
जब नहीं होगा नाव में बैठ नदी पार कर लेने का भरम...
जब सूरज के उगते ही खेत में नहीं चलेंगे हल...
ये दुनिया किस काम की रहेगी...
अब, इंतज़ार है, सड़क को राही का,
पार्कों को बुजुर्गों के आहिस्ते क़दमों का...
रिक्शे वाले को सवारी का...इंतज़ार है,
अम्मा के उस फ़ोन का..
जब वो फिर से डांटते हुए पूछेंगी घर कब तक आओगे,
इंतज़ार है...हॉर्न देकर प्लेटफॉर्म से सरकती ट्रेन में लपककर बैठ जाने का ...
अब जब तक अधूरी रहेगी रोजमर्रा की ख़्वाहिशें...
जब तक अधूरा है उसके गले से लगकर इस दुनिया की कहानी कह देने का सपना...
ये दुनिया किसी काम की नहीं है
इस कविता का विडियो यहां देखें-
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प्रो. रमेश चन्द्र कुहाड़,
कुलपति, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय ।।
हम बने, तुम बने
एक-दूजे के लिए
हमने माना तुम भी मानो
हम भी रहें और
तुम भी रहो घर में
एक-दूजे के लिए
घर किसी ने अभी न जाओ
अपने घर से दुआ करो
एक-दूजे के लिए
कष्ट तो होता है
जब बंदिश होती है
लेकिन, जोखिम सामने है
कष्ट उठाना अच्छा है
एक-दूजे के लिए
पाना अच्छा लगता है
पर खोना भी तो पड़ता है
कुछ पाओ, कुछ खोओ
एक-दूजे के लिए
है परीक्षा की तैयारी
जीवन कमरे में बिताना है
पक्षी बच्चों की खातिर
दिनों-दिन घोसले में रहता है
जच्चा माँ की पीड़ा समझो
चालीस दिन से तो गुजरो
फसल की सुरक्षा की खातिर
किसान खेत में रहता है
सीमा-सुरक्षा में तपधारी
जवान की पीड़ा को सहना है
मरीज सुश्रुषा में डूबे
डॉक्टर की पीड़ा को समझो
जो खबरें हम तक आती हैं
जीवन का राज बताती हैं
प्रेस, मीडिया, पुलिस-व्यवस्था में
लगी जिंदगियों को समझो
इतिहास हमारा साक्षी है
हम कष्टों से नहीं घबराते
इस नई आपदा को समझो
हिम्मत से फैसला लेना है
घर के बाहर नहीं जाना है
तुम राज-व्यवस्था को समझो
‘कोरोना’ को भगाना है
प्रधानमंत्री के महामंत्र को सफल बनाना है
एक-दूजे के लिए
एक-दूजे के लिए।
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राधेश्याम तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार और कवि।।
तुम पेड़ों को काट सकते हो
लेकिन बसंत को आने से
नहीं रोक सकते।।
तुम घोंसला उजाड़ सकते हो
लेकिन चिड़ियों को चहचहाने से
नहीं रोक सकते।।
तुम किसी की गर्दन मरोड़ सकते हो
लेकिन विचारों को
नहीं मरोड़ सकते।।
तुम किसी का दिल तोड़ सकते हो
लेकिन हवा को
नहीं तोड़ सकते।।
तुम जीवन समाप्त कर सकते हो
लेकिन नहीं कर सकते समाप्त
जीवन की संभावनाएं
जीने की इच्छाएं।।
अक्सर कई लोग कहते हुए मिल जाते हैं कि उनका समय नहीं कटता, लेकिन इसी समय में कितनी चीजें कट जाती हैं, कवि ने अपनी कविता के माध्यम से इसका बखूबी वर्णन किया है
राधेश्याम तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार और कवि।।
जब समय नहीं कटता
तब भी कट ही जाता है समय
उसके साथ
बहुत कुछ कट जाता है
कितनी पतंगें कट जाती हैं
कितने लोग कट जाते हैं
कितनी मछलियां कट जाती हैं
कितनी जेबें कट जाती हैं
मालिकों के लिए
गुलाम कट जाते हैं
और कट जाते हैं नाम
स्कूल से बच्चों के
फिर भी किसी का समय
अगर खुशी-खुशी कट रहा है
तो इसलिए
कि वह अपने समय में
किसी के कटने को शामिल नहीं करता।।
आप अपनी राय, सुझाव और खबरें हमें mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं या 01204007700 पर संपर्क कर सकते हैं। (हमें फेसबुक,ट्विटर, लिंक्डइन और यूट्यूब पर फॉलो करें)
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डॉ.विनोद पुरोहित, संपादक
अमर उजाला, आगरा संस्करण।।
हाथ हिलाकर वो वहां से लौट तो आए
जाने कितने फीसदी खुद को छोड़ आए।
अब तक जाने कितने कदम नाप आए
हर बार एक नया तजुर्बा साथ में लाए।
वो तो हर किसी की सिर्फ सुनते आए
बस बुजुर्ग होने का फर्ज निभाते आए।
सुना है वो सबको मिठास बांटते आए
घना दरख्त है, फल के साथ छाया लाए।
पुराने खत लेकर कल रात आए
यादों की कंदील जलाकर लाए।
चेहरे पर मजाल है एक शिकन आए
किसी को दिया वादा है, निभाते आए।
अजीब शख्स है, सारे रिश्ते निभाता जाए
क्या इसने पैर परों से भी हल्के पाए।
इस कविता के माध्यम से कवि का कहना है कि यदि जलना ही है तो इस तरह जलें जिससे किसी को फायदा हो न कि नुकसान
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी।।
आइए जलते हैं
दीपक की तरह।
आइए जलते हैं
अगरबत्ती-धूप की तरह।
आइए जलते हैं
धूप में तपती धरती की तरह।
आइए जलते हैं
सूरज सरीखे तारों की तरह।
आइए जलते हैं
अपने ही अग्नाशय की तरह।
आइए जलते हैं
रोटियों की तरह और चूल्हे की तरह।
आइए जलते हैं
पक रहे धान की तरह।
आइए जलते हैं
ठंडी रातों की लकड़ियों की तरह।
आइए जलते हैं
माचिस की तीली की तरह।
आइए जलते हैं
ईंधन की तरह।
आइए जलते हैं
प्रयोगशाला के बर्नर की तरह।
क्यों जलें जंगल की आग की तरह।
जलें ना कभी खेत लहलहाते बन के।
ना जलें किसी के आशियाने बन के।
नहीं जलना है ज्यों जलें अरमान किसी के।
ना ही सुलगे दिल… अगर जिंदा है।
छोड़ो भी भई सिगरेट की तरह जलना!
नहीं जलना है
ज्यों जलते टायर-प्लास्टिक।
क्यों बनें जलता कूड़ा?
आइए जल के कोयले सा हो जाते हैं
किसी बाती की तरह।
(लेखक जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान) में सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान) के पद पर कार्यरत हैं।)
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