अमेरिका के उप-राष्ट्रपति अपनी पत्नी को हिंदू से ईसाई बनाना चाहते हैं। समझ आता है कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारत में आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर चर्चा होती है। कभी टैरिफ पर उनके बयान तो कभी आपरेशन सिंदूर रुकवाने के उनके दावे तो कभी प्रधानमंत्री मोदी को मित्र बताने पर तरह तरह की चर्चा होती है। पिछले दिनों अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस ने मिसीसिपी विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में अपनी पत्नी ऊषा वेंस के धर्म पर बयान दिया जिस पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई।
एक प्रश्न के उत्तर में उपराष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी। जे डी वेंस की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हिंदू हैं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वेंस जब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भारत आए थे तो पति-पत्नी अक्षरधाम मंदिर गए थे। अमेरिका में भी वेंस और ऊषा के हिंदू रीति-रिवाजों को निभाते फोटो दिखते रहते हैं। विश्वविद्यालय में वेंस के इस बयान के बाद उनके कंजरवेटिव समर्थकों ने जमकर तालियां बजाईं।
बाद में इंटरनेट मीडिया पर वेंस के इस बयान की आलोचना आरंभ हो गई। एक व्यक्ति ने तो उनको एक्स पर टैग करते हुए लिखा कि ये अफसोस की बात है कि आप अपनी पत्नी के धर्म को सार्वजनिक रूप से बस के नीचे फेंक कर कुचलना चाहते हैं। जब आलोचना बढ़ी तो उपराष्ट्रपति को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि फिलहाल ऊषा के धर्म परिवर्तन की कोई योजना नहीं है।
साथ ही उम्मीद भी जता दी कि जिस तरह से वो चर्च की ओर प्रेरित हुए उसी तरह से एक दिन उनकी पत्नी भी चर्च की ओर जाने की राह पर बढ़ेंगी। आपको बताते चलें विवाह के पूर्व वेंस नास्तिक थे। दरअसल अमेरिका में अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर हमेशा से बहस चलती रही है। जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया है, तब से ये बहस और तेज है। वर्तमान सरकार के कई सदस्य प्रवासियों से ये अपेक्षा करते हैं कि वो अमेरिका और ईसाई धर्म से प्यार करें।
अमेरिका कई बार भारत को धर्म और कथित धार्मिक कट्टरता को लेकर नसीहत देता रहता है। धार्मिक कट्टरता पर तो कई रिपोर्ट प्रकाशित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जारी भी करता रहा है। ट्रंप तो राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही ईसाई धर्म और बाइबिल को लेकर लगातार श्रद्धापूर्वक अपनी रैली में बोलते रहे हैं। यहां ये भी याद दिलाता चलूं कि जब अमरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार हो रहा था तो ट्रंप की रैलियों और सभाओं में लार्ड जीजस और जीजस इज किंग के नारे गूंजते थे।
ट्रंप, एलन मस्क और जे डी वेंस ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के समय परिवार, शादी, बच्चे और ईसाई धर्म को आगे रखा था। उनके इस प्रचार ने अमेरिकी वोटरों को अपनी ओर खींचा था और कमला हैरिस परास्त हो गई थीं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इसको और बल मिला। चर्च और ईसाई धर्म से जुड़े लोग महत्व पाने लगे। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को उन्होंने प्राथमिकता देनी शुरु की।
चार्ली किर्क ट्रंप के पारंपरिक वोटरों से संवाद करनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ईसाई धर्म और अमेरिकी माटी को लेकर आक्रामक तरीके से भाषण देते थे और लोगों को एकजुट करते थे। पिछले दिनों चार्ली किर्क की हत्या हो गई। चार्ली हत्या के बाद ट्रंप के इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने वाला कोई बचा नहीं। कुछ दिनों पूर्व चार्ली किर्क की विधवा का बयान आया था।
वो कह रही थीं कि चार्ली को रिप्लेस करनेवाला उनको कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चार्ली और जे डी वेंस में कई समानताएं हैं। बहुत संभव है कि चार्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने वेंस को चुना हो। अगले राष्ट्रपति चुनाव में जे डी वेंस स्वाभाविक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे में उनकी ईसाई धर्म समर्थक की छवि बनाने से लाभ होगा।
उस समय उनके सामने उनकी पत्नी के धर्म को लेकर प्रश्न ना खड़े हों इस कारण से वेंस अभी से एक माहौल बनाना चाहते हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम से ये बात साबित भी हो गई कि अमेरिकी राजनीति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है।
इस पूरे प्रकरण से एक और बात सामने आती है वो ये कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं। अब अगर हम भारत की बात कर लें तो स्थिति बिल्कुल भिन्न नजर आती है। भारत में तो कभी भी ना तो किसी राजनेता की पत्नी के धर्म के बारे में चर्चा होती है, ना ही जिज्ञासा और ना ही वोटरों को फर्क पड़ता है।
राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से शादी की कभी किसी ने कोई आपत्ति उठाई हो या कभी राजीव गांधी ने उनपर हिंदू धर्म स्वीकार करने का दबाव बनाया हो, ऐसा सार्वजनिक तो नहीं हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी का विदेशी मूल भले ही मुद्दा बना लेकिन तब भी किसी ने ये नहीं पूछा कि वो हिंदू हैं या अब भी ईसाई ही हैं। जिस तरह से वेंस ने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्मी के धर्म परिवर्तन की बात कही वैसा तो भारत में सुना नहीं गया।
विदेश मंत्री जयशंकर की पत्नी विदेशी मूल की हैं लेकिन उनके धर्म के बारे में ना तो किसी को कोई रुचि है और ना ही कोई जानना चाहता है। भारत के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन की पत्नी भी विदेशी रहीं, उन्होंने अपना नाम अवश्य बदला लेकिन उनके धर्म को लेकर भारत की जनता को कभी कोई आपत्ति हुई हो ऐसा ज्ञात नहीं है।
अमेरिका खुद को बहुत आधुनिक और खुले विचारों वाला देश कहता है लेकिन धर्म को लेकर वहां के नेताओं के विचार बेहद संकुचित हैं। चुनाव में भी जिस तरह से धर्म का खुलेआम उपयोग वहां होता है वो भी देखनेवाली बात है। लेकिन जब दूसरे देशों को नसीहत देने की बात होती है तो सभी एकजुट हो जाते हैं।
हम अमेरिकी समाज को देखें तो वहां आधुनिकता के नाम पर इस तरह की वितृतियां घर कर गई हैं कि वहां के मूल निवासी अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप ने शादी और बच्चों का मसला उठाया और उसको लोगों ने पसंद किया। ट्रंप और उनकी टीम लगातार परिवार व्यवस्था की बात करते रहते हैं और अमेरिकी उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं।
अमेरिका में नास्तिकता की बातें बहुत पुरानी है और इसकी जड़े उन्नीसवीं शताब्दी में जाती हैं। जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों की विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी तब अमेरिका में भी चार्ल्स ली स्मिथ जैसे लोगों ने खुले विचारों के नाम पर नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य आरंभ किया। वहां की युवा पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित भी हुई।
इक्कसीवीं शताब्दी तक आते आते फिर से धर्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। अब भी अमेरिका में नास्तिकता को बढ़ावा देनेवाले संगठन हैं लेकिन कमजोर हैं। हिंदू धर्म और उनके अनुयायियों जैसा सहिष्णु कहीं और नहीं है ये अमेरिकियों को समझना होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जब आप कोई Prompt यानी सवाल AI से पूछते हैं, तो वह शब्दों को 'टोकन' में बदलता है। टोकन को डेटा सेंटर में लगे GPU प्रोसेस करते हैं और आपके सवाल का जवाब तैयार करते हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारतीय यूज़र्स के लिए पिछले हफ़्ते AI के प्रीमियम प्लान फ़्री कर दिए गए। पहले Perplexity ने एयरटेल के 36 करोड़ यूज़र्स को अपना प्रीमियम प्लान फ़्री कर दिया। अब Google Gemini और ChatGPT ने भी फ़्री प्लान पेश कर दिया है। Jio के 50 करोड़ यूज़र्स को 18 महीने तक Gemini फ़्री में मिलेगा, जबकि ChatGPT ने अपना ₹399 वाला Go Plan चार नवंबर से एक साल के लिए फ़्री कर दिया है।
Artificial Intelligence (AI) कंपनियों के सामने दो तरह की चुनौतियाँ हैं। पहली, AI का इस्तेमाल बढ़ाना और दूसरी, पैसे कमाना। पैसे तब बनेंगे जब ज़्यादा लोग इसका इस्तेमाल करेंगे। जितने ज़्यादा लोग इसका इस्तेमाल करेंगे, उतना ही AI मॉडल को ट्रेनिंग देने में मदद मिलेगी। भारत में लगभग 90 करोड़ इंटरनेट यूज़र्स हैं। इनके पास खर्च करने के लिए पैसे भले कम हों, लेकिन जितनी भाषा, संस्कृति और विविधता यहाँ है, वह ट्रेनिंग के लिए एक उपजाऊ बाज़ार बनाती है।
भारतीय बाज़ार पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए ये अमेरिकी कंपनियाँ अपना आज़माया हुआ फ़ॉर्मूला अपना रही हैं। पहले लोगों को आदत लगा दो, फिर दाम वसूलो। Netflix, Amazon, यहाँ तक कि देसी कंपनी Jio ने भी यही रास्ता अपनाया था। AI कंपनियों के अपने हित हैं, लेकिन आपको यह मौक़ा नहीं चूकना चाहिए।
अगर आप AI इस्तेमाल करते हैं, तो दो बातें आपने ज़रूर नोट की होंगी। पहले तो यह आपके सवाल का जवाब देता है, फिर पूछता है: “क्या मैं आगे यह बता दूँ?” आप इसमें फँसते चले जाते हैं, फिर वह कहता है कि “फ़्री प्लान ख़त्म हो गया है। आपको जवाब चाहिए तो हमारा प्लान ले लीजिए, नहीं तो इतने देर बाद फिर सवाल पूछ सकते हैं।” अब अगर आप किसी भी कंपनी का प्लान ले लेते हैं, तो जब तक चाहें सवाल-जवाब कर सकते हैं।
आप पूछेंगे कि AI कंपनियों को यह लिमिट क्यों लगानी पड़ी? जब आप कोई Prompt यानी सवाल AI से पूछते हैं, तो वह शब्दों को “टोकन” में बदलता है। टोकन को डेटा सेंटर में लगे GPU प्रोसेस करते हैं और आपके सवाल का जवाब तैयार करते हैं। मैंने पहले भी बताया था कि AI मॉडल को ट्रेनिंग दी जाती है, उसने दुनिया भर के ज्ञान के भंडार को समझा हुआ है। लेकिन जवाब देने की प्रक्रिया में बहुत ज़्यादा बिजली खर्च होती है, और फिर इससे पैदा होने वाली गर्मी को नियंत्रित करने के लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है।
एक अनुमान के अनुसार, एक सवाल का जवाब देने में 30 पैसे से लेकर ₹2 तक खर्च होता है। इसलिए कंपनियों ने लिमिट लगा रखी थी। OpenAI के संस्थापक सैम ऑल्टमैन तो यहाँ तक कह चुके हैं कि लोगों का “Please” या “Thank You” कहना भी ख़र्च बढ़ा देता है।
अब AI कंपनियों के पास फंडिंग की कोई कमी नहीं है। इनवेस्टर्स पैसे झोंक रहे हैं। अभी मुनाफ़े से ज़्यादा यूज़र्स बढ़ाने पर ज़ोर है, और इस प्रयोग के लिए भारत से बेहतर प्रयोगशाला और क्या हो सकती है? मेरा सुझाव है ,कंपनियों का अपना हित है, आप अपना हित देखें और AI सीखते रहिए। NVIDIA के संस्थापक ने कहा है “नौकरी उसकी जाएगी जो AI नहीं जानता।” और आपने यह भी पढ़ा होगा कि Amazon 14 हज़ार लोगों को नौकरी से निकाल रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
कांग्रेस के शीर्ष नेताओं, मुख्यमंत्रियों के रहे संबंधों, उनकी सरकारों के दौरान बड़े पूंजीपतियों को मिले प्रश्रय अथवा लाइसेंस, परमिट, अनुबंध, ठेकों का हिसाब-किताब उनके लिए ही बहुत महंगा साबित होगा।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार।
बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध प्रचार के दौरान पूंजीपतियों से रिश्तों का पुराना राग अलाप रहे हैं। विशेष रूप से अंबानी, अडानी और नाम लिए बिना अन्य चार-पांच पूंजीपतियों को सर्वाधिक लाभ देने का आरोप लगा रहे हैं। शायद वह भूल जाते हैं कि पूंजीपतियों के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेताओं, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के रहे संबंधों, उनकी सरकारों के दौरान बड़े पूंजीपतियों को मिले प्रश्रय अथवा लाइसेंस, परमिट, अनुबंध, ठेकों का हिसाब-किताब उनके लिए ही बहुत महंगा साबित होगा।
कई बार ऐसा लगता है कि वह 60-70 के दशक में वामपंथी राजनीतिक दलों अथवा श्रमिक संगठनों द्वारा टाटा-बिड़ला और पूंजीपतियों के विरुद्ध की जाने वाली नारेबाजी के बल पर जनता को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि भारत ही नहीं, चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों में भी प्राइवेट और मल्टीनेशनल कंपनियां बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं। भारत में आर्थिक उदारवाद भी 1991 में कांग्रेस राज के दौरान, नरसिंहा राव की सरकार और मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए लागू हुआ।
अंबानी-अडानी समूह तो पिछले तीस वर्षों के दौरान तेजी से आगे बढ़े हैं। राहुल गांधी अपने को युवा सम्राट मानकर संभव है भारत की राजनीतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि नहीं जानना चाहते या उनके सलाहकार उन्हें नहीं बताते। लेकिन बिहार ही नहीं, देश के सामान्य लोग भी बिड़ला-टाटा से लेकर अंबानी-अडानी जैसे समूहों को किसी न किसी रूप में जानते या सुनते हैं। यही नहीं, करोड़ों लोगों ने इन कंपनियों के अलावा अन्य उद्योग-व्यापार की कंपनियों के शेयर खरीदे हुए हैं, यानी अपनी पूंजी भी लगा रखी है। वे न समझना चाहें, लेकिन इस विवाद पर कुछ तथ्यों पर ध्यान दिलाना उचित होगा।
बिड़ला समूह की ही बात की जाए, तो कृष्ण कुमार बिड़ला न केवल सदा कांग्रेस पार्टी को हर संभव सहयोग और चुनावी चंदा देते रहे, बल्कि स्वयं कांग्रेस पार्टी द्वारा 1984 से 2002 तक राज्यसभा के सांसद के रूप में जोड़े रखे गए। बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार में उनकी बेटी श्रीमती शोभना भरतिया को 2006 से 2012 तक राज्यसभा का नामांकित सदस्य बनाया गया। बिड़ला समूह की कंपनियां कांग्रेस सहित हर सरकार के काल में प्रगति करती रहीं।
राहुल गांधी को क्या यह तथ्य नहीं पता कि बिड़ला परिवार की दूसरी कंपनी हिंदुस्तान मोटर्स की 'अम्बेसेडर कार' सरकार की एकमात्र मान्यता प्राप्त कार रही, जिसकी सबसे अधिक खरीदी भाजपा की अटल सरकार आने तक होती रही। बाद में मारुति और अन्य बड़ी गाड़ियों की खरीद शुरू हुई। पिछले दशकों में चीनी, खाद, पटसन के कारखानों या टेलीकॉम उद्योग और नई टेक्नोलॉजी के कई उद्यमों में भी बिड़ला समूह आगे बढ़ता रहा।
बहरहाल, उन्हें अंबानी परिवार पर बड़ी आपत्ति होती है। वे यह कैसे नहीं जानते कि रिलायंस समूह — धीरुभाई अंबानी से लेकर मुकेश अथवा अनिल अंबानी — को सर्वाधिक सहयोग कांग्रेस सत्ता काल में ही मिला। यही नहीं, राजीव गांधी के राजनीतिक संकट यानी वी.पी. सिंह के विद्रोह के दौरान अंबानी ने पर्दे के पीछे उनका साथ दिया। दिलचस्प बात यह है कि अनिल अंबानी तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के वोटों से ही उत्तर प्रदेश से 2004 में राज्यसभा के सांसद बने। तब सोनिया गांधी पार्टी प्रमुख और राहुल गांधी भी सांसद थे।
राजीव गांधी से मनमोहन सिंह तक की कांग्रेस सरकारों के दौरान पॉलिएस्टर, गैस, टेलीकॉम के उद्यमों के लिए रिलायंस को विशेष रियायतों के आरोप लगते रहे। सही बात यह है कि उदार आर्थिक नीतियों और देश के आर्थिक विकास के लिए उनके साथ कई अन्य कंपनियां भी आगे बढ़ती रहीं। मनमोहन सिंह ही नहीं, प्रणब मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी और पी. चिदंबरम के वित्त या उद्योग-वाणिज्य मंत्री, या मुरली देवड़ा के पेट्रोलियम मंत्री रहते हुए इन समूहों ने तेजी से प्रगति की। गुजरात देश का सबसे प्रगतिशील प्रदेश रहा है, इसलिए टाटा-बिड़ला-अंबानी-अडानी समूहों को वहां मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल या प्रधानमंत्री बनने पर भी समुचित अवसर मिलते रहे।
राहुल गांधी यह कैसे भूल गए कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, जब वे पार्टी प्रमुख थे, उनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार मिलिंद देवड़ा को मुंबई से चुनावी विजय के लिए रिलायंस के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने खुली अपील जारी की थी।
यों बिड़ला-अंबानी के अलावा एक और बड़े उद्योगपति आर.पी. गोयनका रहे हैं। वे कांग्रेस और गांधी परिवार के करीबी थे। उनका औद्योगिक समूह भी तेजी से आगे बढ़ा। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा का चुनाव जितवाकर 2000 से 2006 तक सांसद बनाकर संसद में रखा। आर.पी. गोयनका तो गांधी परिवार के कुछ ट्रस्टों के सदस्य भी रहे।
इसी सप्ताह मुजफ्फरपुर की एक चुनावी सभा में राहुल गांधी ने अंबानी परिवार की शादी के समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जाने और खुद न जाने का दावा करते हुए अंबानी समूह को लाभ मिलने का आरोप लगाया।
इसे उन्होंने साहसिक कदम समझा, लेकिन उनके साथ बैठे कांग्रेस-राजद गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव के चेहरे का रंग उड़ गया, क्योंकि वह और लालू यादव का पूरा परिवार अंबानी के विवाह उत्सव में पूरी शान के साथ शामिल हुआ था और वहां उनकी अच्छी खातिर भी हुई थी। वैसे कांग्रेस के कुछ अन्य वरिष्ठ नेता भी इस समारोह में गए थे।
भारत में पारिवारिक कार्यक्रमों में आना-जाना सामान्य शिष्टाचार रहा है। परस्पर राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी होने पर भी सामान्य संबंध बने रहते हैं। राहुल गांधी को जिस अडानी समूह को पोर्ट या एयरपोर्ट के रखरखाव या निर्माण का काम दिए जाने पर तकलीफ हो रही है, उन्हें यह जानकारी कैसे नहीं है कि गुजरात के कांडला पोर्ट अडानी समूह को 1994 में दिया गया, जब केंद्र में राव की और गुजरात में छबिलदास मेहता की कांग्रेस सरकारें थीं। तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री भी नहीं थे।
इसी तरह राजस्थान में अडानी समूह को ग्रीन एनर्जी यानी सौर ऊर्जा के बड़े प्रोजेक्ट का काम 2018 में मिला, जहाँ अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार थी। छत्तीसगढ़ में भी कोयला खदानों आदि से जुड़े काम कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों के दौरान मिले। अब बिहार में वही अशोक गहलोत और भूपेश बघेल पार्टी उम्मीदवारों का हिसाब-किताब देख रहे हैं। ये कुछ बातें तो एक झलक मात्र हैं। यदि विस्तार में जाएंगे, तो बहुत दूर या करीबी की दास्तान मिल जाएगी। तभी तो उन्हें यह गीत याद रखना होगा -'राज को राज ही रहने दो, वरना भेद खुल जाएगा।'
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
वजह ये है कि वो ऐसा बॉलर है ही नहीं जो आपको बॉलिंग से मैच जिता दे और न ही ऐसा ऑलराउंडर है जिससे आप वनडे में बिना ज़्यादा रन खाए दस ओवर करवा लें।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हर्षित राणा ने दूसरे टी-20 मैच में तीस के करीब रन बनाए, बावजूद इसके मुझे लगता है कि अर्शदीप की जगह उन्हें खिलाने का कोई तुक नहीं है और इसके पीछे एक से ज़्यादा कारण हैं। पहली बात तो यह कि अगर कोई टीम किसी प्रारूप (फॉर्मेट) में दुनिया के नंबर वन गेंदबाज़ को निकालकर उसकी जगह किसी ऐसे गेंदबाज़ को यह सोचकर खिला रही है कि दस मैचों में कभी ज़रूरत पड़ने पर वह आपके लिए बीस रन भी बना सकता है, तो आपका भगवान ही मालिक है।
आप टीम में ऐसा एक गेंदबाज़ खिला लें तब भी समझ आता है, लेकिन दुबे और राणा इन दोनों के तौर पर ऐसे दो-दो खिलाड़ी खिलाने का कोई मतलब नहीं है। अब होता यह है कि कमज़ोर टीमों के खिलाफ तो यह रणनीति चल जाती है, लेकिन बड़ी टीमों के खिलाफ आपको टुकड़ों में योगदान देने वाले खिलाड़ियों (छिटपुट खिलाड़ियों) की जगह गुणवत्तापूर्ण खिलाड़ियों की ज़रूरत होती है। आप इसी टीम में राणा की जगह अर्शदीप और दुबे की जगह रिंकू सिंह को शामिल कर दीजिए, तो देखिए अचानक टीम की गुणवत्ता कहीं ज़्यादा बेहतर लगने लगेगी।
दूसरी बात यह कि जब आप एक मैच जिताने वाले गेंदबाज़ को खिलाते हैं, तो वह 135 रन भी बचा सकता है। आपका आठवें नंबर का गेंदबाज़ी करने वाला ऑलराउंडर भले बीस-तीस रन बना जाए, लेकिन वह एक-दो बार को छोड़कर अपनी गेंदबाज़ी के दम पर मैच नहीं जिता सकता। वह बीस रन बना सकता है, लेकिन चार ओवर में पचास रन भी दे सकता है और विकेट लेगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
तीसरी बात, जब आप शिवम दुबे जैसे किसी खिलाड़ी को खिलाते हैं, तो वह गेंदबाज़ी भी इस मानसिकता से करता है कि 'मैं रन रोक लूं, ज़्यादा रन न पड़ें।' बात थोड़ी अलोकप्रिय है, लेकिन एशिया कप के फाइनल में जब आप शिवम दुबे से शुरुआती गेंदबाज़ी करवाते हैं और वह ज़्यादा रन नहीं देता, तो हम कहते हैं कि देखो , यह कप्तान और कोच की शानदार चाल थी। लेकिन हम यह नहीं सोचते कि उसकी जगह अगर अर्शदीप जैसा विकेट लेने वाला गेंदबाज़ होता, तो पहले स्पेल में ही दो विकेट निकाल सकता था।
ऐसा होता, तो पाकिस्तान ने जो अस्सी के करीब की ओपनिंग साझेदारी की थी, वह नहीं होती। और यहां मैं उस अर्शदीप की बात कर रहा हूं, जिसने पिछले मैच में अपने दम पर आपको श्रीलंका के खिलाफ हारा हुआ मैच जिताया था। ठीक यही बात टेस्ट में नीतीश रेड्डी के साथ भी है। अगर आप उन्हें किसी भी प्रारूप में आठवें नंबर पर बल्लेबाज़ी करवाते हैं और यह सोचकर टीम में रखते हैं कि हम उनसे चार-पाँच ओवर भी करवा सकते हैं, तो इसका भी कोई तुक नहीं है। ऐसा करके आप उसी खिलाड़ी का करियर बर्बाद कर रहे हैं।
वजह यह है कि वह ऐसा गेंदबाज़ है ही नहीं जो आपको गेंदबाज़ी से मैच जिता दे ,और न ही ऐसा ऑलराउंडर है जिससे आप वनडे में बिना ज़्यादा रन खाए दस ओवर करवा लें। वहीं, आठवें नंबर पर बल्लेबाज़ी करते हुए वह कभी खुद को बल्लेबाज़ के तौर पर साबित नहीं कर पाएगा। वजह साफ़ है, ऊपर के बल्लेबाज़ अच्छा खेल गए तो उसके पास साबित करने को कुछ नहीं होगा, और अगर बल्लेबाज़ी आ भी गई तो साथ देने के लिए कोई नहीं बचेगा। छोटे प्रारूप में बल्लेबाज़ी आएगी तो तेज़ खेलना होगा, और जल्दी आउट हो गया तो वह भी असफलता (फेलियर) माना जाएगा।
इसी तरह का टीम चयन हमने ऑस्ट्रेलिया टेस्ट दौरे में किया था। यही गलती हमने इंग्लैंड में भी लगातार की। वह तो आख़िरी में हैरी ब्रूक के एक गलत शॉट और सिराज के शानदार स्पेल ने पूरा माहौल बदल दिया, वरना उस मैच में भी हम खेल तो तीन ही मुख्य गेंदबाज़ों के साथ रहे थे। और यही गलती अब हम ऑस्ट्रेलिया में सीमित ओवरों (वाइट-बॉल) के क्रिकेट में भी कर रहे हैं।
जैसा मैंने शुरू में कहा, दुनिया में आज ज़्यादा गुणवत्तापूर्ण टीमें बची नहीं हैं। इसलिए औसत टीमों के खिलाफ खेलते हुए आप चयन की ऐसी गलतियाँ करके बच सकते हैं, लेकिन जब-जब आप ऑस्ट्रेलिया जैसी बड़ी टीमों के खिलाफ खेलेंगे, तो पूरी तरह से उजागर (एक्सपोज़) हो जाएंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इस समय बिहार की राजनीति पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से भी गुजर रही है। ऐसे में युवा चेहरों की बहार है। सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर जैसे युवा नेता मौजूद हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
प्रो.संजय द्विवेदी, स्वतंत्र टिप्पणीकार और राजनीतिक विश्लेषक।
बिहार चुनाव ने एक बार फिर से देश की राजनीति को गर्म कर दिया है। यह चुनाव इसलिए खास है कि क्योंकि दोनों प्रमुख राजनीतिक गठबंधनों की परीक्षा इसी चुनाव में होनी है। वहीं नए नवेले नेता बने प्रशांत किशोर की जनसुराज का परीक्षण इस चुनाव में होना है। बिहार की राजनीति को वैसे भी दिशावाहक और देश की नब्ज को समझने वाला माना जाता है। उसे जातीय राजनीति में कितना भी कैद करें, बिहारवासियों की राजनीतिक समझ को हर व्यक्ति स्वीकार करता है।
पाटलिपुत्र की जमीन में ही लोकतंत्र की खुशबू है। इस जमीन ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया है साथ ही सामाजिक न्याय की ताकतों की यही लीलाभूमि है। हमारे समय के अनेक दिग्गज नेता बिहार से शक्ति पाते रहे, भले यह उनकी जमीन न रही हो। मजदूर आंदोलन से निकले जार्ज फर्नाडीज हों या मध्यप्रदेश के शरद यादव, इस जमीन ने न सिर्फ उन्हें स्वीकार किया, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी राजनीति में स्थापित किया।
लालूप्रसाद यादव इस राज्य से निकले एक ऐसी परिघटना बन गए, जिनकी राजनीति और संवाद शैली बहुतों के आकर्षण का कारण बनी। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार जैसे नेता तो दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्र जैसी राजनीति बिहार को हमेशा चर्चा में रखती रही है। लालू का जादू आज भी टूटा नहीं है।
अपने खास जनाधार के वारिस के रूप में उनके पुत्र तेजस्वी यादव पिछले विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक सीटें लाने में सफल रहे। यह बताता है कि लालू यादव अभी चुके नहीं हैं और उनके बेटे उनके दल को सही नेतृत्व दे रहे हैं। हालांकि परिवारिक मतभेद की खबरें हवा में रहती हैं और यह बहुत स्वाभाविक भी है।
क्योंकि लालू यादव ने जिस तरह अपने परिवार के अनेक सद्स्यों को राजनीति के मैदान में उतारा और शक्तिसंपन्न किया, उनमें अधिकारों और महत्वाकांक्षा का संघर्ष होना ही था। जाहिर है तेजस्वी अधिकारिक तौर पर राजद के सबसे बड़े नेता हैं और लालू की छवि उनमें दिखती है। वे इंडी गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार भी घोषित किए जा चुके हैं।
बिहार के चुनावी समर में चुनाव के काफी पहले से ही अपनी यात्राओं से हलचल मचा रहे प्रशांत किशोर भी चर्चा में हैं। उनकी सभाओं में आ रही भीड़ वोटों में कितना बदल पाएगी कहना कठिन है। किंतु राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुख्य मुकाबला दोनों प्रमुख गठबंधनों के बीच ही है और प्रशांत किशोर की पार्टी की बहुत बड़ी भूमिका नहीं रहने वाली है।
प्रशांत किशोर खुद भी मानते हैं कि या तो वे नाटकीय बदलाव लाएंगें या फिर खाता भी नहीं खोल पाएंगें। हालांकि राजनीतिक रणनीतिकार होने के बाद भी उनकी बात कहां तक सही होगी कहा नहीं जा सकता। किंतु प्रशांत किशोर ने जिस तरह बेरोजगारी, पलायन के सवालों को उठाया है, उससे यह चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गए हैं। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार कुमार लंबे समय तक राज्य की सत्ता में रहे हैं, इसलिए उन पर हमले बहुत हैं।
सवाल भी पूछे जा रहे हैं कि आखिर आपने क्या किया? लेकिन आश्चर्य यह कि विपक्ष के दावेदार तेजस्वी यादव की ओर से नीतीश कुमार पर हमले के बजाए उनसे सहानुभूति ही जताई जा रही है कि उन्हें अमित शाह ने मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया और उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि भाजपा के अनेक नेता नीतीश कुमार जी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करते रहे हैं।
इस समय बिहार की राजनीति पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से भी गुजर रही है। ऐसे में युवा चेहरों की बहार है सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर, मुकेश सहनी जैसे युवा नेता न सिर्फ महत्वाकांक्षी हैं, बल्कि मैदान पर खासे सक्रिय हैं। बिहार में 18 से 19 साल की आयु के 14 लाख नए मतदाता हैं जो राजनीति से ज्यादा उम्मीदें रखते हैं।
नीतीश कुमार, सुशील मोदी, लालू यादव, रामविलास पासवान का समय भी ऐसा ही रहा होगा। जब इन युवाओं ने अपनी पहचान कायम की थी। उनमें नीतीश कुमार और लालू ही राजनीतिक पटल पर हैं। छवि के मामले में नीतीश कुमार अपने समकालीन नेताओं से बहुत आगे हैं। बार-बार गठबंधन बदलने के नाते वे चर्चा में रहते हैं, किंतु उनकी व्यक्तिगत छवि आज भी बहुत साफ-सुथरी है।
गठबंधन तोड़ने को कई बार उनके अवसरवाद के रूप में देखा गया, जबकि सच्चाई यह है कि वे अपनी शर्तों पर काम करने वाले नेता हैं। बिहार की राजनीतिक स्थितियों का उन्होंने लाभ उठाया और सभी के समर्थन से बार-बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसे राजनीतिक चातुर्य भी कहा जा सकता है, क्योंकि येन-केन प्रकारेण मुख्यमंत्री तो वही बने हुए हैं। लालू जी स्वास्थ्यगत कारणों से बहुत सक्रिय नहीं है।
जबकि नीतीश कुमार इस चुनाव में रोजाना चार से पांच सभाएं कर रहे हैं। महिलाओं में शराबबंदी और कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के नाते नीतीश कुमार का क्रेज है। उन्हें एक समय तक सुशासन बाबू भी कहा जाता रहा , क्योंकि माना जाता है कि उन्होंने बिहार को जंगलराज से उबारकर एक नई इबारत लिखी। विकास के काफी काम हुए। अधोसंरचना में भी बिहार को बदलता देखा गया।
नीतीश कुमार के साथ उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, चिराग पासवान की पार्टियां हैं। भाजपा का विशाल संगठन तंत्र तो लगा ही है। सामाजिक न्याय की शक्तियों का बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार के साथ है। उनके काम के आधार पर बड़ी संख्या में महिलाएं और कुछ प्रतिशत में मुस्लिम मतदाता भी जनता दल (यू) का साथ देते हैं। इस बार जनता दल (यू) और भाजपा दोनों 101-101 सीटों पर लड़ रहे हैं।
अन्य सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़ रखी हैं। बिहार के चुनाव में मूलतः राजद, जनता दल (यू) और प्रशांत किशोर की जनसुराज तीनों का भविष्य तय करेंगें। इस चुनाव में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर नहीं है। किंतु बिहार में एनडीए की जीत भाजपा और ‘ब्रांड मोदी’ के लिए वातावरण बनाने का काम जरूर करेगी। जिसका लाभ उसे आने वाले चुनावों में जरूर मिलेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
स्पष्ट है कि इस बार यमुना का पानी पिछले बार से काफी बदला हुआ था और यह बताता है कि भाजपा सरकार यमुना सफाई के अपने वायदे पूरा करने की पूरी तरह कोशिश कर रही है।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार।
दिल्ली में यमुना घाटों पर छठ संपन्न हो गया। पिछले वर्षों की तरह इस बार यमुना नदी के पानी को लेकर उस तरह हाहाकार नहीं मचा जिसके दिल्लीवासी अभ्यस्त हो चुके थे। हां आम आदमी पार्टी ने वासुदेव घाट का एक वीडियो बनाकर जरूर जारी किया कि देखो, ये कहते थे कि यमुना को साफ कर दिया जबकि प्रधानमंत्री आने वाले हैं तो उनके लिए अलग से पानी लाकर घाट बनाया गया है।
दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कहा कि कि हमारी सरकार यमुना को साफ करने की कोशिश कर रही है। हमने यह नहीं कहा है कि यमुना पूरी तरह शुद्ध हो गई है और हम इसका पानी पी सकते हैं या घर ले जा सकते हैं।ऐसा बनाएंगे अवश्य लेकिन इस पर अभी काम हो रहा है। सच यह है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की रेखा गुप्ता सरकार ने पूरी प्रतिबद्धता से छठ को श्रेष्ठ तरीके से संपन्न कराने के लिए काम किया। कम से कम इस बार यमुना के पानी से दुर्गंध नहीं था।
घाटों की साफ- सफाई, पूजा करने, अर्ध्य देने और बैठने आदि की उचित व्यवस्था थी। कुल मिलाकर शिकायत के पहलू अत्यंत कम थे। इसलिए लोगों ने अन्य वर्षो के विपरीत राहत महसूस किया, सरकार की व्यवस्थाओं की प्रशंसा की। स्पष्ट है कि इस बार यमुना का पानी पिछले बार से काफी बदला हुआ था और यह बताता है कि भाजपा सरकार यमुना सफाई के अपने वायदे पूरा करने की पूरी तरह कोशिश कर रही है।
लोगों ने पहले की तरह शिकायत नहीं की तो इसका भी कोई अर्थ कुछ अर्थ है। देश की नदियां केवल हमारी धरोहर नहीं संपूर्ण जीव जगत के अस्तित्व के साथ जुड़ीं हैं। इन नदियों को स्वच्छ , संरक्षित सुरक्षित करना और इन्हें बनाए रखना सबका दायित्व है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
केंद्र और राज्यों के चुनावों में बीजेपी की सिलसिलेवार जीत भी राहुल गांधी या विपक्ष को परेशान नहीं करती। कांग्रेस और आरजेडी के आपसी संघर्ष ने सारी ताक़त और ऊर्जा को गंवा दिया।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाज़ा कठिन है। लगातार चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद चुनाव में सत्ता पक्ष को उधेड़ना उसका दायित्व भी है और चुनावी जीत के लिए आवश्यक भी। सवाल यह उठता है कि बिहार में विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्यों नहीं संभाल पाए, जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं?
बिहार में ‘करो या मरो’ के चुनाव के बाद भी विपक्ष इतना लाचार और लचर क्यों नज़र आ रहा है? सोच के खोल आसानी से नहीं टूटते। उन्हें तोड़ने के लिए बदलावों का बहुत बड़ा होना ज़रूरी है। बिहार का यह चुनाव एनडीए से ज़्यादा महागठबंधन के लिए करो या मरो का है। बीच का कुछ समय छोड़ दिया जाए तो 20 साल से सत्ता पर काबिज़ एनडीए पूरी ऊर्जा और एकजुटता के साथ कमर कसकर मैदान में उतर चुका है और विपक्ष उनके सामने कहां खड़ा है?
प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, संघ और संगठन के पैदल सिपाही ज़मीन पर काम शुरू कर चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं, न बिहार में और न सोशल मीडिया पर। आज पूरे 56 दिन हो गए हैं जब राहुल गांधी आख़िरी बार बिहार आए थे।
1 सितंबर को उन्होंने पटना में ‘वोट अधिकार यात्रा’ का समापन किया था। उसके बाद राहुल ने बिहार की ओर देखना भी मुनासिब नहीं समझा और पूरी पार्टी को अपने सिपहसालारों के भरोसे छोड़ दिया। राहुल की बिहार से दूरी और राजनीति से अरुचि समझ से परे है। सामने मोदी, शाह और नीतीश जैसे नेता होने के बावजूद राहुल गांधी के अब तक प्रचार से दूरी बनाए रखने ने पूरे विपक्ष के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।
केंद्र और राज्यों के चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सिलसिलेवार जीत भी न राहुल गांधी को और न ही विपक्ष को परेशान करती दिखती है। मोदी ने भव्य चुनावी विजयों के साथ यह तय कर दिया है कि अब विपक्ष को उनके जितना लोकप्रिय और अखिल भारतीय नेतृत्व सामने लाना होगा। इससे कम पर मोदी को चुनौती देना नामुमकिन है।
बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के आपसी संघर्ष ने सारी ताक़त और ऊर्जा को गवां दिया। इतने महत्वपूर्ण चुनाव में राहुल और तेजस्वी को मिलकर एक और एक ग्यारह होना चाहिए था, पर दोनों का न मन मिला, न हाथ। चुनाव एक दिन का महोत्सव हैं, लेकिन लोकतंत्र की परीक्षा रोज़ होती है।
अच्छी सरकारें नियामत हैं, पर ताकतवर विपक्ष हज़ार नियामत है। जैसे बंद मुट्ठी से रेत फिसल जाती है, वैसे ही बिहार का चुनाव राहुल और तेजस्वी के हाथ से फिसल चुका है। विपक्ष ने सत्ता पक्ष को फिर सत्ता में आने का मौक़ा उपलब्ध करा दिया है। ध्यान रखिए, लोकतंत्र में चुनाव सरकार की सफलता से कम, विपक्ष के ज़मीनी संघर्ष से आंके जाते हैं और राहुल तथा तेजस्वी यही चूक गए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ऑपरेशन थार शक्ति में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित टारगेटिंग सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, अर्जुन और T-90 टैंक, पिनाक रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों को भी शामिल किया गया।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
राजस्थान में पाकिस्तान से लगने वाली लोंगेवाला सीमा पर सेना की एलिट यूनिट ‘भैरव कमांडोज़’ ने अपने हुनर का प्रदर्शन किया। ‘ऑपरेशन थार शक्ति 2025’ नाम के इस युद्धाभ्यास में भैरव कमांडोज़ के अलावा इन्फैंट्री, आर्टिलरी और आर्मी एयर डिफेंस यूनिट्स ने हिस्सा लिया। ऑपरेशन थार शक्ति में टैंक कॉलम की मूवमेंट, तोपों से गोलीबारी, और थल सेना को एयर सपोर्ट देने के ऑपरेशन्स की एक्सरसाइज़ की गई।
इस दौरान आर्मी एयर डिफेंस की टीम ने कामीकाज़े ड्रोन से दुश्मन पर अटैक का भी अभ्यास किया। ऑपरेशन थार शक्ति में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित टारगेटिंग सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, अर्जुन और T-90 टैंक, पिनाक रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों को भी शामिल किया गया।
भविष्य के युद्धों में मॉडर्न टेक्नोलॉजी और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैसे होगा, इस युद्धाभ्यास में उसी की प्रैक्टिस की गई। इस दौरान तीनों सेनाओं के बीच आपसी समन्वय, आत्मनिर्भरता और इनोवेशन पर विशेष फोकस किया गया।
ऑपरेशन थार शक्ति के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को 1971 की लड़ाई और ऑपरेशन सिंदूर की याद दिलाते हुए कहा ,ऑपरेशन सिंदूर में सेना ने पाकिस्तान की अक़्ल ठिकाने लगाने वाली खुराक दे दी थी। लेकिन अगर पाकिस्तान ने फिर कोई हिमाकत की, तो इस बार पाकिस्तान तबाह हो जाएगा। जैसलमेर में भारत की फौज का शौर्य देखकर पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर को रात में नींद नहीं आएगी। वैसे, मुनीर की नींद तो अफगानी फाइटर्स ने भी उड़ा रखी है।
अफगानिस्तान के फौजी, पाकिस्तान की सरहद पर बंदूकें और रॉकेट लॉन्चर लेकर खड़े हैं। वे मुनीर को ललकारते हुए कहते हैं 'अगर मां का दूध पिया है, तो कभी इस तरफ भी आओ... हम तुम्हें जंग का मज़ा चखाएंगे।' अफगान तालिबान बार-बार कह चुका है कि वह पाकिस्तान के साथ बॉर्डर तय करने वाली डूरंड लाइन को नहीं मानता।
वे KPK (खैबर पख्तूनख्वा) को अपना सूबा मानते हैं। पाकिस्तानी फौज के पूर्व अधिकारी भी मानते हैं कि अफगानिस्तान ने मुनीर की इज़्ज़त उतार दी है। अब पाकिस्तान के सामने वाकई एक तरफ कुआं है, तो दूसरी तरफ खाई।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप रूस यूक्रेन युद्ध रोकना चाहते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत और चीन तेल खरीद कर इस युद्ध को फंड कर रहे हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों जब बार बार बयान दिया कि भारत से उनकी बात हो गई है वो रूस से तेल ख़रीदना बंद कर देंगे। भारत सरकार ने इस पर चुप्पी साध रखी थी, लेकिन अब अमेरिका ने रूस की दो बड़ी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। इसके बाद भारतीय कंपनियों के लिए रुस का तेल ख़रीदना मुश्किल हो जाएगा।
कहानी शुरू होती है 2022 में रूस और यूक्रेन युद्ध से। अमेरिका और यूरोप के देशों ने रूस पर दबाव बनाने के लिए तेल बिक्री पर शर्तें लगाई थीं जैसे रूस $60 प्रति बैरल या उससे कम रेट पर ही तेल बेचेगा ताकि उसका मुनाफा कम होगा। भारत ने इसका फ़ायदा उठाया। युद्ध से पहले भारत अपनी ज़रूरत का 5% तेल रूस से ख़रीदता था। तेल सस्ता होने के कारण भारत ने ज़्यादा तेल ख़रीदना शुरू किया। अब भारत के कुल आयात का 35% तेल रूस से आता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप रूस यूक्रेन युद्ध रोकना चाहते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत और चीन तेल ख़रीद कर इस युद्ध को फंड कर रहे हैं। उन्होंने भारत पर इस कारण 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया। 25% टैरिफ़ पहले से था। इस कारण अब भारत से अमेरिका जाने वाले सामान पर 50% टैरिफ़ लग रहा है। भारतीय कंपनियों के लिए अमेरिका में सामान बेचने में मुश्किल हो रही है। फिर भी भारत अमेरिका के दबाव में झुका नहीं और रूस से तेल खरीदता रहा।
अब अमेरिका ने रूस की दो बड़ी कंपनियों Rosneft और Lukoil को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। यह दोनों कंपनियाँ रूस का आधा तेल उत्पादन करती हैं। भारत की सरकारी और प्राइवेट कंपनियाँ पहले तो तेल ख़रीदकर बच जाती थीं, अब मुश्किल होगी।
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने Rosneft से 5 लाख बैरल तेल रोज़ ख़रीदने का करार किया है। अब तेल ख़रीदने में दिक़्क़त है कि रिलायंस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है। कोई भी कंपनी अमेरिका के फ़ाइनेंशियल सिस्टम से बाहर रहकर कारोबार नहीं कर सकती है। रिलायंस इंडस्ट्रीज़ कह चुकी है कि वो दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं। यही बात सरकारी तेल कंपनियों पर भी लागू होती है।
भारत के लिए यह कुल मिलाकर अच्छी खबर साबित हो सकती है। रूसी तेल की ख़रीद बंद होने के बाद अमेरिका को अतिरिक्त टैरिफ़ हटाना पड़ सकता है। भारतीय बाज़ार के लिए यह अच्छी खबर होगी। सरकारी सूत्रों ने यह भी दावा किया है कि अमेरिका के साथ ट्रेड डील जल्द हो सकती है। हालाँकि रूस से तेल नहीं ख़रीदने में एक रिस्क यह भी है कि पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतें बढ़ सकती है। अमेरिका के फ़ैसले के बाद तेल की क़ीमतों में प्रति बैरल $5 इज़ाफ़ा हुआ है। यह और बढ़ने पर नया सिरदर्द खड़ा हो सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
लंदन विश्वविद्यालय की प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी को भारत नहीं आने देने पर एक इकोसिस्टम के लोग शोर मचा रहे हैं। मोदी सरकार को घेरने का प्रयत्न कर रहे हैं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है।
शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी।
दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से।
आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है।
हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।
फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया।
उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है।
आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं।
नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है।
वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है।
वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।
हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं।
इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।
विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार।
‘कांग्रेस में काफी ठग पड़े हैं। आज ठगी का बड़ा जोर है। कांग्रेस में जिन लोगों पर कुछ भी शक है, वेकांग्रेस को छोड़ दें या उन्हें बाहर निकाल दिया जाए। कुछ जगहों में लोग कहते हैं कि काफी गुंडे हैं तो काम कैसे किया जाए। काम करने वाले गुडों को भी कह सकते हैं कि हम आपसे डरेंगे नहीं और काम करेंगे। गुंडा जहां होता है, वहां अच्छे आदमी भी रहते हैं और अच्छे आदमियों को चाहिए कि गुंडों से कहें कि आप हमें मारेंगे, तो हम मरेंगे, मगर भागेंगे नहीं।’
यह बात आज भारतीय जनता पार्टी या उसके किसी सहयोगी दल के नेता ने नहीं कही है। यह बात 18 मार्च, 1947 को महात्मा गांधी ने सांप्रदायिक दंगों के बाद मसौढ़ी के बीर गांव में देहात के प्रतिनिधियों की सभा में कही थी। 75 वर्ष बाद भी बिहार में इस तरह की चर्चा होती है। खासकर जब जंगलराज यानी लालू प्रसाद यादव के सत्ताकाल में अपराधों की पराकाष्ठा अथवा 1970 से 1990 के बीच कांग्रेस के सत्ताकाल में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे और बड़े पैमाने पर दलितों के हत्याकांड की याद दिलाई जाती है।
बिहार विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव और उनके साथ सवारी कर रहे कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता राहुल गांधी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ताकाल में दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के आरोप लगाकर अधिकाधिक वोट पाने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी सामने नहीं रखी है और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही विश्वास जताते हुए समाज के विभिन्न वर्गों और अल्पसंख्यकों के वोट पाने के लिए अभियान चलाया हुआ है।
लेकिन तेजस्वी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को निशाना बना रहे हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह अपने संदेश में कहा है कि बिहार की जनता जंगलराज को सौ साल तक नहीं भूल सकेगी। विपक्ष का गठबंधन ‘गठबंधन नहीं, बल्कि लठबंधन (अपराधियों का गठबंधन) है क्योंकि दिल्ली और बिहार के उनके नेता जमानत पर बाहर हैं।’
आश्चर्य की बात यह है कि राहुल गांधी के सलाहकार बेलछी कांड में दलितों की हत्या के विरोध में आक्रोश व्यक्त करने के लिए 1977 में प्रतिपक्ष की नेता के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी के जाने से हुए राजनीतिक लाभ का जिक्र करते हुए दलितों पर अत्याचार का मुद्दा वर्तमान दौर में भी लाभदायक समझ रहे हैं। वे 1970 से 1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि 1972 से पत्रकारिता में होने के कारण मुझे बिहार के मुख्यमंत्रियों केदार पांडे, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्र, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार से मिलने और उनके कार्यकाल के दौरान घटनाचक्रों पर लिखने और बोलने के अवसर मिले हैं।
जहानाबाद में दलितों के हत्याकांड और भागलपुर के सांप्रदायिक दंगों की भयावह घटनाओं के समय कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री थे और मैं स्वयं नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण का संपादक था। उस समय की घटनाओं पर सर्वाधिक रिपोर्ट और टिप्पणियां हमने लिखी और प्रकाशित की थी।
भागलपुर दंगे की शुरुआत अक्टूबर 1989 में हुई और यह कई महीनों तक चलता रहा। इस हिंसा में लगभग 1000 से अधिक लोगों की जान गई, जबकि हजारों लोग बेघर हो गए। अधिकांश पीड़ित मुस्लिम समुदाय से थे, परंतु हिंदू समुदाय के भी कई लोग हिंसा के शिकार बने। 24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर के परवती और लोदीपुर क्षेत्रों में जुलूस के दौरान विवाद हुआ। एक छोटी सी झड़प ने देखते-देखते पूरे शहर और आसपास के ग्रामीण इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया।
कई गाँवों में आगजनी और लूटपाट हुई, दर्जनों मस्जिदें और घर जला दिए गए, महिलाएँ और बच्चे तक हिंसा से नहीं बचे। अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार करीब 900 से अधिक लोग मारे गए, जबकि स्वतंत्र रिपोर्टों में यह संख्या 2000 से ऊपर बताई गई। विपक्ष और मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाया कि सरकार ने राजनीतिक कारणों से सख्त कदम नहीं उठाए। दंगे की जांच के लिए बाद में कई समितियाँ और न्यायिक आयोग गठित किए गए।
मुख्य रूप से न्यायमूर्ति एन. एन. सिंह आयोग और बाद में न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद आयोग ने घटनाओं की विस्तृत जांच की। इन रिपोर्टों में स्पष्ट कहा गया कि— पुलिस ने निष्पक्षता नहीं बरती, स्थानीय अधिकारियों ने हिंसा रोकने के लिए समय पर कदम नहीं उठाए। भागलपुर दंगे ने बिहार और राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा। कांग्रेस की छवि “धर्मनिरपेक्षता” की मुखर पक्षधर होने के बावजूद कमजोर पड़ी। आगामी 1990 के विधानसभा चुनावों में जनता दल ने इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया, जिसके परिणामस्वरूप लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार मिली।
यह घटना बिहार की राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई का भी अहम मोड़ बनी। कई वर्षों तक दंगे के पीड़ित शरणार्थी शिविरों में रहे। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मुआवजे की घोषणाएँ की गईं, परंतु ज्यादातर पीड़ितों को न्याय या पूर्ण पुनर्वास नहीं मिला।
1970 के दशक का उत्तरार्द्ध बिहार के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का अत्यंत उथल-पुथल भरा दौर था। जातिगत संघर्ष, भूमि विवाद, और राजनीतिक अस्थिरता ने राज्य के ग्रामीण समाज को गहराई तक प्रभावित किया। आपातकाल (1975–77) के बाद जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हुईं, तब बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की स्थिति काफी कमजोर पड़ गई थी।
इसी राजनीतिक परिदृश्य में 1977 के बेलछी नरसंहार (कांड) ने देश को झकझोर दिया और एक बार फिर इंदिरा गांधी को जनता से सीधे जुड़ने का अवसर प्रदान किया। यह घटना बेलछी गाँव, (नालंदा) में 27 मई 1977 को हुई थी। बेलछी कांड मूलतः जातिगत हिंसा का वीभत्स उदाहरण था। गाँव में भूमिहार और दलित (हरिजन, पासवान) समुदायों के बीच लंबे समय से जमीन और मजदूरी को लेकर विवाद चल रहा था।
इसी विवाद ने 27 मई को भयावह रूप ले लिया जब सवर्ण भूमिहारों के समूह ने 11 दलितों और पिछड़ों को घेरकर एक झोपड़ी में बंद कर दिया और उन्हें जिंदा जला दिया। जब बेलछी कांड की खबर उन्हें मिली, तो वे तत्काल वहाँ जाने का निर्णय लिया। उस समय बिहार में बारिश के कारण सड़कों की स्थिति बेहद खराब थी। वाहन से जाना लगभग असंभव था।
उन्होंने पहले ट्रेन से पटना तक की यात्रा की, फिर जीप में आगे बढ़ीं। रास्ता खराब होने पर उन्होंने ट्रैक्टर और फिर हाथी का सहारा लिया। अंततः कई घंटे की कठिन यात्रा के बाद इंदिरा गांधी बेलछी गाँव पहुँचीं। इंदिरा गांधी की इस यात्रा का प्रभाव तत्काल राजनीतिक स्तर पर देखने को मिला। जहाँ जनता पार्टी के नेता जातीय हिंसा और प्रशासनिक अक्षमता के आरोपों में उलझे थे, वहीं इंदिरा गांधी ने स्वयं को एक संवेदनशील और दृढ़ नेता के रूप में पुनः स्थापित किया।
1980 के दशक में बिहार के खासकर जहानाबाद और उसके आसपास के इलाकों में जमीन, जाति और राजनीतिक-पठित हिंसा ने सामूहिक हत्या और दमन का भयावह चेहरा दिखाया। स्थानीय जमींदार, जातिगत मिलिशिया, सशक्त दलित उठान तथा नक्सली गतिविधियों के आपसी द्वन्द्व ने नियंत्रणहीन हिंसा और बदले की कार्रवाईयों को जन्म दिया। ऐसी घटनाओं में अक्सर स्थानीय राजनीतिक संस्थाओं और नेताओं के समर्थकों पर भी संगठित हिंसा का आरोप उठते रहे.
जहानाबाद जिले में जून–जुलाई 1988 के आसपास नॉन्हीगढ़ और नागवान के पास दलित बस्तियों पर एक संगठित हमले में कई हरिजनों की हत्या हुई। कुछ रिपोर्टों के अनुसार इस हमले में 19 हरिजन मारे गए। इस घटना ने प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व पर तीव्र प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए थे — बाद में अभियुक्तों के खिलाफ मुक़दमों व सज़ाओं की कार्रवाई भी चली। इन कत्लेआम घटनाओं की पृष्ठभूमि सिर्फ जातिगत द्वेष नहीं रही — स्थानीय शक्तिशाली राजनीतिक इकाइयों, सांसद/विधायक या उनके निकटस्थ समर्थकों पर भी हमलों में भूमिका के आरोप उठते रहे।
1980 के दशक में कुछ मामलों में कांग्रेस (या अन्य स्थानीय राजनीतिक समूहों) के स्थानीय नेताओं/सपोर्टरों पर आरोप लगे कि उन्होंने या उनके समर्थकों ने हिंसा को संरक्षण या दिशा दी — पर हर मामले में राजनीतिक जुड़ाव बराबर प्रमाणित नहीं हुआ; कई मामलों में लंबी मुक़दमेबाजी और बिना-नतीजे वाली जांचों की शिकायत भी रही।
जहानाबाद और आसपास के इलाकों में 1980 के दशक की इन हत्याओं की कहानी केवल अतीत की कथा नहीं है — यह बताती है कि जब जमीन, जाति, व राजनीतिक शक्ति मिले तो सामाजिक सुरक्षा कहाँ फेल हो सकती है। इन घटनाओं ने यह भी उजागर किया कि त्वरित, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच तथा न्यायिक प्रक्रिया तथा सामाजिक-आर्थिक सुधार ही ऐसी हिंसा को जड़ से खत्म कर सकती हैं।
मानवाधिकार संगठनों, मीडिया और सामाजिक आंदोलनों की निरन्तर निगरानी एवं पीड़ितों की आवाज़ को न्यायपालिका तक पहुँचाना आवश्यक रहा। दुखद बात यह रही कि जहानाबाद में दलितों की हत्या करने वाले अपराधियों को काँग्रेस के बड़े नेता का संरक्षण मिलने का गंभीर आरोप रहा। लेकिन काँग्रेस आलाकमान ने इसे निरंतर सांसद बनाए रखने में भी संकोच नहीं किया।
इसे जातीय समीकरण के साथ धनबल और बाहुबली की राजनीति के रूप में याद किया जाता है। एक बार राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने मेरी अनौपचारिक मुलाकात के दौरान काँग्रेस पार्टी और सरकार द्वारा ऐसे बाहुबली नेता को प्रश्रय दिए जाने पर गहरा दुख व्यक्त किया था। इस तरह बिहार की राजनीति में जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष का मुद्दा निरंतर रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )