एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप द्वारा आयोजित 'वुमेन समिट' में जानी-मानी पत्रकार और न्यूज18 इंडिया की कंसल्टिंग एडिटर रुबिका लियाकत ने न्यूज रूम में विविधता के महत्व पर अपनी बेबाक राय रखी।
एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप द्वारा आयोजित 'वुमेन समिट' में जानी-मानी पत्रकार और न्यूज18 इंडिया की कंसल्टिंग एडिटर रुबिका लियाकत ने न्यूज रूम में विविधता के महत्व पर अपनी बेबाक राय रखी। 'समाचार4मीडिया' के संपादक पंकज शर्मा के साथ बातचीत में उन्होंने पत्रकारिता में संतुलित प्रतिनिधित्व और बदलाव की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने बताया कि विविधता न सिर्फ पत्रकारिता को समृद्ध बनाती है, बल्कि दर्शकों तक अधिक प्रभावी और संतुलित खबरें पहुंचाने में भी मदद करती है।
हाल ही में हमने वूमेंस डे मनाया। क्या आपको लगता है कि ऐसे दिन केवल एक दिन तक सीमित रहते हैं, या इन मुद्दों पर हमेशा चर्चा होनी चाहिए?
मैंने इस सवाल पर बहुत मंथन किया है। एक दिन मनाना बहुत जरूरी है, क्योंकि यह एक चिंगारी की तरह काम करता है। जो जन्म होता है, वो एक ही दिन होता है, पर 364 दिन आपको काम करना होता है। कई लोग हैं, जो सिर्फ एक दिन ही ऐसे कार्यक्रमों को मनाते या चर्चा करते हैं। लेकिन कई लोग हैं, जो पहली बार इस तरह के कार्यक्रमों को सुन रहे होते हैं और ऐसे में इस दस मिनट की चर्चा में यदि उनके दिल में 30 सेकंड भी कुछ बातें बैठ जाए, तो वह बदलाव ला सकता है। इसलिए, भले ही यह अजीब लगे, लेकिन यह जरूरी है।
आपने पत्रकारिता में एक अलग पहचान बनाई है। एक महिला के तौर पर क्या इस दौरान आपको किसी तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा?
चुनौतियां बहुत सारी होती हैं। मैं एक किस्सा शेयर करना चाहूंगी। मैं तीन महीने प्रेग्नेंट थी और ऑफिस में किसी को नहीं बताया था। 'माझी' फिल्म रिलीज होने वाली थी। बिहार में जहां पर वह पहाड़ तोड़ा गया था वहां पर पूरी टीम को ले जाया जा रहा था और जब मैंने रोहित सरदाना जी को बताया कि मैं प्रेग्नेंट हूं, तो उन्होंने हंसकर कहा, "मजाक कभी और करना, मना करने के और भी तरीके होते हैं! और तुम ही तो कहती थी एडवेंचर वाली जगह पर जाना है, तो अब जा।" लिहाजा मैं उस जगह गई, जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं। वो जगह ऐसी है, जहां पर आज भी मिट्टी के घर हैं तो आप समझ लीजिए उस वक्त ना तो शौचालय नाम की कोई चीज होती थी और वाशरूम जाना होता था, तो औरतों को झाड़ियों में जाना पड़ता था, लेकिन चूंकि वहां पर इतने तादाद में एक्टर्स और एक्ट्रेसेस मौजूद थे, वीवीआईपी लोग थे, तो चारों तरफ वहां झाड़ियों में भी पुलिस वाले खड़े हो गए थे और मैं इतना तकलीफ में थी मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं अब करूं तो करूं। मुझे प्यास लग रही थी लेकिन मैं पानी नहीं पी सकती थी क्योंकि बार-बार मुझे वॉशरूम इस्तेमाल करना पड़ता। वहां रेस्ट रूम भी नहीं थे। तब मुझे रिलाइज हुआ कि वहां मर्दों के लिए तो बड़ा आसान था, लेकिन मेरे लिए बहुत सारी दिक्कतें थी, पर शुक्र है एक बुजुर्ग औरत का जिसको मैंने अपनी समस्या बताई, तो वह अपने घर के पीछे मुझे ले गई, जहां चढ़कर मुझे जाना पड़ा। साड़ी से चारों तरफ बांधा हुआ था। यह सब देख मैं डर गईं, तब मुझे लगा कि यह कोई मजाक नहीं है। कुछ और देर रुक गई तो मैं क्या करूंगी। यह छोटा सा चैलेंज है और ऐसे बहुत सारे चैलेंज महिलाओं के सामने आते हैं लेकिन फिर आप उससे सीखते हैं और उससे ही आप आगे बढ़ते हैं।
क्या आपको लगता है कि न्यूज रूम में विविधता जरूरी है?
बिल्कुल! लेकिन धर्म और जाति से ज्यादा जरूरी है टैलेंट। जब मैं आई थी, तब मेरे माथे पर नहीं लिखा था कि मैं मुसलमान हूं। मुझे एडमिशन इसलिए नहीं मिला कि मैं महिला हूं या मुस्लिम हूं, बल्कि इसलिए कि मुझमें टैलेंट था।
क्या विविधता से खबरों की कवरेज पर असर पड़ता है?
नहीं, ऐसा नहीं है। अगर न्यूज रूम में महिलाएं ज्यादा होंगी, तो महिला सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दे ज्यादा उठेंगे। लेकिन आज के समय में यह कहना गलत होगा कि महिलाओं को मौके नहीं मिल रहे। न्यूज रूम में विविधता बढ़ रही है और यह बदलाव जरूरी भी है।
आंकड़ों के अनुसार, न्यूज इंडस्ट्री में महिलाओं की भागीदारी 12-20% के बीच है। क्या इसे बढ़ाने की जरूरत है?
हां, लेकिन यह सिर्फ संख्या का सवाल नहीं है। यह महिलाओं की जिद और जज्बे का भी सवाल है। 12% महिलाएं जो इस फील्ड में बनी हुई हैं, वे कठिन परिस्थितियों के बावजूद आगे बढ़ रही हैं। आसान होता है छोड़ देना, लेकिन हमें लड़ते रहना होगा।
सोशल मीडिया पर नेगेटिव कमेंट्स को आप कैसे डील करती हैं?
शुरू में बहुत बुरा लगता था, क्योंकि मेरे माता-पिता भी सोशल मीडिया पर हैं। लेकिन फिर समझ आया कि जो लोग मुझे जानते ही नहीं, वे क्या कह रहे हैं, इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अब मैं सोशल मीडिया को भोपू की तरह इस्तेमाल करती हूं - अपनी बात कहती हूं और फिर उसे साइड रख देती हूं!
अंत में, आप इस मंच से क्या संदेश देना चाहेंगी?
बदलाव लाने के लिए हमें खुद आगे बढ़ना होगा। यदि आप में टैलेंट है, तो आपको कोई रोक नहीं सकता। चुनौतियां आएंगी, लेकिन हार मान लेना कोई हल नहीं है। हमें अपने हिस्से की लड़ाई खुद लड़नी होगी।
ये पूरा इंटरव्यू आप यहां देख सकते हैं:
सीनियर एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया।
जाने-माने एंकर व पत्रकार सुधीर चौधरी ने कहा है कि पिछले दो दशकों में न्यूज ब्रॉडकास्ट इंडस्ट्री ने खुद को नए तरीके से गढ़ने की कोशिश नहीं की, इसी वजह से दर्शकों का रुझान धीरे-धीरे अन्य प्लेटफॉर्म्स की ओर बढ़ गया। उन्होंने कहा कि जहां सोशल मीडिया पर करोड़ों फॉलोअर्स वाले इंफ्लुएंसर्स हैं, वहीं न्यूज इंडस्ट्री में ऐसा कोई स्टार नहीं बन पाया है।
उन्होंने कहा, “सबसे कम इनोवेशन न्यूज ब्रॉडकास्ट में ही हुआ है। हर नई तकनीक के साथ मौजूदा फॉर्मेट को खुद को बदलना पड़ता है। आज उपभोक्ता के पास अनगिनत विकल्प हैं- न्यूज अब वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, टीवी, प्रिंट और सोशल मीडिया सभी पर उपलब्ध है। अब एक ही स्टोरी को अलग-अलग प्लेटफॉर्म्स पर, अलग-अलग फॉर्मेट और समय में पेश करना होता है। इससे दर्शकों को अधिक विकल्प मिले हैं और उन्हें सबसे ज्यादा फायदा हुआ है।”
वे श्री अधिकारी ब्रदर्स के मैनेजिंग डायरेक्टर कैलाशनाथ अधिकारी के साथ एक पॉडकास्ट में बातचीत कर रहे थे।
सुधीर चौधरी ने कहा कि आज देश में लगभग 400 न्यूज चैनल हैं, लेकिन इनमें से 10–15 प्रमुख चैनल एक ही फॉर्मेट पर चलते हैं—रेड टिकर, एक जैसे हेडलाइंस, एक जैसे स्टूडियोज और टेबल्स, एक जैसे पैनलिस्ट्स और एक जैसे मुद्दों पर बहस। न्यूजरूम में टीआरपी और रेटिंग को देखकर कंटेंट का सुझाव दिया जाता है, और इंडस्ट्री का 99% हिस्सा इसी ‘रिएक्टिव’ तरीके से चलता है।
उन्होंने कहा, “इंडस्ट्री रास्ता भटक गई है। एक ही फॉर्मूला बार-बार दोहराने के बजाय अच्छा कंटेंट तैयार किया जा सकता है। टीआरपी, रेटिंग्स और पैसा—ये सब अच्छे कंटेंट का परिणाम होते हैं। मैंने अपने शो में यही सिद्धांत अपनाया।”
अपनी रिसर्च पद्धति को लेकर उन्होंने बताया कि उनके समाचार रिपोर्ट्स आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी होती थीं और शुरुआत में अन्य चैनल्स ने उनका मजाक उड़ाया, क्योंकि वे पारंपरिक राजनीतिक खबरों जैसे कैबिनेट मीटिंग और पार्टी अलायंस पर टिके थे। बाद में जब उनके समाचार विश्लेषण की शैली लोकप्रिय हुई, तब कई चैनलों ने उसे अपनाया, लेकिन केवल रेटिंग्स के लिए, आत्मसात करने के लिए नहीं।
उन्होंने कहा, “जब तक एंकर खुद अपनी स्टोरी को महसूस नहीं करेगा, तब तक वह दर्शकों से जुड़ नहीं पाएगा। न्यूज रिपोर्टर को छोटे अखबारों में छपी कहानियों को तलाशना चाहिए और उन्हें आम आदमी के लिहाज से प्रभावशाली बनाना चाहिए।”
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों के बढ़ते झुकाव पर उन्होंने कहा, “रेडियो और प्रिंट के समय में टीवी आया, फिर डिजिटल और अब AI। सब साथ में चलते रहे हैं, लेकिन हर बार पुराने फॉर्मेट्स को खुद को बदलना पड़ा। पहले फिल्में तीन घंटे की होती थीं, अब डेढ़ घंटे की हैं। पहले टेस्ट क्रिकेट पांच दिन चलता था, अब टी20 हो गया है। सब कुछ वही है—क्रिकेटर, बैट, बॉल, रन, स्टेडियम, दर्शक—लेकिन क्रिकेट ने खुद को दोबारा परिभाषित किया है।”
उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया कैसे इकोसिस्टम को बदल रहा है। “पहले लोग कहते थे, हमने आपको टीवी पर देखा। अब कहते हैं, हम आपको फॉलो करते हैं। यह बड़ा बदलाव है। यूट्यूब और रील्स जैसे प्लेटफॉर्म पर लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं, वहीं पारंपरिक मीडिया में वर्षों से काम कर रहे लोगों के उतने फॉलोअर्स नहीं हैं। आने वाले समय में चुनौती होगी—रफ्तार और सटीकता दोनों को बनाए रखना। रफ्तार के लिए सच्चाई की बलि नहीं दी जा सकती।”
फेक न्यूज की पहचान कैसे करें, इस पर उन्होंने कहा कि न्यूज चैनल्स के पास मल्टी-सोर्स होते हैं, जबकि सोशल मीडिया पर कंटेंट क्रिएटर्स के पास स्रोत तो ज्यादा होते हैं लेकिन प्रोसेस नहीं होता। “बड़ी एजेंसियां खबरों को जुटाने और उन्हें जांचने में बड़ा निवेश करती हैं। चैनलों के पास मल्टी-लेयर सिस्टम होता है, जहां खबरें जांची जाती हैं। लेकिन यूट्यूबर, जो अकेले काम करता है, उसके पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं होता, जिससे कई बार गलत खबरें सामने आ जाती हैं।”
उन्होंने कहा कि खबरों को संख्याओं के जरिए समझाना और पेश करना बेहद जरूरी है। न्यूज निर्माण एक गंभीर काम है—इसमें अनुशासन चाहिए और कंटेंट क्रिएटर्स को लगातार खुद को अपग्रेड करते रहना चाहिए।
अपने भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि अब वे टीआरपी या नंबर के पीछे नहीं भागना चाहते, बल्कि स्वतंत्र रूप से कंटेंट बनाना चाहते हैं। उन्होंने सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर्स से अपील की कि वे उनके काम को आगे बढ़ाने में सहयोग करें।
क्रिकेट प्रेमियों की जुड़ाव की आदतें सिर्फ स्टेडियम और टेलीविजन तक सीमित नहीं रही हैं। इस डिजिटल युग में, YouTube क्रिकेट कंटेंट का सबसे पसंदीदा मंच बन चुका है
शांतनु डेविड, स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ।।
जैसे ही भारत एक और रोमांचक इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) सीजन के लिए तैयार हो रहा है, क्रिकेट प्रेमियों की जुड़ाव की आदतें सिर्फ स्टेडियम और टेलीविजन तक सीमित नहीं रही हैं। इस डिजिटल युग में, YouTube क्रिकेट कंटेंट का सबसे पसंदीदा मंच बन चुका है, जो लाइव मैचों से इतर दर्शकों को जोड़ने और विज्ञापनदाताओं को अपने उपभोक्ताओं तक पहुंचने के अनूठे अवसर प्रदान करता है।
Google India में YouTube सेल्स व सॉल्यूशंस की हेड शुभा पाई इस बदलते परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए क्रिकेट, डिजिटल के इस्तेमाल करने के तरीके और विज्ञापन के मेल पर चर्चा करती हैं। वे कहती हैं, "भारत में क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि संस्कृति और समुदाय है।" उन्होंने 1984 की अपनी एक यादगार घटना साझा की, जब उनके पिता ने विश्व कप मैच देखने के लिए बिजली की समस्या को ठीक करने की कोशिश में गंभीर रूप से जलने तक का जोखिम उठा लिया था। वे कहती हैं, "आज भी यदि आप उनसे पूछेंगे, तो वे यही कहेंगे कि उन्हें इसका कोई पछतावा नहीं है। भारत में क्रिकेट का महत्व यही है।"
पिछले 12 महीनों में YouTube पर क्रिकेट से जुड़ी सामग्री को 50 अरब से अधिक बार देखा गया, जो यह दर्शाता है कि आधुनिक क्रिकेट उपभोग में यह प्लेटफॉर्म कितना महत्वपूर्ण हो गया है। IPL 2024 के दौरान, दर्शकों ने गैर-लाइव कंटेंट पर 20% अधिक समय बिताया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पारंपरिक लाइव प्रसारण की तुलना में ऑन-डिमांड कंटेंट देखने का चलन बढ़ रहा है। शुभा पाई कहती हैं, "YouTube वह जगह है जहां प्रशंसक सिर्फ मैच के दौरान ही नहीं, बल्कि उससे पहले, बाद में और बीच में भी खेल से जुड़े रहते हैं।"
यह बदलाव सिर्फ एक ट्रेंड नहीं, बल्कि देखने की आदतों में एक बड़ा परिवर्तन है। Smith Grieger के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 14 से 44 वर्ष की आयु के 95% ऑनलाइन खेल प्रेमी हर हफ्ते कम से कम एक बार YouTube पर अपने पसंदीदा खेल या खिलाड़ियों के बारे में कंटेंट देखते हैं। इनमें से 67% क्रिकेट कंटेंट देखते हैं, जिससे YouTube खेल जुड़ाव के लिए सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला डिजिटल प्लेटफॉर्म बन गया है।
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, और इसी के साथ क्रिकेट विज्ञापन की दुनिया भी बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है। लंबे समय से खेल विज्ञापन के लिए सबसे प्रभावी माने जाने वाले पारंपरिक लाइव ब्रॉडकास्ट मॉडल में अब अत्यधिक प्रतिस्पर्धा हो गई है। शुभा पाई कहती हैं, "क्या आपको पता है कि पिछले साल IPL में कितने ब्रैंड्स ने विज्ञापन दिए थे? लगभग 1,400। लेकिन अगर मैं आपसे पूछूं कि आपको कितने ब्रैंड्स याद हैं, तो आप शायद केवल 3 से 5 के ही नाम लेंगे।"
यह उपभोक्ता ध्यान के लिए चल रही कड़ी प्रतिस्पर्धा दूसरे स्क्रीन पर सक्रिय रहने के व्यवहार से और जटिल हो जाती है। "90% क्रिकेट प्रशंसक लाइव मैच देखते समय किसी अन्य स्क्रीन पर भी सक्रिय होते हैं," पाई बताती हैं। यह आंकड़ा Gen Z दर्शकों के लिए 93% तक बढ़ जाता है, जो एक साथ तीन गतिविधियांं करते हैं—स्कोर चेक करना, सोशल मीडिया स्क्रॉल करना और खाना ऑर्डर करना। वे कहती हैं, "कल्पना कीजिए कि जब दर्शक एक ही समय में इतनी चीजें कर रहे हों, तो पारंपरिक विज्ञापन कैसे प्रभावी रह सकते हैं?"
इस चुनौती का सामना करने के लिए ब्रैंड्स अब तेजी से YouTube के AI-आधारित विज्ञापन समाधानों का उपयोग कर रहे हैं, जो उन्हें दर्शकों के साथ बेहतर जुड़ने में मदद करता है। पाई कहती हैं, "लॉन्ग-फॉर्म वीडियो, शॉर्ट्स और कनेक्टेड टीवी—YouTube विज्ञापनदाताओं को विभिन्न मार्केटिंग उद्देश्यों के लिए कई फॉर्मेट्स प्रदान करता है। और इसमें AI की महत्वपूर्ण भूमिका है।"
वे AI-आधारित उत्पादों के उदाहरण देती हैं, जैसे कि Target Frequency, जो विज्ञापन की सही संख्या सुनिश्चित करता है और Video View Campaigns, जो विभिन्न YouTube प्रारूपों में एक निश्चित संख्या में व्यूज़ की गारंटी देता है। Demand Gen एक अन्य AI-संचालित समाधान है, जो YouTube की पहुंच को Google Discover और Gmail जैसे प्लेटफॉर्म तक बढ़ाता है। Connected TV (CTV) पर QR Code Ads उपभोक्ताओं को तुरंत कार्रवाई करने की सुविधा देते हैं। पाई कहती हैं, "लंबे समय तक हमने टेलीविज़न पर विज्ञापन देखे, लेकिन उन पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दे सकते थे। अब, बस एक QR कोड स्कैन करें और तुरंत जुड़ जाएं।"
इस AI-चालित रणनीति ने IPL 2023 के दौरान Swiggy जैसे ब्रैंड्स के लिए प्रभावशाली परिणाम दिए। पाई बताती हैं, "उन्होंने पाया कि 90% दर्शक दूसरी स्क्रीन पर सक्रिय थे और उनके मुख्य उपभोक्ता आधार—फूड डिलीवरी यूज़र्स—और क्रिकेट प्रशंसकों के बीच बड़ा ओवरलैप था। इसी वजह से उन्होंने YouTube को जुड़ाव बढ़ाने के लिए चुना।"
YouTube पर क्रिकेट कंटेंट का दायरा केवल आधिकारिक मैच हाइलाइट्स या विशेषज्ञ विश्लेषण तक सीमित नहीं है। वर्षों से, इस प्लेटफॉर्म ने क्रिकेट कंटेंट क्रिएटर्स का एक समृद्ध इकोसिस्टम विकसित किया है। पाई कहती हैं, "YouTube पर क्रिकेट से जुड़ी एक पूरी दुनिया है, जिसमें बॉल-बाय-बॉल विश्लेषण, मीम्स, रिएक्शन वीडियो और रणनीति पर गहराई से चर्चा शामिल है।" Breakfast with Champions, हर्षा भोगले और Two Sloggers जैसे लोकप्रिय कंटेंट क्रिएटर्स ने समर्पित फैनबेस बना लिए हैं, जो मैचों से पहले, दौरान और बाद तक उनसे जुड़े रहते हैं।
YouTube की पहुंच अब नए दर्शक समूहों तक भी बढ़ रही है। "भारत में 500 मिलियन क्रिकेट प्रशंसकों में से 30% महिलाएं हैं और 60% ग्रामीण क्षेत्रों से हैं," पाई Kantar की एक रिसर्च के हवाले से बताती हैं। "क्रिकेट अब सिर्फ एक शहरी, पुरुष-प्रधान खेल नहीं रह गया है। YouTube हर क्षेत्र और हर भाषा में हर किसी के लिए कुछ न कुछ पेश करता है।"
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि लगातार मैचों की वजह से क्रिकेट की लोकप्रियता घट सकती है, पाई इससे असहमत हैं। वे कहती हैं, "एक सच्चे क्रिकेट प्रशंसक के लिए खेल आखिरी गेंद के साथ खत्म नहीं होता। वे YouTube पर रिप्ले देखते हैं, आंकड़े जांचते हैं और यह देखते हैं कि बाकी लोग क्या कह रहे हैं। वे तब तक नहीं सोते जब तक वे एक घंटे का अतिरिक्त जुड़ाव नहीं कर लेते।"
IPL 2025 से प्रायोजन और विज्ञापन राजस्व के मामले में नए रिकॉर्ड तोड़ने की उम्मीद है। पिछले साल, इस टूर्नामेंट की ब्रैंड वैल्यू $10 अरब से अधिक थी और विज्ञापन राजस्व ₹10,000 करोड़ को पार कर गया था। YouTube खुद को उन विज्ञापनदाताओं के लिए आदर्श प्लेटफॉर्म के रूप में स्थापित कर रहा है, जो उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। पाई कहती हैं, "IPL सिर्फ एक खेल आयोजन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्षण है। चाहे आप एक नया अभियान लॉन्च कर रहे हों, ब्रैंड रिकॉल बना रहे हों, या उपभोक्ताओं को कार्रवाई के लिए प्रेरित कर रहे हों—YouTube के AI-आधारित समाधान आपको सही समय पर, सही संदेश के साथ सही दर्शकों तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं।"
एक्सचेंज4मीडिया के सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रुहैल अमीन ने उनसे उनकी प्रेरणादायक जर्नी, पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की।
पत्रकारिता की दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने वालीं चित्रा त्रिपाठी आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। गोरखपुर जैसे छोटे शहर से निकलकर राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता तक का सफर तय करना आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास से इसे संभव बनाया। एक्सचेंज4मीडिया के विशेष कार्यक्रम Women in Media, Digital & Creative Economy Summit के दौरान सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रुहैल अमीन ने उनसे उनकी प्रेरणादायक जर्नी, पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की। आइए, जानते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।
सबसे पहले हम आपकी जर्नी के बारे में जानना चाहेंगे। एक छोटे शहर गोरखपुर से लेकर राष्ट्रीय राजधानी तक का यह सफर कैसे तय हुआ?
मुझे मीडिया इंडस्ट्री में 20 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन खास बात यह है कि मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की। मैंने डिफेंस स्टडीज में एमए किया है और गोरखपुर यूनिवर्सिटी में अपने विषय में टॉपर रही हूं। मेरी जर्नी काफी दिलचस्प रही है।
एनसीसी में मेरी बहुत रुचि थी और लोग कहते थे कि मैं आर्मी में जाऊंगी। 2001 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे, मैंने गार्ड ऑफ ऑनर कमांड किया और मुझे गोल्ड मेडल मिला। उसी दौरान गोरखपुर में एक लोकल चैनल ‘सत्या टीवी’ लॉन्च हुआ, जिसमें एक घंटे की न्यूज़ पढ़ने के लिए 100 रुपये मिलते थे। दोस्तों ने कहा, ‘तुम्हारी हिंदी अच्छी है, तुम जाकर बोलो।’ मैंने यह चैलेंज लिया और वहां से मेरी जर्नी शुरू हो गई।
धीरे-धीरे, मैंने ‘दूरदर्शन’ के कृषि दर्शन कार्यक्रम में भी काम किया, जहां मुझे खेती से जुड़े कार्यक्रम करने का मौका मिला। फिर, मैं ईटीवी हैदराबाद चली गई और एक साल बाद दिल्ली आ गई। यहां से मेरे नेशनल चैनलों में काम करने की शुरुआत हुई।
जब आप छोटे शहर से आईं, तो क्या कभी लगा कि यह किसी तरह का डिसएडवांटेज था?
बिल्कुल! जब हम छोटे शहरों से बड़े शहरों में आते हैं, खासकर हिंदी बेल्ट की लड़कियां जिनकी अंग्रेजी थोड़ी कमजोर होती है, तो शुरुआत में हमें कम आंका जाता है। एक तरह का परसेप्शन बना हुआ था कि जो अंग्रेजी में धाराप्रवाह नहीं हैं, वे उतने सक्षम नहीं हैं। लेकिन समय के साथ चीजें बदलीं। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार और फिर 2014 में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने हिंदी को बहुत बढ़ावा दिया। इससे हमें आत्मविश्वास मिला और आज स्थिति यह है कि देशभर में लोग हमें पहचानते हैं।
क्या आपको लगता है कि छोटे शहरों से आने वाले पत्रकारों का ग्राउंड कनेक्शन ज्यादा मजबूत होता है?
बिल्कुल! जब हम छोटे शहरों से आते हैं, तो जमीनी हकीकत को बेहतर समझते हैं। रिपोर्टिंग करते वक्त यह अनुभव बहुत काम आता है।
2014 की कश्मीर बाढ़ के दौरान जब मैं रिपोर्टिंग कर रही थी, तब हालात बहुत मुश्किल थे। हमें कई बार इंडियन मीडिया के खिलाफ प्रदर्शन झेलने पड़े। वहां हमने एक गुरुद्वारे में जाकर लंगर खाया, क्योंकि पांच दिन से सिर्फ मैगी खा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में खुद को ढालना और मजबूती से रिपोर्टिंग करना, यह अनुभव छोटे शहरों से आने वाले पत्रकारों के लिए अधिक स्वाभाविक होता है।
आपकी एक रिपोर्टिंग से एक गांव की महिला को राष्ट्रपति अवाॉर्ड मिला था। क्या आप उसके बारे में बता सकती हैं?
जी हां, यह उत्तर प्रदेश के बहराइच के टेढ़िया गांव की कहानी है। 2014 तक, 5000 की आबादी वाला यह गांव वोट डालने के अधिकार से वंचित था। वहां पर बिजली नहीं थी, पानी के लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता था। जब मुझे इसकी जानकारी मिली, तो मैंने वहां जाकर स्टोरी की।
गांव की महिलाओं ने हमारा स्वागत ‘जय आज़ादी’ कहकर किया, जो हमें थोड़ा अजीब भी लगा क्योंकि वहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं थीं। मैंने इस स्टोरी को कवर किया और इसकी वजह से एक 65 वर्षीय महिला को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों ‘100 वुमन अवॉर्ड’ मिला। यह मेरे करियर के सबसे गर्व भरे लम्हों में से एक है।
आजकल पत्रकारिता की आलोचना होती है कि यह जमीन से कट रही है। आप इस पर क्या सोचती हैं?
आलोचना दो तरह की होती है- एक जो आगे बढ़ने में मदद करती है और एक जो सिर्फ खींचने के लिए होती है। जब हम मजबूत होते हैं, तो हमें आलोचना भी झेलनी पड़ती है। लेकिन हमें इससे घबराना नहीं चाहिए।
आज सोशल मीडिया बहुत प्रभावशाली हो गया है। जब हम सही काम कर रहे होते हैं, तो आलोचना होना स्वाभाविक है। हमें इसे सकारात्मक रूप में लेकर अपनी पत्रकारिता को और बेहतर बनाना चाहिए।
यहां देख सकते हैं पूरा इंटरव्यू:
महिलाएं हर विषय में रुचि रखती हैं, चाहे वह चुनाव हो, राष्ट्रीय नीति हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध। लेकिन मीडिया अक्सर उन्हें इन विषयों से अलग कर देता है।
मीडिया सिर्फ खबरें नहीं दिखाता, यह समाज की सोच को आकार भी देता है। लेकिन क्या हमारे न्यूजरूम्स में जेंडर सेंसिटिविटी को उतनी ही प्राथमिकता दी जाती है जितनी जरूरी है? क्या महिलाओं और अन्य जेंडर्स को मीडिया में समान प्रतिनिधित्व मिल रहा है? इन्हीं अहम सवालों पर मंथन करने के लिए एक्सचेंज4मीडिया ने अपने विशेष कार्यक्रम Women in Media, Digital & Creative Economy Summit में खास पैनल आयोजन किया गया, जिसका विषय था— 'राइटिंग द नैरेटिव: द रोल ऑफ जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म इन शेपिंग ए मोर इक्वल मीडिया', यानि यह विषय इस बात पर केंद्रित है कि किस तरह पत्रकारिता में जेंडर सेंसिटिविटी (लिंग संबंधी संवेदनशीलता) को अपनाकर मीडिया को अधिक समावेशी और समानता पर आधारित बनाया जा सकता है और इस चर्चा को और गहराई देने के लिए इस कार्यक्रम में मौजूद रहीं 'द कलेक्टिव न्यूजरूम' की को-फाउंडर और सीईओ, रूपा झा। कार्यक्रम का संचालन समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा ने किया।
दोनों के बीच हुई बातचीत का प्रमुख अंश:
सबसे पहले हम 'जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म' शब्द को समझना चाहेंगे। यह क्या है? अभी भी कई लोग इसे ठीक से नहीं समझते, खासकर हिंदी भाषी समुदाय में।
देखिए, 9 मार्च को हम सभी महिलाओं की विजिबिलिटी के बारे में अधिक चर्चा करते हैं, और यह महत्वपूर्ण है। जेंडर सेंसिटिव जर्नलिज्म एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें पत्रकारिता को समानता और समावेशिता के नजरिए से देखा जाता है। दरअसल, दुनिया की आधी आबादी महिलाएं हैं, तो मीडिया में भी आधी भागीदारी, आधा प्रतिनिधित्व और आधे निर्णय महिलाओं के होने चाहिए। लेकिन ऐतिहासिक रूप से, समाज और मीडिया पुरुष प्रधान दृष्टिकोण से संचालित होता रहा है। इसलिए, अब एक संतुलित और संवेदनशील पत्रकारिता की जरूरत है, जहां महिलाओं और अन्य जेंडर्स को समान अवसर और प्रतिनिधित्व मिले।
जब हम जेंडर की बात करते हैं, तो अक्सर न्यूजरूम में महिलाओं की संख्या को मापा जाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या वे अहम फैसलों का हिस्सा हैं? क्या उनकी राय ली जाती है?
बिल्कुल, यही असल मुद्दा है। केवल न्यूजरूम में महिलाओं की गिनती कर लेना काफी नहीं है। यह सिर्फ एक प्रारंभिक कदम है। असली चुनौती यह है कि न्यूजरूम में जेंडर बैलेंस से ज्यादा 'जेंडर लेंस' की जरूरत है।
जेंडर लेंस का मतलब है कि हम समाज में स्थापित पुरुषवादी सोच को पहचानें और उसे चुनौती दें। मीडिया अक्सर बिना जाने या समझे जेंडर आधारित भेदभाव को दोहराता रहता है। इसीलिए हमें यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं की भागीदारी सिर्फ न्यूजरूम तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनके विचार और दृष्टिकोण भी न्यूज कवरेज का हिस्सा बनने चाहिए।
क्या आपको लगता है कि मुख्यधारा की मीडिया महिलाओं के मुद्दों को पर्याप्त रूप से कवर कर रही है? या ये मुद्दे सिर्फ डिजिटल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तक सीमित रह गए हैं?
नहीं, मुख्यधारा की मीडिया अभी भी महिलाओं के मुद्दों को पूरी तरह कवर नहीं कर रही। मीडिया में अब भी महिलाओं के मुद्दों को पारंपरिक ढंग से देखा जाता है। महिलाओं के लिए बनाई गई खबरों में अक्सर सौंदर्य, परिवार, करवा चौथ, फैशन जैसी बातें प्रमुख होती हैं। लेकिन क्या महिलाओं के लिए राजनीति, अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी के मुद्दे कम महत्वपूर्ण हैं? बिल्कुल नहीं। महिलाएं हर विषय में रुचि रखती हैं, चाहे वह चुनाव हो, राष्ट्रीय नीति हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध। लेकिन मीडिया अक्सर उन्हें इन विषयों से अलग कर देता है। अगर मीडिया सही तरीके से महिलाओं के मुद्दों को शामिल करे, तो उनका नजरिया और भागीदारी दोनों ही बढ़ सकते हैं।
सोशल मीडिया ने महिलाओं को एक प्लेटफॉर्म जरूर दिया है, लेकिन इसके साथ ऑनलाइन ट्रोलिंग भी बढ़ी है। साथ ही, महिलाओं की निजी जिंदगी को पुरुषों की तुलना में ज्यादा हाईलाइट किया जाता है। आपकी क्या राय है?
यह बिल्कुल सही बात है। यह समस्या गहरी सामाजिक सोच से जुड़ी है।
मीडिया में महिलाओं को अक्सर एक 'ऑब्जेक्ट' की तरह दिखाया जाता है। उदाहरण के लिए, अगर हम मधुबाला पर कोई रिपोर्ट बनाते हैं, तो हेडलाइन होती है - "मधुबाला जिसे देखकर शम्मी कपूर खाना खाना भूल गए"। क्यों? मधुबाला एक महान अभिनेत्री थीं, तो उनकी प्रतिभा पर बात क्यों नहीं होती? पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं होता।
राजनीति में भी देखिए - अगर पांच खूबसूरत महिला उम्मीदवार चुनाव में खड़ी हैं, तो मीडिया उन्हें "चुनावी दंगल की पांच हसीन चेहरे" कहता है। क्या पुरुषों के लिए इस तरह की हेडलाइन दी जाती हैं? यही जेंडर भेदभाव है, जिसे हमें बदलने की जरूरत है।
यदि मीडिया संस्थानों को जेंडर इक्वलिटी को बढ़ाने के लिए कदम उठाने हों, तो आप तीन प्रमुख सुझाव क्या देंगी?
मेरे पास सिर्फ सुझाव नहीं हैं, बल्कि अनुभव भी है। मैंने बीबीसी इंडिया की हेड के रूप में काम किया है और अब 'द कलेक्टिव न्यूजरूम' का संचालन कर रही हूं। मैंने बदलाव को होते देखा है।
तीन प्रमुख सुझाव:
संस्थानों को यह स्वीकार करना होगा कि जेंडर असमानता उनकी भी समस्या है। जब तक वे यह नहीं मानेंगे, बदलाव संभव नहीं है।
महिलाओं को सिर्फ संख्या के आधार पर न आंका जाए, बल्कि उन्हें निर्णय लेने की भूमिका में भी रखा जाए।
मीडिया में भाषा और रिपोर्टिंग के तरीकों में बदलाव किया जाए। उदाहरण के लिए, "ऑनर किलिंग" शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है? इसे "हत्यारा अपराध" कहा जाना चाहिए। ऐसे ही कई शब्द और धारणाएं बदलने की जरूरत है।
यहां देखें वीडियो:
ZEEL के CEO पुनीत गोयनका ने टेलीविजन विज्ञापन में गिरावट पर चर्चा करते हुए कहा, "टीवी अब भी 90 करोड़ लोगों का माध्यम है।"
ZEEL के CEO पुनीत गोयनका ने टेलीविजन विज्ञापन में गिरावट पर चर्चा करते हुए कहा, "टीवी अब भी 90 करोड़ लोगों का माध्यम है।" उन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड को दिए गए एक इंटरव्यू में सोनी के साथ असफल विलय, ऐड मार्केट में गिरावट, DD फ्री डिश और नेटवर्क के भविष्य को लेकर अपने विचार साझा किए।
भारत के सबसे बड़े ब्रॉडकास्टर्स में से एक, ZEE, जो 17% दर्शक हिस्सेदारी रखता है, सोनी पिक्चर्स नेटवर्क्स इंडिया (SPNI) के साथ विलय करने वाला था। लेकिन जनवरी 2024 में यह समझौता टूट गया। गोयनका ने बताया कि उन्होंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की, लेकिन हर प्रक्रिया अपेक्षा से अधिक समय ले रही थी।
उन्होंने कहा कि इस विलय को पूरा करने में काफी समय उन पक्षों के साथ समझौता करने में लगा, जिन्होंने आपत्ति जताई थी, जिनमें से कुछ मुद्दे ZEE से जुड़े भी नहीं थे। कंपनी ने विवादों का निपटारा कर प्रक्रिया को तेज करने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी विलय पूरा नहीं हो सका। उन्होंने कहा, "समय अपनी जगह है और अदालतें अपनी।"
$940 मिलियन के स्टार-ICC अधिकार समझौते को विलय में रोड़ा बताया जा रहा था। इस पर गोयनका ने कहा, "अगर यह उनके (सोनी के) सिस्टम में था या नहीं, मैं नहीं कह सकता। जिस दिन हमें यह डील मिली, हमने उन्हें जानकारी दी और उन्होंने इस पर हस्ताक्षर किए।"
मेटा और यूट्यूब के साथ प्रतिस्पर्धा पर बात करते हुए गोयनका ने कहा कि ZEE के लिए खुद को अलग बनाना जरूरी है और इन प्लेटफॉर्म्स की नकल करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा, "वे पूरी तरह से यूजर-जनरेटेड कंटेंट पर निर्भर हैं। उनके पास कोई बौद्धिक संपदा नहीं है।"
विज्ञापन को लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि ZEE ने इंडस्ट्री के मुकाबले सबसे कम गिरावट का सामना किया है। जहां इंडस्ट्री की विज्ञापन आय में 12-13% की गिरावट आई, वहीं ZEE का नुकसान सिर्फ 3.5-4% तक सीमित रहा। उन्होंने दोहराया, "टीवी अब भी 90 करोड़ लोगों का माध्यम है।"
गोयनका ने राष्ट्रीय ब्रैंड्स की तुलना में क्षेत्रीय और स्थानीय FMCG ब्रैंड्स को प्राथमिकता देने की बात कही। उन्होंने कहा, "इसमें अधिक मेहनत लगती है, लेकिन लोकल कंपनियां नेशनल ब्रैंड्स की तुलना में 50% ज्यादा कीमत करने के लिए तैयार रहती हैं।"
उन्होंने Zee Anmol को DD Free Dish से हटाने के फैसले को इंडस्ट्री द्वारा लिया गया सामूहिक निर्णय बताया। हालांकि, फ्री-टू-एयर बाजार से दूर रहने के बाद, उन्होंने कहा कि चैनल फिर से DD Free Dish पर लौटेगा ताकि खो रहे दर्शकों को वापस लाया जा सके।
गोयनका ने यह भी खुलासा किया कि नेटवर्क गेमिंग में प्रवेश करने पर विचार कर रहा है, भले ही उसका मुख्य ध्यान अभी भी लीनियर टेलीविजन, डिजिटल, मूवीज और म्यूजिक पर केंद्रित है।
ZEEL के CEO ने कहा कि वह किसी भी प्रकार के इन्वेस्टमेंट, मर्जर या डील पर विचार करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते कि यह उनके शेयरधारकों, कर्मचारियों और उनके खुद के हित में हो।
IPL के प्रमुख डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के मुकाबले अपनी स्थिति मजबूत करने के प्रयासों को बेहतर समझने के लिए e4m ने ईशान चटर्जी (चीफ बिजनेस ऑफिसर, स्पोर्ट्स रेवेन्यू, SMB & क्रिएटर, JioStar) से बातचीत की।
अदिति गुप्ता, असिस्टेंट एडिटर, एक्सचेंज4मीडिया ।।
इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) हमेशा से विज्ञापनदाताओं के लिए एक प्रमुख आयोजन रहा है, जो ब्रैंड्स को अपने विशाल दर्शकों तक पहुंचने का शानदार अवसर प्रदान करता है। जियो और स्टार के विलय के बाद, IPL विज्ञापन जगत में पहले से भी बड़ी ताकत बन चुका है।
इस सीजन में टूर्नामेंट ने कई प्रमुख स्पॉन्सर्स को अपने साथ जोड़ा है। सूत्रों के मुताबिक, कैंपा और My11Circle (जिनके बारे में एक्सचेंज4मीडिया पहले ही रिपोर्ट कर चुका है) के अलावा, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) और अमूल भी अब इस सूची में शामिल हो गए हैं।
विलय के बाद के विज्ञापन जगत की रणनीतियों, नए जुड़ाव के तरीकों और IPL के प्रमुख डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के मुकाबले अपनी स्थिति मजबूत करने के प्रयासों को बेहतर समझने के लिए, एक्सचेंज4मीडिया ने ईशान चटर्जी (चीफ बिजनेस ऑफिसर, स्पोर्ट्स रेवेन्यू, SMB & क्रिएटर, JioStar) से बातचीत की। उन्होंने IPL 2025 को आकार देने वाले प्रमुख कदमों, विज्ञापन के अवसरों और बाजार की प्रमुख प्रवृत्तियों पर अपनी राय साझा की।
IPL गूगल और मेटा जैसी बड़ी टेक कंपनियों की तुलना में ज्यादा जुड़ाव (एंगेजमेंट) कैसे सुनिश्चित कर रहा है? साथ ही, ब्रेन मैपिंग न्यूरोसाइंस स्टडी और JioStar के विज्ञापनदाताओं के साथ शहरों में किए गए क्लोज़-डोर सेमिनार के बारे में बताएं।
हमारे कुछ बड़े विज्ञापन साझेदारों के पास बहुत उन्नत मॉडल हैं, जो यह सटीक रूप से बताते हैं कि IPL पर किए गए उनके विज्ञापन खर्च से उन्हें कितना रिटर्न मिल रहा है। लेकिन यह सभी प्रकार के विज्ञापनदाताओं के लिए सच नहीं हो सकता।
हम जिन बड़े सवालों का जवाब देने की कोशिश कर रहे थे, उनमें से एक यह था कि IPL या किसी लाइव स्पोर्ट्स इवेंट को देखने वाले दर्शकों की सहभागिता (एंगेजमेंट) का स्तर उतना ही होता है जितना कि वे यूजर-जनरेटेड कंटेंट (UGC) या अन्य ओटीटी कंटेंट पर अनुभव करते हैं या नहीं। इस न्यूरॉन स्टडी को खासतौर पर डिजाइन किया गया था, जिसमें हमने अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करके आंखों की गतिविधियों को ट्रैक किया। इसका मकसद यह जानना था कि जब कोई व्यक्ति लाइव स्पोर्ट्स इवेंट के दौरान विज्ञापन देखता है तो उसकी एंगेजमेंट लेवल कितना होता है, बनाम जब वह यूजीसी या अन्य प्लेटफॉर्म्स पर विज्ञापन देखता है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि लाइव स्पोर्ट्स के दौरान विज्ञापन देखने पर दर्शकों की सहभागिता अन्य कंटेंट शैलियों और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की तुलना में काफी अधिक होती है।
जहां तक विज्ञापनदाताओं के साथ हमारी बैठकों की बात है, तो जैसा कि आप जानते हैं, IPL के करीब आते ही हम नियमित रूप से उनके साथ बातचीत करते हैं। हालांकि, दो विशेष आउटरीच कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण रहे। पहला, हमारी Nielsen के साथ हालिया साझेदारी, जो विशेष रूप से FMCG विज्ञापनदाताओं के लिए प्रासंगिक है। यह सहयोग हमारे अभियान पहुंच मेट्रिक्स की थर्ड-पार्टी वैधता (थर्ड-पार्टी वैलिडेशन) सुनिश्चित करता है, जिससे केवल हमारे डेटा पर ही निर्भरता नहीं रहती। Nielsen अब हमारे साथ एक समर्पित डेटा पाइपलाइन का उपयोग कर रहा है और अपनी ऑडियंस मेजरमेंट विशेषज्ञता लागू कर रहा है। इसका मतलब है कि किसी प्रमुख विज्ञापनदाता के लिए अब Nielsen हमारे अभियान की पहुंच और मेट्रिक्स को प्रमाणित कर रहा है, जिससे इसकी विश्वसनीयता और अधिक बढ़ जाती है।
IPL 2025 में छोटे व्यवसायों के लिए क्या पहल की जा रही हैं?
JioHotstar ने TATA IPL 2025 को "Year of the Advertisers" यानी विज्ञापनदाताओं का साल घोषित किया है, जिसमें हर ब्रांड के लिए समाधान और अवसर प्रदान किए जाएंगे। छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायों (SMBs) से राजस्व बढ़ाने पर विशेष ध्यान देने के साथ, JioHotstar ने 10 शहरों में SMB आउटरीच प्रोग्राम शुरू किया है। इस पहल का उद्देश्य छोटे और मध्यम व्यवसायों को IPL की ताकत से जोड़ना है, ताकि वे भी इस मंच के जरिए अपनी वृद्धि को तेज कर सकें—सिर्फ बड़े कॉरपोरेट ब्रांड ही नहीं, बल्कि छोटे व्यवसायों के लिए भी यहां मौके उपलब्ध हैं।
JioHotstar छोटे व्यवसायों को ध्यान में रखते हुए किफायती पैकेज, टार्गेटेड विज्ञापन विकल्प, विभिन्न प्रकार के विज्ञापन प्रारूप और क्रिएटिव सपोर्ट जैसी सुविधाएं दे रहा है। SMB समुदाय से इस पहल को सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है, और इस कार्यक्रम ने एक नई लहर के रूप में छोटे विज्ञापनदाताओं को आकर्षित किया है, जिससे वे TATA IPL मंच का उपयोग कर अपने व्यवसाय को बढ़ा सकें।
लोकेशन-बेस्ड टार्गेटिंग इस पहल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उदाहरण के लिए, यदि आप एक रियल एस्टेट डेवलपर या ऑटोमोबाइल डीलर हैं और आप किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में विज्ञापन केंद्रित करना चाहते हैं, तो JioHotstar अब सटीक टार्गेटिंग की सुविधा प्रदान कर रहा है। यह उन SMBs के लिए बेहद फायदेमंद है जो स्थानीय स्तर पर मार्केटिंग करना चाहते हैं।
साथ ही, JioHotstar यह धारणा तोड़ना चाहता है कि IPL पर विज्ञापन देने के लिए बहुत बड़े बजट की जरूरत होती है। विभिन्न टार्गेटिंग रणनीतियों और किफायती विज्ञापन विकल्पों के माध्यम से यह दिखाया जा रहा है कि छोटे व्यवसायों के लिए भी IPL विज्ञापन किफायती और प्रभावी हो सकता है। जमीन पर सक्रिय प्रचार अभियानों और नई नवाचारों के साथ, JioHotstar को उम्मीद है कि IPL 2025 में रिकॉर्ड संख्या में छोटे व्यवसायों की भागीदारी देखने को मिलेगी।
IPL के विज्ञापन दरों में JioStar के विलय के बाद क्या बदलाव आया है? क्या विज्ञापनदाताओं को टीवी और डिजिटल पर कोई मूल्य लाभ मिल रहा है?
IPL विज्ञापन दरें इंडस्ट्री की मांग और आपूर्ति के आधार पर निर्धारित होती हैं। हमने पहले ही भारत-इंग्लैंड मैचों और चैंपियंस ट्रॉफी के लिए अपनी मूल्य निर्धारण रणनीति लॉन्च कर दी है। इनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए हमें विश्वास है कि यही रणनीति IPL 2025 में भी जारी रहेगी।
हमारी विज्ञापन दरें पहले से ही प्रभावी रूप से लागू हो चुकी हैं, और ये अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। इससे हमें IPL 2025 के लिए भी मजबूत रुझान दिखाई दे रहा है।
IPL 2025 के लिए सेल्स व रेवन्यू लक्ष्य क्या हैं? यह पिछले साल की तुलना में कैसा रहेगा?
फिलहाल हमारे पास कोई सटीक आंकड़े साझा करने के लिए नहीं हैं, लेकिन IPL 2024 ने व्यूअरशिप और एंगेजमेंट के कई रिकॉर्ड तोड़े थे। टीवी पर इसे 525 मिलियन दर्शकों ने देखा था, जबकि डिजिटल (मोबाइल उपकरणों) पर 425 मिलियन दर्शकों ने इसे स्ट्रीम किया था। बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी, भारत-इंग्लैंड सीरीज और अब चैंपियंस ट्रॉफी में जबरदस्त दर्शकों की भागीदारी को देखते हुए हमें विश्वास है कि IPL 2025 की व्यूअरशिप 1 बिलियन से अधिक होगी।
स्वाभाविक रूप से, इस बढ़ी हुई व्यूअरशिप के चलते हमें राजस्व में भी वृद्धि की उम्मीद है। हालांकि, IPL शुरू होने में अभी तीन सप्ताह बाकी हैं, इसलिए हमें देखना होगा कि चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं। लेकिन विज्ञापनदाताओं की मांग काफी मजबूत नजर आ रही है, और हम इसे लेकर आशावादी हैं।
IPL 2025 के लिए कितने स्पॉन्सर जुड़े हैं? कौन-कौन सी कैटेगरी आगे चल रही हैं?
मुझे ब्रांड के नाम साझा करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि आमतौर पर कंपनियां खुद अपनी IPL साझेदारी की घोषणा करना पसंद करती हैं। हालांकि, इस साल हमने बाजार को 40 श्रेणियों (कैटेगरी) में विभाजित किया है।
कुछ प्रमुख रुझान उभरकर सामने आए हैं। सबसे पहले, प्रीमियम विज्ञापन में बढ़ोतरी हुई है। अब विज्ञापनदाता CTV (कनेक्टेड टीवी), iOS डिवाइसेज़, 50,000 रुपये से अधिक कीमत वाले एंड्रॉइड फोन और HDTV यूजर्स को टारगेट कर सकते हैं, जिससे वे उच्च-स्तरीय (प्रीमियम) दर्शकों तक अधिक प्रभावी तरीके से पहुंच सकते हैं।
इसके अलावा, FMCG ब्रांडों के लिए महिलाओं पर केंद्रित विज्ञापन महत्वपूर्ण हो गया है। पिछले साल, IPL ने सिर्फ टीवी पर 200 मिलियन (20 करोड़) महिला दर्शकों को आकर्षित किया था, और इस सीजन में यह संख्या और बढ़ने की उम्मीद है।
कुछ सबसे सक्रिय श्रेणियों में पेय पदार्थ (गर्मियों की शुरुआत के कारण), एयर कंडीशनर, पंखे, पेंट्स, BFSI (बैंकिंग, वित्तीय सेवाएं और बीमा), फिनटेक, मोबाइल फोन हैंडसेट और फैंटेसी गेमिंग शामिल हैं।
तेजी से, कंपनियां अपने पूरे मार्केटिंग कैलेंडर को IPL के इर्द-गिर्द प्लान कर रही हैं, यह दर्शाते हुए कि भारत के विज्ञापन क्षेत्र में IPL का कितना बड़ा दबदबा है।
क्या IPL की स्ट्रीमिंग JioStar पर फ्री रहेगी, या इसे पेवॉल के पीछे कर दिया जाएगा?
हमारा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यूजर किसी भी पेवॉल (सशुल्क एक्सेस) तक पहुंचने से पहले कंटेंट के एक महत्वपूर्ण हिस्से का आनंद ले सकें। अभी तक हमने कोई निश्चित संख्या तय नहीं की है, क्योंकि हम अभी भी प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन फ्री एक्सेस काफी हद तक रहेगा—इतना कि यूजर पूरा मैच देख सकें।
यह रणनीति हमें एक संतुलन बनाने में मदद करती है—यूजर्स को हमारे प्लेटफॉर्म का अनुभव देने के लिए पर्याप्त समय देना, साथ ही विज्ञापनदाताओं के उद्देश्यों को पूरा करना। इस मॉडल की सफलता का सबसे अच्छा उदाहरण भारत-पाकिस्तान मैच है, जिसने अब तक की सबसे ज्यादा डिजिटल व्यूअरशिप दर्ज की थी। इस नतीजे ने हमें विश्वास दिलाया है कि हमारी रणनीति IPL 2025 में भी प्रभावी साबित होगी।
‘बीबीसी’ में डिजिटल प्रोडक्शन की हेड क्लेयर विलियम्स ने ‘e4m’ से बातचीत में मीडिया में आए बदलावों और भारत को लेकर बीबीसी के भविष्य के प्लान समेत तमाम अहम मुद्दों पर अपने विचार शेयर किए।
‘बीबीसी’ में डिजिटल प्रोडक्शन की हेड क्लेयर विलियम्स (Claire Williams) ने हमारी सहयोगी वेबसाइट ‘एक्सचेंज4मीडिया’ (e4m) के ब्रिज पाहवा के साथ बातचीत में पिछले दो दशकों में मीडिया में आए बदलावों, फेक न्यूज और भारत में बीबीसी के भविष्य के प्लान समेत तमाम अहम मुद्दों पर अपने विचार शेयर किए। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
आप पिछले दो दशकों से मीडिया इंडस्ट्री में हैं। इस दौरान आपने पत्रकारिता को कैसे बदलते देखा? व्यक्तिगत और व्यावसायिक दृष्टिकोण से नैरेटिव्स और प्रोडक्शन में क्या बदलाव आए हैं?
मैंने जब करियर की शुरुआत की थी, तब मैं रेडियो रिपोर्टर थी। उस समय हमें रिपोर्ट एडिट करने के लिए फिजिकल टेप काटकर जोड़ना पड़ता था। डिजिटल एडिटिंग का आना एक बहुत बड़ा बदलाव था। अब हम मल्टी-स्किल्ड पत्रकारों के साथ विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर कंटेंट तैयार और डिस्ट्रीब्यूट कर सकते हैं।
पहले एक रिपोर्टिंग टीम में साउंड इंजीनियर, कैमरामैन, प्रोड्यूसर और रिपोर्टर शामिल होते थे। लेकिन आज, एक पत्रकार अकेले ही यह सब कर सकता है। डिजिटल टूल्स के कारण काम तेज और अधिक स्वतंत्रता से किया जा सकता है। अब पत्रकार सिर्फ एक कैमरा और ट्राइपॉड लेकर ब्रेकिंग न्यूज कवर कर सकते हैं और तुरंत शेयर कर सकते हैं।
वैश्विक स्तर पर रिपोर्टिंग और मीडिया नैरेटिव्स कैसे बदले हैं, खासतौर पर दक्षिणपंथी विचारधाराओं की ओर राजनीतिक बदलाव को देखते हुए ट्रंप 2.0 जैसे दौर में रिपोर्टिंग में क्या बदलाव आते हैं?
बीबीसी की प्राथमिकता हमेशा एक ही रही है—विश्वसनीय और निष्पक्ष खबरें देना, चाहे सत्ता में कोई भी हो। गलत सूचनाओं (misinformation) की चुनौती बढ़ी है, और हम इसे बीबीसी वेरिफाई जैसी पहलों (initiatives) से रोकने की कोशिश कर रहे हैं। अब हम इस पर भी ध्यान देते हैं कि हम किन खबरों को कवर कर रहे हैं और दर्शकों को यह समझाते हैं कि हमारी पत्रकारिता की प्रक्रिया क्या है।
आज के दौर में जब गलत खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं, लोग ऑनलाइन खबरों की सच्चाई कैसे जांच सकते हैं?
किसी भी खबर पर विश्वास करने से पहले, लोगों को कई स्रोतों को देखना चाहिए। बीबीसी न्यूज एक भरोसेमंद स्रोत है, लेकिन मैं लोगों को सलाह दूंगी कि वे एक ही खबर को अलग-अलग मीडिया हाउस से पढ़ें। अगर खबरों में भिन्नता नजर आए, तो लोग खुद ही सही-गलत का अंदाजा लगा सकते हैं।
जब फेक न्यूज यानी फर्जी खबरें तेजी से फैलती हैं और सच्ची खबरें दब जाती हैं, तो बीबीसी इससे कैसे निपटती है?
बीबीसी ने फैक्ट-चेकिंग पर काफी निवेश किया है और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए हमेशा तैयार रहती है। भारत में ही हमारे 80 मिलियन (8 करोड़) से ज्यादा दर्शक और यूजर्स हैं, जो विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर हमारी खबरों को फॉलो करते हैं।
अगर कभी गलती होती है, तो हम उसे हटाने के बजाय तुरंत सुधार प्रकाशित करते हैं। पारदर्शिता हमारे लिए बहुत जरूरी है। एक बार हमारे डायरेक्टर जनरल, टिम डेवी को तब दखल देना पड़ा जब किसी अन्य प्लेटफॉर्म ने हमारी हेडलाइंस को इस तरह बदल दिया कि वे कम निष्पक्ष लगने लगे। उन्होंने सही खबर के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को मजबूत करते हुए इसे हल करने के लिए तत्काल कार्रवाई की।
सेंसरशिप की बात करें तो बीबीसी इसे कैसे मैनेज करता है?
रूस में बीबीसी को ब्लॉक कर दिया गया है, लेकिन हमारी रूसी टीम ने वहां टेलीग्राम पर एक बेहद लोकप्रिय चैनल लॉन्च किया, जिससे हम खबरें शेयर कर पा रहे हैं। इसी तरह, अफगानिस्तान में जहां लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाया गया, हमने दारी भाषा में एक शैक्षिक प्रोग्राम शुरू किया।
बाद में इसे अरबी में भी लॉन्च किया गया ताकि गाजा और सूडान जैसे संघर्ष-प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को जानकारी दी जा सके। हम हमेशा अपने दर्शकों तक पहुंचने का कोई न कोई तरीका ढूंढ लेते हैं, चाहे कितनी भी रुकावटें क्यों न आएं।
‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ (AI) ने पत्रकारिता में बड़ा बदलाव लाया है। बीबीसी इसे अपने काम में कैसे शामिल कर रही है?
‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ बेहतरीन टूल है, लेकिन हम इसे सावधानी से इस्तेमाल करते हैं। हमने अपनी 41 भाषा सेवाओं में एआई असिस्टेड ट्रांसलेशन को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लागू किया है। लेकिन कोई भी एआई-जेनरेटेड कंटेंट प्रकाशित करने से पहले, हमारी टीम के ह्यूमन एडिटर्स उसे जरूर रिव्यू करते हैं। हम पारदर्शिता बनाए रखते हैं। अगर कोई लेख एआई की मदद से तैयार किया गया है, तो हम उसे स्पष्ट रूप से बताते हैं ताकि पाठकों को इसकी जानकारी हो।
बदलते न्यूज कंजम्पशन पैटर्न खासकर लोगों की घटते अटेंशन स्पैन (ध्यान देने की अवधि) के बीच बीबीसी कैसे बदलाव कर रहा है?
अच्छी स्टोरी का मूलभूत स्वरूप नहीं बदला है, बस इसे प्रस्तुत करने के तरीके बदल गए हैं। अब हम एक ही खबर को कई फॉर्मेट में पेश करते हैं—टेक्स्ट आर्टिकल्स, 90-सेकंड के वीडियो, यूट्यूब फीचर्स और सोशल मीडिया स्निपेट्स। इससे अलग-अलग ऑडियंस अपने पसंदीदा तरीके से खबरें देख/पढ़ सकती हैं।
आज सिटीजन जर्नलिज्म और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स-जैसे ‘X’ (पूर्व में ट्विटर) न्यूज डिस्ट्रीब्यूशन को बदल रहे हैं। ऐसे में आपकी नजर में पत्रकारिता का भविष्य कैसा होगा?
पारंपरिक पत्रकारिता और सिटीजन रिपोर्टिंग एक साथ काम कर सकते हैं। हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीयता की है। सिटिजन जर्नलिस्ट्स नए दृष्टिकोण लाते हैं, लेकिन मीडिया हाउस जैसे बीबीसी तथ्य-जांच (verification) और संदर्भ (context) देने का काम करते हैं। दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना भविष्य की पत्रकारिता को आकार देगा।
भारत को लेकर बीबीसी की भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
भारत हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण बाजार है। हम यहां अपने साझेदारों को और मजबूत करेंगे और अपनी भाषा सेवाओं में निवेश जारी रखेंगे। भारत में हमारे छह भाषा सेवा प्लेटफॉर्म हैं और हमारी पहुंच लगातार बढ़ रही है। मेरा यह दौरा शानदार रहा। काश! मैं और अधिक समय यहां बिता सकती! हम अपने ‘कलेक्टिव न्यूजरूम’ (collective newsroom) के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखते हैं और भारतीय दर्शकों को विश्वसनीय खबरें प्रदान करने में जुटे हुए हैं।
जाने माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अपनी हाल ही में प्रकाशित किताब '2024: द इलेक्शन दैट सरप्राइज़्ड इंडिया' को लेकर समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा से बातचीत की।
जाने माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अपनी हाल ही में प्रकाशित किताब '2024: द इलेक्शन दैट सरप्राइज़्ड इंडिया' (2024: The Election That Surprised India) को लेकर समाचार4मीडिया के संपादक पंकज शर्मा से बातचीत की। इस किताब में उन्होंने बताया है कि टेलीविजन पत्रकारिता किस तरह से मतदाता की भावनाओं को सही ढंग से नहीं समझ पाई है। इस किताब में उन्होंने राजनीतिक कवरेज के बदलते समीकरणों को भी उजागर किया है।
'समाचार4मीडिया' को दिए गए इस एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में उन्होंने डिजिटल युग में टेलीविजन समाचारों के सामने आने वाली चुनौतियों, अतिवादी ध्रुवीकरण (हाइपर-पोलराइजेशन) के प्रभाव और इस बात पर चर्चा की कि पत्रकारिता का भविष्य कैसे इसकी विश्वसनीयता और ग्राउंड रिपोर्टिंग को फिर से स्थापित करने पर निर्भर करता है।
बातचीत के प्रमुख अंश
आपकी किताब 2024: The Election That Surprised India में आपने बताया है कि मीडिया ने राजनीतिक नैरेटिव को कैसे गढ़ा और उसे गलत तरीके से समझा। पत्रकारों से जमीनी हकीकत को समझने में क्या चूक हुई?
आधुनिक पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक यह है कि वह वास्तविक, जमीनी रिपोर्टिंग के बजाय डेटा-आधारित भविष्यवाणियों, एग्जिट पोल और डिजिटल नैरेटिव पर अधिक निर्भर हो गई है। 2024 के चुनावों ने यह साफ कर दिया कि चुनाव स्टूडियो की चर्चाओं या सोशल मीडिया बहसों में नहीं, बल्कि सड़कों पर लड़े और जीते जाते हैं। कई पत्रकार, जिनमें मैं भी शामिल हूं, ग्रामीण भारत में बदलाव के उन गहरे संकेतों को नहीं पकड़ पाए, जहां असली राजनीतिक समीकरण बदलते हैं। मीडिया अब ज्यादातर शहरों पर केंद्रित हो गया है और इसमें बड़े लोगों (अमीर, प्रभावशाली या शिक्षित वर्ग) की बातें ज्यादा दिखाई देती हैं। लेकिन कई बार यह जमीनी हकीकत से बिल्कुल अलग होती हैं। यानी, जो असली समस्याएं या मुद्दे आम लोगों, खासकर गांवों में हैं, वे मीडिया में कम दिखते हैं।
इसके अलावा, सुविधा आधारित पत्रकारिता का चलन बढ़ा है, जहां रिपोर्टर और विश्लेषक सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाओं, थिंक टैंक की रिपोर्टों और राजनीतिक बयानों पर निर्भर रहते हैं, बजाय इसके कि वे खुद लोगों से मिलकर उनकी राय समझें। इस तरह की दूरी के कारण न्यूज रूम की चर्चाएं एक इको चैम्बर (echo chamber) बन गई हैं, जो मतदाताओं की वास्तविक चिंताओं से कट चुकी हैं। मुख्यधारा की मीडिया में राजनीतिक नैरेटिव को अक्सर पोलस्टर्स और राजनीतिक रणनीतिकारों ने तय किया, जबकि वास्तविक लोगों की आवाजें अनसुनी रह गईं। डिजिटल चर्चाओं पर अत्यधिक निर्भरता ने एक झूठी राजनीतिक गति का भ्रम पैदा किया, जो अंततः मतदाताओं के वास्तविक व्यवहार से मेल नहीं खा सका।
भारत में राजनीतिक पत्रकारिता कैसे बदली है, और आप इसे किस दिशा में जाते हुए देखते हैं?
भारत में राजनीतिक पत्रकारिता में बड़ा बदलाव आया है। जब मैंने शुरुआत की थी, तब पत्रकारिता का मतलब था- जमीन पर जाकर रिपोर्टिंग करना, निर्वाचन क्षेत्रों में घूमना, लोगों से मिलना और उनकी आकांक्षाओं को समझना। लेकिन आज न्यूजरूम्स काफी हद तक टेक्नोलॉजी, डेटा विश्लेषण और सोशल मीडिया ट्रेंड्स पर निर्भर हो गए हैं। हालांकि ये सभी उपकरण महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये वास्तविक रिपोर्टिंग की जगह नहीं ले सकते।
इसके अलावा, मीडिया में राजनीतिक ध्रुवीकरण (पोलराइज़ेशन) बढ़ गया है, जिससे निष्पक्षता पीछे छूट गई है। कई मीडिया संस्थान किसी न किसी राजनीतिक हित के साथ खड़े दिखते हैं, जिससे निष्पक्ष रिपोर्टिंग के बजाय पक्षपाती कवरेज होता है। इसका असर दर्शकों के मीडिया पर भरोसे पर पड़ा है। हालांकि, मुझे लगता है कि भविष्य में पत्रकारिता में सनसनीखेज खबरों के खिलाफ एक बदलाव देखने को मिलेगा। लोग तथ्य-आधारित और गहराई से रिसर्च की गई पत्रकारिता को पसंद करने लगे हैं, और मुझे नए पत्रकारों में उम्मीद दिखती है, जो निष्पक्ष और सच्ची कहानियां सामने लाने की चुनौती स्वीकार कर रहे हैं।
एक और बड़ा बदलाव यह है कि लोग अब खबरें कैसे देखते और समझते हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के आने से दर्शकों का ध्यान कई हिस्सों में बंट गया है। अब सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स और स्वतंत्र न्यूज क्रिएटर्स नए दौर के पत्रकार बनकर उभरे हैं। इससे मीडिया ज्यादा लोकतांत्रिक तो हुआ है, लेकिन गलत जानकारी भी तेजी से फैलने लगी है। पारंपरिक मीडिया को गहराई वाली रिपोर्टिंग और डिजिटल-फ्रेंडली कंटेंट के बीच संतुलन बनाना होगा।
क्या आपको लगता है कि मीडिया ने जमीनी रिपोर्टिंग के बजाय डेटा-आधारित भविष्यवाणियों पर ज्यादा भरोसा करना शुरू कर दिया है?
बिल्कुल। राजनीति में डेटा विश्लेषण और चुनावी भविष्यवाणियां एक दोधारी तलवार हैं। डेटा बड़े पैमाने पर रुझान दिखा सकता है, लेकिन यह मतदाताओं की भावनाओं को पूरी तरह नहीं पकड़ सकता। 2024 के चुनावों में हमने यही देखा- कई भविष्यवाणियों ने युवाओं, ग्रामीण समुदायों और हाशिए पर खड़े वर्गों के वोटिंग पैटर्न को कम आंका। डेटा मॉडल कुछ हद तक वोटिंग व्यवहार का अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन ये व्यक्तिगत परेशानियों, क्षेत्रीय परिस्थितियों और आखिरी समय में बदलने वाले राजनीतिक नजरिए को नहीं पकड़ पाते।
मीडिया को डेटा और ग्राउंड रिपोर्टिंग के बीच संतुलन बनाना होगा, ताकि आंकड़े रिपोर्टिंग की जगह न लें, बल्कि उसे मजबूत बनाएं। जब आंकड़ों को समाज के गहरे राजनीतिक और सामाजिक बदलावों के बिना देखा जाता है, तो वे भ्रामक हो सकते हैं। एक पत्रकार के रूप में, हमें अपने सुरक्षित माहौल से बाहर निकलकर हर स्तर पर लोगों से बातचीत करनी चाहिए, न कि सिर्फ आंकड़ों और ग्राफिक्स पर निर्भर रहना चाहिए।
टीवी पर चुनावी कवरेज का भविष्य आप कहां देखते हैं? क्या डिजिटल मीडिया ने राजनीतिक विमर्श को गढ़ने में पारंपरिक न्यूजरूम्स को पीछे छोड़ दिया है?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि डिजिटल मीडिया ने पारंपरिक पत्रकारिता को बदलकर रख दिया है। लोग अब खबरें नए तरीके से ग्रहण कर रहे हैं, जहां सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स, यूट्यूबर्स और स्वतंत्र प्लेटफॉर्म मुख्य भूमिका निभा रहे हैं।
हालांकि, टेलीविजन की पकड़ अभी भी बनी हुई है, खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण भारत में। टीवी न्यूज़ का भविष्य इस पर निर्भर करता है कि वह खुद को कैसे ढालता है—उसे गहरी विश्लेषणात्मक रिपोर्टिंग पर ध्यान देना होगा, शोरगुल से हटकर विश्वसनीयता कायम करनी होगी। आने वाले वर्षों में ‘विश्वास’ ही सबसे बड़ी पूंजी होगी।
चुनावी कवरेज को केवल सतही बहसों और पैनल चर्चाओं से आगे बढ़ाना होगा। टीवी न्यूज़ चैनलों को खोजी पत्रकारिता, गहन रिपोर्टिंग और समुदाय-केंद्रित खबरों में निवेश करना चाहिए। दर्शक अब वास्तविकता और गहराई चाहते हैं, और जो चैनल सनसनी फैलाने के बजाय सार्थक खबरें देंगे, वे ही लंबे समय तक टिक पाएंगे।
क्या आपको लगता है कि आज पत्रकारों पर कॉरपोरेट और राजनीतिक दबाव पहले से ज्यादा है? क्या आपकी नजर में न्यूजरूम्स में अब ‘आत्म-सेंसरशिप’ (Self-Censorship) सीधा राजनीतिक हस्तक्षेप से भी बड़ी समस्या बन गई है?
यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है। राजनीतिक दबाव न्यूजरूम्स पर हमेशा रहा है, लेकिन आज की सबसे खतरनाक चुनौती ‘आत्म-सेंसरशिप’ है। पत्रकार, संपादक और मीडिया संस्थानों के मालिक खुद ही अंदाजा लगाकर कई खबरें रोक देते हैं, खासकर वे जो ‘विवादास्पद’ या ‘व्यवसाय के लिए जोखिमभरी’ मानी जाती हैं। यह माहौल सीधे सरकारी हस्तक्षेप से भी ज्यादा नुकसानदायक है, क्योंकि इसमें असहज करने वाले सच को ही रिपोर्ट नहीं किया जाता।
सच्ची पत्रकारिता के लिए साहस की जरूरत होती है, और हमें ऐसे पत्रकारों की आवश्यकता है जो कठिन सवाल पूछने की हिम्मत रखते हों, चाहे नतीजे कुछ भी हों। दुर्भाग्य से, कई मीडिया संस्थान अब जवाबदेही से ज्यादा सत्ता तक पहुंच को प्राथमिकता देते हैं, जिससे वे प्रभावशाली लोगों को चुनौती देने से बचते हैं। यदि इस समस्या का समाधान नहीं किया गया, तो मीडिया की विश्वसनीयता लगातार गिरती चली जाएगी।
आपकी किताब में गलत सूचना और सोशल मीडिया प्रोपेगेंडा का जिक्र है। क्या आपको लगता है कि अब टीवी न्यूज वॉट्सऐप फॉरवर्ड से कुछ बेहतर है? आप टीवी के 24X7 आक्रोश-आधारित कंटेंट को कैसे देखते हैं?
यह एक तीखा लेकिन सही सवाल है। पत्रकारिता और प्रोपेगेंडा के बीच की रेखा अब और धुंधली हो गई है, खासकर टीवी न्यूज़ में। कई प्राइम-टाइम डिबेट अब सूचना देने के बजाय एक तमाशे में बदल गई हैं—इनका मकसद दर्शकों को उकसाना होता है, न कि जानकारी देना। इसका नतीजा यह होता है कि व्हाट्सएप फॉरवर्ड और फेक न्यूज़ और ज्यादा फैलते हैं।
इसका समाधान यह है कि संपादकीय अनुशासन को दोबारा स्थापित किया जाए, सनसनी के बजाय तथ्यों पर ध्यान दिया जाए और पत्रकारिता को सिर्फ टीआरपी के लिए नहीं, बल्कि जनसेवा के रूप में देखा जाए। जब तक हम आक्रोश-आधारित कंटेंट से मुद्दों पर केंद्रित रिपोर्टिंग की ओर नहीं बढ़ते, तब तक हमारी विश्वसनीयता पूरी तरह खत्म होने का खतरा रहेगा।
2024 के चुनावी कवरेज को देखते हुए, क्या कोई एक चीज़ है जो आप चाहते कि मुख्यधारा की मीडिया अलग तरीके से करती?
काश हमने जमीन पर ज्यादा समय बिताया होता, असली लोगों की बात सुनी होती, बजाय स्टूडियो और आंकड़ों पर निर्भर रहने के। पत्रकारिता विश्वास पर टिकी होती है, और यह विश्वास वहीं बनता है जहां खबरें घट रही होती हैं। अगर 2024 के चुनावों ने हमें कुछ सिखाया है, तो वह यह कि मीडिया को गढ़ी हुई कहानियों के बजाय असली रिपोर्टिंग की ताकत को फिर से खोजने की जरूरत है।
जैसे-जैसे बजट 2025 नजदीक आ रहा है, CNBC-TV18 की मैनेजिंग एडिटर, शिरीन भान यह समझा रही हैं कि वित्तीय पत्रकारिता कैसे विकसित हो रही है
रुहैल अमीन, सीनियर स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।
जैसे-जैसे बजट 2025 नजदीक आ रहा है, CNBC-TV18 की मैनेजिंग एडिटर, शिरीन भान यह समझा रही हैं कि वित्तीय पत्रकारिता कैसे विकसित हो रही है, सुर्खियों की तुलना में संदर्भ (context) क्यों अधिक महत्वपूर्ण है और डिजिटल माध्यम हमारी अर्थव्यवस्था को समझने के तरीके को कैसे बदल रहा है।
बातचीत का सारांश:
बजट 2025 को लेकर काफी उत्सुकता है, इस साल के बजट को कवर करने और उसका विश्लेषण करने का आपका दृष्टिकोण क्या है?
दरअसल, हर बजट को लेकर काफी उत्साह होता है, और यह बजट भी अलग नहीं है। हमारे लिए बजट 2025 की मुख्य थीम "इस पल का उठाएं फायदा" (Seize the Moment) है। यह वाक्य इंडस्ट्री जगत के लीडर्स और आम जनता की उन भावनाओं को दर्शाता है, जो वे वित्त मंत्री से अपनी अपेक्षाओं के रूप में व्यक्त कर रहे हैं।
हम इसे "Seize the Moment" बजट इसलिए कह रहे हैं क्योंकि भारत ने एक बेहद कठिन और अनिश्चित वैश्विक दौर के बावजूद दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का सौभाग्य हासिल किया है। वैश्विक परिदृश्य अब भी अस्थिर बना हुआ है, खासतौर पर जब राष्ट्रपति ट्रंप ने टैरिफ का खतरा पेश किया है, जिससे धन प्रवाह (fund flows) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) पर प्रभाव पड़ सकता है।
हम मानते हैं कि यह सरकार के लिए एक अवसर है कि वह एक मजबूत विकास समर्थक संदेश दे। यह सरकार के लिए एक मौका है कि वह घरेलू और विदेशी, दोनों तरह के निजी निवेश को प्रोत्साहित करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराए और खासतौर पर नियामक प्रक्रियाओं में मौजूद अड़चनों को दूर करे। व्यापार करने में आसानी (Ease of Doing Business) को बेहतर बनाने और नियामक बाधाओं को दूर करने की दिशा में किया गया प्रयास बेहद महत्वपूर्ण होगा। इसी वजह से "Seize the Moment" (इस पल का उठाएं फायदा) बजट 2025 की हमारी कवरेज की मुख्य थीम होगी।
हमारी प्रोग्रामिंग अब ज्यादा इंटरैक्टिव हो गई है, जिसमें डिजिटल-फर्स्ट बजट IPs (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) को शामिल की गईं हैं। इस साल की एक खास पहल "Budget Baatcheet" है, जो एक यूट्यूब-फर्स्ट सीरीज है। इसमें CNBC-TV18 के बजट एडिटर्स के साथ अनौपचारिक बातचीत होगी, जिसमें उन प्रमुख विषयों पर चर्चा की जाएगी जो इस साल के बजट को आकार दे सकते हैं। हम कई प्लेटफॉर्म पर नए और आकर्षक फॉर्मेट का उपयोग कर रहे हैं, ताकि अपने दर्शकों से बेहतर जुड़ सकें और यह दिखा सकें कि बजट 2025 के दौरान देश और अर्थव्यवस्था का माहौल कैसा है।
आपके नजरिए में, पिछले पांच वर्षों में बजट रिपोर्टिंग कैसे बदली है?
असल में, बजट रिपोर्टिंग के तरीके में ज्यादा बदलाव नहीं आया है, क्योंकि अंततः यह एक नीति दस्तावेज (policy document) होता है, जो सरकार की आर्थिक रणनीति और समग्र सोच की झलक देता है। हमने बजट रिपोर्टिंग के अपने दृष्टिकोण को और धारदार बनाया है, खासकर इसलिए क्योंकि इतने वर्षों से इसे वास्तविक समय (real-time) में कवर करने और विश्लेषण करने का हमारा व्यापक अनुभव है।
एक ब्रैंड के तौर पर, CNBC-TV18 हमेशा अपने प्रोग्रामिंग में बदलाव लाने में विश्वास रखता है। हम लगातार अपने फॉर्मेट, शो की अवधि और अतिथि पैनल को अपडेट करते रहते हैं। हमने एक बड़ा और भरोसेमंद एक्सपर्ट्स का नेटवर्क बनाया है, जो पूरे महीने और खासकर बजट के दिन हमारे साथ जुड़ते हैं, ताकि बजट भाषण और प्रमुख घोषणाओं पर गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकें। हमें यह सौभाग्य मिला है कि हमने अपने पैनल में पूर्व राजस्व सचिव (Revenue Secretary), वित्त सचिव (Finance Secretary) और इस साल पूर्व आर्थिक मामलों के सचिव (Economic Affairs Secretary) को भी शामिल किया है। इससे हमारे दर्शकों को उन लोगों के नजरिए से बजट को समझने का मौका मिलता है, जो खुद बजट निर्माण प्रक्रिया में शामिल रहे हैं।
हमने इन तरीकों से अपने कवरेज को और बेहतर बनाया है, ताकि हमारे विश्लेषण की गुणवत्ता को और ऊंचा किया जा सके। हमने इसमें अधिक विशेषज्ञता, विविध दृष्टिकोण और गहरी संदर्भात्मक अंतर्दृष्टि जोड़ी है। वरना, जैसा कि मैं हमेशा कहती हूं, CNBC-TV18 एक अच्छी तरह से स्थापित बजट कवरेज मशीन है। हम पिछले 25 वर्षों से यह काम कर रहे हैं। लिहाजा, हमें पता है कि सटीक, गहरी और सबसे तेज बजट कवरेज कैसे दी जाती है और हम खुद को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। यही प्रतिबद्धता हमारे काम का मूल हिस्सा है।
क्या आप इस साल अपने विशेष प्रोग्रामिंग में इस्तेमाल किए गए किसी नए दृष्टिकोण या रचनात्मक तत्वों के बारे में बता सकती हैं?
हमेशा की तरह, हमने अपने बजट प्रोग्रामिंग में इनोवेशन (innovation) करने की कोशिश की है। CNBC-TV18 पिछले 25 वर्षों से भारत का बजट मुख्यालय (Budget Headquarters) रहा है और हमने अपने प्रोग्रामिंग में लगातार नए बदलाव किए हैं। पिछले एक महीने में, हमने विभिन्न क्षेत्रों से जानकारियां इकट्ठा की हैं, उम्मीदों का विश्लेषण किया है और इंडस्ट्री जगत के लीडर्स, रिटेल इन्वेस्टर्स, फॉरेन इन्वेस्टर्स और मार्केट सहभागियों (market participants) से उनकी विशलिस्ट (इच्छाएं) संकलित की हैं।
इस प्रक्रिया के माध्यम से, हमने अपने दर्शकों को यह समझने में मदद की है कि देश में बजट को लेकर क्या माहौल (mood check) और भावना (vibe check) है और लोग वित्त मंत्री से क्या उम्मीद कर रहे हैं। हमने इस साल बजट-केंद्रित कई नई इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टीज (IP's) तैयार की हैं, जिनमें नए फॉर्मेट शामिल किए गए हैं ताकि मौजूदा आर्थिक माहौल को बेहतर तरीके से दर्शाया जा सके। ऐसी ही एक पहल "Budget Town Hall" है, जहां हम विभिन्न क्षेत्रों की प्रमुख हस्तियों को एक साथ लाते हैं, ताकि वे हमारी अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर चर्चा कर सकें और विकास (growth) के लिए अपने सुझाव साझा कर सकें।
इस साल CNBC-TV18 की प्रोग्रामिंग में दर्शकों को कौन-कौन से नए दृष्टिकोण या रचनात्मक तत्व देखने को मिल सकते हैं?
इस साल की प्रमुख झलकियों में से एक हमारे बेहद लोकप्रिय "Budget Ballot" की वापसी है। हमने इसे पिछले साल अपने बजट प्रोग्रामिंग का हिस्सा बनाया था और इसे जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली थी। CNBC-TV18 Budget Ballot के जरिए हम देश के अलग-अलग हिस्सों में गए, जहां लोगों को बजट के लिए अपने सुझाव और सिफारिशें साझा करने के लिए आमंत्रित किया गया। हमने इस पहल को इस साल भी जारी रखा है और नागरिकों और दर्शकों की उम्मीदों को संकलित किया है। आश्चर्यजनक रूप से, आयकर में राहत आम नागरिकों की शीर्ष मांग बनी हुई है।
इसके अलावा, हमने टीवी और सोशल मीडिया पर अपने "Explainer Content" को काफी हद तक विस्तारित किया है। हमने बजट रिपोर्ट कार्ड चलाए हैं, जिसमें पिछले पूर्ण बजट में किए गए वादों को ट्रैक किया गया है और उनकी मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन किया गया है। इसके साथ ही, हमने बजट से जुड़े विस्तृत विश्लेषण (budget explainers) भी जारी रखे हैं, जिनमें प्रमुख आर्थिक शब्दों, आंकड़ों और संकेतकों को सरल भाषा में समझाया गया है, ताकि बजट को व्यापक दर्शकों के लिए अधिक सुलभ और समझने में आसान बनाया जा सके।
इसके अतिरिक्त, हम इस साल "Budget Bell LIVE" को NSE (National Stock Exchange) से शुरू कर रहे हैं। इस साल, हम नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में मौजूद रहेंगे और मार्केट एक्सपर्ट्स के एक उच्च-स्तरीय पैनल के साथ ओपनिंग बेल बजाएंगे। चूंकि बजट की घोषणा शनिवार को हो रही है और उस दिन बाजार पूरे दिन खुला रहेगा, हम NSE से सीधे लाइव मार्केट रिएक्शन की तेज़ और वास्तविक समय में कवरेज प्रदान करेंगे। तो ये कुछ नए तत्व हैं जिन्हें हमने अपनी प्रोग्रामिंग में जोड़ा है, साथ ही कई अन्य इनोवेटिव IPs (Intellectual Properties) भी शामिल किए गए हैं।
पिछले वर्षों के कौन से अनुभव इस साल की प्रोग्रामिंग को बेहतर बनाने के लिए लागू किए जा रहे हैं?
मैं पहले ही कुछ बिंदुओं का जिक्र कर चुका हूं। उदाहरण के लिए, Budget Ballot पिछले साल एक प्रयोग के रूप में शुरू किया गया था और इस साल यह जनता की मांग पर वापस लाया गया है। इसके अलावा, "Budget Bible" जिसमें बजट के आंकड़ों और बजट वादों की विस्तृत व्याख्या शामिल होती है, इस साल भी जारी रहेगी। ये सभी तत्व अब साल-दर-साल हमारी बजट कवरेज का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं और हमें अपने दर्शकों के अनुभव को और बेहतर बनाने में मदद कर रहे हैं।
2025 को देखते हुए, CNBC-TV18 के लिए कौन से विशेष विकास चालक (growth drivers) आप देख रहे हैं और आप उन्हें भुनाने (capitalize) की क्या योजना बना रहे हैं?
हमारा मुख्य ध्यान अभी भी टेलीविजन व्यवसाय पर केंद्रित है, जो हमारी नींव बना हुआ है। टेलीविजन के भीतर भी, हम लगातार अपने उत्पाद ऑफरिंग को बेहतर बनाने, कवरेज का विस्तार करने और विशेषज्ञता को गहराने के नए तरीके तलाश रहे हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस इंडस्ट्री में असली मूल्य, विशेषज्ञता (specialization) से आता है। यही कारण है कि हम विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशेषज्ञता और अधिकारिता को मजबूत करना जारी रखेंगे।
हमने खुद को बाजार (stock markets), बैंकिंग और मैक्रोइकॉनॉमिक्स के लिए एक विश्वसनीय प्लेटफॉर्म के रूप में स्थापित किया है। साथ ही, हमने स्टार्टअप और उद्यमिता (entrepreneurship), फार्मा और हेल्थकेयर, इंफ्रास्ट्रक्चर और करेंसीज एवं कमोडिटीज (currencies & commodities) को कवर करने में भी मजबूत प्रतिष्ठा बनाई है। आगे बढ़ते हुए, हमारा ध्यान इन क्षेत्रों में और अधिक गहराई से विशेषज्ञता विकसित करने पर होगा, क्योंकि मीडिया के प्रतिस्पर्धी माहौल में विशेषज्ञता एक महत्वपूर्ण विभेदीकरण (differentiator) होगी। यह दृष्टिकोण हमारी ताकत के साथ मेल खाता है और हम इसे और मजबूत करके अपने दर्शकों को अधिक मूल्य प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
हमारे लिए एक और बड़ा अवसर डिजिटल क्षेत्र में है। हम अपनी वेबसाइट और YouTube सहित सभी डिजिटल प्लेटफॉर्म पर पूरी ताकत से आगे बढ़ रहे हैं, जहां हमने असाधारण वृद्धि देखी है। वास्तव में, 2024 YouTube पर हमारे लिए एक रिकॉर्ड-ब्रेकिंग (record-breaking) वर्ष रहा है, और हम इस गति को बनाए रखने की योजना बना रहे हैं। डिजिटल ने हमें एक पूरी तरह से नई ऑडियंस और राजस्व स्रोत (revenue stream) प्रदान किया है, जिससे हमें डिजिटल-फर्स्ट (digital-first) और डिजिटल-ओनली (digital-only) कंटेंट बनाने का अवसर मिला है। इसके अलावा, डिजिटल हमें नए प्रयोग, नवाचार (innovation) और कहानी कहने के नए प्रारूप (storytelling formats) तलाशने की स्वतंत्रता देता है, जो पारंपरिक टेलीविजन पर हमेशा संभव नहीं होता।
हमारी वेबसाइट और YouTube के अलावा, हम Twitter, Instagram, Snapchat और LinkedIn जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी अपनी उपस्थिति को मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इन सभी प्लेटफॉर्म्स के अपने-अपने विशिष्ट अवसर हैं—सिर्फ कंटेंट वितरण (content distribution) के लिए ही नहीं, बल्कि कम्युनिटी बिल्डिंग (community building) और मोनेटाइजेशन (monetization) के लिए भी। 2025 में यह एक प्रमुख फोकस रहेगा।
अगला साल केवल भारत के सबसे विश्वसनीय और भरोसेमंद बिजनेस न्यूज ब्रैंड के रूप में हमारी 25 साल की विरासत का जश्न मनाने का नहीं होगा, बल्कि इसे और विकसित करने और भविष्य के लिए और अधिक प्रासंगिक बनाने का भी होगा। हमारा ध्यान CNBC-TV18 को टेलीविजन से परे कई प्लेटफार्मों पर और अधिक सुलभ बनाने पर केंद्रित है। इसका मतलब है परंपरागत सीमाओं से बाहर सोचना, नवाचार (innovation) और बदलाव (disruption) को अपनाना और उन चीजों के साथ प्रयोग करना जिनके बारे में हमें लगता है कि वे न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर बिजनेस न्यूज के भविष्य को परिभाषित कर सकती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और डॉ. मनमोहन सिंह (अब दिवंगत) के प्रधानमंत्री पद पर रहने के दौरान उनके मीडिया सलाहकार रहे पंकज पचौरी से पिछले दिनों समाचार4मीडिया ने खास मुलाकात की और तमाम अहम मुद्दों पर बातचीत की।
वरिष्ठ पत्रकार, GoNews India के फाउंडर और डॉ. मनमोहन सिंह (अब दिवंगत) के प्रधानमंत्री पद पर रहने के दौरान उनके मीडिया सलाहकार रहे पंकज पचौरी से पिछले दिनों समाचार4मीडिया ने खास मुलाकात की। इस मुलाकात के दौरान मीडिया से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर विस्तार से बातचीत हुई। इस दौरान पंकज पचौरी ने डॉ. मनमोहन सिंह के साथ अपने संबंधों पर भी विस्तार से बातचीत की और बताया कि कैसे उनका संबंध औपचारिकताओं से परे थे।
पंकज पचौरी का कहना था, ‘मेरे लिए मनमोहन सिंह जी का निधन केवल प्रोफेशनल स्तर पर नहीं, बल्कि निजी स्तर पर बहुत ही गहरे दुख का विषय है। मुझे याद है जब वर्ष 2018 में मेरे पिता का निधन हुआ था, तो मनमोहन जी ने ही सबसे पहले मुझे फोन किया था। उनके शब्दों में काफी आत्मीयता और सहानुभूति थी, जो दिलासा देने वाले थे। हमारा संबंध औपचारिकताओं से परे था। उन्होंने मेरे साथ एक दोस्त की तरह व्यवहार किया, भले ही मैं खुद को उनका 'चेला' (शिष्य) मानता था। वह अक्सर मेरे पिता के बारे में पूछते थे और फारसी और उर्दू में उनकी बौद्धिक गतिविधियों के बारे में स्टोरीज शेयर करते थे।
पचौरी का मानना है कि डॉ. सिंह काफी शांत रहते थे। उनकी इस चुप्पी को अक्सर गलत समझा गया और उनकी बुद्धिमत्ता को कम सराहा गया। 26 दिसंबर को डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बाद से तमाम साक्षात्कार देने और कई आर्टिकल लिखने के बाद भी पंकज पचौरी को लगता है कि डॉ. सिंह के योगदान की गहराई को पूरी तरह समझ पाना अभी भी संभव नहीं है।
डॉ. सिंह के साथ अपनी यादों को शेयर करते हुए पचौरी का कहना था कि तमाम राजनेताओं के विपरीत, डॉ. सिंह को टीवी पर आने या इंटरव्यू देने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। कई प्रमुख मीडिया हस्तियां बार-बार इंटरव्यू के लिए अनुरोध करतीं, लेकिन डॉ. सिंह ने हमेशा मना कर दिया। वह इस बात पर जोर देते थे कि उनके (डॉ. सिंह के) काम को खुद बोलने देना चाहिए।
पंकज पचौरी ने बताया, ‘डॉ. सिंह को यह समझाना कि मीडिया सम्मेलनों में भाग लेना अथवा तमाम शादियों/पार्टियों में शामिल होना मीडिया में अच्छी छवि बनाए रखने के लिए जरूरी है, काफी चुनौतीपूर्ण था। डॉ. सिंह का कहना होता था कि शासन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, न कि व्यक्तिगत प्रचार पर। लेकिन उन्हें तमाम विषयों की पूरी जानकारी रहती थी व याददाश्त भी उनकी बहुत शानदार थी, जिससे वह प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों के सवालों का सहजता से जवाब दे देते थे।’
वर्ष 2012 में जब पंकज पचौरी ने डॉ. सिंह के मीडिया एडवाइजर की भूमिका संभाली, तो उन्होंने एक पत्रकार की विपरीत संपादकीय स्वतंत्रता की तुलना एक राजनीतिक सलाहकार की जिम्मेदारियों से की। वह बिजनेस और स्वतंत्र पत्रकारिता के बीच संतुलन बनाने के अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए हाशिये पर पड़े लोगों के लिए लड़ने के महत्व पर जोर देते हैं। एक एडवाइजर के रूप में, उनकी भूमिका प्रधानमंत्री कार्यालय के बारे में संवाद करने और मीडिया प्लेटफार्म्स पर ज्यादा से ज्यादा पहुंच प्रदान करने में बदल गई।
मीडिया की घटती विश्वसनीयता
तमाम मीडिया संस्थानों की घटती विश्वसनीयता के लिए पंकज पचौरी दोषपूर्ण बिजनेस मॉडल को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका मानना है कि सरकारी विज्ञापनों पर अत्यधिक निर्भरता और सबस्क्रिप्शन आधारित रेवेन्यू मॉडल का कमजोर होना इसके पीछे मुख्य कारण है।
पंकज पचौरी के अनुसार, अखबारों के बीच कीमतों को लेकर छिड़ी जंग ने इंडस्ट्री को और भी अधिक विकृत कर दिया है। तमाम टीवी चैनल्स अक्सर ऐसे लोगों या बिजनेसमैनों द्वारा वित्तपोषित होते हैं, जिनका पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं, जिससे मीडिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ा। सोशल मीडिया की जवाबदेही की कमी ने इस समस्या को और बढ़ा दिया, जहां अक्सर बिना सत्यापन के सूचना फैल जाती है।
उन्होंने यह भी बताया कि विभिन्न गैर-पत्रकारिता वेंचर्स में उलझे तमाम मीडिया मालिक किस तरह अपनी संपादकीय स्वतंत्रता से समझौता करते हैं। पत्रकारिता और बाहरी व्यापारिक उपक्रमों के बीच का यह घालमेल ऐसे मीडिया मालिकों को सरकार और कॉर्पोरेट सहायताओं पर निर्भरता के एक चक्र में फंसा देता है। इससे पत्रकारिता की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता कमजोर होती है, और मीडिया बाहरी दबावों के सामने अधिक संवेदनशील हो जाता है।
सोशल मीडिया बनाम पारंपरिक मीडिया
सोशल मीडिया बनाम पारंपरिक मीडिया के बारे में पंकज पचौरी का कहना था कि भविष्य में पारंपरिक मीडिया आउटलेट्स बड़े घरानों द्वारा कब्जे में ले लिए जाएंगे, जैसा कि ग्लोबल स्तर पर देखा गया है, जैसे जेफ बेजोस का ‘वाशिंगटन पोस्ट’ खरीदना। भारत में भी, बड़े समूह पहले से ही महत्वपूर्ण मीडिया परिसंपत्तियों (media assets) का अधिग्रहण कर रहे हैं।
गूगल, मेटा और एमेजॉन जैसे तकनीकी दिग्गजों के विशाल मार्केट पर प्रभाव को रेखांकित करते हुए पंकज पचौरी का कहना था कि इन कंपनियों का संयुक्त मूल्य अब प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की जीडीपी के बराबर है। इन कंपनियों का मीडिया उपभोग और राजनीति पर अत्यधिक प्रभाव है, जैसा कि अमेरिकी चुनावों पर ‘टेस्ला’ के मालिक एलन मस्क के प्रभाव के रूप में में देखा गया है।
इसके अलावा, पंकज पचौरी का यह भी मानना है कि वॉट्सऐप की महत्वपूर्ण भूमिका, विशेष रूप से सत्तारूढ़ दल के लिए, राजनीतिक रणनीतियों और जमीनी स्तर पर लामबंदी में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। भुगतान बैंक के रूप में काम करने की अनुमति मिलने के बाद वॉट्सऐप देश के फाइनेंसियल ईकोसिस्टम में प्रमुख जगह बना सकता है और पेटीएम जैसे मौजूदा प्लेयर को कड़ी चुनौती दे सकता है।
देश में मीडिया का भविष्य
पचौरी ने मीडिया संगठनों की वर्तमान स्थिति के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की और कहा कि पारंपरिक बिजनेस जैसा चल रहा है, वैसा दृष्टिकोण एक विकसित वैश्विक मीडिया परिदृश्य में ज्यादा नहीं चल पाएगा।
भारतीय मीडिया दिग्गजों को भी इसी तरह के दबाव का सामना करना पड़ सकता है जब तक कि वे समय के अनुसार बदलाव नहीं करते। विश्वसनीयता और गुणवत्तापूर्ण कंटेंट प्रतिस्पर्धा में बढ़त बनाए रखने की चाबी है।
इस दौरान पंकज पचौरी ने यह भी कहा कि हालांकि कई छोटे प्लेटफॉर्म उभर रहे हैं, लेकिन उनकी वृद्धि विश्वसनीयता बनाए रखने और टिकाऊ रेवेन्यू मॉडल खोजने पर निर्भर करती है। उन्होंने ऐसे सिस्टम तैयार करने के महत्व पर प्रकाश डाला, जहां गुणवत्तापूर्ण कंटेंट ठोस मूल्य तैयार कर सके, जो मीडिया के भविष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के बारे में पूछे जाने पर, पंकज पचौरी ने इसकी तुलना टीवी और सोशल मीडिया जैसे पिछले तकनीकी विकासों से की, जहां इन सभी को पहले मौजूदा मीडिया मॉडल के लिए खतरे और बाद में अवसरों के रूप में देखा गया था। हालांकि, पंकज पचौरी में मीडिया में प्रवेश करने वाले युवा प्रोफेशनल्स के जुनून और क्रिएटिविटी को देखते हुए मीडिया के भविष्य के बारे में आशावादी दिखे।
सफरनामा
पंकज पचौरी के मीडिया में सफरनामे की बात करें तो उन्होंने 'सेंट जॉन्स कॉलेज', आगरा से कॉमर्स में स्नातक किया और लखनऊ से पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त की। जून 1984 में वह दिल्ली आए थे, जबकि उनके परिवार में कोई भी पत्रकारिता में नहीं था।
अपने करियर की शुरुआत 'द पैट्रियट' समाचार पत्र से करने के बाद, पचौरी ने 'द संडे ऑब्ज़र्वर', 'इंडिया टुडे', 'बीबीसी' और 'अमेरिकन पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सर्विस' जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में कार्य किया। वह 15 वर्षों तक एनडीटीवी से जुड़े रहे।
उन्होंने 'गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार' सहित कई सम्मान प्राप्त किए हैं। 2012 में, पंकज पचौरी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार के रूप में कार्यभार संभाला। इसके बाद उन्होंने 'GoNews' नामक भारत के पहले ऐप-आधारित टीवी न्यूज चैनल की स्थापना की।