मालदीव की राजधानी माले में एक अजीब-सा हादसा हुआ। 21 जून को योग-दिवस मनाते हुए लोगों पर हमला हो गया। काफी तोड़-फोड़ हो गई।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।
माले में योग का विरोध क्यों ?
मालदीव की राजधानी माले में एक अजीब-सा हादसा हुआ। 21 जून को योग-दिवस मनाते हुए लोगों पर हमला हो गया। काफी तोड़-फोड़ हो गई। कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। मालदीव में यह योग-दिवस पहली बार नहीं मनाया गया था। 2015 से वहां बराबर योग-दिवस मनाया जाता है। उसमें विदेशी कूटनीतिज्ञ, स्थानीय नेतागण और जन-सामान्य लोग होते हैं।
इन योग-शिविरों में देसी-विदेशी या हिंदू-मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है। इसके दरवाजे सभी के लिए खुले होते हैं। यह योग-दिवस सिर्फ भारत में ही नहीं मनाया जाता है। यह दुनिया के सभी देशों में प्रचलित है, क्योंकि संयुक्तराष्ट्र संघ ने इस योग-दिवस को मान्यता दी है।
मालदीव में इसका विरोध कट्टर इस्लामी तत्वों ने किया है। उनका कहना है कि योग इस्लाम-विरोधी है। उनका यह कहना यदि ठीक होता तो संयुक्तराष्ट्र संघ के दर्जनों इस्लामी देशों ने इस पर अपनी मोहर क्यों लगाई है? उन्होंने इसका विरोध क्यों नहीं किया? क्या मालदीव के कुछ उग्रवादी इस्लामी लोग सारी इस्लामी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं?
सच्चाई तो यह है कि मालदीव के ये विघ्नसंतोषी लोग इस्लाम को बदनाम करने का काम कर रहे हैं। इस्लाम का योग से क्या विरोध हो सकता है? क्या योग बुतपरस्ती सिखाता है? क्या योगाभ्यास करने वालों से यह कहा जाता है कि तुम नमाज़ मत पढ़ा करो या रोजे मत रखा करो? वास्तव में नमाज और रोज़े, एक तरह से योगासन के ही सरल रूप हैं। यह ठीक है कि योगासन करने वालों से यह कहा जाता है कि वे शाकाहारी बनें। शाकाहारी होने का अर्थ हिंदू या काफिर होना नहीं है। कुरान शरीफ की कौनसी आयत कहती है कि जो शाकाहारी होंगे, वे घटिया मुसलमान माने जाएंगे? जो कोई मांसाहार नहीं छोड़ सकता है, उसके लिए भी योगासन के द्वार खुले हुए हैं।
योग का ताल्लुक किसी मजहब से नहीं है। यह तो उत्तम प्रकार की मानसिक और शारीरिक जीवन और चिकित्सा पद्धति है, जिसे कोई भी मनुष्य अपना सकता है। क्या मुसलमानों के लिए सिर्फ वही यूनानी चिकित्सा काफी है, जो डेढ़-दो हजार साल पहले अरब देशों में चलती थी? क्या उन्हें एलोपेथी, होमियोपेथी और नेचरोपेथी का बहिष्कार कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! आधुनिक मनुष्य को सभी नई और पुरानी पेथियों को अपनाने में कोई एतराज क्यों होना चाहिए? इसीलिए यूरोप और अमेरिका में एलोपेथी चिकित्सा इतनी विकसित होने के बावजूद वहां के लोग बड़े पैमाने पर योग सीख रहे हैं, क्योंकि योग सिर्फ चिकित्सा ही नहीं है, यह शारीरिक और मानसिक रोगों के लिए चीन की दीवार की तरह सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम भी है।
पुरानी पेंशन स्कीम ( OPS या Old Pension Scheme) में सरकारी कर्मचारी जिस सैलरी पर रिटायर होंगे उसकी आधी रकम जिंदगी भर पेंशन मिलती रहेगी।
मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।
चुनाव का सीजन शुरू हो गया है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव है, फिर लोकसभा चुनाव। सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम का वादा फिर किया जा सकता है। ऐसे में रिजर्व बैंक ने चेतावनी दी है कि पुरानी पेंशन स्कीम फिर से लागू की गई तो नतीजे बुरे होंगे। सरकार का पेंशन खर्च साढ़े चार गुना बढ़ जाएगा। विकास के लिए पैसे कम बचेंगे। पुरानी पेंशन स्कीम ( OPS या Old Pension Scheme) में सरकारी कर्मचारी जिस सैलरी पर रिटायर होंगे उसकी आधी रकम जिंदगी भर पेंशन मिलती रहेगी। साथ में महंगाई भत्ता भी, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसे बदल डाला।
1 अप्रैल 2004 से नौकरी में आने वाले केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के लिए ये सुविधा बंद कर दी गई। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने भी नई स्कीम लागू कर दी। पुरानी पेंशन को बंद करने का मक़सद था कि सरकार का बोझ कम हो। नई स्कीम में कर्मचारी अपनी सैलरी का दस प्रतिशत पेंशन स्कीम में जमा करता है। सरकार अपनी तरफ से 14 प्रतिशत देती है। ये पैसे नेशनल पेंशन स्कीम (NPS) में जमा होते रहते हैं। कर्मचारी के पास ऑप्शन होता है कि इस पैसे का कितना हिस्सा वो शेयर बाजार में लगाना चाहता है।
ज़्यादा हिस्सा लगाने पर रिस्क ज़्यादा है और रिटर्न भी। अगर फ़िक्स इनकम में लगाया तो रिस्क कम है और रिटर्न भी कम। रिटायर होने पर कर्मचारी अपने खाते से 60% रक़म एकमुश्त निकाल सकता है। इस पर टैक्स नहीं लगता है। बाक़ी बची रक़म को फिर निवेश करना पड़ता है जो सालाना रिटर्न देता रहता है।
नई स्कीम से सरकार फायदे में है लेकिन कर्मचारी घाटे में। एक अनुमान के अनुसार रिटायर होने वाले कर्मचारियों को अपनी आखिरी सैलरी का 38% ही पेंशन मिल रही है। महाराष्ट्र में पुराने स्कीम की मांग करने वाले कर्मचारियों का दावा है कि महीने में दो से पांच हजार रुपये मिल रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पुरानी पेंशन स्कीम की मांग बीजेपी ने नहीं मानी। कांग्रेस और आप ने इसे लागू करने का वादा किया है। ये स्कीम कांग्रेस राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में लागू कर चुकी है। कांग्रेस समर्थित झारखंड सरकार ने लागू कर दिया है जबकि आप ने पंजाब में।
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार के बाद केंद्र सरकार हरकत में आ गईं। केंद्र सरकार ने नई पुरानी पेंशन स्कीम को लेकर कमेटी बना दी। कमेटी की रिपोर्ट नहीं आयी है लेकिन आंध्र प्रदेश फार्मूले पर विचार हो रहा है। इस फार्मूले के तहत सरकार और कर्मचारी हर महीने अपना अपना योगदान पेंशन के लिए देते रहते हैं, सरकार ने 33% सैलरी की गारंटी दे रखी है। मान लीजिए सरकार 40% या 45% की गारंटी दे दें तो उसका खर्च पुरानी पेंशन स्कीम के मुकाबले कम होगा।
सरकार के नजर से देखिए तो सरकारी कर्मचारियों की सैलरी, पेंशन और पुराने कर्ज की अदायगी में उसका बजट खर्च हो जाता है। बाकी बचा पैसा नए काम पर खर्च होता है। केंद्र सरकार का आय 100 रुपये है उसमें से 41 रुपये कर्ज की अदायगी में जाते हैं जबकि 9 रुपये पेंशन पर यानी 50 रुपये का खर्च।
रिजर्व बैंक के अनुसार राज्य सरकारों की हालत ज्यादा खराब है। बिहार, केरल, उत्तर प्रदेश,पंजाब और पश्चिम बंगाल की अपनी आय के 100 रुपये में से 25 से ज़्यादा रुपये पेंशन पर खर्च कर रहे है। पहाड़ी राज्यों और उत्तर पूर्व राज्यों में ये खर्च 40 - 50 रुपये से ज्यादा है। सभी राज्यों सरकारों की आय ₹100 मानी जाएं तो ₹13 पेंशन पर खर्च हो जाते हैं। पेंशन के साथ खर्च में पुराना कर्ज की अदायगी और सरकारी कर्मचारी की सैलरी जोड़ लें तो ये खर्च ₹56 हो जाता है। ये खर्च फिक्स है, हर हाल में देना ही है। सरकार के पास जनता के लिए काम करने के लिए बचे ₹44, सरकार या तो और कर्ज लेंगी या फिर जनता पर होने वाले खर्च में कटौती करेगी।
रिजर्व बैंक ने कहा कि सभी राज्यों में पुरानी पेंशन लागू हो जाएं तो अगले कुछ साल खर्च कम होगा क्योंकि सरकारों को नई पेंशन के लिए अभी अपना हिस्सा नहीं देना होगा। करीब 15 साल बाद खर्च साढ़े चार पांच गुना बढ़ जाएगा। नेताओं को तो अगला चुनाव जीतने से मतलब है, समझना जनता को है कि उसके पैसे का इस्तेमाल किस तरह से किया जाए?
(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)
दिनकर चाहते थे कि उनकी कृतियों की समग्रता में चर्चा हो लेकिन जब सिर्फ उनकी राष्ट्र आधारित कविताओं की चर्चा होती तो वो झुब्ध हो जाते।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, स्तम्भकार।
हिंदी जगत में रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रकवि के रूप में समादृत हैं। द्वारिका राय सुबोध के साथ एक साक्षात्कार में दिनकर ने इस विशेषण को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। जब उनसे पूछा गया कि क्या आलोचकों ने उनके साथ न्याय किया तो उन्होंने साफ कहा कि राष्ट्रकवि के नाम ने मुझे बदनाम किया है। मेरे कवित्व की झांकी दिखलाने का कोई प्रयास नहीं करता। उन्होंने माना था कि कवि की निष्पक्ष आलोचना उसके जीवनकाल में नहीं हो सकती है क्योंकि जीवनकाल में उनके व्यवहार आदि से कोई रुष्ट रहता है और कोई अकारण ईर्ष्यालु हो उठता है।
यह अकारण भी नहीं है कि दिनकर को राष्ट्रकवि कहा जाता है। उनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावनाओं का प्राबल्य है। उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर परशुराम की प्रतीक्षा तक में राष्ट्र को लेकर चिंता दिखाई देती है। स्वयं दिनकर ने भी लिखा है कि लिखना आरंभ करने के समय सारे देश का कर्त्तव्य स्वतंत्रता संग्राम को सबल बनाना था। अपनी कविताओं के माध्यम से वो भी कर्तव्यपालन में लग गए थे। दिनकर की कविताओं में अतीत का गौरव गान भी मुखरित होता है। जब देश स्वाधीन हुआ था तो दिनकर ने ‘अरुणोदय’ जैसी कविता लिखकर स्वतंत्रता का स्वागत किया था। एक वर्ष में ही दिनकर का मोहभंग हुआ और उन्होंने ‘पहली वर्षगांठ’ जैसी कविता लिखकर राजनीतिक दलों की सत्ता लिप्सा पर प्रहार किया।
राष्ट्रकवि के विशेषण से दिनकर के दुखी होने का कारण था कि उनकी अन्य कविताओं और गद्यकृतियों को आलोचक ओझल कर रहे थे। दिनकर के सृजनकर्म में पांच महत्वपूर्ण पड़ाव है। इनको रेखांकित करने के पहले दिनकर के बाल्यकाल के बारे में जानना आवश्यक है। दिनकर ने दस वर्ष की उम्र से ही रामायण और श्रीरामचरितमानस का नियमित पारायण आरंभ कर दिया था। रामकथा और रामलीला में उनकी विशेष रुचि थी। उनपर श्रीराम के चरित्र का गहरा प्रभाव था। किशोरावस्था से ही वो वाल्मीकि और तुलसी की काव्यकला से संस्कारित हो रहे थे।
कालांतर में पराधीनता ने उनके कवि मन को उद्वेलित किया। रेणुका और हुंकार जैसी कविताओं ने उनको राष्ट्रवादी कवि के रूप में पहचान दी। जब कुरुक्षेत्र और के बाद रश्मिरथी का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को चिंतनशील और विचारवान कवि माना गया। कुछ समय बाद जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को इतिहास में संस्कृति और दर्शन की खोज करनेवाला लेखक कहा गया। दिनकर की कलम निरंतर चल रही थी। उर्वशी के प्रकाशन पर तो साहित्य जगत में जमकर चर्चा हुई। दर्जनों लेख लिखे गए, वाद-विवाद हुए। चर्चा में दिनकर को प्रेम और अध्यात्म का कवि कहा गया। 1962 के चीन युद्ध के बाद जब ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ आई तो आलोचकों ने कविता में विद्रोह के तत्वों को रेखांकित करते हुए उनको विद्रोही कवि कह डाला।
दिनकर चाहते थे कि उनकी कृतियों की समग्रता में चर्चा हो लेकिन जब सिर्फ उनकी राष्ट्र आधारित कविताओं की चर्चा होती तो वो झुब्ध हो जाते । दिनकर की कविताओं में वर्णित ओज के आधार पर कुछ आलोचक उनको गर्जन-तर्जन का कवि घोषित कर देते हैं। वो भूल जाते हैं कि ओज के पीछे गहरा चिंतन भी है।
दिनकर की कविता की भाषा एकदम सरल है लेकिन बीच में जिस तरह से वो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करते हैं उससे उनकी कविता चमक उठती है। इस बात पर भी शोध किया जाना चाहिए कि जो दिनकर बाल्यकाल में रामायण और श्रीरामचरितमानस के प्रभाव में थे उन्होने बाद में अपने प्रबंध काव्यों में महाभारत को प्राथमिकता क्यों दी। प्रणभंग, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी तो महाभारत आधारित है। अगर समग्रता में देखें तो दिनकर की कविताओं में समय, समाज, संस्कृति, प्रेम,प्रकृति, राजनीति और राष्ट्रीयता आदि की गाढ़ी उपस्थिति है। यही उनकी काव्य धरा भी है और क्षितिज भी।
(साभार - दैनिक जागरण)
हमारे यहां कहा गया है कि अरे हंस अगर तुम ही पानी और दूध में भेद करना छोड़ दोगे तो दूसरा कौन करेगा।
अवधेश कुमार , वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, स्तम्भकार।
मेरा मानना है कि जो हम तय करते हैं कि उसे हमें करना ही चाहिए। महिला आरक्षण विधेयक के लिए विशेष सत्र बुलाकर नए संसद भवन की शुरुआत करना एक बड़ा संदेश है न सिर्फ भारत के लिए बल्कि विश्व के लिए। जो आप (विपक्ष) ने आज तक नहीं किया, उसे अगर मौजूदा सरकार करा पाती है तो यह उसकी प्रतिबद्धता दर्शाता है।
हमारे यहां पुरुष देवों से ज्यादा स्त्री देवियों की संख्या है, लेकिन काल खंड में धीरे-धीरे महिलाएं पीछे होती गईं। मैं निजी तौर पर मानता हूं कि समाज के वंचित तबके को आगे लाने के लिए सरकार को विशेष व्यवस्थाएं करनी चाहिए, लेकिन यह एक निश्चित कालखंड के लिए होनी चाहिए।
जो पार्टियां आलोचना कर रही हैं कि तत्काल इसे क्यों नहीं लागू किया क्या, वह अगले चुनाव से अपनी पार्टी से 33 फीसदी महिलाओं को टिकट देंगी। बीते कई वर्षों से परिसीमन से सरकारें बचती रही हैं। मेरा मानना है कि विरोध करने वाले इतिहास में अपना नाम अंकित कराने से चूक गए हैं।
मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि महिलाओं में पुरुषों से काम करने की क्षमता बहुत ज्यादा है। अगर महिलाएं किसी क्षेत्र में आएंगी तो उसमें आपको एक बड़ा बदलाव दिखेगा। हमारे यहां कहा गया है कि अरे हंस अगर तुम ही पानी और दूध में भेद करना छोड़ दोगे तो दूसरा कौन करेगा।
या यूं कहें कि अगर बुद्धिमान व्यक्ति अपना काम करना छोड़ देगा तो दूसरा कौन करेगा। जो लोग आरक्षण में ओबीसी महिलाओं के लिए कोटे की बात कर रहे हैं, वो सिर्फ राजनीति कर रहे हैं। क्या कांग्रेस जो बिल लेकर आई थी उसमें पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था थी? क्या समाजवादी राजनीति करने वाले दलों के गठबंधन संयुक्त मोर्चा सरकार के बिल में ऐसा कुछ था?
(यह लेखक के निजी विचार हैं )
कोई भी सरकार होती, महिला आरक्षण बिल को संसद से पास करवाकर तुरंत लागू करना संभव नहीं था। विपक्ष सरकार की मजबूरियां समझता है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ ।।
लोकसभा में नेताओं के बयान सुनेंगे, तो साफ हो जाएगा कि महिला आरक्षण लागू करना कितना मुश्किल काम था, ये मामला 27 साल से क्यों लटका था। मोदी सरकार ने जो बिल पेश किया है, उसमें कहा गया है कि नारी शक्ति वंदन बिल संसद में पास होने के बाद जनगणना होगी, फिर परिसीमन आयोग बनेगा। वही आयोग तय करेगा कि लोकसभा और विधानसभाओं की कौन-कौन सी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। बिल के इसी प्रावधान को विरोधी दलों के नेताओं ने पकड़ा, सरकार की नीयत पर सवाल उठाए।
कहा कि अगर सरकार की मंशा साफ है तो महिलाओं को तुरंत आरक्षण क्यों नहीं देती, इसमें देर करने की क्या जरूरत है। परिसीमन आयोग के नाम पर इस मामले को 2029 तक लटकाने की क्या जरूरत है? बिल पास होते ही महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता? जवाब में अमित शाह ने साफ शब्दों में कहा कि परिसीमन और सीटों का आरक्षण एक संवैधानिक प्रक्रिया है, और सरकार इसमें दखलंदाजी नहीं कर सकती। अमित शाह ने ये लेकिन जरूर कहा कि मोदी सरकार किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होने देगी। विरोधी दल भी अच्छी तरह जानते और समझते हैं कि कोई भी सरकार होती, महिला आरक्षण बिल को संसद से पास करवाकर तुरंत लागू करना संभव नहीं था। विपक्ष सरकार की मजबूरियां समझता है।
संविधान के मुताबिक, परिसीमन 2026 से पहले नहीं हो सकता। संविधान में ये भी कहा गया है कि परिसीमन जनगणना के बाद ही होगा। परिसीमन आयोग ही लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की नई संख्या तय करेगा और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें तय करना भी परिसीमन आयोग की जिम्मेदारी होगी। इसलिए ये सरकार की मजबूरी है कि 2026 से पहले कुछ नहीं कर सकती। अब तक तीन बार सीटों का परिसीमन हुआ है। तीनों बार कांग्रेस की सरकारें थी। इसलिए कांग्रेस के नेता ये बात अच्छी तरह जानते हैं। इसके बाद भी सोनिया गांधी समेत सभी विरोधी दलों के नेता कह रहे हैं कि सरकार की मंशा साफ नहीं है। ये समझने की जरूरत है कि आखिर आज सभी विरोधी दलों के नेता पिछड़े वर्ग की महिलाओं और जातिगत जनगणना की बात क्यों कर रहे हैं।
असल में विरोधी दलों को लगता है कि विकास के नाम पर मोदी को हराना मुश्किल है, गरीब कल्याण योजनाओं के मुकाबले में भी वो नहीं ठहरेंगे, मोदी पर भ्रष्टाचार का इल्जाम भी नहीं लगा सकते। हिन्दू-मुसलमान की बात करके भी मोदी को नहीं घेर सकते। तो अब एक ही रास्ता बचता है, जाति का मुद्दा उठाया जाए। विरोधी दलों को लगता है कि वोट बैंक के लिहाज से पिछड़े वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है, इसलिए जातिगत जनगणना की बात करके पिछड़ों को भड़काया जाए। इसीलिए नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना का मुद्दा उछाला। मोदी विरोधी मोर्चे की सारी पार्टियों को पूरा गणित समझाया, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी’ का नारा दिया। अखिलेश यादव तो पहले ही PDA को जीत का फॉर्मूला बताते हैं।
PDA का मतलब है, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक। अब कांग्रेस को भी ये बात समझ आ गई। इसीलिए राहुल और सोनिया गांधी ने भी जातिगत जनगणना की मांग की। लेकिन ये नरेन्द्र मोदी की चतुराई है कि तमाम विरोध और सवालों के बाद भी उन्होंने सभी विरोधी दलों को महिला आरक्षण बिल का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया ।और ये बिल लोकसभा में बिना किसी विरोध के पास हुआ। इस बिल का समर्थन 454 सांसदों ने किया। सिर्फ दो सासदों ने इस बिल का विरोध किया। एक असदुद्दीन ओबैसी और दूसरे उन्हीं की पार्टी के सांसद इम्तियाज जलील। उनका विरोध का कारण था, मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं दिया गया। ओवैसी ने आरोप लगाया कि महिला आरक्षण बिल सिर्फ सवर्ण जातियों को फायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है।
असल में कोई भी पार्टी देश की आधी आबादी को नाराज करने का जोखिम नहीं ले सकती। सबने अपना सियासी फायदा देखा लेकिन सबने इल्जाम लगाया कि नरेंद्र मोदी ये कानून राजनीतिक मकसद से लाए हैं। लेकिन अमित शाह ने बताया कि मोदी का महिला कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता कोई आज का नहीं है। अमित शाह ने जो बताया उसे समझने की जरूरत है। मोदी जब बीजेपी के संगठन में थे तो उन्होंने पार्टी से ये प्रस्ताव पास करवाया था कि बीजेपी के पदाधिकारियों में एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाय। गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तो जो भी उपहार उन्हें मिलते थे, उनकी हर साल नीलामी होती थी और नीलामी से आने वाला पैसा गरीब लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च किया जाता। जिस दिन मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ा, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर जितनी भी सैलरी मिली थी, वो सारी उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए दान कर दी।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने महिलाओं के लिए शौचालय बनाने का बड़ा फैसला किया और इसका जिक्र कई बार हुआ है कि कैसे शौचालय बनने से महिलाओं की रोज़ की दिक्कतें कम हुई, उनकी सेहत और सुरक्षा दोनों सुनिश्चित हुई। इसी तरह मोदी ने चूल्हे की आग से होने वाले धुएं पर ध्यान दिया। इस त्रासदी से महिलाओं को बचाने के लिए उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन दिए। नल से जल योजना भी महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई क्योंकि गांव-देहात में महिलाओं की आधी ज़िंदगी पानी भरने में गुजर जाती थी।मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक का कानून बनाया ।
अगर इस पृष्ठभूमि को देखें तो मोदी पर ये आरोप सही नहीं बैठता कि वह महिलाओं की चिंता सिर्फ चुनाव से पहले करते हैं। ये कहना कि महिला आरक्षण बिल सिर्फ उनके वोटों के लिए लाया गया, कमजोर तर्क है। एक बात मैं फिर कहना चाहता हूं कि कोई भी नेता, कोई भी पार्टी अगर लोक कल्याण के काम करके वोट मांगना चाहती है तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। महिला आरक्षण का कानून बनने से महिलाओं को देश की सत्ता में भागीदारी मिलेगी। लोकसभा औऱ विधानसभाओं में उनकी संख्या बढ़ेगी, उनके अधिकार बढेंगे, उनका मान बढ़ेगा। ये एक ऐसा फैसला है जिसका सबको स्वागत करना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
27 साल और कई असफल प्रयासों के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी और फिर डॉ. मनमोहन सिंह के बाद, महिला आरक्षण आखिरकार एक वास्तविकता है।
मारिया शकील, एग्जिक्यूटिव एडिटर (नेशनल अफेयर्स) एनडीटीवी
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत ने महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें (33%) आरक्षित करने का कानून बनाकर इतिहास रचा है। इस पर 1996 से काम चल रहा है, जब एचडी देवेगौड़ा ने पहली बार विधेयक पेश किया था। 27 साल और कई असफल प्रयासों के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी (4 प्रयास) और फिर डॉ. मनमोहन सिंह (2 प्रयास) के बाद, महिला आरक्षण आखिरकार एक वास्तविकता है, इसके लागू होने के 15 साल बाद तक यह रहेगा।
भारत में, स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन से ही महिलाओं को मतदान का अधिकार देने, एक महिला प्रधानमंत्री, कई मुख्यमंत्रियों, संघीय और राज्य दोनों स्तरों पर मंत्रियों को चुनने के बावजूद, लोकसभा और यहां तक कि विधानसभाओं में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं था। यह सब तब बदल गया जब पीवी नरसिम्हा राव ने 1992-93 में एक कानून पारित किया, जिसमें ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई पद आरक्षित किए गए।
आज, 15 लाख से अधिक महिलाएं जमीनी स्तर पर निर्वाचित होती हैं और शासन तंत्र में योगदान देती हैं। ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएई, यूके और स्वीडन सहित 107 देशों ने सरकार में महिलाओं के लिए कोटा आरक्षित किया है। भारत भी इस सूची में शामिल हो गया है।
India, the world’s largest democracy, has scripted history by enacting a Law to reserve one third of seats (33%) for women.
— Marya Shakil (@maryashakil) September 21, 2023
It has been in the works since 1996, when HD Deve Gowda moved the Bill for the first time. 27 years and several failed attempts later, by both Atal Bihari…
दिलचस्प बात यह है कि रवांडा, क्यूबा, मैक्सिको, न्यूजीलैंड और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों में निचले सदनों में महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक 50% या उससे अधिक है। हालाँकि, 185 में से 134 देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33% से कम है। और 91 देशों में महिलाओं की भागीदारी 25% से कम है।
भारत में लगभग 15% है। वह सब अब बदलने के लिए तैयार है। जनगणना और परिसीमन के बाद, जब महिला आरक्षण लागू होगा, तो भारत 33% महिला विधायकों को चुनेगा, जिनकी नीति निर्माण में निर्णायक भूमिका होगी।
इस प्रगतिशील कानून का श्रेय निस्संदेह पीएम मोदी को जाता है, जिन्होंने लंबे समय से लंबित विधेयक को साकार करने के लिए अपने पूर्ण जनादेश की शक्ति का लाभ उठाया है। महिला सशक्तिकरण के नये अध्याय का बीजारोपण हो चुका है।
( यह लेखिका के निजी विचार हैं )
अब तो राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ लगी है कि वो महिलाओं को आरक्षण देने के लिए कितने बेताब हैं।
रजत शर्मा, चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।
गणेश चतुर्थी के पवित्र मौके पर देश के नये संसद भवन का श्रीगणेश हुआ और विघ्नहर्ता विनायक ने महिला आरक्षण के रास्ते की सारी बाधाएं भी दूर कर दी। पहले ही दिन महिला आरक्षण बिल पेश किया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के नीति निर्माताओं में महिलाओं को उनका वाजिब हिस्सा देने का ऐलान किया। मोदी ने कहा कि उनकी सरकार लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की तैंतीस प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित करेगी। महिला आरक्षण के लिए जो बिल पेश किया गया है, उसका नाम है, नारी शक्ति वंदन अधिनियम। कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने बिल लोकसभा में पेश किया। बुधवार को लोकसभा में दिन भर महिला सांसदों ने बढ चढ़कर बहस में भाग लिया। अब ये तय है कि ये विधेयक संसद के दोनों सदनों में लगभग सर्वसम्मति से पारित हो जाएगा। संविधान संशोधन होने के कारण इसे आधे से ज्यादा राज्य विधानसभाओं में पास कराना होगा।
उसके बाद गनगणना होगी, और फिर परिसीमन का कार्य होगा, और तभी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित हो पाएंगी। अब महिला आरक्षण का विरोध मुद्दा नहीं, अब तो राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ लगी है कि वो महिलाओं को आरक्षण देने के लिए कितने बेताब हैं। अब सब यही कह रहे हैं कि महिला आरक्षण का तो वो शुरू से समर्थन कर रहे थे। मोदी ने कहा कि ये ईश्वर की इच्छा है, ईश्वर की कृपा है कि लंबे समय से लटके, बड़े बड़े मुद्दों को, बड़े बड़े कामों के लिए भगवान ने उन्हें ही चुना है। अब ये साफ दिख रहा है कि महिला आरक्षण पर अब श्रेय लेने की होड़ शुरू हो गयी है। सब ये कह रहे हैं कि ये बिल मेरा है। जो बिल पेश किया गया उसमें साफ कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं के साथ साथ केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली की विधानसभा में भी महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें रिजर्व की जाएगी।
अनुसूचित जाति, जनजाति की जो सीटें आरक्षित हैं, उनमें भी एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। फिलहाल लोकसभा की 543 सीटों में से 181 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हो जाएंगी। इस 181 में से 28 सीटें अनुसूचित जाति और 15 सीटें अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होगी। जब संसद की सीटों का परिसीमन होगा, तो महिलाओं के लिए रिज़र्व सीटों की संख्या और बढ़ जाएगी। पहले आरक्षण 15 साल के लिए लागू होगा। पंद्रह साल बाद इसकी समीक्षा होगी और महिलाओं के लिए रिज़र्व सीटों को रोटेट किया जाएगा।
इसमें तो कई शक नहीं है कि आरक्षण लागू होने के बाद देश के फैसलों में महिलाओं की भूमिका अहम होगी, महिलाओं की ताकत बढ़ेगी, इसीलिए देश की आधी आबादी में इस विधेयक लेकर जबरदस्त उत्साह और जोश है। और यही वजह है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रही है। महिला आरक्षण बिल की आलोचना करने वाले कई तरह की बातें कह रहे हैं। किसी ने कहा कि ये बिल वोटों के लिए लाया गया। महिलाएं मोदी को वोट दें, इसीलिए ये कानून बनाया जा रहा है। मेरा कहना है कि इसमें तकलीफ किस बात की है? क्या राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए नहीं बनते? क्या पार्टियां वोट पाने के लिए काम नहीं करती? और अगर कोई अच्छा काम करके, महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर वोट मांगता है, तो इसमें बुरा क्या है?
कांग्रेस भी जो दावा कर रही है कि ऐसा बिल पहले वो लेकर आई थी, ममता बनर्जी अगर कहती हैं कि ये उनका आइडिया था, तो ये सब भी तो वोटर का दिल जीतने के लिए कह रहे हैं। कुछ Cynics कहते हैं कि आरक्षण से कुछ नहीं होगा। पंचायतों में भी 50 प्रतिशत आरक्षण है। महिलाएं चुनाव जीततीं हैं, लेकिन पति उनके नाम पर पंचायत चलाते हैं। गाड़ी पर लिखते हैं ‘पति सरपंच’, लेकिन ये पुराने जमाने की बातें हैं। अब वक्त बदल गया है। अगर आंकड़े देखें, तो पत्नी के नाम पर पंचायत चलाने वाले मामले अब गिने चुने है।
ज्यादातर जगहों पर महिलाएं पंचायत चलाती हैं, फैसले लेती हैं और लोकसभा और विधानसभा में जो महिलाएं चुन कर आईं, वहां एक भी ऐसा मामला नहीं मिला, जहां महिलाओं ने स्वतंत्र हो कर अपना काम ना किया हो। ये महिलाएं सशक्तिकरण की मिसाल हैं। एक तर्क ये दिया जा रहा है कि कानून तो बन जाएगा, पर इसे लागू करने में कई साल लग जाएंगे, जनसंख्या की गिनती होगी, फिर सीटों का परिसीमन होगा। तब कहीं जाकर ये कानून लागू हो पाएगा। मेरा कहना ये है कि महिला आरक्षण कानून का इरादा सिर्फ इसीलिए तो नहीं छोड़ा जा सकता कि इसमें वक्त लगेगा। महिलाओं ने 27 साल इंतजार किया है। अब कम से कम ये प्रॉसेस तो शुरू होगा और मोदी का पिछले साढे़ 9 साल का रिकॉर्ड बताता है कि वो हर काम को जल्दी करने का रास्ता निकाल लेते हैं।
मुझे लगता है कि छोटी मोटी बातों के फेर में न पड़कर सबको मानना चाहिए कि आज का दिन नारी शक्ति के लिए ऐतिहासिक है। एक अच्छा कानून बन रहा है। ज्यादा महिलाओं को कानून बनाने वालों में शामिल किया जाए और फिर दुनिया देखेगी कि भारत की नारी, भारत की तकदीर कैसे बदलती है। इसीलिए राजनीतिक पार्टियां भले ही महिला आरक्षण को लेकर अपने अपने हिसाब से बात कर रही हों, लेकिन देश की महिलाओं को इसकी कोई चिन्ता नहीं है क्योंकि जैसे ही संसद में नारी शक्ति वंदन विधेयक पेश हुआ, देश भर में महिलाओं ने जश्न मनाया।
( यह लेखक के निजी विचार हैं)
ताजा घटनाक्रम के चलते कनाडा ने भारतीय दूतावास के राजनयिक पवन कुमार राय को निष्कासित कर दिया है।
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।
कोई देश जब अपना अयोग्य मुखिया चुनता है ,तो फिर उसकी गाड़ी पटरी से उतर जाती है। विकास की रफ्तार थम जाती है, समाज में सदभाव नहीं रहता और मौजूदा समस्याओं से निपटने में मुल्क नाकाम रहता है। जब तक नागरिकों को इस हक़ीक़त का पता चलता है,तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का उदाहरण सामने है। शी जिन पिंग जिस रास्ते पर अपने राष्ट्र को ले जा रहे हैं ,वह भी एक तरह से आत्मघाती है।पाकिस्तान के कई शासक अपनी जिद और स्वार्थ के चलते वहाँ के राष्ट्रीय हितों के साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। कुछ कुछ इसी तर्ज़ पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो काम कर रहे हैं।वे अपने देश में नाक़ारा प्रधानमंत्री के तौर पर पहचान बना चुके हैं और अब
कनाडा में ही उनका व्यापक विरोध शुरू हो गया है। अपनी असफलताओं से ध्यान बँटाने के लिए ट्रुडो उन हरकतों पर उतर आए हैं, जो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में गरिमावान नहीं मानी जातीं। ताजा घटनाक्रम के चलते कनाडा ने भारतीय दूतावास के राजनयिक पवन कुमार राय को निष्कासित कर दिया है। (जवाबी कार्रवाई में भारत ने भी कनाडा के एक राजनयिक को देश छोड़ने का आदेश दिया है) कनाडा की ओर से कहा गया है कि जून में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद जांच के लिए यह जरूरी हो गया था।
निज्जर खालिस्तान समर्थक थे और भारत में आतंकवादी समूहों को उकसाते थे। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में एक गुरुद्वारे के सामने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। जांच अभी जारी है और जस्टिन ट्रुडो साफ कहते हैं कि इसके पीछे भारत का हाथ है। अपनी संसद में उन्होंने कहा, "हमारी जमीन पर कनाडाई नागरिक की हत्या के पीछे विदेशी सरकार का होना नामंजूर है। यह हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है।उन नियमों के विरुद्ध है ,जिसके तहत लोकतान्त्रिक समाज चलते हैं "। इस भाषण का समर्थन कर सकते हैं,लेकिन जस्टिन ट्रुडो को बताना होगा कि कनाडाई नागरिक उनके जैसे ही संप्रभु और आजाद लोकतांत्रिक देश भारत को तोड़ने की साजिश में शामिल क्यों होते हैं ? यह भी पूछा जाना चाहिए कि कनाडाई निवासी भारतीय दूतावास पर हमले क्यों करते हैं? यह भी सवाल है कि कनाडाई सिख ,अन्य कनाडाई नागरिकों के पूजा स्थलों पर हमले क्यों करते हैं ? तब कनाडा के आजाद लोकतांत्रिक समाज की अवधारणा कहां गुम हो जाती है?
पूछा जाना चाहिए कि वर्षों तक कनाडा की धरती से जगजीत सिंह चौहान ने भारत के ख़िलाफ़ खालिस्तानी आंदोलन कैसे चलाया ? क्या यह एक संप्रभु राष्ट्र का दूसरे संप्रभु राष्ट्र के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं था? भारत में तब इंदिरा गांधी जैसी सर्वशक्तिमान नेत्री हुआ करती थी। उस समय जगजीत सिंह चौहान को पूरी स्वतंत्रता क्यों कनाडा देता रहा? कनाडा और अमेरिका पाकिस्तान के रास्ते पंजाब के उग्रवादियों को हथियार भेजते रहे हैं। यह तथ्य छिपा नहीं है। जस्टिन ट्रुडो से जानने का हिंदुस्तान को हक़ है कि कनाडाई नागरिकों ने इंडियन एयरलाइन्स के विमान में धमाका किया था, जिससे 329 बेकुसुर मुसाफिर मारे गए।
इस मामले में दो कनाडाई आतंकवादी रिहा कर दिए गए थे। कुछ की हत्या हो गई थी। एक को झूठी गवाही का दोषी माना गया था। तब किसी के विरुद्ध वहाँ की सरकार ने कार्र्रवाई क्यों नहीं की? उस समय कनाडा को भारत की संप्रभुता की चिंता क्यों नहीं हुई ? भारत के इन सवालों का कनाडाई प्रधानमंत्री के पास कोई उत्तर नहीं होगा ,लेकिन उन्हें विश्व समुदाय को यह जवाब जरूर देना होगा कि उनके लोकतंत्र में नागरिकों के साथ दो तरह के व्यवहार क्यों किए जाते हैं? जिस लोकतंत्र की दुहाई वे देते हैं ,वह सिर्फ़ उन्ही पर लागू क्यों होता है? जब वे कहते हैं कि भारत कनाडा के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है तो वे भूल जाते हैं कि किसान आंदोलन के दरम्यान उन्होंने कैसे बयान दिए थे।
जस्टिन ट्रुडो इस बयान तक ही सीमित रहते, बल्कि भारत के साथ मुक्त व्यापार की दिशा में बढ़े कदम भी वापस खींच लेते हैं।
यह निर्णय जस्टिन ट्रुडो ने समूह - बीस की बैठक के दौरान भारतीय पक्ष की ओर से खालिस्तानी आंदोलन को कनाडा की सरकार के समर्थन का मुद्दा उठाए जाने के फ़ौरन बाद लिया। उनका विमान ख़राब हो गया। उन्होंने सदभावना पूर्वक भारतीय विमान उपलब्ध कराने की पेशकश को ठुकरा दिया। वे रूठे हुए दो दिन तक होटल में बैठे रहे। जब उनके विमान को ठीक करने वाला मैकेनिक कनाडा से आ गया और उसने विमान ठीक कर दिया तो जस्टिन कनाडा गए। उनके जाते ही वहां का वाणिज्य मंत्रालय औपचारिक ऐलान करता है कि द्विपक्षीय उन्मुक्त व्यापार की बातचीत रोक दी गई है। यक़ीनन यह जस्टिन की अपरिपक्वता और कूटनीतिक नासमझी का नमूना है। क्या कनाडा के प्रधानमंत्री भूल गए कि भारत में उनके देश की 600 से अधिक कंपनियां कारोबार कर रही हैं। दोनों मुल्क़ों के बीच पिछले साल चार अरब डॉलर का आयात और इतना ही निर्यात हुआ। यह बंद होने से भारत तो झटके को बर्दाश्त कर सकता है, लेकिन सिर्फ चार करोड़ की आबादी वाले कनाडा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है।
भारत की जनसंख्या का केवल तीन फ़ीसदी आबादी वाला देश भारत को आँखें दिखा रहा है तो इसके पीछे किसी न किसी तीसरी ताक़त का हाथ होने की आशंका को नकारा नहीं जा सकती ।क्या भूल जाना चाहिए कि अमेरिकी रवैया भारत की कश्मीर नीति के विरोध में रहा है। राष्ट्रपति जो बाइडेन तथा उप राष्ट्रपति कमला हैरिस इस मुद्दे पर हिन्दुस्तान के कट्टर आलोचक रहे हैं।पंजाब और कश्मीर के आतंकवादियों को बरास्ते पाकिस्तान कनाडा तथा अमेरिकी मदद मिलती रही है। ऐसे में कनाडा का यह व्यवहार अप्रत्याशित नहीं है।भारत के लिए यह अतिरिक्त सावधानी का समय है।
(लोकमत से साभार)
हैरानी इस बात की है कि चुनाव राजस्थान में हो या छत्तीसगढ़ में लेकिन वहां की सरकारें मध्य प्रदेश के अखबारों में अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही हैं।
मनोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार ।।
चुनाव की आहट के साथ ही विकास की चर्चा आरंभ हो जाती है। भारतीय लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक सामान्य स्थितियों में प्रत्येक पांच वर्ष में चुनाव होता है, लेकिन कई बार स्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण चुनाव समय से पहले हो जाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों की बात छोड़ दें तो सामान्य परिस्थितियों में होने वाले चुनाव के एकाध साल पहले सत्तासीन सरकारें आम आदमी के सामने विकास का ढिंढोरा पीटने लगती हैं। हिन्दी प्रदेश मध्य प्रदेश सहित छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अगले तीन माह के भीतर चुनाव होना है और इसे होने को अपने पक्ष में बदलने के लिए विकास की ज्ञानगंगा विज्ञापनों की सूरत में आम आदमी तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। अपनी-अपनी पार्टियों के विचारधारा को पीछे छोड़कर सबके सामने एक ही मुद्दा है कि हमने विकास की गंगा बहा दी है। इस विकास की गंगा में सत्ता से बाहर बैठे विपक्षी दल भी सत्ता दल को चुनौती के अंदाज में कह रहा है- 'मेरी कमीज, तेरी कमीज से सफेद कैसे?
आने वाले चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा और कौन सी पार्टी को जनता सिंहासन सौंपने वाली है, इसका उत्तर समय के गर्भ में हैं, लेकिन युद्ध और प्रेम में सब जायज है कि तर्क पर चुनाव में भी इसे तर्कसिद्ध किया जा रहा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में होने वाले चुनाव में सबसे ज्यादा चुनौती मध्य प्रदेश के सामने है। हालांकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य की सत्तासीन दल के लिए भी आसान नहीं है। इम्पैक्ट फीचर और विज्ञापनों के जरिए जो उपलब्धियां बतायी जा रही हैं, वह कितने लोगों को लुभा पाएंगी, इस पर रिसर्च करने की जरूरत है। जिस देश में साक्षरता का प्रतिशत न्यूनतम हो, वहां छपे शब्दों से लोग सरकार की योजनाओं को जान लें, थोड़ा कठिन सा विषय है। हैरानी इस बात की है कि चुनाव राजस्थान में हो या छत्तीसगढ़ में लेकिन वहां की सरकारें मध्य प्रदेश के अखबारों में अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही हैं। आखिर मध्य प्रदेश के मतदाताओं को इन राज्यों की उपलब्धियों से क्या लेना-देना, लेकिन राजनीति की समझ रखने वाले इसे मतदाताओं पर मानसिक दबाव बनाने की एक प्रक्रिया मानते हैं। वे इस प्रकार समझाते हैं कि मध्य प्रदेश सहित भाजपा शासित राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम एक बड़ा मुद्दा है और नीतिगत कारणों से इन राज्यों में लागू ना हो सके लेकिन कांग्रेस शासित राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू है और जब ऐसे विज्ञापन मध्य प्रदेश के अखबारों में छपते हैं तो मतदाताओं के मन पर इसका असर होता है। यह और बात है कि इसका मतदान पर कितना क्या असर होता है या नहीं, इसके आंकलन का कोई आधार नहीं है।
पंजाब में विकास कितना और क्या हो रहा है, का गुणगान करती पंजाब सरकार भी एक अंतराल में मध्य प्रदेश की मीडिया में विज्ञापन दे रही है। पंजाब सरकार के इस कदम के बारे में राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि इन विज्ञापनों के माध्यम से मतदाताओं पर मानसिक दबाव बनाकर मध्य प्रदेश में आम आदमी पार्टी के लिए जमीन तलाश करना है। हालांकि इन विज्ञापनों में मध्य प्रदेश के लिए आम आदमी पार्टी का कोई रोडमैप स्पष्ट नहीं दिखता है। राजनीतिक विश्लेषक इस बात को भी गंभीरता से लेते हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार करीब नौ वर्षों से दिल्ली में है लेकिन वहां के विकास कार्यों का कोई विज्ञापन मध्य प्रदेश की मीडिया में नहीं दिख रहा है। दिल्ली के स्थान पर पंजाब को वजनदारी देने को लेकर कयास लगाये जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी का स्थानीय निकाय में हस्तक्षेप हुआ है और सिंगरौली नगर निगम में आप की मेयर काबिज हैं। लेकिन विधानसभा चुनाव में आप पार्टी क्या वोटों का समीकरण बिगाडऩे का काम करेगी या स्वयं की मजबूत जमीन बना पाएगी, यह समय तय करेगा।
मध्य प्रदेश में लम्बे समय से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। बीच के 18 महीने की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल को छोड़ दें तो करीब-करीब 23 वर्षों से भाजपा की सरकार है। इसमें भी शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में 20 वर्षों से सरकार सत्तासीन है। स्वाभाविक है कि सरकार इतने लम्बे समय से सत्ता में है तो उसके पास गिनाने लायक उपलब्धियों का जखीरा भी होगा। इस मामले में आप निरपेक्ष होकर आकलन करें तो मध्य प्रदेश की ऐसी कई योजनाएं हैं जिनका अनुगामी दूसरे राज्य बने हैं। लोकसेवा गारंटी योजना एक ऐसी योजना है जो प्रशासन को कार्य करने के लिए समय का पाबंद करती है। मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना एक ऐसी योजना है जो राज्य के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करती है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सूझबूझ के साथ इस योजना को लागू कर स्वयं को प्रदेश के बुर्जुगों का श्रवण कुमार के रूप में स्थापित कर दिया। लाडली लक्ष्मी योजना ने तो जैसे शिवराज सिंह के मामा होने की छवि को मजबूती के साथ स्थापित किया। किसान, निर्धन, आदिवासी और लगभग हर समुदाय-वर्ग के लिए योजनाओं का श्रीगणेश किया, जिससे उनकी सरकार की छवि एक कल्याणकारी राज्य की बनी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं ऐसी सादगी से रहते हैं कि हर कोई उन्हें अपना मानता है। वे नवीन योजना समय की जरूरत के अनुरूप लाते हैं और विरोधियों का मुंह बंद कर देते हैं। तिस पर वे अपनी इन योजनाओं को कभी मास्टर स्ट्रोक नहीं माना बल्कि वे इसे अपने परिवार की जरूरत के रूप में देखा। हालिया लाडली बहना स्कीम ने तो विरोधियों की नींद उड़ा दी है। बच्चियों के मामा, बुर्जुगों के श्रवण कुमार बने शिवराज सिंह अब लाडली बहनों के लाडले भाई बन गए हैं।
मध्य प्रदेश के चुनाव में मुख्य विरोधी दल कांग्रेस के वायदों को ना केवल उड़े बल्कि उनके वायदे से अधिक देने की कोशिश की है। फौरीतौर पर लोगों की राय में शिवराज सिंह सरकार का कार्यकाल संतोषजनक है लेकिन शिकायत यह है कि लम्बे समय तक काबिज नहीं रहना चाहिए। वे सरकार की सूरत बदलते देखना चाहते हैं। जो राजनीतिक परिदृश्य दिख रहा है, उससे यह हवा बन रही है कि कांग्रेस वापसी की तैयारी में है। यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि कौन आएगा और कौन जाएगा लेकिन चुनाव के करीब आते-आते माहौल गर्म हो रहा है। सत्ताधारी पार्टी के साथ यह होता ही है कि उन्हीं के लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं। जो हाल मध्य प्रदेश में दिख रहा है, उससे अलग स्थिति छत्तीसगढ़ और राजस्थान की नहीं है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल वर्सेस सिंहदेव हैं तो राजस्थान में गहलोत वर्सेस पायलट की राजनीति सरेआम है जिसमें विरोध का पक्ष बड़ा है।
साल 23 जाते जाते तय हो जाएगा कि कौन जाएगा और कौन रहेगा, लेकिन यह तय है कि साल 24 से जो भी सत्तासीन होगा अपने एजेंडा और विचारधारा के अनुरूप सरकार चलाएगा। विकास की बातें होंगी लेकिन वह प्राथमिकता में नहीं रहेगी। विकास की गंगा का मुंह मोड़ दिया जाएगा, तब तक के लिए जब तक फिर जनता-जर्नादन की जरूरत ना हो। हालांकि देश के मुखिया से लेकर हर नागरिक इस फ्री सेवा को रेवड़ी मानकर चल रहा है और विरोध की मुद्रा में भी है लेकिन बातें हैं बातों का क्या? मान लेना चाहिए कि प्रेम, युद्ध और चुनाव में सब जायज है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और शोध पत्रिका 'समागम' के संपादक हैं)
एक सप्ताह से चुप था। कुछ टीवी न्यूज एंकरों पर विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' (I.N.D.I.A) ने अपनी ओर से जो पाबंदी लगाई हैं, उसका प्रबंधन और संपादकों पर असर देखना चाहता था।
एंकरों के शो में नहीं जाने का फैसला, यह तो होना ही था!
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
एक सप्ताह से चुप था। कुछ टीवी न्यूज एंकरों पर विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' (I.N.D.I.A) ने अपनी ओर से जो पाबंदी लगाई हैं, उसका प्रबंधन और संपादकों पर असर देखना चाहता था। अंततः पाया कि चैनलों के नियंताओं के कान पर जूं भी नहीं रेंगी। ‘इंडिया’ यानी छब्बीस पार्टियों की लोकतांत्रिक आवाज।
यह सरासर भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र का अपमान है। चौथा स्तंभ क्या प्रतिपक्ष की इतनी उपेक्षा कर सकता है? नहीं। उसे इस मुल्क का आईन इजाजत नहीं देता। यदि वे असहमति के सुरों की रक्षा नहीं कर सकते तो फिर इस देश की जम्हूरियत को बचाने के अनुष्ठान में कैसे शामिल हो सकते हैं? पत्रकारिता का इतना क्रूर और वीभत्स रूप तो कभी नहीं देखा।
मैंने ‘मिस्टर मीडिया’ के कम से कम पचास स्तंभों में महामारी फैलाने के लिए पत्रकारिता के इस वर्ग को आगाह किया है। उसकी भी अनदेखी की गई। यही नहीं, इस मुद्दे पर टीवी मीडिया की नामीगिरामी संस्थाओं की चुप्पी परेशान करने वाली है। पत्रकारिता प्रमुखों की खामोशी दुखी करती है, प्रबंधन का रवैया आक्रोश पैदा करता है और समाज की ओर से कोई स्वर का नहीं उठना भी उद्वेलित करता है।
कुछ समय पहले मैंने अपने स्तंभ में लिखा था, ‘यदि पूर्वजों की ओर से स्थापित आचार संहिता के बुनियादी सिद्धांतों का हम पालन नहीं करते तो एक दिन वह भी आएगा, जब समाज और देश इस पत्रकारिता को खारिज कर देगा। पत्रकारिता के इतिहास में वह बेहद कलंकित अध्याय होगा। जिस पत्रकारिता ने मुल्क की आजादी के अनुष्ठान में आहुति दी हो, वह अपने आचरण से लांछित और अपमानित की जाने लगे तो यह आने वाले दिनों के लिए गंभीर चेतावनी है।’
हमने देखा है कि कोई भी सरकार हो, अपनी आलोचना पसंद नहीं करती। इसलिए, जब तब वह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने का काम करती है। पहले वह प्रलोभन देती है। यदि उससे बात नहीं बनती तो अनेक प्रकार से दबाव डालने का काम करती है। यदि वह काम नहीं आता तो मीडिया प्रबंधन और मालिकों पर शिकंजा कसती है और यह हथियार भी नाकाम रहता है तो वह पत्रकारिता के दमन और उत्पीड़न का अंतिम अस्त्र चलाती है। वर्तमान दौर में सारे तरीके आजमाए जा रहे हैं। हम इन तीरों को अपनी देह पर लगते देख रहे हैं।
तो अब क्या किया जाए? पत्रकारिता की अराजक धारा संतुलन के सारे बांध तोड़ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय कई बार आगाह कर चुका है। उसने दो दिन पहले ही नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स फेडरेशन को सेल्फ रेगुलेशन पर जवाब दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है। फिलवक्त इस मसले पर गंभीरता नहीं दिखाई दे रही है।
‘ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन’ के अध्यक्ष सुप्रिय प्रसाद ने इस मुद्दे पर विचार के लिए आपात बैठक बुलाई थी। इस बैठक में कुछ ठोस निष्कर्ष निकलकर आया हो, ऐसा नहीं लगता। अर्थात परदे पर पत्रकारिता की अमर्यादित करतूतों पर अंकुश लगने की कोई संभावना फ़िलहाल तो नहीं है।
बीते दिनों ’एक्सिस माय इंडिया’ की रपट में पाया गया था कि भारत में टीवी मीडिया न्यूज का स्तर गिरा है। इसके अलावा ’रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की ताजा रेटिंग में भी भारत में पत्रकारिता के हालात सुधरते हुए नहीं पाए गए हैं। इसके बाद भी यदि भारतीय पत्रकारिता के पैरोकार नहीं जागते तो वे आगे जाकर इस पवित्र पेशे का अपमान ही करेंगे। अपनी बिरादरी के उपहास और अपमान की इजाजत आपको भारतीय समाज नहीं देता मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-
यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन जबान और कलम पर पहरा बिठा दिया जाएगा मिस्टर मीडिया!
पुलिस अधिकारी की इस करतूत ने पूरे पत्रकारिता जगत को करारा तमाचा मारा है मिस्टर मीडिया!
हम अपने दौर में पत्रकारिता की कलंक कथाएं रच रहे हैं मिस्टर मीडिया!
यह गैरजिम्मेदार पत्रकारिता है, परदे पर दिखाने को कोई तो मापदंड होना चाहिए मिस्टर मीडिया!
उन्होंने पहली बार 1984 में चीन में अपनी दुकान स्थापित करने के लिए उस समय के चीनी मूल के चर्चित लेखक लियांग हेंग की पहचान की और उन्हें चुना।
अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।
अमेरिका आधारित विवादास्पद अरबपति जॉर्ज सोरोस और चीनी की प्रमुख जासूसी एजेंसी सुरक्षा राज्य मंत्रालय (एमएसएस) ने 1980 के दशक में एक साथ मिलकर काम किया है। सोरोस ने आर्थिक प्रणाली सुधार संस्थान (ईएसआरआई) और चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर (सीआईसीईसी) नामक संगठनों के माध्यम से एमएसएस को पर्याप्त धन उपलब्ध कराया था। 1980 के दशक में सोरोस चीन में घुसपैठ करने के लिए पश्चिमी हितों को बचाने की आड़ में चीनी खुफिया नेटवर्क और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष आकाओं के साथ घनिष्ठ साझेदारी करके 'दोहरा खेल' खेल रहे थे। इसका कारण स्पष्ट था। वह 1980 के दशक में चीन की आर्थिक वृद्धि से फायदा उठाने के लिए वहां के शासन तंत्र में अपनी पैठ बनाना चाहते थे। लेकिन 1989 के बाद चीनी शासन में बदलाव के साथ यह साझेदारी टूट गई।
सोरोस द्वारा स्थापित संस्था 'चाइना फंड' के कई प्रतिनिधियों को 1989 में तियानमेन स्क्वायर नरसंहार के बाद चीनी अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। चीनी अधिकारियों ने उन पर अमेरिकी गुप्तचर संस्था सेंट्रल इंटेलिजेंस (सीआईए)के लिए काम करने का आरोप लगाया। सोरोस ने 1980 के दशक में चीन की ओर रुख करना शुरू किया। उन्होंने पहली बार 1984 में चीन में अपनी दुकान स्थापित करने के लिए उस समय के चीनी मूल के चर्चित लेखक लियांग हेंग की पहचान की और उन्हें चुना। हेंग अपने संस्मरण 'सन ऑफ़ द रेवोल्यूशन' को प्रकाशित करने के बाद प्रसिद्ध हुए थे, जो इस बात का व्यक्तिगत लेखा-जोखा था कि कैसे चीन पश्चिम के लिए दरवाजे खोल रहा था और किस प्रकार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा नियमित अंतराल पर वैचारिक शुद्धि के नाम पर अत्याचार किए जाते हैं।
लियांग ने सोरोस को चीनी सत्ता तंत्र के महत्वपूर्ण लोगों से जोड़ा। इस पूरी पहल के पीछे बहाना यह था कि सोरोस चीन को सुधारों को अंजाम देने में मदद करना चाहते थे। उस समय तक सोरोस'ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन्स' नामक अपने एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना कर चुके थे। यह संस्था गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के एक जटिल तंत्र के माध्यम से विभिन्न देशों में तख्तापलट, राजनीतिक उथल-पुथल और अराजकता के लिए धन तथा अन्य संसाधन उपलब्ध करवाती है। लेकिन इस तथ्य को देखते हुए कि चीन में दांव बहुत बड़ा है और मोटा मुनाफा कमाने की पूरी संभावना है, सोरोस ने एक अलग इकाई स्थापित करने का फैसला किया जो केवल चीन में काम करेगी।
1986 में, सोरोस ने 10 लाख अमेरिकी डॉलर के साथ 'चाइना फंड' की स्थापना की। लियांग के नेटवर्क के माध्यम से, चाइना फंड ने शुरू में एक चीनी थिंक टैंक ईएसआरआई के साथ भागीदारी की। अक्टूबर 1986 में, सोरोस ने बीजिंग के दियाओयुताई स्टेट गेस्टहाउस में एक समारोह में औपचारिक रूप से चाइना फंड की चीनी धरती पर शुरूआत की। यह सोरोस की पहली चीन की यात्रा थी। सोरोस ने ईएसआरआई के माध्यम से चीन के प्रमुख नेता झाओ जियांग से संपर्क जोड़ा। जियांगअगले साल पार्टी के महासचिव बने। झाओ के निजी सचिव, बाओ टोंग, भी चाइना फंड को पूरा समर्थन दे रहे थे। चीनी नौकरशाही को स्पष्ट संकेत था कि चाइना फंड-ईएसआरआई संयुक्त उद्यम की मदद करनी है।
सुधारवादी आर्थिक नीतियों को आकार देने में चीन की मदद करने के बहाने के पीछे, चाइना फंड ने बहुत तेजी से अपना जाल फैलाना शुरू किया।
अपनी स्थापना के एक साल के भीतर, इसने बीजिंग में एक कलाकार क्लब और तियानजिन में नानकाई विश्वविद्यालय में एक शैक्षणिक इकाई की स्थापना की। चीन पहुंचने के पहले दो वर्षों के भीतर, सोरोस के चाइना फंड ने कम से कम 200 प्रस्तावों के लिए भारी अनुदान दिया। हालाँकि, जैसे ही फंड ने कुख्यात 'सांस्कृतिक क्रांति' जैसे संवेदनशील विषयों पर अनुसंधान के लिए प्रस्तावों को स्वीकार किया चीनी आधिकारिक हलकों में खतरे की घंटी बजने लगी। चाइना फंड के बारे में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की शिकायतों के बाद झाओ जियांग ने एक नए संगठन चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर को सोरोस के साथ जोड़ा। ईएसआरआई की जबह अब चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटरसाआईसी को सोरोस के इस संयुक्त उद्यम का नियंत्रण सौंप दिया गया।
चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर औपचारिक तौर पर चीनी संस्कृति मंत्रालय का हिस्सा है पर वास्तव में यह चीनी जासूसी नेटवर्क का एक प्रमुख अंग है और चीन की शीर्ष जासूसी एजेंसी एसएसएस के लिए काम करता है। सोरोस ने फरवरी 1988 में एक चीन के दिग्गज जासूस और चीनी जासूसी एजेंसी के वरिष्ठतम अधिकारियों में शुमार किए जाने वाले यू एंगुआंग के साथ एक संशोधित समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए चीन की यात्रा की। यह स्वीकार करना बहुत भोलापन होगा कि सोरोस इस 'खुले रहस्य' के बारे में नहीं जानते थे कि यू कौन हैं तथा जिस संगठन के साथ वह काम कर रहे हैं वी चीन के गुप्तचर नेटवर्क का हिस्सा है। 1989 तक सोरोस के पैसे से चाइना इंटरनेशनल कल्चर एक्सचेंज सेंटर ने अपने कार्यक्रम किए। ये कार्यक्रम उसकी जासूसी गतिविधियों का हिस्सा थे।
इस प्रकार सोरोस ने चीन एजेंसियों की फंडिंग की, लेकिन 1989 में तियानमान चौक पर हुए नरसंहार के बाद सोरोस के हितैषी झाओ और बो सत्ता से बाहर हो गए। सोरोस के चाइना फंड के कुछ लोगों को सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में चीनी एजेंसयों ने हिरासत में भी लिया। सोरोस, इन बदलते हालात में, रोतों—रात चाइना फंड बंद कर वहां से भाग खड़े हुए। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि चीनी सरकार चाइना फंड से जुड़े लोगों को जेल में डाल रही है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले सोरोस ने न केवल अपने साथ काम करने वालों को मुश्किल में डाला बल्कि वह इस दुनिया के सबसे डरावने अधिनायकवादी तंत्र के साथ हाथों में हाथ डालकर न केवल काम कर रहे थे बल्कि उनकी जासूसी एजेंसियों को अपना पैसा भी उपलब्ध करवा रहे थे। लब वहां दाल गलनी बंद हो गई तो वे चीन के आलोचक हो गए और लोकतंत्र की दुहाई देने लगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )