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‘इन बड़ी वजहों से भारतीय मीडिया के लिए काफी व्यस्तताओं भरा रहने वाला है नया साल’

कहीं से नहीं लगता कि आने वाला साल किसी भी तरह से मीडिया सेक्टर के लिए बुरा हो सकता है। अच्छा सोचिए, अच्छा होगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 28 December, 2022
Last Modified:
Wednesday, 28 December, 2022
Vishnu Sharma

विष्णु शर्मा।।

मीडिया चैनल्स में लोग कब खुश होते हैं, जब कोई बड़ी खबर होती है, ताकि कई बार लाइव बुलेटिंस, ब्रेकिंग्स और बाद में चर्चा वाले शोज बनाकर ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को आकर्षित किया जा सके। प्रिंट को भी अब उनकी बड़ी वेब खबरों पर मिलने वाले हिट्स के जरिये रेवेन्यू पर पड़ता असर साफ दिखने लगा है। ऐसे में अगर वर्ष 2023 का पूर्वानुमान लगाएं तो ये मानकर चलिए कि न्यूज मीडिया के लिए ये साल बेहतरीन जाने वाला है।

सबसे बड़ा न्यूज इवेंट है 2024 का लोकसभा चुनाव। तमाम राजनीतिक पार्टियों और सर्वे करवाने वाली एजेंसियों ने अभी से ‘वॉर रूम’ की तैनाती शुरू कर दी है। यानी 2023 के शुरू से ही ढेरों मीडिया वालों की जरूरत इन सबको पड़ने वाली है। अब सोचिए मीडिया हाउसेज क्या करेंगे, ‘आजतक‘ ने अभी से चुनाव आधारित नया यूट्यूब चैनल शुरू करने के लिए टीम का ऐलान कर दिया है। लगभग हर न्यूज चैनल, अखबार और वेबसाइट्स व यूट्यूब चैनल्स को 2024 के चुनावों के लिए बड़ी तादाद में पत्रकार चाहिए होंगे और इन सबकी भर्ती 2023 में ही होगी।

इस साल भी कई बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। शुरुआत शायद फरवरी में ही हो जाएगी, क्योंकि मार्च 2023 तक त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में चुनाव होने हैं और ये मानकर चलिए कि कम से कम त्रिपुरा के चुनावों में तो आपको देश का हर बड़ा पत्रकार फील्ड में दिखाई देगा। दरअसल, लेफ्ट फिर से त्रिपुरा को वापस लेना चाहेगा और सीएम बदल चुकी बीजेपी इसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहेगी।

मीडिया वालों को मुश्किल से डेढ़ दो महीने की छुट्टियां ही मिल पाएंगी कि कर्नाटक का चुनाव आ जाएगा। बीजेपी ने येदियुरप्पा को हटाकर जो नया प्रयोग किया था, उसकी परीक्षा इन चुनावों में होगी। कर्नाटक में कांग्रेस की भी पकड़ मजबूत है और देवेगौड़ा के साथ मिलकर सरकार बनाने का विकल्प भी। मुश्किल बीजेपी के साथ जी जनार्दन रेड्डी की ताजा बनी पार्टी भी कर सकती है, सो जितना मुकाबला रोचक होगा, मीडिया को उतना ही फायदा मिलेगा।

ऐसे ही रोचक मुकाबले अक्टूबर-नवंबर में चार राज्यों-एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में होने हैं। मिजोरम को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में इतना कांटे का मुकाबला होना है कि और कोई खबर चलने वाली ही नहीं है। दिसंबर तक तेलंगाना का चुनाव भी होना है, ऐसे में बीजेपी की वहां लगातार बढ़त हिंदी पट्टी की मीडिया को व्यस्त रखने वाली है।

सबसे खास बात ये कि इन सभी नौ राज्यों के हर जिले में स्ट्रिंगर सबके पास होगा नहीं तो उनके लिए भी रास्ते खुलने वाले हैं, ऐसे में तमाम लोगों को स्थाई नौकरी मिलने के भी रास्ते खुल जाएंगे। इन सभी राज्यों में तब तक तमाम न्यूज चैनल्स भी चुनावों के चलते खुलेंगे। सो 2023 का साल मीडिया वालों के दोनों हाथों में लड्डू वाला है। हर राज्य के वरिष्ठ पत्रकारों को भी अतिरिक्त काम मिल जाएगा। इतना ही नहीं 2023 में ही बीएमसी और यूपी के निकाय चुनाव भी होने हैं। सोचिए, साल कितना रोमांचकारी होगा और अंत में पहुंचते-पहुंचते 2024 के चुनावों की रणभेरी बज जाएगी। जम्मू-कश्मीर में भी इस साल चुनाव हो सकते हैं।

2023 में ही भारत क्रिकेट वर्ल्ड कप को होस्ट करने जा रहा है। अक्टूबर-नवंबर के बीच ही वर्ल्ड कप होगा तो मानकर चलिए कि उससे पहले के दो महीने भी काफी व्यस्त रखने वाले हैं। तमाम तरह के नए रोजगार के मौके भी मिलेंगे। 2023 में G 20 की मीटिंग्स भी अलग- अलग शहरों में होनी तय हुई हैं। हर मीटिंग में देश-विदेश की मीडिया का बड़ा जमावड़ा होना तय मानिए।

कोरोना की वजह से कई तरह के आयोजन बंद थे, जिन पर मीडिया की नजरें रहती थीं, वर्ष 2023 से वो सब होने जा रहे हैं। सबसे पहले ग्रेटर नोएडा में 13 जनवरी से 18 जनवरी तक ऑटो एक्सपो लगेगा। फरवरी में वर्ल्ड बुक फेयर प्रगति मैदान में लगेगा। नई संसद का उद्घाटन भी 2023 में ही होगा। राम मंदिर में भी दर्शनार्थी अंदर प्रवेश कर सकेंगे  और ये सब घटनाएं मीडिया के लिए माहौल गरम रखेंगी।

छह मई 2023 को प्रिंस चार्ल्स का राज्याभिषेक लंदन में होगा तो मानकर चलिए कि न्यूज रूम में वहां जाने वालों के लिए अभी से रेस चल रही होगी। एक हफ्ता तो इसे ही चलाएंगे न्यूज चैनल्स। एक और बड़ी घटना 2023 में होने जा रही है, भारत चीन को पीछे छोड़कर जनसंख्या के मामले में नंबर वन देश बन जाएगा। सोचिए, कितने हफ्तों पहले से मीडिया इस पर चर्चा करवानी शुरू करेगी और कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी जी इस मौके पर जनसंख्या कानून या नई नीति का ऐलान करके मीडिया को और व्यस्त कर दें।

मीडिया को 2023 में बॉलीवुड भी काफी व्यस्त रखने वाला है। एक से एक चर्चित और विवादित फिल्में जो रिलीज होने वाली हैं, जिनमें शाहरुख खान की ‘पठान’ और कंगना रनौत की ‘इमरजेंसी’ भी शामिल हैं। प्रभास की ‘आदिपुरुष‘ भी नए लुक के साथ आएगी। सलमान खान की ‘टाइगर 3‘ और ‘किसी का भाई किसी का जान‘ भी आने वाली हैं। अजय देवगन की ‘भोला‘, विकी कौशल की ‘सैम बहादुर‘ और शाहरूख की ‘जवान‘ भी।

कुछ इंटरनेशनल घटनाएं भी भारत की मीडिया में जगह बनाएंगी। जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश के चुनाव, प्रिंस चार्ल्स का राज्याभिषेक तो है ही। कुल मिलाकर इन सब खबरों और आयोजनों के चलते 2023 में भारतीय मीडिया काफी व्यस्त रहने वाली है। काफी गहमागहमी रहने वाली है, न केवल पॉलिटिकल रूप से बल्कि स्पोर्ट्स और फिल्मी क्षेत्र में भी। ऐसे में 2023 में जो मंदी की बात कही जा रही है, वो बिजनेस बीट के पत्रकारों को भी व्यस्त रखेगी। हालांकि, इतने व्यस्त हालात में जब इतने मीडियाकर्मियों की जरूरत हर बीट और डेस्क पर रहेगी तो मंदी की मार इस सेक्टर पर पड़ने के ज्यादा आसार नहीं हैं।

इन सब आयोजनों पर खर्च होने वाले बड़े धन में से विज्ञापन के रूप में मीडिया हाउसेज को भी हिस्सा मिलना ही है, ऐसे में उसका सीधा फायदा काम ही सही लेकिन मीडिया कर्मियों को भी मिलना है, सो कहीं से नहीं लगता कि आने वाला साल किसी भी तरह से मीडिया सेक्टर के लिए बुरा हो सकता है। अच्छा सोचिए, अच्छा होगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और इतिहासकार हैं।)

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हरियाणा की जीत पीएम नरेंद्र मोदी में नई ऊर्जा का संचार करेगी: रजत शर्मा

मोदी की ये बात सही है कि कांग्रेस जब-जब चुनाव हारती है तो EVM पर सवाल उठाती है, चुनाव आयोग पर इल्जाम लगाती है, ये ठीक नहीं है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 10 October, 2024
Last Modified:
Thursday, 10 October, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

इसमें दो राय नहीं कि हरियाणा में नरेंद्र मोदी की जीत बीजेपी के लिए संजीवनी का काम करेगी। बीजेपी के जिन नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी की क्षमता पर शक होने लगा था, उनमें नई हिम्मत का संचार होगा। जिन लोगों के मन में ये सवाल था कि क्या मोदी की लोकप्रियता कम हुई है, उनको जवाब मिल गया होगा। जैसे बीजेपी को इस जीत की उम्मीद नहीं थी, वैसे ही कांग्रेस को इस हार की ज़रा भी आशंका नहीं थी।

ये हार कांग्रेस के उन नेताओं का मनोबल गिराएगी जिन्हें ये भरोसा हो चला था कि राहुल गांधी को कोई ऐसी शक्ति मिल गई है जिससे वो कांग्रेस को पुनर्जीवित कर देंगे। अब उन्हें लग रहा होगा कि राहुल की जड़ी-बूटी तो फेक निकली। हरियाणा में कांग्रेस ने सारी ताकत झोंक दी थी। लड़ाई इस बात के लिए नहीं हो रही थी कि पार्टी कितनी सीटें जीतेगी। संघर्ष इस बात पर होने लगा था कि जीत के बाद मुख्यमंत्री कौन बनेगा? जो राहुल गांधी सोच रहे थे कि अब वो एक के बाद एक प्रदेश जीतते जाएंगे और मोदी को हरा देंगे, उन्हें झटका लगेगा। जिन राहुल गांधी को मोदी के कंधे झुके हुए लगने लगे थे, उन्हें सपने में अब 56 इंच की छाती दिखाई देगी।

हरियाणा की ये जीत नरेंद्र मोदी में भी नई ऊर्जा का संचार करेगी और अब बीजेपी  झारखंड और महाराष्ट्र में नए जोश के साथ लड़ेगी। महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस की bargaining power कम हो जाएगी। अब एक हरियाणा की जीत INDI अलायंस में राहुल गांधी की ताकत को कम कर देगी। मंगलवार को ही अलायंस के पार्टनर्स ने ये कहना शुरू कर दिया कि जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर होती है, वहां कांग्रेस का जीतना मुश्किल हो जाता है। लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस की हार की वजह क्या है? इस सवाल का जवाब खोजने में कांग्रेस के नेताओं को वक्त लगेगा क्योंकि अभी वो हार के सदमे से ही नहीं उबरे हैं।

मोदी की ये बात सही है कि कांग्रेस जब-जब चुनाव हारती है तो EVM पर सवाल उठाती है, चुनाव आयोग पर इल्जाम लगाती है, ये ठीक नहीं है। केजरीवाल की ये बात सही है कि हरियाणा में कांग्रेस को अति आत्मविश्वास ले डूबा। कांग्रेस के नेता जीत पक्की मान चुके थे। राहुल को ये समझा दिया गया कि किसान बीजेपी के खिलाफ हैं, विनेश फोगाट के आने से जाटों और महिलाओं का वोट पक्का है, अग्निवीर स्कीम के कारण नौजवान भी बीजेपी के खिलाफ हैं, इसलिए अब बीजेपी की लुटिया डूबनी तय है। माहौल ऐसा बनाया गया मानो कांग्रेस की वापसी पक्की है।

इसका असर ये हुआ कि कुर्सी का झगड़ा शुरू हो गया। रणदीप सुरजेवाला कैथल से बाहर नहीं निकले और कुमारी सैलजा घर बैठ गईं। इसका कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। इस बार हरियाणा की जनता ने स्पष्ट संदेश दे दिया कि जो जमीन पर काम करेगा, जनता उसका साथ देगी। दूसरी बात, अब क्षेत्रीय और छोटी-छोटी परिवारवादी पार्टियों का दौर खत्म हो गया। जनता ने चौटाला परिवार को घर बिठा दिया। BSP और केजरीवाल को भी भाव नहीं दिया।

ये सही है कि शुरू में ऐसा लग रहा था कि हवा बीजेपी के खिलाफ है, दस साल की anti-incumbency थी लेकिन नरेन्द्र मोदी ने चुपचाप, खामोशी से रणनीति बनाई। सारा फोकस इस बात पर शिफ्ट कर दिया कि चुनाव सिर्फ हरियाणा का नहीं है, ये चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच किसी एक को चुनने का है, परिवारवाद और जातिवाद के खिलाफ चुनाव है, चुनाव नामदार और कामदार के बीच है। मोदी का फॉर्मूला काम आया और हरियाणा ने इतिहास रच दिया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या रेट कट का टाइम आ गया है? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

रिज़र्व बैंक की मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की बैठक सोमवार से हो रही है। लेकिन बैठक से पहले आयीं ज़्यादातर रिसर्च रिपोर्ट कह रही है कि रेट कट अभी नहीं होगा।

Last Modified:
Monday, 07 October, 2024
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

अर्थव्यवस्था को लेकर सुर्खियाँ अच्छी नहीं है। जून तिमाही में GDP घटी है। GST कलेक्शन स्थिर सा हो गया है। HSBC मैन्युफ़ैक्चरिंग और सर्विसेज़ के इंडेक्स में गिरावट आई है। इन सुर्ख़ियों के परे पिछले हफ़्ते शेयर बाज़ार में भी जून के बाद सबसे बड़ी गिरावट आई है। उसका कारण हालाँकि इज़राइल- ईरान का तनाव, चीन के शेयरों में विदेशी निवेशकों की रुचि बताया जा रहा है। अब नज़र रिज़र्व बैंक पर है जिसको इस हफ़्ते तय करना है कि रेट कट करना है या नहीं।

हम हिसाब किताब में पहले चर्चा कर चुके हैं कि कोरोनावायरस के बाद महंगाई को क़ाबू करने के लिए रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरों को बढ़ाना शुरू किया था। रिज़र्व बैंक को महंगाई 4% प्लस या माइनस 2% रखने का लक्ष्य केंद्र सरकार ने दिया है। महंगाई क़ाबू में है। अमेरिका में फ़ेडरल रिज़र्व ने तो ब्याज दरों में कटौती आधा फ़ीसदी की कटौती कर भी दी है क्योंकि वहाँ मंदी का ख़तरा मंडरा रहा है। भारत में अब तक तो ऐसे हालात नहीं बने हैं पर पिछले महीने भर से जो खबरें आ रही हैं वो चिंता बढ़ाने वाली है।

GST कलेक्शन स्थिर है मतलब माल या सर्विसेज़ की खपत बढ़ नहीं रही है। HSBC का इंडेक्स भी यही संकेत दे रहा है कि मैन्यूफ़ैक्चरिंग और सर्विसेज़ सेक्टर में गिरावट आई है। गाड़ियों की बिक्री पर भी ब्रेक सा लग गया है। अब त्योहार से उम्मीद है। रिज़र्व बैंक की मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की बैठक सोमवार से हो रही है।

रिज़र्व बैंक के गवर्नर फ़ैसले की जानकारी बुधवार को देंगे, लेकिन बैठक से पहले आयीं ज़्यादातर रिसर्च रिपोर्ट कह रही है कि रेट कट अभी नहीं होगा। रेट कट दिसंबर में होगा। अगर ऐसा होता है तो माल या सर्विसेज़ की खपत में बढ़ोतरी में देर लग सकती है। रेट कट होने पर लोगों को सस्ता क़र्ज़ मिलता है तो खपत बढ़ती है। गाड़ियों और घरों की बिक्री बढ़ती है। कंपनियाँ भी नए प्रोजेक्ट लाती है तो नौकरियाँ आती है। इसलिए रेट कट जितनी जल्दी हो उतना अच्छा होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

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पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना सरकार का सुचिंतित निर्णय: अनंत विजय

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय लिया जाता है तो कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं।

Last Modified:
Monday, 07 October, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

पिछले दिनों भारत सरकार ने पांच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया को हाल ही में संपन्न केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में शास्त्रीय भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। जैसे ही इस, बात की घोषणा की गई कुछ विघ्नसंतोषी किस्म के लोग इसको महाराष्ट्र चुनाव के जोड़कर देखने लगे। इस तरह की बातें की जाने लगीं कि चूंकि कुछ दिनों बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं इस कारण सरकार ने मराठी को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने की घोषणा की।

इसको मराठी मतदाताओं को लुभाने के प्रयास की तरह देखा गया। हर चीज में राजनीति ढूंढनेवालों को ये समझना चाहिए कि इन पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में रखने का निर्णय आकस्मिक तौर पर नहीं लिया गया है। भारतीय भाषाओं के इतिहास में आकस्मिक कुछ नहीं होता। बड़ी बड़ी क्रांतियां भी भाषा में कोई बदलवा नहीं कर पाती हैं। उसके लिए सैकड़ों वर्षों का समय लगता है। पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना मोदी सरकार का सुचिंतित निर्णय है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद लालकिले की प्राचीर से अमृतकाल में विकसित भारत बनाने के लिए पंच-प्रण की घोषणा की थी।

उसमें से एक प्रण था विरासत पर गर्व। विरासत पर गर्व को व्याख्यायित करने का प्रयास करें तो इन भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना राजनीति नहीं लगेगी। न ही किसी चुनाव में मतदाता को लुभाने के लिए उठाया गया कदम प्रतीत होगा। प्रधानमंत्री मोदी अपने निर्णयों में स्वयं उन पंच प्रण तो लेकर सतर्क दिखते हैं। प्रतीत होता है कि वो विरासत पर गर्व को लेकर देश में एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं जिसपर पूरे देश को गर्व हो सके। अपनी भाषाओं को शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में डालने के पीछे इस तरह का सोच ही संभव है।

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय केंद्र सरकार लेती है तो उसके साथ कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं। 2020 में तीन संस्थाओं को संस्कृत के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बना दिया गया। पूर्व में घोषित भारतीय भाषाओं के लिए सेंटर आफ एक्सिलेंस बनाया गया। मराठी की बात कुछ देर के लिए छोड़ दी जाए। विचार इसपर होना चाहिए कि पालि और प्राकृत को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने में इतनी देर क्यों लगी। पालि और प्राकृत में इतनी अकूत बौद्धिक संपदा है जिसके आधार पर इन दोनों भाषाओं को तो आरंभ में ही शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में रखना चाहिए था।

बौद्ध और जैन साहित्य तो उन्हीं भाषाओं में लिखा गया। इनमें से कई पुस्तकों का अनुवाद आधुनिक भारत की भाषाओं में अबतक नहीं हो सका है। हम अपनी ही ज्ञान परंपरा से कितने परिचित हैं इसके बारे में विचार करना आवश्यक है। इन दिनों उत्तर भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के किसी सेमिनार में जाने पर विषय या वक्तव्य में भारतीय ज्ञान परंपरा अवश्य दिखाई या सुनाई देगा। इन सेमिनारों में उपस्थित कथित विद्वान वक्ताओं में से अधिकतर को भारतीय ज्ञान परपंरा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता है। भारत की शास्त्रीय भाषाओं के बारे में जितना अधिक विचार होगा, उसमें उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री का जितना अधिक अनुवाद होगा वो हमारी समृद्ध विरासत के बारे में लोगों को बताने का एक उपक्रम होगा। आज अगर बौद्ध मठों में पाली या प्राकृत भाषा में लिखी सामग्री हैं तो आवश्यकता है उनको बाहर निकालकर अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर आमजन तक पहुंचाने का कार्य किया जाए। इससे सबका लाभ होगा। संभव है कि देश का इतिहास भी बदल जाए।

आवश्यकता इस बात की है कि मोदी कैबिनेट ने जो निर्णय लिया है उसको लागू करवाया जाए। शिक्षा मंत्रालय के मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान योग्य और समर्पित व्यक्ति हैं। उनको भाषा के बारे में विशेष रूप से रुचि लेकर, संगठन के कार्य के व्यस्त समय से थोड़ा सा वक्त निकालकर इसको देखना चाहिए। उनके मंत्रालय के अधीन एक संस्था है भारतीय भाषा समिति। इस समिति का गठन 2021 में भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए किया गया था। इस संस्था के आधे अधूरे वेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसका कार्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में परिकल्पित भारतीय भाषाओं के समग्र और बहु-विषयक विकास के मार्गों की सम्यक जानकारी प्राप्त करना और उनके क्रयान्वयन की दिशा में सार्थक प्रयास करना है।

इस समिति का जो तीसरा उद्देश्य है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है। समिति को मौजूदा भाषा-शिक्षण और अनुसंधान को पुनर्जीवित करने और देश में विभिन्न संस्थाओं में इसके विस्तार से संबंधित सभी मामलों पर मंत्रालय को परामर्श का कार्य भी सौंपा गया है। ये महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि समिति ने मंत्रालय को क्या परामर्श दिए इसका पता नहीं चल पाता है। पता तो इसका भी नहीं चल पाता है कि समिति के किन परामर्शों पर मंत्रालय ने कार्य किया और किस पर नहीं किया। इस संस्था के गठन के तीन वर्ष होने को आए हैं लेकिन इसकी एक ढंग की वेबसाइट तक नहीं बन पाई।

इनके कार्यों के बारे में भी कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि इनके परामर्श पर कुछ संपादित पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसके अध्यक्ष चमू कृष्ण शास्त्री संस्कृत के ज्ञाता हैं। संस्कृत को लेकर उनका प्रेम सर्वज्ञात है। संस्कृत के कितने ग्रंथ ऐसे हैं जिनका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर उसको स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों की शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। बताया जाता है कि काशी-तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम इस समिति के परामर्श पर आयोजित किए गए थे। आयोजन से अधिक ठोस कार्य करने की आवश्यकता है जो दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सके ।

दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय के अधिकतर संस्थानों के साथ यही हो गई है कि वो आयोजन प्रेमी हो गए हैं। आयोजनों में कुछ ही चेहरे आपको हर जगह दिखाई देंगे। वो इतने प्रतिभाशाली हैं कि उनको हर विषय़ का ज्ञान है या फिर किसी के कृपापात्र। समितियों और संस्थाओं को लगता है कि किसी विषय पर आयोजन करवाकर, उसके व्याख्यानों को संपादित कराकर पुस्तक प्रकाशन से भारतीय भाषाओं का भला हो जाएगा।

संभव है कि हो भी जाए। पर आयोजनों से अधिक आवश्यक है कि इस तरह की समितियां सरकार को शोध प्रस्ताव दें, विषयों का चयन करके उसपर कार्य करवाने की सलाह विश्वविद्यालयों को दें। प्राचीन और अप्राप्य ग्रंथों की सूची बनाकर मंत्रालय को सौंपे जिससे उनका प्रकाशन सुनिश्चित किया जा सके। और इन सारी जानकारियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करे।

जब तक शास्त्रीय भाषाओं को लेकर गंभीरता से कार्य नहीं होगा, जबतक भाषा के प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से पाठकों को अवगत नहीं करवाया जाएगा तबतक ना तो भाषा की समृद्धि आएगी और ना ही गौरव बोध। भारतीय भाषाओं के लिए कार्य करनेवाली संस्थाओं की प्रशासनिक चूलें कसने की भी आवश्यकता है। मैसूर स्थित भाषा संस्थान मृतप्राय है उसको नया जीवन देना होगा तभी वहां भाषा संबंधी कार्य हो सकेगा। इसपर फिर कभी चर्चा लेकिन फिलहाल इन शास्त्रीय भाषाओं को लेकर जो चर्चा आरंभ हुई है उसको लक्ष्य तक पहुंचते देखना सुखद होगा।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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आरएसएस सौ बरस में कितना बदला और कितना बदलेगा भारत: आलोक मेहता

मेरे जैसे कुछ ही पत्रकार होंगे, जिन्हें 1972 में संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर जी से मिलने, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी और के सी सुदर्शनजी से लम्बे इंटरव्यू करने को मिले।

Last Modified:
Monday, 07 October, 2024
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।  

राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ का स्थापना दिवस विजयदशमी है। हर वर्ष की तरह सरसंघचालक इसी दशहरे (इस बार 12 अक्टूबर ) को अपने स्वयंसेवकों को संघ के एक सौ वर्ष 2025 में पूरे करने पर आदर्शों, मूल्यों के साथ संगठन और हिन्दुस्थान की दशा दिशा रेखांकित करेंगे। यों पिछले दिनों यह बताया जा चुका है कि अन्य संगठनों की तरह शताब्दी वर्ष में कोई धूम धड़ाका नहीं किया जाएगा। किसी भी संगठन के लिए सौ वर्ष के बदलाव भविष्य निर्माण की समीक्षा के साथ भविष्य निर्माण की रुपरेखा तैयारी महत्वपूर्ण ही कही जाएगी। हिंदुत्व, समाज, राष्ट्र को समर्पण के आदर्शों के साथ आज़ादी के आंदोलन से स्वतंत्रता के बाद भी प्रतिबन्ध , जेल यातना तक झेलने के बाद संघ के स्वयंसेवकों के सत्ता के शिखर तक पहुँचने की सफलता किसी भी तरह कम नहीं कही जा सकती है।

इसलिए संघ में शिक्षित प्रशिक्षित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार सत्ता में आने के बाद कुछ लोगों द्वारा यह सवाल उठाना अनुचित लगता है कि भाजपा के सत्ता में आने से संघ को क्या और कितना मिला? इन दिनों राजनीतिक क्षेत्रों और मीडिया में संघ भाजपा नेतृत्व में टकराव और बदलाव तक की चर्चाएं चल रही हैं।  लेकिन इसे राजनीतिक घटनाओं और संघ सहित विभिन्न दलों के नेताओं से मिलने के अपने पत्रकारिता के करीब 50 वर्षों के आधार पर कह सकता हूँ कि मत भिन्नता तो भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक बलराज मधोक के समय से रही और भविष्य में भी रह सकती है। लेकिन टकराव और संघ द्वारा अपने ही सिद्धांतों पर चलने वाली भाजपा को कमजोर करने, सबक सिखाने, प्रधानमंत्री को हटाने के प्रयास को केवल एक वर्ग विशेष या संगठनों में निचले स्तर के कुछ नेताओं का भ्रम अथवा उनके अपने स्वार्थ कहा जा सकता है।

इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरे जैसे कुछ ही पत्रकार होंगे, जिन्हें 1972 में संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर जी से मिलने, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी और के सी
सुदर्शन जी से लम्बे इंटरव्यू करने को मिले और अब भी संघ और भाजपा के नेताओं से मिलने बातचीत के अवसर मिले। इसका एक कारण यह भी रहा कि प्रारम्भिक वर्षों में संघ के प्रचारकों द्वारा स्थापित हिन्दुस्थान समाचार में संवाददाता के रुप में कार्य किया। उसके प्रबंध संपादक बालेश्वर अग्रवाल, उनके वरिष्ठ सहयोगी एन बी लेले , रामशंकर अग्निहोत्री के साथ राजनैतिक रिपोर्टिंग सीखने करने का लाभ 1975 तक मिला। दिलचस्प बात यह कि उसी अवधि में इन लोगों ने कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेताओं यशवंत राव चव्हाण, जगजीवन राम, विद्याचरण शुक्ल, द्वारका प्रसाद मिश्र जैसे नेताओं से परिचय कराया।

इसलिए बाद के वर्षों में भी इंदिरा गाँधी से नरेंद्र मोदी तक प्रधानमंत्रियों से मिलने बात करने समझने के अवसर मिले हैं। इसलिए जब मैं संघ के झंडेवाला में सत्तर के दशक में चमनलालजी की कॉपी या रजिस्टर में प्रचारकों के नाम पते संपर्क के अलावा सीमित संयमित व्यवस्था के दौर से वर्तमान दौर में करोड़ों की लागत से बनी भव्य इमारत, कंप्यूटर में दर्ज लाखों कार्यकर्ताओं के नाम, प्रचारकों के देश विदेश में कार्यों का विवरण सार्वजनिक होते देखता हूँ, तो कैसे मान सकता हूँ कि संघ को क्या मिला?

संघ की शाखाएं भारत में 2022-23 तक 68,651 हो गई। अगले साल अपने अस्तित्व के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने की तैयारी कर रहा संघ देश के सभी ब्लॉक तक पहुँचने और शाखाओं की संख्या को 100,000 तक ले जाने का लक्ष्य बना रखा है। भाजपा सरकार होने से उसे सिर्फ़ तार्किक रूप से ही फ़ायदा नहीं हुआ, बल्कि समाज में उसकी दृश्यता और स्वीकार्यता भी बढ़ती गई। अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण, कश्मीर से 370 की समाप्ति, परमाणु शक्ति सम्पन सुरक्षा के साथ पाकिस्तान चीन को करारा जवाब देने की क्षमता, आर्थिक आत्म निर्भरता के साथ हिन्दू धर्म, मंदिरों का विश्व में प्रचार प्रसार, समान नागरिक संहिता के लिए राज्यों में पहल जैसे संघ के लक्ष्य प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के बिना क्या पूरे हो सकते थे?

संघ भाजपा और सरकार के संबंधों को लेकर सितम्बर 2018 में  सरसंघचालक मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण ' विषय पर दिल्ली मे हुई एक व्याख्यान माला में स्पष्ट रुप से कहा था, संघ ने अपने जन्म से ही स्वयं तय किया है कि रोजमर्रा की राजनीति में हम नहीं जाएंगे। राज कौन करे यह चुनाव जनता करती है। हम राष्ट्र हित पर अपने विचार और प्रयास करते हैं। प्रधानमंत्री और अन्य नेता स्वयंसेवक रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे नागपुर के निर्देश पर चलते हैं। राजनैतिक क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्त्ता या तो मेरी आयु वर्ग के हैं या मुझे वरिष्ठ और राजनीति में अधिक अनुभवी हैं। इसलिए उनको अपनी राजनीति चलाने के लिए किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है।

यदि उनको सलाह की आवश्यकता होती है तो हम अपनी राय देते हैं। उनकी राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं और सरकार की नीतियों  पर भी कोई प्रभाव नहीं। वे हमारे स्वयंसेवक हैं। उनके पास विचार दृष्टि है। अपने अपने कार्यक्षेत्र में उन विचारों का उपयोग करने की शक्ति है। पत्रकार मित्रों से कभी कभी यह कहता हूँ कि यह सचमुच में परिवार का मामला है। कल्पना कीजिये नरेंद्र मोदी संघ में रहकर सरसंघचालक हो सकते थे और मोहन भागवत प्रधानमंत्री भी हो सकते थे। लेकिन उनके लक्ष्य तो समान ही होते। हाँ , कौन कितना कहाँ सफल हो सकता है इसलिए सबकी भूमिका परिवार तय करता है। फिर उस दायित्व को सफलता से निभाना है।

जहाँ तक बदलाव की बात है, महात्मा गाँधी और नेहरु के विचारों वाली कांग्रेस पार्टी या मार्क्स लेनिन के विचारों वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भारत ही नहीं रुस चीन तक में बहुत बदल चुकी हैं। इसलिए जो आलोचक केवल गुरु गोलवलकर की सबसे पुरानी किताब के हवाले से कुछ विचारों को ही वर्तमान संघ या भाजपा के विचार समझाने का प्रयास करते हैं, उन्हें संघ में लगातार हुए वैचारिक मंथन और परिवर्तनों पर भी ध्यान देना चाहिए। जहाँ तक मत भिन्नता की बात है अटलजी के सत्ता काल में स्वदेशी और श्रमिक संगठनों को लेकर दत्तोपंत ठेंगड़ी या मंदिर के मुद्दे पर अशोक सिंघल के बीच की स्थितियां अब कहीं नहीं दिखाई देती।

दूसरी तरफ इस बात का अंदाज लोगों को नहीं है कि शीर्ष स्तर पर संघ के प्रमुख नेता भारत में जन्मे लगभग 98 प्रतिशत लोगों को भारतीय हिन्दू मांनने की बात पर जोर देते रहे हैं , जिसमें  सिख , मुस्लिम , ईसाई , बौद्ध आदि शामिल हैं और वे किसी तरह की धार्मिक मान्यता उपासना करते हों। सरसंघचालक प्रो राजेंद्र सिंह ने 4 अक्टूबर 1997 को मुझे एक इंटरव्यू में स्पष्ट शब्दों में कहा था, हम यह मानते हैं कि भारत में जो मुसलमान हैं उनमें सी केवल दो प्रतिशत के पूर्वज बाहर से आए थे शेष के पूर्वज इसी देश के थे। हम उन्हें यह अनुभूति कराना चाहते हैं कि तुम मुसलमान हो पर भारतीय मुसलमान हो। हमारे यहाँ दर्जनों पूजा पद्धतियां है तो एक तुम्हारी भी चलेगी। इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन तुम्हारी पहचान इस देश के साथ होनी चाहिए।

इस भारतीयकरण के लिए ही संघ भाजपा के नेता मदरसों या वक्फ के कट्टरपंथी विचारों और गतिविधियों को नियंत्रित करने के अभियान में लगी है। हाँ, निचले स्तर पर कुछ अतिवादी नेता हाल के वर्षों में कटुता की भाषा इस्तेमाल करने लगे। यह निश्चित रुप से न केवल मोदी सरकार की बल्कि भारत की छवि दुनिया में ख़राब करते हैं। उन्हें मोदी का असली दुश्मन कहा जा सकता है। इस दृष्टि से लोकतंत्र में न्यायिक व्यवस्था का लाभ है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य नियम कानून से ऊपर हटकर उत्तर प्रदेश में ' बुलडोजर से दंड ' देने के क़दमों पर रोक लगाई है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले दस वर्षों के दौरान अधिकांश राज्यों में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए।

सत्तर से नब्बे के दशकों में ऐसे दंगों में सैकड़ों लोग मारे जाते थे। फिर भी कुछ विदेशी संगठन भारत में धार्मिक भेदभाव और उत्पीड़न के अनर्गल आरोपों वाली रिपोर्ट जारी करते हैं। उनका निशाना भारत की आर्थिक प्रगति है। संघ भाजपा की चुनौती यही है कि वह अपने अतिवादियों को निर्णायक महत्व नहीं दे और सत्ता की अपेक्षा सम्पूर्ण भारत और सामाजिक आर्थिक विकास के कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। जातिवादी राजनीति को साम्प्रदायिक तरीकों से नहीं निपटाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों की प्रगति से देश सशक्त समृद्ध हो सकता है।

असलियत यह है कि नरेंद्र मोदी में आरएसएस को अभी भी विचारधारा और राजनीतिक व्यवहार्यता का एक दुर्लभ संगम दिखाई देता है। इसलिए संघ नेताओं द्वारा मत भिन्नताओं को पारिवारिक संबंधों की तरह सुलझाने के दावे बहुत हद तक सही हैं। बाहर जो भी कहा जाए पूर्वोत्तर या दक्षिण भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत की टीम ने मिलकर ही अपना प्रभाव बढ़ाया है। उनका लक्ष्य तत्कालिक लाभ के बजाय अगले पचास सौ वर्षों में भारत को अपने विचारों और आदर्शों से सुदृढ़ करना है। इस बार की विजया दशमी इसी तरह के संकल्प की अपेक्षा की जा सकती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रशांत किशोर बिहार की जनता के सामने साफ विकल्प दें: रजत शर्मा

2 अक्टूबर को प्रशांत किशोर ने चंपारण से जनसुराज यात्रा की शुरुआत की थी। 2 साल में उनकी यात्रा बिहार के साढ़े 5 हजार गांवों में गई, 17 जिलों में घूम कर प्रशांत किशोर ने लोगों को अपने साथ जोड़ा।

Last Modified:
Friday, 04 October, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

गांधी जयंती 2 अक्टूबर को प्रशान्त किशोर औपचारिक रूप से पॉलिटिकल स्ट्रैटजिस्ट से नेता बन गए। प्रशान्त किशोर ने अपनी नई पार्टी बना ली। पार्टी का नाम है, जनसुराज पार्टी।  पटना के वेटेरिनरी कॉलेज ग्राउंड में  पूरे बिहार से पचास हजार से ज्यादा लोग जुटे। प्रशान्त किशोर ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी न तो वामपंथी और न ही  दक्षिणपंथी विचारधारा अपनाएगी, वो सिर्फ इंसानियत की राह पर चलेगी,  बिहार को नंबर वन राज्य बनाएंगे, बिहारियों के सम्मान के लिए काम करेंगे। पार्टी के झंडे पर बापू और बाबा साहब दोनों की फोटो होगी।

प्रशान्त किशोर ने कहा कि अगर बिहार में उनकी पार्टी की सरकार बनती है तो एक घंटे के भीतर शराबबंदी को हटा देंगे, शराब से जो पैसा टैक्स के तौर पर मिलेगा, उससे स्कूल बनवाएंगे, बच्चों को पढ़ाएंगे क्योंकि अच्छी शिक्षा ही सारी परेशानियों से निजात दिला सकती है। प्रशान्त किशोर न पार्टी के अध्यक्ष होंगे, न मुख्यमंत्री पद के दावेदार। रिटायर्ड IFS अधिकारी मनोज भारती जनसुराज पार्टी के कार्यवाहक अध्यक्ष होंगे। प्रशान्त किशोर की पार्टी के सभी बड़े फैसले नेतृत्व परिषद करेगी।

दो साल पहले 2 अक्टूबर को प्रशांत किशोर ने चंपारण से जनसुराज यात्रा की शुरुआत की थी। 2 साल में उनकी यात्रा बिहार के साढ़े 5 हजार गांवों में गई, 17 जिलों में घूम कर प्रशांत किशोर ने लोगों को अपने साथ जोड़ा। इसके बाद जनसुराज पार्टी का एलान किया। जनसुराज पार्टी बिहार के अगले इलेक्शन में सभी 242 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। मंच पर प्रशांत किशोर के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव, पूर्व सांसद मुनाज़िर हसन, पूर्व एमएलसी रामबली चंद्रवंशी, कर्पूरी ठाकुर की पोती जागृति ठाकुर, मनोज भारती भी मौजूद थे।

प्रशांत किशोर की टीम में कई अनुभवी अफसर हैं, जो अच्छी नौकरी छोड़कर उनके साथ जुड़े हैं। असम में तैनात तेजतर्रार IPS अफसर आनंद मिश्रा मूलरूप से बिहार के हैं। उन्हें असम में सिंघम कहा जाता है। अब आनंद मिश्रा टीम प्रशांत किशोर का हिस्सा हैं।

प्रशान्त किशोर के मैदान में उतरने से बिहार की राजनीतिक पार्टियों में हलचल है। सबकी नजर प्रशान्त किशोर की रणनीति पर है। JD-U के महासचिव अशोक चौधरी ने कहा कि प्रशांत किशोर पहले पैसा लेकर चुनाव लड़वाते थे और अब पैसा बनाने के लिए खुद चुनाव लड़ेंगे। केन्द्रीय मंत्री और LJP अध्यक्ष चिराग पासवान ने कहा, चुनाव कोई भी लड़ सकता है, लेकिन फैसला तो जनता करती है।  

लालू यादव की बेटी मीसा भारती ने प्रशान्त किशोर की पार्टी को बीजेपी की बी टीम बता दिया।  बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू के नेताओं की बात सुनकर एक बात तो साफ दिख रही है कि प्रशान्त किशोर की एंट्री से सब परेशान हैं। प्रशान्त किशोर राजनीति में नया नाम नहीं है, लेकिन नेता के तौर पर नए हैं। वह अचानक राजनीति में नहीं कूदे हैं। दो साल तक बिहार के गांव-गांव की खाक छानने के बाद मैदान में उतरे हैं, इसलिए उन्हें जनता की नब्ज़ पता है, उनका विजन स्पष्ट है, उन्हें रास्ता भी पता है, लक्ष्य भी है। प्रशान्त किशोर ने पार्टी बनाई,  अच्छा किया। बिहार को एक नई सोच की जरूरत है। साफ और सच्ची बात कहने वाले लीडर की आवश्यकता है।

प्रशांत किशोर ने जिस तरह से पार्टी में फैसले लेने की और  उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया तैयार की है, वो भी इंप्रैसिव है। मैं उनकी बस एक ही बात से सहमत नहीं हूं। प्रशांत किशोर का ये कहना कि मैं मुख्यमंत्री नहीं बनूंगा सही विचार नहीं है। अगर वह वाकई में बिहार और बिहारियों को उनका हक दिलाने के लिए लड़ना चाहते हैं, तो उन्हें front foot पर आकर खेलना होगा, राजनीति में non playing captain की कोई जगह नहीं होती। ये कहने से काम नहीं चलेगा कि मैं नहीं बनूंगा, पार्टी किसी और को चुनेगी, मैं तो फिर से पैदल चलूंगा, इससे बिहार के लोगों के मन में भ्रम पैदा होगा।

प्रशांत किशोर को बिहार की जनता के सामने साफ विकल्प देना चाहिए। अपने आप को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। लोगों के सामने स्पष्ट विकल्प हो कि वो प्रशांत किशोर को अपना नेता मानते हैं या नहीं, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं या नहीं। पिछले दो साल में जहां जहां प्रशांत किशोर गए हैं, लोगों ने उनकी बात सुनी है, उन पर भरोसा किया है। उन्हें जन सुराज के नेता के तौर पर देखा है।

इसलिए कोई और नेता कैसे हो सकता है? प्रशांत किशोर के पास जिम्मेदारी से पीछे हटने का ऑप्शन नहीं है। वह जन सुराज का फेस हैं और ये फैसला बिहार की जनता करेगी कि वो इस face को पसंद करती है या नहीं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

 

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महात्मा गांधी आजीवन फिल्मों के प्रति क्यों उदासीन बने रहे?: अनंत विजय

किशोरावस्था में हरिश्चंद्र नाटक से प्रभावित गांधी आजीवन फिल्मों के प्रति क्यों उदासीन बने रहे? फिल्म राम राज्य देखने के लिए उनको किसने तैयार किया। बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 30 September, 2024
Last Modified:
Monday, 30 September, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है।

ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर।

इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है।

इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था।

इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए।

क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।

संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया।

मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है।

जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं।

थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे।

उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए।

इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया।

1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया।

भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी।  1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।  

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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‘मेक इन इंडिया’ हो पाया क्या?, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में हुए।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 30 September, 2024
Last Modified:
Monday, 30 September, 2024
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

भारत और चीन की जीडीपी 1990 में लगभग बराबर थी यानी दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का आकार एक जैसा था। अब क़रीब 35 साल बाद चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 6 गुना बड़ी है। चीन दुनिया का कारख़ाना बन गया है, हम मेक इन इंडिया के ज़रिए अब यही कोशिश कर रहे हैं। दस साल में यह कोशिश कितनी रंग लायी है उसका हिसाब किताब। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर को मेक इन इंडिया के दस साल होने पर LinkedIn पर ब्लॉग लिखा। इसका सार है कि मेक इन इंडिया सफल है।

भारत मोबाइल फ़ोन, डिफ़ेंस और खिलौने बनाने में काफ़ी आगे बढ़ा है। 2014 में मोबाइल फ़ोन बनाने के दो कारख़ाने थे अब 200, भारत में इस्तेमाल हो रहे 99% फ़ोन यहीं बने हैं। तब 1500 करोड़ रुपये के फ़ोन एक्सपोर्ट हो रहे थे अब 1.28 लाख करोड़ रुपये। 2014 में डिफ़ेंस का सामान का एक्सपोर्ट 1000 करोड़ रुपये था, अब 21 हज़ार करोड़ रुपये। 85 देशों में हम डिफ़ेंस एक्सपोर्ट कर रहे हैं। 2014 के मुक़ाबले खिलौनों का एक्सपोर्ट 239% बढ़ा है। प्रधानमंत्री ने मन की बात में अपील की थी कि बच्चों के खिलौने तो हम अपने देश में बना सकते हैं।

सरकार ने जो आँकड़े दिए हैं वो सारे सही है लेकिन इसका दूसरा पहलू भी देखिए। मैन्युफ़ैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 2013-14 में 17.3% था, दस साल भी उतना ही है मतलब अर्थव्यवस्था में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी मेक इन इंडिया के बाद भी बढ़ी नहीं है। सरकार का लक्ष्य 2030 तक इसे 25% तक ले जाने का है। यह इतना आसान नहीं है। रोज़गार में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी थोड़ी सी कम हुई है। पहले हर 100 में से 12 लोग कारख़ाने में काम कर रहे थे और अब 11, दुनिया के एक्सपोर्ट में भारत की हिस्सेदारी पिछले 18 साल में दो गुना नहीं हो पायीं है।

2006 में 1% थी और अब 1.8%, दस साल पहले 1.6%. तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में। चीन का फ़ोकस मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर था। कारख़ानों से ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिलता है जबकि हमारी अर्थव्यवस्था सर्विसेज़ की तरफ़ मुड़ गई। चीन दुनिया का कारख़ाना बना तो हम दुनिया के कॉल सेंटर। सर्विसेज़ उतनी नौकरियाँ नहीं दे सकता है जितना मैन्यूफ़ैक्चरिंग।

दुनिया की बड़ी कंपनियाँ चीन में सामान बनाना पसंद करती रही है क्योंकि वहाँ सस्ते मज़दूर थे, कारख़ाने लगाना आसान था और इंफ़्रास्ट्रक्चर अच्छा। भारत में सस्ते मज़दूर तो है लेकिन कारख़ाना लगाना या वहाँ से सामान पोर्ट तक पहुँचाना मुश्किल। पिछले दस सालों में इस पर काम हुआ है। इस सबके बीच कोरोनावायरस में चीन पर निर्भरता की क़ीमत दुनिया को चुकाना पड़ी है, इसलिए सभी कंपनियाँ चाइना प्लस वन की नीति पर काम कर रहे हैं यानी चीन के अलावा भी किसी दूसरे देश में सामान बनाना।

जैसे एप्पल iPhone में भी बना रहा है। यहाँ भी मुक़ाबला मैक्सिको, वियतनाम जैसे देशों से है। इन देशों के मुक़ाबले भारत में सामान बनाना महँगा है। सरकार का कहना है कारख़ाने के गेट पर तो सामान की क़ीमत बराबर है लेकिन इसे पोर्ट तक पहुँचाना भारत में महँगा पड़ता है। यही वजह है कि हमें सड़के, रेलवे, पोर्ट पर और काम करने की ज़रूरत है।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

 

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शास्त्री की नीतियां अपनाकर भारत के सुनहरे सपने साकार करें: आलोक मेहता

संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह स्वीकारने में संकोच नहीं होगा कि महात्मा गाँधी के आदर्शों के साथ वह लालबहादुर शास्त्री के बताए रास्तों से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रयास कर रहे हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 30 September, 2024
Last Modified:
Monday, 30 September, 2024
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हर वर्ष की तरह 2 अक्टूबर को महात्मा गाँधी और भारत में आत्म विश्वास और उदार आर्थिक क्रांति के जनक लालबहादुर शास्त्री को सादर नमन के साथ स्मरण किया जाएगा। महात्मा गाँधी के लिए देश दुनिया को अधिक बताने की आवश्यकता नहीं होती। शास्त्रीजी भी देश में 'जय जवान जय किसान' के नारे को लेकर अधिक याद किए जाते हैं। उनकी ईमानदारी, त्याग और पाकिस्तान को पहले युद्ध में पराजित करके ऐतिहासिक समझौते की भी चर्चा अधिक होती है। लेकिन क्या वर्तमान राजनीतिक आर्थिक परिवर्तनों के दौर में क्या यह कहना गलत होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शास्त्रीजी द्वारा शुरु की गई उदार आर्थिक नीतियों, कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में आत्म निर्भरता, दुग्ध क्रांति, पाकिस्तान चीन को करारे जवाब देने की सुरक्षा व्यवस्था और राजनेताओं के भ्र्ष्टाचार को कठोरता से रोकने का प्रयास कर रहे हैं?  

दुखद बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने शास्त्रीजी को मरणोपरांत समुचित सम्मान और कार्यों का श्रेय नहीं दिया। यदि प्रामाणिक तथ्यों को सामने रखा जाए तो नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह से बहुत पहले प्रधानमंत्री के रुप में लालबहादुर शास्त्री ने ही `भारत को समाजवादी के नाम पर मूलतः कम्युनिस्ट विचारधारा और राजसत्ता पर नियंत्रित अर्थ व्यवस्था को बदलने के क्रन्तिकारी निर्णय लिए थे। इसलिए` संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह स्वीकारने में संकोच नहीं होगा कि महात्मा गाँधी के आदर्शों के साथ वह लाल बहादुर शास्त्री के बताए रास्तों से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रयास कर रहे हैं।

वास्तव में, शास्त्री जी को आज़ादी के बाद भारत का पहला आर्थिक सुधारक कहा जा सकता है। शास्त्री जी को उनका उचित सम्मान न मिलने का एक कारण शायद यह है कि सुधारों के पहले चरण की शुरुआत करने का उनका प्रयास कई गलतफहमियों से घिरा हुआ है। उदाहरण के लिए, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि 1966 में भारतीय रुपये के अवमूल्यन का निर्णय और क्रियान्वयन इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद किया था। यह सच है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही रुपये का अवमूल्यन किया गया था, लेकिन  भारत सरकार की फाइलों में रिकॉर्ड मिल सकता है कि मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय, जो एक आवश्यक कदम था, शास्त्री जी द्वारा लिया गया था।

उस समय वित्त मंत्रालय में कार्यरत आई.जी. पटेल ने अपने संस्मरण में बताया था कि कैसे शास्त्री जी के प्रधानमंत्री रहते हुए मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय सैद्धांतिक रूप से लिया गया था और अनौपचारिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) को इसकी जानकारी दी गई थी। उनके वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी अवमूल्यन के निर्णय के विरुद्ध थे। वह आयात और औद्योगिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण हटाने और मुद्रा का अवमूल्यन करने के खिलाफ भी थे। शास्त्री जी के लिए, युद्ध की तबाही के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि देश के पास आर्थिक उदारीकरण और मुद्रा अवमूल्यन के लिए आईएमएफ-विश्व बैंक के नुस्खों को मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इसलिए, शास्त्री जी ने कृष्णमाचारी को वित्त मंत्री पद से हटाने के लिए एक राजनैतिक और नैतिक तरीका निकाला।

कृष्णमाचारी के लिए, यह उनके राजनीतिक जीवन में दूसरी बार था जब उन्हें वित्त मंत्री के पद से हटना पड़ा। एक बार नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में, मुंद्रा कांड के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। अब, शास्त्री जी के अधीन, कृष्णमाचारी के बेटे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। शास्त्री जी ने जांच पूरी होने तक उन आरोपों से उन्हें मुक्त करने से इनकार कर दिया और वे चाहते थे कि उनके वित्त मंत्री तब तक पद से हट जाएं जब तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वारा की जाने वाली जांच में उन्हें क्लीन चिट न मिल जाए। कृष्णमाचारी ने इसे अपमान के रूप में लिया और अपना इस्तीफा दे दिया, जिसे शास्त्री जी ने तुरंत स्वीकार कर लिया और सचिन चौधरी को नया वित्त मंत्री नियुक्त किया।

शास्त्री जी उसके बाद ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे। उनकी उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी ने चौधरी को वित्त मंत्री के रूप में बनाए रखा और शास्त्री द्वारा लिए गए मुद्रा अवमूल्यन के निर्णय को लागू किया। शास्त्री की सुधारवादी साख उनकी आर्थिक टीम से भी स्पष्ट थी। उनकी टीम के सभी सदस्य -एस भूतलिंगम, धर्म वीर, आईजी पटेल और एलके झा - अर्थव्यवस्था को मुक्त करने और कृषि को आधुनिक बनाकर और निजी क्षेत्र को नियंत्रण से अपेक्षाकृत स्वतंत्रता के साथ काम करने की अनुमति देकर भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता को साकार करने के लिए सुधारों की तत्काल आवश्यकता में विश्वास करते थे। यहां तक ​​कि नेहरु के सबसे करीबी वी.के. कृष्ण मेनन और के.डी. मालवीय को भी शास्त्री जी के मंत्रिमंडल से हटना पड़ा। इस बात का संकेत था कि शास्त्री  ऐसी व्यवस्था चाहते थे जो लाइसेंस राज  से दूर होकर बाजार पर अधिक निर्भर हो।

शास्त्री जी के नेतृत्व वाली सरकार के कुछ फैसलों में भी बदलाव की बयार महसूस की गई। जब शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला, तब तक तीसरी पंचवर्षीय योजना की विफलता स्पष्ट हो चुकी थी। अगस्त 1965 में प्रधानमंत्री ने संसद में घोषणा की कि आर्थिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण पर पुनर्विचार किया जाएगा। इसके तुरंत बाद, स्टील और सीमेंट जैसे क्षेत्रों के लिए विनियमन में ढील दी गई। इतना ही नहीं, शास्त्री जी ने उन सभी प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र परियोजनाओं की समीक्षा का आदेश भी दिया जो तब तक शुरू नहीं हुई थीं।

शास्त्री जी ने परियोजनाओं पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को योजना आयोग से अलग-अलग आर्थिक मंत्रालयों में स्थानांतरित करके शासन को विकेंद्रीकृत करने की भी कोशिश की। शास्त्री जी ने आयोग के लिए अनिश्चित कार्यकाल के आधार पर नियुक्ति योजना को निश्चित अनुबंधों में बदल दिया। उन्होंने विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और वैज्ञानिकों से नीतिगत अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए 1964 में राष्ट्रीय विकास परिषद नामक एक समानांतर निकाय की भी स्थापना की। जिसने योजना आयोग के दायरे और भूमिका को कम कर दिया।

शास्त्री की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, खाद्यान्न की कमी को कृषि में निवेश को स्थानांतरित करके हल किया जा सकता था। कालाबाज़ारी का समाधान प्रोत्साहन में था, न कि दबाव में; सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता के लिए निजी क्षेत्र में जाना ज़रूरी था और आयात विकल्प के लिए निर्यात प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी योजना आयोग के पर क़तर कर उसे नीति आयोग में बदला तथा राज्यों की आवश्यकताओं के अनुसार वित्तीय प्रबंधन पर जोर दिया। इस दृष्टि से राहुल गांधी और उनसे बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे सहित कांग्रेस पार्टी को शास्त्रीजी की नीतियों निर्णयों को भी याद कर लेना चाहिए।

इन दिनों राहुल कांग्रेस की कर्नाटक और अन्य राज्य सरकारें अमूल दूध डेयरी के प्रवेश का विरोध कर रहे हैं। जबकि शास्त्री जी ने श्वेत क्रांति, दूध के उत्पादन और आपूर्ति को बढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान , आनंद, गुजरात के अमूल दूध सहकारी को समर्थन देकर और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड बनवाया था। उन्होंने कंजरी में अमूल के मवेशी चारा  भंडार  के उद्घाटन के लिए 31 अक्टूबर 1964 को आनंद का दौरा किया। चूंकि उन्हें इस सहकारी की सफलता जानने में गहरी दिलचस्पी थी, इसलिए वे एक गांव में किसानों के साथ रात रुके, और यहां तक ​​कि एक किसान परिवार के साथ रात का भोजन भी किया। उन्होंने किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए देश के अन्य हिस्सों में इस मॉडल को दोहराने के लिए कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड (अमूल) के तत्कालीन महाप्रबंधक वर्गीज कुरियन के साथ विचार विमर्श किया।

चीन और पाकिस्तान से मुकाबले के लिए भारत की परमाणु शक्ति का कार्यक्रम भी शास्त्रीजी के कार्यकाल में शरु हुआ। 24 अक्तूबर, 1964 को  महान वैज्ञानिक  होमी भाभा ने आकाशवाणी पर परमाणु शक्ति पर बोलते हुए कहा था, "पचास परमाणु बमों का ज़ख़ीरा बनाने में सिर्फ़ 10 करोड़ रुपयों का ख़र्च आएगा और दो मेगाटन के 50 बनाने का ख़र्च 15 करोड़ से ज़्यादा नहीं होगा। दिसंबर 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने भाभा से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु विस्फोट के काम को तेज़ी देने के लिए कहा। दूसरे बड़े वैज्ञानिक होमी सेठना के अनुसार पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के दौरान शास्त्री ने भाभा से कुछ ख़ास करने के लिए कहा।

भाभा ने कहा कि इस दिशा में काम हो रहा है। इस पर शास्त्री ने कहा आप अपना काम जारी रखिए लेकिन कैबिनेट की मंज़ूरी के बिना कोई प्रयोग मत करिएगा।  1965 में पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जंग छेड़ दी। शास्त्री ने जंग और आर्थिक चुनौतियों के बीच प्रसिद्ध नारा ‘जय जवान जय किसान’ दिया। साथ ही अन्न बचाने के मकसद से लोगों को एक समय का खाना नहीं खाने का आह्वान भी किया। शास्त्रीजी ने कहा कि देश का हर नागरिक एक दिन का व्रत करे तो भुखमरी खत्म हो जाएगी। खुद शास्त्रीजी नियमित व्रत रखा करते थे और परिवार को भी यही आदेश था।

भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ इस जंग में बड़ी जीत हासिल की। 26 सितंबर, 1965 को भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़त्म हुए चार दिन ही हुए थे जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान में हज़ारों लोगों के सामने ऐलान किया, "सदर अयूब ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएंगे। वो इतने बड़े आदमी हैं। लहीम शहीम हैं। मैंने सोचा कि उन्हें दिल्ली तक चलने की तकलीफ़ क्यों दी जाए। हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तक़बाल करे।

मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे शास्त्री परिवार के तीन सदस्य हरेकृष्ण शास्त्री, सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री से कई बार मिलने बात करने और उनके राजनीतिक शैक्षणिक सामाजिक कार्यों को देखने समझने के अवसर मिले। कांग्रेस और भाजपा ने भी उनकी सेवाओं का उपयोग किया लेकिन वे शायद वर्तमान राजनीति की जोड़ तोड़ में अधिक सफल नहीं हो सके। शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री बताते थे कि 'बाबूजी देश में शिक्षा सुधारों को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। अक्सर हम भाई-बहनों से कहते थे कि देश में रोजगार के अवसर बढ़ें। इसके लिए बेहतर मूल्यपरकर शिक्षा की जरूरत है।'

अनिल शास्त्री अब भी लालबहादुर शास्त्री प्रबंधन और टेक्नोलॉजी संस्थान को बहुत कुशलता से संचालित कर रहे हैं। पिता के संस्मरण पर लिखी एक किताब में शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री ने  लिखा है, बाबूजी की टेबल पर हमेशा हरी घास रहती थी। एक बार उन्होंने बताया था कि सुंदर फूल लोगों को आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ दिन में मुरझाकर गिर जाते हैं। घास वह आधार है जो हमेशा रहती है। मैं लोगों के जीवन में घास की तरह ही एक आधार और खुशी की वजह बनकर रहना चाहता हूं।' महात्मा गांधी और लालबाहदुर शास्त्री का पुण्य स्मरण करते हुए यही संकल्प दोहराने की जरुरत है कि करोड़ों लोगों के जीवन में खुशियां बढ़ती रहे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हिमाचल में योगी की छाया, कांग्रेस को किस डर ने सताया: रजत शर्मा

विक्रमादित्य सिंह ने कहा था कि जो फैसला यूपी सरकार ने किया है, उसी तर्ज पर उन्होंने भी हिमाचल में दुकानदारों का वेरिफिकेशन, उनके नाम पते डिस्प्ले करने को अनिवार्य बनाने का आदेश दिया है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 28 September, 2024
Last Modified:
Saturday, 28 September, 2024
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

योगी आदित्यनाथ के चक्कर में कांग्रेस के नेताओं में झगड़ा शुरू हो गया। हिमाचल के लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने ऐलान किया कि योगी आदित्यनाथ ने यूपी में खाने पीने की दुकानों में नेम प्लेट और मालिक का नाम पता लिखने को जिस तरह अनिवार्य बनाया है, उसी तरह हिमाचल प्रदेश में भी खाने पीने के दुकानदारों और रेहड़ी पटरी वालों को नेमप्लेट लगाना जरूरी होगा।

विक्रमादित्य सिंह के इस फैसले को लेकर कांग्रेस के तमाम नेताओं को आपत्ति है, जैसे टीएस सिंह देव, तारिक अनवर और इमरान प्रतापगढ़ी। तमाम नेताओं ने कांग्रेस हाईकमान से शिकायत की और हिमाचल सरकार से अपना फैसला वापस लेने की मांग की। हालत ये हो गई शाम होते होते हिमाचल प्रदेश सरकार की तरफ से ऐलान हो गया कि इस तरह का कोई फैसला नहीं हुआ है, इस मामले में विधानसभा की कमेटी बनी है, वही जो तय करेगी, वही होगा।

इसके बाद विक्रमादित्य सिंह को भी कहना पड़ा कि फिलहाल कोई फैसला नहीं लिया गया है। कमेटी रेहड़ी पटरी और दुकानदारों को आईकार्ड जारी करेगी, और वही आईकार्ड सबको डिस्प्ले करना होगा। लेकिन कांग्रेस के नाराज नेताओं को सिर्फ इतने से संतोष नहीं हैं, वे चाहते हैं कि कांग्रेस हाईकमान इस मामले में दखल दे, ये पता लगाए कि आखिर विक्रमादित्य सिंह ने बिना सलाह मशविरे के इस तरह के नाज़ुक मसले पर बयान क्यों दे दिया। लेकिन सवाल ये है कि क्या विक्रमादित्य सिंह ने वाकई में बिना सोचे विचारे फैसला सुना दिया। अगर वह कुछ करना ही चाहते थे तो फिर योगी आदित्यनाथ का नाम लेकर उन्हें श्रेय देने की जरूरत क्या थी?

कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने राहुल गांधी से बात करके विक्रमादित्य सिंह की शिकायत की, फैसला वापस लेने की मांग की। कांग्रेस के एक और सांसद तारिक अनवर ने कह दिया कि वो कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिख कर इस मामले में दखल देने  की मांग करेंगे। छत्तीसगढ़ के पूर्व उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव ने भी विक्रमादित्य सिंह के फैसले पर आपत्ति जताई। टीएस सिंहदेव ने कहा कि अगर पहचान जरूरी है, तो इसके लिए नियम कानून पहले से ही हैं, दुकानदारों को नगर निगम से लाइसेंस मिलता है।

सिंहदेव ने कहा कि ऐसा लगता है कि किसी एक वर्ग को अलग-थलग करने की नीयत से इस तरह की बातें हो रही हैं। जब विवाद बढ़ा तो विक्रमादित्य सिंह की मां और हिमाचल कांग्रेस की अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनके बचाव में सामने आईं। प्रतिभा सिंह ने कहा कि वो सरकार के फ़ैसले के साथ हैं। लेकिन पार्टी हाईकमान की तरफ से संदेश पहुंच गया। विक्रमादित्य सिंह और प्रतिभा सिंह दोनों को दिल्ली तलब किया गया। विक्रमादित्य सिंह से कहा गया कि वो ऐसे बयान न दें कि विपक्षी दलों को मौक़ा मिले, पार्टी के नेता नाराज़ हों।

इसके बाद विक्रमादित्य सिंह अपने बयान से पीछे हट गए। उन्होंने कहा कि उनके आदेश का यूपी से कोई लेना देना नहीं है, हिमाचल प्रदेश एक अलग राज्य है।  वह तो हाई कोर्ट के ऑर्डर  का ही अनुपालन कर रहे हैं। विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि हिमाचल प्रदेश में किसी से भी भेदभाव नहीं होगा, देश का कोई भी नागरिक हिमाचल में आकर दुकान लगा सकता है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने भी सफ़ाई दी। कहा कि अभी तो इस मामले पर सिर्फ़ बातचीत हो रही है। एक सर्वदलीय कमेटी बनाई गई है। कमेटी सभी से बात करके कैबिनेट को अपनी सिफ़ारिश देगी।

शिमला में तूफान खड़ा करने की क्या जरूरत थी? इसकी असली वजह है, मुस्लिम वोटों के खोने का डर। कांग्रेस के जिन नेताओं ने सबसे पहले आवाज उठाई, इमरान प्रतापगढ़ी और तारिक अनवर जैसे नेता मुस्लिम वोटों के चैंपियन हैं। उन्हें लगता है कि योगी के रास्ते पर चले तो मुसलमान कांग्रेस से नाराज हो जाएंगे। इसीलिए मंत्री को अपने बयान से पलटवा दिया।

पहले भी शिमला की मस्जिद को कांग्रेस के मंत्री ने ही गैरकानूनी बताया था। विधानसभा में खड़े होकर कांग्रेस के मंत्री ने ही शिमला की शांति पर खतरे को लेकर आगाह कराया था लेकिन अगले दिन वो भी अपनी बात से पलट गए। विक्रमादित्य  के बयानों और फिर सुक्खू सरकार की सफाई से इतना तो साफ है कि दुकानों पर साफ सफाई कराने और नेमप्लेट लगाने का ये आदेश लागू नहीं होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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संस्कृति मंत्रालय को अपेक्षाकृत सक्रियता के साथ काम करने की आवश्यकता: अनंत विजय

ताजमहल के गुंबद के आसपास पौधे का उगना लापरवाही नहीं बल्कि एएसआई की कार्य संस्कृति का उदाहरण है। संस्कृति मंत्रालय को अपेक्षाकृत सक्रियता के साथ काम करने की आवश्यकता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 23 September, 2024
Last Modified:
Monday, 23 September, 2024
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

पिछले दिनों ये आगरा के ताजमहल के गुंबद से पानी टपकने का समाचार चर्चा में आया। कारण ये बताया गया कि ताजमहल के गुंबद पर एक पौधा उग आया था और उसकी जड़ों से होकर पानी टपका। उस पौधे का वीडियो और फोटो इंटरनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हुआ। तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं। ताजमहल वैश्विक धरोहर की श्रेणी में आता है और इसके रख-रखाव का दायित्व भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का है।

गुंबद से पानी टपकने के समाचार को पढ़ने के बाद जिज्ञासा हुई कि देखा जाए भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर ताजमहल के सबंध में क्या जानकारियां हैं। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट खोलते ही इसके मुख्य पृष्ठ पर ताजमहल की तस्वीर नजर आती है जहां लिखा भी है कि ये वैश्विक धरोहर है। वैश्विक धरोहर की देखरेख या रखरखाव इस तरह से की जाती है कि उसके ऊपर पौधा उग आए और अधिकारियों को हवा तक नहीं लगे।

यहां ये बात ध्यान दिलाने योग्य है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का एक कार्यालय आगरा में भी है। इतना ही नहीं आगारा किला की एक दीवार पर भी छोटे-छोटे पौधे उग आए हैं और वो बढ़ रहे हैं। उसपर पता नहीं कब तक भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के जिम्मेदार अफसरों का ध्यान जाएगा। दरअसल इस बात को संस्कृति मंत्रालय के रहनुमाओं को समझना होगा कि संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को संभालने और सहेजने के लिए संवेदनशील मानव संसाधन की आवश्यकता है। ऐसे मानव संसाधन की जिनको संस्कृति की समझ भी हो और उसको सहेजने को लेकर एक उत्साह भी हो।

ताजमहल की ही अगर बात करें तो ना सिर्फ गुंबद में पौधे उग आए हैं बल्कि ध्यान से देखें तो मुख्य मकबरे में पश्चिम की दिशा में जो पत्थरों के बीच बीच लगे हुए कई शीशे टूटे हुए हैं। शीशे के अलावा भी दीवारों और गुंबदों के अंदर की तरफ की गई पच्चीकारी के रंगीन पत्थर कई जगह से निकले हुए हैं। पच्चीकारी के उन पत्थरों के निकल जाने से उतना क्षेत्र अजीब सा लगता है। पच्चीकारी के पत्थरों की कीमत को कम ही होती है फिर क्या समस्या है।

जानकारों का कहना है कि पत्थरों की कीमत भले ही कम होती है लेकिन उसको लगाने में बहुत श्रम और समय लगता है। इस कारण उसको तत्काल नहीं बनवाया जाता है। दूसरा पक्ष ये है कि अगर पच्चीकारी के पत्थरों के टूटने के बाद अविलंब उसकी मरम्मत नहीं की जाती है तो पत्थरों को जोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के अधिकारी या कर्मचारी ताजमहल का चक्कर नहीं लगाते या उनको ये सब दिखाई नहीं देता है या देखकर अनदेखा किया जाता है।

बात तो इस पर भी होनी चाहिए कि क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के पास इस वैश्विक धरोहर की देखभाल करने के लिए पर्याप्त धन है या नहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ ताजमहल में ही आपको इस तरह के लापरवाही दिखाई देगी बल्कि कई विश्व प्रसिद्ध धरोहरों में और सैकड़ों वर्षों से भारतीय शिल्पकला के उदाहरण के तौर पर सीना ताने खड़े इमारतों में भी इस तरह के उदाहरण आपको मिल सकते हैं।

इस स्तंभ में ही पूर्व में इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि किस तरह से ओडिशा के कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे हाथी की सूंढ में दरार आ जाने के बाद उसको सीमेंट-बालू से भर दिया गया था। कोणार्क सूर्य मंदिर भी यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में है। कोणार्क मंदिर में इस तरह की लापरवाही ना केवल भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही बल्कि अपने धरोहर को सहेजने की असंवेदनशील प्रवृत्ति को भी सामने लाता है। इसी तरह कभी आप त्रिपुरा के उनकोटि चले जाइए। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही का उदाहरण आपको पूरे परिसर में सर्वत्र बिखरा हुआ नजर आएगा।

एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लाल किला की प्राचीर से देशवासियों से  पंच प्रण की बात करते हैं जिसमें अपनी विरासत पर गर्व की बात करते हैं। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए थे।

रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/ भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी भी की थी। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने कठोर टिप्पणियां की थी।

पता नही उसके बाद क्या हुआ। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में विशेषज्ञों की नियुक्ति हुई या अफसरों के भरोसे ही कार्य चलाया जा रहा है। तब समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली थे। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 थे जिनमें से 452 पद रिक्त थे। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई थी कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण इस बात का आकलन नहीं कर पाई थी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं।

दरअसल संस्कृति मंत्रालय में कामकाज की एक अजीब सी संस्कृति पनप गई है। मंत्रालय में संवेदनहीन अधिकारियों के साथ साथ उन बाहरी संस्थाओं को कई कार्य करने का दायित्व दिया गया है जिनको संस्कृति की समझ ही नहीं है। किसी पब्लिक रिलेशन एजेंसी को भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर छवि बनाने के काम में लगाया गया था। उनके लोग संस्कृति से संबंद्ध लेखकों-कलाकारों की बैठकों में नोट्स लेते हैं।

उसके आधार पर पावर प्वाइंट बनाकर भारतीय संस्कृति की छवि बनाने का कार्य करने का प्रयास करते हैं। पता नहीं ये कार्य हो पाया नहीं लेकिन इन बैठकों में जब पब्लिक रिलेशन कंपनी से जुड़े लोग कलाकारों या शिक्षाविदों से पूछते कि नृत्य या संगीत की इतनी शैलियों को कैसे समेटा जाए तो हास्यास्पद स्थिति बन जाती। सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक भारतीय सांस्कृतिक विरासत को लेकर गंभीरता से संवाद और कार्य करने के पक्षधर हैं।

बावजूद इसके संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सिस्टम अपनी गति से ही चलता रहता है। संस्कृति मंत्रालय में यथास्थितिवाद को झकझोरनेवाला नेतृत्व चाहिए जो संस्कृति की बारीकियों को समझ सके, उसके विविध रूपों को लेकर गंभीर हो और अधिकारियों को प्रधानमंत्री की नीतियों को लागू करने के लिए ना केवल प्रेरित कर सके बल्कि कस भी सके।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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