वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा हुआ है। अंग्रेजी के तमाम बड़े पत्रकारों ने ईश्वर से दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करने की प्रार्थना की।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा हुआ है। अंग्रेजी के तमाम बड़े पत्रकारों ने ईश्वर से दिवंगत आत्मा को शांति व शोकाकुल परिवार को इस दुःख की घड़ी को सहन करने की शक्ति प्रदान करने की प्रार्थना की है।
‘एनडीटीवी’ (NDTV) के फाउंडर्स-प्रमोटर्स डॉ. प्रणॉय रॉय ने विनोद दुआ को श्रद्धांजलि देते हुए ट्वीट किया है, ‘विनोद दुआ को खोने का काफी गहरा दुख है। वह न सिर्फ महान लोगों में शामिल थे, बल्कि अपने समय की सबसे महान शख्सियत थे। वह सबसे बड़ी एक अद्भुत प्रतिभा थे, जिसकी मैंने हमेशा प्रशंसा की और सम्मान किया और जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। हमने साथ मिलकर कई साल काम किया। अलविदा मेरे दोस्त, भगवान आपको अपने श्रीचरणों में स्थान दें।’
Deeply mourning the loss of Vinod.He was not just one of the greatest,he was THE greatest of his time.I have always said that:THE greatest An amazing talent I admired and respected-and from whom I learnt a lot in the many years we worked closely together Rest in peace my friend
— Prannoy Roy (@PrannoyRoyNDTV) December 4, 2021
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने विनोद दुआ को श्रद्धांजलि देते हुए ट्वीट किया है। इस ट्वीट में उन्होंने लिखा है, ‘विनोद दुआ जैसी स्वभाविक टीवी पर्सनेलिटी कोई नहीं है। वह ट्रेंड स्थापित करने वाले पत्रकार थे, जिन्होंने पॉलिटिक्स, फूड, म्यूजिक आदि पर समान रूप से बेहतरीन कार्यक्रम पेश किए। 80-90 के दशक में दुआ-रॉय की इलेक्शन जुगलबंदी काफी खास थी। दूरदर्शन पर आम चुनाव को लेकर उनकी लाइव कवरेज कमाल की थी। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।’
There has been no more ‘natural’ tv personality than Vinod Dua: he was a trend setting journalist who could dive into a prog on politics,food, music, poetry with equal ease. Dua-Roy election jugalabandi was spl in 80s/90s DD general election live coverage as was Parakh show. RIP
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) December 4, 2021
जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार और लेखक वीर सांघवी ने विनोद दुआ को श्रद्धांजलि देते हुए ट्विटर पर लिखा है, ‘देश में टेलीविजन न्यूज के अग्रणी और शायद हमारे समय के सबसे महान टीवी प्रजेंटर विनोद दुआ के निधन से काफी दुखी हूं।’ पहली बार जब मैं टीवी पर आया तो विनोद जी एंकर थे और मैंने उनकी स्वाभाविक और खास स्टाइल की प्रशंसा की, जिसे आने वाले दशकों में हममें से कोई भी मैच नहीं कर सका। उनका निधन अपूरणीय क्षति है।
Mourning Vinod Dua the pioneer of news television in India & probably the greatest TV presenter of our times. One of the first times I ever appeared on TV Vinod was the anchor & i admired his natural, easy style which none of us could match in the decades to come.
— vir sanghvi (@virsanghvi) December 4, 2021
A great loss. pic.twitter.com/plh0mJbFrX
न्यूज एजेंसी ‘एएनआई’ (ANI) की एडिटर स्मिता प्रकाश ने ट्वीट किया है, 'अलविदा विनोद, तुम और चिन्ना वहां अपने गानों और व्यवहार से भगवान को भी अपना बना लोगे।’
Goodbye Vinod. You and Chinna will regale the gods up there, I’m sure with your songs and mirth. https://t.co/tT3bAuJtUZ
— Smita Prakash (@smitaprakash) December 4, 2021
एक अन्य ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘वैमनस्यता रोको। विनोद दुआ पर आज के घटिया ट्वीट्स उतने ही निंदनीय हैं, जितने रोहित सरदाना के निधन पर किए गए थे।’
Stop the hate. Vile tweets today on Vinod Dua are just as deplorable as the ones made when Rohit Sardana died.
— Smita Prakash (@smitaprakash) December 4, 2021
वरिष्ठ पत्रकार और न्यूज एंकर स्मिता शर्मा ने विनोद दुआ को श्रद्धांजलि देते हुए अपने ट्वीट में लिखा है, ‘पत्रकारों की पीढ़ियों के वह प्रेरणास्रोत थे। हमें आईबीएन7 में कुछ साल तक साथी एंकर के रूप में काम करने का सौभाग्य मिला। हमें उनके साथ फूड, म्यूजिक, कला, आर्ट और उनके रोमांचक सफर के बारे में बात करना काफी अच्छा लगता था। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। विनोद दुआ आप अनंत में चिन्ना जी के साथ जाकर मिल गए हैं। आपको हाथ जोड़कर नमन।‘
Inspired generations of journalists. Was humbling to work with him for a few years in IBN7 as a fellow anchor. Always loved conversations with him about food, music, art, culture and his fascinating journeys. Rest in Peace #VinodDua as you join #ChinnaDua in some distant space ?? https://t.co/Tg71FNbRmJ
— Smita Sharma (@Smita_Sharma) December 4, 2021
बता दें कि करीब 67 साल के विनोद दुआ पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। हालत ज्यादा गंभीर होने पर उन्हें दिल्ली के अपोलो अस्पताल में आईसीयू (ICU) में भर्ती कराया गया था, जहां पर शनिवार को उन्होंने अंतिम सांस ली। विनोद दुआ का अंतिम संस्कार रविवार दोपहर 12 बजे लोधी रोड श्मशान घाट में किया जाएगा।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।हिन्दुस्तान अपनी आजादी के 75वें वर्ष का उत्सव मना रहा है। साल के हिसाब से देखें तो 75वां वर्ष उम्रदराज होने का संदेश देता है
मनोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार ।।
हिन्दुस्तान अपनी आजादी के 75वें वर्ष का उत्सव मना रहा है। साल के हिसाब से देखें तो 75वां वर्ष उम्रदराज होने का संदेश देता है, लेकिन जब हिन्दुस्तान की बात करते हैं तो यह यौवन का चरम है। यह इसलिए भी कि वर्तमान हिन्दुस्तान युवाओं का है और आज अमृतकाल में युवा भारत चौतरफा चुनौतियों से घिरा हुआ है। चुनौतियों के साथ संभावनाओं के दरवाजे हमेशा से खुले रहे हैं और यह भारतीयता की पूंजी है। जब दुनिया चुनौतियों से टूटकर बिखर जाती है तब भारत अपने नवनिर्माण में जुट जाता है। आज की काल परिस्थिति भी इसी बात का संदेश देती है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत का युवा समाज आज बेरोजगारी, अशिक्षा, महंगाई के साथ दिशाभ्रम में अपना भविष्य तय कर रहा है। उसके पास अनेक विकल्प हैं लेकिन उसे भ्रमित किया जा रहा है। ऐसे में चुनौतियां हमेशा पहाड़ की तरह खड़ी हो रही है। आखिर कौन सी चुनौती है जो युवाओं को दिग्गभ्रमित कर रही है? इस पर खुलेमन से चर्चा करने की जरूरत है।
जब हम युवा भारत की चर्चा करते हैं तो हमारे समक्ष करीब करीब साल 2000 में इस दुनिया में आये उन बच्चों को सामने रखते हैं, जो इस समय 20-22 वर्ष के हैं। इनके जन्म के आरंभिक पांच वर्ष छोड़ दिया जाए तो जो इनके पास करीब 15 वर्ष बचते हैं, वह अज्ञानता के वर्ष हैं। यह कोरी बात नहीं है बल्कि इस दौर में मोबाइल ने उनकी गहरे ज्ञान की दुनिया को अंधकार में बदल दिया है। देश और समाज को लेकर अपनी-अपनी तरह से परिभाषा मोबाइल पर गढ़ी जा रही है। एक सुनियोजित ढंग से युवाओं को इतिहास से परे कर दिया गया। कुछ सच और कुछ झूठ को ऐसे बताया और दिखाया जा रहा है कि बीते दशकों में एक शून्य था। उम्र का यह दौर नाजुक होने के साथ-साथ समझ का कच्चा भी होता है। यह दौर इसलिये भी खतरनाक है कि समाज में सामूहिक परिवार का तेजी से विघटन हुआ और एकल परिवार ने स्थान बनाया है। राष्ट्र, इतिहास, संस्कृति, धर्म, समाज और जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाने वाले दादा-दादी और नाना-नानी किसी वृद्धाश्रम में जीवन बीता रहे हैं। मां-बाप पैसे कमाने की मशीन हो गये हैं और एक या दो बच्चे वाले परिवार का ज्ञानालय मोबाइल बन चुका है। अधकचरा ज्ञान और दिशाभ्रम ने युवाओं का आत्मविश्वास को धक्का पहुंचाया है।
अमृतकाल में जब इस विषय पर चर्चा करें, तो बेहद सावधानी बरतने की जरूरत होती है। बुजुर्गो के वृद्धाश्रम जाने के बाद स्कूलों से नैतिक शिक्षा का पाठ विलोपित कर दिया गया है। इधर की सत्ता-शासन हो या उधर की सत्ता-शासन किसी ने इस बात की चिंता नहीं की है। सिनेमा एक पाठशाला हुआ करती थी तो वह भी अब वैसा जिम्मेदार नहीं रहा। सामाजिक सरोकार की फिल्में कब से उतर चुकी हैं। पत्रकारिता की चर्चा करें, तो खुद में अफसोस होता है कि क्या यह वही पत्रकारिता है जिसने अंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया था या स्वतंत्र भारत में आपातकाल जैसे कलंक के सामने पहाड़ बनकर खड़ा हो गया था? आज क्या हो गया है? दरअसल, मिशनरी पत्रकारिता ने व्यवसाय को ध्येय बना लिया है और जब अखबारों में यह सूचना दी जाती है कि उसके प्रकाशन का लाभ-हानि का आंकड़ा यह रहा तो बची-खुची उम्मीद भी तिरोहित हो जाती है। यह अमृतकाल के हिन्दुस्तान का सच है। यह सच एक चुनौती बनकर हमारे सामने खड़ा है।
15 अगस्त 1947 से लेकर अमृतकाल तक राजनीति में गिरावट को मापने का पैमाना नहीं बचा लेकिन यह भारत की मिट्टी की ताकत है कि वह हर बार पूरी ताकत के साथ खड़ा हो जाता है। बहुत पीछे ना भी जायें तो पिछले तीन दशकों में चुनावी राजनीति ने मुफ्तखोरी का ऐसा मीठा जहर समाज में बोया है कि आज खुद राजनीतिक दलोंं को मुफ्तखोरी के खिलाफ खड़े होना पड़ रहा है। मुफ्तखोरी से युवा समाज निष्क्रिय हुआ है और जो जितना ज्यादा मुफ्त में देता है, वह सरकार, वह नेता उनका आइडियल बन जाता है। दुर्भाग्य है कि जब स्वयं प्रधानमंत्री मुफ्तखोरी के खिलाफ बोलते हैं तो कुतर्क के साथ उनका विरोध शुरू हो जाता है। इस मोबाइल ने विरोध करना तो सीखा दिया है लेकिन उसके पास तर्क नहीं है। वह केवल विरोध के लिए विरोध करना जानता है। कोई भी सत्ता और शासन इस देश की जनता का विश्वास जीते बिना नहीं रह सकती है। तब ऐसे में यह कहना या कल्पना करना कि सरकार जनविरोधी है, खुद का विरोध करना है।
शिक्षा के स्तर को लेकर हम बेखबर हैं। ऐसा क्या हो गया है कि उच्च शिक्षा पा रहे विद्यार्थी कभी हताशा में, तो कभी डर में, तो कभी किसी अन्य कारण से आत्महत्या कर रहे हैं। आत्महत्या का यह ग्राफ निरंतर बढ़ रहा है जो डरावना है और शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाता है कि आखिर उस विद्यार्थी की हताशा, डर को शिक्षक क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? क्यों उसका समय पर निदान कर उसके भीतर आत्मविश्वास नहीं जगा पा रहे हैं। सच तो यह है कि हम सब जवाबदारी लेने के बजाय नौकरी कर रहे हैं। एक समय था जब बच्चा गलती करता तो मास्साब से स्कूल में पिटाई खाता और घर पर शिकायत करता तो पिता से। तब बच्चों में कोई हताशा-निराशा या डर नहीं था क्योंकि उसे बेहतर करने के लिए प्रेरित किया जाता था। एक समय था जब मास्साब के कुटने पर कोई शिकायत नहीं होती थी लेकिन आज मामूली सजा पर मां-बाप खड़े हो जाते हैं। यहीं से बुनियाद कमजोर होती है।
कुछ अपवादस्वरूप घटनाओं को छोड़ दें जिनका समर्थन नहीं किया जा सकता है लेकिन हमें पुराने दौर में लौटने की जरूरत होगी। एक बड़ा रोग पब्लिक शिक्षण संस्थाओं का है। यहां आर्थिक रूप से सम्पन्न बच्चों और स्टेटस मेंटेन करने के लिए अपने खर्चो में कटौती कर भेजे गये मध्यमवर्गीय बच्चों के बीच एक प्रतिस्पर्धा होती है। ऐसे में मन में कुंठा और हताशा स्वाभाविक है। यहीं से आत्मविश्वास कमजोर होता है और कुछ बच्चे आत्महत्या जैसे भीरू रास्ता अपना लेते हैं तो कुछ बच्चे अपराधिक प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख हो जाते हैं। क्या कारण है कि अनेक कोशिशों के बाद भी शासकीय शिक्षण संस्थाओं में सीटें रिक्त रह जाती हैं और निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश मिलना मुश्किल हो जाता है। इस बात को समझने की जरूरत है। अमृतकाल के इस सच से मुंह मोडऩा मुश्किल है और जरूरी यह हो गया है कि हम सरकारी संस्थाओं को अपना बनायें, उन पर विश्वास करें और यही हमारी नींव को मजबूत करेंगे।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है और दो-तीन दशक बाद शिक्षा नीति में परिवर्तन किया जाता है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। एनईपी में स्वरोजगार के अवसर और मातृभाषा का समावेश किया गया है जो वर्तमान समय की जरूरत है। और भी जो प्रावधान किया गया है, उसमें अनेक पक्ष स्वागत के योग्य है किन्तु राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के पैरोकार इस बात से आत्ममुग्ध हैं कि यही सबकुछ है। शायद यह सच हो लेकिन एक सच यह भी है कि हम आप उसी शिक्षानीति से आये हैं जिसमें संशोधन-परिमार्जन करने लायक बनाया है। पाठ्यक्रम में जो परिमार्जन किया जाना चाहिए, वह हो लेकिन जरूरी है कि युवा भारत में यह दृष्टिसम्पन्न हो। शिक्षा विकास की बुनियाद है। हम इस बात को वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं कि मैकाले ने कहा था कि भारत को गुलाम बनाये रखना है तो उसकी शिक्षा व्यवस्था को नष्ट कर दो। आज इस स्थिति को बदला जा रहा है तो स्वागत है। समाज की बुनियादी जरूरतें यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, पानी, सुरक्षा आदि-इत्यादि राज्य की जवाबदारी होती है और यही जवाबदारी निजी हाथों में जाती हैंं तो यह जवाबदारी ना होकर नफा-नुकसान के तराजू में तौला जाता है जो समाज के विकास में बाधक बनता है। इसलिये अमृतकाल में इस बात का संकल्प लेना होगा कि राज्य अपनी जवाबदारी अपने कंधों पर लेगी।
अमृतकाल में युवा भारत की चुनौतियां अपार हैं। लोक और नैतिक शिक्षा की नींव को मजबूत कर ही हम इसे सार्थक बना सकते हैं। आत्मनिर्भर भारत की कल्पना तब साकार होगी जब हर युवा के पास रोजगार होगा ना कि मुफ्त की सुविधायें। शहर गांव तक ना पहुंचे बल्कि गांव शहर तक आये तो आत्मनिर्भर भारत की मजबूत तस्वीर नुमाया होगी। मुलतानी मिट्टी शहर तक आये लेकिन शहर का एक रुपये वाला पाउच गांवों तक पहुंच कर उनकी आर्थिक क्षमता को प्रभावित करे, इसे रोकना होगा। मितव्ययिता का सबसे अहम सूत्र है संतोष और खादी इसका संदेश है। हालांकि आज महंगी होती खादी के मायने बदल गये हैं लेकिन आज भी एक आस, एक उम्मीद बाकि है कि हम हथकरघा उद्योग को जिंदा करें और बाजार के पहले समाज उसे पहने और आगे बढ़ाये। अमृतकाल केवल उत्सव का विषय नहीं है बल्कि यह संकल्प का विषय है कि भारत कैसे विश्व गुरु बने, कैसे आर्थिक रूप से महाशक्ति बने और कैसे युवा भारत दुनिया के सामने नजीर बने।
(लेखक 'समागम' पत्रिका के संपादक हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।आज देश जो कुछ कर रहा है, उसमें सबका प्रयास शामिल है। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ ये देश का मूल मंत्र बन रहा है।
- प्रो. संजय द्विवेदी, महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान
जब संकल्प के साथ साधना जुड़ जाती है, जब मानव मात्र के साथ हमारा ममभाव जुड़ जाता है, अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए ‘इदं न मम्’ यह भाव जागने लगता है, तो समझिए, हमारे संकल्पों के जरिए एक नए कालखंड का जन्म होने वाला है। सेवा और त्याग का यही अमृतभाव आजादी के अमृत महोत्सव में नए भारत के लिए उमड़ रहा है। इसी त्याग और कर्तव्यभाव से करोड़ों देशवासी स्वर्णिम भारत की नींव रख रहे हैं। हमारे और राष्ट्र के सपने अलग-अलग नहीं हैं। हमारी निजी और राष्ट्रीय सफलताएं अलग-अलग नहीं हैं। राष्ट्र की प्रगति में ही हमारी प्रगति है। हमसे ही राष्ट्र का अस्तित्व है और राष्ट्र से ही हमारा अस्तित्व है। ये भाव, ये बोध नए भारत के निर्माण में भारतवासियों की सबसे बड़ी ताकत बन रहा है।
आज देश जो कुछ कर रहा है, उसमें सबका प्रयास शामिल है। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ ये देश का मूल मंत्र बन रहा है। आज हम एक ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं, जिसमें भेदभाव की कोई जगह न हो, एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जो समानता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर मजबूती से खड़ा हो, हम एक ऐसे भारत को उभरते देख रहे हैं, जिसकी सोच और अप्रोच नई है, जिसके निर्णय प्रगतिशील हैं।
भारत की सबसे बड़ी ताकत ये है कि कैसा भी समय आए, कितना भी अंधेरा छाए, भारत अपने मूल स्वभाव को बनाए रखता है। हमारा युगों-युगों का इतिहास इस बात का साक्षी है। दुनिया जब अंधकार के गहरे दौर में थी, महिलाओं को लेकर पुरानी सोच में जकड़ी थी, तब भारत मातृशक्ति की पूजा, देवी के रूप में करता था। हमारे यहां गार्गी, मैत्रेयी, अनुसूया, अरुंधति और मदालसा जैसी विदुषियां समाज को ज्ञान देती थीं। कठिनाइयों से भरे मध्यकाल में भी इस देश में पन्नाधाय और मीराबाई जैसी महान नारियां हुईं। और अमृत महोत्सव में देश जिस स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को याद कर रहा है, उसमें भी कितनी ही महिलाओं ने अपने बलिदान दिये हैं। कित्तूर की रानी चेनम्मा, मतंगिनी हाजरा, रानी लक्ष्मीबाई, वीरांगना झलकारी बाई से लेकर सामाजिक क्षेत्र में अहिल्याबाई होल्कर और सावित्रीबाई फुले तक, इन देवियों ने भारत की पहचान बनाए रखी। आज देश लाखों स्वाधीनता सेनानियों के साथ आजादी की लड़ाई में नारी शक्ति के इस योगदान को याद कर रहा है और उनके सपनों को पूरा करने का प्रयास कर रहा है। आज सैनिक स्कूलों में पढ़ने का बेटियों का सपना पूरा हो रहा है। अब देश की कोई भी बेटी, राष्ट्र-रक्षा के लिए सेना में जाकर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां उठा सकती है। महिलाओं का जीवन और करियर दोनों एक साथ चलें, इसके लिए मातृ अवकाश को बढ़ाने जैसे फैसले भी किए गए हैं। देश के लोकतंत्र में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। 2019 के चुनाव में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया। आज देश की सरकार में बड़ी बड़ी जिम्मेदारियां महिला मंत्री संभाल रही हैं। और सबसे ज्यादा गर्व की बात है कि अब समाज इस बदलाव का नेतृत्व खुद कर रहा है। हाल के आंकड़ों से पता चला है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की सफलता से, वर्षों बाद देश में स्त्री-पुरुष का अनुपात भी बेहतर हुआ है। ये बदलाव इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि नया भारत कैसा होगा, कितना सामर्थ्यशाली होगा।
हमारे ऋषियों ने उपनिषदों में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय’ की प्रार्थना की है। यानी, हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ें। परेशानियों से अमृत की ओर बढ़ें। अमृत और अमरत्व का रास्ता बिना ज्ञान के प्रकाशित नहीं होता। इसलिए, अमृतकाल का ये समय हमारे ज्ञान, शोध और इनोवेशन का समय है। हमें एक ऐसा भारत बनाना है जिसकी जड़ें प्राचीन परंपराओं और विरासत से जुड़ी होंगी और जिसका विस्तार आधुनिकता के आकाश में अनंत तक होगा। हमें अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता, अपने संस्कारों को जीवंत रखना है। अपनी आध्यात्मिकता को, अपनी विविधता को संरक्षित और संवर्धित करना है और साथ ही, टेक्नोलॉजी, इंफ्रास्ट्रक्चर, एजुकेशन, हेल्थ की व्यवस्थाओं को निरंतर आधुनिक भी बनाना है। आज भारत किसानों को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने के लिए ऑर्गेनिक फार्मिंग और नैचुरल फार्मिंग की दिशा में प्रयास कर रहा है। इसी तरह क्लीन एनर्जी के और पर्यावरण के क्षेत्र में भी दुनिया को भारत से बहुत अपेक्षाएं हैं। आज क्लीन एनर्जी के कई विकल्प विकसित हो रहे हैं। इसे लेकर भी जनजागरण के लिए बड़े अभियान की जरूरत है। हम सब मिलकर आत्मनिर्भर भारत अभियान को भी गति दे सकते हैं। वोकल फॉर लोकल, स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता देकर, इस अभियान में मदद हो सकती है।
अमृतकाल का ये समय सोते हुए सपने देखने का नहीं, बल्कि जागृत होकर अपने संकल्प पूरे करने का है। आने वाले 25 साल, परिश्रम की पराकाष्ठा, त्याग, तप-तपस्या के 25 वर्ष हैं। सैकड़ों वर्षों की गुलामी में हमारे समाज ने जो गंवाया है, ये 25 वर्ष का कालखंड, उसे दोबारा प्राप्त करने का है। इसलिए आजादी के इस अमृत महोत्सव में हमारा ध्यान भविष्य पर ही केंद्रित होना चाहिए। हमारे समाज में एक अद्भुत सामर्थ्य है। ये एक ऐसा समाज है, जिसमें चिर पुरातन और नित्य नूतन व्यवस्था है। हालांकि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि समय के साथ कुछ बुराइयां व्यक्ति में भी, समाज में भी और देश में भी प्रवेश कर जाती हैं। जो लोग जागृत रहते हुए इन बुराइयों को जान लेते हैं, वो इन बुराइयों से बचने में सफल हो जाते हैं। ऐसे लोग अपने जीवन में हर लक्ष्य प्राप्त कर पाते हैं। हमारे समाज की विशेषता है कि इसमें विशालता भी है, विविधता भी है और हजारों साल की यात्रा का अनुभव भी है। इसलिए हमारे समाज में, बदलते हुए युग के साथ अपने आप को ढालने की एक अलग ही शक्ति है। हमारे समाज की सबसे बड़ी ताकत ये है कि समाज के भीतर से ही समय-समय पर इसे सुधारने वाले पैदा होते हैं और वो समाज में व्याप्त बुराइयों पर कुठाराघात करते हैं। हमने ये भी देखा है कि समाज सुधार के प्रारंभिक वर्षों में अक्सर ऐसे लोगों को विरोध का भी सामना करना पड़ता है, कई बार तिरस्कार भी सहना पड़ता है। लेकिन ऐसे सिद्ध लोग, समाज सुधार के काम से पीछे नहीं हटते, वो अडिग रहते हैं। समय के साथ समाज भी उनको पहचानता है, उनको मान सम्मान देता है और उनकी सीखों को आत्मसात भी करता है।
आज डिजिटल गवर्नेंस का एक बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर भारत में है। जनधन, मोबाइल और आधार, इस त्रिशक्ति का देश के गरीब और मिडिल क्लास को सबसे अधिक लाभ हुआ है। इससे जो सुविधा मिली है और जो पारदर्शिता आई है, उससे देश के करोड़ों परिवारों का पैसा बच रहा है। 8 साल पहले इंटरनेट डेटा के लिए जितना पैसा खर्च करना पड़ता था, उससे कई गुना कम कीमत में आज उससे भी बेहतर डेटा सुविधा मिल रही है। पहले बिल भरने के लिए, कहीं एप्लीकेशन देने के लिए, रिजर्वेशन के लिए, बैंक से जुड़े काम हों, ऐसी हर सेवा के लिए दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते थे। रेलवे का आरक्षण करवाना हो और व्यक्ति गांव में रहता हो, तो पहले वो पूरा दिन खपा करके शहर जाता था, 100-150 रुपया बस का किराया खर्च करता था और फिर रेलवे आरक्षण के लिए लाइन में लगता था। आज वो कॉमन सर्विस सेंटर पर जाता है और वहीं से उसका काम हो जाता है।
ई-संजीवनी जैसी टेलिकंसल्टेशन की सेवा के माध्यम से अब तक 3 करोड़ से अधिक लोगों ने घर बैठे ही अपने मोबाइल से अच्छे से अच्छे अस्पताल में, अच्छे से अच्छे डॉक्टर से कंसल्ट किया है। अगर उनको डॉक्टर के पास जाना पड़ता, तो आप कल्पना कर सकते हैं कितनी कठिनाइयां होती, कितना खर्चा होता। पीएम स्वामित्व योजना पर शहर के लोगों का बहुत कम ध्यान गया है। पहली बार शहरों की तरह ही गांव के घरों की मैपिंग और डिजिटल लीगल डॉक्यूमेंट ग्रामीणों को देने का काम चल रहा है। ड्रोन गांव के अंदर जा करके हर घर की ऊपर से मैपिंग कर रहा है। अब लोगों के कोर्ट-कचहरी के सारे झंझट बंद। ये सब हुआ है डिजिटल इंडिया के कारण। डिजिटल इंडिया अभियान ने देश में बड़ी संख्या में रोजगार और स्वरोजगार के अवसर भी बनाए हैं।
बीते आठ वर्षों में डिजिटल इंडिया ने देश में जो सामर्थ्य पैदा किया है, उसने कोरोना वैश्विक महामारी से मुकाबला करने में भारत की बहुत मदद की है। आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर डिजिटल इंडिया अभियान नहीं होता, तो इस सबसे बड़े संकट में हम क्या कर पाते? देश की करोड़ों महिलाओं, किसानों, मज़दूरों, के बैंक अकाउंट में एक क्लिक पर हज़ारों करोड़ रुपए पहुंचा दिए गए। ‘वन नेशन-वन राशन कार्ड’ की मदद से 80 करोड़ से अधिक देशवासियों को मुफ्त राशन सुनिश्चित किया गया। ये टेक्नोलॉजी का कमाल है।
भारत ने दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे प्रभावशाली कोविड वैक्सीनेशन और कोविड रिलीफ प्रोग्राम चलाया। ‘आरोग्य सेतु’ और ‘कोविन’, ये ऐसे प्लेटफॉर्म हैं कि उसके माध्यम से अब तक करीब-करीब 200 करोड़ वैक्सीन डोज लगाई जा चुकी हैं। दुनिया में आज भी चर्चा है कि वैक्सीन सर्टिफिकेट कैसे लेना है, कई दिन निकल जाते हैं। हिन्दुस्तान में व्यक्ति वैक्सीन लगा करके बाहर निकलता है और उसके मोबाइल साइट पर सर्टिफिकेट मौजूद होता है। डिजिटिल इंडिया भविष्य में भी भारत की नई अर्थव्यवस्था का ठोस आधार बने, इसके लिए भी आज अनेक प्रकार के प्रयास किए जा रहे हैं। आज AI, Block-Chain, AR-VR, 3D Printing, Drones, Robotics, Green Energy ऐसी अनेक New Age Industries के लिए 100 से अधिक स्किल डेवलपमेंट के कोर्सेज चलाए जा रहे हैं। आने वाले 4-5 सालों में 14-15 लाख युवाओं को Future Skills के लिए Reskill और Upskill करने का प्रयास है।
आजादी के इस अमृतकाल में हमारे राष्ट्रीय संकल्पों की सिद्धि हमारे आज के एक्शन से तय होगी। ये एक्शन हर स्तर पर, हर सेक्टर के लिए बहुत जरूरी हैं। अमृत महोत्सव की ताकत, जन-जन का मन है, जन-जन का समर्पण है। हम सभी के प्रयासों से भारत आने वाले समय में और भी तेज गति से स्वर्णिम भारत की ओर बढ़ेगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।रफी साब की आवाज अवामी अमानत है और मैं निर्मलेंदु खुशनसीब हूं कि मैं रफी साब सरीखी शख्सियत पर किताब लिखने की गुस्ताखी कर चुका हूं।
निर्मलेंदु साहा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
रफी साब की आवाज अवामी अमानत है और मैं निर्मलेंदु खुशनसीब हूं कि मैं रफी साब सरीखी शख्सियत पर किताब लिखने की गुस्ताखी कर चुका हूं। यह किताब लगभग 2400 पेज की है। इस किताब को लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ ये ही है कि रफी साब को भारत रत्न से क्यों नहीं नवाजा गया ?
पूरी दुनिया का दर्द समेट कर जब खुदा को यह समझ में नहीं आ रहा था कि इस दर्द को किसे सौंपूं, जो इस दर्द को महफूज रख सके। वह जो दूसरों के दर्द को हर सके, बांट सके और दुखी लोगों को कुछ देर के लिए सुकून पहुंचा सके, जो दूसरों के चेहरे पर हंसी ला सके, देश की हिफाजत के लिए लोगों को प्रेरित कर सके और मां बाप का गुणगान यह गीत गाकर कर सके कि ‘...ले लो ले लो दुआएं मां बाप की।‘ जो नेकी के रास्ते पर चलते हुए दूसरों को नेक सलाह दे सके और अपनी मीठी और करिश्माई आवाज से लोगों को दीवाना बना सके। ऐसे में उनकी नजर अचानक कोटला सुल्तान सिंह के उस सात साल के बच्चे पर पड़ी, जो कि एक फकीर के पीछे-पीछे जा रहा था। यह रोज का किस्सा था। फकीर गाता और वह बच्चा भी पीछे पीछे जाता और उस फकीर के गीतों को गुनगुनाता।
फकीर गाता और वह नन्हा गायक उसकी नकल करता। भगवान ने देखा कि उस बच्चे के रोने में भी एक कशिश थी। हंसता तो बहारें फूल बरसाने लगते। उन्होंने महसूस किया कि यह खुदा का नेक बंदा है और यही शख्स न केवल इस बोझ को ढो सकता है, बल्कि दूसरों के गमों को भी हर सकता है। बस क्या था, भगवान ने उस बच्चे की आवाज में उस दर्द को मिला दिया। धीरे-धीरे वह बच्चा बड़ा हुआ और एक दिन वह बच्चा मोहम्मद रफी के नाम से मशहूर हो गया। उन्होंने सही ही गाया था कि ‘...मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेग, दिल का सूना साज तराना ढूंढेगा।’ जी हां, उन्होंने सच ही कहा था, क्योंकि आज भी हम उनके गाये गीतों का आनंद उठाते रहते हैं।
किसी भी गायक के लिए दर्द भरे गीतों, जैसे- ‘टूटे हुए ख्वाबों में...’ या ‘आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले...’ को बेहद ही खुशनुमा अंदाज में गाना संभव ही नहीं है, लेकिन रफी साब की बात ही निराली है। दरअसल, 1950 के बाद राग रागीनियों से खेलना, जैसे- ‘मधुबन में राधिका नाचे रे...’ ‘रंग और नूर की बारात किसे पेश करूं...’, ‘तुम जो मिल गये हो तो ऐसा लगता है...’, ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा...’; ‘वादियां मेरा दामन...’ आदि गीतों को गाना उनके लिए नयी बात नहीं थी। उनके लिए पचास और साठ के दशक में इस तरह का गायन एक तरह का खेल हो गया था। एक सच तो ये भी है कि ईश्वर ने उन्हें बेस्ट वॉयस क्वॉलिटी और क्रिस्टल क्लियर सुर बतौर पैदाइशी तोहफे में दे रखी थी।
शास्त्रीय गायन, जैसे- ‘राधिके तूने बंसरी चुराई बंसरी चुराई क्या...’; ‘मधुबन में राधिका नाचे रे…’ में भी वह निपुण थे। शायद यही वजह है कि वह कोई भी गाना आसानी से गा लेते थे, चाहे वह हाई स्केल का गीत ‘मन तड़पत हरि दर्शन को...’ हो या लो स्केल का गीत ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं...’ दोनों रेंज में वह माहिर थे। विदाई गीत में भी वह माहिर थे, जैसे- ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले।’
जिनकी आवाज को भगवान की आवाज कहा जाता है, जिस आवाज का जमाना दीवाना है, उस आवाज के बारे में कुछ भी कहना सूरज को दीया दिखाने के बराबर ही है। के एल सहगल, जिन्हें पार्श्व गायकों में भीष्म पितामह माना जाता है, उन्होंने रफी साब को आशीर्वाद देते हुए कभी कहा था, ‘तू एक दिन बहुत बड़ा गायक बनेगा।‘ हां, उनकी बात सच साबित हुई है।
ए आर रहमान ने रफी साब के बारे में एक सवाल के जवाब में यही कहा था कि रफी साब की आवाज उस दौर की रूह है। आत्मा है। उस दौर का मतलब है, 50, 60 और 70 का दशक। दरअसल, इस दौर में हमारे दिमाग में रफी साब की आवाज जब भजन के रूप में गूंजती है और जब वे गाते हैं- ‘सुख के सब साथी, दुख में न कोय...’ तब सुबह-सुबह मन खुशी के मारे झूमने लगता इै। हम सब जानते हैं कि इंसान अपने काम से और अपने फन से जिंदा रहता है और इसीलिए यह दावे के साथ हम कह सकते हैं कि रफी साब भी कयामत तक जिंदा रहेंगे, क्योंकि उन्हें सुनने वाले लोग आज भी जिंदा हैं। अगर यह कहें कि हीरा खो गया है, तो शायद गलत नहीं होगा, क्योंकि वह बहत दूर से इस पृथ्वी पर आये और इस गीत को गाकर चले गये ‘...बड़ी दूर से आये हैं, प्यार का तोहफा लाये हैं’ जी हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि वे बड़ी दूर से आये हैं और बड़ी दूर चले भी गये हैं। दरअसल, गीता में ये ही कहा गया है कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’
अर्थात... कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं और शायद इसीलिए रफी साब भी कर्म करने में ही विश्वास करते थे। ना काहू से शत्रुता और न ही किसी से दोस्ती। रात में भी यदि उन्हें रिकॉर्डिंग के लिए बुलाया जाता, तो वे कभी किसी को मना नहीं करते थे। दरअसल, कर्म के इसी सिद्धांत पर जब वे चलते रहे, तो उनसे इसी तरह के गीत गवाये जाते कि ‘जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वह भारत देश है मेरा…’
रफी साब की तारीफ तो सब करते हैं, लेकिन उन्हें भारत रत्न दिलाने की मुहिम कोई नहीं छेड़ता। ऐसे में हम सभी रफियन का, यानी रफी साब के भक्तों का ये ही परम कर्तव्य बन जाता है कि हम सब मिलकर एक मिशन के तहत भारत सरकार खासकर राष्ट्रपति और मोदी जी को पत्र जरूर लिखें कि रफी साब को भारत रत्न से नवाज जाए। दरअसल, मेरी समझ से यही रफी साब के चाहने वालों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हम सब रफियन उन्हें भारत रत्न दिलवाने के लिए इंतजार करेंगे कयामत तक... जी हां, हम इतजार करेंगे कयामत तक।
एक कटु सच यह भी है कि भारत में भारत रत्न के लिए जो लोग विशेष होते हैं, उन्हें भारत रत्न जल्दी मिल जाता है, जो कि भारत रत्न कितने लोगों को मिला, अब तक की लिस्ट देखकर आसानी से समझ में आ जाएगा। इसलिए मेरा मानना ये ही है कि सुर के सरताज और सुर सम्राट मोहम्मद रफी साब को भारत रत्न मिलना ही चाहिए।
दरअसल, मुकेशजी, रफीजी और किशोरदा ये वे नाम हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान के संगीत को एक नयी उंचाई दी, जो कि हमारी कल्पना से परे है। मुकेश ‘दोस्त दोस्त न रहा…’ और ‘जीना यहां मरना यहां...’ गा कर अमर हो गये। किशोर कुमार ने राजेश खन्ना से दोस्ती गाठ ली और हिट हो गये- ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू…’ गाकर। ये गीत इनके गाने उनके जमाने के ही नहीं, बल्कि आज के जमाने के गानों को भी टक्कर देते हैं। आज भी अगर कोई मजनूं गम में होता है, तो सबसे पहले इनके गाने ही सुनते हैं। इन तीनो ने एक से बढ़कर एक गाने गाये हैं। इन तीनो में से किसी एक का नाम लेना मतलब बाकी कलाकारों की कलाकारी पर सवाल उठाने के समान होगा और इसीलिए इनकी गायन शैली पर शक करने की हममें हिम्मत ही नहीं है।
अब सवाल ये भी उठता है कि रफी साब बड़े गायक थे अथवा लता दीदी, किशोर कुमार, मुकेश या कोई अन्य। हालांकि इस विषय पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन इस बात पर शायद ही कोई विवाद हो कि गायकों में तो क्या, सम्पूर्ण फिल्मी हस्तियों में साम्प्रदायिक सद्भाव, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय अखंडता का सबसे बड़ा प्रतीक अगर कोई है, तो वह हैं मोहम्मद रफी। इन दो गीतों ने ‘जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा...’ और ‘तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा…’ यह साबित कर दिया था कि रफी साब हैं। लेकिन दुख तो इस बात का है कि धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करनेवाली सरकार और साम्प्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों एवं सरकारी-गैर सरकारी संगठनों ने इस इंसान की खुलेआम अनदेखी कर दी। इन सियासतदां लोगों से एक सवाल पूछने का मन करता है कि साम्प्रदायिक एकता एवं धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के रूप में उनके पास कौन-कौन से नाम हैं और क्या रफी साब का योगदान एवं भारतीय जनमानस पर उनका प्रभाव अन्य नामों से किसी तरह से कम है और अगर ऐसा नहीं है, तो आखिर हर गली, हर चौराहे, हर संस्थान एवं हर प्रतिष्ठान को किसी-न-किसी के नाम से जोड़ देनेवाले इस देश में कोई स्मारक, कोई पुस्तकालय या कोई संस्थान मोहम्मद रफी के नाम से स्थापित करने के बारे में किसी भी सरकार ने अभी तक पहल क्यों नहीं की? केवल इसलिए, क्योंकि वे...
रफी साब ने अपने जीवन में कुल कितने गाने गाये, इस पर आज भी विवाद है। 1970 के दशक में गिनीज बुक आफ विश्व रेकॉर्ड्स ने लिखा कि सबसे अधिक गाने रिकॉर्ड करने का श्रेय लता मंगेशकर को प्राप्त है, जिन्होंने कुल 25 हजार गाने रिकॉर्ड गाये हैं। रफी साब ने इसका खंडन करते हुए गिनीज बुक को एक चिट्ठी लिखी। इसके बाद के संस्करणों में गिनीज बुक ने दोनों गायकों के दावे साथ-साथ प्रदर्शित किये और मुहम्मद रफी को 1944 और 1980 के बीच 28 हजार गाने रिकॉर्ड करने का श्रेय दिया गया। मतलब ये ही हुआ कि रफी साब ने 26000 गीत गाने का क्लेम किया, लेकिन गिनीज बुक ने 28000 गाने रफी साब के नाम रिकॉर्ड हुए हैं... ऐसा लिख कर जवाब दिया। यानी दो हजार ज्यादा गाने रफी साब ने गाये। इसके बाद हुई खोज में विश्वास नेरुरकर ने पाया कि लता दीदी ने वास्तव में 1989 तक केवल 5,044 गाने गाये थे। वैसे कुछ और शोधकर्ताओं ने भी इस तथ्य को सही माना है।
हालांकि वेटरन राइटर राजू भारतन ने पाया कि 1948 और 1987 के बीच केवल 35 हजार हिन्दी गाने रिकॉर्ड हुए थे। ऐसे में रफी ने 26 हजार गाने गाये, इस बात पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन कुछ स्रोत अब भी इस संख्या को उद्धृत करते हैं। इस शोध के बाद 1992 में गिनीज बुक ने गायन का उपरोक्त रिकॉर्ड ही बुक से निकाल दिया।
भारत रत्न का मतलब क्या है, उससे रूबरू होते हैं। भारत रत्न, भारत सरकार की ओर से 1954 में संस्थापित भारत रत्न देश के सर्वोच्च और प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कारों में से एक है। इस पुरस्कार की प्रधानता में गिनती सातवें स्थान पर की जाती है। इस पुरस्कार को देश के विशेष सेवा क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रदान किया जाता है। भारत रत्न योग्यता पर आधारित पुरस्कार है और यह पुरस्कार विजेताओं को पद, जाति, लिंग या व्यवसाय जैसे किसी भी भेदभाव के बिना प्रदान किया जाता है। ये ही कानून है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस कानून का पालन हो रहा है?
भारत रत्न योग्यता पर आधारित पुरस्कार है और यह पुरस्कार विजेताओं को पद, जाति, लिंग या व्यवसाय जैसे किसी भी भेदभाव के बिना प्रदान किया जाता है। ये ही कानून है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस कानून का पालन हो रहा है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
चार दिन हो गए। तबसे चुप्पी बरकरार है। टीवी पत्रकारिता के किसी घराने, संपादक, पत्रकार, एंकर और टीवी पत्रकारिता के संगठनों ने मुंह नहीं खोला। मैं भी चार दिन से दम साधे देख रहा था कि आजाद भारत में सर्वोच्च न्यायालय के किसी सर्वोच्च न्यायाधीश ने पहली बार इतनी तल्ख और गुस्से भरी टिप्पणी की तो उसका हमारे मीडिया संस्थानों या घरानों की ओर से कोई संज्ञान लिया जाता है अथवा नहीं। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि हिन्दुस्तान की इस आला अदालत की फटकार पर किसी संपादक ने अपनी संस्था या चैनल की कोई बैठक नहीं बुलाई, किसी संस्था ने कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किए और कहीं से भी यह सूचना नहीं आई कि अमुक संस्थान ने अपने पत्रकारों से कहा है कि वह न्यायपालिका की इस टिप्पणी पर बेहद गंभीरता और प्राथमिकता से ध्यान दें।
यह हमारी टीवी पत्रकारिता का कौन सा चेहरा है? संपादक नाम की संस्था कहां विलुप्त हो गई? दिन रात टीआरपी के आधार पर पाई पाई का हिसाब रखने वाले मालिकों में भी कोई डर या दहशत पैदा क्यों नहीं हुई? आखिर इससे ज्यादा और मुख्य न्यायाधीश नुथालापति वेंकट रमना क्या कह सकते थे?
न्यायपालिका की ओर से पत्रकारिता पर पहली बार इतनी तल्ख टिप्पणी की गई है कि वह कंगारू कोर्ट चला रही है। रांची के कार्यक्रम में जब मुख्य न्यायाधीश कहते हैं कि मीडिया इन दिनों अच्छे बुरे, सही और गलत का अंतर नही कर पा रहा है तो इसका मतलब यही है कि पत्रकारिता में गैर जिम्मेदारी अब चरम पर है। इसलिए हिन्दुस्तान की सर्वोच्च अदालत के सर्वोच्च न्यायाधीश के इस कथन में गंभीर चेतावनी भी छिपी दिखाई देती है। प्रिंट पत्रकारिता को तो उन्होंने फिर भी तनिक जिम्मेदार माना, लेकिन टेलिविजन पत्रकारों के लिए तो यह अत्यंत शर्मनाक है। शायद अब हम न्यायपालिका को बाध्य कर रहे हैं कि वह पत्रकारों के प्रति सख्त रवैया अपनाए। यदि ऐसा हुआ तो कितने पत्रकार अपने मीडिया ट्रायल के कारण सींखचों के भीतर होंगे, कोई नहीं कह सकता। मीडिया ट्रायल के नाम पर हम पत्रकार कानून के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।
आखिरकार न्यायाधीश भी इंसान ही हैं। उनके लिए भी बेहद संवेदनशील मामलों में कभी कभी निर्णय करना कठिन होता ही होगा। नुपुर शर्मा प्रसंग के बाद पत्रकारों के एक वर्ग ने जिस तरह न्यायपालिका का मखौल उड़ाया, वह अक्षम्य है। उसके इस रवैए का एक कारण और भी है। टीवी पत्रकारिता का एक खेमा जिस ढंग से सियासत के समर्थन पर उतर आया है, उससे साफ है कि उसे न्यायपालिका और समाज किसी का भय नहीं रहा है और वह पत्रकारिता के स्थापित और मान्य सिद्धांतों को भी धता बता रहा है।
मत भूलिए कि चंद रोज पहले ही न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने उत्तर प्रदेश सरकार के एक अनुरोध को खारिज किया था कि एक पत्रकार को जमानत देने से पहले यह वचन ले लिया जाए कि वह सरकार के खिलाफ नहीं लिखेगा। सरकार का यह अनुरोध असंवैधानिक था और भारत के किसी नागरिक को प्राप्त अधिकारों का गला घोंटता था। लेकिन न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पत्रकारिता के कर्तव्यों को संरक्षण प्रदान किया था। मगर यदि मीडिया के 'कंगारू कोर्ट' ने न्यायपालिका का काम अपने हाथ में ले लिया तो स्थितियां भयावह हो सकती हैं, क्योंकि संविधान पत्रकारिता को कोई विशेष संरक्षण नहीं देता। इसके उलट न्यायाधीशों और न्यायपालिका के हाथ में न्यायालय की अवमानना का चाबुक है। उसका इस्तेमाल कभी भी हो सकता है। इस चाबुक से बचकर रहिए मिस्टर मीडिया!
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
दिल्लीः हिरण पर क्यों लादें घांस
इसमें जरा भी शक नहीं है कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में कई नई और अच्छी पहल की हैं। उसकी नई शिक्षा पद्धति को देखकर कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियां भी काफी प्रभावित हुई हैं। अब दिल्ली सरकार ने घोषणा की है कि वह 50 केंद्रों में एक लाख ऐसे बच्चे तैयार करेगी, जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सकें।
अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई तो भारत के सभी विद्यालयों में होती है लेकिन अंग्रेजी में संभाषण करने की निपुणता कम ही छात्रों में होती है। इसी वजह से वे न तो अच्छी नौकरियां ले पाते हैं और वे जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान गरीब और पिछड़े परिवारों के छात्रों को होता है। उन्हें घटिया पदों और कम वेतनवाली नौकरियों से ही संतोष करना पड़ता है। ऐसे छात्रों को जीवन में आगे बढ़ने का मौका मिले, इसीलिए दिल्ली सरकार अब 12वीं पास छात्रों को अंग्रेजी बोलने का अभ्यास मुफ्त में करवाएगी।
शुरू में वह उनसे 950 रुपए जमा करवाएगी ताकि वे पाठ्यक्रम के प्रति गंभीर रहें। यह राशि उन्हें अंत में लौटा दी जाएगी। यह पाठ्यक्रम सिर्फ 3-4 माह का ही होगा। 18 से 35 साल के युवकों के लिए यह अंग्रेजी बढ़िया बोलो अभियान खुला रहेगा। मोटे तौर पर दिल्ली सरकार की इस योजना के पीछे उसकी मंशा पूरी तरह सराहनीय है लेकिन दिल्ली की ही नहीं, हमारे सभी राज्यों और केंद्र की सरकार ने क्या कभी सोचा कि हमारी शिक्षा और नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता ने भारत का कितना बड़ा नुकसान किया है? यदि सरकारी नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा दी जाए तो कौन माता-पिता अपने हिरण-जैसे बच्चों पर घांस लादने की गलती करेंगे?
चीनी भाषा के अलावा किसी भी विदेशी भाषा को सीखने के लिए साल-दो साल काफी होते हैं लेकिन भारत में बच्चों पर यह घांस दस-बारह साल तक लाद दी जाती है। अपने छात्र-काल में मैंने अंग्रेजी के अलावा जर्मन, रूसी और फारसी भाषाएं साल-साल भर में आसानी से सीख ली थीं। अंग्रेजी से कुश्ती लड़ने में छात्रों का सबसे ज्यादा समय नष्ट हो जाता है। अन्य विषयों की उपेक्षा होती है। मौलिकता नष्ट होती है। हीनता ग्रंथि पनपने लगती है। अहंकार और ढोंग पैदा हो जाता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था चौपट हो जाती है। आजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं लेकिन अभी भी हम भाषाई और बौद्धिक गुलामी में जी रहे हैं।
महात्मा गांधी और लोहिया- जैसा एक भी नेता आज तक देश में इतना साहसी नहीं हुआ कि वह मैकाले की इस गुलामगीरी को चुनौती दे सके। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और मंत्री मनीष सिसोदिया से मैं आशा करता हूं कि वे अन्य मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों की तरह पिटेपिटाए रास्ते पर तेज रफ्तार से चलने की बजाय ऐसा जबर्दस्त अभियान चलाएं कि भारत में नौकरियों और शिक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हो जाए, जिन्हें उच्च शोध, विदेश व्यापार और कूटनीति के लिए विदेशी भाषाएं सीखनी हों, वे जरुर सीखें। उन्हें पूर्ण सुविधाएं दी जाएं।
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मनोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार ।।
अग्निपथ : कुछ अनुत्तरित सवाल
किसी भी समाज की मजबूत नींव उसकी शिक्षा व्यवस्था से होती है। खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा में क्या पढ़ाया जा रहा है, यह भविष्य को तय करता है। और जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत वर्ष की चर्चा करते हैं तो यह यक्ष प्रश्र की तरह हमारे समक्ष खड़ा रहता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां हर फैसले राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि से तय किया जाता है, वहां की प्राथमिक शिक्षा को भी इसी तराजू पर तौल कर देखा जाता है। यह सवाल आज के दौर में सामयिक हो चला है क्योंकि केन्द्र सरकार की अभिनव योजना ‘अग्निपथ’ कटघरे में है।
सवालों में घिरी ‘अग्निपथ’ योजना को लेकर संशय और नकरात्मक भाव बना हुआ है। हालांकि ‘अग्निपथ’ को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। कुछ पल के लिए इस बात को बिसरा भी दें तो सबसे पहले सवाल उठता है कि हमारी सिविल सोसायटी पुलिस और सेना के बारे में क्या और कितना जानती है? यह सवाल इसलिए भी कि जब आपकी प्राथमिक कक्षाओं में कभी पुलिस और सेना को पढ़ाया ही नहीं गया तो हम उनके बारे में जानते ही नहीं हैं। हां, एक लक्ष्मण रेखा पुलिस और सेना को लेकर खींच दी गई है कि ये सिविल सोसायटी से दूर रहेंगे। इसी सिलसिले में न्यायपालिका को भी रखा गया है। ‘अग्निपथ’ योजना के बहाने ही सही, इन पर चर्चा करना जरूरी है क्योंकि यही चर्चा ‘अग्निपथ’ योजना की प्रासंगिकता को उचित अथवा अनुचित प्रमाणित करेगा।
भारत ही समूचे विश्व में रोजगार का संकट गहरा रहा है। काम के अवसर खत्म हो रहे हैं और जहां काम के अवसर हैं, वहां नयी नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। ऐसे में एक लोकतांत्रिक सरकार का कर्तव्य हो जाता है कि वह संकट में समाधान तलाश कर संकट को भले ही खत्म ना करे, कम करने की कोशिश तो कर सकती है। एक जानकारी के अनुसार लम्बे समय से सेना में भर्ती नहीं हुई है। सेना का मसला निश्चित रूप से संवेदनशील है, अत: कड़े परीक्षण के बाद ही भर्ती का रास्ता खुलता है। केन्द्र सरकार ने ‘अग्निपथ’ योजना के माध्यम से प्रतिवर्ष करीब 45 हजार युवाओं की भर्ती का रास्ता प्रशस्त किया है। हालांकि उनकी यह भर्ती चार वर्षो के लिए होगी। अब इस बात को लेकर बहस-मुबाहिसा शुरू हो गया है कि चार वर्ष बाद युवा बेरोजगार हो जाएंगे और आगे का रास्ता उनका कठिन होगा। यह सवाल बेमानी नहीं है लेकिन वर्तमान स्थितियों पर नजर डालें तो समझ में आएगा कि आलोचना का जितना स्वर गंभीर है उसके मुकाबले ‘अग्निपथ’ योजना बेकार नहीं है।
पहली बात तो यह कि युवाओं के मन में हम राष्ट्रीयता की भावना देखना चाहते हैं जो सिविल सोसायटी में रहते हुए अपने लक्ष्य से दूर है जिसकी पूर्ति ‘अग्निपथ’ योजना के माध्यम से हो सकेगी। चार वर्ष की अवधि में वह सेना की कार्यवाही देखने के बाद युवाओं में देश के प्रति प्रेम का संचार होगा। वह सेना की चुनौतियों को समझ सकेंगे। साथ में चार वर्ष की अवधि में उन्हें ओपन स्कूल और ओपन यूनिवर्सिटी से शिक्षा हासिल करने की सुविधा भी होगी। एक बात थोड़ी कड़वी है लेकिन सच यह है कि सेना में जाने वाले युवा मध्यमवर्गीय परिवारों से होते हैं। ऐसे में 45 हजार परिवारों के मन में आश्वस्ति का भाव रहेगा कि उनके बच्चे भविष्य बनाने का अवसर मिल रहा है। इस नाते ‘अग्निपथ’ उनके लिए लाल कार्पेट बिछा हुआ स्वागत करता भारत होगा। ये 45 हजार युवा जब चार वर्ष सेना में अनुभव हासिल कर लौटेंगे तो समाज में होने वाले अपराधों के खिलाफ भी खड़े होंगे। यह तो एक साल की बात है, यह आगे और आगे चलती रहेगी और सिविल सोसायटी को इसका लाभ मिल सकेगा।
चूंकि हमने प्राथमिक शिक्षा में पुलिस और सेना पढ़ाया नहीं है अत: उनके संघर्ष और चुनौतियों से सिविल सोसायटी के युवा परिचित नहीं हैं। लेकिन यह चार वर्ष का अनुभव उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाने में सहयोग करेगा। सिविल सोसायटी के अधिकांश लोग इस बात से भी अपरिचित हैं कि ‘अग्निपथ’ योजना से इतर सेना में भर्ती होने वाले युवा भी सोलह साल की नौकरी के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वापस लौट आते हैं। एक बड़ा सवाल ‘अग्निपथ’ को लेकर किया जा रहा है कि चार साल बाद सेना से वापस आने वाले युवा मार्ग ना भटक जाएं तो यह भी बहुत हद तक बेमानी शंका है क्योंकि सेना का शिक्षण-प्रशिक्षण ऐसा होता है कि वो देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं सोचते हैं। यह और बात है कि कुछ अपवाद आपको मिल सकते हैं लेकिन संदेह की बुनियाद पर ‘अग्निपथ’ जैसी योजना को देखना अनुचित प्रतीत होता है।
यह सवाल भी खड़ा किया जा रहा है कि सेना से चार वर्ष बाद आने वाले युवा प्रतियोगी परीक्षा के लिए उम्र पार कर चुके होंगे, तो क्या सवाल उठाने वाले इस बात की गारंटी देते हैं कि इन 45 हजार युवा प्रतियोगी परीक्षा में सफल होंगे? यह संभव नहीं है। इसे इस नजर से देखा जाना चाहिए कि 45 हजार युवाओं को रोजगार मिलता है तो वह अवसादग्रसित नहीं होंगे। अवसाद ग्रसित नहीं होने से वे स्वयं इतने सक्षम होंगे कि बेहतर रास्ता तलाश लेंगे।
एक बात यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि सेना में जाना रोजगार नहीं बल्कि एक अनुभव हासिल करने के चार वर्ष होंगे। ऐसे अनेक बेमानी सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि हम स्वतंत्रता के बाद से प्राथमिक शिक्षा में पुलिस, सेना और न्यायपालिका, कार्यपालिका का पाठ नहीं पढ़ाया। अब समय आ गया है कि आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर जब हम नई शिक्षा नीति लेकर आ गए हैं तब प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में इन्हें शामिल किया जाए। बदलते भारतीय समाज में आज इसकी जरूरत है वरना राजनीतिक चश्मे से देखी जाने वाली हर योजना अपने समय के साथ अपना औचित्य गंवा देगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं सुपरिचित शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को के एक समारोह में शिरकत करते हुए अपनी निराशा प्रकट की है। उन्होंने कहा कि भारत में तमाम राजनीतिक दल चाहते हैं कि अदालतें उनके एजेंडे पर चलें। ज्यादातर पार्टी चाहती हैं कि अदालतें उनके पक्ष में फैसला करें। चाहे वह पक्ष हो या विपक्ष। इसके अलावा उन्होंने एक और जरूरी टिप्पणी की। रमना बोले कि आजादी के 75 साल बाद भी लोग संविधान की तरफ से अलग-अलग संस्थाओं को सौंपी गई जिम्मेदारियों को नहीं समझ सके हैं।
जाहिर है कि उनका इशारा समाज के तमाम वर्गों की ओर था। इसमें पत्रकारिता को भी शामिल माना जा सकता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को संविधान संरक्षण देता है। अफसोस है कि संवैधानिक लोकतंत्र की अन्य संस्थाएं यह संरक्षण धर्म निभाने में असफल रही हैं। कार्यपालिका और विधायिका केवल अदालतों से ही अपने हक में निर्णय देने की अपेक्षा नहीं करतीं, वे पत्रकारिता को भी अपने इशारों पर नचाना चाहती हैं। न्यायपालिका पर तो वे एक सीमित और परिष्कृत अंदाज में ही जोर डाल पाती हैं, लेकिन पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिए वे कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकतीं। अब तो उनसे निरंतर संघर्ष पत्रकारों के बुनियादी कर्तव्यों में शामिल हो गया है।
दूसरी ओर पत्रकारिता में बढ़ती गैरजिम्मेदारी और अराजकता की हद तक जाकर कंटेंट परोसने से आम अवाम के बीच में वह घृणा की पात्र बन गई है। एक उपग्रह चैनल भारत की एक बड़ी राष्ट्रीय प्रतिपक्षी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष का कथन उस घटना से जोड़ देता है, जिसका उससे कोई संबंध ही नहीं था और न ही उस सन्दर्भ में कहा गया था। भारतीय दण्ड संहिता के मुताबिक यह समाज में आंतरिक अशांति और हिंसा भड़काने का अपराध माना जा सकता है।
चैनल ने इसे एक भूल निरूपित करके गंभीरता को हल्का करने का काम किया। एक अन्य चैनल ने भी ऐसा ही किया। उसने अपनी सफाई में कहा कि हजारों खबरें आती हैं। इस तरह की गलती हो जाती है। अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि चैनलों के वर्तमान आउटपुट तंत्र के तकनीकी पक्ष को समझें तो पता चलता है कि यह कृत्य तकनीकी त्रुटि या भूल हो ही नहीं सकती। जब तक कोई जानबूझकर दो खबरों को आपस में मिलाकर एक नहीं करे, तब तक ऐसा बयान अपनी ओर से उड़कर दूसरी घटना से नहीं जुड़ सकता और फिर एक नहीं, दो-तीन मीडिया संस्थाएं ऐसा एक साथ करें तो संदेह उपजना स्वाभाविक है। अदालत में यदि कोई गहराई से पड़ताल करे तो यकीनन दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा।
इस घटना का एक पहलू और भी है। उपग्रह चैनल होने के नाते प्रसारण हिन्दुस्तान की सीमाओं से बाहर भी देखा गया। जिन देशों में दर्शकों ने इसे देखा, वे भी अनजाने में इस अपराध का शिकार बन गए। देशों के समय-चक्र में अंतर होता है। यह जरूरी नही कि जिस समय माफी मांगी गई, उस समय उन देशों में दिन रहा हो और वह बुलेटिन देखे जाने का समय हो अथवा वही दर्शक उस माफीनामे को देख रहे हों, जिन्होंने उस कथित भूल वाला समाचार देखा हो।
वैधानिक पहलू तो यह भी है कि उन देशों के दर्शकों की भावनाएं अगर आहत हुई हैं तो उन देशों में भी उनके अपने कानून के मुताबिक चैनलों के खिलाफ मामला दर्ज किया जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो चैनलों के लिए प्रत्येक देश में जाकर बचाव करना कठिन हो जाएगा, इसलिए माफी किसी अपराध का दंड नहीं है। इस अंतर को समझना होगा मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-
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छत्तीसगढ़ पुलिस ने मंगलवार को ‘जी न्यूज’ के एंकर रोहित रंजन को गाजियाबाद स्थित उनके घर से गिरफ्तार करने की कोशिश की। छत्तीसगढ़ पुलिस, स्थानीय पुलिस को बिना जानकारी दिए रोहित रंजन के घर के अंदर पहुंची और उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की। छत्तीसगढ़ पुलिस के 10-15 सदस्य बिना वर्दी के सुबह 6 बजे के करीब रोहित रंजन को गिरफ्तार करने पहुंचे थे। रोहित रंजन गाजियाबाद के इंदिरापुरम में रहते हैं। छत्तीसगढ़ पुलिस की इस कार्रवाई से वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार ने उनकी कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं और अपने फेसबुक वॉल पर एक लेख लिखा है, जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं-
एंकर रोहित रंजन को मैं लंबे समय से जानता हूं। उनके राजनीतिक विचार चाहे जो भी हों, पर वे एक संजीदा, जिम्मेदार और भले व्यक्ति हैं। जी न्यूज पर उनके कार्यक्रम में राहुल गांधी के एक बयान को गलत संदर्भों में दिखाए जाने की भूल हुई, जिसे खुद रोहित और चैनल ने भी स्वीकार कर लिया है और माफी भी मांग ली है। मेरे विचार से यह पर्याप्त है और विवाद को यहीं पर खत्म करना चाहिए।
मैं किसी गलत का समर्थन नहीं कर रहा, न मीडिया में गलत खबरें या खबरों को गलत तरीके से दिखाए जाने का समर्थन कर रहा हूं। लेकिन जिन लोगों को, चैनलों में किस तरह काम होता है, इसका अंदाजा है, वे आसानी से समझ सकते हैं कि ऐसी भूलों के कभी भी किसी से भी हो जाने का खतरा रहता है। कोई भी चैनल या पत्रकार या एंकर कभी भी जान-बूझकर ऐसी भूलें नहीं करता है।
साथ ही, टीवी चैनलों का आउटपुट एक टीमवर्क का नतीजा होता है। एंकर उसे प्रेजेंट जरूर कर रहा होता है, लेकिन उसके कार्यक्रम को तैयार करने में परदे के पीछे अनेक लोगों की टीम काम कर रही होती है। अक्सर उसे 'रनडाउन' पर 'क्यू' में लगी खबरों की जो डिटेल 'टेली-प्रॉम्प्टर' पर लिखी मिलती है, उसे बस पढ़ देना होता है। लेकिन दुनिया समझती है कि वह सब जो पढ़ा जा रहा है, उसे एंकर ने ही तैयार किया है।
यह मानता हूं कि किसी भी पत्रकार का यह दायित्व है कि वह खबरों को ठीक से जांच परखकर ही प्रसारित होने के लिए जारी करे। सैद्धांतिक रूप से एंकर का भी दायित्व है कि वह अपने बुलेटिन की खबरों को पहले ठीक से समझे, जांचे और यदि उसे कुछ गलत या अटपटा लगे तो उसे तैयार करने वाली टीम से बात करे, लेकिन अक्सर एंकरों के पास इतना वक्त नहीं होता। साथ ही वह यह मानकर चलता है कि टीम के अनुभवी लोगों ने जो बुलेटिन तैयार किया है, वह जांच-परखकर ही किया होगा।
यह सच भी है कि अनुभवी संपादकों की निगाह में ज्यादातर संदेहास्पद खबरें फिल्टर भी हो जाती हैं, लेकिन अपवादस्वरूप सैंकड़ों बार में एकाध बार उनसे भी मानवीय भूल हो सकती है। या बुलेटिन को जांचने के लिए कोई सीनियर संपादक उपलब्ध नहीं है, तो भी ऐसी भूलें हो सकती हैं।
यहां यह भी कहना चाहूंगा कि राहुल गांधी ने वायनाड में अपने दफ्तर पर हमला करने वालों को माफ करने की बात कही थी। लेकिन उसी खबर को लेकर ‘जी न्यूज’ और रोहित की टीम से हुई भूल पर उनके द्वारा माफी मांग लिए जाने के बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार ने बदले की भावना से कार्रवाई करते हुए रोहित को गिरफ्तार करने के लिए उनके गाज़ियाबाद स्थित घर पर पुलिस भेज दी।
यह राहुल गांधी के वक्तव्य में व्यक्त किये गए विचारों से मेल नहीं खाता। राहुल गांधी माफी की बात करें और उनकी पार्टी की राज्य सरकार माफी मांग लिये जाने के बाद भी पुलिस का इस्तेमाल करके बदला लेना चाहे, यह विरोधाभासी है। हालांकि मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा हस्तक्षेप किये जाने के बाद रोहित अभी उत्तर प्रदेश पुलिस की हिरासत में बताए जा रहे हैं।
इसलिए मैं तो कांग्रेस पार्टी, छत्तीसगढ़ सरकार/पुलिस और उत्तर प्रदेश सरकार/पुलिस– तीनों से अपील करूंगा कि रोहित रंजन के माफी मांग लेने के बाद चीजों को ठीक से समझें और इस विवाद को यहीं खत्म करें। धन्यवाद।
(साभार: वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार की फेसबुक वॉल से)
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प्लास्टिक पर 1 जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध तो लागू कर दिया है, लेकिन उसका असर कितना है? फिलहाल तो वह नाम मात्र का ही है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
प्लास्टिक पर 1 जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध तो लागू कर दिया है, लेकिन उसका असर कितना है? फिलहाल तो वह नाम मात्र का ही है। वह भी इसके बावजूद कि 19 तरह की प्लास्टिक की चीजों में से यदि किसी के पास एक भी पकड़ी गई तो उस पर एक लाख रु. का जुर्माना और पांच साल की सजा हो सकती है। इतनी सख्त धमकी का कोई ठोस असर दिल्ली के बाजारों में कहीं दिखाई नहीं पड़ा है।
अब भी छोटे-मोटे दुकानदार प्लास्टिक की थैलियां, गिलास, चम्मच, काड़िया, तश्तरियां आदि हमेशा की तरह बेच रहे हैं। ये सब चीजें खुले-आम खरीदी जा रही हैं। इसका कारण क्या है? यही है कि लोगों को अभी तक पता ही नहीं है कि प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी है। सारे नेता लोग अपने राजनीतिक विज्ञापनों पर करोड़ों रुपया रोज खर्च करते हैं। सारे अखबार और टीवी चैनल हमारे इन जन-सेवकों को महानायक बनाकर पेश करने में संकोच नहीं करते लेकिन प्लास्टिक जैसी जानलेवा चीज पर प्रतिबंध का प्रचार उन्हें महत्वपूर्ण ही नहीं लगता।
नेताओं ने कानून बनाया, यह तो बहुत अच्छा किया, लेकिन ऐसे सैकड़ों कानून ताक पर रखे रह जाते हैं। उन कानूनों की उपयोगिता का भली-भांति प्रचार करने की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है, उससे ज्यादा हमारे राजनीतिक दलों और समाजसेवी संगठनों की है। हमारे साधु-संत, मौलाना, पादरी वगैरह भी यदि मुखर हो जाएं तो करोड़ों लोग उनकी बात को कानून से भी ज्यादा मानेंगे।
प्लास्टिक का इस्तेमाल एक ऐसा अपराध है, जिसे हम ‘सामूहिक हत्या’ की संज्ञा दे सकते हैं। इसे रोकना आज कठिन जरूर है, लेकिन असंभव नहीं है। सरकार को चाहिए था कि इस प्रतिबंध का प्रचार वह जमकर करती और प्रतिबंध-दिवस के दो-तीन माह पहले से ही 19 प्रकार के प्रतिबंधित प्लास्टिक बनानेवाले कारखानों को बंद करवा देती। उन्हें कुछ विकल्प भी सुझाती ताकि बेकारी नहीं फैलती। ऐसा नहीं है कि लोग प्लास्टिक के बिना नहीं रह पाएंगे। अब से 70-75 साल पहले तक प्लास्टिक की जगह कागज, पत्ते, कपड़े, लकड़ी और मिट्टी के बने सामान सभी लोग इस्तेमाल करते थे। पत्तों और कागजी चीजों के अलावा सभी चीजों का इस्तेमाल बार-बार और लंबे समय तक किया जा सकता है। ये चीजें सस्ती और सुलभ होती हैं और स्वास्थ्य पर इनका उल्टा असर भी नहीं पड़ता है। लेकिन स्वतंत्र भारत में चलनेवाली पश्चिम की अंधी नकल को अब रोकना बहुत जरुरी है। भारत चाहे तो अपने बृहद अभियान के जरिए सारे विश्व को रास्ता दिखा सकता है।
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
इस्लाम के दुश्मन हैं ये हत्यारे
उदयपुर में जिस तरह एक हिंदू दर्जी कन्हैया की दो मुसलमानों ने हत्या की है, उससे अधिक लोमहर्षक घटना क्या हो सकती है? इस घटना की खबर टीवी चैनलों पर देखकर सारे देश के रोंगटे खड़े हो गए। इसके पहले भी सांप्रदायिक मूढ़ता के चलते कई इसी तरह की छोटी-मोटी घटनाएं कई मजहबी लोग एक-दूसरे के खिलाफ करते रहे हैं, लेकिन यहां असली सवाल यही है कि ऐसा घृणित काम करके ये लोग क्या अपने धर्म या मजहब या संप्रदाय की इज्जत बढ़ाते हैं? बिल्कुल नहीं। ये लोग अपने कुकृत्य के कारण अपने धर्म और अपने धार्मिक महापुरुषों को कलंकित करते हैं।
जिन दो मुसलमान युवकों ने उदयपुर के उस निहत्थे हिंदू दर्जी की हत्या की है, वे इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद के भक्त नहीं, पक्के दुश्मन हैं। दर्जी का दोष यही है कि उसने भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान का समर्थन कर दिया था। अभी तक लोगों को यह पता नहीं है कि प्रवक्ता ने वह बयान क्यों दिया था और उसमें किन शब्दों का प्रयोग किया गया था? सिर्फ कुप्रचार और अफवाहों पर भरोसा करके कोई हत्या-जैसा संगीन अपराध कर दे, इससे क्या संकेत मिलता है?
यदि किसी व्यक्ति ने किसी मजहब या उसके महापुरुष पर उंगली उठाई है तो भी क्या उस व्यक्ति की हत्या उसका सही जवाब है? नहीं। इसका उल्टा है। यदि उस व्यक्ति के गलत तथ्यों को मजबूत तर्कों से काटा जाता तो वह सही जवाब होता। उसकी हत्या करके तो आप उसके द्वारा बोली गई अनर्गल बात को करोड़ों लोगों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं। यह संतोष का विषय है कि अनेक मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम नेताओं ने कन्हैया के हत्यारों की दो-टूक भर्त्सना की है और उन्हें कठोरतम दंड देने की अपील की है। इन हत्यारों को हफ्ते-दो-हफ्ते में ऐसी भयंकर सजा मिलनी चाहिए कि जो सारी दुनिया के लिए सबक बन जाए। यदि कन्हैया को राजस्थान पुलिस की सुरक्षा कुछ दिन और मिली होती तो इस भयानक हादसे से शायद बचा जा सकता था, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हत्यारों को तुरंत पकड़ने और शांति बनाए रखने के लिए काफी मुस्तैदी दिखाई है।
क्या संयोग है कि इधर कन्हैया की हत्या हुई और उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा पर पहुंचे। मुझे आश्चर्य है कि जिन अरब देशों ने भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान को लेकर तूफान खड़ा किया था, अभी तक इस हत्याकांड पर उनकी कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई? यह संतोष का विषय है कि इस हत्याकांड को लेकर भारत का हिंदू समुदाय भयंकर दुखी तो है, लेकिन उसने अभी तक कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं की है। देश के लगभग सभी मुसलमान इस क्रूर हत्याकांड को निदंनीय मानते हैं। यह ऐसा नाजुक मौका है, जब भारत के सभी लोगों को सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले उनके धर्मग्रंथों में कही गई पोगापंथी बातों की उपेक्षा करनी चाहिए और अपने सार्वजनिक जीवन में भारतीय संविधान को सर्वोपरि मानना चाहिए।
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