पत्रकारों का लाइलाज 'दर्द-ए-दिल'

मीडिया से एक ही हफ्ते में दूसरी बुरी खबर है कि ‘दैनिक जागरण’ मथुरा के महेश चौधरी के बाद ‘फोर्ब्स इंडिया’ की फाउंडर टीम के मेंबर केपी नारायण भी नहीं रहे

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 10 April, 2019
Last Modified:
Wednesday, 10 April, 2019
Journalist


अनिल दीक्षित
वरिष्ठ पत्रकार

मीडिया से एक ही हफ्ते में दूसरी बुरी खबर है। ‘दैनिक जागरण’ मथुरा के महेश चौधरी के बाद ‘फोर्ब्स इंडिया’ की फाउंडर टीम के मेंबर केपी नारायण भी नहीं रहे। दोनों त्रासदियों की वजह एक ही है, दिल का रोग। दोनों का कम उम्र में ही छोडकर चले जाना भयावह संकेत दे रहा है कि मीडिया की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं है। अनियमित जीवन असमय विराम ले रहा है, चकाचौंध युवाओं का जीवन लील रही है।

पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का ग्लैमर बढ़ा है। नतीजतन, आईएएस-आईपीएस बनने का माद्दा रखने वाले मेधावी युवाओं का इसमें आगमन हुआ है। प्रतिभाएं अपना जलवा बिखेर रही हैं। महेश चौधरी को मैं जानता था। वह एक ईमानदार और लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त पत्रकार था। डेडलाइन में काम करने का आदी। प्रतिभा इतनी कि उसे हर खबर की गहराई पता होती थी और खबरें इतनी कि अकेले दम पर अखबार का काफी हिस्सा भर दे। डेस्क पर आने के बाद उसकी क्षमताएं और भी ज्यादा दिखीं। शब्दों पर पकड़ और सीखने की ललक से वह यहां भी कामयाब था। अचानक एक बुरी खबर आई। एक मीडिया वॉट्सऐप ग्रुप से पता चला कि महेश चला गया।

केपी की मृत्यु भी चिंतित और आश्चर्यचकित कर रही है। चिंता यह कि मीडिया में तनाव कहीं और दुष्प्रभाव न डालने लगे और आश्चर्य यह कि कामयाब होने पर भी क्या दबाव जानलेवा हो सकता है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से अपनी पत्रकारीय पारी की शुरुआत करने वाले केपी ने कई ख्यातिनाम मीडिया समूहों में खुद को साबित-स्थापित किया। ‘मिंट’ और ‘फोर्ब्स इंडिया’ की स्टार्ट अप टीमों में भी शामिल रहे। दिल की बीमारी की सबसे बड़ी वजह है अनियमित जीवनशैली और तनाव-दबाव। कुछ वक्त पर लक्षण पहचानकर इलाज करा लेते हैं तो कुछ इतना समय ही नहीं निकाल पाते कि इलाज भी करा पाएं।

तनाव के साथ ही असुरक्षा भी पत्रकारों को जीने नहीं दे रही। नहीं पता कि जाने कब नौकरी चली जाए। मुश्किल यह भी है कि मीडिया ऐसा उद्योग है, जहां छोटे निवेश से काम चलता नहीं और बड़े निवेश का रिटर्न आना और समय पर आ जाना, दोनों अनिश्चित हैं। पिछले दस साल की बात करें और सिर्फ आगरा जैसे उत्तर प्रदेश के एक मंडल का उदाहरण लें तो यहां तीन-चार अखबार लॉन्च हुए। पानी की तरह पैसा बहाकर भी यह अखबार टिक नहीं पाए और बंद हो गए। लागत और कमाई के ग्राफ में जमीन-आसमान सरीखा अंतर हिम्मत तोड़ देता है। ऊपर से, स्थापित मीडिया संस्थानों का बल चलने तो क्या, रेंगने भी नहीं देता। इसलिये पत्रकारों के लिए विकल्प कम हैं। यानी, नौकरी चली जाए तो दूसरी मिलना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऊपर से कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मीडिया एजुकेशन संस्थान बड़े पैमाने पर हर साल पास आउट युवाओं को और भाड़ में झोंके जाने के लिए भेज देते हैं।

संस्थानों के पास उम्मीदवारों की भीड़ है, इसलिये उन्हें छंटनी से भी गुरेज नहीं होता। समस्या विकराल है। देश-दुनिया में अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले पत्रकार खुद शोषण के शिकार और अंदरूनी दर्द से बेहाल हैं। सरकारी स्तर पर संरक्षण की आवश्यकता है। हालांकि, इस संरक्षण में बाधा भी उनके अपने ही संस्थान हैं जो एकजुट होकर राहत मिलने नहीं देते।

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नीतीश की हकीकत से तेजस्वी की उम्मीद का मुकाबला: विनोद अग्निहोत्री

हालांकि, इसकी काट के लिए जहां महागठबंधन ने सिर्फ घोषणाएं की हैं तो वहीं सरकार में होने की वजह से एनडीए ने कई सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचा भी दिया है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 05 November, 2025
Last Modified:
Wednesday, 05 November, 2025
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विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।

बिहार विधानसभा चुनावों का घमासान अब अपने चरम पर है। सत्ताधारी एनडीए को अपने कई बार के आजमाए सेनापति मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की साख और लोकप्रियता पर पूरा भरोसा है तो साथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी करिश्मे की ताकत और भाजपा के सबसे बड़े रणनीतिकार गृह मंत्री अमित शाह चतुर सुजान रणनीति और अध्यक्ष जेपी नड्डा की संगठन क्षमता की ताकत से उसके समर्थकों और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा हुआ है।

मुकाबले में राजद कांग्रेस समेत पांच दलों का गठजोड़ इंडिया महागठबंधन के पास युवा तेजस्वी यादव का चेहरा, राहुल गांधी का सामाजिक न्याय, वामदलों हर विधानसभा क्षेत्र में एक निश्चित जनाधार, मुकेश सहनी और जीके गुप्ता जैसे पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नेताओं के दलों का पूरा वैचारिक शस्त्रागार मौजूद हैं। इनके बीच में नए महारथी प्रशांत किशोर की पिछले करीब तीन साल की कड़ी मेहनत की परीक्षा भी है।

पिछले करीब 20 साल से बिहार की सत्ता पर काबिज एनडीए और नीतीश कुमार के पास अपने शासन की तमाम उपलब्धियां गिनाने को तो हैं, लेकिन इस अवधि की अपनी विफलताओं और जनता की ओर से उठने वाले सवालों का जवाब देने के लिए कोई नया नारा, नया सपना या नया नैरेटिव नहीं है। इसलिए एनडीए ने एक बार फिर बिहार में अपने कई बार सफल हो चुके लालू राज के जंगल राज बनाम नीतीश सरकार के सुशासन राज का नारा आगे बढ़ाया है।

लेकिन विपक्षी महागठबंधन ने बिहार में बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी और यहां के पुरुषों और नौजवानों का काम धंधे और शिक्षा के लिए राज्य के बाहर दूर दराज दूसरे राज्यों में बढ़ते पलायन को अपना मुख्य मुद्दा बनाकर एनडीए के जंगल राज के मुद्दे के राजनीतिक भयादोहन की काट करने में जुटा है।

सत्तारूढ़ एनडीए के सामने 20 साल के अपने शासन की उपलब्धियों का जखीरा शायद कम पड़ गया कि ऐन चुनाव के तीन महीने पहले से नीतीश सरकार ने लगातार धड़ाधड़ कई लोकलुभावन घोषणाएं करनी शुरु कर दीं। दिलचस्प है कि कभी फ्रीबी या चुनावी रेवड़ियां बांटने के विरोधी नीतीश कुमार ने 120 यूनिट मुफ्त बिजली से लेकर हर परिवार की एक महिला के खाते में एकमुश्त दस हजार रुपए सीधे भेजने तक में सरकारी खजाना खोल दिया। जीविका दीदी वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन समेत कई योजनाओं में दी जाने वाली धनराशि भी बढ़ा दी गई।

भाजपा-जद(यू) और एनडीए के सभी घटक दलों को उम्मीद है कि महिलाओं और सरकारी योजनाओं के लाभार्थी वर्गों का एकमुश्त समर्थन उसकी नैया पार लगा देगा। महिला स्वरोजगार योजना के तहत महिलाओं के खाते में भेजी गई दस हजार रुपए की एकमुश्त राशि को एनडीए गेमचेंजर मान रहा है और इसकी काट के लिए ही इंडिया महागठबंधन ने अपने घोषणा पत्र में अनेक लोकलुभावन घोषणाओं के साथ ही हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का आकाशचुंबी वादा भी कर दिया है।

जवाब में एनडीए ने अपने घोषणापत्र में बिहार में एक करोड़ रोजगार देने की भारी-भरकम घोषणा कर दी है। कुल मिलाकर बिहार के चुनावी मैदान में दोनों तरफ से लोकलुभावन घोषणाओं के तीर बराबर चल रहे हैं। लेकिन इस लड़ाई में एक और पक्ष है प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी जो राज्य की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जिन्हें आम तौर पर पीके के नाम से जाना जाता है, ने करीब तीन साल पहले सक्रिय राजनीति में उतरने का फैसला किया था। उनकी कांग्रेस में शामिल होकर एक अहम भूमिका निभाने को लेकर लंबी बातचीत चली जो आखिरकार विफल रही और फिर पीके ने अपने दम पर बिहार की राजनीति में उतरने का फैसला किया।

करीब दो साल से भी ज्यादा वक्त से प्रशांत किशोर ने बिहार में राज्य की आर्थिक बदहाली, बंद उद्योग, बेरोजगारी, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था, चरमरा चुकी कानून व्यवस्था जैसे तमाम बुनियादी मुद्दों को लेकर पूरे बिहार में पदयात्रा और यात्राएं की और करीब-करीब बिहार के हर गांव और शहर का उन्होंने दौरा करके जनता को लगातार इन मुद्दों पर संबोधित किया। चुनावी रणनीति डेटा (आंकड़ा) प्रबंधन और सोशल मीडिया के महारथी पीके ने अपनी मेहनत और करिश्माई जनसंपर्क से जनसुराज को एक तीसरा ध्रुव बना दिया है।

पीके मैदान में हैं और उनके उम्मीदवार कहां-किस दल को नुकसान करेंगे और खुद जनसुराज को कितना वोट और सीटें मिलेंगी, इसका अंदाज न राजनीतिक विश्लेषक लगा पा रहे हैं और न ही चुनावी सर्वेक्षक। सबके अलग अलग विश्लेषण हैं। जमीन पर जनसुराज और प्रशांत किशोर के मुद्दों की चर्चा तो खूब है, लेकिन क्या पीके दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की तरह बिहार में कोई कमाल कर पाएंगे ऐसा पक्की तौर पर कोई नहीं कह पा रहा है।

चुनाव शुरू होने से पहले ज्यादातर की राय थी कि प्रशांत किशोर के निशाने पर मुस्लिम और अति पिछड़े मतदाता हैं और इससे विपक्षी महागठबंधन का नुकसान होगा। यह भी कहा गया कि सत्ता विरोधी मतों का बंटवारा भी महागठबंधन और जनसुराज के बीच होगा जिसका सीधा फायदा एनडीए को मिलेगा। इसलिए यह धारणा भी बनी कि जनसुराज से भाजपा को मदद मिल रही है।

लेकिन अब जो खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक महागठबंधन का कोर वोट मुस्लिम और यादव उसके साथ पूरी तरह एकजुट है, जबकि पीके और उनके मुद्दों का आकर्षण शहरी और पढ़े-लिखे और सवर्ण मतदाताओं पर ज्यादा है, जिन्हें आम तौर पर भाजपा और एनडीए का समर्थक माना जाता है। कहा ये भी जा रहा है कि पिछले करीब 35 वर्षों से मंडलेत्तर राजनीति के चलते बिहार में दोनों प्रमुख खेमों एनडीए और महागठबंधन का नेतृत्व और दबदबा पिछड़े वर्गों का ही है और जब से कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है बिहार के सवर्ण नेता विहीन हो गए हैं।

ऐसे में लंबे समय बाद सवर्णों को ब्राह्ण प्रशांत किशोर में एक उम्मीद दिख रही है। उन्हें लग रहा है कि पीके और जनसुराज भले ही सरकार न बना पाएं लेकिन बिहार की राजनीति में अगर सवर्णों को प्रभावशाली बनाना है तो प्रशांत किशोर को ताकत देनी चाहिए। अगर यह धारणा सवर्णों में बलवती हो गई तो निश्चित रूप से भाजपा और एनडीए के माथे पर बल पड़ सकते हैं। इसीलिए भाजपा के नेता पीके की चर्चा ही नहीं करते हैं।

लेकिन पीके और असदुद्दीन ओवैसी की एएमआईएम ने मुस्लिम बहुल सीमांचल की सीटों पर इंडिया महागठबंधन का सिरदर्द भी बढ़ा रखा है। 2020 में पीके तो मैदान में नहीं थे, लेकिन ओवैसी ने करीब 24 उम्मीदवार खड़े करके न सिर्फ अपने पांच विधायक जिताए थे बल्कि कई सीटों पर महागठबंधन की जीत को रोक दिया था और सीमांचल में एनडीए को अप्रत्याशित बढ़त मिली थी।

इसकी वजह से ही बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद आखिरी दौर में बहुमत के आंकड़े महागठबंधन दूर रह गया और नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी थी। 2020 में चिराग पासवान की रालोजपा ने जदयू की सभी सीटों पर उसके खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार कर सिर्फ नीतीश कुमार को कमजोर करने का ही काम किया था। इसकी वजह से जदयू की सीटें 43 पर आकर रुक गईं थीं।

इस बार चिराग एनडीए में हैं, प्रकट तौर पर नीतीश कुमार के साथ भी संघर्ष विराम है। लेकिन अगर जदयू के मतदाताओं ने लोजपा से 2020 का हिसाब चुकता करना शुरु कर दिया तो न सिर्फ रालोजपा बल्कि एनडीए की संभावनओं पर असर पड़ सकता है। इसीलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और बिहार भाजपा के सभी नेता भाजपा रालोजपा, जदयू, हम, रालोसपा की बात न करके एनडीए उम्मीदवारों को जिताने की बात कर रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से अलग थे और उन्होंने ओवैसी से गठबंधन किया था।

लेकिन इस बार कुशवाहा बाकायदा एनडीए में हैं। इसका फायदा सत्तारूढ़ दल को कुशवाहा समाज में मिल सकता है। लेकिन दूसरी तरफ निषादों, मल्लाहों के नेता वीआपी पार्टी के मुकेश सहनी जो पिछली बार एनडीए में थे इस बार न सिर्फ महागठबंधन के साथ हैं, बल्कि विपक्षी महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने के साथ साथ मुकेश सहनी को भी सरकार बनने पर उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा कर दी है।

देर से ही सही लेकिन तेजस्वी को अपना मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर महागठबंधन ने एनडीए के सामने नीतीश कुमार को चुनाव बाद सरकार बनने पर मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा की चुनौती पेश कर दी है। बीच का रास्ता अपनाते हुए भाजपा नेता ये तो कह रहे हैं कि एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है और फिलहाल मुख्यमंत्री पद पर कोई वैकैंसी नहीं है लेकिन इसके जवाब में विपक्ष महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश का उदाहरण देकर सत्ता पक्ष को घेर रहा है कि चुनाव तो शिंदे और शिवराज के नेतृत्व में भी लड़ा गया था, लेकिन चुनाव के बाद मुख्यमंत्री तो उन्हें नहीं बनाया गया। विपक्ष के इस प्रचार का नीतीश कुमार के अति पिछड़े जनाधार पर अगर थोड़ा बहुत भी विपरीत असर पड़ गया तो एनडीए को नुकसान हो सकता है।

इसके साथ ही राहुल गांधी का अति पिछड़ा और दलित कार्ड भी महागठबंधन के जनाधार का दायरा बढ़ाने की कवायद है। लोकसभा चुनावों के दौरान ही संविधान बचाओ सम्मेलनों के जरिए राहुल गांधी ने दलितों और अतिपिछड़ों को संबोधित करना शुरु कर दिया था। इसका फायदा कांग्रेस और विपक्ष को बिहार में भले ही ज्यादा न मिला हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में भरपूर मिला।

अब लगातार बिहार में अपनी इस मुहिम को राहुल गांधी ने चलाए रखा और चुनाव से पहले कई सम्मेलन किए। दलितों में रविदासी समाज को लुभाने के लिए दो बार के विधायक राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर इस प्रभावशाली दलित समाज जो जगजीवन राम के जमाने से कांग्रेस के साथ था, लेकिन बाद में बसपा से जुड़ गया था, को फिर कांग्रेस की तरफ मोड़ने की कोशिश की गई है।

दलितों को महागठबंधन के साथ जोड़ने के लिए दलित आदिवासियों की प्रतिनिधि गैर सरकारी संस्था नैकडोर के प्रमुख अशोक भारती ने बिहार के दलित बहुल इलाकों का सघन दौरा करने के बाद अपनी जो सर्वेक्षण रिपोर्ट दी है वो खासा चौंकाने वाली है। इसी तरह राहुल गांधी के अति-पिछड़े एजेंडे को अमली जामा पहनाने के सूत्रधार कांग्रेस पिछड़ा वर्ग विभाग के अध्यक्ष डा.अनिल जयहिंद कहते हैं कि बिहार में पहली बार अति-पिछड़ों के लिए एक समग्र घोषणा पत्र पिछड़ा अधिकार पत्र कांग्रेस ने जारी किया है, जिसे महागठबंधन के सभी घटक दलों का समर्थन है।

इस घोषणापत्र के सभी बिंदुओं को महागठबंधन ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी शामिल किया है। इनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है दलितों की तरह ही अति पिछड़ों को भी दबंग जातियों के अत्याचारों से कानूनी संरक्षण देने के लिए अति पिछड़ा विरोधी अत्याचार निवारण कानून बनाने का वादा।

ऐसा वादा पहली बार किसी राजनीतिक दल ने किया है और अगर अति पिछड़ों में इसका संदेश पहुंचाने में महागठबंधन कामयाब रहा तो चुनावी नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। हालांकि यह भी सच है अभी तक बिहार में अति-पिछड़ों और महादलितों का सर्वाधिक समर्थन नीतीश कुमार को ही मिलता आया है, वह चाहें एनडीए के साथ रहें या महागठबंधन के साथ। लेकिन इस बार कांग्रेस के प्रयासों से महागठबंधन ने नीतीश के इस जनाधार में सेंधमारी की कोशिश की है।

लेकिन एनडीए के पास भाजपा और पूरे संघ परिवार के संगठन की ताकत, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि और जनाधार, चिराग पासवान, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा के जातीय जनाधार और केंद्र और राज्य के सरकारी तंत्र की ताकत है। महागठबंधन ने सिर्फ घोषणाएं की हैं, जबकि सरकार में होने की वजह से एनडीए ने कई सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचा दिया है।

2005 से लेकर 2025 तक नीतीश कुमार के शासन की विकास गाथा भी है, लेकिन साथ ही बीस साल के शासन को लेकर तमाम सवाल भी हैं। लालू राज के कथित जंगल राज का नैरेटिव अगर एनडीए के पास है तो मोकामा में एनडीए उम्मीदवार बाहुबली अनंत सिंह पर राजद नेता और जनसुराज समर्थक दुलारचंद यादव की दिनदहाड़े हत्या के आरोप में गिरफ्तारी एनडीए को आईना भी दिखा रहा है।

कुल मिलाकर बिहार में चुनाव हकीकत और उम्मीद के बीच का मुकाबला है। नीतीश कुमार अगर बिहार की राजनीति की वर्तमान हकीकत हैं तो तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति में नई उम्मीद जगा रहे हैं। नीतीश कुमार अपने बीस साल के शासन में बिहार को जितना दे सकते थे दे चुके हैं, जबकि तेजस्वी बिहार के लोगों में भविष्य की उम्मीद जगा रहे हैं। नतीजे बताएंगे कि हकीकत और उम्मीद के इस मुकाबले में कौन किस पर भारी पड़ेगा और जनता हकीकत के साथ बंधी रहेगी या फिर उम्मीद को हकीकत में बदलने का मौका देगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।

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बिहार के मतदाता के मन को पढ़ना आसान नहीं: समीर चौगांवकर

अगर बीजेपी को लोकसभा मे मिले वोट से कम वोट मिलते है तो एनडीए को कड़ा संघर्ष करना होगा और यदि लोकसभा से ज्यादा वोट मिलते है तो एनडीए प्रचंड बहुमत की सरकार बना लेगा।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 04 November, 2025
Last Modified:
Tuesday, 04 November, 2025
biharelection2025

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

लोकसभा चुनाव के लगभग डेढ़ साल बाद बिहार विधानसभा के चुनाव होते हैं, लेकिन बिहार के लोकसभा और विधानसभा के पिछले चार चुनावों का मतदान पैटर्न यह बताता है कि लोकसभा में मतदाता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा की तुलना में क्षेत्रीय दलों की ओर झुकाव दिखाते हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 5 सीटें और 14.57 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को 37 सीटें और 10.97 प्रतिशत वोट मिले।

यानी लोकसभा की तुलना में लगभग 4 प्रतिशत कम वोट। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 12 सीटें और 13.99 प्रतिशत वोट मिले, वहीं 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 91 सीटें और 16.49 प्रतिशत वोट मिले। यानी इस बार लोकसभा की तुलना में 2.5 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले। यह चुनाव एकमात्र अपवाद था, जिसमें नीतीश कुमार और भाजपा ने मिलकर प्रचंड जीत दर्ज की थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को 22 सीटें और 29.86 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं डेढ़ साल बाद हुए 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को 53 सीटें और 24.42 प्रतिशत वोट मिले।

2014 का लोकसभा चुनाव और 2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होकर लड़ा था। 2014 में नीतीश के साथ न होने पर भी बिहार के मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में वोट किया था, और उन्हीं मतदाताओं ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू के गठबंधन के पक्ष में जमकर मतदान किया। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा 157 सीटों पर लड़ी और केवल 53 सीटें जीत सकी। लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के वोटों में 5.44 प्रतिशत की कमी आई थी।

2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा, जिसमें भाजपा ने 24.05 प्रतिशत वोट के साथ 17 सीटें जीतीं। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत घटकर 19.46 प्रतिशत रह गया और सीटें मिलीं 74, 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बिहार में 12 सीटें और 20.52 प्रतिशत वोट मिले। लोकसभा चुनाव के डेढ़ साल बाद होने जा रहे बिहार विधानसभा चुनाव में यह बड़ा सवाल है कि क्या बिहार का मतदाता लोकसभा की तरह मतदान करेगा या फिर एक बार फिर क्षेत्रीय दलों पर भरोसा जताएगा।

भाजपा की वोट हिस्सेदारी पिछले दो चुनावों के पैटर्न के अनुसार घटेगी या फिर भाजपा और नीतीश कुमार मिलकर 2010 का प्रदर्शन दोहराने जा रहे हैं, जब एन.डी.ए. को प्रचंड जीत मिली थी। 2010 में भाजपा और जेडीयू ने मिलकर 206 सीटें जीती थीं। इस बार ऐसा संभव नहीं है क्योंकि भाजपा और जेडीयू मिलकर केवल 202 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं।

इस बार चुनाव का पूरा दारोमदार एन.डी.ए. की तरफ से भाजपा के कंधों पर है और महागठबंधन की तरफ से यह जिम्मेदारी तेजस्वी यादव के कंधों पर है। यदि भाजपा को 2024 के लोकसभा में मिले वोट से कम वोट मिलते हैं, तो एन.डी.ए. को सत्ता बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा। और यदि लोकसभा से अधिक वोट मिलते हैं, तो एन.डी.ए. प्रचंड बहुमत की सरकार बना लेगा। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की जनता इस बार लोकसभा चुनाव के तर्ज पर मतदान करती है या फिर बिहार में चले आ रहे परंपरागत ट्रेंड के आधार पर।

फिलहाल यह चुनाव दो ध्रुवीय दिखाई दे रहा है। सीधा मुकाबला एन.डी.ए. और महागठबंधन के बीच है, लेकिन तीसरे कोण को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस बार बिहार के मतदाताओं के मन को पढ़ना आसान नहीं है। जीत का दावा सब कर रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि सबकी सांसें अटकी हुई हैं। बिहार के मतदाता किसे तर करते हैं और किसे प्यासा छोड़ते हैं। यह देखने के लिए 14 नवंबर का इंतज़ार करना पड़ेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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'एआई' आपको फ्री में क्यों मिल रहा है? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

जब आप कोई Prompt यानी सवाल AI से पूछते हैं, तो वह शब्दों को 'टोकन' में बदलता है। टोकन को डेटा सेंटर में लगे GPU प्रोसेस करते हैं और आपके सवाल का जवाब तैयार करते हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 03 November, 2025
Last Modified:
Monday, 03 November, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारतीय यूज़र्स के लिए पिछले हफ़्ते AI के प्रीमियम प्लान फ़्री कर दिए गए। पहले Perplexity ने एयरटेल के 36 करोड़ यूज़र्स को अपना प्रीमियम प्लान फ़्री कर दिया। अब Google Gemini और ChatGPT ने भी फ़्री प्लान पेश कर दिया है। Jio के 50 करोड़ यूज़र्स को 18 महीने तक Gemini फ़्री में मिलेगा, जबकि ChatGPT ने अपना ₹399 वाला Go Plan चार नवंबर से एक साल के लिए फ़्री कर दिया है।

Artificial Intelligence (AI) कंपनियों के सामने दो तरह की चुनौतियाँ हैं। पहली, AI का इस्तेमाल बढ़ाना और दूसरी, पैसे कमाना। पैसे तब बनेंगे जब ज़्यादा लोग इसका इस्तेमाल करेंगे। जितने ज़्यादा लोग इसका इस्तेमाल करेंगे, उतना ही AI मॉडल को ट्रेनिंग देने में मदद मिलेगी। भारत में लगभग 90 करोड़ इंटरनेट यूज़र्स हैं। इनके पास खर्च करने के लिए पैसे भले कम हों, लेकिन जितनी भाषा, संस्कृति और विविधता यहाँ है, वह ट्रेनिंग के लिए एक उपजाऊ बाज़ार बनाती है।

भारतीय बाज़ार पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए ये अमेरिकी कंपनियाँ अपना आज़माया हुआ फ़ॉर्मूला अपना रही हैं। पहले लोगों को आदत लगा दो, फिर दाम वसूलो। Netflix, Amazon, यहाँ तक कि देसी कंपनी Jio ने भी यही रास्ता अपनाया था। AI कंपनियों के अपने हित हैं, लेकिन आपको यह मौक़ा नहीं चूकना चाहिए।

अगर आप AI इस्तेमाल करते हैं, तो दो बातें आपने ज़रूर नोट की होंगी। पहले तो यह आपके सवाल का जवाब देता है, फिर पूछता है: “क्या मैं आगे यह बता दूँ?” आप इसमें फँसते चले जाते हैं, फिर वह कहता है कि “फ़्री प्लान ख़त्म हो गया है। आपको जवाब चाहिए तो हमारा प्लान ले लीजिए, नहीं तो इतने देर बाद फिर सवाल पूछ सकते हैं।” अब अगर आप किसी भी कंपनी का प्लान ले लेते हैं, तो जब तक चाहें सवाल-जवाब कर सकते हैं।

आप पूछेंगे कि AI कंपनियों को यह लिमिट क्यों लगानी पड़ी? जब आप कोई Prompt यानी सवाल AI से पूछते हैं, तो वह शब्दों को “टोकन” में बदलता है। टोकन को डेटा सेंटर में लगे GPU प्रोसेस करते हैं और आपके सवाल का जवाब तैयार करते हैं। मैंने पहले भी बताया था कि AI मॉडल को ट्रेनिंग दी जाती है, उसने दुनिया भर के ज्ञान के भंडार को समझा हुआ है। लेकिन जवाब देने की प्रक्रिया में बहुत ज़्यादा बिजली खर्च होती है, और फिर इससे पैदा होने वाली गर्मी को नियंत्रित करने के लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है।

एक अनुमान के अनुसार, एक सवाल का जवाब देने में 30 पैसे से लेकर ₹2 तक खर्च होता है। इसलिए कंपनियों ने लिमिट लगा रखी थी। OpenAI के संस्थापक सैम ऑल्टमैन तो यहाँ तक कह चुके हैं कि लोगों का “Please” या “Thank You” कहना भी ख़र्च बढ़ा देता है।

अब AI कंपनियों के पास फंडिंग की कोई कमी नहीं है। इनवेस्टर्स पैसे झोंक रहे हैं। अभी मुनाफ़े से ज़्यादा यूज़र्स बढ़ाने पर ज़ोर है, और इस प्रयोग के लिए भारत से बेहतर प्रयोगशाला और क्या हो सकती है? मेरा सुझाव है ,कंपनियों का अपना हित है, आप अपना हित देखें और AI सीखते रहिए। NVIDIA के संस्थापक ने कहा है “नौकरी उसकी जाएगी जो AI नहीं जानता।” और आपने यह भी पढ़ा होगा कि Amazon 14 हज़ार लोगों को नौकरी से निकाल रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अमेरिका में धर्म और राजनीति का गठजोड़: अनंत विजय

अमेरिका के उप-राष्ट्रपति अपनी पत्नी को हिंदू से ईसाई बनाना चाहते हैं। समझ आता है कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 03 November, 2025
Last Modified:
Monday, 03 November, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

भारत में आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर चर्चा होती है। कभी टैरिफ पर उनके बयान तो कभी आपरेशन सिंदूर रुकवाने के उनके दावे तो कभी प्रधानमंत्री मोदी को मित्र बताने पर तरह तरह की चर्चा होती है। पिछले दिनों अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस ने मिसीसिपी विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में अपनी पत्नी ऊषा वेंस के धर्म पर बयान दिया जिस पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई।

एक प्रश्न के उत्तर में उपराष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी। जे डी वेंस की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हिंदू हैं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वेंस जब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भारत आए थे तो पति-पत्नी अक्षरधाम मंदिर गए थे। अमेरिका में भी वेंस और ऊषा के हिंदू रीति-रिवाजों को निभाते फोटो दिखते रहते हैं। विश्वविद्यालय में वेंस के इस बयान के बाद उनके कंजरवेटिव समर्थकों ने जमकर तालियां बजाईं।

बाद में इंटरनेट मीडिया पर वेंस के इस बयान की आलोचना आरंभ हो गई। एक व्यक्ति ने तो उनको एक्स पर टैग करते हुए लिखा कि ये अफसोस की बात है कि आप अपनी पत्नी के धर्म को सार्वजनिक रूप से बस के नीचे फेंक कर कुचलना चाहते हैं। जब आलोचना बढ़ी तो उपराष्ट्रपति को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि फिलहाल ऊषा के धर्म परिवर्तन की कोई योजना नहीं है।

साथ ही उम्मीद भी जता दी कि जिस तरह से वो चर्च की ओर प्रेरित हुए उसी तरह से एक दिन उनकी पत्नी भी चर्च की ओर जाने की राह पर बढ़ेंगी। आपको बताते चलें विवाह के पूर्व वेंस नास्तिक थे। दरअसल अमेरिका में अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर हमेशा से बहस चलती रही है। जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया है, तब से ये बहस और तेज है। वर्तमान सरकार के कई सदस्य प्रवासियों से ये अपेक्षा करते हैं कि वो अमेरिका और ईसाई धर्म से प्यार करें।

अमेरिका कई बार भारत को धर्म और कथित धार्मिक कट्टरता को लेकर नसीहत देता रहता है। धार्मिक कट्टरता पर तो कई रिपोर्ट प्रकाशित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जारी भी करता रहा है। ट्रंप तो राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही ईसाई धर्म और बाइबिल को लेकर लगातार श्रद्धापूर्वक अपनी रैली में बोलते रहे हैं। यहां ये भी याद दिलाता चलूं कि जब अमरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार हो रहा था तो ट्रंप की रैलियों और सभाओं में लार्ड जीजस और जीजस इज किंग के नारे गूंजते थे।

ट्रंप, एलन मस्क और जे डी वेंस ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के समय परिवार, शादी, बच्चे और ईसाई धर्म को आगे रखा था। उनके इस प्रचार ने अमेरिकी वोटरों को अपनी ओर खींचा था और कमला हैरिस परास्त हो गई थीं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इसको और बल मिला। चर्च और ईसाई धर्म से जुड़े लोग महत्व पाने लगे। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को उन्होंने प्राथमिकता देनी शुरु की।

चार्ली किर्क ट्रंप के पारंपरिक वोटरों से संवाद करनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ईसाई धर्म और अमेरिकी माटी को लेकर आक्रामक तरीके से भाषण देते थे और लोगों को एकजुट करते थे। पिछले दिनों चार्ली किर्क की हत्या हो गई। चार्ली हत्या के बाद ट्रंप के इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने वाला कोई बचा नहीं। कुछ दिनों पूर्व चार्ली किर्क की विधवा का बयान आया था।

वो कह रही थीं कि चार्ली को रिप्लेस करनेवाला उनको कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चार्ली और जे डी वेंस में कई समानताएं हैं। बहुत संभव है कि चार्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने वेंस को चुना हो। अगले राष्ट्रपति चुनाव में जे डी वेंस स्वाभाविक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे में उनकी ईसाई धर्म समर्थक की छवि बनाने से लाभ होगा।

उस समय उनके सामने उनकी पत्नी के धर्म को लेकर प्रश्न ना खड़े हों इस कारण से वेंस अभी से एक माहौल बनाना चाहते हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम से ये बात साबित भी हो गई कि अमेरिकी राजनीति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है।

इस पूरे प्रकरण से एक और बात सामने आती है वो ये कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं। अब अगर हम भारत की बात कर लें तो स्थिति बिल्कुल भिन्न नजर आती है। भारत में तो कभी भी ना तो किसी राजनेता की पत्नी के धर्म के बारे में चर्चा होती है, ना ही जिज्ञासा और ना ही वोटरों को फर्क पड़ता है।

राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से शादी की कभी किसी ने कोई आपत्ति उठाई हो या कभी राजीव गांधी ने उनपर हिंदू धर्म स्वीकार करने का दबाव बनाया हो, ऐसा सार्वजनिक तो नहीं हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी का विदेशी मूल भले ही मुद्दा बना लेकिन तब भी किसी ने ये नहीं पूछा कि वो हिंदू हैं या अब भी ईसाई ही हैं। जिस तरह से वेंस ने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्मी के धर्म परिवर्तन की बात कही वैसा तो भारत में सुना नहीं गया।

विदेश मंत्री जयशंकर की पत्नी विदेशी मूल की हैं लेकिन उनके धर्म के बारे में ना तो किसी को कोई रुचि है और ना ही कोई जानना चाहता है। भारत के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन की पत्नी भी विदेशी रहीं, उन्होंने अपना नाम अवश्य बदला लेकिन उनके धर्म को लेकर भारत की जनता को कभी कोई आपत्ति हुई हो ऐसा ज्ञात नहीं है।

अमेरिका खुद को बहुत आधुनिक और खुले विचारों वाला देश कहता है लेकिन धर्म को लेकर वहां के नेताओं के विचार बेहद संकुचित हैं। चुनाव में भी जिस तरह से धर्म का खुलेआम उपयोग वहां होता है वो भी देखनेवाली बात है। लेकिन जब दूसरे देशों को नसीहत देने की बात होती है तो सभी एकजुट हो जाते हैं।

हम अमेरिकी समाज को देखें तो वहां आधुनिकता के नाम पर इस तरह की वितृतियां घर कर गई हैं कि वहां के मूल निवासी अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप ने शादी और बच्चों का मसला उठाया और उसको लोगों ने पसंद किया। ट्रंप और उनकी टीम लगातार परिवार व्यवस्था की बात करते रहते हैं और अमेरिकी उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं।

अमेरिका में नास्तिकता की बातें बहुत पुरानी है और इसकी जड़े उन्नीसवीं शताब्दी में जाती हैं। जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों की विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी तब अमेरिका में भी चार्ल्स ली स्मिथ जैसे लोगों ने खुले विचारों के नाम पर नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य आरंभ किया। वहां की युवा पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित भी हुई।

इक्कसीवीं शताब्दी तक आते आते फिर से धर्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। अब भी अमेरिका में नास्तिकता को बढ़ावा देनेवाले संगठन हैं लेकिन कमजोर हैं। हिंदू धर्म और उनके अनुयायियों जैसा सहिष्णु कहीं और नहीं है ये अमेरिकियों को समझना होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पूंजीपतियों से रिश्तों का राजनीतिक हिसाब-किताब बहुत महंगा: आलोक मेहता

कांग्रेस के शीर्ष नेताओं, मुख्यमंत्रियों के रहे संबंधों, उनकी सरकारों के दौरान बड़े पूंजीपतियों को मिले प्रश्रय अथवा लाइसेंस, परमिट, अनुबंध, ठेकों का हिसाब-किताब उनके लिए ही बहुत महंगा साबित होगा।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 03 November, 2025
Last Modified:
Monday, 03 November, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार।

बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध प्रचार के दौरान पूंजीपतियों से रिश्तों का पुराना राग अलाप रहे हैं। विशेष रूप से अंबानी, अडानी और नाम लिए बिना अन्य चार-पांच पूंजीपतियों को सर्वाधिक लाभ देने का आरोप लगा रहे हैं। शायद वह भूल जाते हैं कि पूंजीपतियों के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेताओं, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के रहे संबंधों, उनकी सरकारों के दौरान बड़े पूंजीपतियों को मिले प्रश्रय अथवा लाइसेंस, परमिट, अनुबंध, ठेकों का हिसाब-किताब उनके लिए ही बहुत महंगा साबित होगा।

कई बार ऐसा लगता है कि वह 60-70 के दशक में वामपंथी राजनीतिक दलों अथवा श्रमिक संगठनों द्वारा टाटा-बिड़ला और पूंजीपतियों के विरुद्ध की जाने वाली नारेबाजी के बल पर जनता को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि भारत ही नहीं, चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों में भी प्राइवेट और मल्टीनेशनल कंपनियां बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं। भारत में आर्थिक उदारवाद भी 1991 में कांग्रेस राज के दौरान, नरसिंहा राव की सरकार और मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए लागू हुआ।

अंबानी-अडानी समूह तो पिछले तीस वर्षों के दौरान तेजी से आगे बढ़े हैं। राहुल गांधी अपने को युवा सम्राट मानकर संभव है भारत की राजनीतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि नहीं जानना चाहते या उनके सलाहकार उन्हें नहीं बताते। लेकिन बिहार ही नहीं, देश के सामान्य लोग भी बिड़ला-टाटा से लेकर अंबानी-अडानी जैसे समूहों को किसी न किसी रूप में जानते या सुनते हैं। यही नहीं, करोड़ों लोगों ने इन कंपनियों के अलावा अन्य उद्योग-व्यापार की कंपनियों के शेयर खरीदे हुए हैं, यानी अपनी पूंजी भी लगा रखी है। वे न समझना चाहें, लेकिन इस विवाद पर कुछ तथ्यों पर ध्यान दिलाना उचित होगा।

बिड़ला समूह की ही बात की जाए, तो कृष्ण कुमार बिड़ला न केवल सदा कांग्रेस पार्टी को हर संभव सहयोग और चुनावी चंदा देते रहे, बल्कि स्वयं कांग्रेस पार्टी द्वारा 1984 से 2002 तक राज्यसभा के सांसद के रूप में जोड़े रखे गए। बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार में उनकी बेटी श्रीमती शोभना भरतिया को 2006 से 2012 तक राज्यसभा का नामांकित सदस्य बनाया गया। बिड़ला समूह की कंपनियां कांग्रेस सहित हर सरकार के काल में प्रगति करती रहीं।

राहुल गांधी को क्या यह तथ्य नहीं पता कि बिड़ला परिवार की दूसरी कंपनी हिंदुस्तान मोटर्स की 'अम्बेसेडर कार' सरकार की एकमात्र मान्यता प्राप्त कार रही, जिसकी सबसे अधिक खरीदी भाजपा की अटल सरकार आने तक होती रही। बाद में मारुति और अन्य बड़ी गाड़ियों की खरीद शुरू हुई। पिछले दशकों में चीनी, खाद, पटसन के कारखानों या टेलीकॉम उद्योग और नई टेक्नोलॉजी के कई उद्यमों में भी बिड़ला समूह आगे बढ़ता रहा।

बहरहाल, उन्हें अंबानी परिवार पर बड़ी आपत्ति होती है। वे यह कैसे नहीं जानते कि रिलायंस समूह — धीरुभाई अंबानी से लेकर मुकेश अथवा अनिल अंबानी — को सर्वाधिक सहयोग कांग्रेस सत्ता काल में ही मिला। यही नहीं, राजीव गांधी के राजनीतिक संकट यानी वी.पी. सिंह के विद्रोह के दौरान अंबानी ने पर्दे के पीछे उनका साथ दिया। दिलचस्प बात यह है कि अनिल अंबानी तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के वोटों से ही उत्तर प्रदेश से 2004 में राज्यसभा के सांसद बने। तब सोनिया गांधी पार्टी प्रमुख और राहुल गांधी भी सांसद थे।

राजीव गांधी से मनमोहन सिंह तक की कांग्रेस सरकारों के दौरान पॉलिएस्टर, गैस, टेलीकॉम के उद्यमों के लिए रिलायंस को विशेष रियायतों के आरोप लगते रहे। सही बात यह है कि उदार आर्थिक नीतियों और देश के आर्थिक विकास के लिए उनके साथ कई अन्य कंपनियां भी आगे बढ़ती रहीं। मनमोहन सिंह ही नहीं, प्रणब मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी और पी. चिदंबरम के वित्त या उद्योग-वाणिज्य मंत्री, या मुरली देवड़ा के पेट्रोलियम मंत्री रहते हुए इन समूहों ने तेजी से प्रगति की। गुजरात देश का सबसे प्रगतिशील प्रदेश रहा है, इसलिए टाटा-बिड़ला-अंबानी-अडानी समूहों को वहां मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल या प्रधानमंत्री बनने पर भी समुचित अवसर मिलते रहे।

राहुल गांधी यह कैसे भूल गए कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, जब वे पार्टी प्रमुख थे, उनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार मिलिंद देवड़ा को मुंबई से चुनावी विजय के लिए रिलायंस के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने खुली अपील जारी की थी।

यों बिड़ला-अंबानी के अलावा एक और बड़े उद्योगपति आर.पी. गोयनका रहे हैं। वे कांग्रेस और गांधी परिवार के करीबी थे। उनका औद्योगिक समूह भी तेजी से आगे बढ़ा। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा का चुनाव जितवाकर 2000 से 2006 तक सांसद बनाकर संसद में रखा। आर.पी. गोयनका तो गांधी परिवार के कुछ ट्रस्टों के सदस्य भी रहे।

इसी सप्ताह मुजफ्फरपुर की एक चुनावी सभा में राहुल गांधी ने अंबानी परिवार की शादी के समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जाने और खुद न जाने का दावा करते हुए अंबानी समूह को लाभ मिलने का आरोप लगाया।

इसे उन्होंने साहसिक कदम समझा, लेकिन उनके साथ बैठे कांग्रेस-राजद गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव के चेहरे का रंग उड़ गया, क्योंकि वह और लालू यादव का पूरा परिवार अंबानी के विवाह उत्सव में पूरी शान के साथ शामिल हुआ था और वहां उनकी अच्छी खातिर भी हुई थी। वैसे कांग्रेस के कुछ अन्य वरिष्ठ नेता भी इस समारोह में गए थे।

भारत में पारिवारिक कार्यक्रमों में आना-जाना सामान्य शिष्टाचार रहा है। परस्पर राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी होने पर भी सामान्य संबंध बने रहते हैं। राहुल गांधी को जिस अडानी समूह को पोर्ट या एयरपोर्ट के रखरखाव या निर्माण का काम दिए जाने पर तकलीफ हो रही है, उन्हें यह जानकारी कैसे नहीं है कि गुजरात के कांडला पोर्ट अडानी समूह को 1994 में दिया गया, जब केंद्र में राव की और गुजरात में छबिलदास मेहता की कांग्रेस सरकारें थीं। तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री भी नहीं थे।

इसी तरह राजस्थान में अडानी समूह को ग्रीन एनर्जी यानी सौर ऊर्जा के बड़े प्रोजेक्ट का काम 2018 में मिला, जहाँ अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार थी। छत्तीसगढ़ में भी कोयला खदानों आदि से जुड़े काम कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों के दौरान मिले। अब बिहार में वही अशोक गहलोत और भूपेश बघेल पार्टी उम्मीदवारों का हिसाब-किताब देख रहे हैं। ये कुछ बातें तो एक झलक मात्र हैं। यदि विस्तार में जाएंगे, तो बहुत दूर या करीबी की दास्तान मिल जाएगी। तभी तो उन्हें यह गीत याद रखना होगा -'राज को राज ही रहने दो, वरना भेद खुल जाएगा।'

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पूरा बॉलर या अधूरा ऑलराउंडर, ये गलती कर देगी बर्बाद: नीरज बधवार

वजह ये है कि वो ऐसा बॉलर है ही नहीं जो आपको बॉलिंग से मैच जिता दे और न ही ऐसा ऑलराउंडर है जिससे आप वनडे में बिना ज़्यादा रन खाए दस ओवर करवा लें।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 01 November, 2025
Last Modified:
Saturday, 01 November, 2025
neerajbadhwar

नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हर्षित राणा ने दूसरे टी-20 मैच में तीस के करीब रन बनाए, बावजूद इसके मुझे लगता है कि अर्शदीप की जगह उन्हें खिलाने का कोई तुक नहीं है और इसके पीछे एक से ज़्यादा कारण हैं। पहली बात तो यह कि अगर कोई टीम किसी प्रारूप (फॉर्मेट) में दुनिया के नंबर वन गेंदबाज़ को निकालकर उसकी जगह किसी ऐसे गेंदबाज़ को यह सोचकर खिला रही है कि दस मैचों में कभी ज़रूरत पड़ने पर वह आपके लिए बीस रन भी बना सकता है, तो आपका भगवान ही मालिक है।

आप टीम में ऐसा एक गेंदबाज़ खिला लें तब भी समझ आता है, लेकिन दुबे और राणा इन दोनों के तौर पर ऐसे दो-दो खिलाड़ी खिलाने का कोई मतलब नहीं है। अब होता यह है कि कमज़ोर टीमों के खिलाफ तो यह रणनीति चल जाती है, लेकिन बड़ी टीमों के खिलाफ आपको टुकड़ों में योगदान देने वाले खिलाड़ियों (छिटपुट खिलाड़ियों) की जगह गुणवत्तापूर्ण खिलाड़ियों की ज़रूरत होती है। आप इसी टीम में राणा की जगह अर्शदीप और दुबे की जगह रिंकू सिंह को शामिल कर दीजिए, तो देखिए अचानक टीम की गुणवत्ता कहीं ज़्यादा बेहतर लगने लगेगी।

दूसरी बात यह कि जब आप एक मैच जिताने वाले गेंदबाज़ को खिलाते हैं, तो वह 135 रन भी बचा सकता है। आपका आठवें नंबर का गेंदबाज़ी करने वाला ऑलराउंडर भले बीस-तीस रन बना जाए, लेकिन वह एक-दो बार को छोड़कर अपनी गेंदबाज़ी के दम पर मैच नहीं जिता सकता। वह बीस रन बना सकता है, लेकिन चार ओवर में पचास रन भी दे सकता है और विकेट लेगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।

तीसरी बात, जब आप शिवम दुबे जैसे किसी खिलाड़ी को खिलाते हैं, तो वह गेंदबाज़ी भी इस मानसिकता से करता है कि 'मैं रन रोक लूं, ज़्यादा रन न पड़ें।' बात थोड़ी अलोकप्रिय है, लेकिन एशिया कप के फाइनल में जब आप शिवम दुबे से शुरुआती गेंदबाज़ी करवाते हैं और वह ज़्यादा रन नहीं देता, तो हम कहते हैं कि देखो , यह कप्तान और कोच की शानदार चाल थी। लेकिन हम यह नहीं सोचते कि उसकी जगह अगर अर्शदीप जैसा विकेट लेने वाला गेंदबाज़ होता, तो पहले स्पेल में ही दो विकेट निकाल सकता था।

ऐसा होता, तो पाकिस्तान ने जो अस्सी के करीब की ओपनिंग साझेदारी की थी, वह नहीं होती। और यहां मैं उस अर्शदीप की बात कर रहा हूं, जिसने पिछले मैच में अपने दम पर आपको श्रीलंका के खिलाफ हारा हुआ मैच जिताया था। ठीक यही बात टेस्ट में नीतीश रेड्डी के साथ भी है। अगर आप उन्हें किसी भी प्रारूप में आठवें नंबर पर बल्लेबाज़ी करवाते हैं और यह सोचकर टीम में रखते हैं कि हम उनसे चार-पाँच ओवर भी करवा सकते हैं, तो इसका भी कोई तुक नहीं है। ऐसा करके आप उसी खिलाड़ी का करियर बर्बाद कर रहे हैं।

वजह यह है कि वह ऐसा गेंदबाज़ है ही नहीं जो आपको गेंदबाज़ी से मैच जिता दे ,और न ही ऐसा ऑलराउंडर है जिससे आप वनडे में बिना ज़्यादा रन खाए दस ओवर करवा लें। वहीं, आठवें नंबर पर बल्लेबाज़ी करते हुए वह कभी खुद को बल्लेबाज़ के तौर पर साबित नहीं कर पाएगा। वजह साफ़ है, ऊपर के बल्लेबाज़ अच्छा खेल गए तो उसके पास साबित करने को कुछ नहीं होगा, और अगर बल्लेबाज़ी आ भी गई तो साथ देने के लिए कोई नहीं बचेगा। छोटे प्रारूप में बल्लेबाज़ी आएगी तो तेज़ खेलना होगा, और जल्दी आउट हो गया तो वह भी असफलता (फेलियर) माना जाएगा।

इसी तरह का टीम चयन हमने ऑस्ट्रेलिया टेस्ट दौरे में किया था। यही गलती हमने इंग्लैंड में भी लगातार की। वह तो आख़िरी में हैरी ब्रूक के एक गलत शॉट और सिराज के शानदार स्पेल ने पूरा माहौल बदल दिया, वरना उस मैच में भी हम खेल तो तीन ही मुख्य गेंदबाज़ों के साथ रहे थे। और यही गलती अब हम ऑस्ट्रेलिया में सीमित ओवरों (वाइट-बॉल) के क्रिकेट में भी कर रहे हैं।

जैसा मैंने शुरू में कहा, दुनिया में आज ज़्यादा गुणवत्तापूर्ण टीमें बची नहीं हैं। इसलिए औसत टीमों के खिलाफ खेलते हुए आप चयन की ऐसी गलतियाँ करके बच सकते हैं, लेकिन जब-जब आप ऑस्ट्रेलिया जैसी बड़ी टीमों के खिलाफ खेलेंगे, तो पूरी तरह से उजागर (एक्सपोज़) हो जाएंगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बिहार में बह रही है किसकी बयार: प्रो.संजय द्विवेदी

इस समय बिहार की राजनीति पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से भी गुजर रही है। ऐसे में युवा चेहरों की बहार है। सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर जैसे युवा नेता मौजूद हैं।

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Published - Thursday, 30 October, 2025
Last Modified:
Thursday, 30 October, 2025
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प्रो.संजय द्विवेदी, स्वतंत्र टिप्पणीकार और राजनीतिक विश्लेषक।

बिहार चुनाव ने एक बार फिर से देश की राजनीति को गर्म कर दिया है। यह चुनाव इसलिए खास है कि क्योंकि दोनों प्रमुख राजनीतिक गठबंधनों की परीक्षा इसी चुनाव में होनी है। वहीं नए नवेले नेता बने प्रशांत किशोर की जनसुराज का परीक्षण इस चुनाव में होना है। बिहार की राजनीति को वैसे भी दिशावाहक और देश की नब्ज को समझने वाला माना जाता है। उसे जातीय राजनीति में कितना भी कैद करें, बिहारवासियों की राजनीतिक समझ को हर व्यक्ति स्वीकार करता है।

पाटलिपुत्र की जमीन में ही लोकतंत्र की खुशबू है। इस जमीन ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया है साथ ही सामाजिक न्याय की ताकतों की यही लीलाभूमि है। हमारे समय के अनेक दिग्गज नेता बिहार से शक्ति पाते रहे, भले यह उनकी जमीन न रही हो। मजदूर आंदोलन से निकले जार्ज फर्नाडीज हों या मध्यप्रदेश के शरद यादव, इस जमीन ने न सिर्फ उन्हें स्वीकार किया, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी राजनीति में स्थापित किया।

लालूप्रसाद यादव इस राज्य से निकले एक ऐसी परिघटना बन गए, जिनकी राजनीति और संवाद शैली बहुतों के आकर्षण का कारण बनी। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार जैसे नेता तो दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्र जैसी राजनीति बिहार को हमेशा चर्चा में रखती रही है। लालू का जादू आज भी टूटा नहीं है।

अपने खास जनाधार के वारिस के रूप में उनके पुत्र तेजस्वी यादव पिछले विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक सीटें लाने में सफल रहे। यह बताता है कि लालू यादव अभी चुके नहीं हैं और उनके बेटे उनके दल को सही नेतृत्व दे रहे हैं। हालांकि परिवारिक मतभेद की खबरें हवा में रहती हैं और यह बहुत स्वाभाविक भी है।

क्योंकि लालू यादव ने जिस तरह अपने परिवार के अनेक सद्स्यों को राजनीति के मैदान में उतारा और शक्तिसंपन्न किया, उनमें अधिकारों और महत्वाकांक्षा का संघर्ष होना ही था। जाहिर है तेजस्वी अधिकारिक तौर पर राजद के सबसे बड़े नेता हैं और लालू की छवि उनमें दिखती है। वे इंडी गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार भी घोषित किए जा चुके हैं।

बिहार के चुनावी समर में चुनाव के काफी पहले से ही अपनी यात्राओं से हलचल मचा रहे प्रशांत किशोर भी चर्चा में हैं। उनकी सभाओं में आ रही भीड़ वोटों में कितना बदल पाएगी कहना कठिन है। किंतु राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुख्य मुकाबला दोनों प्रमुख गठबंधनों के बीच ही है और प्रशांत किशोर की पार्टी की बहुत बड़ी भूमिका नहीं रहने वाली है।

प्रशांत किशोर खुद भी मानते हैं कि या तो वे नाटकीय बदलाव लाएंगें या फिर खाता भी नहीं खोल पाएंगें। हालांकि राजनीतिक रणनीतिकार होने के बाद भी उनकी बात कहां तक सही होगी कहा नहीं जा सकता। किंतु प्रशांत किशोर ने जिस तरह बेरोजगारी, पलायन के सवालों को उठाया है, उससे यह चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गए हैं। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार कुमार लंबे समय तक राज्य की सत्ता में रहे हैं, इसलिए उन पर हमले बहुत हैं।

सवाल भी पूछे जा रहे हैं कि आखिर आपने क्या किया? लेकिन आश्चर्य यह कि विपक्ष के दावेदार तेजस्वी यादव की ओर से नीतीश कुमार पर हमले के बजाए उनसे सहानुभूति ही जताई जा रही है कि उन्हें अमित शाह ने मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया और उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि भाजपा के अनेक नेता नीतीश कुमार जी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करते रहे हैं।

इस समय बिहार की राजनीति पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से भी गुजर रही है। ऐसे में युवा चेहरों की बहार है सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर, मुकेश सहनी जैसे युवा नेता न सिर्फ महत्वाकांक्षी हैं, बल्कि मैदान पर खासे सक्रिय हैं। बिहार में 18 से 19 साल की आयु के 14 लाख नए मतदाता हैं जो राजनीति से ज्यादा उम्मीदें रखते हैं।

नीतीश कुमार, सुशील मोदी, लालू यादव, रामविलास पासवान का समय भी ऐसा ही रहा होगा। जब इन युवाओं ने अपनी पहचान कायम की थी। उनमें नीतीश कुमार और लालू ही राजनीतिक पटल पर हैं। छवि के मामले में नीतीश कुमार अपने समकालीन नेताओं से बहुत आगे हैं। बार-बार गठबंधन बदलने के नाते वे चर्चा में रहते हैं, किंतु उनकी व्यक्तिगत छवि आज भी बहुत साफ-सुथरी है।

गठबंधन तोड़ने को कई बार उनके अवसरवाद के रूप में देखा गया, जबकि सच्चाई यह है कि वे अपनी शर्तों पर काम करने वाले नेता हैं। बिहार की राजनीतिक स्थितियों का उन्होंने लाभ उठाया और सभी के समर्थन से बार-बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसे राजनीतिक चातुर्य भी कहा जा सकता है, क्योंकि येन-केन प्रकारेण मुख्यमंत्री तो वही बने हुए हैं। लालू जी स्वास्थ्यगत कारणों से बहुत सक्रिय नहीं है।

जबकि नीतीश कुमार इस चुनाव में रोजाना चार से पांच सभाएं कर रहे हैं। महिलाओं में शराबबंदी और कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के नाते नीतीश कुमार का क्रेज है। उन्हें एक समय तक सुशासन बाबू भी कहा जाता रहा , क्योंकि माना जाता है कि उन्होंने बिहार को जंगलराज से उबारकर एक नई इबारत लिखी। विकास के काफी काम हुए। अधोसंरचना में भी बिहार को बदलता देखा गया।

नीतीश कुमार के साथ उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, चिराग पासवान की पार्टियां हैं। भाजपा का विशाल संगठन तंत्र तो लगा ही है। सामाजिक न्याय की शक्तियों का बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार के साथ है। उनके काम के आधार पर बड़ी संख्या में महिलाएं और कुछ प्रतिशत में मुस्लिम मतदाता भी जनता दल (यू) का साथ देते हैं। इस बार जनता दल (यू) और भाजपा दोनों 101-101 सीटों पर लड़ रहे हैं।

अन्य सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़ रखी हैं। बिहार के चुनाव में मूलतः राजद, जनता दल (यू) और प्रशांत किशोर की जनसुराज तीनों का भविष्य तय करेंगें। इस चुनाव में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर नहीं है। किंतु बिहार में एनडीए की जीत भाजपा और ‘ब्रांड मोदी’ के लिए वातावरण बनाने का काम जरूर करेगी। जिसका लाभ उसे आने वाले चुनावों में जरूर मिलेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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देश की नदियां जगत के अस्तित्व के साथ जुड़ीं हैं: अवधेश कुमार

स्पष्ट है कि इस बार यमुना का पानी पिछले बार से काफी बदला हुआ था और यह बताता है कि भाजपा सरकार यमुना सफाई के अपने वायदे पूरा करने की पूरी तरह कोशिश कर रही है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 29 October, 2025
Last Modified:
Wednesday, 29 October, 2025
avdheshkumar

अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार।

दिल्ली में यमुना घाटों पर छठ संपन्न हो गया। पिछले वर्षों की तरह इस बार यमुना नदी के पानी को लेकर उस तरह हाहाकार नहीं मचा जिसके दिल्लीवासी अभ्यस्त हो चुके थे। हां आम आदमी पार्टी ने वासुदेव घाट का एक वीडियो बनाकर जरूर जारी किया कि देखो, ये कहते थे कि यमुना को साफ कर दिया जबकि प्रधानमंत्री आने वाले हैं तो उनके लिए अलग से पानी लाकर घाट बनाया गया है।

दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कहा कि कि हमारी सरकार यमुना को साफ करने की कोशिश कर रही है। हमने यह नहीं कहा है कि यमुना पूरी तरह शुद्ध हो गई है और हम इसका पानी पी सकते हैं या घर ले जा सकते हैं।ऐसा बनाएंगे अवश्य लेकिन इस पर अभी काम हो रहा है। सच यह है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की रेखा गुप्ता सरकार ने पूरी प्रतिबद्धता से छठ को श्रेष्ठ तरीके से संपन्न कराने के लिए काम किया। कम से कम इस बार यमुना के पानी से दुर्गंध नहीं था।

घाटों की साफ- सफाई, पूजा करने, अर्ध्य देने और बैठने आदि की उचित व्यवस्था थी। कुल मिलाकर शिकायत के पहलू अत्यंत कम थे। इसलिए लोगों ने अन्य वर्षो के विपरीत राहत महसूस किया, सरकार की व्यवस्थाओं की प्रशंसा की। स्पष्ट है कि इस बार यमुना का पानी पिछले बार से काफी बदला हुआ था और यह बताता है कि भाजपा सरकार यमुना सफाई के अपने वायदे पूरा करने की पूरी तरह कोशिश कर रही है।

लोगों ने पहले की तरह शिकायत नहीं की तो इसका भी कोई अर्थ कुछ अर्थ है। देश की नदियां केवल हमारी धरोहर नहीं संपूर्ण जीव जगत के अस्तित्व के साथ जुड़ीं हैं। इन नदियों को स्वच्छ , संरक्षित सुरक्षित करना और इन्हें बनाए रखना सबका दायित्व है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बिहार में राहुल गांधी ने खड़ा किया बड़ा संकट : समीर चौगांवकर

केंद्र और राज्यों के चुनावों में बीजेपी की सिलसिलेवार जीत भी राहुल गांधी या विपक्ष को परेशान नहीं करती। कांग्रेस और आरजेडी के आपसी संघर्ष ने सारी ताक़त और ऊर्जा को गंवा दिया।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 28 October, 2025
Last Modified:
Tuesday, 28 October, 2025
biharelection2025

समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाज़ा कठिन है। लगातार चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद चुनाव में सत्ता पक्ष को उधेड़ना उसका दायित्व भी है और चुनावी जीत के लिए आवश्यक भी। सवाल यह उठता है कि बिहार में विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्यों नहीं संभाल पाए, जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं?

बिहार में ‘करो या मरो’ के चुनाव के बाद भी विपक्ष इतना लाचार और लचर क्यों नज़र आ रहा है? सोच के खोल आसानी से नहीं टूटते। उन्हें तोड़ने के लिए बदलावों का बहुत बड़ा होना ज़रूरी है। बिहार का यह चुनाव एनडीए से ज़्यादा महागठबंधन के लिए करो या मरो का है। बीच का कुछ समय छोड़ दिया जाए तो 20 साल से सत्ता पर काबिज़ एनडीए पूरी ऊर्जा और एकजुटता के साथ कमर कसकर मैदान में उतर चुका है और विपक्ष उनके सामने कहां खड़ा है?

प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, संघ और संगठन के पैदल सिपाही ज़मीन पर काम शुरू कर चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं, न बिहार में और न सोशल मीडिया पर। आज पूरे 56 दिन हो गए हैं जब राहुल गांधी आख़िरी बार बिहार आए थे।

1 सितंबर को उन्होंने पटना में ‘वोट अधिकार यात्रा’ का समापन किया था। उसके बाद राहुल ने बिहार की ओर देखना भी मुनासिब नहीं समझा और पूरी पार्टी को अपने सिपहसालारों के भरोसे छोड़ दिया। राहुल की बिहार से दूरी और राजनीति से अरुचि समझ से परे है। सामने मोदी, शाह और नीतीश जैसे नेता होने के बावजूद राहुल गांधी के अब तक प्रचार से दूरी बनाए रखने ने पूरे विपक्ष के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।

केंद्र और राज्यों के चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सिलसिलेवार जीत भी न राहुल गांधी को और न ही विपक्ष को परेशान करती दिखती है। मोदी ने भव्य चुनावी विजयों के साथ यह तय कर दिया है कि अब विपक्ष को उनके जितना लोकप्रिय और अखिल भारतीय नेतृत्व सामने लाना होगा। इससे कम पर मोदी को चुनौती देना नामुमकिन है।

बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के आपसी संघर्ष ने सारी ताक़त और ऊर्जा को गवां दिया। इतने महत्वपूर्ण चुनाव में राहुल और तेजस्वी को मिलकर एक और एक ग्यारह होना चाहिए था, पर दोनों का न मन मिला, न हाथ। चुनाव एक दिन का महोत्सव हैं, लेकिन लोकतंत्र की परीक्षा रोज़ होती है।

अच्छी सरकारें नियामत हैं, पर ताकतवर विपक्ष हज़ार नियामत है। जैसे बंद मुट्ठी से रेत फिसल जाती है, वैसे ही बिहार का चुनाव राहुल और तेजस्वी के हाथ से फिसल चुका है। विपक्ष ने सत्ता पक्ष को फिर सत्ता में आने का मौक़ा उपलब्ध करा दिया है। ध्यान रखिए, लोकतंत्र में चुनाव सरकार की सफलता से कम, विपक्ष के ज़मीनी संघर्ष से आंके जाते हैं और राहुल तथा तेजस्वी यही चूक गए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पाकिस्तान के सामने एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई : रजत शर्मा

ऑपरेशन थार शक्ति में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित टारगेटिंग सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, अर्जुन और T-90 टैंक, पिनाक रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों को भी शामिल किया गया।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 28 October, 2025
Last Modified:
Tuesday, 28 October, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

राजस्थान में पाकिस्तान से लगने वाली लोंगेवाला सीमा पर सेना की एलिट यूनिट ‘भैरव कमांडोज़’ ने अपने हुनर का प्रदर्शन किया। ‘ऑपरेशन थार शक्ति 2025’ नाम के इस युद्धाभ्यास में भैरव कमांडोज़ के अलावा इन्फैंट्री, आर्टिलरी और आर्मी एयर डिफेंस यूनिट्स ने हिस्सा लिया। ऑपरेशन थार शक्ति में टैंक कॉलम की मूवमेंट, तोपों से गोलीबारी, और थल सेना को एयर सपोर्ट देने के ऑपरेशन्स की एक्सरसाइज़ की गई।

इस दौरान आर्मी एयर डिफेंस की टीम ने कामीकाज़े ड्रोन से दुश्मन पर अटैक का भी अभ्यास किया। ऑपरेशन थार शक्ति में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित टारगेटिंग सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, अर्जुन और T-90 टैंक, पिनाक रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों को भी शामिल किया गया।

भविष्य के युद्धों में मॉडर्न टेक्नोलॉजी और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैसे होगा, इस युद्धाभ्यास में उसी की प्रैक्टिस की गई। इस दौरान तीनों सेनाओं के बीच आपसी समन्वय, आत्मनिर्भरता और इनोवेशन पर विशेष फोकस किया गया।

ऑपरेशन थार शक्ति के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को 1971 की लड़ाई और ऑपरेशन सिंदूर की याद दिलाते हुए कहा ,ऑपरेशन सिंदूर में सेना ने पाकिस्तान की अक़्ल ठिकाने लगाने वाली खुराक दे दी थी। लेकिन अगर पाकिस्तान ने फिर कोई हिमाकत की, तो इस बार पाकिस्तान तबाह हो जाएगा। जैसलमेर में भारत की फौज का शौर्य देखकर पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर को रात में नींद नहीं आएगी। वैसे, मुनीर की नींद तो अफगानी फाइटर्स ने भी उड़ा रखी है।

अफगानिस्तान के फौजी, पाकिस्तान की सरहद पर बंदूकें और रॉकेट लॉन्चर लेकर खड़े हैं। वे मुनीर को ललकारते हुए कहते हैं 'अगर मां का दूध पिया है, तो कभी इस तरफ भी आओ... हम तुम्हें जंग का मज़ा चखाएंगे।' अफगान तालिबान बार-बार कह चुका है कि वह पाकिस्तान के साथ बॉर्डर तय करने वाली डूरंड लाइन को नहीं मानता।

वे KPK (खैबर पख्तूनख्वा) को अपना सूबा मानते हैं। पाकिस्तानी फौज के पूर्व अधिकारी भी मानते हैं कि अफगानिस्तान ने मुनीर की इज़्ज़त उतार दी है। अब पाकिस्तान के सामने वाकई एक तरफ कुआं है, तो दूसरी तरफ खाई।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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