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मालिक ईमानदार है, तो वह नहीं चाहेगा कि उसका अखबार किसी की ओर झुका दिखाई दे: राम कृपाल सिंह

राम कृपाल सिंह देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। इन्होंने 40 साल से भी अधिक का समय मीडिया को दिया है। वहीं ‘टाइम्स ग्रुप’ के साथ इन्होंने करीब 24 साल काम किया है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 05 August, 2021
Last Modified:
Thursday, 05 August, 2021
Ram Kripal Singh

राम कृपाल सिंह देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। इन्होंने 40 साल से भी अधिक का समय मीडिया को दिया है। वहीं ‘टाइम्स ग्रुप’ के साथ इन्होंने करीब 24 साल काम किया है। समाचार4 मीडिया से खास बातचीत में राम कृपाल सिंह ने न सिर्फ अपनी जीवन यात्रा को साझा किया बल्कि वर्तमान मीडिया पर भी खुलकर अपने विचार रखे। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

आप तो कानून की पढ़ाई कर रहे थे, फिर पत्रकार कैसे बन गए?

मैं ‘बीएचयू‘ से कानून की पढ़ाई कर रहा था और मेरी इच्छा न्यायपालिका में ही जाने की थी। वर्तमान में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश राय जी और मैं साथ ही पढ़ा करते थे। जेपी आंदोलन के समय मैं और हरिवंश जी दोनों एक साथ उससे जुड़े हुए थे। हरिवंश जी ने ही मुझसे कहा कि एक पत्रकार का कोर्स होता है और आपको वो करना चाहिए।

मैंने उनकी बात मानी और कोर्स पूरा होने के बाद मुझे ‘आज‘ अखबार के चंद्रकांत जी ने बुलाया। उन्होंने मुझे वहां काम करने का ऑफर दिया और मैंने तकरीबन छह महीने वहां काम किया। इसके बाद मुझे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया‘ से जुड़ने का मौका मिला और वर्ष 1978 में मुझे मुंबई जाने का मौका मिला और इसी के साथ ‘टाइम्स ग्रुप‘ के साथ मेरा रिश्ता शुरू हुआ।

आपने जिस दौर में अपना काम शुरू किया वो एक राजनीतिक अस्थिरता का दौर था, कुछ उस दौर के बारे में बताए।

गुजरात के एक कॉलेज की कैंटीन का बिल बढ़ा दिया गया था और इसके बाद वहां एक असंतोष पैदा हुआ। फिर वो लोग जेपी से मिले और उन्होंने भी छात्रों का समर्थन किया। हरिवंश जी ने ही कोशिश करके जेपी को ‘राजा राम मोहन राय‘ हॉस्टल में बुलाया था। देखते ही देखते वो आंदोलन ‘चिमन भाई पटेल हटाओ‘ से ‘अब्दुल गफूर हटाओ‘ तक जा पहुंचा था।

उसी दौर में मेरे पत्रकार जीवन की शुरुआत हो रही थी। इसके बाद जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं मुंबई गया, लेकिन मैं लखनऊ आना चाहता था। उस समय तक राजेंद्र माथुर जी ‘नवभारत टाइम्स‘ जॉइन कर चुके थे और 1980 के शुरुआती समय में मैं लखनऊ ‘नवभारत टाइम्स‘ चला आया।

इसके बाद इंदिरा गांधी जी की हत्या हुई और बाद में राजीव गांधी जी को पीएम बना दिया गया। उस दौर की लगभग सभी घटनाओं को  मैंने कवर किया है। उसी दौर में संतोष भारतीय जी मेरे पास आए और ‘रविवार‘ में काम करने का ऑफर वो लाए थे। उस समय नकवी जी और मैं साथ ही रहते थे और हम दोनों फिर ‘रविवार‘ में चले गए।

मैं उस समय सहायक संपादक और नकवी जी बतौर समाचार संपादक ‘रविवार‘ से जुड़े और 1985 के आसपास वो समय था, जब हम ‘चौथी दुनिया‘ नाम के अखबार से जुड़ गए। एक समय के बाद वापस लखनऊ जाने का मौका मिला, क्योंकि एसपी सिंह और राजेंद्र माथुर चाहते थे कि मैं वापस ‘नवभारत टाइम्स‘ में आ जाऊं और मैं और नकवी जी एक बार फिर लखनऊ की ओर चल दिए।

इसी के बाद राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत होती है। 1990 में जो गोलीकांड हुआ और उसके बाद 1992 में बाबरी मस्जिद के उस ढांचे को गिराया गया, वो सब घटनाएं मैंने एक पत्रकार के तौर पर देखीं और अनुभव की हैं।

एक दौर शाहबानो केस का भी आया, जब मैं ‘रविवार‘ में था। कभी किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक चुनी हुई सरकार अपने प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने के लिए कर सकती है।

उस घटना के बाद भारत की राजनीति में एक अभूतपूर्व बदलाव आया। उस एक्शन के रिएक्शन में राजीव गांधी को राम मंदिर का ताला खुलवाना पड़ा। मुझे ऐसा लगता है कि जेपी आंदोलन से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक का दौर एक ऐसा दौर था, जिसमें पत्रकारिता करना और निष्पक्ष काम करना बड़ी चुनौती थी।

शाहबनो के साथ जो हुआ, वो गलत था। क्या आप बताना चाहेंगे कि उस समय समाचार पत्रों ने इस घटनाक्रम को लेकर कैसे कवरेज की?

आजादी के बाद के समय को देखें तो देश में कई जगह छोटे-मोटे विवाद देखने को मिले, लेकिन राजीव गांधी ने कोर्ट के निर्णय के साथ जो छेड़छाड़ की, उसका व्यापक असर देखने को मिला।

दरअसल, आप इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि एक सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत उसी दौर के बाद देश में शुरू हुई। दरअसल, राजीव गांधी राजनीति के उन दांवपेचों से अवगत नहीं थे, जो कि अपने जीवनकाल में हर नेता को झेलने होते हैं।

इसके विपरीत अगर आप इंदिरा गांधी को देखें तो वो हर विचारधारा के लोगों को अपने पास रखती थीं, जगह देती थीं और सुनती भी थीं, लेकिन करती वही थीं, जो उनके मन को अच्छा लगता था। राजीव गांधी की इसी गलती का परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर दंगों के रूप में देखा गया और उस समय ऐसी घटनाओं की कवरेज करना इतना आसान नहीं होता है।

1990 से 1992 के बीच जो घटनाएं हुईं, उनका निष्पक्ष तरीके से विश्लेषण करना बेहद कठिन कार्य था, ये सब संवेदनशील घटनाएं थीं, जिन्होंने देश की राजनीति को एक नए आयाम दिए।

बाबरी मस्जिद के गुंबद को जब तोड़ा गया तो वो तस्वीर सबसे पहले ‘टाइम्स नेटवर्क‘ के अखबारों में छापी गई थी। इसके अलावा दंगों में मरने वाले लोगों की कभी हमने गलत रिपोर्टिंग नहीं की। उस दौर में कई ऐसे अखबार और पत्रिकाएं थे, जो बढ़ा-चढ़ाकर आकंड़ा दिखा रहे थे, लेकिन हम लोगों ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया।

एक अखबार को चलाने के लिए तमाम संसाधन और पैसा चाहिए। क्या संपादक होने के नाते कभी आपने कॉर्पोरेट का दबाब झेला है?

मैंने अरुण पुरी जी के साथ भी काम किया, अशोक जैन और उनके बच्चे विनीत और समीर जैन के साथ भी काम किया है। ‘टाइम्स ग्रुप‘ के साथ मेरी यात्रा 24 साल से भी अधिक समय तक रही है। मुझे एक बार विनीत जैन ने साफ कहा था कि अगर कोई विज्ञापनदाता किसी भी खबर के लिए अगर आप पर दबाब डाले तो आप सीधे मुझे कॉल कर सकते हैं।

मैं आपको ये दावे के साथ कह सकता हूं कि मैंने आज तक किसी के भी दबाब में कोई न्यूज नहीं छापी है। इतना जरूर है कि अगर किसी दिन अमुक कंपनी का परिणाम जारी हो रहा हो तो उसका मालिक अनुरोध जरूर करता था।

इस प्रकार के अनुरोधों पर मैं एक ही जवाब देता था कि अगर परिणाम आएगा तो वो वैसे भी छपने ही वाला है। इसमें संपादक से कहने की कोई जरूरत नहीं है।

आपको बता दूं कि अरुण पुरी जी हमेशा एक बात कहते थे कि आप किसी भी व्यक्ति के चरित्र हनन की खबर को पूरी पड़ताल करने के बाद ही छापें ! अगर वो गलत हुई तो  माफी मांगने की नौबत भी आएगी, लेकिन तब तक बड़ी देर हो जाएगी। मुझे अपने अनुभव से ऐसा लगता है कि अगर आप ईमानदार हैं और अपनी जिम्मेदारी समझते हैं तो कोई भी व्यक्ति नहीं चाहेगा कि उसका अखबार किसी की ओर झुका हुआ दिखाई दे।

वर्तमान में टीवी और टीआरपी के खेल में हो रहे शोर शराबे को कैसे देख रहे हैं ?

टीवी, रेडियो और अखबार ये तीनों माध्यम अपने आप में एक अलग तरह से काम करते हैं। इनकी कुछ ताकतें हैं तो कुछ कमजोरी भी हैं। अगर किसी दिन खबरें अधिक हैं तो अखबार में पेजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, लेकिन टीवी के पास तो सिर्फ तय समय है। उसमे भी आपको विज्ञापन दिखाने हैं।

अब इसी का आप दूसरा पहलू देखिए।अगर आज सुबह दस बजे कोई घटना हुई तो अखबार में तो कल सुबह ही आएगी, लेकिन टीवी में आप उसको तुरंत देख सकते हैं वो भी वीडियो के साथ। मुझे ऐसा लगता है कि दर्शकों/पाठकों को बनाए रखने की हर माध्यम की अपनी मजबूरी होती है। इसके लिए कई बार कुछ अलग करने के चक्कर में नाग- नागिन जैसी चीज होती हैं।

जिस हिंदुस्तान को लोग सिर्फ किताबों में पढ़ते थे और सुनते थे, उस हिंदुस्तान से टीवी ने लोगों को रूबरू करवाया और मुझे लगता है कि वो दौर अब खत्म हो गया है और अब आने वाले समय में चीजें बेहतर होंगी।

वर्तमान में कई लोग कहते हैं कि टीवी डिबेट खत्म कर देनी चाहिए, सोशल मीडिया पर भी तमाम द्वेष फैला हुआ है! इससे कितने सहमत हैं?

देखिए, जो पीड़ा आपके प्रश्न में है, वो दर्शक की भी है और मेरी भी है, लेकिन मैं आशावादी इंसान हूं। श्री कृष्ण को भी पता था कि ये जो हो रहा है वो ठीक नहीं हो रहा है, लेकिन आगे का रास्ता भी यहीं से होकर निकलेगा।

ऑपरेशन ‘ब्लू स्टार‘ के बाद भी इंदिरा गांधी जी को ये कहना पड़ा था कि ये जरूरी हो गया था, इसलिए करना पड़ा। इस दौर में भी ऐसे कई चैनल्स हैं, जो अब साफ सुथरे ढंग से अपनी बात कहने लगे हैं। आज जिस तरह से शोर हो रहा है और मेहमानों की आवाज सुनाई ही नहीं देती है तो जो भी एंकर ये कर रहे हैं, उन्हें उनका दर्शक ही आने वाले समय में कुछ अच्छा करने के लिए मजबूर कर देगा।

समाचार4मीडिया के साथ राम कृपाल सिंह की बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।

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रेडियो के शौकीनों के लिए काफी अच्छा है सरकार का ये कदम: राहुल नामजोशी

‘माय एफएम’(MY FM) में चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर राहुल नामजोशी ने रेडियो इंडस्ट्री से जुड़े तमाम अहम मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी है।

Last Modified:
Monday, 15 May, 2023
Rahul Namjoshi

देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में शुमार ‘डीबी कॉर्प लिमिटेड’ (D. B. Corp Ltd) की रेडियो डिविजन ‘माय एफएम’(MY FM) में चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर (CEO) राहुल नामजोशी का मानना है कि रेडियो इंडस्ट्री क्या चाहती है और सरकार क्या फैसला करती है, इसके बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिए। राहुल नामजोशी के अनुसार, मार्केट में तमाम अवसर मौजूद हैं। हमारी सहयोगी वेबसाइट ‘एक्सचेंज4मीडिया’ (exchange4media) से बातचीत में राहुल नामजोशी ने रेडियो इंडस्ट्री से जुड़े ऐसे ही तमाम प्रमुख मुद्दों पर विस्तार से अपनी बेबाक राय रखी है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

उत्तर-पश्चिम भारत के छह से ज्यादा राज्यों में ‘माय एफएम’ के स्टेशन हैं। क्या दक्षिण के मार्केट में इसके विस्तार की कोई योजना है?

हम अपना पूरा फोकस उत्तर और पश्चिम पर केंद्रित करना चाहते हैं। हम जनसांख्यिकी (demography) और भाषाओं के मामले में दक्षिण भारत के मार्केट्स से अच्छी तरह वाकिफ नहीं हैं, इसलिए हम दक्षिण में निवेश करने से हिचकते हैं। हालांकि, हम उत्तर और पश्चिम भारत में अपने मार्केट्स का विस्तार करना जारी रखेंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार किस तरह का आधार मूल्य (base price) तय करती है।

इस वित्तीय वर्ष को आप किस तरह देख रहे हैं। कुछ शुरुआती ट्रेंड्स नजर आ रहे हैं?

हमारे बिजनेस की यही खासियत है कि हम बिजनेस के आने का इंतजार नहीं करते हैं, बल्कि हम उसे बनाने पर काम करते हैं और यह सृजन हमारे रेवेन्यू का लगभग 25% से 30% है। हमारे प्राइमरी मार्केट टियर II और III मार्केट्स हैं, जहां देश का विकास निहित है। आज लगभग सभी कैटेगरी इन मार्केट्स पर फोकस कर रही हैं। इसके अलावा, हम ज्यादा वॉल्यूम (highest volume) हासिल करने की दौड़ में नहीं हैं, लेकिन वैल्यू की तलाश करते हैं। हमें पूरा विश्वास है कि यह वित्तीय वर्ष हमारे लिए सबसे अच्छा होगा।

केंद्र सरकार एफएम ब्रॉडकास्ट की नीलामी की योजना बना रही है। आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?

हमें अभी तक सरकार से इस बारे में कोई सूचना नहीं मिली है। हालांकि, रेडियो इंडस्ट्री क्या चाहती है और सरकार क्या निर्णय लेती है, इसके बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिए। हमने हाल ही में सरकार के साथ सकारात्मक बैठक की है और देश में निजी एफएम के विकास को बढ़ावा देने के लिए उनसे अपनी अपेक्षाएं शेयर की हैं। तीसरे चरण के लिए रेडियो इंडस्ट्री के बारे में अभी कुछ नहीं कह सकते हैं। तीसरे बैच की नीलामी सही मूल्य पर निर्भर है। पिछले साल तीसरे चरण के बैचों ने ज्यादा ध्यान आकर्षित नहीं किया था, क्योंकि आधार मूल्य यानी बेस प्राइस बहुत ज्यादा था। इसके अलावा, रेडियो बिजनेस एक कमाऊ बिजनेस है इसलिए हम प्रॉफिटेबल बिजनेस बने रहने के लिए अपने खर्चों पर नजर रखते हैं।

रेडियो स्टेशनों में निवेश को लेकर आपकी क्या प्लानिंग है?

हम एक आशावादी ब्रैंड हैं और इस वित्तीय वर्ष को लेकर बहुत उत्साहित हैं, हमारे पास आगामी वर्ष के लिए कई प्रमुख योजनाएं हैं। हम अभी इस बारे में ज्यादा कुछ शेयर नहीं कर सकते हैं, लेकिन जल्द ही आपको कई नए शो की लॉन्चिंग और अन्य घोषणाएं सुनने को मिलेंगी। मानव संसाधनों (ह्यूमन रिसोर्स) में निवेश के अलावा हम टेक्नोलॉजी में निवेश करेंगे।

‘टैम’ (TAM) की रिपोर्ट्स के अनुसार, कोविड और उसके बाद रेडियो पर विज्ञापनों की मात्रा (radio ad volume) काफी बढ़ गई। अब विज्ञापन बिजनेस कैसा चल रहा है और अगले वर्ष कौन से ब्रैंड ‘माय एफएम’ में निवेश कर रहे हैं?

एफएमसीजी, शिक्षा, रियल एस्टेट और हेल्थकेयर श्रेणी के अलावा, ज्वेलरी ब्रैंड्स रीजनल मार्केट्स में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा, नेशनल ब्रैंड्स धीरे-धीरे रीजनल मार्केट्स की ओर बढ़ रहे हैं, क्योंकि इनका ROI (Return on Investment) अपेक्षित अधिक है और स्थानीय ब्रैंड्स को कड़ी टक्कर देने के लिए तमाम नेशनल ब्रैंड्स रेडियो जैसे हाइपर लोकल माध्यमों में भारी निवेश कर रहे हैं।

वर्तमान में रेडियो किस तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है?

रेडियो ब्रॉडकास्टर्स को न्यूज प्रसारित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। अधिकांश निजी एफएम चैनल्स प्रतिष्ठित मीडिया समूहों के स्वामित्व में हैं और हमें ‘प्रसार भारती’ से न्यूज लेने के बजाय खुद न्यूज जुटाने और उसे अपनी शैली में प्रसारित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। रेडियो पर न्यूज गेमचेंजर साबित होगी।

सरकार ने पिछले दिनों एक एडवाइजरी जारी की है कि सभी मोबाइल फोन में एफएम रेडियो की सुविधा होनी चाहिए। आप इसे किस रूप में देखते हैं?

यह काफी अच्छी बात है और इससे रेडियो श्रोताओं की संख्या में और बढ़ोतरी होगी। हम इस एडवाइजरी के लिए सरकार के आभारी हैं और हमें उम्मीद है कि लोगों के हित में सभी मोबाइल निर्माता सभी मोबाइल फोन में रेडियो एफएम की उपलब्धता सुनिश्चित करेंगे। 

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जो पत्रकार यह बात छिपाते हैं, वह अपने अलावा समाज के संग भी अपराध करते हैं: विष्णु त्रिपाठी

मीडिया से जुड़े तमाम अहम सवालों पर वरिष्ठ पत्रकार और ‘दैनिक जागरण’ (Dainik Jagran) समूह में एग्जिक्यूटिव एडिटर विष्णु त्रिपाठी ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है।

पंकज शर्मा by
Published - Wednesday, 10 May, 2023
Last Modified:
Wednesday, 10 May, 2023
Vishnu Tripathi

मीडिया की वर्तमान दशा व दिशा क्या है, टीवी व डिजिटल के तेजी से बढ़ते कदमों के बीच प्रिंट मीडिया का भविष्य कैसा है और आखिर मीडिया की विश्वसनीयता पर क्यों सवाल उठ रहे हैं? मीडिया से जुड़े ऐसे ही तमाम अहम सवालों पर वरिष्ठ पत्रकार और ‘दैनिक जागरण’ (Dainik Jagran) समूह में एग्जिक्यूटिव एडिटर विष्णु त्रिपाठी ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

सबसे पहले अपने बारे में बताएं। आपने किस तरह और कहां से पत्रकारिता की शुरुआत की। इस मुकाम तक पहुंचने का आपका सफर कैसा रहा?

वर्ष 1982 में मैंने कानपुर से मीडिया में कदम रखा था। जैसा कि आम परिवारों में होता है। ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने नौकरी की तलाश शुरू कर दी। उस समय मैं संपादक के नाम पत्र (Letter to Editor) लिखता था। तमाम अखबारों में आर्टिकल लिखता था। उन दिनों कानपुर से एक सांध्य दैनिक ‘लोक जनसमाचार’ निकलता था। मैं उससे जुड़ गया। वहां काफी काम किया और मुझे काफी सीखने को मिला। इसके बाद दिसंबर 1985 से अखबार की वास्तविक नौकरी में आया। सबसे पहले हिंदी दैनिक ‘आज’ को कानपुर में जॉइन किया। इसके बाद आगरा में ‘दैनिक जागरण’ और फिर ‘आज’ दोनों की लॉन्चिंग टीम में शामिल रहा।  आगरा से जून 1988 में दैनिक जागरण, लखनऊ जॉइन किया और तब से इस अखबार में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं।

मीडिया में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान आपने पत्रकारिता को काफी बारीकी से देखा है। आपकी नजर में पहले के मुकाबले वर्तमान दौर की पत्रकारिता में क्या बदलाव आया है। क्या यह सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। इस बदलाव को आप किस रूप में देखते हैं?

मेरा मानना है कि पहले के मुकाबले पत्रकारिता की दुनिया में काफी बेहतरी आई है। समय के अनुकूल काफी चीजें बदली हैं। तकनीकी रूप से भी काफी समृद्धि हुई है। हमने जब अखबार की दुनिया में शुरुआत की थी, उस समय हैंड कंपोजिंग होती थी। सिलेंडर पर छपाई होती थी। उसके बाद कंप्यूटर का दौर आया। कहने का मतलब है कि समय के साथ तकनीकी तौर पर मजबूती अधिक आई है।

कंटेंट की क्वालिटी को लेकर एकबारगी चर्चा और बहस हो सकती है, लेकिन तकनीकी और प्रस्तुतिकरण के स्तर पर काफी समृद्धि आई है। लेआउट और डिजाइन की समझ भी काफी बेहतर हुई है। जहां तक कंटेंट क्रिएशन की बात है, तो इसमें प्रोफेशनलिज्म और फॉर्मेलिटी बहुत आई है। हालांकि, इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू हैं, लेकिन औपचारिकता आने से प्रोसेस और लेखन, दोनों में परिपक्वता आई है।

आज का दौर डिजिटल मीडिया का दौर कहलाता है। या यूं कहें कि डिजिटल मीडिया काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। आजकल तमाम माध्यमों से लोगों को जरूरी सूचनाएं तुरंत ही मिल जाती है, जबकि अखबार अगले दिन आता है। ऐसे में प्रिंट मीडिया खासकर अखबारों के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?

इंटरनेट मीडिया और वेबसाइट्स आने के बाद से मैं वर्ष 1999-2000 से इस बात को सुन रहा हूं कि अखबारों का भविष्य अंधकारमय है। अब अखबार कम छपेंगे। अखबार कम पढ़े जाएंगे और लोग वेबसाइट्स पर तुरंत खबर पढ़ लेंगे, जैसी तमाम बातें होती थी। ‘दूरदर्शन’ के बाद जब निजी न्यूज चैनल्स आए तो उस समय इस तरह की काफी बहस छिड़ी थी। उस समय पूरे दैनिक जागरण समूह की एक वर्कशॉप भी इसे लेकर हुई थी।

उस समय यह बहस शुरू हुई थी कि अब टीवी के आने के बाद जब लोग अपने घरों में बैठकर रात को सारी खबरें देख लेंगे तो सुबह अखबार कौन पढ़ेगा? लेकिन, उसके बाद भी न सिर्फ अखबारों की संख्या बढ़ी है, बल्कि रीडरशिप भी बढ़ी है। इसके बाद तमाम वेबसाइट्स के आने से भी इस तरह की बहस आए दिन छिड़ती रहती है। मेरा मानना है कि जो तत्काल मिलती है, वह सूचना होती है। वह समाचार नहीं होता है। सूचना के बाद समाचार का नंबर आता है। सूचना और समाचार दोनों में अंतर होता है। यानी जो ब्रेकिंग के तौर पर तुरंत मिली, उसे हम सिर्फ सूचना यानी इंफॉर्मेशन कह सकते हैं। उसकी डिटेलिंग समाचार कहलाती है। न्यूज के बाद की जो डिटेलिंग होती है, उसे स्टोरी कहते हैं। स्टोरी के बाद फिर लगातार उसके फॉलोअप्स होते हैं।

यानी, समाचार की जो प्रक्रिया होती है, उसमें हमें ये चार चरण (इंफॉर्मेशन, न्यूज, स्टोरी और फॉलोअप्स) सिखाए गए हैं। इसमें अखबार का कोई सानी नहीं है। छपे हुए को पढ़ने का जो अभ्यास, संतुष्टि और आनंद है, वह अलग ही होता है। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि कुछ समय पहले जब दिल्ली में ‘विश्व पुस्तक मेले’ का आयोजन हुआ था, उसमें इतने ज्यादा लोग पहुंचे थे कि पांव रखने तक की जगह नहीं थी। आप ये देखिए कि यदि लोगों में पढ़ने का अभ्यास कम हो रहा है अथवा नई पीढ़ी यदि पढ़ने के अभ्यास से विमुख हो रही है तो तमाम बड़े-बड़े लेखक जो एडवांस में रॉयल्टी लेकर लिखते हैं या  विदेश जाकर बड़े-बड़े होटलों में कमरे लेकर लेखन कर रहे हैं तो वो ऐसा कैसे कर पा रहे हैं, अंततः यह सब पाठकों के बढ़ते समूह के सौजन्य से ही हो पा रहा है। यानी लोगों में पढ़ने का क्रेज या अभ्यास बढ़ रहा है।

इसलिए मेरा मानना है कि अखबारों का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। हां, अखबारों का भविष्य समाचार माध्यमों की किसी दूसरी विधा के हाथों में सुरक्षित अथवा असुरक्षित नहीं है। चाहे वह टीवी मीडिया हो, डिजिटल मीडिया हो अथवा इंटरनेट मीडिया हो। अखबार यदि सुरक्षित हैं तो वह अखबारों में काम करने वाले गंभीर और कुशल लोगों के हाथों में सुरक्षित हैं। कल को यदि प्रिंट मीडिया को किसी तरह का कोई क्षरण अथवा नुकसान होता है तो वह अखबारों में काम करने वाले लोगों की गंभीरता में अथवा कुशलता में कमी की वजह से होगा, अन्य किसी बाहरी माध्यमों से नहीं।

अब बात करते हैं फेक न्यूज की, जिसकी आजकल काफी चर्चा हो रही है। फेक न्यूज को लेकर आपका क्या कहना है, आखिर यह क्यों इतनी बढ़ रही है?

देखिए, फेक न्यूज दो प्रकार की होती है। फेक न्यूज यानी गलत खबरें हमेशा से छपती रही हैं। यदि किसी दुर्घटना की वजह, किसी गलतफहमी की वजह से, कम सतर्कता की वजह से अथवा असावधानी की वजह से अगर कोई गलत खबर अथवा गलत सूचना प्रकाशित होती है तो उसका शुद्धिकरण/परिमार्जन किया जाना चाहिए। लेकिन, यदि योजनाबद्ध तरीके से अथवा नियोजित तरीके से किसी गलत, अनुचित या निराधार सूचना/समाचार का प्रकाशन होता है तो उसे संगीन अपराध की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। उसे संज्ञेय अपराध माना जाना चाहिए और ऐसा करने वालों को समाजद्रोही और राष्ट्रद्रोही के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए।

क्या आपको लगता है कि फेक न्यूज पर लगाम लगाने के लिए वर्तमान में उठाए जा रहे कदम कारगर हैं। जैसे-पीआईबी समेत तमाम संस्थानों ने अपनी फैक्ट चेक टीम बना रखी है। आपकी नजर में इसकी रोकथाम के लिए क्या कोई ठोस ‘फॉर्मूला’ है?

यहां सवाल सिर्फ नैतिकता का है। तमाम ऐसी संस्थाएं हैं, जो अपने स्तर पर फैक्ट चेक करती हैं। वे लोगों को जागरूक कर रही हैं, सतर्क कर रही हैं। हम इसका स्वागत करते हैं। बस देखने वाली बात यह है कि जो लोग योजनाबद्ध तरीके से और अपने हिसाब से चीजों को सही साबित करने के लिए गलत सूचना प्रसारित/प्रकाशित करते हैं, उन पर इन एजेंसियों की सक्रियता का कितना असर पड़ रहा है?

उनके लिए तो इन एजेंसियों की सक्रियता ठीक है जो कभी असावधानी अथवा प्रक्रिया में किसी कमी या किसी का वर्जन न लेने के चक्कर में गलत सूचना को प्रसारित कर बैठते है, क्योंकि वे इससे सबक लेते हैं। लेकिन, जो लोग अपने हित के लिए और अपनी वैचारिकता के आधार पर गलत चीजों को फैलाने अथवा किसी को आक्षेपित करने के लिए, किसी की छवि बिगाड़ने के लिए जानते-बूझते हुए योजनाबद्ध तरीके से गलत तथ्यों और गलत विजुअल्स का प्रकाशन/प्रसारण करते हैं, वह खतरनाक है। ऐसे लोग इन एजेंसियों की सक्रियता से कितना सबक लेते होंगे और कितना सीखते होंगे, यह सोचने का विषय है।

अब कोविड लगभग खत्म हो चुका है। हालांकि, कुछ केस अभी भी आ रहे हैं, लेकिन अब पहले वाली स्थिति नहीं है। ऐसे में अखबारों के नजरिये से वर्तमान दौर को आप किस रूप में देखते हैं। क्या अखबार कोविड से पहले के दौर की तरह अपनी पहुंच फिर बनाने में कामयाब हो रहे हैं?

बिलकुल, कई अखबार काफी तेजी से कोविड से पहले वाली स्थिति की तरफ लौट रहे हैं। यहां विशेषकर मैं अपने अखबार की और दिल्ली-एनसीआर की बात करूं तो रिकवरी काफी अच्छी हो रही है। कोविड के दौरान जब तमाम अखबारों का सर्कुलेशन थोड़ा प्रभावित हुआ था, तो दो तरह की बातें थीं। कुछ लोगों ने संक्रामकता के संदेह में अखबार न पढ़ने का फैसला कर लिया था। हालांकि, तमाम ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने अपने स्तर पर इस धारणा को गलत माना था।

ऐसे लोगों का मानना था कि अखबार से किसी तरह का वायरस नहीं फैलता है और उन्होंने तभी से अखबार पढ़ना शुरू कर दिया था। कई लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने अपने जीवन में अखबार की कमी महसूस की। जब तमाम अन्य माध्यमों से इन लोगों की समाचार की और बौद्धिकता की भूख शांत नहीं हुई तो उन्होंने दोबारा से अखबार मंगाना शुरू कर दिया। ऐसे में मैं अपने अखबार के आधार पर कह सकता हूं कि प्रिंट इंडस्ट्री फिर से आगे बढ़ रही है।

तमाम अखबारों ने अब सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है, यानी बिना सबस्क्राइब किए पाठक अब उन अखबारों को इंटरनेट पर नहीं पढ़ सकते हैं। इस मॉडल के बारे में आपका क्या कहना है? क्या आपको नहीं लगता कि इससे रीडरशिप प्रभावित होती है। क्योंकि डिजिटल रूप से समृद्ध पाठकों के पास आज सूचना प्राप्त करने के तमाम स्रोत हैं। ऐसे में वे पैसा देकर ऑनलाइन अखबार क्यों पढ़ना चाहेंगे? इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?

ऐसा नहीं है। इस बारे में मैं कहूंगा कि यह क्वालिटी की बात है। जो व्यक्ति किसी भी प्रॉडक्ट को खरीदना, पढ़ना या सुनना यानी किसी भी तरह से इस्तेमाल करना चाहता है, अंतत: उस व्यक्ति की ख्वाहिश उस प्रॉडक्ट की क्वालिटी को लेकर ही होती है। मैं आपको इसे कुछ उदाहरणों से समझाता है कि जैसे पहले एक साबुन आया था, उसके बारे में विज्ञापन किया गया कि यदि आप इस साबुन को इस्तेमाल करेंगे तो इसके अंदर से सोने का सिक्का निकल सकता है, लेकिन वह साबुन मार्केट से गायब हो गया। इसका कारण यही रहा कि पहले तो उसमें से सोने का सिक्का निकलने की गारंटी नहीं थी, दूसरा यदि कोई व्यक्ति साबुन खरीदता है तो वह साफ-सफाई के लिए खरीदता है न कि सोने के सिक्के के लिए।

ऐसे ही एक ब्लेड का विज्ञापन था कि आपको चार ब्लेड के पैक में पांच ब्लेड मिलेंगे। लेकिन, यदि कोई भी व्यक्ति यदि ब्लेड खरीदेगा तो उसकी क्वालिटी पहले देखेगा और जरा भी खराब होने पर वह उसे पसंद नहीं करेगा, फिर चाहे उसे कितने ही ब्लेड और फ्री में क्यों न दिए जाएं। यही बात खबर और मीडिया माध्यमों पर लागू होती है। अब लोगों की क्रय शक्ति बढ़ रही है, ऐसे में यदि लोगों को अच्छी खबर पढ़ने की चाहत होगी और मीडिया इंडस्ट्री यदि अच्छा कंटेंट देगी तो उसका पैसा भी लेगी और लोग देंगे भी। यह बाजार का सिद्धांत है।

तमाम अखबारों में एडिटोरियल पर मार्केटिंग व विज्ञापन का काफी दबाव रहता है। आपकी नजर में एक संपादक इस तरह के दबावों से किस तरह मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से संपादकीय कार्यों का निर्वहन कर सकता है?

हमारे अखबार में एडिटोरियल पर इस तरह का कोई दबाव नहीं है। मार्केटिंग या विज्ञापन विभाग के लोग अपना काम कर रहे हैं, उन्हें अपना काम करने देना चाहिए, लेकिन यह संपादक की अपनी इच्छाशक्ति, उसकी दृढ़ता और वैचारिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है  कि वह कितना दबाव महसूस करता है। मेरा मानना है कि न्यूज के लिहाज से जितनी जरूरत होगी, उतना ही कंटेंट छपेगा। फिर चाहे वह कम हो अथवा ज्यादा। मैंने न तो इस तरह का कोई दबाव महसूस किया है और न ही करूंगा।

आज के दौर में मीडिया दो खेमों में बंट गई लगती है। आपकी नजर में यह पत्रकारिता का कौन सा दौर है, जहां पर खेमों में बंटकर पत्रकारिता होती है?

देखिए, पत्रकारिता हमेशा से दो खेमों में बंटी रही है। मैंने जब से होश संभाला है और अखबार पढ़ रहा हूं, तब से मैंने यही देखा है कि भारत की पत्रकारिता में हमेशा से एक वामपंथी और एक दक्षिणपंथी विचारधारा रही है। मेरी नजर में यह कोई गलत बात नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र की बहुत बड़ी विशेषता है और मैं इसे बहुत अच्छा मानता हूं कि पत्रकार अपने बारे में कहें कि वह वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी। जो पत्रकार यह बात छिपाते हैं, वह अपने साथ भी अपराध करते हैं और समाज के साथ भी।

पहले भी इस तरह की बातें हम सुनते थे कि फलां पत्रकार वामपंथी और फलां पत्रकार दक्षिणपंथी है। उस समय जो सेंट्रलिस्ट यानी जो वामपंथी या दक्षिणपंथी दोनों में से कोई नहीं होते थे, उनके बारे में कहा जाता था कि वे तो सुविधाभोगी हैं। मेरा मानना है कि पत्रकार कभी निष्पक्ष हो ही नहीं सकता। पत्रकार यदि वैचारिक रूप से दृढ़ है और वैचारिकता के आधार पर संपन्न है तो वह कभी निष्पक्ष हो ही नहीं सकता है। वह सपक्ष ही होगा। वह तटस्थ कैसे हो सकता है। यदि आप उद्देश्यपूर्ण तरीके से काम कर रहे हैं तो निष्पक्ष अथवा तटस्थ कैसे हो सकते हैं? आपको सपक्ष होना ही पड़ेगा। निष्पक्ष तो वे लोग होते हैं, जिनका विवेक नहीं होता है। जो लोग कहते हैं कि हमने निष्पक्ष रूप से पत्रकारिता की अथवा कर रहे हैं तो मेरा मानना है कि वे वैचारिक रूप से शून्य हैं।

मीडिया में इन दिनों क्रेडिबिलिटी की चर्चा है। सभी चाहते हैं कि उन्हें भरोसेमंद सूचनाएं अथवा जानकारी मिले, लेकिन आज के दौर में वे असमंजस में रहते हैं कि किस माध्यम पर वह सबसे ज्यादा भरोसा करें, क्योंकि एक मीडिया संस्थान कुछ कह रहा होता है, जबकि उसी बारे में दूसरा मीडिया संस्थान कुछ और कह रहा होता है?

देखिए, किसी भी अखबार पर ‘हॉलमार्क’ नहीं लगाया जा सकता है। अखबार कोई पदार्थ नहीं है। यह तो पाठक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसी भी सूचना को किस तरह से लेता है। जो भी आपके लिए ग्रहणीय है, उसमें निश्चित तौर पर आप एक उपभोक्ता, ग्राहक अथवा पाठक होने के नाते आप अपने विवेक का इस्तेमाल करते हैं। इसे हम एक सामान्य से उदाहरण से समझ सकते हैं। जैसे-जब आप चाय पीते हैं और उसका एक घूंट (सिप) लेने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल कर यह अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि वह कितनी गर्म होगी। उसके बाद उस हिसाब से आप यह तय करते हैं कितना सिप लेना है।

पहले के मुकाबले अब पाठक बहुत सजग हो गया है। पाठक प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा है। मेरा मानना है कि आज के दौर में तमाम समाचार माध्यमों के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा है। मैं फिर यही कहूंगा कि यदि किसी समाचार माध्यम या ब्रैंड विशेष अथवा प्रॉडक्ट विशेष के प्रति कोई विश्वास घटा है तो उसकी वजह कोई दूसरा कारण नहीं है, बल्कि वहां पर बैठे जो जिम्मेदार अथवा कर्तव्यशील लोग हैं, उनके आचरण में कहीं न कहीं कोई कमी आई है।

इस फील्ड में कार्यरत अथवा नवागत पत्रकारों के लिए आप क्या संदेश या यूं कहें कि सफलता का क्या ‘मूलमंत्र’ देना चाहेंगे?

जैसा कि मैंने अभी कहा कि अब इस पेशे में प्रोफेशलिज्म आया है। पत्रकार फॉर्मेट में काम करने के अभ्यस्त हो रहे हैं। जीवनशैली के प्रति अनुशासन बढ़ा है। नई पीढ़ी से मैं सिर्फ गुजारिश कर सकता हूं कि पढ़ने का अभ्यास डालिए। पढ़ने का अभ्यास न होने से शब्द संपदा संकुचित हो रही है। शब्द कम हो रहे हैं। आप जितना पढ़ते हैं, उतना आपका शब्द सामर्थ्य बढ़ता है। आपकी शब्द संपदा बढ़ती है। यह पढ़ने का अभ्यास न होने का कारण ही है कि तमाम जो कॉपियां लिखी जाती हैं, उनमें वैसा अलंकरण नहीं दिखता है, जो पहले की कॉपियों में अपेक्षाकृत दिखता था। मेरे कहने का आशय यही है कि आप ज्यादा से ज्यादा पढ़िए। जितना ज्यादा से ज्यादा पढ़ेंगे, शब्द संपदा उतनी बढ़ेगी और वह आपकी लेखनशैली में भी परिलक्षित होगी। 

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मैं किसी भी मुद्दे को बातचीत से सुलझाने में विश्वास रखती हूं: शोभना जैन

महिला पत्रकारों के प्रमुख संगठन 'Indian women's Press Corps' (IWPC) की लगातार दूसरी बार प्रेजिडेंट चुनी गईं शोभना जैन ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है।

पंकज शर्मा by
Published - Wednesday, 03 May, 2023
Last Modified:
Wednesday, 03 May, 2023
Shobhna Jain

वरिष्ठ पत्रकार और महिला पत्रकारों के प्रमुख संगठन 'Indian women's Press Corps' (IWPC) की लगातार दूसरी बार निर्वाचित प्रेजिडेंट शोभना जैन से हाल ही में एक मुलाकात के दौरान IWPC चुनाव में उनके द्वारा पेश किए गए घोषणापत्र समेत मीडिया से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हुई। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:  

सबसे पहले तो आप हमारे पाठकों को अपने बारे में बताएं। आपका अब तक का सफर क्या और कैसा रहा है?

मैंने अंग्रेजी साहित्य से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। इसके अलावा जर्मन भाषा का कोर्स भी किया है। मीडिया में अपने करियर की शुरुआत मैंने न्यूज एजेंसी ‘यूनिवार्ता’ (Univarta) से बतौर इंटर्न की थी। इसके बाद मैं वहां ब्यूरो चीफ के पद तक पहुंची। यहां मैंने पीएमओ समेत तमाम प्रमुख बीट कवर कीं। इसके अलावा मैं सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लिखती भी हूं। इन दिनों मैं एक कॉलमिस्ट के तौर पर अंतरराष्ट्रीय विषयों पर लिखती हूं और एक न्यूज सर्विस का संचालन कर रही हूं। मुझे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना भी अच्छा लगता है।    

'इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स' के गठन का उद्देश्य, इसकी वर्तमान सदस्य संख्या और इसकी कार्यप्रणाली अथवा किस तरह के मुद्दों को यहां प्राथमिकता दी जाती है, इस बारे में कुछ बताएं?

वर्तमान में 'इंडियन वुमेंस प्रेस कॉर्प्स' के सदस्यों की संख्या 800 से अधिक है। यहां आम महिलाओं से जुड़े सरोकारों के साथ-साथ महिला पत्रकारों से जुड़े तमाम मुद्दे जैसे उनकी फ्रीडम और उनके कल्याण से जुड़े जैसे मुद्दों को हम प्राथमिकता देते हैं। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों से जुड़े तमाम मुद्दों को भी हम उठाते हैं।    

आप पहले भी आईडब्यूपीसी की प्रेजिडेंट रही हैं। आईडब्ल्यूपीसी प्रेजिडेंट के तौर पर आपका यह कौन सा कार्यकाल है। क्या आपको लगता है कि आपके अभी तक बतौर प्रेजिडेंट जो कार्यकाल रहे हैं, उनमें यह अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल रहा है?

लगातार आईडब्यूपीसी की प्रेजिडेंट के तौर पर यह मेरा दूसरा और वैसे तीसरा कार्यकाल है। मैं वर्ष 2017-18 में भी यहां प्रेजिडेंट रही हूं। मुझे इस बात की संतुष्टि है कि अपने कार्यकाल के दौरान जितना भी संभव हो सका है, मैं अपने उद्देश्यों को पूरा कर पाने में सफल रही हूं। हमारी पूरी टीम की खासियत है कि हम अधिकतम जितना कर सकते हैं, वह करते हैं। सीमित संसाधनों के बावजूद हम अपने स्टाफ के साथ मिलकर पूरी तन्मयता से अपने काम में जुटे रहते हैं। मेरा प्रयास रहता है कि सभी लोग मिल-जुलकर रहें और आपस में एक दूसरे के सहयोग से अच्छे ढंग से काम करें। 

आपके कार्यकाल में कोई ऐसी बड़ी घटना रही हो, जिसमें आईडब्ल्यूपीसी ने दखल दिया हो और उसे सफलता मिली हो। यानी प्रेजिडेंट के तौर पर आपकी बड़ी उपलब्धि क्या रही है? इस राह में किस तरह की चुनौतियां आई हैं, अथवा आ रही हैं, इस बारे में भी कुछ बताएं।

इस तरह की तमाम बड़ी घटनाएं होती रहती हैं, जिन्हें हम उठाते रहते हैं और उनमें से कई में ठोस कार्रवाई भी होती है। फिर चाहे वह महिलाओं के पर्सनल इश्यूज हों, महिलाओं के उत्पीड़न की बात हो अथवा घरेलू हिंसा जैसे मामले। हमारा मानना है कि महिलाओं की जिंदगी ऐसी हो, जिसमें वह घर-परिवार के साथ-साथ बाहर निकलकर भी सही और सुरक्षित ढंग से अच्छे माहौल में काम कर सकें। हालांकि, इस राह में तमाम चुनौतियां भी आती रहती हैं, लेकिन हम अपनी टीम के सहयोग से उन चुनौतियों का सामना करते रहते हैं।   

Indian Women Press Corps  की बिल्डिंग को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है। इस बारे में काफी खबरें पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं। आखिर ये पूरा मसला क्या है और दिक्कत कहां आ रही है। इस बारे में क्या कहना चाहेंगी?

अभी मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी। हां, यह जरूर कहूंगी कि हमारे प्रयासों में कोई कमी नहीं है। कभी लगता है कि रास्ता काफी साफ है, तो कभी लगता है कि काफी कठिन रास्ता है। हम किसी भी मुद्दे को बातचीत से सुलझाने में विश्वास रखते हैं और मुझे अपने आप पर पूरा भरोसा है कि यह मुद्दा भी बातचीत से जल्द ही हल हो जाएगा।  

इस बार के चुनाव में आपने अपने पैनल का जो मैनिफेस्टो घोषित किया था, क्या आपको लगता है कि आप उन सभी दावों पर खरी उतरेंगी? इसके लिए आपने किस तरह का रोडमैप तैयार किया है?

हमारा प्लान ऑफ एक्शन तो यही है कि सबसे पहले इस इमारत की लीज बढ़वाई जाए। हमें उम्मीद है कि अपने प्रयासों में सफल होंगे। इसके अलावा जैसा कि मैंने बताया कि हम तमाम समसामयिक मुद्दे उठाते ही रहते हैं।

इस बार इस चुनाव में काफी आंतरिक उथल-पुथल जैसे- व्यक्तिगत आक्षेप और ध्रुवीकरण भी देखने को मिला। IWPC की एक मेंबर ने हाई कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया था। क्या था वह मामला। इस बारे में क्या कहेंगी? 

हालांकि, अब इस तरह की बातें करने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन वह सब कुछ गलतफहमियों के चलते हुआ। हालांकि, अब इस तरह का कोई मुद्दा नहीं है। मेरा मानना है कि आपस में किसी तरह की तल्खी नहीं होनी चाहिए।

जब आप किसी बड़ी भूमिका में होते हैं, तो आपके काम से अंसतुष्ट होने वाले लोगों की संख्या भी कई बार बड़ी होती है, ऐसे में आप उनकी अपेक्षाओं पर कैसे खरी उतरेंगी, ताकि ऐसे लोगों की नाराजगी दूर की जा सके?

हम इन अपेक्षाओं को पूरा करने की हरसंभव कोशिश करते हैं। मैं सभी लोगों को साथ लेकर चलने वालों में से हूं। मैं हर मुद्दे को बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से हैंडल करती हूं और चाहती हूं कि सभी लोग मिल-जुलकर आपस में शांति से काम करें। मेरा मानना है कि नाराजगी यदि है भी उसे आपस में बैठकर दूर किया जा सकता है।

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दो देशों के बीच संबंधों को और मजबूत बनाते हैं इस तरह के कदम: डॉ. रमाकांत द्विवेदी

जाने-माने लेखक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट डॉ. रमाकांत द्विवेदी की नई किताब ‘INDO-KYRGYZ RELATIONS CHALLENGES & OPPORTUNITIES’ ने हाल ही में मार्केट में ‘दस्तक’ दी है।

पंकज शर्मा by
Published - Thursday, 20 April, 2023
Last Modified:
Thursday, 20 April, 2023
Dr Ramakant Dwivedi

जाने-माने लेखक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट डॉ. रमाकांत द्विवेदी की नई किताब ‘INDO-KYRGYZ RELATIONS CHALLENGES & OPPORTUNITIES’ ने हाल ही में मार्केट में ‘दस्तक’ दी है। भारत-किर्गिस्तान गणराज्य के संबंधों को लेकर लिखी गई इस किताब को पिछले दिनों दिल्ली स्थित ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में आयोजित एक कार्यक्रम में लॉन्च किया गया। इस किताब से जुड़े तमाम पहलुओं को लेकर डॉ. रमाकांत द्विवेदी ने समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

सबसे पहले तो आप अपने बारे में बताएं कि आपका अब तक का सफर क्या व कैसा रहा है?

मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मध्य एशिया पर पीएचडी की है। पीएचडी के दौरान ही मुझे तीनमूर्ति हाउस के द्वारा नेहरू फेलोशिप प्रदान की गई। इसके फलस्वरूप मुझे करीब तीन साल तक उज्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में रहने का अवसर मिला। मैं ‘इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस’ (IDSA) में फेलो रहा हूं। इसके साथ ही ‘एकेडमी ऑफ साइंसेज‘ के इंस्टीट्यूट ‘अल बरूनी इंस्टीट्यूट ऑफ ओरियंटल स्टडीज’ (Al Beruni Instiute of Oriental Studies) में सीनियर रिसर्च फेलो रहा हूं। उस प्रवास के दौरान मुझे मध्य एशिया के तमाम प्रमुख शैक्षिक और रिसर्च संस्थानों में जाने और बातचीत करने का मौका मिला। इस तरह वहां के समाज, संस्कृति, साहित्य, राजनीति और अर्थव्यवस्था को जानने-समझने का अवसर मिला। इसके साथ ही मेरा पुस्तक लेखन का कार्य जारी है। यह मेरी आठवीं पुस्तक है, जो मैंने मध्य एशिया के देश किर्गिस्तान रिपब्लिक पर लिखी है।  

अब अपनी इस किताब के बारे में हमें बताएं कि आखिर इसमें क्या खास है, कितने पेज हैं, पब्लिशर कौन है और कितने चैप्टर अथवा खंड हैं?

इस किताब को ‘पेंटागॉन प्रेस’ (Pentagon Press) ने पब्लिश किया है। मूल रूप से इस किताब में हमने तीन विषयों पर ज्यादा फोकस रखा है। एक सेक्शन भारत और किर्गिस्तान के बीच दिपक्षीय संबंधों (सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनीतिक आदि) पर है कि वर्तमान स्थिति क्या है और उसे कैसे विस्तृत रूप दिया जा सकता है। दूसरा सेक्शन मध्य एशिया की जियो पॉलिटिक्स पर है। खासकर, तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जे के बाद वहां एक नई दिशा और नई दिशा बन रही है। उससे भारत के हितों पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है। तमाम बड़े देश जैसे-चीन, रूस आदि किस तरह से अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इनका भी हमारे देश के हितों पर क्या पड़ रहा है और उन हितों की रक्षा के लिए हमें कौन-कौन से कदम उठाने चाहिए, किताब में इसकी भी चर्चा है।

पुस्तक के तीसरे सेक्शन की बात करें तो इसमें नॉन ट्रेडिशनल सिक्योरिटी फैक्ट्स यानी अलकायदा, आईएसआईएस और आईएसकेपी जैसे आतंकी संगठनों की फाइनेंसियल सप्लाई लाइन क्या है, उनके विस्तार का क्षेत्र कौन सा है, जैसे तमाम प्रमुख विषयों को शामिल किया गया है। उन उपायों पर भी चर्चा की गई है ताकि वे क्षेत्र की शांति को भंग न कर सकें और क्षेत्र के आर्थिक विकास में बाधा न बन सकें।      

मध्य एशिया में कई देश हैं। खासकर पांच देशों- कजाखिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान की गिनती हमेशा होती है। ऐसे में आपने अपनी किताब के लिए किर्गिस्तान को ही क्यों चुना, इसके पीछे कोई खास वजह?

किर्गिस्तान रिपब्लिक मध्य एशिया का एक प्रमुख देश है। भारत के इस देश के साथ काफी अच्छे सांस्कृतिक संबंध हैं। वहां का प्रमुख ग्रंथ ‘मनास’ हमारे ग्रंथों के लगभग समान है। चीन से लगा हुआ देश है। यह एक इत्तेफाक है कि हमारी शुरुआत किर्गिस्तान से हुई है, जबकि हम मध्य एशिया के अन्य देशों पर भी किताब लिखना चाहते हैं। जल्द ही हम इन देशों पर भी किताब लेकर आएंगे। करीब 17 साल पहले हमने पूरे मध्य एशिया पर फोकस करती किताब लिखी थी। बदलती हुई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों की लगातार समीक्षा करने के लिए आवश्यक है कि हम एक नियमित अंतराल पर अध्ययन करें, समीक्षा करें और हमारे हितों को वो कैसे प्रभावित कर रहे हैं, उसका विश्लेषण करें। 

क्या आपको लगता है कि इस किताब से दोनों देशों के संबंधों में और मधुरता आएगी और ये पहले के मुकाबले ज्यादा प्रगाढ़ होंगे?

हमने ईमानदारी से यही प्रयास किया है। हमारे इस देश के साथ पहले से जो बेहतर संबंध हैं, उन संबंधों की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करते हुए वर्तमान में कौन-कौन सी चुनौतियां हैं और बदलती परिस्थितियों में हमें और क्या करने की आवश्यकता है, यह इस किताब में बताया गया है। हम अपने प्रयास में कितने सफल रहे हैं, यह हमारे पाठक बताएंगे। एक रिसर्चर के तौर पर मेरा मानना है कि दो-चार साल में हमें नियमित रूप से बदलती हुई परिस्थितियों का अध्ययन, मूल्यांकन और विश्लेषण करने के बाद फिर उसी के अनुसार आवश्यक कदम उठाने चाहिए। मेरा मानना है कि इस किताब से भारत और किर्गिस्तान के बीच संबंधों में और प्रगाढ़ता आएगी।

आपकी नजर में किताब के अलावा दो देशों के बीच संबंधों की मजबूती में और कौन-कौन से कारक अहम भूमिका निभा सकते हैं, क्या हमें उन कारकों के बारे में सोचकर अथवा उन्हें तलाशकर उन पर भी काम नहीं करना चाहिए?

मेरा मानना है कि नियमित रूप से मिलना-जुलना होता रहना चाहिए। सरकारी स्तर पर संपर्कों के अलावा सेमिनार, टूरिज्म, राउंडटेबल कॉन्फ्रेंस आदि होते रहने चाहिए। इससे दोनों देशों को आपस में और अच्छे तरीके से जानने-समझने का अवसर मिलता है। इसलिए इस दिशा में लगातार काम होते रहना चाहिए। 

आप अभी तक कई किताबें लिख चुके हैं। हाल ही में आपकी यह किताब आई है। क्या आप निकट भविष्य में कोई नई किताब लिखने की योजना बना रहे हैं। यदि हां तो वह किस बारे में होगी, क्या वह भी किसी अन्य देश से भारत के संबंधों को लेकर होगी?

हमारी अगली पुस्तक भारत और उज्बेकिस्तान के संबंधों पर होगी। उज्बेकिस्तान मध्य एशिया का बहुत ही महत्वपूर्ण देश है। पांचों देशों को देखेंगे तो यह सेंटर में आता है। इन सभी देशों से इसकी सीमाएं भी मिलती हैं। ऐसे में मैं अगली किताब भारत और उज्बेकिस्तान को लेकर लिखूंगा।

समाचार4मीडिया के साथ डॉ. रमाकांत द्विवेदी की इस पूरी बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।

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डिजिटल पर 'पेड' या 'फ्री' IPL के प्रसारण का TV व्युअरशिप पर असर नहीं: अजीत वर्गीज

‘डिज्नी स्टार’ (Disney Star) में नेटवर्क की ऐडवरटाइजिंग सेल्स के हेड अजीत वर्गीज ने एक्सचेंज4मीडिया की एडिटर नाजिया अल्वी रहमान से खास बातचीत में तमाम पहलुओं पर रखी अपनी राय

Last Modified:
Thursday, 13 April, 2023
Ajit Varghese

‘इंडियन प्रीमियर लीग’ (IPL) 2023 अब तीसरे हफ्ते में प्रवेश कर चुका है। दर्शकों और विज्ञापन के पैसे के लिए ‘डिज्नी स्टार’ (Disney Star) और ‘रिलायंस जियो’ (Reliance Jio) के बीच टक्कर ने टीवी बनाम डिजिटल के बीच की बहस को और तेज कर दिया है। इस साल पहली बार इस लीग के लिए मीडिया अधिकार दो नेटवर्क्स के बीच बंट गए हैं। ऐसे में मार्केट दोनों माध्यमों पर दर्शकों की संख्या (व्युअरशिप) को लेकर दावों और प्रतिदावों से भरा हुआ है।

इस बारे में ‘डिज्नी स्टार’ (Disney Star) में नेटवर्क की ऐडवरटाइजिंग सेल्स के हेड अजीत वर्गीज को आईपीएल के मामले में डिजिटल के मुकाबले टीवी के दर्शकों की ज्यादा संख्या को लेकर कोई संदेह नहीं है। हमारी सहयोगी वेबसाइट एक्सचेंज4मीडिया (exchange4media) की एडिटर नाजिया अल्वी रहमान से खास बातचीत में वर्गीज ने जोर देकर कहा कि डिजिटल माध्यम पर आईपीएल फ्री है अथवा पेड है, इस बात का टीवी व्युअरशिप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वर्गीज के अनुसार, चूंकि इस लीग को बड़ा दर्शक वर्ग और परिवार देखते हैं, ऐसे में करीब 75 प्रतिशत रेवेन्यू टीवी को मिलेगा।   

प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

हमारे सूत्रों का कहना है कि आप पिछले वर्षों के विपरीत इस बार अपनी इन्वेंट्री रोक रहे हैं। जबकि पूर्व में आप सीजन की शुरुआत में पूरी तरह से इन्वेंट्री लगा देते थे। क्या यह जानबूझकर किया जा रहा है या यह मार्केट की स्थितियों के कारण हो रहा है? आपके लिए अब तक का आईपीएल कैसा रहा है?

इंडस्ट्री पिछले करीब छह महीनों से प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजर रही है और इसका आईपीएल से कोई लेना-देना नहीं है। आप किसी भी क्षेत्र या बिजनेस को देख सकते हैं, चाहे वह स्टार्ट-अप हो या ई-कॉमर्स। यह विभिन्न माध्यमों और बिजनेस में आपको दिखाई देगा। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर प्रतिकूल परिस्थितियों से आर्थिक दबाव बढ़ता है। इसके अलावा व्यापक तौर पर फैले मार्केट का भी असर पड़ता है और यह उस तरह के पूर्व निर्धारित नहीं है, जिस तरीके से कोई चाहता है। जैसे- जैसे हम आगे बढ़ते हैं और कुछ कहते हैं, तमाम निर्णय हो रहे हैं। मार्केटर्स भी इस दिशा में सोच रहे हैं और निवेश फैला रहे हैं। इसका किसी मीडियम यानी माध्यम से कोई लेना-देना नहीं है। यहां खास बात यह है कि जब डिजिटल बनाम टीवी की बात आती है तो हमने खर्च के मामले में मार्केट में कोई बदलाव नहीं देखा है।

इस बार के आईपीएल को लेकर मार्केट में काफी निगेटिव बातें भी चल रही हैं। इंडस्ट्री से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इससे मार्केटर्स भ्रमित हो गए हैं। ऐसे में उनमें से कुछ ने प्रतीक्षा करें और देखें (wait & watch policy) की पॉलिसी अपनाई हुई है। क्या आप इस बात से सहमत हैं?

हमारी ओर से नकारात्मक टिप्पणी कभी नहीं आई है। हमने केवल अपनी उपलब्धियों और अपनी मजबूती (strength) के बारे में बात की है। हम किसी तरह की नकारात्मक बात नहीं फैलाते हैं। हमारा मानना है कि कि प्रत्येक प्लेटफॉर्म का अपना महत्व होता है। हम ऐसे ईकोसिस्टम में भी काम कर रहे हैं जहां हम डिजिटल पर स्पोर्ट्स देते हैं। रही बात बाजार में कंफ्यूजन की तो यह बहुत सारे भ्रामक डाटा के कारण हो सकती है। हम मानते हैं कि किसी भी कंफ्यूजन को दूर करने के लिए उसकी पुष्टि की जरूरत है। मुझे लगता है कि क्लाइंट्स स्पष्टता चाहते हैं। हम यहां अपनी टीवी स्टोरी को बेचने के लिए हैं, न कि किसी और की स्टोरी को झुठलाने अथवा नकारने के लिए।  

पिछले महीने आई एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि स्टार इंडिया इस आईपीएल में अपना आधार खो सकता है। इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया था कि विज्ञापन राजस्व (ऐडवर्टाइजिंग रेवेन्यू) का बड़ा हिस्सा (60% तक) डिजिटल में जाने की उम्मीद है और आपको सिर्फ 40% ही मिल सकता है। आपका इस बारे में क्या कहना है?

हम आईपीएल को तीन एंगल्स से देखते हैं। पहला है- कंज्यूमर का अनुभव, दूसरा आईपीएल शुरू होने के बाद आने वाले आंकड़े और तीसरा विज्ञापनदाताओं का सपोर्ट। अगर मैं कंज्यूमर के अनुभव की बात डिजिटल बनाम डिजिटल ही करता हूं, तो हमने देखा है कि डिजिटल के मुफ्त होने का टीवी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और मैं आपको तीनों दावों को लेकर डेटा दे सकता हूं। हमने टीवी बनाम डिजिटल में कोई बदलाव नहीं देखा है और न ही बजट में कोई बदलाव हुआ है। हमेशा कुछ क्लाइंट्स ऐसे होते हैं जो डिजिटल अधिक करते हैं और कुछ ऐसे क्लाइंट होते हैं जो टीवी अधिक करते हैं और यह मिश्रण समान रहा है। आप जिस रिपोर्ट के बारे में बात कर रही हैं, वह मुझे पूरी तरह से बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई लगती है और उनके द्वारा जो दावे किए गए हैं, संभवत: उन पर पर्याप्त रिसर्च नहीं किया गया है।

टीवी और डिजिटल के बीच ऐड रेवेन्यू के विभाजन को लेकर आपका क्या अनुमान है?

हमारे वर्तमान विश्लेषण के अनुसार, यह रेंज लगभग 75% टीवी और 25% डिजिटल है। हमने यह विश्लेषण पिछले वर्षों के अपने डेटा के आधार पर और अपने एजेंसी पार्टनर्स और क्लाइंट्स से बात करने के बाद किया है, जो दोनों के साथ बिजनेस कर रहे हैं। हमने इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा है। अगर आप ‘बार्क’ (BARC) के आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले साल की तुलना में पहले दिन ही टीवी की रेटिंग में 31% की बढ़ोतरी हुई है और टीवी देखने का समय 50% बढ़ गया है। टीवी देखने के समय में वृद्धि कंज्यूमर के बेहतर अनुभव का स्पष्ट संकेत है। यह उस माध्यम की ताकत को दर्शाता है, जहां लोग परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताते हैं और इस खेल को बड़ी स्क्रीन पर देखते हैं। हमने यह भी देखा है कि पहुंच दो अंकों में बढ़ रही है। ये आंकड़े हमारे विश्वास की पुष्टि करते हैं कि डिजिटल माध्यम पर आईपीएल के पेड या मुफ्त होने का टीवी दर्शकों की संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

आपके प्रतियोगी ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनकी टक्कर में आपने एक मेलर में अपने 2019 के आंकड़ों रखे हैं, जब आईपीएल को हॉटस्टार पर भी मुफ्त में स्ट्रीम किया गया था। क्या आप मानते हैं कि इस तरह की बातों से मार्केटर्स और एजेंसियों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है?

ऐप के डाउनलोड की संख्या के बारे में मार्केट में बहुत सारे दावे (claims) और प्रतिदावे (counterclaims) हैं। मैं यहां कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूंगा कि हमें यह देखने की जरूरत है कि इन नंबरों की तुलना पिछले वर्ष के डेटा और वास्तविकता से कहां की गई है। यदि हम प्लेटफॉर्म रीच के बारे में बात करें तो भले ही मैं पहले सप्ताहांत में 10 करोड़ का दावा करने वाले सार्वजनिक डेटा को मानूं तो  यह वास्तव में हॉटस्टार के 2019 के नंबरों की तुलना में 26% कम है, जब हम इसे मुफ्त में दिखा रहे थे।

कुल मिलाकर देखा जाए तो दुनिया भर में डिजिटल तेजी से बढ़ रहा है। यह आईपीएल के लिए गिरावट कैसे दिखा सकता है?

हम डिजिटल के समग्र विकास पर सवाल नहीं उठा रहे हैं। मैं जिस बिंदु के बारे में बात कर रहा हूं वह वर्तमान आईपीएल के बारे में है। मुझे इस बात का सटीक उत्तर नहीं पता लेकिन यह ऐप के बदलाव के कारण हो सकता है। हमने देखा है कि कंज्यूमर्स अभी भी हॉटस्टार पर आ रहे हैं। पहले दिन हमने हॉटस्टार ऐप के बड़ी संख्या में डाउनलोड देखे हैं, क्योंकि यह पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान आईपीएल देखने के लिए पसंदीदा स्थान रहा है। हम टीवी देखने के समय के दावों की बात करें तो यह पिछले साल SVOD में हॉटस्टार की तुलना में 25-26% कम हैं।

इस बीच, डिजिटल का अनुभव सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है। इसमें ऐप क्रैश होने, बफ़रिंग और लॉगिंग समस्याओं की बात कही गई है। संभवत: पिछले वर्ष की संख्या की तुलना में इसकी संख्या में कमी आई है। इसके अलावा इसे फिर से एक नया ऐप मानते हुए, बहुत अधिक बदलाव नहीं हुआ है। लोग हॉटस्टार पर आईपीएल देखने के आदी हैं। तीसरा, इंस्टॉल और डाउनलोड होने वाले ऐप की संख्या में ज्यादा इजाफा नहीं हुआ है। यह दावा किया गया है कि 25 करोड़ लोगों ने ऐप (शुरुआती दिन) और सप्ताहांत में 50 करोड़ लोगों ने डाउनलोड किया।

लेकिन हमने प्रकाशित स्रोतों और तीसरे पक्ष के डेटा को देखा है,। ये आंकड़े उन दावों के आस-पास भी नहीं हैं। यह सच हो सकता है कि बहुत सी चीजें रहीं, जिनके लिए उन्होंने योजना बनाई थी और जो नहीं हुई हैं।

डिज्नी स्टार ने आईपीएल के टीवी अधिकारों के लिए 23,575 करोड़ रुपये का भुगतान किया है, जिसका मतलब है कि आप प्रत्येक मैच के लिए 57.5 करोड़ रुपये का भुगतान करेंगे, आप इस पैसे को कैसे वसूलने की योजना बना रहे हैं?

मार्केट में परिवर्तन होता रहता है। दिन के अंत में हम यह तय नहीं करते हैं कि मंदी कब होगी, कब उछाल आएगा और उसके क्या निहितार्थ होंगे। यह पांच साल की प्रॉपर्टी है, जिसमें हमने निवेश किया है। हमें विश्वास है कि टीवी पर खर्च जारी रहेगा और यही कारण है कि हम इतने आशान्वित हैं। जब तक हम मार्केटर्स को टीवी की ताकत के बारे में समझा सकते हैं, मुझे भविष्य में भी चिंता करने का कोई कारण दिखाई नहीं देता है। हमारे लिए यह सबसे महत्वपूर्ण यह सुनिश्चित करना है कि कंज्यूमर्स को हमारे मीडियम पर आईपीएल का शानदार अनुभव मिले। इसी पर हमारा ध्यान केंद्रित है और पैसा इसके पीछे आएगा।

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ऐडवर्टाइजर्स के लिए CTV बनता जा रहा है एक पसंदीदा माध्यम: रितु धवन

इंटरनेट की ताकत और इसकी पहुंच की वजह से कनेक्टेड टीवी का तेजी से विकास हुआ है।

Last Modified:
Tuesday, 11 April, 2023
RituDhawan4512

इंटरनेट की ताकत और इसकी पहुंच की वजह से कनेक्टेड टीवी (CTV) का तेजी से विकास हुआ है और इस वजह से अब बेहतर गुणवत्ता व व्यक्तिगत वाले कंटेंट प्रदान किए जा सकते हैं। यह कहना है इंडिया टीवी की मैनेजिंग डायरेक्टर व सीईओ रितु धवन का। हमारी सहयोगी वेबसाइट 'एक्सचेंज4मीडिया' से विशेष बातचीत में उन्होंने यह बात कही। धवन ने बताया कि कैसे सीटीवी ने मीडिया में रेवेन्यू के लिए तमाम रास्ते खोल दिए हैं और अब यह अधिक से अधिक घरों में अपनी पहुंच बनाने के लिए तैयार है। आप यहां पढ़ सकते हैं बातचीत के प्रमुख अंश:

भारत में लगभग 20 से 22 मिलियन घरों में इंटरनेट से जुड़े टीवी हैं। ऐडवर्टाइजर्स के लिए यह संख्या कितनी बड़ी है?

पहले बड़े स्क्रीन का अनुभव डीटीएच/केबल और चैनल सब्सक्रिप्शन तक ही सीमित था। अब इंटरनेट की ताकत और इसकी पहुंच की वजह से कनेक्टेड टीवी (CTV) का तेजी से विकास हुआ है। इस वजह से अब बेहतर गुणवत्ता वाले व व्यक्तिगत कंटेंट प्रदान किए जा सकते हैं, जिस तक अब आसानी से पहुंचा भी जा सकता है। इसकी लोकप्रियता कंटेंट के अनुभव पर भी आधारित है। ऐडवर्टाइजर्स सीटीवी पर ऐड एक्सपोजर और अधिक कर सकते हैं। लगभग 22 मिलियन डिवाइसेज के साथ, सीटीवी 90 मिलियन से अधिक दर्शकों तक अपनी पहुंच रखता है, जिसमें लीनियर टीवी की तुलना में औसत टाइम स्पेंट पर व्यूअर अधिक होता है। इंडिया टीवी के लिए लीनियर टीवी पर औसतन टाइम स्पेंट बाई व्यूअर पर वीक (एक हफ्ते में दर्शकों द्वारा लीनियर टीवी पर बिताया जाने वाला औसत समय) 35 मिनट है, जबकि स्मार्ट टीवी ऐप पर यह 41 मिनट है। 

ऐसे में अब, ऐडवर्टाइजर्स को मीडिया व्हिकल से दो प्रमुख जरूरतें नजर आती हैं, जिनमें पहली यह कि मीडिया व्हिकल का झुकाव कहां है और दूसरा कि उसका आकार क्या है? और ये दोनों जरूरतों ही इंटरनेट-सक्षम कनेक्टेड टीवी से अच्छी तरह से पूरी हो जाती हैं।  

आप सीटीवी की बढ़ती संख्या को किस तरह से भुनाने जा रही हैं, और इसे लेकर आपकी रणनीति क्या रही है?

हां, रिपोर्ट बताती है कि 2025 तक 50 मिलियन से अधिक घरों की सीटीवी तक पहुंच हो जाएगी और दर्शकों की संख्या 300 मिलियन तक पहुंच जाएगी। यानी बाजार में 100 फीसदी ग्रोथ देखने को मिलेगी। लिहाजा इस तीव्र वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, हमारे लिए सीटीवी स्पेस में अपनी कंटेंट विंडो का विस्तार करना जरूरी हो गया है। इंडिया टीवी जल्द ही ऑडियंस-ओरिएंटेड कंटेंट पेश करेगा, खासकर सीटीवी के लिए। हमें यकीन है कि अपने कंटेंट प्लानिंग और निष्पादन के साथ हम सीटीवी यूजर्स के बीच एक मजबूत प्रभाव बना पाने में सक्षम होंगे। 5 साल में यह संख्या और बढ़ जाएगी, क्योंकि पुराने टीवी सेट की जगह नए स्मार्ट टीवी ले लेंगे। इस तरह से सीटीवी इकोसिस्टम से जुड़ना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

कनेक्टेड टीवी प्लेटफॉर्म पर ऐड की गतिशीलता कैसे विकसित हो रही है? सीटीवी पर आप किस तरह के ब्रैंड रीच को देखती हैं?

जिस तरह से डिजिटल ऐडवर्टाइजिंग ने ऐड इंडस्ट्री और ऐडवर्टाइजर वर्टिकल में अपनी पैठ जमायी है, ऐडवर्टाइजर्स के लिए सीटीवी एक पसंदीदा माध्यम बनता जा रहा है। चूंकि सीटीवी इंटरनेट की ताकत से सक्षम है, इसलिए ऐडवर्टाइजर्स के लिए ऐड के अवसर और ऐड के फॉर्मेट दोनों ही बढ़ गए हैं। वे सीटीवी पर अधिक खर्च करने को तैयार हैं, क्योंकि कई ऐड फॉर्मेट अधिक प्रभावशाली मीजरमेंट, ऐड के प्रभाव और तत्काल कॉल टू एक्शन प्रदान कर सकते हैं। इसके अलावा, NCCS A मार्केट में सीटीवी की पैठ 39 प्रतिशत है, जो उन ऐडवर्टाइजर्स के लिए एक बड़ा अवसर है, जो दर्शकों के इस वर्ग को लक्षित करना चाहते हैं। उक्त मार्केट में लीनियर टीवी की पैठ 27% है।

क्या पारंपरिक माध्यमों की तुलना में निवेश बड़ा है?

दिखने में सीटीवी इको-सिस्टम लीनियर टीवी से अलग है और इसमें सही दर्शकों को जोड़े रखने के लिए बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता होती है। जब नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो और डिज्नी हॉटस्टार जैसे बड़े खिलाड़ी रिमोट के साथ-साथ सीटीवी की पहली स्क्रीन पर सुविधाएं प्रदान करने के लिए काफी निवेश करते हैं, तो आपको भी कुछ पूंजी लगाने की भी जरूरत पड़ती है। हालांकि, हमें लगता है कि यदि आप प्रीमियम और क्रेडिबल न्यूज कंटेंट देते हैं तो आप सीटीवी दर्शकों पर राज कर सकते हैं।

सीटीवी के वजह से रेवेन्यू के कौन से विभिन्न रास्ते खुले हैं?

ऐड परफॉर्मिंग के लीनियर टीवी क्षमताओं के अलावा, CTV ने जियो-टार्गेटिंग (Geo-targeting), इन-स्ट्रीम ऐड्स (In-Streams ads), प्री-रोल्स ( Pre-rolls),और मिड-रोल्स (Mid-rolls) जैसे डिजिटल लाभ भी प्रदान किए हैं। इसके अतिरिक्त, रेवेन्यू जनरेट करने के लिए अन्य प्रभावशाली सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। ऐड फॉर्मेट्स में स्पॉन्सर्ड कंटेंटट और प्रभावशाली फीचर ऐडवर्टाइजर्स के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इससे वे कनेक्टेड ऑडियंस को अलग से टार्गेट कर सकते हैं।

कनेक्टेड टीवी टियर 2 और 3 ऑडियंस के कंटेंट पैटर्न को कैसे बदल रहा है?

सीटीवी के मार्केट का आकार उसी ट्रेंड लाइन पर बन रहा है, जैसाकि अतीत में स्मार्टफोन की पैठ थी। इंटरनेट की उपलब्धता और कम लागत वाले सीटीवी डिवाइसेज टियर-II और टियर-III मार्केट को आकार दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त, वित्त मंत्री ने भी घोषणा की हुई है कि सरकार देश के उन ग्रामीण हिस्सों में ऑप्टिकल फाइबर केबल (OFC) बिछाने पर ध्यान केंद्रित करेगी, जहां बिजली अभी पहुंची है और इससे भी बहुत मदद मिलेगी। भारत में स्मार्टफोन यूजर्स की बढ़ती संख्या भी स्मार्ट टीवी की आवश्यकताओं को बढ़ा रही है, क्योंकि यूजर्स घर पर रहते हुए ही बड़ी स्क्रीन पर कंटेंट का लाभ उठाना चाहते हैं। 

 

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मैगजीन इंडस्ट्री को आगे बढ़ने के लिए इस तरह के कदम उठाने की जरूरत है: अनंत नाथ

‘दिल्ली प्रेस’ (Delhi Press) के एग्जिक्यूटिव पब्लिशर और ‘AIM’ के वाइस प्रेजिडेंट अनंत नाथ ने मैगजीन बिजनेस से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर समाचार4मीडिया से खुलकर बातचीत की।

पंकज शर्मा by
Published - Saturday, 25 March, 2023
Last Modified:
Saturday, 25 March, 2023
Anant Nath

देश में पत्रिकाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजींस’ (AIM) के प्रमुख इवेंट ‘इंडियन मैगजीन कांग्रेस’ (IMC) का 24 मार्च को वृहद आयोजन किया गया। दिल्ली के द ओबेरॉय होटल में हुए इस कार्यक्रम के दौरान देश के प्रमुख मैगजीन पब्लिशर्स में शुमार ‘दिल्ली प्रेस’ (Delhi Press) के एग्जिक्यूटिव पब्लिशर और ‘AIM’ के वाइस प्रेजिडेंट अनंत नाथ ने मैगजीन बिजनेस से जुड़े तमाम प्रमुख मुद्दों पर समाचार4मीडिया से खुलकर बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

सबसे पहले इंडियन मैगजीन कांग्रेस और इसके उद्देश्य के बारे में बताएं?

हम पिछले 12 साल से इसे करते आ रहे हैं। इस तरह के किसी भी आयोजन का यही मुद्दा रहता है कि उस इंडस्ट्री में जो नए-नए बदलाव आ रहे हैं, उसके बारे में डिस्कस करें और अपने अनुभव शेयर करें। निश्चित रूप से इसमें नेटवर्किंग भी शामिल होती है। बाहर के लोगों से काफी कुछ नई चीजें पता चलती हैं। यानी, जैसे अन्य किसी भी कॉन्फ्रेंस में इस तरह के तीन-चार प्रमुख एजेंडे होते हैं, उसी तरह के एजेंडे इस कार्यक्रम में भी होते हैं।

मैगजीन पब्लिशिंग इंडस्ट्री से जुड़े तमाम लोगों को एक मंच पर लाने के लिए वर्ष 2006 में इस आयोजन की शुरुआत हुई थी, जिसमें एडिटर्स, पब्लिशर्स, मीडिया संस्थानों के डिजिटल हेड्स, पॉलिसीमेकर्स, मीडिया संस्थानों के मालिक, मार्केटर्स, मीडिया प्लानर्स के साथ ही रिसर्चर और इंडस्ट्री से जुड़े विश्लेषक शामिल होते हैं। यह इस आयोजन का 12वां एडिशन है।

हालांकि,  कोविड के चलते इस बार एसोसिएशन चार साल के अंतराल के बाद इस कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है। इस साल इस कांग्रेस की थीम रखी गई है कि कैसे डिजिटल युग में भी मैगजींस लोगों को जोड़े रखने के लिए (Building Engaged Communities) सबसे प्रभावी माध्यम हैं। ‘इंडियन मैगजीन कांग्रेस’ को लेकर हमारा फोकस रहा है कि डिजिटल की दुनिया में मैगजींस की जगह क्या है, इस पर हम सारी सोच रखें।    

आज डिजिटल काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। ऐसे दौर में मैगजींस को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए किस तरह की चुनौतियों/समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और इस दिशा में क्या कदम उठाए जा रहे हैं?

लोग मैगजींस को कंटेंट के लिए खरीदते हैं, यानी उस कंटेंट में काफी रिसर्च और गहराई (विस्तार) शामिल होती है। कड़े एडिटोरियल प्रोसेस के बाद किसी भी अच्छी मैगजीन का कंटेंट तैयार होता है। मैगजीन का कंटेंट एक बड़े और खास पाठक वर्ग के लिए तैयार होता है, जिसकी अभिरुचि के बारे में संपादकीय टीम अच्छे से समझती है और अपने कंटेंट में वह शामिल करने की पूरी कोशिश करती है। इस कंटेंट के जरिये संपादकीय टीम उस पाठक वर्ग के जीवन में एक बड़ी उपयोगिता निभाती है, फिर वह चाहे किसी टॉपिक में (एंटरटेनमेंट, इंफॉर्मेशन या लाइफस्टाइल आदि) समस्या समाधान के रूप में हो अथवा अन्य किसी भी रूप में हो।

मैं यही कहना चाहूंगा कि आज के दौर में प्रासंगिक बने रहने के लिए मैगजींस को कंटेंट पर फोकस रखना होगा और पाठकों की रुचि को समझते हुए उस दिशा में काम करना होगा। यकीनन, डिजिटल के आने के बाद से कंटेंट का कॉम्पटीशन काफी बढ़ गया है। ऐसे में आज के दौर में प्रासंगिक बने रहने के लिए मैगजींस को कंटेंट की गहराई (Depth) को बनाए रखने की जरूरत है।

कंटेंट के अलावा उसे सर्व करने के लिए डिजिटल मीडिया/सोशल मीडिया के टूल्स भी अडॉप्ट करने पड़ेंगे। जैसे पहले न्यूजपेपर और मैगजीन पब्लिशर को प्रिंटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन में निवेश करना पड़ता था, अब वह निवेश सीएमएस, एसईओ, सोशल मीडिया प्रमोशन यानी इस तरह के ईको सिस्टम में शिफ्ट हो गया है। लेकिन, मैं फिर कहूंगा कि कंटेंट पर ज्यादा फोकस करना पड़ेगा और एडिटोरियल टीम को यह समझना जरूरी है कि उनका पाठक वर्ग कौन है और किस तरह का कंटेंट चाहता है।

कोविड का मीडिया समेत तमाम बिजनेस पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। उस दौरान कई मैगजींस बंद हो गईं और तमाम मैगजींस का सर्कुलेशन घट गया। अब जबकि स्थिति सामान्य होने लगी है। ऐसे में क्या मैगजीन बिजनेस का सर्कुलेशन पहले की तरह वापस आ गया है?

इस बारे में मैं कहूंगा कि मैगजीन बिजनेस का सर्कुलेशन धीरे-धीरे वापस पटरी पर आ रहा है। ये कहना गलत होगा कि मैगजीन इंडस्ट्री कोविड पूर्व की स्थिति पर वापस आ गई है। हालांकि, कोविड के बाद जो गैप आ गया था, इंडस्ट्री उससे काफी उबर गई है। डिजिटल के आने से यह फायदा हुआ है कि कोविड के दौरान तमाम मैगजींस ने अपनी वेबसाइट्स बना लीं। जो मैगजींस पहले पूरी तरह प्रिंट पर फोकस्ड थीं, उन्होंने भी अपनी बड़ी वेबसाइट बना ली हैं या किसी एक वेबसाइट पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं। इसकी वजह से मैगजींस की रीच यानी पाठकों तक पहुंच काफी बढ़ गई है।

मैगजींस के पास यह विकल्प है कि उस पहुंच को पेड सबस्क्राइवर्स में कैसे परिवर्तित करें। मैगजींस को आज रीडर तक अपनी जानकारी ज्यादा से ज्यादा पहुंचाने का काम डिजिटल कर रहा है। यानी तमाम मैगजीन पब्लिशर्स ने प्रिंट और डिजिटल के पैकेज तैयार कर लिए हैं और जो रेवेन्यू अथवा सर्कुलेशन कम हो गया है, उसे सबस्क्रिप्शन मॉडल के जरिये पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। मेरा मानना है कि मैगजींस इस बात पर फोकस रखें कि कैसे प्रिंट और डिजिटल का सही पैकेज बनाएं। डिजिटल को अपनी रीच, इंगेजमेंट और नए रीडर्स लाने के लिए इस्तेमाल करें, वहीं कंटेंट को बहुत बेहतर रखें ताकि नए पाठकों को पेड सबस्क्राइबर्स बना सकें। इनमें भी जो मैगजींस को बहुत ज्यादा पसंद करते हैं, उन्हें प्रिंट और डिजिटल दोनों तरह के पेड पाठक वर्ग में शामिल कर सकें।        

तमाम अखबारों/मैगजींस ने सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है। यानी बिना सबस्क्राइब किए आप उस अखबार अथवा मैगजीन को नहीं पढ़ सकते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इससे रीडरशिप प्रभावित होती है और प्रिंट मीडिया को कम पाठक मिलते हैं?

पब्लिकेशंस को यह सोचना होगा कि वह किस तरह का पाठक वर्ग चाहते हैं। क्या वह ऐसा पाठक वर्ग चाहते हैं जो मुफ्त में कंटेंट पढ़कर चला जाए अथवा ऐसा पाठक वर्ग चाहते हैं कि जो उनके कंटेंट को इतनी अहमियत दे कि उसे कंज्यूम के लिए भुगतान करना चाहे। बार-बार यही बात सामने आ रही है कि जो फ्री वाला पाठक वर्ग है, उससे आप विज्ञापन से पैसे नहीं बना सकते हैं, खासकर ऑनलाइन की बात करें तो। रही बात फिजिकल की तो उस समय भी वह पाठक मैगजीन खरीदता ही था और मैगजीन कोई सस्ता प्रॉडक्ट नहीं है। वह उस मैगजीन को खरीदता था, तभी एडवर्टाइजर के लिए उस रीडर की कद्र थी।

मेरा मानना है कि फ्री रीडर की कोई कद्र नहीं होती। एक तो एडवर्टाइजर उस रीडर की कद्र नहीं करता, क्योंकि उसके पास अन्य ऑप्शंस होते हैं, वहीं उससे पब्लिकेशन को भी कोई फायदा नहीं होता। ऐसे में यह एक चॉइस है। यह काफी मुश्किल चॉइस है, लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है कि आप अपनी लार्ज रीडरशिप से ध्यान हटाएं और फोकस रीडरशिप बनाएं जो आपकी कद्र करे और आपके कंटेंट की कद्र करे, जिससे उनसे पेड सबस्क्रिप्शन के जरिये पैसा आए और यह भी ध्यान दें कि हम उसे एडवर्टाइजर्स को इस तरह बताकर बेचें कि ये हमारे इंगेज रीडर्स हैं और इनकी कद्र करें, सिर्फ आंकड़ों पर न जाएं।

भारत में मैगजीन बिजनेस के भविष्य को किस तरह देखते हैं और आने वाले समय में क्या उम्मीदें हैं?

देखिए, बहुत सारी चीजें हैं और हम इसे एक लाइन में नहीं कह सकते हैं। मुझे लगता है कि किसी मैगजीन की एडिटोरियल टीम यदि अपने कंटेंट के जरिये ज्यादा से ज्यादा रीडर्स को इंगेज कर सकती है, तो उसके लिए आगे बहुत संभावनाएं हैं। उसके आसपास भी हमें बहुत सारी चीजें जैसे- टेक्नोलॉजी, मार्केटिंग, सोशल मीडिया और इवेंट्स आदि करनी होंगी। यानी हमें तमाम तरह की चीजें करनी पड़ेंगी और फोकस रखना पड़ेगा कि कैसे हम ज्यादा से ज्यादा पाठकों को अपने साथ जोड़ें, कैसे उन्हें अपने साथ बनाए रखें और कैसा कंटेंट बनाएं कि रीडर वैल्यू करे। वो ठीक नहीं किया तो बाकी सारी चीजें बेकार हैं।

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अब ट्रेडिशनल नहीं, इंस्टैंट जर्नलिज्म का दौर है: डॉ. अनिल सिंह

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जाने-माने पत्रकार और अंग्रेजी न्यूज चैनल ‘इंडिया अहेड’ में एग्जिक्यूटिव एडिटर डॉ. अनिल सिंह ने मीडिया से जुड़े तमाम अहम पहलुओं को लेकर समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है

पंकज शर्मा by
Published - Friday, 03 February, 2023
Last Modified:
Friday, 03 February, 2023
Dr. Anil Singh

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जाने-माने पत्रकार और अंग्रेजी न्यूज चैनल ‘इंडिया अहेड’ (India Ahead) में एग्जिक्यूटिव एडिटर डॉ. अनिल सिंह ने मीडिया से जुड़े तमाम अहम पहलुओं को लेकर समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। डॉ. अनिल सिंह के साथ हुई इस बातचीत के प्रमुख अंश आप यहां पढ़ सकते हैं:

सबसे पहले आप अपने बारे में बताएं। यानी आपका प्रारंभिक जीवन कैसा रहा, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई और मीडिया में कैसे आए?

मैं मूलत: सिवान (बिहार) का रहने वाला हूं। शुरुआती पढ़ाई-लिखाई बिहार से करने के बाद मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से पॉलिटिकल साइंस में बीए (ऑनर्स), फिर एमए और एमफिल करने के बाद यहीं से पीएचडी की है। फिर मैंने मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई की। इसके बाद नौकरी की तलाश शुरू की। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर उन दिनों ‘दूरदर्शन’ पर एक कार्यक्रम को होस्ट करते थे। ‘दूरदर्शन’ के लिए आधा घंटे का यह कार्यक्रम ‘एशिया पैसिफिक कम्युनिकेशन एसोसिएट’ कंपनी बनाती थी। मैंने इस कंपनी में करीब छह महीने काम किया और पत्रकारिता की बारीकियां सीखीं।

इसके बाद मुझे ‘जी न्यूज’ (Zee News) में काम करने का मौका मिला और यहीं से एक टीवी पत्रकार के रूप में मेरी पहचान बनी। इसके बाद जब ‘आजतक’ (AajTak) लॉन्च हुआ तो मैंने वहां भी काम किया। इसके बाद भारत में ‘स्टार न्यूज’ (अब एबीपी न्यूज) आया और उसकी नई टीम बनी, जिसका मैं भी हिस्सा बना और लंबे समय तक वहां अपनी जिम्मेदारी निभाई। इसके बाद मैं वापस ‘आजतक’ में एडिटर बनकर आया और काफी काम किया।

फिर यहां से संपादक के रूप में मैं ‘न्यूज24’ (News24) आ गया और अब मैं ‘इंडिया अहेड’ (India Ahead) के एग्जिक्यूटिव एडिटर के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं। मैं अब तक करीब सात किताबें लिख चुका हूं। मैं देश के कई उच्च शिक्षण संस्थानों के बोर्ड ऑफ गवर्नर के रूप में भी जुड़ा रहा हूं। इन दिनों मैं ‘विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज’ (VIPS) के बोर्ड ऑफ गवर्नर में शामिल हूं, जिसे NAAC की मान्यता मिली हुई है और जिसमें हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

मीडिया में आप लंबे समय से हैं और आपने इसे काफी करीब से देखा है। तब से लेकर अब तक मीडिया में काफी बदलाव हुए हैं। इन बदलावों को आप किस रूप में देखते हैं?

पहले मीडिया की एक भूमिका हुआ करती थी, लेकिन आज के समय में यह भूमिका गुम सी गई है। मुझे याद है कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, उस समय पत्रकारिता का एक दौर था। उस समय मीडिया में साहित्य नजर आता था। ऐसा लगता था कि साहित्य का बोलबाला है। उसके बाद न्यूज का एजेंडा बदल गया और साहित्यिक से राजनीतिक हो गया। काफी पुरानी बात है, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जी की रथयात्रा निकल रही थी, उस समय वरिष्ठ टीवी पत्रकार एसपी सिंह ने संपादकीय लिखा कि यह रथ कहीं को नहीं जाता है। उस संपादकीय पर काफी बवाल हुआ था। फ्रंट पेज की जो शैली थी, वह एसपी सिंह ने बदलकर रख दी।

प्रिंट मीडिया से मेरा ज्यादा संपर्क नहीं रहा है, सिर्फ मैंने सुना है। मैंने टीवी को बेहतर तरीके से देखा है और अनुभव किया है। समय के साथ टेलिविजन पत्रकारिता के स्वरूप भी बदलते रहे हैं। आज के संदर्भ में टीवी चैनल्स की खबरें सिर्फ एक धारा की तरफ जा रही हैं। दूसरे प्रवाह के लिए किसी भी न्यूज चैनल्स में जगह नहीं है। यदि आप एक धारा की दिशा में प्रवाहित हो रहे हैं तो आप बने रहेंगे और यदि आप उस धारा के विपरीत जा रहे हैं तो आपके ऊपर अंकुश लग सकता है। आज के दौर में टीवी इंडस्ट्री की स्थिति दो-तीन कारणों से दयनीय है। एक तो टेलिविजन की ‘गरीबी’ खबरों को लेकर है।

मुझे याद नहीं आ रहा है कि पिछले आठ वर्षों में किसी टीवी चैनल का संपादक कहे कि मैंने ये खबर ब्रेक की है। किसी के पास ब्रेक करने के लिए कोई खबर है ही नहीं। सारे चैनल्स रूटीन वर्क में वही चीज कर रहे हैं, जो उन्हें करने के लिए कहा जा रहा है। अपना जजमेंट, अपना वैल्यू एडिशन चैनल्स की खबरों में बिलकुल ही बंद हो गया है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि तमाम चैनल्स की आर्थिक स्थिति सोचनीय और दयनीय है। दरअसल, चैनल्स की आमदनी सिंगल विंडो यानी सिर्फ एडवर्टाइजमेंट पर आधारित है।

विज्ञापन के माध्यम से जो रेवेन्यू आ सकता है, वही रेवेन्यू चैनल की आमदनी है। करीब 90 प्रतिशत चैनल्स अपनी लागत को निकाल भी नहीं पाते हैं। सिर्फ दस प्रतिशत बड़े चैनल ही बड़ी मुश्किल से अपनी कॉस्ट को निकाल पा रहे हैं। इन दस प्रतिशत में भी चार-पांच चैनल्स ही ऐसे हैं, जो प्रॉफिट में हैं। बाकी सारे टीवी चैनल्स सीधे या अप्रत्यक्ष तरीके से घाटे में चल रहे हैं। अब घाटे में जो व्यक्ति बिजनेस कर रहा है, उसकी दशा क्या होगी, क्या वो कहीं खड़ा हो सकता है, वो क्या पत्रकारिता के साथ न्याय कर सकता है, क्या वह राज्य का चौथा स्तंभ बन सकता है? आज जो टेलिविजन की पत्रकारिता है, वह इसी दौर से गुजर रही है।

आज के दौर में फेक न्यूज काफी तेजी से फैल रही है। हालांकि, पीआईबी समेत तमाम मीडिया संस्थानों ने अपनी फैक्ट चेकिंग टीम भी बना रखी है। आप इसे किस रूप में देखते हैं और आपकी नजर में फेक न्यूज पर किस तरह लगाम लग सकती है?

देखिए, दो बातें हैं। ये जो दौर है, टेलिविजन के साथ-साथ एक नई परंपरा का जन्म हुआ है, जिसे हम वेब न्यूज कह रहे हैं या वेबसाइट न्यूज कह रहे हैं, इस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। टीवी चैनल्स के रिपोर्टर्स सीमित हैं और वह पढ़कर और प्रशिक्षण लेकर इसमें आ रहे हैं। उन्हें पता है कि खबर क्या है, लेकिन आज के दौर में सोशल मीडिया के माध्यम से लगभग हर व्यक्ति ‘रिपोर्टर’ है। व्यक्ति को जो लग रहा है, वह उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहा है। फिर चाहे वह खबर हो या न हो। दरअसल, सोशल मीडिया को जिस तरह से विस्तार हुआ है, वह फेक न्यूज का बड़ा कारण है। ये सिटीजन रिस्पॉन्सिबिलिटी का सवाल है।

मेरा अनुमान है कि सिर्फ एक प्रतिशत फेक न्यूज ही स्थापित चैनल्स द्वारा फैलाया जाता होगा, लेकिन 99 प्रतिशत फेक न्यूज सोशल मीडिया के माध्यम से समाज में फैलाया जा रहा है और जहर के रूप में चारों तरफ फैल रहा है। अब जब समाज ही ऐसी खबर को फैला रहा है तो कौन सी संस्था इसे नियंत्रित करेगी? इसे न पीआईबी और न पुलिस नियंत्रित कर सकती है। इसे सिर्फ शिक्षा ही नियंत्रित कर सकती है। अगर हमारा समाज शिक्षित हो रहा है और समाज में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ रहा है, तो लोग इस बात को तय करेंगे कि यह गलत हैं, ये फेक न्यूज हैं और इनसे दूर रहा जाए।

इस तरह के आरोप भी लगते हैं कि तमाम फैक्ट चेकिंग टीम की भी कई खबरें गलत होती हैं, तो वह फैक्ट चेक क्या करेंगी। इस बारे में आप क्या कहेंगे?

जैसा मैंने अभी कहा कि सरकार या पीआईबी इस दिशा में सिर्फ खानापूर्ति करती हैं। हालांकि, सरकार अपनी तरफ से मॉनीटरिंग की व्यवस्था करती है, लेकिन फेक न्यूज सोशल मीडिया के माध्यम से आ रही हैं। अब आप ये मत समझिए कि सोशल मीडिया सिर्फ एक दूसरे से जुड़ने या दोस्ती का फोरम है, उसमें काफी खराब चीजें आ रही हैं। उसमें तमाम लोग अपना बिजनेस भी चला रहे हैं। यानी, उसमें हर तरह की गतिविधियां हो रही हैं। ऐसे में सोशल मीडिया के माध्यम से फैल रही फेक न्यूज पर लगाम लगाना काफी मुश्किल है।

सरकार ने नए आईटी नियमों में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया है। इन प्रस्तावों में कहा गया है कि यदि पीआईबी की फैक्ट चेक टीम किसी खबर को फेक न्यूज पाती है, तो सोशल मीडिया कंपनी को वह न्यूज अपने प्लेटफॉर्म से हटानी होगी। इस प्रस्ताव का तमाम स्तर पर विरोध हो रहा है। कहा जा रहा है कि इस तरह मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित होगी, इस पर आपका क्या कहना है?

सरकार जो भी नियम बना रही है, उसे सशक्तीकरण के साथ लागू करना होगा। इस तरह की न्यूज को नियंत्रित करने के लिए पहले भी कानून बने हैं। चूंकि, इन नियमों का कार्यान्वयन सही ढंग से नहीं हो पा रहा, इसलिए दूसरे नियम की आवश्यकता पड़ी। जो नए नियम बने हैं, उन्हें भी यदि ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया तो यह समस्या जारी रहेगी। यदि पहले और अब के कानून को सही ढंग से कार्यान्वित किया जाए तो चेक एंड बैलेंस की बात सोची जा सकती है।   

मीडिया की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में है। तमाम चैनल्स पर पक्षपातपूर्ण होने अथवा खबरों को सनसनीखेज बनाकर पेश करने के आरोप लगते रहते हैं, उस पर क्या कहेंगे?

जैसा कि मैंने थोड़ी देर पहले कहा कि करीब 90 प्रतिशत चैनल्स घाटे में चल रहे हैं। अब ऐसे चैनल्स के मालिकों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह किसी के सामने मजबूती से खड़े हो सकें, क्योंकि उनका धंधा ही घाटे में चल रहा है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि वह दबाव में आएंगे ही। यहां मैं राजनीतिक दबाव की बात कर रहा हूं। ऐसे में वह कहां से निष्पक्ष खबरें दिखाएंगे। आप देखिए कि अगर कोई चैनल आज प्रॉफिट में है, तो उस पर सरकार अथवा किसी संस्था का दबाव बहुत कम हो पाता है। वे किसी की गैरजरूरी बात नहीं सुनते हैं। अगर वह स्वयं ही भक्ति में लीन हो जाएं तो और बात है, नहीं तो दबाव के कारण ऐसे चैनल्स, जो प्रॉफिट में हैं, वह किसी के पिछलग्गू नहीं हो सकते हैं।

आप तमाम चैनल्स में प्रमुख पदों पर रहे हैं और वर्तमान में ‘इंडिया अहेड’ में एग्जिक्यूटिव एडिटर के पद पर अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि न्यूजरूम्स दबावों से मुक्त रह पाते हैं अथवा उन्हें किसी न किसी रूप में, जैसे-किसी खबर को चलवाने अथवा रुकवाने में दबाव का सामना करना पड़ता है?

यह बड़ा माइक्रोलेवल का सवाल है कि किस तरह के दबाव आते हैं। मेरा मानना है कि दबाव किसी खबर को रोकने अथवा चलाने के लिए नहीं आता है। एक नैतिक दबाव भी होता है कि अगर हम ये खबर दिखाएंगे या नहीं दिखाएंगे तो लोग क्या कहेंगे। कहने का मतलब है कि कई बार खबरों के साथ इस डर की वजह से न्याय नहीं हो पाता है। मेरा मानना है कि सरकार कभी नहीं कहती कि हमारी भक्ति कीजिए, तमाम चैनल्स अपनी लॉयल्टी सिद्ध करने के लिए खुद भक्त बनकर अपने आप को प्रदर्शित करने के लिए उतावले हो जाते हैं।

टीवी चैनल्स की टीआरपी को लेकर विवाद उठता रहता है। कई चैनल्स ने तो टीआरपी मापने वाली संस्था ‘ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल’ (BARC) से अपने कदम पीछे खींच लिए हैं और तमाम चैनल्स ने इससे हटने की बात कही है, इसे रूप में देखते हैं?

टीआरपी इस समय का ऐसा मैकेनिज्म है, जो एडवर्टाइजिंग में एक रेगुलेटर की भूमिका निभाता है। किस चैनल को कितना विज्ञापन देना चाहिए, यह विज्ञापन एजेंसियों इसी टीआरपी के आधार पर देती हैं। यानी टीआरपी उनके लिए एक पैमाना होता है कि इस आधार पर किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है। यानी विज्ञापन लेने के लिए टीआरपी एक माध्यम बना हुआ है। 

आपने देश के सामाजिक, राजनीतिक और रक्षा संबंधी मुद्दों पर सात किताबें लिखी हैं। क्या फिलहाल किसी नई किताब पर काम कर रहे हैं या यूं कहें कि क्या पाठकों को जल्द ही आपकी कोई नई किताब पढ़ने को मिलेगी?

मेरा लेखन तो हमेशा जारी रहता है। मैंने जो भी लिखा है, वह अपने दिमाग और दिल की आवाज पर लिखा है। कहीं से देखी हुई अथवा कहीं से कंटेंट उठाकर लिखी हुई किताबें नहीं हैं। जैसे मैंने एक किताब 'Military and Media' लिखी है, ऐसी किताब दूसरी आपको कहीं पढ़ने को नहीं मिलेगी। वहीं, प्रधानमंत्री के ऊपर एक किताब लिखी है। यह प्रधानमंत्री के ऊपर लिखी गई पहली किताब थी। देश में इससे पहले प्रधानमंत्री के ऊपर कोई किताब नहीं लिखी गई थी।

भारत में जो राजनीतिक उथल-पुथल हुई है और राजनीति का जो स्वरूप बदला है, उसे लेकर दिमाग में काफी कुछ चल रहा है। नई परिसीमन आई हैं, मैं उन चीजों को देख रहा हूं, समझ रहा हूं और नए परिप्रेक्ष्य में कुछ करने की कोशिश हो रही है, ताकि कोई नई चीज दी जाए। नई किताब आने में कुछ समय लगेगा, मैं चाह रहा हूं कि 2024 का चुनाव देख लूं, उसके बाद नई किताब लिखूं।

डिजिटल आजकल काफी तेजी से पैर पसार रहा है। ऐसे माहौल में टीवी चैनल्स को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और दर्शकों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए किस तरह के कदम उठाए जाने की जरूरत है?

डिजिटल का फैलाव काफी बढ़ रहा है और इसलिए बढ़ रहा है कि अब वो दस साल पहले वाला माहौल नहीं रहा कि घर में आप टीवी देखेंगे। आज के दौर में लगभग हर जेब में ‘टीवी’ है। मोबाइल के माध्यम से आप कहीं पर भी टीवी देख सकते हैं। डिजिटल की वजह से व्यक्ति खबरों को हर समय कहीं पर भी एक्सेस कर पा रहा है। घर में जब आप टीवी देखते हैं तो उसके लिए मल्टीसिस्टम ऑपरेटर्स या केबल टीवी के लिए भुगतान करना पड़ता है, लेकिन मोबाइल में ऐसा नहीं है। अब ये सवाल है कि डिजिटल पर खबर कहां से आ रही है तो टीवी चैनल्स पर जो चल रहा है, उसी को कस्टमाइज करके डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दिया जा रहा है। और डिजिटल प्लेटफॉर्म खबरों को आम आदमी तक पहुंचा रहा है।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच पर टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि हेट स्पीच फैला रहे न्यूज चैनल्स और न्यूज एंकर्स के खिलाफ भी कदम उठाए जाने चाहिए, इस बारे में आपका क्या कहना है?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान होना चाहिए। यदि सुप्रीम कोर्ट किसी चीज का संज्ञान ले रहा है, तो वह इस पर अधिसूचना भी जारी कर सकता है। सरकार अथवा संबंधित नोडल एजेंसी को कार्रवाई करने के लिए निर्देश दे सकता है। ये जुडिशियरी का नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह सिर्फ कहे नहीं, बल्कि उस पर एक्शन भी ले।

कोरोना के दौर में जब तमाम लोग घरों में ‘बंद’ थे, उस दौरान टीवी की व्युअरशिप काफी बढ़ गई थी। अब जबकि कोरोना जा चुका है, हालांकि खतरा अभी भी है, लेकिन आपको क्या लगता है कि टीवी व्युअरशिप का वह आंकड़ा फिर छू पाएगा, जो उसने कोरोना काल में छुआ था?

कोरोना के दौर में तमाम लोग घरों में थे और उनके पास टीवी के अलावा एंटरटेनमेंट और सूचनाएं प्राप्त करने का कोई और विकल्प नहीं था। उस समय जाहिर सी बात है कि लोग टीवी देख रहे थे और उस वजह से टीआरपी बढ़ी। लेकिन अब लोग घरों से बाहर निकले हैं और इनमें टीवी के वह दर्शक भी शामिल हैं और वे मोबाइल लेकर निकल रहे हैं। ऐसे में वह खबरें अथवा एंटरटेनमेंट के लिए मोबाइल का सहारा ले रहे हैं, जिससे टीवी देखने के समय की हिस्सेदारी बंट रही है।

पत्रकारिता में करियर बनाने के इच्छुक युवाओं अथवा नवोदित पत्रकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे, सफलता का कोई ‘मूलमंत्र’ जो आप देना चाहें?

आजकल पत्रकारिता में जो युवा आ रहे हैं, वह पुराने लोगों से कई मायनों में ज्यादा सक्षम हैं। उन पर देश का भविष्य टिका हुआ है और उनसे काफी उम्मीदें हैं। मुझे लग रहा है कि हमारी पीढ़ी से ज्यादा तीव्रता से नई पीढ़ी काम कर रही है। चीजों को सीख रहे हैं और अपना करियर बना रहे हैं औऱ देश को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं। हालांकि, कुछ कमी रहती है, तो वे उसे दूर भी कर रहे हैं।

अब ट्रेडिशनल जर्नलिज्म का दौर खत्म हो चुका है, ये इंस्टैंट जर्नलिज्म का दौर है। एक समय था जब 200 शब्दों में स्टोरी लिखनी होती थी। फिर वह 200 शब्द सिमटकर 20 शब्दों पर आ गया, जिसे अब एंकर कहा जाता है। अब वह 20 शब्द भी घटकर एक वाक्य में आ गया है। यानी अब आपको ऐसी हेडलाइन देनी है, जिसे पढ़ते ही लोग समझ जाएं कि खबर क्या है, इसलिए यह इंस्टैंट जर्नलिज्म का दौर है।

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'Viacom18 स्पोर्ट्स' के सीईओ अनिल जयराज ने बताया, 'IPL' को लेकर क्या है फ्यूचर प्लान!

हमारी सहयोगी वेबसाइट एक्सचेंज4मीडिया से बातचीत में 'वॉयकॉम18 स्पोर्ट्स' के सीईओ अनिल जयराज ने कहा कि हमारा लक्ष्य आईपीएल को इस तरह पेश करना है

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 02 February, 2023
Last Modified:
Thursday, 02 February, 2023
AnilJayaraj454666

आईपीएल (IPL) के मीडिया राइट्स में इस बार विभाजन ने मीडिया इंडस्स्ट्री में काफी हलचल पैदा कर दी है और जब ‘वायकॉम18’ स्पोर्ट्स ने घोषणा की कि आईपीएल के आगामी 16वें सीजन के लिए 'जियो' (JIO) ऐप पर मुफ्त में लाइव स्ट्रीमिंग की जाएगी, तो इससे लोगों का उत्साह जबरदस्त तरीके से बढ़ा है। हमारी सहयोगी वेबसाइट एक्सचेंज4मीडिया से बातचीत में 'वॉयकॉम18 स्पोर्ट्स' (Viacom18 Sports) के सीईओ अनिल जयराज ने कहा कि हमारा लक्ष्य आईपीएल को इस तरह पेश करना है, जैसा पहले कभी नहीं किया गया। हम सभी बाधाओं को खत्म करना चाहते हैं, फिर चाहे वह कंजप्शन हो (consumption), एवेलबिलिटी हो (availability), एफॉर्डेबिलिटी (affordability) या फिर लैंग्वेज (language).

एक्सेस व एफॉर्डेबिलिटी (Access & Affordability) 

जयराज ने कहा कि ‘वायकॉम18 स्पोर्ट्स’ प्रशंसकों को उनके पंसदीदा मूमेंट्स को उनके द्वारा ही चयन की गई भाषा में देखने का विकल्प देगा, साथ ही 24x7 एक्सेस प्रदान करेगा। एफॉर्डेबिलिटी फैक्टर से निपटने के लिए, 'वायकॉम 18 स्पोर्ट्स' ने अब आईपीएल स्ट्रीमिंग को सभी के लिए मुफ्त कर दिया है। जयराम ने आगे कहा कि इसके अतिरिक्त, यूनीक फीड्स में 16 से 18 भाषाओं में इसका टेलिकास्ट होगा। इस तरह से लैंग्वेज की तीसरी बाधा खत्म भी हो जाएगी। हम मानते हैं कि यदि हम इन तीन वैल्यू को क्रैक कर दें, तो कंजप्शन में तेजी से वृद्धि हो सकती है। बेशक, हम मल्टी-कैम जैसी कुछ अन्य फीचर्स जोड़ेंगे।

डिजिटल पर ऐडवर्टाइजर्स को लाभ

जयराज ने कहा कि ऐडवर्टाइजर्स की प्रतिक्रिया बहुत अच्छी रही है, क्योंकि CPMs काफी रोमांचक हैं। हम उन्हें एक बेहतरीन रीच देने जा रहे हैं, जोकि टीवी पर आईपीएल से भी बड़ी होगी। यह एक छोटे एमाउंट से नहीं, बल्कि एक बड़े एमाउंट से बड़ा होगा और यही कारण है कि ऐडवर्टाइजर्स काफी उत्साहित हैं।

डिजिटल के अन्य लाभों के बारे में बात करते हुए जयराज ने कहा कि यह माध्यम ऐडवर्टाइजर्स के लिए लागत प्रभावी है और प्रभावतशाली तरीके से विशिष्ट दर्शकों तक ऐडवर्टाइजर्स की पहुंच को सक्षम बनाता है। हम कनेक्टेड टीवी की भी पेशकश करते हैं। यही कारण है कि ऐडवर्टाइजर्स कॉम्प्रिहेन्सिव पैकेज (comprehensive packages) में ही हमारे मोबाइल और टीवी दोनों ही प्लेटफॉर्म पर यूजर्स का लाभ उठा सकते हैं।

अच्छा रहा फीफा का अनुभव

फीफा वर्ल्ड कप का प्रसारण कर जियो ने टेलीविजन दर्शकों की संख्या में जबरदस्त बढ़त बना ली है, लेकिन पहले कुछ मैचों के दौरान इस प्लेटफॉर्म को कुछ तकनीकी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। जयराज के मुताबिक, फीफा वर्ल्ड कप के प्रसारण से बहुत कुछ सीखा और यह काफी अच्छा अनुभव रहा। फुटबॉल कितना लोकप्रिय हो सकता है, इस आधार पर हमने कुछ बेंचमार्क तय किए। यह एक अविश्वसनीय वृद्धि थी, लेकिन हमने वास्तव में फीफा वर्ल्ड कप के फाइनल में एक समय पर 12 मिलियन दर्शकों तक पहुंच बनायी। यह बिल्कुल सच है कि हम शुरुआती दिनों में ही कुछ बेहतर कर सकते थे, लेकिन जब तक फीफा समाप्त हुआ, तब तक हम आ रही तमाम दिक्कतों का हल निकाल चुके थे।

उन्होंने आगे कहा कि तब से लेकर अब तक वॉयकॉम18 ने कैपिसिटी और टेक्नोलॉजी में भारी निवेश किया है। जयराज ने कहा कि इसका उद्देश्य एक ऐसा इवेंट देना है, जो न केवल बड़े पैमाने पर होगा, बल्कि दुनिया में कहीं भी सबसे ज्यादा देखा जाने वाला इवेंट होगा।

हमने सुनिश्चित किया है कि हम वस्तुतः किसी भी कैपिसिटी का ध्यान रख सकते हैं, क्योंकि भारत में 700 मिलियन इंटरनेट यूजर्स हैं। अब हमारे पास विस्तार करने की पर्याप्त क्षमता है। खुदा का विस्तार करने के अलावा हमने अन्य लिंक भी बनाए हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि सिस्टम में कहीं भी कोई टूट-फूट न हो। हमने सबसे बड़ी टेक्निकल टीम का निर्माण किया है और ऐसे लोगों के साथ पार्टनरशिप भी की है जो वास्तव में जानते हैं कि इनमें से कुछ मुद्दों को कैसे हल किया जाए।

वुमेन प्रीमियर लीग के लिए योजनाएं

जयराज ने आगे कहा कि वे (ऐडवर्टाइजर्स) अभी भी डब्ल्यूपीएल के लिए अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में थे, लेकिन उन्होंने कहा कि उनका फोकस डिजिटल पर बहुत अधिक है। वास्तव में मुझे विश्वास नहीं है कि ऐडवर्टाइजिंग केवल डिजिटल ही खरीदेंगे, टेलीविजन पर ज्यादा निवेश नहीं करेंगे। ऐडवर्टाइजर्स के लिए टेलीविजन की डिमांड पर्याप्त नहीं है।

वॉयकॉम18 ने हाल ही में सीजन 2023 से सीजन 2027 तक महिला प्रीमियर लीग (WPL) के प्रसारण के लिए 951 करोड़ रुपए में ग्लोबल टेलीविजन और डिजिटल राइट्स हासिल किए हैं।

यह पूछे जाने पर कि क्या टीवी और डिजिटल एक साथ बेचे जा रहे हैं, इस पर जयराज ने खुलासा किया कि बढ़ी हुई कंजप्शन और डिजिटल पर जुड़ाव के कारण हम डिजिटल की बहुत अधिक डिमांड देख रहे हैं, लेकिन टीवी पर उतनी नहीं है। उसी के अनुरूप हम टीवी पर डिजिटल को प्राथमिकता दे रहे हैं।

उन्होंने आगे कहा कि हमारा इरादा एक कंज्यूमर बेस का निर्माण करना है, जो अलग-अलग तरह के हों। जहां हम लोगों को उन प्रॉडक्ट्स को देखने के लिए ला सकते हैं, जो वे पसंद करेंगे। यही कारण है कि हम कई तरह के स्पोर्ट्स पर गए हैं। हम उन राइट्स को खरीदने के लिए काफी विचार-विमर्श कर रहे हैं, जिनके बारे में हमें विश्वास है कि हम मोनेटाइज कर सकते हैं। लेकिन आइडिया स्पोर्ट्स के एक बड़े पोर्टफोलियो के निर्माण को लेकर है, जिसके आधार पर हम एक बड़े कंज्यूमर बेस का निर्माण कर सकते हैं।

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पत्रकार को सबसे पहले बदलावों के लिए तैयार रहना चाहिए: हितेश शंकर

वरिष्ठ पत्रकार और जानी-मानी साप्ताहिक राष्ट्रीय पत्रिका ‘पांचजन्य’ के संपादक हितेश शंकर ने मीडिया से जुड़े तमाम अहम पहलुओं को लेकर समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है।

पंकज शर्मा by
Published - Monday, 16 January, 2023
Last Modified:
Monday, 16 January, 2023
Hitesh Shankar

वरिष्ठ पत्रकार और जानी-मानी साप्ताहिक राष्ट्रीय पत्रिका ‘पांचजन्य’ (PANCHJANYA) के संपादक हितेश शंकर ने मीडिया में हो रहे बदलाव, नई टेक्नोलॉजी के बढ़ते इस्तेमाल, मीडिया की चुनौतियां और फेक न्यूज के बढ़ते खतरे समेत तमाम अहम पहलुओं को लेकर समाचार4मीडिया से खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के चुनिंदा अंश:

सबसे पहले आप अपने बारे में बताएं। यानी आपका प्रारंभिक जीवन कैसा रहा, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई और मीडिया में कैसे आए?

मेरा जन्म दिल्ली में एक सामान्य परिवार में हुआ। मेरे पिताजी शिक्षक और माताजी होम्योपैथिक डॉक्टर थीं। दोनों ने अपना पूरी जीवन समाजसेवा को समर्पित कर रखा था और नि:शुल्क सेवा करते थे। वहीं के एक सरकारी विद्यालय में मेरी प्रारंभिक पढ़ाई हुई। हालांकि, पत्रकारिता में मेरी कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं रही, लेकिन पढ़ने-लिखने का शौक हमारे परिवार में सभी को रहा। पिताजी के पास एक पुस्तकालय की भी जिम्मेदारी थी। हमें शुरू से ही पढ़ाई का माहौल मिला, ऐसे में हम काफी किताबें पढ़ते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर्स करने के बाद लगा कि मुझे कुछ और नहीं, सिर्फ लिखने-पढ़ने का काम ही करना है। इसके बाद इस दिशा में गति मिलती गई और धीरे-धीरे मैं पत्रकारिता में आ गया।  

मीडिया में अपने अपने अब तक के सफर के बारे में बताएं।

मैंने कम उम्र में ही लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया था। कॉलेज के दिनों में ही मैं स्वदेशी आंदोलन की एक पत्रिका के संपादक मंडल में शामिल हो गया था। हमारी छोटी सी टीम थी, जिसमें सभी लोग मिलकर काम करते थे। उस समय औपचारिक तौर पर तो मेरे पास डिग्री नहीं थी, लेकिन कला में मेरा रुझान था। मैं पोट्रेट और पेटिंग बनाता था, फिर मैं उसमें कार्टून्स बनाने लगा। इसके अलावा भी मैगजीन से जुड़े सभी काम जैसे-ट्रांसलेशन, रिपोर्टिंग आदि हम सब मिलकर करते थे। कह सकते हैं कि पत्रकारिता वहां से शुरू हुई, फिर ‘दैनिक जागरण’, ‘इंडिया टुडे’ और ‘हिन्दुस्तान’ से जुड़ गया। छोटे समय में मुझे बड़े-बड़े संपादकों के साथ काम करने का मौका मिला और अब मैं ‘पांचजन्य’ में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं।  

पहली नौकरी हमेशा खास होती है। पहली नौकरी के कुछ अनुभव जो आप हमसे शेयर करना चाहें?

देखिए, अपनी पहली नौकरी को मैं नौकरी नहीं मानता और पत्रकारिता को मैं इसलिए भी नौकरी नहीं मानता, क्योंकि यह मेरे मन का काम था। मैंने कम्युनिकेशंस में मास्टर्स करने के अलावा एमबीए (एडवर्टाइजिंग) किया है। ऐसे में एडवर्टाइजिंग की दुनिया के भी कुछ अनुभव रहे। नि:संदेह, वहां पैसा, चमक और ग्लैमर था, लेकिन मैं वहां से छोड़कर पत्रकारिता में आ गया और ‘दैनिक जागरण’ जॉइन कर लिया। हालांकि, मेरे उस निर्णय पर घर-परिवार समेत कई लोगों ने तमाम तरह की बातें कीं, लेकिन मैंने पत्रकारिता में काम करने का ही मन बना लिया था। सवारी वाहनों की बात करें तो उस समय नोएडा आना-जाना आज की तरह इतना आसान नहीं होता था। रात को कई बार सवारी वाहन नहीं मिलता था तो ऐसे में हम वहीं रुक जाते थे और तड़के अखबार ले जाने वाली गाड़ी से घर निकलते थे। तमाम बार तो ऐसा होता था कि हम सुबह चार-पांच बजे घर पहुंचते थे और फिर दोपहर में तैयार होकर अखबार के दफ्तर के लिए निकल जाते थे। खबरों पर हमारी पूरी नजर रहती थी। ऐसे में न्यूज रूम के भी तमाम अनुभव हैं।     

पत्रकारिता की दुनिया में हम रोजाना तमाम तरह की घटनाओं से रूबरू होते हैं। इनमें कई घटनाएं ऐसी होती हैं, जो हमारे मन-मस्तिष्क में अंकित हो जाती हैं और जीवन भर याद रहती हैं, क्या इस तरह की कोई घटना आपको याद है?

ऐसी एक नहीं, कई घटनाएं हैं। जैसे-मुंबई में जब आतंकी हमला हुआ था, तब हमने और हमारी टीम ने दिन-रात लगातार कवरेज की थी। वह घटना बहुत बड़ी थी, जिसमें हमारी टीम ने काफी काम किया और लोगों तक लगातार उस घटना से जुड़ी खबरें पहुंचाईं। इसी तरह कल्पना चावला के साथ जब हादसा हुआ, उस रात को भी हम नहीं भूल सकते हैं। इसके अलावा पांचजन्य में भी हमारे कुछ ऐसे अनुभव रहे कि जब इसे पत्रिका के स्वरूप में लेकर आए तो यह काफी बड़ी चुनौती थी। एक साप्ताहिक को जब हम पत्रिका के स्वरूप में लाते हैं तो उसकी डमी, स्टाइल और इनपुट फ्लो यानी बहुत सारी चीजें बदल जाती हैं। यह पूरी टीम के लिए एक नया अनुभव था। फिर जब हमने बाबा साहेब पर अंक निकाला तो उस दौरान पांच दिन तक हमारी टीम कार्यालय में ही रही। उस अंक ने कीर्तिमान बनाया। गोवा में हुए इवेंट में भी हमारी टीम ने करीब 82 घंटे तक जिस तरह से काम किया, वह वाकई में काबिले तारीफ है।   

जब आपने पत्रकारिता शुरू की थी और आज के दौर की पत्रकारिता की यदि तुलना करें तो आपकी नजर में इसमें कितना बदलाव आया है?

यदि हम बदलाव की बात करें तो एक पंक्ति का कथन है कि परिवर्तन अपरिवर्तनीय नियम है और आप इसे टाल नहीं सकते हैं। नहीं तो समय आपको रौंदते हुए निकल जाएगा। इसलिए पत्रकार को तो सबसे पहले बदलावों के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि वह समय के साथ कदमताल करते हुए चलता है। दूसरों को सजग करते हुए और बताते हुए चलता है। पांचजन्य की ही बात करें तो इस पत्रिका के लिए तमाम बदलावों को आत्मसात करना और उनके साथ चलाना एक ज्यादा बड़ी चुनौती थी। हमने अपनी टीम को नए सॉफ्टवेयर के लिए तैयार किया और उन्हें नए सॉफ्टवेयर पर काम करने का प्रशिक्षण दिलाया। इसके अलावा भी तमाम तरह की चुनौतियां थीं, लेकिन अब काफी चीजें व्यवस्थित हो गई हैं। आजकल टेक्नोलॉजी का काफी विकास हो गया है, उसने भी पत्रकारिता को बहुत गति दी है। 

आजकल फेक न्यूज काफी तेजी से आगे बढ़ रही है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी फेक न्यूज के प्रति गंभीर चिंता जताते हुए फैक्ट चेकिंग पर जोर दिया था, इस बारे में आपका क्या कहना है?

मुझे लगता है कि यह मीडिया का सबसे बड़ा प्रश्न है। मैं इसमें तीन तरह के वर्गीकरण देखता हूं। एक मिसइंफॉर्मेशन (Misinformation), दूसरा डिसइंफॉर्मेशन (Disinformation) और तीसरा मैलइंफॉर्मेशन (Malinformation) है। मिसइंफॉर्मेशन में आपकी सूचना गलत हो सकती है, लेकिन मंशा गलत नहीं हो सकती। डिसइंफॉर्मेशन में सूचना को तोड़-मरोड़ दिया जाता है, क्योंकि इसमें मंशा गलत रहती है। मैलइंफॉर्मेशन में ये है कि संदर्भ से अलग किसी चीज को रखा जाता है, क्योंकि इसमें मंशा गलत होती है। खबर सही होती है, लेकिन मंशा गलत होती है। मुझे जो सबसे महत्वपूर्ण बात लगती है, वह यह है कि एक तो तकनीक बढ़ने से तमाम तरह के तथाकथित पत्रकार भी सामने आ गए हैं। ऐसे में पत्रकार कौन होगा, मीडिया संस्थान किसे कहेंगे, इसे आज के दौर में परिभाषित करने की बड़ी चुनौती है। मैं ये नहीं कह रहा कि खराब काम हो रहा है अथवा अच्छा काम हो रहा है, लेकिन पत्रकार और पत्रकारिता को प्रमाणित करना बड़ी चुनौती है।

आपकी नजर में फेक न्यूज की रोकथाम के लिए क्या कोई ठोस ‘फॉर्मूला’ है?

मेरा मानना है कि किसी भी खबर पर आगे बढ़ने से पहले एक फैक्ट चेक शीट बनानी चाहिए। इसके आधार पर आप रेडियो की कॉपी भी लिख सकते हैं, डिजिटल के लिए भी कर सकते हैं। प्रिंट के लिए भी फाइल कर सकते हैं और इंटरव्यू की भी तैयारी कर सकते हैं। कहने का मतलब है कि सबसे पहले तथ्य दुरुस्त रखने चाहिए।

आज के दौर में मीडिया की क्रेडिबिलिटी भी सवालों के घेरे में है। क्या आपको लगता है कि मीडिया की क्रेडिबिलिटी कम हुई है? यदि हां, तो इसके पीछे क्या कारण है और इस क्रेडिबिलिटी को फिर से बनाने अथवा बरकरार रखने के लिए किस तरह के कदम उठाए जाने चाहिए?

देखिए, मैं मानता हूं कि मीडिया और शिक्षा दोनों की क्रेडिबिलिटी सवालों के घेरे में है। मेरा मानना है कि यदि मीडिया आत्मचिंतन नहीं करता और खुद को तैयार नहीं करता तो साख का ये संकट गहराएगा। आने वाली पीढ़ी को तथ्य के लिए आग्रह, सत्य के लिए आग्रह और देश के लिए आग्रह करना पड़ेगा और इस दिशा में कदम उठाने पड़ेंगे।

तमाम अखबारों-मैगजींस में एडिटोरियल पर मार्केटिंग व विज्ञापन का काफी दबाव रहता है। चूंकि आप भी एक जानी-मानी मैगजीन के संपादक हैं, ऐसे में आपकी नजर में एक संपादक इस तरह के दबावों से किस तरह मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से संपादकीय कार्यों का निर्वहन कर सकता है?

इस प्रश्न को हमेशा अधूरे तरीके से देखा जाता है। जैसा मैंने बताया कि मैंने पत्रकारिता के साथ-साथ विज्ञापन और मार्केटिंग की पढ़ाई भी की है। आपकी खबर यदि रोचक होगी, रुचिपूर्ण होगी और उसे पढ़ने-देखने वाले होंगे तो सबके लिए एक रेवेन्यू मॉडल बनता है। पत्रकारिता यदि सभी रेवेन्यू मॉडल को ध्वस्त करके कहे कि आपको हमारा खर्चा चलाना है तो ऐसे पत्रकारिता नहीं चलती है। समाज की अपेक्षाओं के साथ उसकी रुचि की पत्रकारिता करते हुए भी मुनाफे के साथ चल सकते हैं। यह समय का आग्रह है। मैं समझता हूं कि ये विज्ञापन का दबाव नहीं है, यदि जनअभिरुचियों का दबाव संपादकीय विभाग समझता है और उसके साथ चलता है तो समाज का जो प्रतिसाद है, वह पत्रकारिता को जीवित रखता है और उसे ठीक रखता है।   

तमाम पत्रकारों पर आजकल एजेंडा चलाने के आरोप लगते हैं। क्या कभी आपको भय, लालच अथवा अन्य किसी भी प्रकार द्वारा एजेंडा चलाने के लिए दबाव का सामना करना पड़ा है?

अभी मैं पांचजन्य में हूं और इससे पहले भी संस्थानों में रहा हूं और सभी मुख्यधारा के संस्थान रहे हैं। मैं ये मानता हूं कि आज भी कुछ पोर्टल्स और एकाध मीडिया घरानों को छोड़ दें, जिनका वित्तपोषण इस दृष्टि से ही किया गया है, उन्हें छोड़ दें तो बाकी सभी जगह न्यूजरूम्स अभी भी दबावों से मुक्त हैं। वहां पर वो पत्रकार है जो अपनी बात कहता है। यदि प्राइम टाइम में नहीं कहेगा तो सोशल मीडिया अथवा किसी अन्य प्लेटफॉर्म पर कह देगा। मैं ये मानता हूं कि अपनी समझ, रुचि, प्रेरणा और अपनी क्षमता के हिसाब से लोग स्टैंड लेते हैं। जैसे ट्विटर पर ट्रेंडिंग आती है और थोड़ी देर में ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है कि कौन गलत जगह पर खड़ा हुआ है। अब ऐसा नहीं है कि आप कुछ भी बोलेंगे और निकल जाएंगे, समाज आईना दिखा देता है। इसलिए एजेंडा किसी का चलता नहीं है।

कोरोनाकाल में तमाम प्रिंट पब्लिकेशंस को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सर्कुलेशन काफी प्रभावित हुआ, लोगों ने घरों पर मैगजींस/अखबार मंगाने बंद कर दिए थे। अब जबकि कोविड लगभग खत्म हो चुका है। ऐसे में अखबारों/मैगजींस के नजरिये से वर्तमान दौर को आप किस रूप में देखते हैं। क्या प्रिंट पब्लिकेशंस कोविड से पहले के दौर की तरह अपनी पहुंच फिर बनाने में और टीवी व डिजिटल को टक्कर देने में कामयाब रहेंगे?

पत्रकारिता की अपनी पूरी यात्रा और साथ में तकनीक को बढ़ते हुए देखकर मेरा मानना था कि भारत में प्रिंट की यात्रा कम से कम 2040 तक रहनी चाहिए। उसमें भी भाषाई पत्रकारिता या वैचारिक पत्रकारिता, उसकी भी जड़ें गहरी हैं या जो वांशिक सदस्यता के मॉडल पर चलते हैं, उनके लिए संभावनाएं अच्छी हैं क्योंकि उनका एक रेवेन्यू मॉडल रहता है। लेकिन, कोविड के बाद में यह समय शायद थोड़ा और पांच-सात साल घट गया होगा। ऐसा नहीं है कि तकनीक के इस दौर में प्रिंट उसी तरह से लहलहाएगा। एक चीज और है कि बाकी दुनिया में मीडिया की जो स्थिति है, भारत की उससे अलग है। ऐसा इसलिए भी कि दुनिया के कई देशों के मुकाबले भारत में साक्षरता की दिशा में बड़े कदम काफी देरी से उठाए गए, इसलिए यहां मीडिया भी देरी से पनपा और फैला। खबरों के लेकर तकनीक ने चीजें काफी बदल दी हैं। अब आप खबर को सिर्फ पढ़ नहीं सकते, उसे देख सकते हैं, सुन सकते हैं और उस पर अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं। यह प्रिंट के लिए बड़ी चुनौती है। भारत में प्रिंट के ज्यादा बढ़ने की संभावनाएं तो अभी मैं नहीं देखता हूं। मगर, उसकी सिनर्जी अवश्य आगे बढ़ेगी। क्योंकि प्रिंट के जो बड़े पत्रकार हैं, जिनकी भाषा अच्छी है, जिनके तथ्य ठीक हैं, जिन्हें खबर की समझ है, वो भविष्य की पत्रकारिता के लिए रीढ़ साबित होने वाले हैं।     

आपको ‘पांचजन्य’ को आधुनिक बनाने, पृष्ठ सज्जा व कंटेंट के मामले में दूसरे मीडिया संस्थानों को टक्कर देने और आज के पाठकों के लिए प्रासंगिक बनाए रखने के लिए तमाम प्रयोग करने का श्रेय दिया जाता है। जैसे-आपने इसकी डिजिटल मौजूदगी को आगे बढ़ाया है, मैगजीन को भी नया रूप दिया है। अभी और किस तरह के बदलाव हमें इसमें देखने को मिलेंगे?

मैं सभी तकनीकी बदलावों का खुलासा नहीं करूंगा, लेकिन बता दूं कि इसके लिए सिर्फ मैं ही नहीं, बल्कि मेरी पूरी टीम मेहनत करती है। हम डिजाइनिंग और कलर सलेक्शन समेत तमाम अन्य पहलुओं पर अपनी टीम के साथ बैठकर चीजें फाइनल करते हैं। हमारी टीम के सभी सदस्य परिवार की तरह मिलकर काम करते हैं और आप कह सकते हैं कि यह परिवार की प्रगति है, विचार की प्रगति है।  

‘पांचजन्य’ पर तमाम लोग इस तरह के आरोप लगाते हैं कि ‘आरएसएस’ की विचारधारा से प्रेरित होने के कारण यह हिंदुत्ववादी सोच को ही प्रमुखता देती है औऱ सिर्फ उसी को विचारों को आगे बढ़ाती है। इन आरोपों के बारे में आपका क्या कहना है?

आपको बता दूं कि संघ की विचारधारा को इस देश की विचारधारा मैं इसलिए कहता हूं कि संघ की प्रार्थना में आपको हिंदू शब्द भी मिलता है, भारत शब्द भी मिलता है और भारत माता की जय करते हुए वह प्रार्थना पूरी होती है। तो मैं नहीं मानता कि संघ का विचार भारत विरोधी विचार है और भारत विरोधी विचार की पत्रकारिता करनी है, ऐसा भी मैं बिल्कुल नहीं मानता। दूसरी बात कि यह संघ की पत्रिका है, ऐसा आप तकनीकी तौर पर नहीं कह सकते हैं। ‘भारत प्रकाशन दिल्ली लिमिटेड’ एक कंपनी है और अपने हिसाब से चलती है। यहां पर ये नहीं है कि संघ चयन करता हो या किसी चीज का भुगतान करता हो। ऐसा भी नहीं है कि वेतन भुगतान अथवा नियुक्तियां संघ से होती हैं। एक राष्ट्रीय विचार है, जिसकी पत्रकारिता हम करते हैं। यह सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता है, इसमें मुझे नहीं लगता कि आरोप जैसी कोई बात है।

खुले विचारों वाले निष्पक्ष पत्रकार के रूप में आपकी गिनती होती है। ऐसे में मीडिया में करियर बनाने के इच्छुक अथवा इसमें आने वाले नवोदित पत्रकारों के लिए आप क्या कहना चाहेंगे, सफलता का कोई ‘मूलमंत्र’ जो आप उन्हें देना चाहें।

आपका यह प्रश्न आने वाली पीढ़ी के लिए काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि मैं कई जगह रहा हूं और अभी पांचजन्य में हूं। यह वैचारिक पत्रकारिता है। आप जिसे मुख्यधारा कहते हैं, यह मुख्यधारा में होते हुए भी वैचारिक पत्रकारिता है। मीडिया में आने वाले युवाओं को मैं यही कहूंगा कि वैचारिक पत्रकारिता की ओर बढ़ने से पहले अपना वैचारिक आधार मजबूत कर लें। आपका वैचारिक आधार कुछ भी हो सकता है। अगर आपको अपने वैचारिक आधार की समझ है और उसके लिए अगर आप बढ़ सकते हैं, लड़ सकते हैं, न्यूजरूम में झगड़ सकते हैं तो आप उस विचार का भला करेंगे अन्यथा किसी पक्ष में कहीं पर भी खड़े रहेंगे तो मेरा कहना है कि पत्रकारिता पर बोझ मत बनो। क्योंकि, विचार को समझिए, उसके प्रति आपकी निष्ठा है और समर्पण है तो आपकी पत्रकारिता में वह दिखाई देगा। अन्यथा, पत्रकारिता की आपकी यात्रा के बीच में तमाम चुनौतियां आएंगी और वह यात्रा बीच में ठिठक सकती है।

सुना है कि आपने कई फिल्में भी डायरेक्ट की हैं। उनके बारे में कुछ बताएं। क्या निकट भविष्य में भी किसी फिल्म के डायरेक्शन की योजना है?

आपने सही सुना है। आप कह सकते हैं कि यह मेरी रुचि का विषय रहा है। मीडिया में आने पर हम उसके अलग-अलग माध्यमों में काम करते रहे हैं। वर्ष 2003 में हम लोगों ने ‘Ropes In Their Hand’ नाम से एक फिल्म तैयार की थी। इस फिल्म में दिखाया गया था कि बाल मजदूरों के साथ तमाम सर्कस में किस तरह का शोषण होता है। मैं इस फिल्म का क्रिएटिव डायरेक्टर था। यह फिल्म न्यूयॉर्क फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत भी हुई थी।

इसके बाद वन्यजीवों पर काम करने वाले प्रतिष्ठित नाम नरेश बेदी जी और राजेश बेदी जी के साथ मिलकर 13 भागों की एक सीरीज ‘Wild Adventures Ballooning With Bedi Brothers’ की स्क्रिप्टिंग और क्रिएटिव्स का काम भी मैंने किया है। कुछ दूरदर्शन के शो भी किए हैं। करीब चार साल से पांचजन्य की टीम एक विषय पर काम कर रही थी कि विभाजन के समय जो लोग यहां आए, उनकी आपबीती उन्हीं से सुनना और समाज के सामने रखना। पिछले साल हम इस काम में तेजी लाए और इस शोध के बाद हमने एक पुस्तक तैयार की और फिर उसके आधार पर एक फिल्म का निर्माण भी किया।

हमने तो इसे यूट्यूब के लिए बनाया था, लेकिन जब एंट्री भेजी तो यह इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए भी चुनी गई। इसके बाद हमने गोवा को मुक्ति संग्राम पर एक फिल्म है, उसका शोध किया है। इस फिल्म का पहला कट अभी हमने रिलीज किया था। पांचजन्य इस देश के लिए काम करने की प्रेरणा है और हम कभी डिजिटल में तो कभी फिल्मों में तरह-तरह के काम करते रहते हैं। जैसा कि मैंने अभी कहा कि कंटेंट में अगर सच है तो लोग उसे देखते हैं।   

समाचार4मीडिया के साथ हितेश शंकर की इस पूरी बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।

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