आज के पत्रकारों के लिए सबक है गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन

आज गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान दिवस है। आज के दौर के पत्रकारों को वाकई में उनके जीवन से सीख लेनी चाहिए।

Last Modified:
Thursday, 25 March, 2021
ganeshshankar54

आज गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान दिवस है। आज के दौर के पत्रकारों को वाकई में उनके जीवन से सीख लेनी चाहिए। किसी मुद्दे को मुहिम बनाना, उसे अंजाम तक पहुंचाना ऐसा आजकल के कई पत्रकार करते हैं, गणेश शंकर भी करते थे, लेकिन क्या आपने आज के किसी पत्रकार को उस मुहिम के लिए धरने पर बैठते, जेल जाते देखा है? ऐसा गणेश शंकर विद्यार्थी करते थे। वो पांच बार जेल गए, यहां तक कि 9 मार्च 1931 को वो गांधी-इरविन समझौते के तहत जेल से वापस ही आए थे कि कानपुर के दंगों में सैकड़ों लोगों को बचाने के बाद खुद ही दंगे की भेंट चढ़ गए और 25 मार्च 1931 को कानपुर में लाशों के ढेर में उनकी लाश मिली, उनकी लाश इतनी फूल गई थी कि लोग पहचान भी नहीं पा रहे थे। 29 मार्च 1931 को उनको अंतिम विदाई दी गई।

दरअसल विद्यार्थी भी आजाद भारत के संघर्ष के उन्हीं योद्धाओं में से हैं, जिन्हें कांग्रेस की बाद की राजनीति ने किनारे कर दिया, जहां गांधी और नेहरू के अलावा बाकी नेताओं को साइड लाइन कर दिया गया।

फतेहपुर के हथगाम में 26 अक्टूबर 1890 को अपने नाना के घर पैदा हुए गणेश शंकर विद्यार्थी शुरू से ही बड़े मेधावी थे, साहित्य और पत्रकारिता के प्रति रुझान के चलते उन्होंने अपना उपनाम विद्यार्थी रख लिया। उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में ही अपनी पहली किताब 'हमारी आत्मोसर्गता' लिख डाली थी। गणेश शंकर भी देश में चल रही गुलामी विरोधी लहर से अछूते नहीं रहे, 1916 में लखनऊ में गांधीजी से मिले और कांग्रेस में भी सक्रिय रहे। कई आंदोलनों में भी हिस्सा लिया। 1925 में यूपी स्टेट प्रोविंसली इलेक्शंस में जीते भी। दो सरकारी नौकरियां भी कीं, लेकिन स्वाभिमानी थे, सो छोड़ दीं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी उनसे प्रभावित थे, उनको पत्रिका ‘सरस्वती’ में सब एडिटर बना दिया, लेकिन वे खबरों से जुड़े रहना चाहते थे, सो ‘अभ्युदय’ से जुड़ गए। बाद में उन्होंने साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ शुरू किया। कानपुर से शुरू हुए पत्र का जलवा इस कदर था कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद भी उनसे जुड़ गए। एक साथ गांधीजी की अहिंसा और क्रांतिकारियों की विचारधाराओं के साथ चल रहे थे गणेश शंकर। उन्होंने क्रांतिकारियों की काफी मदद की, कई बार कांग्रेस के आंदोलनों के चलते उनके अखबार की जमानत जब्त कर ली गई, कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा।

क्रांतिकारियों से नजदीकी कांग्रेस को पसंद भी नहीं थी, लेकिन इस दोनों विचारधाराओं के अलावा गणेश शंकर की अपनी फिलॉसफी थी, मजलूम को न्याय मिले, गरीब को इंसाफ और जीने के साधन मिलें, इसके लिए वो कांग्रेस और क्रांतिकारियों से इतर भी आंदोलनों को मुहिम बनाकर अंग्रेजी सरकार, जमींदारों और मिल मालिकों के खिलाफ मुहिम चलाते रहते थे। रायबरेली के किसानों के लिए और कानपुर के मिल मजदूरों के लिए प्रताप ने बड़ी लड़ाई लड़ीं। तमाम सरकार विरोधी लेखों के छपने के लिए प्रताप के दरवाजे हमेशा खुले थे, लेकिन वो भारतीयों के खिलाफ भी मुहिम चलाने से परहेज नहीं करते थे, अगर वो किसी भी तरह के अन्याय के कामों में लिप्त हों तो।

9 मार्च 1925 को वो फिर से एक बार जेल से बाहर आए, लॉर्ड इरविन और गांधीजी के बीच हुए समझौते के तहत उन्हें जेल से मुक्ति मिली थी। लेकिन घर नहीं बैठे, कानपुर में दंगा फैल गया। हिंदू और मुस्लिमों के बीच ये दंगा काफी दिनों तक चला, लेकिन गणेश शंकर का एक ही काम था, गरीबों मजलूमों को दोनों तरफ के दंगाइयों से बचाना। विद्यार्थी पूरे दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूमकर निर्दोषों की जान बचाते रहे। कानपुर के जिस इलाके से भी उन्हें लोगों के फंसे होने की सूचना मिलती, वे तुरंत अपना काम छोड़कर वहां पहुंच जाते, क्योंकि उस समय पत्रकारिता की नहीं, मानवता की जरूरत थी। उन्होंने बंगाली मोहल्ले में फंसे दो सौ मुस्लिमों को निकालकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। उनके कपड़े घायलों और लाशों को उठाने के कारण खून से सन गए तो वे घर नहाने पहुंचे। लेकिन तभी चावल मंडी में कुछ मुस्लिमों के फंसे होने की खबर आई। उनकी पत्नी उन्हें पुकारती रह गई और वे 'अभी आया' कहकर वहां पहुंच गए। वहां फंसे लोगों को सुरक्षित जगह पहुंचा ही पाए थे कि दोपहर के तीन बजे घनी मुस्लिम आबादी से घिरे चौबे गोला मोहल्ले में दो सौ हिन्दुओं के फंसे होने की खबर आई। वे तुरंत वहां जा पहुंचे। वे निर्दोषों को जैसे-तैसे निकालकर लॉरी में बिठा ही रहे थे कि तभी हिंसक भीड़ वहां आ पहुंची। कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया, लेकिन वे कुछ कर पाते, इसके पहले ही भीड़ में से किसी ने एक भाला विद्यार्थीजी के शरीर में घोंप दिया। साथ ही उनके सिर पर लाठियों के कुछ प्रहार हुए और मानवता का पुजारी इंसानियत की रक्षा के लिए, शांति स्थापना के लिए शहीद हो गया। दंगे रोकते-रोकते ही उनकी मौत हुई थी।

उन्होंने सैकड़ों लोगों की जान बचाई और 25 मार्च को उनकी भी लाश मिली, लाशों के ढेर में। 29 मार्च को उनको अंतिम विदाई दी गई। गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में उनकी दुखद मौत पर ये लिखा था, "The death of Ganesh Shankar Vidyarthi was one to be envied by us all. His blood is the cement that will ultimately bind the two communities. No pact will bind our hearts. But heroism such as Ganesh Shankar Vidyarthi showed is bound in the end to melt the stoniest hearts, melt them into one. The poison has however gone so deep that the blood even of a man so great, so self-sacrificing and so utterly brave as Ganesh Shankar Vidyarthi may today not be enough to wash us of it. Let this noble example stimulate us all to similar effort should the occasion arise again"।

सोचिए आज के रिपोर्टर्स और एडिटर्स केवल रिपोर्ट करने और उसको मुहिम बनाने में, कभी-कभी तो नॉन इश्यूज को भी मुहिम बनाने में काफी अग्रेसिव तरीके से जुटते हैं। लेकिन सड़क पर उतरकर उस अन्याय के खिलाफ अपनी जान की बाजी नहीं लगाते, जैसी कि गणेश शंकर विद्यार्थीजी ने लगाई थी।

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सावरकर की पैरवी भारत में मार्क्सवादियों के लिए सबक: अरुण आनंद

इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा 'मोरिया' नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 30 November, 2023
Last Modified:
Thursday, 30 November, 2023
arunanand

अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें वीर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है, 'हिंदुत्व' के पैरोकार होने के कारण भारत में मार्क्सवादियों के निशाने पर रहे हैं। मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों, विश्लेषकों व इतिहासकारों ने उनकी स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को लेकर भी लगातार सवाल उठाए और सावरकर को नाजीवाद व फासीवाद से जोड़ने की भी भरपूर कोशिश की। पर उस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बारे में वे क्या कहना चाहेंगे जब कार्ल मार्क्स के पोते ने हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर का एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न केवल बचाव किया था बल्कि उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका की जबरदस्त प्रशंसा भी की थी। इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा 'मोरिया' नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था।

सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए लंदन में गिरफ्तार कर उन्हें इस जहाज द्वारा भारत में उन पर मुकदमा चलाने के लिए बंबई भेजा रहा था। 8 जुलाई 1910 को यह जहाज फ्रांस के मार्सेई नामक शहर के पास था, सावरकर ने अवसर पाते ही समुद्र में छलांग लगा दी और कई मील तैरकर वह फ्रांस के तट पर आ पहुंचे। ब्रिटिश पुलिस के अधिकारियों ने वहां पहुंच कर 'चोर—चोर' का शोर मचा दिया और सावरकर को चोर बताकर धोखे से वापिस जहाज पर ले आए। बाद में जब पता चला कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी हैं तो फ्रांसीसी सरकार ने आपत्ति जताई व ब्रिटेन से सावरकर को फ्रांस को वापिस लौटाने को कहा। ब्रिटेन ने यह बात मानने से इंकार कर दिया और यह विवाद नीदरलैंड में हेग नामक जगह पर स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पहुंच गया जहां दो देशों के बीच कानूनी विवादों का निपटारा होता है।

सावरकर को लेकर हेग में इस मुकदमें में दलीलें 14 फरवरी, 1911 से शुरू हुईं और 17 फरवरी, 1911 को समाप्त हुईं। फैसला 24 फरवरी, 1911 को ब्रिटेन के पक्ष में दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत ने इस जीत का फायदा उठाते हुए  भारत में सावरकर को काले पानी की सजा दी और उन्हें अंडमान में सेल्युलर जेल भेज दिया गया। अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने बाद में 'मेरा आजीवन कारावास' पुस्तक भी लिखी जिसमें वहां दी गई यातनाओं का लोमहर्षक विवरण है। बहरहाल बात करते हैं हेग में हुए इस मुकदमे की। इस मामले में सावरकर की ओर से पैरवी करने वाले कोई और नहीं बल्कि मार्क्सवाद की विचारधारा के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के पोते थे। उनका नाम था जीन-लॉरेंट-फ्रेडरिक लोंगुएट (1876-1938)। लोंगुएट स्वयं समाजवादी राजनीतिज्ञ और पत्रकार थे, जो न केवल अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सावरकर का बचाव करने के लिए खड़े हुए बल्कि उन्होंने सावरकर की बहादुरी, देशभक्ति और प्रखर लेखन के लिए उनकी खूब प्रशंसा भी की।
 
लोंगुएट का जन्म लंदन में चार्ल्स और जेनी लॉन्गुएट के घर हुआ था। उनका परिवार बाद में फ्रांस चला  आया। जेनी, कार्ल मार्क्स की बेटी थी। जीन लॉन्गुएट ने एक पत्रकार के रूप में काम किया और एक वकील के रूप में योग्यता हासिल की। वह फ्रांसीसी समाचार पत्र 'ला पॉपुलेयर' के संस्थापक और संपादक भी थे और फ्रांस के प्रमुख समाजवादी नेताओं में से एक थे। हेग में सावरकर के लिए अपनी दलील में कहा ब्रिटिश सरकार सावरकर को इसलिए निशाना बना रही है क्योंकि वे भारत को आजाद करवाने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ले रहे हैं। उन्होंने सावरकर का वर्णन इन शब्दों में किया, "श्रीमान! सावरकर ने कम उम्र से ही, राष्ट्रवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उनके दो भाइयों, जो उनसे कम क्रांतिकारी नहीं थे, को इस राष्ट्रवादी आंदोलन  में भाग लेने के लिए  सजा सुनाई गई, एक को आजीवन कारावास और दूसरे को  कई महीनों तक कारावास की सजा सुनाई गई।

22 साल की उम्र से, जब वह बंबई विश्वविद्यालय में  कानून के छात्र थे, वे तिलक के सहायक बन गए, और लगभग उसी समय, अपने पैतृक शहर, नासिक में, उन्होंने 'मित्र मेला' नाम की राष्ट्रवादी संस्था का गठन किया।'' मित्रमेला के बारे में भी लोंगुएट ने बताया कि किस प्रकार पूरे  दक्खन में राष्ट्रीय आंदोलन चलाने में यह संगठन सक्रिय भूमिका निभा रहा था। सावरकर की पुस्तक '1857 का स्वातंत्र्य समर' जिस पर अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध लगा दिया था , उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, ''यह पुस्तक वैज्ञानिक दृष्टि अत्यंत मूल्यवान है और इसका अंग्रेजी अनुवाद कई लोगों ने मिलकर किया और उसे अज्ञात नाम से प्रकाशित किया।'' लोंगुएट की दलीलों का सार यही था कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी व प्रबुद्ध विचारक हैं और भारत को आजाद करवाने के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार उनके पीछे पड़ी है।

लोंगुएट की दलीलों से इतना तो साफ होता है कि मार्क्स का पोता होने तथा समाजवादी होने के बावजूद उन्हें सावरकर की राष्ट्रवादी अवधारणा से कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि लोंगुएट के लिए तो वह प्रशंसा के पात्र थे। ऐसे में भारत के मार्क्सवादियों द्वारा सावरकर के व्यक्तित्व व कर्तृत्व का विरोध कितना तर्कसंगत है?

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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राजकुमार केसवानी बेजोड़ तो थे, पर जेहन में इतने गहरे बसे थे, मालूम न था: राजेश बादल

तो ऐसे भाई, दोस्त राजकुमार केसवानी को उस दिन सप्रे संग्रहालय के सभागार में याद करने के लिए उनके सैकड़ों चाहने वाले पहुँचे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 30 November, 2023
Last Modified:
Thursday, 30 November, 2023
rajeshbadal

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

यूं तो वे जन्मदिन मनाने के मामले में बहुत संवेदन शील नहीं थे। लेकिन हम मित्रों ने उनके जाने के दो बरस बाद जन्म दिन मना ही लिया। यह सोचकर कि जन्नत में बैठकर राजकुमार भाई अपने स्वभाव के मुताबिक गुस्सा हो रहे हों तो हो लें। हम नहीं सुनेंगे। छब्बीस नवंबर राजकुमार केसवानी जी का जन्मदिवस था और उस दिन एक ऐसा कार्यक्रम हो गया, जो आमतौर पर किसी के अलविदा कहने के बाद भारत में कम ही होता है। महीनों से यह कवायद चल रही थी कि भाई राजकुमार केसवानी की याद में क्या किया जाना चाहिए। उनके कौन से रूप को नई पीढ़ियों तक पहुंचाना चाहिए। क्या नहीं थे वे? किसी एक इंसान के भीतर इतने हुनर हो सकते हैं, कल्पना से परे हैं।

एक संवेदनशीन और नरम दिल के कवि, संगीत की महीन स्वर लहरियों के दीवाने और उसके एक अनमोल खजाने के मालिक, बेजोड़ किस्सागो, फिल्मों की अनगिनत छिपी हुई दास्तानों को सामने लाने वाले शब्द सितारे, बेहतरीन खोजी पत्रकार,टीवी पत्रकारिता में तमाम कीर्तिमान रचने वाले संवाददाता, अखबार की कायापलट करने की क्षमता रखने वाले विलक्षण संपादक, पुरानी शैली के पेशेवर फिल्म वितरक, उर्दू, सिंधी, हिंदी और अंग्रेजी के अदभुत जानकार और भी पता नहीं, क्या क्या थे वे। लेकिन सबसे ऊपर एक शानदार इंसान। जब कोई ऐसी शख्सियत हमारे बीच से अचानक चली जाती है तो लगता है कि अजीब सा खालीपन जिंदगी में आ गया।

तो ऐसे भाई, दोस्त राजकुमार केसवानी को उस दिन सप्रे संग्रहालय के सभागार में याद करने के लिए उनके सैकड़ों चाहने वाले पहुंचे। ठसाठस भरे हॉल में तिल रखने के लिए भी जगह नहीं थी। संग्रहालय के संस्थापक संयोजक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर के चेहरे पर अपने पड़ोसी को शिद्दत से याद करने का संतोष पढ़ा जा सकता था। उन्होंने याद किया कि घर से बाहर निकलते ही नजरें मिलतीं तो लपक कर केसवानी आते और पेट भर बतियाते। वैसे वे कम लोगों से ही खुलते थे। राजकुमार को याद करने के लिए मंच पर अभिव्यक्ति के तीन सितारे मौजूद थे। मुंबई की मायानगरी में परदे पर कहानी के जरिए अनूठी छाप छोड़ने वाले रूमी जाफरी, परदे पर ही कविता का हैरत में डालने वाला संसार रचने वाले इरशाद कामिल और फिल्मों में अभिनय से धूम मचाने वाले जाने माने रंगकर्म सितारे राजीव वर्मा, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर और मैं स्वयं याने राजेश बादल भी था।

सबने शिद्दत से याद किया। भरपूर याद किया। उसे लिखूंगा तो अलग से किताब बन जाएगी। राजकुमार जी आप होते तो देखते कि जिन्हें आप छोड़ कर गए हैं, उनके दिलों में आप कैसे बैठे हुए हैं। यह भी तय हुआ था कि राजकुमार जी की याद का सिलसिला जारी रहना चाहिए। इसलिए हर साल खोजी और मानवीय सरोकारों पर श्रेष्ठ काम करने वाले रचनाकर्मी को हर साल सम्मानित किया जाए। चाहे वह पत्रकारिता से हो या लेखन विधा से या फिर फिल्म संसार से। इस साल पहला सम्मान पत्रकार लेखिका और क़ैदियों के अधिकारों पर काम करने वाली वर्तिकानंदा को देने का फैसला हुआ। उन्हें सम्मान में एक लाख रूपए, प्रशस्ति पत्र और स्मृतिचिह्न दिया गया।

वर्तिका राजकुमार जी के साथ एनडीटीवी में काम कर चुकी हैं। यह भी निश्चय हुआ कि अगले साल से पत्रकारिता की विधाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले मेधावी छात्रों छात्राओं को भी सम्मानित किया जाए। इस कार्यक्रम का संयोजन सप्रे संग्रहालय ने किया लेकिन स्वर्गीय केसवानी जी के बेटे रौनक ने इसे कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर दिया। आदरणीया भाभी जी श्रीमती सुनीता केसवानी की गरिमामय उपस्थिति ने सारे समय राजकुमार जी के वहां होने का अहसास बनाए रखा ।

इस आयोजन में यदि वरिष्ठ मीडिया कर्मी और रंगकर्मी अशोक मनवानी का जिक्र नहीं हो तो यह सूचना अधूरी रहेगी। उन्होंने सफल संचालन किया और दैनिक भास्कर परिवार के मनीष समंदर ने आभार माना।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रधानमंत्री कांग्रेस से इतने नाराज क्यों नजर आते हैं: श्रवण गर्ग

पीएम मोदी ने कहा, भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई हो रही है तो कांग्रेस घबरा गई है। जिन्होंने प्रदेश को लूटा है उन्हें जेल जाना होगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 28 November, 2023
Last Modified:
Tuesday, 28 November, 2023
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श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

तेलंगाना के साथ संपन्न होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव नतीजे चाहे जैसे निकलें,एक बात तय मानकर चल सकते हैं  कि तीन दिसंबर के तत्काल बाद प्रारंभ होने वाले लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान विपक्षी दलों(यहाँ गांधी परिवार ही पढ़ें) के ख़िलाफ़ सत्तारूढ़ दल भाजपा के हमलों की आक्रामकता पराकाष्ठा पर पहुँचने वाली है।

विधानसभा चुनावों में भाजपा के धुआँधार प्रचार के दौरान देश की जनता ने प्रधानमंत्री के भाषणों में कांग्रेस के प्रति जिस तरह के क्रोध और वैचारिक हिंसा से भरे शब्दों से साक्षात्कार किया उसे लोकसभा चुनावों की रिहर्सल भी माना जा सकता है। चुनावों में पड़े मतों की तीन दिसंबर को होने वाली गिनती में सत्तारूढ़ दल को अगर उसकी ‘अंदरूनी’ उम्मीदों के मुताबिक़ भी कामयाबी नहीं हासिल होती है तो पार्टी में व्याप्त होने वाली निराशा उसकी विभाजन की राजनीति की धार को और तेज कर सकती है।

प्रधानमंत्री द्वारा राज्यों के चुनाव भी स्वयं का चेहरा ही सामने रखकर लड़ने की रणनीति को लोकसभा चुनावों के लिए व्यक्तिगत लोकप्रियता और जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता पर प्रारंभिक जनमत-संग्रह भी माना जा सकता है। पाँचों राज्यों की आबादी भी लगभग पच्चीस करोड़ है और वे उत्तर-पूर्व (मिज़ोरम) से पश्चिम और दक्षिण(तेलंगाना) तक फैले हुए हैं। आत्मविश्वास से भरा एक ऐसा राजनेता जिसने पहले से घोषणा कर रखी हो कि लालक़िले से अगले साल भी तिरंगा वही फहराने वाला है ,विधानसभा चुनावों में पार्टी की पराजय को लोकसभा चुनावों के दौरान अपनी व्यक्तिगत जीत में बदल देने की सामर्थ्य भी प्रकट कर सकता है ! महाभारत के अर्जुन को जिस तरह मछली की आँख ही नज़र आती थी ,प्रधानमंत्री की दृष्टि भी भारत को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और अपने आप को ‘विश्वगुरु’ के रूप में स्थापित करने पर टिकी हुई है !

विधानसभा चुनाव-प्रचार के दौरान, विशेषकर राजस्थान के विभिन्न स्थानों यथा चित्तौड़गढ़, उदयपुर, भीलवाड़ा और बाड़मेर,आदि में मोदी द्वारा अपनाई गई आक्रामक भाव-भंगिमा और स्थान की ज़रूरत के मुताबिक़ दिए गए भाषणों की अगर निष्पक्ष शल्यक्रिया की जाए तो प्रधानमंत्री का एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जो राजनीतिक विरोधियों के प्रति क्रोध से भरा हुआ है और समर्थकों-मतदाताओं को कुछ ऐसा करने के लिए प्रेरित करता नज़र आता है जैसा पिछले किसी भी चुनाव या उपचुनाव में नहीं देखा गया।

देश के प्रधानमंत्री के इस स्वरूप का दर्शन कल्पना से परे माना जा सकता है जब माथे पर जोधपुरी साफ़ा धारण किए उन्होंने बाड़मेर के ‘बायतु’ की सभा में लोगों का आह्वान करते हुए कहा : भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई हो रही है तो कांग्रेस घबरा गई है। जिन्होंने प्रदेश को लूटा है उन्हें जेल जाना होगा। ‘जैसे उन्हें फाँसी दे रहे हो न कमल के निशान पर ऐसे बटन दबाओ।’ कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने बाद में प्रतिक्रिया व्यक्त की कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस के प्रति घृणा का सहज अंदाज़ा उनके बयान से लगाया जा सकता है। प्रधानमंत्री के पद पर बैठा कोई व्यक्ति वोट के ज़रिए फाँसी देने की बात कैसे कर सकता है ?

कमल के निशान वाले बटन को दबाते हुए फाँसी देने की बात उसी तरह के विचार की पुनराभिव्यक्ति है जो पार्टी के असहिष्णु मुख्यमंत्रियों/नेताओं द्वारा सांप्रदायिक आधार पर दी जाने वाली इस तरह की चेतावनियों में सामने आता रहा है कि : ’बुलडोज़र चलवा दूँगा’, ‘ज़मीन में गड़वा दूँगा’ और ‘देश के ग़द्दारों को, गोली मारी सालों को’। या फिर जो पिछले कुछ सालों में सड़कों पर देखी गई मॉब लिंचिंग की घटनाओं अथवा कथित ‘धार्मिक संसदों’ के उत्तेजक संबोधनों में प्रकट हो चुका है !

प्रधानमंत्री ने अपने प्रथम कार्यकाल की शुरुआत ही देश को कांग्रेस से मुक्त करने के नारे के साथ की थी। अब तीसरी पारी की शुरुआत के पहले देश की सबसे पुरानी पार्टी को चुनावी बटन के ज़रिए फाँसी देने का विचार देश में विपक्ष की ज़रूरत के प्रति उनके तीव्र विरोध को उजागर करता है।

विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री के भाषणों से जो ध्वनि निकली उसमें जनता से जुड़े मुद्दों पर संवाद के ज़रिए पार्टी को जीत हासिल कराने की कोशिशों के बजाय पराजय को किसी भी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने का भाव ही ज़्यादा मुखरता से व्यक्त हुआ। ठीक उसी तरह जैसे अत्यधिक आत्मविश्वास के बावजूद जब अमेरिकी जनता ने डॉनल्ड ट्रम्प को हरा दिया तो वे अपनी पराजय को इतने सालों के बाद आज तक भी स्वीकार नहीं कर पाए हैं। यही कारण रहा कि उनके समर्थक भी हार मानने के लिए तैयार नहीं हुए और 6 जनवरी 2020 को वाशिंगटन स्थित अमेरिकी संसद पर जो कुछ हुआ उसे भारत सहित सारी दुनिया ने देखा।

तीन दिसंबर की मतगणना के बाद मनोवैज्ञानिकों/ चुनावी विशेषज्ञों की किसी टीम को ‘बायतु’ के नतीजों का विश्लेषण करने के लिए रवाना किया जाना चाहिए। वह टीम वहाँ पहुँचकर न सिर्फ़ इतने अधिक मतदान (83.44 प्रतिशत) के कारणों का पता लगाए, इस बात का विश्लेषण भी करे कि प्रधानमंत्री की ‘फाँसी वाली’ अपील का क्षेत्र के मतदाताओं के दिलो-दिमाग़ पर क्या प्रभाव पड़ा ? टीम द्वारा जुटाई जाने वाली जानकारी लोकसभा चुनावों की दृष्टि से देश के राजनीतिक दलों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बाबा रामदेव कहीं धीरेन्द्र ब्रह्मचारी की तरह 'फ्लाइंग गुरु' न बन जाएं: आलोक मेहता

बहरहाल यह स्वीकारना होगा कि बाबा रामदेव के योग प्रचार और आयुर्वेद के उपयोग पर भी किसी को आपत्ति नहीं है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 27 November, 2023
Last Modified:
Monday, 27 November, 2023
aalok

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

बाबा रामदेव ने योग के प्रचार-प्रसार के साथ न केवल सत्ता की राजनीति में प्रभाव बनाया बल्कि अब देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चुनौती देते हुए दवाइयों के व्यापार से अपना आर्थिक साम्राज्य सा खड़ा कर लिया है। विभिन्न राज्यों में जमीन लेने और दवाइयों और घातक बीमारियों से बचाव के दावों से विवादों में उलझते जा रहे हैं। इसलिए भारत में नेहरू इंदिरा सत्ता काल में योग शिक्षा से सरकारों में प्रभाव और जमीनों, विमानों की खरीदी तथा हथियारों की फैक्ट्री और धंधों के कारण संकट में पड़ गए थे। उन्हें फ्लाइंग गुरु कहा जाता था। भारत के पहले समाचार टेलीविजन दूरदर्शन से धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने योग शिक्षा शुरु की थी, लेकिन बहुत धंधा करने पर रातों रात वह कार्यक्रम बंद हुआ था।

बहरहाल यह स्वीकारना होगा कि बाबा रामदेव के योग प्रचार और आयुर्वेद के उपयोग पर भी किसी को आपत्ति नहीं है। उनके गलत दावों और व्यापार के लिए देश दुनिया में कमाई, जमीन लेने, नियम कानून का पालन नहीं करने के आरोप गंभीर हैं। वह तो सुप्रीम कोर्ट को भी चुनौती दे रहे हैं कि चाहे एक हजार करोड़ का जुर्माना करें या फांसी की सजा दे दें , उनके दावे, दवा, इलाज ही सही है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों  बाबा रामदेव  और उनकी  कंपनी पतंजलि आयुर्वेद को फटकार लगाई है। मॉडर्न मेडिसिन सिस्टम यानी आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ भ्रामक दावे और विज्ञापन प्रचार करने को लेकर ये फटकार लगाई गई है। भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने याचिका दायर की थी।

जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की। जस्टिस अमानुल्लाह ने कहा- पतंजलि आयुर्वेद को सभी झूठे और भ्रामक दावों वाले विज्ञापनों को तुरंत बंद करना होगा। कोर्ट ऐसे किसी भी उल्लंघन को बहुत गंभीरता से लेगा और हर एक प्रोडक्ट के झूठे दावे पर एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना भी लगा सकता है। इसके बाद कोर्ट ने निर्देश दिया कि पतंजलि आयुर्वेद भविष्य में ऐसा कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं करेगा और यह भी सुनिश्चित करेगा कि प्रेस में उसकी ओर से इस तरह के कैज़ुअल स्टेटमेंट न दिए जाएं। बेंच ने यह भी कहा कि वह इस मुद्दे को 'एलोपैथी बनाम आयुर्वेद' की बहस नहीं बनाना चाहती बल्कि भ्रामक चिकित्सा विज्ञापनों की समस्या का वास्तविक समाधान ढूंढना चाहती है।

बेंच ने भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से कहा कि केंद्र सरकार को समस्या से निपटने के लिए एक व्यवहारपूर्ण समाधान ढूंढना होगा। कोर्ट ने सरकार से कंसल्टेशन के बाद कोर्ट में आने को कहा है। इस मामले पर अगली सुनवाई 5 फरवरी 2024 को होगी। पिछले साल भी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की याचिका पर नोटिस जारी करते हुए कोर्ट ने एलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ बयान देने के लिए बाबा रामदेव को फटकार लगाई थी। तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने तब कहा था 'बाबा रामदेव अपनी चिकित्सा प्रणाली को लोकप्रिय बना सकते हैं, लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना क्यों करनी चाहिए। हम सभी उनका सम्मान करते हैं, उन्होंने योग को लोकप्रिय बनाया लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना नहीं करनी चाहिए।

रामदेव बाबा ने दावा किया था कि उनके प्रोडक्ट कोरोनिल और स्वसारी से कोरोना का इलाज किया जा सकता है। इस दावे के बाद कंपनी को आयुष मंत्रालय ने फटकार लगाई और इसके प्रमोशन पर तुरंत रोक लगाने को कहा था। 2015 में कंपनी ने इंस्टेंट आटा नूडल्स लॉन्च करने से पहले फूड सेफ्टी एंड रेगुलेरिटी ऑथोरिटी ऑफ इंडिया (FSSAI) से लाइसेंस नहीं लिया था। इसके बाद पतंजलि को फूड सेफ्टी के नियम तोड़ने के लिए लीगल नोटिस का सामना करना पड़ा था।
2015 में कैन्टीन स्टोर्स डिपार्टमेंट ने पतंजलि के आंवला जूस को पीने के लिए अनफिट बताया था। इसके बाद सीएसडी ने अपने सारे स्टोर्स से आंवला जूस हटा दिया था। 2015 में ही हरिद्वार में लोगों ने पतंजलि घी में फंगस और अशुद्धियां मिलने की शिकायत की थी। 2018 में भी FSSAI ने पतंजलि को मेडिसिनल प्रोडक्ट गिलोय घनवटी पर एक महीने आगे की मैन्युफैक्चरिंग डेट लिखने के लिए फटकार लगाई थी। कोरोना के अलावा, रामदेव बाबा कई बार योग और पतंजलि के प्रोडक्ट्स से कैंसर, एड्स और होमोसेक्सुअलिटी तक ठीक करने के दावे को लेकर विवादों में रहे हैं।

पतंजलि फूड्स के नए प्रोडक्ट लॉन्च करने के मौके पर बाबा रामदेव ने कहा  था कि अभी पतंजलि ग्रुप का टर्नओवर करीब 45 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है और दुनिया में क़रीब 200 करोड़ और भारत में 70 करोड़ लोगों तक हमारी पहुंच है। बाबा रामदेव ने अनाज, दूध की तरह खाद्य तेलों में भी देश को आत्मनिर्भर बनाने का अपना विजन रखते हुए कहा है कि 20 लाख एकड़ जमीन पर पाम प्लांटेशन का काम करना। उन्होंने कहा कि अगले पांच साल में पतंजलि का टर्नओवर 1 लाख करोड़ तक करने का लक्ष्य रखा गया है, जो अभी पतंजलि ग्रुप का टर्नओवर करीब 45 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है। एक लाख करोड़ रुपये कारोबार का लक्ष्य हासिल करने में समूह की कंपनी पतंजलि फूड्स (पूर्व में रुचि सोया) अहम भूमिका निभाएगी।
 
बाबा रामदेव ने दावा किया है कि पतंजलि  खुद पाम ऑयल का उत्पादन करेगा। इसकी खेती के लिए 40 से 50 हजार किसान पतंजलि से जुड़ चुके हैं और आने वाले समय में किसानों की संख्या 5 लाख तक करनी है। ऐसे में पतंजलि में पाम ऑयल का उत्पादन शुरू होने से 5 लाख किसानों को सीधे रोजगार मिल सकेगा। असम, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश सहित 12 राज्यों में किसान पतंजलि से जुड़कर पाम ऑयल की खेती कर रहे हैं। अभी बंजर जमीन समेत उस जमीन पर प्लांटेशन हो रहा है, जो उपजाऊ नहीं है। इससे जंगल बढ़ेगा, पेड़ बढ़ेंगे, आक्सीनजन की मात्रा बढ़गी, बारिश ज्यादा होगी, जमीन उपजाऊ होगी और किसान की समृद्धि बढ़ेगी। पर्यावरण का नुकसान का सवाल ही नहीं है। खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता कम होगी। उन्होंने कहा कि खाद्य तेलों में पतंजलि की ओर से सालाना दस लाख टन का प्रोडक्शन हो सकेगा। यह पांच साल का प्रोजेक्ट है।

एक दिन में पाम बोया जाता है, लगभग 35 से 40 साल तक चलता है। पतंजलि फूड्स के नए प्रोडक्ट लॉन्च करने के मौके पर बाबा रामदेव ने कहा कि अभी पतंजलि ग्रुप का टर्नओवर करीब 45 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है और दुनिया में क़रीब 200 करोड़ और भारत में 70 करोड़ लोगों तक हमारी पहुंच है। उन्होंने कहा कि हमने कई विदेशी कंपनियों को शीर्षासन कराकर भारतीय बाज़ार से विदा किया है। पतंजलि फूड्स ने 14 नए प्रोडक्ट लॉन्च किए हैं। पतंजलि फूड्स ने प्रीमियम प्रोडक्ट लॉन्च करने के अभियान में बिस्कुट, न्यूट्रेला के बाजरे से बने उत्पाद और प्रीमियम सूखे मेवों समेत कई उत्पाद लॉन्च किए । बाबा रामदेव ने कहा कि पतंजलि ने गाय के घी का 1500 करोड़ रुपये का ब्रांड बनाया है और जल्द ही पतंजलि की तरफ से बफेलो घी भी लॉन्च किया जाएगा। पतंजलि फूड्स लिमिटेड का नाम पहले रुचि सोया इंडस्ट्रीज था और पतंजलि के इसका अधिग्रहण करने के बाद रुचि सोया का नाम बदलकर पतंजलि फूड्स किया है। पतंजलि का नाम सामने आते ही हर किसी के जेहन में बाबा रामदेव की तस्‍वीर उतर आती है।

ज्‍यादातर लोगों को यही लगता है कि बाबा रामदेव ही इस कंपनी के असली मालिक हैं, लेकिन वास्‍तविकता इससे इतर है। पतंजलि की शुरुआत साल 2006 में हरिद्वार से हुई थी और योग गुरु बाबा रामदेव शुरुआत में इस कंपनी के सिर्फ ब्रांड प्रमोटर थे। कॉरपारेट मंत्रालय के अनुसार, कंपनी की 93 फीसदी से ज्‍यादा हिस्‍सेदारी आचार्य बालकृष्‍ण के पास है, जो अभी पतंजलि आयुर्वेद के एमडी, चेयरमैन और सीईओ हैं। बाबा रामदेव की कुल संपत्ति करीब 20 हजार करोड़ रुपये है, जिसमें सबसे बड़ा हिस्‍सा रॉयल्‍टी के तौर पर आता है। बाबा रामदेव कंपनी के ब्रांडिंग प्रमोटर हैं और कंपनी की मार्केटिंग के लिए योग गुरु के तौर पर अपने चेहरे का इस्‍तेमाल करते हैं। बालकृष्‍ण सुवेदी, जिन्‍हें आचार्य बालकृष्‍ण के नाम से जाना जाता है, उनके माता-पिता नेपाल के रहने वाले थे और बाद में भारत आ गए थे।

हरियाणा के एक गुरुकुल में साल 1995 में उनकी मुलाकात बाबा रामदेव से हुई थी। शुरुआत में उन्‍होंने दिव्‍य फार्मेसी के नाम से कारोबार शुरू किया, जो बाद में पतंजलि ब्रांड बन गया। कंपनी में शीर्ष पदों पर भर्ती से लेकर मार्केटिंग और ब्रांडिंग तक सभी काम आचार्य बालकृष्‍ण ही देखते हैं। करीब 40 हजार करोड़ रुपये के पतंजलि समूह के मालिक और सीईओ आचार्य बालकृष्‍ण हैं। समूह के तहत वे करीब 34 कंपनियों और तीन ट्रस्‍ट की अगुवाई करते हैं। बाबा रामदेव को गाड़ियों का काफी शौक है। योग गुरू को हाल ही में Mahindra XUV700 को चलाते हुए देखा गया है। सोशल मीडिया पर शेयर एक वीडियो में रामदेव अपने साथी के साथ नई कार में घूमते हुए दिखाई दे रहे हैं।

बाबा रामदेव जिस XUV700 को चलाते हुए देखे गए हैं, उसमें पैनोरमिक सनरूफ दिखाई दे रहा है, इसका मतलब साफ है कि ये गाड़ी टॉप मॉडल है। उन्हें कुछ समय पहले जगुआर एक्सजे एल में देखा गया था। बालकृष्ण के पास लैंड रोवर रेंज रोवर लग्जरी गाड़ी है। बाबा रामदेव एक उत्साही बाइकर रहे हैं। अब तो वह विशेष निजी विमानों से देश विदेश की यात्राएं भी करने का दावा करने लगे हैं। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी विमानों के शौक़ीन थे और योग शिक्षा के लिए जयप्रकाश नारायण और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ पंडित नेहरू और श्रीमती इंदिरा गाँधी को प्रभावित कर बाद में सत्ता की राजनीति तथा आर्थिक धंधों में लग गए थे। बाबा रामदेव ने भी योग के जरिये ही देश के विभिन्न दलों के नेताओं और फिर अन्ना आंदोलन के बाद भाजपा की सत्ता का हर संभव लाभ उठाते रहे हैं।

लेकिन योग से अधिक कंपनियों के व्यापार से आर्थिक साम्राज्य बना रहे हैं। लेकिन नियम कानून की अनदेखी और अहंकार के साथ यह आर्थिक उड़ानें कहीं उनके लिए गंभीर संकट न पैदा कर दे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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असहमति के साथ-साथ उसकी मंशा और उद्देश्यों पर भी ध्यान दें: अनंत विजय

देश में चुनाव होते हैं तो कभी पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा जाता है तो कभी असहिष्णुता को लेकर असहमति निर्माण का प्रयास किया जाता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 27 November, 2023
Last Modified:
Monday, 27 November, 2023
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।।

शुक्रवार को भुनेश्वर में आयोजित एसओए साहित्य उत्सव में भाग लेने का अवसर मिला। इसके उद्घाटन सत्र में प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी का वक्तव्य हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में आशीष नंदी ने कई बार डिस्सेंट (असहमति) शब्द का उपयोग किया। उन्होंने साहित्यकारों की रचनाओं में असहमति के तत्व की बात की। उसकी महत्ता को भी स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपने भाषण के आरंभ में उन्होंने कहा था कि वो कोई विवादित बयान नहीं देंगे। लेकिन असहमति की बात करते हुए उन्होंने एक किस्सा सुनाया। कहा कि एक कवयित्री हैं जो नरेन्द्र मोदी के बारे में  हमेशा अच्छा अच्छा लिखती थी। उनकी प्रशंसा करती थी। उस कवयित्री को उन्होंने नरेन्द्र मोदी का प्रशंसक तक बताया। फिर आगे बढ़े और कहा कि एक दिन उस कवयित्री ने गंगा नदी में बहती लाशों के बारे में लिख दिया। इसके बाद उसके प्रति कुछ लोगों का नजरिया बदल गया।

वो इंटरनेट मीडिया पर ट्रोल होने लगी। इस किस्से के बाद वो अन्य मुद्दों पर चले गए। कहना न होगा कि आशीष नंदी का इशारा कोविड महामारी के दौरान गंगा नदी में बहती लाशों की ओर था। वो इतना कहकर आगे अवश्य बढ़ गए लेकिन वहां उपस्थित लोगों के मन में असहमति को लेकर एक संदेह खड़ा कर गए। परोक्ष रूप से वो ये कह गए कि वर्तमान केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर असहमति प्रकट करने के बाद प्रहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। यहां आशीष नंदी ये बताना भूल गए कि कोविड महामारी के दौरान गंगा में बहती लाशों को लेकर जो भ्रम फैलाया गया था वो एक षडयंत्र का हिस्सा था। केंद्र के साथ साथ उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा करने की मंशा से ये नैरेटिव बनाने का प्रयास किया गया था।

उसी समय दैनिक जागरण ने गंगा नदी में बहती लाशों को लेकर उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक पड़ताल की थी। उस झूठ का पर्दाफाश किया था कि लाशें महामारी की भयावहता को छिपाने के लिए गंगा में बहा दी गईं थीं। बाद में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने भी गंगा में तैरती लाशों वाले उस नैरेटिव पर ध्यान नहीं दिया। किड महामारी के बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में फिर से योगी आदित्यनाथ की सरकार को जनादेश देकर उस विमर्श को खत्म कर दिया था।

इन दिनों असहमति को लेकर खूब चर्चा होती है। यह भी कहा जाता है कि असहमति को दबाने का प्रयास किया जाता है। कई बार ये कहते हुए केंद्र सरकार के विरोध में अपनी राय रखनेवाले कथित बुद्धिजीवि असहमति को दबाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  पर आरोप भी लगाते हैं। यहां वो असहमति का एक महत्वपूर्ण पक्ष बताना भूल जाते हैं। असहमति का अधिकार लोकतंत्र में होता है, होना भी चाहिए लेकिन असहमति के साथ साथ उसकी मंशा और उद्देश्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। डिस्सेंट जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है उस डिसेंट के पीछे का इंटेंट। अगर असहमति के पीछे छिपी मंशा किसी दल या विचारधारा का विरोध है तो उसको भी उजागर करना चाहिए।

उसको भी असहमति के साथ ही रखकर विचार किया जाना चाहिए। अगर किसी विचार से असहमति हो और उसके पीछे मंशा वोटरों को लुभाने की हो तो उसपर खुलकर बात की जानी चाहिए। बौद्धिक और साहित्य जगत में असहमति होना आम बात है लेकिन अगर किसी रचना का उद्देश्य किसी विचारधारा विशेष को पोषित करना और उसके माध्यम से पार्टी विशेष को लाभ पहुंचना है तो फिर उस असहमति का प्रतिकार करने का अधिकार सामने वाले को भी होना ही चाहिए। वामपंथ में आस्था रखनेवाले बुद्धिजीवियों ने वर्षों तक ये किया। इल तरह का बौद्धिक छल कहानी, कविता और आलोचना के माध्यम से हिंदी जगत में वर्षों तक चला, अब भी चल ही रहा है। वामपंथी पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ट की तरह कार्य करनेवाले लेखक संगठनों से जुड़े लेखकों ने अपनी रचनाओं में वामपंथी विचारों को परोसने का काम किया।

पाठकों को जब उनकी ये प्रवृति समझ में आई तो वो इस तरह की रचनाओं को खारिज करने लगे। इस तरह की रचना करनेवाले लेखकों की विश्वसनीयता भी पाठकों के बीच संदिग्ध हो गई। ये अकारण नहीं है कि एक जमाने में वामपंथ को पोषित करनेवाली लघुपत्रिकाएं धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। उनके बंद होने के पीछे इन लेखक संगठनों के मातृ संगठनों का कमजोर होना भी अन्य कारणों में से एक कारण रहा। इन मातृ संगठनों के कमजोर होने की वजह उनमें लोगों का भरोसा कम होना भी रहा। आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री जब असहमति की पैरोकारी करते हैं तो इस महत्वपूर्ण पक्ष को ओझल कर देते हैं।

अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन ने 1922 में जनमत के प्रबंधन के लिए एक शब्द युग्म प्रयोग किया था, मैनुफैक्चरिंग कसेंट (सहमति निर्माण)। उसके बाद कई विद्वानों ने इस शब्द युग्म को अपने अपने तरीके से व्याख्यायित किया। एडवर्ड हरमन और नोम चोमस्की ने 1988 में एक पुस्तक लिखी मैनुफैक्चरिंग कंसेंट, द पालिटिकल इकोनामी आफ द मास मीडिया। इस पुस्तक में लेखकों का तर्क था कि अमेरिका में जनसंचार के माध्यम सरकारी प्रोपगैंडा का शक्तिशाली औजार है और उसके माध्यम से सरकारें अपने पक्ष में सहमति का निर्माण करती हैं।

उनके ही तर्कों को मानते हुए अगर थोड़ा अलग तरीके से देखें तो हम कह सकते हैं कि हमारे देश में एक खास विचारधारा के पोषक मैनुफैक्चरिंग डिस्सेंट में लगे हैं। यानि वो अपने विचारों से, अपने वक्तव्यों से, अपने लेखन से असहमति का निर्माण करने का प्रयास करते हैं जिससे परोक्ष रूप से सरकार के विरोधी राजनीतिक दलों के प्रोपैगैंडा को बल प्रदान किया जा सके। इस असहमति के निर्माण में लोकतंत्र, जनतंत्र, संवैधानिक अधिकारों की एकांगी व्याख्या आदि का सहारा लिया जाता है ताकि उनको तर्कों को विश्वसनीयता का बाना पहनाकर जनता के सामने पेश किया जा सके। यहां वो यह भूल जाते हैं कि भारत और यहां की जनता अब पहले की अपेक्षा अधिक समझदार हो गई है, शिक्षा का स्तर बढ़ने और लोकतंत्र के गाढ़ा होने के कारण असहमति निर्माण का खेल बहुधा खुल जाता है। बौद्धिक जगत में भी अब असहमति निर्माण करनेवालों के सामने उनके उद्देश्य को लेकर प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं। परिणाम यह होने लगा है कि जनता को समग्रता में सोचने विचारने का अवसर मिलने लगा है।

हमारे देश में असहमति निर्माण का ये खेल चुनावों के समय ज्यादा दिखाई देता है। जब जब देश में चुनाव होते हैं तो कभी पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा जाता है तो कभी असहिष्णुता को लेकर असहमति निर्माण का प्रयास किया जाता है तो कभी फासीवाद का नारा लगाकर तो कभी संस्थाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कब्जे का भ्रम फैलाकर। कई बार हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस चलाकर भी। लेकिन इन सबके पीछे का उद्देश्य एक ही होता है कि किसी तरह से मोदी सरकार की छवि धूमिल हो सके ताकि चुनाव में विपक्षी दलों को उसका लाभ मिल सके।

लेकिन हो ये रहा है कि न तो पुरस्कार वापसी का प्रपंच चल पाया, न ही असहिष्णुता का आरोप गाढ़ा हो पाया। फासीवाद फासीवाद का नारा लगाने वाले भी अब ये जान चुके हैं कि ये शब्द भारत और यहां की राजनीति के संदर्भ में अपना अर्थ खो चुके हैं। हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस भी अब मंचों तक सीमित होकर रह गई है। अगले वर्ष के आरंभ में आम चुनाव होनेवाले हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि असहमति निर्माण के इस खेल में नए नए तर्क ढूंढे जाएं। पर असहमति निर्माण में लगे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये जो जनता है वो सब जानने लगी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या AI मानवता को नष्ट कर देगा? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

यह हमारी तरह या हमसे बेहतर लिख सकता है। दुनिया की लगभग हर जानकारी इसके पास है जिसे प्रोसेस कर कुछ पलों में जवाब मिल जाता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 27 November, 2023
Last Modified:
Monday, 27 November, 2023
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मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

Open AI दुनिया का सबसे क़ीमती स्टार्ट अप है। इसने पिछले साल ChatGPT लाँच किया है। इस कंपनी की कीमत 86 बिलियन अमेरिकी डॉलर है यानी 72 लाख करोड़ रुपये। भारत के शेयर बाजार में दस क़ीमती कंपनियों (जैसे रिलायंस, TCS, HDFC, हिंदुस्तान लीवर) का जोड़ इसके बराबर बैठता है। पिछले हफ़्ते Open AI के बोर्ड ने CEO सैम अल्टमैन को निकाल दिया। कंपनी में कर्मचारियों ने बग़ावत कर दी। फिर सबसे बड़े शेयर होल्डर माइक्रोसॉफ़्ट ने दबाव बनाया। काफी नाटक हुआ। सैम अल्टमैन फिर CEO बन गए। उनको निकालने वाले बोर्ड को ही निकाल दिया गया। इस घटनाक्रम के बाद आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस (AI) की दुनिया बदल जाएगी।

AI को लेकर दो विचार है। पहला विचार कहता है कि यह दुनिया में क्रांति लाने वाला आइडिया है। जैसे भाप का इंजन, बिजली, पर्सनल कंप्यूटर या इंटरनेट ने हमारी दुनिया बदल दी। पिछले साल भर में हमें इसकी झलक मिली है ChatGPT से। यह हमारी तरह या हमसे बेहतर लिख सकता है। दुनिया की लगभग हर जानकारी इसके पास है जिसे प्रोसेस कर कुछ पलों में जवाब मिल जाता है। ये कम्प्यूटर कोड लिख सकता है। इससे नौकरी जाने का ख़तरा है। इस विचार के समर्थक कहते हैं कि AI हमें बाक़ी चीज़ों के लिए फ़्री कर देगा। जीवन बेहतर होगा।

दूसरा विचार AI को लेकर आशंकित हैं। यह विचार कहता है कि AI मानवता को ख़त्म कर सकता है। इसके डेवलपमेंट में सोच समझ कर आगे बढ़ना चाहिए। इसी विचार ने Open AI को 2015 में नॉन प्रॉफिट कंपनी बनाया था। इसका उद्देश्य प्रॉफिट कमाना नहीं था। AI का उपयोग मानवता की भलाई के लिए करना था। कंपनी के बोर्ड के मेंबर इसी विचार के समर्थक थे। सैम अल्टमैन कंपनी के फाउंडर हैं पर बोर्ड के इन विचारों से सहमत नहीं थे। 2019 में उन्होंने प्रॉफिट का रास्ता चुना। माइक्रोसॉफ़्ट ने इन्वेस्टमेंट किया।

बोर्ड अपनी जगह बना रहा। पिछले साल ChatGPT के लाँच ने अल्टमैन को सुपर स्टार बना दिया। वो कमर्शियल इस्तेमाल के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ना चाहते थे। बोर्ड से इसी बात पर टकराव हुआ। अल्टमैन की जीत हुई। न्यूयार्क टाइम्स ने हेडलाइन दी कि AI now belongs to capitalists यानी AI पर अब पूँजीवादियों का क़ब्ज़ा हो गया है। सैम अल्टमैन को निकालते समय बोर्ड ने कहा था कि वो हमसे कुछ बातें छिपा रहे थे। अभी तक साफ़ नहीं है कि वो क्या छिपा रहे थे।

रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ Open AI ने Q* ( Q Star) प्रोजेक्ट बना लिया है। ये AI यानी आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस का अगला चरण है। इसे AGI यानी आर्टिफिशयल जनरल इंटेलिजेंस कहते हैं। Open AI के मुताबिक़ AGI वो ज़्यादातर काम कर लेगा जो मानव कर सकता है। मानव की तरह सोच सकता है। AI को ट्रेनिंग देनी पड़ती है। वो वही काम या जवाब दे सकता है जिसकी ट्रेनिंग मिली है जबकि AGI ख़ुद भी सीख सकता है। इसीलिए मानवता के लिए ख़तरा माना जा रहा है। क्या होगा यदि मशीन ने तय कर लिया कि मानवता को नष्ट कर देना है? अभी इसका कोई जवाब नहीं है। इतना ज़रूर कह सकते हैं कि AI पर सतर्कता बरतने वाले विचार की हार हो गई है।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

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देश एक बड़े परिवर्तन की ओर है, साल 2024 निर्णायक होने वाला है: पूरन डावर

प्रख्यात पत्रकार एवं साहित्यकार राजेश बादल जी ने मध्य प्रदेश चुनाव के संदर्भ में वर्ष 1993 और वर्ष 2003 की कुछ चुनावी रिपोर्ट्स रखीं तो लगता है कि आज भी वही मुद्दे, वही विश्लेषण है।

पूरन डावर by
Published - Sunday, 26 November, 2023
Last Modified:
Sunday, 26 November, 2023
Puran Dawar .

पूरन डावर, सामाजिक चिंतक एवं विश्लेषक।।

प्रख्यात पत्रकार एवं साहित्यकार राजेश बादल जी ने मध्य प्रदेश चुनाव के संदर्भ में वर्ष 1993 और वर्ष 2003 की कुछ चुनावी रिपोर्ट्स रखीं तो लगता है कि आज भी वही मुद्दे, वही विश्लेषण है। यदि उसी रिपोर्ट को आज अक्षरश: प्रस्तुत कर दिया जाए तो कतई अंतर नहीं आएगा। शत प्रतिशत चुनाव उन्हीं मुद्दों पर हो रहा है, लेकिन लोकसभा की वोटिंग बड़े और अलग मुद्दों पर हो रही है।

देश एक बड़े परिवर्तन की ओर है। अभी तक अगर हमने बबूल के पेड़ बोए हैं तो आम तो लगेंगे नहीं। हमने शिक्षा दी है और हुनर छीना है। सबका मकसद नौकरी कर दिया है। मात्र 7.3% नौकरियां हैं और हम उसकी लाइन में लगे हैं तो निराशा हाथ लगना स्वाभाविक है। कूट-कूटकर भर दिया गया है कि अंग्रेजी बोलने वाले ही पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेज़ी प्रोडक्ट ही अच्छा है। जो अंग्रेज कहते हैं, वही सही है।

युवाओं को समझना होगा कि टाटा से लेकर अंबानी तक तमाम बड़ी हस्तियों ने अपने सफर की शुरुआत जमीनी स्तर से की है। 'उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख समान' यह समझना पड़ेगा और डिग्री आपको कोई भी काम करने से रोकती है तो उसे साइड में उठाकर रखना होगा।

भाषा वही रखनी होगी जो आम आदमी तक पहुंच सके। अंग्रेजी झाड़कर रौब बनाकर या प्रभावी साहित्यिक भाषा में बातकर आम आदमी का जीवन नहीं बदला जा सकता। विलायती बबूल की जरूरत उस समय जंगल के लिए जमीन घेरने के लिए थी, उसी तरह शिक्षित करने के लिए जो व्यवस्था मिली, स्थान दिया।

विडंबना यह है कि आजादी और भ्रष्टाचार के उन्माद में अपनी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गईं और विलायती बबूल के जंगल में हम खो गए और जंगलों से जंगली भी सड़कों पर आ गए। आज सड़कों पर बंदरों का आतंक भी कम नहीं है। छायादार, फलदार पेड़ ही लगाने होंगे, विलायती बबूल को अब साफ करने का समय है।

इतिहास के प्रस्तुतिकरण में जो गलतियां हुई हैं, वह सुधारनी होंगी। तुष्टिकरण के मुद्दे, जातिवादी मुद्दे हल करने ही होंगे। इतिहास की गलतियों और उनके दूरगामी परिणामों पर दृष्टि भी रखनी होगी और सुधार भी करना होगा। यह कड़वी अवश्य लगती है और वर्तमान में उथल-पथल भी कर सकती हैं। प्रजातंत्र की प्रक्रिया इसलिये धीमी है।

बिलकुल! यही तो महात्मा गांधी के स्वराज की भावना थी। उसी भावना पर काम हो रहा है। बाकी सरकार चलानी है तो राजनीति भी करनी ही होगी। व्यवस्था सुधारने में लंबा समय लगेगा। जनसंख्या कानून, एक देश एक कानून, एक देश एक चुनाव (स्थानीय निकायों से लेकर राज्य और लोकसभा तक एक साथ) न्याय प्रक्रिया में बड़ा सुधार और पुराने एक्ट समाप्त कर समयबद्ध न्याय, इन्हीं की आशा मोदी जी से है और उसी पर जनता वोट कर रही है, साल 2024 निर्णायक होने वाला है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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निरंतरता बनाम बदलाव की लड़ाई हैं ये विधानसभा चुनाव: विनोद अग्निहोत्री

लोकसभा चुनावों के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इससे भी ज्यादा घमासान होगा जितना कि इन चुनावों में हुआ है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 25 November, 2023
Last Modified:
Saturday, 25 November, 2023
vinodagnihotri

विनोद अग्निहोत्री , वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।

उत्तर भारत के तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनावों का शोर थम चुका है। वादों का दौर बीत चुका है और अब दलों के अपने अपने दावे हैं। तीन दिसंबर को इन चुनावों के नतीजे आ जाएंगे और तय हो जाएगा कि अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कौन ज्यादा जोश और हौसले से मैदान में उतरेगा। लेकिन इन विधानसभा चुनावों में दोनों तरफ से जो सियासी माहौलबंदी हुई है उसने साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनावों के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इससे भी ज्यादा घमासान होगा जितना कि इन चुनावों में हुआ है। इन चुनावों में मुख्य रूप से मुकाबला परिवर्तन और निरंतरता के नारों के बीच हुआ।

जहां मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने परिवर्तन का नारा देकर चुनाव लड़ा तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा ने परिवर्तन की बात की। जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा ने निरंतरता को मुद्दा बनाया तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने निरंतरता के लिए वोट मांगे।

इन विधानसभा चुनावों के प्रचार में मूर्खों के सरदार से लेकर पनौती जैसे विशेषणों ने न सिर्फ भाषा की मर्यादा तो तार तार कर दिया बल्कि राजनीतिक विरोध किस हद तक शत्रुता में बदल चुका है यह भी बता दिया। छत्तीसगढ़ में महादेव एप के कथित घोटाले को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर लगने वाले आरोपों और मध्य प्रदेश में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे के करोड़ों रुपए के लेन देने के कथित वीडियो ने राजनीतिक भ्रष्टाचार को भी प्रचार के केंद्र में ला दिया। राजस्थान में कन्हैयालाल हत्याकांड के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने हिंदुत्व के ध्रुवीकरण का अपना चिर परिचित दांव चला तो चारो राज्यों में लगातार जातीय जनगणना और पिछड़ों दलितों आदिवासियों की हिस्सेदारी का मुद्दा उठाकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जातीय ध्रुवीकरण का नया दांव आजमाने की पूरी कोशिश की है।

मध्य प्रदेश जहां 2018 में कांग्रेस ने थोड़े अंतर से जीत कर अपनी सरकार बनाई थी, लेकिन 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक विधायकों के साथ दलबदल के बाद भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में सरकार बनाने से यहां चुनाव का मुख्य मुद्दा भाजपा और शिवराज सरकार के 18 साल बनाम कमलनाथ और कांग्रेस के डेढ़ साल के शासन और दलबदल करके सरकार छीनने का बन गया।

अपने लंबे शासनकाल को लेकर पार्टी और जनता में संभावित सत्ता विरोधी रुझान को कमजोर करने के लिए शिवराज सिंह चौहान ने लाड़ली बहना योजना के जरिए पात्र महिलाओं के खाते में बारह सौ रुपए प्रतिमाह देने का मजबूत दांव चला। जिसकी काट के लिए कांग्रेस योजना की राशि बढ़ाकर 15 सौ रुपए करने की घोषणा की।पूरा चुनाव लाड़ली बहना योजना बनाम कांग्रेस की गारंटियों के बीच लड़ा गया। जहां कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में परिवर्तन का नारा दिया तो भाजपा ने निरंतरता को अपना मुद्दा बनाया।

अब जनता परिवर्तन के साथ गई या निरंतरता के इसे लेकर अलग अलग दावे हैं, लेकिन जहां कांग्रेस ने बिना घोषणा के कमलनाथ को अपना चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा वहीं भाजपा ने पहले शिवराज सिंह चौहान को पीछे रखा और यहां तक कि पहली तीन सूचियों में उनके टिकट की भी घोषणा नहीं हुई। बाद में जब शिवराज खुद जनता के बीच जाकर चुनाव लड़ने या न लड़ने पर लोगों से राय लेने लगे तो भाजपा ने चौथी सूची में उनकी सीट बुधनी से उन्हें अपना उम्मीदवार बना दिया। बावजूद इसके पूरे चुनाव में शिवराज तो अपनी सबसे बड़ी योजना लाड़ली बहना का जिक्र करके वोट मांगते रहे लेकिन भाजपा के अन्य सभी शीर्ष नेताओं ने ज्यादा वक्त कांग्रेस पर हमला करने में बिताया।

 मध्य प्रदेश के उलट छत्तीसगढ़ में भाजपा ने बदलाव का नारा दिया तो कांग्रेस द्वारा निरंतरता के लिए भूपेश बघेल सरकार के द्वारा किए गए तमाम लोक कल्याणकारी कामों को गिनाते हुए अगली सरकार बनने पर कई अन्य लोक कल्याणकारी लोकलुभावन योजनाएं जारी करने की घोषणा की गई। भाजपा ने बघेल सरकार और खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तक पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए लेकिन बघेल ने किसानों आदिवासियों और गरीबों के कल्याण के लिए उनकी सरकार द्वारा तमाम कामों का ब्यौरा देते हुए भाजपा के आरोपों को खारिज करते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि भाजपा किसानों आदिवासियों मजदूरों युवाओं के हितों के खिलाफ है।

यहां भाजपा हिंदुत्व को मुद्दा नहीं बना सकती क्योंकि बघेल सरकार ने राम वन गमन पथ, माता कौशल्या मंदिर से लेकर गोसेवा के कार्यक्रमों के जरिए हिंदुत्व की धार को नरम कर दिया।साथ ही भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया का नारा देकर खुद को छत्तीसगढ़िया पहचान का प्रतीक बनाने का दांव भी चला। राजस्थान में भी इस बार लड़ाई बेहद दिलचस्प हो गई है। इस राज्य में 1993 से लगातार हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज है और इसीलिए हर चुनाव में आमतौर पर यह कहना आसान होता था कि चुनाव कौन जीत सकता है। लेकिन इस बार मुख्यमंत्री अशोक गहलौत के लोक कल्याण के कार्यक्रमों और लोकलुभावना योजनाओं और घोषणाओं ने चुनाव को कड़े मुकाबले का बना दिया है।भाजपा की तरफ से सबसे सघन प्रचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया तो कांग्रेस की तरफ से अशोक गहलोत पूरे चुनाव का सर्वमान्य चेहरा रहे।

भाजपा ने यहां कथित लाल डायरी के जरिए भ्रष्टाचार, पर्चा लीक, महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे तो उठाए ही, साथ ही हिंदुत्व का तड़का लगाकर ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश की है। उधर हर सभा में जातीय जनगणना और जितनी जिसकी संख्या भारी उतनी उसकी हिस्सेदारी का नारा देकर राहुल गांधी ने सामाजिक ध्रुवीकरण का दांव भी चला। कांग्रेस की तरफ से पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, महासचिव प्रियंका गांधी ने भी पूरा जोर लगाया।जहां खरगे के जरिए कांग्रेस ने दलितों आदिवासियों को साधने की कोशिश की है तो वहीं प्रियंका को आगे रखकर महिलाओं को आकर्षित करने की रणनीति भी रही है।

भाजपा की तरफ से मोदी के अलावा गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी राजस्थान चुनाव प्रचार में सक्रिय रहे।योगी के जरिए भी भाजपा ने बुलडोजर और हिंदुत्व को भुनाने की पूरी कोशिश की है। लेकिन इस बार सबसे दिलचस्प है कि किसी भी दल ने बॉलीवुड के सितारों को अपने चुनाव प्रचार में नहीं बुलाया। कहीं स्थानीय स्तर पर कुछ कलाकार भले ही किसी प्रत्याशी के चुनाव प्रचार के लिए आए हों लेकिन जिस तरह पिछले चुनावों में कई नामी सितारों और खेल हस्तियों को प्रचार मैदान में उतारा जाता रहा है, इस बार वैसी कोई गूंज या धूम नहीं दिखाई दी।कांग्रेस भाजपा और अन्य सभी दलों ने पूरा चुनाव अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के दम और भरोसे पर लड़ा है जो राजनीति के लिए एक अच्छी बात है।

(साभार - अमर उजाला डिजिटल)

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राजस्थान में राहुल गांधी ने 'जादूगर' का प्लान फेल कर दिया: रजत शर्मा

राजस्थान में अब तक कांग्रेस का कैंपेन अच्छा भला चल रहा था। अशोक गहलोत खुद कमान संभाल हुए थे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Friday, 24 November, 2023
Last Modified:
Friday, 24 November, 2023
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)

कांग्रेस ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर व्यक्तिगत हमले किये। राहुल गांधी ने मोदी को जेबकतरा कह दिया। PM का फुल फॉर्म पनौती मोदी बता दिया। मल्लिकार्जुन खरगे ने मोदी को झूठों का सरदार कह दिया। जयराम रमेश ने मोदी का मतलब ‘मास्टर ऑफ ड्रामा इन इंडिया’ बता दिया। अब तक कांग्रेस और बीजेपी के नेता राजस्थान में एक-दूसरे पर तीखे हमले कर रहे थे, एक-दूसरे की नीतियों की आलोचना कर रहे थे, अपनी अपनी गारंटी और वादे जनता के सामने रख रहे थे, मुद्दों पर आलोचना हो रही थी।

किसी ने एक दूसरे पर पर्सनल अटैक नहीं किए थे लेकिन मंगलवार को राहुल गांधी ने इसकी भी शुरुआत कर दी। राजस्थान में मंगलवार को मोदी की तीन रैलियां हुईं, योगी की दो जनसभाएं हुई, अमित शाह की दो रैलियां हुईं, जे पी नड्डा और बीजेपी के दूसरे बड़े नेताओं ने भी प्रचार किया। किसी ने कांग्रेस के नेताओं के लिए इस तरह के अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं किया लेकिन राहुल गांधी कांग्रेस की गारंटी की बात करते करते बहक गए। कांग्रेस ने राजस्थान के लिए मंगलवार को मैनीफेस्टो जारी किया, जिसमें चार सौ रुपए में गरीबों को गैस सिलेंडर देने, 25 लाख की बजाय 50 लाख रुपये तक अस्पतालों में मुफ्त इलाज देने, उच्चतर माध्यमिक स्तर तक सभी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा देने, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के तहत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने, सरकारी कालेजों में दाखिला लेने वाले सभी छात्रों को मुफ्त लैपटॉप देने जैसे तमाम वादे किए हैं।

लेकिन मोदी ने कहा कि अब कांग्रेस कुछ भी कर ले, कोई जादूगरी नहीं चलेगी, जादूगर को जाना ही होगा। मोदी ने कहा कि जनता देख रही है, लॉकर्स से रुपयों के बंडल निकल रहे हैं, सोना निकल रहा है, बीजेपी की सरकार बनेगी तो घोटालों की जादूगरी करने वालों को जेल भेजा जाएगा। मोदी की ये बात राहुल गांधी को इतनी बुरी लगी कि उन्होंने मोदी को गालियां देनी शुरू कर दी। बाड़मेर की रैली में राहुल ने पहले मोदी को जेबकतरा और पनौती कह दिया। राहुल ने कहा कि पीएम का मतलब है ‘पनौती मोदी’। राहुल ने विश्वकप फाइनल में टीम इंडिया की हार का ठीकरा मोदी पर फोड़ दिया। कहा, कि हमारे क्रिकेटर अच्छा खासा खेल रहे थे, वर्ल्ड कप जीत जाते लेकिन पनौती ने आकर हरवा दिया। राहुल सिर्फ इतने पर नहीं रुके।

इससे पहले उन्होंने मोदी और अडानी की तुलना जेबकतरों से की। कहा, कि मोदी और अडानी जेबकतरों की जोड़ी की तरह काम करते हैं। एक लोगों का ध्यान असली मुद्दों से हिन्दू मुसलमान पर डायवर्ट करता है, दूसरा देश की जेब काटकर सारा माल अपनी तिजोरी में डाल लेता है। सिर्फ इतना ही नहीं कांग्रेस के ट्विटर हैंडल पर मोदी को पनौती बताते हुए एक मीम भी शेयर किया गया। इस मीम में एक फिल्म का सीन लिया गया और राहुल गांधी के भाषण को स्टेडियम में मैच देखते मोदी के वीडियो के साथ दिखाया गया। ऐसा नहीं है कि बीजेपी के कैम्पेन मैनेजरों को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि मोदी के खिलाफ इस तरह का ट्रेंड चलाया जाएगा। इससे पहले जब चंद्रयान-2 मिशन फेल हुआ था, तब भी मोदी के इसरो मुख्यालय में मौजूद होने की बात कहकर उनके खिलाफ पनौती वाला ट्रेंड चलाया गया था, लेकिन मोदी इससे घबराए नहीं। अहमदाबाद में वर्ल्ड कप फाइनल देखने पहुंचे।

जब भारत हार गया तब भी मोदी ने देश के मुखिया होने की भूमिका निभाई। वह टीम इंडिया के ड्रेसिंग रूम में गए और उन्होने खिलाड़ियों की हिम्मत बढ़ाई।  राहुल ने मोदी को पनौती कहा तो बीजेपी ने इसे राहुल गांधी की नासमझी का सबूत बताया। रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि राहुल गांधी अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं, हार के डर से बौखला गए हैं, इसलिए प्रधानमंत्री के पद को गालियां दे रहे हैं। रविशंकर प्रसाद ने कहा कि अगर राहुल गांधी अपने बयान के लिए माफी नहीं मांगते तो बीजेपी इसे बड़ा मुद्दा बनाएगी।

राहुल ने जो कहा वो राजनीतिक नजरिए से, भाषा की मर्यादा की दृष्टि से, और चुनावी कैंपेन के गणित के लिहाज, हर तरह से गलत है। प्रधानमंत्री को पनौती कहना किसी लिहाज से ठीक नहीं है। इसे कोई उचित नहीं ठहरा सकता। कांग्रेस के सभी बड़े नेता आजकल चुनाव प्रचार के दौरान मोदी पर हमले करते हैं लेकिन शब्दों की मर्यादा का थोड़ा बहुत ध्यान रखते हैं। फिर राहुल गांधी ने ऐसा क्यों किया? इसको समझने की जरूरत है। असल में राहुल गांधी पिछले कई सालों से बार बार ये कहते हैं कि वो अकेले ऐसे नेता हैं, जो मोदी से नहीं डरते, वो मोदी के खिलाफ लड़ने वाले अकेले बहादुर नेता हैं, कांग्रेस के नेताओं के साथ मीटिंग में वो कई बार पार्टी के नेताओं को इस बात के लिए डांट चुके हैं कि वो मोदी पर सीधे हमले क्यों नहीं करते।

गुलाम नबी आजाद जब कांग्रेस में थे तो उन्होंने ये बात कही भी थी। फिर G-23 के मेंबर्स ने कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिखकर राहुल गांधी की इसी तरह की बातों की शिकायत की थी लेकिन राहुल नहीं माने। राहुल उसके बाद मोदी पर लगातार इसीलिए पर्सनल अटैक करते हैं ताकि वह दिखा सकें कि वही अकेले ऐसे हिम्मत वाले नेता हैं जो मोदी के खिलाफ बिना डरे कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन इस चक्कर में राहुल सेल्फ गोल कर देते हैं। मंगलवार को मल्लिकार्जुन खरगे और जयराम रमेश ने भी मोदी पर इसी तरह के सेल्फ गोल किये। खरगे ने मोदी को झूठों का सरदार कहा।

मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस का मेनिफेस्टो जारी करने के लिए आए थे। मोदी अपनी रैलियों में खरगे के बयान का हवाला देकर कहते हैं कि कांग्रेस के बड़े बड़े नेता उनके स्वर्गीय पिता को भी गालियां दे रहे हैं। खऱगे ने इस पर सफाई देते हुए कहा उन्होंने अपनी मां और सभी भाई बहनों को सात साल की उम्र में खो दिया था, वह परिवारजनों को खोने का दुख समझते हैं। उन्होंने मोदी तो छोड़िए किसी के परिवार वालों के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन मोदी बार बार झूठ बोलते हैं, क्योंकि वो झूठों के सरदार हैं।

कांग्रेस के नेता पुराने अनुभवों से नहीं सीखते। मैं इतिहास याद दिला दूं। 2007 में गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर कहा। कांग्रेस बुरी तरह हारी। 2014 में लोकसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने मोदी को खून का दलाल बताया। मणिशंकर अय्यर ने चाय बेचने वाला घटिया इंसान कहा। कांग्रेस बुरी तरह हारी। मोदी प्रधानमंत्री बन गए, पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। 2017 में कर्नाटक चुनाव के दौरान मणिशंकर ने मोदी को नीच कहा। फिर कांग्रेस हारी, बीजेपी की सरकार बनी। 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान कर्नाटक की रैली में राहुल ने ‘चौकीदार चोर है’ का नारा दिया, फिर ये कहा कि ‘सारे चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है’। इस पर उन्हें गुजरात के कोर्ट में सजा भी हुई लेकिन कांग्रेस का लोकसभा चुनाव में सफाया हो गया।

मोदी पहले से ज्यादा बहुमत से जीते। 2022 में गुजरात चुनाव के समय खरगे ने मोदी को रावण बता दिया। कांग्रेस फिर हारी। इतने सारे उदाहरण होने के बाद भी कांग्रेस के नेता समझ नहीं रहे हैं कि जनता बाकी सब बर्दाश्त कर सकती है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ अपशब्दों को लोग अच्छा नहीं मानते। राजस्थान में अब तक कांग्रेस का कैंपेन अच्छा भला चल रहा था। अशोक गहलोत खुद कमान संभाल हुए थे। प्रियंका गांधी की रैलियां हो रही थी। कहीं कोई गड़बड़ नहीं हुई लेकिन राहुल गांधी पहुंचे, सारा गुड़गोबर कर दिया। अब कांग्रेस के स्थानीय नेता परेशान  हैं, कहीं राहुल गांधी का कैम्पेन  बीजेपी  के लिए वरदान साबित न हो जाए। शायद इसीलिए बीजेपी के नेता कहते हैं कि जब तक कांग्रेस में राहुल गांधी हैं तब तक उन्हें चिन्ता करने की जरूरत नहीं हैं क्योंकि बीजेपी का आधा काम तो राहुल गांधी कर देते हैं। राजस्थान में मंगलवार को राहुल की सिर्फ तीन रैलियां हुई।

कांग्रेस के किसी और नेता की कोई रैली नहीं हुई। सबको उम्मीद थी कि कांग्रेस की गारंटी वाली खबर बड़ी बनेगी, इसका बड़ा असर होगा लेकिन राहुल गांधी ने माहौल बदल दिया। जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें बीजेपी को सबसे ज्यादा उम्मीद राजस्थान से है। यहां पिछले पांच साल से कांग्रेस की सरकार है, कांग्रेस में आपसी झगड़े हैं, चाहे पेपर लीक का आरोप हो या लाल डायरी का, ये आरोप कांग्रेस के नेताओं ने ही अशोक गहलोत पर लगाए हैं। इसीलिए ये बीजेपी के काम आ रहे हैं। दूसरी तरफ उदयपुर में कन्हैया लाल की हत्या और राजस्थान में हुए दंगे अमित शाह और योगी आदित्यनाथ की रैलियों के लिए अच्छा खासा मसाला बन गए हैं।

लगे हाथों योगी कानून और व्यवस्था की बात भी कह देते हैं। ये सारे मुद्दे ऐसे हैं जो जनता से सीधे जुड़े हुए हैं। हालांकि अशोक गहलोत ने अपनी गारंटियों के ज़रिए इनका जवाब देने की कोशिश की है। अशोक गहलोत का शुरू से ये प्रयास रहा है कि राजस्थान का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाए लेकिन राहुल गांधी ने मोदी पर सीधा हमला करके बीजेपी को बड़ा मौका दे दिया। जादूगर का प्लान फेल कर दिया।

(यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हर चीज को तमाशा बना देने की हमें आदत हो गई है: नीरज बधवार

ये दिखने में छोटी-छोटी बातें लगती हैं मगर यही बातें किसी भी इवेंट का मजा किरकिरा कर देती हैं। हर चीज को टीवी इवेंट में कन्वर्ट कर देना।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 22 November, 2023
Last Modified:
Wednesday, 22 November, 2023
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नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक।

देखिए, जब आप छोटे होते हैं और नया-नया क्रिकेट देखना शुरू करते हैं तो आप सिर्फ और सिर्फ अपनी टीम की जीत चाहते हैं। दूसरी टीम के खेल को appreciate करना, उस पर ताली बजाने जैसी बातों की आपको समझ नहीं होती। लेकिन मैच्योर लोगों से उम्मीद की जाती है कि वो भावुक दर्शक की तरह बर्ताव न करें। दूसरी टीम के चौके-छक्के पर खामोश हो जाना। दूसरों के हंड्रेड पर खड़े न होना। दूसरी टीम के ट्रॉफी लेने से पहले ही मैदान छोड़कर चले जाना हद दर्जे की अशिष्टता है। ऊपर से रही-सही कसर BCCI पूरी कर देती है।

कल विनर को ट्रॉफी मोदी जी और ऑस्ट्रेलियाई डिप्टी पीएम दोनों ने देनी थी मगर शास्त्री ने जब अनाउंस किया तो वो ऑस्ट्रेलियाई डिप्टी पीएम का पहले नाम लेना ही भूल गए। जब स्टेज पर ट्रॉफी देने की बारी आई तब भी ऑस्ट्रेलियन डिप्टी पीएम का नाम नहीं लिया। दुनिया के हर खेल में कप्तान को ट्रॉफी मिलते ही बाकी खिलाड़ी उस पर लपक पड़ते हैं। साथ में फोटो खिंचवाते हैं। कल पता नहीं किसने अपनी बुद्धि लगाई।

ट्रॉफी देने के बाद मोदी जी हाथ मिलाने ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के पास चले गए। इधर मोदी जी ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों से हाथ मिला रहे थे और दूसरी तरफ पैट कमिंस मंच पर अकेले ट्रॉफी थामे इस औपचारिकता के खत्म होने का इंतज़ार कर रहे थे। वर्ल्ड कप की ट्रॉफी हाथ में लेना किसी भी खिलाड़ी या कप्तान का सपना होता है। ट्रॉफी हाथ में लेते ही उस पर एक इंस्टेंट सेलिब्रेशन होती है। मगर यहां कप्तान ट्रॉफी लिए बेचारी नजरों से अपने खिलाड़ियों की तरफ देख रहा था।

ये दिखने में छोटी-छोटी बातें लगती हैं मगर यही बातें किसी भी इवेंट का मजा किरकिरा कर देती हैं। हर चीज को टीवी इवेंट में कन्वर्ट कर देना। हर चीज को तमाशा बना देने की हमें आदत हो गई है। मैच में ड्रिंक्स ब्रेक वो वक्त होता है जब खिलाड़ी थोड़ा रिलैक्स करते हैं। इस दौरान बॉलिंग टीम भी रणनीति बनाती है। बैट्समैन भी पानी या ड्रिंक लेते हुए मैच सिचुएशन को एनालाइज करते हैं मगर पता नहीं किसने बीसीसीआई को सलाह दी कि ड्रिंक्स ब्रेक में लाइट शो चला दिया जाए। दर्शकों को मज़ा आएगा। टीवी पर देखने में अच्छा लगेगा। अरे भाई, माना क्रिकेट मैच एक टीवी इवेंट है मगर खेल में इतनी भी नौटंकी न घुसा दो कि उसे खेलने वाले ही पीछे छूट जाएं। ये नहीं भूलना चाहिए कि खेल से जुड़ा पैसा, टीवी राइट्स सब खिलाड़ियों की वजह से है।

इसलिए कोई भी नया प्रयोग करते वक्त ये ख्याल रखो कि इससे प्लेयर्स को दिक्कत तो नहीं होगी।  इसके अलावा सबसे बड़ी शिकायत जो बीसीसीआई से थी वो ये कि वो अपने रुतबे का इस्तेमाल करके आईसीसी इवेंट में भी अपने हिसाब से पिचें बनवा रही थी। जो कि बिल्कुल सच है। और ये कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि आखिर में इसी होशियारी ने हमें वर्ल्ड कप हरवा दिया। पता नहीं हमें क्यों लगता रहता है कि ऑस्ट्रेलिया-इंग्लैंड जैसी टीमों के खिलाफ हम आधी-कच्ची विकेटों पर ही जीत सकते हैं। वो भी तब जब यही इंडियन टीम पिछले दो दौरों में ऑस्ट्रेलिया को उसी के घर में हराकर आई है।

इंग्लैंड में हमने सीरीज़ ड्रा की थी। बावजूद ये जानते हुए हमारे पेस की क्वालिटी ऑस्ट्रेलिया से अच्छी थी। बावजूद इसके कि हमारे बैट्समैन उन पिचों पर ज़्यादा अच्छा खेलते हैं जहां पिच आसानी से बैट पर आती है हमने फाइनल के लिए बेहद सूखी विकेट बनवा दी और यही बात हम पर भारी पड़ गई।  हम अक्सर अमेरिका की आलोचना करते हैं कि देखिए अमेरिका कैसे सुपर पावर होने का फायदा उठाता है और दुनिया के मामलों में दखलंदाजी करता है।

मैं अक्सर इस बहस में बीसीसीआई का उदाहरण देता हूं कि हम दुनिया में एक ही मामले में सुपर पावर हैं वो है क्रिकेट और देखो वहां हम यानी बीसीसीआई कैसा बर्ताव कर रहा है। वर्ल्ड कप जैसा emotionally or physically ड्रेन करने वाला टूर्नामेंट खेलकर खिलाड़ी अभी हटे हैं। न उनके दिमाग से इस हार का दर्द गया होगा न डेढ़ महीने लंबे चले टूर्नामेंट की थकावट और फाइनल के सिर्फ तीन दिन बाद बीसीसीआई ने ऑस्ट्रेलिया से एक टी ट्वेंटी सीरीज़ रख दी। खेल को नौकरी बनाकर रख दिया है। सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की जान निकालकर रख लो।

मुझे हमेशा लगता है कि आपकी नीयत ही अक्सर आपका भाग्य बनाती है। अपने घर में जैसे-तैसे मैच को जितवा लेने की नीयत, चीज़ों को हमेशा अपने हिसाब से ढाल लेने की बीसीसीआई की सोच ही हमारा वो भाग्य नहीं बनने देती जो हमें किसी फाइनल की जीत के लिए चाहिए होता है। वरना कौन जानता है ट्रेविस हेड का वो इनर कट विकेट में भी लग सकता है। कोहली का इनसाइड एज विकेट के ऊपर से भी जा सकता था और रोहित शर्मा का वो असंभव कैच छूट भी सकता था।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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