चैनल संपादक और मालिक इस पर कोई शर्म क्यों नहीं महसूस करते, यह सोचने वाली बात है
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राजेश बादल
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
बीते दिनों पत्रकारों के एक सम्मेलन में गया। वहां जिलों, छोटे कस्बों और गांवों में काम करने वाले पत्रकारों का हाल सुनकर दिल दहल गया। हम सब देश की राजधानी और चैनलों-अखबारों के मुख्यालयों में बैठे हैं और अपनी कठिनाइयों की चिंता करते हैं। एक बार इन स्ट्रिंगर्स की दुर्दशा देखेंगे तो दंग रह जाएंगे। इनके पास कोई नियुक्ति पत्र नहीं है। अपवादस्वरूप एकाध चैनल नाम दे देता है, अन्यथा ये बेचारे नाम के लिए तरस जाते हैं। चैनल का माइक आईडी यानी लोगो भी गिने-चुने स्ट्रिंगर्स के पास है। बाकी को वह भी नसीब नहीं। कोई भी चैनल इन पत्रकारों को उपकरण जैसे कैमरा यूनिट और फीड भेजने के लिए कंप्यूटर नहीं देता। किसी स्ट्रिंगर को कवरेज के लिए गाड़ी नहीं मिलती। सब कुछ उसे अपने संसाधनों से जुटाना पड़ता है।
न्यूनतम आधार पर भी अगर अनुमान लगाएं तो करीब चार-पांच लाख रुपए का निवेश स्ट्रिंगर को करना पड़ता है। इसके बाद स्ट्रिंगर को सिर्फ अपने शहर तक ही केंद्रित नहीं रहना होता। ‘फरमान’ मिलने पर उसे आसपास भी यात्रा करनी होती है। इन स्थितियों में उसके पास कोई चैनल एडवांस रकम भी नहीं देता। अपनी जेब से उसे डीजल, पेट्रोल,कैमरामैन फीस,इंटरनेट शुल्क और कंप्यूटर का खर्च उठाना होता है। यह सब परिवार चलाने के लिए आवश्यक धन के अतिरिक्त होता है।
अब जरा देखिए कि उस स्ट्रिंगर को मिलता क्या है? मैं 2001 में देश के नंबर एक चैनल में ब्यूरो चीफ और फिर संपादक रहा। चैनल प्रारंभ होने से पहले स्ट्रिंगर पॉलिसी बनाई गई थी। उस समय स्ट्रिंगर को प्रति रिपोर्ट 2500 रुपए देने की नीति हम लोगों ने बनाई थी। शहर से बाहर जाने पर 3500 से 5000 रुपए तक देते थे। उस दौर के स्ट्रिंगर आज भी साक्षी हैं कि प्रतिमाह उन्हें 30 से 40 हजार रुपए मिल जाते थे। आज से 18 साल पहले की यह नीति मेरे चैनल छोड़ने तक जारी रही।
अब जरा आज की हालत देखिए। एक स्ट्रिंगर को प्रति रिपोर्ट 200 से 1200 रुपए मिलते हैं, वह भी तब, जब वह खबर पूर्ण समाचार की शक्ल में दिखाई जाए। जिस खबर को वह चैनल के निर्देश पर दिनभर भागदौड़ करके भेजता है, यदि वह न दिखाई जाए तो भुगतान नहीं होता। एकाध चैनल अपवाद हो सकता है, जो खबर असाइन करने के बाद न दिखाए, लेकिन भुगतान कर दे।
यह भुगतान पूर्णकालिक पत्रकार की तरह हर महीने के पहले सप्ताह नहीं होता। कई बार एकाउंट्स विभाग छह-छह महीने तक भुगतान नहीं करता। करता है तो बिल में काटछांट कर दी जाती है। ऐसे में क्या खाक निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की आप उम्मीद करेंगे? पेट भरने के लिए उसूलों को भट्टी में उबाल कर पीने के सिवा क्या चारा रह जाता है। चैनल संपादक और मालिक इस पर कोई शर्म क्यों नहीं महसूस करते, यह सोचने वाली बात है। क्या वे पीत पत्रकारिता को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं?
ऐसे में स्ट्रिंगर दूसरा धंधा क्यों न करे? पेड न्यूज के खेल में क्यों न फंसे? नेताओं से अफसरों के तबादले कराकर दलाली क्यों न करे? दूसरे चैनलों के स्ट्रिंगरों से मिलकर खबरों का सिंडिकेट माफिया क्यों न चलाए? क्यों न वह राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के इशारे पर नाचे? धिक्कार है चैनलों के ऐसे संपादकों, पत्रकारों और मालिकों पर, जो ऐसी पत्रकारिता को बढ़ावा देते हैं। कब तक यह चलता रहेगा मिस्टर मीडिया?
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-
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इस समय बिहार की राजनीति पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से भी गुजर रही है। ऐसे में युवा चेहरों की बहार है। सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर जैसे युवा नेता मौजूद हैं।
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Samachar4media Bureau
प्रो.संजय द्विवेदी, स्वतंत्र टिप्पणीकार और राजनीतिक विश्लेषक।
बिहार चुनाव ने एक बार फिर से देश की राजनीति को गर्म कर दिया है। यह चुनाव इसलिए खास है कि क्योंकि दोनों प्रमुख राजनीतिक गठबंधनों की परीक्षा इसी चुनाव में होनी है। वहीं नए नवेले नेता बने प्रशांत किशोर की जनसुराज का परीक्षण इस चुनाव में होना है। बिहार की राजनीति को वैसे भी दिशावाहक और देश की नब्ज को समझने वाला माना जाता है। उसे जातीय राजनीति में कितना भी कैद करें, बिहारवासियों की राजनीतिक समझ को हर व्यक्ति स्वीकार करता है।
पाटलिपुत्र की जमीन में ही लोकतंत्र की खुशबू है। इस जमीन ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया है साथ ही सामाजिक न्याय की ताकतों की यही लीलाभूमि है। हमारे समय के अनेक दिग्गज नेता बिहार से शक्ति पाते रहे, भले यह उनकी जमीन न रही हो। मजदूर आंदोलन से निकले जार्ज फर्नाडीज हों या मध्यप्रदेश के शरद यादव, इस जमीन ने न सिर्फ उन्हें स्वीकार किया, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी राजनीति में स्थापित किया।
लालूप्रसाद यादव इस राज्य से निकले एक ऐसी परिघटना बन गए, जिनकी राजनीति और संवाद शैली बहुतों के आकर्षण का कारण बनी। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार जैसे नेता तो दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्र जैसी राजनीति बिहार को हमेशा चर्चा में रखती रही है। लालू का जादू आज भी टूटा नहीं है।
अपने खास जनाधार के वारिस के रूप में उनके पुत्र तेजस्वी यादव पिछले विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक सीटें लाने में सफल रहे। यह बताता है कि लालू यादव अभी चुके नहीं हैं और उनके बेटे उनके दल को सही नेतृत्व दे रहे हैं। हालांकि परिवारिक मतभेद की खबरें हवा में रहती हैं और यह बहुत स्वाभाविक भी है।
क्योंकि लालू यादव ने जिस तरह अपने परिवार के अनेक सद्स्यों को राजनीति के मैदान में उतारा और शक्तिसंपन्न किया, उनमें अधिकारों और महत्वाकांक्षा का संघर्ष होना ही था। जाहिर है तेजस्वी अधिकारिक तौर पर राजद के सबसे बड़े नेता हैं और लालू की छवि उनमें दिखती है। वे इंडी गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार भी घोषित किए जा चुके हैं।
बिहार के चुनावी समर में चुनाव के काफी पहले से ही अपनी यात्राओं से हलचल मचा रहे प्रशांत किशोर भी चर्चा में हैं। उनकी सभाओं में आ रही भीड़ वोटों में कितना बदल पाएगी कहना कठिन है। किंतु राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुख्य मुकाबला दोनों प्रमुख गठबंधनों के बीच ही है और प्रशांत किशोर की पार्टी की बहुत बड़ी भूमिका नहीं रहने वाली है।
प्रशांत किशोर खुद भी मानते हैं कि या तो वे नाटकीय बदलाव लाएंगें या फिर खाता भी नहीं खोल पाएंगें। हालांकि राजनीतिक रणनीतिकार होने के बाद भी उनकी बात कहां तक सही होगी कहा नहीं जा सकता। किंतु प्रशांत किशोर ने जिस तरह बेरोजगारी, पलायन के सवालों को उठाया है, उससे यह चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गए हैं। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार कुमार लंबे समय तक राज्य की सत्ता में रहे हैं, इसलिए उन पर हमले बहुत हैं।
सवाल भी पूछे जा रहे हैं कि आखिर आपने क्या किया? लेकिन आश्चर्य यह कि विपक्ष के दावेदार तेजस्वी यादव की ओर से नीतीश कुमार पर हमले के बजाए उनसे सहानुभूति ही जताई जा रही है कि उन्हें अमित शाह ने मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया और उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि भाजपा के अनेक नेता नीतीश कुमार जी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करते रहे हैं।
इस समय बिहार की राजनीति पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से भी गुजर रही है। ऐसे में युवा चेहरों की बहार है सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर, मुकेश सहनी जैसे युवा नेता न सिर्फ महत्वाकांक्षी हैं, बल्कि मैदान पर खासे सक्रिय हैं। बिहार में 18 से 19 साल की आयु के 14 लाख नए मतदाता हैं जो राजनीति से ज्यादा उम्मीदें रखते हैं।
नीतीश कुमार, सुशील मोदी, लालू यादव, रामविलास पासवान का समय भी ऐसा ही रहा होगा। जब इन युवाओं ने अपनी पहचान कायम की थी। उनमें नीतीश कुमार और लालू ही राजनीतिक पटल पर हैं। छवि के मामले में नीतीश कुमार अपने समकालीन नेताओं से बहुत आगे हैं। बार-बार गठबंधन बदलने के नाते वे चर्चा में रहते हैं, किंतु उनकी व्यक्तिगत छवि आज भी बहुत साफ-सुथरी है।
गठबंधन तोड़ने को कई बार उनके अवसरवाद के रूप में देखा गया, जबकि सच्चाई यह है कि वे अपनी शर्तों पर काम करने वाले नेता हैं। बिहार की राजनीतिक स्थितियों का उन्होंने लाभ उठाया और सभी के समर्थन से बार-बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसे राजनीतिक चातुर्य भी कहा जा सकता है, क्योंकि येन-केन प्रकारेण मुख्यमंत्री तो वही बने हुए हैं। लालू जी स्वास्थ्यगत कारणों से बहुत सक्रिय नहीं है।
जबकि नीतीश कुमार इस चुनाव में रोजाना चार से पांच सभाएं कर रहे हैं। महिलाओं में शराबबंदी और कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के नाते नीतीश कुमार का क्रेज है। उन्हें एक समय तक सुशासन बाबू भी कहा जाता रहा , क्योंकि माना जाता है कि उन्होंने बिहार को जंगलराज से उबारकर एक नई इबारत लिखी। विकास के काफी काम हुए। अधोसंरचना में भी बिहार को बदलता देखा गया।
नीतीश कुमार के साथ उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, चिराग पासवान की पार्टियां हैं। भाजपा का विशाल संगठन तंत्र तो लगा ही है। सामाजिक न्याय की शक्तियों का बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार के साथ है। उनके काम के आधार पर बड़ी संख्या में महिलाएं और कुछ प्रतिशत में मुस्लिम मतदाता भी जनता दल (यू) का साथ देते हैं। इस बार जनता दल (यू) और भाजपा दोनों 101-101 सीटों पर लड़ रहे हैं।
अन्य सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़ रखी हैं। बिहार के चुनाव में मूलतः राजद, जनता दल (यू) और प्रशांत किशोर की जनसुराज तीनों का भविष्य तय करेंगें। इस चुनाव में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर नहीं है। किंतु बिहार में एनडीए की जीत भाजपा और ‘ब्रांड मोदी’ के लिए वातावरण बनाने का काम जरूर करेगी। जिसका लाभ उसे आने वाले चुनावों में जरूर मिलेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
स्पष्ट है कि इस बार यमुना का पानी पिछले बार से काफी बदला हुआ था और यह बताता है कि भाजपा सरकार यमुना सफाई के अपने वायदे पूरा करने की पूरी तरह कोशिश कर रही है।
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अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार।
दिल्ली में यमुना घाटों पर छठ संपन्न हो गया। पिछले वर्षों की तरह इस बार यमुना नदी के पानी को लेकर उस तरह हाहाकार नहीं मचा जिसके दिल्लीवासी अभ्यस्त हो चुके थे। हां आम आदमी पार्टी ने वासुदेव घाट का एक वीडियो बनाकर जरूर जारी किया कि देखो, ये कहते थे कि यमुना को साफ कर दिया जबकि प्रधानमंत्री आने वाले हैं तो उनके लिए अलग से पानी लाकर घाट बनाया गया है।
दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कहा कि कि हमारी सरकार यमुना को साफ करने की कोशिश कर रही है। हमने यह नहीं कहा है कि यमुना पूरी तरह शुद्ध हो गई है और हम इसका पानी पी सकते हैं या घर ले जा सकते हैं।ऐसा बनाएंगे अवश्य लेकिन इस पर अभी काम हो रहा है। सच यह है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की रेखा गुप्ता सरकार ने पूरी प्रतिबद्धता से छठ को श्रेष्ठ तरीके से संपन्न कराने के लिए काम किया। कम से कम इस बार यमुना के पानी से दुर्गंध नहीं था।
घाटों की साफ- सफाई, पूजा करने, अर्ध्य देने और बैठने आदि की उचित व्यवस्था थी। कुल मिलाकर शिकायत के पहलू अत्यंत कम थे। इसलिए लोगों ने अन्य वर्षो के विपरीत राहत महसूस किया, सरकार की व्यवस्थाओं की प्रशंसा की। स्पष्ट है कि इस बार यमुना का पानी पिछले बार से काफी बदला हुआ था और यह बताता है कि भाजपा सरकार यमुना सफाई के अपने वायदे पूरा करने की पूरी तरह कोशिश कर रही है।
लोगों ने पहले की तरह शिकायत नहीं की तो इसका भी कोई अर्थ कुछ अर्थ है। देश की नदियां केवल हमारी धरोहर नहीं संपूर्ण जीव जगत के अस्तित्व के साथ जुड़ीं हैं। इन नदियों को स्वच्छ , संरक्षित सुरक्षित करना और इन्हें बनाए रखना सबका दायित्व है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
केंद्र और राज्यों के चुनावों में बीजेपी की सिलसिलेवार जीत भी राहुल गांधी या विपक्ष को परेशान नहीं करती। कांग्रेस और आरजेडी के आपसी संघर्ष ने सारी ताक़त और ऊर्जा को गंवा दिया।
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाज़ा कठिन है। लगातार चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद चुनाव में सत्ता पक्ष को उधेड़ना उसका दायित्व भी है और चुनावी जीत के लिए आवश्यक भी। सवाल यह उठता है कि बिहार में विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्यों नहीं संभाल पाए, जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं?
बिहार में ‘करो या मरो’ के चुनाव के बाद भी विपक्ष इतना लाचार और लचर क्यों नज़र आ रहा है? सोच के खोल आसानी से नहीं टूटते। उन्हें तोड़ने के लिए बदलावों का बहुत बड़ा होना ज़रूरी है। बिहार का यह चुनाव एनडीए से ज़्यादा महागठबंधन के लिए करो या मरो का है। बीच का कुछ समय छोड़ दिया जाए तो 20 साल से सत्ता पर काबिज़ एनडीए पूरी ऊर्जा और एकजुटता के साथ कमर कसकर मैदान में उतर चुका है और विपक्ष उनके सामने कहां खड़ा है?
प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, संघ और संगठन के पैदल सिपाही ज़मीन पर काम शुरू कर चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं, न बिहार में और न सोशल मीडिया पर। आज पूरे 56 दिन हो गए हैं जब राहुल गांधी आख़िरी बार बिहार आए थे।
1 सितंबर को उन्होंने पटना में ‘वोट अधिकार यात्रा’ का समापन किया था। उसके बाद राहुल ने बिहार की ओर देखना भी मुनासिब नहीं समझा और पूरी पार्टी को अपने सिपहसालारों के भरोसे छोड़ दिया। राहुल की बिहार से दूरी और राजनीति से अरुचि समझ से परे है। सामने मोदी, शाह और नीतीश जैसे नेता होने के बावजूद राहुल गांधी के अब तक प्रचार से दूरी बनाए रखने ने पूरे विपक्ष के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।
केंद्र और राज्यों के चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सिलसिलेवार जीत भी न राहुल गांधी को और न ही विपक्ष को परेशान करती दिखती है। मोदी ने भव्य चुनावी विजयों के साथ यह तय कर दिया है कि अब विपक्ष को उनके जितना लोकप्रिय और अखिल भारतीय नेतृत्व सामने लाना होगा। इससे कम पर मोदी को चुनौती देना नामुमकिन है।
बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के आपसी संघर्ष ने सारी ताक़त और ऊर्जा को गवां दिया। इतने महत्वपूर्ण चुनाव में राहुल और तेजस्वी को मिलकर एक और एक ग्यारह होना चाहिए था, पर दोनों का न मन मिला, न हाथ। चुनाव एक दिन का महोत्सव हैं, लेकिन लोकतंत्र की परीक्षा रोज़ होती है।
अच्छी सरकारें नियामत हैं, पर ताकतवर विपक्ष हज़ार नियामत है। जैसे बंद मुट्ठी से रेत फिसल जाती है, वैसे ही बिहार का चुनाव राहुल और तेजस्वी के हाथ से फिसल चुका है। विपक्ष ने सत्ता पक्ष को फिर सत्ता में आने का मौक़ा उपलब्ध करा दिया है। ध्यान रखिए, लोकतंत्र में चुनाव सरकार की सफलता से कम, विपक्ष के ज़मीनी संघर्ष से आंके जाते हैं और राहुल तथा तेजस्वी यही चूक गए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ऑपरेशन थार शक्ति में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित टारगेटिंग सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, अर्जुन और T-90 टैंक, पिनाक रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों को भी शामिल किया गया।
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रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
राजस्थान में पाकिस्तान से लगने वाली लोंगेवाला सीमा पर सेना की एलिट यूनिट ‘भैरव कमांडोज़’ ने अपने हुनर का प्रदर्शन किया। ‘ऑपरेशन थार शक्ति 2025’ नाम के इस युद्धाभ्यास में भैरव कमांडोज़ के अलावा इन्फैंट्री, आर्टिलरी और आर्मी एयर डिफेंस यूनिट्स ने हिस्सा लिया। ऑपरेशन थार शक्ति में टैंक कॉलम की मूवमेंट, तोपों से गोलीबारी, और थल सेना को एयर सपोर्ट देने के ऑपरेशन्स की एक्सरसाइज़ की गई।
इस दौरान आर्मी एयर डिफेंस की टीम ने कामीकाज़े ड्रोन से दुश्मन पर अटैक का भी अभ्यास किया। ऑपरेशन थार शक्ति में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित टारगेटिंग सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, अर्जुन और T-90 टैंक, पिनाक रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों को भी शामिल किया गया।
भविष्य के युद्धों में मॉडर्न टेक्नोलॉजी और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैसे होगा, इस युद्धाभ्यास में उसी की प्रैक्टिस की गई। इस दौरान तीनों सेनाओं के बीच आपसी समन्वय, आत्मनिर्भरता और इनोवेशन पर विशेष फोकस किया गया।
ऑपरेशन थार शक्ति के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को 1971 की लड़ाई और ऑपरेशन सिंदूर की याद दिलाते हुए कहा ,ऑपरेशन सिंदूर में सेना ने पाकिस्तान की अक़्ल ठिकाने लगाने वाली खुराक दे दी थी। लेकिन अगर पाकिस्तान ने फिर कोई हिमाकत की, तो इस बार पाकिस्तान तबाह हो जाएगा। जैसलमेर में भारत की फौज का शौर्य देखकर पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर को रात में नींद नहीं आएगी। वैसे, मुनीर की नींद तो अफगानी फाइटर्स ने भी उड़ा रखी है।
अफगानिस्तान के फौजी, पाकिस्तान की सरहद पर बंदूकें और रॉकेट लॉन्चर लेकर खड़े हैं। वे मुनीर को ललकारते हुए कहते हैं 'अगर मां का दूध पिया है, तो कभी इस तरफ भी आओ... हम तुम्हें जंग का मज़ा चखाएंगे।' अफगान तालिबान बार-बार कह चुका है कि वह पाकिस्तान के साथ बॉर्डर तय करने वाली डूरंड लाइन को नहीं मानता।
वे KPK (खैबर पख्तूनख्वा) को अपना सूबा मानते हैं। पाकिस्तानी फौज के पूर्व अधिकारी भी मानते हैं कि अफगानिस्तान ने मुनीर की इज़्ज़त उतार दी है। अब पाकिस्तान के सामने वाकई एक तरफ कुआं है, तो दूसरी तरफ खाई।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप रूस यूक्रेन युद्ध रोकना चाहते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत और चीन तेल खरीद कर इस युद्ध को फंड कर रहे हैं।
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों जब बार बार बयान दिया कि भारत से उनकी बात हो गई है वो रूस से तेल ख़रीदना बंद कर देंगे। भारत सरकार ने इस पर चुप्पी साध रखी थी, लेकिन अब अमेरिका ने रूस की दो बड़ी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। इसके बाद भारतीय कंपनियों के लिए रुस का तेल ख़रीदना मुश्किल हो जाएगा।
कहानी शुरू होती है 2022 में रूस और यूक्रेन युद्ध से। अमेरिका और यूरोप के देशों ने रूस पर दबाव बनाने के लिए तेल बिक्री पर शर्तें लगाई थीं जैसे रूस $60 प्रति बैरल या उससे कम रेट पर ही तेल बेचेगा ताकि उसका मुनाफा कम होगा। भारत ने इसका फ़ायदा उठाया। युद्ध से पहले भारत अपनी ज़रूरत का 5% तेल रूस से ख़रीदता था। तेल सस्ता होने के कारण भारत ने ज़्यादा तेल ख़रीदना शुरू किया। अब भारत के कुल आयात का 35% तेल रूस से आता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप रूस यूक्रेन युद्ध रोकना चाहते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत और चीन तेल ख़रीद कर इस युद्ध को फंड कर रहे हैं। उन्होंने भारत पर इस कारण 25% अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया। 25% टैरिफ़ पहले से था। इस कारण अब भारत से अमेरिका जाने वाले सामान पर 50% टैरिफ़ लग रहा है। भारतीय कंपनियों के लिए अमेरिका में सामान बेचने में मुश्किल हो रही है। फिर भी भारत अमेरिका के दबाव में झुका नहीं और रूस से तेल खरीदता रहा।
अब अमेरिका ने रूस की दो बड़ी कंपनियों Rosneft और Lukoil को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। यह दोनों कंपनियाँ रूस का आधा तेल उत्पादन करती हैं। भारत की सरकारी और प्राइवेट कंपनियाँ पहले तो तेल ख़रीदकर बच जाती थीं, अब मुश्किल होगी।
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने Rosneft से 5 लाख बैरल तेल रोज़ ख़रीदने का करार किया है। अब तेल ख़रीदने में दिक़्क़त है कि रिलायंस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है। कोई भी कंपनी अमेरिका के फ़ाइनेंशियल सिस्टम से बाहर रहकर कारोबार नहीं कर सकती है। रिलायंस इंडस्ट्रीज़ कह चुकी है कि वो दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं। यही बात सरकारी तेल कंपनियों पर भी लागू होती है।
भारत के लिए यह कुल मिलाकर अच्छी खबर साबित हो सकती है। रूसी तेल की ख़रीद बंद होने के बाद अमेरिका को अतिरिक्त टैरिफ़ हटाना पड़ सकता है। भारतीय बाज़ार के लिए यह अच्छी खबर होगी। सरकारी सूत्रों ने यह भी दावा किया है कि अमेरिका के साथ ट्रेड डील जल्द हो सकती है। हालाँकि रूस से तेल नहीं ख़रीदने में एक रिस्क यह भी है कि पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतें बढ़ सकती है। अमेरिका के फ़ैसले के बाद तेल की क़ीमतों में प्रति बैरल $5 इज़ाफ़ा हुआ है। यह और बढ़ने पर नया सिरदर्द खड़ा हो सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
लंदन विश्वविद्यालय की प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी को भारत नहीं आने देने पर एक इकोसिस्टम के लोग शोर मचा रहे हैं। मोदी सरकार को घेरने का प्रयत्न कर रहे हैं।
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Samachar4media Bureau
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है।
शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी।
दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से।
आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है।
हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।
फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया।
उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है।
आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं।
नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है।
वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है।
वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।
हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं।
इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।
विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
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Samachar4media Bureau
आलोक मेहता, पद्मश्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार।
‘कांग्रेस में काफी ठग पड़े हैं। आज ठगी का बड़ा जोर है। कांग्रेस में जिन लोगों पर कुछ भी शक है, वेकांग्रेस को छोड़ दें या उन्हें बाहर निकाल दिया जाए। कुछ जगहों में लोग कहते हैं कि काफी गुंडे हैं तो काम कैसे किया जाए। काम करने वाले गुडों को भी कह सकते हैं कि हम आपसे डरेंगे नहीं और काम करेंगे। गुंडा जहां होता है, वहां अच्छे आदमी भी रहते हैं और अच्छे आदमियों को चाहिए कि गुंडों से कहें कि आप हमें मारेंगे, तो हम मरेंगे, मगर भागेंगे नहीं।’
यह बात आज भारतीय जनता पार्टी या उसके किसी सहयोगी दल के नेता ने नहीं कही है। यह बात 18 मार्च, 1947 को महात्मा गांधी ने सांप्रदायिक दंगों के बाद मसौढ़ी के बीर गांव में देहात के प्रतिनिधियों की सभा में कही थी। 75 वर्ष बाद भी बिहार में इस तरह की चर्चा होती है। खासकर जब जंगलराज यानी लालू प्रसाद यादव के सत्ताकाल में अपराधों की पराकाष्ठा अथवा 1970 से 1990 के बीच कांग्रेस के सत्ताकाल में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे और बड़े पैमाने पर दलितों के हत्याकांड की याद दिलाई जाती है।
बिहार विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव और उनके साथ सवारी कर रहे कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता राहुल गांधी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ताकाल में दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के आरोप लगाकर अधिकाधिक वोट पाने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी सामने नहीं रखी है और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही विश्वास जताते हुए समाज के विभिन्न वर्गों और अल्पसंख्यकों के वोट पाने के लिए अभियान चलाया हुआ है।
लेकिन तेजस्वी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को निशाना बना रहे हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह अपने संदेश में कहा है कि बिहार की जनता जंगलराज को सौ साल तक नहीं भूल सकेगी। विपक्ष का गठबंधन ‘गठबंधन नहीं, बल्कि लठबंधन (अपराधियों का गठबंधन) है क्योंकि दिल्ली और बिहार के उनके नेता जमानत पर बाहर हैं।’
आश्चर्य की बात यह है कि राहुल गांधी के सलाहकार बेलछी कांड में दलितों की हत्या के विरोध में आक्रोश व्यक्त करने के लिए 1977 में प्रतिपक्ष की नेता के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी के जाने से हुए राजनीतिक लाभ का जिक्र करते हुए दलितों पर अत्याचार का मुद्दा वर्तमान दौर में भी लाभदायक समझ रहे हैं। वे 1970 से 1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि 1972 से पत्रकारिता में होने के कारण मुझे बिहार के मुख्यमंत्रियों केदार पांडे, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्र, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार से मिलने और उनके कार्यकाल के दौरान घटनाचक्रों पर लिखने और बोलने के अवसर मिले हैं।
जहानाबाद में दलितों के हत्याकांड और भागलपुर के सांप्रदायिक दंगों की भयावह घटनाओं के समय कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री थे और मैं स्वयं नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण का संपादक था। उस समय की घटनाओं पर सर्वाधिक रिपोर्ट और टिप्पणियां हमने लिखी और प्रकाशित की थी।
भागलपुर दंगे की शुरुआत अक्टूबर 1989 में हुई और यह कई महीनों तक चलता रहा। इस हिंसा में लगभग 1000 से अधिक लोगों की जान गई, जबकि हजारों लोग बेघर हो गए। अधिकांश पीड़ित मुस्लिम समुदाय से थे, परंतु हिंदू समुदाय के भी कई लोग हिंसा के शिकार बने। 24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर के परवती और लोदीपुर क्षेत्रों में जुलूस के दौरान विवाद हुआ। एक छोटी सी झड़प ने देखते-देखते पूरे शहर और आसपास के ग्रामीण इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया।
कई गाँवों में आगजनी और लूटपाट हुई, दर्जनों मस्जिदें और घर जला दिए गए, महिलाएँ और बच्चे तक हिंसा से नहीं बचे। अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार करीब 900 से अधिक लोग मारे गए, जबकि स्वतंत्र रिपोर्टों में यह संख्या 2000 से ऊपर बताई गई। विपक्ष और मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाया कि सरकार ने राजनीतिक कारणों से सख्त कदम नहीं उठाए। दंगे की जांच के लिए बाद में कई समितियाँ और न्यायिक आयोग गठित किए गए।
मुख्य रूप से न्यायमूर्ति एन. एन. सिंह आयोग और बाद में न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद आयोग ने घटनाओं की विस्तृत जांच की। इन रिपोर्टों में स्पष्ट कहा गया कि— पुलिस ने निष्पक्षता नहीं बरती, स्थानीय अधिकारियों ने हिंसा रोकने के लिए समय पर कदम नहीं उठाए। भागलपुर दंगे ने बिहार और राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा। कांग्रेस की छवि “धर्मनिरपेक्षता” की मुखर पक्षधर होने के बावजूद कमजोर पड़ी। आगामी 1990 के विधानसभा चुनावों में जनता दल ने इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया, जिसके परिणामस्वरूप लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार मिली।
यह घटना बिहार की राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई का भी अहम मोड़ बनी। कई वर्षों तक दंगे के पीड़ित शरणार्थी शिविरों में रहे। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मुआवजे की घोषणाएँ की गईं, परंतु ज्यादातर पीड़ितों को न्याय या पूर्ण पुनर्वास नहीं मिला।
1970 के दशक का उत्तरार्द्ध बिहार के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का अत्यंत उथल-पुथल भरा दौर था। जातिगत संघर्ष, भूमि विवाद, और राजनीतिक अस्थिरता ने राज्य के ग्रामीण समाज को गहराई तक प्रभावित किया। आपातकाल (1975–77) के बाद जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हुईं, तब बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की स्थिति काफी कमजोर पड़ गई थी।
इसी राजनीतिक परिदृश्य में 1977 के बेलछी नरसंहार (कांड) ने देश को झकझोर दिया और एक बार फिर इंदिरा गांधी को जनता से सीधे जुड़ने का अवसर प्रदान किया। यह घटना बेलछी गाँव, (नालंदा) में 27 मई 1977 को हुई थी। बेलछी कांड मूलतः जातिगत हिंसा का वीभत्स उदाहरण था। गाँव में भूमिहार और दलित (हरिजन, पासवान) समुदायों के बीच लंबे समय से जमीन और मजदूरी को लेकर विवाद चल रहा था।
इसी विवाद ने 27 मई को भयावह रूप ले लिया जब सवर्ण भूमिहारों के समूह ने 11 दलितों और पिछड़ों को घेरकर एक झोपड़ी में बंद कर दिया और उन्हें जिंदा जला दिया। जब बेलछी कांड की खबर उन्हें मिली, तो वे तत्काल वहाँ जाने का निर्णय लिया। उस समय बिहार में बारिश के कारण सड़कों की स्थिति बेहद खराब थी। वाहन से जाना लगभग असंभव था।
उन्होंने पहले ट्रेन से पटना तक की यात्रा की, फिर जीप में आगे बढ़ीं। रास्ता खराब होने पर उन्होंने ट्रैक्टर और फिर हाथी का सहारा लिया। अंततः कई घंटे की कठिन यात्रा के बाद इंदिरा गांधी बेलछी गाँव पहुँचीं। इंदिरा गांधी की इस यात्रा का प्रभाव तत्काल राजनीतिक स्तर पर देखने को मिला। जहाँ जनता पार्टी के नेता जातीय हिंसा और प्रशासनिक अक्षमता के आरोपों में उलझे थे, वहीं इंदिरा गांधी ने स्वयं को एक संवेदनशील और दृढ़ नेता के रूप में पुनः स्थापित किया।
1980 के दशक में बिहार के खासकर जहानाबाद और उसके आसपास के इलाकों में जमीन, जाति और राजनीतिक-पठित हिंसा ने सामूहिक हत्या और दमन का भयावह चेहरा दिखाया। स्थानीय जमींदार, जातिगत मिलिशिया, सशक्त दलित उठान तथा नक्सली गतिविधियों के आपसी द्वन्द्व ने नियंत्रणहीन हिंसा और बदले की कार्रवाईयों को जन्म दिया। ऐसी घटनाओं में अक्सर स्थानीय राजनीतिक संस्थाओं और नेताओं के समर्थकों पर भी संगठित हिंसा का आरोप उठते रहे.
जहानाबाद जिले में जून–जुलाई 1988 के आसपास नॉन्हीगढ़ और नागवान के पास दलित बस्तियों पर एक संगठित हमले में कई हरिजनों की हत्या हुई। कुछ रिपोर्टों के अनुसार इस हमले में 19 हरिजन मारे गए। इस घटना ने प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व पर तीव्र प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए थे — बाद में अभियुक्तों के खिलाफ मुक़दमों व सज़ाओं की कार्रवाई भी चली। इन कत्लेआम घटनाओं की पृष्ठभूमि सिर्फ जातिगत द्वेष नहीं रही — स्थानीय शक्तिशाली राजनीतिक इकाइयों, सांसद/विधायक या उनके निकटस्थ समर्थकों पर भी हमलों में भूमिका के आरोप उठते रहे।
1980 के दशक में कुछ मामलों में कांग्रेस (या अन्य स्थानीय राजनीतिक समूहों) के स्थानीय नेताओं/सपोर्टरों पर आरोप लगे कि उन्होंने या उनके समर्थकों ने हिंसा को संरक्षण या दिशा दी — पर हर मामले में राजनीतिक जुड़ाव बराबर प्रमाणित नहीं हुआ; कई मामलों में लंबी मुक़दमेबाजी और बिना-नतीजे वाली जांचों की शिकायत भी रही।
जहानाबाद और आसपास के इलाकों में 1980 के दशक की इन हत्याओं की कहानी केवल अतीत की कथा नहीं है — यह बताती है कि जब जमीन, जाति, व राजनीतिक शक्ति मिले तो सामाजिक सुरक्षा कहाँ फेल हो सकती है। इन घटनाओं ने यह भी उजागर किया कि त्वरित, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच तथा न्यायिक प्रक्रिया तथा सामाजिक-आर्थिक सुधार ही ऐसी हिंसा को जड़ से खत्म कर सकती हैं।
मानवाधिकार संगठनों, मीडिया और सामाजिक आंदोलनों की निरन्तर निगरानी एवं पीड़ितों की आवाज़ को न्यायपालिका तक पहुँचाना आवश्यक रहा। दुखद बात यह रही कि जहानाबाद में दलितों की हत्या करने वाले अपराधियों को काँग्रेस के बड़े नेता का संरक्षण मिलने का गंभीर आरोप रहा। लेकिन काँग्रेस आलाकमान ने इसे निरंतर सांसद बनाए रखने में भी संकोच नहीं किया।
इसे जातीय समीकरण के साथ धनबल और बाहुबली की राजनीति के रूप में याद किया जाता है। एक बार राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने मेरी अनौपचारिक मुलाकात के दौरान काँग्रेस पार्टी और सरकार द्वारा ऐसे बाहुबली नेता को प्रश्रय दिए जाने पर गहरा दुख व्यक्त किया था। इस तरह बिहार की राजनीति में जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष का मुद्दा निरंतर रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पीयूष पांडेय के निधन की खबर भारतीय विज्ञापन जगत के लिए एक युग के अंत जैसी महसूस हो रही है।
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Samachar4media Bureau
प्रो. साजल मुखर्जी- डायरेक्टर, एपीजे इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन, द्वारका, नई दिल्ली ।।
पीयूष पांडेय के निधन की खबर भारतीय विज्ञापन जगत के लिए एक युग के अंत जैसी महसूस हो रही है। जिन लोगों ने इस इंडस्ट्री में दशकों बिताए हैं, उनके लिए वे सिर्फ एक क्रिएटिव लीडर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे कहानीकार थे जो भारत को बहुत गहराई से समझते थे। उनके विज्ञापन आम लोगों की भाषा बोलते थे। उनमें अपनापन, हंसी-मजाक और सच्चाई थी। यही वो खूबियां थीं जिन्होंने भारतीय विज्ञापन को एक अलग पहचान दी, जबकि दुनिया के ज्यादातर विज्ञापन विदेशी अंदाज की नकल से भरे होते थे।
पीयूष पांडेय का काम भावनात्मक जुड़ाव का बेहतरीन उदाहरण है। 'हर घर कुछ कहता है' (एशियन पेंट्स), 'मिले सुर मेरा तुम्हारा', 'कुछ खास है जिंदगी में' (कैडबरी) और 'तोड़ो नहीं, जोड़ो' (फेविक्विक) जैसी मुहिमें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। ये सिर्फ विज्ञापन नहीं थे, बल्कि हमारी जिंदगी और समाज का आईना थे। वह जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को इस तरह पेश करते थे कि वह हर किसी के चेहरे पर मुस्कान ले आती थी।
उनकी किताब ‘Pandeymonium’ उनके रचनात्मक सफर को ईमानदारी से बयां करती है। यह किताब विज्ञापन की कला और संवाद की सोच को समझने वाली सबसे गहरी पुस्तकों में से एक है। हर अध्याय ये सिखाता है कि अच्छा विज्ञापन चतुराई नहीं, बल्कि सादगी और इंसानी समझ पर टिका होता है।
एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जिसने इस पेशे में चार दशक से ज्यादा समय बिताया है और अब नए विद्यार्थियों को पढ़ाता हूं, मैं अक्सर अपने क्लासरूम में उनके कामों का जिक्र करता हूं। उनके विज्ञापन सिर्फ रचनात्मक उदाहरण नहीं, बल्कि सहानुभूति, सादगी और जीवन के प्रति नजरिए के पाठ हैं। छात्र तुरंत उनसे जुड़ जाते हैं, क्योंकि उनमें उन्हें जिंदगी दिखाई देती है, सिर्फ रणनीति नहीं।
पीयूष पांडेय की विरासत उनके विज्ञापनों से कहीं बड़ी है। वह हजारों लोगों को इस क्षेत्र में आने और कुछ नया करने के लिए प्रेरित कर गए। उनका जीवन इस बात का सबूत है कि इस प्रोफेशन में असली सफलता ईमानदारी, जिज्ञासा और अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साहस से मिलती है।
हममें से बहुतों के लिए वे हमेशा वो विज्ञापन गुरु रहेंगे, जिन्होंने भारत को अपनी कहानियों से प्यार करना सिखाया। उनके विचार, उनकी आवाज और उनकी आत्मा हमेशा हर क्लासरूम, हर कैंपेन और हर उस रचनात्मक दिल में जिंदा रहेगी जो कहानी कहने की ताकत पर विश्वास रखता है।
अंबाला स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ थी, अमृतसर से पूर्णिया की तरफ जाने वाली ट्रेन जैसे ही स्टेशन पर पहुंची तो धक्कामुक्की शुरू हो गई। तुंरत जालंधर से एक स्पेशल ट्रेन भेजी गई।
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Samachar4media Bureau
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
बिहार के लोगों में महापर्व छठ को लेकर इस बार काफी उत्साह है। बिहार के जो लोग देश के दूसरे राज्यों में रहते हैं, वे छठ के मौके पर अपने घर लौटना चाहते हैं। यही वजह है कि ट्रेनों में जबरदस्त भीड़ देखने को मिल रही है। गुजरात के रेलवे स्टेशनों के बाहर दो किलोमीटर लंबी लाइनें लगी हुई देखी गईं। रेलवे ने छठ के लिए 13,000 विशेष ट्रेनों का इंतजाम किया है, लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा है कि सारे इंतजाम कम पड़ रहे हैं।
गुरुवार को खुद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मोर्चा संभाला। स्टेशनों पर भीड़ प्रबंधन और ट्रेनों की लोकेशन पर नजर रखने के लिए तीन वॉर रूम बनाए गए। इनकी फीड सीधे रेल भवन में बने मुख्य वॉर रूम में पहुंच रही थी, जहां रेल मंत्री स्वयं मौजूद थे। जिस स्टेशन पर ज्यादा भीड़ दिखती है, वहां तुरंत ट्रेन भेजी जा रही है।
जैसे अंबाला स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ थी। अमृतसर से पूर्णिया की ओर जाने वाली ट्रेन जैसे ही स्टेशन पर पहुंची, धक्का-मुक्की शुरू हो गई। तुरंत जालंधर से एक स्पेशल ट्रेन भेजी गई और यात्री उस ट्रेन से बिहार के लिए रवाना हो गए। बीते सालों से सबक लेकर इस बार रेलवे ने भीड़ प्रबंधन के लिए नया मैकेनिज्म (mechanism) तैयार किया है।
देश के ऐसे 35 रेलवे स्टेशन चिह्नित किए गए हैं, जहां त्योहारों के वक्त सबसे ज्यादा भीड़ होती है। इन स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरों के जरिए 24 घंटे मॉनिटरिंग की जा रही है। किसी भी स्टेशन पर भीड़ बढ़ने पर स्थानीय अधिकारियों से फीडबैक लेकर तुरंत स्पेशल ट्रेन पहुंचाई जाती है।
छठ पूजा के लिए लोग पहले भी घर लौटते थे। ट्रेनों में भीड़ पहले भी होती थी। कई लोग ट्रेन की छत पर बैठकर सफर करते थे, कुछ ट्रेन से लटककर जान जोखिम में डालकर घर जाते थे और कोई इसकी परवाह नहीं करता था। रेलवे में इस तरह की यात्रा को कभी सामान्य (normal) माना जाता था।
भीड़ अब भी है, ट्रेनें अब भी कम पड़ रही हैं, लेकिन अब रेलवे को लोगों की परवाह है। इसकी वजह है रेल मंत्री की व्यक्तिगत दिलचस्पी। अश्विनी वैष्णव ने डेटा स्टडी (Data Study) करके प्लान बनाया, स्पेशल ट्रेनें चलाईं, सुविधाएं बढ़ाईं। पर जब लोगों को पता चला कि अब स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं और ज्यादा सहूलियतें हैं, तो जो लोग पहले छठ पर घर नहीं जाते थे, उन्होंने भी अपने बैग पैक कर लिए। नतीजा, भीड़ और बढ़ गई।
अंदाजा गलत निकला, इंतजाम कम पड़ने लगे। पर लोगों को इस बात का संतोष है कि रेलवे उनकी यात्रा और सुविधाओं की चिंता करता है और यह विश्वास, बहुत बड़ी बात है। एक बात और, सोशल मीडिया पर जो भी दावे किए जा रहे हैं, उन पर आंख मूंदकर भरोसा न करें। सरकार की तरफ से जो औपचारिक जानकारी दी जाती है, उसी पर यकीन करें, क्योंकि आजकल सोशल मीडिया के चक्कर में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां होती हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
संविधान सभा को इस बात की जानकारी थी, कि संविधान को नए सूत्रों में पिरोना होगा। एक गतिशील विश्व मे, यह जनता और समग्र राष्ट्र की सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम बनेगा।
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Samachar4media Bureau
प्रो. संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान।
देश में जब भी चुनाव आते हैं, संविधान की याद आती है। गत लोकसभा चुनावों में संविधान बदलने के शिगूफे से विपक्ष को अनेक स्थानों पर चुनावी लाभ भी मिला। अब एक बार फिर बिहार चुनाव के बहाने संविधान चर्चा में है। जबकि भारत के संविधान की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसका विचार-दर्शन चिरस्थाई है, लेकिन इसका ढांचा और अनुच्छेद लचीले हैं।
हमारे संविधान निर्माता समय के साथ अनुच्छेदों के संशोधन और परिवर्तन के लिए भावी पीढ़ी को पर्याप्त शक्ति प्रदान करने के मामले में प्रबुद्ध और दूरदर्शी थे। हमारा संविधान गतिहीन नहीं है, बल्कि एक सजीव दस्तावेज है। संविधान सभा को इस बात की जानकारी थी, कि संविधान को नए सूत्रों में पिरोना होगा। एक गतिशील विश्व मे, यह जनता और समग्र राष्ट्र की सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम बनेगा। भारतीय संविधान को हमने अनेकों बार संशोधित किया है, जिससे यह परिलक्षित होता है कि हम कितनी सक्रियता से यह सुनिश्चित करने में लगे हैं, कि तेजी से रूपांतरित हो रहे इस देश में इसकी प्रासंगिकता कम न पड़ जाए।
संविधान निर्माताओं ने अनुभव किया था कि संविधान, चाहे कितना बढ़िया लिखा गया हो और कितना बड़ा हो, अमल में लाए और मूल्यों का अनुकरण किए बिना उसका कोई अर्थ नहीं है। इसलिए हमने भावी पीढ़ियों पर विश्वास जताया है। संविधान लोगों को उतना ही सशक्त बनाता है, जितना लोग संविधान को सशक्त बनाते हैं। जब व्यक्ति और संस्थाएं पूछती हैं कि संविधान ने उनके लिए क्या किया है और इसने उनकी क्षमता को कितना बढ़ाया है, उन्हें यह भी विचार करना चाहिए कि उन्होंने संविधान के अनुपालन के लिए क्या किया है?
उन्होंने इसके मूल्य तंत्र के समर्थन के लिए क्या किया है? संविधान का अर्थ ‘हम लोग’ हैं और ‘हम लोग, संविधान’ हैं। भारतीय संविधान प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देने का वादा करता है और उन्हें किसी प्रकार के भेदभाव से भी बचाता है। हमने इसे हमेशा बनाए रखने और प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित करने का संकल्प गणतंत्र की शुरुआत में ही लिया था। यह हमारी प्रगति का मूल्यांकन और विश्लेषण करने का भी समय है कि हमने आम आदमी के लिए इस वादे को कितने अच्छे तरीके से निभाया है।
राष्ट्र केवल सीमाओं, प्रतीकों और संस्थाओं का समूह नहीं है, बल्कि राष्ट्र उसके लोगों में निहित होता है। राष्ट्र की तीन शाखाओं - न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के संबंधों को खोजते हुए इनके जटिल और नाजुक संतुलन का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। सभी एक समान हैं। इन्हें अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक होना चाहिए तथा स्वायतत्ता की रक्षा करने का प्रयास करना चाहिए। हमारे स्तंभों में से प्रत्येक स्तंभ को अपनी शक्तियों के प्रयोग में स्वतंत्र होने की आवश्यकता है, लेकिन राष्ट्रीय एकता, अखंडता और खुशहाली के लिए संगठित रूप से अन्य दो स्तंभों के साथ कड़ी के रूप काम करने की भी जरूरत है।
पिछले आठ दशकों में हमारा लोकतांत्रिक अनुभव सकारात्मक रहा है। अपनी इस यात्रा में हमें अत्यंत गौरव के साथ पीछे मुड़ कर देखना चाहिए कि हमारे देश ने, न केवल अपने लोकतांत्रिक संविधान का पालन किया है, बल्कि इस दस्तावेज में नए प्राण फूंकने और लोकतांत्रिक चरित्र को मजबूत करने में भी अत्यधिक प्रगति की है। हमने 'जन' को अपने 'जनतंत्र' के केंद्र में रखा है और हमारा देश न केवल सबसे बड़े जनतंत्र के रूप में, बल्कि एक ऐसे देश के रूप में उभर कर सामने आया है, जो निरंतर पल्लवित होने वाली संसदीय प्रणाली के साथ जीवंत और बहुलतावादी संस्कृति का उज्ज्वल प्रतीक है।
हमने संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक समावेशी और विकसित भारत के निर्माण के लिए न केवल अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को साकार करने पर ध्यान केंद्रित किया है, बल्कि हम शासन-प्रणाली में भी रूपांतरण कर रहे हैं। यह वास्तव में एक आदर्श परिवर्तन है, जिसमें लोग अब निष्क्रिय और मूकदर्शक या 'लाभार्थी' नहीं रह गए हैं, बल्कि परिवर्तन लाने वाले सक्रिय अभिकर्ता हैं। जब तक हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करेगा, तब तक अन्य लोगों के अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता।
भारत के पास ऐसी बहुत सी शक्तियां और क्षमताएं हैं, जो हमें उच्च विकास के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती हैं। हमारा समृद्ध मानव संसाधन उनमें से एक है। हमारे पास सक्षम सिविल सेवा के रूप में एक मजबूत ढांचा है, जिसे सरदार पटेल के नेतृत्व में हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था। हमारी प्रमुख निष्ठा हमारे संविधान के मूल्यों तथा हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के फायदों को समाज के निचले पायदान तक ले जाने की होनी चाहिए। इसके लिए, हमें अधीनस्थ संस्थानों के स्तर को उठाने का निरंतर प्रयास करना चाहिए और उन्हें सभी क्षेत्रों की उच्च संस्थाओं के बराबर लाना चाहिए।
यदि हम राष्ट्रीय उद्देश्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा एवं प्रतिबद्धता के साथ करें, तो विकास पथ पर देश तीव्र गति से अग्रसर होगा और हमारा लोकतंत्र ओर अधिक परिपक्व लोकतंत्र बनेगा। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्व में हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन हो। हमें 'विचारशील' व्यक्ति भी बनना चाहिए और यह देखना चाहिए कि हम मौजूदा प्रक्रियाओं एवं प्रणालियों को कैसे 'सुधार' सकते हैं। भारत अपने इतिहास के ऐसे महत्वपूर्ण समय में हैं, जहां हम एक प्रमुख विश्व अर्थव्यवस्था के रूप में निरंतर विकास कर रहे हैं।
हम लगातार अपने लोकतंत्र को कार्यशील बनाए हुए हैं और यह सुनिश्चित करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं कि इसका लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। यही समय है कि हम संविधान में प्रस्तावित कर्तव्यों को याद रखें। यही समय है कि भारत का प्रत्येक नागरिक इस उत्साहपूर्ण भावी यात्रा का हिस्सा बनने की शपथ ले। आज जब देश अमृतकाल में अपने लिए असाधारण लक्ष्य तय कर रहा है, दशकों पुरानी समस्याओं के समाधान तलाशकर नए भविष्य के लिए संकल्प ले रहा है, तो ये सिद्धि सबके साथ से ही पूरी होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )