हिंदी टीवी मीडिया के मशूहर नाम अभिसार शर्मा जो वर्तमान में एबीपी न्यूज चैनल में कार्यरत है, ने शब्दांकन डॉट कॉम पर देश के कुछ राष्ट्रवादी पत्रकारों को लेकर एक लेख लिखा है, जिसमें उन्हें और मोदी सरकार से कुछ सवाल पूछे गए हैं। हम उनका ब्लॉग आपके साथ शेयर कर रहे हैं...
मोदीजी की विरासत
— अभिसार
उस राष्ट्रवादी पत्रकार ने अंग्रेजी में दहाड़ते हुए कहा, "तो कहिये दोस्तों ऐसे पाकिस्तान प्रेमियों, आईएसआई परस्तों के साथ क्या सुलूक किया जाए ? क्या वक़्त नहीं आ गया है के उन्हें एक एक करके एक्सपोस किया जाए ?"
मैंने सोचा के वाकई, क्या किया जाए ? क्या इन तमाम छद्म उदारवादियों को चौराहे पे लटका दिया जाए ? क्या उन्हें और उनके परिवारों को चिन्हित करके शर्मसार किया जाए ? क्या? कुछ दिनों पहले एक अन्य चैनल ने एक प्रोपेगंडा चलाया था जिसे "
अफ़ज़ल प्रेमी गैंग" का नाम दिया गया। इन्हें देश विरोधी बताया गया। इन तथाकथित अफ़ज़ल प्रेमियो में से एक वैज्ञानिक
गौहर रज़ा की मानें तो इसके ठीक बाद उन्हें धमकियाँ भी मिलने लगी। तब मुझे याद आया के सत्ता पे तो एक राष्ट्रवादी सरकार आसीन है. क्यों न इन आईएसआई फंडेड उदारवादियों और पत्रकार को देश द्रोह के आरोप में जेल भेजा जाए। बिलकुल वैसे, जैसे JNU में "
भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी" नारा लगाने वाले, मुँह छिपाये, कश्मीरी लहजे में बोलने वाले लोग जेल में हैं। नहीं हैं न ? अरे ? मुझे तो लगा के के सत्ता में आसीन ताक़तवर सरकार के मज़बूत बाज़ुओं से कोई बच नहीं सकता। फिर मेरे देश को गाली देने वाले वह लोग आज़ाद क्यों घूम रहे हैं ? खैर छोड़िये, हमारे राष्ट्रवादी पत्रकार ये मुद्दे नहीं उठाएंगे।
उन्हें कुछ और मुद्दों से भी परहेज़ है। मसलन, जबसे कश्मीर में नए सिरे से अराजकता का आग़ाज़ हुआ है, तबसे देश के प्रधानमंत्री
श्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी, एक बार भी,
कश्मीर पे कोई टिपण्णी नहीं की। सोनिया गांधी के अंदाज़ में, उनके दुःख और अफ़सोस की खबरें हम गृह मंत्री राजनाथ सिंह से तो सुनते रहते हैं, मगर लोगों से संपर्क साधने के धनी मोदीजी ने एक बार भी
कश्मीर में मारे गए लोगों या सुरक्षाकर्मियों पे वक्तव्य नहीं दिया। मान लिया कश्मीर में इस वक़्त चुनाव नहीं हैं, मगर
गुजरात में दलितों पे शर्मनाक हमला भी आपको झकझोर नहीं पाया ? म्युनिक पे हुए हमले पे आपकी व्यथा को पूरे देश ने महसूस किया, मगर कश्मीर और दलितों पे आये दिन हमले आपको विचलित नहीं कर पाए? और सबसे बड़ी बात। ..
क्या इन राष्ट्रवाद से ओतप्रोत पत्रकारों ने एक बार भी मोदीजी की ख़ामोशी का मुद्दा उठाया ? एक बार भी? क्या मोदीजी को बोलने से कोई रोक रहा है? कौन कर रहा है ये साज़िश? और किसने हमारे गौरवशाली पत्रकारों का ध्यान इस ओर नहीं खींचा?
आये दिन देश के उदारवादियों और धर्मनिरपेक्ष लोगों के खिलाफ चैनल्स पर मुहीम देखने को मिलती रहती है। एक और ट्रेंड से परिचय हुआ। #PROPAKDOVES यानी पाक समर्थित परिंदे। कभी एक आध बार इन न्यूज़ शोज को देखने का मौका मिलता है तो देशभक्ति की ऐसी गज़ब की ऊर्जा का संचार होने लगता है के पूछो मत। लगता है के बस, उठाओ बन्दूक और दौड़ पड़ो LOC की तरफ। आखिर देश के दुश्मन पाकिस्तान की सरपरस्ती कौन कर सकता है और उससे भी बुरी बात, हमारी राष्ट्रवादी सरकार खामोश क्यों है ? आखिर क्यों देशप्रेम के जज़्बे में डूबे जा रहे इन भक्त पत्रकारों की आवाज़ को अनसुना किया जा रहा है ?
फिर मुझे कुछ याद आया। बात दरसल उस वक़्त की है जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। तब UPA की सरकार ने दो चीज़ें की थी. पहला पाकिस्तान के साथ साझा टेरर मैकेनिज्म बनाया और दूसरा, पहली बार किसी साझा बयान में बलोचिस्तान को स्थान मिला। और ये शर्मनाक काम हुआ था शर्म अल शेख में। बतौर पत्रकार मैंने और मेरी तरह बाक़ी सभी राष्ट्रवादी पत्रकारों ने इसके आलोचना की थी। मेरा मानना था के जो देश भारत में आतंक फैला रहा है, उसके साथ साझा आतंकी सहयोग कैसे? आखिर क्यों भारत ने एक साझा बयान में बलोचिस्तान को जगह दे दी, जो एक करारी शिकस्त है? खैर नयी सरकार आयी। मोदीजी के नेतृत्व में ये स्पष्ट किया गया के अगर पाकिस्तान पृथकतावादियों के साथ बात करेगा, तो हमसे बात न करे। देश को आखिरकार एक ऐसे प्रधानमंत्री मिल गया जिसके ज़ेहन में पाकिस्तान नीति बिलकुल स्पष्ट थी। मोदीजी ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी थी, और खबरदार जो किसी ने इसे पार किया। मगर फिर अचानक, पठानकोट हुआ। इसमें सरकार की किस तरह से छीछालेदर हुई वह चर्चा का अलग विषय है। मगर फिर जो हुआ वह कल्पना से भी विचित्र है। एक ऐसी संस्था को हमने पठानकोट में आमन्त्रित किया जिसके घोषणा पत्र में भारत को सौ घाव देकर काट देने का ज़िक्र है। वह संस्था जो निर्विवाद रूप से देश में सभी आतंकी समस्याओं की जड़ है। आईएसआई। जी हाँ। ये वही आईएसआई, जो इस देश के कुछ पत्रकारों और #PROPAKDOVES को "फण्ड" कर रही है। कितना खौला था हमारे राष्ट्रवादी पत्रकारों का खून इसकी मिसालें सामने हैं। या नहीं हैं ? और फिर हम कैसे भूल सकते हैं के विदेश मंत्रालय को ताक पर रखकर प्रधानमंत्री पाकिस्तान पहुँच गए। और वो भी नवाज़ शरिफ पारिवारिक समारोह में। मैंने खुद इसे मास्टरस्ट्रोक बताया था। मगर मैं तो मान लिया जाए देशद्रोही हूँ, मगर हमारे राष्ट्रवादी पत्रकार ? इस अपमान के घूँट को कैसे पी गए ?
सच तो ये है मोदी की विदेश नीति में असमंजस झलकता है । मगर इस असमंजस की समीक्षा को न्यूज़ चैनल्स में जगह नहीं मिलती। जनरल बक्शी और अन्य जांबाज़ विशेषज्ञ जिन्हें आप सावरकर की तारीफ करते तो सुन सकते हैं, यहाँ उनकी खामोशी चौंकाने वाली है। प्रधानमंत्री की कश्मीर और दलितों पे खामोशी और पाकिस्तान पे बेतुके तजुर्बे चिंतित वाले हैं, मगर हम इस पर खामोश रहेंगे।
पत्रकारों को गाली देने वाले, ज़रा छत्तीसगढ़ के पत्रकार संतोष यादव की पत्नी से भी मिलकर आएं।जब मैं बस्तर गया था, तब उन्होंने मुझसे कहा था के मेरे पति एक अच्छा काम कर रहे हैं और मैं चाहूंगी के वह पत्रकार बने रहें। वो शब्द मैं कभी नहीं भूलूंगा। मगर वो शख्स अब भी जेल में बंद है और अब खबर ये है के उसकी जान पे बन आयी है। बेल भाटिया अकेले एक गाँव के छोटे से घर में रहती हैं। बगैर किसी सुरक्षा के। मगर यह राष्ट्रवादी ऐसे लोगों को नक्ससली समर्थक, देशद्रोही बताते हैं। बस्तर सुपरकॉप कल्लूरी के काम करने के तरीकों से खुद प्रशासन असहज है, मगर ऐसे बेकाबू लोगों पे कोई सवाल नहीं उठाता। ये देशभक्त हैं. राष्ट्र की धरोहर हैं। इन्हें मोदीजी का पूरा समर्थन हासिल है और ये आधिकारिक है।
कश्मीर पे अगर कुछ पत्रकार सवाल उठा रहे हैं, तो उसका ताल्लुक उन बच्चों से है, जो सुरक्षा बालों के पेलेट्स का शिकार हो रहे हैं और चूंकि कश्मीर देश का अभिन्न अंग है, लिहाज़ा उसके बच्चे भी मेरे बहन-भाई हैं। क्या उनकी बात करना देश द्रोह है? अच्छा लगा था जब प्रधानमंत्री ने दिवाली श्रीनगर में बिताई थी, मगर सच तो ये है के अब सब कुछ एक "जुमला" सा लगने लगा है। उस कश्मीर की व्यथा पे आपकी खामोशी चौंकाने वाली है। और मैं जानता हूँ के किसी भी तरह की टिपण्णी करने में आपको असुविधा हो सकती है। क्योंकि चुनाव सर पर हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव। जहाँ सामजिक भाईचारे की मिसाल आपकी पार्टी के होनहार संगीत सोम पेश कर ही रहे हैं।
इस लेख को लिखते समय मेरी निगाह ट्विटर पर एक सरकारी हैंडल पर गयी है, जिसका ताल्लुक मेक इन इंडिया। इस हैंडल ने दो ऐसे ट्वीट्स को रिट्वीट किया जिसमे पत्रकारों को मौत देने का इशारा किया गया था।
मुझे हैरत नहीं है अगर यही मेक इन इंडिया का स्वरुप है। क्योंकि हाल में एक और राष्ट्रवादी पत्रकार के ट्विटर हैंडल पे मैंने पत्रकारों को मौत देने की वकालत करने वाला ट्वीट देखा। हम उस काल में जी रहे हैं जब एक आतंकवादी की बात पर हम अपने देश की एक पत्रकार के खिलाफ गन्दा प्रोपेगंडा चलाते हैं, फिर मौत की वकालत करना तो आम बात है। भक्तगण ये भूल गए कि बोलने वाला शख्स एक आतंकवादी तो था ही, उसे इंटरव्यू करने वाला अहमद कुरैशी भी घोर भारत विरोधी था। उनका मक़सद साफ़ था, जिसे कामयाब बनाने में कुछ देशभक्तों ने पूरी मदद की. well done मित्रों! हम ये भूल रहे हैं के हम बार-बार उत्तेजना का एक माहौल पैदा कर रहे हैं, जिसका खामियाज़ा आज नहीं तो कल हमें भुगतना पड़ेगा।
अपनी ही बात करता हूँ। पिछले एक साल में मुझे दो बार सुरक्षा लेनी पड़ी है। पहला जब मैंने सनातन संस्था पर एक शो किया था जिसमे हिन्दू सेना के एक अति उत्साही ने मुझे मारने की धमकी दी थी और दूसरा बिहार से मेरी एक रिपोर्ट, ज्सिके वजह से 67 साल बाद, पहली बा 10 गाँव के लोग वोट दे पाए थे। इस रिपोर्ट में दिक्कत ये थी के यहां एनडीए द्वारा समर्थित प्रत्याशी राहुल शर्मा के नाजायज़ वर्चस्व को चुनौती दे रहा था। और नतीजा भी सुख हुआ जब पहली बार, इस रिपोर्ट के चलते राहुल शर्मा को हार का सामना करना पड़ा, क्योंकि उनके पिता जगदीश शर्मा यहाँ के बेताज बादशाह थे। इस रिपोर्ट की वजह से मुझे और मेरे परिवार को जितनी धमकियाँ और गंदे फ़ोन कॉल्स हुए, उससे मेरे दोस्त वाकिफ हैं। मेरी पत्नी ने मुझे मॉर्निंग वाक करने से रोक दिया है, क्योंकि ज़हन में आशंका है। क्या करें।
मैं सोचता हूँ कि मोदीजी जब 5, 10 या 15 साल बाद देश के प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे तो उनकी विरासत क्या होगी? देशभक्ति, विकास, "सबका साथ" सबका विकास के साथ साथ, दो और शब्द ज़ेहन में आते हैं।कायरता और डर। कायरता मेरी बिरादरी के कुछ पत्रकारों की, जो सुविधावादी पत्रकारिता कर रहे हैं और डर। डर तो बनाया जा रहा है कि तुम्हे आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है। वरना!
खामोश तो आप रहते ही हैं और जब आप ऐसे लोगों का अनुमोदन करते हैं मोदीजी, जो नफरत फैलाते हैं, तब आप नफरत और हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। और इसमें हम सब भागीदार हैं। आये दिन न्यूज़ चैनल्स पर किसी कट्टर मुसलमान की स्पेशल रिपोर्ट्स देखने को मिलती हैं। ..ज़ाकिर नाइक का ड्रामा देख ही रहे हैं आप. अभी कुछ हुआ भी नहीं है, मगर नाइक को आतंक के सरगना और डॉक्टर टेरर जैसे जुमलों से नवाज़ जाने लगा है। क्यों?
मैं ये कहने का साहस करना चाहता हूँ के क्या इस वक़्त यानी उत्तर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ध्रुवीकरण का प्रयास है? या मुसलमान को नए सिरे से खलनायक पेश करने की कोशिश है? क्या मक़सद पश्चिमी उत्तर प्रदेश है? उसकी कोशिश तो भक्त पत्रकारों को करनी भी नहीं चाहिए। क्योंकि भक्त सेना का बस चले सभी मुसलमान और छद्म उदारवादियों को पाकिस्तान छोड़ कर आएंगे।
ये एक संकट काल है। मुझे ये कहने में कोई असमंजस नहीं है। हम सब जानते हैं के परदे के पीछे किस तरह से कुछ पत्रकारों और बुद्दिजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है। कैसे दावा किया जाता है के मैंने तो उस पत्रकार को ठिकाने लगा दिया। और मैं ये भी जानता हूँ के आप और विवरण चाहते हैं। मेरा मक़सद ये है भी नहीं। इशारा ही करना था सिर्फ।.और आप लोग तो समझदार हैं। क्यों?
साभार: शब्दांकन डॉट कॉम