अमर उजाला लिमिटेड के डायरेक्टर प्रोबल घोषाल ने हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं के अखबारों द्वारा अपनाए जा रहे डिजिटल सबस्क्रिप्शन मॉडल को लेकर रखी अपनी बात
कोरोनावायरस (कोविड-19) के खौफ के कारण देश में चल रहे लॉकडाउन के बीच विभिन्न अखबारों के ई-पेपर्स और ऑनलाइन कंटेंट की मांग में काफी इजाफा हुआ है। इस बीच तमाम अखबार अपने ई-पेपर्स को पेवॉल (paywalls) यानी पेड सबस्क्रिप्शन की ओर ले जा रहे हैं। हिंदी और प्रादेशिक भाषा के कई अखबारों द्वारा डिजिटल सबस्क्रिप्शन मॉडल की दिशा में बढ़ाए जा रहे कदम को लेकर हमारी सहयोगी बेवसाइट ‘एक्सचेंज4मीडिया’ (exchange4media) ने ‘अमर उजाला लिमिटेड’ के डायरेक्टर प्रोबल घोषाल से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
देश के तमाम बड़े अंग्रेजी अखबार अपने ऑनलाइन कंटेंट से मुद्रीकरण (monetisation) के लिए इसे पेवॉल के पीछे ले जाने की प्लानिंग कर रहे हैं। इस बारे में आपका क्या नजरिया है। आपको क्या लगता है कि अन्य अखबार खासकर हिंदी और प्रादेशिक भाषा के अखबार भी इस राह पर चलेंगे?
हाल के दिनों में देखें तो विभिन्न अखबारों के डिजिटल कंटेंट का उपभोग (consumption) यानी इस्तेमाल काफी बढ़ा है, चाहे वह ई-पेपर का सबस्क्रिप्शन हो अथवा यूजर्स द्वारा ऑनलाइन न्यूज कंटेंट का इस्तेमाल किया जाना हो। हाल ही में आई ‘इंडियन रीडरशिप सर्वे’ (IRS) की रिपोर्ट में भी इस पर प्रकाश डाला गया है। इस बढ़ते हुए ट्रेंड को देखते हुए ही हमने अपने आप पहल करते हुए पिछले साल नाममात्र के मूल्य पर ई-पेपर के लिए पेड मॉडल लॉन्च किया था। हालांकि, जब हम अंग्रेजी अखबारों के सबस्क्रिप्शन प्लान्स पर नजर डालते हैं तो उनके सबस्क्रिप्शन ऑफलाइन अखबारों की कीमत के बराबर ही हैं। चूंकि, ई-पेपर पढ़ने की आदत लोगों में काफी कम है, क्योंकि ई-पेपर की रीडरशिप एक पाठक तक ही सीमित होती है, जबकि जो अखबार फिजिकल घरों में पहुंचता है, उसे तमाम पाठक आपस में शेयर कर लेते हैं। यही कारण है कि महंगे सबस्क्रिप्शन प्लान की सफलता सीमित हो जाती है।
हमने अपने सबस्क्रिप्शन प्लान के लिए काफी नाममात्र कीमत रखी है, क्योंकि हमारा प्राथमिक उद्देश्य पाठकों में इसे पढ़ने की आदत को बढ़ावा देना है। वास्तव में कोविड-19 के दौरान ई-पेपर/ऑनलाइन कंटेंट सबस्क्रिप्शन मॉडल्स के लिए यह बहुत जरूरी है, ताकि बिजनेस को निर्वाह और अस्तित्व को बनाए रखा जा सके। वर्तमान में इसकी उपलब्धता एक बड़ा इश्यू है, लोग विश्वसनीयता के कारण अपनी पसंद के अखबार को पढ़ने के लिए देख रहे हैं और यह पाठक की ब्रैंड के प्रति निष्ठा है। इसलिए यदि लोगों को अपने हाथ में अखबार नहीं मिल रहा है तो वे इसे ऑनलाइन हासिल कर रहे हैं और इसके लिए भुगतान भी करते हैं। वास्तव में, स्थिति सामान्य हो जाने के बाद भी लोग अपनी इसी आदत के कारण ई-पेपर पढ़ते रहेंगे और इस बदले हुए व्यवहार के कारण अखबारों को भी अपने कंटेंट के लिए मुद्रीकरण का अवसर मिलेगा।
भारतीय प्रिंट मार्केट के लिए सबस्क्रिप्शन आधारित मॉडल के बारे में आपका क्या कहना है? आपको इस बारे में किस तरह की उम्मीद है। यदि भारतीय कंपनियां अपने पाठकों से ऑनलाइन कंटेंट का भुगतान करने के लिए कहेंगी, तो उनके सामने किस तरह की चुनौतियां होंगी?
प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री में एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू में हम पिछले कई सालों से स्थिरता देख रहे हैं। ऐसे में देश के न्यूजपेपर बिजनेस का भविष्य़ डिजिटल कंटेंट/ईपेपर के मुद्रीकरण के साथ ही अखबार की कीमत में बढ़ोतरी का मिश्रण होगा। चूंकि दोनों चीजों का सहअस्तित्व है, इसलिए एक भरोसेमंद और प्रतिष्ठित अखबार अपने अखबार के मूल्य को बढ़ाने के साथ ही ऑनलाइन कंटेंट से मुद्रीकरण करने में सक्षम होगा। हालांकि, टियर-दो/टियर-तीन (tier 2/tier 3) शहरों और ग्रामीण मार्केट में ऑनलाइन सबस्क्रिप्शन का मूल्य जरूर प्रभाव डालेगा।
इसके साथ ही हमें यह भी समझने की जरूरत है कि अखबार पढ़ने की आदत, क्रेडिबिलिटी और इंफार्मेशन के कारण एक पाठक वर्ग हमेशा बना रहेगा। इसलिए एक प्रतिष्ठित न्यूजपेपर को ब्रैंड के लाभ को ध्यान में रखते हुए अखबार की कीमत यानी कवर प्राइस को बढ़ाने के साथ ही नई पीढ़ी के ऑडियंस/यूजर्स के लिए ऑनलाइन कंटेंट के मुद्रीकरण पर भी काम करना होगा।
यही नहीं, निकट भविष्य में जीडीपी ग्रोथ बढ़ने के कारण टियर-दो/टियर-तीन मार्केट में प्रिंट की ग्रोथ बढ़ेगी। इसके अलावा इन मार्केट्स में अखबारों की अपनी भी वैल्यू है। इससे कुछ समय के लिए एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू को थोड़ा बल जरूर मिलेगा, लेकिन यह समग्र लाभ के दृष्टिकोण से पर्याप्त नहीं होगा। ऐसे में ब्रैंड्स को ऐसे मिक्स प्लान पर काम करना होगा, जिसमें अखबार का कवर मूल्य बढ़ाने के साथ ही ऑनलाइन सबस्क्रिप्शन मॉडल से भी कमाई हो। हालांकि, शुरुआत में समग्र परिदृश्य में ई-पेपर के सबस्क्रिप्शन मॉडल का योगदान इसमें काफी कम होगा, लेकिन तेजी से बदलती हुईं कंज्यूमर्स की आदतों और ई-पेपर व ऑनलाइन कंटेंट की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ भविष्य में बदलाव जरूर होगा।
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एस्सेल ग्रुप के चेयरमैन डॉ. सुभाष चंद्रा ने 'जी बिजनेस' (Zee Business) को दिए इंटरव्यू में साफ किया ‘डिश टीवी’ (Dish TV) हमारे ग्रुप की कंपनी नहीं है। उन्होंने कहा कि ‘डिश टीवी’ मेरे छोटे भाई जवाहर गोयल की कंपनी है और आज की तारीख में यह पूरी तरह से कर्ज मुक्त कंपनी है।
उन्होंने कहा कि यस बैंक से डिश टीवी को लेकर कुछ विवाद है, मामला कोर्ट में है। एस्सेल ग्रुप की हर कंपनी में निवेश करके लोगों ने पैसा बनाया है। डिश टीवी के लेंडर्स बिना प्रोमोटर के कंपनी चलाना चाहते हैं, तो चलाएं!
इंटरव्यू के दौरान डॉ. सुभाष चंद्रा ने न केवल अपने फ्यूचर प्लान बताएं, बल्कि यह भी बताया कि कब तक कंपनी कर्ज मुक्त हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इस विषय पर हमेशा खुलकर बात की है। पिछले साल एक ओपन लेटर में हमने बताया था कि 92 फीसदी से ज्यादा कर्ज चुका दिया गया है। उसके बाद भी कर्ज चुकाया गया है और अब थोड़ा ही बचा है। उन्होंने कहा कि हमारी कोशिश थी कि कि 31 मार्च 2023 तक हम सारे कर्ज चुका ले, लेकिन कुछ परिस्थितियों की वजह से देरी हुई है। कुछ एसेट्स की बिक्री नहीं हुई है, लेकिन जैसे ही कुछ फाइनल होता है, पूरी तरह से कर्ज मुक्त हो जाएंगे।
डॉ. सुभाष चंद्रा ने कहा लेनदारों ने एस्सेल ग्रुप को बहुत ज्यादा सपोर्ट किया है। लेनदार जानते हैं कि एस्सेल ग्रुप ने अपने कीमती एसेट्स बेचकर कर्ज चुकाया है। एस्सेल ग्रुप ने लेनदारों के 40,000 करोड़ रुपए चुकाए हैं। ग्रुप ने अब तक 40,000-50,000 करोड़ रुपए का सिर्फ ब्याज चुकाया है। 1967 से लेकर 2019 तक एस्सेल ग्रुप ने कभी डिफॉल्ट नहीं किया।
इस दौरान डॉ. सुभाष चंद्रा ने जी एंटरटेनमेंट-सोनी मर्जर को लेकर कहा कि इस प्रक्रिया में मेरा कोई बड़ा योगदान नहीं है। जी एंटरटेनमेंट-सोनी पर मेरा कुछ बोलना ठीक नहीं रहेगा। इसके लिए कंपनी के CEO ज्यादा बेहतर बता पाएंगे, लेकिन जितना मेरी जानकारी है जी एंटरटेनमेंट-सोनी मर्जर जल्द पूरा होने की उम्मीद है।
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‘लोकमत मीडिया ग्रुप’ के चेयरमैन डॉ. विजय दर्डा ने समाचार4मीडिया से बातचीत में अपनी नई किताब-रिंगसाइड: अप, क्लोज एंड पर्सनल ऑन इंडिया एंड बियॉन्ड समेत मीडिया से जुड़े अहम पहलुओं पर अपनी राय रखी है।
‘लोकमत मीडिया ग्रुप’ के चेयरमैन व राज्यसभा के पूर्व सदस्य डॉ. विजय दर्डा की किताब 'रिंगसाइड: अप, क्लोज एंड पर्सनल ऑन इंडिया एंड बियॉन्ड' (RINGSIDE: Up, Close and Personal on India and Beyond) ने मार्केट में दस्तक दे दी है। ‘दिल्ली स्थित कॉन्स्टीयूशन क्लब ऑफ इंडिया’ में तमाम राजनेताओं, नौकरशाहों और वरिष्ठ पत्रकारों की मौजूदगी में 30 मई को इस किताब की लॉन्चिंग हुई। इस मौके पर विजय दर्डा ने अपनी किताब के साथ-साथ मीडिया से जुड़े तमाम पहलुओं पर समाचार4मीडिया से खास बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले अपनी इस नई किताब ‘रिंगसाइड-अप, क्लोज एंड पर्सनल ऑन इंडिया एंड बियॉन्ड’ के बारे में हमें बताएं कि आखिर इसमें क्या खास है और यह किस बारे में है। पाठकों को यह किस प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध होगी?
यह किताब मेरे साप्ताहिक लेखों का एक संकलन है, जो वर्ष 2011 और 2016 के बीच लोकमत मीडिया समूह के समाचार पत्रों और देश के अन्य प्रमुख राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय दैनिक अखबारों में प्रकाशित हुए थे। इसमें विज्ञान, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, सामाजिक विकास, खेल, कला, संस्कृति, विदेश नीति और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों से जुड़े शोधपूर्ण आलेख शामिल हैं। इसके अलावा इस किताब में प्रख्यात व्यक्तित्वों के बारे में टिप्पणियां भी शामिल हैं, जिन्होंने भारत और दुनिया में सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। रही बात इस किताब की उपलब्धता की तो यह हमसे प्राप्त की जा सकती है, अथवा इसे एमेजॉन पर भी ऑर्डर किया जा सकता है।
आप मीडिया में लंबे समय से हैं। इतने लंबे कार्यकाल के दौरान आपने पत्रकारिता को काफी बारीकी से देखा है। वर्तमान दौर में मीडिया की दशा और दिशा को लेकर क्या कहेंगे?
देखिए, बदलाव समय की मांग है। समय-समय पर बदलाव आते रहते हैं। आजादी की पत्रकारिता आज के दौर में नहीं हो सकती है। आज के दौर की पत्रकारिता यदि आजादी के समय में होती तो उसे जस्टिस नहीं दे पाती। कहने का मतलब है कि समय के साथ बदलाव होते रहते हैं और समय के साथ में लोग भी बदलते रहते हैं।
आज का दौर डिजिटल मीडिया का दौर कहलाता है। या यूं कहें कि डिजिटल मीडिया काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। आजकल तमाम माध्यमों से लोगों को जरूरी सूचनाएं तुरंत ही मिल जाती है, जबकि अखबार अगले दिन आता है। ऐसे में प्रिंट मीडिया खासकर अखबारों के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?
आज भी लोगों की सबसे ज्यादा विश्वसनीयता अखबार पर है। डिजिटल अथवा अन्य तमाम मीडिया प्लेटफॉर्म्स को अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।
लंबे समय से इस तरह की तमाम खबरें सुनने को मिलती हैं कि टीवी और अब डिजिटल के तेजी से बढ़ने के बाद प्रिंट का दौर जल्द ही खत्म हो जाएगा। लेकिन कुछ समय पहले जब दिल्ली में ‘विश्व पुस्तक मेले’ का आयोजन हुआ था, उसमें इतने ज्यादा लोग पहुंचे थे कि पांव रखने तक की जगह नहीं थी। इसे किस रूप में देखते हैं और इस बारे में क्या कहेंगे?
प्रिंट कभी खत्म नहीं होगा। मैं यही कहूंगा कि यदि आपके संस्कार पक्के हैं तो कुछ खत्म नहीं होता। इसलिए यह कहना बेमानी है कि प्रिंट का दौर खत्म हो जाएगा। मेरे हिसाब से ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है।
आजकल एक और शब्द फेक न्यूज की काफी चर्चा होती है। पीआईबी समेत तमाम संस्थानों ने अपनी फैक्ट चेक टीम बना रखी है। क्या फेक न्यूज पर लगाम लगाने के लिए वर्तमान में उठाए जा रहे कदम पूरी तरह कारगर हैं। आपकी नजर में इसकी रोकथाम के लिए क्या कोई ठोस ‘फॉर्मूला’ है?
बिलकुल, फेक न्यूज पर लगाम लगाने का सीधा सा फंडा यही है कि अगर आप (मीडिया) ईमानदारी से काम करेंगे तो फेक न्यूज नहीं आएगी।
तमाम अखबारों ने अब सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है, यानी बिना सबस्क्राइब किए पाठक अब उन अखबारों को इंटरनेट पर नहीं पढ़ सकते हैं। इस मॉडल के बारे में आपका क्या कहना है? क्या आपको नहीं लगता कि इससे रीडरशिप प्रभावित होती है। क्योंकि डिजिटल रूप से समृद्ध पाठकों के पास आज सूचना प्राप्त करने के तमाम स्रोत हैं। ऐसे में वे पैसा देकर ऑनलाइन अखबार क्यों पढ़ना चाहेंगे? इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?
इस बारे में मैं यही कहूंगा कि यदि मान लीजिए कि आपकी कोई दुकान है और मुझे उसमें से सामान लेना है तो मुझे पैसा तो देना पड़ेगा। जो लोग पैसा देकर अखबार नहीं पढ़ना चाहते हैं, वो लाइब्रेरी अथवा संग्रहालय में जाकर इसे पढ़ सकते हैं। रही बात ऑनलाइन अखबार पढ़ने की तो यदि कुछ संस्थानों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है यानी सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है तो आपको उसे पढ़ने के लिए सबस्क्राइब तो करना ही पड़ेगा।
देश में टीवी न्यूज की दुनिया में अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) एंकर्स की एंट्री भी हो चुकी है। एक मीडिया संस्थान ने तो बाकायदा इनसे खबरें पढ़वाना भी शुरू कर दिया है। इसे आप चुनौती अथवा अवसर किस रूप में देखते हैं?
इसे मैं किसी तरह की चुनौती के रूप में नहीं देखता हूं। जीवन के अंदर कोई चुनौती नहीं है, सवाल यह है कि आपका लक्ष्य क्या है। अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ गया है, लेकिन दुनिया में सबसे पहले लोकमत ग्रुप ने ऐसा सॉफ्टवेयर बनाया है, जो अपनी खबरों का दर्जा बताता है कि वह एक स्टार है, दो स्टार है, तीन स्टार है अथवा पांच स्टार है। तमाम टॉप कंपनियां हमसे उसे मांग रही हैं। मेरा मानना है कि आपको पाठकों को अच्छा और विश्वसनीय कंटेंट उपलब्ध कराना होगा।
इतनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए आप काफी व्यस्त रहते हैं। ऐसे में परिवार के लिए किस तरह समय निकाल पाते हैं?
ऐसा करना कुछ मुश्किल काम नहीं है। बस, टाइम मैनेजमेंट से सारी चीजें बैलेंस हो जाती हैं।
खाली समय में आपको क्या करना पसंद है?
दिक्कत यही है कि मेरे पास बिल्कुल भी खाली समय नहीं है। मैं देर रात तक काम करता हूं। मेरी कई कविताएं इधर-उधर हो रखी हैं, मुझे उन्हें समेटना है और किताब की शक्ल देनी है, लेकिन इसके लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है।
आप अभी तक कई किताबें लिख चुके हैं। हाल ही में आपकी यह किताब आई है। क्या आप निकट भविष्य में कोई नई किताब लिखने की योजना बना रहे हैं।
बिलकुल, मेरी नई किताब अगले महीने आने वाली है। ‘The Churn’ नाम से यह किताब पार्लियामेंट के बारे में है।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।‘माय एफएम’(MY FM) में चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर राहुल नामजोशी ने रेडियो इंडस्ट्री से जुड़े तमाम अहम मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी है।
देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में शुमार ‘डीबी कॉर्प लिमिटेड’ (D. B. Corp Ltd) की रेडियो डिविजन ‘माय एफएम’(MY FM) में चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर (CEO) राहुल नामजोशी का मानना है कि रेडियो इंडस्ट्री क्या चाहती है और सरकार क्या फैसला करती है, इसके बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिए। राहुल नामजोशी के अनुसार, मार्केट में तमाम अवसर मौजूद हैं। हमारी सहयोगी वेबसाइट ‘एक्सचेंज4मीडिया’ (exchange4media) से बातचीत में राहुल नामजोशी ने रेडियो इंडस्ट्री से जुड़े ऐसे ही तमाम प्रमुख मुद्दों पर विस्तार से अपनी बेबाक राय रखी है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
उत्तर-पश्चिम भारत के छह से ज्यादा राज्यों में ‘माय एफएम’ के स्टेशन हैं। क्या दक्षिण के मार्केट में इसके विस्तार की कोई योजना है?
हम अपना पूरा फोकस उत्तर और पश्चिम पर केंद्रित करना चाहते हैं। हम जनसांख्यिकी (demography) और भाषाओं के मामले में दक्षिण भारत के मार्केट्स से अच्छी तरह वाकिफ नहीं हैं, इसलिए हम दक्षिण में निवेश करने से हिचकते हैं। हालांकि, हम उत्तर और पश्चिम भारत में अपने मार्केट्स का विस्तार करना जारी रखेंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार किस तरह का आधार मूल्य (base price) तय करती है।
इस वित्तीय वर्ष को आप किस तरह देख रहे हैं। कुछ शुरुआती ट्रेंड्स नजर आ रहे हैं?
हमारे बिजनेस की यही खासियत है कि हम बिजनेस के आने का इंतजार नहीं करते हैं, बल्कि हम उसे बनाने पर काम करते हैं और यह सृजन हमारे रेवेन्यू का लगभग 25% से 30% है। हमारे प्राइमरी मार्केट टियर II और III मार्केट्स हैं, जहां देश का विकास निहित है। आज लगभग सभी कैटेगरी इन मार्केट्स पर फोकस कर रही हैं। इसके अलावा, हम ज्यादा वॉल्यूम (highest volume) हासिल करने की दौड़ में नहीं हैं, लेकिन वैल्यू की तलाश करते हैं। हमें पूरा विश्वास है कि यह वित्तीय वर्ष हमारे लिए सबसे अच्छा होगा।
केंद्र सरकार एफएम ब्रॉडकास्ट की नीलामी की योजना बना रही है। आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?
हमें अभी तक सरकार से इस बारे में कोई सूचना नहीं मिली है। हालांकि, रेडियो इंडस्ट्री क्या चाहती है और सरकार क्या निर्णय लेती है, इसके बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिए। हमने हाल ही में सरकार के साथ सकारात्मक बैठक की है और देश में निजी एफएम के विकास को बढ़ावा देने के लिए उनसे अपनी अपेक्षाएं शेयर की हैं। तीसरे चरण के लिए रेडियो इंडस्ट्री के बारे में अभी कुछ नहीं कह सकते हैं। तीसरे बैच की नीलामी सही मूल्य पर निर्भर है। पिछले साल तीसरे चरण के बैचों ने ज्यादा ध्यान आकर्षित नहीं किया था, क्योंकि आधार मूल्य यानी बेस प्राइस बहुत ज्यादा था। इसके अलावा, रेडियो बिजनेस एक कमाऊ बिजनेस है इसलिए हम प्रॉफिटेबल बिजनेस बने रहने के लिए अपने खर्चों पर नजर रखते हैं।
रेडियो स्टेशनों में निवेश को लेकर आपकी क्या प्लानिंग है?
हम एक आशावादी ब्रैंड हैं और इस वित्तीय वर्ष को लेकर बहुत उत्साहित हैं, हमारे पास आगामी वर्ष के लिए कई प्रमुख योजनाएं हैं। हम अभी इस बारे में ज्यादा कुछ शेयर नहीं कर सकते हैं, लेकिन जल्द ही आपको कई नए शो की लॉन्चिंग और अन्य घोषणाएं सुनने को मिलेंगी। मानव संसाधनों (ह्यूमन रिसोर्स) में निवेश के अलावा हम टेक्नोलॉजी में निवेश करेंगे।
‘टैम’ (TAM) की रिपोर्ट्स के अनुसार, कोविड और उसके बाद रेडियो पर विज्ञापनों की मात्रा (radio ad volume) काफी बढ़ गई। अब विज्ञापन बिजनेस कैसा चल रहा है और अगले वर्ष कौन से ब्रैंड ‘माय एफएम’ में निवेश कर रहे हैं?
एफएमसीजी, शिक्षा, रियल एस्टेट और हेल्थकेयर श्रेणी के अलावा, ज्वेलरी ब्रैंड्स रीजनल मार्केट्स में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा, नेशनल ब्रैंड्स धीरे-धीरे रीजनल मार्केट्स की ओर बढ़ रहे हैं, क्योंकि इनका ROI (Return on Investment) अपेक्षित अधिक है और स्थानीय ब्रैंड्स को कड़ी टक्कर देने के लिए तमाम नेशनल ब्रैंड्स रेडियो जैसे हाइपर लोकल माध्यमों में भारी निवेश कर रहे हैं।
वर्तमान में रेडियो किस तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है?
रेडियो ब्रॉडकास्टर्स को न्यूज प्रसारित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। अधिकांश निजी एफएम चैनल्स प्रतिष्ठित मीडिया समूहों के स्वामित्व में हैं और हमें ‘प्रसार भारती’ से न्यूज लेने के बजाय खुद न्यूज जुटाने और उसे अपनी शैली में प्रसारित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। रेडियो पर न्यूज गेमचेंजर साबित होगी।
सरकार ने पिछले दिनों एक एडवाइजरी जारी की है कि सभी मोबाइल फोन में एफएम रेडियो की सुविधा होनी चाहिए। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
यह काफी अच्छी बात है और इससे रेडियो श्रोताओं की संख्या में और बढ़ोतरी होगी। हम इस एडवाइजरी के लिए सरकार के आभारी हैं और हमें उम्मीद है कि लोगों के हित में सभी मोबाइल निर्माता सभी मोबाइल फोन में रेडियो एफएम की उपलब्धता सुनिश्चित करेंगे।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।मीडिया से जुड़े तमाम अहम सवालों पर वरिष्ठ पत्रकार और ‘दैनिक जागरण’ (Dainik Jagran) समूह में एग्जिक्यूटिव एडिटर विष्णु त्रिपाठी ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है।
मीडिया की वर्तमान दशा व दिशा क्या है, टीवी व डिजिटल के तेजी से बढ़ते कदमों के बीच प्रिंट मीडिया का भविष्य कैसा है और आखिर मीडिया की विश्वसनीयता पर क्यों सवाल उठ रहे हैं? मीडिया से जुड़े ऐसे ही तमाम अहम सवालों पर वरिष्ठ पत्रकार और ‘दैनिक जागरण’ (Dainik Jagran) समूह में एग्जिक्यूटिव एडिटर विष्णु त्रिपाठी ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले अपने बारे में बताएं। आपने किस तरह और कहां से पत्रकारिता की शुरुआत की। इस मुकाम तक पहुंचने का आपका सफर कैसा रहा?
वर्ष 1982 में मैंने कानपुर से मीडिया में कदम रखा था। जैसा कि आम परिवारों में होता है। ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने नौकरी की तलाश शुरू कर दी। उस समय मैं संपादक के नाम पत्र (Letter to Editor) लिखता था। तमाम अखबारों में आर्टिकल लिखता था। उन दिनों कानपुर से एक सांध्य दैनिक ‘लोक जनसमाचार’ निकलता था। मैं उससे जुड़ गया। वहां काफी काम किया और मुझे काफी सीखने को मिला। इसके बाद दिसंबर 1985 से अखबार की वास्तविक नौकरी में आया। सबसे पहले हिंदी दैनिक ‘आज’ को कानपुर में जॉइन किया। इसके बाद आगरा में ‘दैनिक जागरण’ और फिर ‘आज’ दोनों की लॉन्चिंग टीम में शामिल रहा। आगरा से जून 1988 में दैनिक जागरण, लखनऊ जॉइन किया और तब से इस अखबार में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं।
मीडिया में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान आपने पत्रकारिता को काफी बारीकी से देखा है। आपकी नजर में पहले के मुकाबले वर्तमान दौर की पत्रकारिता में क्या बदलाव आया है। क्या यह सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। इस बदलाव को आप किस रूप में देखते हैं?
मेरा मानना है कि पहले के मुकाबले पत्रकारिता की दुनिया में काफी बेहतरी आई है। समय के अनुकूल काफी चीजें बदली हैं। तकनीकी रूप से भी काफी समृद्धि हुई है। हमने जब अखबार की दुनिया में शुरुआत की थी, उस समय हैंड कंपोजिंग होती थी। सिलेंडर पर छपाई होती थी। उसके बाद कंप्यूटर का दौर आया। कहने का मतलब है कि समय के साथ तकनीकी तौर पर मजबूती अधिक आई है।
कंटेंट की क्वालिटी को लेकर एकबारगी चर्चा और बहस हो सकती है, लेकिन तकनीकी और प्रस्तुतिकरण के स्तर पर काफी समृद्धि आई है। लेआउट और डिजाइन की समझ भी काफी बेहतर हुई है। जहां तक कंटेंट क्रिएशन की बात है, तो इसमें प्रोफेशनलिज्म और फॉर्मेलिटी बहुत आई है। हालांकि, इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू हैं, लेकिन औपचारिकता आने से प्रोसेस और लेखन, दोनों में परिपक्वता आई है।
आज का दौर डिजिटल मीडिया का दौर कहलाता है। या यूं कहें कि डिजिटल मीडिया काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। आजकल तमाम माध्यमों से लोगों को जरूरी सूचनाएं तुरंत ही मिल जाती है, जबकि अखबार अगले दिन आता है। ऐसे में प्रिंट मीडिया खासकर अखबारों के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?
इंटरनेट मीडिया और वेबसाइट्स आने के बाद से मैं वर्ष 1999-2000 से इस बात को सुन रहा हूं कि अखबारों का भविष्य अंधकारमय है। अब अखबार कम छपेंगे। अखबार कम पढ़े जाएंगे और लोग वेबसाइट्स पर तुरंत खबर पढ़ लेंगे, जैसी तमाम बातें होती थी। ‘दूरदर्शन’ के बाद जब निजी न्यूज चैनल्स आए तो उस समय इस तरह की काफी बहस छिड़ी थी। उस समय पूरे दैनिक जागरण समूह की एक वर्कशॉप भी इसे लेकर हुई थी।
उस समय यह बहस शुरू हुई थी कि अब टीवी के आने के बाद जब लोग अपने घरों में बैठकर रात को सारी खबरें देख लेंगे तो सुबह अखबार कौन पढ़ेगा? लेकिन, उसके बाद भी न सिर्फ अखबारों की संख्या बढ़ी है, बल्कि रीडरशिप भी बढ़ी है। इसके बाद तमाम वेबसाइट्स के आने से भी इस तरह की बहस आए दिन छिड़ती रहती है। मेरा मानना है कि जो तत्काल मिलती है, वह सूचना होती है। वह समाचार नहीं होता है। सूचना के बाद समाचार का नंबर आता है। सूचना और समाचार दोनों में अंतर होता है। यानी जो ब्रेकिंग के तौर पर तुरंत मिली, उसे हम सिर्फ सूचना यानी इंफॉर्मेशन कह सकते हैं। उसकी डिटेलिंग समाचार कहलाती है। न्यूज के बाद की जो डिटेलिंग होती है, उसे स्टोरी कहते हैं। स्टोरी के बाद फिर लगातार उसके फॉलोअप्स होते हैं।
यानी, समाचार की जो प्रक्रिया होती है, उसमें हमें ये चार चरण (इंफॉर्मेशन, न्यूज, स्टोरी और फॉलोअप्स) सिखाए गए हैं। इसमें अखबार का कोई सानी नहीं है। छपे हुए को पढ़ने का जो अभ्यास, संतुष्टि और आनंद है, वह अलग ही होता है। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि कुछ समय पहले जब दिल्ली में ‘विश्व पुस्तक मेले’ का आयोजन हुआ था, उसमें इतने ज्यादा लोग पहुंचे थे कि पांव रखने तक की जगह नहीं थी। आप ये देखिए कि यदि लोगों में पढ़ने का अभ्यास कम हो रहा है अथवा नई पीढ़ी यदि पढ़ने के अभ्यास से विमुख हो रही है तो तमाम बड़े-बड़े लेखक जो एडवांस में रॉयल्टी लेकर लिखते हैं या विदेश जाकर बड़े-बड़े होटलों में कमरे लेकर लेखन कर रहे हैं तो वो ऐसा कैसे कर पा रहे हैं, अंततः यह सब पाठकों के बढ़ते समूह के सौजन्य से ही हो पा रहा है। यानी लोगों में पढ़ने का क्रेज या अभ्यास बढ़ रहा है।
इसलिए मेरा मानना है कि अखबारों का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। हां, अखबारों का भविष्य समाचार माध्यमों की किसी दूसरी विधा के हाथों में सुरक्षित अथवा असुरक्षित नहीं है। चाहे वह टीवी मीडिया हो, डिजिटल मीडिया हो अथवा इंटरनेट मीडिया हो। अखबार यदि सुरक्षित हैं तो वह अखबारों में काम करने वाले गंभीर और कुशल लोगों के हाथों में सुरक्षित हैं। कल को यदि प्रिंट मीडिया को किसी तरह का कोई क्षरण अथवा नुकसान होता है तो वह अखबारों में काम करने वाले लोगों की गंभीरता में अथवा कुशलता में कमी की वजह से होगा, अन्य किसी बाहरी माध्यमों से नहीं।
अब बात करते हैं फेक न्यूज की, जिसकी आजकल काफी चर्चा हो रही है। फेक न्यूज को लेकर आपका क्या कहना है, आखिर यह क्यों इतनी बढ़ रही है?
देखिए, फेक न्यूज दो प्रकार की होती है। फेक न्यूज यानी गलत खबरें हमेशा से छपती रही हैं। यदि किसी दुर्घटना की वजह, किसी गलतफहमी की वजह से, कम सतर्कता की वजह से अथवा असावधानी की वजह से अगर कोई गलत खबर अथवा गलत सूचना प्रकाशित होती है तो उसका शुद्धिकरण/परिमार्जन किया जाना चाहिए। लेकिन, यदि योजनाबद्ध तरीके से अथवा नियोजित तरीके से किसी गलत, अनुचित या निराधार सूचना/समाचार का प्रकाशन होता है तो उसे संगीन अपराध की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। उसे संज्ञेय अपराध माना जाना चाहिए और ऐसा करने वालों को समाजद्रोही और राष्ट्रद्रोही के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए।
क्या आपको लगता है कि फेक न्यूज पर लगाम लगाने के लिए वर्तमान में उठाए जा रहे कदम कारगर हैं। जैसे-पीआईबी समेत तमाम संस्थानों ने अपनी फैक्ट चेक टीम बना रखी है। आपकी नजर में इसकी रोकथाम के लिए क्या कोई ठोस ‘फॉर्मूला’ है?
यहां सवाल सिर्फ नैतिकता का है। तमाम ऐसी संस्थाएं हैं, जो अपने स्तर पर फैक्ट चेक करती हैं। वे लोगों को जागरूक कर रही हैं, सतर्क कर रही हैं। हम इसका स्वागत करते हैं। बस देखने वाली बात यह है कि जो लोग योजनाबद्ध तरीके से और अपने हिसाब से चीजों को सही साबित करने के लिए गलत सूचना प्रसारित/प्रकाशित करते हैं, उन पर इन एजेंसियों की सक्रियता का कितना असर पड़ रहा है?
उनके लिए तो इन एजेंसियों की सक्रियता ठीक है जो कभी असावधानी अथवा प्रक्रिया में किसी कमी या किसी का वर्जन न लेने के चक्कर में गलत सूचना को प्रसारित कर बैठते है, क्योंकि वे इससे सबक लेते हैं। लेकिन, जो लोग अपने हित के लिए और अपनी वैचारिकता के आधार पर गलत चीजों को फैलाने अथवा किसी को आक्षेपित करने के लिए, किसी की छवि बिगाड़ने के लिए जानते-बूझते हुए योजनाबद्ध तरीके से गलत तथ्यों और गलत विजुअल्स का प्रकाशन/प्रसारण करते हैं, वह खतरनाक है। ऐसे लोग इन एजेंसियों की सक्रियता से कितना सबक लेते होंगे और कितना सीखते होंगे, यह सोचने का विषय है।
अब कोविड लगभग खत्म हो चुका है। हालांकि, कुछ केस अभी भी आ रहे हैं, लेकिन अब पहले वाली स्थिति नहीं है। ऐसे में अखबारों के नजरिये से वर्तमान दौर को आप किस रूप में देखते हैं। क्या अखबार कोविड से पहले के दौर की तरह अपनी पहुंच फिर बनाने में कामयाब हो रहे हैं?
बिलकुल, कई अखबार काफी तेजी से कोविड से पहले वाली स्थिति की तरफ लौट रहे हैं। यहां विशेषकर मैं अपने अखबार की और दिल्ली-एनसीआर की बात करूं तो रिकवरी काफी अच्छी हो रही है। कोविड के दौरान जब तमाम अखबारों का सर्कुलेशन थोड़ा प्रभावित हुआ था, तो दो तरह की बातें थीं। कुछ लोगों ने संक्रामकता के संदेह में अखबार न पढ़ने का फैसला कर लिया था। हालांकि, तमाम ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने अपने स्तर पर इस धारणा को गलत माना था।
ऐसे लोगों का मानना था कि अखबार से किसी तरह का वायरस नहीं फैलता है और उन्होंने तभी से अखबार पढ़ना शुरू कर दिया था। कई लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने अपने जीवन में अखबार की कमी महसूस की। जब तमाम अन्य माध्यमों से इन लोगों की समाचार की और बौद्धिकता की भूख शांत नहीं हुई तो उन्होंने दोबारा से अखबार मंगाना शुरू कर दिया। ऐसे में मैं अपने अखबार के आधार पर कह सकता हूं कि प्रिंट इंडस्ट्री फिर से आगे बढ़ रही है।
तमाम अखबारों ने अब सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है, यानी बिना सबस्क्राइब किए पाठक अब उन अखबारों को इंटरनेट पर नहीं पढ़ सकते हैं। इस मॉडल के बारे में आपका क्या कहना है? क्या आपको नहीं लगता कि इससे रीडरशिप प्रभावित होती है। क्योंकि डिजिटल रूप से समृद्ध पाठकों के पास आज सूचना प्राप्त करने के तमाम स्रोत हैं। ऐसे में वे पैसा देकर ऑनलाइन अखबार क्यों पढ़ना चाहेंगे? इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?
ऐसा नहीं है। इस बारे में मैं कहूंगा कि यह क्वालिटी की बात है। जो व्यक्ति किसी भी प्रॉडक्ट को खरीदना, पढ़ना या सुनना यानी किसी भी तरह से इस्तेमाल करना चाहता है, अंतत: उस व्यक्ति की ख्वाहिश उस प्रॉडक्ट की क्वालिटी को लेकर ही होती है। मैं आपको इसे कुछ उदाहरणों से समझाता है कि जैसे पहले एक साबुन आया था, उसके बारे में विज्ञापन किया गया कि यदि आप इस साबुन को इस्तेमाल करेंगे तो इसके अंदर से सोने का सिक्का निकल सकता है, लेकिन वह साबुन मार्केट से गायब हो गया। इसका कारण यही रहा कि पहले तो उसमें से सोने का सिक्का निकलने की गारंटी नहीं थी, दूसरा यदि कोई व्यक्ति साबुन खरीदता है तो वह साफ-सफाई के लिए खरीदता है न कि सोने के सिक्के के लिए।
ऐसे ही एक ब्लेड का विज्ञापन था कि आपको चार ब्लेड के पैक में पांच ब्लेड मिलेंगे। लेकिन, यदि कोई भी व्यक्ति यदि ब्लेड खरीदेगा तो उसकी क्वालिटी पहले देखेगा और जरा भी खराब होने पर वह उसे पसंद नहीं करेगा, फिर चाहे उसे कितने ही ब्लेड और फ्री में क्यों न दिए जाएं। यही बात खबर और मीडिया माध्यमों पर लागू होती है। अब लोगों की क्रय शक्ति बढ़ रही है, ऐसे में यदि लोगों को अच्छी खबर पढ़ने की चाहत होगी और मीडिया इंडस्ट्री यदि अच्छा कंटेंट देगी तो उसका पैसा भी लेगी और लोग देंगे भी। यह बाजार का सिद्धांत है।
तमाम अखबारों में एडिटोरियल पर मार्केटिंग व विज्ञापन का काफी दबाव रहता है। आपकी नजर में एक संपादक इस तरह के दबावों से किस तरह मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से संपादकीय कार्यों का निर्वहन कर सकता है?
हमारे अखबार में एडिटोरियल पर इस तरह का कोई दबाव नहीं है। मार्केटिंग या विज्ञापन विभाग के लोग अपना काम कर रहे हैं, उन्हें अपना काम करने देना चाहिए, लेकिन यह संपादक की अपनी इच्छाशक्ति, उसकी दृढ़ता और वैचारिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है कि वह कितना दबाव महसूस करता है। मेरा मानना है कि न्यूज के लिहाज से जितनी जरूरत होगी, उतना ही कंटेंट छपेगा। फिर चाहे वह कम हो अथवा ज्यादा। मैंने न तो इस तरह का कोई दबाव महसूस किया है और न ही करूंगा।
आज के दौर में मीडिया दो खेमों में बंट गई लगती है। आपकी नजर में यह पत्रकारिता का कौन सा दौर है, जहां पर खेमों में बंटकर पत्रकारिता होती है?
देखिए, पत्रकारिता हमेशा से दो खेमों में बंटी रही है। मैंने जब से होश संभाला है और अखबार पढ़ रहा हूं, तब से मैंने यही देखा है कि भारत की पत्रकारिता में हमेशा से एक वामपंथी और एक दक्षिणपंथी विचारधारा रही है। मेरी नजर में यह कोई गलत बात नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र की बहुत बड़ी विशेषता है और मैं इसे बहुत अच्छा मानता हूं कि पत्रकार अपने बारे में कहें कि वह वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी। जो पत्रकार यह बात छिपाते हैं, वह अपने साथ भी अपराध करते हैं और समाज के साथ भी।
पहले भी इस तरह की बातें हम सुनते थे कि फलां पत्रकार वामपंथी और फलां पत्रकार दक्षिणपंथी है। उस समय जो सेंट्रलिस्ट यानी जो वामपंथी या दक्षिणपंथी दोनों में से कोई नहीं होते थे, उनके बारे में कहा जाता था कि वे तो सुविधाभोगी हैं। मेरा मानना है कि पत्रकार कभी निष्पक्ष हो ही नहीं सकता। पत्रकार यदि वैचारिक रूप से दृढ़ है और वैचारिकता के आधार पर संपन्न है तो वह कभी निष्पक्ष हो ही नहीं सकता है। वह सपक्ष ही होगा। वह तटस्थ कैसे हो सकता है। यदि आप उद्देश्यपूर्ण तरीके से काम कर रहे हैं तो निष्पक्ष अथवा तटस्थ कैसे हो सकते हैं? आपको सपक्ष होना ही पड़ेगा। निष्पक्ष तो वे लोग होते हैं, जिनका विवेक नहीं होता है। जो लोग कहते हैं कि हमने निष्पक्ष रूप से पत्रकारिता की अथवा कर रहे हैं तो मेरा मानना है कि वे वैचारिक रूप से शून्य हैं।
मीडिया में इन दिनों क्रेडिबिलिटी की चर्चा है। सभी चाहते हैं कि उन्हें भरोसेमंद सूचनाएं अथवा जानकारी मिले, लेकिन आज के दौर में वे असमंजस में रहते हैं कि किस माध्यम पर वह सबसे ज्यादा भरोसा करें, क्योंकि एक मीडिया संस्थान कुछ कह रहा होता है, जबकि उसी बारे में दूसरा मीडिया संस्थान कुछ और कह रहा होता है?
देखिए, किसी भी अखबार पर ‘हॉलमार्क’ नहीं लगाया जा सकता है। अखबार कोई पदार्थ नहीं है। यह तो पाठक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसी भी सूचना को किस तरह से लेता है। जो भी आपके लिए ग्रहणीय है, उसमें निश्चित तौर पर आप एक उपभोक्ता, ग्राहक अथवा पाठक होने के नाते आप अपने विवेक का इस्तेमाल करते हैं। इसे हम एक सामान्य से उदाहरण से समझ सकते हैं। जैसे-जब आप चाय पीते हैं और उसका एक घूंट (सिप) लेने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल कर यह अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि वह कितनी गर्म होगी। उसके बाद उस हिसाब से आप यह तय करते हैं कितना सिप लेना है।
पहले के मुकाबले अब पाठक बहुत सजग हो गया है। पाठक प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा है। मेरा मानना है कि आज के दौर में तमाम समाचार माध्यमों के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा है। मैं फिर यही कहूंगा कि यदि किसी समाचार माध्यम या ब्रैंड विशेष अथवा प्रॉडक्ट विशेष के प्रति कोई विश्वास घटा है तो उसकी वजह कोई दूसरा कारण नहीं है, बल्कि वहां पर बैठे जो जिम्मेदार अथवा कर्तव्यशील लोग हैं, उनके आचरण में कहीं न कहीं कोई कमी आई है।
इस फील्ड में कार्यरत अथवा नवागत पत्रकारों के लिए आप क्या संदेश या यूं कहें कि सफलता का क्या ‘मूलमंत्र’ देना चाहेंगे?
जैसा कि मैंने अभी कहा कि अब इस पेशे में प्रोफेशलिज्म आया है। पत्रकार फॉर्मेट में काम करने के अभ्यस्त हो रहे हैं। जीवनशैली के प्रति अनुशासन बढ़ा है। नई पीढ़ी से मैं सिर्फ गुजारिश कर सकता हूं कि पढ़ने का अभ्यास डालिए। पढ़ने का अभ्यास न होने से शब्द संपदा संकुचित हो रही है। शब्द कम हो रहे हैं। आप जितना पढ़ते हैं, उतना आपका शब्द सामर्थ्य बढ़ता है। आपकी शब्द संपदा बढ़ती है। यह पढ़ने का अभ्यास न होने का कारण ही है कि तमाम जो कॉपियां लिखी जाती हैं, उनमें वैसा अलंकरण नहीं दिखता है, जो पहले की कॉपियों में अपेक्षाकृत दिखता था। मेरे कहने का आशय यही है कि आप ज्यादा से ज्यादा पढ़िए। जितना ज्यादा से ज्यादा पढ़ेंगे, शब्द संपदा उतनी बढ़ेगी और वह आपकी लेखनशैली में भी परिलक्षित होगी।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।महिला पत्रकारों के प्रमुख संगठन 'Indian women's Press Corps' (IWPC) की लगातार दूसरी बार प्रेजिडेंट चुनी गईं शोभना जैन ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है।
वरिष्ठ पत्रकार और महिला पत्रकारों के प्रमुख संगठन 'Indian women's Press Corps' (IWPC) की लगातार दूसरी बार निर्वाचित प्रेजिडेंट शोभना जैन से हाल ही में एक मुलाकात के दौरान IWPC चुनाव में उनके द्वारा पेश किए गए घोषणापत्र समेत मीडिया से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हुई। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले तो आप हमारे पाठकों को अपने बारे में बताएं। आपका अब तक का सफर क्या और कैसा रहा है?
मैंने अंग्रेजी साहित्य से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। इसके अलावा जर्मन भाषा का कोर्स भी किया है। मीडिया में अपने करियर की शुरुआत मैंने न्यूज एजेंसी ‘यूनिवार्ता’ (Univarta) से बतौर इंटर्न की थी। इसके बाद मैं वहां ब्यूरो चीफ के पद तक पहुंची। यहां मैंने पीएमओ समेत तमाम प्रमुख बीट कवर कीं। इसके अलावा मैं सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लिखती भी हूं। इन दिनों मैं एक कॉलमिस्ट के तौर पर अंतरराष्ट्रीय विषयों पर लिखती हूं और एक न्यूज सर्विस का संचालन कर रही हूं। मुझे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना भी अच्छा लगता है।
'इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स' के गठन का उद्देश्य, इसकी वर्तमान सदस्य संख्या और इसकी कार्यप्रणाली अथवा किस तरह के मुद्दों को यहां प्राथमिकता दी जाती है, इस बारे में कुछ बताएं?
वर्तमान में 'इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स' के सदस्यों की संख्या 800 से अधिक है। यहां आम महिलाओं से जुड़े सरोकारों के साथ-साथ महिला पत्रकारों से जुड़े तमाम मुद्दे जैसे उनकी फ्रीडम और उनके कल्याण से जुड़े जैसे मुद्दों को हम प्राथमिकता देते हैं। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों से जुड़े तमाम मुद्दों को भी हम उठाते हैं।
आप पहले भी आईडब्यूपीसी की प्रेजिडेंट रही हैं। आईडब्ल्यूपीसी प्रेजिडेंट के तौर पर आपका यह कौन सा कार्यकाल है। क्या आपको लगता है कि आपके अभी तक बतौर प्रेजिडेंट जो कार्यकाल रहे हैं, उनमें यह अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल रहा है?
लगातार आईडब्यूपीसी की प्रेजिडेंट के तौर पर यह मेरा दूसरा और वैसे तीसरा कार्यकाल है। मैं वर्ष 2017-18 में भी यहां प्रेजिडेंट रही हूं। मुझे इस बात की संतुष्टि है कि अपने कार्यकाल के दौरान जितना भी संभव हो सका है, मैं अपने उद्देश्यों को पूरा कर पाने में सफल रही हूं। हमारी पूरी टीम की खासियत है कि हम अधिकतम जितना कर सकते हैं, वह करते हैं। सीमित संसाधनों के बावजूद हम अपने स्टाफ के साथ मिलकर पूरी तन्मयता से अपने काम में जुटे रहते हैं। मेरा प्रयास रहता है कि सभी लोग मिल-जुलकर रहें और आपस में एक दूसरे के सहयोग से अच्छे ढंग से काम करें।
आपके कार्यकाल में कोई ऐसी बड़ी घटना रही हो, जिसमें आईडब्ल्यूपीसी ने दखल दिया हो और उसे सफलता मिली हो। यानी प्रेजिडेंट के तौर पर आपकी बड़ी उपलब्धि क्या रही है? इस राह में किस तरह की चुनौतियां आई हैं, अथवा आ रही हैं, इस बारे में भी कुछ बताएं।
इस तरह की तमाम बड़ी घटनाएं होती रहती हैं, जिन्हें हम उठाते रहते हैं और उनमें से कई में ठोस कार्रवाई भी होती है। फिर चाहे वह महिलाओं के पर्सनल इश्यूज हों, महिलाओं के उत्पीड़न की बात हो अथवा घरेलू हिंसा जैसे मामले। हमारा मानना है कि महिलाओं की जिंदगी ऐसी हो, जिसमें वह घर-परिवार के साथ-साथ बाहर निकलकर भी सही और सुरक्षित ढंग से अच्छे माहौल में काम कर सकें। हालांकि, इस राह में तमाम चुनौतियां भी आती रहती हैं, लेकिन हम अपनी टीम के सहयोग से उन चुनौतियों का सामना करते रहते हैं।
Indian Women Press Corps की बिल्डिंग को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है। इस बारे में काफी खबरें पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं। आखिर ये पूरा मसला क्या है और दिक्कत कहां आ रही है। इस बारे में क्या कहना चाहेंगी?
अभी मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी। हां, यह जरूर कहूंगी कि हमारे प्रयासों में कोई कमी नहीं है। कभी लगता है कि रास्ता काफी साफ है, तो कभी लगता है कि काफी कठिन रास्ता है। हम किसी भी मुद्दे को बातचीत से सुलझाने में विश्वास रखते हैं और मुझे अपने आप पर पूरा भरोसा है कि यह मुद्दा भी बातचीत से जल्द ही हल हो जाएगा।
इस बार के चुनाव में आपने अपने पैनल का जो मैनिफेस्टो घोषित किया था, क्या आपको लगता है कि आप उन सभी दावों पर खरी उतरेंगी? इसके लिए आपने किस तरह का रोडमैप तैयार किया है?
हमारा प्लान ऑफ एक्शन तो यही है कि सबसे पहले इस इमारत की लीज बढ़वाई जाए। हमें उम्मीद है कि अपने प्रयासों में सफल होंगे। इसके अलावा जैसा कि मैंने बताया कि हम तमाम समसामयिक मुद्दे उठाते ही रहते हैं।
इस बार इस चुनाव में काफी आंतरिक उथल-पुथल जैसे- व्यक्तिगत आक्षेप और ध्रुवीकरण भी देखने को मिला। IWPC की एक मेंबर ने हाई कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया था। क्या था वह मामला। इस बारे में क्या कहेंगी?
हालांकि, अब इस तरह की बातें करने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन वह सब कुछ गलतफहमियों के चलते हुआ। हालांकि, अब इस तरह का कोई मुद्दा नहीं है। मेरा मानना है कि आपस में किसी तरह की तल्खी नहीं होनी चाहिए।
जब आप किसी बड़ी भूमिका में होते हैं, तो आपके काम से अंसतुष्ट होने वाले लोगों की संख्या भी कई बार बड़ी होती है, ऐसे में आप उनकी अपेक्षाओं पर कैसे खरी उतरेंगी, ताकि ऐसे लोगों की नाराजगी दूर की जा सके?
हम इन अपेक्षाओं को पूरा करने की हरसंभव कोशिश करते हैं। मैं सभी लोगों को साथ लेकर चलने वालों में से हूं। मैं हर मुद्दे को बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से हैंडल करती हूं और चाहती हूं कि सभी लोग मिल-जुलकर आपस में शांति से काम करें। मेरा मानना है कि नाराजगी यदि है भी उसे आपस में बैठकर दूर किया जा सकता है।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।जाने-माने लेखक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट डॉ. रमाकांत द्विवेदी की नई किताब ‘INDO-KYRGYZ RELATIONS CHALLENGES & OPPORTUNITIES’ ने हाल ही में मार्केट में ‘दस्तक’ दी है।
जाने-माने लेखक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट डॉ. रमाकांत द्विवेदी की नई किताब ‘INDO-KYRGYZ RELATIONS CHALLENGES & OPPORTUNITIES’ ने हाल ही में मार्केट में ‘दस्तक’ दी है। भारत-किर्गिस्तान गणराज्य के संबंधों को लेकर लिखी गई इस किताब को पिछले दिनों दिल्ली स्थित ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में आयोजित एक कार्यक्रम में लॉन्च किया गया। इस किताब से जुड़े तमाम पहलुओं को लेकर डॉ. रमाकांत द्विवेदी ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले तो आप अपने बारे में बताएं कि आपका अब तक का सफर क्या व कैसा रहा है?
मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मध्य एशिया पर पीएचडी की है। पीएचडी के दौरान ही मुझे तीनमूर्ति हाउस के द्वारा नेहरू फेलोशिप प्रदान की गई। इसके फलस्वरूप मुझे करीब तीन साल तक उज्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में रहने का अवसर मिला। मैं ‘इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस’ (IDSA) में फेलो रहा हूं। इसके साथ ही ‘एकेडमी ऑफ साइंसेज‘ के इंस्टीट्यूट ‘अल बरूनी इंस्टीट्यूट ऑफ ओरियंटल स्टडीज’ (Al Beruni Instiute of Oriental Studies) में सीनियर रिसर्च फेलो रहा हूं। उस प्रवास के दौरान मुझे मध्य एशिया के तमाम प्रमुख शैक्षिक और रिसर्च संस्थानों में जाने और बातचीत करने का मौका मिला। इस तरह वहां के समाज, संस्कृति, साहित्य, राजनीति और अर्थव्यवस्था को जानने-समझने का अवसर मिला। इसके साथ ही मेरा पुस्तक लेखन का कार्य जारी है। यह मेरी आठवीं पुस्तक है, जो मैंने मध्य एशिया के देश किर्गिस्तान रिपब्लिक पर लिखी है।
अब अपनी इस किताब के बारे में हमें बताएं कि आखिर इसमें क्या खास है, कितने पेज हैं, पब्लिशर कौन है और कितने चैप्टर अथवा खंड हैं?
इस किताब को ‘पेंटागॉन प्रेस’ (Pentagon Press) ने पब्लिश किया है। मूल रूप से इस किताब में हमने तीन विषयों पर ज्यादा फोकस रखा है। एक सेक्शन भारत और किर्गिस्तान के बीच दिपक्षीय संबंधों (सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनीतिक आदि) पर है कि वर्तमान स्थिति क्या है और उसे कैसे विस्तृत रूप दिया जा सकता है। दूसरा सेक्शन मध्य एशिया की जियो पॉलिटिक्स पर है। खासकर, तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जे के बाद वहां एक नई दिशा और नई दिशा बन रही है। उससे भारत के हितों पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है। तमाम बड़े देश जैसे-चीन, रूस आदि किस तरह से अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इनका भी हमारे देश के हितों पर क्या पड़ रहा है और उन हितों की रक्षा के लिए हमें कौन-कौन से कदम उठाने चाहिए, किताब में इसकी भी चर्चा है।
पुस्तक के तीसरे सेक्शन की बात करें तो इसमें नॉन ट्रेडिशनल सिक्योरिटी फैक्ट्स यानी अलकायदा, आईएसआईएस और आईएसकेपी जैसे आतंकी संगठनों की फाइनेंसियल सप्लाई लाइन क्या है, उनके विस्तार का क्षेत्र कौन सा है, जैसे तमाम प्रमुख विषयों को शामिल किया गया है। उन उपायों पर भी चर्चा की गई है ताकि वे क्षेत्र की शांति को भंग न कर सकें और क्षेत्र के आर्थिक विकास में बाधा न बन सकें।
मध्य एशिया में कई देश हैं। खासकर पांच देशों- कजाखिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान की गिनती हमेशा होती है। ऐसे में आपने अपनी किताब के लिए किर्गिस्तान को ही क्यों चुना, इसके पीछे कोई खास वजह?
किर्गिस्तान रिपब्लिक मध्य एशिया का एक प्रमुख देश है। भारत के इस देश के साथ काफी अच्छे सांस्कृतिक संबंध हैं। वहां का प्रमुख ग्रंथ ‘मनास’ हमारे ग्रंथों के लगभग समान है। चीन से लगा हुआ देश है। यह एक इत्तेफाक है कि हमारी शुरुआत किर्गिस्तान से हुई है, जबकि हम मध्य एशिया के अन्य देशों पर भी किताब लिखना चाहते हैं। जल्द ही हम इन देशों पर भी किताब लेकर आएंगे। करीब 17 साल पहले हमने पूरे मध्य एशिया पर फोकस करती किताब लिखी थी। बदलती हुई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों की लगातार समीक्षा करने के लिए आवश्यक है कि हम एक नियमित अंतराल पर अध्ययन करें, समीक्षा करें और हमारे हितों को वो कैसे प्रभावित कर रहे हैं, उसका विश्लेषण करें।
क्या आपको लगता है कि इस किताब से दोनों देशों के संबंधों में और मधुरता आएगी और ये पहले के मुकाबले ज्यादा प्रगाढ़ होंगे?
हमने ईमानदारी से यही प्रयास किया है। हमारे इस देश के साथ पहले से जो बेहतर संबंध हैं, उन संबंधों की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करते हुए वर्तमान में कौन-कौन सी चुनौतियां हैं और बदलती परिस्थितियों में हमें और क्या करने की आवश्यकता है, यह इस किताब में बताया गया है। हम अपने प्रयास में कितने सफल रहे हैं, यह हमारे पाठक बताएंगे। एक रिसर्चर के तौर पर मेरा मानना है कि दो-चार साल में हमें नियमित रूप से बदलती हुई परिस्थितियों का अध्ययन, मूल्यांकन और विश्लेषण करने के बाद फिर उसी के अनुसार आवश्यक कदम उठाने चाहिए। मेरा मानना है कि इस किताब से भारत और किर्गिस्तान के बीच संबंधों में और प्रगाढ़ता आएगी।
आपकी नजर में किताब के अलावा दो देशों के बीच संबंधों की मजबूती में और कौन-कौन से कारक अहम भूमिका निभा सकते हैं, क्या हमें उन कारकों के बारे में सोचकर अथवा उन्हें तलाशकर उन पर भी काम नहीं करना चाहिए?
मेरा मानना है कि नियमित रूप से मिलना-जुलना होता रहना चाहिए। सरकारी स्तर पर संपर्कों के अलावा सेमिनार, टूरिज्म, राउंडटेबल कॉन्फ्रेंस आदि होते रहने चाहिए। इससे दोनों देशों को आपस में और अच्छे तरीके से जानने-समझने का अवसर मिलता है। इसलिए इस दिशा में लगातार काम होते रहना चाहिए।
आप अभी तक कई किताबें लिख चुके हैं। हाल ही में आपकी यह किताब आई है। क्या आप निकट भविष्य में कोई नई किताब लिखने की योजना बना रहे हैं। यदि हां तो वह किस बारे में होगी, क्या वह भी किसी अन्य देश से भारत के संबंधों को लेकर होगी?
हमारी अगली पुस्तक भारत और उज्बेकिस्तान के संबंधों पर होगी। उज्बेकिस्तान मध्य एशिया का बहुत ही महत्वपूर्ण देश है। पांचों देशों को देखेंगे तो यह सेंटर में आता है। इन सभी देशों से इसकी सीमाएं भी मिलती हैं। ऐसे में मैं अगली किताब भारत और उज्बेकिस्तान को लेकर लिखूंगा।
समाचार4मीडिया के साथ डॉ. रमाकांत द्विवेदी की इस पूरी बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।
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‘डिज्नी स्टार’ (Disney Star) में नेटवर्क की ऐडवरटाइजिंग सेल्स के हेड अजीत वर्गीज ने एक्सचेंज4मीडिया की एडिटर नाजिया अल्वी रहमान से खास बातचीत में तमाम पहलुओं पर रखी अपनी राय
‘इंडियन प्रीमियर लीग’ (IPL) 2023 अब तीसरे हफ्ते में प्रवेश कर चुका है। दर्शकों और विज्ञापन के पैसे के लिए ‘डिज्नी स्टार’ (Disney Star) और ‘रिलायंस जियो’ (Reliance Jio) के बीच टक्कर ने टीवी बनाम डिजिटल के बीच की बहस को और तेज कर दिया है। इस साल पहली बार इस लीग के लिए मीडिया अधिकार दो नेटवर्क्स के बीच बंट गए हैं। ऐसे में मार्केट दोनों माध्यमों पर दर्शकों की संख्या (व्युअरशिप) को लेकर दावों और प्रतिदावों से भरा हुआ है।
इस बारे में ‘डिज्नी स्टार’ (Disney Star) में नेटवर्क की ऐडवरटाइजिंग सेल्स के हेड अजीत वर्गीज को आईपीएल के मामले में डिजिटल के मुकाबले टीवी के दर्शकों की ज्यादा संख्या को लेकर कोई संदेह नहीं है। हमारी सहयोगी वेबसाइट एक्सचेंज4मीडिया (exchange4media) की एडिटर नाजिया अल्वी रहमान से खास बातचीत में वर्गीज ने जोर देकर कहा कि डिजिटल माध्यम पर आईपीएल फ्री है अथवा पेड है, इस बात का टीवी व्युअरशिप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वर्गीज के अनुसार, चूंकि इस लीग को बड़ा दर्शक वर्ग और परिवार देखते हैं, ऐसे में करीब 75 प्रतिशत रेवेन्यू टीवी को मिलेगा।
प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
हमारे सूत्रों का कहना है कि आप पिछले वर्षों के विपरीत इस बार अपनी इन्वेंट्री रोक रहे हैं। जबकि पूर्व में आप सीजन की शुरुआत में पूरी तरह से इन्वेंट्री लगा देते थे। क्या यह जानबूझकर किया जा रहा है या यह मार्केट की स्थितियों के कारण हो रहा है? आपके लिए अब तक का आईपीएल कैसा रहा है?
इंडस्ट्री पिछले करीब छह महीनों से प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजर रही है और इसका आईपीएल से कोई लेना-देना नहीं है। आप किसी भी क्षेत्र या बिजनेस को देख सकते हैं, चाहे वह स्टार्ट-अप हो या ई-कॉमर्स। यह विभिन्न माध्यमों और बिजनेस में आपको दिखाई देगा। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर प्रतिकूल परिस्थितियों से आर्थिक दबाव बढ़ता है। इसके अलावा व्यापक तौर पर फैले मार्केट का भी असर पड़ता है और यह उस तरह के पूर्व निर्धारित नहीं है, जिस तरीके से कोई चाहता है। जैसे- जैसे हम आगे बढ़ते हैं और कुछ कहते हैं, तमाम निर्णय हो रहे हैं। मार्केटर्स भी इस दिशा में सोच रहे हैं और निवेश फैला रहे हैं। इसका किसी मीडियम यानी माध्यम से कोई लेना-देना नहीं है। यहां खास बात यह है कि जब डिजिटल बनाम टीवी की बात आती है तो हमने खर्च के मामले में मार्केट में कोई बदलाव नहीं देखा है।
इस बार के आईपीएल को लेकर मार्केट में काफी निगेटिव बातें भी चल रही हैं। इंडस्ट्री से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इससे मार्केटर्स भ्रमित हो गए हैं। ऐसे में उनमें से कुछ ने प्रतीक्षा करें और देखें (wait & watch policy) की पॉलिसी अपनाई हुई है। क्या आप इस बात से सहमत हैं?
हमारी ओर से नकारात्मक टिप्पणी कभी नहीं आई है। हमने केवल अपनी उपलब्धियों और अपनी मजबूती (strength) के बारे में बात की है। हम किसी तरह की नकारात्मक बात नहीं फैलाते हैं। हमारा मानना है कि कि प्रत्येक प्लेटफॉर्म का अपना महत्व होता है। हम ऐसे ईकोसिस्टम में भी काम कर रहे हैं जहां हम डिजिटल पर स्पोर्ट्स देते हैं। रही बात बाजार में कंफ्यूजन की तो यह बहुत सारे भ्रामक डाटा के कारण हो सकती है। हम मानते हैं कि किसी भी कंफ्यूजन को दूर करने के लिए उसकी पुष्टि की जरूरत है। मुझे लगता है कि क्लाइंट्स स्पष्टता चाहते हैं। हम यहां अपनी टीवी स्टोरी को बेचने के लिए हैं, न कि किसी और की स्टोरी को झुठलाने अथवा नकारने के लिए।
पिछले महीने आई एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि स्टार इंडिया इस आईपीएल में अपना आधार खो सकता है। इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया था कि विज्ञापन राजस्व (ऐडवर्टाइजिंग रेवेन्यू) का बड़ा हिस्सा (60% तक) डिजिटल में जाने की उम्मीद है और आपको सिर्फ 40% ही मिल सकता है। आपका इस बारे में क्या कहना है?
हम आईपीएल को तीन एंगल्स से देखते हैं। पहला है- कंज्यूमर का अनुभव, दूसरा आईपीएल शुरू होने के बाद आने वाले आंकड़े और तीसरा विज्ञापनदाताओं का सपोर्ट। अगर मैं कंज्यूमर के अनुभव की बात डिजिटल बनाम डिजिटल ही करता हूं, तो हमने देखा है कि डिजिटल के मुफ्त होने का टीवी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और मैं आपको तीनों दावों को लेकर डेटा दे सकता हूं। हमने टीवी बनाम डिजिटल में कोई बदलाव नहीं देखा है और न ही बजट में कोई बदलाव हुआ है। हमेशा कुछ क्लाइंट्स ऐसे होते हैं जो डिजिटल अधिक करते हैं और कुछ ऐसे क्लाइंट होते हैं जो टीवी अधिक करते हैं और यह मिश्रण समान रहा है। आप जिस रिपोर्ट के बारे में बात कर रही हैं, वह मुझे पूरी तरह से बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई लगती है और उनके द्वारा जो दावे किए गए हैं, संभवत: उन पर पर्याप्त रिसर्च नहीं किया गया है।
टीवी और डिजिटल के बीच ऐड रेवेन्यू के विभाजन को लेकर आपका क्या अनुमान है?
हमारे वर्तमान विश्लेषण के अनुसार, यह रेंज लगभग 75% टीवी और 25% डिजिटल है। हमने यह विश्लेषण पिछले वर्षों के अपने डेटा के आधार पर और अपने एजेंसी पार्टनर्स और क्लाइंट्स से बात करने के बाद किया है, जो दोनों के साथ बिजनेस कर रहे हैं। हमने इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा है। अगर आप ‘बार्क’ (BARC) के आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले साल की तुलना में पहले दिन ही टीवी की रेटिंग में 31% की बढ़ोतरी हुई है और टीवी देखने का समय 50% बढ़ गया है। टीवी देखने के समय में वृद्धि कंज्यूमर के बेहतर अनुभव का स्पष्ट संकेत है। यह उस माध्यम की ताकत को दर्शाता है, जहां लोग परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताते हैं और इस खेल को बड़ी स्क्रीन पर देखते हैं। हमने यह भी देखा है कि पहुंच दो अंकों में बढ़ रही है। ये आंकड़े हमारे विश्वास की पुष्टि करते हैं कि डिजिटल माध्यम पर आईपीएल के पेड या मुफ्त होने का टीवी दर्शकों की संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
आपके प्रतियोगी ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनकी टक्कर में आपने एक मेलर में अपने 2019 के आंकड़ों रखे हैं, जब आईपीएल को हॉटस्टार पर भी मुफ्त में स्ट्रीम किया गया था। क्या आप मानते हैं कि इस तरह की बातों से मार्केटर्स और एजेंसियों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है?
ऐप के डाउनलोड की संख्या के बारे में मार्केट में बहुत सारे दावे (claims) और प्रतिदावे (counterclaims) हैं। मैं यहां कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूंगा कि हमें यह देखने की जरूरत है कि इन नंबरों की तुलना पिछले वर्ष के डेटा और वास्तविकता से कहां की गई है। यदि हम प्लेटफॉर्म रीच के बारे में बात करें तो भले ही मैं पहले सप्ताहांत में 10 करोड़ का दावा करने वाले सार्वजनिक डेटा को मानूं तो यह वास्तव में हॉटस्टार के 2019 के नंबरों की तुलना में 26% कम है, जब हम इसे मुफ्त में दिखा रहे थे।
कुल मिलाकर देखा जाए तो दुनिया भर में डिजिटल तेजी से बढ़ रहा है। यह आईपीएल के लिए गिरावट कैसे दिखा सकता है?
हम डिजिटल के समग्र विकास पर सवाल नहीं उठा रहे हैं। मैं जिस बिंदु के बारे में बात कर रहा हूं वह वर्तमान आईपीएल के बारे में है। मुझे इस बात का सटीक उत्तर नहीं पता लेकिन यह ऐप के बदलाव के कारण हो सकता है। हमने देखा है कि कंज्यूमर्स अभी भी हॉटस्टार पर आ रहे हैं। पहले दिन हमने हॉटस्टार ऐप के बड़ी संख्या में डाउनलोड देखे हैं, क्योंकि यह पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान आईपीएल देखने के लिए पसंदीदा स्थान रहा है। हम टीवी देखने के समय के दावों की बात करें तो यह पिछले साल SVOD में हॉटस्टार की तुलना में 25-26% कम हैं।
इस बीच, डिजिटल का अनुभव सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है। इसमें ऐप क्रैश होने, बफ़रिंग और लॉगिंग समस्याओं की बात कही गई है। संभवत: पिछले वर्ष की संख्या की तुलना में इसकी संख्या में कमी आई है। इसके अलावा इसे फिर से एक नया ऐप मानते हुए, बहुत अधिक बदलाव नहीं हुआ है। लोग हॉटस्टार पर आईपीएल देखने के आदी हैं। तीसरा, इंस्टॉल और डाउनलोड होने वाले ऐप की संख्या में ज्यादा इजाफा नहीं हुआ है। यह दावा किया गया है कि 25 करोड़ लोगों ने ऐप (शुरुआती दिन) और सप्ताहांत में 50 करोड़ लोगों ने डाउनलोड किया।
लेकिन हमने प्रकाशित स्रोतों और तीसरे पक्ष के डेटा को देखा है,। ये आंकड़े उन दावों के आस-पास भी नहीं हैं। यह सच हो सकता है कि बहुत सी चीजें रहीं, जिनके लिए उन्होंने योजना बनाई थी और जो नहीं हुई हैं।
डिज्नी स्टार ने आईपीएल के टीवी अधिकारों के लिए 23,575 करोड़ रुपये का भुगतान किया है, जिसका मतलब है कि आप प्रत्येक मैच के लिए 57.5 करोड़ रुपये का भुगतान करेंगे, आप इस पैसे को कैसे वसूलने की योजना बना रहे हैं?
मार्केट में परिवर्तन होता रहता है। दिन के अंत में हम यह तय नहीं करते हैं कि मंदी कब होगी, कब उछाल आएगा और उसके क्या निहितार्थ होंगे। यह पांच साल की प्रॉपर्टी है, जिसमें हमने निवेश किया है। हमें विश्वास है कि टीवी पर खर्च जारी रहेगा और यही कारण है कि हम इतने आशान्वित हैं। जब तक हम मार्केटर्स को टीवी की ताकत के बारे में समझा सकते हैं, मुझे भविष्य में भी चिंता करने का कोई कारण दिखाई नहीं देता है। हमारे लिए यह सबसे महत्वपूर्ण यह सुनिश्चित करना है कि कंज्यूमर्स को हमारे मीडियम पर आईपीएल का शानदार अनुभव मिले। इसी पर हमारा ध्यान केंद्रित है और पैसा इसके पीछे आएगा।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।इंटरनेट की ताकत और इसकी पहुंच की वजह से कनेक्टेड टीवी का तेजी से विकास हुआ है।
इंटरनेट की ताकत और इसकी पहुंच की वजह से कनेक्टेड टीवी (CTV) का तेजी से विकास हुआ है और इस वजह से अब बेहतर गुणवत्ता व व्यक्तिगत वाले कंटेंट प्रदान किए जा सकते हैं। यह कहना है इंडिया टीवी की मैनेजिंग डायरेक्टर व सीईओ रितु धवन का। हमारी सहयोगी वेबसाइट 'एक्सचेंज4मीडिया' से विशेष बातचीत में उन्होंने यह बात कही। धवन ने बताया कि कैसे सीटीवी ने मीडिया में रेवेन्यू के लिए तमाम रास्ते खोल दिए हैं और अब यह अधिक से अधिक घरों में अपनी पहुंच बनाने के लिए तैयार है। आप यहां पढ़ सकते हैं बातचीत के प्रमुख अंश:
भारत में लगभग 20 से 22 मिलियन घरों में इंटरनेट से जुड़े टीवी हैं। ऐडवर्टाइजर्स के लिए यह संख्या कितनी बड़ी है?
पहले बड़े स्क्रीन का अनुभव डीटीएच/केबल और चैनल सब्सक्रिप्शन तक ही सीमित था। अब इंटरनेट की ताकत और इसकी पहुंच की वजह से कनेक्टेड टीवी (CTV) का तेजी से विकास हुआ है। इस वजह से अब बेहतर गुणवत्ता वाले व व्यक्तिगत कंटेंट प्रदान किए जा सकते हैं, जिस तक अब आसानी से पहुंचा भी जा सकता है। इसकी लोकप्रियता कंटेंट के अनुभव पर भी आधारित है। ऐडवर्टाइजर्स सीटीवी पर ऐड एक्सपोजर और अधिक कर सकते हैं। लगभग 22 मिलियन डिवाइसेज के साथ, सीटीवी 90 मिलियन से अधिक दर्शकों तक अपनी पहुंच रखता है, जिसमें लीनियर टीवी की तुलना में औसत टाइम स्पेंट पर व्यूअर अधिक होता है। इंडिया टीवी के लिए लीनियर टीवी पर औसतन टाइम स्पेंट बाई व्यूअर पर वीक (एक हफ्ते में दर्शकों द्वारा लीनियर टीवी पर बिताया जाने वाला औसत समय) 35 मिनट है, जबकि स्मार्ट टीवी ऐप पर यह 41 मिनट है।
ऐसे में अब, ऐडवर्टाइजर्स को मीडिया व्हिकल से दो प्रमुख जरूरतें नजर आती हैं, जिनमें पहली यह कि मीडिया व्हिकल का झुकाव कहां है और दूसरा कि उसका आकार क्या है? और ये दोनों जरूरतों ही इंटरनेट-सक्षम कनेक्टेड टीवी से अच्छी तरह से पूरी हो जाती हैं।
आप सीटीवी की बढ़ती संख्या को किस तरह से भुनाने जा रही हैं, और इसे लेकर आपकी रणनीति क्या रही है?
हां, रिपोर्ट बताती है कि 2025 तक 50 मिलियन से अधिक घरों की सीटीवी तक पहुंच हो जाएगी और दर्शकों की संख्या 300 मिलियन तक पहुंच जाएगी। यानी बाजार में 100 फीसदी ग्रोथ देखने को मिलेगी। लिहाजा इस तीव्र वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, हमारे लिए सीटीवी स्पेस में अपनी कंटेंट विंडो का विस्तार करना जरूरी हो गया है। इंडिया टीवी जल्द ही ऑडियंस-ओरिएंटेड कंटेंट पेश करेगा, खासकर सीटीवी के लिए। हमें यकीन है कि अपने कंटेंट प्लानिंग और निष्पादन के साथ हम सीटीवी यूजर्स के बीच एक मजबूत प्रभाव बना पाने में सक्षम होंगे। 5 साल में यह संख्या और बढ़ जाएगी, क्योंकि पुराने टीवी सेट की जगह नए स्मार्ट टीवी ले लेंगे। इस तरह से सीटीवी इकोसिस्टम से जुड़ना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
कनेक्टेड टीवी प्लेटफॉर्म पर ऐड की गतिशीलता कैसे विकसित हो रही है? सीटीवी पर आप किस तरह के ब्रैंड रीच को देखती हैं?
जिस तरह से डिजिटल ऐडवर्टाइजिंग ने ऐड इंडस्ट्री और ऐडवर्टाइजर वर्टिकल में अपनी पैठ जमायी है, ऐडवर्टाइजर्स के लिए सीटीवी एक पसंदीदा माध्यम बनता जा रहा है। चूंकि सीटीवी इंटरनेट की ताकत से सक्षम है, इसलिए ऐडवर्टाइजर्स के लिए ऐड के अवसर और ऐड के फॉर्मेट दोनों ही बढ़ गए हैं। वे सीटीवी पर अधिक खर्च करने को तैयार हैं, क्योंकि कई ऐड फॉर्मेट अधिक प्रभावशाली मीजरमेंट, ऐड के प्रभाव और तत्काल कॉल टू एक्शन प्रदान कर सकते हैं। इसके अलावा, NCCS A मार्केट में सीटीवी की पैठ 39 प्रतिशत है, जो उन ऐडवर्टाइजर्स के लिए एक बड़ा अवसर है, जो दर्शकों के इस वर्ग को लक्षित करना चाहते हैं। उक्त मार्केट में लीनियर टीवी की पैठ 27% है।
क्या पारंपरिक माध्यमों की तुलना में निवेश बड़ा है?
दिखने में सीटीवी इको-सिस्टम लीनियर टीवी से अलग है और इसमें सही दर्शकों को जोड़े रखने के लिए बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता होती है। जब नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो और डिज्नी हॉटस्टार जैसे बड़े खिलाड़ी रिमोट के साथ-साथ सीटीवी की पहली स्क्रीन पर सुविधाएं प्रदान करने के लिए काफी निवेश करते हैं, तो आपको भी कुछ पूंजी लगाने की भी जरूरत पड़ती है। हालांकि, हमें लगता है कि यदि आप प्रीमियम और क्रेडिबल न्यूज कंटेंट देते हैं तो आप सीटीवी दर्शकों पर राज कर सकते हैं।
सीटीवी के वजह से रेवेन्यू के कौन से विभिन्न रास्ते खुले हैं?
ऐड परफॉर्मिंग के लीनियर टीवी क्षमताओं के अलावा, CTV ने जियो-टार्गेटिंग (Geo-targeting), इन-स्ट्रीम ऐड्स (In-Streams ads), प्री-रोल्स ( Pre-rolls),और मिड-रोल्स (Mid-rolls) जैसे डिजिटल लाभ भी प्रदान किए हैं। इसके अतिरिक्त, रेवेन्यू जनरेट करने के लिए अन्य प्रभावशाली सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। ऐड फॉर्मेट्स में स्पॉन्सर्ड कंटेंटट और प्रभावशाली फीचर ऐडवर्टाइजर्स के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इससे वे कनेक्टेड ऑडियंस को अलग से टार्गेट कर सकते हैं।
कनेक्टेड टीवी टियर 2 और 3 ऑडियंस के कंटेंट पैटर्न को कैसे बदल रहा है?
सीटीवी के मार्केट का आकार उसी ट्रेंड लाइन पर बन रहा है, जैसाकि अतीत में स्मार्टफोन की पैठ थी। इंटरनेट की उपलब्धता और कम लागत वाले सीटीवी डिवाइसेज टियर-II और टियर-III मार्केट को आकार दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त, वित्त मंत्री ने भी घोषणा की हुई है कि सरकार देश के उन ग्रामीण हिस्सों में ऑप्टिकल फाइबर केबल (OFC) बिछाने पर ध्यान केंद्रित करेगी, जहां बिजली अभी पहुंची है और इससे भी बहुत मदद मिलेगी। भारत में स्मार्टफोन यूजर्स की बढ़ती संख्या भी स्मार्ट टीवी की आवश्यकताओं को बढ़ा रही है, क्योंकि यूजर्स घर पर रहते हुए ही बड़ी स्क्रीन पर कंटेंट का लाभ उठाना चाहते हैं।
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‘दिल्ली प्रेस’ (Delhi Press) के एग्जिक्यूटिव पब्लिशर और ‘AIM’ के वाइस प्रेजिडेंट अनंत नाथ ने मैगजीन बिजनेस से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर समाचार4मीडिया से खुलकर बातचीत की।
देश में पत्रिकाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजींस’ (AIM) के प्रमुख इवेंट ‘इंडियन मैगजीन कांग्रेस’ (IMC) का 24 मार्च को वृहद आयोजन किया गया। दिल्ली के द ओबेरॉय होटल में हुए इस कार्यक्रम के दौरान देश के प्रमुख मैगजीन पब्लिशर्स में शुमार ‘दिल्ली प्रेस’ (Delhi Press) के एग्जिक्यूटिव पब्लिशर और ‘AIM’ के वाइस प्रेजिडेंट अनंत नाथ ने मैगजीन बिजनेस से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर समाचार4मीडिया से खुलकर बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले इंडियन मैगजीन कांग्रेस और इसके उद्देश्य के बारे में बताएं?
हम पिछले 12 साल से इसे करते आ रहे हैं। इस तरह के किसी भी आयोजन का यही मुद्दा रहता है कि उस इंडस्ट्री में जो नए-नए बदलाव आ रहे हैं, उसके बारे में डिस्कस करें और अपने अनुभव शेयर करें। निश्चित रूप से इसमें नेटवर्किंग भी शामिल होती है। बाहर के लोगों से काफी कुछ नई चीजें पता चलती हैं। यानी, जैसे अन्य किसी भी कॉन्फ्रेंस में इस तरह के तीन-चार प्रमुख एजेंडे होते हैं, उसी तरह के एजेंडे इस कार्यक्रम में भी होते हैं।
मैगजीन पब्लिशिंग इंडस्ट्री से जुड़े तमाम लोगों को एक मंच पर लाने के लिए वर्ष 2006 में इस आयोजन की शुरुआत हुई थी, जिसमें एडिटर्स, पब्लिशर्स, मीडिया संस्थानों के डिजिटल हेड्स, पॉलिसीमेकर्स, मीडिया संस्थानों के मालिक, मार्केटर्स, मीडिया प्लानर्स के साथ ही रिसर्चर और इंडस्ट्री से जुड़े विश्लेषक शामिल होते हैं। यह इस आयोजन का 12वां एडिशन है।
हालांकि, कोविड के चलते इस बार एसोसिएशन चार साल के अंतराल के बाद इस कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है। इस साल इस कांग्रेस की थीम रखी गई है कि कैसे डिजिटल युग में भी मैगजींस लोगों को जोड़े रखने के लिए (Building Engaged Communities) सबसे प्रभावी माध्यम हैं। ‘इंडियन मैगजीन कांग्रेस’ को लेकर हमारा फोकस रहा है कि डिजिटल की दुनिया में मैगजींस की जगह क्या है, इस पर हम सारी सोच रखें।
आज डिजिटल काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। ऐसे दौर में मैगजींस को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए किस तरह की चुनौतियों/समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और इस दिशा में क्या कदम उठाए जा रहे हैं?
लोग मैगजींस को कंटेंट के लिए खरीदते हैं, यानी उस कंटेंट में काफी रिसर्च और गहराई (विस्तार) शामिल होती है। कड़े एडिटोरियल प्रोसेस के बाद किसी भी अच्छी मैगजीन का कंटेंट तैयार होता है। मैगजीन का कंटेंट एक बड़े और खास पाठक वर्ग के लिए तैयार होता है, जिसकी अभिरुचि के बारे में संपादकीय टीम अच्छे से समझती है और अपने कंटेंट में वह शामिल करने की पूरी कोशिश करती है। इस कंटेंट के जरिये संपादकीय टीम उस पाठक वर्ग के जीवन में एक बड़ी उपयोगिता निभाती है, फिर वह चाहे किसी टॉपिक में (एंटरटेनमेंट, इंफॉर्मेशन या लाइफस्टाइल आदि) समस्या समाधान के रूप में हो अथवा अन्य किसी भी रूप में हो।
मैं यही कहना चाहूंगा कि आज के दौर में प्रासंगिक बने रहने के लिए मैगजींस को कंटेंट पर फोकस रखना होगा और पाठकों की रुचि को समझते हुए उस दिशा में काम करना होगा। यकीनन, डिजिटल के आने के बाद से कंटेंट का कॉम्पटीशन काफी बढ़ गया है। ऐसे में आज के दौर में प्रासंगिक बने रहने के लिए मैगजींस को कंटेंट की गहराई (Depth) को बनाए रखने की जरूरत है।
कंटेंट के अलावा उसे सर्व करने के लिए डिजिटल मीडिया/सोशल मीडिया के टूल्स भी अडॉप्ट करने पड़ेंगे। जैसे पहले न्यूजपेपर और मैगजीन पब्लिशर को प्रिंटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन में निवेश करना पड़ता था, अब वह निवेश सीएमएस, एसईओ, सोशल मीडिया प्रमोशन यानी इस तरह के ईको सिस्टम में शिफ्ट हो गया है। लेकिन, मैं फिर कहूंगा कि कंटेंट पर ज्यादा फोकस करना पड़ेगा और एडिटोरियल टीम को यह समझना जरूरी है कि उनका पाठक वर्ग कौन है और किस तरह का कंटेंट चाहता है।
कोविड का मीडिया समेत तमाम बिजनेस पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। उस दौरान कई मैगजींस बंद हो गईं और तमाम मैगजींस का सर्कुलेशन घट गया। अब जबकि स्थिति सामान्य होने लगी है। ऐसे में क्या मैगजीन बिजनेस का सर्कुलेशन पहले की तरह वापस आ गया है?
इस बारे में मैं कहूंगा कि मैगजीन बिजनेस का सर्कुलेशन धीरे-धीरे वापस पटरी पर आ रहा है। ये कहना गलत होगा कि मैगजीन इंडस्ट्री कोविड पूर्व की स्थिति पर वापस आ गई है। हालांकि, कोविड के बाद जो गैप आ गया था, इंडस्ट्री उससे काफी उबर गई है। डिजिटल के आने से यह फायदा हुआ है कि कोविड के दौरान तमाम मैगजींस ने अपनी वेबसाइट्स बना लीं। जो मैगजींस पहले पूरी तरह प्रिंट पर फोकस्ड थीं, उन्होंने भी अपनी बड़ी वेबसाइट बना ली हैं या किसी एक वेबसाइट पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं। इसकी वजह से मैगजींस की रीच यानी पाठकों तक पहुंच काफी बढ़ गई है।
मैगजींस के पास यह विकल्प है कि उस पहुंच को पेड सबस्क्राइवर्स में कैसे परिवर्तित करें। मैगजींस को आज रीडर तक अपनी जानकारी ज्यादा से ज्यादा पहुंचाने का काम डिजिटल कर रहा है। यानी तमाम मैगजीन पब्लिशर्स ने प्रिंट और डिजिटल के पैकेज तैयार कर लिए हैं और जो रेवेन्यू अथवा सर्कुलेशन कम हो गया है, उसे सबस्क्रिप्शन मॉडल के जरिये पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। मेरा मानना है कि मैगजींस इस बात पर फोकस रखें कि कैसे प्रिंट और डिजिटल का सही पैकेज बनाएं। डिजिटल को अपनी रीच, इंगेजमेंट और नए रीडर्स लाने के लिए इस्तेमाल करें, वहीं कंटेंट को बहुत बेहतर रखें ताकि नए पाठकों को पेड सबस्क्राइबर्स बना सकें। इनमें भी जो मैगजींस को बहुत ज्यादा पसंद करते हैं, उन्हें प्रिंट और डिजिटल दोनों तरह के पेड पाठक वर्ग में शामिल कर सकें।
तमाम अखबारों/मैगजींस ने सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है। यानी बिना सबस्क्राइब किए आप उस अखबार अथवा मैगजीन को नहीं पढ़ सकते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इससे रीडरशिप प्रभावित होती है और प्रिंट मीडिया को कम पाठक मिलते हैं?
पब्लिकेशंस को यह सोचना होगा कि वह किस तरह का पाठक वर्ग चाहते हैं। क्या वह ऐसा पाठक वर्ग चाहते हैं जो मुफ्त में कंटेंट पढ़कर चला जाए अथवा ऐसा पाठक वर्ग चाहते हैं कि जो उनके कंटेंट को इतनी अहमियत दे कि उसे कंज्यूम के लिए भुगतान करना चाहे। बार-बार यही बात सामने आ रही है कि जो फ्री वाला पाठक वर्ग है, उससे आप विज्ञापन से पैसे नहीं बना सकते हैं, खासकर ऑनलाइन की बात करें तो। रही बात फिजिकल की तो उस समय भी वह पाठक मैगजीन खरीदता ही था और मैगजीन कोई सस्ता प्रॉडक्ट नहीं है। वह उस मैगजीन को खरीदता था, तभी एडवर्टाइजर के लिए उस रीडर की कद्र थी।
मेरा मानना है कि फ्री रीडर की कोई कद्र नहीं होती। एक तो एडवर्टाइजर उस रीडर की कद्र नहीं करता, क्योंकि उसके पास अन्य ऑप्शंस होते हैं, वहीं उससे पब्लिकेशन को भी कोई फायदा नहीं होता। ऐसे में यह एक चॉइस है। यह काफी मुश्किल चॉइस है, लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है कि आप अपनी लार्ज रीडरशिप से ध्यान हटाएं और फोकस रीडरशिप बनाएं जो आपकी कद्र करे और आपके कंटेंट की कद्र करे, जिससे उनसे पेड सबस्क्रिप्शन के जरिये पैसा आए और यह भी ध्यान दें कि हम उसे एडवर्टाइजर्स को इस तरह बताकर बेचें कि ये हमारे इंगेज रीडर्स हैं और इनकी कद्र करें, सिर्फ आंकड़ों पर न जाएं।
भारत में मैगजीन बिजनेस के भविष्य को किस तरह देखते हैं और आने वाले समय में क्या उम्मीदें हैं?
देखिए, बहुत सारी चीजें हैं और हम इसे एक लाइन में नहीं कह सकते हैं। मुझे लगता है कि किसी मैगजीन की एडिटोरियल टीम यदि अपने कंटेंट के जरिये ज्यादा से ज्यादा रीडर्स को इंगेज कर सकती है, तो उसके लिए आगे बहुत संभावनाएं हैं। उसके आसपास भी हमें बहुत सारी चीजें जैसे- टेक्नोलॉजी, मार्केटिंग, सोशल मीडिया और इवेंट्स आदि करनी होंगी। यानी हमें तमाम तरह की चीजें करनी पड़ेंगी और फोकस रखना पड़ेगा कि कैसे हम ज्यादा से ज्यादा पाठकों को अपने साथ जोड़ें, कैसे उन्हें अपने साथ बनाए रखें और कैसा कंटेंट बनाएं कि रीडर वैल्यू करे। वो ठीक नहीं किया तो बाकी सारी चीजें बेकार हैं।
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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जाने-माने पत्रकार और अंग्रेजी न्यूज चैनल ‘इंडिया अहेड’ (India Ahead) में एग्जिक्यूटिव एडिटर डॉ. अनिल सिंह ने मीडिया से जुड़े तमाम अहम पहलुओं को लेकर समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। डॉ. अनिल सिंह के साथ हुई इस बातचीत के प्रमुख अंश आप यहां पढ़ सकते हैं:
सबसे पहले आप अपने बारे में बताएं। यानी आपका प्रारंभिक जीवन कैसा रहा, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई और मीडिया में कैसे आए?
मैं मूलत: सिवान (बिहार) का रहने वाला हूं। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई बिहार से करने के बाद मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से पॉलिटिकल साइंस में बीए (ऑनर्स), फिर एमए और एमफिल करने के बाद यहीं से पीएचडी की है। फिर मैंने मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई की। इसके बाद नौकरी की तलाश शुरू की। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर उन दिनों ‘दूरदर्शन’ पर एक कार्यक्रम को होस्ट करते थे। ‘दूरदर्शन’ के लिए आधा घंटे का यह कार्यक्रम ‘एशिया पैसिफिक कम्युनिकेशन एसोसिएट’ कंपनी बनाती थी। मैंने इस कंपनी में करीब छह महीने काम किया और पत्रकारिता की बारीकियां सीखीं।
इसके बाद मुझे ‘जी न्यूज’ (Zee News) में काम करने का मौका मिला और यहीं से एक टीवी पत्रकार के रूप में मेरी पहचान बनी। इसके बाद जब ‘आजतक’ (AajTak) लॉन्च हुआ तो मैंने वहां भी काम किया। इसके बाद भारत में ‘स्टार न्यूज’ (अब एबीपी न्यूज) आया और उसकी नई टीम बनी, जिसका मैं भी हिस्सा बना और लंबे समय तक वहां अपनी जिम्मेदारी निभाई। इसके बाद मैं वापस ‘आजतक’ में एडिटर बनकर आया और काफी काम किया।
फिर यहां से संपादक के रूप में मैं ‘न्यूज24’ (News24) आ गया और अब मैं ‘इंडिया अहेड’ (India Ahead) के एग्जिक्यूटिव एडिटर के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं। मैं अब तक करीब सात किताबें लिख चुका हूं। मैं देश के कई उच्च शिक्षण संस्थानों के बोर्ड ऑफ गवर्नर के रूप में भी जुड़ा रहा हूं। इन दिनों मैं ‘विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज’ (VIPS) के बोर्ड ऑफ गवर्नर में शामिल हूं, जिसे NAAC की मान्यता मिली हुई है और जिसमें हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।
मीडिया में आप लंबे समय से हैं और आपने इसे काफी करीब से देखा है। तब से लेकर अब तक मीडिया में काफी बदलाव हुए हैं। इन बदलावों को आप किस रूप में देखते हैं?
पहले मीडिया की एक भूमिका हुआ करती थी, लेकिन आज के समय में यह भूमिका गुम सी गई है। मुझे याद है कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, उस समय पत्रकारिता का एक दौर था। उस समय मीडिया में साहित्य नजर आता था। ऐसा लगता था कि साहित्य का बोलबाला है। उसके बाद न्यूज का एजेंडा बदल गया और साहित्यिक से राजनीतिक हो गया। काफी पुरानी बात है, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जी की रथयात्रा निकल रही थी, उस समय वरिष्ठ टीवी पत्रकार एसपी सिंह ने संपादकीय लिखा कि यह रथ कहीं को नहीं जाता है। उस संपादकीय पर काफी बवाल हुआ था। फ्रंट पेज की जो शैली थी, वह एसपी सिंह ने बदलकर रख दी।
प्रिंट मीडिया से मेरा ज्यादा संपर्क नहीं रहा है, सिर्फ मैंने सुना है। मैंने टीवी को बेहतर तरीके से देखा है और अनुभव किया है। समय के साथ टेलिविजन पत्रकारिता के स्वरूप भी बदलते रहे हैं। आज के संदर्भ में टीवी चैनल्स की खबरें सिर्फ एक धारा की तरफ जा रही हैं। दूसरे प्रवाह के लिए किसी भी न्यूज चैनल्स में जगह नहीं है। यदि आप एक धारा की दिशा में प्रवाहित हो रहे हैं तो आप बने रहेंगे और यदि आप उस धारा के विपरीत जा रहे हैं तो आपके ऊपर अंकुश लग सकता है। आज के दौर में टीवी इंडस्ट्री की स्थिति दो-तीन कारणों से दयनीय है। एक तो टेलिविजन की ‘गरीबी’ खबरों को लेकर है।
मुझे याद नहीं आ रहा है कि पिछले आठ वर्षों में किसी टीवी चैनल का संपादक कहे कि मैंने ये खबर ब्रेक की है। किसी के पास ब्रेक करने के लिए कोई खबर है ही नहीं। सारे चैनल्स रूटीन वर्क में वही चीज कर रहे हैं, जो उन्हें करने के लिए कहा जा रहा है। अपना जजमेंट, अपना वैल्यू एडिशन चैनल्स की खबरों में बिलकुल ही बंद हो गया है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि तमाम चैनल्स की आर्थिक स्थिति सोचनीय और दयनीय है। दरअसल, चैनल्स की आमदनी सिंगल विंडो यानी सिर्फ एडवर्टाइजमेंट पर आधारित है।
विज्ञापन के माध्यम से जो रेवेन्यू आ सकता है, वही रेवेन्यू चैनल की आमदनी है। करीब 90 प्रतिशत चैनल्स अपनी लागत को निकाल भी नहीं पाते हैं। सिर्फ दस प्रतिशत बड़े चैनल ही बड़ी मुश्किल से अपनी कॉस्ट को निकाल पा रहे हैं। इन दस प्रतिशत में भी चार-पांच चैनल्स ही ऐसे हैं, जो प्रॉफिट में हैं। बाकी सारे टीवी चैनल्स सीधे या अप्रत्यक्ष तरीके से घाटे में चल रहे हैं। अब घाटे में जो व्यक्ति बिजनेस कर रहा है, उसकी दशा क्या होगी, क्या वो कहीं खड़ा हो सकता है, वो क्या पत्रकारिता के साथ न्याय कर सकता है, क्या वह राज्य का चौथा स्तंभ बन सकता है? आज जो टेलिविजन की पत्रकारिता है, वह इसी दौर से गुजर रही है।
आज के दौर में फेक न्यूज काफी तेजी से फैल रही है। हालांकि, पीआईबी समेत तमाम मीडिया संस्थानों ने अपनी फैक्ट चेकिंग टीम भी बना रखी है। आप इसे किस रूप में देखते हैं और आपकी नजर में फेक न्यूज पर किस तरह लगाम लग सकती है?
देखिए, दो बातें हैं। ये जो दौर है, टेलिविजन के साथ-साथ एक नई परंपरा का जन्म हुआ है, जिसे हम वेब न्यूज कह रहे हैं या वेबसाइट न्यूज कह रहे हैं, इस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। टीवी चैनल्स के रिपोर्टर्स सीमित हैं और वह पढ़कर और प्रशिक्षण लेकर इसमें आ रहे हैं। उन्हें पता है कि खबर क्या है, लेकिन आज के दौर में सोशल मीडिया के माध्यम से लगभग हर व्यक्ति ‘रिपोर्टर’ है। व्यक्ति को जो लग रहा है, वह उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहा है। फिर चाहे वह खबर हो या न हो। दरअसल, सोशल मीडिया को जिस तरह से विस्तार हुआ है, वह फेक न्यूज का बड़ा कारण है। ये सिटीजन रिस्पॉन्सिबिलिटी का सवाल है।
मेरा अनुमान है कि सिर्फ एक प्रतिशत फेक न्यूज ही स्थापित चैनल्स द्वारा फैलाया जाता होगा, लेकिन 99 प्रतिशत फेक न्यूज सोशल मीडिया के माध्यम से समाज में फैलाया जा रहा है और जहर के रूप में चारों तरफ फैल रहा है। अब जब समाज ही ऐसी खबर को फैला रहा है तो कौन सी संस्था इसे नियंत्रित करेगी? इसे न पीआईबी और न पुलिस नियंत्रित कर सकती है। इसे सिर्फ शिक्षा ही नियंत्रित कर सकती है। अगर हमारा समाज शिक्षित हो रहा है और समाज में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ रहा है, तो लोग इस बात को तय करेंगे कि यह गलत हैं, ये फेक न्यूज हैं और इनसे दूर रहा जाए।
इस तरह के आरोप भी लगते हैं कि तमाम फैक्ट चेकिंग टीम की भी कई खबरें गलत होती हैं, तो वह फैक्ट चेक क्या करेंगी। इस बारे में आप क्या कहेंगे?
जैसा मैंने अभी कहा कि सरकार या पीआईबी इस दिशा में सिर्फ खानापूर्ति करती हैं। हालांकि, सरकार अपनी तरफ से मॉनीटरिंग की व्यवस्था करती है, लेकिन फेक न्यूज सोशल मीडिया के माध्यम से आ रही हैं। अब आप ये मत समझिए कि सोशल मीडिया सिर्फ एक दूसरे से जुड़ने या दोस्ती का फोरम है, उसमें काफी खराब चीजें आ रही हैं। उसमें तमाम लोग अपना बिजनेस भी चला रहे हैं। यानी, उसमें हर तरह की गतिविधियां हो रही हैं। ऐसे में सोशल मीडिया के माध्यम से फैल रही फेक न्यूज पर लगाम लगाना काफी मुश्किल है।
सरकार ने नए आईटी नियमों में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया है। इन प्रस्तावों में कहा गया है कि यदि पीआईबी की फैक्ट चेक टीम किसी खबर को फेक न्यूज पाती है, तो सोशल मीडिया कंपनी को वह न्यूज अपने प्लेटफॉर्म से हटानी होगी। इस प्रस्ताव का तमाम स्तर पर विरोध हो रहा है। कहा जा रहा है कि इस तरह मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित होगी, इस पर आपका क्या कहना है?
सरकार जो भी नियम बना रही है, उसे सशक्तीकरण के साथ लागू करना होगा। इस तरह की न्यूज को नियंत्रित करने के लिए पहले भी कानून बने हैं। चूंकि, इन नियमों का कार्यान्वयन सही ढंग से नहीं हो पा रहा, इसलिए दूसरे नियम की आवश्यकता पड़ी। जो नए नियम बने हैं, उन्हें भी यदि ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया तो यह समस्या जारी रहेगी। यदि पहले और अब के कानून को सही ढंग से कार्यान्वित किया जाए तो चेक एंड बैलेंस की बात सोची जा सकती है।
मीडिया की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में है। तमाम चैनल्स पर पक्षपातपूर्ण होने अथवा खबरों को सनसनीखेज बनाकर पेश करने के आरोप लगते रहते हैं, उस पर क्या कहेंगे?
जैसा कि मैंने थोड़ी देर पहले कहा कि करीब 90 प्रतिशत चैनल्स घाटे में चल रहे हैं। अब ऐसे चैनल्स के मालिकों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह किसी के सामने मजबूती से खड़े हो सकें, क्योंकि उनका धंधा ही घाटे में चल रहा है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि वह दबाव में आएंगे ही। यहां मैं राजनीतिक दबाव की बात कर रहा हूं। ऐसे में वह कहां से निष्पक्ष खबरें दिखाएंगे। आप देखिए कि अगर कोई चैनल आज प्रॉफिट में है, तो उस पर सरकार अथवा किसी संस्था का दबाव बहुत कम हो पाता है। वे किसी की गैरजरूरी बात नहीं सुनते हैं। अगर वह स्वयं ही भक्ति में लीन हो जाएं तो और बात है, नहीं तो दबाव के कारण ऐसे चैनल्स, जो प्रॉफिट में हैं, वह किसी के पिछलग्गू नहीं हो सकते हैं।
आप तमाम चैनल्स में प्रमुख पदों पर रहे हैं और वर्तमान में ‘इंडिया अहेड’ में एग्जिक्यूटिव एडिटर के पद पर अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि न्यूजरूम्स दबावों से मुक्त रह पाते हैं अथवा उन्हें किसी न किसी रूप में, जैसे-किसी खबर को चलवाने अथवा रुकवाने में दबाव का सामना करना पड़ता है?
यह बड़ा माइक्रोलेवल का सवाल है कि किस तरह के दबाव आते हैं। मेरा मानना है कि दबाव किसी खबर को रोकने अथवा चलाने के लिए नहीं आता है। एक नैतिक दबाव भी होता है कि अगर हम ये खबर दिखाएंगे या नहीं दिखाएंगे तो लोग क्या कहेंगे। कहने का मतलब है कि कई बार खबरों के साथ इस डर की वजह से न्याय नहीं हो पाता है। मेरा मानना है कि सरकार कभी नहीं कहती कि हमारी भक्ति कीजिए, तमाम चैनल्स अपनी लॉयल्टी सिद्ध करने के लिए खुद भक्त बनकर अपने आप को प्रदर्शित करने के लिए उतावले हो जाते हैं।
टीवी चैनल्स की टीआरपी को लेकर विवाद उठता रहता है। कई चैनल्स ने तो टीआरपी मापने वाली संस्था ‘ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल’ (BARC) से अपने कदम पीछे खींच लिए हैं और तमाम चैनल्स ने इससे हटने की बात कही है, इसे रूप में देखते हैं?
टीआरपी इस समय का ऐसा मैकेनिज्म है, जो एडवर्टाइजिंग में एक रेगुलेटर की भूमिका निभाता है। किस चैनल को कितना विज्ञापन देना चाहिए, यह विज्ञापन एजेंसियों इसी टीआरपी के आधार पर देती हैं। यानी टीआरपी उनके लिए एक पैमाना होता है कि इस आधार पर किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है। यानी विज्ञापन लेने के लिए टीआरपी एक माध्यम बना हुआ है।
आपने देश के सामाजिक, राजनीतिक और रक्षा संबंधी मुद्दों पर सात किताबें लिखी हैं। क्या फिलहाल किसी नई किताब पर काम कर रहे हैं या यूं कहें कि क्या पाठकों को जल्द ही आपकी कोई नई किताब पढ़ने को मिलेगी?
मेरा लेखन तो हमेशा जारी रहता है। मैंने जो भी लिखा है, वह अपने दिमाग और दिल की आवाज पर लिखा है। कहीं से देखी हुई अथवा कहीं से कंटेंट उठाकर लिखी हुई किताबें नहीं हैं। जैसे मैंने एक किताब 'Military and Media' लिखी है, ऐसी किताब दूसरी आपको कहीं पढ़ने को नहीं मिलेगी। वहीं, प्रधानमंत्री के ऊपर एक किताब लिखी है। यह प्रधानमंत्री के ऊपर लिखी गई पहली किताब थी। देश में इससे पहले प्रधानमंत्री के ऊपर कोई किताब नहीं लिखी गई थी।
भारत में जो राजनीतिक उथल-पुथल हुई है और राजनीति का जो स्वरूप बदला है, उसे लेकर दिमाग में काफी कुछ चल रहा है। नई परिसीमन आई हैं, मैं उन चीजों को देख रहा हूं, समझ रहा हूं और नए परिप्रेक्ष्य में कुछ करने की कोशिश हो रही है, ताकि कोई नई चीज दी जाए। नई किताब आने में कुछ समय लगेगा, मैं चाह रहा हूं कि 2024 का चुनाव देख लूं, उसके बाद नई किताब लिखूं।
डिजिटल आजकल काफी तेजी से पैर पसार रहा है। ऐसे माहौल में टीवी चैनल्स को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और दर्शकों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए किस तरह के कदम उठाए जाने की जरूरत है?
डिजिटल का फैलाव काफी बढ़ रहा है और इसलिए बढ़ रहा है कि अब वो दस साल पहले वाला माहौल नहीं रहा कि घर में आप टीवी देखेंगे। आज के दौर में लगभग हर जेब में ‘टीवी’ है। मोबाइल के माध्यम से आप कहीं पर भी टीवी देख सकते हैं। डिजिटल की वजह से व्यक्ति खबरों को हर समय कहीं पर भी एक्सेस कर पा रहा है। घर में जब आप टीवी देखते हैं तो उसके लिए मल्टीसिस्टम ऑपरेटर्स या केबल टीवी के लिए भुगतान करना पड़ता है, लेकिन मोबाइल में ऐसा नहीं है। अब ये सवाल है कि डिजिटल पर खबर कहां से आ रही है तो टीवी चैनल्स पर जो चल रहा है, उसी को कस्टमाइज करके डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दिया जा रहा है। और डिजिटल प्लेटफॉर्म खबरों को आम आदमी तक पहुंचा रहा है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच पर टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि हेट स्पीच फैला रहे न्यूज चैनल्स और न्यूज एंकर्स के खिलाफ भी कदम उठाए जाने चाहिए, इस बारे में आपका क्या कहना है?
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान होना चाहिए। यदि सुप्रीम कोर्ट किसी चीज का संज्ञान ले रहा है, तो वह इस पर अधिसूचना भी जारी कर सकता है। सरकार अथवा संबंधित नोडल एजेंसी को कार्रवाई करने के लिए निर्देश दे सकता है। ये जुडिशियरी का नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह सिर्फ कहे नहीं, बल्कि उस पर एक्शन भी ले।
कोरोना के दौर में जब तमाम लोग घरों में ‘बंद’ थे, उस दौरान टीवी की व्युअरशिप काफी बढ़ गई थी। अब जबकि कोरोना जा चुका है, हालांकि खतरा अभी भी है, लेकिन आपको क्या लगता है कि टीवी व्युअरशिप का वह आंकड़ा फिर छू पाएगा, जो उसने कोरोना काल में छुआ था?
कोरोना के दौर में तमाम लोग घरों में थे और उनके पास टीवी के अलावा एंटरटेनमेंट और सूचनाएं प्राप्त करने का कोई और विकल्प नहीं था। उस समय जाहिर सी बात है कि लोग टीवी देख रहे थे और उस वजह से टीआरपी बढ़ी। लेकिन अब लोग घरों से बाहर निकले हैं और इनमें टीवी के वह दर्शक भी शामिल हैं और वे मोबाइल लेकर निकल रहे हैं। ऐसे में वह खबरें अथवा एंटरटेनमेंट के लिए मोबाइल का सहारा ले रहे हैं, जिससे टीवी देखने के समय की हिस्सेदारी बंट रही है।
पत्रकारिता में करियर बनाने के इच्छुक युवाओं अथवा नवोदित पत्रकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे, सफलता का कोई ‘मूलमंत्र’ जो आप देना चाहें?
आजकल पत्रकारिता में जो युवा आ रहे हैं, वह पुराने लोगों से कई मायनों में ज्यादा सक्षम हैं। उन पर देश का भविष्य टिका हुआ है और उनसे काफी उम्मीदें हैं। मुझे लग रहा है कि हमारी पीढ़ी से ज्यादा तीव्रता से नई पीढ़ी काम कर रही है। चीजों को सीख रहे हैं और अपना करियर बना रहे हैं औऱ देश को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं। हालांकि, कुछ कमी रहती है, तो वे उसे दूर भी कर रहे हैं।
अब ट्रेडिशनल जर्नलिज्म का दौर खत्म हो चुका है, ये इंस्टैंट जर्नलिज्म का दौर है। एक समय था जब 200 शब्दों में स्टोरी लिखनी होती थी। फिर वह 200 शब्द सिमटकर 20 शब्दों पर आ गया, जिसे अब एंकर कहा जाता है। अब वह 20 शब्द भी घटकर एक वाक्य में आ गया है। यानी अब आपको ऐसी हेडलाइन देनी है, जिसे पढ़ते ही लोग समझ जाएं कि खबर क्या है, इसलिए यह इंस्टैंट जर्नलिज्म का दौर है।
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