विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ सियासी षड्यंत्र लोकतंत्र में बर्दाश्त नहीं मिस्टर मीडिया!

खबर विचलित करने वाली है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बीच में वहां का एक सर्वाधिक लोकप्रिय खबरिया समूह ‘फोर पीएम’ (4PM) का यूट्यूब चैनल अचानक परदे से विलुप्त हो गया।

राजेश बादल by
Published - Wednesday, 23 February, 2022
Last Modified:
Wednesday, 23 February, 2022
Mister Media

चैनल बंदी प्रतिशोध भरी कार्रवाई है

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।

खबर विचलित करने वाली है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बीच में वहां का एक सर्वाधिक लोकप्रिय खबरिया समूह ‘फोर पीएम’ (4PM) का यूट्यूब चैनल अचानक परदे से विलुप्त हो गया। तीन लाख से अधिक सबस्क्राइबर्स वाला यह चैनल अपने जन्म से ही धारदार समाचार विश्लेषण और वरिष्ठ पत्रकारों की बेबाक बयानी के लिए जाना जाता है। मौजूदा चुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी समाजवादी गठबंधन तथा कांग्रेस की असल स्थिति को यह चैनल बड़ी निष्पक्षता से प्रस्तुत कर रहा था। देखते ही देखते किसी शो की दर्शक संख्या लाखों को पार कर जाए तो उसकी जिम्मेदारी और परिपक्वता का अनुमान लगाया जा सकता है ।

चैनल के संपादक संजय शर्मा कहते हैं कि इसके पीछे यकीनन पेशेवर हैकर्स अथवा यूट्यूब चैनल के प्रबंधन का हाथ है। पिछले तीन चरणों के मतदान का इस चैनल का सार यह था कि समाजवादी पार्टी बढ़त बना चुकी है और बीजेपी घाटे में है। संजय के मुताबिक, उन्होंने मामले की एफआईआर करा दी है और यूट्यूब को नोटिस भेजा है। संदेह है कि कहीं इस चैनल को बंद करने के पीछे सत्तारूढ़ दल या सरकार का हाथ तो नहीं है। संपादक संजय शर्मा की ताबड़तोड़ कार्रवाई का अंजाम यह निकला कि चैनल की चरणबद्ध बहाली हो रही है। एक-एक करके पुराने शो और विश्लेषण दर्शक देखने लगे हैं। संजय शर्मा को मीडिया के तमाम वर्गों से भरपूर समर्थन मिला। जैसी कि ‘फोर पीएम’ के संपादक को आशंका है कि इस मामले में उस व्यवस्था का हाथ हो सकता है, जो उनके चैनल से प्रसन्न नहीं है।

दरअसल, चैनल बंद होने से बीजेपी और सरकार की किरकिरी हुई। चुनाव के दौरान निष्पक्ष पत्रकारिता पर आक्रमण हो और सरकार चुप्पी साधे रहे, तो अनेक संदेह जन्म लेते हैं। सवाल यह भी उठता है कि आम नागरिक की तरह पत्रकारों को मिली अभिव्यक्ति की आजादी उन्हें हासिल है या नहीं?

संचार के आधुनिक उपकरणों ने एक ओर काम में कुछ सहूलियतें प्रदान की हैं, वहीं मौलिक अधिकारों को कुचलने की साजिशों में भी उनकी मदद ली जा रही है। कारोबारी होड़ हो तो बात समझ में आती है, लेकिन विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ सियासी षड्यंत्र सभ्य लोकतंत्र में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भारतीय राजनीति के नजरिये से हमेशा ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। सरकारें इन चुनावों में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए नाना प्रकार की तिकड़में करती हैं। आशंका उपजती है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में निष्पक्ष पत्रकारिता पर दबाव डालने की कोशिशें हो सकती हैं। चूंकि केंद्र में सरकार बनाने का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर ही जाता है, इसलिए इस राज्य में हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियों का आकार विकराल होगा। विडंबना है कि जिस प्रदेश ने पत्रकारिता के कई गौरवशाली अध्याय लिखे, वह आज उत्पीड़न की चपेट में है। इसे गंभीरता से लेने की जिम्मेदारी किसकी है मिस्टर मीडिया!

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

हिंदी पत्रकारिता के लिए यकीनन यह अंधकार काल है मिस्टर मीडिया!

एक तरह से यह आचरण पत्रकारिता के लिए आचार संहिता बनाने पर मजबूर करने वाला है मिस्टर मीडिया!

असभ्य तंत्र नामक भेड़िए से आपको बचाने कौन आएगा मिस्टर मीडिया?

प्रचार अभियान में पत्रकारिता के लिए इन खतरों को ध्यान में रखना जरूरी है मिस्टर मीडिया!

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पाकिस्तान में आतंकवादियों की हत्या कौन करा रहा है?: रजत शर्मा

एक बार फिर पाकिस्तान में ये चर्चा शुरु हो गई कि आखिर वो कौन से सीक्रेट एजेंट्स हैं, जो पाकिस्तान में भारत को दुश्मनों का चुन-चुन कर सफाया कर रहे हैं?

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Friday, 08 December, 2023
Last Modified:
Friday, 08 December, 2023
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रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)

पाकिस्तान में भारत के एक और दुश्मन की, एक और आतंकवादी की, कुछ अनजान लोगों ने हत्या कर दी। दहशतगर्द अदनान अहमद उर्फ अबु हंजला को कराची में सरेआम गोली मार दी गई। ये वारदात अबु हंजला के सेफ हाउस के बाहर हुई। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने अबु हंजला को चौबीसों घंटे की सुरक्षा दी थी, लेकिन इसके बावजूद हत्यारे उस तक पहुंच गये और उसका काम तमाम कर दिया। इस खबर ने पाकिस्तान से ऑपरेट करने वाले दहशतगर्दों और उनके आकाओं के होश उड़ा दिए। अबु हंजला लश्कर-ए-तैयबा का दहशतगर्द था, वह अपने सरगना हाफिज सईद का करीबी था। बड़ी बात ये है कि अबु हंजला  के कत्ल के साथ ही एक बार फिर पाकिस्तान में ये चर्चा शुरु हो गई कि आखिर वो कौन से सीक्रेट एजेंट्स हैं जो पाकिस्तान में भारत को दुश्मनों का चुन-चुन कर सफाया कर रहे हैं? और खौफ इस बात का है कि इनकी हिटलिस्ट में अगला नंबर किसका है?

मंगलवार को खबर आई थी कि मुंबई के 26/11 हमलों के मास्टरमाइंड साजिद मीर को जेल में जहर देकर मार दिया गया। वह डेरा गाजी खान की सेंट्रल जेल में बंद था। पाकिस्तान से एक और आतंकवादी लखबीर सिंह रोडे की मौत की खबर भी आई। रोडे लुधियाना कोर्ट में धमाके को अंजाम देने वाला खालिस्तान समर्थक आतंकवादी था। अब सवाल ये है कि पाकिस्तान के अंदर वो अनजान कातिल कौन हैं, जो ISI की कड़ी सुरक्षा के बावजूद हत्याएं करने में कामयाब रहे? वो कौन हैं जिनकी पहुंच पाकिस्तानी जेलों के अंदर भी है? वो कौन हैं जो जब चाहे जहां चाहे भारत के दुश्मनों को निशाना बना लेते हैं?

नोट करने वाली बात ये है कि अब तक जितने कत्ल हुए हैं, उसमें उन्हीं दहशतगर्दों की मौत हुई है, जिनका भारत में हुए हमलों में बड़ा रोल रहा है। लश्कर का ऑपरेटिव अदनान अहमद उर्फ अबु हंजला भी उनमें से एक था। अदनान 2015 में उधमपुर में BSF के काफ़िले पर हमले का मास्टमाइंड था, 2016 में पांपोर में CRPF के कैंप पर हमले में भी उसका नाम आया था। अदनान को कराची के नाज़िमाबाद इलाके में उसके छुपने के अड्डे पर गोली मारी गई। जख़्मी हालत में उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां उसने दम तोड़ दिया। पाकिस्तानी मीडिया में अदनान की हत्या की बहुत चर्चा हो रही है। वहां के डिफेंस एक्सपर्ट, पाकिस्तानी फौज के क़रीबी लोग ही अदनान की हत्या पर सवाल उठा रहे हैं। वो सीधे-सीधे अदनान के क़त्ल के लिए भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं।

अदनान अहमद  के बारे में पता चला है कि उसे 3 दिसंबर को कराची में गोली मारी गई थी लेकिन पाकिस्तान में उसकी हत्या की खबर को छिपाया गया। पाकिस्तान के सिक्योरिटी एक्सपर्ट क़मर चीमा ने कहा कि ये पहला मौक़ा नहीं है, जब भारत में वांटेड किसी शख़्स को पाकिस्तान में मार दिया गया। क़मर चीमा ने कहा कि ऐसा लगता है कि भारत के एजेंट, पाकिस्तान में घुसकर, अपने देश के दुश्मनों का सफ़ाया कर रहे हैं, और बेइज़्ज़ती से बचने के लिए पाकिस्तान सरकार, ISI और वहां की फ़ौज ये बातें छुपा रही है।

क़मर चीमा ने जो बात इशारों में कही, उसकी जानकारी मैं आपको विस्तार से देता हूं। दरअसल पिछले एक साल में पाकिस्तान के अलग अलग इलाक़ों में अदनान जैसे 12 आतंकवादी मारे जा चुके हैं। ये सब वो आतंकवादी थे, जो भारत में कई हमलों में शामिल थे, भारत में ये लोग वांटेड थे। दो दिन पहले ही ख़बर आई थी कि लश्कर के एक और आतंकी साजिद मीर को लाहौर की कोट लखपत जेल में ज़हर दिया गया जिसके बाद उसकी हालत गंभीर हो गई। साजिद मीर को लाहौर के आर्मी हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, जहां उसकी मौत हो गई। साजिद मीर मुंबई पर 26/11 के हमले की साज़िश में शामिल था। मुंबई पर हमले के दौरान वो कराची से सैटेलाइट फ़ोन पर आतंकवादियों को हिदायत दे रहा था। भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने उसकी बात को रिकॉर्ड भी किया था और उसका ऑडियो यूनाइटेड नेशंस में भी सुनाया गया था।

साजिद मीर को आतंकी फंडिंग के जुर्म में 8 साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी और वो लाहौर की जेल में सज़ा काट रहा था। जेल में ही उसको ज़हर दिया गया। दिलचस्प बात ये है कि जिस शख़्स को साजिद मीर को खाना देने की ज़िम्मेदारी थी, वो लापता है और पाकिस्तानी पंजाब की पुलिस उसको तलाश रही है। सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक़, पिछले एक साल में भारत में वांटेड, सैयद ख़ालिद रज़ा, बशीर अहमद पीर, परमजीत सिंह पंजवाड़, सरदार हुसैन, रियाज़ अहमद उर्फ़ अबु क़ासिम, ज़िया उर रहमान, शाहिद लतीफ़, शाहिद इलियास, मुहम्मद मुज़म्मिल, लखबीर सिंह रोड़े जैसे कई आतंकवादी पाकिस्तान में मारे जा चुके हैं। इन सब का भारत में किसी न किसी आतंकवादी हमले में हाथ रहा था।

ख़ास तौर से लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद के आतंकवादियों को चुन-चुनकर पाकिस्तान में टारगेट किया जा रहा है। अबु हंजला से पहले  9 नवंबर को अकरम ख़ान ग़ाज़ी को अज्ञात लोगों ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में गोली मार दी थी। 5 नवंबर को लश्कर का एक और आतंकवादी ख्वाजा शाहिद इलियास की लाश  लाइन ऑफ़ कंट्रोल के पास मिली थी। उसका सिर क़लम कर दिया गया था। इसी साल सितंबर में रियाज़ अहमद उर्फ़ अबु क़ासिम को POK में अज्ञात लोगों ने गोली मार दी थी। वहीं, अक्टूबर में पठानकोट हमले के मास्टरमाइंड शाहिद लतीफ़ की पाकिस्तान में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। शाहिद लतीफ़ को सियालकोट शहर में उस वक़्त गोली मारी गई, जब वो मस्जिद से बाहर निकल रहा था। वो जैश-ए-मुहम्मद से जुड़ा हुआ था। 1994 में शाहित लतीफ़ को भारत में 16 साल क़ैद की सज़ा मिली थी। सज़ा काटने के बाद 2010 में शाहिद लतीफ़ को रिहा करके पाकिस्तान भेज दिया गया था। पिछले हफ़्ते जब केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ‘आप की अदालत’ शो में मेरे मेहमान थे।

मैंने उनसे पूछा था कि पाकिस्तान में एक के बाद एक भारत के दुश्मनों की मौत कैसे हो रही है? क्या इसमें भारत की एजेंसियों का रोल है? हरदीप सिंह पुरी ने कहा, क्या इन लोगों की मौत पर हम सब रोयें? मैं विदेश और सुरक्षा मामलों से जुड़ा नहीं हूं, लेकिन मैं कह सकता हूं कि ये हमारी स्टाइल नहीं है, भले ही लोग कहें कि ऐसे लोगों की हत्या होनी चाहिए। (इनकी हत्या होनी चाहिए) ये आप कह सकते हैं, मैं नहीं। हो सकता है आपस में दुश्मनी हो, जैसे कि बलूचिस्तान में हो रहा है। पर हमें याद रखना चाहिए कि लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने यहां क्या किया। मोदी जी के आने के बाद उनकी decision making देखिए, कश्मीर में श्रीनगर स्मार्ट सिटी बनाने के लिए ads आ रहे हैं, कश्मीर जाने वाली उड़ानों की समख्या बढ़ रही है।’ एक तरफ पाकिस्तान में आतंकी मारे जा रहे हैं तो वहीं संविधान से धारा 370 हटने के बाद भारत में आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है।

गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में बुधवार को बताया कि 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद, आतंकी घटनाओं में कमी आई है। इसमे कोई शक नहीं कि आतंकवाद की घटनाएं कम तब होती हैं, जब आतंकवादी डर कर बिलों में घुस जाते हैं। अब सवाल ये है कि पाकिस्तान में बैठे इन आतंकवादियों को किसने डराया? इनका हिसाब किसने बराबर किया? पाकिस्तान में मीडिया कह रहा है कि इंडियन इंटेलिजेंस एजेंट्स का काम है। पाकिस्तान में सिक्योरिटी एक्सपर्ट इसे हमारी RAW का काम बता रहे हैं। अगर हमारी इंटेलिजेंस इतनी ताकतवर है कि वो पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों का सफाया कर रही है, तो ये तो गर्व की बात है। अगर हमारी RAW के सीक्रेट एजेंट्स भारत में हुए आतंकवादी हमलों में मारे गए बेकसूर लोगों की हत्याओं का बदला ले रहे हैं, तो इसमें बुरा क्या है?

ये कड़वा सच है कि पाकिस्तान को डोजियर भेजने से कुछ नहीं हुआ। पाकिस्तान को इन दहशतगर्दों की, नापाक हरकतों के सबूत देने का कोई असर नहीं हुआ। इंटरनेशनल forums पर आवाज उठाने का भी कोई नतीजा नहीं निकला। ऐसे लोगों को उनकी भाषा में जवाब देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन सरकार यही कहेगी कि ये भारत की पॉलिसी नहीं है। अमेरिका भी कहेगा कि आप दूसरों की धरती पर जाकर बदला कैसे ले सकते हैं। पर अमेरिका से कोई पूछे कि उसने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को क्यों मारा था?

उस पर पाकिस्तान की अदालतों में मुकदमा क्यों नहीं चलाया गया? सच तो ये है कि पाकिस्तान खूंखार आतंकवादियों के लिए सुरक्षित शरणस्थल बना हुआ है। अभी भी हाफिज सईद, मसूद अज़हर, दाऊद इब्राहिम, अब्दुल रहमान मक्की जैसे आतंकवादी पाकिस्तान में मौजूद हैं। क्या हिंदुस्तान को ये हक़ नहीं है उसके मासूम नागरिकों की हत्या करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाया जाए? इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान में आतंकियों के टारगेटेड किलिंग को लेकर भारत पर दोष मढ़ा जा रहा है। अच्छी बात तो ये है कि पाकिस्तान में इस बात की चर्चा है कि ये बदला हुआ भारत है, जो घर में घुसकर मारता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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लोकसभा चुनावों में मोदी मैजिक विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती: विनोद अग्निहोत्री

मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के विकल्प के तौर पर पार्टी में नया नेतृत्व तैयार कर सकता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 07 December, 2023
Last Modified:
Thursday, 07 December, 2023
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विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से उत्तर भारत के तीन प्रमुख राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में शानदार जीत दर्ज करके उन सारे आकलनों और अनुमानों को ध्वस्त कर दिया है, जो यह मानकर चल रहे थे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत तय है और तेलंगाना में भी कांग्रेस सरकार बना सकती है। जबकि राजस्थान में कांटे की टक्कर में भाजपा, कांग्रेस में किसी का भी दांव लग सकता है।

अगर ऐसा होता तो माना जाता कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को कांग्रेस और विपक्ष से कड़ी चुनौती मिलेगी। लेकिन जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यों के छत्रपों की जगह खुद को आगे करके यह चुनाव लड़ने का जोखिम उठाया, उससे साबित हो गया कि इस शानदार जीत के पीछे भाजपा की रणनीति और मोदी मैजिक सबसे बड़ा कारण है। इसलिए कहा जा सकता है कि जो मोदी मैजिक विधानसभा चुनावों में इतना कारगर हो सकता है, वो लोकसभा चुनावों में जब खुद प्रधानमंत्री मोदी अपने लिए वोट मांगेंगे तो इससे भी ज्यादा कारगर क्यों नहीं होगा।

जाहिर है इन नतीजों ने भाजपा की उम्मीदों और भरोसे को पंख लगा दिए हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन राज्यों की हैट्रिक जीत को 2024 में भाजपा की लोकसभा चुनावों में जीत की हैट्रिक की गारंटी बताया है। इन नतीजों से भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के भीतर पहले से ही मौजूद भाजपा और मजबूत होगी और सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे में उठ सकने वाले असंतोष के स्वर न सिर्फ खामोश होंगे, बल्कि सहयोगी भाजपा की इच्छानुसार सीट बंटवारे के हर फॉर्मूले को सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे।

बिहार की हाजीपुर सीट के लिए न चिराग पासवान बाल हठ कर सकेंगे और न ही उनके चाचा पशुपति पारस ही हाजीपुर न मिलने पर एनडीए से बाहर जाने की सोच सकेंगे। जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा भी प्रसाद में जो मिलेगा उस पर ही खुश रहेंगे। कुछ इसी तरह उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल का अपना दल और ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा सीट बंटवारे को लेकर आंखें नहीं तरेर सकेंगे। महाराष्ट्र में भी भाजपा ही तय करेगी कि लोकसभा की 48 सीटों में सहयोगी दलों शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजीत पवार) कितनी और कौन सी सीटों पर लड़ेंगे।

इस लिहाज से लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर आए विधानसभा चुनावों के इन नतीजों से न सिर्फ भाजपा का दबदबा बढ़ गया है, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी का कद पार्टी के भीतर और बाहर और बड़ा हो गया है। अब भाजपा नेतृत्व आसानी से मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के विकल्प के तौर पर पार्टी में नया नेतृत्व तैयार कर सकता है, क्योंकि ये चुनाव इन छत्रपों के नाम पर नहीं बल्कि पार्टी के निशान कमल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटी पर जीते गए हैं। भाजपा की अंदरूनी राजनीति में यह एक निर्णायक मोड़ है, जब अटल-आडवाणी युग के क्षेत्रीय छत्रपों की जगह पार्टी उत्तर भारत के इन तीन प्रमुख राज्यों में नया नेतृत्व विकसित करेगी। हालांकि इन तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की भीड़ की वजह से यह एक चुनौती भी है, लेकिन भाजपा का मौजूदा नेतृत्व इन चुनौतियों के बखूबी निपटना जानता है।

उधर कांग्रेस के लिए ये नतीजे बेहद निराशाजनक हैं। सिर्फ दक्षिण भारत से तेलंगाना की जीत ने उसे कुछ राहत दी है। हालांकि यह भी सच है कि जब-जब कांग्रेस संकट में आई है, उसे दक्षिण भारत ने ही सहारा दिया है। 1977 में जब पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था, तब दक्षिण के तत्कालीन चारों राज्यों ने कांग्रेस का ही परचम लहराया था। सत्ताच्युत हुई इंदिरा गांधी को पहले कर्नाटक के चिकमंगलूर, फिर तब आंध्र प्रदेश और अब तेलंगाना की मेडक सीट ने लोकसभा में भेजा। 2004 में भी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की बुनियाद आंध्र प्रदेश की जीत बनी थी। 2019 में अमेठी से हारे राहुल गांधी को केरल की वायनाड सीट ने भारी मतों से लोकसभा में भेजा और अब भी पहले कर्नाटक और अब तेलंगाना में कांग्रेस की जीत ने उसे हौसला दिया है।

लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की हार ने विपक्षी इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को कांग्रेस को दबाव में लेने का मौका दे दिया है। जबकि कांग्रेस के नेता सोच रहे थे कि इन तीनों राज्यों और तेलंगाना जीतने के बाद इंडिया गठबंधन में कांग्रेस का नेतृत्व और दबदबा स्वीकार कर लिया जाएगा और सीट बंटवारे में सहयोगी दल झुक कर नरमी से बात करेंगे। लेकिन अब सहयोगी दलों ने अपना दबाव बढ़ा दिया है। समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कांफ्रैंस, जनता दल(यू) के नेताओं ने तो खुलकर कहा है कि अगर कांग्रेस अहंकार की बजाय कुछ सहयोगी दलों के साथ सीट बंटवारा करके चुनाव लड़ी होती, तो नतीजे कुछ और होते। यह अलग बात है कि जिन सहयोगी दलों ने इन राज्यों में चुनाव लड़ा, उन्हें न तो कोई सीट मिली और उनका वोट भी पूरी तरह खिसक गया।

सपा के एक नेता के मुताबिक भले ही ये नतीजे अभी निराशा पैदा करने वाले हैं, लेकिन इनका विपक्ष को एक बड़ा फायदा ये होगा कि सीट बंटवारा अब आसानी से हो जाएगा क्योंकि अब कांग्रेस का अड़ियलपन भी खत्म होगा और उसे गठबंधन की जरूरत भी ज्यादा होगी। यानी अगर कांग्रेस तीन या चार राज्यों में जीतती तो कांग्रेस के साथ गठबंधन करना सहयोगी दलों की राजनीतिक मजबूरी होती और अब लड़खड़ाई कांग्रेस के सामने भाजपा से लड़ने के लिए सहयोगी दलों के साथ मजबूती से बने रहने की मजबूरी है। इसलिए इंडिया गठबंधन में ज्यादा मजबूती आएगी और सभी सहयोगी समान स्तर से बातचीत करके लोकसभा सीटों का एक तार्किक और जिताऊ बंटवारा कर सकेंगे। ऐसा होने पर 2024 में भाजपा को कड़ी चुनौती दी जा सकेगी। कांग्रेस मीडिया विभाग के प्रभारी जयराम रमेश तो अपने कार्यकर्ताओं को 2003 के विधानसभा चुनाव और 2004 के लोकसभा चुनावों के नतीजे याद दिलाकर उनका हौसला बढ़ा रहे हैं। जयराम के मुताबिक 2003 में भाजपा मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जीती थी, लेकिन 2004 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी और सरकार बनाई। हालांकि तब कांग्रेस का मुकाबला उदारमना अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार से हुआ था और 2024 में आक्रामक छवि वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा से होगा।

लेकिन तेलंगाना की शानदार जीत ने दक्षिण भारत में कांग्रेस को मजबूत किया है। तेलंगाना का असर पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में भी पड़ सकता है, जैसे कर्नाटक की जीत का फायदा कांग्रेस को तेलंगाना में मिला। लेकिन इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के पास कोई रेवंत रेड्डी जैसा मेहनती और जमीन से जुड़ा कोई नेता नहीं है। हालांकि आंध्र प्रदेश में सत्तारुढ़ जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस का मुकाबला पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम से है, लेकिन पिछले दिनों भ्रष्टाचार के आरोप में चंद्रबाबू नायडू की गिरफ्तारी ने तेलुगू देशम को अस्त व्यस्त किया है। ऐसे में कांग्रेस वहां अपनी खोई जमीन पा सकती है, बशर्ते उसके पास एक मजबूत स्थानीय नेतृत्व हो।

उड़ीसा में कांग्रेस लंबे समय से सत्ता से बाहर है, इसके बावजूद उसके पास करीब 24 फीसदी जनाधार है। लेकिन पार्टी के पास कोई ऐसा मजबूत चेहरा नहीं है, जिसकी पूरे उड़ीसा में पहचान और पकड़ हो। जबकि चुनौती विहीन नवीन पटनायक का करिश्मा अब धीरे-धीरे उतार पर है। भाजपा इस शून्य को भरने की कोशिश कर रही है। ऐसे में अगर कांग्रेस वहां किसी स्थानीय नेता को आगे करके मेहनत करे तो वह कुछ सफलता पा सकती है। इसलिए तेलंगाना की सफलता कांग्रेस के लिए आंध्र और उड़ीसा में कुछ नई संभावनाओं के द्वार खोल सकती है।

भाजपा में जीत का पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे, गृह मंत्री अमित शाह की रणनीति और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा की मेहनत को दिया जा रहा है, लेकिन कांग्रेस में हार के लिए कौन जिम्मदार है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की सार्वजनिक खींचतान, टिकटों के बेहद गलत बंटवारे और आखिरी 15 दिनों में पार्टी का चुनाव अभियान के बुरी तरह पिछड़ने को इस बुरी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। साथ ही कांग्रेस अगर समाजवादी पार्टी और आदिवासी पार्टीयों के साथ एक बेहतर तालमेल कर लेती, तो नतीजे इतने खराब नहीं होते।

राजस्थान में पूरा चुनाव अशोक गहलोत के चेहरे, सरकार के काम और योजनाओं पर ही लड़ा गया। गहलोत और पायलट का संघर्ष विराम तो हो गया था, लेकिन दोनों के बीच की दूरी कम करने के लिए उनका कोई संयुक्त कार्यक्रम नहीं बना और लोगों में उनके मनमुटाव की आशंका बनी रही। गहलोत सरकार और खुद गहलोत से कहीं कोई नाराजगी नहीं थी, बल्कि सरकार की योजनाओं के प्रति लोगों में आकर्षण और समर्थन भी था, लेकिन सत्ताधारी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ जबर्दस्त रोष था। उनके टिकट न काटना भी कांग्रेस को भारी पड़ा। इसीलिए कई ऐसे चेहरे जिन्हें पहली बार मैदान में उतारा गया अच्छी बढ़त से जीते, लेकिन 25 में 17 मंत्रियों समेत कई विधायक बुरी तरह चुनाव हार गए।

कहा जा रहा है कि अगर करीब 30 से 40 उन विधायाकों, जिनकी सर्वे रिपोर्ट ठीक नहीं थी, के टिकट कट जाते तो नतीजे बदल सकते थे। दूसरा भाजपा ने जिस तरह ध्रुवीकरण का कार्ड खेला कांग्रेस मजबूती से उसका मुकाबला नहीं कर सकी। उदयपुर के कन्हैयालाल हत्याकांड का जिक्र खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सभाओं में किया और भाजपा पूरे प्रचार में वह एक मुद्दा था, लेकिन कांग्रेस उसका यह जवाब नहीं दे सकी कि कन्हैयालाल की हत्या में शामिल सभी अभियुक्त 24 घंटे के भीतर पकड़ लिए गए। कन्हैया लाल के परिवार को पर्याप्त मुआवजा राशि और एक सदस्य को सरकारी नौकरी दे दी गई।

ऐसे ही महिला सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा ने जिस आक्रामकता से राजस्थान में गहलोत सरकार को घेरा, लेकिन कांग्रेस मणिपुर, महिला पहलवानों के मामलों को मुद्दा नहीं बना सकी। राजस्थान में अग्निवीर एक बड़ा मुद्दा बन सकता था, जिसे बनाने में कांग्रेस विफल रही। पूरा चुनाव अशोक गहलौत के भरोसे लड़ा गया जबकि नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे चुनाव लड़ने वाली भाजपा ने अपने तमाम अंदरूनी झगड़ों के बावजूद राज्य स्तर पर सामूहिक नेतृत्व को अपनी ताकत बना लिया। अशोक गहलोत को इसका श्रेय दिया जा सकता है कि अपनी सरकार की योजनाओं और सघन प्रचार के बल पर उन्होंने कांग्रेस को मुकाबले में तो ला दिया, लेकिन रणनीति में कमजोर साबित हुए और जीत से चूक गए। क्योंकि चुनावों में मुद्दों और प्रचार के साथ-साथ रणनीति का भी विशेष महत्व होता है।

मध्यप्रदेश में कमलनाथ के अहंकार और नेताओं के साथ असहयोग ने सारा चौपट कर दिया। जिला स्तर के कांग्रेस नेताओं ने चुनाव शुरू होने से पहले ही यह कहना शुरू कर दिया था कि जनता में कांग्रेस के प्रति सकारात्मकता और सहानुभूति के बावजूद पार्टी प्रचार और संपर्क में पिछड़ती जा रही है। खुद कमलनाथ जहां दिन में बमुश्किल एक सभा करते थे, वहीं शिवराज सिंह चौहान 12 से 15 सभाएं करते थे। मतदान से एक पखवाड़े पहले ही कांग्रेस का चुनाव प्रचार ठंडा पड़ गया था। सिर्फ बड़े नेताओं की रैलियों के सिवा स्थानीय स्तर पर होने वाले चुनाव सभाएं कम होती गईं और उम्मीदवारों को प्रदेश कांग्रेस से वो सहयोग और सहायता नहीं मिल रही थी, जिसकी उन्हें दरकार थी।

दिल्ली से गए कई नेता भोपाल और इंदौर में ही बैठे रहे और इंतजार करते रहे कि उन्हें कहीं भेजा जाए। होर्डिंग, विज्ञापन और बैनर भी भाजपा के मुकाबले बहुत कम नजर आए। शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना के असर को आंकने में कांग्रेस बुरी तरह विफल रही और उसकी कोई ठोस काट नहीं खोज पाई। आदिवासियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के खोए जनाधार को मजबूत करने के लिए राष्ट्रपति पद पर आदिवासी महिला को लाने से लेकर झारखंड में बीरसा मुंडा जयंती के अवसर अनेक घोषणाएं करने जैसे कदम उठाए। जबकि कांग्रेस सीधी जिले में एक आदिवासी युवक के साथ हुए अपमानजनक व्यवहार और नए संसद भवन के उद्घाटन में आदिवासी महिला राष्ट्रपति को न बुलाने जैसी घटनाओं तक को जवाबी मुद्दा नहीं बना सकी। कांग्रेस नेताओं ने चुनावों के एलान से पहले ही खुद को जीता हुआ मानकर टिकट बंटवारे में मनमानी की और सामाजिक और स्थानीय समीकरणों को बुरी तरह अनदेखा किया।

छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अति आत्मविश्वास का शिकार हुए। कांग्रेस नेतृत्व ने भी बघेल पर पूरा भरोसा किया और जैसा उन्होंने कहा वैसा ही किया। बघेल के कहने पर करीब 16 ऐसे विधायकों के टिकट काटे गए, जो 20 से 25 हजार की बढ़त से जीते थे और जिनकी जीत की फिर संभावना थी। लेकिन क्योंकि इन विधायकों की वफादारी बघेल से ज्यादा टीएस सिंहदेव के साथ थी, इसलिए उन्हें मैदान से बाहर कर दिया गया। इसका खामियाजा पार्टी को हार के रूप में उठाना पड़ा। 2018 में राज्य में पिछड़ों और आदिवासियों की एकता ने कांग्रेस की प्रचंड बहुमत की सरकार बनवाई और 15 साल के भाजपा शासन से बदलाव के लिए शहरी वोट भी कांग्रेस को मिला था। वादे के बावजूद शराब बंदी न करने से महिलाएं नाराज हुईं। राज्य की सबसे बड़ी पिछड़ी आबादी साहू समाज की जिस तरह उपेक्षा हुई, उसने कांग्रेस के पिछड़े जनाधार को बिखेर दिया और भाजपा ने उसमें सेंधमारी की। टीएस सिंहदेव की उपेक्षा ने सरगुजा क्षेत्र में कांग्रेस को कमजोर किया और रही सही कसर मतदान से कुछ दिन पहले ईडी की छापेमारी और महादेव एप को लेकर सीधे मुख्यमंत्री पर लगे आरोपों ने पूरी कर दी और शहरी मतदाताओं का रुझान भी बदल गया।

हालांकि मतदान के प्रतिशत का विश्लेषण करें, तो तीनों राज्यों में कांग्रेस न सिर्फ अपना मत प्रतिशत बनाए रखने में कामयाब रही बल्कि कहीं उसमें इजाफा भी हुआ। तीनों ही राज्यों में उसका मत प्रतिशत 40 फीसदी के आसपास या उससे ज्यादा है। इससे जाहिर है कि लोगों ने कांग्रेस को वोट तो दिया, लेकिन भाजपा ने अपनी रणनीति और मोदी करिश्मे से उन मतदाताओं, जो कांग्रेस भाजपा से इतर के दलों को मिलते रहे हैं, उन्हें अपनी तरफ खींचकर अपना मत प्रतिशत बढ़ाया और सीटों की संख्या में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी कर ली।

मध्यप्रदेश में उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे जिलों में समाजवादी पार्टी का परंपरागत वोट हर विधानसभा क्षेत्र में पांच से 15 हजार तक रहा है। लेकिन सपा से गठबंधन न करने और सपा-कांग्रेस की तूतू-मैंमैं से इन मतदाताओं ने सपा को छोड़कर कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए भाजपा को वोट दिया, जिसका फायदा भाजपा को उन सीटों पर मिला, जहां उसके उम्मीदवार बहुत कम अंतर से जीते हैं। पिछले चुनाव में आदिवासी दलों का समर्थन कांग्रेस को मिला था, जिसे इस बार कांग्रेस बरकरार नहीं रख सकी।

इसी तरह राजस्थान में पश्चिमी जिलों में माकपा का कुछ परंपरागत जनाधार है। अगर कांग्रेस माकपा, हनुमान बेनीवाल की पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ एक व्यवहारिक गठबंधन कर लेती, तो उसे कुछ सीटों पर इसका फायदा मिलता। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे दोनों ही राज्यों में इन दलों के साथ गठबंधन चाहते थे, लेकिन कमलनाथ और अशोक गहलोत ने ऐसा नहीं होने दिया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं। साभार-अमर उजाला डिजिटल )

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‘कोप भवन’ से बाहर आकर तेलंगाना के लिए तालियां बजाए कांग्रेस: श्रवण गर्ग

कल्पना कीजिये कि अगर तेलंगाना में भी भाजपा की योजना सफल हो जाती तो क्या होता?

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Wednesday, 06 December, 2023
Last Modified:
Wednesday, 06 December, 2023
ShravanGarg45128

श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

मतपत्रों की गिनती से मिले नतीजों पर मत जाइए कि भाजपा ने मध्यप्रदेश और राजस्थान के साथ-साथ अविश्वसनीय तरीके से छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस का सफाया कर दिया है । ये नतीजे ‘असली’ नहीं हैं। ‘असली’ नतीजे यही हैं कि भाजपा पराजित हुई है।। प्राप्त परिणाम बराबरी के मैदान पर ‘ईमानदारी’ से लड़े गए चुनावों के नहीं हैं जैसा कि 2018 में देखा गया था। इन चुनावों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया था और प्राणों की बाज़ी लगा दी थी। ख़ासकर मध्यप्रदेश और राजस्थान में ।

तेलंगाना के परिणाम भाजपा पहले से जानती थी। भाजपा की कोशिश तो बस केसीआर की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करके वहाँ किसी भी तरह कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकने की थी। उसमें न तो उसे और न ही ओवैसी को सफलता मिली। मतदाताओं के बीच सांप्रदायिक ध्रूवीकरण कर देने की सारी कोशिशें विफल हो गईं। विश्वप्रसिद्ध मंदिरों के राज्य तेलंगाना में हिंदू आबादी 85 प्रतिशत है। तीन राज्यों में हुई हार के बाद से कांग्रेस में इतना ज़्यादा मातम छाया हुआ है कि वह ‘कोप भवन’ से बाहर निकलकर तेलंगाना की ऐतिहासिक जीत पर तालियाँ ही नहीं बजाना चाहती। कल्पना कीजिये कि अगर तेलंगाना में भी भाजपा की योजना सफल हो जाती तो क्या होता ?

पूछा जा सकता है कि चुनाव-परिणामों के निष्कर्ष क्या हैं ? निष्कर्ष केवल दो हैं : पहला तो यह कि सिर्फ़ चार राज्यों के चुनाव प्रचार में ही पीएम को अगर अपना सारा कामकाज छोड़कर इतनी ताक़त झोंकना पड़ी तो केंद्र की सत्ता में वापसी के लिए चार महीने बाद ही होने वाले लोकसभा चुनावों में मोदी क्या करने वाले हैं ? मिज़ोरम में तो पीएम ने पैर भी नहीं रखा ? कारण भाजपा ही बता सकती है !

दूसरा निष्कर्ष यह कि अगर विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच बना दिए गए थे तो ‘फ़ीनिक्स’ की तरह राहुल ने देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को तेलंगाना में राख से पुनर्जीवित करके दिखा दिया। सत्ता द्वारा जेल की देहरी तक धकेल दिए जाने के बावजूद राहुल लौटकर लड़ाई के मैदान में पहुँच गए। हिमाचल विजय के बाद पहले कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर किया और फिर उससे लगे तेलंगाना में भी कांग्रेस को शीर्ष पर लाकर दक्षिण भारत के प्रवेश के द्वार को ही भाजपा के लिए बंद कर दिया।

तीन राज्यों में विजय के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधन में दक्षिण भारत पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करने के आह्वान में पीएम की चिंता को टटोला जा सकता है। (स्मरण किया जा सकता है कि पीएम और अमित शाह ने कर्नाटक में किस तरह की मेहनत और रोड-शो किए थे।) केरल से लगाकर उड़ीसा तक छह राज्यों में लोकसभा की डेढ़ सौ सीटें हैं और भाजपा कहीं भी सत्ता में नहीं है। ममता के पश्चिम बंगाल (42 सीटें) ,नीतीश-तेजस्वी के बिहार (40 सीटें) और सोरेन के झारखंड (14 सीटें )को भी जोड़ लिया जाए तो भाजपा के लिए चुनौती लगभग 250 सीटों की हो जाती है। लोकसभा की कुल 543 सीटों में भाजपा ने पिछली बार 303 जीतीं थीं।

मध्यप्रदेश के सिलसिले में तर्क दिया गया था कि अठारह सालों से लगातार सत्ता में बने रहे के कारण शिवराज सिंह के ख़िलाफ़ क़ायम हुई ज़बर्दस्त एंटी-इंकम्बेंसी (सत्ता-विरोधी लहर) से जनता का ध्यान हटाने के लिए ही तीन केंद्रीय मंत्रियों सहित छह सांसदों और एक महासचिव को चुनाव में उतारा गया । यह तर्क इसलिए गले नहीं उतरता कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में तो भाजपा सत्ता में नहीं थीं। जब एमपी की तरह इन राज्यों में पार्टी के ख़िलाफ़ एंटी-इंकम्बेंसी का कोई कारण नहीं था तो वहाँ भी इतने भाजपा सांसदों को विधानसभा चुनाव क्यों लड़वाया गया ?

ज़ाहिर है पीएम विधानसभा चुनावों के नतीजों को लोकसभा मुक़ाबलों की रिहर्सल के तौर पर परखना चाह रहे होंगे । लोकसभा चुनाव पीएम को अपना ही चेहरा और तिलिस्म सामने रखकर लड़ना है। इसीलिए हिमाचल और कर्नाटक की तरह इन चारों राज्यों में भी उन्होंने ‘कमल’ के साथ अपने ही चेहरे को दाव पर लगाया। सांसदों को विधानसभा लड़वाकर नब्ज टटोलना चाह थे कि संघ और भाजपा के लिए रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले हिन्दी भाषी राज्यों में उनकी 2014 और 2019 वाली चमक कितनी क़ायम है। (एमपी में सात में से दो सांसद विधानसभा चुनाव हार गए )।गुजरात को भी जोड़ लें तो चारों राज्यों में लोकसभा की 91 सीटें हैं। इनमें भाजपा के पास अभी 87 हैं। तेलंगाना में भाजपा के पास राज्य की 17 में से चार सीटें हैं।

मध्यप्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में लाने के लिए क्या-क्या किया गया बताना हो तो : पीएम ने कोई सवा दर्जन से अधिक यात्राएँ कीं। अमित शाह प्रदेश में ही लगभग बने रहे। करोड़ों लोगों को मुफ़्त के अनाज के साथ-साथ  ‘लाड़ली बहना’ जैसी बीसियों योजनाओं के लिए ख़ज़ाने को ख़ाली कर दिया गया। ‘ज़रूरतमंद’ मतदाताओं के ‘अभावों’ को हर संभव योजना के बल पर वोटों के रूप में प्राप्त करने (ख़रीद लेने?) के टोटके आज़माए गए। संघ की पूरी ताक़त के साथ-साथ पड़ौसी प्रदेशों से बुलाकर तैनात की गई कार्यकर्ताओं की फ़ौज चुनाव में झोंक दी गई। नौकरशाही को पार्टी के साथ ‘सहयोग’ नहीं करने के परिणाम के बारे में खुले तौर पर चेतावनी दे दी गई।

कांग्रेस को हराने के प्रयासों में यह भी शामिल किया जा सकता है कि बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी द्वारा खड़े किए गये 229 उम्मीदवारों के अतिरिक्त सपा ने भी अपने 69 प्रत्याशी मैदान में उतार दिए। इनके अलावा ‘वोट काटने के लिए’ आदिवासी संगठन ‘जयस’ और भीम सेना या आज़ाद समाज पार्टी के सैंकड़ों उम्मीदवार और बीसियों निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में थे। कमलनाथ को सबक़ सिखाने के लिए अखिलेश यादवने बीस सीटों पर दो दर्जन रैलियाँ कीं। पिछले चुनाव में 37 सीटें ऐसी थीं जहां बसपा/सपा/गोंडवाना पार्टी ने हार-जीत के समीकरण बिगाड़े थे। कई स्थानों पर इन दलों के उम्मीदवार भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रहे थे।

अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को कथित तौर पर कह दिया था कि वे सपा और बसपा उम्मीदवारों की हर संभव मदद करें क्योंकि वे कांग्रेस के ही वोट काटेंगे। तीन दिसंबर के परिणामों के सूक्ष्म विश्लेषण के बाद पता चल पाएगा कि सपा/बसपा,आदि दलों और बाग़ियों ने सम्मिलित रूप से कांग्रेस का कितना खेल बिगाड़ा और उससे कितने भाजपा उम्मीदवारों को जीतने में मदद मिली।

मध्यप्रदेश में भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस की उपलब्धि उसे प्राप्त कुल सीटों (66) और वोट शेयर (40.4%) से अधिक इस बात से आंकना चाहिए कि उसका मुक़ाबला कितनी बड़ी ताक़त और उसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करने वाली निहित स्वार्थों की जमात से था। प्रधानमंत्री अगर चुनाव को 2018 की तरह ही लड़ते तो उसके परिणाम क्या तीन दिसंबर जैसे ही निकलते ?  क्या तब उनके और भाजपा के ख़िलाफ़ व्याप्त जनता की नाराज़गी की असली लहर का लोकसभा के पहले ही पता नहीं चल जाता ? ऐसा नहीं किया गया। जो एंटी-इंकम्बेंसी केंद्र के ख़िलाफ़ थी उसे राज्य सरकार के खाते में डालने के प्रयास किए गए पर चतुर शिवराज सिंह की ‘लाड़ली बहनों’ ने सबको बचा लिया। (पिछले साल नवंबर में हिमाचल में पराजय के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भाजपा की हार के कारणों के लिए कथित रूप से केंद्र सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया था।)

विधानसभा चुनावों के ‘अघोषित’ नतीजे यह हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत केवल तेलंगाना में ही नहीं बल्कि ‘सभी राज्यों’ में हुई है। प्रधानमंत्री को लोकसभा के लिए तैयारी नए सिरे से करना पड़ेगी । कारण यह कि विधानसभा चुनावों पर ही भाजपा इतना सब लुटा चुकी है कि मतदाताओं को देने के लिए उसके पास मंदिर, राष्ट्रवाद और ‘कन्हैयालालकी कहानी’ के अलावा कुछ नहीं बचा है ! भाजपा क्या केवल इनके दम ही दिल्ली की सत्ता में वापस आ जाएगी ?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत को कटघरे में लाने से पहले अमेरिका अपने घोर पापों का हिसाब दे: आलोक मेहता

विदेश मंत्रालय ने कहा है कि ऐसे मामलों को हम गंभीरता से लेते हैं। जांच समिति पहले से ही बनाई गई है।

आलोक मेहता by
Published - Tuesday, 05 December, 2023
Last Modified:
Tuesday, 05 December, 2023
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

भारत सरकार और भारतीयों की उदारता और मित्रता का कई देश लाभ उठा लेते हैं। अमेरिका यह काम वर्षों से करता रहा है लेकिन दुनिया पर दादागिरी की नीति के कारण अनुचित मुद्दों और गंभीर संकट की स्थितियों में भारत को परेशानी में डाल देता है। भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों और नेताओं को पनाह देता  रहा है। पाकिस्तान से जुड़े तालिबानी या खालिस्तानी आतंकी आरोपियों को अमेरिकी मानव अधिकार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बचने के अवसर देता है। अब एक खालिस्तानी आतंकी आरोपी पन्नू की हत्या के षड्यंत्र में कुछ भारतीयों का संदिग्ध हाथ होने के मामले को उछाल दिया है जबकि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वह आतंकवाद से निपटने के लिए सबसे अधिक भारत का सहयोग मांगता है।

जहां तक कानून की बात है, इस सदी के सबसे भयावह त्रासदी भोपाल गैस कांड के लिए जिम्मेदार अमेरिकी कंपनी के अमेरिकी अपराधियों को सजा देने और पर्याप्त मुआवजा देने के मामले अब भी लटकाए हुए है। 1984 में अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कंपनी के गैस रिसाव से सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों आज तक शारीरिक कष्ट झेल रहे हैं। अमेरिकी सरकार ने तब भारतीय नेताओं और अधिकारियों पर दबाव डालकर कम्पनी के मुख्य आरोपी अधिकारी वारेन एंडरसन को रातों रात भारत से निकाल लिया और उसे हजारों की हत्या के आरोप में फांसी की सजा से पूरी तरह जीवन पर्यन्त बचाए रखा। इस तरह के कितने ही गंभीर पापों का रिकॉर्ड दुनिया के सामने है।

अमेरिका में एक खालिस्तानी आतंकी की कथित तौर पर हत्या की साजिश में भारतीय नागरिक के शामिल होने के आरोपों पर भारत के विदेश मंत्रालय ने चिंता जताई है। विदेश मंत्रालय ने कहा है कि ऐसे मामलों को हम गंभीरता से लेते हैं ,जांच समिति पहले से ही बनाई गई है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने  कहा कि भारत ने मामले के सभी प्रासंगिक पहलुओं पर गौर करने के लिए 18 नवंबर को एक उच्च स्तरीय जांच समिति का गठन किया गया है। अमेरिकी अख़बार वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा, अलगाववादी नेता की हत्या की साजिश का पता चलने के बाद बाइडन प्रशासन इतना चिंतित था कि उसने सीआईए निदेशक विलियम जे बर्न्स और राष्ट्रीय खुफिया निदेशक एवरिल हेन्स को क्रमशः अगस्त और अक्टूबर में जांच की मांग करने और इसमें संलिप्त लोगों की जवाबदेही तय करने के लिए भारत भेजा।

अमेरिका की ओर से इस तरह के दावे किए जाने के बाद कनाडाई पीएम जस्टिन ट्रूडो ने एक बार फिर भारत को घेरा है। उन्होंने कहा है कि जिस तरह का दावा अमेरिका ने किया है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि उच्च स्तरीय जांच समिति पहले से ही बनाई गई है। कनाडा सरकार से आशा है कि वियेना कन्वेंशन के तहत व्यवहार करे। अमेरिकी अधिकारियों ने कहा कि एक अलगाववादी नेता और अमेरिकी नागरिक की हत्या की साजिश में भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू की गई है। अमेरिकी वकील डेमियन विलियम्स ने कहा, निखिल गुप्ता ने भारत से न्यूयॉर्क शहर में भारतीय मूल के एक अमेरिकी नागरिक की हत्या की साजिश रची। अमेरिकी अधिकारियों ने दावा किया कि न्यूयॉर्क शहर में रहने वाले सिख अलगाववादी नेता की हत्या से जुड़े आरोपों को निखिल ने स्वीकार किया है।

निखिल ने जिस हत्यारे को सुपारी दी थी, वह वास्तव में अमेरिकी खुफिया एजेंसी का अंडरकवर एजेंट था, लेकिन इससे यह तो जाहिर है कि अमेरिकी एजेंसी स्वयं ऐसे लोगों को तलाशती या उपयोग भी करती है। अमेरिका को भी ये पता है कि गुरपतवंत सिंह पन्नू, भले ही अमेरिकी नागरिक हो, लेकिन भारत उसे भगोड़ा खालिस्तानी आतंकी मानता है। यही नहीं, वो ये भी जानता है कि पन्नू, भारत विरोधी बयान और गतिविधियों में लिप्त रहता है। हाल ही में आतंकी पन्नू ने एयर इंडिया की फ्लाइट में धमाका करने की धमकी भी दी थी। भारत, चाहता है कि अमेरिका खालिस्तानी आतंकवादी गतिविधियों को लेकर उसकी चिंताओं को समझे, विदेशी जमीन से खालिस्तानी गतिविधियों को बढ़ावा देने वालों को लेकर, भारत ने वैश्विक मंचों से सवाल उठाने शुरू किए हैं। यही वजह है खालिस्तानी समर्थक हाल फिलहाल के वर्षों में ज्यादा आक्रामक नजर आए हैं।

गुरपतवंत सिंह पन्नू का संगठन सिख फॉर जस्टिस भी खालिस्तानी अलगाववाद को बढ़ावा देकर, भारत के टुकड़े करने के ख्वाब देखता है। यही वजह है भारत, उसे भारत लाकर, उस पर दर्ज किए गए आपराधिक मामले चलाना चाहता है। अमेरिका की नागरिकता, उसे बचा रही है। मुंबई में हुए बड़े आतंकी हमले से जुड़े अपराधी भी अमेरिका ने भारत को नहीं सौंपे। भारत ने समय समय पर खालिस्तानी आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू को भारत को सौंपने का मुद्दा उठाया है लेकिन अमेरिका ने इसको हमेशा नजरअंदाज किया है।

आतंक को लेकर अमेरिका समेत पश्चिमी देशों का दोहरा मापदंड है। अमेरिका ने तो ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में, जवाहिरी को अफगानिस्तान में, बगदादी को सीरिया में और ईरान रेवोल्यूशनरी गार्ड के मेजर जनरल कासिम सुलेमानी को ईराक में मार गिराया था। क्या अमेरिका के घोषित आतंकी, आतंकी हैं, और भारत द्वारा घोषित आतंकी, अमेरिका के सभ्य नागरिक? अमेरिका तो उन देशों में से है जो झूठे आरोप लगाकर इराक को बर्बाद कर चुका है। जैविक हथियार होने के आरोप लगाकर, उसने न सिर्फ इराक में भीषण कत्लेआम किया, बल्कि उसके पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम को फांसी दे दी थी। यही नहीं अमेरिका दादागीरी के इस स्तर पर रहा है, कि उसने अपनी खुफिया एजेंसी की मदद के कई लैटिन अमेरिकी देशों की वामपंथी सरकारों का तख्तापलट तक किया।

अमेरिकी सेना या खुफिया एजेंसी, जब किसी आतंकी को ढेर कर देती है, तो उसके राष्ट्रपति दुनिया के सामने आकर, अपना गुणगान करते हैं। आतंकवाद से युद्ध  के नाम पर अमेरिका, अपने दुश्मन को, किसी भी देश में मारने पहुंच जाता है, लेकिन यही अमेरिका, दूसरे देशों द्वारा घोषित आतंकियों को नागरिकता बांटकर, बचाता है। खालिस्तानी आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू इसका बड़ा उदाहण है। भोपाल गैस त्रासदी के समय यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडरसन की वर्षों बाद अस्पताल में मृत्यु हो गई। 2 और 3 दिसंबर, 1984 की मध्यरात्रि को हुए जहरीली गैस  कांड में  3,500 से अधिक लोग मारे गए और हजारों लोग अभी भी अपने स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को झेल रहे हैं।

ये जीवित बचे लोग फेफड़ों के कैंसर, किडनी फेलियर और लीवर की बीमारियों जैसी गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। यूनियन कार्बाइड के कारखाने से लगभग 40 टन 'मेथायिल अयिसोसायिनेट' गैस का रिसाव हुआ था। इस हादसे में यूनियन कार्बाइड के कारखाने के आस पास के इलाके सबसे ज्यादा प्रभावित हुई थी। वहीं सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस हादसे में मरने वालों की संख्या 5 हजार 295 के करीब थी। यूनियन कार्बाइड अमेरिका की रासायनिक कंपनी 'डॉव केमिकल' की शाखा थी। इस कम्पनी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील आपदा के 36 साल बाद, 1984 की भोपाल गैस त्रासदी से संबंधित सुनवाई के लिए अदालत में पहली बार उपस्थित हुए।

शुरुआती समन जारी होने के करीब 18 साल बाद मामले में सातवें समन पर वकील भोपाल कोर्ट में पेश हुए। यह सुनवाई त्रासदी के पीड़ितों की सहायता करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) द्वारा दायर एक आवेदन से संबंधित थी। डॉव केमिकल की प्रतिनिधि एमी विल्सन आंशिक रूप से कानूनी परामर्शदाता के माध्यम से उपस्थित हुईं। कार्यवाही के दौरान, डॉव केमिकल ने अदालत को एक पेज का संक्षिप्त ज्ञापन सौंपा, जिसमें अतिरिक्त समय का अनुरोध किया गया और कहा गया कि एक अमेरिकी निगम होने के नाते, यह भोपाल अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर आता है। लेकिन गैस कांड  पीड़ितों का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील अवि सिंह ने तर्क दिया कि 'आंशिक उपस्थिति' की अवधारणा की आपराधिक न्यायशास्त्र में कोई कानूनी मान्यता नहीं है।

डॉव केमिकल सम्मन को चुनिंदा रूप से चुनौती नहीं दे सकता है और उसे अदालत के निर्देश का पूरी तरह से पालन करना होगा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने की डॉव केमिकल की कोशिश पर 2005 में ही उच्च न्यायालय में फैसला सुनाया जा चुका था और उसे खारिज कर दिया गया था।उन्होंने यह भी बताया कि ' यदि डॉव केमिकल का अधिकृत प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने में विफल रहता है, तो अदालत के पास जमानती वारंट जारी करने और डॉव केमिकल की अनुपस्थिति में सुनवाई आगे बढ़ाने का अधिकार है।'  बहरहाल यह मामला अभी क़ानूनी दांव पेंच में जारी है।

यही नहीं पीड़ितों को मुआवजा भी नाम मात्र का मिला। यदि ऐसी भयावह हत्याएं और रोगों के शिकार अमेरिका में होते तो अरबों डालर और मौत की सजा होती। कई देशों में पुराने युद्ध अपराधियों को दशकों बाद मौत की सजा हुई है। भारत में  गैस कांड या आतंक से जुड़े लोगों को मृत्यु दंड कब मिलेगा ?

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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तेलंगाना में बीजेपी का बढ़ता जनाधार विपक्ष की परेशानी का सबब बनेगा: रजत शर्मा

कामारेड्डी में बीजेपी के उम्मीदवार वैंकेट रामन्ना रेड्डी ने रेवंत रेड्डी और केसीआर दोनों को हरा दिया। कामारेड्डी में केसीआर को 6,741 वोट से हरा दिया।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 05 December, 2023
Last Modified:
Tuesday, 05 December, 2023
rajatsharma

रजत शर्मा,  चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)

कांग्रेस के लिए कुछ राहत की खबर तेलंगाना से आई. तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनेगी, रेवंत रेड्डी मुख्यमंत्री बनने वाले हैं। तेलंगाना के लोगों ने दस साल से राज कर रहे केसीआर को वनवास पर भेज दिया।

तेलंगाना में कांग्रेस को बहुमत मिला है। 119 में से कांग्रेस को 64 सीटें मिली हैं, BRS को सिर्फ 39 सीटें मिली हैं। ओवैसी की पार्टी को पिछली बार भी सात सीटें मिली थी, इस बार भी सात सीटें मिली हैं लेकिन बड़ी बात ये है कि तेलंगाना में बीजेपी ओवैसी की पार्टी से बड़ी पार्टी हो गई है। बीजेपी को तेलंगाना में 8 सीटों पर जीत मिली हैं जबकि पिछले चुनाव में बीजेपी सिर्फ एक सीट जीती थी। सिर्फ तेलंगाना ऐसा राज्य है जिसमें एक्जिट पोल पूरी तरह सही साबित हुए। तेलंगाना में हार के बाद तो केसीआर सामने ही नहीं आए।

उन्होंने घर से ही राज्यपाल को इस्तीफा भेज दिया। दिलचस्प बात ये है कि तेलंगाना में रेवंत रेड्डी और केसीआर दोनों दो-दो सीटों से चुनाव लड़े थे, दोनों एक एक सीट से जीत गए, लेकिन कामारेड्डी सीट पर केसीआर और रेवंत रेड्डी आमने सामने थे और दोनों हार गए। कामारेड्डी में बीजेपी के उम्मीदवार वैंकेट रामन्ना रेड्डी ने रेवंत रेड्डी और केसीआर दोनों को हरा दिया।

कामारेड्डी में बीजेपी उम्मीदवार ने केसीआर को 6,741 वोट से हरा दिया। रेवंत रेड्डी तीसरे नंबर पर रहे। तेलंगाना में भले ही कांग्रेस की सरकार बन गई है लेकिन बीजेपी ने जिस तरह से तेलंगाना में अपना जनाधार बढ़ाया है,  सीटों की संख्या बढ़ी है, उससे कांग्रेस, केसीआर और ओवैसी तीनों की परेशानी बढ़ेगी। चुनाव नतीजे केसीआर की पार्टी के लिए खतरे की घंटी है।

केसीआर ने अपनी पार्टी का नाम सिर्फ इसलिए बदला था क्योंकि वो अब राष्ट्रीय राजनीति में आना चाहते थे। केसीआर तेलंगाना में जीत के प्रति आश्वस्त थे। वो चाहते थे कि चुनाव के बाद वो तेलंगाना की सत्ता बेटे के. टी. रामाराव को सौंप कर खुद राष्ट्रीय राजनीति करेंगे लेकिन जनता ने उनका प्लान चौपट कर दिया। अब हालात ऐसी है कि हो सकता है केसीआर को पार्टी का नाम BRS से बदलकर फिर से TRS करना पड़े।

इस बार तेलंगाना में कांग्रेस का पूरा जोर मुस्लिम वोट बैंक पर कब्जा करने पर था। उसमें कांग्रेस कामयाब हुई लेकिन अब बीजेपी इसका फायदा उठाएगी और हिन्दू मतदाताओं को एकजुट करेगी। इसका असर लोकसभा चुनाव में दिखेगा। इसीलिए रविवार को मोदी ने कहा कि तेलंगाना के लोगों ने बीजेपी के लिए दरवाजे खोले हैं, अब वो दिन दूर नहीं जब तेलंगाना की जनता बीजेपी के लिए दिल के दरवाजे भी खोलेगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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कटिंग साउथ मीडिया के नाम पर मंथन का कार्यक्रम विभाजनकारी: अनंत विजय

कहा भी जाता है कि कोई कार्य या कार्यक्रम अपने नाम से अपने जनता के बीच एक संदेश देने का प्रयत्न करता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Tuesday, 05 December, 2023
Last Modified:
Tuesday, 05 December, 2023
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

ऐसा बताया गया कि केरल के मुख्यमंत्री कामरेड पिनयारी विजयन ने केरल में आयोजित कटिंग साउथ नाम से आयोजित कार्यक्रम का न केवल शुभारंभ किया बल्कि इसमें भाषण भी दिया। ये कहना था प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे नंदकुमार का । प्रज्ञा प्रवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित सांस्कृतिक संगठन है। वे लखनऊ में आयोजित दैनिक जागरण संवादी के पहले दिन के एक सत्र में शामिल हो रहे थे। उन्होंने प्रश्न उठाया कि किस साउथ को कहां से काटना चाहते हैं कटिंग साउथ वाले ? क्या दक्षिण भारत को उत्तर भारत से काटना चाहते हैं? कटिंग साउथ के नाम से जो आयोजन हुआ उसको ग्लोबल साउथ से जोड़ने का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन उसकी प्रासंगिकता स्थापित नहीं हो पाई।

जे नंदकुमार ने अपनी टिप्पणी में इसको विखंडनवादी कदम करार दिया और जोर देकर कहा कि इस तरह के नाम और काम से राष्ट्र में विखंडनवादी प्रवृतियों को बल मिलता है। उन्होंने इसको वामपंथी सोच से जोड़कर भी देखा और कहा कि वामपंथी विचारधारा राष्ट्र में विश्वास नहीं करती है इसलिए इसको मानने वाले इस तरह के कार्य करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के सोच का निषेध करने के लिए और राष्ट्रवादी ताकतों को बल प्रदान के लिए दिल्ली और दक्षिण भारत के कई शहरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजन करेगी। ब्रिजिंग साउथ के नाम से आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों के शामिल होने के संकेत भी दिए गए।

कटिंग साउथ मीडिया के नाम पर मंथन का एक कार्यक्रम है लेकिन अगर सूक्ष्मता से विचार करें तो इसके पीछे की जो सोच परिलक्षित होता है वो विभाजनकारी है। कहा भी जाता है कि कोई कार्य या कार्यक्रम अपने नाम से अपने जनता के बीच एक संदेश देने का प्रयत्न करती है। एक ऐसा संदेश जिससे जनमानस प्रभावित हो सके। इन दोनों कार्यक्रमों के नाम से ही स्पष्ट है। दोनों के संदेश भी स्पष्ट हैं। आज जब भारत में उत्तर और दक्षिण का भेद लगभग मिट सा गया है तो कुछ राजनीति दल और कई सांस्कृतिक संगठन इस भेद की रेखा को फिर से उभारना चाहते हैं। कभी भाषा के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर तो कभी किसी अन्य बहाने से। कभी सनातन के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके तो कभी हिंदू देवी देवताओं के नाम पर अनर्गल प्रलाप करके।

वैचारिक मतभेद अपनी जगह हो सकते हैं, होने भी चाहिए लेकिन जब बात देश की हो, देश की एकता और अखंडता की हो, देश की प्रगति की हो या फिर देश को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मजबूती प्रदान करने की हो तो राजनीति को और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के लिए सोचने और एकमत रखने की अपेक्षा की जाती है। देश की एकता और अखंडता के प्रश्न पर राजनीति करना या उसको सत्ता हासिल करने का हथियार बनाना अनुचित है। यह इस कारण कह रहा हूं क्योंकि अभी पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव हुए हैं और आगामी छह महीने में लोकसभा के चुनाव होने हैं। जब जब कोई महत्वपूर्ण चुनाव आते हैं तो इस तरह की विखडंनवादी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं।

आपको याद होगा कि जब 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होनेवाले थे तो उसके पहले इस तरह का ही एक आयोजन किया गया था जिसका नाम था डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व। 2021 के उत्तरार्ध में अचानक तीन दिनों के ऑनलाइन सम्मेलन की घोषणा की गई थी। वेबसाइट बन गई थी, ट्विटर (अब एक्स) अकाउंट पर पोस्ट होने लगे थे। उस कार्यक्रम में तब असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी के प्रपंच में शामिल लोगों के नाम भी सामने आए थे। तब भी डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व का उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी को नुकसान पहुंचाना था। कटिंग साउथ से भी कुछ इसी तरह की मंशा नजर आती है। वही लोग जिन्होंने देश में फर्जी तरीके से असहिष्णुता की बहस चलाई थी, पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा था, डिस्मैंटलिंग हिंदुत्व के साथ जुड़कर अपनी प्रासंगिकता तलाशी थी लगभग वही लोग कटिंग साउथ के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हैं।

डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के आयोजकों को न तो हिंदुत्व का ज्ञान था और न ही इसकी व्याप्ति और उदारता का अनुमान। महात्मा गांधी ने काल्पनिक स्थिति पर लिखा है कि ‘यदि सारे उपनिषद् और हमारे सारे धर्मग्रंथ अचानक नष्ट हो जाएं और ईशोपवनिषद् का पहला श्लोक हिंदुओं की स्मृति मे रहे तो भी हिंदू धर्म सदा जीवित रहेगा।‘ गांधी ने संस्कृत में उस श्लोक को उद्धृत करते हुए उसका अर्थ भी बताया है। श्लोक के पहले हिस्से का अर्थ ये है कि ‘विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, सबमें ईश्वर की सत्ता व्याप्त है।‘

दूसरे हिस्से के बारे में गांधी कहते हैं कि ‘इसका त्याग करो और इसका भोग करो।‘ और अंतिम हिस्से का अनुवाद इस तरह से है कि ‘किसी की संपत्ति को लोभ की दृष्टि से मत देखो।‘ गांधी के अनुसार ‘इस उपनिषद के शेष सभी मंत्र इस पहले मंत्र के भाष्य हैं या ये भी कहा जा सकता है कि उनमें इसी का पूरा अर्थ उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।‘ गांधी यहीं नहीं रुकते हैं और उससे आगे जाकर कहते हैं कि ‘जब मैं इस मंत्र को ध्यान में रखककर गीता का पाठ करता हूं तो मुझे लगता है कि गीता भी इसका ही भाष्य है।‘ और अंत में वो एक बेहद महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि ‘यह मंत्र समाजवादियों, साम्यवादियों, तत्वचिंतकों और अर्थशास्त्रियों सबका समाधान कर देता है। जो लोग हिंदू धर्म के अनुयायी नहीं हैं उनसे मैं ये कहने की धृष्टता करता हूं कि यह उन सबका भी समाधान करता है।‘  डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के समय भी अपने लेख में गांधी को उद्धृत किया था।

भारत चाहे उत्तर हो या दक्षिण कोई भूमि का टुकड़ा नहीं है कि उसके किसी हिस्से को किसी अन्य हिस्से से काटा जा सके। भारत एक अवधारणा है। एक ऐसी अवधारणा जिसमें अपने धर्म से, धर्मगुरुओं से, भगवान तक से प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता है। अज्ञान में कुछ विदेशी विद्वान या वामपंथी सोच के लोग महाभारत की व्याख्या करते हुए कृष्ण को हिंसा के लिए उकसाने का दोषी करार देते हैं और कहते हैं कि अगर वो न होते तो महाभारत का युद्ध टल सकता था।

अब अगर इस सोच को धारण करने वालों को कौन समझाए कि महाभारत को और कृष्ण को समझने के लिए समग्र दृष्टि का होना आवश्यक है। अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार नहीं होते और कौरवों का शासन कायम होता तब क्या होता। कृष्ण को हिंसा के जिम्मेदार ठहरानेवालों को महाभारत के युद्ध का परिणाम भी देखना चाहिए था। लेकिन अच्छी अंग्रेजी में आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर भारतीय पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या करने से न तो भारताय ज्ञान परंपरा की व्याप्ति कम होगी और न ही उसका चरित्र बदलेगा। भारतीय समाज के अंदर ही खुद को सुधार करने की व्यवस्था है। यहां जब भी कुरीतियां बढ़ती हैं तो समाज और देश के अंदर से कोई न कोई सुधारक सामने आता है।

कटिंग साउथ की परिकल्पना करनेवालों और उसके माध्यम से परोक्ष रूप से राजनीति करने वालों को, भारतीय समाज को भारतीय लोकतंत्र को समझना होगा। वो अब इतना परिपक्व हो चुका है कि विखडंनवादी ताकतों की तत्काल पहचान करके उनके मंसूबों को नाकाम करता है। 2021 के बाद भी यही हुआ और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि 2024 के चुनाव में भी भारतीय जनता देशहित को समझेगी और उसके अनुसार ही अपने मतपत्र के जरिए उनका निषेध भी करेगी।

साभार - दैनिक जागरण।

 

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नहीं दिखाई दिया राहुल और प्रियंका गांधी की जोड़ी का कमाल: आशुतोष चतुर्वेदी

इन विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव की बारी है। इस दृष्टि से मौजूदा नतीजे और महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 04 December, 2023
Last Modified:
Monday, 04 December, 2023
aashutosh

आशुतोष चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार, प्रधान संपादक, प्रभात खबर।

विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी की जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को सिर माथे पर बिठाया है। प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा भाजपा की नैया पार करने में कामयाब रहा। जनता जनार्दन ने एक बार फिर मोदी के नाम पर हिंदी पट्टी के राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को भारी जनादेश दिया है। प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी सभाओं में भारी भीड़ जुट रही थी और उन्होंने जनता से कहा था कि जो वादे किये जा रहे हैं, वह उनकी गारंटी देते हैं। चुनाव नतीजे दर्शाते हैं कि जनता ने उन पर भरोसा किया। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं। नतीजे किस करवट बैठेंगे, इसको लेकर सबकी धड़कनें तेज थीं। वैसे तो हर विधानसभा चुनाव हर दल के लिए एक चुनौती होता है और सभी दल पूरी ताकत लगाकर उसे जीतने की कोशिश भी करते हैं।

भाजपा और कांग्रेस दोनों ने इस चुनाव में अपने शस्त्रागार से ऐसा कोई अस्त्र बाकी नहीं रखा था, जो न चला हो। हर विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जाता है। यह जुमला पुराना हो गया है। मुझे लगता है कि सांप-सीढ़ी के खेल से इसकी तुलना उपयुक्त होगी। 2024 से पहले का हरेक विधानसभा चुनाव आपको लोकसभा चुनाव की ऊपरी सीढ़ी के नजदीक ले जाता है। भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक और सीढ़ी सफलतापूर्वक चढ़ गये हैं। इसके बाद 2024 की लोकसभा की सीढ़ी थोड़ी आसान हो जायेगी। हालांकि यह भी सही है कि कई बार लोकसभा और विधानसभा चुनावों के नतीजे एकदम उलट आते देखे गये हैं, लेकिन अब बहुत समय नहीं बचा है।

इन विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव की बारी है। इस दृष्टि से मौजूदा नतीजे और महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि विधानसभा चुनावों के नतीजे पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर असर डालेंगे। इन विधानसभा चुनावों में असफलता ने विपक्ष और खासकर कांग्रेस की राह मुश्किल कर दी है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की जोड़ी कोई कमाल नहीं दिखा पायी। कांग्रेस के लिए दो सरकारों- राजस्थान और छत्तीसगढ़ का चला जाना एक बड़ा झटका है। हालांकि तेलंगाना की जीत ने उसे थोड़ी राहत दी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या भाजपा में भरोसे का 'साइलेंट ब्रैंड' बन रहे हैं शिवराज सिंह चौहान?: सारंग उपाध्याय

रैलियों में कितनी ही भीड़ इकट्ठी कर ली जाए, लेकिन क्षेत्रीय नेता जमीन पर यदि काम ना कर पाएं तो चुनाव जीतना आसान नहीं होता।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Monday, 04 December, 2023
Last Modified:
Monday, 04 December, 2023
sarang

सारंग उपाध्याय, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, अमर उजाला

राजनीति पहुंचने से ज्यादा यात्रा की महत्वाकांक्षा है और मंजिल से ज्यादा सफर की इच्छा। जो यहां अनुभव से सधा है वह धैर्य से बंधा है, और जो धैर्य से गुंथा है वह सत्ता में दीर्घकाल तक स्थापित रहा है- फिर चाहे वह दो दशक से ज्यादा तक पश्चिम बंगाल पर राज करने वाले मुख्यमंत्री ज्योतिबसु रहे हों या फिर 2023 के विधानसभा चुनावों में टिकट तक ना मिल पाने की अफवाहों में करियर की सांझ तक करा बैठे मप्र के सीएम शिवराज सिंह चौहान हों--दोनों ही सीएम सियासत की बिसात पर अनुभव की लंबी यात्रा की बानगी हैं। फिलहाल वामपंथ का सियासी सितारा अस्त हो चुका है, लेकिन देश की दक्षिणपंथ की राजनीति में एक तारा सियासत का थोड़ा नायाब सितारा बनने की जगह तलाश रहा है। दरअसल, मप्र की सियासत में शिवराज सिंह चौहान राजनीतिक कीर्तिमानों का सबसे उभरता हुआ स्तंभ हैं।

भारतीय जनता पार्टी को दिया गया लंबा छात्र जीवन, आरएसएस के सामाजिक और राजनीतिक अनुषांगिक संगठनों में आंदोलन में होम हुई उम्र, संसद में पांच बार की सांसदी और तकरीबन तीन दशक तक फैला हुआ मप्र के सबसे ज्यादा बार सीएम पद के कार्यकाल का खिताब संजोने वाले शिवराज को गर भाजपा में भरोसे का उभरता हुआ साइलैंट ब्रैंड कहा जाए तो अतिशियोक्ति नहीं होगी।खास यह कि साइलैंट होता हुआ ये ब्रैंड यदि 2023 के इन चुनावों में दोबारा मप्र का सीएम बनता है, तो भाजपा में वे वाइब्रैंट भी होंगे, जिसकी संभावना कभी भाजपा के उस सबसे बुजुर्ग राजनेता ने जताई थी जो अपने सियासी जीवन में देश के पीएम बनने की इच्छा पूरी किए बिना ही राजनीति से रिटायर हो गया।

बानगी दूं तो यूट्यूब पर उस वीडियो को खंगाला जा सकता है, जब आडवाणी ने कभी उनकी तुलना करते हुए उन्हें मोदी से श्रेष्ठ बताया था। यह वह दौर था जब मोदी गुजरात की सरहदों से पहली बार संसद में पहुंचने की तैयारियां कर रहे थे जबकि मोदी के बरक्स पीएम पद के लिए शिवराज अपनी बेहद शाइस्ता सी नजर रखते थे। बहरहाल, सियासत में वर्तमान की जड़ें सुदूर अतीत से रिसते किस्सों और इतिहास की पेचीदा घटनाओं से सिंचित होती रहीं हैं। दौर बदलते हैं और राजनीति अपने औजारों में धार करती चलती है। आज प्रधानमंत्री मोदी का रसूख, रुतबा और लोकप्रियता आसमान की बुलंदियों पर है। मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय नेता नहीं बल्कि उनका चेहरा चुनावी जीत की गारंटी था। ऐसा उन्होंने हर रैली से जयघोष किया। यह एक तरह से 2024 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के तीसरे कार्यकाल की गारंटी का शंखनाद ही रहा।

परिवर्तन भी ऐसे ही हुए। मप्र में जब टिकट बंटे तो प्रदेश भाजपा में हलचल हुई। दिग्गज अपनी-अपनी सीटों पर विधायकी जीतने दिल्ली से उतारे गए। लेकिन बदलाव के इस दौर में सबसे आखिर में करियर की सांझ ढलने की अफवाह के बीच टिकट मिला भाजपा के सबसे अनुभवी शख्स को। भाजपा संगठन में देश के इस हृदय प्रदेश में चुनावी सियासत को लेकर इस बार अलग गणित था। हालांकि देर से ही सही शिवराज को टिकट मिला लेकिन प्रदेश में लगे उन पोस्टर में जगह नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। इस समय  मप्र में चुनावी रिजल्ट सामने हैं।

सीटों के समीकरण में पिछला रिकॉर्ड और बेहतर हुआ है। जीत का सहरा भले ही पीएम मोदी की गारंटी के माथे बांधा जा रहा है लेकिन प्रदेश की राजनीति को करीब से जानने वाले और जमीनी पत्रकार, राजनीतिक पंडित इस बात को मुखरता से कहते रहे हैं कि भाजपा की इस जीत के असली नायक शिवराज सिंह चौहान ही हैं। लंबी यात्राएं, जमीनी संपर्क, ग्रामीण और आंचलिक जीवन में गाहे-बगाहे हिस्सेदारी, सत्ता में रहते हुए जनप्रिय योजनाओं के बीच जनता से सीधा संपर्क और अंत में मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना का चमत्कार, यह सब भाजपा की झोली में जीत की असली वजह हैं।

अतीत पर नजर डालें तो कभी 2018 में मंदसौर किसान गोली कांड, भ्रष्टाचार के आरोप और आंतरिक सियासत से अपनी ही छवि में कैद रहे शिवराज सिंह के लिए कांग्रेस एक चुनौती बनी थी। लेकिन उस दौर के बाद साइलैंट काम करने वाला यह वाइब्रैंट नेता अपनी कार्य की शैली बदल चुका है। शिवराज विनम्र हुए हैं जो वे पहले से थे ही।

राजनीति में छवि की कीमत समझने लगे हैं और दिए जाने बयानों की संवदेनशीलता भी। वे छवि सुधारने को आतुर दिखते हैं। आदिवासी पर पेशाब कांड जैसी घटना पर पैर धोकर देशभर के आदिवासियों से तुरंत माफी, लॉ एंड ऑर्डर, किसानों से संपर्क और काम का सबसे ज्यादा फोकस महिलाओं से जुड़ी योजनाओं पर होना और उसकी डायरेक्ट मॉनिटरिंग करना, दरअसल ऐसा बहुत कुछ है जो शिवराज सिंह चौहान को भाजपा में एक सधा, कुशल और अनुभव में पका हुआ राजनेता बनाती है।

अच्छी बात यही रही कि वे भाजपा ने अपने इस नेता के तजुर्बे को सर्वे के तराजू में तौलकर जगह दे दी क्योंकि गारंटी के कितने ही शंखनाद लाउड स्पीकर में छोड़ दिए जाएं और हेलिकॉप्टर से कितने ही नेता उतार लिए जाएं और रैलियों में भीड़ इकट्ठी कर ली जाए, लेकिन क्षेत्रीय नेता जमीन पर यदि काम ना कर पाएं तो चुनाव जीतना आसान नहीं होता।

साभार - अमर उजाला डिजिटल।

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राजस्थान के एग्जिट पोल पर बोले रजत शर्मा, बीजेपी ने वसुंधरा को आगे करने में देर की

बीजेपी ने चुनाव में जिस तरह धर्म को मुद्दा बनाया, जिस तरह वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की, उसमें बीजेपी अगर कामयाब हुई तो बात अलग है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Saturday, 02 December, 2023
Last Modified:
Saturday, 02 December, 2023
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)

राजस्थान से भी कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है। बीजेपी को राजस्थान से बहुत उम्मीद है लेकिन एग्जिट पोल्स के नतीजे राजस्थान में कांग्रेस की सरकार रिपीट होने का इशारा कर रहे हैं। अशोक गहलोत के जादू का असर दिख रहा है। एग्जिट पोल के मुताबिक राजस्थान में कांग्रेस को 94 से 104 के बीच सीट मिलती दिख रही हैं। बहुमत का आंकड़ा 100 का है। बीजेपी को 80 से 90 सीटें मिलने का अनुमान है। दिलचस्प बात ये है कि पिछली बार की तरह राजस्थान में इस बार भी छोटी पार्टियों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी क्योंकि एक्जिट पोल्स के मुताबिक राजस्थान में छोटी पार्टियां और निर्दलीयों को भी 14 से 18 सीट मिल सकती हैं।

सीटों के मामले में भले ही कांग्रेस का आंकड़ा बीजेपी से 10 से 15 सीट ज्यादा दिख रहा हो लेकिन वोट शेयर के मामले में दोनों ही पार्टियां बराबरी पर हैं। बीजेपी को 42 परसेंट वोट और कांग्रेस को 43 परसेंट वोट मिल सकते हैं। एग्जिट पोल के नतीजों से अशोक गहलोत जोश में हैं। गहलोत ने कहा कि वो तो शुरू से कह रहे हैं कि इस बार तीस साल का रिकॉर्ड टूटेगा, राजस्थान में तीस साल के बाद पहली बार सरकार रिपीट होगी, उन्हें हमेशा से भरोसा था कि उनकी सरकार रिपीट हो रही है।

गहलोत ने कहा कि राजस्थान में मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई हवा नहीं थी और कैंपेन के दौरान बीजेपी के नेताओं ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, उससे भी कांग्रेस को फायदा हुआ। गहलोत ने एक गौर करने वाली बात कही। कहा, कि बीजेपी ने चुनाव में जिस तरह धर्म को मुद्दा बनाया, जिस तरह वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की, उसमें बीजेपी अगर कामयाब हुई तो बात अलग है, वरना सरकार तो कांग्रेस की ही बनेगी। वैसे जीत के दावे करने में बीजेपी के नेता भी पीछे नहीं हैं।

बीजेपी नेता राजेंद्र राठौर ने कहा कि बीजेपी को 135 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। एक्जिट पोल्स के नतीजे राजस्थान में कांटे की टक्कर दिखा रहे हैं, कांग्रेस थोड़ी आगे है, ये बीजेपी के नेताओं के लिए परेशान कर सकता है लेकिन अगर एक्जिट पोल के नतीजे सही साबित होते हैं तो कांग्रेस को फायदा का सारा श्रेय अशोक गहलोत को देना पड़ेगा।

राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस की रणनीति में एक बुनियादी फर्क था। कांग्रेस ने वक्त रहते अशोक गहलोत को खुला हाथ देने का फैसला किया, चुनाव की कमान पूरी तरह गहलोत को सौंप दी लेकिन बीजेपी ने वसुंधरा राजे को मंच पर लाने में देर कर दी, इसलिए पार्टी के कार्यकर्ताओं में भ्रम वाली स्थिति रही और इसका फायदा गहलोत को मिलता दिख रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सावरकर की पैरवी भारत में मार्क्सवादियों के लिए सबक: अरुण आनंद

इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा 'मोरिया' नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 30 November, 2023
Last Modified:
Thursday, 30 November, 2023
arunanand

अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें वीर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है, 'हिंदुत्व' के पैरोकार होने के कारण भारत में मार्क्सवादियों के निशाने पर रहे हैं। मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों, विश्लेषकों व इतिहासकारों ने उनकी स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को लेकर भी लगातार सवाल उठाए और सावरकर को नाजीवाद व फासीवाद से जोड़ने की भी भरपूर कोशिश की। पर उस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बारे में वे क्या कहना चाहेंगे जब कार्ल मार्क्स के पोते ने हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर का एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न केवल बचाव किया था बल्कि उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका की जबरदस्त प्रशंसा भी की थी। इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा 'मोरिया' नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था।

सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए लंदन में गिरफ्तार कर उन्हें इस जहाज द्वारा भारत में उन पर मुकदमा चलाने के लिए बंबई भेजा रहा था। 8 जुलाई 1910 को यह जहाज फ्रांस के मार्सेई नामक शहर के पास था, सावरकर ने अवसर पाते ही समुद्र में छलांग लगा दी और कई मील तैरकर वह फ्रांस के तट पर आ पहुंचे। ब्रिटिश पुलिस के अधिकारियों ने वहां पहुंच कर 'चोर—चोर' का शोर मचा दिया और सावरकर को चोर बताकर धोखे से वापिस जहाज पर ले आए। बाद में जब पता चला कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी हैं तो फ्रांसीसी सरकार ने आपत्ति जताई व ब्रिटेन से सावरकर को फ्रांस को वापिस लौटाने को कहा। ब्रिटेन ने यह बात मानने से इंकार कर दिया और यह विवाद नीदरलैंड में हेग नामक जगह पर स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पहुंच गया जहां दो देशों के बीच कानूनी विवादों का निपटारा होता है।

सावरकर को लेकर हेग में इस मुकदमें में दलीलें 14 फरवरी, 1911 से शुरू हुईं और 17 फरवरी, 1911 को समाप्त हुईं। फैसला 24 फरवरी, 1911 को ब्रिटेन के पक्ष में दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत ने इस जीत का फायदा उठाते हुए  भारत में सावरकर को काले पानी की सजा दी और उन्हें अंडमान में सेल्युलर जेल भेज दिया गया। अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने बाद में 'मेरा आजीवन कारावास' पुस्तक भी लिखी जिसमें वहां दी गई यातनाओं का लोमहर्षक विवरण है। बहरहाल बात करते हैं हेग में हुए इस मुकदमे की। इस मामले में सावरकर की ओर से पैरवी करने वाले कोई और नहीं बल्कि मार्क्सवाद की विचारधारा के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के पोते थे। उनका नाम था जीन-लॉरेंट-फ्रेडरिक लोंगुएट (1876-1938)। लोंगुएट स्वयं समाजवादी राजनीतिज्ञ और पत्रकार थे, जो न केवल अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सावरकर का बचाव करने के लिए खड़े हुए बल्कि उन्होंने सावरकर की बहादुरी, देशभक्ति और प्रखर लेखन के लिए उनकी खूब प्रशंसा भी की।
 
लोंगुएट का जन्म लंदन में चार्ल्स और जेनी लॉन्गुएट के घर हुआ था। उनका परिवार बाद में फ्रांस चला  आया। जेनी, कार्ल मार्क्स की बेटी थी। जीन लॉन्गुएट ने एक पत्रकार के रूप में काम किया और एक वकील के रूप में योग्यता हासिल की। वह फ्रांसीसी समाचार पत्र 'ला पॉपुलेयर' के संस्थापक और संपादक भी थे और फ्रांस के प्रमुख समाजवादी नेताओं में से एक थे। हेग में सावरकर के लिए अपनी दलील में कहा ब्रिटिश सरकार सावरकर को इसलिए निशाना बना रही है क्योंकि वे भारत को आजाद करवाने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ले रहे हैं। उन्होंने सावरकर का वर्णन इन शब्दों में किया, "श्रीमान! सावरकर ने कम उम्र से ही, राष्ट्रवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उनके दो भाइयों, जो उनसे कम क्रांतिकारी नहीं थे, को इस राष्ट्रवादी आंदोलन  में भाग लेने के लिए  सजा सुनाई गई, एक को आजीवन कारावास और दूसरे को  कई महीनों तक कारावास की सजा सुनाई गई।

22 साल की उम्र से, जब वह बंबई विश्वविद्यालय में  कानून के छात्र थे, वे तिलक के सहायक बन गए, और लगभग उसी समय, अपने पैतृक शहर, नासिक में, उन्होंने 'मित्र मेला' नाम की राष्ट्रवादी संस्था का गठन किया।'' मित्रमेला के बारे में भी लोंगुएट ने बताया कि किस प्रकार पूरे  दक्खन में राष्ट्रीय आंदोलन चलाने में यह संगठन सक्रिय भूमिका निभा रहा था। सावरकर की पुस्तक '1857 का स्वातंत्र्य समर' जिस पर अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध लगा दिया था , उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, ''यह पुस्तक वैज्ञानिक दृष्टि अत्यंत मूल्यवान है और इसका अंग्रेजी अनुवाद कई लोगों ने मिलकर किया और उसे अज्ञात नाम से प्रकाशित किया।'' लोंगुएट की दलीलों का सार यही था कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी व प्रबुद्ध विचारक हैं और भारत को आजाद करवाने के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार उनके पीछे पड़ी है।

लोंगुएट की दलीलों से इतना तो साफ होता है कि मार्क्स का पोता होने तथा समाजवादी होने के बावजूद उन्हें सावरकर की राष्ट्रवादी अवधारणा से कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि लोंगुएट के लिए तो वह प्रशंसा के पात्र थे। ऐसे में भारत के मार्क्सवादियों द्वारा सावरकर के व्यक्तित्व व कर्तृत्व का विरोध कितना तर्कसंगत है?

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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