वीर सावरकर जैसा क्रांतिकारी भारत में कोई दूसरा नहीं : समीर चौगांवकर

गांधीजी के असली वैचारिक विरोधी जिन्ना, सुभाषचंद्र बोस और अंबेडकर नहीं, वीर सावरकर थे। इन तीनों नेताओे ने कभी ना कभी गांधीजी के साथ काम किया पर सावरकर के साथ नहीं।

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Wednesday, 28 May, 2025
veersaavarkar


समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

सावरकर महाराष्ट्र के रोम रोम में बसे हैं जैसे इस देश के रोम रोम में महात्मा गांधी हैं। जनता की अपनी एक स्मृति होती है जो अपने नायकों से अपना रिश्ता गढ़ती है। देश के आजादी में सावरकर का योगदान अतुलनीय हैं। पचास साल की सजा पाने वाले सावरकर पहले और अकेले क्रांतिकारी थे। पूर्ण स्वराज की मांग सबसे पहले सावरकर ने ही की थी। सावरकर ऐसे पहले भारतीय बैरिस्टर थे, जिनके उग्र विचारों के चलते ब्रिटेन ने डिग्री देने से मना कर दिया था। सावरकर ऐसे पहले भारतीय लेखक थे जिनकी पुस्तकों के छपने से पहले ही दो देशों की सरकारों ने पांबदी लगा दी थी।

वे ऐसे पहले कैदी थे जिनकी रिहाई का मुकदमा “हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय” में चला। सावरकर एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने उच्च कोटि के काव्य, नाटक, उपन्यास के अलावा इतिहास और राजनीति पर पाण्डित्यपूर्ण मौलिक ग्रंथों की रचना की। सावरकर ऐसे पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने भारत की आजादी के सवाल को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था। 27 साल की उम्र में उन्हें 50 साल की सजा मिली थी। ब्रिटेन से भारत लाते वक्त उन्होने समुद्र से छंलाग क्या लगाई वे दुनिया के क्रांतिकारियों के हीरो बन गए। 27 साल तक अण्डमान निकोबार और रत्नागिरी की जेलों में अपना सर्वस्व होम करने वाले वीर सावरकर जैसा क्रांतिकारी भारत में कोई दूसरा नहीं हुआ।

सावरकर जैसे सशस्त्र क्रांतिकारी और भी हुए लेकिन उनकी अवहेलना वैसी नहीं हुई जैसी सावरकर की हुई। फिर ऐसा क्यों हुआ कि सावरकर वह सम्मान नहीं पा सके जिसके वह हकदार थे। इसका कारण यह माना जा सकता है कि उनको हिन्दू सांप्रदायिकता और हिंसा का जनक माना गया और उनसे दूरी बना ली गई। गांधीजी के असली वैचारिक विरोधी जिन्ना, सुभाषचंद्र बोस और अंबेडकर नहीं, वीर सावरकर थे। इन तीनों नेताओे ने कभी ना कभी गांधीजी के साथ काम किया लेकिन सावरकर ने कभी भी गांधीजी के साथ काम नहीं किया।

सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने और गांधीजी के अहिंसा को खुलकर चुनौती दी। सावरकर ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहते साफ कहा कि ‘‘राजनीति का हिंदूकरण हो और हिन्दुओं का सैनिकीकरण हो‘‘। सावरकर स्वयं नास्तिक थे लेकिन वैचारिक तौर पर हिन्दुत्व के प्रवक्ता थे। उनका हिन्दुत्व परम्परा भंजक, हिंसक प्रतिकार का समर्थक था। सावरकर सांप्रदायिक नहीं, बुद्धिवादी थे और इसी कारण राष्ट्रवादी थे।स्वतंत्रता संग्राम के सभी सेनानी हमारे लिए श्रद्धा के पात्र होना चाहिए। लेकिन हमारे देश का और समाज का यह दुर्भाग्य है कि हम हमारे नायकों की बंदरबांट में लगे है।

राहुल गांधी क्यो सावरकर पर समय समय पर कुछ अतंराल के बाद अनर्गल आरोप लगाते है? राहुल गांधी भूल जाते है कि उनकी दादी इंदिरा गांधी ने सावरकर पर डाक टिकट जारी किया था और सावरकर की स्मृति में स्थापित न्यास को निजी तौर पर 11 हजार रूपये दिए थे। मुम्बई के कांग्रेसी महापौर ने दादर में 100 करोड की जमीन सावरकर स्मृति के लिए दी थी, जिसका भूमिपूजन कांग्रेस के नेता जगजीवनराम ने किया था और शिलान्यास कांग्रेसी राज्यपाल डॉ शंकर दयाल शर्मा ने किया था। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कांग्रेस के शरद पवार ने की थी।

राहुल गांधी यह कैसे भूल जाते है कि सावरकर पर बनी सरकारी फिल्म कांग्रेस की केन्द्र में सरकार रहते कांग्रेस के सूचना और प्रसारण मंत्री वसंत साठे और विट्ठल गाडगिल के सक्रिय सहयोग से बनी थी। वंसत साठे ने सावरकर को भारत रत्न देने की मांग भी की थी। महाराष्ट्र में सावरकर को नापंसद करने वाले लोग भी सावरकर की सार्वजनिक आलोचना पंसद नहीं करते। लेकिन यह भी सत्य है कि जिस ‘‘हिन्दू महासभा‘‘ के लिए सावरकर ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया। उस ‘‘हिन्दू महासभा‘‘ को सावरकर के जीते जी किसी ने नहीं पूछा और न सावरकर के मरने के बाद। सावरकर को अभी तक ‘‘भारत रत्न‘‘ नहीं मिला। क्यो नहीं मिला। इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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उपराष्ट्रपति के लिए सही चयन है सी. पी. राधाकृष्णन : रजत शर्मा

विपक्षी दलों ने पूर्व जज रेड्डी को इसलिए उम्मीदवार बनाया है क्योंकि वह अविभाजित आंध्र प्रदेश से हैं और उनकी उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष तेलुगु देशम पार्टी में दुविधा पैदा करना चाहता है।

Last Modified:
Thursday, 21 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

उपराष्ट्रपति पद के लिए 9 सितम्बर को एनडीए उम्मीदवार सी. पी. राधाकृष्णन और विपक्ष के उम्मीदवार पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जी. सुदर्शन रेड्डी के बीच सीधा मुकाबला होगा। मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खर्गे ने रेड्डी की उम्मीदवारी का ऐलान किया और कहा कि विपक्षी खेमे ने सर्वसम्मति से यह चयन किया है। उधर, सी. पी. राधाकृष्णन की उम्मीदवारी पर बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने मुहर लगा दी है।

विपक्षी दलों ने पूर्व जज रेड्डी को इसलिए उम्मीदवार बनाया है क्योंकि वह अविभाजित आंध्र प्रदेश से हैं और उनकी उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष तेलुगु देशम पार्टी में दुविधा पैदा करना चाहता है। लेकिन मंगलवार को ही टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडु के पुत्र एन. लोकेश ने सोशल मीडिया पर लिखा कि एनडीए एकजुट है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह विरोधी दलों के नेताओं से बात करके राधाकृष्णनन के नाम पर सहमति बनाने की कोशिश अब भी कर रहे हैं। लेकिन विपक्ष उपराष्ट्रपति चुनाव में सत्ता पक्ष को टक्कर देने के मूड में नज़र आ रहा है।

उपराष्ट्रपति चुनाव के आंकडों पर नज़र डालें तो सीपी राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति बनना तय है। बीजेपी और उसके साथी दलों के पास अच्छा खासा बहुमत है। कांग्रेस और उसके साथी दलों के लिए CPR का विरोध करना मुश्किल होगा क्योंकि एक तो उनका सार्वजनिक जीवन साफ सुथरा है। दूसरा, वो ओबीसी समाज से आते हैं, तमिलनाडु के हैं लेकिन उनकी जाति का प्रभाव आंध्र प्रदेश में भी है। विपक्ष का विरोध सांकेतिक होगा और CPR के उम्मीदवार होने की वजह से आक्रामक नहीं हो पाएगा।

CPR को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने का एक और पहलू भी है। बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह एहसास हुआ है कि अपने पुराने लोगों को ही जिम्मेदारी के पद देने चाहिए। जगदीप धनखड़ और सत्यपाल मलिक जैसे एक्सपेरिमेंट फेल हुए हैं। ये एहसास आने वाली राजनीतिक नियुक्तिय़ों में भी दिखाई देगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक : जयदीप कर्णिक

जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक है। सूट पहनकर दुनिया को उपदेश देने वाली ये शक्तियां अपनी नीति और नीयत में कितनी नंगी हैं, ये समझना जरूरी है।

Last Modified:
Wednesday, 20 August, 2025
jaydeep

जयदीप कर्णिक, संपादक, अमर उजाला डिजिटल।

दृश्य एक -

तारीख – 22 फरवरी 2025, स्थान - अमेरिका, वॉशिंगटन डी. सी., राष्ट्रपति का कार्यालय, किरदार - अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप , यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेन्स्की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस, कुछ पत्रकार और अन्य। इतनी बड़ी मुलाक़ात के लिए भी जेलेन्स्की अपने नियमित कपड़े ही पहन कर आए थे। टी-शर्ट और कार्गो पैंट। अपने ही अंदाज़ में वे पत्रकारों के सामने ही लाइव कैमरे पर डोनाल्ड ट्रम्प से भिड़ गए। अपने देश के लिए, उसके हितों के लिए। उस समय एक पत्रकार ने उनसे पूछ भी लिया था। आप इतनी बड़ी मुलाकात के लिए भी इतने साधारण कपड़े पहन कर आए हैं? जेलेन्स्की ने पलटकर पत्रकार से ही पूछ लिया था -आपको कोई तकलीफ है क्या?

दृश्य दो -

तारीख: 18 अगस्त 2025, स्थान – वही - अमेरिका, वॉशिंगटन डी. सी., राष्ट्रपति का कार्यालय, किरदार – ये भी वही - अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेन्स्की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस, कुछ पत्रकार और अन्य।

अब सब कुछ बदला हुआ था। कपड़ों से लेकर व्यवहार तक। शिष्टाचार दोनों ओर से बह रहा था। ट्रंप और जेलेन्स्की दोनों ओर से। जेलेन्स्की इस बार सूट पहनकर आए थे। उसी पत्रकार ने फिर उनसे कहा कि आप इस सूट में अच्छे लग रहे हो ! ट्रंप भी तपाक से बोले -हां मैंने भी इनसे यही कहा। फिर जेलेन्स्की से बोले ये वही पत्रकार हैं जिन्होंने आपको पिछली बार टोका था। जेलेन्स्की बोले, हां मैं इनको पहचान गया। मैंने तो सूट पहन लिया है पर इन्होंने वही सूट पहना है जो उस दिन पहना था।

बहरहाल, इस वैश्विक घटनाक्रम की संक्षिप्त लेकिन अतिशय नाटकीय दृश्यावली में फरवरी 2025 से अगस्त 2025 के इन छह महीनों में बहुत कुछ बदल गया है। जेलेन्स्की के कपड़े ही नहीं बदले हैं बल्कि हावभाव भी बदल लिए हैं। फरवरी की मुलाक़ात तीखी नोंक-झोंक में बदल गई थी। जेलेन्स्की के लिए बना भोजन धरा रह गया था और उन्हें एक तरह से धकियाकर ओवल दफ्तर से बाहर कर दिया गया था।

इस मुलाक़ात के बाद ट्रम्प और जेलेन्स्की के कई मीम भी बने थे, जिसमें दोनों को हाथापाई तक करते हुए बताया गया था।अबकी दोनों बहुत सुकून से मिले। न केवल घंटों मुलाक़ात चली, बल्कि यूरोप के अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी वहीं बुला लिए गए थे। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सब। ये ही वो शक्तियां हैं, जिन्होंने यूक्रेन को कहा था कि चिंता मत करो हम तुम्हारे साथ हैंं, हम तुम्हें रूस के खिलाफ लड़ने में पूरी मदद करेंगे।

पूरी मदद करेंगे पर खुद नहीं लड़ेंगे। हमारा एक भी नागरिक या सैनिक नहीं मरेगा। नागरिक और सैनिक सब यूक्रेन के मरेंगे। आखिर क्या बदला इन छह महीनों में? फरवरी में ट्रंप उसी गुरूर में जी रहे थे कि एक फोन करुंगा और रूस-यूक्रेन युद्ध रुकवा दूंगा!! उनको लगा जेलेन्स्की घुटनों के बल आएंगे और जो कहा जाएगा मान जाएंगे। हुआ ठीक उलट।

पुतिन को समझाने गए तो उन्होंने भी झिड़क दिया।ट्रंप को समझ आया कि मामला पेचीदा है और यूं शेखी बघारने से कुछ नहीं होगा। तो टैरिफ का दांव खेला। उसमें भी अपने ही जाल में घिर गए। आखिर पुतिन अपनी ही शर्तों पर मिलने के लिए तैयार हुए। चंद रोज पहले अलास्का में मिले भी। आसमान में गुजरते बमवर्षक अमेरिकी जहाजों के बीच नीचे जमीन पर जब ट्रंप और पुतिन मिले तो दुनिया की राजनीति का एक नया अध्याय लिखा जा रहा था। दो बड़े ध्रुव, दो बड़ी ताकतें मिल रही थीं, और जिनको समझ नहीं है उन्हें समझा रही थीं कि अब न तो दुनिया दो ध्रुवीय रह गई है, न एक ध्रुवीय, न बहुध्रुवीय।

अब दरअसल ध्रुव तो है, पर वो कोई देश नहीं हैं। वो सिर्फ एक ही चीज़ है और वो है पैसा, वो है व्यापार। अब सारे बड़े राष्ट्राध्यक्ष एक क्रूर व्यापारी की तरह व्यापार कर रहे हैं। दांव पर यूक्रेन जैसे छोटे देश लगे हैं और बिसात पर इन्हें मोहरे की तरह उपयोग में लाया जा रहा है, इसीलिए तो ट्रम्प और जेलेन्स्की की ताज़ा मुलाकात के ठीक पहले अमेरिका का ये बयान आ जाता है कि इस बातचीत में यूक्रेन के लिए नाटो की सदस्यता और डोनाबास पर रूस का कब्जा एजेंडे में नहीं हैं।

ट्रंप और पुतिन के बीच क्या बात हुई होगी उसे समझने के लिए ये इशारा ही काफी है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस नाटो की सदस्यता को लेकर ये सारा बखेड़ा खड़ा हुआ, वही एजेंडे से बाहर हो गई। यूक्रेन तो पूरी तरह ठगा गया। ऐसे में जेलेन्स्की के पास सूट पहनकर आने और अपना अस्तित्व बचाने के लिए झुककर बात करने के अलावा विकल्प ही क्या रह गया है?

दुनिया के ये व्यापारी चौधरी आखिर मसखरे से राष्ट्रपति बने और अपनी शर्तों पर जीना चाहने वाले जेलेन्स्की को झुकाकर ही माने। इस पूरे मामले में इन व्यापारी शक्तियों का कैसा दोगलापन रहा। भारत सहित दुनिया के सब देशों को रूस से व्यापार रोकने के लिए धमकाते रहे और खुद उसी रूस से व्यापार करते रहे। इधर पुतिन इनकी टेबल पर आ गए तो अब जेलेन्स्की को भी सूट पहना दिया। यही समझने वाली बात है। जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक है।

सूट पहनकर दुनिया को उपदेश देने वाली ये शक्तियां अपनी नीति और नीयत में कितनी नंगी हैं, ये समझना जरूरी है। अपने बदन पर स्वाभिमान का टी-शर्ट पहनकर घूमने वाला कोई देश इनको पसंद नहीं आएगा। सूट की इन महाशक्तियों के सामने दुनिया के टी-शर्ट, गमछे और बंडी को अपना स्वाभिमान और अस्तित्व बचाना ही इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।

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संपादक के विस्थापन का कठिन समय : प्रो.संजय द्विवेदी

नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है।

Last Modified:
Wednesday, 20 August, 2025
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प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष।

हिंदी पत्रकारिता के 200 साल की यात्रा का उत्सव मनाते हुए हमें बहुत से सवाल परेशान कर रहे हैं जिनमें सबसे खास है ‘संपादक का विस्थापन’। बड़े होते मीडिया संस्थान जो स्वयं में एक शक्ति में बदल चुके हैं, वहां संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों कम हुई है। अखबारों से खबरें भी नदारद हैं और विचार की जगह भी सिकुड़ रही है। बहुत गहरे सौंदर्यबोध और तकनीकी दक्षता से भरी प्रस्तुति के बाद भी अखबार खुद को संवाद के लायक नहीं बना पा रहे हैं। यह ऐसा कठिन समय है जिसमें रंगीनियां तो हैं पर गहराई नहीं। हर तथ्य और कथ्य का बाजार पहले ढूंढा जा रहा है, लिखा बाद में जा रहा है।

नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है। जहां शब्द हैं, विचार हैं और उसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य और सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए हैं या नए जमाने में ऐसा सोचना ठीक नहीं है। डिजीटल मीडिया की मोबाइल जनित व्यस्तता ने पढ़ने, गुनने और संवाद का सारा समय खा-पचा लिया है। जो मोबाइल पर आ रहा है,वही हमें उपलब्ध है। हम इसी से बन रहे हैं, इसी को सुन और गुन रहे हैं।

ऐसे खतरनाक समय में जब अखबार पढ़े नहीं, पलटे जाने की भी प्रतीक्षा में हैं। दूसरी ओर वाट्सअप में अखबारों के पीडीएफ तैर रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो पीडीएफ पर ही छपते हैं। अखबारों को हाथ में लेकर पढ़ना और ई-पेपर की तरह पढ़ना दोनों के अलग अनुभव हैं। नई पीढ़ी मोबाइल सहज है। उसने मीडिया घरानों के एप मोबाइल पर ले रखे हैं। वे अपने काम की खबरें देखते हैं। ‘न्यूज यू कैन यूज’ का नारा अब सार्थक हुआ है। खबरें भी पाठकों को चुन रही हैं और पाठक भी खबरों को चुन रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अखबारों की जिंदगी कितनी लंबी है। 2008 में ‘प्रिंट इज डेट किताब’ लिखकर जे. गोमेज इस अवधारणा को बता चुके हैं।

सवाल यह नहीं है कि अखबार बचेंगे या नहीं मुद्दा यह है कि पत्रकारिता बचेगी या नहीं। उसकी संवेदना, उसका कहन, उसकी जनपक्षधरता बचेगी या नहीं। संपादक की सत्ता पत्रकारिता की इन्हीं भावनाओं की संरक्षक थी। संपादक अखबार की संवेदना, भाषा, उसके वैचारिक नेतृत्व,समाजबोध का संरक्षण करता था। उसकी विदाई के साथ कई मूल्य भी विदा हो जाएंगें। गुमनाम संपादकों को अब लोग समाज में नहीं जानते हैं।

खासकर हिंदी इलाकों में अब पहचान विहीन और ‘ब्रांड’ वादी अखबार निकाले जा रहे हैं। अब संपादक के होने न होने से फर्क नहीं पड़ता। उसके लिखने न लिखने से भी फर्क नहीं पड़ता। न लिखे तो अच्छा ही है। पहचानविहीन चेहरों की तलाश है, जो अखबार के ब्रांड को चमका सकें। संपादक की यह विदाई अब उस तरह से याद भी नहीं की जाती। पाठकों ने ‘नए अखबार’ के साथ अनुकूलन कर लिया है।

‘नया अखबार’ पहले पन्ने पर भी किसी भी प्रोडक्ट का एड छाप सकता है, संपादकीय पन्ने को आधा कर विचार को हाशिए लगा सकता है। खबरों के नाम पर एजेंडा चला सकता है। ‘सत्य’ के बजाए यह ‘नरेटिव’ के साथ खड़ा है। यहां सत्य रचे और तथ्य गढ़े जा सकते हैं। उसे बीते हुए समय से मोह नहीं है वह नए जमाने का ‘नया अखबार’ है। वह विचार और समाचार नहीं कंटेट गढ़ रहा है। उसे बाजार में छा जाने की ललक है। उसके टारगेट पर खाये-अघाए पाठक हैं जो उपभोक्ता में तब्दील होने पर आमादा हैं।

उसके कंटेंट में लाइफ स्टाइल की प्रमुखता है। वह जिंदगी को जीना और मौज सिखाने में जुटा है। इसलिए उसका जोर फीचर पर है, अखबार को मैग्जीन बनाने पर है। अखबार बहुत पहले ‘रंगीन’ हो चुका है, उसका सारा ध्यान अब अपने सौंदर्यबोध पर है। वह ‘प्रजेंटेबल’ बनना चाहता है। अपनी समूची प्रस्तुति में ज्यादा रोचक और ज्यादा जवान। उसे लगता है कि उसे सिर्फ युवा ही पढ़ते हैं और वह यह भी मानकर चलता है कि युवा को गंभीर चीजें रास नहीं आतीं।

यह ‘नया अखबार’ अब संपादक की निगरानी से मुक्त है। मूल्यों से मुक्त। संवेदनाओं से मुक्त। भाषा के बंधनों से मुक्त। यह भाषा सिखाने नहीं बिगाड़ने का माध्यम बन रहा है। मिश्रित भाषा बोलता हुआ। संपादक की विदा के बहुत से दर्द हैं जो दर्ज नहीं है। नए अखबार ने मान लिया है कि उसे नए पाठक चुनने हैं। बनाना है उन्हें नागरिक नहीं, उपभोक्ता। ऐसे कठिन समय में अब सक्रिय पाठकों का इंतजार है। जो इस बदलते अखबार की गिरावट को रोक सकें। जो उसे बता सकें कि उसे दृश्य माध्यमों से होड़ नहीं करनी है। उसे शब्दों के साथ होना है। विचार के साथ होना है।

हिंदी के संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कहा था, ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी।

यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।”

श्री पराड़कर की यह भविष्यवाणी आज सच होती हुई दिखती है। समानांतर प्रयासों से कुछ लोग विचार की अलख जगाए हुए हैं। लेकिन जरूरी है कि हम अपने पाठकों के सक्रिय सहभाग से मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए आगे आएं। तभी उसकी सार्थकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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चुनावी जंग में कांग्रेस का घटता हौसला: समीर चौगांवकर

पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है।

Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पीएम मोदी के 15 अगस्त के भाषण से कांग्रेस को चिंतित होना चाहिए। 2024 में 240 सांसदों पर सिमटे मोदी ने 2029 में फिर से सरकार बनाने के अपने संकल्प को संकेतों में बताया है। मोदी का भाषण भविष्य की बलवती वापसी से भरा हुआ था। मोदी ने अभी से 2029 की तैयारी शुरू कर दी है, और वहीं कांग्रेस चुनावी जंग के लिए कितनी तैयार है? इसके जनरलों और पैदल सैनिकों में कितना जोश है? इसके जनरल कौन-कौन हैं? सिर्फ़ मोदी को ‘वोट चोर’ कहकर मोदी सरकार को ठिकाने लगाने की उम्मीद राहुल गांधी कर रहे हैं। कांग्रेस आज क्या है? क्या वह एक राजनीतिक दल है, जो अपने जीवन-मरण की लड़ाई में उतरने जा रही है? या वह एक एनजीओ है, जो सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ निभा रही है और यह उम्मीद कर रही है कि इतने भर से दिल्ली की सत्ता बदल जाएगी?

मेरे इस आकलन से कांग्रेस-समर्थक नाराज़ हो सकते हैं मगर इस नश्तर को घाव के अंदर घुमाना ज़रूरी है। पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है। राहुल गांधी को चिंतित होना चाहिए कि अगर इस बार फिर कांग्रेस की हार हुई तो इसके ‘मध्य’ से इसके कई हताश और पस्त सदस्य बाहर का रास्ता पकड़ लेंगे। लगातार 20 साल सत्ता से बाहर रहना कांग्रेस अफ़ोर्ड नहीं कर सकेगी। तब कांग्रेस का क्या बचा रहेगा?

संभावना यही है कि तब भी यह उन्हीं पुराने और जर्जर स्वयंभू चाणक्यों, मेकियावेलियों और दिग्गज बुद्धिजीवियों की जमात के रूप में बनी रहेगी, जिन सबकी एक ही विशेषता होगी। न कभी चुनाव लड़े और न कभी चुनाव जीते या उसे भी गंवा दिया जो कभी उनके ज़िम्मे सौंपा गया। किसी भी राजनीतिक दल का एक ही लक्ष्य और नारा होता है, ‘चुनाव जीतो’। इसके लिए कड़ी मेहनत और गहरी निष्ठा की ज़रूरत होती है। सफल रहे तो खूब इनाम पाओ, विफल रहे तो भारी कीमत चुकाओ।

संक्षेप में, सारा दारोमदार जवाबदेही पर है। अब आप बताइए कि आपके मुताबिक, क्या कांग्रेस में इधर ऐसा कुछ हो रहा है? इस सवाल का जवाब ‘ना’ में है। 2014 के बाद कांग्रेस ज़्यादा सामंतवादी हो गई है और योग्यता के प्रति उसका आग्रह घटता गया है। इसमें जुझारू, चुनावी प्रतिभा वाले नए नेता बहुत कम उभरे हैं। जो थे, वे पार्टी से जा चुके हैं। लेकिन चापलूस तत्व तमाम संकटों के बीच भी कांग्रेस में बचे और बने रहते हैं। गांधी परिवार सहित कुछ पुराने वंशज अपनी सिकुड़ती जागीर शायद ही बचा पाए हैं।

वे अपने क्षेत्र में अपनी पार्टी का विस्तार नहीं कर सकते, न ही वे नई प्रतिभाओं के लिए जगह खाली कर सकते हैं। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने निरंतरता बनाए रखी। बेशक नाकामियों की। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने प्रभारी के तौर पर जिस राज्य को छुआ उसे धूल बना दिया। कांग्रेस में राहुल टीम ऐसी है जो एक सिरे से पराजितों की परेड जैसी दिखती है।

राजनीति कड़ी मेहनत की मांग करती है, केवल ट्विटर के योद्धा बनकर कुछ नहीं होगा। कहीं ऐसा न हो कि 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ता राहुल गांधी को लेकर आमिर खान की फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ का यह गाना गुनगुनाते मिले,‘कहाँ से आया था वो, कहाँ गया उसे ढूँढ़ो’।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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लाल क़िले से पीएम मोदी का वैचारिक संदेश: अनंत विजय

संघ बीजेपी के बीच कथित मतभेद के क़यासों के बीच पीएम मोदी का लाल क़िले से दिया भाषण उनकी वैचारिक दृढ़ता को इंगित करता है। पूरे भाषण के दौरान एक साझा सूत्र है।

Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें देशवासियों की भावनाओं का प्रकटीकरण और उनका अपना सोच था। अपनी समृद्ध संस्कृति और वौचारिकी का समावेश तो था ही। हम उन विचारों पर नजर डालेंगे लेकिन पहले प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ अंश देखते हैं। अपने भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं के स्मरण से किया। इसके बाद उन्होंने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।

अंश- हम आज डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 125वीं जयंती भी मना रहे हैं। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के संविधान के लिए बलिदान देनेवाले देश के पहले महापुरुष थे। संविधान के लिए बलिदान। अनुच्छेद 370 की दीवार को गिराकर एक देश एक संविधान के मंत्र को जब हमने साकार किया तो हमने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी।

अंश- आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का जिक्र करना चाहता हूं। आज से 100 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सौ साल की राष्ट्र की सेवा एक ही बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के इस संकल्प को लेकर के सौ साल तक मां भारती के कल्याण का लक्ष्य लेकर लाखों स्वंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया।

सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से। सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है। आज लालकिले की प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्रसेवा की यात्रा में योगदान करनेवाले सभी स्वयंसेवकों का आदरपूर्वक स्मरण करता हूं। देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य समर्पित यात्रा को जो हमें प्रेरणा देता रहेगा।

अंश- जब युद्ध के मैदान में तकनीक का विस्तार हो रहा है, तकनीक हावी हो रही है, तब राष्ट्र की रक्षा के लिए, देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमने जो महारथ पाई है उसको और विस्तार करने की जरूरत है।... मैंने एक संकल्प लिया है, उसके लिए आपका आशीर्वाद चाहिए। समृद्धि कितनी भी हो अगर सुरक्षा के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो समृद्धि भी किसी काम की नहीं रहती। मैं लाल किले की प्राचीर से कह रहा हूं कि आने वाले 10 साल में 2035 तक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों, जिनमें सामरिक के साथ साथ सिविलियन क्षेत्र भी शामिल है, अस्पताल हो, रेलवे हो,आस्था के केंद्र हो, को तकनीक के नए प्लेटफार्म द्वारा पूरी तरह सुरक्षा का कवच दिया जाएगा।

इस सुरक्षा कवच का लगातार विस्तार होता जाए, देश का हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे। किसी भी तरह का टेक्नोलाजी हम पर वार करने आ जाए हमारी तकनीक उससे बेहतर सिद्ध हो। इसलिए आनेवाले दस साल 2035 तक मैं राष्ट्रीय सुरक्षा कवच का विस्तार करना चाहता हूं।... भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा पाकर हमने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की राह को चुना है। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि जब महाभारत की लड़ाई चल रही थी तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य के प्रकाश को रोक दिया था। दिन में ही अंधेरा कर दिया था। सूर्य प्रकाश को जब रोक दिया था तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध की प्रतिज्ञा पूरी की थी। ये सुदर्शन चक्र की रणनीति का परिणाम था। अब देश सुदर्शन चक्र मिशन लांच करेगा। ये सुदर्शन चक्र मिशन मिशन दुश्मनों के हमले को न्यीट्रलाइज तो करेगा ही पर कई गुणा अधिक शक्ति से दुश्मन को हिट भी करेगा।

अगर हम उपरोक्त तीन अंशों को देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में वैचारिकी का एक साझा सूत्र दिखाई देता है। जिस विचार को लेकर वो चल रहे हैं या जिस विचार में वो दीक्षित हुए हैं उसपर ही कायम हैं। सबसे पहले उन्होंने अपने संगठन के वैचारिक योद्धा डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को याद किया। उनके कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के स्वप्न को पूरा करने की बात की। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से देश का बताया कि किस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान को भारत भूमि पर पूरी तरह से लागू करवाने में सर्वोच्च बलिदान दिया।

इसके बाद वो अन्य बातों पर गए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा करके एक बार फिर से उन्होंने अपनी वैचारिकी को देश के सामने रखा। पूरी दुनिया को पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे हैं। संघ के वैचारिक पथ पर चलते हुए ही वो राजनीति में आए और राष्ट्र सर्वप्रथम के सिद्धांत को अपनाया। यह अनायस नहीं था कि लाल किले पर जो सज्जा की गई थी उसमें एक फ्लावर वाल पर लिखा था – राष्ट्र प्रथम। पिछले दिनों संघ और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर दिल्ली में खूब चर्चा रही।

लोग तरह तरह के कयास लगाने में जुटे हुए हैं कि संघ और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्ते समान्य नहीं हैं। ऐसा करनेवाले ना तो संघ को जानते हैं और ना ही संघ के स्वयंसेवकों को। राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ और उनसे जुड़े व्यक्ति का आकलन उस प्रविधि से नहीं किया जा सकता है जिससे कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के नेता और उनके कार्यकर्ताओं के संबंधों का आकलन किया जाता रहा है।

तीसरे अंश में प्रधानमंत्री ने सुरक्षा को लेकर जिस तरह से महाभारत, श्रीकृष्ण और उनके सुदर्शन चक्र को देश के सामने रखा उससे एक बार फिर सिद्ध होता है कि प्रधानमंत्री की भारत की समृद्ध संस्कृति में कितना गहरा विश्वास है। पहलगाम के आतंकियों को मार गिराने के लिए सुरक्षा बलों ने आपरेशन महादेव चलाया था। इस नाम को लेकर भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। उसको भी धर्म से जोड़कर देखा गया था। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बताया कि सुरक्षा कवच देने के मिशन का नाम भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के नाम पर होगा।

भारतीय संस्कृति से जुड़े इस नाम को लेकर विपक्षी दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये देखना होगा।सुरक्षा कवच में आस्था के केंद्रों को शामिल करके प्रधानमंत्री ने भारतीयों के मन को छूने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने घुसपैठियों और डेमोग्राफी बदलने की समस्या पर जो बातें रखी उससे ये संकेत निकलता है कि ये सिर्फ अवैध तरीके से देश में घुसने का मसला नहीं है बल्कि ये सांस्कृतिक हमला है।

डेमोग्राफी बदलने से भारतीय संस्कृति प्रभावित हो रही है। जिसपर देशवासियों को विचार करना चाहिए। इस सांस्कृतिक हमले या संकट को सिर्फ भारत ही नहीं झेल रहा है बल्कि फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी जैसे कई देश डेमोग्राफी के बदलने से अपनी संस्कृति के बदल जाने का खतरा महसूस कर रहे हैं। इन देशों में भी घुसपैठ की समस्या को लेकर सरकार और वहां के मूल निवासी अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। प्रकटीकरण का तरीका अलग अलग हो सकता है। हम प्रधानमंत्री के भाषण का विश्लेषण करें तो लगता है कि ये एक ऐसे स्टेट्समैन का भाषण है जो विचार समृद्ध तो है ही अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित भी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण। 

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जीएसटी सुधार से अर्थव्यवस्था को मिलेगा बूस्टर: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

टीवी, फ़्रीज़, एसी जैसे आइटम 28% से 18% में आ सकते हैं। हमें अभी भी आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए। यह प्रस्ताव पहले जीएसटी कौंसिल में जाएगा।

Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से घोषणा की है कि गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (GST) में दीवाली तक बड़ा बदलाव किया जाएगा। इससे रेट कम होंगे, सामान और सर्विसेज़ सस्ती होंगी। 2017 में GST लागू होने से पहले केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग टैक्स वसूली करती थीं। केंद्र सरकार सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्री पर एक्साइज ड्यूटी लगाती थी और रेस्टोरेंट में खाना खाने पर, फ़ोन बिल जैसी सर्विस पर टैक्स अलग से। फिर हर राज्य उस सामान को बेचने वाले पर सेल्स टैक्स लगाता था। नगर पालिका अपने शहर में सामान की एंट्री होने पर चुंगी यानी ऑक्ट्रॉय वसूलती थीं।

इस कारण किसी भी सामान या सर्विस के दाम देश के अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग होते थे। अब सिर्फ़ शराब, पेट्रोल-डीज़ल GST के दायरे से बाहर हैं, इसलिए इनके दाम देश भर में कम-ज़्यादा हैं। 2017 से GST लागू हुआ तो सरकार ने कहा कि एक देश में एक टैक्स होगा, लेकिन 2025 आते-आते एक देश में 50 तरह के टैक्स लग रहे हैं।

GST लागू होने से पहले अरविंद सुब्रमण्यम कमेटी ने कहा था कि तीन तरह के रेट होने चाहिए, लेकिन लागू हुए 7 रेट। ये रेट हैं 0%, 5%, 12%, 18% और 28%। इसके अलावा 0.25% और 3% का रेट है, जो मुख्य रूप से जेम्स-ज्वैलरी पर लगते हैं। यहाँ तक तो ठीक था, फिर इस पर सेस लगा दिया गया। GST के कारण जिन राज्यों को नुक़सान होना था उसकी भरपाई के लिए यह पाँच साल तक लगाया गया था। फिर कोरोनावायरस के कारण इसे मार्च 2026 तक बढ़ाया गया। अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा कि इसके चलते अब 50 तरह के रेट बन गए हैं।

GST की जटिलता के कारण व्यापारियों और कंपनियों को दिक़्क़त हो रही थी और लोगों को ज़्यादा टैक्स देना पड़ रहा था। अब सरकारी सूत्रों के हवाले से ख़बर है कि सिर्फ़ तीन तरह के रेट होंगे — 5%, 18% और 40%। इसका मतलब 12% और 28% का रेट ख़त्म होगा। 40% में तंबाकू, सिगरेट और ऑनलाइन गेम को रखा जाएगा। इससे खाने-पीने की चीज़ें सस्ती होने की संभावना है, जैसे बटर, घी, जैम, फ़्रूट जूस, ड्राय फ़्रूट जैसे आइटम 12% से 5% में आ सकते हैं। टीवी, फ़्रीज़, एसी जैसे आइटम 28% से 18% में आ सकते हैं। हमें अभी भी आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए।

यह प्रस्ताव GST कौंसिल में जाएगा, जहाँ राज्यों का बहुमत है और वहाँ पास होने पर ही यह दीवाली तक लागू हो सकता है। GST में बदलाव से सरकार को शुरू में सालाना 50 हज़ार करोड़ रुपये नुक़सान हो सकता है। 2018-19 में साल भर में टैक्स कलेक्शन क़रीब 12 लाख करोड़ रुपये हुआ था, अब 22 लाख करोड़ रुपये का कलेक्शन हो रहा है।

रेट घटने से अर्थव्यवस्था को फ़ायदा होगा क्योंकि चीज़ें सस्ती होंगी तो खपत बढ़ेगी। यह एक और बूस्टर डोज़ होगा अर्थव्यवस्था के लिए। इनकम टैक्स रेट कम करके सरकार ने एक डोज़ पहले दिया था, फिर रिज़र्व बैंक ने लोन सस्ता कर दिया। कुल मिलाकर सबके लिए अच्छी ख़बर है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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इतिहास भूलकर संघ पर हमले क्यों कर रहे हैं राहुल गांधी: आलोक मेहता

इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर वे अपने पूर्वजों और लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार लाल किले के समारोह में क्यों नहीं पहुंचे?

Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष का उल्लेख करते हुए संगठन की राष्ट्र सेवा की सराहना की। साथ ही भारत के महापुरुषों और बलिदान देने वालों का स्मरण करते हुए डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विनम्र श्रद्धांजलि भी दी। इस बात पर कांग्रेस और इस समय लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने विरोध व्यक्त करते हुए अनर्गल आरोप लगा दिए।

यह तो सड़क का विरोध है, लेकिन इससे पहले उनके पास इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर वे अपने पूर्वजों और लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार लाल किले के समारोह में क्यों नहीं पहुंचे? गणतंत्र दिवस पर भी वे नहीं दिखे। ये समारोह किसी पार्टी का नहीं होता है। फिर राहुल गांधी ने कांग्रेस और संघ तथा हिंदुत्व के प्रबल समर्थक नेताओं से रहे रिश्तों और सहायता का कांग्रेस का रिकॉर्ड देखने या किसी से समझने का प्रयास क्यों नहीं किया?

राहुल गांधी को यह जानकारी क्यों नहीं मिली कि भारतीय जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत की राजनीति में महान नेता थे। वे राष्ट्रवादी, प्रखर हिंदू नेता और विद्वान शिक्षाविद थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहली कैबिनेट (अंतरिम सरकार के बाद स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद) में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद बनी, तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया।

आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। जम्मू-कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग और पूरी तरह भारतीय संविधान के तहत रखने, अनुच्छेद 370 समाप्त करने के लिए उन्होंने जीवन का बलिदान तक किया। फिर नेहरूजी, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव, प्रणव मुखर्जी ने समय-समय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से मुलाकातें कीं और उनका सहयोग लिया। न केवल देश पर संकट और युद्ध के समय ही नहीं बल्कि सत्ता के लिए भी संघ का समर्थन लिया। राजनीतिक पूर्वाग्रहों से संघ पर प्रतिबंध लगाए और कानूनी आधार पर ही प्रतिबंध हटाने पड़े।

इसे संयोग कहें या सौभाग्य कि मुझे दिल्ली में 1971 से पत्रकारिता करने के अवसर मिले। 1971 से 1975 तक मैं हिंदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी का संवाददाता था। तब से लाल किले के समारोह से लेकर संसद की रिपोर्टिंग और सभी दलों-संगठनों के शीर्ष नेताओं से मिलता रहा हूँ। हिंदुस्थान समाचार के प्रमुख संपादक और निदेशक श्री बालेश्वर अग्रवाल, सहयोगी संपादक एन. बी. लेले और ब्यूरो प्रमुख रामशंकर अग्निहोत्री संघ के प्रमुख प्रचारक रहे थे। इन सबने मुझे अधिकांश कांग्रेस नेताओं से मिलवाया। एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से ही समाचार सेवाएं देने के लिए नियमित रूप से फंड मिलता रहा।

फिर मैं कांग्रेस समर्थक बिरला परिवार या जैन परिवारों के प्रकाशन संस्थानों हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स समूह आदि में रहा। इसलिए इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक प्रधानमंत्रियों तथा राष्ट्रपतियों या संघ-भाजपा या सोशलिस्ट- कम्युनिस्ट नेताओं से मिलने, बात करने और उनकी अंदरूनी राजनीति समझने के अवसर मिले हैं। इसलिए कह सकता हूँ कि समय-समय पर कांग्रेस ने संघ का कितना लाभ उठाया और संघ के नेताओं से कितना संपर्क-संबंध रखा।

राहुल गांधी को नेहरू, इंदिरा गांधी युग की बात पता नहीं हो सकती है, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेता और उनके बनाए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के 7 जून 2018 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में शामिल होने की खबर तो मिली होगी। इस अवसर पर प्रणब मुखर्जी ने कहा था — 'राष्ट्रभक्ति ही भारत का मूल तत्व है।' उन्होंने संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की प्रशंसा करते हुए उन्हें महान देशभक्त बताया।

हेडगेवार का नाम लेकर कहा कि वे भारत माता की सेवा में समर्पित थे और उन्होंने युवाओं को संगठित करने का काम किया। उन्होंने आरएसएस मंच से यह संदेश दिया कि विचारधारा अलग हो सकती है, लेकिन देशहित और राष्ट्रीय एकता सर्वोपरि है। यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि पूर्व में कई कांग्रेस नेताओं का संघ से संपर्क-संबंध रहा था — जैसे बी. आर. अम्बेडकर (1939), महात्मा गांधी (1934), और जयप्रकाश नारायण। महात्मा गांधी ने संघ के शिविर की अनुशासन, जातिवाद का अभाव और सरल जीवनशैली की सराहना की। डॉ. अम्बेडकर ने संघ शिविर में सभी से बिना झिझक समान व्यवहार देखकर प्रशंसा की। जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समाज परिवर्तन में सक्षम, देशभक्ति से प्रेरित संगठन बताया था।

चीन या पाकिस्तान युद्ध के संकट काल या प्राकृतिक विपदा (भूकंप, बाढ़ आदि) में संघ के नेताओं-स्वयंसेवकों का सहयोग लेने, पूर्वोत्तर राज्यों में विदेशी ताकतों से बचाव के लिए हिंदू-हिंदी को बढ़ाने के लिए कांग्रेस सरकारें सहायता लेती रही हैं। राहुल गांधी आजकल बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के साथ गठबंधन पर बहुत आश्रित हो रहे हैं। शायद उन्हें ठाकरे परिवार के कट्टर हिंदूवादी विचारों और बाबरी मस्जिद गिराने का श्रेय लेने के दावों की जानकारी नहीं है या जानकर अनजान हैं, क्योंकि सत्ता के लिए सब जायज़ है।

बाल ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का खुलकर विरोध नहीं किया। उस समय शिवसेना कांग्रेस सरकार के साथ नरम रुख रखती थी। विपक्ष के कई नेता जेल में थे, पर ठाकरे और उनकी पार्टी पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इसीलिए उन्हें उस दौर में 'सत्ता समर्थक' माना गया। 1980 के दशक में भी शिवसेना और कांग्रेस (इंदिरा गांधी और बाद में संजय गांधी गुट) के बीच स्थानीय स्तर पर समझौते हुए ताकि 'मराठी मानुस' और हिंदुत्व के एजेंडे को राजनीतिक लाभ मिल सके। इंदिरा गांधी और बाल ठाकरे के बीच सीधा संवाद और संबंध थे। इंदिरा गांधी ठाकरे को कभी-कभी समर्थन भी देती थीं क्योंकि शिवसेना वामपंथी और कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों के खिलाफ लड़ रही थी, जो उस समय कांग्रेस के लिए भी चुनौती थे।

शिवसेना और आरएसएस दोनों की विचारधारा हिंदुत्व पर आधारित थी। ठाकरे शुरू से हिंदू पहचान की राजनीति करते रहे और उन्होंने खुलकर कहा कि — 'मैं हिंदुत्ववादी हूँ।' 1980 के दशक में, बाल ठाकरे और शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया। 1990 के दशक तक यह संबंध मजबूत हुआ और मुंबई नगर निगम व महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी-शिवसेना की साझेदारी आरएसएस की छत्रछाया में और गहरी हो गई। बाल ठाकरे कहते थे — 'मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं हिंदू हूँ और हिंदुत्व की राजनीति करता हूँ।' उन्होंने यह भी कहा था कि यदि हिंदुत्व पर हमला हुआ, तो शिवसेना तलवार की तरह खड़ी होगी।

1980 के दशक में धीरे-धीरे शिवसेना का मुख्य एजेंडा हिंदुत्व और मुस्लिम तुष्टिकरण का विरोध बन गया। 1989–90 के बाद उन्होंने बीजेपी और आरएसएस के साथ मिलकर खुलकर राम मंदिर आंदोलन का समर्थन किया। बाबरी मस्जिद विध्वंस (6 दिसम्बर 1992) पर बाल ठाकरे ने खुलेआम दावा किया कि बाबरी विध्वंस में शिवसैनिकों का हाथ था।

उनका बयान था, 'अगर मेरे शिवसैनिकों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी है, तो मुझे इस पर गर्व है।' ठाकरे ने यहाँ तक कहा: 'अगर वहाँ शिवसैनिक न होते तो बाबरी ढाँचा खड़ा रहता?' इस पृष्ठभूमि में राहुल गांधी और उनके अध्यक्ष खरगे सारे रंग-ढंग, परंपरा और विचार भूलकर केवल लालू यादव, तेजस्वी यादव की जातिगत राजनीति या विदेशी ताकतों के जाल में फँसकर सभी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता ख़त्म करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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फौजी वर्दी में ओसामा बिन लादेन है आसिम मुनीर: रजत शर्मा

भारत की नीति साफ है। भारत की सेना तैयार है। इस बार मुनीर और उसकी सेना ने कोई हरकत की, तो पाकिस्तान को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

Last Modified:
Wednesday, 13 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने एक बार फिर एटम बम की धमकी दी। जब जनरल साहब को ये याद आया कि भारत की सेना ने थोड़े दिन पहले उनकी कितनी पिटाई की थी तो जनरल मुनीर ने कहा कि अगर भारत के साथ युद्ध में पाकिस्तान कमजोर पड़ता है, तो पाकिस्तान अकेला नहीं मरेगा, ‘आधी दुनिया को साथ लेकर मरेगा’। भारत ने पाकिस्तान को फिर याद दिलाया कि अब एटम बम के ब्लैकमेल से कुछ नहीं होगा।

अब कोई गड़बड़ी हुई तो पाकिस्तान को फिर घर में घुसकर मारा जाएगा। पाकिस्तान का कोई कोना नहीं है, जो हमारी सेना की पहुंच से बाहर हो। विदेश मंत्रालय ने दुनिया के तमाम देशों से कहा कि पाकिस्तान में परमाणु बम आतंकवादियों के हाथ में हैं, दुनिया इस बात पर गंभीरता से विचार करे कि पाकिस्तान के परमाणु बम कितने सुरक्षित हैं? जिस पाकिस्तान में सरकार और सेना पूरी तरह आतंकवादियों के साथ हो, उस देश के परमाणु हथियार क्या पूरी दुनिया के लिए खतरा नहीं हैं?

जनरल मुनीर की एटम बम की धमकी का मतलब क्या है? सिंधु जल संधि स्थगित होने से जनरल क्यों बेचैन है? दिलचस्प बात ये है कि इसी भाषण में जनरल मुनीर ने अपने देश को पत्थरों से लदा एक पुराना ट्रक और भारत को एक चमचमाती मर्सिडीज कार बताया और डींग हांकी कि अगर इन दोनों के बीच टक्कर होती है तो किसे ज्यादा नुकसान पहुंचेगा। आसिम मुनीर अपने बयान को लेकर चौतरफा घिरे हुए हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के पूर्व अधिकारी माइकल रुबिन ने कहा है कि मुनीर के बयान को पढ़कर लगता है मानो “वह सूट पहने हुए ओसामा बिन लादेन हों।”

उन्होंने कहा कि जब मुनीर अमेरिका में खड़े होकर दुनिया को इस तरह की धमकी दे रहे थे तो उन्हें उसी वक्त अमेरिका से बाहर निकाल देना चाहिए था। अब पाकिस्तान के लोग भी पूछ रहे हैं कि “फेल्ड फील्ड मार्शल” ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हैं? अमेरिका इस बयान पर खामोश क्यों है? हमारे विदेश मंत्रालय ने जनरल मुनीर को उनकी औक़ात के हिसाब से जवाब दिया है।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि जनरल मुनीर के बयान के बाद दुनिया को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कितने सुरक्षित हैं, पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का नियंत्रण बिल्कुल सुरक्षित नहीं है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वह तुरंत पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की सुरक्षा पर ध्यान दे क्योंकि ये परमाणु हथियार किसी भी वक्त आतंकवादियों के हाथ में जाने का खतरा हैं, पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों के साथ मिली हुई है।

हैरानी की बात तो ये है कि इस बार आसिम मुनीर ने यह बयान पाकिस्तान में नहीं बल्कि अमेरिका की धरती से दिया है। आसिम मुनीर, दो महीने के भीतर दूसरी बार अमेरिका के दौरे पर पहुंचे हैं। वहां अमेरिकी सेना के उच्च अधिकारियों और जनरलों से मुलाकात की। मुनीर ने अमेरिका के संयुक्त मुख्यालय स्टाफ समिति के अध्यक्ष जनरल डैन केन से मुलाकात की। मुनीर, अमेरिकी सेना की केंद्रीय कमान के जनरल माइकल कुरीला के सेवा निवृत्ति समारोह में शामिल हुए।

रिटायरमेंट समारोह में शामिल होने के बाद आसिम मुनीर ने टैम्पा शहर के ग्रैंड हयात होटल में पाकिस्तानी मूल के लोगों से मुलाकात की। इस बैठक में शामिल लोगों के मोबाइल फ़ोन, कैमरा और अन्य गैजेट्स बाहर रखवाए गए थे, किसी को कोई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस अंदर ले जाने की अनुमति नहीं थी लेकिन इस कार्यक्रम में शामिल लोगों ने बाद में बताया कि आसिम मुनीर ने भारत को एटम बम की धमकी दी थी। मज़े की बात यह है कि पाकिस्तान में विपक्ष के नेताओं ने मुनीर के बयान का विरोध किया। जेल में कैद इमरान खान के पूर्व सलाहकार शहबाज़ गिल ने कहा कि उनके आर्मी चीफ ने बेहद गैर-जिम्मेदाराना बयान दिया है, अब दुनिया इसका नोटिस लेगी और पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश करेगी।

आसिम मुनीर जिस तरह की बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं, वह उनका दोष नहीं है। दोष तो उनका है जिन्होंने “फेल्ड फील्ड मार्शल” को व्हाइट हाउस में लंच कराया था। आसिम मुनीर जिस तरह से आधी दुनिया को उड़ाने की धमकी दे रहे हैं, वह उनका दोष नहीं है। दोष तो उनका है जिन्होंने दूसरी बार आतंकवाद के सरगना को अमेरिका बुलाया और अमेरिकी सेना के अधिकारियों के साथ बैठाया। दोष पिटे हुए मुनीर का नहीं है। दोष तो पाकिस्तान की थकी हुई सरकार का है जिसने युद्ध हारने वाले जनरल को फील्ड मार्शल बनाया।

अगर आसिम मुनीर का दिमाग खराब हुआ तो दोष उसका नहीं है, दोष उस सिस्टम का है जिसने उसे आतंकवाद की फैक्ट्री का मालिक बनाया। दोष उन देशों का भी है जिन्होंने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज दिलवाया। मुनीर की दहशतगर्दी के लिए फंड का इंतजाम करवाया। आसिम मुनीर से निपटना तो भारत जानता है। अभी दो दिन पहले ही हमारे वायु सेना प्रमुख ने बताया कि पाकिस्तान को कहां-कहां मारा, कितना मारा, छह विमानों को तबाह किया।

वायु रक्षा प्रणाली को बर्बाद किया, वायु सेना स्टेशन उड़ा दिए। भारत को पाकिस्तान के परमाणु ब्लैकमेल का भी कोई डर नहीं है क्योंकि वायु सेना प्रमुख और सेना प्रमुख दोनों कह चुके हैं कि भारत की मिसाइलें पाकिस्तान के हर कोने पर पहुंचती हैं। समस्या तो उन देशों से है जिन्होंने पाकिस्तान को हथियार दिए, वास्तविक समय की खुफिया जानकारी दी और पाकिस्तान को अपने हथियारों का परीक्षण स्थल बनाया। इसीलिए मुनीर की हिम्मत इतनी बढ़ी। लेकिन भारत की नीति साफ है। भारत की सेना तैयार है। इस बार मुनीर और उसकी सेना ने कोई हरकत की, तो पाकिस्तान को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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संसद में मार्शलों के जरिये जबरन बाहर निकालने की मिसालें : आलोक मेहता

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा लिया गया ताकि सदन की कार्यवाही में शांति रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा के वेल में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के कर्मचारियों की तैनाती को अत्यंत आपत्तिजनक बताया। 2 से 5 अगस्त तक राज्यसभा में विपक्ष लगातार इस मुद्दे पर हंगामा करता रहा, और मॉनसून सत्र में कई दिनों तक विपक्षी सांसदों का प्रदर्शन जारी रहा। उपसभापति हरिवंश ने स्पष्ट किया कि इस सुरक्षा बल की तैनाती सरकार द्वारा नहीं, बल्कि सभामंडल सुरक्षा के लिए की गई है, और “राज्यसभा का संचालन गृह मंत्रालय या किसी बाहरी एजेंसी द्वारा नहीं किया जा रहा है।” उन्होंने यह भी कहा कि सदन में सुरक्षा बल की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है; वे “संसद की ही सुरक्षा व्यवस्था का अंग” हैं, और यह कवायद सदन की गरिमा बनाए रखने के लिए हुई है।

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा ही लिया गया था, ताकि सदन की कार्यवाही में शांति बनी रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया। वस्तुतः 13 दिसंबर 2022 को लोकसभा के भीतर बाहरी लोगों के घुसने की घटना के बाद, संपूर्ण संसद की सुरक्षा व्यवस्था केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को सौंप दी गई थी। मई 2024 से संसद सुरक्षा बल की भूमिका बढ़ी और अंदरूनी कार्यक्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई।

इस बार के हंगामे और विवाद पर मुझे संसद में 1971, 1973, 1974 के दौरान प्रमुख सोशलिस्ट नेता राजनारायण को सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार बाकायदा कंधों पर उठाकर सदन से बाहर निकाले जाने की घटनाएं याद आईं। मैं 1971 से पत्रकार के रूप में संसद की कार्यवाही देखता और लिखता रहा हूँ। उस समय संसद की कार्यवाही का टीवी प्रसारण नहीं होता था। संसद के कर्मचारी विवरण शॉर्टहैंड से लिखकर रिकॉर्ड करते थे। एजेंसी के संवाददाता होने के कारण मुझे लगातार सदन की प्रेस दीर्घा में बैठना होता था, इसलिए वे घटनाएं आज भी याद हैं।

राजनारायण द्वारा बार-बार राज्यसभा में आंदोलनात्मक, आक्रामक और अशोभनीय भाषा का प्रयोग करने से सदन की कार्यवाही में बाधा आती थी। वे अक्सर सभापति की कुर्सी के सामने धरना देकर बैठ जाते थे। सदन के नियमों की अवहेलना के कारण उन्हें सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार कंधों पर उठाकर सदन से बाहर ले जाया गया। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उस समय सभापति उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक थे। राजनारायण एक प्रखर समाजवादी नेता थे, जो कांग्रेस सरकार की नीतियों और कार्यशैली के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने बार-बार संसद में नियमों को चुनौती दी, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे उठे। उनके मामलों ने यह सवाल भी खड़ा किया कि कब विरोध जायज़ होता है और कब वह संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाता है।

राज्यसभा और लोकसभा में मार्शलों का प्रयोग केवल अत्यधिक असाधारण परिस्थितियों में किया जाता है, जब सदन की गरिमा, सुरक्षा और कार्यवाही बनाए रखने में बाधा उत्पन्न होती है। भारतीय संसदीय इतिहास में कुछ उल्लेखनीय घटनाएं हैं जब सांसदों को सदन से बाहर निकालने के लिए मार्शलों का सहारा लिया गया।

लोकसभा में 1989 में बोफोर्स तोप घोटाले पर विपक्ष ने हंगामा किया, तब कई बार मार्शल बुलाए गए। जनता दल और भाजपा के सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास जाकर नारेबाजी की। राज्यसभा में 2010 में महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान समाजवादी पार्टी और राजद के सांसदों ने भारी विरोध किया। इस दौरान 7 सांसदों को मार्शलों द्वारा बाहर निकाला गया। यह एक अत्यंत दुर्लभ घटना थी जब इतने सांसदों को एकसाथ राज्यसभा से बाहर किया गया।

मार्शल संसद भवन की सुरक्षा और अनुशासन बनाए रखने के लिए होते हैं। सभापति (राज्यसभा) या अध्यक्ष (लोकसभा) के आदेश पर ही वे किसी सदस्य को बाहर निकाल सकते हैं। आमतौर पर सदस्य को पहले नाम लेकर चेतावनी दी जाती है, उसके बाद भी नियम तोड़ने पर सस्पेंड या सदन से बाहर करने का आदेश दिया जाता है।

CISF को संसद भवन की सुरक्षा सौंपने का निर्णय भारत सरकार का एक सशक्त कदम है। इससे संसद की सुरक्षा न केवल पहले से अधिक तकनीकी और सुसंगठित हुई है, बल्कि किसी भी आतंकी या आंतरिक खतरे से निपटने की क्षमता भी बढ़ी है। संसद के अंदर 2022 में हुई एक बड़ी सुरक्षा चूक ने पूरे देश को चौंका दिया था। यह घटना 2001 के संसद हमले की 21वीं बरसी पर हुई थी। इस दिन संसद के भीतर कुछ अज्ञात घुसपैठियों ने अचानक विरोध प्रदर्शन किया और सुरक्षा प्रणाली को चुनौती दी।

संसद भवन में चल रही कार्यवाही के दौरान, दो व्यक्ति दर्शक दीर्घा से अचानक नीचे कूद गए। उन्होंने अपने हाथों में धुआँ छोड़ने वाले रंगीन यंत्र पकड़े हुए थे, जिससे पीला और हरा धुआँ निकलने लगा। साथ ही लोकसभा के बाहर (गेट नंबर 1) पर भी दो अन्य प्रदर्शनकारी धुआँ छोड़ने वाले उपकरणों का प्रयोग कर रहे थे। इस घटना ने संसद जैसी संवेदनशील जगह की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि केवल बाहरी ही नहीं, अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है।

इसके बाद संसद की सुरक्षा को और अधिक हाई-टेक और सख्त बनाया गया। मार्शलों का उपयोग आमतौर पर सदन की गरिमा बनाए रखने, वेल में अनुशासन सुनिश्चित करने, और सदस्यीय गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए किया गया है। नियम 256 (राज्यसभा) और नियम 374 (लोकसभा) के अंतर्गत सांसदों को निलंबित किया जा सकता है, लेकिन मार्शलों को भीतर भेजना 2021 में कांग्रेस और अन्य दलों के अत्यधिक विरोध और हंगामे के कारण आवश्यक हुआ। सांसदों द्वारा—पेपर फाड़ना, वेल में आना, मार्शलों से भिड़ना—इन घटनाओं ने यह दर्शाया कि संसदीय लोकतंत्र में विवाद और अनुशासन के बीच संतुलन आवश्यक है।

हाँ, कुछ संपादकों और राजनीतिक विशेषज्ञों का यह तर्क उचित है कि संसद की बाहरी सुरक्षा और अंदर की व्यवस्था में अंतर होना चाहिए। अंदर के सुरक्षा कर्मचारियों की वर्दी पुलिस जैसी न हो और उन्हें अति आधुनिक हथियारों से लैस न रखा जाए, क्योंकि सदन में उन्हें किसी हथियार से मुकाबला नहीं करना होता है। बहरहाल, उम्मीद की जाए कि संसद में नियमों का पालन हो, विरोध की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न हो, और भविष्य में सदन में बहस, सहमति-असहमति, विरोध, बहिर्गमन तक ही सीमित रहे, टकराव की नौबत न आए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पत्रकार त्रिलोक दीप, 90 साल के नौजवान : प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी

भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
profsanjay

प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक।

ये ऊपर वाले की रहमत ही थी कि त्रिलोक दीप सर का मेरी जिंदगी में आना हुआ। दिल्ली न आता तो शायद इस बहुत खास आदमी से मेरी मुलाकातें न होतीं। देश की नामवर पत्रिकाओं में जिनका नाम पढ़कर पत्रकारिता का ककहरा सीखा, वे उनमें से एक हैं। सोचा न था कि इस ख्यातिनाम संपादक के बगल में बैठने और उनसे बातें करने का मौका मिलेगा।

भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो। मुझे नाम तो कई ध्यान में आए किंतु वरिष्ठता की दृष्टि से त्रिलोक जी का नाम सबसे उपयुक्त लगा। बिना पूर्व संपर्क हमने उन्हें फोन किया और वे सहजता से तैयार हो गए। उसके बाद उनका आना होता रहा। वे हैं ही ऐसे कि जिंदगी में खुद-ब-खुद शामिल हो जाते हैं।

इस आयु में भी उनकी ऊर्जा, नई पीढ़ी से संवाद बनाने की उनकी क्षमता, और याददाश्त—सब कुछ विलक्षण है। सच में, वे 90 साल के नौजवान हैं। उनकी स्मृति आज भी अप्रतिम है। दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता में दिनमान और संडे मेल के माध्यम से उन्होंने जो कुछ किया, वह पत्रकारिता का उजला इतिहास है। उनके साथ बैठना, इतिहास की छांव में बैठने जैसा है। वे इतिहास के सुनहरे पन्नों का एक-एक सफा बहुत ध्यान से बताते हैं।

उनमें वर्णन की अप्रतिम क्षमता है। इतिहास को बरतना उनसे सीखने की चीज है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि जिंदगी से कोई शिकायत नहीं, बेहद सकारात्मक सोच और पेशे के प्रति गहरी ईमानदारी। वरिष्ठता की गरिष्ठता उनमें नहीं है। आने वाली पीढ़ी को उम्मीदों से देखना और उसे प्रोत्साहित करने की उनमें ललक है। वे अहंकार से दबे, कुठाओं से घिरे और नई पीढ़ी के आलोचक नहीं हैं।

उन्हें सुनते हुए लगता है कि उनकी आंखें, अनुभव और कथ्य—कुछ भी पुराना नहीं हुआ है। दिल्ली की भागमभाग और जीवन के संघर्षों ने उन्हें थकाया नहीं है, बल्कि ज्यादा उदार बना दिया है। वे इतने सकारात्मक हैं कि आश्चर्य होता है। पाकिस्तान से बस्ती, वहां से रायपुर और दिल्ली तक की उनकी यात्रा में संघर्ष और जीवन के झंझावात बहुत हैं, किंतु वे कहीं से भी अपनी भाषा, लेखन और प्रस्तुति में यह कसैलापन नहीं आने देते। उनकी देहभाषा ऊर्जा का संचार करती है। मेरे जैसे अनेक युवाओं के वे प्रेरक और प्रेरणाश्रोत हैं।

दिनमान की पत्रकारिता अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल जैसे अनेक नायकों से सजी है। इस कड़ी का बेहद नायाब नाम हैं त्रिलोक दीप। यह सोचकर भी रोमांच होता है। दिग्गजों को जोड़कर रखना और उनसे समन्वय बिठाकर संस्था को आगे ले जाना आसान नहीं होता, किंतु त्रिलोक दीप से मिलकर आपको यही लगेगा कि ये काम वे ही कर सकते थे। यही समन्वय और समन्वित दृष्टि उन्हें एक शानदार पत्रकार और संपादक बनाती है। बाद के दिनों में संडे मेल के संपादक के रूप में उनकी शानदार पत्रकारिता आज भी हमारी यादों में ताजा है।

उनकी पत्रकारिता पर कोई रंग, कोई विचार इस तरह हावी नहीं है कि आप उससे उन्हें चीन्ह सकें। वे पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों की जमीन पर खड़े होकर अपेक्षित तटस्थता के साथ काम करते नजर आते हैं। आज जबकि पत्रकारों से ज्यादा पक्षकारों की चर्चा है और सबने अपने-अपने खूंटे गाड़ दिए हैं, त्रिलोक दीप जैसे नाम हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि पत्रकारिता का एकमात्र पक्ष—जनपक्ष होना चाहिए, और इसी से सफल व सार्थक पत्रकारिता संभव है।

आज की दुनिया में हम सोशल मीडिया पर बहुत निर्भर हैं। ऐसे में त्रिलोक सर व्हाट्सऐप और फेसबुक के माध्यम से मेरी गतिविधियों पर नजर रखते हैं। उनकी दाद और शाबाशियां मुझे मिलती रहती हैं। उनका यह चैतन्य और आने वाली पीढ़ी की गतिविधियों पर सतर्क दृष्टि रखना मुझे बहुत प्रभावित करता है। वे सही राह दिखाने वाले और दिलों में जगह बनाने वाले शख्स हैं।

हालांकि उनके साथ काम करने का अवसर मुझे नहीं मिला, लेकिन जिनको मिला, वे सभी उन्हें एक शानदार बॉस के रूप में याद करते हैं। भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय के लिए उन्होंने अपनी सालों से संजोई घरेलू लाइब्रेरी से अनेक महत्वपूर्ण किताबें दान कीं—इसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।

आज वे 90 साल के हो गए हैं। उनकी सक्रियता जस की तस है। वे शतायु हों, उनकी कृपा और आशीष इसी तरह हम सभी को मिलता रहे—यही कामना है।
बहुत-बहुत शुभकामनाएं, सर।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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