इंडिया ब्लॉक को 13 सीटे और निर्दलीय को 1 सीट मिली थी। 2019 के विधानसभा चुनाव मे बीजेपी के हार के जो कारण थे, उन कारणों को दूर करने की बीजेपी ने कोशिश की है।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।
झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में से पहले चरण की 43 सीटों पर मतदान 13 नवंबर को होगा। एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के लिए पहला चरण सबसे अहम है। पहले चरण में 20 आदिवासी सीटों पर बीजेपी और जेएमएम की सीधी लड़ाई है। इन 20 एसटी सीटों में से कोल्हान की 9 और दक्षिण छोटा नागपुर क्षेत्र की 11 सीटे है। झारखंड के 26% आदिवासी वोटर्स तय करते हैं कि सत्ता की कुर्सी पर कौन बैठेगा।
4 पूर्व सीएम के रिश्तेदारों को टिकट देकर बीजेपी ने ट्राइबल सीटों पर ताकत बढ़ाई हैं। बीजेपी इन सीटों पर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती थी, इसलिए तमाम दिग्गज आदिवासी नेताओं को इन सीटों पर उतारा है। चंपई सोरेन, गीता कोड़ा, मोदी सरकार के पूर्व मंत्री सुदर्शन भगत, एसटी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद समीर उरांव, एसटी मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अरूण उरांव मैदान में है।
वहीं पहले चरण मे पलामू क्षेत्र की 9 सीटों पर, उत्तरी छोटा नागपुर की 7 सीटों पर, दक्षिणी छोटा नागपुर की 13 सीटों पर और कोल्हान क्षेत्र की 14 सीटों पर मतदान होने वाला है। पहले चरण की इन 43 सीटों पर 2019 में पार्टियों का प्रदर्शन देखे तो एनडीए ने 13, इंडिया ब्लॉक ने 27 सीटे और निर्दलीय के खातें में 3 सीट गई थी। पलामू क्षेत्र की 9 सीटों में से एनडीए को 5, इंडिया गठबंधन को 3 सीट और 1 सीट निर्दलीय को मिली थी। उत्तरी छोटा नागपुर की पहले चरण की 7 सीटों में से 2019 में एनडीए और इंडिया ब्लॉक को 3-3 सीटें और निर्दलीय को 1 सीट मिली थी।
दक्षिणी छोटा नागपुर की 13 सीटों में से एनडीए को 5, इंडिया गठबंधन को 8 सीटे मिली थी। कोल्हान की 14 सीटों में एनडीए का खाता भी नहीं खुला था। इंडिया ब्लॉक को 13 सीटे और निर्दलीय को 1 सीट मिली थी। 2019 के विधानसभा चुनाव मे बीजेपी के हार के जो कारण थे, उन कारणों को दूर करने की बीजेपी ने कोशिश की है और उसके पर सफल होती दिख रही है। 2014 से 2019 तक सीएम रहें रघुवरदास के कारण 2019 के चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था।
इस बार रघुवर दास को प्रदेश की राजनीति से दूर कर दिया है। उनकी बहू को टिकट देकर उनका मान भी रख लिया। अति आत्मविश्वास में 2019 में आजसू से गठबंधन नहीं किया था, इस बार गठबंधन के तहत 10 सीटें आजसू को दी है। चिराग पासवान को 1 और जदयू को 2 सीट देकर उनका भी साथ लिया है। 2019 में बाबूलाल मरांडी ने बगावत का झंडा बूलंद कर रखा था, आज 2024 मे बाबूलाल भाजपा के सबसे अनुशासित सिपाही बन गए है। कोल्हान क्षेत्र की 14 सीटों पर भाजपा का 2019 में खाता भी नहीं खुला था, इस बार पूरी ताकत और फोकस इसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा है।
जेएमएम के चंपई सोरेन भाजपा के भगवा रंग में रंग चुके है। इस क्षेत्र में बीजेपी घुसपैठ और चंपई सोरेन फैक्टर के कारण 5 से 6 सीटें जीत सकती है। हेमंत सोरेन अपने जेल जाने और शिबू सोरेन के आदिवासीयों के लिए किए गए संघर्ष और अपने काम जिसमें मंइयां योजना, स्कॉलशिप, 200 यूनिट फ्री बिजली, 450 रूपये में गैस सिलेडर और 25 लाख लोगों को घर देने की बदौलत मैदान में बने रहना चाहते है। हेमंत को उनकी पत्नी कल्पना सोरेन का पूरा साथ है। इंडिया गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस नजर आ रही है।
इस चुनाव मे कांग्रेस 10 सीटें भी जीत जाए तो कांग्रेस की बड़ी सफलता होगी। कांग्रेस के नेता आलमगीर आलम के भ्रष्ट्राचार का मुद्दा कांग्रेस के गले की हड्डी बन गया है। संगठनों के स्तर पर भी कांग्रेस कमजोर नज़र आ रही है। पहले चरण में कुल 333 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में है, लेकिन मुकाबला एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच ही है। कुछ सीटों पर जयराम महतो की पार्टी जेएलकेएम और कुछ सीटों पर निर्दलीय चुनौती पेश कर रहे है। दो सीटों विश्रामपुर और छतरपुर में इंडिया गठबंधन में फ्रेडली फाइट है।
पहले चरण में एनडीए 26 सीटों के आसपास जीत सकती है और इंडिया गठबंधन 17 सीटों के आसपास जीत सकता है। पहले चरण की 43 सीटों पर दोनों गठबंधनों का प्रदर्शन तय कर देगा कि सरकार कौन बनाने जा रहा है। हेमंत सोरेन को पहले चरण की सीटों को बचाने की चुनौती है, तो भाजपा के लिए पहले चरण में जेएमएम से बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती। कांग्रेस अपना पिछला प्रदर्शन के आसपास भी पहुंच जाए तो कांग्रेस की उपलब्धि होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सुखबीर बादल पर हमले की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। दरबार साहिब में, भगवान के घर में, सेवा करते व्यक्ति पर गोली चलाना गंभीर जुर्म है, पाप है।
रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)।।
अमृतसर में एक बड़ी अनहोनी टल गई। पंजाब के पूर्व डिप्टी सीएम सुखबीर बादल को जान से मारने की कोशिश हुई लेकिन सुरक्षा कर्मियों की मुस्तैदी की वजह से बादल बाल-बाल बच गए। सुखबीर बादल श्री अकाल तख्त साहिब के हुक्म के मुताबिक स्वर्ण मंदिर के द्वार पर चौकीदारी कर रहे थे।
चूंकि बादल के पैर में फ्रैक्चर है, इसलिए वह व्हीलचेयर पर बैठकर दरबान की ड्यूटी दे रहे थे। इसी दौरान एक शख़्स श्रद्धालु के भेष में स्वर्ण मंदिर के गेट पर आया। वह सुखबीर बादल के क़रीब पहुंचा और उसने पिस्तौल निकालकर गोली चलाने की कोशिश की लेकिन सादे लिबास में तैनात एक सुरक्षकर्मी ASI जसबीर सिंह हमलावर को पिस्तौल निकालते हुए देखते ही उस पर टूट पड़ा। सुरक्षाकर्मियों ने हमलावर को वहीं दबोच लिया।
नारायण सिंह चौड़ा, गुरदासपुर ज़िले के डेरा बाबा नानक का रहने वाला है। उसके खालिस्तानी संगठनों से पुराने रिश्ते रहे हैं। नारायण सिंह चौड़ा खालिस्तान लिबरेशन फोर्स और अकाल फेडरेशन के साथ जुड़ा हुआ था।
सुखबीर बादल पर हमले की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। दरबार साहिब में, भगवान के घर में, सेवा करते व्यक्ति पर गोली चलाना गंभीर जुर्म है, पाप है। हमला करने वाले ने सिर्फ इस बात का फायदा उठाया कि दरबार साहिब की मर्यादा के मुताबिक वहां जाने वालों की चेकिंग नहीं की जाती। अगर सुखबीर के सिक्योरिटी वाले सावधान न होते, तो एक बड़ी दुर्घटना हो सकती थी।
जहां तक इस मामले में राजनीति का सवाल है, यह तो अपेक्षित था कि अकाली दल के नेता सीएम भगवंत सिंह मान को दोषी ठहराएंगे और कांग्रेस पर भी आरोप लगाएंगे। कांग्रेस से भी यही उम्मीद थी कि वो पंजाब सरकार को जिम्मेदार बताएगी। लेकिन अकाली दल के नेता विक्रमजीत सिंह मजीठिया ने इस हमले के पीछे कांग्रेस का हाथ बताया और कहा कि हमलावर कांग्रेस सांसद सुखजिंदर सिंह रंधावा का करीबी है। बीजेपी ने इस घटना के पीछे खालिस्तानियों का हाथ बताया।
अब जिम्मेदारी पंजाब पुलिस की है कि वह इस मामले की तह तक जाए, अपराधी के पीछे कौन है इसका पता लगाए और जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक बाकी पार्टियां इधर-उधर की बयानबाज़ी न करें तो बेहतर होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
1971 में वजूद में आने से पहले बांग्लादेश में आज़ादी का पूरा संघर्ष चल रहा था उस वक्त पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में 30 लाख हत्याएं करवाई थी।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
बांग्लादेश में 5 अगस्त को शेख हसीना के तख्तापलट के बाद से वहां पर हिंदुओं के खिलाफ लगातार हिंसा हो रही है। मोहम्मद यूनुस सरकार के 100 दिन पूरे होने पर ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बांग्लादेश ने एक रिपोर्ट जारी करके बताया था कि यूनुस के सत्ता में आने के बाद बांग्लादेश मे हिंदुओं पर अब तक डेढ़ हज़ार से ज्यादा हमले हुए हैं। दो दर्जन से ज़्यादा हिंदू धार्मिक स्थलों या उनके कार्यक्रमों में हिंसा हुई है। महिलाओं के साथ ज़्यादती हुई है। एक दर्जन के करीब हिंदुओं की इस हिंसा में मौत भी हुई है।
बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। 71 में वजूद में आने से पहले बांग्लादेश में आज़ादी का पूरा संघर्ष चल रहा था उस वक्त पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में 30 लाख हत्याएं करवाई थी तब भी मरने वालों में ज़्यादातर हिंदू थे।
अमेरिका सांसद एडवर्ड कैनेडी ने 1971 में अमेरिकी संसद में एक रिपोर्ट पेश की थी। उस रिपोर्ट में उन्होंने बताया कि 71 से पहले पूर्वी पाकिस्तान में हुई हिंसा में मरने वाले लोगों में सबसे ज़्यादा वहां के हिंदू थे। आज़ादी के आंदोलन को दबाने के लिए हिंदुओं की हत्याएं की गईं, उनके दुकानों को जलाया गया, उनके घर लूटे गए। हिंदुओं के घरों की पहचान हो सके इसके लिए हिंदू घरों के बाहर बाकायदा H लिखा गया ताकि भीड़ उन घरों में आग लगा सके। 71 में हुई इसी हिंसा पर Gary Bass नाम के लेखक की 2014 में एक किताब आई थी जिसका नाम था The Blood Telegram और डिटेल में जानना है तो ये किताब पढ़ सकते हैं।
हैरानी है कि आज हम जब 71 की बात करते हैं तो इस बात के लिए ताली पीटते हैं कि देखिए कैसे भारत की मदद से बांग्लादेश बन पाया या हमने उस वक्त पाकिस्तान के 90 हज़ार सैनिक बंदी बना लिए थे। मगर इस बात की चर्चा भारत में कोई नहीं करता कि बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तानी फौजों ने पूर्वी पाकिस्तानी में लाखों हिंदुओं को मार डाला था।
बांग्लादेश बनने के बाद भी वहां रह रहे हिंदुओं के लिए हालात बदले नहीं। जिन शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश को संविधान में सेक्युलर राष्ट्र बनाया था, उन्हीं मुजीबुर्रहमान की 15 अगस्त 1975 में हत्या कर दी गई। बांग्लादेश के संविधान से सेक्युलर की जगह इस्लामिक राष्ट्र शब्द डाल दिया गया। बाद के सालों में हिंदुओं पर लगातार हमले होते रहे।
2001 में खालिदा जिया की सरकार बनने के बाद उनके समर्थकों ने systematic ढंग से हिंदुओं के खिलाफ हिंसा छेड़ दी। ये हिंसा पूरे 150 दिनों तक चली। हिंदुओं के खिलाफ 18 हज़ार से ज़्यादा अपराध किए गए। एक हज़ार हिंदू औरतों के साथ गलत काम हुआ। उस हिंसा के बाद एक साथ 5 लाख हिंदू बांग्लादेश छोड़कर भारत आ गए। इस सबके चलते इन सालों में बांग्लादेश में 12 लाख हिंदू घरों को या यूं कहें कि 44 परसेंट हिंदुओं को अपनी 20 लाख एकड़ ज़मीन गंवानी पड़ी है।
आज बांग्लादेश में जो हो रहा है उसे चाहे कुछ लोग इतना हल्का बताने की कोशिश करें, उसे चाहे किसी भी चाशनी में लपेटकर उसकी क्रूरता को कम आंकने की कोशिश करें मगर सीधी सी बात ये है कि जब भी आप मज़हब की बुनियाद पर किसी को खुद के कम आंकने की कोशिश करें, उसके धार्मिक विश्वासों को पाप मानें, उसे कंवर्ट करने को पुण्य मानें तो आप उसके वजूद को स्वीकार कर ही नहीं सकते। उल्टा वो आपको दूध में गिरी उस मक्खी की तरह लगेगा जिसे जब तक निकालकर बाहर न फेंक दिया जाए, तब तक आप दूध नहीं पी पाएंगे। और ये बात बिना अपवाद के बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान, कश्मीर, अफगानिस्तान हर जगह सही लगती है। और जैसा कि तारिक फतेह ने कहा था कि पूर्व की तरफ के कुछ मुस्लिम देश जैसे इंडोनेशिया और मलेशिया अगर आज भी कुछ हद तक अपने व्यवहार में सेक्युलर हैं तो इसकी वजह ये है कि वो अपनी बौद्ध और हिंदू अतीत से कटे नहीं है।
मगर समस्या ये है कि अगर कोई कट्टरपंथी मुस्लिम समाज सिर्फ गैर मुस्लिमों को वहां से हटा देने पर भी खुशहाल बनता हो, तो भी ये समझा जा सकता था कि ये प्रयोग कम से कम मुस्लिम समाज के लिए तो बुरा नहीं है। मगर दिक्कत, यहां ख़त्म नहीं होती बल्कि यहां से शुरू होती है।
मेरा मानना है कि किसी भी व्यक्ति या समाज में अगर जीवन को लेकर ही नकार है तो वो समाज अपनी ऊर्जा सिर्फ विधवंसक कामों में ही खपा सकता है। अगर आपको मज़हबी विश्वास आपको ज़्यादातर चीजों को हराम बताने पर मजबूर करते हैं तो फिर आप उस ऊर्जा का क्या करेंगे, जो ईश्वर ने आपको दी है। खुद को पाक और दूसरों को नीच मानते हुए आप सिर्फ और सिर्फ नफरत से भरते जाएंगे और यहां-वहां मार-काट करते फिरेंगे।
पाकिस्तान की तरह जब हिंदू और सिखों को मार चुके होंगे तो फिर शियाओं, अहमदियों, मुहाजिरों, पठानों, सिंधियों और बंगाली मुसमलानों पर ज़ुल्म करने शुरू कर देंगे।
अब्दुस सलाम का उदाहरण
1979 में पाकिस्तान के प्रोफेसर अब्दुस सलाम को जब भौतिकी का नोबेल मिला तो वो पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया में नोबेल पाने वाले पहले मुस्लिम थे। मगर उनका कसूर बस ये था कि वो अहमदिया समुदाय से आते थे। पाकिस्तान ने 1974 में कानून बनाकर अहमदिया मुसलमानों को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया था। जैसे-जैसे अब्दुस सलाम के अहमदिया होने की बात सामने आई तो पाकिस्तानी समाज ने उनका बहिष्कार शुरू कर दिया।
उन्हें 1979 में नोबेल मिला लेकिन पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने उन्हें एक साल बाद तब सम्मानित किया जब पूरी दुनिया में उनका काफी नाम हो चुका था। संसद के बंद दरवाज़ों में ये सम्मान दिया गया जहां किसी पत्रकार को जाने की इजाज़त नहीं थी। पाकिस्तान के विश्वविद्यालयों ने उन्हें बुलाना बंद कर दिया था, क्योंकि जमात-ए-इस्लामी ने खुलेआम ऐलान कर रखा था कि उन पर हमला किया जाएगा। यहां तक कि मरने के बाद भी कट्टरपंथियों ने उन्हें नहीं छोड़ा और उनकी कब्र पर लिखे परिचय में से ‘मुसमलान’ शब्द मिटा दिया। इस टॉपिक पर पाकिस्तानी के बेहतरीन जर्नलिस्ट syed muzammil shah ने कुछ टाइम पहले अपने यूट्यबू चैनल पर एक वीडियो बनाया था आप चाहें तो वहां डिटेल्ड स्टोरी देख सकते हैं।
क्या पूरी दुनिया में कोई कौम अपने ही एक नागरिक के साथ उसके धर्म भी नहीं, उसके सेक्ट की वजह से ऐसा भेदभाव कर सकती है? और कोई मुल्क जब अपने नोबेल पुरस्कार विजेता के साथ ऐसा सुलूक करता है, तो वो अपनी तकदीर खुद अपने हाथों से लिख लेता है। वो बता देता है कि उसके लिए उसके नागरिकों की बड़ी से बडी वैज्ञानिक उपलब्धि मायने नहीं रखती बल्कि उसका फेथ मायने रखता है।
भारत में शाहरुख खान, ए आर रहमान, मोहम्मद रफी जैसे कलाकार इतने मकबूल सिर्फ इसलिए नहीं हुए क्योंकि वो सिर्फ काबिल थे…वो इसलिए इतने मकबूल हुए क्योंकि जिस जनता के दम पर एक कलाकार इतना बड़ा कलाकार बनता है उस जनता ने उन्हें पसंद करने से पहले ये नहीं देखा कि उनका मज़हब क्या है। और ऐसा न करके भारत के समाज ने भी इन कलाकारों पर एहसान नहीं किया। हकीकत तो ये है कि जब भी कोई समाज ऐसा करता है तो वो खुद ही हर तरह के नागरिकों के हुनर से खुद को समृद्ध होेने का मौका देता है।
अब आप कट्टरपंथी से पूछें तो वो कहेगा कि मुझे इन बातों से कोई लेना देना नहीं…मुझे तो बस अपने दीन को फैलाना है…दुनिया के हर हिस्से पर अपनी हुकूमत कायम करनी है…मगर ऐसा सोचकर भी वो गलती करता है।
पाकिस्तान के वरिष्ठ लेखक हसन निसार साहब ने एक दफा कहा था कि पाकिस्तान ने भारत के साथ जो चार जंगे लड़ीं, खासतौर पर शुरू की तीन जंगे…वो सब पाकिस्तानी फौज ने शुरू की,क्योंकि उन्हें ये लगता था कि एक मुसलमान अकेला चार-चार हिंदू बनियों को नीचे लगा देगा….मगर पाकिस्तानी फौज ये भूल गई कि 1970 में लड़ाई कोई 1150 वाले तरीके से नहीं लड़ी जा रही थी…आज लड़ाई होती है तो विज्ञान लडता है न कि इंसान हाथ से लड़ाई करता है।
विज्ञान और कट्टरता का द्वंद
और यही आज के कट्टरपंथी की सबसे बड़ी समस्या है। अगर आपको मज़हबी कट्टरता के दम पर अपना मज़हब फैलाना भी है, दुनिया के सभी Non Believers को उनकी जगह से हटाना भी है तो आपके पास आर्थिक ताकत होनी चाहिए…बड़े-बड़े हथियार होने चाहिए। अब ये पैसा और हथियार उसी वैज्ञानिक समझ से बनेंगे जिसकी आप कद्र नहीं करते। क्योंकि विज्ञान के रास्ते पर चलने का मतलब है कि हर चीज़ पर सवाल पैदा करना…बिना प्रमाण के चीज़ों को न मानना और Irony ये है कि जैसे ही वैज्ञानिक सोच पर चलने लगते हैं, तो आपका दिमाग सबसे पहला सवाल आपके ही मज़हबी विश्वासों पर उठाता है। दिमाग जैसे ही ऐसा करता है तो कट्टरपंथी घबराकर खुद विज्ञान से खुद को अलग कर लेता है। कुछ-एक अपवादों को छोड़कर वैज्ञानिक सोच से जुड़ा शख्स हर तरह के धार्मिक पूर्वग्रहों से दूर हो जाता है।
चारों तरफ से मुस्लिम देशों से घिरा इज़राइल आज आठ-आठ देशों पर क्यों भारी पड़ता है क्योंकि उसने उस वैज्ञानिक सोच को ऐसा अपनाया जैसा दुनियाभर में कोई क्या ही अपनाएगा…यही वजह है कि आज सिलिकॉन वैली से बाद सबसे ज़्यादा स्टार्टअप अकेले तेलअवीव में है…एक करोड के करीब आबादी वाले इज़राइल की अर्थव्यवस्था 550 अरब डॉलर की है….वो सेमीकंडक्टर से लेकर, सॉफ्टवेयर, साइबर सुरक्षा तकनीक, मेडिकल उपकरण, डिफेंस टेक्नोलॉजी, एग्रीटेक, केमिकल्स, फर्टिलाइजर, सोलर और रिन्यूएबल एनर्जी तक सब बेचता है। और तो और दुनिया के सबसे बड़े हीरा कटिंग और पॉलिशिंग सेंटर भी इज़राइल में ही हैं।
उसने अपने एजुकेशन सिस्टम के थ्रू ये तकनीकी विकास किया। उस तकनीकी विकास के थ्रू उसने ऐसे प्रोडक्ट तैयार किए जो दुनिया के काम के थे। उन्हीं को बेचकर उसने पैसे कमाए। बाद में उसी पैसे को उसी तकनीकी विकास में लगाकर और विकास किया। आज अपना मज़हबी या राजनीतिक एजेंडा भी तो तब लागू कर पाओगे जब आप आर्थिक तौर पर ताकतवर होंगे।
दुबई से क्या सीखें?
जिस ‘इस्लामिक दुबई’ की हमारे यहां कुछ लोग बडी दुहाई देते हैं कि देखो उन्होने भी तो तरक्की की है…भाई उनकी तरक्की भी उस मज़हबी कट्टरता पर चलकर नहीं हुई बल्कि उससे समझौता करके हुई है।
उसे बेशक संयोग से तेल मिला मगर वहां की हुकूमत को जल्द ही ये बात समझ आ गई कि ये तेल तो ज़्यादा दिन नहीं रहेगा इसलिए उसने दुबई को टूरिस्ट और बिज़नेस डेस्टिनेशन के तौर पर डेवलप करना शुरू कर दिया। उसे पता था कि ऐसा करने के लिए हमें इस्लामिक तौर तरीकों से समझौता करके लोगों को छूट देनी होगी तभी बाहरी लोग यहां काम करने आएँगे। घूमने-फिरने आएँगे। निवेश के लिए आएंगे।
और आज आज देखिए, दुबई ने हर फील्ड में क्या चमत्कार किया है। आपने वक्त की नज़ाकत को समझा, अपनी ढिठाई छोड़ी तो दुनिया ने भी खुले दिल से आपका स्वागत किया। जो बात दुबई को तीस साल पहले समझ आई थी। वही बात सऊदी अरब को अब समझ आ रही है। और देर-सवेर जहां भी पैसा आएगा। लोगों से डर निकलेगा तो उन्हें यही बात समझ में आएगी कि दुनिया अपने मज़हबी विश्वासों को दूसरों पर थोपने से नहीं चलती। दुनिया सबको साथ लेने पर चलती है।
2020 में हुए सर्वे के हिसाब से ईरान में सख्त कानूनों के बावजूद 40 परसेंट ईरानी खुद को Non Religious मानते हैं, ट्यूनिशिया में 30 परसेंट से ज़्यादा मुस्लिम, तुर्की में 11 परसेंट और सऊदी जैसे कट्टर इस्लामी देश में भी 5 परसेंट लोग खुद को अधार्मिक मानते हैं। इसके अलावा मोरक्को और अल्जीरिया में भी बड़े पैमाने पर युवा लोग खुद को सेक्युलर या Non Religious मानते हैं।
अफगानिस्तान का हश्र
मुझे याद है तीन साल पहले जब अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों ने जाने का ऐलान किया था तो भारत में बहुत सारे लोगों ने इसको सेलिब्रेट किया था। इसे तालिबान और मुसमलानों की जीत के तौर पर देखा गया। कहा गया कि इन तालिबानियों ने पहले रूसियों को भगाया और अब अमेरिकियों को।
लेकिन 2021 के बाद अफगानिस्तान में लोगों के साथ क्या हुआ…संगीत पर रोक, बच्चियों के स्कूल जाने पर, बिना मर्द के घर से निकलने पर रोक, औरतों के काम पर रोक...2022 तक तालिबानियों को अफीम की खेती करके देश चलाना पड़ रहा था…क्या शरिया कानून लागू होने के बाद ये वो आदर्श समाज था जिसमें लोग रहना चाह रहे थे। कोई जानकार मुझे बताएगा कि कौनसे शरिया सम्मत समाज में अफीम की खेती से पैसा कमाना हलाल है?
अगर ये वो आदर्श समाज है तो फिर क्यों भारत-पाकिस्तान से लोग दुबई भागना चाहते हैं…मैंने तो कभी नहीं सुना कि इस आदर्श शरिया सम्मत समाज में जाकर बसने के लिए कोई भारत से अफगानिस्तान जाकर बस गया हो?
हम किसको बेवकूफ बना रहे हैं और बड़ा सवाल ये है कि कब तक बनाते रहेंगे…ईश्वर ने जब तक आपको जो ये जीवन दिया है आप उसको स्वीकार नहीं करेंगे…जब तक आप ये पता नहीं लगाएंगे कि मैं ऐसा क्या कर सकता हूं कि अपने और दूसरों के जीवन को बेहतर बना पाऊं तब तक आप यूं ही नफरत में उलझे रहेंगे।
हम क्या दे सकते हैं?
मैंने पहले भी कहा था एक बार फिर कह रहा हूं कि दुनिया आपको इस बात के लिए याद नहीं रखती कि आपने दिन में कितनी बार नमाज़ पढ़ी या कितनी बार मंदिर गए…दुनिया आपको सिर्फ इसलिए याद रखेगी कि आप उनकी ज़िंदगी में क्या वैल्यू एडिशन कर पाए…
शाहरुख भले ही मूर्ति पूजक होकर एक आदर्श मुसलमान न रह गए हों लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वे एशिया के सबसे बड़े मुस्लिम आइकन हैं। हो सकता है कोई मौलाना शबाना आज़मी को नाचने-गाने वाली कहकर उनकी तौहीन करता हो लेकिन इसमें क्या दो राय है कि वे हिंदुस्तानी सिनेमा की सबसे बेहतरीन एक्ट्रेस हैं। और ये भी सच है कि जब आपको आपके काम की वजह से जाना जाता है तो आपका ही समाज सबसे पहले आप पर, आपके धर्म पर दावेदारी ठोकने आ जाता है। ठीक उन रिश्तेदारों की तरह जो सारी उम्र आपके परिवार की बुराई करते रहे हों लेकिन आपके कामयाब होने पर अपने दोस्तों में बड़ी ऐंठ से बताते हो कि ये मेरा भतीजा है!
मगर दिक्कत ये है कि पूरा पाकिस्तान जो शाहरुख खान के मुसलमान होने पर फक्र करता है क्या वो शाहरुख की तरह अपने घर पर अपनी हिन्दू बीवी को देवी-देवताओं की पूजा करने देगा, अपनी हिन्दू बीवी को शादी के बाद उसका धर्म मानने देगा…अपने बच्चों के नाम आर्यन और सुहाना रखने देगा…कभी नहीं…और यही शाहरुख को पसंद करने का विरोधाभास है…मतलब इन लोगों को उसकी मुस्लिम पहचान पर गर्व तो करना है, उसकी उपलब्धियों को एक मुसलमान की उपलब्धि मानकर उस पर खुश भी होना है मगर शाहरुख जिस तरीके का मुसलमान है वैसा मुसलमान नहीं होना है।
शेन वार्न के एक मित्र ने एक बार कहा था कि वार्न ने आज तक जितने विकेट लिए हैं, उससे ज़्यादा उसने महिलाओं के साथ सम्बन्ध बनाए हैं। वार्न थे भी ऐसे ही...उन्होंने कभी छिपाया भी नहीं। ईसाइयत में शादीशुदा होने के बाद दूसरी महिला से सम्बन्ध बनाना बहुत बड़ा पाप भी है। लेकिन क्या इससे बतौर गेंदबाज़ वार्न की महानता कम हो गई? बिल्कुल नहीं। वो विश्व इतिहास के सबसे महानतम स्पिनर रहेंगे ही रहेंगे। क्योंकि वो अपनी फील्ड के सबसे बड़े contributor हैं और उनके इसी Contribution की वजह से दुनिया और ऑस्ट्रेलिया उन्हें याद रखेगा, फिर चाहे धर्म गुरू उन्हें मान्यता दें या न दें। फिर चाहे शुद्धतावादी उन्हें आदर्श मानें या नहीं!
अध्यात्म की खोज में भारत आए स्टीव जॉब्स वापिस अमेरिका क्यों चले गए थे...जॉब्स ने बताया था कि एक वक्त आया जब मैंने महसूस किया कि दुनिया में बहुत सी अच्छी बातें, अच्छे विचार कहे जा चुके हैं...बहुत से लोगों ने ईश्वर को अनुभव किया है...मगर दुनिया को और अच्छे विचारों की नहीं, अच्छी चीज़ों की ज़रूरत है....ऐसे योगदान की ज़रूरत है जिससे मैं लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बना सकूं...यही वो विचार था जिसने जॉब्स को अपनी ‘आध्यात्मिक यात्रा’ बीच में छोड़कर ‘असल ज़िंदगी’ में कुछ करने के लिए प्रेरित किया… यही जॉब्स आगे चलकर दुनिया के सबसे बेहतरीन आविष्कारक बने...जिन्होंने हमें Apple जैसे बेहतरीन प्रॉडक्ट दिए और अपने उसी जीवन दर्शन को एपल का हर प्रोडक्ट बनाने में ध्यान रखा...जैसे अध्यात्म हमें अपने अलावा दूसरों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है उसी तरह जॉब्स ने हर कदम पर User Experience को ध्यान रखा!
दुनिया की सबसे ताकतवर टीम ऑस्ट्रेलिया विराट कोहली की इसलिए इज्ज़त नहीं करती कि उसके इंस्टाग्राम पर ढाई सौ मिलियन फॉलोअर्स हैं या हज़ार करोड़ रुपए का मालिक वो इसलिए इज्ज़त करते हैं कि पिछले दस सालो में उसने अकेले ने ऑस्ट्रेलिया में इतनी हंड्रेड लगाई हैं जितनी कोई एक टीम भी मिलकर नहीं लगा पाई। भारत की भी इसलिए इज्ज़त नहीं हो रही कि बीसीसीआई दुनिया की सबसे बड़ी लीग चलाती है वो इसलिए हमें इज्ज़त दे रहे हैं क्योंकि हमने उन्हें छह सालों में इतने टेस्ट हराया है जितना बाकी टीमें मिलकर भी ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में नहीं हरा पाई।
अपना कर्म ऊंचा करो, आपका धर्म खुद ब खुद ऊंचा हो जाएगा। किसी विधर्मी का होना तुम्हारे वजूद के लिए खतरा नहीं हैं। तुम्हारा खतरा ये न जान पाने में है कि तुम्हारा वजूद किसके लिए है...तुम्हें करना क्या है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
हिंसा, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं। हिंन्दू धर्म में इसे सदैव घृणा से देखा गया।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अपने आधारभूत रूप में हिन्दू धर्म न एक पुस्तक का धर्म रहा न एक ईश्वर का धर्म रहा। किसी भी धार्मिक राष्ट्र की स्थापना के लिए पहला बुनियादी तत्व है एक पुस्तक और एक ईश्वर पर 'अकम्पित निष्ठा', ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों के बनने और विस्तार पाने के पीछे मूल तत्व यही था, जो हिन्दू धर्म में कभी नहीं रहा।
धर्म के प्रसार के लिए विश्वविजय जैसी आकांक्षाए इस धर्म में पूरी तरह अवांछित थी। हिंदू धर्म की उत्कृष्टता उसे आत्मिक ऐकांतिकता की ओर ढकेलती थी जिसका चरम लक्ष्य संसार का त्याग होता था। इसी कारण कई महान राजा सारा राजपाट छोड़कर संन्यासी, महान त्यागी और पूजनीय बनें। हिन्दू धर्म के वाहक भी अपनी आंतरिक बुनावट में वीतरागी व संन्यासी थे। इस जगत की माया से मुक्ति चाहते थे।
जनक से लेकर हर्ष तक यही पंरपरा रही। ऐसे व्यक्ति भारत की भूमि पर जन्में ही नहीं जिन्होंने अपने देश की सीमाएं अपनी सेना के साथ अतिक्रमित की हो, जो देश या धर्म या नस्ल के गौरव, धन या व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के कारण किसी देश को जीतना चाहते हों। हिंसा, रक्तपात, युद्ध, नरसंहार, दमन, यातना व गैर धर्मो के प्रति पूरी तरह अमानवीय होना, धार्मिक राष्ट्र की स्थापना, प्रसार व स्थायित्व के लिए आवश्यक होते हैं।
हिंन्दू धर्म में इसे सदैव तिरस्कार, उपेक्षा और घृणा से देखा गया। धर्म और राष्ट्र, हिन्दुओ में दो पृथक व बहुधा समानान्तर सत्ताओं के रूप में ही व्यक्त होते रहे। ईसाई और इस्लामी साम्राज्यों की तरह, हिंदू राज्यों का कोई निश्चित, घोषित राज्य धर्म नहीं रहा जहॉ राष्ट्रवाद व धर्मयुद्ध एकरूप हो जाते थे। किसी भी शासक ने जनता पर शक्ति से अपना धर्म थोपने की कोशिश नहीं की।
धार्मिक राष्ट्र की अवधारणा हिन्दू संस्कृति व पॉलिटी में सामान्यत उस तरह कभी नहीं रही, जैसे कि ईसाई और इस्लामी दो बड़े धर्मो और साम्राज्यों में रही। ईसाई और इस्लाम में धर्मयुद्धों का लम्बा इतिहास रहा है, जो भारत में सदैव अनुपस्थित रहा है।
कालांतर में हिंदू धर्म की इसी ख़ासियत और ख़ूबसूरती को उसकी कमजोरी के रूप में देखा गया। हिंदू धर्म के त्याग और धेर्य की परीक्षा हर समय होने लगी। बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के लिए बड़ा मन दिखाने और सदियों से चली आ रहीं त्याग की परंपराओं का निर्वाह करने की सलाह दी जाने लगीं। संयम, त्याग, धेर्य कि पुरातन आदत को पुरखों के संस्कार बता कर उस पर अडिग रहने को कहा जाता हैं। क्या अब पुराने संस्कारों को छोड़ने का वक्त सचमुच आ गया हैं?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
1952 में स्थापित, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एशिया के महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है, जो फिल्म निर्माताओं को अपने काम को प्रस्तुत करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।
डॉ. भुवन लाल, प्रसिद्ध भारतीय लेखक ।।
छह महीने से भी कम समय पहले सिनेमा से संबंधित मीडिया में एक बड़ी घोषणा ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म जगत को आश्चर्यचकित कर दिया। भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव को आखिरकार एक नया फेस्टिवल डायरेक्टर मिल गया। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्माता और निर्देशक शेखर कपूर थे। एक प्रेरित विकल्प, कपूर चार महाद्वीपों पर काम करने वाले एकमात्र भारतीय फिल्म निर्देशक हैं। उनके अविश्वसनीय काम में आर्टहाउस सिनेमा और कमर्शियल हिंदी फिल्मों से लेकर अंतरराष्ट्रीय सिनेमा और यहां तक कि ऑस्कर-नामांकित फिल्म - एलिजाबेथ तक शामिल है। भारतीय सिनेमा और टेलीविजन में एक अभिनेता के रूप में उनका कार्यकाल, साथ ही एक टीवी शो के होस्ट के रूप में, अच्छी तरह से जाना जाता है। वह 2010 में फेस्टिवल डे कान्स में जूरी के सदस्य भी थे और सिनेमा की दुनिया में उनका बेजोड़ अनुभव है।
1952 में स्थापित, भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एशिया के सबसे महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है, जो दुनिया भर के फिल्म निर्माताओं को अपने काम को प्रस्तुत करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। पिछले बीस वर्षों से गोआ में हर साल आयोजित होने वाला IFFI विश्व सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों का जश्न मनाने के लिए निर्देशकों, निर्माताओं, अभिनेताओं और फिल्म प्रेमियों को आकर्षित करता है। पूर्णकालिक महोत्सव निदेशक के बिना कुछ वर्षों तक लड़खड़ाने के बाद, हाल के वर्षों में IFFI ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म निर्माताओं, भारतीय फिल्म उद्योग और फिल्म प्रेमियों को निराश किया है, जिन्होंने दशकों तक इसका वफ़ादारी से समर्थन किया था। इसमें कोई संदेह नहीं था कि गोआ में आयोजित होने वाला भारत का अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 55वां संस्करण प्रतिभाशाली फेस्टिवल डायरेक्टर शेखर कपूर की कमान में एक गेम-चेंजर साबित होने वाला था और ऐसा ही हुआ।
गोआ फिल्म महोत्सव भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक और आयोजन मात्र नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित और कुशलतापूर्वक निष्पादित शो था, जिसमें वैश्विक मानक महोत्सव की सभी विशेषताएं थीं। सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए प्रतिष्ठित सत्यजीत रे लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड गोआ के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत द्वारा अनुभवी ऑस्ट्रेलियाई फिल्म निर्माता फिलिप नॉयस को प्रदान किया गया, जो क्लियर एंड प्रेजेंट डेंजर, पैट्रियट गेम्स और साल्ट जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय जूरी का नेतृत्व अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित और अत्यधिक सम्मानित भारतीय फिल्म निर्माता आशुतोष गोवारिकर ने किया। इसमें सिंगापुर के जाने-माने लेखक, निर्देशक और निर्माता एंथनी चेन, बाफ्टा पुरस्कार विजेता निर्माता एलिजाबेथ कार्लसन, गोल्डन लेपर्ड विजेता फिल्म निर्माता फ्रैन बोर्गिया और फिल्म संपादक जिल बिलकॉक शामिल थे, जो स्ट्रिक्टली बॉलरूम, रोमियो एंड जूलियट, मौलिन रूज, एलिजाबेथ और रोड टू परडिशन के संपादन के लिए प्रसिद्ध हैं। हॉलीवुड फिल्म निर्माता चक रसेल, जो द मास्क और द स्कॉर्पियन किंग जैसी हॉलीवुड हिट फिल्मों के लिए जाने जाते हैं, ने फिल्म बाजार में शैली फिल्म निर्माण पर एक मास्टरक्लास का आयोजन किया। उन्होंने भारत में काम करने और आमिर खान और शाहरुख खान के साथ सहयोग करने की अपनी इच्छा भी व्यक्त की।
विश्व सिनेमा की कुछ बेहतरीन फिल्मों की स्क्रीनिंग करते हुए, IFFI ने गोआ में होली काउ, टॉक्सिक, वेव्स, शेफर्ड्स, आर्टिकल 370, और आदुजीविथम सहित कई अन्य रत्न प्रस्तुत किए। इस महोत्सव में जीरो से रीस्टार्ट, द मेहता बॉयज, हिसाब बराबर और जब खुली किताब का प्रीमियर भी हुआ। IFFI में एक विशेष कार्यक्रम में, राज कपूर के जीवन और कार्यों को रणबीर कपूर और निर्देशक-संपादक राहुल रवैल द्वारा श्रद्धांजलि के साथ मनाया गया। IFFI ने तेलुगु सिनेमा के दिग्गज अक्किनेनी नागेश्वर राव (ANR) को उनके बेटे नागार्जुन के साथ एक सत्र में श्रद्धांजलि दी। सोनू निगम और शाहिद रफी ने प्रसिद्ध भारतीय गायक मोहम्मद रफी के शताब्दी सत्र में मंच संभाला और एक अविस्मरणीय क्षण में दर्शकों को आनंदित करने के लिए सुभाष घई की कर्ज़ की धुनें गाई ।
IFFI गोआ में भारतीय सिनेमा के जाने-माने नाम मौजूद थे, जिन्होंने फ़िल्में पेश कीं और मास्टरक्लास, कार्यशालाएँ और पैनल आयोजित किए, जिनमें मणि रत्नम, विधु विनोद चोपड़ा, निखिल आडवाणी, बोमन ईरानी, नील नितिन मुकेश, वाणी त्रिपाठी और बॉबी बेदी शामिल थे। गोआ में रमेश सिप्पी की मौजूदगी भी एक आकर्षण थी, जिनकी महान कृति शोले 2025 में 50 साल पूरे करेगी और अगले साल महोत्सव का मुख्य आकर्षण होगी। सबसे सफल भारतीय फ़िल्म निर्माताओं में से एक और जीवित किंवदंती, सुभाष घई महात्मा गांधी पर अपनी लघु फ़िल्म दिखाने के साथ-साथ अपनी क्लासिक फ़िल्म ताल को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सामने पेश करने के लिए गोआ में थे।
ताल 1997 में यूएसए में वैराइटी की शीर्ष 20 में जगह बनाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी और सुभाष घई ने खुलासा किया कि उन्होंने ए.आर. रहमान को संगीत रचना के लिए यह कहकर राजी किया था, “मैं यह संगीतमय फिल्म बनाना चाहता हूं और इसका मतलब है कि आप मेरी फिल्म के नायक हैं”। प्रसिद्ध गायिका कविता कृष्णमूर्ति जिन्होंने फिल्म के सुपरहिट गाने गाए, ने याद किया, “मैंने इस तरह से गाने की कोशिश की जो न केवल भारतीय श्रोताओं को बल्कि दुनिया भर के श्रोताओं को पसंद आए।” उस दिन बाद में, बंगाल के माननीय राज्यपाल डॉ. सी.वी. आनंद बोस ने अभिनेता आर. माधवन के साथ मिलकर सुभाष घई की पुस्तक कर्मा चाइल्ड का विमोचन एक कार्यक्रम में किया, जिसमें फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे के पहले पांच बैच एक साथ आए थे।
इससे पहले महोत्सव के पहले दिन गोआ के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत ने राष्ट्रीय सार्वजनिक प्रसारक प्रसार भारती के प्लेटफॉर्म ‘वेव्स’ ओवर-द-टॉप (ओटीटी) का शुभारंभ किया। जियो स्टूडियोज और यूट्यूब द्वारा आयोजित फिल्म बाजार 2025 में अभूतपूर्व रूप से रिकॉर्ड भागीदारी रही और सिनेमा व्यवसाय और कंटेंट निर्माण पर पैनल चर्चाएं हुईं। फिल्म बाज़ार का एक मुख्य आकर्षण बिक्री बनाम वितरण पर एक जानकारीपूर्ण ज्ञान श्रृंखला सत्र था जिसमें ग्लोबल गेट, लॉस एंजिल्स के अध्यक्ष विलियम फ़िफ़र, शिलादित्य बोरा, डेनिस रूह और अरनॉड गोडार्ट शामिल थे, जिसका कुशल संचालन कैरी साहनी ने किया था। एक और दिलचस्प पैनल मनोरंजन उद्योग पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रभाव पर था जहाँ अदानी समूह के सीटीओ सुदीप्त भट्टाचार्य ने फिल्म निर्माता महावीर जैन के साथ बात की। IFFI गोआ में ऑस्ट्रेलिया फोकस का देश था और स्क्रीन ऑस्ट्रेलिया, राज्य स्क्रीन आयोगों और ऑस्ट्रेलिया को फिल्मांकन गंतव्य के रूप में बढ़ावा देने वाली एजेंसी ऑसफिल्म के एक मजबूत प्रतिनिधिमंडल के साथ एक बड़ी ऑस्ट्रेलियाई भागीदारी थी। भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ने मंडोवी नदी पर एक नौका पर यादगार कार्यक्रम आयोजित किए।
55वां IFFI वैश्विक सिनेमा का एक रोमांचक उत्सव था, जिसमें दुनिया के सभी कोनों से फिल्मों का एक विविध मिश्रण, विचार-विमर्श, आकर्षक मास्टरक्लास और विशेष स्क्रीनिंग एक साथ लाई गई। IFFI गोआ में 45,000 से अधिक फिल्म प्रेमियों और पेशेवरों के साथ नौ दिनों के सिनेमाई उत्सव के बाद, समापन की रात भारतीय संगीत और नृत्य प्रदर्शनों के एक शानदार मंच प्रदर्शन के साथ महोत्सव का समापन हुआ। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, दूरदर्शन, सूचना और प्रसारण मंत्रालय और गोआ सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले सैकड़ों लोगों के दल का अथक परिश्रम IFFI गोआ 2024 के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के 55वें संस्करण में स्पष्ट दिखाई दिया। IFFI के कलात्मक निदेशक पंकज सक्सेना, NFDC के प्रबंध निदेशक प्रीतुल कुमार और फिल्म बाजार के नवनियुक्त सलाहकार जेरोम पैलार्ड ने महोत्सव में आने वाले दर्शकों के अनुभव को अनुकूलित किया और IFFI गोआ 2024 और फिल्म बाजार को एक बड़ी सफलता बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने और सीमाओं से परे सिनेमाई कला को बढ़ावा देने का IFFI का मिशन सिर्फ़ गोआ में होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम नहीं है, बल्कि दुनिया भर में साल भर चलने वाली गतिविधि है। इस साल फेस्टिवल डायरेक्टर कपूर ने IFFI गोआ में युवा भारतीय फिल्म जगत को विश्व सिनेमा के जादू में सफलतापूर्वक डुबो दिया है और नवोदित फिल्म निर्माताओं के जुनून को बढ़ावा देने में मदद की है ताकि वे भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर पहचान दिला सकें। दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म और कंटेंट प्रोडक्शन उद्योग अब गोआ में सबसे बड़े सिनेमाई कला महोत्सव का हकदार है। जैसा कि फेस्टिवल डायरेक्टर कपूर ने सही कहा, "एक अत्यधिक ध्रुवीकृत दुनिया में... हमें एक-दूसरे को अपनी कहानियाँ बताने की ज़रूरत है..." IFFI गोआ दुनिया के कहानीकारों के लिए आदर्श घर है।
(डॉ. भुवन लाल सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और हर दयाल के जीवनी लेखक और विश्व मंच पर भारतीय लेखक हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है)
ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद, हिफ़ाज़ते इस्लाम संगठन के हज़ारों कार्यकर्ताओं ने इस्कॉन के ख़िलाफ़ मार्च किया। इस्कॉन पर पाबंदी लगाने की मांग की।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ जम कर हिंसा हुई। बांग्लादेश के दूसरे सबसे बड़े शहर चटगांव में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने ख़ूब उत्पात मचाया। जुमे की नमाज़ के बाद हिज़्बुत तहरीर, हिफ़ाज़ते इस्लाम और जमाते इस्लामी के कार्यकर्ता चटगांव के हिन्दू बहुल ठाकुरगांव, कोतवाली और टाइगर पास मुहल्लों में घुस गए।
कट्टरपंथियों ने पहले इस्कॉन के ख़िलाफ़ जमकर नारेबाज़ी की, इसके बाद इस्लामिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने हिंदुओं की दुकानों और घरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। हिंदुओं के साथ मार-पीट शुरू कर दी। तीन बड़े मंदिरों में तोड़फोड़ की। मौक़े पर पुलिस मौजूद थी लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया। पुलिस तमाशा देखती रही। इसके बाद जब हालात बेक़ाबू हो गए तो, चटगांव में फौज को तैनात कर दिया गया।
राजधानी ढाका में इस्कॉन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए। ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद, हिफ़ाज़ते इस्लाम संगठन के हज़ारों कार्यकर्ताओं ने इस्कॉन के ख़िलाफ़ मार्च किया। इस्कॉन पर पाबंदी लगाने की मांग की।
प्रदर्शनकारियों ने कहा कि इस्कॉन एक आतंकवादी हिंदू संगठन है, उस पर बैन लगना चाहिए और इस्कॉन के कार्यकर्ताओं को जेल में डाल देना चाहिए। बांग्लादेश सरकार ने इस्कॉन के 17 सदस्यों के बैंक खाते 30 दिन तक फ्रीज़ कर दिए हैं। इनमें इस्कॉन के गिरफ़्तार चिन्मय दास का भी बैंक खाता है। कोलकाता में इस्कॉन के उपाध्यक्ष राधारमण दास ने कहा कि खाते फ्रीज़ होने से इस्कॉन के सदस्यों के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।
बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ कोलकाता में प्रदर्शन हुए। इंडियन सेक्यूलर फ्रंट के वर्कर्स ने बांग्लादेश के डिप्टी हाई कमिशन के बाहर प्रोटेस्ट किया। इंडियन सेक्यूलर फ्रंट, फुरफुरा शरीफ़ के मौलाना अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी है। विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों ने भी बंगाल में प्रदर्शन किया। ब्रिटेन की संसद में कंज़रवेटिव पार्टी के सांसद, बॉब ब्लैकमैन ने सरकार से इस मामले में दख़ल देने की मांग की।
बॉब ब्लैकमैन ने कहा कि इस्कॉन जैसे शांतिप्रिय संगठन को आतंकवादी संगठन बताकर लोगों को मारा जा रहा है, हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहा है, उनकी जायदाद लूटी जा रही है।
लोकसभा में विदेश मंत्री जयशंकर ने एक लिखित उत्तर में बताया कि भारत सरकार ने हिन्दुओं की स्थिति पर बांग्लादेश की सरकार से बात की है और हिंदुओं को पूरी सुरक्षा देने को कहा है। जयशंकर ने कहा कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के जान-माल की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी वहां की अंतरिम सरकार की है और सरकार को उम्मीद है कि बांग्लादेश की सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाएगी।
शनिवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने एक बयान में भारत सरकार से अपील की कि वह बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए विश्व जनमत बनाना शुरू कर दे। होसबाले ने इस्कॉन के गिरफ्तार साधु चिन्मय दास को जेल से तुरंत रिहा करने की मांग की।
ये बात सही है कि बांग्लादेश में हिंदुओं के हालात पर भारत सरकार चिंतित है। गुरुवार को गृह मंत्री अमित शाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर की बैठक हुई। लेकिन मामला पड़ोसी मुल्क का है। इसलिए सिर्फ डिप्लोमेटिक चैनल्स का सहारा लिया जा सकता है। सिर्फ बांग्लादेश की सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है।
समस्या यह है कि बांग्लादेश में मोहम्मद युनूस की अंतरिम सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में है, उनसे डरती है। जिस तरह से हिंसा पर उतारू भीड़ ने शेख हसीना को हटाया, उसके बाद सब भीड़ से डरते हैं। अब सरकार पर नियंत्रण होने के बाद जमात-ए-इस्लामी और हिफाज़त-ए-इस्लाम जैसे संगठन हिंसा पर उतारू हैं। उन्हें न पुलिस का डर है, न फौज का, न ही उन्हें बांग्लादेश की छवि की परवाह है। इसलिए बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे जुल्म को रोकने में वक्त लगेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया में मूक फिल्म कालिया मर्दन के प्रदर्शन से भारतीय सिनेमा का गौरवशाली अतीत जीवंत हो उठा था। आरंभिक फिल्में रीस्टोर होती हैं तो संभव है कि इतिहास बदल जाए।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जानेवालों की अपेक्षा होती है कि उनको कुछ बेहतरीन विदेशी फिल्में देखने को मिल जाएं। वहां पहुंचने वाले सिनेमाप्रेमी फेस्टिवल के शेड्यूल में से अपनी पसंद की फिल्में तलाशते और उसपर चर्चा करते नजर आते हैं। हाल ही में गोवा में समाप्त हुए फिल्म फेस्टिवल में सात भारतीय क्लासिक फिल्मों को भी नेशनल फिल्म आर्काइव आफ इंडिया ने रिस्टोर (मूल जैसा बनाया) किया।
इन फिल्मों का प्रदर्शन फेस्टिवल के दौरान हुआ। इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन सबसे अधिक रोमांच तो दादा साहब फाल्के की 1919 में बनाई गई फिल्म कालिया मर्दन को देखते समय हुआ। दादा साहब फाल्के ने 1919 में जब इस फिल्म का निर्माण किया था तो बाल कृष्ण की भूमिका उनकी बेटी मंदाकिनी फाल्के ने की थी।
ये मूक फिल्म थी। करीब 50 मिनट की इस फिल्म को लाइव संगीत के साथ प्रदर्शित किया गया। उन 50 मिनट में दर्शक मूक फिल्मों के दौर में चले गए थे। जहां पर्दे पर पात्र अपने हाव भाव से दृष्य को जीवंत करते थे और पर्दे के नीचे या साथ बैठे साजिंदे अपने वाद्ययंत्रों से संगीत देकर उन दृष्यों में रोचकता पैदा करते थे। कालिया मर्दन फिल्म में जब नदी में खेल रहे बाल कृष्ण को महिलाएं गोद में लेकर ऊपर उठातीं तो हाल में बैठे आर्केस्ट्रा से निकलने वाला संगीत गजब का प्रभाव पैदा करता था। पर्दे पर जब बाल कृष्ण बांसुरी बजाते तो हाल में बैठा बांसुरी वादक वैसे ही धुन निकालता।
एक बेहद ही मजेदार दृष्य है इस फिल्म है। कृष्ण और उनके बाल सखा को गांव की एक महिला अपमानित करती है। उन शरारती बच्चों पर पानी फेंक देती है। इससे कृष्ण जी क्षुब्ध हो जाते हैं। अपने साथियों के साथ उस महिला के घर में घुसकर माखन चोरी कर लेते हैं। माखन चोरी से क्रोधित वो महिला कृष्ण के साथियों को पीट देती है। अपमानित बालकों ने महिला से बदला देने की ठानी। एक रात कृष्ण जी उनके घर में घुस जाते हैं। महिला अपने पति के साथ सो रही होती है।
नटखट कृष्ण ने सोते हुए पुरुष की दाढ़ी और महिला के बाल आपस में बांध दिए। बाद में जब वो उस कमरे से निकलने का प्रयास करते हैं तो असफल हो जाते हैं। बाल कृष्ण की बदमाशियों को दादा साहब फाल्के ने जिस खूबसूरती के साथ दिखाया है कि आज भी दर्शक आनंदित हो उठते हैं। उनको ये याद ही नहीं रहता है कि इस लंबे दृष्य में किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। है तो सिर्फ पार्श्व संगीत।
फेस्टिवल के समापन समारोह में रमेश सिप्पी ने इस बात को रेखांकित किया कि आज से 105 वर्ष पहले बनी फिल्म कितनी सुंदर थी और किस तरह से उसमें कहानी को आगे बढ़ाया गया है। उन्होंने फिल्म के कैमरा वर्क की प्रशंसा भी की। यह अनायस नहीं है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्म जगत का पितामह कहा जाता है।
इसके अलावा राज कपूर की मास्टरपीस फिल्म आवारा, देवानंद कि हम दोनों, तपन सिन्हा की हारमोनियम, ए नागेश्वर राव की तेलुगु फिल्म देवदासु और सत्यजित राय की सीमाबद्ध और ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिन्दुस्तानी को भी रिस्टोर करके दिखाया गया। नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत इन फिल्मों पर काम हुआ। यह कार्य महत्वपूर्ण है।
हम वापस लौटते हैं फिल्म कालिया मर्दन की ओर। आज से 105 वर्ष पहले बनी इस फिल्म के केंद्र में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप है। उस दौर में जितनी भी फिल्में बन रही थीं सभी भारतीय पौराणिक कथाओं और पात्रों पर आधारित थीं। दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनको कृष्ण के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स पर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे। उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए और वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। अब उनके सामने अपने सपने को साकार करने की चुनौती थी।
उन्होंने पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में उसको छोड़ना पड़ा। फिर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम आरंभ किया। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला इस फिल्म में अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी और उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार किया गया।
इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार 12 दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई।
कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। इसी फिल्म कंपनी से दादा साहब फाल्के ने कालिया मर्दन फिल्म का निर्माण किया। फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब 900 लघु फिल्में और 20 फीचर फिल्में बनाईं। भारतीय सिनेमा के शोधार्थियों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि दादा साहब फाल्के भारतीय पौऱाणिक पात्रो को लेकर ही फिल्में क्यों बनाते रहे।
जिस तरह से नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत पुरानी भारतीय फिल्मों को रिस्टोर करने का कार्य हो रहा है, उसको और बढ़ाने और भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। स्वाधीनता के बाद फिल्मी दुनिया में कई ऐसे निर्माता निर्देशक आए जिन्होंने जो वामपंथी विचार के प्रभाव वाले थे। स्वाधीनता के बाद तत्कालीन भारत सरकार फिल्मी जगत के लोगों को सोवियत रूस भेजकर उनके प्रभाव में आने का रास्ता खोल रही थी।
अनके पुस्तकों और दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से सोवियत रूस ने अपने विचारों को भारत में फैलाने के लिए फिल्म और साहित्य जगत का उपयोग किया और सफलता भी प्राप्त की। रूस को सफलता इस कारण मिली क्योंकि उस समय भारत सरकार का सहयोग उनको प्राप्त था। गीतों से लेकर संवाद में पूंजी और पूंजीपतियों पर परोक्ष रूप से हमले शुरु हो गए थे। जमींदारों से लेकर पैसेवालों को बुरा आदमी दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास हुआ।
कहा जाता है कि उस समय से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी परोक्ष समर्थन इस कार्य के लिए था। अगर नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन अपने काम में तेजी लाती है, इसको सरकार की तरफ से उचित संसाधन उपलब्ध होता है तो संभव है कि आनेवाले दिनों में भारतीय फिल्मों के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता पड़े। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में भारतीय फिल्मों की प्रवृत्तियों पर जो कार्य हो रहे हैं उनकी भी दिशा बदल सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
रिज़र्व बैंक का इलाज दो महीने पहले तक काम कर रहा था। महंगाई क़ाबू में आ रही थी। रिज़र्व बैंक को टार्गेट दिया है सरकार ने महंगाई दर 4% रहें। दो प्रतिशत कम ज़्यादा हो सकती है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
हिसाब किताब के पाठकों को पता है कि हम पिछले कुछ हफ़्तों से इकनॉमी को लेकर ख़तरे की घंटी बजा रहे हैं। एक तरफ़ मंदी का ख़तरा और दूसरी तरफ़ महंगाई का। हमारा डर सही साबित हुआ। सितंबर की तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर यानी जीडीपी ग्रोथ 5.4% रहीं। दो साल में यह सबसे धीमी ग्रोथ है। इसका असर शेयर बाज़ार पर तो पड़ेगा ही, हमारी आपकी मुश्किलें भी बढ़ेंगी।
आप सोच रहे होंगे सब चंगा सी जैसे नारों के बीच अर्थव्यवस्था यहाँ कैसे फंस गई तो इसका बड़ा कारण है रिज़र्व बैंक की महंगाई कम करने की दवाई। अब उसका साइड इफ़ेक्ट दिखने लगा है। कोरोनावायरस के बाद रिज़र्व बैंक ने महंगाई कम करने के लिए ब्याज दर बढ़ाना शुरू किया। यह पुराना फ़ॉर्मूला है जब महंगाई बढ़ जाए तो लोगों और कंपनियों के हाथ में से पैसा खिंच लो। ब्याज दरों में बढ़ोतरी से क़र्ज़ लेना महँगा होता है।
कंपनियाँ नए प्रोजेक्ट लगाने से बचती है और लोग भी ख़र्च में कटौती करते हैं। लोन नहीं लेते हैं। इसका असर सामान और सर्विस की डिमांड पर होता है। डिमांड कम होने से सामान या सर्विस के बढ़ते दाम पर ब्रेक लगता है। इस दवाई में ख़तरा बना रहता है कि कहीं डिमांड इतनी कम ना हो जाए कि मंदी आ जाएँ। लोगों की आमदनी ना बढ़े या नौकरी जाने लगे। कंपनियों का फ़ायदा कम होने लगे। यह सब हम होते हुए देख रहे हैं।
रिज़र्व बैंक का इलाज दो महीने पहले तक काम कर रहा था। महंगाई क़ाबू में आ रही थी। रिज़र्व बैंक को टार्गेट दिया है सरकार ने महंगाई दर 4% रहें। दो प्रतिशत कम ज़्यादा हो सकती है। अक्टूबर में यह दर 6% से पार हो गई। अब तक राहत की बात थी कि जीडीपी ग्रोथ ठीक ठीक बनी हुई थी। पहले क्वार्टर में उम्मीद कम रही तो दलील दी गई कि चुनाव के कारण सरकारी खर्च नहीं हुआ। दूसरे क्वार्टर में ग्रोथ कम होने की आशंका थी लेकिन इतनी कम होगी यह किसी ने नहीं सोचा था।
अब इसका इलाज है कि रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करें ताकि लोगों और कंपनियों के हाथ में पैसे आने का चक्र फिर शुरू हो सकें, इसमें अड़चन है महंगाई की। रिज़र्व बैंक जल्दबाज़ी में ब्याज दरें काट दें तो महंगाई फैल सकती हैं। अगर नहीं काटेगी तो मंदी का ख़तरा बढ़ जाता है। रिज़र्व बैंक की बैठक चार और पाँच दिसंबर को होगी। अब देखना है कि ब्याज दरों में अभी कटौती होती है या फ़रवरी में।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
नाना पटोले ने भी ऐलान कर दिया कि कांग्रेस ईवीएम के खिलाफ पूरे महाराष्ट्र में सिग्नेचर कैंपेन चलाएगी। ओबीसी, गरीब तबके के लोग, छोटे समुदाय के लोग जो अपना वोट दे रहे हैं वो वोट फिजूल जा रहा है।
आलोक मेहता, पद्मश्री , वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हाल के चुनावों में भारी पराजय से परेशान कांग्रेस के नेताओं को पुराने चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी याद आ रही है। वैसे बैलों की गाड़ी से देश में फिर सत्ता में आने की तैयारी हो रही है। कांग्रेस ने ऐलान किया है कि बैलट पेपर से चुनाव कराने की मांग पर देशव्यापी अभियान चलाएगी। संविधान दिवस के मौके पर पार्टी के संविधान रक्षक सम्मेलन में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर सवाल उठाते हुए बैलेट पेपर से चुनाव की मांग उन्होंने कहा कि जितनी भी शक्ति लगाकर एससी-एसटी, ओबीसी, गरीब तबके के लोग, छोटे समुदाय के लोग जो अपना वोट दे रहे हैं वो वोट फिजूल जा रहा है।
हमने जैसे भारत जोड़ो यात्रा निकाली थी, वैसे ही बैलेट पेपर से चुनाव के लिए एक देशव्यापी अभियान चलाएंगे। खरगे ने कहा, अहमदाबाद में कई गोदाम हैं। ईवीएम को वहां रख देना चाहिए। जब बैलेट पेपर से चुनाव होगा तब भाजपा को अपनी हालत का पता चलेगा। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी वोटिंग मशीन के खिलाफ अभियान का निर्णय हुआ। खरगे ने कहा कि वे अन्य पार्टियों को भी इस मुहिम में शामिल करेंगे। पुराने कांग्रेसी शरद पवार ने भी अपनी पार्टी के हारे हुए उम्मीदवारों को वोटिंग मशीन के जरिए गड़बड़ी के सबूत इकट्ठा करने का निर्देश दे चुके हैं।
इसके बाद नाना पटोले ने भी ऐलान कर दिया कि कांग्रेस ईवीएम के खिलाफ पूरे महाराष्ट्र में सिग्नेचर कैंपेन चलाएगी। पटोले ने कहा कि महाराष्ट्र में लोगों का वोट चुराया गया इसलिए कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में ईवीएम की जगह बैलेट से वोट कराने की लड़ाई भी लडेगी। इससे तीन दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम की बजाय बैलट पेपर से चुनाव कराने की जनहित याचिका खारिज कर दी। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस पीबी वराले की बेंच ने याचिकाकर्ता से कहा, ईवीएम से पार्टियों को दिक्कत नहीं है, आपको क्यों है।
ऐसे आइडिया कहां से लाते हो? इस पर याचिकाकर्ता केए पॉल ने कहा- चंद्रबाबू नायडू और वाईएस जगन मोहन रेड्डी जैसे नेताओं ने भी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ पर सवाल उठाए हैं। बेंच ने कहा, 'चंद्रबाबू नायडू या जगन मोहन रेड्डी जब चुनाव हारते हैं तो कहते हैं कि वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ होती है और जब वे जीतते हैं तो वे कुछ नहीं कहते हैं। हम इसे कैसे देख सकते हैं। हम इसे खारिज कर रहे हैं। ये वो जगह नहीं है जहां आप इस सब पर बहस करें। ' इससे पहले भी उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट ने वोटिंग मशीन को लेकर आई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान अनेक टेक्नोलॉजी विशेषज्ञों तथा सभी पक्षों को सुनने के बाद वोटिंग मशीन के उपयोग को श्रेष्ठ माना था।
इसलिए अब कांग्रेस और उनके समर्थक दलों , संगठनों , स्वयंसेवी संगठनों अथवा कुछ पूर्वाग्रही मीडिया चुनाव विश्लेषकों द्वारा ईवीएम और चुनाव आयोग पर पक्षपात की रुदाली शुरु करने पर यह सवाल उठने लगता है कि कांग्रेस के नेता क्या पहले की तरह अपने वफादार या समर्थक चुनाव आयुक्त होने पर ही चुनाव नतीजों पर भरोसा कर सकते हैं ? इसमें कोई शक नहीं कि टी एन सेशन , नवीन चावला , एम एस गिल , जे एम लिंगदोह , एस वाई कुरैशी बहुत काबिल और ईमानदार अधिकारी एवं कुशल चुनाव आयुक्त रहे थे।
हाँ यह भी तथ्य है कि टी एन सेशन सरकारी पद से हटने के बाद राष्ट्रपति पद और फिर कांग्रेस के उम्मीदवार के रुप में लोक सभा का चुनाव लड़े , लेकिन दोनों चुनावों में पराजित हुए। नवीन चावला प्रशासनिक सेवा के प्रारम्भिक दौर में एस डी एम के रुप में संजय मेनका गाँधी के विवाह की क़ानूनी प्रक्रिया में शामिल होने के कारण इंदिरा गाँधी , संजय , फिर राजीव सोनिया गाँधी के साथ पारिवारिक संबंधों के लिए चर्चित रहे। एम एस गिल चुनाव आयुक्त रहने के बाद कांग्रेस पार्टी से राज्य सभा के सदस्य और मनमोहन सिंह सरकार के ख़ास मंत्री रहे। लिंगदोह पर भी कांग्रेस के साथ संबंधों के आरोप लगे। एस वाई कुरेशी कांग्रेस पार्टी से नहीं जुड़े लेकिन कांग्रेस राज में चुनाव आयुक्त रहे और वैचारिक दृष्टि से अलप संख्यकों के मुद्दों पर उनके विचार और लेखन भाजपा से भिन्न कहे जा सकते हैं।
इस पृस्ठभूमि के बावजूद सबसे दिलचस्प बात यह है कि पहले से अब महाराष्ट्र चुनाव के बाद भी नवीन चावला , एस वाई कुरेशी और ओ पी रावत जैसे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त सार्वजनिक रुप से बता रहे हैं कि विश्व में भारत की वर्तमान ईवीएम मतदान व्वयवस्था बिल्कुल सर्वश्रेष्ठ है। इसमें किसी तरह की गड़बड़ी नहीं हो सकती है। एक अरब चालीस करोड़ के देश में साठ सत्तर प्रतिशत मतदान गौरवशाली है। महानगरों से सुदूर ग्रामीण और दुर्गम इलाकों में लाखों मतदान केंद्र और सत्तर लाख से अधिक कर्मचारी लगते हैं। यही नहीं हर मतदान केंद्र पर पार्टियों और उम्मीदवारों के प्रतिनधियों के सामने और नियमानुसार निर्धारित फॉर्म पर निष्पक्षता के हस्ताक्षर के साथ मशीनें सील होती हैं।
फिर यह भ्रम भी गलत है कि पांच बजे की समय सीमा होने पर भी मतदान का आंकड़ा क्यों बढ़ जाता है? असली कारण यह है कि मतदान केंद्र में पांच बजे तक प्रवेश कर चुके पंक्तिबद्ध अंतिम मतदाता देर तक वोट डालते हैं। वहीं त्रिपुरा या अन्य आदिवासी क्षेत्रों में समुचित संचार व्यवस्था नेटवर्क नहीं होने से कुछ केन्दों के मतदान के आंकड़े देर से आते हैं। सभी चुनाव आयुक्त और विशेषज्ञ केवल प्रमाणिकता के लिए कुछ प्रतिशत वीवीपैट के प्रबंध को उचित मानते हैं। उनका तर्क है कि सौ प्रतिशत वीवीपैट होने पर तो फिर पर्चे से मतदान मतगणना जैसी स्थिति होगी और परिणाम कई हफ़्तों में आएँगे। चुनाव में धन के प्रलोभन के मुद्दे पर अदालत ने भी कहा कि वोटिंग मशीन के बजाय कागजी मतपत्र और पेटी होने पर भी प्रलोभन दिया जाता था या दिया जा सकता है।
महाराष्ट्र के चुनाव को लेकर कांग्रेस की दलील ये है कि लोकसभा चुनाव में उनके गठबंधन ने 48 में से 30 सीटें जीतीं थीं। पांच महीने बाद विधानसभा में 288 में से सिर्फ 48 सीटें कैसे आ सकती हैं? कांग्रेस के नेता भूल गए कि दिल्ली में जून 2019 में लोकसभा की 7 की 7 सीटें बीजेपी ने जीती थी। 8 महीने बाद विधानसभा चुनाव हुए। बीजेपी को 70 में से सिर्फ 8 सीटें मिलीं। इससे थोड़ा पहले चले जाएं। दिल्ली में 2014 में बीजेपी ने लोकसभा की सातों सीटें जबरदस्त मार्जिन से जीती थीं लेकिन कुछ महीने बाद जब चुनाव हुए तो केजरीवाल ने ऐतिहासिक जीत हासिल की, 70 में से 67 सीटें हासिल कीं। तो मतदाता कुछ महीनों में अपना मन कैसे बदल लेता है?
इसका जवाब यह है कि लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी 240 पर अटकी तो कांग्रेस के लिए वोटिंग मशीन अति उत्तम थी, ना बैटरी पर सवाल उठाया, ना वी वी पेट पर मिलवाया। अगर उस समय बीजेपी 300 सीटें पार कर जाती तो कांग्रेस जरूर कहती कि वोटिंग मशीन में गड़बड़ की गई। राहुल गांधी अबतक बैलेट यात्रा निकाल चुके होते। हरियाणा में हार के बाद कांग्रेस ने वोटिंग मशीन पर सवाल उठाए। मशीनों की 99 परसेंट बैटरी का जिक्र किया। चुनाव आयोग ने 1500 पेज का जवाब भेजा। जब वीवीपैट के मिलान पर सवाल पूछा गया तो चुनाव आयोग ने बताया कि 4 करोड़ वोटों का वीवीपैट से मिलान किया गया और एक भी गलती नहीं निकली।
एक और दिलचस्प बात ये है कि जब पहली बार की शिकायतें आईं तो चुनाव आयोग ने एक कार्यक्रम आयोजित किया। कहा, जिसको भी शिकायत है आए वो वोट हैक करके दिखाए लेकिन कोई नहीं आया। दूसरी तरफ कांग्रेस के ही नेता जी. परमेश्वर स्वीकारते हैं कि महाराष्ट्र में कांग्रेस और महा विकास अघाड़ी (एमवीए) ने बहुत खराब प्रदर्शन किया है। यह हर कोई जानता है। हमने और महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने कल एक साथ बैठकर विश्लेषण किया। उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी गठबंधन सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) और शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) जैसी योजना बनाई गई थी, वैसा चुनावी अभियान चलाने में विफल रहीं।
परमेश्वर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के पर्यवेक्षक थे। उन्होंने कहा, लडकी बहिन योजना उनके लिए काफी प्रभावशाली रही। पिछले छह महीनों तक उन्होंने इसे प्रचारित किया,ये सब उनके हाथ में था। आखिरकार हमने टिकटों का एलान कर दिया और पार्टी में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई। शरद पवार और उद्धव ठाकरे के गुट आपस में अच्छी तरह से गठबंधन नहीं बना पाए, उन्होंने जैसी योजना बनाई गई थी, वैसा प्रचार नहीं किया। खासकर विदर्भ में हमें कम सीटें मिलीं।
उन्होंने आगे कहा, हमें विदर्भ से कम से कम 50 सीटें मिलने की उम्मीद थी। लेकिन चुनाव परिणाम इसके विपरीत आए। परमेश्वर ने कहा, महाराष्ट्र में कांग्रेस और महा विकास अघाड़ी (एमवीए) ने बहुत खराब प्रदर्शन किया है। यह हर कोई जानता है। हमने और महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने कल एक साथ बैठकर विश्लेषण किया। पूर्व मुख्यमंत्री (राजस्थान) अशोक गहलोत और भूपेश बघेल (छत्तीसगढ़) और हम एक साथ बैठे। महा विकास अघाडी (एमवीए) के घटक दल के रूप में कांग्रेस ने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा था। लेकिन उसे सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा और उसे सिर्फ 16 सीटों पर जीत मिली। यह कांग्रेस का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है।
ईवीएम की शुरुआत से पहले, पेपर बैलेट का इस्तेमाल किया जाता था। हालाँकि, चुनावी परिदृश्य में कई तरह की गड़बड़ियाँ थीं, जैसे वोट में हेराफेरी, जाली वोटिंग, बाहुबल के ज़रिए बूथ कैप्चरिंग और पेपर बैलेट को संभालने की समय लेने वाली प्रक्रिया। हज़ारों अवैध वोट भी थे। इसके अलावा, चुनावों के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले कागज़ की मात्रा ने पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव और संसाधनों की बर्बादी के बारे में चिंताएँ पैदा कीं। इन चुनौतियों के जवाब में, भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने नागरिकों के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए अधिक कुशल और सुरक्षित तरीका खोजा। ईवीएम के विकास का काम बीईएल (भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड) और ईसीआईएल (इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) को सौंपा गया था।
ईवीएम का पहला प्रयोग 1982 में केरल के उत्तरी पारूर विधानसभा क्षेत्र के लिए उपचुनाव के दौरान हुआ था, जिसके बाद दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनिंदा निर्वाचन क्षेत्रों में इसका सफल परीक्षण किया गया। इन प्रयोगों के सकारात्मक परिणामों ने ई.वी.एम. को व्यापक रूप से अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया। 1998 से, सभी राज्य चुनाव ई.वी.एम. द्वारा आयोजित किए गए। 2004 में लोकसभा चुनावों के लिए विशेष रूप से ई.वी.एम. का उपयोग करने का निर्णायक निर्णय एक परिवर्तनकारी बदलाव था, जिसने पारंपरिक पेपर बैलेट प्रणाली को अलविदा कह दिया।
ईवीएम के लिए लागू किए गए सुरक्षा उपाय एक व्यापक चार-स्तरीय ढांचे पर काम करते हैं। सुरक्षा के इन स्तरों को पहचानना और समझना महत्वपूर्ण है। ईवीएम का निर्माण विशेष रूप से दो प्रमुख केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बीईएल और ईसीआईएल द्वारा किया जाता है, जो उच्च सुरक्षा वाले रक्षा उपकरण बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। उपयोग किए जाने वाले सॉफ़्टवेयर को एक सावधानीपूर्वक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिसे एक बार प्रोग्राम करने योग्य/मास्क किए गए चिप पर जला दिया जाता है, जिससे इसे बदलने या छेड़छाड़ करने की अनुमति नहीं मिलती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये मशीनें पूरी तरह से गैर-नेटवर्क रहती हैं, जिससे हैकिंग को रोकने के लिए अन्य मशीनों या प्रणालियों के साथ किसी भी वायर्ड या वायरलेस कनेक्शन को समाप्त कर दिया जाता है।
ईवीएम के परिवहन के दौरान सुरक्षित भंडारण कक्ष से लेकर मतदान केंद्रों तक हर चरण में पूर्णतया सुरक्षात्मक उपाय किए जाते हैं। इसमें तीन स्तर की जांच और मतदान के दिन एक सहित तीन मॉक पोल शामिल हैं, जो सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की सतर्क निगरानी में किए जाते हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए पूरी प्रक्रिया का वीडियो रिकॉर्डिंग के माध्यम से दस्तावेजीकरण किया जाता है। जिन कमरों में ईवीएम संग्रहीत की जाती हैं, उन्हें पूरे साल अर्धसैनिक बलों द्वारा सील और संरक्षित किया जाता है। राजनीतिक दलों को आमंत्रित किए बिना कोई भी कमरा नहीं खोला जा सकता
पांच विभिन्न भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के पांच प्रोफेसरों वाली एक स्वायत्त तकनीकी सलाहकार समिति, संपूर्ण ईवीएम प्रक्रिया की निगरानी की भूमिका निभाती है। ईसीआई-ईवीएम की कार्यप्रणाली को सर्वोच्च न्यायालय सहित कई न्यायालयों में चुनौती दी गई है, जो तकनीशियनों और कंप्यूटर विशेषज्ञों की जांच के बाद ईवीएम के साथ छेड़छाड़ न किए जाने के संबंध में संतुष्ट थे। सर्वोच्च न्यायिक जांच सर्वोच्च न्यायालय (सुब्रमण्यम स्वामी बनाम ईसीआई, 2013) द्वारा की गई थी। यह तर्क दिया गया था कि ईवीएम को पूरी तरह से छेड़छाड़-रहित बनाने और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए, वीवीपीएटी (वोटर वेरिफ़िएबल पेपर ऑडिट ट्रेल) आवश्यक है।
चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि, अक्टूबर 2010 में एक सर्वदलीय बैठक के बाद ईवीएम को पेश करने का सुझाव दिया गया था, यह पहले से ही इस अवधारणा पर काम कर रहा था, और इसकी तकनीकी सलाहकार समिति ने 26 मई, 2011 को इसके लिए डिज़ाइन को पहले ही मंजूरी दे दी थी, और पांच जलवायु क्षेत्रों में एक फील्ड टेस्ट आयोजित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने ईसीआई की "व्यावहारिकता और उचित दृष्टिकोण" की सराहना की और टिप्पणी की: "... हम इस प्रणाली को शुरू करने में ईसीआई द्वारा किए गए प्रयासों और अच्छे इशारे की सराहना करते हैं"।
इस निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कि पेपर ट्रेल "स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की एक अपरिहार्य आवश्यकता है", न्यायालय ने भारत सरकार को वीवीपीएटी मशीनों की खरीद के लिए अपेक्षित धनराशि उपलब्ध कराने का "निर्देश" दिया। न्यायालय ने ईसीआई को चरणबद्ध तरीके से मशीनें शुरू करने की अनुमति दी, जो किया गया। तब से, पूरे देश में ईवीएम का इस्तेमाल किया जा रहा है। सुरक्षित कागज़ रिकॉर्ड रखना महत्वपूर्ण है। "मतदाता सत्यापन" को प्रिंटर पर एक छोटी स्क्रीन के रूप में पेश किया गया था ताकि मतदाता अपनी आँखों से देख सके कि वोट वास्तव में उसके द्वारा चुने गए उम्मीदवार को जा रहा है। "
पेपर ऑडिट ट्रेल वह पर्ची है जिसे प्रिंट करके सीलबंद बॉक्स में डाला जाता है और जिसे जरूरत पड़ने पर गिना जा सकता है। वर्तमान में, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में पांच मशीनों से पर्चियों की गिनती की जाती है | इसके बाद अनावश्यक विवाद से जनता को भ्रमित करना एक तरह से अपराध ही कहा जा सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
किसी भी ब्रैंड का लोगो (LOGO) सिर्फ एक ग्राफिक डिजाइन नहीं है होता है, बल्कि यह उस ब्रैंड की आत्मा होता है, जो उसके मूल्यों, विजन और सार को समेटे हुए होता है।
शांतोमय रे(Shantomoy Ray)।।
किसी भी ब्रैंड का लोगो (LOGO) सिर्फ एक ग्राफिक डिजाइन नहीं है होता है, बल्कि यह उस ब्रैंड की आत्मा होता है, जो उसके मूल्यों, विजन और सार को समेटे हुए होता है। यह कंज्यूमर्स के साथ पहचान और विश्वास को जन्म देता है और तुरंत एक कनेक्शन बनाता है। जब कोई ब्रैंड अपने लोगो को बदलने का फैसला करता है, खासकर अचानक, तो यह स्वाभाविक रूप से सवाल उठाता है और ध्यान खींचता है। क्या यह बदलाव एक साहसिक रणनीतिक कदम है या जल्दबाजी में उठाया गया जोखिम? अक्सर इस उल्लेखनीय परिवर्तन के पीछे क्या सोच और तर्क होते हैं, इस पर मैंने यहां अपने विचार रखे हैं।
एक ऐसी दुनिया में, जहां बदलाव निरंतर होता रहता है, प्रासंगिक बने रहना अनिवार्य है। डिजाइन के ट्रेंड तेजी से बदलते हैं। जो कल आधुनिक और आकर्षक दिखता था, वह जल्दी ही पुराना लगने लगता है। लोगो किसी भी ब्रैड का अपने दर्शकों के साथ जुड़ाव है। यह आधुनिकता के साथ तालमेल बनाए रखने की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। इसे अपडेट करना यह दिखाता है कि ब्रैंड समय की नब्ज को समझता है और उन कंज्यूमर्स को आकर्षित करता है, जो नवीनता, ताजगी और भविष्य की सोच को महत्व देते हैं।
कई ब्रैंड्स के लिए विकास के साथ बदलाव भी आता है। जब बिजनेस अपने प्रॉडक्ट्स में विविधता लाते हैं, फोकस बदलते हैं या नए कंज्यूमर्स तक पहुंचते हैं, तो उनकी पुरानी विजुअल पहचान अक्सर उनके उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाती। लोगो का पुनः डिज़ाइन इन बदलावों को प्रतिबिंबित करने और कंज्यूमर्स के दिमाग में ब्रैंड को पुनः स्थापित करने का एक अवसर बन जाता है। यह पुराने और अप्रासंगिक धारणाओं को दूर करने में मदद करता है और एक नए उद्देश्य और दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। यह स्पष्ट करता है कि ब्रैंड विकसित हो रहा है और नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है।
ग्लोबलाइजेशन के चलते भी अक्सर लोगो परिवर्तन की आवश्यकता होती है। जब कंपनियां विभिन्न बाजारों में विस्तार करती हैं तो नई सांस्कृतिक विचारधाराओं को ध्यान में रखना पड़ता है, जहां प्रतीक, रंग, और शैलियां अलग-अलग तरीके से प्रभाव डाल सकती हैं। एक लोगो को सार्वभौमिक रूप से आकर्षक बनाने के लिए उसी के अनुसार तैयार करना सांस्कृतिक बाधाओं को तोड़ सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह व्यापक दर्शकों तक पहुंचे। एक अच्छी तरह से डिज़ाइन किया गया और सरल लोगो वैश्विक पहचान और विश्वास को बढ़ावा देने के लिए एक प्रभावी टूल बन जाता है। यह बदलाव न केवल ब्रैंड की पहचान को सार्वभौमिक बना सकता है, बल्कि इसे विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों में भी सफलता से अपनाया जा सकता है
लोगो को री-डिजाइन करना कभी-कभी नवीकरण के शक्तिशाली प्रतीक के रूप में कार्य करता है। तमाम जरूरतों पर नया लोगो एक ताजगी का संकेत हो सकता है। यह आंतरिक बदलाव का बाहरी अभिव्यक्तिकरण होता है। यह विकास, सीखने और आगे बढ़ने की प्रतिबद्धता को व्यक्त करने का एक तरीका है। कंज्यूमर्स इन बदलावों को पिछले गलत कदमों को स्वीकार करने और विश्वास को फिर से स्थापित करने के एक निमंत्रण के रूप में समझते हैं।
यह लोगो परिवर्तन न केवल ब्रैंड के समृद्ध और नए रूप को दर्शाता है, बल्कि यह नकारात्मक छवि से उबरने के लिए भी एक रणनीतिक कदम होता है, जिससे कंज्यूमर्स को पुनः जोड़ने का मौका मिलता है।
कॉर्पोरेट की दुनिया में विलय (mergers) और अधिग्रहण (acquisitions) अक्सर लोगो में परिवर्तनों का कारण बनते हैं। दो संगठनों की पहचान को एक साझा और समेकित प्रतीक में एकत्र करना एक रचनात्मक और रणनीतिक चुनौती होती है। एक अच्छी तरह से डिजाइन किया गया लोगो दोनों संस्थाओं की धरोहर का सम्मान करते हुए, उनके साझा भविष्य के दृष्टिकोण को व्यक्त कर सकता है। यह साझेदारी की ताकत और संभावनाओं का एक विजुअल प्रमाण बन जाता है। ऐसा लोगो केवल एक पहचान के रूप में कार्य नहीं करता, बल्कि यह इस बात का प्रतीक भी है कि दो विभिन्न संगठन अब एक मजबूत और साझा भविष्य की दिशा में एक साथ कदम बढ़ा रहे हैं।
जिन उद्योगों में इनोवशन सफलता का प्रतीक है, जैसे कि टेक्नोलॉजी, एंटरटेनमेंट, या ऑटोमोटिव, वहां ठहराव कोई विकल्प नहीं होता। इन क्षेत्रों में लोगो के पुनः डिज़ाइन से प्रगति और साहसिक महत्वाकांक्षा का संकेत मिलता है। एक नया लोगो कंज्यूमर्स को ब्रैंड को एक अग्रणी के रूप में देखने का निमंत्रण देता है, जो आत्मविश्वास और रचनात्मकता के साथ भविष्य की दिशा में अग्रसर है।
कभी-कभी, अचानक लोगो में बदलाव करना एक रणनीति हो सकती है जो बाज़ार में ध्यान आकर्षित करने के लिए होती है। सूचना के अत्यधिक प्रवाह के इस युग में, छोटे बदलाव भी चर्चा और जिज्ञासा को जन्म दे सकते हैं। यह नवीनीकरण ब्रैंड में फिर से रुचि को जगा सकता है। यदि यह सही तरीके से किया जाए, तो यह दृष्टिकोण न केवल जागरूकता बल्कि ब्रैंड के विकास के चारों ओर उत्साह भी पैदा करता है।
हालांकि ये परिवर्तन कंज्यूमर्स को अचानक लग सकते हैं, लेकिन ये शायद ही कभी अनियोजित होते हैं। सामान्यत: इस निर्णय के पीछे स्ट्रैटेजिक सोच होती है, भले ही इसका क्रियान्वयन त्वरित लगे। कंज्यूमर्स के व्यवहार में बदलाव, तकनीकी उन्नति या प्रतिस्पर्धी दबाव अक्सर एक नई दृश्य पहचान की आवश्यकता को उत्पन्न करते हैं। तेजी से अनुकूलन यह सुनिश्चित करता है कि ब्रैंड प्रासंगिक और भविष्य की सोच के साथ बना रहे।
डिजिटल युग ने लोगो के डिजाइन में भी क्रांति ला दी है। आजकल के लोगो को वेबसाइट, सोशल मीडिया, मोबाइल ऐप्स और आइकन्स जैसी विभिन्न जगहों पर बिना किसी रुकावट के कार्य करना चाहिए। इस बदलाव के कारण साफ, बहुउद्देशीय डिज़ाइन की आवश्यकता होती है, जो अलग-अलग आकार या प्लेटफॉर्म के बावजूद अपनी प्रभावशीलता बनाए रखें। इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए लोगो का पुनः डिजाइन करना केवल व्यावहारिक ही नहीं, बल्कि आवश्यक है।
सभी लोगो परिवर्तनों में सफलता नहीं मिलती और इसके जोखिम भी होते हैं। सोशल मीडिया के युग में हर री-डिजाइन की तुरंत और अक्सर गहरी समीक्षा हो जाती है। कुछ बदलाव तो धरोहर और नवाचार के बीच सही संतुलन बनाते हैं। वहीं, कुछ बदलाव जुड़ाव बनाने में असफल रहते हैं, जो केवल अस्थायी ट्रेंड्स का शिकार हो जाते हैं या अपना उद्देश्य प्रभावी ढंग से व्यक्त करने में नाकाम रहते हैं।
किसी भी ब्रैंड के लोगो में बदलाव की सफलता विचारपूर्ण योजना और क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। उन्हें ब्रैंड की मूल पहचान को दर्शाते हुए, भविष्य की आकांक्षाओं की झलक भी प्रदान करनी चाहिए। शोध, परीक्षण, और कंज्यूमर्स की समझ री-डिजाइन प्रक्रिया को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
लोगो में अच्छे तरीके से किया गया बदलाव केवल ट्रेंड्स के साथ तालमेल बैठाने के बारे में नहीं होता, यह एक ऐसा डिज़ाइन बनाने के बारे में होता है जो समय की सीमाओं से परे हो। एक लोगो को ब्रैंड के बढ़ने और विकसित होने के साथ ऑडियंस के साथ जुड़े रहना चाहिए, ताकि यह विश्वास और जुड़ाव का एक शक्तिशाली प्रतीक बना रहे।
लोगो बदलना एक साहसिक कदम होता है, लेकिन यह कभी भी सतही नहीं होता। यह वृद्धि, अनुकूलनशीलता और महत्वाकांक्षा का प्रतीक होता है—वे गुण जो एक ऐसी दुनिया में जरूरी हैं, जो कभी नहीं रुकती। चाहे यह आधुनिकता लाने, विस्तार करने, पुनर्प्राप्त करने या नवाचार करने के लिए हो। नया लोगो एक ब्रैंड की कहानी को फिर से परिभाषित कर सकता है और उसे दीर्घकालिक सफलता के लिए तैयार कर सकता है। जब इसे सही तरीके से किया जाता है, तो कहा जा सकता है, ‘हम केवल समय के साथ नहीं चल रहे हैं. हम भविष्य को आकार दे रहे हैं।’
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक ‘K-Factor Communications’ के फाउंडर और डायरेक्टर हैं)
फिर चौथे दिन जब खेल शुरू हुआ तो बुमराह ने साथी बॉलर्स को उस एंड से बॉल करने दी जहां से पिच पर बॉल ज़्यादा नीची रह रही थी, ताकि उन्हें इसका फायदा मिले।
नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।
पर्थ टेस्ट में टॉस जीतकर बुमराह ने जब बैटिंग ली तो ज़्यादातर एक्सपर्ट्स इस फैसले पर सवाल उठा रहे थे। पहले बैटिंग करते हुए टीम जब 150 पर ऑल आउट हो गई तो इन्हीं एक्सपर्ट्स ने अपनी तलवार को धार देने शुरू कर दिया। सवाल उठाया जा रहा था कि जिस पिच पर इतनी घास थी, जहां तेज़ गेंदबाजों को इतनी मदद मिलती है, उस पिच पर बुमराह ने टॉस जीतकर पहले बैटिंग क्यों चुनी? मगर बुमराह को पता था कि इस पिच पर चौथी इनिंग में बैटिंग करना सबसे मुश्किल होता है।
यहां खेले गए 4 टेस्ट में सिर्फ एक बार चौथी इनिंग में 200 से ज़्यादा रन बने थे। इसलिए तेज गेंदबाज़ होने के बावजूद बुमराह पिच पर हरी घास देखकर ललचाए नहीं। अपने बल्लेबाज़ों को चौथी इनिंग में चेज़ करने के झंझट में नहीं डाला और बोल्ड डिसीजन लेते हुए पहले बैटिंग चुनी। टीम इंडिया चाहती तो टेस्ट के चौथे दिन फर्स्ट सेशन तक खेलकर 650 रन का टारगेट भी दे सकती थी मगर बुमराह जानते थे कि इन हालात में ऑस्ट्रेलिया के लिए तीसरे दिन के अंत में आखिरी आधा घंटा खेलना बहुत मुश्किल होगा।
दिन ढल रहा होगा। बड़े Optus stadium की छाया पिच पर पड़ रही होगी। बैट्समैन सर्वाइव करने के मूड में होंगे और यही बेस्ट चांस होगा एक आध विकेट लेने का। इसलिए नीतीश रेड्डी के साथ ही बुमराह ने कोहली को भी ये संदेश भेजा कि आज ही डिक्लेयर करना है। आधा घंटा और है जो करना है अभी कर लो।
कोहली का शतक होते ही बुमराह ने इनिंग डिक्लेयर कर दी। टीम इंडिया को बॉलिंग करने के लिए 5 ओवर मिले और इस पांच ओवर में 3 इंडिया ने तीन विकेट ले लिए। इन तीन विकेटों के साथ ही ऑस्ट्रेलिया की जीत की दस लाख में से एक की संभावना भी ख़त्म हो गई। अगले दिन एक घंटा और खेलकर सौ रन बना लेने का इतना फायदा नहीं होता जितना फायदा उन तीन विकेटों से हो गया।
फिर चौथे दिन जब खेल शुरू हुआ तो बुमराह ने साथी बॉलर्स को उस एंड से बॉल करने दी जहां से पिच पर बॉल ज़्यादा नीची रह रही थी, ताकि उन्हें इसका फायदा मिले। उन्होंने कप्तान होने के नाते अपने नहीं, अपने साथी बॉलर्स के बारे में सोचा, और सबसे खास बात ! टी टाइम के बाद जब टीम इंडिया मैदान में उतरी तो ऑस्ट्रेलिया के 8 विकेट गिर चुके थे। बुमराह मैच में आठ विकेट पहले चुके थे।
उनके पास मौका था कि वो टेल एंडर्स को आउट कर अपने दस विकेट पूरे कर लें मगर उन्होंने हर्षित राना और वॉशिंगटन सुंदर को बॉलिंग करने दी। राना को दूसरी इनिंग में तब तक एक भी विकेट नहीं मिला था, कप्तान शायद चाहते थे कि उसे एक विकेट मिल जाए तो उसका कॉन्फिडेंस बढ़़े और जिस सुंदर को अब तक ज़्यादा विकेट नहीं मिले थे और यही सोचकर उन्हें भी बॉलिंग करने दी।
बुमराह ने बॉलिंग कैसी की या वो कैसी बॉलिंग करते हैं इस पर तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है मगर बतौर कप्तान अपने पहले ही मैच में बुमराह ने जिस selfless तरीके से कप्तानी की, हर कदम पर खुद से आगे टीम को रखा, टीम जब डेढ़ सौ पर आउट हुई तो अकेले दम पर ऑस्ट्रेलिया को सौ पर समेट कर उसे मुश्किल से निकाला।
टॉस जीतकर बोल्ड डिसीज़न लिया, उसने हर किसी का दिल जीत लिया है। ऐसे दौर में जहां ऑफिसों से लेकर राजनीति तक, शो बिज की दुनिया से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह इतने असुरक्षित लोग भरे पड़े हैं, एक प्रतिभाशाली गेंदबाज़ की ज़िंदादिली, खुद को लेकर आश्वासन,उनकी विनम्रता ने दिल जीत लिया। मशहूर अमेरिका लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर मार्क मैनसन की बेस्ट सेलिंग किताब है-Leaders Eat Last...उस किताब में मैनसन ने एक आदर्श नेता के जिन गुणों का ज़िक्र किया है, चार दिन की कप्तानी में बुमराह में वो सारे गुण नज़र आए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )