ट्रंप ने दिवाली के दिन ट्वीट करके, बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की कड़ी निंदा की थी। ट्रंप ने लिखा था कि जो बाइडेन और कमला हैरिस ने दुनिया भर के हिंदुओं की अनदेखी की।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। कमला हैरिस को बड़े मार्जिन से हराया। अमेरिका में 132 साल बाद ऐसा हुआ है जब एक बार चुनाव हारने के बाद कोई पूर्व राष्ट्रपति दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीता हो। ये कारनामा करने वाले ट्रंप अमेरिकी इतिहास में दूसरे राष्ट्रपति हैं। बड़ी बात ये है कि स्विंग स्टेटस में भी ट्रंप को एकतरफा जीत मिली। नतीजे आने के बाद ट्रंप ने निर्वाचित उपराष्ट्रपति जे डी वेंस और परिवार के सदस्यों के साथ समर्थकों को संबोधित किया।
ट्रंप ने कहा, वो अगले चार साल तक बिना रुके, बिना थके अमेरिका की बेहतरी के लिए काम करेंगे। ट्रंप ने कहा कि आने वाले चार साल अमेरिका के लिए स्वर्णिम होंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले सोशल मीडिया पर ट्रम्प को बधाई दी और उसके बाद टेलीफोन पर ट्रंप को जीत की बधाई दी। सूत्रों के मुताबिक, फोन पर बातचीत के दौरान ट्रम्प ने भारत को “एक शानदार देश” और मोदी को “एक शानदार नेता” बताया, “जिन्हें दुनिया भर के लोग प्यार करते हैं।”
सवाल ये है कि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन से हमारे देश और हमारे पड़ोसी देशों पर क्या असर होगा ? क्या मोदी और ट्रंप की अंतरंग मित्रता दोनों देशों के संबंधों को और मजबूत करने में काम आएगी? ट्रंप व्यापारी हैं और एक ज़बरदस्त सौदेबाज़ हैं। क्या ट्रंप के आने से भारत के व्यापार पर असर पड़ेगा? ट्रंप अमेरिका में प्रवेश करने वालों के बारे में सख्त नीति बनाए जाने के हिमायती हैं। क्या इसका असर अमेरिका जाने वाले भारतीयों पर पड़ेगा?
ट्रंप की सत्ता में वापसी को अमेरिका के राजनीतिक इतिहास की सबसे ज़बरदस्त वापसी में रूप में देखा जा रहा है। 2020 में जो बाइडेन से चुनाव हारने के बाद ट्रंप ने एक के बाद एक कई मुश्किलों का सामना किया। समर्थकों ने, रिपब्लिकन पार्टी के बड़े नेताओं ने ट्रंप का साथ छोड़ दिया था, लेकिन ट्रंप ने हार नहीं मानी और वो एक बार फिर से अमेरिका के बिग बॉस बन गए। पिछले चार साल में ट्रंप ने तमाम राजनीतिक और अदालती चुनौतियों का सामना किया।
आखिर में सभी चुनौतियों को मात देकर उन्होंने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। इस जीत ने अमेरिका को एक मजबूत स्थिति में ला दिया है। अब वहां सरकार को लेकर कोई अनिश्चितता नहीं है।
ट्रंप की जीत का असर पूरी विश्व व्यवस्था पर दिखाई देगा। ट्रंप रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त कराने की कोशिश करेंगे। इसमें भारत की भूमिका अहम हो सकती है। नरेंद्र मोदी पिछले कुछ महीनों में तीन बार पुतिन से और दो बार जेलेंस्की से मिलकर शांति का रास्ता निकालने की कोशिश कर चुके हैं। ट्रंप की जीत का असर अरब जगत और इजरायल के रिश्तों पर भी पड़ेगा। भारत के संदर्भ में ट्रंप की जीत को दो तरीके से देखा जा सकता है।
एक तो ट्रंप और मोदी के रिश्ते के लिहाज से। जाहिर है कि कमला हैरिस के मुकाबले ट्रंप से मोदी के रिश्ते ज्यादा व्यक्तिगत हैं, पुराने हैं। दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। ट्रंप की कूटनीति का अंदाज व्यक्ति आधारित है। व्यक्तिगत रिश्तों पर वो जोर देते हैं और ट्रंप ये कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी उनके दोस्त हैं और एक मजबूत नेता हैं। इस सोच का फायदा भारत को मिलेगा।
दूसरा पैमाना है, भारत की कूटनीतिक जरूरतें। भारत को चीन हमेशा चुनौती देता रहा है। अब ट्रंप और मोदी की दोस्ती का असर यहां दिखाई देगा। कनाडा में जस्टिन ट्रूडो भारत के लिए नई मुसीबत बन गए हैं। वो खालिस्तानियों का समर्थन करते हैं। बायडेन प्रशासन कनाडा का समर्थन करता हुआ दिखाई दे रहा था। अब ये समीकरण भी बदलेंगे और इस मामले में भारत और ज्यादा मजबूत होगा।
इन सबसे ऊपर, ट्रंप का ये कहना कि मैं इंडिया का फैन हूं और हिंदुओं का फैन हूं। अगर मेरी जीत होती है, व्हाइट हाउस में हिंदुओं का एक सच्चा दोस्त होगा। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पिछले 200 साल में इस तरह की बात नहीं कही और इसका असर नजर आएगा। ट्रंप ने बयान दिया था, जिसमें कहा था, “मैं हिंदुओं का बहुत बड़ा फ़ैन हूं और मैं भारत का भी बहुत बड़ा फ़ैन हूं। मैं सीधे सीधे ये बात कहते हुए शुरुआत करना चाहता हूं कि अगर मैं राष्ट्रपति चुना जाता हूं तो व्हाइट हाउस में भारतीय समुदाय और हिंदुओं का एक सच्चा दोस्त होगा। मैं इसकी गारंटी देता हूं।”
ट्रंप ने इसी तरह का जज्बा हिंसा के शिकार बांग्लादेश के हिन्दुओं के लिए भी दिखाया था। इसीलिए इस बात में कोई शक नहीं है कि अमेरिका में ट्रंप की जीत का असर भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश पर भी असर होगा। कुछ-कुछ असर तो आज ही दिखने लगा। बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने ट्रंप को जीत की बधाई दी।
शेख हसीना इस वक्त दिल्ली में हैं। उन्होंने कहा कि वो ट्रंप के साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं। अवामी लीग की अध्यक्ष के नाते शेख हसीना के इस बयान के बड़े मतलब हैं। क्योंकि बांग्लादेश में इस वक़्त मुहम्मद यूनुस की अन्तरिम सरकार है। यूनुस क्लिंटन परिवार के करीबी हैं। बाइडेन प्रशासन की मदद से उन्होंने बांग्लादेश में तख्ता पलट करवाया, अन्तरिम सरकार के मुखिया बने। लेकिन, बांग्लादेश को लेकर ट्रंप का रुख़ बिल्कुल साफ़ है।
ट्रंप ने दिवाली के दिन ट्वीट करके, बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की कड़ी निंदा की थी। ट्रंप ने लिखा था कि जो बाइडेन और कमला हैरिस ने दुनिया भर के हिंदुओं की अनदेखी की, लेकिन वो ऐसा नहीं होने देंगे। ट्रंप ने वादा किया कि राष्ट्रपति बनने पर वो हिंदुओं की हिफ़ाज़त के लिए काम करेंगे, जबरन धर्म परिवर्तन रोकेंगे। इसीलिए, ट्रंप की जीत से बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के लिए ख़तरे की घंटी बज गई है। इसी पृष्ठभूमि में शेख हसीना के बयान को समझने की जरूरत है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
कोई विमान किसी देश के एयरस्पेस में कितनी देर तक रहता है, कितनी दूरी तय करता है, किस साइज का है, इसके आधार पर उस देश को ठीक- ठाक विदेशी मुद्रा हासिल होती है।
ब्रजेश कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार।
पहले से ही भीखमंगे की तरह जी रहे पाकिस्तान के लिए आने वाले दिन और खराब होने वाले हैं। दवाइयों से लेकर खाद्यान्न तक की कीमतें आसमान छूने वाली हैं, वही कमाई के गिने- चुने स्रोत भी सूखते जा रहे हैं। भारतीय विमानों के लिए अपना एयरस्पेस बंद करने वाले पाकिस्तान को अंदाजा नहीं था कि आगे क्या होगा। उसे लगा कि भारत की परेशानियां बढेंगी। लेकिन अब जिस तरह, एक के बाद एक, तमाम विदेशी एयरलाइंस पाकिस्तान के उपर से अपने विमान ले जाने से कतरा रही हैं, उससे पाकिस्तान को बड़ा धक्का लगने वाला है।
कोई विमान किसी देश के एयरस्पेस में कितनी देर तक रहता है, कितनी दूरी तय करता है, किस साइज का है, इसके आधार पर उस देश को ठीक- ठाक विदेशी मु्द्रा हासिल होती है। पाकिस्तान का अपना विदेशी मुद्रा भंडार दो महीने का भी इंपोर्ट लोड नहीं ले सकता, उसमें इस तरह की चोट बहुत भारी पड़ रही है।
यही नहीं, पाकिस्तान में नेता से लेकर फौज और पत्रकारों से लेकर आम आदमी को लग रहा था कि कहां भला नदियों का पानी रुकने वाला है, वर्षों लगेंगे, लेकिन बगलिहार बांध के जरिये जिस तरह से भारत ने पानी रोका है, पाकिस्तान में खलबली मचना स्वाभाविक है।
पाकिस्तानी खालाएं पहले ही रोती- तड़पती पाकिस्तान गई हैं, वर्षों तक भारत में मुफ्त का अनाज तोड़ने के बाद, पता है कि पाकिस्तान में तो आटे के भी लाले पड़े हुए हैं। ऐसे में हर पाकिस्तानी एक ही राग जप रहा है, न्यूक्लियर ताकत होने का। मजे की बात ये है कि भारत की नरेंद्र मोदी सरकार ने एक बार भी न्यूक्लियर हथियार से सज्ज होने की धमकी नहीं दी है, लेकिन डर के मारे अपना पाजामा गिला कर चुके पाकिस्तानी नेता और फौजी बार- बार राग न्यूक्लियर जप रहे हैं।
उन्हें नरेंद्र मोदी का अंदाजा नहीं है, तड़पा- तड़पा कर पाकिस्तान और उसके हुक्मरानों को मार देंगे मोदी, क्योंकि उन्हें पता है कि लातों के भूत बातों से मानते नहीं। यही वजह है कि दिसंबर 2015 में खुद पाकिस्तान जाकर वहां के हालात का जायजा लेने के बाद मोदी ने समझ लिया कि उस देश से बातचीत का कोई मतलब ही नहीं है, जहां पर सत्ता की चाबी प्रधानमंत्री के पास नहीं, बल्कि फौजी हुक्मरानों के पास हो, जिन्हें अपना अस्तित्व टिकाये रखने का एकमात्र बहाना कश्मीर का राग अलापना और भारत में आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देना है।
इसलिए मोदी सख्त हैं, पता है कि इस जहरीले सांप पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता, मौका लगते ही डसेगा, इसलिए इस बार पूरी तरह फन कुचलने की तैयारी है, रास्ता सिर्फ फौजी नहीं, आर्थिक, कूटनीतिक और राजनीतिक भी है। आतंकिस्तान को बर्बाद करने में कोई कोर- कसर नहीं रहेगी इस बार।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - एक्स ( पूर्व ट्विटर )
एक्सप्रेसवे पर फाइटर जेट्स को देखकर पाकिस्तान के हुक्मरान को दहशत तो हुई होगी। भारतीय वायु सेना के शक्ति प्रदर्शन ने जनरल आसिम मुनीर के दिल को दहलाया तो होगा।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
पाकिस्तान के खिलाफ एक्शन को लेकर पूरी दुनिया भारत का समर्थन कर रही है। अमेरिका ने साफ कह दिया है कि पहलगाम में जिस तरह से बेगुनाह लोगों को मारा गया, वो इंसानियत के खिलाफ है। इस जघन्य अपराध के खिलाफ भारत जो भी एक्शन लेगा, अमेरिका उसमें भारत का साथ देगा।
भारतीय वायु सेना के जेट विमानों ने यूपी के शाहजहांपुर में गंगा एक्सप्रेसवे पर शुक्रवार को takeoff और landing की। अरब सागर में भारतीय नौ सेना ने युद्धाभ्यास किया। एक्सप्रेसवे पर फाइटर जेट्स को देखकर पाकिस्तान के हुक्मरान को दहशत तो हुई होगी। भारतीय वायु सेना के शक्ति प्रदर्शन ने जनरल आसिम मुनीर के दिल को दहलाया तो होगा।
मोदी ने पिछले कई दिनों से पाकिस्तानी फौज की नींद उड़ाई हुई है। वो नहीं जानते कि मोदी की मिसाइल कब कहां कहर बरपाएगी। मोदी की खामोशी पाकिस्तान की फौज का खौफ बन गई है। पाकिस्तान के नेता confused हैं। किसी को समझ नहीं आ रहा है कि अब क्या करें, क्या कहें, जिससे भारत के कहर से बचा जा सके।
कोई एटम बम की धमकी दे रहा है, कोई पहलगाम जांच में सहयोग की पेशकश करके शान्ति का पैगाम भेज रहा है, कोई अपनी फौज को खामोश रहने को कह रहा है, कोई सिंधु नदी में पानी की जगह खून बहाने की धमकी दे रहा है। सब अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं।
पाकिस्तान के नेता भारत की फौज की ताकत और काबलियत भी जानते हैं। लेकिन इस वक्त पाकिस्तान की हुकूमत और वहां की फौज को सबसे ज्यादा खौफ है, नरेन्द्र मोदी की खामोशी का, क्योंकि वो जानते हैं, ये खामोशी आने वाले तूफान से पहले का सन्नाटा हो सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इस सम्मेलन के दौरान काफी बड़ी संख्या में लोग जुटे। इससे ये पता चलता है कि मनोरंजन जगत में लोगों की बहुत रुचि है। यहां गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े युवाओं को प्रोत्साहित किया गया।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारत कथावाचकों का देश रहा है, इस बात की लंबे समय से चर्चा होती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में मन की बात कार्यक्रम में इस बात को रेखांकित भी किया था। मनोरंजन के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर इस बात को कहा जाता रहा है। इस स्तंभ में भी इसकी चर्चा होती रही है। मुंबई के नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर में 1 से 4 मई तक विश्व दृश्य श्रव्य और मनोरंजन शिखर सम्मेलन- वेव्स का आयोजन हुआ।
इसके शुभारंभ के अवसर भी प्रधानमंत्री ने इस बात को दोहराया कि भारत कथावाचकों की भूमि रही है। उन्होंने कहा कि भारत न केवल एक अरब से अधिक आबादी का घर है, बल्कि एक अरब से अधिक कहानियों का भी घर है। देश के समृद्ध कलात्मक इतिहास का संदर्भ देते हुए उन्होंने याद दिलाया कि दो हज़ार साल पहले, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र ने भावनाओं और मानवीय अनुभवों को आकार देने में कला की शक्ति पर बल दिया था।
उन्होंने कहा कि सदियों पहले, कालिदास के अभिज्ञान-शाकुंतलम ने शास्त्रीय नाटक में एक नई दिशा प्रस्तुत की। प्रधानमंत्री ने भारत की गहरी सांस्कृतिक जड़ों को रेखांकित करते हुए कहा कि हर गली की एक कहानी है, हर पहाड़ का एक गीत है और हर नदी एक धुन गुनगुनाती है। उन्होंने कहा कि भारत के छह लाख गांवों में से प्रत्येक की अपनी लोक परंपराएं और अनूठी कहानी कहने की शैली है, जहां समुदाय लोकगीतों के माध्यम से अपने इतिहास को संरक्षित करते हैं।
उन्होंने भारतीय संगीत के आध्यात्मिक महत्व का भी उल्लेख करते हुए कहा कि चाहे वह भजन हो, ग़ज़ल हो, शास्त्रीय रचनाएं हों या समकालीन धुनें हों, हर धुन में एक कहानी होती है और हर लय में एक आत्मा होती है। इस शिखर सम्मेलन में चार दिनों तक कई सत्रों में देश विदेश के फिल्मों, ब्राडिंग, मार्केटिंग,गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े लोगों ने इन क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर उफलब्ध संभावनाओं पर चर्चा की। कई देशों के मंत्री भी इसमें शामिल हुए।
इस सम्मेलन के दौरान काफी बड़ी संख्या में लोग जुटे। इससे ये पता चलता है कि मनोरंजन जगत में लोगों की बहुत रुचि है। यहां गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े युवाओं को प्रोत्साहित किया गया। मंच पर पुरस्कृत होनेवाले कटेंट क्रिएटर्स की औसत उम्र 25 वर्ष के आसपास लग रही थी। लगभग सभी युवा थे जिन्होंने बेहतर कटेंट क्रिएट किया। भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो सिर्फ पारपंरिक तरीके से विकास के रास्ते पर चलकर इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए गैर पारंपरिक क्षेत्रों से देश की आर्थिकी को मजबूती प्रदान करनेवाले और आय बढ़ाने के रास्ते खोजने होंगे।
भारत में जिस तरह की कहानियों का भंडार है और उन कहानियों पर बेहतर कटेंट क्रिएट करने की प्रतिभा है उसका वैश्विक स्तर पर उपयोग करके देश की आय बढ़ाई जा सकती है। भारत में हर क्षेत्र में कितनी प्रतिभा है इसका आकलन सिलिकान वैली में कंप्यूटर साफ्टवेयर के क्षेत्र में कार्य कर रहे भारतीयों और उनकी उपल्बधियों को देखकर सहज ही किया जा सकता है। गेमिंग के बढ़ते हुए बाजार को ध्यान में रखते हुए उस दिशा में कार्य करना होगा। गेमिंग का वैश्विक बाजार बहुत बड़ा हो गया है।
बड़ी बड़ी कंपनियां इसमें हजारों करोड़ रुपए का निवेश कर रही हैं। इस शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली चर्चाओं में ये बात स्पष्ट रूप से निकलकर आई कि भारत को इस क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने की आवश्यकता है। सरकार ने इस दिशा में पहल की है। इसका स्वागत अभिनेता आमिर खान जैसे लोगों ने भी किया। आमिर खान ने माना कि पहली बार किसी सरकार ने मनोरंजन जगत के लोगों से संवाद करने की पहल की है।
उनके साथ बैठकर इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने की योजनों और संभावनों पर विचार किया है। वेव्स में दुनिया भर के क्रिएटर्स, स्टार्टअप्स, उद्योग प्रमुखों और नीति निर्माताओं को एक मंच पर लाकर मीडिया, मनोरंजन और डिजिटल नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना लक्ष्य है।
भारत की फिल्मों को साफ्ट पावर के तौर पर उपयोग करने की बात भी लंबे समय से होती रही है। मुझे याद आ रहा है 2012 का एक किस्सा। इस वर्ष जोहानिसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। मारीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्में और टेलीविजन पर चलनेवाले सीरियल्स का बड़ा योगदान है।
उन्होंने मंच से स्वीकार किया कि हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स के कारण ही उन्होंने हिंदी सीखी। अपने वक्तव्य में उन्होंने भारत में बनने वाले टीवी सीरियल्स के नाम भी लिए और कहा उनकी लोकप्रियता की वजह से विदेश में गैर हिंदी भाषी भी उसको देखते हैं। इसी तरह 2023 में फिजी के नांदी में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मंच पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और फिजी के राष्ट्रपति रातू विलियामे काटोनिवेरी बैठे थे।
दोनों के बीच बातचीत हो रही थी। राष्ट्रपति रातू हिंदी फिल्मों की चर्चा कर रहे थे। जयशंकर ने इनसे पूछा कि उनको सबसे अच्छी हिंदी फिल्म कौन से लगी तो राष्ट्रपति ने उनसे कहा कि शोले। इस फिल्म का कोई मुकाबला नहीं है।
वेव्स का आयोजन पहले दिल्ली में होना था लेकिन बाद में किसी कारणवश इसको मुंबई शिफ्ट किया गया। आयोजन की भव्यता और भागीदारी देखने के बाद लगा कि मुंबई ही सही जगह है। वेव्स के आयोजन के बाद अब गोवा में होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (ईफ्फी) के कई आयामों को लेकर संशय उत्पन्न हो गया है। ईफ्फी में फिल्म बाजार लगता है और वेव्स में भी इस प्रकार का ही एक आयोजन है।
ईफ्फी में 75 क्रिएटिव माइडंस का आयोजन होता है, वेव्स में भी क्रिएटिव अवार्ड दिए गए। ईफ्फी में फिल्मकारों को कई तरह के पुरस्कार दिए जाते हैं, वेव्स के लिए भी प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि अगले संस्करणों में पुरस्कार देने की योजना है। दोनों आयोजन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हैं। जब वेव्स के आयोजन को सरकार प्राथमिकता देगी तो ईफ्फी पर इसका असर पड़ सकता है। वैसे भी ईफ्फी को लेकर एक कंफ्यूजन लंबे समय से है कि वो फिल्म फेस्टिवल रहे या उसको अवार्ड का मंच बने।
ईफ्फी के आयोजन के दौरान ये ब्रम दिखता है। ईफ्फी को बेहतरीन फिल्म फेस्टिवल बनाने पर जोर देना चाहिए। वहां जिस तरह से प्रदर्शनियां और फूड कोर्ट आदि लगाए जाते हैं उससे बचना होगा। इसमें खर्च होनेवाले संसाधनों को फेस्टिवल में बेहतर फिल्मों को लाने और चर्चा सत्रों पर उपयोग किया जा सकता है। वेव्स के सफल आयोजन के बाद ईफ्फी को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुनर्विचार करना चाहिए।
वेव्स का आयोजन मनोरंजन जगत के लिए अच्छे दिन का संकेत तो है भविष्य में इनसे जुड़कर युवाओं को रोजगार की संभावनाएं तलाशने में मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री ने भी माना कि स्क्रीन का आकार छोटा हो सकता है, लेकिन दायरा अनंत होता जा रहा है, स्क्रीन छोटी हो रही है, लेकिन संदेश व्यापक होता जा रहा है। कहा जा सकता है कि यही समय है सही समय है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
शेयर बाज़ार FII के लौटने का इंतज़ार पिछले कुछ महीनों से कर रहा है। अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वो लौट सकते हैं। अप्रैल में उन्होंने 4000 करोड़ रुपये की ख़रीदारी की है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
2008 के अक्टूबर महीने में अमेरिकी आर्थिक संकट के चलते FII ( Foreign Institutional Investors) ने 16 हज़ार करोड़ रुपये के शेयर बेच दिए थे तो बाज़ार 25% नीचे चला गया था। इस साल जनवरी में FII ने 87 हज़ार करोड़ रुपये की बिकवाली की तो बाज़ार 2-3 % नीचे गया। इसका बड़ा कारण है आपकी SIP, हिसाब किताब करेंगे कि कैसे म्यूचुअल फंड जैसे DII ( Domestic Institutional Investors) FII से ज़्यादा शेयरों के मालिक बन गए हैं?
इकनॉमिक टाइम्स के मुताबिक़ National Stock Exchange ( NSE) पर लिस्ट शेयरों में से 17.6% DII के पास है जबकि FII के पास 17.2%. यह आँकड़े मार्च 2025 तक के है। म्यूचुअल फंड में SIP से आने वाले पैसे ने खेल पलट दिया है। 2010 में DII 11% थे जबकि FII 14%., इस साल अप्रैल तक FII 1.12 लाख करोड़ रुपये की बिकवाली कर चुके हैं फिर भी Nifty 2% ऊपर हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि हमें FII की ज़रूरत नहीं है। FII आने से शेयरों की माँग बढ़ती है और भाव ऊपर जाते है। पिछले साल अक्टूबर से FII की लगातार बिकवाली भी बाज़ार के नीचे जाने का कारण रहा है लेकिन यह सोचिए कि DII नहीं होते तो बाज़ार हाल कितना बुरा होता। शेयर बाज़ार FII के लौटने का इंतज़ार पिछले कुछ महीनों से कर रहा है।
अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वो लौट सकते हैं। अप्रैल में उन्होंने 4000 करोड़ रुपये की ख़रीदारी की है। अप्रैल के पहले 15 दिनों में तो उन्होंने बिकवाली की थी पर आख़िरी 15 दिनों में जमकर ख़रीदारी की है। उन्हें भी समझ में आ रहा है कि दुनिया जब ट्रेड वॉर में फँसी हुई है तब भारत की अर्थव्यवस्था स्थिर है। भारत की अर्थव्यवस्था वैसे भी घरेलू खपत से चलती है और अब शेयर बाज़ार में भी यही बात लागू हो रही है कि SIP से आने वाले पैसे ने बाज़ार को सँभाल कर रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
भारत में हजारों जातियां हैं, इनमें से हरेक जाति को परिभाषित करना कठिन है। पिछली 2011 की जनगणना में तो बताया जाता है कि लोगों ने 25 लाख से अधिक जातियां उप जातियां लिखवा दी।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
मोदी सरकार द्वारा जनगणना के निर्णय की घोषणा होते ही धुआंधार राजनीति शुरु हो गई। खासकर इस बार जनगणना के दौरान नागरिक की जाति का प्रश्न रहने से दलितों पिछड़ों अल्पसंख्यकों की संख्या के आंकड़े देश दुनिया के सामने आ जाएंगे। सत्ता ही नहीं प्रतिपक्ष भी जातिगत जनगणना के निर्णय का श्रेय लेने की होड़ में लगे हैं। सबको लगता है कि इससे आगामी चुनावों में उन्हें पिछड़ों का एकमात्र संरक्षक माने जाने का लाभ मिलेगा। यह भी तथ्य है कि पिछले 75 वर्षों के दौरान कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता जातीय राजनीति और जाति के आधार पर संविधान के प्रावधान से अधिक आरक्षण को अनुचित बताते रहे हैं और जनगणना के जातिगत आकलन को सामने नहीं रखा गया।
कांग्रेस में महात्मा गाँधी के आदर्शों के नाम पर इंदिरा और राजीव गाँधी जाति धर्म आदि के आधार पर भेदभाव को लेकर आवाज उठाते रहे। भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदर्शों के अनुरुप जाति धर्म के बजाय सबको हिन्दू और भारतीय माने जाने की दुहाई देती रही। इसलिए हमेशा यही कहा गया कि जातिगत जनगणना से देश का सामाजिक ढांचा प्रभावित होगा। लोगों के बीच वैमनस्यता का भाव बढ़ सकता है। जाति व्यवस्था और अधिक मजबूत होगी। भारत में हजारों जातियां हैं, इनमें से हरेक जाति को परिभाषित करना कठिन है। पिछली 2011 की जनगणना में तो बताया जाता है कि लोगों ने 25 लाख से अधिक जातियां उप जातियां लिखवा दी।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि देश के भविष्य 2047 के विकसित भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के लक्ष्य की पूर्ति के लिए जनगणना से समाज में शिक्षा , स्वास्थ्य और रोजगार की सही स्थिति और उसके आधार पर योजना कार्यक्रम बजट के आकलन के लाभ की चर्चा सत्तारुढ़ गठबंधन के नेता भी नहीं कर रहे हैं। जबकि शिक्षा स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दिए बिना सम्पूर्ण समाज को कोई लाभ नहीं मिल सकता है। शिक्षित और स्वास्थ्य रक्षा के बिना तो रोजगार ही नहीं खेतीबाड़ी और मजदूरी भी ठीक से नहीं हो सकती है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े पैमाने पर विचार विमर्श के बाद नई शिक्षा नीति 2020 और आयुष्मान भारत जैसी क्रन्तिकारी नीति योजनाएं लागू कर दी। इसलिए ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन और दूरगामी लाभ के लिए बहुत काम करने और वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था करनी है। इस तरह के महत्वपूर्ण कार्य के लिए राज्य सरकारों, विधान सभाओं , स्थानीय निगमों , पंचायतों की भूमिका और सहयोग की आवश्यकता होगी। दलगत स्वार्थों के लिए राष्ट्रीय नीतियों कार्यक्रमों का विरोध विकास में बाधक रहेगा।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के मुताबिक 2011 में जब भारत में पिछली जनगणना हुई थी तब हमारी अर्थव्यवस्था का आकार 1.8 लाख करोड़ डॉलर था। यह संभव है कि जिस समय तक अगली जनगणना पूरी होगी या उसके परिणाम आने शुरू होंगे तब तक भारत पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुका होगा। आज़ादी के बाद यह पहला मौका होगा जब जनगणना के दौरान जाति के आंकड़े संग्रहीत किए जाएंगे। हालांकि अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े दर्ज किए जाते हैं लेकिन व्यापक स्तर पर जातिगत आंकड़े इससे पहले 1931 की जनगणना में एकत्रित किए गए थे। वास्तव में 2024 के लोक सभा चुनावों में जाति जनगणना कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के सबसे प्रमुख चुनावी वादों में से एक था।
अब जनगणना से संविधान के मुताबिक संसदीय सीटों के नए परिसीमन का आधार बनेगा। ऐसे में इसके परिणाम देश में सामाजिक विभाजन को बढ़ाने वाले साबित हो सकते हैं और उनका बहुत सर्तकता के साथ प्रबंधन करना होगा। दक्षिण भारत के राज्यों ने भी यह चिंता जताई है कि उत्तर भारत के राज्यों की आबादी की संख्या अधिक होने पर लोक सभा में उनकी हिस्सेदारी कम की जा सकती है। यह संभव है कि कुछ राजनीतिक दल विधायिका में भी जाति आधारित आरक्षण की मांग करें। जाति जनगणना के अन्य संभावित परिणामों में अधिक आरक्षण की मांग भी शामिल है। वास्तव में इसकी शुरुआत हो भी चुकी है।
लोक सभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने मांग कर दी है कि आरक्षण पर सीमा समाप्त की जानी चाहिए और निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी कोटा लागू किया जाना चाहिए। कई समूहों के लिए जाति जनगणना और आरक्षण में हिस्सेदारी आगे बढ़ने की एक उम्मीद है। प्रश्न यह है कि क्या इससे देश बेहतर बन सकेगा? और क्या यह सबसे वांछित हल है।असल मुद्दा है आम जनता के लिए शिक्षा की कम गुणवत्ता और आर्थिक अवसरों की कमी। जब तक इन मुद्दों को हल नहीं किया जाएगा, जाति जनगणना और आरक्षण का संभावित पुनर्संयोजन देश को बहुत आगे नहीं ले जाया सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इंद्र साहनी बनाम भारत सरकार मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी। इसके बाद 2006 में यूपीए सरकार के समय में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने सरकारी शिक्षण संस्थानों में मंडल आयोग की सिफारिश को लागू किया। इनमें आईआईटी और मेडिकल कॉलेज भी शामिल थे। इस तरह से मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरी तरह से लागू कर दिया गया। 2011 में जाति जनगणना को लेकर एक प्रयास किया गया था। तब यूपीए की सरकार केंद्र में थी।
सरकार ने आर्थिक, सामाजिक और जातिगत जनगणना करवाई। जाति संबंधित आंकड़े जुटाए, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। ऐसा कहा जाता है कि इनमें कई खामियां थीं। तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने तो यह कहते हुए विरोध किया था कि जो लोग सेंसस में काम करते हैं उनके पास जातीय जनगणना संबंधित आंकड़े इकट्ठे करने का कोई अऩुभव नहीं है। सवाल यह है कि इस बार भी जनगणना के दौरान या बाद में राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी या लालू यादव जैसे नेताओं के क्षेत्रीय दल जनगणना की मशीनरी, तथ्यों और आंकड़ों को ही चुनौती देकर अस्वीकार नहीं करेंगे।
राहुल गाँधी तो चुनाव आयोग और वोटिंग मशीन तक का विरोध कर रहे हैं। इस बार तो जनगणना भी इलेक्ट्रानिक यानि मोबाइल फोन और विशेष एप के जरिए होगी। जनगणना के उद्देश्य के लिए सभी प्रगणकों और पर्यवेक्षकों द्वारा इसकी अधिकतम स्वीकार्यता सुनिश्चित करने के लिए मोबाइल ऐप को बहुत ही सरल, सुविधाजनक और उपयोगकर्ता के अनुकूल बनाया गया है। मोबाइल ऐप की मदद से, अनुसूची और आईसीआर प्रसंस्करण के लिए अतिरिक्त लॉजिस्टिक्स की आवश्यकता के बिना, सभी डेटा तत्काल प्रसंस्करण के लिए तैयार हो जाएगा।
भारत की जनसंख्या जनगणना 'डिजिटल जनगणना' में बदल रही है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए, आगामी जनगणना अभ्यास के सुचारू संचालन और प्रभावी प्रबंधन तथा निगरानी के लिए भारत के महारजिस्ट्रार का कार्यालय द्वारा सीएमएमएस पोर्टल विकसित किया गया है।देश भर में लगभग 135 करोड़ (1.35 बिलियन) लोगों की गणना करने के लिए लगभग तीस लाख कर्मचारी और पर्यवेक्षक लगेंगे। वे मुख्य रूप से स्थानीय स्कूल शिक्षकों, केंद्र और राज्य/केंद्र शासित सरकार के अधिकारियों और स्थानीय निकायों से लिए जाते हैं, जो जनगणना कार्य के लिए हर घर का दौरा करेंगे। सरकार ने इस साल के बजट में जनगणना की तैयारी के लिए 574 करोड़ रुपए का प्रावधान कर रखा था। फिर एक से दो वर्ष के काम के लिए 12 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। इसलिए आवश्यक है कि देश के दूरगामी हितों को ध्यान में रखा जाए और राजनीतिक स्वार्थों और विवादों से बचाया जाए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राहुल गांधी समेत सभी विपक्षी नेताओं ने इसके लिए उनके द्वारा बनाए गए दबाव की जीत बताया तो भाजपा ने आजादी के बाद पहली जातीय जनगणना कराने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया।
विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।
अपनी चिर परिचित शैली के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को पहलगाम के आतंकी हमले से तमतमाए देश को अचानक तब चौंका दिया, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में अगली जनगणना में जातीय जनगणना को भी शामिल करने को हरी झंडी दे दी गई। राहुल गांधी समेत सभी विपक्षी नेताओं ने इसके लिए उनके द्वारा सरकार बनाए गए दबाव की जीत बताया तो भाजपा नेताओं ने आजादी के बाद पहली जातीय जनगणना कराने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देते हुए यह कहते हुए कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को कटघरे में खड़ा किया कि अपनी सरकारों के दौरान उन्होंने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया।
कांग्रेस, सपा, राजद आदि विपक्षी दल इस मुद्दे को भाजपा और संघ परिवार के हिंदुत्व की काट मान रहे हैं तो भाजपा इसे प्रधानमंत्री मोदी का मास्टर स्ट्रोक बताते हुए विपक्ष से उसके सबसे धारदार मुद्दे को छीन लेने का दावा कर रही है। दरअसल, जाति जनगणना मंडल दो की शुरुआत है और यह भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए शेर की सवारी जैसा है, जिस पर चढ़ना आसान है, लेकिन उतरने पर शिकार होने का खतरा भी है। सवाल है कि जातीय जनगणना की राजनीतिक पूंजी मोदी या राहुल किसके खाते में जाएगी।
केंद्र सरकार की इस घोषणा से लोग इसलिए चौंके कि जनता इंतजार कर रही थी कि 22 अप्रैल को कश्मीर में 26 से ज्यादा लोगों की जान वाले हुए आतंकवादी हमले के बाद जिस तरह सरकार में उच्च स्तर पर बैठकों का दौर चल रहा था तो लोग सोच रहे थे कि मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ उठाए जाने वाले कुछ और कड़े कदमों की जानकारी मिलेगी, लेकिन जब खबर आई कि केंद्र सरकार अब जातीय जनगणना कराएगी तो पूरा विमर्श ही बदल गया। टीवी चैनलों में पिछले एक सप्ताह से लगातार बैठे रक्षा विशेषज्ञों पूर्व सैनिक अधिकारियों से माफी के साथ उनकी जगह राजनीतिक विश्लेषकों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिठाकर जातीय जनगणना के मुद्दे के अनेक पहलुओं पर चर्चा शुरु हो गई।
जातीय जनगणना की जड़े साठ के दशक में समाजवादियों के इस नारे में हैं कि संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ। समाजवादियों ने जब यह नारा दिया तब कांग्रेस तो इसके विरोध में थी ही, तत्कालीन जनसंघ (भाजपा) और वामदल भी इसके पक्ष में नहीं थे। कांग्रेस के लिए यह नारा उसके सवर्ण अल्पसंख्यक और दलित जनाधार के माफिक नहीं था तो जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे हिंदू समाज को जातियों में बांटने की साजिश मानता था और वामदलों के लिए जाति नहीं बल्कि वर्ग का सवाल केंद्रीय मुद्दा था।
1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद समाजवादी खेमे(जिसमें लोकदल भी शामिल था) ने अपने वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए मंडल आयोग का गठन किया, जिसकी रिपोर्ट 1980 में तब आई जब केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौट आई थी।
कांग्रेस सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया और करीब दस साल बाद आठ अगस्त 1990 को विश्वनात प्रताप सिंह की सरकार ने पूरे देश को चौंकाते हुए अचानक मंडल आयोग की सिफारिश के मुताबिक सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान कर दिया।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यह घोषणा किसी सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण नहीं बल्कि अगले दिन यानी नौ अगस्त को दिल्ली के बोट क्लब पर होने वाली चौधरी देवीलाल, चंद्रशेखर और कांशीराम की रैली में उठने वाली सरकार विरोधी आवाज को बेअसर करने के लिए तत्कालीन सामाजिक अधिकारिता मंत्री रामविलास पासवान और कपड़ा मंत्री शरद यादव के सुझाव और दबाव में की थी, क्योंकि नौ अगस्त की रैली में यह देवीलाल, चंद्रशेखर और कांशीराम मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने की मांग को लेकर एक बड़े आंदोलन की घोषणा करने वाले थे। इसलिए वीपी सिंह का राजनीतिक मजबूरी ने मंडल आयोग का पिटारा खोल दिया।
कांग्रेस ने मंडल आयोग का खुलकर विरोध सड़क से लेकर संसद तक किया, जबकि भाजपा ने मंडल के जवाब में कमंडल को आगे करते हुए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर लाल कृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरु कर दी और बिहार में आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद वीपी सिंह सरकार का पतन हो गया। दिलचस्प यह है कि संसद में मंडल लाने वाली विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के खिलाफ कांग्रेस,भाजपा और जनता दल के चंद्रशेखर देवीलाल गुट ने हाथ मिलाया और सरकार गिर गई। इसके बाद देश का राजनीतिक वातावरण बदल गया।
मंडल राजनीति ने सबसे ज्यादा उत्तर भारत को प्रभावित किया और जहां उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, मायावती और बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार जैसे छत्रपों का उदय हुआ तो राष्ट्रीय राजनीति में रामविलास पासवान शरद यादव बेहद अहम हो गए। मंडल के असर ने भाजपा में तत्कालीन संगठन महासचिव केएन गोविंदाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति को जन्म दिया।
राम मंदिर आंदोलन से उत्तर प्रदेश में 1991 में बनी पहली भाजपा सरकार का मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग के कल्याण सिंह को बनाकर मंडल कमंडल दोनों को साधने की कवायद शुरु हुई। पिछड़े वर्गों से आने वाले विनय कटियार, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान, प्रहलाद पटेल जैसे अनेक नेताओं का भाजपा में कालांतर में उदय हुआ, लेकिन कांग्रेस अपने पुराने ढर्रे पर ही चलती रही और सिमटती गई। उत्तर प्रदेश व बिहार में कांग्रेस मुलायम और लालू की पिछलग्गू हो गई तो मध्य प्रदेश में सुभाष यादव जैसे कद्दावर पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री न बनाकर पिछड़े वर्गों को भाजपा की तरफ मोड़ दिया गया।
एक लंबे अरसे बाद पिछले करीब दो साल से राहुल गांधी ने कांग्रेस के पुराने चरित्र और प्रकृति के उलट जातीय जनगणना के मुद्दे को उठाना शुरू किया और इस शिद्दत से उठाया कि वह सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले तमाम नेताओं से आगे निकल गए और जातीय जनगणना का मुद्दा मुख्य रूप से उनका मुद्दा बन गया। राहुल की इस जिद ने कई पुराने दिग्गज कांग्रेसियों को असहज किया, उनमें से कुछ ने तो अपना रास्ता भी बदल लिया।
सड़क से लेकर संसद तक राहुल ने अपने हर भाषण में जातीय जनगणना कराने की मांग करते हुए केंद्र की भाजपा सरकार को लगातार घेरा, जबकि भाजपा इस मुद्दे पर पहले ढुलमुल रही फिर खुलकर विरोध पर उतर आई। बिहार से जब नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री मोदी से मिले तो बिहार भाजपा के नेता भी साथ थे। उन्होंने भी इसका समर्थन किया, लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने जातीय जनगणना को लेकर अलग रुख रखा। 2021 में संसद में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में साफ कहा कि केंद्र सरकार का जातीय जनणना कराने का कोई इरादा नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में भी इसी आशय के जवाब केंद्र ने दिए।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों से पहले जातीय जनगणना की मांग को विभाजनकारी बताते हुए कहा कि उनके लिए देश में सिर्फ चार जातियां हैं महिला, किसान, युवा और गरीब। संघ पदाधिकारियों नें भी समय समय पर जातीय जनगणना को हिंदुओं को बांटने का षड़यंत्र बताते हुए इससे असहमति जाहिर की।
योगी आदित्यनाथ ने भी इस मुद्दे को उठाने वालों की मानसिकता पर सवाल उठाए। भाजपा के शीर्ष नेताओं ने जातीय जनगणना की मांग को राजनीतिक पाप तक कहा, लेकिन राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और अन्य विपक्षी नेता इस मांग को लगातार उठाते रहे। साथ ही एनडीए के घटक दलों में जद(यू) और चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल, रामदास आठवले जैसे नेताओं ने भी जातीय जनगणना की मांग का समर्थन करते हुए एनडीए के भीतर अपनी आवाज उठाई।
ज्यादा दबाव बढ़ने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता सुनील अंबेकर ने कहा कि संघ को जातीय जनगणना से कोई एतराज नहीं, लेकिन इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। इसके बावजूद जातीय जनगणना को लेकर भाजपा का रुख असहमति का ही रहा, क्योंकि उसे इससे अपने सवर्ण जनाधार की नाराजगी और हिंदुत्व की राजनीति के कमजोर होने का खतरा दिखा रहा था।
इसीलिए जब लोकसभा चुनावों में जातीय समीकरणों ने भाजपा की सीटें 303 से घटाकर 240 कर दीं तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बटोंगे तो कटोगे का नारा देकर हिंदुओं की एकता पर जोर दिया। योगी के इस नारे को संघ का भरपूर समर्थन मिला और महाराष्ट्र चुनाव में सहयोगी दलों खासकर एनसीपी अजित पवार का ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस नारे को नरम बनाते हुए कहा एक हैं तो सेफ हैं। यहां भी हिंदुओं की एकता पर जोर था। पूरे महाराष्ट्र चुनाव में यही नारा भाजपा के चुनाव अभियान का केंद्रीय नारा था और इसका उसे भऱपूर फायदा मिला।
इसके बावजूद राहुल गांधी ने अपनी यह मांग नहीं छोड़ी और उन्होंने कई राज्यों में संविधान बचाओ सम्मेलन आयोजित करके जातीय जनगणना की मांग को लगातार उठाया और संसद में भी यहां तक कह दिया कि हम इसी लोकसभा में सरकार से जातीय जनगणना करवा कर मानेंगे। तब राहुल की मांग और भाषणों को भाजपा और सरकार ने हवा में उड़ा दिया था, लेकिन अब जब अचानक केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना करवाने की घोषणा की है तो सत्ता पक्ष और विपक्ष में इसका श्रेय लेने की होड़ मच गई है। कांग्रेस राहुल और भाजपा नेताओं के पुराने भाषणों का हवाला देकर इस फैसले को अपने दबाव का नतीजा बता रही है तो भाजपा उसे 77 सालों तक न कराए जाने का ताना देकर श्रेय लेने की कोशिश में है।
अखिलेश यादव इसे पीडीए की जीत तो तेजस्वी इसे लालू यादव के संघर्ष का नतीजा बता रहे हैं। श्रेय की होड़ के साथ ही अब जातीय जनगणना से भावी राजनीति के स्वरूप में बदलाव को लेकर भी बहस शुरु हो गई है। राहुल गांधी ने जातीय जनगणना के आगे की बात शुरु कर दी है। उन्होंने निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधानों 15(5) को लागू करने और आरक्षण की 50 फीसदी अधिकतम सीमा को बढ़ाने की मांग शुरु कर दी है।हालांकि, जातीय जनगणना जनगणना के साथ एक लंबी प्रक्रिया से पूरी होगी। अभी इसकी कोई समय सारिणी या समय सीमा घोषित नहीं हुई है। विपक्ष इसकी भी मांग कर रहा है, लेकिन अब भावी राजनीति इस प्रमुख मुद्दे के इर्द गिर्द घूमेगी।
भाजपा के सामने चुनौती है कि जातीय जनगणना से लोगों की जो जातीय पहचान मजबूत होगी उसे फिर से हिंदू पहचान में बदलकर अपने हिंदुत्व के छाते को कैसे मजबूत करे, जबकि कांग्रेस के सामने चुनौती है कि आमतौर से कांग्रेस से दूर रहने वाला पिछड़ा वर्ग जातीय जनगणना का श्रेय उसे देकर उसके साथ कैसे जुड़े। सपा राजद लोजपा बसपा जैसे सामाजिक न्याय की राजनीति वाले दल किस तरह इस मुद्दे को अपने पक्ष में भुनाएंगे यह सवाल उनके सामने भी है, लेकिन 1990 का उदाहरण ऐसा है कि राजनीतिक मजबूरी में मंडल लागू करने वाले वीपी सिंह और उनका जनता दल 1991 का लोकसभा चुनाव हार गया और मंडल राजनीति का लाभ उन छत्रप नेताओं को मिला जो पिछड़े वर्गों के भी थे और पिछड़े वर्गों की राजनीति भी करते थे।
भाजपा ने भी अगर राजनीतिक मजबूरी में जातीय जनगणना को लागू करने की घोषणा की है तो क्या वह उसका राजनीतिक श्रेय संभाल पाएगी क्योंकि इस मुद्दे पर अतीत में उसके नेताओं के बयान और भाषण विपक्ष का हथियार बनेंगे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खुद पिछड़े वर्ग का होना उसके पक्ष में है और कांग्रेस इसकी काट कैसे कर पाएगी।
जातीय जनगणना को अगर मंडल-2 माना जाक्षेत्रए तो तय मानिये कि यह मुद्दा सिर्फ जातियों के आंकड़ों की जानकारी तक ही सीमित नहीं रहेगा। आंकड़े आने के बाद संख्या के मुताबिक राजनीतिक सामाजिक आर्थिक हिस्सेदारी का सवाल उठेगा और बात निजी क्षेत्र और अन्य अनारक्षित क्षेत्रों में आरक्षण देने तक भी जा सकती है। आने वाले दिन राजनीति में बेहद उथल पुथल वाले होंगे और देश के राजनीतिक विमर्श का चरित्र और चिंतन दोनों ही बदलेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।
देश का दुर्भाग्य है कि पूरा देश जातिगत समीकरणों की विचित्र प्रयोगशाला बना हुआ है। लेकिन जात को देखने वाली भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी को एक अपवाद के रूप में देखा जा रहा था।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
आजाद भारत के इतिहास में पहली बार केंद्र सरकार जनगणना में जाति पूछेगी। जाति है कि जो भारतीय राजनीति से जाती नहीं। मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का प्रस्ताव पास कर मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है। सरकार को शहद मिलता है या डंक यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन देश की राजनीति जाति के चक्रव्यूह में फंसेगी यह तय है।
देश का कोई भी राजनीतिक दल और चुनाव जाति के प्रभाव से मुक्त नहीं है। इस कारण सभी राजनीतिक दल टिकट बंटवारे से लेकर मंत्री और मुख्यमंत्री बनाने में जातिगत समीकरण का पूरा ध्यान रखते है। यह भारत में विकास की राजनीति पर जाति के दबदबे को बताता है। जहा योग्यता जाति के सामने दम तोड़ देती है। सभी राजनीतिक दल विकास के प्रमाण पत्र से ज्यादा जाति के प्रमाण पत्र को महत्व देते है।
चुनावी गणित जाति के समीकरणों से सधता है। यह हमारे देश की राजनीति का दुर्भाग्य है कि चुनावी गणित विकास से कम और जाति से ज्यादा प्रभावित होता है और जाति पर मरता है। इसी कारण भारत जैसे देश में सियासत अपनी लीक से चलती है और विकास सिसकता है। देश के नेता और राजनीतिक दल जानते है कि सत्ता में पहुंचकर आर्थिक प्रगति और विकास का माल भी वोट की मंडी में जाति के सामने दम तोड़ देता है तो चुनाव में विकास से ज्यादा जाति को आगे कर चुनाव क्यो न लड़ा जाए?
देश का दुर्भाग्य है कि पूरा देश जातिगत समीकरणों की विचित्र प्रयोगशाला बना हुआ है। लेकिन जात को देखने वाली भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी को एक अपवाद के रूप में देखा जा रहा था। आजादी के बाद किसी भी कालखंड में इस तरह की राजनीति देश की जनता ने नहीं देखी जिसमें भारत की जटिल क्षेत्रीय पहचानें, जातिगत समीकरण, धार्मिक पहचान और राजनीतिक अस्मितांए किसी एक नेता में इस कदर घनीभूत हो गई हो, जैसा मोदी के साथ हुआ।
मोदी के भरोसे ने पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक फैली वैविध्यपूर्ण जातिगत भारतीय राजनीति को गजब का एकरंगी कर दिया था। राजनीति को जाति का अतीत कुरेदने की लत लग गई है। जाति की राजनीति में गजब का नशा है और यह नशा देश के नेताओं और राजनीतिक दलों में सर चढ़कर बोल रहा है। जाति जितनी मजबूत, सत्ता में उतनी धमक मजबूत। मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना का निर्णय कर लिया है। एकबार जातिगत जनगणना हो जाने दीजिए फिर देखना देश की राजनीति में जाति का रंग कैसे सर चढ़कर बोलता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
तारेक साहब की बात में मैं बस ये एड करना चाहूंगा कि भारत का मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग गरीब ही नहीं, ऐसे हर वर्ग या घटना के प्रति उदासीन है जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
तारेक फतेह साहब ने बहुत साल पहले कहा था, मुझे भारत से जुड़ी बहुत सारी चीज़ें बहुत पसंद हैं। बस एक चीज़ मुझे दुख देती है। वो ये कि भारत का मध्यम वर्ग, भारत का संपन्न वर्ग वहाँ के गरीब लोगों के प्रति बहुत उदासीन है। जैसे उसे उनके होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वो अपनी ज़िंदगी में मगन है।
तारेक साहब की बात में मैं बस ये एड करना चाहूंगा कि भारत का मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग गरीब ही नहीं, ऐसे हर वर्ग या घटना के प्रति उदासीन है जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं।
आज पहलगाम हादसे के फ़ौरन बाद जिस तरह कश्मीर में सब घूमते पर्यटकों की तस्वीरें सामने आ रही हैं, उससे तारेक साहब की बात एक बार फिर सही साबित हो गई। आप एक सेकेंड के लिए कल्पना करके देखिए, अगर Pakistan, Bangladesh या दुनिया के किसी भी और देश में उस देश की majority के लोगों को उसी के एक राज्य में उनके धर्म की वजह से क़त्ल कर दिया जाता, तो उस देश में उसका क्या reaction होता?
मगर इस देश के संस्कार ऐसे हैं, हमारी फ़ितरत ऐसी है कि धर्म के आधार पर हुई इतनी बड़ी घटना के बावजूद पूरे देश में इस पर कोई बड़ा reaction नहीं हुआ। Reaction इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हम अंदर से किसी के लिए नफ़रत से नहीं भरे हुए हैं। नफ़रत से भरे होते, किसी के लिए अंदर ज़हर लेकर बैठे होते, तो पूरा देश बदले की आग में जल उठता।
लोगों में ग़ुस्सा है तो हमले में मारे गए बेगुनाह लोगों को लेकर है लेकिन ये ग़ुस्सा किसी बदले की मुहिम में translate हो जाए, ऐसा नहीं है। एक धर्म के तौर पर हमारे अंदर कोई श्रेष्ठता बोध नहीं है, इसलिए हम मोटे तौर पर इतने सयंत हैं। इसलिए उतने नफरती नहीं है।
लेकिन संयत होने और लुंजपुंज होने में फ़र्क होता है। और ये कहने में मुझे कोई हर्ज़ नहीं है कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी संयंत नहीं, लुंजपुंज है।
वो अपने खाने-पीने में, अपनी मस्ती में इतना मस्त है कि उसे दूसरे के दुखों की कोई परवाह नहीं। उसके पास इतनी फ़ुर्सत ही नहीं है कि वो एक पल के लिए अपने समाज, अपने राष्ट्र, अपनी पहचान पर विचार कर सके।
ये वर्ग इतना संवेदनहीन है कि बजाय पहलगाम में हुई घटना पर विचार करने, वहाँ जो हुआ क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसने किया, किस मकसद से किया — ये सोचने के, वो इस आपदा को अवसर की तरह देख रहा है। वहाँ जाकर दावे कर रहा है कि यहाँ तो सब normal है, यहाँ तो कुछ ग़लत नहीं हुआ, यहाँ के लोग तो बहुत welcoming हैं। देखो, ये तो मारे गए लोगों के इंसाफ़ के लिए सड़कों पर भी आए, उन्हें भरोसा भी दिला रहे हैं कि आप लोग आ जाओ, कुछ नहीं होगा।
ऐसा बोलने वाले tourist या journalist में किसी एक की हिम्मत नहीं कि वो प्रदर्शन कर रहे इन्हीं लोगों से पूछ सकें कि हम tourists को भरोसा दिलाने वाली आपकी इस भावना से बहुत ख़ुश हुए। हम इस भावना का सम्मान भी करते है। लेकिन किन सर, क्या आप हमें बता पाएँगे कि पिछले 36 सालों में कश्मीरी ऐसा भरोसा कश्मीरी पंडितों को क्यों नहीं दिला पाए?
क्या किसी tourist ने पूछा कि सर, हम तो फिर भी tourist हैं, साल में चार दिन घूमने आए हैं, घूमकर चले जाएँगे। लेकिन जो कश्मीरी पंडित यहाँ से भगाए गए हैं, ये कश्मीर तो उनका अपना घर है। हमसे ज़्यादा आपके भरोसे की ज़रूरत तो उनको है। पिछले सालों मेें आपने उनको भरोसा दिलाने के लिए ऐसी कितनी रैलियां निकालीं?
क्यों नहीं ये सवाल किया गया कि Tourist तो फिर भी कहीं और चला जाएगा, लेकिन जिस आदमी से अपना घर छीना गया है, वो कब तक दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विस्थापित बनकर पड़ा रहेगा? जिस तरह रैलियां निकालकर आप टूरिस्टों को भरोसा दिला रहे हैं कि कुछ नहीं होगा वापिस आ जाओ..वापिस आने की ऐसी अपील कितनी बार उनसे की गई?
क्यों उनसे नहीं पूछा जाता कि ये किस तरह की संवेदनशीलता है, ये किस तरह का दिल है जो tourist के लिए तो धड़कता है मगर अपने ही कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं?
क्यों नहीं ये सवाल किया जाता कि जो उमर अब्दुल्ला आज हादसे पर बड़ा अफसोस ज़ाहिर कर रहे हैं। आखिर क्या वजह थी कि इनके वालिद फारूख अब्दुल्ला को धारा 370 के मुद्दे पर ये कहना पड़ा था कि अगर ऐसा हुआ तो अल्लाह ये चाहेगा कि हम भारत से अलग हो जाएँ। मतलब तब तो बाकी भारतीय राज्यों के बराबर दर्जा करने पर कश्मीर को भारत से अलग करने की धमकी दे रहे थे और आज भारतीय टूरिस्टों के मुंह मोड़ लेने के डर से विधानसभा में माफियां मांग रहे हो।
सिर्फ एक बार इनमें से एक भी सवाल पर विचार कर लिया होता, तो इस निर्लज्जता के फूहड़ प्रदर्शन से बचा जा सकता था, कि 'यहाँ सब तो ठीक है...सब मज़े में है...छोटी मोटी घटनाएं तो होती रहती हैं।
पूरी दुनिया में आपको संवेदनहीनता की ऐसी दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी, जहां एक तरफ बूढ़ा बाप आतंकी हमले में मारे गए अपने बेटे की अस्थियां बहाते हुए रो रहा है और ठीक उसी वक्त उस मौत से बेपरवाह उसका समाज उसी जगह सामान्यीकरण का जश्न मना रहा है! अफसोस है, बहुत अफसोस।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले सप्ताह कुछ मित्रों के साथ हिंदी में प्रकाशित नई पुस्तकों पर चर्चा हो रही थी। हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य भी इस चर्चा में आया। साहित्य में जिस तरह का लेखन हो रहा है उसको लेकर एक दो मित्रों की राय नकारात्मक थी। चर्चा में ये बात भी आई कि औसत या खराब तो हर काल में लिखा जाता रहा है। जो रचना अच्छी या स्तरीय होती है वो लंबे समय तक पाठकों की पसंद बनी रहती है।
इसी चर्चा में एक दिलचस्प बात निकलकर आई। वो ये कि इन दिनों हिंदी के कई प्रकाशक उन्हीं विषयों को प्राथमिकता दे रहे हैं जिन विषयों पर बहुतायत में रील्स इंस्टा या एक्स पर प्रसारित हो रहे हैं। इसके लिए प्रकाशक किसी भी भाषा में लिखी पुस्तक के अधिकार खरीदकर उसको हिंदी में प्रकाशित भी कर रहे हैं।
आज रील्स की दुनिया में सफल बनने के नुस्खे, पैसे कमाने की विधि, जल्द से जल्द अमीर कैसे बनें, करियर में बेहतर कैसे करें, नौकरी कैसे मिलेगी, शेयर बाजार में निवेश से कैसे बनें करोड़पति, भगवान की पूजा कैसे करें, किस भगवान की पूजा किस दिन करने से प्रभु प्रसन्न होते हैं आदि आदि विषय पर काफी कंटेंट है। सफलता कैसे प्राप्त करें, नौकरी में कैसे व्यवहार करें, टाइम मैनेजमेंट, शेयर बाजार में निवेश पर दर्जनों किताब हाल के दिनों में मेरी नजर से गुजरी है।
एक और विषय इन दिनों हिंदी के प्रकाशकों को लुभा रहा है वो है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( एआई) यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता। इस वुषय पर भी हिंदी में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं लेकिन अभी इन पुस्तकों को स्तर प्राप्त करना शेष है। इस विषय की अधिकतर पुस्तकें गूगल बाबा की कृपा से प्रकाशित हुई हैं।
चर्चा में ही एक बात और निकल कर आई कि इन दिनों कई प्रकाशक नए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित करने के पहले जानना चाहते हैं कि उनके इंस्टाग्राम और एक्स या फेसबुक पर कितने फालोवर हैं। पुस्तक प्रकाशन की शर्त पहले बेहतर कृति होती थी लेकिन समय बदला और पुस्तक प्रकाशन के मानक और निर्णय के कारक भी बदलने लगे। इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक इंटरनेट मीडिया का चलन इतना अधिक नहीं था।
डाटा की उपलब्धता भी कम थी। इंटरनेट का देश में घनत्व कम था और डाटा इतना सस्ता भी नहीं था। जैसे जैसे कम मूल्य पर डाटा की उपलब्धता बढ़ी तो लोग इंटरनेट मीडिया का उपयोग करने लगे। 2009 के आसपास फेसबुक और ट्विटर (अब एक्स) पर लोग जुड़ने लगे थे। ये जुड़ाव समय के साथ बढ़ता चला गया। याद है कि 2014-15 के आसपास मेरे कई मित्र कहा करते थे कि फेसबुक समय बर्बादी की जगह है।
वे इस माध्यम पर कभी नहीं आएंगे। उन्हीं मित्रों के फेसबुक अकाउंट की हरी बत्ती दिनभर जली देखकर मजा आता है। अब तो अधिकतर साहित्यिक बहसें फेसबुक पर ही होती हैं, कई बार सकारात्मक और बहुधा नकारात्मक। साहित्यकारों के कुंठा प्रदर्शन का भी सार्वजनिक मंच बन गया है फेसबुक। पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई। खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसकी चर्चा फिर कभी।
हम बात कर रहे थे रील प्रेरित लेखन की। दरअसल हुआ ये है कि रील्स की विषयों की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ प्रकाशकों ने पुस्तक प्रकाशन में भी उसका प्रयोग किया। पटना और दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेला के अनुभव ये बताते हैं कि युवा पाठक इस तरह की पुस्तकों की ओर आकर्षित हुए। अब भी हो रहे हैं। एक बात तो तय माननी चाहिए कि हिंदी के प्रकाशकों को अगर लाभ नहीं होगा तो वो बहुत दिनों तक किसी भी ट्रेंड को लेकर नहीं चलेंगे।
ये कारोबार का आधार भी है। हिंदी में कविता के पाठक कम होने आरंभ हुए तो प्रकाशकों ने कविता संग्रह का प्रकाशन लगभग बंद कर दिया। कुछ दिनों पहले नई वाली हिंदी के कई लेखक आए थे। उनकी पुस्तकें खूब बिकीं । दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कईयों को स्थान मिला, अब भी मिल रहा है। नई वाली हिंदी का परचम लेकर चलनेवाले लेखकों में से सत्य व्यास और नीलोत्पल मृणाल के अलावा कम ही लेखकों के यहां विषयों कि विविधता दिखती है।
सत्य व्यास ने अपने उपन्यासों में लिखने की प्रविधि में बदलाव किया। कथा के प्रवाह के साथ नहीं बहे बल्कि इन्होंने शिल्प में बदलाव किया। सत्य ने अपने उपन्यासों में सीन लिखना आरंभ किया। लंबे लंबे सीन जिसका उपयोग या तो फिल्म में या फिर वेब सीरीज में किया जा सकता हो। सत्य के एक उपन्यास पर बेव सीरीज भी बनी, एकाध पर और बनने की खबर है।
सत्य की सफलता से उत्साहित होकर कई नए लेखकों ने अपनी कहानियों के शिल्प में बदलाव करके सीन को अपनाया। छोटी कहानियां और छोटो उपन्यासों में सीन लेखन आसान भी है। अगर आप 600 पन्ने का कोई उपन्यास लिखेंगे तो आपको सीन की निरंतरता को बरकार रखने में पसीने छूट जाएंगे। क्रमभंग का खतरा भी उपस्थित हो सकता है।
इस कारण से भी उपन्यास 150-200 पृष्ठों के आने लगे। इसको पाठकों ने भी पसंद किया। पुरानी प्रविधि से लिखे जा रहे कथा साहित्य को अपेक्षाकृत कम पाठक मिल रहे हैं। पहले इस तरह के सीन लिखने का प्रयोग सुरेन्द्र मोहन पाठक से लेकर वेद प्रकाश शर्मा, और इस जानर के ही अन्य उपन्यासकार करते थे। उन सबकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था।
अब हिंदी के पाठक सीन को तो पसंद कर ही रहे हैं लेकिन सीन के बाद अब रील वाले विषयों को भी पसंद करने लगे हैं। हिंदी लेखन में आए इस बदलाव को या इस नए ट्रेंड को समझना आवश्यक है। आज के इस भौतिकवादी युग में हर कोई सफल और अमीर बनना चाहता है। इंटरनेट और मीडिया के प्रसार ने भारत की अधिकांश जनता को भैतिक सुख सुविधाओं से परिचित करवा दिया।
हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, साक्षरता भी। जाहिर है सपने भी बड़े होते जा रहे हैं। इन सपनों और आकांक्षाओं को पुरानी प्रविधि से लेखन करनेवाले पकड़ नहीं पा रहे हैं। वे अब भी खेत-खलिहान, गरीब-अमीर, शोषण-शोषित, जात-पात जैसे विषयों में उलझे हैं। हमारा समाज काफी आगे बढ़ गया है। जो युवा लेखक नए विषयों को लेकर आगे बढ़े और कहानी का ट्रीटमेंट अलग तरीके से किया उनकी पुस्तकें बिक रही हैं।
प्रकाशक भी उनको छापने के लिए पलक पांवड़े बिछाए हैं। इस बात का सामने आना शेष है कि जिन लेखकों के फेसबुक या इंस्टाग्राम के फालोवर्स अधिक हैं उनकी पुस्तकें उसी अनुपात में बिक पाती हैं या नहीं। बिकने की बात हिंदी में जरा मुश्किल से पता चलती हैं। पर इतना तय है कि जिनके इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर फालोवर्स की संख्या अधिक है उनको अपनी पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहूलियत होती है। अगर ढंग से प्रचार हो जाए तो पुस्तकों के बारे में आनलाइन और आफलाइन प्लेटफार्म पर एक प्रकार की जिज्ञासा देखी जाती है। कई बार ये जिज्ञासा बिक्री तक पहुंचती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
मस्क की सोच कहीं ट्रंप की पॉलिटिक्स से टकराती रही है। ट्रंप का क्लाइमेट चेंज में क़तई विश्वास नहीं है बल्कि उन्होंने तो अमेरिका में कोयले के इस्तेमाल पर लगी रोक भी हटा दी है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
एलॉन मस्क दुनिया के सबसे अमीर आदमी हैं। पिछले नवंबर में डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव जीता तो मस्क की ताक़त और बढ़ गई। पैसे के साथ साथ पावर भी उनकी मुट्ठी में थीं। उनकी कंपनियों के शेयर रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँच गए। अब पाँच महीने बाद कहानी बदल गई। Tesla की बिक्री गिर रही है। मुनाफ़ा कम हो रहा है। शेयर गिर रहे हैं तब जाकर मस्क को कहना पड़ा कि वो अमेरिकी सरकार के लिए काम कम करेंगे। Tesla पर ज़्यादा ध्यान देंगे।
टेक्नॉलजी में मस्क का काम शानदार रहा है। यही उनकी अमीरी का कारण है। बिज़नेस के पीछे सोच रही है, जैसे वो हमारी दुनिया को लेकर चिंतित हैं। उनका मानना रहा है कि पृथ्वी नष्ट हो सकती है। उसे बचाने के लिए पेट्रोल डीज़ल का इस्तेमाल बंद होना चाहिए। इसी सोच ने Tesla कार बनाई जो बिजली से चलती है। पृथ्वी नष्ट हो गई तो मानवता के पास दूसरे ग्रह पर रहने की तैयारी होना चाहिए। अंतरिक्ष में आने जाने का काम सरकारें करती थी। मस्क ने Space X के ज़रिए वहाँ क़दम रखा।
पहले रॉकेट एक बार लाँच होने के बाद ख़त्म हो जाता था। Space X ने ऐसे रॉकेट बनाएँ जो दोबारा इस्तेमाल हो सकते हैं जैसे हम विमान का इस्तेमाल करते हैं कुछ वैसा ही अंतरिक्ष में आने जाने के लिए रॉकेट का मतलब रॉकेट लैंड किया और फिर आप उस पर सवार हो गए।
मस्क की सोच कहीं ट्रंप की पॉलिटिक्स से टकराती रही है। ट्रंप का क्लाइमेट चेंज में क़तई विश्वास नहीं है बल्कि उन्होंने तो अमेरिका में कोयले के इस्तेमाल पर लगी रोक भी हटा दी है। डेमोक्रेट या लिबरल लोग Tesla जैसी गाड़ी ख़रीदते आएँ हैं। मस्क ट्रंप समर्थन करते हैं इससे Tesla की गाड़ियों में आग लगाने जैसी घटनाएँ भी हुई है। टैरिफ़ को लेकर भी मस्क सहमत नहीं है। इससे उनके बिज़नेस पर असर पड़ रहा है।
उनकी कारें चीन, जर्मनी और अमेरिका में बनती हैं। सारे कल पुर्ज़े अलग अलग देशों से आते हैं। टैरिफ़ वॉर से उनके सप्लाई चेन में गड़बड़ी होने की आशंका है।
इस सबके बीच Tesla को चीन की BYD कंपनी से चुनौती मिल रही है। 2024 में BYD ने पहली बार Tesla से ज़्यादा इलेक्ट्रिक कार बेचीं। BYD ने 43 लाख गाड़ियाँ बेचीं जबकि Tesla ने 18 लाख। टेक्नॉलजी में भी BYD आगे निकल रहा है जैसे वो टेक्नोलॉजी डेवलप कर रहा है जिससे पाँच मिनट की चार्ज में गाड़ी 450 किलोमीटर चल सकेगी।
Tesla 15 मिनट की चार्जिंग से 250 किलोमीटर तक ही पहुँच पायीं है। Tesla के ताज़ा रिज़ल्ट के मुताबिक़ उसकी बिक्री और मुनाफ़े में गिरावट आई है। ऐसी परिस्थिति में मस्क ने कहा कि वो सरकार के लिए हफ़्ते में एक या दो दिन ही काम करेंगे। ट्रंप राष्ट्रपति बनने के बाद से उन्होंने DOGE यानी Department of Government Efficiency के लिए काम करना शुरू किया है। लक्ष्य तो एक ट्रिलियन डॉलर बचत का था लेकिन इसमें भी कोई भी बड़ी सफलता नहीं मिली है। 1 ट्रिलियन डॉलर बचत का लक्ष्य था जिसे घटाकर 150 बिलियन डॉलर पर लाया है। वो भी पूरा नहीं होता दिख रहा है। मस्क अब यह सब छोड़कर बिज़नेस पर ध्यान देंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )