इतिहास भूलकर संघ पर हमले क्यों कर रहे हैं राहुल गांधी: आलोक मेहता

इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर वे अपने पूर्वजों और लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार लाल किले के समारोह में क्यों नहीं पहुंचे?

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Monday, 18 August, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष का उल्लेख करते हुए संगठन की राष्ट्र सेवा की सराहना की। साथ ही भारत के महापुरुषों और बलिदान देने वालों का स्मरण करते हुए डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विनम्र श्रद्धांजलि भी दी। इस बात पर कांग्रेस और इस समय लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने विरोध व्यक्त करते हुए अनर्गल आरोप लगा दिए।

यह तो सड़क का विरोध है, लेकिन इससे पहले उनके पास इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर वे अपने पूर्वजों और लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार लाल किले के समारोह में क्यों नहीं पहुंचे? गणतंत्र दिवस पर भी वे नहीं दिखे। ये समारोह किसी पार्टी का नहीं होता है। फिर राहुल गांधी ने कांग्रेस और संघ तथा हिंदुत्व के प्रबल समर्थक नेताओं से रहे रिश्तों और सहायता का कांग्रेस का रिकॉर्ड देखने या किसी से समझने का प्रयास क्यों नहीं किया?

राहुल गांधी को यह जानकारी क्यों नहीं मिली कि भारतीय जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत की राजनीति में महान नेता थे। वे राष्ट्रवादी, प्रखर हिंदू नेता और विद्वान शिक्षाविद थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहली कैबिनेट (अंतरिम सरकार के बाद स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद) में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद बनी, तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया।

आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। जम्मू-कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग और पूरी तरह भारतीय संविधान के तहत रखने, अनुच्छेद 370 समाप्त करने के लिए उन्होंने जीवन का बलिदान तक किया। फिर नेहरूजी, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव, प्रणव मुखर्जी ने समय-समय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से मुलाकातें कीं और उनका सहयोग लिया। न केवल देश पर संकट और युद्ध के समय ही नहीं बल्कि सत्ता के लिए भी संघ का समर्थन लिया। राजनीतिक पूर्वाग्रहों से संघ पर प्रतिबंध लगाए और कानूनी आधार पर ही प्रतिबंध हटाने पड़े।

इसे संयोग कहें या सौभाग्य कि मुझे दिल्ली में 1971 से पत्रकारिता करने के अवसर मिले। 1971 से 1975 तक मैं हिंदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी का संवाददाता था। तब से लाल किले के समारोह से लेकर संसद की रिपोर्टिंग और सभी दलों-संगठनों के शीर्ष नेताओं से मिलता रहा हूँ। हिंदुस्थान समाचार के प्रमुख संपादक और निदेशक श्री बालेश्वर अग्रवाल, सहयोगी संपादक एन. बी. लेले और ब्यूरो प्रमुख रामशंकर अग्निहोत्री संघ के प्रमुख प्रचारक रहे थे। इन सबने मुझे अधिकांश कांग्रेस नेताओं से मिलवाया। एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से ही समाचार सेवाएं देने के लिए नियमित रूप से फंड मिलता रहा।

फिर मैं कांग्रेस समर्थक बिरला परिवार या जैन परिवारों के प्रकाशन संस्थानों हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स समूह आदि में रहा। इसलिए इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक प्रधानमंत्रियों तथा राष्ट्रपतियों या संघ-भाजपा या सोशलिस्ट- कम्युनिस्ट नेताओं से मिलने, बात करने और उनकी अंदरूनी राजनीति समझने के अवसर मिले हैं। इसलिए कह सकता हूँ कि समय-समय पर कांग्रेस ने संघ का कितना लाभ उठाया और संघ के नेताओं से कितना संपर्क-संबंध रखा।

राहुल गांधी को नेहरू, इंदिरा गांधी युग की बात पता नहीं हो सकती है, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेता और उनके बनाए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के 7 जून 2018 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में शामिल होने की खबर तो मिली होगी। इस अवसर पर प्रणब मुखर्जी ने कहा था — 'राष्ट्रभक्ति ही भारत का मूल तत्व है।' उन्होंने संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की प्रशंसा करते हुए उन्हें महान देशभक्त बताया।

हेडगेवार का नाम लेकर कहा कि वे भारत माता की सेवा में समर्पित थे और उन्होंने युवाओं को संगठित करने का काम किया। उन्होंने आरएसएस मंच से यह संदेश दिया कि विचारधारा अलग हो सकती है, लेकिन देशहित और राष्ट्रीय एकता सर्वोपरि है। यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि पूर्व में कई कांग्रेस नेताओं का संघ से संपर्क-संबंध रहा था — जैसे बी. आर. अम्बेडकर (1939), महात्मा गांधी (1934), और जयप्रकाश नारायण। महात्मा गांधी ने संघ के शिविर की अनुशासन, जातिवाद का अभाव और सरल जीवनशैली की सराहना की। डॉ. अम्बेडकर ने संघ शिविर में सभी से बिना झिझक समान व्यवहार देखकर प्रशंसा की। जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समाज परिवर्तन में सक्षम, देशभक्ति से प्रेरित संगठन बताया था।

चीन या पाकिस्तान युद्ध के संकट काल या प्राकृतिक विपदा (भूकंप, बाढ़ आदि) में संघ के नेताओं-स्वयंसेवकों का सहयोग लेने, पूर्वोत्तर राज्यों में विदेशी ताकतों से बचाव के लिए हिंदू-हिंदी को बढ़ाने के लिए कांग्रेस सरकारें सहायता लेती रही हैं। राहुल गांधी आजकल बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के साथ गठबंधन पर बहुत आश्रित हो रहे हैं। शायद उन्हें ठाकरे परिवार के कट्टर हिंदूवादी विचारों और बाबरी मस्जिद गिराने का श्रेय लेने के दावों की जानकारी नहीं है या जानकर अनजान हैं, क्योंकि सत्ता के लिए सब जायज़ है।

बाल ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का खुलकर विरोध नहीं किया। उस समय शिवसेना कांग्रेस सरकार के साथ नरम रुख रखती थी। विपक्ष के कई नेता जेल में थे, पर ठाकरे और उनकी पार्टी पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इसीलिए उन्हें उस दौर में 'सत्ता समर्थक' माना गया। 1980 के दशक में भी शिवसेना और कांग्रेस (इंदिरा गांधी और बाद में संजय गांधी गुट) के बीच स्थानीय स्तर पर समझौते हुए ताकि 'मराठी मानुस' और हिंदुत्व के एजेंडे को राजनीतिक लाभ मिल सके। इंदिरा गांधी और बाल ठाकरे के बीच सीधा संवाद और संबंध थे। इंदिरा गांधी ठाकरे को कभी-कभी समर्थन भी देती थीं क्योंकि शिवसेना वामपंथी और कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों के खिलाफ लड़ रही थी, जो उस समय कांग्रेस के लिए भी चुनौती थे।

शिवसेना और आरएसएस दोनों की विचारधारा हिंदुत्व पर आधारित थी। ठाकरे शुरू से हिंदू पहचान की राजनीति करते रहे और उन्होंने खुलकर कहा कि — 'मैं हिंदुत्ववादी हूँ।' 1980 के दशक में, बाल ठाकरे और शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया। 1990 के दशक तक यह संबंध मजबूत हुआ और मुंबई नगर निगम व महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी-शिवसेना की साझेदारी आरएसएस की छत्रछाया में और गहरी हो गई। बाल ठाकरे कहते थे — 'मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं हिंदू हूँ और हिंदुत्व की राजनीति करता हूँ।' उन्होंने यह भी कहा था कि यदि हिंदुत्व पर हमला हुआ, तो शिवसेना तलवार की तरह खड़ी होगी।

1980 के दशक में धीरे-धीरे शिवसेना का मुख्य एजेंडा हिंदुत्व और मुस्लिम तुष्टिकरण का विरोध बन गया। 1989–90 के बाद उन्होंने बीजेपी और आरएसएस के साथ मिलकर खुलकर राम मंदिर आंदोलन का समर्थन किया। बाबरी मस्जिद विध्वंस (6 दिसम्बर 1992) पर बाल ठाकरे ने खुलेआम दावा किया कि बाबरी विध्वंस में शिवसैनिकों का हाथ था।

उनका बयान था, 'अगर मेरे शिवसैनिकों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी है, तो मुझे इस पर गर्व है।' ठाकरे ने यहाँ तक कहा: 'अगर वहाँ शिवसैनिक न होते तो बाबरी ढाँचा खड़ा रहता?' इस पृष्ठभूमि में राहुल गांधी और उनके अध्यक्ष खरगे सारे रंग-ढंग, परंपरा और विचार भूलकर केवल लालू यादव, तेजस्वी यादव की जातिगत राजनीति या विदेशी ताकतों के जाल में फँसकर सभी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता ख़त्म करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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चुनावी जंग में कांग्रेस का घटता हौसला : समीर चौगांवकर

पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है।

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Monday, 18 August, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पीएम मोदी के 15 अगस्त के भाषण से कांग्रेस को चिंतित होना चाहिए। 2024 में 240 सांसदों पर सिमटे मोदी ने 2029 में फिर से सरकार बनाने के अपने संकल्प को संकेतों में बताया है। मोदी का भाषण भविष्य की बलवती वापसी से भरा हुआ था। मोदी ने अभी से 2029 की तैयारी शुरू कर दी है, और वहीं कांग्रेस चुनावी जंग के लिए कितनी तैयार है? इसके जनरलों और पैदल सैनिकों में कितना जोश है? इसके जनरल कौन-कौन हैं? सिर्फ़ मोदी को ‘वोट चोर’ कहकर मोदी सरकार को ठिकाने लगाने की उम्मीद राहुल गांधी कर रहे हैं। कांग्रेस आज क्या है? क्या वह एक राजनीतिक दल है, जो अपने जीवन-मरण की लड़ाई में उतरने जा रही है? या वह एक एनजीओ है, जो सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ निभा रही है और यह उम्मीद कर रही है कि इतने भर से दिल्ली की सत्ता बदल जाएगी?

मेरे इस आकलन से कांग्रेस-समर्थक नाराज़ हो सकते हैं मगर इस नश्तर को घाव के अंदर घुमाना ज़रूरी है। पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है। राहुल गांधी को चिंतित होना चाहिए कि अगर इस बार फिर कांग्रेस की हार हुई तो इसके ‘मध्य’ से इसके कई हताश और पस्त सदस्य बाहर का रास्ता पकड़ लेंगे। लगातार 20 साल सत्ता से बाहर रहना कांग्रेस अफ़ोर्ड नहीं कर सकेगी। तब कांग्रेस का क्या बचा रहेगा?

संभावना यही है कि तब भी यह उन्हीं पुराने और जर्जर स्वयंभू चाणक्यों, मेकियावेलियों और दिग्गज बुद्धिजीवियों की जमात के रूप में बनी रहेगी, जिन सबकी एक ही विशेषता होगी। न कभी चुनाव लड़े और न कभी चुनाव जीते या उसे भी गंवा दिया जो कभी उनके ज़िम्मे सौंपा गया। किसी भी राजनीतिक दल का एक ही लक्ष्य और नारा होता है, ‘चुनाव जीतो’। इसके लिए कड़ी मेहनत और गहरी निष्ठा की ज़रूरत होती है। सफल रहे तो खूब इनाम पाओ, विफल रहे तो भारी कीमत चुकाओ।

संक्षेप में, सारा दारोमदार जवाबदेही पर है। अब आप बताइए कि आपके मुताबिक, क्या कांग्रेस में इधर ऐसा कुछ हो रहा है? इस सवाल का जवाब ‘ना’ में है। 2014 के बाद कांग्रेस ज़्यादा सामंतवादी हो गई है और योग्यता के प्रति उसका आग्रह घटता गया है। इसमें जुझारू, चुनावी प्रतिभा वाले नए नेता बहुत कम उभरे हैं। जो थे, वे पार्टी से जा चुके हैं। लेकिन चापलूस तत्व तमाम संकटों के बीच भी कांग्रेस में बचे और बने रहते हैं। गांधी परिवार सहित कुछ पुराने वंशज अपनी सिकुड़ती जागीर शायद ही बचा पाए हैं।

वे अपने क्षेत्र में अपनी पार्टी का विस्तार नहीं कर सकते, न ही वे नई प्रतिभाओं के लिए जगह खाली कर सकते हैं। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने निरंतरता बनाए रखी। बेशक नाकामियों की। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने प्रभारी के तौर पर जिस राज्य को छुआ उसे धूल बना दिया। कांग्रेस में राहुल टीम ऐसी है जो एक सिरे से पराजितों की परेड जैसी दिखती है।

राजनीति कड़ी मेहनत की मांग करती है, केवल ट्विटर के योद्धा बनकर कुछ नहीं होगा। कहीं ऐसा न हो कि 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ता राहुल गांधी को लेकर आमिर खान की फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ का यह गाना गुनगुनाते मिले,‘कहाँ से आया था वो, कहाँ गया उसे ढूँढ़ो’।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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लाल क़िले से पीएम मोदी का वैचारिक संदेश: अनंत विजय

संघ बीजेपी के बीच कथित मतभेद के क़यासों के बीच पीएम मोदी का लाल क़िले से दिया भाषण उनकी वैचारिक दृढ़ता को इंगित करता है। पूरे भाषण के दौरान एक साझा सूत्र है।

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Monday, 18 August, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें देशवासियों की भावनाओं का प्रकटीकरण और उनका अपना सोच था। अपनी समृद्ध संस्कृति और वौचारिकी का समावेश तो था ही। हम उन विचारों पर नजर डालेंगे लेकिन पहले प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ अंश देखते हैं। अपने भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं के स्मरण से किया। इसके बाद उन्होंने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।

अंश- हम आज डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 125वीं जयंती भी मना रहे हैं। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के संविधान के लिए बलिदान देनेवाले देश के पहले महापुरुष थे। संविधान के लिए बलिदान। अनुच्छेद 370 की दीवार को गिराकर एक देश एक संविधान के मंत्र को जब हमने साकार किया तो हमने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी।

अंश- आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का जिक्र करना चाहता हूं। आज से 100 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सौ साल की राष्ट्र की सेवा एक ही बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के इस संकल्प को लेकर के सौ साल तक मां भारती के कल्याण का लक्ष्य लेकर लाखों स्वंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया।

सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से। सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है। आज लालकिले की प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्रसेवा की यात्रा में योगदान करनेवाले सभी स्वयंसेवकों का आदरपूर्वक स्मरण करता हूं। देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य समर्पित यात्रा को जो हमें प्रेरणा देता रहेगा।

अंश- जब युद्ध के मैदान में तकनीक का विस्तार हो रहा है, तकनीक हावी हो रही है, तब राष्ट्र की रक्षा के लिए, देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमने जो महारथ पाई है उसको और विस्तार करने की जरूरत है।... मैंने एक संकल्प लिया है, उसके लिए आपका आशीर्वाद चाहिए। समृद्धि कितनी भी हो अगर सुरक्षा के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो समृद्धि भी किसी काम की नहीं रहती। मैं लाल किले की प्राचीर से कह रहा हूं कि आने वाले 10 साल में 2035 तक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों, जिनमें सामरिक के साथ साथ सिविलियन क्षेत्र भी शामिल है, अस्पताल हो, रेलवे हो,आस्था के केंद्र हो, को तकनीक के नए प्लेटफार्म द्वारा पूरी तरह सुरक्षा का कवच दिया जाएगा।

इस सुरक्षा कवच का लगातार विस्तार होता जाए, देश का हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे। किसी भी तरह का टेक्नोलाजी हम पर वार करने आ जाए हमारी तकनीक उससे बेहतर सिद्ध हो। इसलिए आनेवाले दस साल 2035 तक मैं राष्ट्रीय सुरक्षा कवच का विस्तार करना चाहता हूं।... भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा पाकर हमने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की राह को चुना है। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि जब महाभारत की लड़ाई चल रही थी तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य के प्रकाश को रोक दिया था। दिन में ही अंधेरा कर दिया था। सूर्य प्रकाश को जब रोक दिया था तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध की प्रतिज्ञा पूरी की थी। ये सुदर्शन चक्र की रणनीति का परिणाम था। अब देश सुदर्शन चक्र मिशन लांच करेगा। ये सुदर्शन चक्र मिशन मिशन दुश्मनों के हमले को न्यीट्रलाइज तो करेगा ही पर कई गुणा अधिक शक्ति से दुश्मन को हिट भी करेगा।

अगर हम उपरोक्त तीन अंशों को देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में वैचारिकी का एक साझा सूत्र दिखाई देता है। जिस विचार को लेकर वो चल रहे हैं या जिस विचार में वो दीक्षित हुए हैं उसपर ही कायम हैं। सबसे पहले उन्होंने अपने संगठन के वैचारिक योद्धा डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को याद किया। उनके कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के स्वप्न को पूरा करने की बात की। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से देश का बताया कि किस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान को भारत भूमि पर पूरी तरह से लागू करवाने में सर्वोच्च बलिदान दिया।

इसके बाद वो अन्य बातों पर गए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा करके एक बार फिर से उन्होंने अपनी वैचारिकी को देश के सामने रखा। पूरी दुनिया को पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे हैं। संघ के वैचारिक पथ पर चलते हुए ही वो राजनीति में आए और राष्ट्र सर्वप्रथम के सिद्धांत को अपनाया। यह अनायस नहीं था कि लाल किले पर जो सज्जा की गई थी उसमें एक फ्लावर वाल पर लिखा था – राष्ट्र प्रथम। पिछले दिनों संघ और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर दिल्ली में खूब चर्चा रही।

लोग तरह तरह के कयास लगाने में जुटे हुए हैं कि संघ और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्ते समान्य नहीं हैं। ऐसा करनेवाले ना तो संघ को जानते हैं और ना ही संघ के स्वयंसेवकों को। राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ और उनसे जुड़े व्यक्ति का आकलन उस प्रविधि से नहीं किया जा सकता है जिससे कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के नेता और उनके कार्यकर्ताओं के संबंधों का आकलन किया जाता रहा है।

तीसरे अंश में प्रधानमंत्री ने सुरक्षा को लेकर जिस तरह से महाभारत, श्रीकृष्ण और उनके सुदर्शन चक्र को देश के सामने रखा उससे एक बार फिर सिद्ध होता है कि प्रधानमंत्री की भारत की समृद्ध संस्कृति में कितना गहरा विश्वास है। पहलगाम के आतंकियों को मार गिराने के लिए सुरक्षा बलों ने आपरेशन महादेव चलाया था। इस नाम को लेकर भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। उसको भी धर्म से जोड़कर देखा गया था। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बताया कि सुरक्षा कवच देने के मिशन का नाम भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के नाम पर होगा।

भारतीय संस्कृति से जुड़े इस नाम को लेकर विपक्षी दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये देखना होगा।सुरक्षा कवच में आस्था के केंद्रों को शामिल करके प्रधानमंत्री ने भारतीयों के मन को छूने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने घुसपैठियों और डेमोग्राफी बदलने की समस्या पर जो बातें रखी उससे ये संकेत निकलता है कि ये सिर्फ अवैध तरीके से देश में घुसने का मसला नहीं है बल्कि ये सांस्कृतिक हमला है।

डेमोग्राफी बदलने से भारतीय संस्कृति प्रभावित हो रही है। जिसपर देशवासियों को विचार करना चाहिए। इस सांस्कृतिक हमले या संकट को सिर्फ भारत ही नहीं झेल रहा है बल्कि फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी जैसे कई देश डेमोग्राफी के बदलने से अपनी संस्कृति के बदल जाने का खतरा महसूस कर रहे हैं। इन देशों में भी घुसपैठ की समस्या को लेकर सरकार और वहां के मूल निवासी अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। प्रकटीकरण का तरीका अलग अलग हो सकता है। हम प्रधानमंत्री के भाषण का विश्लेषण करें तो लगता है कि ये एक ऐसे स्टेट्समैन का भाषण है जो विचार समृद्ध तो है ही अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित भी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण। 

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जीएसटी सुधार से अर्थव्यवस्था को मिलेगा बूस्टर: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

टीवी, फ़्रीज़, एसी जैसे आइटम 28% से 18% में आ सकते हैं। हमें अभी भी आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए। यह प्रस्ताव पहले जीएसटी कौंसिल में जाएगा।

Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से घोषणा की है कि गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (GST) में दीवाली तक बड़ा बदलाव किया जाएगा। इससे रेट कम होंगे, सामान और सर्विसेज़ सस्ती होंगी। 2017 में GST लागू होने से पहले केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग टैक्स वसूली करती थीं। केंद्र सरकार सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्री पर एक्साइज ड्यूटी लगाती थी और रेस्टोरेंट में खाना खाने पर, फ़ोन बिल जैसी सर्विस पर टैक्स अलग से। फिर हर राज्य उस सामान को बेचने वाले पर सेल्स टैक्स लगाता था। नगर पालिका अपने शहर में सामान की एंट्री होने पर चुंगी यानी ऑक्ट्रॉय वसूलती थीं।

इस कारण किसी भी सामान या सर्विस के दाम देश के अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग होते थे। अब सिर्फ़ शराब, पेट्रोल-डीज़ल GST के दायरे से बाहर हैं, इसलिए इनके दाम देश भर में कम-ज़्यादा हैं। 2017 से GST लागू हुआ तो सरकार ने कहा कि एक देश में एक टैक्स होगा, लेकिन 2025 आते-आते एक देश में 50 तरह के टैक्स लग रहे हैं।

GST लागू होने से पहले अरविंद सुब्रमण्यम कमेटी ने कहा था कि तीन तरह के रेट होने चाहिए, लेकिन लागू हुए 7 रेट। ये रेट हैं 0%, 5%, 12%, 18% और 28%। इसके अलावा 0.25% और 3% का रेट है, जो मुख्य रूप से जेम्स-ज्वैलरी पर लगते हैं। यहाँ तक तो ठीक था, फिर इस पर सेस लगा दिया गया। GST के कारण जिन राज्यों को नुक़सान होना था उसकी भरपाई के लिए यह पाँच साल तक लगाया गया था। फिर कोरोनावायरस के कारण इसे मार्च 2026 तक बढ़ाया गया। अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा कि इसके चलते अब 50 तरह के रेट बन गए हैं।

GST की जटिलता के कारण व्यापारियों और कंपनियों को दिक़्क़त हो रही थी और लोगों को ज़्यादा टैक्स देना पड़ रहा था। अब सरकारी सूत्रों के हवाले से ख़बर है कि सिर्फ़ तीन तरह के रेट होंगे — 5%, 18% और 40%। इसका मतलब 12% और 28% का रेट ख़त्म होगा। 40% में तंबाकू, सिगरेट और ऑनलाइन गेम को रखा जाएगा। इससे खाने-पीने की चीज़ें सस्ती होने की संभावना है, जैसे बटर, घी, जैम, फ़्रूट जूस, ड्राय फ़्रूट जैसे आइटम 12% से 5% में आ सकते हैं। टीवी, फ़्रीज़, एसी जैसे आइटम 28% से 18% में आ सकते हैं। हमें अभी भी आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए।

यह प्रस्ताव GST कौंसिल में जाएगा, जहाँ राज्यों का बहुमत है और वहाँ पास होने पर ही यह दीवाली तक लागू हो सकता है। GST में बदलाव से सरकार को शुरू में सालाना 50 हज़ार करोड़ रुपये नुक़सान हो सकता है। 2018-19 में साल भर में टैक्स कलेक्शन क़रीब 12 लाख करोड़ रुपये हुआ था, अब 22 लाख करोड़ रुपये का कलेक्शन हो रहा है।

रेट घटने से अर्थव्यवस्था को फ़ायदा होगा क्योंकि चीज़ें सस्ती होंगी तो खपत बढ़ेगी। यह एक और बूस्टर डोज़ होगा अर्थव्यवस्था के लिए। इनकम टैक्स रेट कम करके सरकार ने एक डोज़ पहले दिया था, फिर रिज़र्व बैंक ने लोन सस्ता कर दिया। कुल मिलाकर सबके लिए अच्छी ख़बर है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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फौजी वर्दी में ओसामा बिन लादेन है आसिम मुनीर: रजत शर्मा

भारत की नीति साफ है। भारत की सेना तैयार है। इस बार मुनीर और उसकी सेना ने कोई हरकत की, तो पाकिस्तान को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

Last Modified:
Wednesday, 13 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने एक बार फिर एटम बम की धमकी दी। जब जनरल साहब को ये याद आया कि भारत की सेना ने थोड़े दिन पहले उनकी कितनी पिटाई की थी तो जनरल मुनीर ने कहा कि अगर भारत के साथ युद्ध में पाकिस्तान कमजोर पड़ता है, तो पाकिस्तान अकेला नहीं मरेगा, ‘आधी दुनिया को साथ लेकर मरेगा’। भारत ने पाकिस्तान को फिर याद दिलाया कि अब एटम बम के ब्लैकमेल से कुछ नहीं होगा।

अब कोई गड़बड़ी हुई तो पाकिस्तान को फिर घर में घुसकर मारा जाएगा। पाकिस्तान का कोई कोना नहीं है, जो हमारी सेना की पहुंच से बाहर हो। विदेश मंत्रालय ने दुनिया के तमाम देशों से कहा कि पाकिस्तान में परमाणु बम आतंकवादियों के हाथ में हैं, दुनिया इस बात पर गंभीरता से विचार करे कि पाकिस्तान के परमाणु बम कितने सुरक्षित हैं? जिस पाकिस्तान में सरकार और सेना पूरी तरह आतंकवादियों के साथ हो, उस देश के परमाणु हथियार क्या पूरी दुनिया के लिए खतरा नहीं हैं?

जनरल मुनीर की एटम बम की धमकी का मतलब क्या है? सिंधु जल संधि स्थगित होने से जनरल क्यों बेचैन है? दिलचस्प बात ये है कि इसी भाषण में जनरल मुनीर ने अपने देश को पत्थरों से लदा एक पुराना ट्रक और भारत को एक चमचमाती मर्सिडीज कार बताया और डींग हांकी कि अगर इन दोनों के बीच टक्कर होती है तो किसे ज्यादा नुकसान पहुंचेगा। आसिम मुनीर अपने बयान को लेकर चौतरफा घिरे हुए हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के पूर्व अधिकारी माइकल रुबिन ने कहा है कि मुनीर के बयान को पढ़कर लगता है मानो “वह सूट पहने हुए ओसामा बिन लादेन हों।”

उन्होंने कहा कि जब मुनीर अमेरिका में खड़े होकर दुनिया को इस तरह की धमकी दे रहे थे तो उन्हें उसी वक्त अमेरिका से बाहर निकाल देना चाहिए था। अब पाकिस्तान के लोग भी पूछ रहे हैं कि “फेल्ड फील्ड मार्शल” ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हैं? अमेरिका इस बयान पर खामोश क्यों है? हमारे विदेश मंत्रालय ने जनरल मुनीर को उनकी औक़ात के हिसाब से जवाब दिया है।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि जनरल मुनीर के बयान के बाद दुनिया को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कितने सुरक्षित हैं, पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का नियंत्रण बिल्कुल सुरक्षित नहीं है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वह तुरंत पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की सुरक्षा पर ध्यान दे क्योंकि ये परमाणु हथियार किसी भी वक्त आतंकवादियों के हाथ में जाने का खतरा हैं, पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों के साथ मिली हुई है।

हैरानी की बात तो ये है कि इस बार आसिम मुनीर ने यह बयान पाकिस्तान में नहीं बल्कि अमेरिका की धरती से दिया है। आसिम मुनीर, दो महीने के भीतर दूसरी बार अमेरिका के दौरे पर पहुंचे हैं। वहां अमेरिकी सेना के उच्च अधिकारियों और जनरलों से मुलाकात की। मुनीर ने अमेरिका के संयुक्त मुख्यालय स्टाफ समिति के अध्यक्ष जनरल डैन केन से मुलाकात की। मुनीर, अमेरिकी सेना की केंद्रीय कमान के जनरल माइकल कुरीला के सेवा निवृत्ति समारोह में शामिल हुए।

रिटायरमेंट समारोह में शामिल होने के बाद आसिम मुनीर ने टैम्पा शहर के ग्रैंड हयात होटल में पाकिस्तानी मूल के लोगों से मुलाकात की। इस बैठक में शामिल लोगों के मोबाइल फ़ोन, कैमरा और अन्य गैजेट्स बाहर रखवाए गए थे, किसी को कोई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस अंदर ले जाने की अनुमति नहीं थी लेकिन इस कार्यक्रम में शामिल लोगों ने बाद में बताया कि आसिम मुनीर ने भारत को एटम बम की धमकी दी थी। मज़े की बात यह है कि पाकिस्तान में विपक्ष के नेताओं ने मुनीर के बयान का विरोध किया। जेल में कैद इमरान खान के पूर्व सलाहकार शहबाज़ गिल ने कहा कि उनके आर्मी चीफ ने बेहद गैर-जिम्मेदाराना बयान दिया है, अब दुनिया इसका नोटिस लेगी और पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश करेगी।

आसिम मुनीर जिस तरह की बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं, वह उनका दोष नहीं है। दोष तो उनका है जिन्होंने “फेल्ड फील्ड मार्शल” को व्हाइट हाउस में लंच कराया था। आसिम मुनीर जिस तरह से आधी दुनिया को उड़ाने की धमकी दे रहे हैं, वह उनका दोष नहीं है। दोष तो उनका है जिन्होंने दूसरी बार आतंकवाद के सरगना को अमेरिका बुलाया और अमेरिकी सेना के अधिकारियों के साथ बैठाया। दोष पिटे हुए मुनीर का नहीं है। दोष तो पाकिस्तान की थकी हुई सरकार का है जिसने युद्ध हारने वाले जनरल को फील्ड मार्शल बनाया।

अगर आसिम मुनीर का दिमाग खराब हुआ तो दोष उसका नहीं है, दोष उस सिस्टम का है जिसने उसे आतंकवाद की फैक्ट्री का मालिक बनाया। दोष उन देशों का भी है जिन्होंने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज दिलवाया। मुनीर की दहशतगर्दी के लिए फंड का इंतजाम करवाया। आसिम मुनीर से निपटना तो भारत जानता है। अभी दो दिन पहले ही हमारे वायु सेना प्रमुख ने बताया कि पाकिस्तान को कहां-कहां मारा, कितना मारा, छह विमानों को तबाह किया।

वायु रक्षा प्रणाली को बर्बाद किया, वायु सेना स्टेशन उड़ा दिए। भारत को पाकिस्तान के परमाणु ब्लैकमेल का भी कोई डर नहीं है क्योंकि वायु सेना प्रमुख और सेना प्रमुख दोनों कह चुके हैं कि भारत की मिसाइलें पाकिस्तान के हर कोने पर पहुंचती हैं। समस्या तो उन देशों से है जिन्होंने पाकिस्तान को हथियार दिए, वास्तविक समय की खुफिया जानकारी दी और पाकिस्तान को अपने हथियारों का परीक्षण स्थल बनाया। इसीलिए मुनीर की हिम्मत इतनी बढ़ी। लेकिन भारत की नीति साफ है। भारत की सेना तैयार है। इस बार मुनीर और उसकी सेना ने कोई हरकत की, तो पाकिस्तान को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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संसद में मार्शलों के जरिये जबरन बाहर निकालने की मिसालें : आलोक मेहता

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा लिया गया ताकि सदन की कार्यवाही में शांति रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा के वेल में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के कर्मचारियों की तैनाती को अत्यंत आपत्तिजनक बताया। 2 से 5 अगस्त तक राज्यसभा में विपक्ष लगातार इस मुद्दे पर हंगामा करता रहा, और मॉनसून सत्र में कई दिनों तक विपक्षी सांसदों का प्रदर्शन जारी रहा। उपसभापति हरिवंश ने स्पष्ट किया कि इस सुरक्षा बल की तैनाती सरकार द्वारा नहीं, बल्कि सभामंडल सुरक्षा के लिए की गई है, और “राज्यसभा का संचालन गृह मंत्रालय या किसी बाहरी एजेंसी द्वारा नहीं किया जा रहा है।” उन्होंने यह भी कहा कि सदन में सुरक्षा बल की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है; वे “संसद की ही सुरक्षा व्यवस्था का अंग” हैं, और यह कवायद सदन की गरिमा बनाए रखने के लिए हुई है।

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा ही लिया गया था, ताकि सदन की कार्यवाही में शांति बनी रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया। वस्तुतः 13 दिसंबर 2022 को लोकसभा के भीतर बाहरी लोगों के घुसने की घटना के बाद, संपूर्ण संसद की सुरक्षा व्यवस्था केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को सौंप दी गई थी। मई 2024 से संसद सुरक्षा बल की भूमिका बढ़ी और अंदरूनी कार्यक्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई।

इस बार के हंगामे और विवाद पर मुझे संसद में 1971, 1973, 1974 के दौरान प्रमुख सोशलिस्ट नेता राजनारायण को सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार बाकायदा कंधों पर उठाकर सदन से बाहर निकाले जाने की घटनाएं याद आईं। मैं 1971 से पत्रकार के रूप में संसद की कार्यवाही देखता और लिखता रहा हूँ। उस समय संसद की कार्यवाही का टीवी प्रसारण नहीं होता था। संसद के कर्मचारी विवरण शॉर्टहैंड से लिखकर रिकॉर्ड करते थे। एजेंसी के संवाददाता होने के कारण मुझे लगातार सदन की प्रेस दीर्घा में बैठना होता था, इसलिए वे घटनाएं आज भी याद हैं।

राजनारायण द्वारा बार-बार राज्यसभा में आंदोलनात्मक, आक्रामक और अशोभनीय भाषा का प्रयोग करने से सदन की कार्यवाही में बाधा आती थी। वे अक्सर सभापति की कुर्सी के सामने धरना देकर बैठ जाते थे। सदन के नियमों की अवहेलना के कारण उन्हें सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार कंधों पर उठाकर सदन से बाहर ले जाया गया। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उस समय सभापति उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक थे। राजनारायण एक प्रखर समाजवादी नेता थे, जो कांग्रेस सरकार की नीतियों और कार्यशैली के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने बार-बार संसद में नियमों को चुनौती दी, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे उठे। उनके मामलों ने यह सवाल भी खड़ा किया कि कब विरोध जायज़ होता है और कब वह संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाता है।

राज्यसभा और लोकसभा में मार्शलों का प्रयोग केवल अत्यधिक असाधारण परिस्थितियों में किया जाता है, जब सदन की गरिमा, सुरक्षा और कार्यवाही बनाए रखने में बाधा उत्पन्न होती है। भारतीय संसदीय इतिहास में कुछ उल्लेखनीय घटनाएं हैं जब सांसदों को सदन से बाहर निकालने के लिए मार्शलों का सहारा लिया गया।

लोकसभा में 1989 में बोफोर्स तोप घोटाले पर विपक्ष ने हंगामा किया, तब कई बार मार्शल बुलाए गए। जनता दल और भाजपा के सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास जाकर नारेबाजी की। राज्यसभा में 2010 में महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान समाजवादी पार्टी और राजद के सांसदों ने भारी विरोध किया। इस दौरान 7 सांसदों को मार्शलों द्वारा बाहर निकाला गया। यह एक अत्यंत दुर्लभ घटना थी जब इतने सांसदों को एकसाथ राज्यसभा से बाहर किया गया।

मार्शल संसद भवन की सुरक्षा और अनुशासन बनाए रखने के लिए होते हैं। सभापति (राज्यसभा) या अध्यक्ष (लोकसभा) के आदेश पर ही वे किसी सदस्य को बाहर निकाल सकते हैं। आमतौर पर सदस्य को पहले नाम लेकर चेतावनी दी जाती है, उसके बाद भी नियम तोड़ने पर सस्पेंड या सदन से बाहर करने का आदेश दिया जाता है।

CISF को संसद भवन की सुरक्षा सौंपने का निर्णय भारत सरकार का एक सशक्त कदम है। इससे संसद की सुरक्षा न केवल पहले से अधिक तकनीकी और सुसंगठित हुई है, बल्कि किसी भी आतंकी या आंतरिक खतरे से निपटने की क्षमता भी बढ़ी है। संसद के अंदर 2022 में हुई एक बड़ी सुरक्षा चूक ने पूरे देश को चौंका दिया था। यह घटना 2001 के संसद हमले की 21वीं बरसी पर हुई थी। इस दिन संसद के भीतर कुछ अज्ञात घुसपैठियों ने अचानक विरोध प्रदर्शन किया और सुरक्षा प्रणाली को चुनौती दी।

संसद भवन में चल रही कार्यवाही के दौरान, दो व्यक्ति दर्शक दीर्घा से अचानक नीचे कूद गए। उन्होंने अपने हाथों में धुआँ छोड़ने वाले रंगीन यंत्र पकड़े हुए थे, जिससे पीला और हरा धुआँ निकलने लगा। साथ ही लोकसभा के बाहर (गेट नंबर 1) पर भी दो अन्य प्रदर्शनकारी धुआँ छोड़ने वाले उपकरणों का प्रयोग कर रहे थे। इस घटना ने संसद जैसी संवेदनशील जगह की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि केवल बाहरी ही नहीं, अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है।

इसके बाद संसद की सुरक्षा को और अधिक हाई-टेक और सख्त बनाया गया। मार्शलों का उपयोग आमतौर पर सदन की गरिमा बनाए रखने, वेल में अनुशासन सुनिश्चित करने, और सदस्यीय गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए किया गया है। नियम 256 (राज्यसभा) और नियम 374 (लोकसभा) के अंतर्गत सांसदों को निलंबित किया जा सकता है, लेकिन मार्शलों को भीतर भेजना 2021 में कांग्रेस और अन्य दलों के अत्यधिक विरोध और हंगामे के कारण आवश्यक हुआ। सांसदों द्वारा—पेपर फाड़ना, वेल में आना, मार्शलों से भिड़ना—इन घटनाओं ने यह दर्शाया कि संसदीय लोकतंत्र में विवाद और अनुशासन के बीच संतुलन आवश्यक है।

हाँ, कुछ संपादकों और राजनीतिक विशेषज्ञों का यह तर्क उचित है कि संसद की बाहरी सुरक्षा और अंदर की व्यवस्था में अंतर होना चाहिए। अंदर के सुरक्षा कर्मचारियों की वर्दी पुलिस जैसी न हो और उन्हें अति आधुनिक हथियारों से लैस न रखा जाए, क्योंकि सदन में उन्हें किसी हथियार से मुकाबला नहीं करना होता है। बहरहाल, उम्मीद की जाए कि संसद में नियमों का पालन हो, विरोध की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न हो, और भविष्य में सदन में बहस, सहमति-असहमति, विरोध, बहिर्गमन तक ही सीमित रहे, टकराव की नौबत न आए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पत्रकार त्रिलोक दीप, 90 साल के नौजवान : प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी

भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक।

ये ऊपर वाले की रहमत ही थी कि त्रिलोक दीप सर का मेरी जिंदगी में आना हुआ। दिल्ली न आता तो शायद इस बहुत खास आदमी से मेरी मुलाकातें न होतीं। देश की नामवर पत्रिकाओं में जिनका नाम पढ़कर पत्रकारिता का ककहरा सीखा, वे उनमें से एक हैं। सोचा न था कि इस ख्यातिनाम संपादक के बगल में बैठने और उनसे बातें करने का मौका मिलेगा।

भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो। मुझे नाम तो कई ध्यान में आए किंतु वरिष्ठता की दृष्टि से त्रिलोक जी का नाम सबसे उपयुक्त लगा। बिना पूर्व संपर्क हमने उन्हें फोन किया और वे सहजता से तैयार हो गए। उसके बाद उनका आना होता रहा। वे हैं ही ऐसे कि जिंदगी में खुद-ब-खुद शामिल हो जाते हैं।

इस आयु में भी उनकी ऊर्जा, नई पीढ़ी से संवाद बनाने की उनकी क्षमता, और याददाश्त—सब कुछ विलक्षण है। सच में, वे 90 साल के नौजवान हैं। उनकी स्मृति आज भी अप्रतिम है। दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता में दिनमान और संडे मेल के माध्यम से उन्होंने जो कुछ किया, वह पत्रकारिता का उजला इतिहास है। उनके साथ बैठना, इतिहास की छांव में बैठने जैसा है। वे इतिहास के सुनहरे पन्नों का एक-एक सफा बहुत ध्यान से बताते हैं।

उनमें वर्णन की अप्रतिम क्षमता है। इतिहास को बरतना उनसे सीखने की चीज है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि जिंदगी से कोई शिकायत नहीं, बेहद सकारात्मक सोच और पेशे के प्रति गहरी ईमानदारी। वरिष्ठता की गरिष्ठता उनमें नहीं है। आने वाली पीढ़ी को उम्मीदों से देखना और उसे प्रोत्साहित करने की उनमें ललक है। वे अहंकार से दबे, कुठाओं से घिरे और नई पीढ़ी के आलोचक नहीं हैं।

उन्हें सुनते हुए लगता है कि उनकी आंखें, अनुभव और कथ्य—कुछ भी पुराना नहीं हुआ है। दिल्ली की भागमभाग और जीवन के संघर्षों ने उन्हें थकाया नहीं है, बल्कि ज्यादा उदार बना दिया है। वे इतने सकारात्मक हैं कि आश्चर्य होता है। पाकिस्तान से बस्ती, वहां से रायपुर और दिल्ली तक की उनकी यात्रा में संघर्ष और जीवन के झंझावात बहुत हैं, किंतु वे कहीं से भी अपनी भाषा, लेखन और प्रस्तुति में यह कसैलापन नहीं आने देते। उनकी देहभाषा ऊर्जा का संचार करती है। मेरे जैसे अनेक युवाओं के वे प्रेरक और प्रेरणाश्रोत हैं।

दिनमान की पत्रकारिता अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल जैसे अनेक नायकों से सजी है। इस कड़ी का बेहद नायाब नाम हैं त्रिलोक दीप। यह सोचकर भी रोमांच होता है। दिग्गजों को जोड़कर रखना और उनसे समन्वय बिठाकर संस्था को आगे ले जाना आसान नहीं होता, किंतु त्रिलोक दीप से मिलकर आपको यही लगेगा कि ये काम वे ही कर सकते थे। यही समन्वय और समन्वित दृष्टि उन्हें एक शानदार पत्रकार और संपादक बनाती है। बाद के दिनों में संडे मेल के संपादक के रूप में उनकी शानदार पत्रकारिता आज भी हमारी यादों में ताजा है।

उनकी पत्रकारिता पर कोई रंग, कोई विचार इस तरह हावी नहीं है कि आप उससे उन्हें चीन्ह सकें। वे पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों की जमीन पर खड़े होकर अपेक्षित तटस्थता के साथ काम करते नजर आते हैं। आज जबकि पत्रकारों से ज्यादा पक्षकारों की चर्चा है और सबने अपने-अपने खूंटे गाड़ दिए हैं, त्रिलोक दीप जैसे नाम हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि पत्रकारिता का एकमात्र पक्ष—जनपक्ष होना चाहिए, और इसी से सफल व सार्थक पत्रकारिता संभव है।

आज की दुनिया में हम सोशल मीडिया पर बहुत निर्भर हैं। ऐसे में त्रिलोक सर व्हाट्सऐप और फेसबुक के माध्यम से मेरी गतिविधियों पर नजर रखते हैं। उनकी दाद और शाबाशियां मुझे मिलती रहती हैं। उनका यह चैतन्य और आने वाली पीढ़ी की गतिविधियों पर सतर्क दृष्टि रखना मुझे बहुत प्रभावित करता है। वे सही राह दिखाने वाले और दिलों में जगह बनाने वाले शख्स हैं।

हालांकि उनके साथ काम करने का अवसर मुझे नहीं मिला, लेकिन जिनको मिला, वे सभी उन्हें एक शानदार बॉस के रूप में याद करते हैं। भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय के लिए उन्होंने अपनी सालों से संजोई घरेलू लाइब्रेरी से अनेक महत्वपूर्ण किताबें दान कीं—इसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।

आज वे 90 साल के हो गए हैं। उनकी सक्रियता जस की तस है। वे शतायु हों, उनकी कृपा और आशीष इसी तरह हम सभी को मिलता रहे—यही कामना है।
बहुत-बहुत शुभकामनाएं, सर।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सस्ते रूसी तेल का फायदा किसे मिला? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

यह कहानी 2022 से शुरू होती है। रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया। कच्चे तेल के दाम बढ़ने लगे। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस को सज़ा देने के लिए प्रतिबंध लगाए।

Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत पर 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया है। कारण है रूस से सस्ता तेल ख़रीदना। ट्रंप का कहना है कि भारत तेल ख़रीदकर यूक्रेन युद्ध में रूस की मदद कर रहा है। अब भारत के सामान पर अमेरिका में 50% टैरिफ़ लगेगा। भारत का तर्क है कि लोगों को सस्ता तेल मुहैया कराना हमारी ज़िम्मेदारी है, और जहां से सस्ता तेल मिलेगा हम ख़रीदेंगे। सवाल यह है कि सस्ते तेल का फ़ायदा आपको-हमें मिला या मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज़ और सरकारी तेल कंपनियों को?

यह कहानी 2022 से शुरू होती है। रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया। कच्चे तेल के दाम बढ़ने लगे। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस को सज़ा देने के लिए प्रतिबंध लगाए। अमेरिका और यूरोप में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें जून महीने तक 30% तक बढ़ गईं। पेट्रोल के दाम 2022 में ₹105 प्रति लीटर तक पहुँच गए थे।

भारत ने इस आपदा में अवसर खोजा और रूस से तेल ख़रीदना शुरू किया। 2021 तक भारत रूस से लगभग ना के बराबर तेल ख़रीदता था, लेकिन अब रूस का हिस्सा भारत की कुल ख़रीद का 35-40% तक पहुँच गया। यह तेल प्रति बैरल 10-12 डॉलर सस्ता भी पड़ रहा था।

फ़ायदा हमें उतना नहीं मिला। सस्ते रूसी तेल के चलते पेट्रोल के दाम दिल्ली में ₹85 प्रति लीटर के आसपास होने चाहिए थे, जबकि अभी ₹95 प्रति लीटर हैं, और कच्चे तेल के दाम यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में 112 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 71 डॉलर प्रति बैरल पर आ गए हैं।

तो फिर फ़ायदा किसको मिला? जवाब है। कच्चे तेल से पेट्रोल-डीज़ल बनाने वाली सरकारी और निजी रिफ़ाइनरी कंपनियों को। सरकारी कंपनियों ने शुरू में दाम नहीं बढ़ाए थे, लेकिन बाद में सस्ते तेल से घाटे की भरपाई कर ली। निजी क्षेत्र में रिलायंस सबसे बड़े फ़ायदे में रही। यूरोपीय देश रूस से प्रतिबंध के कारण सीधे तेल नहीं ख़रीद सकते थे, तो उन्होंने चोर रास्ता निकाला, कच्चा तेल रूस से भारत आया, रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने उससे पेट्रोल-डीज़ल बनाया और यूरोप व अमेरिका में बेच दिया।

इसके चलते रिलायंस को भारी मुनाफ़ा हुआ। फ़ाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक, सस्ते रूसी तेल से 2022 से अब तक भारत की सभी रिफ़ाइनरी को 1.33 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त फ़ायदा हुआ, जिसमें अकेले रिलायंस इंडस्ट्रीज़ का हिस्सा 50 हज़ार करोड़ रुपये था। पिछले साल सरकारी कंपनियों ने सरकार को 8 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक का डिविडेंड दिया, जो 2022-23 की तुलना में 255% ज़्यादा है।

ग्राहकों को सीधे फ़ायदा नहीं मिला, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से लाभ हुआ क्योंकि महंगाई नहीं बढ़ी और अर्थव्यवस्था स्थिर रही। यह स्थिति युद्ध के सालभर तक रही। इसके बाद सरकारी और निजी कंपनियों ने ही अधिक लाभ उठाया, और अब इसके जवाब में अमेरिका अतिरिक्त टैरिफ़ लगा रहा है। सस्ते तेल का सीधा लाभ भले न मिला हो, इसका अप्रत्यक्ष नुक़सान हम सबको झेलना पड़ेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अनंत विजय ने उजागर किया प्रेमचंद पर फैलाए जा रहे साहित्यिक झूठ का सच

इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था।

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Monday, 11 August, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

परिचित ने यूट्यूब का वीडियो लिंक भेजा। वीडियो के आरंभ में एक पोस्टर लगा था। उसपर लिखा था क्या कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिंदुत्ववादी थे? कौन उनकी विरासत को हड़पना चाहता है? यूं तो यूट्यूब के वीडियोज को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन पोस्टर के प्रश्नों को देखकर जिज्ञासा हुई। देखा तो एक स्वनामधन्य आलोचक से बातचीत थी। सुनने के बाद स्पष्ट हुआ कि एक विशेष उद्देश्य से वीडियो बनाया गया है। इस बातचीत में कई तथ्यात्मक गलतियां और झूठ पकड़ में आईं। स्वयंभू आलोचक ने कई बार प्रेमचंद के एक लेख क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? को उद्धृत करते हुए राष्ट्रवादियों को कठघरे में खड़ा करने का यत्न किया।

इस लेख के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवादियों को भला बुरा कहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रेमचंद ने ये लेख 1934 के आरंभ में लिखा था। उनका ये लेख स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा गया था बल्कि भारत पत्रिका में ज्योति प्रसाद निर्मल के लिखे गए लेख की प्रतिक्रिया में था। यह ठीक है कि उस लेख में प्रेमचंद ने जाति व्यवस्था की आलोचना की है और एक जातिमुक्त समाज की बात की है। प्रेमचंद ने उस लेख में ज्योति प्रसाद निर्मल को केंद्र में रखकर उनको ब्राह्मणवादी बताया।

ये भी माना कि उनकी कहानियों को कई ब्राह्मण संपादकों ने प्रकाशित किया, जिनमें वर्तमान के संपादक रमाशंकर अवस्थी, सरस्वती के संपादक देवीदत्त शुक्ल, माधुरी के संपादक रूपनारायण पांडे , विशाल भारत के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद अपने इसी लेख में हिंदू समाज को पाखंड और अंधविश्वास से मुक्त करने की बात प्रमुखता से करते हैं लेकिन कहीं भी राष्ट्रवादियों की आलोचना नहीं करते।

वो उन राष्ट्रवादियों की आलोचना करते हैं जो पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देते हैं। पर इसी लेख में वो कहते हैं कि मुरौवत में भी पड़कर आदमी अपने धार्मिक विश्वास को नहीं छोड़ सकता। कुल मिलाकर जिस लेख को आलोचक माने जानेवाले व्यक्ति अपने तर्कों का आधार बना रहे हैं उसका संदर्भ ही अलग है। खैर... वामपंथी आलोचकों की यही प्रविधि रही है, संदर्भ से काटकर तथ्यों को प्रस्तुत करने की।

आलोचक होने के दंभ में इस बातचीत में एक सफेद झूठ परोसा गया। एक किस्सा सुनाया गया जो कल्याण पत्रिका और हनुमानप्रसाद पोद्दार से संबंधित है। कहा गया कि ‘प्रेमचंद धर्म को लेकर इतने सचेत थे कि जब कल्याण पत्रिका के संपादक-प्रकाशक हनुमानप्रसाद पोद्दार ने प्रेमचंद से कहा कि हमारी पत्रिका में सारे बड़े साहित्यकार लिख रहे हैं, सारे बड़े लेखक लिख रहे हैं, आपने अभी तक कोई लेख नहीं दिया। तो प्रेमचंद ने कहा कि आपकी तो धार्मिक पत्रिका है, इस धार्मिक पत्रिका में मेरा की लिखने का स्थान नहीं बनता।

समझ में नहीं आता कि मैं किस विषय पर लिखूं क्योंकि ये हिंदू धर्म पर केंद्रित पत्रिका है। अब जरा खुद को विद्वान मानने और मनवाने की जिद करनेवाले इस व्यक्ति की सुनाई कहानी की पड़ताल करते हैं। वो किस्से के मार्फत बताते हैं कि प्रेमचंद ने हनुमानप्रसाद पोद्दार को धार्मिक पत्रिका कल्याण में लिखने से मना कर दिया था। कथित आलोचक जी से अगर कोई प्रमाण मांगा जाएगा तो वो कागज मांगने की बात करके उपहास उड़ा सकते हैं। हम ही प्रमाण देते हैं। 1931 में प्रकाशित कल्याण के कृष्णांक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित है।

इस लेख का शीर्षक है श्रीकृष्ण और भावी जगत। कल्याण का ये विशेषांक कालांतर में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। अब भी बाजार में उपलब्ध है। इस लेख में प्रेमचंद ने भगवान श्रीकृष्ण को कर्मयोग के जन्मदाता के रूप में संसार का उद्धारकर्ता माना है। वो लिखते हैं कि यूरोप ने अपनी परंपरागत संस्कृति के अनुसार स्वार्थ को मिटाने का प्रयत्न किया और कर रहा है। समष्टिवाद और बोल्शेविज्म उसके वह नये अविष्कार हैं जिनसे वो संसार का युगांतर कर देना चाहता है। उनके समाज का आदर्श इसके आगे और जा भी न सकता था, किंतु अध्यात्मवादी भारत इससे संतुष्ट होनेवाला नहीं है। ये वो प्रमाण है जिससे स्वयंभू आलोचक का सफेद झूठ सामने आता है। आश्चर्य तब होता है जब सार्वजनिक रूप से झूठ का प्रचार करते हैं और प्रेमचंद को अधार्मिक भी बताते हैं।

प्रेमचंद को लेकर इस बातचीत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघियों (इस शब्द को बार-बार कहा गया) पर प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों आरोप लगाता हैं। इन आरोपों में कोई तथ्य नहीं सिर्फ अज्ञान और प्रेमचंद का कुपाठ झलकता है। ऐसा प्रतीत होता कि बगैर किसी तैयारी के ये साक्षात्कार किया गया। ऐसे व्यक्ति को मंच दिया गया जो झूठ का प्रचारक बन सके। प्रेमचंद ने ना सिर्फ कल्याण के अपने लेख बल्कि एक अन्य लेख स्वराज्य के फायदे में भी लिखा ‘अंग्रेज जाति का प्रधान गुण पराक्रम है, फ्रांसिसियों का प्रधान गुण स्वतंत्र प्रेम है, उसी भांति भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है।

हमारे जीवन का मुख्य आधार धर्म था। हमारा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ था। लेकिन पश्चिमी विचारों के असर से हमारे धर्म का सर्वनाश हुआ जाता है, हमारा वर्तमान धर्म मिटता जाता है, हम अपनी विद्या को भूलते जाते हैं।‘ हिंदू-मुसलमान संबंध पर बात करते हुए प्रेमचंद को इस तरह से पेश किया गया जैसे कि उनको मुसलमानों से बहुत प्रेम था। इसको भी परखते हैं। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को 1 सितंबर 1915 को प्रेमचंद एक पत्र लिखते हैं जिसका एक अंश, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘

इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है। प्रेमचंद के साथ बेईमानियों की एक लंबी सूची है। हद तो तब हो गई जब उनके कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ था। गो-दान कब और कैसे गोदान बन गया उसपर चर्चा होनी चाहिए।।

बेईमान आलोचकों ने सोचा कि क्यों ना उनके उपन्यास का नाम ही बदल दिया जाए ताकि मनमाफिक विमर्श चलाने में सुविधा हो। ऐसा ही हुआ। अगर गौ-दान या गो-दान के आलोक में इस उपन्यास को देखेंगे तो उसकी पूरी व्याख्या ही बदल जाएगी। दरअसल प्रेमचंद पूरे तौर पर एक धार्मिक हिंदू लेखक थे जो अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर निरंतर अपनी लेखनी के माध्यम से वार करते थे।

इस धार पर उनको ना तो कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है और ना ही नास्तिक। हां, झूठे किस्से सुनाकर भ्रम जरूर फैला सकते हैं। पीढ़ियों तक प्रेमचंद के पाठकों को बरगला सकते हैं। प्रेमचंद की धार्मिक आस्था और धर्मपरायणता को संदिग्ध कर उनको कम्युनिस्ट बताने का झूठा उपक्रम चला सकते हैं। पर सच अधिक देर तक दबता नहीं है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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‘गुरु की छाया हटने का खालीपन’

डॉ. रामजीलाल जांगिड़ अब हमारे बीच नहीं रहे। यह वाक्य लिखते हुए भीतर कहीं एक खालीपन उतर आता है।

Last Modified:
Sunday, 10 August, 2025
Anuranjha Ramjilal Jangid Tribute

अनुरंजन झा, वरिष्ठ पत्रकार।।

डॉ. रामजीलाल जांगिड़ अब हमारे बीच नहीं रहे। यह वाक्य लिखते हुए भीतर कहीं एक खालीपन उतर आता है। वो सिर्फ़ एक शिक्षक नहीं थे, बल्कि गुरु थे, ऐसे गुरु जिनके शब्द, जिनका भरोसा, जिनकी डांट और जिनका अपनापन, जीवन की दिशा तय कर देते हैं। मेरे लिए तो 1998 का वो दिन आज भी जस का तस है, जब आईआईएमसी के इंटरव्यू के दौरान उन्होंने मेरी ओर देखा और कहा—“तुम्हें यहां आना चाहिए।” यह सिर्फ़ एक प्रवेश की स्वीकृति नहीं थी, बल्कि एक जीवन का मार्ग खोल देने वाला वाक्य था। एक बैंकर को पत्रकार बनने की पहली औपचारिक सीढ़ी दे रहे थे। मैं नहीं जानता था कि यह रिश्ता आने वाले दशकों में मेरी सोच, मेरे पेशे और मेरे साहस का हिस्सा बन जाएगा। 

कुछ ही हफ्ते पहले वरिष्ठ विकास मिश्रा की एक पोस्ट से पता चला कि सर अस्वस्थ हैं। मैं लंदन में था, लेकिन मन दिल्ली में अटक गया। पोस्ट पढ़ते ही सबसे पहले टिकट लिया और विकास जी को ही बताया कि गुरुजी को सूचना दे दें। फिर दिल्ली पहुंचते ही उन्हें फोन किया—“सर, दिल्ली आ गया हूं… कब आपके दर्शन करने आऊं?” उधर से वही पुरानी आत्मीय, ठहरी हुई आवाज़—“मैं तुम्हें जल्द से जल्द देखना चाहता हूँ।”  थोड़ी देर में मैं उनके कमरे में था। वाकई पहली बार जांगिड़ सर बीमार दिखे लेकिन उनके चेहरे पर वही अपनापन, वही गंभीर मुस्कान। मैं घंटों बैठा रहा, तमाम किस्से चलते रहे। दुर्गानाथ स्वर्णकार और नितिन अग्रवाल पहले से मौजूद थे। बीच-बीच में कुछ और लोग आते-जाते रहे। हर बार वो एक ही बात कहते, बार-बार कहते —  ये अनुरंजन झा है… इसको डर नहीं लगता।” उस वाक्य में उनका पुराना विश्वास, और शायद थोड़ा गर्व भी, साफ झलक रहा था।

जांगिड़ सर के बारे में बात करना केवल व्यक्तिगत भावुकता नहीं है, यह भारतीय पत्रकारिता के एक युग को याद करना भी है। उन्हें कई लोग आधुनिक पत्रकारिता का ‘द्रोणाचार्य’ कहते हैं। उनकी कुटिया में प्रवेश के लिए औपचारिक अड़चनें नहीं थीं,जिसे वो योग्य समझते, उसे अपने सान्निध्य में ले लेते। उनके शिष्य देश के लगभग हर बड़े मीडिया संस्थान में फैले हुए हैं। रवीश कुमार, सुप्रियो प्रसाद, सुधीर चौधरी, शालिनी जोशी, दीपक चौरसिया जैसे नाम उनके विद्यार्थियों की लंबी सूची के कुछ उदाहरण भर हैं। लेकिन उनकी नज़र में ये नाम बड़े या छोटे नहीं थे, हर छात्र उनके लिए उतना ही महत्वपूर्ण था।

वो सिर्फ़ क्लास में पढ़ाने तक सीमित नहीं रहते थे। अगर किसी छात्र की आर्थिक स्थिति कमजोर है तो उसकी फ़ीस माफ़ कराने के लिए पूरी ताकत लगा देते, किसी को रिपोर्टिंग का पहला मौका दिलाने के लिए संपादकों से सीधे सिफारिश कर देते, किसी को लिखने में कठिनाई हो तो आधा बोलकर लिखवा देते। उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ अधिकार भी रखा और अपनापन भी। यही कारण था कि उनका क्लासरूम महज एक शैक्षिक जगह नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रशिक्षण की जगह भी था।

1980 के दशक उन्होंने IIMC में हिंदी पत्रकारिता के कोर्स डायरेक्टर के रूप में नया पाठ्यक्रम शुरू किया था। इससे पहले वे अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता के कोर्स पढ़ाते थे, लेकिन हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए उन्होंने जो दिशा तय की, उसने आने वाले वर्षों में हिंदी पत्रकारिता को नई ऊंचाई दी। उनकी क्लास में पढ़ना किसी महाभारत के संजय को सुनने जैसा था।  वो खबर नहीं सुनाते थे, पूरी स्थिति जीने देते थे।

विकास मिश्रा ने उनके साथ बिताए पलों को याद करते हुए कहा था कि उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी अपनापन और अधिकार भाव का अद्भुत संतुलन। वो छात्रों से कह सकते थे—“जाकर कैंटीन से मेरे लिए दही लाओ”—और वही छात्र बाद में देश के नामी पत्रकार बनते। उनके लिए यह कोई फर्क नहीं रखता था कि कौन कहां पहुंचा है, वो अपने विद्यार्थियों को हमेशा उसी ठसक और हक़ से बुलाते, डांटते और आदेश देते थे।

मेरे लिए यह रिश्ता आखिरी मुलाक़ात तक वैसा ही बना रहा। उनके जाने की खबर आई तो लगा जैसे कोई सुरक्षा-कवच हट गया हो। गुरु केवल ज्ञान नहीं देते, वे जीवन जीने का साहस भी देते हैं। जांगिड़ सर मेरे लिए वही थे—साहस का स्रोत, भरोसे की छाया और यह याद दिलाने वाली आवाज़ कि डर के आगे ही असली दुनिया है। कैंपस की दोपहरें, पुराने अख़बार के पन्नों पर प्रैक्टिस, मास कम्युनिकेशन की थ्योरी के बीच अचानक जीवन के बड़े सवाल—ये सब अब स्मृतियों में दर्ज हैं।

आज जब उनके जाने की बात लिख रहा हूं, तो लगता है कि उनके जैसे गुरु अब दुर्लभ हैं। उनका जीवन, उनका काम और उनका असर न सिर्फ़ उनके छात्रों के भीतर, बल्कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में भी दर्ज है। वो चले गए, लेकिन उनकी दी हुई सीख—“डर मत, सच कहने से मत हिचको”—हमेशा साथ रहेगी।

विनम्र श्रद्धांजलि।

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चुनाव आयोग अब दूध का दूध और पानी का पानी करें : अजय कुमार

वास्तविकता यह है कि इन बातों का उल्लेख हर चुनाव में हार के बाद हारने वाली पार्टियाँ करती रही हैं, शिकायतें भी करती हैं, लेकिन ठोस रूप से, प्रमाण सहित बदलाव की सशक्त माँग नहीं करतीं।

Last Modified:
Friday, 08 August, 2025
ajaykumar

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार।

राहुल गांधी ने एक प्रेस वार्ता में बाक़ायदा प्रस्तुति (PPT) के माध्यम से यह साबित करने की कोशिश की कि बंगलूरू की एक लोकसभा सीट पर मतदाता सूची में कई तरह की गड़बड़ियाँ हैं। जैसे गलत पता या पते का न होना, गलत तस्वीर या तस्वीर का न होना, एक ही मतदाता का नाम अनेक मतदान केंद्रों पर दर्ज होना, फ़ॉर्म 6 का अनुचित उपयोग, बुजुर्ग लोगों के नाम पर फर्जी मतदान, वग़ैरा-वग़ैरा। वास्तविकता यह है कि इन बातों का उल्लेख हर चुनाव में हार के बाद हारने वाली पार्टियाँ करती रही हैं, शिकायतें भी करती हैं, लेकिन ठोस रूप से, प्रमाण सहित बदलाव की सशक्त माँग नहीं करतीं।

मैं सन् 1995 से चुनावों को कवर कर रहा हूँ। उस समय बैलेट पेपर पर फर्जी मुहर लगाने का दौर देखा है। पहला चरण था मतदान केंद्रों पर कब्ज़ा करने का, फिर इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीन (ईवीएम) में गड़बड़ी के आरोपों का दौर आया। वर्ष 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने ऐसे आरोप लगाए, और 2014 के बाद से कांग्रेस एवं अन्य गैर-भाजपा दलों ने यह आरोप लगाने शुरू किए। मतदाता सूची में गड़बड़ियों का लंबा दौर भी 1995 से लेकर आज तक चला आ रहा है। अनौपचारिक रूप से चुनाव आयोग के अधिकारियों ने हमेशा माना है कि मतदाता सूची में कुछ न कुछ छोटी-मोटी त्रुटियाँ होती ही हैं।

अब तो देश में लगभग 100 करोड़ मतदाता हैं, और 1996 में भी लगभग 65 से 70 करोड़ मतदाता थे। राहुल गांधी ने जो बड़ा खुलासा करने का दावा किया था, उसे देर से ही सही, लेकिन प्रमाणों के साथ रखने की कोशिश की है। यदि ऐसा प्रयास संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) शासनकाल में हुआ होता, तो संभवतः आज देश की राजनीति की तस्वीर कुछ और होती खैर।

चुनाव आयोग ने 8 अगस्त को शपथपत्र के साथ सबूत प्रस्तुत करने की बात कही है। यह भी स्पष्ट किया गया कि चुनाव से पहले कर्नाटक की मतदाता सूची कांग्रेस सहित सभी दलों को दी गई थी, और उस समय किसी भी दल ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की थी। चलिए, एक वर्ष बाद ही सही, राहुल गांधी और कांग्रेस ने अपनी ओर से गड़बड़ियों के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। अब यह चुनाव आयोग की संवैधानिक और नैतिक ज़िम्मेदारी है कि जहाँ भी गड़बड़ियाँ हों, उन्हें स्वीकारे और सुधार करे; और जहाँ न हों, वहां पूरी निष्ठा और पारदर्शिता से जनमानस के सामने तथ्य प्रस्तुत करे।

अब आयोग के पास कोई बीच का रास्ता नहीं है। एक अंग्रेज़ी कहावत है, या तो झूठ को झूठ साबित करो या स्वयं को दोषी ठहरने दो। अर्थात् या तो चुनाव आयोग राहुल गांधी के दावे को असत्य सिद्ध करे, या फिर अपने ही चूकों के लिए उत्तरदायी बने। अब कोई मध्यम मार्ग नहीं है। केवल प्रक्रिया और शपथपत्रों की चर्चा करने का समय बीत चुका है।

अब चुनाव आयोग को दृढ़तापूर्वक और विश्वासपूर्वक जनता के समक्ष खरा उतरना होगा, नहीं तो आगामी बिहार विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी प्रक्रिया को लेकर “चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता” पर अनेक प्रश्न उठाकर विपक्षी दल जनता के लोकतांत्रिक विश्वास को तोड़ने में सफल हो सकते हैं और यह स्थिति देश के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो सकती है। केवल ईमानदार होना पर्याप्त नहीं है। यह भी आवश्यक है कि जनता को यह दिखाई दे कि चुनाव प्रणाली न केवल निष्पक्ष है बल्कि पूरी तरह भरोसेमंद भी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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