डेटा सेंटर में कम्प्यूट का काम GPU यानी ग्राफ़िक्स प्रोसेसिंग यूनिट करता है। GPU बाज़ार पर 90% क़ब्ज़ा NVIDIA का है। पिछले हफ़्ते शेयर बाज़ार की नज़र उसके रिज़ल्ट पर थी।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) की दुनिया में गूगल ने पिछले हफ़्ते बड़ा धमाका किया। AI मॉडल Gemini 3 लॉन्च किया। यह मॉडल कई मायनों में ChatGPT से बेहतर बताया जा रहा है। मैं अभी भी इसे चलाना सीख रहा हूँ, इसलिए Gemini के बारे में आगे लिखूँगा। AI को लेकर इस हफ़्ते एक और चर्चा तेज़ हो गई कि क्या यह बुलबुला है? क्या ये बुलबुला भी 25 साल पहले फटे डॉट कॉम बबल की तरह फटेगा और शेयर मार्केट को ले डूबेगा।
AI बबल की चर्चा पिछले साल भर से होती रही है, लेकिन हाल में इसने ज़ोर पकड़ा क्योंकि गूगल के सुंदर पिचाई, OpenAI के फाउंडर सैम ऑल्टमैन और माइक्रोसॉफ़्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने बयान दिए हैं। उनका सार यह है कि इन्वेस्टर AI कंपनियों को लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हैं। इस कारण वैल्यूएशन यानी शेयरों की क़ीमत बहुत बढ़ गई है। यह बुलबुला हो सकता है।
बुलबुले यानी बबल को लेकर अलग-अलग चेतावनी दी जा रही है। बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने पिछले महीने शेयर बाज़ार में AI शेयरों को लेकर चिंता जताई थी कि यह डॉट कॉम की तरह फट सकता है। JP Morgan की रिपोर्ट में कहा गया कि AI में जितना इन्वेस्टमेंट हो रहा है, उसका रिटर्न सालाना 10% भी रखना है तो हर साल 650 बिलियन डॉलर की कमाई करनी होगी। अभी सबसे बड़ी जेनरेटिव AI कंपनी OpenAI की आय क़रीब 10 बिलियन डॉलर है।
हम पहले बता चुके हैं कि AI को काम करने के लिए बड़े-बड़े डेटा सेंटर की ज़रूरत है। इनका काम तकनीकी भाषा में कम्प्यूट करना है या यूँ कहें कि जो काम AI को दिया गया है, उसको पूरा करने के लिए यह गणना डेटा सेंटर में होती है। डेटा सेंटर में कम्प्यूट का काम GPU यानी ग्राफ़िक्स प्रोसेसिंग यूनिट करता है। GPU बाज़ार पर 90% क़ब्ज़ा NVIDIA का है। पिछले हफ़्ते शेयर बाज़ार की नज़र उसके रिज़ल्ट पर थी। NVIDIA की चिप्स की बिक्री ज़बरदस्त बढ़ रही है। पिछले क्वार्टर में उसका मुनाफ़ा 32 बिलियन डॉलर हुआ है। पिछले साल इसी अवधि के मुक़ाबले 65% ज़्यादा है।
इसके शेयरों की क़ीमत हाल में 5 ट्रिलियन डॉलर पार कर गई थी। यह दुनिया की सबसे क़ीमती कंपनी बन गई है। अच्छे रिज़ल्ट के बाद भी NVIDIA के शेयरों में गिरावट हुई है। बाज़ार में डर बना हुआ है कि कहीं AI बुलबुला सबको न डूबा दे, जैसे डॉट कॉम में हुआ था।
अमेरिका के शेयर बाज़ार में Magnificent 7 के नाम से मशहूर टेक्नोलॉजी कंपनियों के शेयरों की क़ीमत कुल बाज़ार के क़रीब 36% है। इसमें Apple, Microsoft, Google, Meta, Amazon, NVIDIA और Tesla शामिल हैं। अमेरिकी शेयर बाज़ार में पिछले साल भर में जो फ़ायदा हुआ है, उसका आधे से ज़्यादा हिस्सा इन कंपनियों का है। ये गिरेंगे तो बाक़ी बाज़ार पर भी असर पड़ सकता है।
तो फिर हम क्या करें? JP Morgan के CEO जैमी डायमन्ड कहते हैं कि बाज़ार में बुलबुला है, कई लोगों को नुक़सान होगा, लेकिन AI टेक्नोलॉजी ठीक है। यही बात सुंदर पिचाई भी कह रहे हैं कि डॉट कॉम बबल फूट गया था, मगर इंटरनेट बच गया बल्कि दुनिया को बदल दिया। यही संभावना AI के साथ है। जब बिजली और रेल आई थी, तब भी शेयर बाज़ार में बुलबुला था। वह फूटा भी, लेकिन ट्रेन और बिजली आज भी चल रही है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अमित राय ने जो सुनाया वो बेहद चिंताजनक बात थी। उन्होंने कहा कि एक दिन किसी फिल्म पर चर्चा हो रही थी। वहां एक निर्देशक भी थे। अपेक्षाकृत युवा हैं लेकिन उनकी दो तीन फिल्में सफल हो चुकी हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले दिनों मुंबई में जागरण फिल्म फेस्टिवल, 2025 का समापन हुआ। सितंबर के पहले सप्ताह में दिल्ली में आरंभ हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल 14 शहरों से होता हुआ मुंबई पहुंचा। मुंबई में फिल्म फेस्टिवल के अंतिम दिन पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम था। प्रख्यात निर्देशक प्रियदर्शन को जागरण फिल्म फेस्टिवल में जागरण अचीवर्स अवार्ड से सम्मानित किया गया।
प्रियदर्शन ने बताया कि उनके पिता लाइब्रेरियन थे इस कारण उनको पुस्तकों तक पहुंचने की सुविधा थी। घर पर भी ढेर सारी पुस्तकें थीं। उन्हें बचपन से अलग अलग विधाओं की पुस्तकें पढ़ने का आदत हो गई। किशोरावस्था में उन्होंने कामिक्स भी खूब पढ़ा। इससे उनको फ्रेम और अभिव्यक्ति की समझ बनी। प्रियदर्शन ने कहा कि उनका अध्ययन उनके निर्देशक होने की राह में सहायक रहा। आगे बताया कि पुस्तकों में पढ़ी गई घटना किसी
फिल्म की शूटिंग के दौरान याद आ जाती है जिससे फिल्मों के दृश्यों को इंप्रोवाइज करने में मदद मिलती है। प्रियदर्शन ने विरासत, हेराफेरी जैसी कई सफल हिंदी फिल्में बनाई हैं। इसके अलावा अंग्रेजी, मराठी, मलयालम, तमिल और तेलुगू में उन्होंने बेहतर फिल्में बनाई हैं। पुरस्कार वितरण समारोह समाप्त होने के बाद फिल्मों से जुड़े लोगों से बात होने लगी।
इसी दौरान फिल्म ओ माय गाड- 2 के निर्देशक अमित राय वहां आए। उनसे मैंने प्रियदर्शन की पुस्तक वाली बात बताई। वो मुस्कुराए और बोले मेरे पास भी एक अनुभव है सुनाता हूं। अमित राय ने जो सुनाया वो बेहद चिंताजनक बात थी। उन्होंने कहा कि एक दिन किसी फिल्म पर चर्चा हो रही थी। वहां एक निर्देशक भी थे। अपेक्षाकृत युवा हैं लेकिन उनकी दो तीन फिल्में सफल हो चुकी हैं। कहानियों पर बात होने लगी। एक उत्साही लेखक ने कहा कि उसने कहानी पर स्क्रिप्ट डेवलप की है और वो सुनाना चाहता है। निर्देशक महोदय ने सुनने की स्वीतृति दी।
दो दिन बाद मिलना तय हुआ। तय समय पर स्क्रिप्ट लेकर लेखक महोदय वहां पहुंचे। दो घंटे की सीटिंग हुई। स्क्रिप्ट और कहानी सुनकर निर्देशक महोदय बेहद खुश हो गए। उन्होंने जानना चाहा कि ये किसकी कहानी है। स्क्रिप्ट लेखक ने बहुत उत्साह के साथ बताया कि कहानी प्रेमचंद की है। निर्देशक महोदय ने फौरन कहा कि प्रेमचंद को फौरन टिकट भिजवाइए और मुंबई बुलाकर इस कहानी के अधिकार उनसे खरीद लिए जाएं।।
कहानी के अधिकार के एवज में उनको बीस पच्चीस हजार रुपए भी दिए जा सकते हैं। निर्देशक महोदय की ये बातें सुनकर बेचारे स्क्रिप्ट लेखक को झटका लगा। उन्होंने कहा कि सर प्रेमचंद जी अब इस दुनिया में नहीं हैं और उनकी कहानियां कापीराइट मुक्त हो चुकी हैं। निर्देशक महोदय ये सुनकर प्रसन्न हुए और बोले तब तो कोई झंझट भी नहीं है। इसपर काम आरंभ किया जाए। उस समय तो अमित राय की बातें सुनकर हंसी आई।
हम सबने इस प्रसंग को मजाक के तौर पर लिया। देर रात जब मैं होटल वापस लौट रहा था तब अमित को फोन कर पूछा कि क्या सचमुच ऐसा घटित हुआ था। अमित ने बताया कि ये सच्ची घटना है। मैं विचार करने लगा कि हिंदी फिल्मों का निर्देशक प्रेमचंद को नहीं जानता। जो हिंदी प्रेमचंद के नाम पर गर्व करती है, जो हिंदी के शीर्षस्थ लेखक हैं और जिनकी कितनी रचनाओं पर फिल्में बनी हैं उनको एक सफल निर्देशक नहीं जानता। ये अफसोस की बात है।
आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बात करें तो वहां हिंदी जानने वाले कम होते जा रहे हैं। हिंदी की परंपरा को जानने वाले तो और भी कम। आज हिंदी फिल्मों के गीतों के शब्द देखें तो लगता है कि युवा गीतकारों के शब्द भंडार कितने विपन्न हैं। हिंदी पट्टी के शब्दों से उनका परिचय ही नहीं है। वो शहरों में बोली जानेवाली हिंदी और उन्हीं शब्दों के आधार पर लिख देते हैं।
यह अकारण नहीं है कि समीर अंजान के गीत पूरे भारत में पसंद किए जाते हैं। समीर वाराणसी के रहनेवाले हैं और नियमित अंतराल पर काशी या हिंदी पट्टी के साहित्य समारोह से लेकर अन्य कार्यक्रमों में जाते रहते हैं। एक बातचीत में उन्होंने बताया था कि लोगों से मिलने जुलने से और उनको सुनने से शब्द संपदा समृद्ध होती है। इससे गीत लिखने में मदद मिलती है।
हिंदी फिल्मों के एक सुपरस्टार के बारे में भी एक किस्सा मुंबई में प्रचलित है। कहा जाता है कि उनके पास तीन चार सौ चुटकुलों का एक संग्रह है। वो अपनी हर फिल्म में चाहते हैं कि उनके चुटकुला बैंक से कुछ चुटकुले निकालकर संवाद में जोड़ दिए जाएं। उनका इस तरह का प्रयोग एक दो फिल्मों में सफल रहा है। नतीजा ये कि अब वो अपनी हर फिल्म में चुटकुला बैंक का उपयोग करना चाहते हैं।
आज हिंदी फिल्मों के संकट के मूल में यही प्रवृत्ति है। हिंदी पट्टी की जो संवेदना है उसको मुंबई में रहनेवाले हिंदी के निर्देशक न तो पकड़ पा रहे हैं और ना ही उसको अपनी फिल्में में चित्रित कर पा रहे हैं। भारत की कहानियों की और भारतीय समाज की ओर जब फिल्में लौटती हैं तो दर्शकों को पसंद आती हैं।
दर्शकों को फिल्म पसंद आती है तो वो अच्छा बिजनेस भी करती है। कोई हिंदी फिल्म 100 करोड़ का बिजनेस करती है तो शोर मचा दिया जाता है कि फिल्म ने 100 करोड़ या 200 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया। उनको ये समझ क्यों नहीं आता कि कन्नड फिल्म कांतारा ने सिर्फ कन्नड़ दर्शकों के बीच 300 करोड़ का कारोबार किया। कन्नड़ की तुलना में हिंदी फिल्मों के दर्शक कई गुणा अधिक हैं। अगर अच्छी फिल्म बनेगी कितने सौ करोड़ पार कर सकेगी। फिल्मकारों को ये सोचना होगा।
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां हिंदी फिल्मों में हिंदी के दर्शकों की संवेदना को छुआ नहीं और दर्शकों ने उसको नकार दिया। पौराणिक पात्रों पर फिल्में बनाने वालों से भी इस तरह की चूक होती रही है। कई बार तो आधुनिकता के चक्कर में पड़कर पात्रों से जो संवाद कहलवाए जाते हैं वो भी दर्शकों के गले नहीं उतरते हैं। हिंदी का लोक बहुत संवेदनशील है।
जब उसकी संवेदना से छेड़छाड़ की जाती है तो नकार का सामना करना पड़ता है। राज कपूर यूं ही नहीं कहा करते थे कि हिंदी फिल्मों की कहानियां प्रभु राम के चरित से या रामकथा से प्रेरित होती हैं। एक नायक है, एक नायिका है और खलनायक आ गया। अब ये लेखक के ऊपर है कि वो रामकथा को क्या स्वरूप प्रदान करता है और निर्देशक उसको किस तरह से ट्रीट करता है।
जो भी लेखक या निर्देशक रामकथा के अवयवों को पकड़ लेता है उसकी फिल्में बेहद सफल हो जाती हैं। कारोबार भी अच्छा होता है। लेकिन जो निर्देशक पहले से ही 100 या 200 करोड़ का लक्ष्य लेकर चलता है वो कहानी में मसाला डालने के चक्कर में राह से भटर जाता है और फिल्म असफल हो जाती है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि फिल्मों के लेखक और निर्देशक भारतीय मानस को समझें और उसकी संवेदना की धरातल पर फिल्मों का निर्माण करें। बेसिरपैर की कहानी एक दो बार करोड़ों कमा सकती है लेकिन ये दीर्घकालीन सफलता का सूत्र बिल्कुल नहीं है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
ऐसे समय में भारत के पास इन संकटों के निपटने के बौद्धिक संसाधन मौजूद हैं। भारत के पास विचारों की कमी नहीं है किंतु हमारे पास ठहरकर देखने का वक्त नहीं है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।
देश में परिवर्तन की एक लहर चली है। सही मायनों में भारत जाग रहा है और नए रास्तों की तरफ देख रहा है। यह लहर परिर्वतन के साथ संसाधनों के विकास की भी लहर है। जो नई सोच पैदा हो रही है वह आर्थिक संपन्नता, कमजोरों की आय बढ़ाने, गरीबी हटाओ और अंत्योदय जैसे नारों से आगे संपूर्ण मानवता को सुखी करने का विचार करने लगी है। भारत एक नेतृत्वकारी भूमिका के लिए आतुर है और उसका लक्ष्य विश्व मानवता को सुखी करना है।
नए चमकीले अर्थशास्त्र और भूमंडलीकरण ने विकार ग्रस्त व्यवस्थाएं रची हैं। जिसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई बनी है और निरंतर बढ़ती जा रही है। अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब हो रहा है। शिक्षा,स्वास्थ्य और सूचना और सभी संसाधनों पर ताकतवरों या समर्थ लोगों का कब्जा है। पूरी दुनिया के साथ तालमेल बढ़ाने और खुले बाजारीकरण से भारत की स्थिति और कमजोर हुयी है।
उत्पादन के बजाए आउटसोर्सिंग बढ़ रही है। इससे अमरीका पूरी दुनिया का आदर्श बन गया है। मनुष्यता विकार ग्रस्त हो रही है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भोग और अपराधीकरण का विचार प्रमुखता पा रहा है। कानून सुविधा के मुताबिक व्याख्यायित किए जा रहे हैं। साधनों की बहुलता के बीच भी दुख बढ़ रहा है, असंतोष बढ़ रहा है।
ऐसे समय में भारत के पास इन संकटों के निपटने के बौद्धिक संसाधन मौजूद हैं। भारत के पास विचारों की कमी नहीं है किंतु हमारे पास ठहरकर देखने का वक्त नहीं है। आधुनिक समय में भी महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, जे.कृष्णमूर्ति, महात्मा गांधी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, डा. राममनोहर लोहिया, नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे नायक हमारे पास हैं, जिन्होंने भारत की आत्मा को स्पर्श किया था और हमें रास्ता दिखाया था।
ये नायक हमें हमारे आतंरिक परिर्वतन की राह सुझा सकते हैं। मनुष्य की पूर्णता दरअसल इसी आंतरिक परिर्वतन में है। मनुष्य का भीतरी परिवर्तन ही बाह्य संसाधनों की शुद्धि में सहायक बन सकता है। हमें तेजी के साथ भोगवादी मार्गों को छोड़कर योगवादी प्रयत्नों को बढ़ाना होगा। संघर्ष के बजाए समन्वय के सूत्र तलाशने होगें। स्पर्धा के बजाए सहयोग की राह देखनी होगी।
शक्ति के बजाए करूणा, दया और कृपा जैसे भावों के निकट जाना होगा। दरअसल यही असली भारत बनाने का महामार्ग है। एक ऐसा भारत जो खुद को जान पाएगा। सदियों बाद खुद का साक्षात्कार करता हुआ भारत। अपने बोध को अपने ही अर्थों में समझता हुआ भारत। आत्मसाक्षात्कार और आत्मानुभूति करता हुआ भारत। आत्मदैन्य से मुक्त भारत। आत्मविश्वास से भरा भारत।
आज के भारत का संकट यह है कि उसे अपने पुरा वैभव पर गर्व तो है पर वह उसे जानता नहीं हैं। इसलिए भारत की नई पीढ़ी को इस आत्मदैन्य से मुक्त करने की जरूरत है। यह आत्म दैन्य है, जिसने हमें पददलित और आत्मगौरव से हीन बना दिया है। सदियों से गुलामी के दौर में भारत के मन को तोड़ने की कोशिशें हुयी हैं। उसे उसके इतिहासबोध, गौरवबोध को भुलाने और विदेशी विचारों में मुक्ति तलाशने की कोशिशें परवान चढ़ी हैं।
आजादी के बाद भी हमारे बौद्धिक कहे जाने वाले संस्थान और लोग अपनी प्रेरणाएं कहीं और से लेते रहे और भारत के सत्व और तत्व को नकारते रहे। इस गौरवबोध को मिटाने की सचेतन कोशिशें आज भी जारी हैं।
विदेशी विचारों और विदेशी प्रेरणाओं व विदेशी मदद पर पलने वाले बौद्धिकों ने यह साबित करने की कोशिशें कीं कि हमारी सारी भारतीयता पिछडेपन, पोंगापंथ और दकियानूसी विचारों पर केंद्रित है। हर समाज का कुछ उजला पक्ष होता है तो कुछ अंधेरा पक्ष होता है। लेकिन हमारा अंधेरा ही उन्हें दिखता रहा और उसी का विज्ञापन ये लोग करते रहे।
किसी भी देश की सांस्कृतिक धारा में सारा कुछ बुरा कैसे हो सकता है। किंतु भारत, भारतीयता और राष्ट्रवाद के नाम से ही उन्हें मिर्च लगती है। भारतीयता को एक विचार मानने, भारत को एक राष्ट्र मानने में भी उन्हें हिचक है। खंड-खंड विचार उनकी रोजी-रोटी है, इसलिए वे संपूर्णता की बात से परहेज करते हैं। वे भारत को जोड़ने वाले विचारों के बजाए उसे खंडित करने की बात करते हैं।
यह संकट हमारा सबसे बड़ा संकट है। आपसी फूट और राष्ट्रीय सवालों पर भी एकजुट न होना, हमारे सब संकटों का कारण है। हमें साथ रहना है तो सहअस्तित्व के विचारों को मानना होगा। हम खंड-खंड विचार नहीं कर सकते। हम तो समूची मनुष्यता के मंगल का विचार करने वाले लोग हैं, इसलिए हमारी शक्ति यही है कि हम लोकमंगल के लिए काम करें।
हमारा साहित्य, हमारा जीवन, हमारी प्रकृति, हमारी संस्कृति सब कुछ लोकमंगल में ही मुक्ति देखती है। यह लोकमंगल का विचार साधारण विचार नहीं है। यह मनुष्यता का चरम है। यहां मनुष्यता सम्मानित होती हुयी दिखती है। यहां वह सिर्फ शरीर का नहीं, मन का भी विचार करती है और भावी जीवन का भी विचार करती है। यहां मनुष्य की मुक्ति प्रमुख है।
नया भारत बनाने की बात दरअसल पुराने मूल्यों के आधार पर नयी चुनौतियों से निपटने की बात है। नया भारत सपनों को सच करने और सपनों में नए रंग भरने के लिए दौड़ लगा रहा है। यह दौड़ सरकार केंद्रित नहीं, मानवीय मूल्यों के विकास पर केंद्रित है। इसे ही भारत का जागरण और पुर्नअविष्कार कहा जा रहा है। कई बार हम राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण की बात इसलिए करते हैं, क्योंकि हमें कोई नया राष्ट्र नहीं बनाना है।
हमें अपने उसी राष्ट्र को जागृत करना है, उसका पुर्ननिर्माण करना है, जिसे हम भूल गए हैं। यह अकेली राजनीति से नहीं होगा। यह तब होगा जब समाज पूरी तरह जागृत होकर नए विमर्शों को स्पर्श करेगा। अपनी पहचानों को जानेगा, अपने सत्व और तत्व को जानेगा। उसे भारत और उसकी शक्ति को जानना होगा। लोक के साथ अपने रिश्ते को समझना होगा।
तब सिर्फ चमकीली प्रगति नहीं, बल्कि मनुष्यता के मूल्य, नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक मूल्यों की चमक उसे शक्ति दे रही होगी। यही भारत हमारे सपनों का भी है और अपनों का भी। इस भारत को हमने खो दिया, और बदले में पाएं हैं दुख, असंतोष और भोग के लिए लालसाएं। जबकि पुराना भारत हमें संयम के साथ उपभोग की शिक्षा देता है। यह भारत परदुखकातरता में भरोसा रखता है।
दूसरों के दुख में खड़ा होता है। उसके आंसू पोंछता है। वह परपीड़ा में आनंद लेने वाला समाज नहीं है। वह द्रवित होता है। वात्सल्य से भरा है। उसके लिए पूरी वसुधा पर रहने वाले मनुष्य मात्र ही नहीं प्राणि मात्र परिवार का हिस्सा हैं। इसलिए इस लोक की शक्ति को समझने की जरूरत है। भारत इसे समझ रहा है। वह जाग रहा है। एक नए विहान की तरफ देख रहा है। वह यात्रा प्रारंभ कर चुका है। क्या हम और आप इस यात्रा में सहयात्री बनेगें यह एक बड़ा सवाल है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
रुचिर शर्मा की यह बात एक हद तक सही है कि भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती रोज़गार है और यह समस्या चुनावों के परिणामों को लगातार प्रभावित करेगी।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारत की राजनीति और आर्थिक नीतियों के बारे में जिन विशेषज्ञों को गंभीरता से सुना जाता है, उनमें भारतीय-अमेरिकी रुचिर शर्मा का नाम सबसे प्रमुख है। मॉर्गन स्टैनली, रॉकफेलर कैपिटल मैनेजमेंट, ब्रेकआउट नेशन्स जैसी संस्थाओं में उनकी लम्बे समय की भूमिका, वैश्विक बाज़ारों की गहरी समझ और भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर शोध-आधारित लेखन ने उन्हें एक प्रभावशाली विश्लेषक के रूप में स्थापित किया है। लेकिन बिहार चुनाव परिणाम आने पर उनकी प्रतिक्रिया मुझे अनुचित और दुखद लगी।
रुचिर शर्मा ने कहा या लिखा है कि “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास आर्थिक प्रगति को लेकर कोई नई सोच नज़र नहीं आती, फिर भी उनकी जीत अच्छा संकेत नहीं है। कई बड़े लोकतांत्रिक देशों में जनता आक्रोश में आकर सरकारें बदल रही हैं, लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो रहा।”
यही नहीं, उनका कहना है कि “धीमी गति और विकास से ज्यादा कल्याणकारी योजनाओं को प्राथमिकता देने का जाल में फँसना भारत के लिए अच्छा नहीं है।” वे इस स्थिति को “वेलफ़ेयर ट्रैप” (कल्याण-जाल) कहते हैं—जहाँ विकास की बुनियादी प्रक्रियाएँ धीमी हो जाती हैं और सरकार की प्राथमिकता केवल अनुदान, सब्सिडी और कैश-ट्रांसफर में सिमट जाती है।
रुचिर शर्मा अकेले नहीं हैं। अमेरिकी या यूरोपीय आर्थिक चश्मे से देखने वाले कई भारतीय विश्लेषक भी गरीबों को मुफ़्त राशन, मकान, गैस, अपने रोज़गार के लिए महिलाओं को दस हज़ार रुपए आदि दिए जाने को गलत बताते हैं। वे भारत की विशाल आबादी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से अधिक पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था और मानदंडों को महत्व देते हैं।
अमेरिकी रुचिर शर्मा चुनावों के दौरान एक टूरिस्ट की तरह भारत में घूमते, इंटरव्यू देते और लिखते हैं। वे या अन्य ‘कल्याण कोपी’ अपनी टिप्पणियों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या नीतीश कुमार सहित मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।
आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी भारत में किसी अमेरिकी या यूरोपीय की बातों-फैशन को ‘आदर्श’, ‘महान’ समझने की प्रवृत्ति पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है। अन्यथा रुचिर शर्मा सहित विदेशी विशेषज्ञों की राय के साथ इस तथ्य पर ध्यान दिलाया जाना चाहिए कि आधी दुनिया पर राज कर चुके ब्रिटेन में इस साल भी सरकार कम आय वाले लोगों के लिए लाखों घर बनाकर देने की घोषणा कर रही है।
अर्ध-शिक्षित निठल्ले लोगों को 400 से 2000 पाउंड तक मासिक भत्ते दे रही है, कमज़ोर स्वास्थ्य सुविधाओं, डॉक्टरों-नर्सों की कमी के बावजूद सभी ब्रिटिश नागरिकों को मुफ़्त इलाज दे रही है। सिंगल मदर को बच्चों के पालन-पोषण के ख़र्च का 85 प्रतिशत अनुदान देती है। किसानों को भी ज़मीन के आधार पर आवश्यक सब्सिडी और मुफ़्त बीमा दे रही है।
इसी तरह अमेरिका में मक्का, गेहूँ, सोयाबीन, कपास, चावल आदि पर किसानों को पर्याप्त सब्सिडी सरकार दे रही है। हर पाँच साल में किसानों के नाम पर अरबों डॉलर के बजट प्रावधान का विधेयक संसद से पारित होता है। भारत में मोदी सरकार या राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें अपनी जनता की आवश्यकताओं के अनुसार सब्सिडी और सहायता तय करती हैं।
रुचिर शर्मा के अनुसार “बिहार ने 2005 से 2015 के बीच एक प्रभावशाली विकास-दशक देखा था। सड़कें, कानून-व्यवस्था, स्कूलिंग और प्रशासनिक सुधारों ने राज्य को पहली बार लम्बे समय की स्थिर वृद्धि दी। लेकिन 2015 के बाद राज्य एक नई चुनौती के दौर में प्रवेश कर गया—जहाँ विकास का ग्राफ़ स्थिर होने लगा और राजनीतिक विमर्श पूरी तरह कल्याणकारी राजनीति की ओर मुड़ गया।”
आश्चर्य है कि उन्हें पटना से लेकर कर्पूरी ग्राम (समस्तीपुर), दरभंगा, गया, राजगीर, नालन्दा, भागलपुर में हुई प्रगति—सड़कें, दुकानें, स्कूल, मेडिकल कॉलेज, स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी, मधुबनी हाट और देश-दुनिया में मधुबनी या भागलपुरी कपड़ों की लोकप्रियता का लाभ नहीं दिखाई दिया। बिहार के मेहनती लोग अपने घर-गाँव या दूर देस-पर्देस जाकर जो कमाई करते हैं, उससे भी गाँवों-शहरों की तस्वीर बदल रही है।
उनके जैसे विशेषज्ञ बदलाव को महत्व देने से पहले भ्रष्ट राजनीतिक सत्ता और अपराधियों के वर्चस्व का अधिक उल्लेख नहीं करते। नीतीश ही क्यों, ज्योति बसु, नवीन पटनायक जैसे मुख्यमंत्रियों ने तो 25 साल से अधिक राज किया। ईमानदार नेतृत्व का लाभ भी राजनीतिक दलों को मिलता है।
अमेरिका या ब्रिटेन में सत्ता में आने वाली राजनीतिक पार्टियों की आर्थिक नीतियों में अधिक अंतर कहाँ होता है? राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जैसे नेता दो बार राष्ट्रपति चुन लिए गए, जो अपनी अदूरदर्शी नीतियों से पूरी व्यवस्था ठप तक कर देते हैं, हर तीसरे महीने खाने-पीने की वस्तुओं पर टैरिफ बदलते रहते हैं।
मुझे पता नहीं रुचिर शर्मा कब अमेरिका में बसे, लेकिन मैंने 1987 में अमेरिका के हिस्पैनिक बहुल आबादी वाले इलाक़े का बुरा हाल देखा है। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को शहर में आज भी भारत या अन्य देशों से आने वाले बिज़नेस प्रोफ़ेशनल्स को रात के समय बाहर कम निकलने और अपराध से बचने की एडवाइज़री दी जाती है। अति सम्पन्न देश के कुछ शहरों की बाहरी बस्तियों की सड़कों के किनारे या गाड़ियों में सोए सैकड़ों लोग देखे जा सकते हैं।
लन्दन में तो ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट पर भी पैदल चलते पर्स, मोबाइल छीने जाने का ख़तरा, घरों में बढ़ती चोरी, सुपरमार्केट जैसी दुकानों में घुसकर ज़रूरी सामान लूटे जाने पर अंकुश नहीं लग सका है। यहाँ बिहार ही नहीं, दूर-दराज़ आदिवासी इलाक़े में दिन-दहाड़े मोबाइल या पर्स छीने जाने की घटना शायद ही कभी दिखाई देती है।
रुचिर शर्मा की यह बात ज़रूर सही है कि “अभी भारत में सामाजिक पहचान और जाति-राजनीति पूरी तरह समाप्त नहीं होती—वह केवल रूप बदलती है।” शायद इसीलिए नरेन्द्र मोदी जातिवादी व्यवस्था के बजाय विकासवादी व्यवस्था के लिए अभियान चला रहे हैं। दूसरी तरफ़ अमेरिकी राष्ट्रपति अपने ‘श्वेत’ बंधुओं के हितों के नाम पर जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ़्रीका नहीं गए हैं या आप्रवासियों पर आए दिन नए नियम-क़ानून लाते रहते हैं।
भारत में केवल अवैध रूप से रहने वाले लोगों की पहचान कर निकाला जा रहा है। अमेरिका-ब्रिटेन की तरह मानव अधिकारों के नाम पर आर्थिक अपराधियों अथवा आतंकी संगठनों से जुड़े लोगों को रहने और अपनी गतिविधियाँ चलाने की सुविधा कतई नहीं दी जा रही है।
रुचिर शर्मा की यह बात एक हद तक सही है कि भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती रोज़गार है और यह समस्या चुनावों के परिणामों को लगातार प्रभावित करेगी। लेकिन बिहार में राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर ने बेरोज़गारी का मुद्दा और रोज़गार के अविश्वसनीय लुभावने वायदे किए, पर युवक भ्रमजाल में नहीं फँसे।
असल में पिछले वर्षों के दौरान जागरूक-शिक्षित युवा लाखों की संख्या में अपना काम-धंधा या अन्य छोटे-बड़े उद्यमों से जुड़ रहे हैं। हाँ, अभी कौशल विकास (स्किल डेवलपमेंट) के लिए चीन की तरह व्यापक कार्यक्रमों को विभिन्न राज्यों में क्रियान्वित करने की चुनौती बनी हुई है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इस तरह के जीवन से लेकर निजी स्कूलों, अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों में शोषण वाली बेलगाम व्यवस्था हर जगह दिखती है। यह सख्त नियंत्रण और नियमन की माँग करती है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
राणा यशवंत, वरिष्ठ पत्रकार, कवि, लेखक।
मधुबनी की एक हरिजन बस्ती में हाल के बिहार चुनावों के दौरान पहुँचा। दोपहर में महिलाएँ एक जगह बैठकर बतिया रही थीं। मैंने बताया कि चुनाव के सिलसिले में घूम रहा हूँ, आपके पास यहाँ से गुज़र रहा था तो आ गया। बात करने के बाद जब चलने लगा तो एक महिला इसरार करने लगी कि सर, एक बार मेरा घर तो देख जाओ।
मैंने कहा, चलिए आपका घर देख लेता हूँ। पगडंडी से होकर एक बांसवाड़ी में मिट्टी और टाट से बने मकान तक वह ले गई। उस बांसवाड़ी में चार मकान और थे, थोड़े-थोड़े फासले पर। आगे एक छोटा-सा ओसारा था और उससे लगते दो कमरे। मैंने कमरा खुलवाया तो एक चौकी पड़ी थी, बिस्तर नहीं था। मैंने पूछा, आपके कमरे में ठंड है, रात में बिना ओढ़ने के कैसे सोते होंगे? बोली, साहब बोरा-चटाई डाल लेते हैं।
खाना? मेरे पति मजदूरी पर गए हैं, कुछ ले आएँगे तो पकाऊँगी। घर में ऐसा कुछ नहीं दिखा जो दुर्दशा को ढाँकता-छुपाता हो। फटेहाली चारों तरफ़ से झाँक रही थी। मन बहुत ख़राब हुआ। तीन बच्चों के साथ पाँच लोगों का परिवार अपना गुज़ारा करने भर का नहीं जुटा पा रहा है और देश में न जाने कहाँ-कहाँ क्या-क्या बहाया, उड़ाया जाता रहता है।
भारत जैसे देश में लोकहित और व्यवस्था परक कई बड़े और महत्वपूर्ण प्रश्न पत्रकारिता से उम्मीद करते हैं कि उनको गंभीरता से रखा जाए। अभाव और शोषण का जीवन किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न भी। लेकिन हाशिए पर जी रहा वह समाज सरकारों की प्राथमिकता में अब भी अपनी जगह नहीं बना पा रहा। और ख़बरों की दुनिया उससे लगभग बेख़बर है।
इसी तरह पूर्णिया के क़स्बा विधानसभा इलाके में एक गाँव गया। एक आदमी कहीं से लकड़ी काटकर साँझ के जलावन के लिए ले आया था। माँ के नाम पर गैस सिलिंडर था, उनके गुज़रने के बाद वह अपने नाम पर ट्रांसफर करवाने की कोशिश कर चुका था, मगर हो नहीं सका। घर के दरवाज़े पर तीन साल का बच्चा कटोरे में सूखा भात खा रहा था।
आवास योजना का पैसा आया, लेकिन बेटी को जाउंडिस हो गया, सीरियस हो गई, पैसा सब उसमें लग गया। जिसको मैं घर कह रहा हूँ वह मिट्टी और ऐस्बेस्टस का एक कमरा और सामने छोटा ओसारा भर था। लकड़ी लाने के बाद वह आदमी परिवार के शाम के राशन के जुगाड़ में निकलने वाला था।
इस तरह के जीवन से लेकर निजी स्कूलों, अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों में शोषण वाली बेलगाम व्यवस्था हर जगह दिखती है। यह सख्त नियंत्रण और नियमन की माँग करती है। जब भी इससे दो-चार होते हैं, लगता है इस मोर्चे पर सब कुछ के साँचे में आने तक आवाज़ उठाते रहना चाहिए। कौन उठाएगा? ज़ाहिर है पत्रकार। उठाते हैं? नहीं न? क्यों? चर्चा होनी चाहिए।
मैंने ऊपर दो घटनाओं और कुछ ज़रूरी क्षेत्रों में जनविरोधी तंत्र के होने का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि यह कोई रहस्योद्घाटन है। सब सर्वविदित है। बावजूद इसके उधर से आँखें बंद हैं, सवाल यह है। बल्कि पत्रकारिता अपने दायित्व से उसको लगभग रद्द कर चुकी है। नतीजा यह है कि एक बड़ी आबादी मजबूर और लाचार है। जबकि थोड़ी-सी सक्रियता सत्ता और प्रशासनिक व्यवस्था को तंद्रा से जगा सकती है।
लोगों के जो अधिकार उदासीनता, बेईमानी और भ्रष्टाचार के हाथों मार दिए जाते हैं, बहुत हद तक बचाए जा सकते हैं। पत्रकारिता इन्हीं सवालों और सरोकार का मोर्चा है, ऐसा नहीं है। लेकिन इनके बिना वह क्या किसी काम की है? भारत के टीवी न्यूज़ चैनलों से लेकर अख़बार और डिजिटल माध्यम तक अपने-अपने हित साधने का तंत्र बन चुके हैं, यह आम आदमी को लगता है।
इससे मुक्त होने की ज़िम्मेदारी किसकी है? बेशक पत्रकारिता की। होगा कैसे? पत्रकारिता में एक ऐसे इकोसिस्टम के ज़रिए जो देश के मूल प्रश्नों और चिंताओं पर पत्रकारों को संवेदनशील और परिवर्तनकारी औज़ार की तरह तैयार कर सके। संभव है? बेशक। लेकिन भटकाव के इस काल में उसके लिए एक अलग विमर्श और व्यवस्था निर्माण पर चर्चा की आवश्यकता होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राष्ट्रीय प्रेस दिवस (16 नवंबर) के उपलक्ष्य में लिखे अपने लेख में आलोक मेहता का कहना है कि समय के साथ हिंदी पत्रकारिता में भी कई तरह के बदलाव आए हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर पत्रकारिता की चुनौतियां और उपलब्धियां चर्चा में रही हैं। यह धारणा गलत है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने से हिंदी की पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौतियां और समस्याएं आई हैं। सच तो यह है कि मीडिया के विभिन्न माध्यम एक-दूसरे के पूरक भी हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं के बाहुल्य वाले भारतीय शहरों से लेकर गांव तक सूचना, समाचार, विचार पढ़ने, सुनने और देखने की भूख कम होने के बजाय बढ़ती गई है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही क्यों, अब तो सोशल मीडिया भी बड़े पैमाने पर लोगों के बीच लोकप्रिय हुआ है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि समय के साथ हिंदी पत्रकारिता में भी कई तरह के बदलाव आए हैं। तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी युग वाली पत्रकारिता की अपेक्षा वर्तमान परिपे्रक्ष्य में नहीं की जा सकती। लेकिन आधुनिक हिंदी पत्रकारिता की दृष्टि से 70 के दशक से संपादकों और पत्रकारों ने सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरुकता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र माथुर, जैसे संपादकों ने हिंदी के अखबारों के पाठकों के साथ संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित किया। नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, नई दुनिया, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और प्रभात खबर जैसे दैनिक अखबार राजधानी दिल्ली से आगे बढ़कर विभिन्न हिंदीभाषी प्रदेशों में भी निरंतर अपनी छाप छोड़ते रहे।
राजेन्द्र माथुर जब 1982 में नवभारत टाइम्स के संपादक बनकर दिल्ली आए तो उन्होंने कुछ ही सप्ताह बाद एक समारोह में कहा था कि हिंदी का कोई अखबार केवल दिल्ली या मुंबई से प्रकाशित होने से राष्ट्रीय नहीं कहा जा सकता। वह तभी राष्ट्रीय कहला सकता है जब देश के विभिन्न राज्यों में उसके संस्करण हों।
यों अज्ञेय ने भी 1977 में नवभारत टाइम्स के संपादक बनने पर दिल्ली, मुंबई के अलावा बिहार की राजधानी पटना से अखबार का संस्करण निकालने की इच्छा व्यक्त की थी। लेकिन दो वर्ष के संक्षिप्त कार्यकाल के कारण वह सपना पूरा नहीं हुआ। माथुर साहब के आने के बाद लखनऊ, जयपुर, पटना के संस्करण निकले।
इसी तरह जब मुझे दैनिक हिंदुस्तान का संपादक बनने का अवसर मिला, पटना के अलावा लखनऊ यानी उत्तर प्रदेश के संस्करण निकालने के लिए प्रबंधन तैयार हुआ। इसी तरह हरिवंशजी ने प्रभात खबर संभालने के बाद इसे झारखंड और बिहार में प्रतिष्ठित अखबार बना दिया।
जनसत्ता दिल्ली के अलावा मुंबई और कोलकाता से प्रकाशित हुआ। दिलचस्प बात यह भी रही कि राजस्थान पत्रिका जैसे जयपुर के अखबार ने कोलकाता के अलावा दक्षिण भारत में हैदराबाद और बंगलौर जैसे शहरों में हिंदी पाठकों के लिए संस्कारण निकाले। इस दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता ने अपनी गुणवत्ता से व्यापक स्तर पर पाठकों में अपनी पहचान बनाई। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पहले हिंदी अखबारों की प्रगति को उपलब्धि की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टेलीविजन के समाचार चैनल आने से हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या कम नहीं हुई बल्कि अधिकृत आंकड़ों के अनुसार भी इनके पाठक बढ़ते गए। मेरा यह मानना है कि रेडियो या टेलीविजन पर कोई खबर देखने के बाद सामान्य जनता इन्हें विस्तार से देखने, पढ़ने और उस पर होने वाली टिप्पणियों के लिए अखबार या पत्रिका पढ़ती है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से पहले भी दैनिक अखबारों में रंगीन फोटो तथा आधुनिक डिजाइन के आकर्षक प्रस्तुतीकरण के प्रयास होने लगे थे। अन्यथा 70 के दशक के पहले भारत ही नहीं, ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देश में भी अखबारों में रंगीन फोटो नहीं छपते थे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने पर हिंदी अखबारों की डिजाइन और परिशिष्ट में रंगीन फोटो छपने लगे। ररिवारीय संस्करण कुछ हद तक पत्रिका की कमी भी पूरी करने लगे।
असली समस्या यह है कि आधुनिक तकनीक, प्रिंटिंग का खर्च और न्यूजप्रिंट के मूल्य लगातार बढ़ने से बड़े प्रभावशाली कहे जाने वाले अखबार के प्रबंधन घाटे और मुनाफे पर अधिक ध्यान देने लगे। कुछ हद तक राजनीतिक सत्ता का प्रभाव भी इन अखबारों पर पड़ा।
इस संदर्भ में देश के सबसे बड़े प्रकाशन समूह टाइम्स ग्रुप द्वारा मुनाफे को ही सर्वाधिक महत्व देने और अखबार को चटपटा, मसालेदार तथा अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री के अनुवाद को प्रोत्साहित करने की नीति अपनाई जिसका असर अन्य हिंदी अखबारों पर भी पड़ा। लेकिन प्रादेशिक और स्थानीय कम प्रसार संख्या वाले अखबार बहुत हद तक व्यावसायिक नहीं हुए और पाठकों के बीच स्थानीय समाचारों और उपयोगी सामग्री के जरिए अपना स्थान बनाए हुए हैं।
यह कहा जा सकता है कि महानगरों का एक बड़ा वर्ग और युवा पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के आने के बाद अखबारों में कम दिलचस्पी ले रही है। लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में आज भी अखबार पढ़ने की रुचि बनी हुई है। ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में साक्षरता बढ़ने से अखबारों के लिए अब भी संभावनाएं दिखाई देती हैं। सरकारों खासकर नौकरशाहों ने यह गलत धारणा बना रखी है कि अब लोग अखबार, पत्रिका या पुस्तकें नहीं पढ़ना चाहते हैं। वह भूल जाते हैं कि अमेरिका या जापान जैसे आधुनिक संपन्न देशों में भी अखबारों की प्रसार संख्या अच्छी-खासी है।
वास्तव में प्रकाशकों और संपादकों पर यह निर्भर है कि वह बाजार से प्रभावित न होकर ऐसी सामग्री पाठकों को उपलब्ध कराएं जो सामान्यतः टेलीविजन पर भी नहीं मिल सकती। पश्चिमी देशों की तरह भारत में अलग से टैबलाइट अखबार भी निकले लेकिन दुर्भाग्य से कई अखबार सनसनीखेज सामग्री और फोटो आदि से टैबलाइट की तरह अखबार का स्तर गिराने लगे, वहीं मशीन, प्रिंटिंग और प्रसार व्यवस्था पर अधिकाधिक धन खर्च किया जा रहा है लेकिन समाचारों के संकलन और समर्पित पत्रकारों पर खर्च कम से कम करने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसका असर गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
इन दिनों मीडिया की शक्ति और स्वायत्तता को लेकर भी निरंतर सवाल उठ रहे हैं। जहां तक शक्ति का सवाल है, प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अथवा सोशल मीडिया की बात है, उसके व्यापक असर के कारण ही हजारों करोड़ की पूंजी लग रही है और कोई भी सरकार हो उसका यथासंभव उपयोग करने का प्रयास भी करती है। यही नहीं, विदेशी शक्तियां भी भारतीय मीडिया को प्रभावित करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूंजी लगा रही हैं।
बड़े कार्पोरेट घरानों के प्रभाव को लेकर बहुत शोर मचता है लेकिन हम भूल जाते हैं कि 80 के दशक तक दिल्ली, मुंबई, कोलकाता तक मीडिया संस्थानों पर बिड़ला, डालमिया, टाटा के प्रभाव की चर्चा शक्तिशाली प्रधानमंत्री करते थे। इसे जूट प्रेस कहा जाता था। सत्ता के दबाव तब भी थे। मैंने पत्रकारिता पर अपनी पुस्तकों पावर, प्रेस एंड पॉलिटिक्स, कलम के सेनापति, भारत में पत्रकारिता, इंडियन जर्नलिज्मः कीपिंग इट्स क्लीन में इस मुद्दे पर प्रामाणिक तथ्यों के साथ विवरण दिया है।
सत्ता की राजनीति ने पत्रकारिता को पहले भी प्रभावित किया था और आज भी कर रही है। इसलिए मुद्दा यह भी है कि सरकारों को बनाने या हटाने की भूमिका जो अखबार या मीडिया निभाता है उसका असर विश्वसनीयता पर पड़ता है। यदि लक्ष्य केवल प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या दल विशेष रहेगा तो स्वायत्तता कहां होगी अन्यथा प्रामाणिक तथ्यों के साथ सरकार की गड़बड़ियों या जनता की समस्याओं को प्रकाशित या प्रसारित करने पर दबाव नहीं पड़ सकता है।
खोजी रिपोर्ट के लिए संस्थानों को अधिक खर्च भी करना पड़ेगा। नई पीढ़ी को जोड़ने के लिए मीडिया संस्थानों की वेबसाइट और प्रकाशित सामग्री के सोशल मीडिया पर उपलब्ध किए जाने के प्रयास किए जा सकते हैं और कुछ हद तक हो भी रहे हैं। इस दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के अखबारों की संभावना बनी रहेगी। यही बात वैकल्पिक मीडिया यानी सोशल मीडिया पर लागू होती है। जो अच्छी सामग्री उपलब्ध कराएगा उसका भविष्य भी सुरक्षित रहेगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक पद्मश्री से सम्मानित और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं)
नोबेल और बुकर सम्मान लेखकों की कृतियों में अकेलापन और अवसाद दिखता है, वहीं हिंदी लेखन में धर्म-अध्यात्म और भारत की कहानियों के प्रति रुझान दिखता है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले दिनों जब बुकर पुरस्कार की घोषणा हुई तो लेखक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, देर रात बुक प्राइज की घोषणा हुई और इस बार ये पुरस्कार DAVID SZALAY के उपन्यास फ्लेश को मिला। वो कनाडा मूल के लेखक हैं। सबसे पहले उनके नाम का उच्चारण ढूंढा – वह है डेविड सोलले । अमेजन पर इनका उपन्यास खरीदा। सबसे सस्ता किंडल संस्करण मिला, 704 रु में।... एक बात समझ में आई कि इस बार शार्टलिस्ट में एक से अधिक उपन्यास ऐसे थे जिनमें अकेलापन, बेमेल दुनिया की बातें थीं।
यह भी कुछ उसी तरह का उपन्यास है। अलग अलग भाषाओं में इस तरह की कहानियां और उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं। प्रभात रंजन की इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ध्यान वैश्विक लेखन की ओर चला गया। कुछ दिनों पहले साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक लास्जलो क्रास्जनाहोरकाई के लेखन में भी अकेलापन और निराशा कई बार प्रकट होता है। पहले के लेखक भी इस तरह का लेखन करते रहे हैं।
पश्चिमी देशों के अलावा जापान और कोरिया के कई लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में भी अकेलापन और उसका दंश, उससे उपजी निराशा और फिर समाज पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जापान के विश्व प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी के उपन्यासों में भी अकेलापन प्रमुखता से आता है। जापान के समाज में अकेलापन एक बड़ी समस्या है तो जाहिर सी बात है कि वहां के लेखकों पर इस समस्या का प्रभाव होगा।
उनकी कहानियों के पश्चिमी देशों में लाखों पाठक हैं। क्या कारण है कि पश्चिमी दुनिया में उनके अपने लेखकों और अन्य देशों के लेखकों की वो रचनाएं लोकप्रिय होती हैं जिसका विषय अकेलापन और अवसाद होता है। मुराकामी मूल रूप से जापानी में लिखते हैं। अमेरिका में रहते हैं। विश्व की कई अन्य भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद होता है। अनूदित पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं।
क्या पश्चिमी देश के पाठक अकेलेपन की इस समस्या से स्वयं को जोड़ते हैं इसलिए उनको इस तरह का लेखन पसंद आता है ? इसका एक पहलू ये भी है कि नोबेल विजेता से लेकर बुकर से पुरस्कृत कई लेखक अध्यात्म और भारत की चर्चा करते हैं।
बुकर पुरस्कार की घोषणा के पहले दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की जुलाई सितंबर 2025 की तिमाही की सूची प्रकाशित हुई। ये सूची हिंदी में सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों के आधार पर विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन तैयार करती है। इस सूची में कथा, कथेतर, अनुवाद और कविता की पुस्तकें होती हैं। इसमें जो पुस्तकें आई हैं उसकी अनुवाद श्रेणी पर नजर डालते हैं, द हिडन हिंदू (सभी खंड), महागाथा, पुराणों से 100 कहानियां, नागा वारियर्स दो खंड, शौर्य गाथाएं, संसार, देवताओं की घाटी में प्रवेश।
इनको देखने पर ये प्रतीत होता है कि भारत में हिंदी के पाठक धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कथाएं पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। पाठकों को वर्गीकरण करना आसान नहीं है कि किस आयुवर्ग के कितने पाठक हैं और वो कौन सी पुस्तकें पसंद कर रहे हैं। लेकिन सूची को देखने से एक बात तो स्पष्ट होती है कि हिंदी में उन विषयों पर लिखी पुस्तकें खूब बिक रही हैं जहां धर्म है, अध्यात्म है और जहां मन की शांति की बातें है।
पश्चिम के पाठक अकेलेपन, अवसाद और निराशा की कहानियां पढ़ रहें हैं वहीं हिंदी के पाठक उससे बिल्कुल अलग धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कहानियों या पुस्तकों में रुचि दिखा रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं इसपर विचार करने की आवश्यकता है। क्या पश्चिम के समाज में और भारतीय समाज में जो मूलभूत अंतर है वो इसका कारण है या जो पारिवारिक संस्कार भारत में पीढ़ियों से चले आ रहे हैं वो वजह है?
अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम के समाज में जो संस्कार हैं वो भारतीय संस्कारों से अलग है। हमारे यहां जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य, नैतिकता और मर्यादा की स्थापना की बात होती है वैसी बातें पाश्चात्य समाज में नहीं होती है। हमारे समाज में विवाह से संतान प्राप्ति की बात होती है, विवाह संस्कार के बाद सात जन्मों के रिश्ते की बात है। विवाहोपरांत संतानोत्पत्ति की महत्ता स्थापित है और उसको मोक्ष से जोड़ा जाता रहा है। पश्चिमी देशों में सात जन्मों के रिश्ते की बात तो दूर वहां एक ही जन्म में सात रिश्ते की बातें होती हैं।
वहां मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं है इस कारण संतानोत्पत्ति को एक जैविक क्रिया तक ही सीमित रखा जाता है। पश्चिम के लेखन में मानसिक अवसाद एक कला के तौर पर रेखांकित की जाती रही है जिसमें मानवीय संवेदना और सकारात्मकता अनुपस्थित होता है। पश्चिम के नाटकों में ट्रेजडी महत्वपूर्ण है। जबकि हमारे यहां का नाट्यशास्त्र फल-प्राप्ति पर आधारित है। कोई भी काम किया जाता है तो उसके पीछे के संदेश और समाज या मानव के बेहतरी का भाव रहता है। ज्ञान के प्रकार के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 20, 21 और 22 में बताया गया है।
कहा गया है कि जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक -पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहते हैं। अगले श्लोक में बताया गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। ज्ञान के अंतिम प्रकार के बारे में गीता में कहा गया है कि जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है उसको तामस कहा गया है।
गीता के इन तीन श्लोकों के ज्ञान के प्रकार को विश्लेषित करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लेखन क्यों और किस कारण से पश्चिमी लेखन से अलग है। समभाव की बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस भारतीय ज्ञान परंपरा की बात होती है उसके सूत्र भी गीता के इन श्लोकों में देखे जा सकता हैं।
हिंदी में भी निर्मल वर्मा, कृष्ण बदलदेव वैद्य, स्वदेश दीपक जैसे कुछ लेखकों ने अकेलेपन और अवसाद को विषय बनाकर लिखा है लेकिन माना गया कि पाश्चात्य प्रभाव में ऐसा किया गया। वामपंथ के प्रभाव या दबाव में जो लेखन हुआ वो अति यथार्थवाद का शिकार होकर लोक से दूर होता चला गया क्योंकि उसमें विद्रोह तो था पर अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव से देखने की युक्ति नहीं थी।
स्वाधीनता पूर्व का अधिकतर हिंदी लेखन रचनात्मकता समभाव की जमीन पर खड़ी नजर आती है। हिंदी साहित्य में जितना पीछे जाएंगे ये भाव उतना ही प्रबल रूप में दिखता है। यह अकारण नहीं है कि साठोत्तरी कविता और कहानी ने इस भाव से दूर जाकर नई पहचान बनाने की कोशिश की। जब इस तरह का लेखन फार्मूलाबद्ध हो गया तो पाठक इससे दूर होने लगे। आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी लेखन अपनी जड़ों की ओर लौटे, संकेत मिल रहे हैं लेकिन इसको प्रमुख स्वर बनाना होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
मोटे तौर पर आपका काम रोज एक जैसा है या रेपिटिटिव है, तो यह पैटर्न एआई सीख सकता है। मगर जहां फील्ड का काम है या जो हाथों से ही हो सकता है, वहां एआई को तुरंत करने में दिक्कत होगी।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
पिछले हफ्ते मैंने पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार 'डॉन' की एक क्लिप शेयर की थी। अखबार में गाड़ियों की बिक्री की खबर छपी थी। आखिर में चैटजीपीटी स्टाइल में यह प्रॉम्प्ट भी छप गया था कि 'यह खबर फ्रंट पेज के लिए बना दूं क्या?' दो संभावनाएं हैं। चैटजीपीटी को प्रेस नोट देकर कॉपी लिखने के लिए कहा गया होगा या फिर किसी रिपोर्टर की कॉपी को डेस्क ने एडिट करने के लिए डाला होगा। अखबार का मजाक उड़ा। हिसाब-किताब में चर्चा हुई नौकरी में एआई के बारे में। हमारा साथी बनेगा या नौकरी खा जाएगा?
ईवाई ने भारत में नौकरियों पर एआई के असर को लेकर एक रिपोर्ट बनाई है। यह रिपोर्ट कहती है कि पांच साल में करीब चार करोड़ (38 मिलियन) नौकरियां बदल जाएंगी, मतलब ये लोग जैसा काम आज कर रहे हैं, वैसा आने वाले समय में नहीं रह जाएगा।
तीन सेक्टरों में सबसे ज्यादा असर होगा। रिटेल, फाइनेंस और आईटी में बदलाव सबसे पहले देखने को मिल सकता है। मैंने चैटजीपीटी से ही पूछा था कि किस तरह की नौकरियां जा सकती हैं और किनकी बच सकती हैं। यह आकलन अलग-अलग रिसर्च रिपोर्टों के आधार पर किया गया है, जैसे नीति आयोग, माइक्रोसॉफ्ट और ईवाई।
किसकी नौकरी खतरे में है?
कस्टमर केयर - कस्टमर के सवालों का जवाब देने वाले कॉल सेंटर की जगह एआई तेजी से ले रहा है। आपका ऑर्डर कहीं लेट हो गया या गलत डिलीवरी हो गई, तो सबसे पहले चैटबॉट ही सवाल-जवाब करता है। जरूरत पड़ने पर ही कोई फोन पर आकर बात करता है। कंपनियों के पास आमतौर पर एक जैसी शिकायतें आती हैं, और उनका निदान भी पता होता है। एआई को ट्रेनिंग देकर यह काम कराया जा रहा है।
डेटा एंट्री ऑपरेटर - डेटा भरने के लिए अब व्यक्तियों की जरूरत नहीं रह गई है। अकाउंटिंग क्लर्क का बेसिक काम एआई कर रहा है। आने वाले समय में यह और बेहतर होता जाएगा। पहले बही-खाते में हिसाब लिखा जाता था। फिर कंप्यूटर में इसकी एंट्री होने लगी। इस काम के लिए लोग रखे गए थे, अब कंप्यूटर यह काम खुद कर सकता है।
लेखन/अनुवाद - लिखने और अनुवाद का काम एआई कर रहा है। पहले अनुवाद करने के लिए एजेंसियां काम करती थीं। वे लोगों को काम देती थीं। मीडिया में भी यह काम होता था। यह काम धीरे-धीरे कम होता चला जाएगा।
किसकी नौकरी बचेगी?
फील्ड टेक्नीशियन - जिस काम के लिए आपको फील्ड में जाना होगा, जैसे एसी मैकेनिक, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन।
नर्सिंग - डॉक्टर के काम में तो एआई दखल देने लगा है, लेकिन देखभाल का काम एआई नहीं कर सकता या ब्लड सैंपल लेने का काम।
रिलेशनशिप मैनेजर - बैंकों में या फाइनेंस कंपनियों में आप सामने बैठकर ग्राहकों की समस्या सुलझाने या सलाह देने का काम बना रहेगा। सेल्स पर्सन जो रिटेल स्टोर में आपकी मदद करते हैं।
मोटे तौर पर आपका काम रोज एक जैसा है या रेपिटिटिव है, तो यह पैटर्न एआई सीख सकता है। मगर जहां फील्ड का काम है या जो हाथों से ही हो सकता है, वहां एआई को तुरंत करने में दिक्कत होगी। नौकरियां जाने के बजाय बदलने की संभावना ज्यादा है, इसलिए एआई सीखते रहिए। एआई के साथ-साथ दिमाग का भी इस्तेमाल कीजिए, वरना 'डॉन' अखबार जैसी गलती हो सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
बिहार की सामाजिक संरचना जटिल समझी जाती रही है। 2023 की जाति-गणना के मुताबिक, अत्यंत पिछड़ी जातियाँ राज्य की लगभग 36% हैं। पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ सभी का यहाँ महत्वपूर्ण प्रतिशत है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बिहार से राजनीतिक व्यवस्था के लिए 'सम्पूर्ण क्रांति' का आव्हान किया था। इसके 50 साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातीय राजनीति की कलंकित सत्ता व्यवस्था को बदलने में सफलता पाकर नव क्रांति कर दी है। विशेष रूप से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल याप्त लालू यादव के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को फेल करने और कांग्रेस द्वारा दलित-मुस्लिम मतदाताओं को बंधक गुलाम समझने की दादागिरी को भी विफल किया जाना दूरगामी हितों का परिचायक है।
बिहार विधानसभा चुनावों ने एक स्पष्ट संकेत दिया है। जातिगत और सामुदायिक राजनीति की सीमाएँ हैं, और सिर्फ पहचान-राजनीति अब उतनी मजबूत शक्ति नहीं रही जितनी पहले मानी जाती थी। महागठबंधन की हार इस तथ्य को दर्शाती है कि पुराने समीकरण, पुराने वोट बैंक अब बिना आधुनिक और विकास-उन्मुख रणनीति के काम नहीं कर सकते। इसी तरह कम्युनिस्ट माओवादी पार्टियों का लाल किला भी टूट-फूट गया। नक्सल प्रभावित इलाका भी हिंसा से मुक्त हो गया है।
युवा मतदाता, आशावादी सामाजिक परिवर्तन, और बेहतर शासन की मांग ने बिहार की राजनीति को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। भविष्य के लिए, जो दल इन बदलते रुझानों को समझेगा और उसे अपनी राजनीति में आत्मसात करेगा, वह अधिक सफल होगा। मोदी के 'सबका साथ, सबका विकास' का फॉर्मूला जनता ने स्वीकार कर लिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता के 25 वर्ष और नीतीश कुमार की सत्ता के 20 वर्ष के कार्यकाल में दोनों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लग सका। यह इस बात का भी प्रमाण है कि जनता भ्रष्ट, अपराधी और बेईमान नेतृत्व के बजाय ईमानदार और जनता के सर्वांगीण विकास के लिए समर्पित नेतृत्व को पसंद करती है।
बिहार की सामाजिक संरचना जटिल समझी जाती रही है। 2023 की जाति-गणना के मुताबिक, अत्यंत पिछड़ी जातियाँ राज्य की लगभग 36% हैं। पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ, उच्च जातियाँ, सभी का यहाँ महत्वपूर्ण प्रतिशत है। इस प्रकार, बिहार में जातिगत विभाजन राजनीतिक समीकरणों का मूल आधार रहा है। यह वह जमीन है जिस पर दल हमेशा वोट बैंक विकास की रणनीति तैयार करते रहे।
लेकिन हाल के समय में, बिहार के मतदाता “पुराने जातिगत समीकरण” के अलावा नई आशाओं और मुद्दों की ओर भी झुके हैं। यह युवा मतदाता वर्ग, पहली बार वोट देने वाले, विकास, रोज़गार और शासन-पारदर्शिता जैसे एजेंडों को महत्व दे रहा है। इस बदलाव का मतलब यह है कि सिर्फ जाति-गणित अब चुनाव जीतने का पर्याप्त आधार नहीं रहा। लालू यादव की पारंपरिक ताकत मुसलमान + यादव वोट बैंक माना जाता रहा।
यह वोट बैंक लगभग 30% तक पहुँचता है। यह वही वोट बैंक है जिस पर लालू-राज की राजनीति लंबे समय से आधारित रही। लेकिन 2025 में, यह पुराना समीकरण पूरी तरह नाकाम रहा।
तेजस्वी यादव अन्य पिछड़ी जातियों में गहराई तक पैठ नहीं बना सके। इसके साथ ही, गठबंधन के आंतरिक मतभेद और सीट आवंटन की लड़ाइयों ने भी सुनिश्चित सहयोग को कमजोर कर दिया। महागठबंधन के विभिन्न घटक (राजद, कांग्रेस, लेफ्ट) के पास एक राजनीतिक संदेश नहीं था। इस तरह, आम मतदाताओं के लिए गठबंधन की “कहानी” स्पष्ट नहीं थी और यह एक बड़ी कमजोर कड़ी साबित हुई।
महागठबंधन में नेतृत्व का अस्थिर ढांचा था। राजद और कांग्रेस के बीच मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर विवाद, और रणनीति पर तालमेल की कमी सार्वजनिक रूप से दिखी। तेजस्वी यादव ने जो राजनीतिक आक्रामकता दिखाई, वह विशाल वोट बैंक तक नहीं पहुँच पाई क्योंकि उनकी रणनीति कहीं-कहीं अहस्तक्षेपपूर्ण रही। गठबंधन में 'कथित फ्रेंडली' मित्रवत मुकाबले भी हुए।
कुछ सीटों पर राजद, कांग्रेस, वी आई पी आदि के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हुए। महागठबंधन की स्थानीय संगठन उतनी मजबूत नहीं थी जितनी कि मोदी-शाह-नीतीश गठबंधन की थी। बूथ मैनेजमेंट में कमजोरी, उम्मीदवारों की पहचान की कमी और गठबंधन के अंदरूनी मतभेदों ने उनकी चुनावी लड़ाई को कमजोर कर दिया। इसमें यह भी देखा गया कि कांग्रेस द्वारा कुछ उम्मीदवारों का चयन गलत रहा।
स्थानीय समीकरणों की अनदेखी हुई, जिससे मतदाता नाराज हुए। युवा मतदाता, विशेष रूप से नौकरी, आर्थिक भविष्य और विकास एजेंडा पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। पहली बार वोट देने वाले बहुतों ने जातिगत कार्ड की सीमाओं को पहचान लिया है। भाजपा-जदयू गठबंधन ने विकास, सुशासन, कानून-व्यवस्था पर एक स्पष्ट एजेंडा पेश किया, जिसे कई मतदाताओं ने पसंद किया। इसके विपरीत, महागठबंधन का एजेंडा धुंधला रहा—जाति-समर्थित रणनीतियाँ, लेकिन ठोस विकास व शासन की पहल कम दिखाई दी। यही “नवीन राजनीतिक चेतना” कुछ इलाकों में जाति-संकेतों की ताकत को कम कर रही है।
बिहार में “सांप्रदायिक राजनीति” का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा किया गया, लेकिन 2025 में यह उतना निर्णायक नहीं रहा जितना पहले माना जाता था। राजद हमेशा मुसलमान-समर्थित दावेदार समझता रहा, लेकिन महागठबंधन ने मुसलमान वोट को अकेले मुद्दे तक सीमित नहीं रखा—वे बड़े सामाजिक न्याय, गरीबी राहत और आर्थिक मुद्दों पर भी बात करना चाहते थे। लेकिन उनकी पहुँच मात्र पहचान-आधारित राजनीति तक सीमित रही।
इसके अलावा, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सबका साथ के रास्ते को प्राथमिकता दी। गठबंधन में सीटों की टकराहट और बूथ मैनेजमेंट की कमजोरी ने नुकसान पहुँचाया। महागठबंधन में नेतृत्व की वैचारिक अस्पष्टता, भरोसे की कमी और चयन प्रक्रिया सुधारने में असमर्थता ने मतदाताओं के मन में अनिश्चितता पैदा की। इस बीच एनडीए ने एक अधिक केंद्रित, विकास-उन्मुख और संगठनात्मक रूप से मजबूत अभियान चलाया जिसने मतदाताओं को भरोसा हुआ। 2025 का बिहार चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण साबित हुआ कि पारंपरिक जातिगत और पहचान-राजनीति अब “अपर्याप्त” हो गई है।
नए मुद्दे, जैसे रोज़गार, युवा आकांक्षाएँ, आर्थिक समावेश, महिला सशक्तिकरण—मतदाताओं के लिए पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। इसके साथ ही, मतदाता अब केवल जातिगत पहचान से संतुष्ट नहीं हैं; वे “नियंत्रण एवं जवाबदेही”, “प्रभावी शासन” और “दूरगामी विकास” की मांग कर रहे हैं। महागठबंधन के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि सिर्फ पुराने जातिगत समीकरणों को दोहराना और वोट बैंक के भरोसे राजनीति करना अब पर्याप्त नहीं है।
उन्हें अपनी रणनीति को पुनर्गठित करना होगा। बूथ स्तर की मजबूत संगठन, स्थानीय उम्मीदवारों का चयन, वास्तविक विकास-पक्षीय नारे, और नेतृत्व की स्पष्टता। साथ ही, नए मतदाताओं (युवा, पहली बार वोट देने वाले) को लक्षित करने के लिए एजेंडा तैयार करना होगा, ना कि सिर्फ जातिगत समीकरणों पर निर्भर रहना।
वामपंथी दलों में, भाकपा (माले) विपक्ष की सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी रही है। 2020 में 19 में से 12 सीटें जीतने के बाद, इस बार भाकपा (माले) ने 20 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बार 33 उम्मीदवार उतारे, जिनमें केवल 3 जीत पाए। मतलब कम्युनिस्ट अब बिहार से उखड़ गए हैं। वहीं राहुल गांधी का नेतृत्व विफल होने से गठबंधन की दशा-दिशा बदलने वाली है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राष्ट्रीय प्रेस दिवस सिर्फ़ उत्सव नहीं, बल्कि पत्रकारिता की चुनौतियों और जिम्मेदारियों पर ध्यान देने का मौका है। तेज़ी, ट्रोलिंग और डिजिटल शोर के बीच सच को उजागर रखना पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
शमशेर सिंह, सलाहकार संपादक, नेटवर्क18 समूह।।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस (16 नवंबर) सिर्फ़ पेशे का उत्सव नहीं, बल्कि पत्रकारिता की चुनौतियों और जिम्मेदारियों पर ध्यान देने का मौका है। तेज़ी, ट्रोलिंग और डिजिटल शोर के बीच सच को उजागर रखना अब पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है।
प्रेशर, ट्रोलिंग और फेक न्यूज़। ये तीन चुनौतियां हैं आज की पत्रकारिता के लिए। यह दिन हमारे पेशे का उत्सव भर नहीं, एक याद दिलाने वाला मौका भी है कि पत्रकारिता अभी भी लोकतंत्र की रीढ़ है। याद रखिए इन सबके बीच हमे सोशल मीडिया के तूफ़ान से भी बचना है।
न्यूज़ रूम में सबसे पहले, सबसे तेज के साथ अब वायरल करो की भी रेस है। लेकिन असली पत्रकार वही जो इस शोर में भी सच को सामने रखे।
अब हर खबर के पीछे एक डिजिटल भीड़ खड़ी है—गाली, तंज, निजी हमले। ये तोड़ने आते हैं, रोकने आते हैं। पर हमारा जवाब बहस नहीं, तथ्य और सच्चाई होनी चाहिए।
फेक न्यूज़ अब हथियार नहीं, पूरी फैक्टरी है—डीपफेक से लेकर पुराने वीडियो तक। सच को धुंधली करने की ये कोशिशें ही पत्रकार की जिम्मेदारी को और भारी बनाती हैं—तथ्य छांटने, संदर्भ साफ़ करने और झूठ की परतें उघाड़ने की जिम्मेदारी।
लोकतंत्र की रीढ़ पर रोजाना चोट पड़ती है—पर सच की मशाल अभी भी जल रही है। हमारा काम वही है—दबाव में न झुकना, ट्रोलिंग में न टूटना, और झूठ के अंधेरे में रोशनी कम न होने देना।
दबाव, ट्रोलिंग और फेक न्यूज के बीच भी सच की मशाल थामे रहना ही आज की पत्रकारिता की असली पहचान है। यह दिन याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रीढ़ तब मजबूत रहती है जब पत्रकार बिना डर और झुकाव के अपने काम पर कायम रहते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
बिहार में बीजेपी की इस तूफानी जीत ने न सिर्फ भाजपा के आंतरिक समीकरणों को ओर भी दिलचस्प बनाया बल्कि भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को अंदर से हिला दिया हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
यह कहने में अब कोई हिचक नहीं है कि अब हम मोदी गणतंत्र के वासी हैं और यह दौर सिर्फ और सिर्फ मोदी का है। प्रधानमंत्री मोदी का करिश्माई नेतृत्व और अमित शाह का संगठन कौशल ही है जिसने 2014 में मरी हुई भाजपा को जिंदा कर दिया और मोदी-शाह की नई भाजपा का जादू आज पूरे देश में सर चढ़कर बोल रहा है।
लगातार जीतने, अपना आकार बढ़ाने और भारत की राजनीति में अपने दबदबे की भूख और आग कभी मोदी और शाह को शांत नहीं बैठने देती। ‘बस बहुत हुआ अब थोड़ा आराम कर ले’, यह शब्द मोदी और शाह के लिए नहीं बने। मोदी और शाह की अगुवाई वाली भाजपा के लिए हर नाकामी भविष्य की कामयाबी की परियोजना बन जाती है। मतलब दिन दोगुनी और रात चौगुनी मशक्कत करने का आह्वान।
मोदी और शाह की उपस्थिति भाजपा को अजेय के भाव से भर देती है। बिहार बोल चुका है। मोदी और नीतीश का डबल इंजन का योग एनडीए के लिए सपनों से ज्यादा झोली भर के नतीजे ले आया। सरकार की नकारात्मकता मोदी के पैदा की गई सकारात्मकता की हवा में उड़ गई। मोदी राज में हुए विकास, हाईवे, कानून व्यवस्था और कल्याणकारी योजनाएं बिहार के हर वोटर के अपने निजी अनुभव के दायरे में हैं और महिलाओं में सुरक्षा का एहसास तो रोजमर्रा की जिंदगी का सबसे बुनियादी पहलू है ही, जिसमें सांप्रदायिक सीमा को छू लेने का तत्व भी है।
सिर्फ बिहार में ही नहीं पूरे भारत में हम वोटरों के एक नए वर्ग को जन्म लेता देख रहे हैं, जो कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी हैं। बिहार में मोदी और नीतीश के तैयार किए गए इस वर्ग ने जातियों की सभी सीमाएं लांघी हैं। मोदी और शाह के चुनावी अभियान में हिंदुत्व की एक अंतर्धारा बहती है। खासकर युवा और महिलाएं इस नए वोट बैंक का हिस्सा हैं, जिसमें कल्याणकारी योजनाओं का तड़का भी है।
बिहार का यह अचंभित करने वाला चुनाव परिणाम निर्विवाद ब्रांड मोदी के कारण संभव हो सका है। मोदी और शाह ने मिलकर भाजपा को वह जादुई आभा दे दी है, जो वोट आकर्षित करती है। भारतीय राजनीति में अब दरअसल इसका कोई मतलब नहीं है कि मौजूदा चेहरा कमजोर है, या वाकई बोझ है। चेहरा कौन है, यह बेमानी सवाल है। हर चेहरे पर मोदी का चेहरा भारतीय राजनीति में वोटर देखने का आदी हो चुका है। मोदी है तो मुमकिन है। मोदी और भरोसा भारतीय राजनीति में समानार्थी शब्द बन गए हैं। जैसे पानी और दूध घुलमिल जाते हैं, वैसे ही वोटरों की नजर में मोदी और भरोसा घुलमिल गए हैं।
विपक्ष को इसे अलग करना फिलहाल संभव नहीं है। बिहार में मोदी के दम पर एनडीए की प्रचंड जीत ने अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल और उसके बाद 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव के मौसम का रुझान तय कर दिया है। बिहार में भाजपा के इस तूफानी जीत ने भाजपा के आंतरिक समीकरणों को और भी दिलचस्प बना दिया है। बिहार में मोदी और शाह के कमाल ने भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को भी अंदर से हिला दिया है।
सिर्फ बिहार में विपक्ष की पार्टियों में सन्नाटा नहीं पसरा है। कई भाजपा शासित राज्यों और कई दिग्गज नेताओं को भी सांप सूंघ गया है। जो मोदी और शाह बीच बिहार के चुनाव में दिवाली के एक दिन पहले पूरे गुजरात के मंत्रिमंडल को बदल सकते हैं, वह मोदी और शाह बिहार की इस प्रचंड जीत के बाद क्या करेंगे कोई नहीं जानता। मोदी और शाह की इस अनमोल जोड़ी को बिहार जीत पर बहुत बहुत बधाई।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )