अभय कुमार दुबे जी ने 1992 में एक पुस्तिका लिखी थी- घोटाले में घोटाला। 40 पेज की इस पुस्तिका में कांग्रेस नेताओं और राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए कोष इकट्ठा करने को लेकर विस्फोटक जानकारी है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
दीवाली के पहले घरों में साफ-सफाई की जाती है। इस परंपरा का पालन हर घर में होता है। हमारे घर भी हुआ। घर के पुस्तकालय की सफाई के दौरान चालीस पेज की एक पुस्तिका मिली जिसने ध्यान खींचा। पुस्तिका का नाम है ‘घोटाले में घोटाला’। इस पुस्तिका का लेखन, संपादन और सज्जा अभय कुमार दुबे का है। अभय कुमार दुबे पत्रकार और शिक्षक रहे हैं।
कुछ दिनों के लिए इन्होंने सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में भी कार्य किया है। इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। समाचार चैनलों पर विशेषज्ञ के रूप में भी दिखते हैं। ‘घोटाले में घोटाला’ पुस्तिका का प्रकाशन जनहित के लिए किया गया था। ऐसा इसमें उल्लेख है। दिल्ली के इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन के पते पर स्थापित पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च ग्रुप ने इसका प्रकाशन किया है।
इसमें एक और दिलचस्प वाक्य है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। ये वाक्य है- इस पुस्तिका की सामग्री पर किसी का कापीराइट नहीं है, जनहित में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका प्रकाशन वर्ष अक्तूबर 1992 है। उस समय देश में कांग्रेस पार्टी का शासन था और पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। इसमें दो दर्जन लेख हैं जो उस शासनकाल के घोटालों पर लिखे गए हैं।
इस पुस्तिका में एक लेख का शीर्षक है, ओलंपिक वर्ष के विश्व रिकार्ड इसका आरंभ इस प्रकार से होता है, दौड़-कूद का ओलंपिक तो बार्सिलोना में हुआ जिसमें भारत कोई पदक नहीं जीत पाया। अगर घोटालों, जालसाजी, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल और चोरी के बावजूद सीनाजोरी का ओलंपिक होता तो कई भारतवासियों का स्वर्ण पदक मिल सकता था।
व्यंग्य की शैली में लिखे गए इस लेख में एम जे फेरवानी, आर गणेश, बैंक आफ करड, वी कृष्णमूर्ति, पी चिदंबरम, हर्षद मेहता और मनमोहन सिंह के नाम हैं। मनमोहन सिंह के बारे में अभय कुमार दुबे लिखते हैं, ‘मासूमियत का अथवा जान कर अनजान बने रहने का स्वर्ण पदक। वित्तमंत्री कहते हैं कि उन्हें जनवरी तक तो कुछ पता ही नहीं था कि शेयर मार्केट में पैसा कहां से आ रहा है। और अगर हर्षद उनसे मिलना चाहता तो भारत के एक नागरिक से मिलने से वो कैसे इंकार कर देते। मनमोहन सिंह को अपनी सुविधानुसार विचार बदल लेने का स्वर्ण पदक भी मिल सकता है।
पहले वो विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के भारी आलोचक हुआ करते थे। पिछले 20 साल से वे भारत की आर्थिक नीति निर्माता मंडली के सदस्य रहे और वे नीतियां भी उन्हीं ने बनाई थीं जिनकी वे आज आलोचना कर रहे हैं।‘ आज मनमोहन सिंह को लेकर कांग्रेस और उनके ईकोसिस्टम से जुड़े लोग बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन समग्रता में अगर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आकलन किया जाएगा तो इन बिंदुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। यह भी कहा जाता है कि मनमोहन सिंह की नीतियों के कारण 2008 के वैश्विक मंदी के समय देश पर उसका असर न्यूनतम हुआ।
इस पर भी अर्थशास्त्रियों के अलग अलग मत हैं। प्रश्न ये उठता है कि मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए शेयर मार्केट में जो घोटाला हुआ था क्या उसको भी उनके पोर्टफोलियो में रखा जाना चाहिए या सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर डाल देनी चाहिए। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी इस समय की सरकार को अदाणी-अंबानी से जोड़ते ही रहते हैं। 1991 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी तब के हालात कैसे थे? 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब कांग्रेस पर किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे या नहीं?
इन दिनों राहुल गांधी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बंद होते जाने पर भी कई बार सवाल खड़े करते हैं और मोदी सरकार पर बेरोजगारी बढ़ाने का आरोप लगाते हैं। उनकी पार्टी के शासनकाल के दौरान विनिवेश को लेकर जो आरोप सरकार पर लगे थे उसपर भी उनको विचार करना चाहिए। सत्ता में रहते अलग सुर और विपक्ष में अलग सुर ये कैसे संभव हो सकता है।
इन दिनों राहुल गांधी और कांग्रेस का पूरा ईकोसिस्टम ईडी-ईडी का भी शोर मचाते घूमते हैं। घोटाले में घोटाला पुस्तिका में उल्लेख है, ‘सीबीआई को जांच में इसलिए लगाया गया था ताकि घोटाले में राजनीतिक हाथ का पता लगाकर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हिसाब साफ कर लिया जाए। इसका दूसरा मकसद यह भी था कि सीबीआई कुछ गिरफ्तारियां करके और कुछ मुकदमे चलाकर जनता के सामने यह दिखा सकती थी कि सरकार घोटाले के अपराधियों को पकड़ने के लिए कितनी गंभीर है।
चूंकि केवल दिखावा करना था इसलिए सीबीआई की एक जांच टीम को ही पूरी जांच नहीं दी गई वरन उसे बांट दिया गया।‘ आगे लिखा है कि सीबीआई ने अनुमान से अधिक मात्रा में राजनीतिक हाथ खोज निकाला जिससे सरकार के लिए थोड़ी समस्या हो गई क्योंकि किसी नेता का भांडाफोड़ उसे इंका (इंदिरा कांग्रेस) की अंदरूनी राजनीति में फायदेमंद लगता था और किसी का नुकसानदेह।
इसलिए माधवन को चलता कर सीबीआई के पर कतर दिए गए।‘ एजेंसियों के दुरुपयोग की कांग्रेस राज में बहुत लंबी सूची बनाई जा सकती है। इस कारण जब राहुल गांधी ईडी को लेकर सरकार पर आरोप लगाते हैं तो जनता पर उसका प्रभाव दिखता नहीं है। उनके पार्टी पर इस तरह के आरोपों का इतना अधिक बोझ है जिससे वो मुक्त हो ही नहीं सकते।
इस पुस्तिका में एक और विस्फोटक बात लिखी गई है, ‘कृष्णमूर्ति के घर पर छापे में सीबीआई ने सोनिया गांधी के दस्तखत वाला एक धन्यवाद पत्र बरामद किया जिसमें राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए कोष जमा करने के लिए फाउंडेशन के चेयरमैन के रूप में उन्हें धन्यवाद दिया गया था। हर्षद मेहता और एक उद्गोयपति ने भी तो फाउंडेशन को 25-25 लाख रुपए के चेक दिए थे।
दुबे यहां प्रश्न पूछते हैं कि ये धन कौन सा था? वही जो दलाल बैंकों से लेकर सट्टा बाजार में लगाते थे। इस धन से कमाई दलालों की संपत्ति तो जब्त कर ली गई पर यही पैसा तो राजीव गांधी फाउंडेशन में पड़ा है। क्या इसे जब्त करना और इसकी परतें खोलना सीबीआई का फर्ज नहीं था। राजीव गांधी फाउंडेशन की निर्लज्जता देखिए, उसने कृष्णमूर्ति के जेल जाने के बावजूद उन्हें अपनी सदस्यता से न हटाने का फैसला किया। हां, हर्षद वगैरह के जरिए मिले चंदे को मुंह दिखाई के लिए कस्टोडियन के चार्ज में जरूर दे दिया।‘
राजीव गांधी फाउंडेशन पर कोष जमा करने के कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। आज की पीढ़ी को को ये जानने का अधिकार तो है ही कि नब्बे के दश्क में कांग्रेस के शासनकाल में किस तरह से कार्य होता था और किस तरह के आरोप लगते थे। क्या राजीव गांधी फाउंडेशन के कोष जमा करने के तरीकों के खुलासे के बाद ही तो गांधी परिवार और नरसिम्हा राव के रिश्तों में खटास आई। क्या इन सब का ही परिणाम था कि नरसिम्हा राव के निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस के कार्यालय में अंतिम दर्शन के लिए नहीं रखा गया। ये सभी ऐसे प्रश्न हैं जो कांग्रेस और राहुल गांधी को परेशान करते रहेंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
अब सोचिए अमेरिकी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) पर $328 बिलियन लगा दिए हैं। नतीजा यह निकल रहा है कि याचिका में झूठे जजमेंट पकड़े गए।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
दिल्ली हाईकोर्ट में पिछले हफ़्ते मज़ेदार घटना हुई। गुरुग्राम के Greenopolis Welfare Association (GWA) ने याचिका दायर की थी। ख़रीदारों को बिल्डर से फ्लैट नहीं मिल रहा था। याचिका में जिन जजमेंट का हवाला दिया गया था वो कभी लिखा ही नहीं गया था, जैसे राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी केस के जजमेंट से पैरा 73 का हवाला दिया जबकि जजमेंट सिर्फ़ 27 पैराग्राफ़ है। यह बात दूसरी पार्टी ने पकड़ ली कि यह याचिका ChatGPT ने लिखी है। AI hallucinate कर रहा है यानी झूठ बोल रहा है। याचिका वापस ली गई।
अब सोचिए अमेरिकी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) पर $328 बिलियन लगा दिए हैं। नतीजा यह निकल रहा है कि याचिका में झूठे जजमेंट पकड़े गए। इस खर्चे को ऐसे समझिए कि इतने पैसे में दिल्ली मेट्रो जैसे 40 नेटवर्क बन सकते हैं। अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या यह इन्वेस्टमेंट रिटर्न दे सकेगा या डूब जाएगा?
Open AI को ChatGPT लांच कर तीन साल होने वाले है। इसके बाद सभी बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों में AI में आगे निकलने की होड़ लग गई। इसी होड़ में सब AI पर पैसे लगा रहे हैं लेकिन अब दो अलग-अलग रिपोर्ट ने इसके रिटर्न पर सवाल उठाए हैं।
MIT की रिपोर्ट में कहा गया है कि Generative AI के 95% पायलट प्रोजेक्ट कंपनियों में फेल हो गए हैं यानी कंपनियाँ इसे आगे नहीं बढ़ा पायीं। फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने पाया है कि अमेरिका की 500 बड़ी कंपनियों में बातें तो खूब हो रही हैं लेकिन जब लागू करने की बात हो रही है तो कंपनियाँ अटक जा रही हैं।
AI के आने से नौकरी जाने का डर लगातार बना हुआ है। दो क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल कंपनियाँ कर रही हैं। कस्टमर केयर और कोडिंग। AI से ग्राहकों के सवालों के जवाब chatbot या कॉल से दिए जा रहे हैं। सॉफ़्टवेयर कोडिंग में भी AI मदद कर रहे हैं। इससे भारतीय IT कंपनियों ने नई हायरिंग लगभग बंद कर रखी है। Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन कहते है कि सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों की ज़रूरत बनी रहेगी। AI के चलते सॉफ़्टवेयर की माँग बढ़ रही है। बाक़ी सेक्टर में इसकी भूमिका सहयोगी की रह सकती है यानी लोग जो काम करेंगे उसमें AI मदद करेगा।
AI के आने के बाद से यह अटकलें लगने लगी थीं कि यह आदमी को बेकार कर देगा। वकील, डॉक्टर, पत्रकार, टीचर सबकी जगह ले सकता है। जो भी काम के लिए कंटेंट जनरेट करते हैं। नॉलेज का इस्तेमाल सर्विस देने में करते हैं उन पर गाज गिरेगी। अब भी यह कहना मुश्किल है कि AI क्या बदलाव लाएगा? दिल्ली हाईकोर्ट की घटना का सबक है कि आँख मूँद कर AI का इस्तेमाल नहीं करें, जो कह रहा है वो जाँच लें वरना आप मुश्किल में पड़ सकते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
जब से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार सत्ता में आई, तो कुछ ही समय बाद उसने दिखा दिया कि वह देश की सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की ढिलाई देने के मूड में नहीं है।
प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी : पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली।
किसी विचारक का कहना है कि तुम्हारा अच्छे से अच्छा सिद्धांत व्यर्थ है, अगर तुम उसे अमल में नहीं लाते। हमारी सुरक्षा चिंताओं से संबंधित कानूनों की भी एक दशक पहले तक यही स्थिति रही है। वर्ष 1947 में तैयार राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को अभी तक ठीक से परिभाषित नहीं किया जा सका है, वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 सुरक्षा से ज्यादा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल के लिए ज्यादा जाना जाता रहा है।
देश को भीतरी-बाहरी खतरों से सुरक्षित रखने के लिए बने ऐसे तमाम कानून कभी उन उद्देश्यों की पूर्ति में सफल नहीं हो पाए, जिनके लिए उनका निर्माण किया गया था। इसके पीछे ईमानदार प्रयासों की कमी रही हो या इच्छाशक्ति की, या फिर दोनों की, देश ने आजादी के बाद के छह दशकों में बहुत कुछ सहा है। सीमाओं के भीतर भी और सीमाओं पर भी।
संकल्पशक्ति से उपजे फैसले
बारह साल पहले, जब से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार सत्ता में आई, तो कुछ ही समय बाद उसने दिखा दिया कि वह देश की सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की ढिलाई देने के मूड में नहीं है। इस क्रम में वर्ष 2018 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में शीर्ष स्तरीय रक्षा योजना समिति (डीपीसी) का गठन एक अच्छी शुरुआत रही है। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाने के लिए गठित किया गया था। भारत सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के अलावा डीपीसी के प्रमुख उद्देश्यों में क्षमता संवर्द्धन योजना का विकास, रक्षा रणनीति से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर काम करना और भारत में रक्षा उत्पादन ईकोसिस्टम को उन्नत बनाना आदि शामिल हैं।
एक राष्ट्र का सम्मान, प्रभुत्व और शक्ति इसमें निहित है कि वह भीतरी और बाहरी चुनौतियों से निपटने में कितना सक्षम है और किसी भी संभावित खतरे से कितना सुरक्षित है। महान कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने एक राष्ट्र की सम्प्रभुता के लिए खतरा साबित होने वाली इन चुनौतियों की चार श्रेणियां निर्धारित की थीं। भीतरी खतरे, बाहरी खतरे, बाहरी सहायता से पनपने वाले भीतरी खतरे और भीतर से सहायता पाकर मजबूत होने वाले बाहरी खतरे। लगभग यही खतरे आज भी नक्सलवाद, अलगाववाद, सीमा पर चलने वाली चीनी-पाकिस्तानी गतिविधियों, आतंकवाद, स्लीपर सेल आदि के रूप में सिर उठाते रहते हैं।
नए दौर में इनके अलावा भी और कई सुरक्षा चुनौतियां हैं, जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित हैं। इनमें आर्थिक सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, साइबर सुरक्षा जैसे और भी कई मुद्दे शामिल हो चुके हैं, जिनके तार भीतर ही भीतर एक-दूसरे से जुड़े हैं।
2014 में भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक जबरदस्त बदलाव हुआ और देश को एक मजबूत इरादों वाली मजबूत सरकार मिली, जिसका नेतृत्व 21वीं सदी के विश्व के सबसे शक्तिशाली नेताओं में से एक श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा किया जा रहा था। और फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में देश में चीजें तेजी से बदलना शुरू हुईं।
प्रधानमंत्री जी की दूरर्शिता और अथक प्रयासों के नतीजे हम लगभग हर क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तनों के रूप में देख रहे हैं। अगर हम एक दशक पहले की परिस्थितियों से तुलना करें तो आज भारत की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले तमाम तत्व नि:शक्त और सहमे-सहमे से नजर आते हैं। आतंकवाद और सीमापार से होने वाली राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब मिला है, तो देश के भीतर चलने वाली नक्सलवादी/ वामसमर्थित अलगाववादी गतिविधियों पर भी लगाम लगी है।
यही नहीं, पूर्ववर्ती सरकारों की गलत नीतियों और उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण देश के विभिन्न भागों, खासकर कुछ पूर्वोत्तर राज्यों, के भीतर दशकों से पनप रहे असंतोष के स्वरों को भी शांतिपूर्ण और स्वीकार्य उपायों से समाधान उपलब्ध कराने में हमें उल्लेखनीय सफलता मिली है।
सही समय पर सही फैसले
इसका पूरा श्रेय जाता है हमारे कुशल, सक्षम और दूरदर्शी नेतृत्व को, जिसमें सही समय पर सही फैसले लेने की सामर्थ्य ही नहीं, बल्कि उन्हें पूरी दृढ़ता के साथ लागू करने की इच्छाशक्ति भी मौजूद है। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सुरक्षा हितों पर प्रतिकूल असर डालने वाली एकतरफा कार्रवाईयों के विरुद्ध मजबूती से खड़े होने का मामला हो या शक्ति संतुलनों के नए समीकरणों में भारत के प्रति मानसिकता और पुरातन सोच में बदलाव लाने का।
आज न सिर्फ हम एकध्रुवीय दुनिया में अपने हितों की रक्षा में सफल रहे हैं, बल्कि पूरा विश्व, इस तेजी से बदलती व्यवस्था में भारत की नई सशक्त और निर्णायक भूमिका को स्वीकार कर रहा है। भारत की भीतरी मजबूती और सुरक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी सख्ती और जीरो टॉलरेंस अप्रोच के साथ हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की 'सॉफ्ट स्टेट' वाली छवि को तोड़ने में सफल रहे हैं।
रणनीतिक स्पष्टता और त्वरित निर्णय लेने की सामर्थ्य के साथ, भारत ने सिर्फ सैन्य मोर्चे पर ही अपनी मजबूती और बढ़त बनाई है, बल्कि वर्तमान और भावी सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए भी भरपूर तैयारियॉं की हैं। इनमें इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, क्षमता निर्माण आदि शामिल है। राष्ट्रीय हित में राजनीति से ऊपर उठकर हमने निष्पक्ष पेशेवरों और विशेषज्ञों की मदद से योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन किया है।
इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल कर विकास को गति देने के लिए हमने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना आरंभ की, जिसके अंतर्गत 2019-20 के दौरान 11,400 किमी सड़कें बनाई गईं और सीमावर्ती क्षेत्रों में छह पुलों का उद्घाटन किया गया। इसके अलावा नागरिक-सैन्य सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए दोहरे इस्तेमाल वाला इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया गया। रक्षा मंत्रालय और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के समन्वय से चिन्हित राजमार्गों के 29 हिस्सों को आपात एयरवे के रूप में इस्तेमाल किए जा सकने योग्य बनाया। 30 सैन्य हवाई क्षेत्रों में सात एडवांस लैंडिंग ग्राउंड तैयार किए गए।
इसी प्रकार स्वतंत्र और समन्वित राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र का विकास और एक इंटेलीजेंस ग्रिड का निर्माण कर हमने अपने इंटेलीजेंस आधारित अभियानों में तेजी लाई है। आज आशंकाओं को वास्तविकता में बदलने से पहले , सूचना मिलते ही तुरंत उन पर कार्रवाई की जाती है। सुरक्षा एजेंसियों में बेहतर तालमेल, सुव्यवस्थित सुधारों और कैपेसिटी बिल्डिंग के माध्यम से आतंकवाद से निपटा गया है।
अगर हम श्री मोदी के देश की बागडोर संभालने से पहले के दस सालों की बात करें, तो पाएंगे कि वर्ष 2004 से 2014 के बीच देश में 25 बड़े आतंकवादी हमले हुए, जिनमें एक हजार से अधिक मौतें हुईं और करीब तीन हजार लोग घायल हुए। लेकिन, 2014 के बाद से नागरिक क्षेत्रों में कोई भी बडी आतंकवादी वारदात नहीं हुई है।
नेटवर्क पर प्रहार, वित्तीय स्रोतों का सफाया
देश भर में अभियान चलाकर सौ से अधिक आतंकवादियों को पकड़ा गया। उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने वाले संस्थानों पर रोक लगाई गई और देश में भारत विरोधी गतिविधियां चला रहे सिमी, जेएमबी, एसएफजे, इस्लामिक फ्रंट और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों के वित्तीय स्रोत खत्म कर उनकी रीढ़ तोड़ी गई। इसके अलावा मित्र देशों के समर्थन का विस्तार करते हुए इन संगठनों के नेटवर्क पर प्रहार कर इसे कमजोर किया गया।
यह हमारे खुफिया तंत्र की एक बड़ी सफलता थी कि हमने अलकायदा मॉड्यूल को समय रहते पहचान कर, भारत में उसकी जड़ें जमने ही नहीं दीं। सेना को स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गई तो उनका मनोबल बढ़ा और उनके अभियानों में तेजी आई।
इसी क्रम में केंद्रीय बलों और राज्य पुलिस के बीच बेहतर इंटेलीजेंस बेस्ड कोऑर्डिनेशन स्थापित कर वामपंथ समर्थित अतिवादियों और भारत विरोधी प्रोपगंडा चला रहे अर्बन नक्सलियों के विरुद्ध सैन्य व वैचारिक अभियान चलाकर उनके हौसले पस्त किए गए और प्रोपेगंडा को कमजोर करने के लिए प्रभावित क्षेत्रों में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विस्तार कर उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया गया।
अशांत पूर्वोत्तर राज्यों में 2019 में त्रिपुरा समझौता, जनवरी 2020 में त्रिपुरा-मिजोरम सीमा विवाद का निपटारा, इसी साल असम समझौता कर और मेघालय व अरुणाचल प्रदेश के कुछ जिलों में अफसा हटाकर वहॉं शांति स्थापित की गई।
अगर हम सीमाओं की सुरक्षा की बात करें तो हमने चीन और पाकिस्तान जैसे हमारे पारंपरिक विरोधियों को कूटनीतिक, सामरिक और आर्थिक मोर्चे पर कड़ी चोट दी है। 2016 में उरी अटैक के बाद पीओके में हमारी सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के पुलवामा अटैक के बाद हमारी बालाकोट एयर स्ट्राइक की जवाबी कार्रवाई के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गया कि यह भारत वह भारत नहीं है, जो उसकी परमाणु बम की गीदड़ भभकी से डरकर, सख्ती से परहेज बरतता था।
इसी प्रकार 2014 में एलएसी पर चीन की भड़काऊ गतिविधियों और 2017 में डोकलम में 1500 चीनी सैनिकों की घुसपैठ जैसी चुनौतियों से निपटने में भी हमने भरपूर राजनीतिक इच्छाशक्ति और कूटनीतिक सामर्थ्य का परिचय दिया। यही वजह थी कि चीन को बैकफुट पर आना पड़ा।
रक्षा सुधारों और अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से बढ़ी ताकत
हमारी इस बढ़ती ताकत और प्रभाव के पीछे हमारे अंतरराष्ट्रीय प्रयासों और रक्षा क्षेत्र में किए गए सुधारों की भी एक अहम भूमिका रही है। हमने ब्रिटेन, अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्रों के साथ सामरिक भागीदारी कर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा दिया है। चीन की विस्तारवादी गतिविधियों से निपटने में भूटान की सहायता की है, बांग्लादेश से संबंध सुधारने की दिशा में आगे बढ़ते हुए लंबे समय से लटके सीमा विवाद को निपटाया है।
रक्षा क्षेत्र को और मजबूत व चुस्त बनाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय का पुनर्गठन कर भूमिकाओं और कार्यों का व्यावहारिक आवंटन कर इन्हें संस्थागत रूप प्रदान किया गया है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, नवाचार, समुद्री सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन जैसे अपारपंरिक सुरक्षा क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तनों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इससे बाहरी, आंतरिक, खुफिया, साइबर और सैन्य कार्रवाईयों से संबंधित तंत्र व संरचानाओं को मजबूती मिलेगी।
ये कुछ बानगियां हैं, उन असंख्य बदलावों की, जो हमने पिछले एक दशक में घटते देखे हैं। इन्हीं का नतीजा है कि नया भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया है, जो अपनी सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं करता और चुनौतियां चाहें भीतरी हों या बाहरी, उनका कठोर जवाब देने में समर्थ है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
संघ को हिन्दू राष्ट्रवादी स्वयंसेवी संगठन के रूप में जाना जाता है। 27 सितंबर 1925 को डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने विजया दशमी के दिन इसकी स्थापना की थी।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस विजया दशमी (2 अक्टूबर) से अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है और आने वाले दशकों–शताब्दी के लिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय अभियान चलाने जा रहा है। सचमुच संघ ने समय और चुनौतियों के साथ अपने को बदला है, लेकिन हिंदुत्व के विचारों और भारतीय संस्कृति की प्रतिबद्धता में कोई परिवर्तन नहीं किया है।
संघ को हिन्दू राष्ट्रवादी स्वयंसेवी संगठन के रूप में जाना जाता है। 27 सितंबर 1925 को डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने विजया दशमी के दिन इसकी स्थापना की थी। आज इसे विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन माना जा रहा है। संघ स्वयं एक करोड़ सदस्य होने का दावा करता है। साथ ही यह देश की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन भी माना जाता है। इसलिए वर्तमान दौर में न केवल भारतीय समाज बल्कि विश्व समुदाय भी इसके कामकाज और भविष्य की ओर ध्यान दे रहा है।
संघ की छवि एक मजबूत वैचारिक और संगठनात्मक शक्ति के रूप में स्थापित है। दशकों से चलती शाखाएँ, अनुशासित स्वयंसेवक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े कार्यक्रम संघ को विशिष्ट पहचान देते हैं। किंतु समय के साथ उसे अपनी छवि और विचारधारा में लचीलापन भी दिखाना पड़ा है। गणवेश बदलने से लेकर विचारों में लचीलापन लाने तक, संघ ने यह सिद्ध किया है कि वह समय के साथ चलने को तैयार है।
संघ की असली ताकत उसकी शाखाओं में निहित है। भारत के हज़ारों गाँवों, कस्बों और शहरों में प्रतिदिन लगने वाली शाखाएँ संघ का आधार स्तंभ हैं। पिछले दशक में शाखाओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। आँकड़ों के अनुसार, 2014 से 2024 तक लगभग 30% नई शाखाएँ शुरू हुईं। 2016 में गणवेश में बदलाव हो या 2025 के शताब्दी वर्ष की रणनीति—आज का संघ बदला हुआ है। यह बदलाव ड्रेस तक सीमित नहीं है, बल्कि विचारों, शाखाओं के स्वरूप, सरकार से संबंध और अपनी भूमिका तक फैला है।
भविष्य की पीढ़ी यह तय करेगी कि क्या यह शक्ति समावेश, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की वाहक बनेगी या केवल अनुशासन, एकरूपता और नियंत्रण तक सीमित रह जाएगी।
मई 1977 में मैंने 'जनता पार्टी के सहअस्तित्व का सवाल' विषय पर संघ के वरिष्ठ नेता नानाजी देशमुख का पहला इंटरव्यू किया था। नानाजी ने कहा था कि संघ और जनसंघ समाजवादियों के विचारों से मिलते हैं। उनका कहना था—“संघ और जनसंघ सदा समतावादी समाज और जनकल्याणकारी कार्यक्रमों के पक्षधर रहे हैं। जनकल्याण के लिए हमारे कार्यक्रम किसी भी दृष्टि से कम क्रांतिकारी नहीं रहे।”
तब भी संघ को लेकर पुराने कांग्रेसियों और समाजवादियों के मतभेद की चर्चाएँ सामने आती रहीं। मैंने संघ पर *गैरसंघी क्या कहते हैं* विषय पर कई नेताओं के इंटरव्यू प्रकाशित किए। समाजवादी खेमे के रबी रॉय और सोशलिस्ट पार्टी से जनसंघ में आए मुस्लिम नेता आरिफ बेग ने माना कि “संघ राजनीतिक संगठन नहीं है और न ही सरकारी काम में हस्तक्षेप करता है।” उस समय आरिफ बेग केंद्रीय वाणिज्य राज्य मंत्री भी थे।
भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता में आने से बहुत पहले, दिसंबर 1963 में *नवनीत* पत्रिका के संपादक को दिए इंटरव्यू में कहा था—“राजनीति की राहें रपटीली होती हैं। इन राहों पर चलते समय बहुत सोच-समझकर चलना पड़ता है। थोड़ा सा असंतुलन भी गिरा देता है। इसलिए इन राहों पर संतुलन बनाए रखना ज़रूरी है।” यह बात उनके प्रधानमंत्री रहते सच साबित हुई।
संघ के हर कार्यक्रम का प्रारम्भ इस मंत्र से होता है। 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥' अर्थात्—“हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें, हमारे मन एक हों, जैसे प्राचीन देवता एक साथ रहते और पूजा करते थे। प्रभु हमें ऐसी शक्ति दे, ऐसा शुद्ध चरित्र दे, ऐसा ज्ञान दे कि यह कठिन मार्ग भी सुगम हो जाए।”
इसी तरह संघ की मुख्य प्रार्थना है। 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्। महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥'
हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पित हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) के समय से लेकर वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत तक, संघ की गतिविधियों में अनेक बदलाव हुए हैं। लगभग 55 वर्ष पहले दिल्ली के झंडेवालान स्थित कार्यालय में पदाधिकारी और प्रचारक बेहद सादगी से रहते थे। भोजन का समय निर्धारित होता था और सब लोग ज़मीन पर बैठकर खाते थे। संघ में कोई औपचारिक सदस्यता फ़ॉर्म नहीं था। प्रचारक केवल रजिस्टर या डायरी में संपर्क लिखते थे। अब संघ के पास साधन-संपन्न समर्थकों का सहयोग, भव्य कार्यालय और आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा, सैकड़ों लोग गिरफ्तार हुए, लेकिन अनेक समर्पित प्रचारक भूमिगत रहकर संदेश पहुँचाते रहे। उन्हीं दिनों गुजरात में नरेंद्र मोदी भी भूमिगत रहकर समाचार सामग्री तैयार करते और जेलों में नेताओं तक पहुँचाते थे। वे उस समय किसी पद पर नहीं थे, केवल स्वयंसेवक थे।
1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद लालकृष्ण आडवाणी सूचना प्रसारण मंत्री बने। बाद में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और संघ के आदर्शों के अनुरूप कई सामाजिक व कानूनी बदलावों से भारत को महाशक्तियों की पंक्ति में खड़ा किया। आज सामाजिक-आर्थिक बदलाव से भारत और भारतीयों की प्रतिष्ठा दुनिया में बढ़ रही है। फिर भी कट्टरपंथियों और विदेशी षड्यंत्रों से बचाकर भारत को *सोने का शेर* बनाने के लिए संघ, मोदी सरकार और समाज को आने वाले दशकों तक काम करना होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आजादी के बाद 60-65 साल तक किसी ने नहीं सोचा कि हम अपने देश में हथियार बनाएं। सारा ध्यान करोड़ों रुपये के हथियारों के आयात पर होता था। हर रक्षा सौदे में दलाली खाए जाने की खबरें आती थीं।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
भारत की सुरक्षा को लेकर कई बड़े खुलासे हुए। पहली खबर ये कि डीआरडीओ (DRDO) ने गुरुवार को अग्नि प्राइम मिसाइल का परीक्षण किया जो रेल की पटरियों से दागी जा सकती है। अग्नि प्राइम 2000 किलोमीटर की दूरी तक प्रहार कर सकती है। पाकिस्तान का कोना-कोना इसकी मार के दायरे में है। दूसरी खबर, भारत और रूस मिलकर हमारे देश में ही सुखोई-57 लड़ाकू विमान बनाएंगे। ये पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान दुनिया के सबसे खतरनाक विमानों में से एक हैं।
तीसरी खबर है कि भारत और रूस मिलकर दुनिया की सबसे अत्याधुनिक वायु रक्षा प्रणाली एस-500 भारत में ही बनाएंगे। यह वायु रक्षा प्रणाली भारतीय वायुसेना का 'सुदर्शन चक्र' होगी जिसे कोई भेद नहीं पाएगा। चौथी खबर ये कि हमारे देश में बने तेजस लड़ाकू विमान तैयार हैं। रक्षा मंत्रालय ने गुरुवार को हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स के साथ तेजस विमान बनाने के लिए 62 हज़ार 370 करोड़ रुपये का समझौता किया है।
पाँचवीं खबर ये कि अमेठी की फैक्ट्री में भारत और रूस मिलकर एके-203 रायफलें बनाना शुरू कर चुके हैं। 'शेर' नाम की यह रायफल इस साल के अंत तक पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से बनेगी। यह दुनिया की सबसे अत्याधुनिक रायफल है जिसकी तकनीक रूस ने भारत को हस्तांतरित की है।
अग्नि प्राइम मिसाइल को भारत में कहीं भी ले जाया जा सकता है, जहाँ रेल लाइन है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुवाहाटी से गुजरात तक फैला रेलवे का विशाल नेटवर्क अब अग्नि बैलिस्टिक मिसाइल प्रक्षेपण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके लिए न तो प्रक्षेपक यंत्रों को ज़मीन के नीचे छुपाने की ज़रूरत रहेगी, न ही तुरंत प्रक्षेपण मंच तैयार करना होगा।
रेलवे प्लेटफॉर्म से बैलिस्टिक मिसाइल दागने की क्षमता फिलहाल केवल रूस, चीन और अमेरिका के पास मौजूद है। उत्तर कोरिया भी बैलिस्टिक मिसाइल को रेलवे मोबाइल प्लेटफॉर्म से दागने की कोशिश कर रहा है।
रेलवे प्लेटफॉर्म से मिसाइल दागने की क्षमता क्यों महत्वपूर्ण है, इसका एक उदाहरण देना चाहता हूँ। इस साल जून में जब ईरान और इज़रायल के बीच 12 दिनों का युद्ध हुआ था, तब इज़रायल की वायुसेना बार-बार ईरान के मिसाइल प्रक्षेपक यंत्रों को निशाना बना रही थी।
जब भी ईरानी सेना इन्हें खुले में लाती, तब तक इज़रायल की वायुसेना उपग्रह से उनकी स्थिति का पता लगाकर हवाई हमले में तबाह कर देती थी। इसी वजह से ईरान को अपनी मिसाइलों और प्रक्षेपक यंत्रों का ठिकाना बार-बार बदलना पड़ रहा था। लंबी दूरी की मिसाइलें होने के बावजूद ईरान इज़रायल को बड़ा नुकसान नहीं पहुँचा पाया।
अब भारत के पास 2000 किलोमीटर रेंज वाली अग्नि प्राइम मिसाइल है जो परमाणु बम ले जा सकती है और इस मिसाइल को कहीं से भी दागा जा सकता है। इसलिए अग्नि प्राइम अब और भी घातक हो गई है। दिल्ली से पाकिस्तानी सेना का मुख्यालय रावलपिंडी और उसकी वायुसेना का सबसे बड़ा अड्डा नूर ख़ान सिर्फ़ साढ़े सात सौ किलोमीटर दूर है। ऐसे में भारत पटना में रेलवे की पटरी से भी रावलपिंडी, लाहौर और इस्लामाबाद को अग्नि प्राइम से निशाना बना सकता है।
भारत जल्द ही रूस के साथ सुखोई-57 लड़ाकू विमानों के साझा उत्पादन के लिए समझौता कर सकता है। सुखोई-57 पाँचवीं पीढ़ी का 'स्टील्थ' लड़ाकू विमान है। यह राडार की पकड़ में नहीं आता। जब अमेरिका ने भारत को एफ-35 लड़ाकू विमान बेचने का प्रस्ताव दिया था, उसके बाद ही रूस ने भारत को सुखोई-57 के संयुक्त उत्पादन का प्रस्ताव दिया था।
सुखोई-57 के साथ ही रूस ने अपने एस-70बी युद्धक ड्रोन के संयुक्त उत्पादन का प्रस्ताव दिया है। रूस की सुखोई कंपनी इस ड्रोन को सुखोई-57 विमान के साथ आक्रमण के लिए विकसित कर रही है। यह ड्रोन दुश्मन के राडार और वायु रक्षा पर हमला करेगा और विमान दुश्मन के ठिकानों को तबाह करेगा। रूस चाहता है कि सुखोई-57 के अलावा भारत रूस की नवीनतम वायु रक्षा प्रणाली एस-500 का भी संयुक्त उत्पादन करे।
एस-500 प्रोमेथियस दुनिया की सबसे अत्याधुनिक वायु रक्षा प्रणालियों में से एक है। यह प्रणाली दुश्मन की बैलिस्टिक और अतितीव्र गति (हाइपरसोनिक) मिसाइलों को भी हवा में ही नष्ट कर सकती है। रूस ने एस-500 को क्रीमिया में यूक्रेन के खिलाफ़ तैनात किया है। एस-500 इतना शक्तिशाली है कि यह दुश्मन के 'स्टील्थ' विमानों और निचली कक्षा (लो अर्थ ऑर्बिट) में घूम रहे उपग्रहों तक को गिरा सकता है।
दिसंबर में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत आएंगे। उम्मीद है उसी दौरान समझौतों पर हस्ताक्षर होंगे। भारत रूस के साथ पहले ही ब्रह्मोस सुपरसोनिक मिसाइल का उत्पादन कर रहा है जिसके तीनों संस्करण भारत की तीनों सेनाओं के पास हैं। इसके अलावा रूस की एके-203 रायफलों का भी संयुक्त उत्पादन भारत में शुरू हो चुका है। इनका कारखाना उत्तर प्रदेश के अमेठी में है। इस परियोजना के लिए 'इंडो-रशियन रायफल्स प्राइवेट लिमिटेड' के नाम से एक अलग कंपनी बनाई गई है जिसकी कमान थलसेना के मेजर जनरल एस. के. शर्मा के पास है।
मेजर जनरल एस. के. शर्मा ने बताया कि पिछले 18 महीनों में इस फैक्ट्री में बनी 18 हज़ार रायफलें सेना को सौंपी जा चुकी हैं। इस साल दिसंबर तक 22 हज़ार और रायफलें सेना को सौंप दी जाएँगी। अमेठी की फैक्ट्री को दस साल में 6 लाख से ज़्यादा एके-203 रायफलें बनाने का ठेका मिला है।
वायुसेना की ताक़त बढ़ाने के लिए गुरुवार को रक्षा मंत्रालय ने हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के साथ तेजस मार्क-1 स्वदेशी हल्के लड़ाकू विमान ख़रीदने के समझौते पर हस्ताक्षर किए। 62 हज़ार 370 करोड़ रुपए के इस समझौते के तहत वायुसेना को 68 एकल आसनी (सिंगल-सीटर) तेजस लड़ाकू विमान और 29 युगल आसनी (ट्विन-सीटर) प्रशिक्षण विमान मिलेंगे।
वायुसेना को तेजस विमानों की डिलिवरी 2027-28 से शुरू होगी और अगले छह साल में पूरी की जाएगी। यह गर्व की बात है कि आज हम अपने देश में लड़ाकू विमान बना रहे हैं और वायु रक्षा प्रणाली बनाने की तैयारी कर रहे हैं। नए युग में सुरक्षा के लिहाज से यह ज़रूरी है कि जितना हो सके हथियार अपने देश में बनें, उनकी पूरी तकनीक हस्तांतरित हो ताकि युद्ध के दौरान किसी पर निर्भर न रहना पड़े।
ऑपरेशन सिंदूर के समय यह आवश्यकता महसूस हुई। इस अभियान ने यह भी साबित किया कि भारत में बनी मिसाइलें किसी से कम नहीं हैं। इस छोटी-सी जंग में ब्रह्मोस ने जो कमाल दिखाया, उसकी चर्चा पूरी दुनिया में है। आज़ादी के बाद 60-65 साल तक किसी ने नहीं सोचा कि हम अपने देश में हथियार बनाएँ। सारा ध्यान करोड़ों रुपये के हथियारों के आयात पर होता था।
हर रक्षा सौदे में दलाली खाए जाने की ख़बरें आती थीं। नरेंद्र मोदी ने इस सोच को बदला। मोदी ने नीति बनाई कि भारत को अपनी रक्षा के लिए हथियार अपने यहाँ बनाने चाहिए, तकनीक पूरी तरह हस्तांतरित होनी चाहिए। इसकी शुरुआत हो चुकी है लेकिन रक्षा की ज़रूरतें बहुत बड़ी होती हैं। इसलिए हम पूरी तरह आत्मनिर्भर हो पाएँ, इसमें समय लगेगा। अंग्रेज़ी में एक कहावत है 'Well begun is half done' और भारत में जिस तरह की मिसाइलें, जिस तरह की रायफलें, जिस तरह के लड़ाकू विमान बन रहे हैं, वह एक शुभ संकेत हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
नेपाल का राजमहल नरसंहार, गुजरात का भूकंप और दंगे, अफगानिस्तान का युद्धोत्तर संकट या फिर अडवाणी की पाकिस्तान यात्रा जैसे संवेदनशील घटनाक्रम, उन्होंने हर घटना को गहराई से देखा।
डॉ. अंकित पांडेय।
प्रोफ़ेसर (डॉ.) के. जी. सुरेश का जीवन एक ऐसी प्रेरणादायी यात्रा है, जिसमें पत्रकारिता, शिक्षा, संस्थान निर्माण और जनसंचार के क्षेत्र में उनके अथक प्रयास और योगदान झलकते हैं। उनका व्यक्तित्व विद्यार्थियों, कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए इसलिए आदर्श है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में जो शिखर छुए, वे केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं थे, बल्कि समाज के प्रति उनके गहरे दायित्वबोध और राष्ट्रहित से प्रेरित थे।
26 सितम्बर का दिन केवल उनका जन्मदिन नहीं है, बल्कि यह उस प्रतिबद्धता और समर्पण की याद भी दिलाता है, जिसे उन्होंने अपने जीवन और कार्यों से सबके सामने प्रस्तुत किया। डॉ. अंकित पांडेय ने प्रो. डॉ. के. जी. सुरेश : व्यक्तित्व और कृतित्व, एक वैयक्तिक अध्ययन विषय पर शोध कार्य भी किया है, जो विद्यार्थियों के लिए अत्यंत प्रासंगिक है।
के. जी. सुरेश का आरंभिक जीवन साधारण पृष्ठभूमि से शुरू हुआ, लेकिन उनकी दृष्टि असाधारण थी। वे प्रारंभ से ही मीडिया और जनसंचार की शक्ति को समझते थे। शिक्षा पूरी करने के बाद जब उन्होंने पत्रकारिता की राह चुनी, तो उनके सामने अनेक चुनौतियाँ थीं। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (PTI) में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान उन्होंने न केवल देश की राजनीति और संसद की गतिविधियों को नज़दीक से समझा, बल्कि अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की रिपोर्टिंग कर इतिहास का हिस्सा भी बने। नेपाल का राजमहल नरसंहार, गुजरात का भूकंप और दंगे, अफगानिस्तान का युद्धोत्तर संकट या फिर अडवाणी की पाकिस्तान यात्रा जैसे संवेदनशील घटनाक्रम, उन्होंने हर घटना को गहराई से देखा, समझा और समाज के समक्ष प्रस्तुत किया।
उनका लेखन और रिपोर्टिंग केवल तथ्यों पर आधारित नहीं था, बल्कि उनमें संवेदनशीलता की झलक भी होती थी, जो किसी भी उत्कृष्ट पत्रकार की पहचान होती है। दूरदर्शन में वरिष्ठ सलाहकार संपादक के रूप में उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय रही। यहाँ उन्होंने कई नये और नवाचारी कार्यक्रम शुरू किए, जिन्होंने पत्रकारिता की परिभाषा बदल दी और जनसंचार के क्षेत्र में सकारात्मकता की नई धारा प्रवाहित की।
“वार्तावली”, जो विश्व का पहला संस्कृत टेलीविजन समाचार पत्रिका था, उनकी दूरदर्शिता का उदाहरण है। “गुड न्यूज़ इंडिया” जैसे कार्यक्रमों ने यह संदेश दिया कि समाचार केवल नकारात्मक घटनाओं और विवादों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समाज में हो रही सकारात्मक पहल और प्रेरणादायी कार्यों पर भी ध्यान केंद्रित होना चाहिए। “इंडिया फर्स्ट” और “दो टूक” जैसे कार्यक्रमों ने जनसंचार को नया आयाम दिया, जिसमें गंभीर विमर्श के साथ साहसिक और स्पष्ट संवाद शामिल था। इसके अतिरिक्त, दूरदर्शन का पहला एंड्रॉयड आधारित मोबाइल एप लाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है, जो प्रमाणित करता है कि वे तकनीकी युग के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में विश्वास रखते थे।
संस्थान निर्माता के रूप में उनकी पहचान सर्वविदित है। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में महानिदेशक के रूप में उनका कार्यकाल ऐतिहासिक रहा। उन्होंने भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को सशक्त बनाने हेतु उल्लेखनीय कदम उठाए। अमरावती और कोट्टायम परिसरों में मराठी और मलयालम पत्रकारिता के पाठ्यक्रम आरंभ किए, वहीं दिल्ली परिसर में उर्दू पत्रकारिता को प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम से आगे बढ़ाकर पूर्णकालिक स्नातकोत्तर डिप्लोमा बनाया।
संस्कृत पत्रकारिता को बढ़ावा देते हुए उन्होंने विशेष प्रमाणपत्र कार्यक्रम भी शुरू किया। उनके प्रयासों से IIMC भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के पुनर्जागरण का केंद्र बना। इसी दौरान उन्होंने सामुदायिक रेडियो सशक्तिकरण एवं संसाधन केंद्र और राष्ट्रीय मीडिया फैकल्टी विकास केंद्र की स्थापना की। IIMC की पत्रिकाएँ ‘Communicator’ और इसका हिंदी संस्करण ‘संचार माध्यम’ उनके नेतृत्व में पुनः प्रकाशित होने लगा, जिससे अकादमिक जगत को नई ऊर्जा मिली। उनकी दूरदृष्टि का एक और उदाहरण ‘मीडिया महाकुंभ’ है, जो 2018 में आयोजित हुआ।
यह IIMC का पहला अंतर-विश्वविद्यालयीय युवा महोत्सव था, जिसमें पूरे देश से मीडिया विद्यार्थी एकत्र हुए और उन्होंने अपनी प्रतिभा और सृजनशीलता का प्रदर्शन किया। यह आयोजन इस बात का प्रतीक बना कि पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि विचारों और मूल्यों के आदान-प्रदान का माध्यम है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति के रूप में भी उन्होंने विश्वविद्यालय की नई पहचान बनाई। विश्वविद्यालय ने उनके नेतृत्व में शोध, पाठ्यक्रम पुनर्गठन और तकनीकी उन्नति के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल कीं। उन्होंने शिक्षा को व्यावहारिक प्रशिक्षण से जोड़ने का विशेष प्रयास किया, जिससे विद्यार्थी और शिक्षक दोनों लाभांवित हुए।
डॉ. सुरेश केवल प्रशासक और पत्रकार ही नहीं, बल्कि एक समर्पित शिक्षक भी हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आपदा अध्ययन केंद्र में संचार कौशल पढ़ाया। साथ ही, वे Academy of Scientific and Innovative Research, Delhi Institute of Heritage Research and Management, दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े रहे। उनके व्याख्यान शैक्षणिक स्तर तक सीमित न होकर, विद्यार्थियों के व्यक्तित्व निर्माण और राष्ट्रीय चेतना को गहराई से प्रभावित करते थे।
उनका नाम केवल शिक्षा और पत्रकारिता तक सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी गूँजता रहा। सियोल में आयोजित World Media Conference, दोहा और वियना में United Nations Alliance of Civilizations Forum, बैंकॉक में World Sanskrit Conference, मॉरीशस में World Hindi Conference, और टोक्यो में India-Japan Global Partnership Summit जैसे अनेक वैश्विक आयोजनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। हर मंच पर उन्होंने भारतीय दृष्टिकोण और अनुभव प्रस्तुत किए और संवाद को अंतरराष्ट्रीय आयाम दिया।
उनके प्रयासों और योगदानों को देश-विदेश में अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। इनमें गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, PRSI Leadership Award, Visionary Leader in Media Education Award, ख्वाजा गरीब नवाज़ अवार्ड और मीडिया शिक्षा में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। राष्ट्रमंडल युवा कार्यक्रम (Commonwealth Youth Programme) द्वारा उन्हें एशिया क्षेत्र से युवा राजदूत बनाया गया, जो उनके वैश्विक कद का प्रमाण है।
उनका जीवन यह सिखाता है कि जब दृष्टि स्पष्ट हो, उद्देश्य समाज और राष्ट्र हो और समर्पण अटूट हो, तो असंभव भी संभव हो जाता है। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि पत्रकारिता केवल समाचार देने का माध्यम नहीं, वह समाज निर्माण का सशक्त साधन है; शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति नहीं, बल्कि राष्ट्र की चेतना को जागृत करने का प्रयास है; और संस्थान केवल भवन नहीं, बल्कि विद्यार्थी, शिक्षक और शोधकर्ताओं की ऊर्जा से जीवित रहने वाली इकाई हैं।
उनके अनेक व्याख्यान विद्यार्थियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। वे बार-बार कहते रहे हैं कि भारतीय भाषाओं को सशक्त करना भारतीय लोकतंत्र की मजबूती की कुंजी है। उनका यह मत कि सकारात्मक समाचार समाज परिवर्तन लाने में उतने ही प्रभावी हो सकते हैं जितने नकारात्मक समाचार, वर्तमान पत्रकारिता के लिए मार्गदर्शक है।
डॉ. सुरेश का जीवन इस तथ्य का प्रतीक है कि व्यक्तिगत संघर्ष और प्रयासों से व्यक्ति केवल स्वयं नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र को नई दिशा दे सकता है। पत्रकारिता, शिक्षा और जनसंचार में किए गए उनके सुधार और नवाचार भविष्य में भी याद किए जाते रहेंगे। आज जब उनके शिष्य, सहकर्मी और भारतीय पत्रकारिता जगत उन्हें स्मरण करता है तो यह उनके कार्यों का ही नहीं बल्कि उनके द्वारा समाज को दी गई प्रेरणा का भी उत्सव है।
उनके जन्मदिवस के अवसर पर यह कहना उचित होगा कि प्रत्येक विद्यार्थी, कर्मचारी और अधिकारी उनके जीवन से यह शिक्षा ले कि अनुशासन, ईमानदारी, समर्पण और नवाचार—ये चार तत्व किसी भी सफलता की नींव हैं। यदि हम इन्हें अपने जीवन में उतारें तो अवश्य ही हम न केवल व्यक्तिगत सफलता अर्जित कर सकते हैं बल्कि अपने कार्यक्षेत्र और समाज को भी नई दिशा दे सकते हैं।
प्रो. (डॉ.) के. जी. सुरेश का जीवन इसी उच्च आदर्श का जीवंत उदाहरण है। जिस प्रकार 5 सितम्बर को देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है, उसी प्रकार 26 सितम्बर को प्रो. (डॉ.) के. जी. सुरेश के जन्मदिन पर राष्ट्रीय मीडिया शिक्षण दिवस का आयोजन होना चाहिए ताकि उनकी प्रेरणा और योगदान को देशभर के विद्यार्थी अनुभव कर सकें।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) डॉ. अंकित पांडेय ने प्रो. डॉ. के. जी. सुरेश : व्यक्तित्व और कृतित्व, एक वैयक्तिक अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर हथौड़ा चला दिया है। 'H1B' वीज़ा की फ़ीस अब सीधे एक लाख डॉलर कर दी है। पहले कितनी थी इस पर अलग-अलग अनुमान है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारत और अमेरिका के रिश्ते ठीक होते दिखाई दे रहें थे तभी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक और फ़ैसला किया है जिससे हमें नुक़सान होगा। 'H1B' वीजा की फ़ीस बढ़ाकर एक लाख डॉलर कर दी है यानी क़रीब 88 लाख रुपये। कंपनियाँ यह वीजा अमेरिका से बाहर के कर्मचारियों को काम पर रखने के लिए लेती थीं। अब जितनी फ़ीस हो गई हैं उतनी तो भारतीय कर्मचारियों की सैलरी होती है।
पहले समझ लेते हैं कि 'H1B' वीज़ा क्या है? अमेरिकी सरकार कंपनियों को ऐसे कर्मचारियों के लिए यह वीज़ा देती है जो टेक्नोलॉजी, साइंस, मेडिकल जैसे क्षेत्र में काम करते हैं। हर साल 85 हज़ार लोगों को यह वीजा मिलता है। इसकी अवधि तीन साल होती है।
इन 85 हज़ार लोगों में 50 हज़ार से ज़्यादा भारतीय होते हैं। अमेरिका की सोच यह रही है कि जिन क्षेत्रों में उसका अपना टैलेंट नहीं है उसे बाहर से मँगवाया जाएँ। भारतीयों के लिए यही अमेरिका में बसने की पहली सीढ़ी है। इस पर एक्सटेंशन लेते लेते वो ग्रीन कार्ड यानी वहाँ की नागरिकता पा सकते हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर हथौड़ा चला दिया है। 'H1B' वीज़ा की फ़ीस अब सीधे एक लाख डॉलर कर दी है। पहले कितनी थी इस पर अलग-अलग अनुमान है जो चार हज़ार से सात हज़ार डॉलर के बीच में है। जिनके पास पहले से वीज़ा है उन पर अभी कोई असर नहीं पड़ेगा। यह फ़ीस नए वीज़ा पर लागू होगी। ट्रंप प्रशासन का कहना है कि कंपनियाँ इसकी आड़ में बाहर से सस्ते कर्मचारियों को रखती हैं क्योंकि उनकी सैलरी अमेरिकी कर्मचारियों के मुक़ाबले कम होती है।
भारतीय कर्मचारियों को सालाना 90 हज़ार डॉलर से लेकर 1.20 लाख डॉलर सालाना मिलता है यानी कंपनियों को लगभग उतना ही पैसा वीज़ा पर खर्च करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में कंपनियाँ इस रास्ते से लोगों को लाने से बचेंगी तो भारतीय इंजीनियर के लिए अवसर कम हो सकते हैं। भारत की IT कंपनियों पर भी इसका असर पड़ेगा।
Infosys ,Wipro, TCS जैसी कंपनियाँ इस वीज़ा का इस्तेमाल कर कर्मचारियों को अमेरिका में भेजती हैं जहां वो दूसरी कंपनियों के लिए काम करते हैं। अमेरिकी शेयर बाज़ार में भारत की कंपनियों के शेयर (ADR) शुक्रवार को इस ख़बर के बाद गिर गए हैं। ये कंपनियाँ पहले ही AI की मार झेल रही हैं अब ट्रंप ने जले पर नमक छिड़क दिया है। नमक तो खैर टैरिफ़ के घाव पर भी डाला है। कहाँ तो ट्रेड डील की आस बंध रही थी कि यह नई मुसीबत आ गई है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
भारत का जेन जी आध्यात्मिकता को लेकर उत्सुक है। वो धर्म के नाम पर चलनेवाली कुरीतियों से, जड़ता से, नहीं जुड़ रहा बल्कि उसकी वैज्ञानिकता और आत्मिक संतोष से जुड़ता है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पिछले दिनों दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति की तैयारी के सिलसिले में कुछ शोध संस्थानों में जाकर उनकी कार्यविधि को समझने का प्रयास किया। इसी क्रम में दिल्ली के पब्लिक पालिसी थिंक टैंक, सेंटर आफ पालिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस (सीपीआरजी) में कुछ समय बिताया। संस्था से संबद्ध लोगों से लंबी बातचीत की। बातचीत के क्रम में सीपीआरजी के निदेशक रामानंद जी से बहुत लंबी चर्चा हुई। इस क्रम में उन्होंने कई रोचक प्रोजेक्ट की चर्चा की।
एक प्रोजेक्ट जिसने मेरा ध्यान खींचा वो था कुछ विशेष तिथियों पर नदी किनारे होनेवाले जमावड़ों और उसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव की। इसी क्रम में पता चला कि सीपीआरजी एक शोध वाराणसी और अयोध्या में होनेवाले श्रावण स्नान मेला में गंगा और सरयू के किनारे जुटनेवाले श्रद्धालुओं के मन को टटोलने का प्रयास कर रहा है। वो किस कारण से वहां आते हैं और उनपर इस जुटान का क्या असर पड़ता है, इसको जानने के लिए अध्ययन किया जा रहा है।
कहा जा सकता है कि ये स्नान भक्ति का एक रूप है लेकिन इसमें सामाजिकता और परंपरा के निर्वाह का उमंग भी दिखता है। इस शोध में ये पता करने का प्रयास किया जा रहा है कि इस स्नान का पर्यावरण से कितना संबंध है या कितना प्रभाव पड़ता है। क्या इस स्नान से भारत की संस्कृति और उसके अंतर्गत मनाए जानेवाले विविधता के उत्सव की झलक देखने को मिलती है। इस दौरान प्रशासन किस तरह से कार्य करता है। बातचीत जब आगे बढ़ी को पता चला कि अभी इस अध्ययन का अंतिम परिणाम सामने नहीं आया है। जो आरंभिक बातें सामने आ रही हैं उसके बारे में जानना भी दिलचस्प है।
नदियों के किनारे स्नान के दौरान होनेवाले जुटान को लेकर अधिकतर लोग इसको भक्ति से जोड़कर देखते हैं। वहीं कुछ इसको सामाजिकता के प्रगाढ़ होते जाने के उत्सव के तौर पर इसमें हिस्सा लेते हैं। कई लोग पारिवारिक परंपरा के निर्वाह के लिए नदी तट पर जुटते हैं और सामूहिक स्नान करते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को भी स्नान के लिए साथ लेकर आते हैं। उनको अपनी इस परंपरा की ऐतिहासिकता के बारे में बताते भी हैं। मौखिक रूप से अपनी परंपरा को बताने में कथावाचन के तत्व रहते हैं। मोटे तौर ये वर्गीकरण दिखता है।
जब सूक्षम्ता से विश्लेषण किया गया तो पता चला कि जो युवा इस स्नान में शामिल होते हैं वो इसमें आध्यात्मिकता, सामाजिकता और अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए नदियों के किनारे जुटते हैं। युवाओं के मुताबिक वो स्नान के अपने इन अनुभवों को अपने मोबाइल के कैमरे में समेट भी लेते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों पर उसको साझा भी करते हैं। ये भी एक कारण है कि अन्य युवा भी इस स्सान के लिए प्रेरित होते हैं। वहीं जो अपेक्षाकृत अधिक उम्र के लोग हैं वो भक्तिभाव से अपनी परंपरा और पौऱाणिक स्मृतियों से स्वयं को जोड़ते हैं।
इस कारण वो सरयू और गंगा में डुबकी लगाने के लिए श्रावण स्नान के समय जुटते हैं। इस स्टडी के आरंभिक नतीजों के बारे में जानकर ये लगता है कि कैसे भारतीय परंपरा में एक पर्व की कई परतें होती हैं जो भारतीय समाज को आपस में जोड़ती हैं। इस अध्ययन का जब परिणाम सामने आएगा तो पता चलेगा कि कैसे पुजारी, समाज के वरिष्ठ जन, परिवार, स्थानीय समितियां और युवा इन पर्वों के माध्यम से ना सिर्फ एक दूसरे से जुड़ते हैं बल्कि अपनी परंपरा को भी गाढ़ा करते हैं।
इस तरह के कई शोध और अध्ययन हो रहे होंगे। दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति भी इस तरह के शोध को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है। जिसमें अभ्यार्थियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो नौ महीने तक किसी विशेष भारतीय घटना या परंपरा का अध्ययन करें और उसके आधार पर पुस्तक लिखें। इसके लिए जागरण आर्थिक मदद भी करता है।
इस बीच एक और खबर आई कि भारत सरकार सूर्य उपासना के पर्व छठ पूजा को यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल करवाना चाहती है। इसके लिए प्रयास आरंभ हो गए हैं। छठ पूजा भारत के प्राचीनतम पर्वों में से एक है। ये सूर्य की उपासना से तो जुड़ा ही है इसमें नदियों और घाटों की महत्ता भी है। स्वच्छता पर भी विशेष जोर दिया जाता है।
संस्कृति मंत्रालय ने इसके लिए कई देशों के राजदूतों के साथ बैठक की है और छठ पूजा को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल करवाने में उनका सहयोग मांगा है। दरअसल बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से और बंगाल में छठ पूजा की प्राचीन परंपरा रही है। बिहार से जो श्रमिक काम करने के लिए मारीशस, सूरीनाम, फिजी आदि देशों में गए वो अपने साथ छठ पूजा को लेकर गए। वहां भी प्राचीन काल से छठ पूजा हो रही है। संस्कृति मंत्रालय ये चाहता है कि छठ पूजा की प्राचीनता को लेकर अन्य देश भी भारत के दावे को पुष्ट करें।
छठ पूजा पर भी अगर गंभीरता से कोई अध्ययन किया जाए तो उसके भी रोचक परिणाम सामने आ सकते हैं। इस पर्व में पर्यावरण जुड़ता है। इसमें सामाजिकता है। मुझे याद पड़ता है कि हमारे गांव में जब महिलाएं छठ करती थीं तो अर्घ्य देने के लिए पूरे गांव के लोग जमा होते थे। तालाब के घाटों की सफाई की जाती थी। अगर संभव होता था तो तालाब पानी को भी साफ किया जाता था।
गांव से तालाब तक जाने वाले रास्तों की सफाई की जाती थी ताकि पर्व करनेवाली महिलाओं, जिनको बिहार की स्थानीय भाषा में परवैतिन कहा जाता है, को किसी प्रकार की तकलीफ ना हो। इसमें ये आवश्यक नहीं होता है कि जिनके घर की महिलाएं पर्व कर रही हों वही साफ सफाई के कार्य मे जुटते हैं। ये सामुदायिक सेवा होती है।
इस तरह से ये भारतीय पर्व स्वच्छता से भी जुड़ता है। छठ के अवसर पर सामाजिक जुटान भी होता है। हर समाज के लोग एक ही घाट पर पूजा करते हैं। वहां जात-पात का भेद नहीं होता है। लोग एक साथ पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं। ये सामाजिक समरसता को भी मजबूत करनेवाला पर्व है।
भारत के जो पर्व त्योहार हैं उनके पीछे कहीं ना कहीं किसी तरह से पर्यावरण से जुड़ने की बात देखने को मिलती है। पर्व-त्योहार को जो लोग रूढ़िवादिता से जोड़कर देखते हैं वो दरअसल किसी न किसी दृष्टिदोष के शिकार होते हैं। आज जिस तरह से भारतीय युवा अपने धर्म को लेकर, उसकी आध्यात्मिकता को लेकर उत्सुक है वो एक शुभ संकेत है।
वो धर्म के नाम पर चलनेवाली कुरीतियों से, जड़ता से, नहीं जुड़ता है बल्कि उसकी प्रगतिशीलता से, उसकी वैज्ञानिकता से और उससे मिलने वाले आत्मिक संतोष से जुड़ता है। आज अगर बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं के बीच अपने धर्म से जुड़ने की ललक दिखती है तो वो धार्मिकता और वैज्ञानिकता के संगम के कारण। युवा मन हर चीज में लाजिक खोजता है। जबर वो संतुष्ट होता है तभी वो किसी पर्व के साथ जुड़ता है। यह भारतीय परंपराओं की सनातनता है जो भारतीयों को जोड़ती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
243 में से करीब 160 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 123 विधायकों के खिलाफ संगीन अपराधों के आरोप हैं। 19 विधायकों पर हत्या के मामले दर्ज हैं।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
बिहार विधान सभा चुनाव के लिए प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने अपराधियों की पृष्ठभूमि वाले नेताओं के मुद्दे पर परस्पर गंभीर आरोप लगाए हैं। अब टिकट बंटवारे यानी उम्मीदवारों पर अंतिम विचार-विमर्श, खींचातानी, गोपनीय या सार्वजनिक रिपोर्ट सामने रखी जा रही है। इसलिए स्वाभाविक है कि सभी पार्टियों के लिए यह अग्नि परीक्षा जैसी है। इस समय बिहार के 49 प्रतिशत विधायक गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं।
243 में से करीब 160 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 123 विधायकों के खिलाफ संगीन अपराधों के आरोप हैं। 19 विधायकों पर हत्या के मामले दर्ज हैं। 31 विधायकों पर हत्या के प्रयास के मामले दर्ज हैं। मामले अदालतों के समक्ष विचाराधीन हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि के मुद्दे में लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के 74 में से 54 विधायक यानी (73%) विधायकों पर मामले दर्ज हैं। वहीं भाजपा के 73 में से 47 विधायक यानी (64%) आपराधिक मामले का सामना कर रहे हैं। जबकि जदयू के 43 विधायकों में से 20 विधायक यानी (46%) पर आपराधिक मामले हैं। कांग्रेस पार्टी के 19 में से 18 विधायक (94%) विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
सवाल यह है कि अदालत में सुनवाई के नाम पर कितने नेताओं को टिकट मिलते हैं और जीत की मोह-माया में कितनों को टिकट मिलते हैं। सही मायने में मतदाता सूची, वोटिंग मशीन आदि अनावश्यक बातों के बजाय जनता अपराध पर कठोर अंकुश और विकास कार्यों में तेजी के लिए वोट देना चाहती है।
चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाली संस्था ए.डी.आर. ने अपनी एक रिपोर्ट में भी कहा था कि राजनीतिक दल ईमानदारी की अपेक्षा चुनावी योग्यता को प्राथमिकता देते हैं तथा जीत सुनिश्चित करने के लिए अक्सर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारते हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के पास अक्सर महत्वपूर्ण वित्तीय संसाधन और स्थानीय प्रभाव होता है, जिससे वे चुनावों पर हावी हो जाते हैं।
विधायिकाओं में अपराधियों की उपस्थिति लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं में जनता के विश्वास को कम करती है। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि आपराधिक विधायकों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में कम मतदान प्रतिशत निराशा को दर्शाता है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायक अक्सर सार्वजनिक कल्याण के स्थान पर निजी हितों को प्राथमिकता देते हैं, जिसके कारण सुधार अवरुद्ध हो जाते हैं। ऐसे विधायकों के प्रभाव के कारण आपराधिक न्याय सुधारों में भी देरी होती है।
सत्ता में बैठे अपराधी दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अपराध दर और भ्रष्टाचार बढ़ता है। धन और बाहुबल के प्रभुत्व के कारण ईमानदार व्यक्तियों को अक्सर राजनीति में प्रवेश मुश्किल होता है।
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश थी कि गंभीर आपराधिक आरोपों वाले उम्मीदवारों के लिए सख्त अयोग्यता नियम लागू होना चाहिए ताकि हत्या या बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के आरोपी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक उम्मीदवारों के मुकदमों में तेजी लाने की ज़रूरत है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2014 के फैसले में इस बात पर समर्थन जताया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बात की आवश्यकता बताई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और सरकार अब तक इस काम के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा सकी है।
राजनीति में अपराधियों के वर्चस्व के प्रभाव बिहार में 1988 से 1991 तक नवभारत टाइम्स के संपादक रहते हुए मैंने भी देखे और कई दिलचस्प रिपोर्ट भी प्रकाशित कीं। कई बार ऐसे नेताओं या उनके साथियों की धमकियां भी मिलीं। एक दिलचस्प मामला मुंगेर की जेल में हत्या के आरोप में बंदी एक विधायक रणवीर यादव का था। हमारे वरिष्ठ संवाददाता दिवाकर जी ने स्वयं मुंगेर के पास खगड़िया जेल जाकर रिपोर्ट लिखी थी। इसमें बताया गया था कि जेलर साहब बाहर खड़े थे और अंदर जेल की कुर्सी पर बैठे कैदी विधायक महोदय मस्ती से बैठे थे और पूरे रौब के साथ हमारे पत्रकार से बात करते रहे थे। फोटो खींचे जाने से भी प्रसन्न थे।
मुंगेर में 11 नवंबर 1985 को तौफिर दियारा (लक्ष्मीपुर) में बिंद जाति के एक टोले पर हमला कर उनके घरों को जला दिया गया था। बताते हैं कि 35 लोगों की हत्या कर दी गई थी। दिवाकर जी के अनुसार वे अपने फोटोग्राफर साथी सुबोध के साथ सुबह साढ़े नौ बजे खगड़िया जेल पहुंच गए। गेट पर हमने कहा कि हम नवभारत टाइम्स से आए हैं और रणवीर यादव से मिलना है।
हम लोग उससे पहले रणवीर यादव से कभी नहीं मिले थे। पर उन विधायक जी की हनक ऐसी थी कि उन्हें सूचना पहुंचाई गई और हम दोनों गेट के अंदर पहुँचे। संतरी ने इशारा किया कि जेलर के ऑफिस में जाइए। ऑफिस के बाहर अच्छे और साफ-सुथरे कपड़े पहने एक सज्जन स्टूल पर बैठे थे। उनसे हमने अपना काम बताया, तो उन्होंने उठकर कहा, "अंदर जाइए।" बाहर निकलते समय उस सज्जन ने बताया कि वही जेलर हैं।
हम लोग अंदर गए तो जेलर की कुर्सी पर झक सफेद कुरता-पायजामे में रणवीर यादव मौजूद थे। मैंने नोटबुक पर उनकी बातें नोट करनी शुरू कीं। सुबोध जी फोटो क्लिक करते रहे। रणवीर के पीछे गांधी जी की फोटो लगी थी। यह फोटो और रिपोर्ट नभाटा में पहले पेज पर प्रमुखता से छपी। दिवाकर जी अब दिल्ली में ही पत्रकारिता कर रहे हैं। मेरे फोन करने पर उन्होंने कुछ यादें ताजा कीं।
इसी तरह जून 1992 में अपने एक लेख में एक घटना का उल्लेख किया था। मेरे पटना कार्यकाल के दौरान बिहार के शिक्षा विभाग की निदेशक अचानक हमारे दफ्तर में आईं। उन्होंने लगभग बिलखते हुए बताया कि किस तरह एक विधायक ने उन्हें अपमानित किया।
पहले तो विधायक इस बात पर खफा हुए कि उनके आने पर वह कुर्सी से खड़ी क्यों नहीं हुईं, जबकि वह उन्हें जानती भी नहीं थीं। फिर दबंग विधायक ने एक सिफारिश का पत्र थमाकर कहा कि इस पर अभी आदेश करो। निदेशक ने केवल इतना कहा कि इस आवेदन पर पूरी जानकारी विभाग से लेकर वह आदेश देंगीं। तब दबंग नेता ने सड़क पर दी जाने वाली गालियां देकर खूब अपमानित किया।
परेशान महिला निदेशक एक महीने की छुट्टी लेकर अपना दुख सुनाने आई थीं। हमने रिपोर्ट छापी, हंगामा हुआ और मामला मुख्यमंत्री तक पहुँच सका। लेकिन विधायक का कुछ नहीं बिगड़ा।
एक अन्य घटना तो एक आई.ए.एस. अधिकारी के साथ हुई। दबंग नेता ने अपने परिवार के सदस्य को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाने में सहायता नहीं करने पर चप्पलों से पीट दिया। 1991 के लालू राज के दौरान ही गया के एक जज सत्यनारायण सिंह की दस साल की बेटी का अपहरण हुआ। इस कांड में भी लालू की पार्टी के दबंग विधायक के खास साथियों का नाम आया।
गया के वकीलों ने आंदोलन भी किया। लेकिन नेता और उनके साथियों पर सरकार ने कोई पुलिस कार्रवाई नहीं होने दी। बहरहाल, संभव है कि अब बिहार में पहले जैसी स्थिति नहीं है। फिर भी यह सही समय है जबकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को चुनावी उम्मीदवार बनाकर सत्ता में लाने के प्रयासों को रोका जाए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सार्वजनिक हस्तियों के जीवन का हर पहलू सार्वजनिक होता है, बशर्तें कि उन्होंने अपनी निजी जीवन के कुछ पक्षों को कभी जगजाहिर न किया हो। यही उनके आसपास एक रहस्य और गंभीरता का निर्माण करता है।
भव्य श्रीवास्तव, लेखक, पत्रकार और Religion World के संस्थापक।।
सार्वजनिक हस्तियों के जीवन का हर पहलू सार्वजनिक होता है, बशर्तें कि उन्होंने अपनी निजी जीवन के कुछ पक्षों को कभी जगजाहिर न किया हो। यही उनके आसपास एक रहस्य और गंभीरता का निर्माण करता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक राजनैतिक व्यक्ति हैं और सार्वजनिक जीवन में वो खुले-खिलें हैं। इस वजह से उन्हें लेकर जो अतिश्योक्ति पूर्ण बातें लोग कह जाते हैं उससे उनके लिए एक नया वजूद गढ़ पाना बहुत सारे लोगों के लिए कठिन और चुनौती भरा होता है।
इसी बीच की जगह में व्यक्तित्व और विचारों के संघर्ष से उनका अतीत और वर्तमान भांपा जाता है। अगर प्रधानमंत्री किसी और धर्म के होते तो शायद उनके अवतार होने की कल्पनी भी किसी के मन में नहीं आती है। पर हिंदू धर्म में संतों की विस्तृत परंपरा, गृहस्थों के सामाजिक योगदान, शिक्षकों-सामाजिक सेवकों के महा-उदाहरण से हमनें कई महापुरुषों को उद्धारक के तौर पर देखा और स्वीकारा है। हां, धर्म के बाने में जाकर यह सरलता से दैवीय कृपा के समीप खड़ा हो जाता है।
नरेंद्र मोदी के जीवन के जिन भी पहलुओं से हम परिचित हैं उसमें बहुत सी ऐसी घटनाएं हैं जो उन्हें धर्म के बहुत समीप लाकर खड़ा करती हैं और उनका दैवीय विश्वासों से गहरा संबंध जोड़ती हैं। बचपन में मंदिरों में समय बिताना, ध्यान करना, युवावस्था में (विवाह के बाद) सबकुछ छोड़कर संन्यास की ओर अभिमुख होना, नदी-तीर्थ-आश्रम-गुरु-पर्वत आदि जगहों पर रहना और फिर समाज में वापसी और कार्य करने का विचार भी एक गुरु (रामकृष्ण आश्रम) से पाना, यह सभी सांकेतिक हैं। किसी के मन में सबकुछ छोड़कर निकल जाने का विचार तभी आता है जब वो उस मार्ग के प्रति बहुत आश्वस्त हो। परमात्मा, सत्य, ज्ञान और चेतना उन्नयन के लिए लाखों लोग धर्म के मार्ग पर विचरण करने आते रहे है, शायद नरेंद्र भी उनमें से एक थे। पर वो अचानक लौट आए। मां के पास। बिना इस विचार को किसी महान व्यक्तित्व के जोड़े कहना चाहूंगा कि ऐसा कई बार कुछ महान संतों के साथ भी हुआ है। किसी ने मुझे बताया कि तोड़ो कारा तोड़ो (नरेंद्र कोहली) पुस्तक उनकी पसंदीदा है।
आरएसएस की नींव में हिंदू धर्म के संगठन की भावना जोर मारती है। वे खुद को सांस्कृतिक संगठन ही कहते हैं। लाखों युवा इस संगठन से अनुशासन और मार्गदर्शन के लिए जुड़ते हैं, अमूमन सेवा के कई रूपों को एक विचार बनाकर इस संगठन ने बहुतों को प्रभावित किया है। नरेंद्र मोदी को भी। बिना विचार के व्यक्ति बड़ा तो हो सकता है, पर पहुंचता कहीं नहीं है। राष्ट्र निर्माण, जनचेतना, सामाजिक सेवा आदि के अपने विचार को आरएसएस पेश करके एक समानांतर सोच का अनुगामी है। नरेंद्र मोदी की मां ने ज्योतिषी से भी उनकी कुंडली दिखाई, आया कि तुम्हारा बेटा राजा बनेगा या फिर शंकर मेरे जैसा कोई महान संत। बचपन के दिनों में नरेंद्र मोदी साधु को देखते ही उनके पीछे-पीछे चलने लग जाते थे। वैराग्य सहज नहीं होता, इसके लिए हिंदू धर्म में माहौल-परंपरा और प्रारब्ध तीनों मायने रखते हैं, नरेंद्र मोदी के बाद शायद केवल प्रारब्ध का ही सहारा दिखता है।
राजनीति में आना, उसे साधना और फिर उसे चलाना यह सब बहुत कुशलता मांगती है। नरेंद्र मोदी ने यह सब कहां से सीखी, इसे लेकर हजारों किस्से और किवदंतियां हैं। पर धर्म में रूचि और उसके मार्ग पर चलने की प्रेरणा किसी को बहुत कुछ उद्धाटित करती है। संतों के जीवन में प्रश्न कम उत्तर ज्यादा होते हैं। नरेंद्र मोदी के लिए शायद किसी संत द्वारा दिखाया गया मार्ग उत्तर ही बना होगा। कई घाट पर पानी पीने से ज्यादा स्नान करने का अवसर मिलना भी एक सौभाग्य रहा होगा। हमारे आसपास जो लोग धार्मिक और धर्म गुरूओं के दर्शन-आशीष-दीक्षा-चमत्कार में यकीन रखते हैं वो आपको कई किस्से सुना देंगे कि धर्म कैसे उन्हें आगे ले गया। विधानसभा का पहला टिकट भी नरेंद्र मोदी को एक संत के आशीर्वाद से ही मिला।
पर क्या इन सबसे यह सिद्ध होता है कि वो किसी दैवीय कृपा से किसी दैवीय कार्य को करने के लिए बनें हैं। धर्म जगत के लोग बिना किसी संदेह के इस बात को मानते हैं। पर तार्किक और राजनैतिक विचार(शायद उनकी पार्टी के भी) इसे स्वीकारने में कभी सहज नहीं होंगे, वे एक राजनौतिक व्यक्तित्व को राजनैतिक धुरी पर ही परखते आएं हैं। धर्म के क्षेत्र में नरेंद्र मोदी का सक्रिय हस्तक्षेप भी राजनैतिक ही है इसे मानने वालों की बहुत संख्या है। पर उनके दृष्टिकोण से हुए बदलाव - मंदिर, धर्म-जगत, सेवा, तीर्थयात्रा और दर्शन-प्रदर्शन में हुए आमूल चूल बदलाव को लेकर किसी के पास कोई तार्किक जवाब नहीं हैं। सब राजनीति है, कहने वाले यही कहेंगे।
लेकिन क्या वो दैवीय अवतार है ? इसका जवाब उनके पास भी नहीं है। लेकिन हो सकता है, जो आने वाले कुछ साल तय करेंगे। केवल एक ही चीज भारतीय जनमानस को किसी को दैवीय अवतार मानने में सहयोग करती है। वो है संन्यासी-वैरागी जीवन और लोगों की उसमें अकाट्य आस्था। आज नहीं तो कल नरेंद्र मोदी पद के दायरे से बाहर होंगे और फिर जो वो करेंगे वो शायद कुछ और ही रचेगा। यह बात इसलिए कहा रहा हूं कि जिसने पद पर रहते कुछ किया हो, वो आगे खाली नहीं बैठेगा। वो पुन: हिमालय जाएं या नहीं, वो पुन: परमात्मा को तलाशे या नहीं, पर उनके लिए एक अवसर समाज में जगह बना चुका है। हम अब उनकी शैली के नेतृत्व से अवगत हैं, जो किसी और प्रधानमंत्री से अलग इसलिए रहा क्योंकि उसमें संस्कृति और धर्म के बहुत सारे आकाश जुड़े हैं। वे खुद को भी इसलिए इतना बड़ा कर पाएं कि उनकी प्यास धर्म के नेति-नेति से जुड़ी लगती है। दिखने-छपने-कटाक्ष-प्रदर्शन-अमरता के सवाल उन्हें प्रभावित नहीं करते, शायद इसके पीछे भी आध्यात्म और धर्म की शक्ति हो।
बहरहाल, आज वो कोई दैवीय अवतार नहीं है। राजस्थान के लोग संत नहीं, लोकदेवता को मानते हैं और उनके वीर और संत वो स्थान बनाकर अमर हैं। हमारे गांवों और नगरों में कई विभूतियों की मूर्तियां देव भाव से स्थापित हैं। हम जातियों-संप्रदायों के संतों को भी देवता का अंश मानते हैं, कई संतों ने देवताओं को नए रूपों में प्रकट किया और वे खुद पूजे जाने लगे। भारतीय समाज में और हिंदू धर्म में इस प्रवाह की कई गाथाएं और प्रतिमाएं आज भी जीवित हैं। एक राजनेता के तौर वो साम-दाम-दंड-भेद के प्रति सजग हैं और जीत को ही लक्ष्य मानकर डटे हुएं हैं। एक धार्मिक व्यक्ति के तौर पर वो पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार, पंरपरा-रीति, दर्शन-उपासना सबकुछ खुलकर करते हैं। यही उन्हें अलग बनाता है और उनके लिए अतिश्योक्ति पूर्ण संभावना भरे विचारों को जन्म देता है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
हजारों निवेशकों के करोड़ों रुपये डूब गए थे। कोई तो ऐसा तरीका होना चाहिए कि इन लोगों के नुकसान की भरपाई हो और नुकसान पहुंचाने वालों को सज़ा मिले।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
देश के बड़े औद्योगिक समूह अडानी समूह को बड़ी राहत मिली। प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी ने शेयरों में हेरा-फेरी करने और अंदरूनी कारोबार (इनसाइडर ट्रेडिंग) के आरोपों से अडानी समूह को क्लीन चिट दे दी। अमेरिका की शॉर्ट सेलर कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च ने गौतम अडानी और उनके समूह की कंपनियों, अडानी पोर्ट्स और अडानी पावर, पर विदेश से फंडिंग के ज़रिए अपने समूह में पैसे लगवाने और अंदरूनी कारोबार करने के आरोप लगाए थे लेकिन जांच में ये सारे आरोप बेबुनियाद और झूठे साबित हुए।
सेबी के सदस्य कमलेश चंद्र वार्ष्णेय ने अपने आदेश में कहा कि अडानी समूह पर शेयरों की हेराफेरी के जो आरोप लगाए गए थे, उन्हें साबित करने वाला एक भी सबूत नहीं मिला। सारे आरोप निराधार पाए गए। हिंडनबर्ग ने जनवरी 2023 में अडानी समूह के ख़िलाफ़ अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि अडानी समूह की कंपनियां अंदरूनी कारोबार कर रही हैं, शेयरों में हेरफेर (स्टॉक मैनिपुलेशन) करके उनकी कीमतें बढ़ा रही हैं।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाकर मामले की जांच कराई थी। एसआईटी ने भी अडानी समूह को हिंडनबर्ग के लगाए इल्ज़ामों से क्लीन चिट दे दी थी लेकिन सेबी शेयर बाज़ार से जुड़े आरोपों की जांच कर रही थी। आज अडानी समूह को सेबी ने भी क्लीन चिट दे दी। क्लीन चिट मिलने पर गौतम अडानी ने एक बयान में कहा कि उनकी कंपनी शुरू से कह रही थी कि हिंडनबर्ग के आरोप बेबुनियाद और झूठे हैं।
सेबी की अडानी को क्लीन चिट बिलकुल स्पष्ट है। इसमें कोई अगर-मगर नहीं है। हिंडनबर्ग के दावे झूठे निकले। अडानी समूह की सारी लेन-देन (ट्रांजैक्शन) को वास्तविक करार दे दिया गया। न कोई धोखाधड़ी साबित हुई, न धन की हेराफेरी (फंड सिफोनिंग) के सबूत मिले। सारे कर्ज़ ब्याज के साथ लौटा दिए गए। सेबी को किसी नियम-कानून का उल्लंघन नहीं मिला।
अडानी समूह की कंपनियों को तो राहत मिल गई। सवाल ये है कि हिंडनबर्ग की फर्जी रिपोर्ट के कारण हज़ारों निवेशकों का जो नुकसान हुआ, उसके जिम्मेदार कौन हैं? झूठी कहानी (नेरेटिव) के कारण अडानी के शेयरों में भारी गिरावट आई थी। हजारों निवेशकों के करोड़ों रुपये डूब गए थे। कोई तो ऐसा तरीका होना चाहिए कि इन लोगों के नुकसान की भरपाई हो और नुकसान पहुँचाने वालों को सज़ा मिले।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )