संघ शताब्दी के साथ पारदर्शिता, शुद्धिकरण की चुनौतियां: आलोक मेहता

श्री बालेश्वर अग्रवाल संघ के वरिष्ठ प्रचारक होने के बावजूद संपादक के नाते कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों में भी सम्मान पाते थे और एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से सहयोग मिलता था।

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Monday, 01 September, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष की पायदान पर अधिक सफल, पारदर्शी और संगठन के साथ राष्ट्र में बदलाव के लिए तत्पर दिख रहा है। सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में तीन दिनों के संवाद कार्यक्रम में संघ से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों को स्पष्ट किया। विशेष रूप से सत्ता, भाजपा और प्रधानमंत्री के साथ संबंधों, उम्र विवाद, हिन्दू राष्ट्र, धार्मिक मान्यता, मुस्लिम–इस्लाम के अस्तित्व, काशी–मथुरा आंदोलन जैसे मुद्दों पर विरोधियों या समर्थकों के बीच रहे भ्रम के जाले साफ़ किए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन सौ वर्षों में बहुत उतार-चढ़ाव देखे और चुनौतियों का सामना किया। लम्बे समय तक सामाजिक–सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करना बहुत कठिन होता है। इस दृष्टि से विश्व में इसे एक हद तक अनूठा संगठन कहा जा सकता है। सबसे रोचक बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अन्यान्य कारणों से वर्षों तक अपनी गतिविधियों को प्रचारित करना तो दूर रहा, उन्हें गोपनीय रखने का प्रयास भी करता रहा।

बचपन से मैंने उज्जैन, शाजापुर और इंदौर जैसे शहरों से लेकर बाद में राजधानी दिल्ली में संघ की शाखा की गतिविधियों को देखा और समझने का प्रयास किया। कम आयु में हिन्दुस्थान समाचार से अंशकालिक संवाददाता के रूप में जुड़ा और फिर 1971 से 1975 तक दिल्ली में पूर्णकालिक पत्रकार के रूप में कार्य किया। हिन्दुस्थान समाचार में भी राजनीतिक गतिविधियों के समाचार संकलन का काम किया। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं से मिलने के अवसर भी हुए।

1975 में आपातकाल के दौरान मैंने कई महीने हिन्दुस्थान समाचार के अहमदाबाद कार्यालय में कार्य किया। संस्थान के प्रधान संपादक और महाप्रबंधक श्री बालेश्वर अग्रवाल ने मुझे नियुक्त किया था। दिल्ली में समाचार विभाग में श्री एन. बी. लेले और श्री रामशंकर अग्निहोत्री के मार्गदर्शन में काम किया। इसलिए यह कह सकता हूँ कि सरसंघचालक श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) के कार्यकाल से लेकर वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत की कार्यावधि तक संघ की गतिविधियों के प्रचार कार्य में हुए बदलावों को देखने–समझने के अवसर मिले।

श्री बालेश्वर अग्रवाल संघ के वरिष्ठ प्रचारक होने के बावजूद संपादक के नाते कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों में भी सम्मान पाते थे और एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से सहयोग मिलता था। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं से उन्होंने ही मेरा परिचय कराया, जिससे मुझे काम करने में सुविधा हुई।लगभग 55 वर्ष पहले दिल्ली के झंडेवालान स्थित कार्यालय में समर्पित पदाधिकारी और प्रचारक बेहद सादगी से रहते थे। संघ की शाखा या बौद्धिक विचार-विमर्श के कार्यक्रम सामान्यतः प्रचारित नहीं किए जाते थे। सरसंघचालक नागपुर से समय-समय पर दिल्ली आते लेकिन कोई धूमधाम या प्रचार नहीं होता था। संघ का कोई सदस्यता फार्म या औपचारिक रिकॉर्ड पहले कभी नहीं रहा।

पदाधिकारियों और प्रचारकों के पास अधिकाधिक संपर्क के लिए लोगों के फोन या पते किसी रजिस्टर या डायरी में दर्ज रहते थे।संघ की गतिविधियाँ पहले भी औपचारिक रूप से प्रसारित नहीं होती थीं, लेकिन नागपुर, पुणे, इंदौर, ग्वालियर, लखनऊ, अहमदाबाद और दिल्ली में संघ ने अपनी विचारधारा को समाज में पहुँचाने के लिए अपने समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, के. आर. मलकानी, भानु प्रताप शुक्ल, देवेंद्र स्वरुप, रामशंकर अग्निहोत्री, माणक चंद वाजपेयी, यादवराव देशमुख, विष्णु पंड्या, शेषाद्रि चारी और अच्युतानन्द मिश्र जैसे वरिष्ठ प्रचारक इन पत्र–पत्रिकाओं के संपादन और लेखन का काम भी करते थे।

आपातकाल (1975) में संघ पर प्रतिबंध लगा। तब देशभर में संघ के सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारियाँ हुईं, लेकिन अनेक समर्पित प्रचारकों और स्वयंसेवकों ने भूमिगत रहकर सूचनाओं और विचारों को विभिन्न क्षेत्रों तक पहुँचाने का कार्य किया। मुझे स्मरण है कि उन दिनों गुजरात में श्री नरेंद्र मोदी भूमिगत रहकर समाचारों और विचारों की सामग्री तैयार कर गुपचुप बाँटते थे। तब वे संघ के किसी पद पर नहीं थे, मात्र स्वयंसेवक के रूप में सक्रिय थे। अपना वेश बदलकर जेलों में बंद संघ, जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियों के नेताओं को सामग्री पहुँचाने का साहसिक कार्य वे करते थे। नागपुर, लखनऊ और दिल्ली में भी संघ पृष्ठभूमि वाले कुछ पत्रकार भूमिगत रहकर इसी तरह का प्रचार कार्य कर रहे थे।

आपातकाल अधिक समय तक नहीं चला और 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर लालकृष्ण आडवाणी सूचना–प्रसारण मंत्री बने। यह पहला अवसर था जब संघ–जनसंघ से जुड़े नेता भारतीय सूचना–प्रचार तंत्र के शीर्ष पद पर पहुँचे। फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना प्रचार तंत्र उस दौर में भी विकसित नहीं किया। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के शीर्ष नेता श्री नानाजी देशमुख जनता पार्टी के साथ सहअस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण सेतु की भूमिका निभा रहे थे।जनता पार्टी आने के बाद संघ की गतिविधियों पर अख़बारों–पत्रिकाओं में लेख छपने लगे। विजयादशमी के अवसर पर संघ को लेकर प्रमुख लोगों से बातचीत करके रिपोर्ट या लेख लिखने का अवसर मुझे भी मिला।

पहले सरसंघचालक संघ के प्रकाशन संस्थानों के अलावा किसी अन्य प्रकाशन को इंटरव्यू नहीं दिया करते थे। मुझे सबसे पहले सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जु भैया) से विस्तारपूर्वक बातचीत कर इंटरव्यू (अक्टूबर 1997) प्रकाशित करने का अवसर मिला। इसके कुछ वर्ष बाद सरसंघचालक श्री के. सी. सुदर्शन से भी मुझे लम्बा इंटरव्यू (जून 2003) मिला। ये दोनों ऐतिहासिक इंटरव्यू मेरी पुस्तक ‘नामी चेहरों से यादगार मुलाकातें’ में प्रकाशित हैं।उस दौर में तरुण भारत के संपादक रहे श्री एम. जी. वैद्य संघ के बौद्धिक प्रमुख होने के साथ पहले प्रचार प्रमुख भी बने।

श्री वैद्य के प्रयासों से संघ की गतिविधियों की जानकारी समय-समय पर समाज तक पहुँचने लगी। संघ को भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी की मातृसंस्था के रूप में देखा जाता है।समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में सुनियोजित ढंग से संघ से सैकड़ों लोग जुड़ते रहे। इसी तरह धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक सक्रिय रहे। लेकिन संघ अपने सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों का सार्वजनिक प्रचार क्यों नहीं करता — इस पर जब भी मैंने नेताओं से प्रश्न किया, उनका उत्तर यही रहा कि “हमें राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित भाव से कार्य करना है, प्रचार की भूख नहीं है।”90 के दशक के बाद संघ ने अपने प्रचार तंत्र की ओर ध्यान दिया।

श्री एम. जी. वैद्य के बाद राम माधव, मदन मोहन वैद्य और सुनील आंबेकर घोषित रूप से प्रचार प्रमुख बने। धीरे-धीरे संघ के दरवाजे और खिड़कियाँ लक्ष्मण रेखा के साथ खुलने लगीं। भाजपा के सत्ता में आने पर समाचार माध्यमों में संघ की अधिकाधिक चर्चा होने लगी। सूचना और कंप्यूटर क्रांति आने के बाद पत्र–पत्रिकाओं, टेलीविज़न, वेबसाइट, यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर सहित हर प्रचार माध्यम से संघ की गतिविधियों की जानकारी मिलने लगी। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि संघ का प्रचार तंत्र भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों तक फैल गया है।

बताते हैं कि आज संघ की शाखाएँ 68,651 तक पहुँच गई हैं। लक्ष्य है इसे 1,00,000 तक ले जाना। भाजपा सरकार होने से उसे सिर्फ़ तार्किक रूप से ही लाभ नहीं मिला, बल्कि समाज में उसकी दृश्यता और स्वीकार्यता भी बढ़ी। अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति, पाकिस्तान–चीन को करारा जवाब देने की क्षमता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, हिन्दू धर्म–मंदिरों का वैश्विक प्रचार–प्रसार, समान नागरिक संहिता पर पहल — क्या यह सब संघ के लक्ष्यों की पूर्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के बिना संभव था?

सितंबर 2018 में सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट कहा था:“संघ ने अपने जन्म से ही स्वयं तय किया है कि रोज़मर्रा की राजनीति में हम नहीं जाएँगे। राज कौन करे यह चुनाव जनता करती है। हम राष्ट्रहित पर अपने विचार और प्रयास करते हैं। प्रधानमंत्री और अन्य नेता स्वयंसेवक रहे हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे नागपुर के निर्देश पर चलते हैं। राजनीति में कार्य करने वाले मुझसे अधिक अनुभवी हैं। उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता हो तो हम राय देते हैं, लेकिन उनकी राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है।”

भागवत ने अगस्त 2025 में भी इन बातों को एक बार फिर स्पष्ट किया।संघ के शीर्ष नेता हमेशा इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि भारत में जन्मे लगभग 98% लोग भारतीय हिन्दू हैं — चाहे वे सिख हों, मुस्लिम हों, ईसाई, बौद्ध या अन्य। सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह ने 4 अक्टूबर 1997 को मुझे दिए इंटरव्यू में कहा था:“भारत में मुसलमानों में केवल 2% के पूर्वज बाहर से आए थे, शेष के पूर्वज इसी देश के थे।

हम उन्हें यह अनुभूति कराना चाहते हैं कि तुम मुसलमान हो, पर भारतीय मुसलमान हो। हमारे यहाँ दर्जनों पूजा पद्धतियाँ हैं, तो एक तुम्हारी भी चल सकती है। इसमें हमें क्या आपत्ति होगी? लेकिन पहचान तुम्हारी इस देश के साथ होनी चाहिए।”हाँ, निचले स्तर पर कुछ अतिवादी नेता हाल के वर्षों में कटुता की भाषा इस्तेमाल करने लगे हैं। यह निश्चित रूप से न केवल मोदी सरकार की, बल्कि भारत की छवि भी दुनिया में खराब करते हैं। उन्हें मोदी का असली दुश्मन कहा जा सकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या टैरिफ का तोड़ मिल गया: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस पूरे साल वृद्धि दर 6.3% से 6.8% बनी रहेगी। शुल्क का तोड़ तो सरकार ने फ़िलहाल ढूँढ लिया है।

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Monday, 01 September, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अमेरिका ने भारत से आने वाले सामान पर 50% शुल्क 27 अगस्त से लगा दिया है। इससे अटकलें लगने लगीं कि भारत की अर्थव्यवस्था मुश्किल में आ सकती है। शेयर बाज़ार में डर का माहौल है। हिसाब–किताब में समझेंगे कि शुल्क का असर कितना पड़ेगा?

आपको याद होगा कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को ‘मरी हुई अर्थव्यवस्था’ कहा था। शुक्रवार को सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के जो आँकड़े जारी किए, उससे पता चल गया कि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में वृद्धि दर 7.8% रही है। आप कह सकते हैं कि पहली तिमाही में शुल्क लागू नहीं हुआ था। अब लागू हुआ है तो आने वाले महीनों में इसका असर दिखेगा।

शुल्क का कोई असर नहीं पड़ेगा यह कहना ग़लत होगा। भारत हर साल अमेरिका को 86 अरब डॉलर (₹7.3 लाख करोड़) का सामान बेचता है। इसमें से आधे से ज़्यादा सामान पर अब 50% शुल्क लगेगा, जैसे कपड़े, हीरे–जवाहरात। बाक़ी देशों पर शुल्क कम है, इसलिए भारत को यह सामान अमेरिका में बेचने में दिक़्क़त होगी। इतना महँगा कौन ख़रीदेगा? रॉयटर्स के मुताबिक़ इसके चलते भारत में 20 लाख लोगों की नौकरी जा सकती है। भारतीय स्टेट बैंक की रिपोर्ट कहती है कि इससे जीडीपी में 0.2% नुक़सान हो सकता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पूरे साल भर की वृद्धि दर 6% से नीचे जा सकती है।

इस आपदा में ही अवसर है। सरकार ने दो ऐसे फ़ैसले किए हैं, जिससे शुल्क के नुक़सान की भरपाई होने की उम्मीद है। पहला फ़ैसला बजट में ही हो गया था कि ₹12 लाख तक कोई आयकर नहीं लगेगा। दूसरा फ़ैसला यह कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के ज़्यादातर सामान 5% और 18% के दायरे में लाए जाएँगे। जीएसटी का सुधार बहुत समय से लंबित था, लेकिन शुल्क के बाद इस पर तेज़ी से फ़ैसला लिया जा रहा है।

भारतीय स्टेट बैंक की अनुसंधान रिपोर्ट कहती है कि दोनों फ़ैसलों से लोगों के हाथ में पैसा आएगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ साल भर में ₹5 लाख करोड़ की खपत बढ़ेगी। वृद्धि दर में 1.6% की बढ़ोतरी होगी यानी शुल्क से जो नुक़सान होगा, उससे कहीं ज़्यादा फ़ायदा इन फ़ैसलों से होने की उम्मीद है।

वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस पूरे साल वृद्धि दर 6.3% से 6.8% बनी रहेगी यानी जो अनुमान शुल्क से पहले लगाया गया था, सरकार उस पर क़ायम है। उन्होंने यह भी कहा कि शुल्क का मसला इस वित्त वर्ष के दौरान सुलझने की उम्मीद है। शुल्क का तोड़ तो सरकार ने फ़िलहाल ढूँढ लिया है लेकिन अमेरिका के साथ व्यापार को सुगम बनाने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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ध्वस्त होता आरएसएस के विरुद्ध झूठा नैरेटिव: अनंत विजय

स्वाधीनता संग्राम में संघ की सहभागिता पर झूठा नैरेटिव गढ़कर और डंके की चोट पर उसको प्रचारित कर भ्रम का वातावरण बनाया गया। सरसंघचालक ने इस झूठे नैरेटिव को ध्वस्त किया।

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Monday, 01 September, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

समाचार चैनलों पर चलवनेवाली डिबेट में कई लोग डंके की चोट पर ये पूछते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वाधीनता आंदोलन से क्या संबंध था। फिर स्वयं ही निर्णयात्मक उत्तर देते हैं कि संघ का स्वाधीनता आंदोलन में ना तो कोई योगदान था ना ही संबंध। ये नैरेटिव वर्षों से चलाया जा रहा है। हर कालखंड में कई लोग इसको गाढ़ा करने के उपक्रम में जुटे रहते हैं। अब भी हैं।

लेख आदि में भी इस बात का उल्लेख प्रमुखता से किया जाता है कि संघ का देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान रहा ही नहीं है। ऐसा करके वो जनमानस में भ्रामक अवधारणा का रोपण करते चलते हैं। जब तटस्थ विश्लेषक तथ्य रखने लगते हैं तो उनको दबाने का प्रयास किया जाता है। अर्धसत्य को सामने रखकर उनको चुप कराने का प्रयास किया जाता है। कहा भी गया है कि अगर एक झूठ को बार-बार कहेंगे तो उसको सच नहीं तो सच के करीब तो मान ही लिया जाएगा।

तब ऐसा और भी संभव हो जाता है जब कहे हुए को पुस्तकों के माध्यम से पुष्ट किया जाता रहा हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में ऐसा ही होता आ रहा है। ऐसा कहनेवाले कुछ तथ्यों को दबा देते हैं। वो ये नहीं बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी और देश 1947 में आजाद हो गया। उस समय संघ की ताकत कितनी रही होगी, एक संगठन के तौर पर संघ का कितना विस्तार रहा होगा, संघ से कितने कार्यकर्ता जुड़े होंगे, इसको बगैर बताए निर्णय हो जाता है।

जैसे-जैसे संघ का विस्तार होता गया ये नैरेटिव जोर-शोर से चलाया जाने लगा। संघ शताब्दी वर्ष में इस विमर्श को और गाढ़ा करने का उपक्रम हो रहा है बल्कि कह सकते हैं कि संगठित होकर किया जा रहा है।हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा मोहन भागवत को दो अवसरों पर सुना। एक पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम था। दूसरा संघ शताब्दी वर्ष पर दिल्ली में तीन दिनों का व्याख्यानमाला। सरसंघचालक ने पहले कार्यक्रम में बताया कि अंग्रेज अफसर नागपुर और उसके आसपास चलनेवाली शाखाओं की ना सिर्फ निगरानी करते थे बल्कि हर शाखा से संबंधित जानकारी को जमा कर उसका विश्लेषण भी करते थे।

वो आशंकित रहते थे कि अगर शाखाओं का विस्तार हो गया तो अंग्रेजों के लिए दिक्कत खड़ी हो सकती है। व्याख्यानमाला में डा भागवत ने बताया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक डा हेडगेवार स्वाधीनता आंदोलन में बाल्यकाल से सक्रिय थे। नागपुर के स्कूलों में 1905-06 में वंदेमातरम आंदोलन हुआ था। इसमें शामिल छात्र हेडगेवार ने अंग्रेजों से माफी मांगने से इंकार कर दिया था। उनको स्कूल से निष्कासित कर दिया गया था। बाद में हेडगेवार डाक्टरी की पढ़ाई करने कलकत्ता (अब कोलकाता) गए।

पढ़ाई पूरी करने के बाद तीन हजार रु मासिक वेतन वाली नौकरी को ठुकराकर डा हेडगेवार ने देशसेवा की ठानी। वो अनुशीलन समिति में भी शामिल हुए थे। 1920 में उनपर देशद्रोह का मुकदमा चला। कोर्ट में अपने बचाव में उन्होंने स्वयं दलील पेश की थी। उद्देश्य था कि पत्रकार आदि केस सुनने आएंगे तो उनके विचार जनता तक पहुंच पाएंगे। न्यायालय का जब निर्णय आया तो जज ने लिखा, जिन भाषणों के कारण इन पर यह आरोप लगा है, इनका बचाव का भाषण उन भाषणों से अधिक ‘सेडिशियस’ है।

उनको एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। जेल से बाहर निकलने के बाद डा हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। 1930 में जंगल सत्याग्रह आरंभ हुआ तो उन्होने सरसंघचालक का दायित्व छोड़ दिया। आंदोलन में शामिल हुए। उनको फिर से एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। सजा काटकर वापस आने पर सरसंघचालक का कार्यभार संभाला। इस दौरान वो सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के संपर्क में भी आए। राजगुरु को तो उन्होंने महाराष्ट्र में अंडरग्राउंड रखने में मदद की।

नागपुर में भी रखा। बाद में उनको अकोला भेजने की भी व्यवस्था की। इलके अलावा भी संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की एक लंबी सूची है जो स्वाधीनता आंदोलन में जेल गए थे। पर विचारधारा विशेष के लोगों ने इन तथ्यों को आम जनता से दूर रखा। भ्रामक बातें करते रहे।नैरेटिव के खेल को इस तरह से समझा जा सकता है। कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया, अंग्रेजों का साथ दिया, सुभाष बाबू को जापान और जर्मनी के हाथों की कठपुतली बताते हुए धोखेबाज तक कहा। इसकी चर्चा नहीं होती है। बल्कि इस तथ्य को दबा दिया जाता है।

इस खेल में ट्विस्ट तब आया जब हिटलर ने सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया। कम्युनिस्ट पहले जिस युद्ध को साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध कहते थे उसको ही हिटलर के रूस पर हमले के बाद जनयुद्ध कहने लगे। इसके बाद वो अंग्रेजों के साथ हो गए और उनके हाथ मजबूत करने लगे। जब गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ किया तो कम्युनिस्टों ने इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों का साथ दिया। फिल्म इतिहासकार मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सुभाष बाबू के विश्वस्त कम्युनिस्ट साथी भगत राम तलवार ने अंग्रेजों के लिए जासूसी की थी।

विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग की तरह पाकिस्तान बनाने का समर्थन किया था। 1946 में तेलांगना में सशस्त्र विद्रोह आरंभ किया। पहले ये निजाम के खिलाफ था लेकिन स्वाधीनता के बाद ये भारत सरकार के खिलाफ हो गया क्योंकि वो स्वाधीनता के बाद बनी सरकार को राष्ट्रीय धोखा कहते थे। वो तो भला हो स्टालिन का कि 1950 में उन्होंने भारत के कम्युनिस्ट नेताओं को मास्को बुलाकर बात की। उस बातचीत के बाद भारत के कम्युनिस्टों ने सशस्त्र विद्रोह खत्म किया। देश के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन के बावजूद भी नेहरू ने कम्युनिस्टों पर पाबंदी नहीं लगाई।

स्टालिन के साथ मीटिंग के बाद कम्युनिस्टों ने 1952 के पहले आमचुनाव में हिस्सा भी लिया था। दरअसल कम्युनिस्टों की आस्था राष्ट्र से अधिक विचार और विचारधारा में रही है। उनके लिए विचारधारा सर्वप्रथम है जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए राष्ट्र सर्वप्रथम है। यही बुनियादी अंतर है।कालांतर में कम्युनिस्टों और कांग्रेस के बीच एक अंडरस्टैंडिंग बनी। जब स्वाधीन भारत में स्वाधीनता का इतिहास लेखन आरंभ हुआ तो उपरोक्त तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया। स्कूल में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों में भी इन बातों को छोड़ दिया गया।

परिणाम ये हुआ कि कम्युनिस्टों पर स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भागीदारी को लेकर प्रश्न नहीं उठे। एक ऐसा नैरेटिव खड़ा किया जिसमें संघ तो निशाने पर रहा लेकिन कम्युनिस्टों के कारगुजारियों पर चर्चा नहीं हुई। 1925 में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी और 1925 में ही कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था।

दोनों संगठनों की स्थापना के सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। एक विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बनकर निरंतर मजबूत हो रहा है और कम्युनिस्ट पार्टी अपने अतित्व के लिए संघर्ष कर रही है। कहा जा सकता है कि भारत का जनमानस जैसे जैसे परिपक्व हो रहा है वैसे वैसे जनता राष्ट्रहित सोचनेवालों के साथ होती जा रही है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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राष्ट्रपति ट्रम्प और पीएम मोदी के बीच दरार के 4 बड़े कारण: रजत शर्मा

डोनाल्ड ट्रंप के एक एडवाइजर ने कहा कि ट्रंप ने भारत पर इतना टैरिफ इसीलिए लगाया क्योंकि ट्रंप मानते हैं कि रूस और यूक्रेन की जंग के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हैं।

Last Modified:
Saturday, 30 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

पूरी दुनिया में आज इस बात की चर्चा है कि अमेरिका ने भारत पर सब ज्यादा टैरिफ क्यों लगाया? अमेरिका में भी लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगाकर चीजों को महंगा क्यों कर दिया। इसको लेकर जितने मुंह, उतनी बातें। ट्रंप के एक एडवाइजर ने कहा कि ट्रंप ने भारत पर इतना टैरिफ इसीलिए लगाया क्योंकि ट्रंप मानते हैं कि रूस और यूक्रेन की जंग के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हैं।

ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो ने दावा किया कि रूस से तेल खरीदकर भारत पुतिन को जंग के लिए पैसे देता है। अगर मोदी रूस से खरीदना बंद कर दें तो टैरिफ भी वापस हो जाएगा और रूस यूक्रेन की जंग भी रुक जाएगी।

अमेरिका के इस तर्क में कोई दम नहीं है क्योंकि अमेरिका के एक और एक्सपर्ट ने दूसरा लॉजिक दिया। ये भी ट्रंप के सलाहकार हैं। अमेरिका की नेशनल इकॉनमिक काउंसिल के डायरेक्टर केविन हैसेट ने कहा भारत पर इतना टैरिफ लगाने की वजह ये है कि भारत ने कृषि और डेयरी सेक्टर अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलने से मना कर दिया, मोदी इस बात पर अड़े हुए हैं और ट्रंप भी अड़े हुए हैं, इसीलिए रास्ता निकलने की उम्मीद कम है।

ट्रंप ख़ुद ये मान रहे हैं कि यूक्रेन में युद्ध से अमेरिका को भारी मुनाफ़ा हो रहा है। फिर भी उन्होंने युद्ध के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराया। एक्सपर्ट्स ने इसकी 4 वजह बताई। एक तो ये कि जुलाई 2019 में जब इमरान ख़ान अमेरिका गए थे तो ट्रंप ने उनसे कह दिया था कि कश्मीर के मसले पर मोदी ने उनसे मध्यस्थता करने को कहा है। ट्रंप के इस बयान पर मोदी ने नाराजगी जाहिर की और ट्रंप को बता दिया कि भारत, कश्मीर के मसले पर किसी तीसरे देश की मध्यस्थता को स्वीकार नहीं करेगा।

ट्रंप और मोदी के बीच तल्ख़ी की दूसरी वजह, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में हुई एक घटना है। मोदी ने ट्रंप और कमला हैरिस दोनों उम्मीदवारों से मिलने का समय मांगा, ट्रंप ने समय दिया, ट्रंप ने अपनी रैली में इसकी घोषणा भी कर दी कि मोदी मुझसे मिलने आ रहे हैं। लेकिन अन्तिम क्षण में कमला हैरिस ने मोदी को मिलने का समय नहीं दिया। मोदी को लगा कि सिर्फ़ एक पार्टी के उम्मीदवार से मिलना ठीक नहीं होगा, इसलिए मोदी ने ट्रंप के साथ मुलाकात कैंसिल कर दी। ट्रंप को ये बात बहुत नागवार गुजरी।

तीसरी बात, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम। ट्रंप अब तक 42 बार कह चुके हैं कि भारत पाकिस्तान का युद्ध उन्होंने रुकवाया। सीजफायर का फैसला करवाया। भारत कई बार ये साफ़ कर चुका है कि सीज़फ़ायर का फ़ैसला पाकिस्तान के अनुरोध पर हुआ लेकिन ट्रंप सुनने को तैयार नहीं हैं।

चौथी वजह, ट्रंप और मोदी की बात कनाडा में होनी थी। G-7 शिखर सम्मेलन के दौरान मीटिंग तय थी लेकिन ट्रंप अचानक अमेरिका लौट गए। फिर उन्होंने मोदी को फोन किया, वॉशिंगटन आने के लिए कहा। ये वही दिन था जब पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर व्हाइट हाउस में ट्रंप से लंच पर मिलने वाले थे। मोदी ने वॉशिंगटन जाने से इनकार कर दिया। ट्रंप को ये बात चुभ गई। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि इन 4 कारणों की वजह से ट्रंप ने टैरिफ को लेकर भारत को निशाना बनाया।

ट्रंप और मोदी के रिश्तों में खटास की एक वजह जर्मनी के अख़बार 'Frankfurter Allgemeine Zeitung' ने भी बताई। जर्मनी के इस बड़े अखबार का दावा है कि ट्रंप ने मोदी को चार बार कॉल किया लेकिन मोदी ने ट्रंप की कॉल रिसीव नहीं की। इसकी वजह क्या थी? ये औपचारिक रूप से किसी ने नहीं बताया। लेकिन पता ये चला है कि ट्रंप अक्सर दुनिया के नेताओं को अपने निजी नंबर से कॉल करते हैं।

जिन नेताओं को ट्रंप ने अपने निजी नंबर दिए हैं, उनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हैं। अपने पिछले कार्यकाल में ट्रंप ने मोदी को अपना निजी नंबर दिया था। लेकिन इस बार राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप ने सुरक्षा एजेंसियों के कहने पर अपना फ़ोन और नंबर दोनों बदल दिया। शायद उन्होंने अपने नए नंबर से ही प्रधानमंत्री मोदी के मोबाइल पर कॉल किया था। अंजान नंबर होने की वजह से प्रधानमंत्री ने ट्रंप की कॉल रिसीव नहीं की। लगता है ट्रंप ने इस बात को दिल पर ले लिया और अब टैरिफ को बदले का हथियार बना रहे हैं।

एक बात तो पक्की है कि ट्रंप को भारत से जो भी समस्या है, वह बहुत बड़ी है। इतनी बड़ी समस्या सिर्फ रूस से तेल खरीदने को लेकर तो नहीं हो सकती क्योंकि यूक्रेन को अमेरिका और यूरोप इतनी मदद भेजते हैं कि उसके आगे रूस को भारत के तेल से होने वाली कमाई आटे में नमक के बराबर है।

ट्रंप की समस्या इतनी बड़ी है कि उन्होंने आसिम मुनीर को गोद में बिठा लिया। युद्धविराम को टैरिफ से जोड़कर बार-बार मोदी को शर्मिंदा किया, भारत पर सबसे ज्यादा टैरिफ लगा दिया। भारत के साथ इतने वर्षों की दोस्ती का कोई ख्याल नहीं किया।

जिस चीन से अमेरिका की दुश्मनी है, उसे छूट दी। ट्रंप के इस रवैये की सिर्फ एक ही वजह हो सकती है कि 'नरेंद्र' ने झुकने से इनकार कर दिया। मोदी ने ट्रंप के आगे हार मानने से मना कर दिया। ट्रंप ने मोदी को कम आंक लिया।

वैसे भी ट्रंप का काम करने का अपना तरीका है। वो रोज़ मीडिया से सीधे बात करते हैं, किसी भी राष्ट्र प्रमुख के बारे में कुछ भी कह देते हैं। बड़े-बड़े फैसले सोशल मीडिया पोस्ट करके घोषणाएं करते हैं। दूसरे देशों के प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों को सीधे मोबाइल पर फोन करते हैं। ऐसा अमेरिका में पहले कभी किसी राष्ट्रपति ने नहीं किया। अब अमेरिका के लोग भी कह रहे हैं कि ट्रंप सिर्फ एक व्यापारी हैं, सौदा करने वाले हैं। इसीलिए भारत को ट्रंप से समझौता करने के नए और अलग तरीके ढूंढने होंगे और मुझे विश्वास है कि इसकी कोशिश ज़रूर की जा रही होगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पीएम मोदी के पद छोड़ने की बहस पर लगे पूर्ण विराम: समीर चौगांवकर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर 33 वर्ष तक संघ प्रमुख रहे। संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहेब देवरस 20 वर्ष तक इस पद पर रहे।

Last Modified:
Saturday, 30 August, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।

मोहन जी और मोदी जी उम्र के 75 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी अपने-अपने पद पर बने रहेंगे। कब तक बने रहेंगे, यह मोहन जी के मामले में संघ और स्वयं मोहन जी को तय करना है, वहीं मोदी जी के मामले में यह निर्णय भाजपा और स्वयं मोदी जी को करना है। ना तो संघ के संविधान में और ना ही भाजपा के संविधान में 75 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर पद छोड़ने का कोई उल्लेख है। यह पूरी तरह संस्था के समर्थन, व्यक्तिगत स्वास्थ्य और विवेक पर निर्भर करता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर 33 वर्ष तक संघ प्रमुख रहे। संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहेब देवरस 20 वर्ष तक इस पद पर रहे। मोहन भागवत जी को संघ प्रमुख बने अभी मात्र 16 वर्ष हुए हैं और 13 दिन बाद, यानी 11 सितंबर को, वह 75 वर्ष के हो जाएंगे। वह पूर्णतः स्वस्थ हैं और संघ भी उनके साथ खड़ा है।

2009 में संघ प्रमुख बनने के बाद मोहन भागवत को लगा कि दिल्ली भाजपा में एक प्रकार का “सिंडिकेट” सक्रिय है और दिल्ली के दादाओं का दबदबा समाप्त करना आवश्यक है। इसी कारण उन्होंने नागपुर से सीधे नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर भेजा।

भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी जी 2009 में 82 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने थे। उस समय पार्टी और संघ ने उन्हें पूरा समर्थन दिया। आडवाणी जी जब संघ का समर्थन लेने नागपुर गए थे, तब भी संघ प्रमुख मोहन भागवत ही थे और आज भी वही इस पद पर हैं।

2014 में यही मोहन भागवत जी थे, जिन्हें लगा कि अब आडवाणी जी को सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहिए और प्रधानमंत्री पद के लिए नए चेहरे को आगे बढ़ाना चाहिए। आडवाणी जी के तमाम विरोध के बावजूद मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी के नाम पर मुहर लगाई।

मोहन भागवत भली-भांति जानते हैं कि भाजपा में कब किस नेता के पर कतरने हैं और कब किसे विश्राम देना है। वर्तमान में मोहन जी और मोदी जी दोनों अपनी-अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे हैं। एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन के प्रमुख के रूप में मोहन जी संघ का विस्तार करने और समाज को उससे जोड़ने में लगे हैं। वहीं, प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए दिन-रात प्रयासरत हैं।

विज्ञान भवन में संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण और सभी प्रश्नों के उत्तर देने के बाद अब उनके 75 वर्ष पूर्ण होने पर पद छोड़ने की चर्चा और बहस पर पूर्णविराम लग जाना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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स्वदेशी और स्वावलंबन से बनेगा नया भारत: प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी

सही मायनों में यह भारत का समय है। भारत में बैठकर शायद कम महसूस हो, किंतु दुनिया के ताकतवर देशों में जाकर भारत की शक्ति और उसके बारे में की जा रही बातें महसूस की जा सकती हैं।

Last Modified:
Saturday, 30 August, 2025
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प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जन संचार विभाग में प्रोफेसर।

बीते एक दशक में आत्मविश्वास हर भारतवासी में आया है, जो कुछ समय पहले तक अवसाद और निराशा से घिरा था। भरोसा जगाने वाला यह समय हमें जगा कर कुछ कह गया और लोग राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका को रेखांकित और पुनःपरिभाषित करने लगे। ‘इस देश का कुछ नहीं हो सकता’ से ‘यह देश सब कुछ कर सकता है’ तक हम पहुंचे हैं। यह आकांक्षावान भारत है, उम्मीदों से भरा भारत है, अपने सपनों की ओर दौड़ लगाता भारत है। लक्ष्यनिष्ठ भारत है, कर्तव्यनिष्ठ भारत है। यह सिर्फ अधिकारों के लिए लड़ने वाला नहीं बल्कि कर्तव्यबोध से भरा भारत है। आत्मविश्वास से भरे युवा नयी राहें बना रहे हैं।

सही मायनों में यह भारत का समय है। भारत में बैठकर शायद कम महसूस हो, किंतु दुनिया के ताकतवर देशों में जाकर भारत की शक्ति और उसके बारे में की जा रही बातें महसूस की जा सकती हैं। सांप-संपेरों के देश की कहानियां अब पुरानी बातें हैं। भारत पांचवीं बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में विश्व मंच पर अपनी गाथा स्वयं कह रहा है। अर्थव्यवस्था, भू-राजनीति, कूटनीति, डिजिटलीकरण से लेकर मनोरंजन के मंच पर सफलता की कहानियां कह रहा है।

सबसे ज्यादा आबादी के साथ हम सर्वाधिक संभावनाओं वाले देश भी बन गए हैं, जिसकी क्षमताओं का दोहन होना अभी शेष है। भारत के एक अरब लोग नौजवान यानी 35 साल से कम आयु के हैं। स्टार्टअप इकोसिस्टम, जलवायु परिवर्तन के लिए किए जा रहे प्रयासों, कोविड के विरुद्ध जुटाई गई व्यवस्थाएं, जी 20 के अध्यक्ष के नाते मिले अवसर, जीवंत लोकतंत्र, स्वतंत्र मीडिया हमें खास बनाते हैं। चुनौतियों से जूझने की क्षमता भारत दिखा चुका है। संकटों से पार पाने की संकल्प शक्ति वह व्यक्त कर चुका है। अब बात है उसके सर्वश्रेष्ठ होने की। अव्वल होने की। दुनिया को कुछ देने की।

नया भारत अपने सपनों में रंग भरने के लिए चल पड़ा है। भारत सरकार की विकास योजनाओं और उसके संकल्पों का चतुर्दिक असर दिखने लगा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक उत्साह से भरे हिंदुस्तानी दिखने लगे हैं। जाति, पंथ, भाषावाद, क्षेत्रीयता की बाधाओं को तोड़ता नया भारत बुलंदियों की ओर है। नीति आयोग के पूर्व सीईओ श्री अमिताभ कांत की सुनें तो “2070 तक हम बाकी दुनिया को 20-30 प्रतिशत वर्कफोर्स उपलब्ध करवा सकते हैं और यह बड़ा मौका है।”

ऐसे अनेक विचार भारत की संभावनाओं को बता रहे हैं। अपनी अनेक जटिल समस्याओं से जूझता, उनके समाधान खोजता भारत अपना पुन: आविष्कार कर रहा है। जड़ों से जुड़े रहकर भी वह वैश्विक बनना चाहता है। उसकी सोच और यात्रा वैश्विक नागरिक गढ़ने की है। यह वैश्चिक चेतना ही उसे समावेशी, सरोकारी, आत्मीय और लोकतांत्रिक बना रही है। लोगों का स्वीकार और उनके सुख का विस्तार भारत की संस्कृति रही है। वह अतिथि देवो भवः को मानता है और आंक्राताओं का प्रतिकार भी करना जानता है। अपनी परंपरा से जुड़कर वैश्विक सुख, शांति और साफ्ट पावर का केंद्र भी बनना चाहता है।

वर्तमान में अमेरिकी की ट्रेड टैरिफ की चुनौती हो या हमारे आंतरिक संकट हमें साथ मिलकर रास्ता निकालना है। भारत की वैश्विक चेतना और महत्व हमारे भारतवंशी स्थापित कर रहे हैं। हमें समविचारी राष्ट्रों को साथ लेकर अपनी छवि बनानी होगी। स्वदेशी और स्वावलंबन के मंत्र से ही एक नया भारत बनेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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दहेज को लेकर एक और मौत, ये आग कब बुझेगी: रजत शर्मा

लड़की के परिवारवालों का आरोप है ससुरालवालों ने दहेज के लिए बेटी को मारा-पीटा और फिर जलाकर मार डाला। पुलिस ने केस दर्ज कर लिया। लड़की के पति, जेठ और सास-ससुर को गिरफ्तार कर लिया गया।

Last Modified:
Wednesday, 27 August, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

दिल्ली-NCR से दिल दहलाने वाली खबर आई। इसकी चर्चा पूरे देश में है। एक लड़की को दहेज के नाम पर जलाकर मार डाला गया। ससुराल में बेटी पर बहुत जुल्म हुआ। छोटी सी उम्र में उसकी तड़प-तड़प कर मौत हो गई।

जिसने भी जलती हुई लड़की का वीडियो देखा, उसके आंसू निकल आए। जिसने भी मारपीट करते हुए पति की तस्वीरें देखीं, उसका खून खौल उठा। जिसने भी लड़की के मासूम बेटे को ये कहते हुए सुना कि पापा ने मम्मी को थप्पड मारे, फिर उनके ऊपर कुछ डाला और जेब से लाइटर निकालकर आग लगा दी। उसके रोंगटे खड़े हो गए।

लड़की के परिवारवालों का आरोप है ससुरालवालों ने दहेज के लिए बेटी को मारा-पीटा और फिर जलाकर मार डाला। पुलिस ने केस दर्ज कर लिया। लड़की के पति, जेठ और सास-ससुर को गिरफ्तार कर लिया गया।

लेकिन ये सिर्फ दहेज का मामला नहीं है। ये सिर्फ एक बेकसूर बेटी की हत्या का केस नहीं है। ये हमारे समाज पर कलंक है। ये वो आग है, जिसकी गर्मी पूरा देश महसूस कर रहा है।

आपको जानकर हैरानी होगी कि लड़की का परिवार गरीब नहीं हैं, अनपढ़ नहीं है, ससुराल के लोग भी आर्थिक तौर पर मजबूत हैं। लड़की की बहन की शादी भी इसी घर में हुई थी। अच्छा खासा दहेज दिया गया था। दोनों बहनों के साथ इससे पहले भी कई बार मारपीट हुई थी। नाते-रिश्तेदारों ने इसकी शिकायत पंचायत से की थी। बेटी घर लौट आई थी। पंचायत ने, समाज ने, माता-पिता पर दबाव डालकर फिर ससुराल भेज दिया। उन्होंने दावा किया था कि पंचायत के बाद सब ठीक हो जाएगा। बेटी का घर नहीं टूटना चाहिए। लेकिन आज बेटी की जिंदगी की डोर ही टूट गई।

इस केस का एक दूसरा पहलू भी है। ससुराल पक्ष का कहना है कि उन्होंने बहू को नहीं मारा, लड़की ने खुद आग लगाई। मामला दहेज का नहीं था। बहू सोशल मीडिया पर वीडियो डालती थी, ब्यूटी पार्लर चलाने की जिद करती थी, इसलिए झगड़े होते थे। लेकिन क्या कोई छोटे-मोटे झगड़ों से कोई लड़की खुद को आग लगा लेगी?

ग्रेटर नोएडा में जिस बेटी की मौत हुई, उसका नाम है निक्की। निक्की और उसकी बड़ी बहन कंचन की शादी 2016 में ग्रेटर नोएडा में दो सगे भाइयों विपिन भाटी और रोहित भाटी से हुई। आरोप ये है कि ससुराल में दोनों बहनों के साथ शादी के बाद से ही ज्यादती शुरू हो गई, दहेज की मांग शुरू हो गई, दहेज के लिए बहुओं से मारपीट होने लगी।

इसी साल लड़कियों के पिता बेटियों को ससुराल से वापस ले आए थे क्योंकि बेटियों को बुरी तरह पीटा गया था। इसके बाद पंचायत हुई. नाते रिश्तेदारों ने दोनों पक्षों को समझाया, ससुराल वालों को हिदायत दी गई, तो पिता ने बेटियों को ससुराल भेज दिया और यही सबसे बड़ी गलती हो गई।

निक्की के पिता भिखारी सिंह पायला ने कहा कि उन्होंने बेटियों की शादी में अपनी हैसियत से ज्यादा दहेज दिया, गहने दिए, स्कॉर्पियो गाड़ी दी। फिर बेटी ने बच्चे को जन्म दिया तो एक बाइक दी। निक्की के पिता ने कहा कि इसके बाद भी ससुराल वालों का दिल नहीं भरा, तो 35 लाख रूपये या फिर मर्सिडीज़ कार की मांग की गई। ये मांग पूरी नहीं हुई तो बेटियों के साथ रोज मारपीट होने लगी। निक्की के पिता ने कहा कि अगर उन्होंने पंचायत का फैसला न माना होता, बेटियों को ससुराल न भेजा होता, तो आज उनकी बेटी जिंदा होती।

निक्की की मौत के बाद जो वीडियो सामने आया वो परेशान करने वाला है। निक्की की बड़ी बहन कंचन ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें निक्की को उसका पति विपिन पीटता हुआ दिख रहा है। इस वीडियो में निक्की की सास भी दिख रही है।

निक्की के परिवारवालों का आरोप है कि ससुराल वाले मर्सिडीज कार की मांग कर रहे थे। निक्की के पिता का प्रॉपर्टी का काम है, कैब चलवाते हैं, कुछ दिन पहले उन्होंने मर्सिडीज खरीदी थी। कंचन और निक्की इस नई कार के साथ कुछ रील्स बनाई थी। रील्स देखने के बाद निक्की के ससुरालवालों ने मर्सिडीज की मांग शुरू कर दी।

हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि निक्की और कंचन ब्यूटी पार्लर चलाती थीं, सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव थीं, रील्स बनाती थीं, इंस्टाग्राम पर अपलोड करती थी। ये बात ससुरालवालों को पंसद नहीं थी, इसीलिए घर में झगड़े होते थे। इंस्टाग्राम पर निक्की और कंचन दोनों ने अकाउंट बना रखा था। निक्की का अकाउंट प्राइवेट था जबकि कंचन ने ब्यूटी पार्लर के नाम पर अपना अकाउंट पब्लिक कर रखा है। उसके 55 हजार से ज्यादा फॉलोवर हैं।

दोनों बहनें रेगुलर रील बनातीं थी, कभी ब्यूटी पार्लर में, तो कभी गाड़ियों के साथ। रोहित और विपिन भाटी इस बात को पसंद नहीं करते थे कि उनकी पत्नियां रील बनाएं। इस बात को लेकर कई बार घर में झगड़ा हुआ। निक्की की मौत के बाद भी बड़ी बहन कंचन ने इंस्टाग्राम पर कई रील्स अपलोड की हैं। एक रील में निक्की का बेटा कह रहा है कि पापा ने मम्मी को जला दिया।

निक्की के परिवार की तरफ से दर्ज FIR के आधार पर पुलिस ने निक्की के पति विपिन, जेठ रोहित, उसके सास ससुर को गिरफ्तार कर लिया है। कोर्ट ने इन सभी को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। पुलिस अब इस केस की हर एंगल से जांच कर रही है, सबूत इकठ्ठे कर रही है।

सवाल ये नहीं है कि ये मामला सिर्फ दहेज का है या रील्स बनाने को लेकर झगड़ा हुआ। कड़वा सच तो ये है कि एक बेटी पर जुल्म हुआ। उसे या तो जलाकर मार डाला गया या जलने के लिए मज़बूर कर दिया गया।

अगर दहेज को लेकर एक भी बेटी प्रताड़ित होती है तो ये एक अभिशाप है। क्योंकि दहेज को रोकने के लिए सारे प्रयास हुए, सख्त कानून बना, धर्मगुरुओं ने उपदेश दिए, नेताओं ने समझाया, समाज सुधारकों ने अभियान चलाए, पर जाहिर है ये नासूर ठीक नहीं हुआ। ये जख्म आज भी गहरा है।

एक दर्दनाक सच ये भी है कि ऐसे सारे मामले सामने नहीं आते। कई बार परिवार दबा देता है। कभी समाज इस पर पर्दा डाल देता है। कभी बेटी की इज्ज़त का हवाला दिया जाता है, तो कभी ये जाति की प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है।

नोएडा के केस में भी यही हुआ। पंचायत ने पर्दा डाला। एक बात ये भी है कि दहेज के नाम पर 498-A का जो कानून बना था, उसका भी जमकर दुरुपयोग हुआ। हालत ये हुई कि न्यायपालिका का ऐसे मामलों में शिकायत करने वालों पर से विश्वास उठ गया। नोएडा की बेटी के केस में जांच करते समय इन सब बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अमेरिका के निशाने पर अंबानी क्यों: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

स्कॉट बेसेंट अमेरिका के ट्रैजरी सेक्रेटरी यानी वित्त मंत्री हैं। जबकि पीटर नवारो राष्ट्रपति ट्रंप के ट्रेड एडवाइज़र, इन दोनों ने नाम लिए बिना मुकेश अंबानी पर निशाना साधा है।

Last Modified:
Monday, 25 August, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील फँसी हुई है। अमेरिका अब तक भारत पर दो तरह से टार्गेट करता रहा है। पहली शिकायत यह है कि भारत ‘टैरिफ़ किंग’ है यानी भारत में अमेरिकी सामान पर बहुत ज़्यादा टैरिफ़ लगाया जाता है, और दूसरी शिकायत यह है कि भारत रूस से तेल ख़रीदकर यूक्रेन युद्ध लड़ने में उसकी मदद कर रहा है। इसी कारण अमेरिका ने भारत पर 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया है।

भारत का कहना है कि हम तो अमेरिका के कहने पर ही तेल ख़रीद रहे थे ताकि दुनिया के बाज़ार में दाम न बढ़े। भारत और अमेरिका के ट्रेड वॉर के बीच पिछले हफ़्ते से अमेरिकी अधिकारियों के निशाने पर अप्रत्यक्ष रूप से भारत के सबसे धनी व्यक्ति मुकेश अंबानी हैं। उनका आरोप है कि रूसी तेल से अंबानी की कंपनी रिलायंस को फ़ायदा हुआ है, हालांकि रिलायंस के सूत्र इन आरोपों को ग़लत बताते हैं।

अमेरिका के ट्रैजरी सेक्रेटरी स्कॉट बेसेंट और राष्ट्रपति ट्रंप के ट्रेड एडवाइज़र पीटर नवारो ने नाम लिए बिना अंबानी पर निशाना साधा। बेसेंट ने CNBC को कहा कि भारतीय रिफाइनरी कंपनियाँ रूस से सस्ता तेल ख़रीदकर उसे महंगे दाम पर पेट्रोल-डीज़ल बनाकर बेचती हैं, जिससे उन्हें 16 बिलियन डॉलर (करीब 1.32 लाख करोड़ रुपये) का अतिरिक्त मुनाफ़ा हुआ और इसका लाभ कुछ अमीर परिवारों को हुआ।

नवारो ने फ़ाइनेंशियल टाइम्स में लिखा कि रूस के तेल का मुनाफ़ा भारत के राजनीतिक रूप से जुड़े परिवारों को मिलता है, जो अंततः पुतिन को लड़ाई लड़ने में मदद करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि रूस के सस्ते तेल से भारतीय जनता की गाड़ियाँ नहीं चल रहीं बल्कि कुछ बड़े लोग ही फ़ायदा उठा रहे हैं। हालाँकि दोनों अधिकारियों ने अंबानी का नाम नहीं लिया, लेकिन Bloomberg ने अपनी रिपोर्ट में इन बयानों को उनसे जोड़ते हुए हेडलाइन दी कि भारत-अमेरिका की लड़ाई में मुकेश अंबानी फँस गए हैं।

पहले से रिपोर्ट्स में लिखा था कि रूस के सस्ते तेल से भारत में जनता से ज़्यादा इंडियन ऑयल और रिलायंस जैसी कंपनियों को लाभ हुआ। 2021 तक भारत रूस से लगभग तेल नहीं ख़रीदता था, लेकिन अब इसका हिस्सा 35–40% तक पहुँच गया है और यह तेल 10–12 डॉलर प्रति बैरल सस्ता पड़ता था। जनता को इसका पूरा फ़ायदा नहीं मिला, क्योंकि सस्ते रूसी तेल के चलते पेट्रोल के दाम दिल्ली में ₹85 प्रति लीटर होने चाहिए थे जबकि अब भी ₹95 प्रति लीटर हैं, जबकि कच्चे तेल के दाम युद्ध की शुरुआत में 112 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 71 डॉलर पर आ चुके हैं।

इसका फ़ायदा सरकारी और प्राइवेट तेल कंपनियों को हुआ। फ़ाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक़ 16 बिलियन डॉलर यानी 1.32 लाख करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कंपनियों ने कमाया, जिसमें से 50 हज़ार करोड़ रुपये रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के हिस्से में आए। रिलायंस का कहना है कि कमोडिटी का कारोबार साइकल में चलता है, कभी मार्जिन बढ़ता है तो कभी घटता है, किसी विशेष घटना से फ़ायदे को जोड़ना सही नहीं है।

मुकेश अंबानी पर अमेरिकी अधिकारियों का इस तरह से निशाना बनाना चौंकाने वाला है क्योंकि अल जज़ीरा की रिपोर्ट के मुताबिक़ रिलायंस ने रूस के तेल से बना 42% पेट्रोल-डीज़ल उन्हीं देशों को बेचा जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाए हुए थे। जिसमें अमेरिका भी शामिल है ,और अब वही अमेरिका शोर मचा रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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आवारा कुत्तों की पूजनीयता का समाज-शास्त्र: पंकज शर्मा

देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया।

Last Modified:
Monday, 25 August, 2025
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पंकज शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार।

देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया। ऐसा इत्तेहाद कि दस दिन में सुप्रीम कोर्ट के घुटने टिकवा लिए। मेरा दिल द्रवित है। मेरी आंखें भरी हुई हैं। मेरे होंठ सुबक रहे हैं। इस कलियुग में, और तिस पर पिछले ग्यारह बरस के घनघोर भोथरे माहौल के दरमियान, हमारे समाज के एक ख़ास तबके का बेठिकाना कुत्तों के प्रति ऐसा सहानुभूति-भाव देख कर क्या आप की छाती चौड़ी हो कर आज छप्पन इंच की नहीं हो गई है? मेरी तो हो गई है।

बच्चों के, बुजु़र्गों के, महिलाओं के पीछे लपक-लपक कर, उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर, गिरा-गिरा कर, नोच-खसोट कर अधमरा कर देने वाले कुत्तों की आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए दस दिन-रात जंतर-मंतर पर बैठे रहने वालों से अगर मैं यह पूछूं कि बेग़ुनाह मनुष्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होते प्रहारों को नंगी आंखों से देखते रहने के बावजूद उन्होंने एक दिन भी जंतर-मंतर जाने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई तो आप मुझे असामाजिक तत्व तो घोषित नहीं कर देंगे? अगर मैं सवाल उठाऊं कि 2024 में जब कुत्तों द्वारा मनुष्यों को काटने के 37 लाख मामले बाक़ायदा दर्ज़ हुए और इन में से सैकड़ों लोग हमेशा के लिए चल बसे – तब आप अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम से क्यों बाहर नहीं निकले तो आप मुझे मूक प्राणियों का दुश्मन तो करार नहीं दे देंगे?

11 साल पहले, 2014 में, देश में आवारा कुत्तों की तादाद सवा करोड़ के आसपास थी। 2016 में डेढ़ करोड़ पार कर गई। 2018 में 2 करोड़ से ऊपर हो गई। अब 6-7 करोड़ के बीच है। आवारा कुत्ते देश भर में हर रोज़ कम-से-कम दस हज़ार लोगों को काटते हैं। काटने के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं। 2021 में 17 लाख लोगों के कुत्तों द्वारा काटने के मामले दर्ज़ हुए थे। तीन साल में इन घटनाओं में 20 लाख का इजाफ़ा हो गया है। जो मामले दर्ज़ नहीं होते हैं, उन का तो कहना ही क्या?

यूं आवारा कुत्तों की गिनती के सभी आंकड़े अनुमानित ही हैं, मगर दुनिया भर में ख़ानाबदोश कुत्तों की तादाद 20 करोड़ से कुछ ज़्यादा है। दुनिया की मानव आबादी में भारत का हिस्सा तक़रीबन पौने अठारह प्रतिषत है, मगर संसार भर के आवारा कुत्तों की संख्या में भारतीय कुत्तों का हिस्सा तीस फ़ीसदी से ऊपर है। हमारे देश में प्रति एक हज़ार की आबादी पर क़रीब 35 आवारा कुत्ते सड़कों पर घूम रहे हैं। मज़े की बात यह है कि सरकार के पास इस का कोई निश्चित आंकड़ा है ही नहीं कि देश में कितने आवारा कुत्ते हैं और कितने पालतू? कितने पालतू कुत्तों का पंजीकरण है और कितनों का नहीं? पालतू कुत्तों में से कितनों को अनिवार्य टीके नियमित तौर पर लग रहे हैं और कितनों को नहीं? जब पालतू कुत्तों का ही कोई नियमन नहीं हो पा रहा है तो आवारा कुत्तों की कौन परवाह करे?

मैं हलके-फुलके ढंग से नहीं, पूरी संजीदगी के साथ, यह सवाल भी उठाना चाहता हूं कि अगर लोग अपने घरों में कुत्ते पाल सकते हैं तो वे गाय, भैंस, बकरी, भेड़, वग़ैरह क्यों नहीं पाल सकते? अगर कोई चाहे तो अपने फ्लैट में गधा क्यों नहीं पाल सकता है? ‘आवारा’ कुत्तों को ‘सामुदायिक’ कुत्ते मानने वाले भद्रलोकवासी बताएं कि क्या कोई आवासीय सोसाइटी अपने परिसर में सामुदायिक ऊंट-घोड़े पाल सकती है? सारा सामुदायिक प्रेम कुत्ते-बिल्लियों पर ही क्यों उंडे़ला जा रहा है? पक्षियों को पिंजरे में रखना अगर ज़ुर्म है तो पालतू कुत्ते-बिल्लियों को दड़बेनुमा फ्लैट के कारावास में रखना जु़र्म क्यों नहीं है? अगर यह मांग ले कर भी जंतर-मंतर पर धरने-प्रदर्शन होने लगें कि सारे कुत्ते-बिल्लियों को मानव समाज की क़ैद से मुक्त कर सड़कों पर छोड़ा जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट अपने घुटने टेक देगा?

पहले ऐसे घरों की कमी नहीं थी, जहां तोता पाला जाता था। हम में से बहुत-से लोग ‘मिट्ठू चिटरगोटी’ सुन-सुन कर बड़े हुए हैं। फिर सरकार को अहसास हुआ कि तोता तो वन्यजीव है, जैसे कि शेर, हाथी, हिरण और बाघ। तो फ़रमान ज़ारी हो गया कि अगर कोई घर में तोता रखेगा तो तीन साल के लिए जेल हो सकती है। कुत्ता क्या तोते से ज़्यादा मासूम प्राणी है?

आप ने कोई हिंसक तोता कभी देखा क्या? मगर हिंसक कुत्ता तो ज़रूर देखा होगा? हिंसक बिल्लियां भी देखी होंगी। सो, यह कैसे तय हुआ और किस ने किया कि कौन-कौन से पशु-पक्षी वन्यजीव हैं और कौन-कौन से घरेलू जीव? जब सर्कस वाले शेर, चीते, हाथी, भालू – सब पालते थे, तब उन में से कितनों ने मनुष्यों की जान ले ली? मगर आज सड़कों पर घूम रहे आवरा कुत्ते तो हर साल सैकड़ों की जान ले रहे हैं। फिर क्यों न कुत्ते को वन्यजीव घोषित कर दिया जाए?

सच तो यही है कि कुत्ता है तो मूलतः भेड़िए का ही वशंज। कुत्तों को पालतू बनाने का काम प्लीस्टोसीन युग से शुरू हुआ। भोजन की तलाश में जब भेड़िए मनुष्यों की बस्तियों के क़रीब आने लगे तो चतुर मनुष्यों ने उन में से कुछ दब्बू भेडियों को चुना और उन्हें चयनात्मक प्रजनन के तरीके अपना कर धीरे-धीरे पालतू कुत्तों में तब्दील करना शुरू कर दिया। मनुष्यों ने कुत्तों को शिकार के लिए इस्तेमाल करना आरंभ किया। फिर जब खेती शुरू हुई तो उन्हें खेतों की रखवाली में लगाया। बरस-दर-बरस बीतते कुत्ते कारों में घूमने लगे, कुलीनों के कालीनों पर विराजने लगे, उन के गुदगुदे बिस्तरों पर उन के साथ सोने लगे। लेकिन क्या इस से कुत्तों में मौजूद भेड़िया-अंश पूरी तरह समाप्त हो गया होगा?

मेरी अंतआर्त्मा गदगद है कि ईएमआई-युग में अपनी गुज़र-बसर कर रहे हमारे नौनिहाल अपने पालतू कुत्तों के सौंदर्य प्रसाधनों पर हज़ारों रुपए महीने खर्च कर देते हैं। अपने ‘सामुदायिक श्वान बच्चों’ के लिए उन की आंखों से आंसू उमड़ते हैं। बावजूद इस के कि मैं नहीं जानता कि उन में से कितने साल में एकाध बार किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम जा कर किसी का हालचाल पूछते हैं, प्राणीमात्र के लिए उन की इतनी दया, इतनी करुणा मुझे भीतर तक भिगो देती है।

मुझे यह भी नहीं मालूम कि सर्दियों में रैनबसेरों में सोने वाले लोगों की इन कुलीन जंतरमंतरियों को कितनी फ़िक्र है, कूड़े के ढेर में से कबाड़ चुनते बच्चे उन की चिंताओं में शामिल हैं या नहीं और ज़िंदगी भर चीथड़ों में ऐड़ियां रगड-रगड़ कर मर जाने वाले कुपोषित स्त्री-पुरुष उन के सपनों में कभी आते हैं या नहीं। मगर क्या यह कोई कम बड़ी बात है कि बेघर कुत्ते-बिल्लियों का सहारा बनने के अपने कर्तव्य पथ पर चलने से उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ताक़त भी नहीं रोक पा रही है।

मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मैं कुत्ता-विरोधी नहीं हूं। आज के दौर में कुत्ता-विरोधी हो कर कोई जी सकता है क्या? कुत्ता तो हमारे वर्तमान जीवन दर्शन का प्रतिमान है। उस की पूंछ हमारे राष्ट्रीय आचरण का तेज़ी से प्रतीक बनती जा रही है। इसलिए कुत्ता मेरे लिए पूज्य है। उस की अवहेलना करने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता। कुत्ते हमारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की नींव हैं। वे हैं तो हम हैं। वे हमारे बावजूद हैं। कोई रहे-न-रहे, वे सदा के लिए हैं। सो, उन के साथ सार्वजनिक तौर पर रहना सीखिए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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साल 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान: अनंत विजय

कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है।

Last Modified:
Monday, 25 August, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वाधीन भारत के इतिहास में वर्ष 1975 एक ऐसा वर्ष है जिस साल कई क्षेत्रों में अनेक तरह के बदलाव देखने को मिले। इंदिरा गांधी ने 1975 में देश की राजनीति और संविधान की आत्मा को बदलने का काम किया था। देश पर आपातकाल थोपा गया था। नागरिक अधिकारों पर पहरा लगा दिया था। राजनीति में ऐसा बदलाव देखने को मिला जो इसके पहले स्वाधीन भारत के इतिहास में लगभग नहीं के बराबर दिखता है।

कई नेता जो आपातकाल के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री थे, इंदिरा जी के साथ थे, समय भांपकर कांग्रेस को छोड़ दिया। जनता पार्टी के नेता हो गए। इंदिरा के साथ रहकर आपातकाल के भागी बने, फिर पाला बदलकर जयप्रकाश जी के साथ हो गए। 1977 में जब जनता सरकार बनी तो उसमें केंद्रीय मंत्री बन गए। आपातकाल नें राजनीति को इस कदर बदल दिया कि राजनीति सत्ता में बने रहने का खेल हो गया।

स्वाधीनता के पूर्व जिस प्रकार की राजनीति होती थी और उसके कुछ अंश स्वाधीनता के बाद भी दिखते थे वो एक झटके में 1975 में समाप्त हो गए। स्वाधीनता के बाद पहली बार 1975 में देश ने अधिनायकवाद की आहट सुनी। संजय गांधी के रूप में सत्ता का एक ऐसा केंद्र बना जो बगैर किसी शक्ति के बेहद ताकतवर था। वो जो चाहता था देश में वही होता था। संजय गांधी के साथ कई युवा नेता जुड़े जिन्होंने बाद में देश की राजनीति को अलग अलग तरह से प्रभावित किया। अधिनायकवाद के साथ साथ देश का व्यापक रूप से अवसरवादी राजनीति से भी परिचय हुआ।

सत्ता के लालची नेताओं को भी देश ने देखा। प्रतिरोध की राजनीति ने दिरा जैसी ताकतवर नेता को हरा दिया लेकिन स्वार्थ और लालच के कारण ये प्रतिरोध ढह गया। आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के दामन पर एक ऐसा स्थायी दाग है जो किसी भी तरह से धोया नहीं जा सकता है।राजनीति के अलावा कला के क्षेत्र में भी 1975 को याद किया जाएगा। 1975 में एक ऐसी फिल्म आई जिसने हिंदी सिनेमा के लैंडस्केप को बदलकर रख दिया। 1975 के पहले हिंदी फिल्मों में पारिवारिक संबंधों पर आधारित कहानियों की धूम रहती थी।

समांतर रूप से रोमांटिक कहानियों पर बनी फिल्में जनता को पसंद आती थीं। 1973 में राज कपूर की फिल्म बाबी ने बाक्स आफिस के तमाम रिकार्ड ध्वस्त कर दिए थे। युवा प्रेम का रंग ऐसा बिखरा था कि बाबी में नायक और नायिकाओं के कपड़े पहनने का स्टाइल युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ था। एक खास तरह के डिजायन का नाम ही बाबी प्रिंट पड़ गया था। 1973 में ही अमिताभ बच्चन की फिल्म जंजीर आई थी। इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सामने एक नए प्रकार के नायक की छवि प्रस्तुत की थी। जिसको बाद में एंग्री यंगमैन कहा गया।

फिल्म जंजीर की सफलता की पृष्ठभूमि में दो वर्ष बाद शोले फिल्म रिलीज होती है। इसकी सफलता की कहानी तो बहुतों को मालूम है लेकिन इस फिल्म के साथ फिल्म समीक्षा या समीक्षकों के असफलता की कहानी की चर्चा कम होती है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा हो चुकी है कि बिहार से प्रकाशित होनेवाले एक समाचारपत्र में शोले की समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था- शोले जो भड़क ना सका। इसी तर्ज पर एक अन्य लोकप्रिय हिंदी पत्रिका ने फिल्म शोले को एक स्टार दिया था। समीक्षा भी बेहद मनोरंजक लिखी गई थी, कुछ पंक्तियां देखिए- इंटरवल तक फिल्म ठीकठाक है, कुछ हद तक मजेदार भी। फिर इस खिचड़ी फिल्म के निर्देशक और लेखकद्वय सलीम जावेद को लगता है मारपीट और खून खराबे का दौरा पड़ जाता है।

लेकिन सच्चाई यह है कि मार-पीट वाले दृष्यों में न तो कोई जान है और न ही उनमें से किसी तरह की उत्तेजना हो पाती है। समीक्षक महोदय इसके बाद अभिनेताओं की खबर लेते हैं। वो अमिताभ बच्चन,धर्मेंद्र और संजीव कुमार के अभिनय पर लिखते हैं- धर्मेंद्र या अमिताभ न तो गुंडे लगते हैं, न ही भाड़े के टट्टू। धर्मेंद्र की नंगी छाती या उसके बाजुओं को देख कर फूल और पत्थर वाला वह किरदार याद नहीं आता।

अब तो वह ‘फूलफूल’ होता हुआ सा हिंदी फिल्मों का एक्टर भर लगता है। संजीव तो कांफी रेंज का अभिनेता है लेकिन शोले में वह उमर शरीफ बनने की कशिश में बिल्कुल पिछड़ गया लगता है। उसके गले से आवाज इस तरह से निकलती है जैसे भूत बंगले वाली फिल्मों के चरित्र बोलते हैं।इमरजेंसी ने जिस तरह से राजनीति की दिशा बदली उसी तरह से शोले ने फिल्म और फिल्म निर्माण की दिशा भी बदल दी। मल्टीस्टारर फिल्मों अपेक्षाकृत अधिक संख्या में बनने लगीं। हिंदी सिनेमा के जो दर्शक प्रेम के मोहपाश में थे, जो राजेश खन्ना की अदायगी के दीवाने थे, जिनको प्यार भरे संवाद अच्छे लगते थे उनकी पसंद बदल गई।

अब उनका नायक जमाने से टकरा सकता था। वो प्रेम भी करता था लेकिन विद्रोही नायक की उसकी छवि उसके प्रेमी रूप पर भारी पड़ती थी। राजनीति में भी 1975 के बाद नेताओं की छवि बदलने लगी। उनको देश की जनता अवसरवादी जमात के तौर पर देखने लगी। वादे करके मुकर जानेवाली प्रजाति के रूप में देखने लगी। नेताओं की आयडियोलाजी ते प्रति लगवा उसी तरह से घटने लगा जैसे हिंदी सिनेमा के दर्शकों का प्रेम कहानियों के प्रति लगाव कम होने लगा था। ये समाजशास्त्रीय शोध और अनुसंधान का विषय हो सकता है कि क्या आपातकाल में जिस तरह से सिस्टम या संविधान से ऊपर व्यक्ति की आकांक्षा को तरजीह दी गई उसका परिणाम ये हुआ कि जनता एक विद्रोही नायक को ढूंढने लगी।

वो विद्रोही नायक जो सड़ते जा रहे सिस्टम से टक्कर ले सके, उसको ठीक कर सके। देश के राजनीतिक सिस्टम के प्रति जनता के मन में जो गुस्सा उमड़ रहा था वो गुस्सा तब ढंडा होता था जब वो पर्दे पर नायक को सिस्टम तोड़ता देखता था। इसी संतुष्टि के लिए दर्शक बार-बार सिनेमा हाल जाते थे। आम जनता के सिस्टम के विरुद्ध उठ खड़े होने जैसी कई फिल्में 1975 के बाद बनीं। उनमें से कई बेहद सफल रहीं।

1975 में ही अमिताभ बच्चन की एक और फिल्म रिलीज हुई थी दीवार। इसमें भी नायक सिस्टम में रहकर सिस्टम को चुनौती देता है। जब फिल्म रिलीज हुई थी तब कुछ उत्साही समीक्षकों ने इसके नायक की तुलना इंदिरा गांधी के 1969 के फैसलों से की थी। तब कहा गया था कि इंदिरा गांधी ने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। वो सिस्टम में रहते हुए सिस्टम को ठीक करने का प्रयत्न कर रही थीं।

वही काम दीवार के नायक ने भी किया। ये पैरलल कुछ लोगों के गले नहीं उतर सकती है।वैश्विक स्तर पर भी 1975 में कई घटनाएं हुईं। वियतनाम युद्ध समाप्त हुआ। कुछ देशों को स्वाधीनता मिली और वहां लोकतंत्र स्थापित हुआ। कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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राहुल गांधी को 'चोर' के प्रिय नारे से कितना नफा नुकसान: आलोक मेहता

राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों का सहयोग लेते थे।

Last Modified:
Monday, 25 August, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राहुल गांधी ने बिहार में 'वोट चोर' के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चुनाव आयोग के खिलाफ एक घिनौना अभियान चलाया है, जो गरीब अशिक्षित लोगों की भीड़ इकट्ठा कर नक्सल-माओवादियों की तरह चुनाव और लोकतंत्र के प्रति विद्रोह पैदा करने की कोशिश जैसा है। इसे कहने को 'अधिकार यात्रा' कहा गया है, लेकिन जिस राज्य में खुलेआम बंदूकों के बल पर वोट और बूथ लूटने का पुराना इतिहास रहा हो, वहां वोटिंग मशीन, वोटर लिस्ट, सरकार, चुनाव आयोग, सीबीआई, पुलिस आदि पर भरोसा न करना कहां तक उचित है?

वैसे उन्हें मालूम नहीं है कि इसी 'चोर' जैसे नारों से उनके कितने मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री खुद फंसे रहे हैं, और लोगों को उनकी यादें अधिक खतरनाक साबित हो सकती हैं। चुनाव आयोग ने राहुल गांधी से कहा कि यदि मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों के सबूत हैं तो उन्हें 7 दिनों में हलफनामा जमा करें, अन्यथा माफी मांगें। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने राहुल गांधी पर “डेटा मैनिपुलेशन” का आरोप लगाया और स्पष्ट किया कि वोटर लिस्ट और वोट डालने की प्रक्रिया अलग-अलग कानूनों के तहत संचालित होती है।

इस बीच एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई है, जिसमें आरोप लगाया गया कि कांग्रेस और राहुल गांधी ने चुनाव आयोग की संवैधानिक स्वतंत्रता को कमजोर करने के लिए यह अभियान चलाया है। वोटर इज किंग, इलेक्टेड मेन इज सर्वेंट ऑफ पब्लिक (मतदाता राजा है, चुने गए व्यक्ति सेवक हैं), लेकिन सारे चुनाव सुधारों और अदालती निर्णयों के बावजूद राजनीति में अपराधीकरण से मुक्ति नहीं मिल पाई है।

राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों का सहयोग लेते थे, धीरे-धीरे दबंग लोगों को स्वयं सत्ता में आने का मोह हो गया और अधिकांश पार्टियों को यह मजबूरी महसूस होने लगी। पराकाष्ठा यहाँ तक हो गई कि कांग्रेस के सत्ता काल में बिहार के एक बहुत विवादस्पद दबंग नेता को राज्य सभा के नामजद सदस्य की तरह भेज दिया गया।

अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार संसद में पाँच साल की सजा वाले मामलों में तीस दिन से अधिक जेल में रहने वाले पीएम, सीएम, मंत्री को तत्काल पद से हटने का प्रावधान का कानून लाई तो कांग्रेस और उनके साथी विरोधी दलों ने संसद में अशोभनीय हंगामा कर दिया। संयुक्त संसदीय समिति इस कानून को और ध्यान से विचार करके पास करने के बाद संसद में लाएगी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सितम्बर 2018 को एक फैसले में निर्देश दिया था कि दागी उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से सार्वजनिक करें, ताकि जनता को जानकारी रहे।

राजनीतिक दल जिन दागियों को जिताऊ उम्मीदवार बताकर चुनाव मैदान में उतार देते हैं, उनके बचाव में वे न्यायशास्त्र के इस सिद्धांत की आड़ लेते हैं कि आरोपित जब तक न्यायालय से दोषी न करार दिया जाए, तब तक वह निर्दोष ही माना जाए। यह दलील उन मामलों में भी दी जाती है जिनमें उम्मीदवार के संगीन अपराध में लिप्त होने का आरोप होता है।

अनेक गंभीर मामलों में सबूतों के साथ चार्जशीट होने पर तो नेता और पार्टियों को कोई शर्म महसूस होनी चाहिए। चुनाव आयोग ने तो बहुत पहले यही सिफारिश कांग्रेस राज के दौरान की थी कि चार्जशीट होने के बाद उम्मीदवार नहीं बन पाने का कानून बना दिया जाए, लेकिन ऐसी अनेक सिफारिशें सरकारों और संसदीय समितियों के समक्ष लटकी हुई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सांसदों-मंत्रियों आदि पर विचाराधीन मामलों के लिए अलग से अदालतों के प्रावधान और फैसले का आग्रह भी किया, लेकिन अदालतों के पास पर्याप्त जज ही नहीं हैं।

जहाँ तक सरकारी खजाने से चोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की बात है, बिहार में राहुल गांधी जिन लालू यादव परिवार के कंधों का सहारा ले रहे हैं, वे 'चारा चोर' के आरोपों वाले पशुपालन घोटाले में जेल की लंबी सजा भुगत चुके हैं और अब भी दामन बेदाग नहीं है। फिर कांग्रेस के इंदिरा राज से मनमोहन सिंह राज के दौरान अरबों रुपयों के भ्रष्टाचार के घोटालों की सूची लंबी होती गई है। हिमाचल के एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री रामलाल को 'लकड़ी चोर' के गंभीर आरोपों में हटाना पड़ा यानी जंगलों के पेड़ काटकर करोड़ों की लकड़ी के अवैध धंधे का मामला था।

बचाव के लिए उसे राज्यपाल तक बनाया गया, जिसने आंध्र की चुनी हुई रमा राव की सरकार को ही बर्खास्त कर दिया जिसे राष्ट्रपति के हस्तक्षेप से पुनः मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। कर्नाटक का तेलगी स्टाम्प पेपर घोटाला (2003), कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला (2008–11), कोयला घोटाला (2012) की यादें ताजा हैं। वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जिस तरह के शराब घोटाले में फंसे, ऐसे आरोपों के मामले मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह तक पर रहे और अदालत पहुँचे थे।

इन सबसे गंभीर कांग्रेस सरकार बचाने के लिए हुआ सांसद रिश्वत कांड में सहयोगी दलों के नेताओं की सजा का रिकॉर्ड भी है। इसलिए राहुल गांधी और कर्नाटक में तेलगी और वीरप्पन कांडों के समय सत्ता में रहे पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को असली राजनीतिक नफा-नुकसान समझ लेना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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