सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का यह कथन स्वागत योग्य है कि पत्रकारों को अदालती कार्रवाई कवर करने के लिए अदालत परिसर तक आने की ज़रूरत नहीं है।
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का यह कथन स्वागत योग्य है कि पत्रकारों को अदालती कार्रवाई कवर करने के लिए अदालत परिसर तक आने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें इसके लिए आभासी प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया जाएगा। इससे भारतीय पत्रकारिता के लिए सुविधाओं के कई रास्ते खुल जाएंगे। समय, पेट्रोल और ऊर्जा की बचत होगी। कई साल से पत्रकारिता कर रहे संवाददाताओं के बीच यह मुद्दा अरसे से चर्चा में था। अप्रत्यक्ष रूप से मांग भी की जा रही थी। लेकिन तब एक वर्ग इसके खिलाफ़ था और कहता था कि फ़ैसला आने तक न्यायालयीन कार्रवाई मीडिया में आने से ही रोक दी जानी चाहिए। माननीय मुख्य न्यायाधीश की इस पहल से हम उम्मीद कर सकते हैं कि लोकतंत्र के इन दो ज़िम्मेदार संस्थानों के बीच सदभाव और समन्वय अधिक होगा।
कुछ बरस पहले मैं न्यूयॉर्क में था। वहां संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्रवाई के कवरेज का तरीक़ा और पत्रकारों के काम काज की शैली का अध्ययन करने गया। मैंने पाया कि सब कुछ खुला था। जिन टीवी संवाददाताओं को संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई कवर करनी होती थी, उन्हें वीडियो लिंक और फ़ीड भेजने की सुविधाएं दी गई थीं। वे अपने मीडिया सेंटर में बैठकर यह काम कर सकते थे। अलबत्ता जब कोई ख़ास ब्रीफ़िंग का दिन आता तो पत्रकार कवरेज हॉल में पहुंच जाते थे। कई पत्रकार तो महीनों तक अपने चैनल या समाचारपत्र के कार्यालय ही नहीं जाते थे। इसी तरह मैंने देखा कि अदालतों में टीवी यूनिटों के लिए अलग से स्थान आरक्षित रहता था। संवाददाताओं के प्रवेश पर कोई बंदिश नहीं थी। न्यायालय की गरिमा की रक्षा करते हुए सारे संवाददाता अदालत परिसर में घूमते और अपनी रिपोर्टिंग करते थे।
इन दिनों भारतीय न्यायालयों में चल रहे महत्वपूर्ण मामलों के मीडिया ट्रायल की बड़ी चर्चा रहती है। कहा जाता है कि पत्रकार फ़ैसला आने से पहले ही अपने समाचार माध्यमों के ज़रिए तर्कों कुतर्कों से फ़ैसला सुना देते हैं। यह अनुचित तो है, पर यह भी सच है कि अदालत में जब पत्रकारों को प्रवेश नहीं मिलता तो भी उसे अपने पेशेवर दायित्व को तो निभाना ही होता है। लोग जानना चाहते हैं कि आख़िर अमुक मामले में आज क्या हुआ। ऐसी सूरत में वकीलों, सेवानिवृत न्यायाधीशों और क़ानून के जानकारों से बात करके वे ख़बर की तह में जाना चाहते हैं। इस चक्कर में अक्सर तथ्यों को रखने में गलती हो जाती है, क्योंकि किसी मामले के बुनियादी तथ्य तो पता होते हैं, लेकिन अदालत के अंदरूनी रिकॉर्ड में बंद दस्तावेज़ क्या कहते हैं यह संवाददाताओं को पता नहीं होता है। चीफ़ जस्टिस के इस ऐलान से पत्रकारिता की शुद्धता बढ़ जाएगी।
इसी तरह अपेंडिक्स की तरह एक प्रावधान अभी भी न्यायपालिका के साथ चिपका हुआ है। इसे अदालत की अवमानना कहते हैं। पत्रकारिता अदालत के फ़ैसलों की समीक्षा नहीं करना चाहती, मगर यह भी कड़वी सचाईं है कि न्यायपालिका के भीतर की गंदगी अवमानना की आड़ में छिप जाती है। दरअसल यह अंग्रेजी हुकूमत के दिनों का प्रावधान है, जब अदालतें भारतीय क्रांतिकारियों को सनक भरे निर्णयों से फांसी जैसा क्रूर निर्णय सुनाती थीं और पत्रकार अदालत की अवमानना से डरकर उसकी विवेचना भी नहीं कर पाते थे। गोरी सत्ता के दरम्यान कोर्ट भारतीयों के साथ ज़ुल्म करने वाले फ़ैसलों के लिए कुख्यात थे। बरतानवी सरकार इन गैरकानूनी निर्णयों के प्रति आम अवाम में आक्रोश नहीं पैदा होने देना चाहती थी। इसलिए अवमानना की तलवार पत्रकारिता पर लटकी रहती थी। आज़ाद भारत में इस प्रावधान की कोई ज़रूरत नही है। यदि संविधान के दायरे में कोई फ़ैसला लिया जाता है तो फिर उसकी आलोचना ही कोई क्यों करेगा। अवमानना असल में न्यायालय के अनुचित व्यवहार की ढाल भी है। अब इस पर कौन ध्यानदेता है यह देखना है।
जो भी हो! भारतीय पत्रकारिता को मुख्य न्यायाधीश को शुक्रिया तो कहना ही चाहिए मिस्टर मीडिया!
2 अक्टूबर को प्रशांत किशोर ने चंपारण से जनसुराज यात्रा की शुरुआत की थी। 2 साल में उनकी यात्रा बिहार के साढ़े 5 हजार गांवों में गई, 17 जिलों में घूम कर प्रशांत किशोर ने लोगों को अपने साथ जोड़ा।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
गांधी जयंती 2 अक्टूबर को प्रशान्त किशोर औपचारिक रूप से पॉलिटिकल स्ट्रैटजिस्ट से नेता बन गए। प्रशान्त किशोर ने अपनी नई पार्टी बना ली। पार्टी का नाम है, जनसुराज पार्टी। पटना के वेटेरिनरी कॉलेज ग्राउंड में पूरे बिहार से पचास हजार से ज्यादा लोग जुटे। प्रशान्त किशोर ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी न तो वामपंथी और न ही दक्षिणपंथी विचारधारा अपनाएगी, वो सिर्फ इंसानियत की राह पर चलेगी, बिहार को नंबर वन राज्य बनाएंगे, बिहारियों के सम्मान के लिए काम करेंगे। पार्टी के झंडे पर बापू और बाबा साहब दोनों की फोटो होगी।
प्रशान्त किशोर ने कहा कि अगर बिहार में उनकी पार्टी की सरकार बनती है तो एक घंटे के भीतर शराबबंदी को हटा देंगे, शराब से जो पैसा टैक्स के तौर पर मिलेगा, उससे स्कूल बनवाएंगे, बच्चों को पढ़ाएंगे क्योंकि अच्छी शिक्षा ही सारी परेशानियों से निजात दिला सकती है। प्रशान्त किशोर न पार्टी के अध्यक्ष होंगे, न मुख्यमंत्री पद के दावेदार। रिटायर्ड IFS अधिकारी मनोज भारती जनसुराज पार्टी के कार्यवाहक अध्यक्ष होंगे। प्रशान्त किशोर की पार्टी के सभी बड़े फैसले नेतृत्व परिषद करेगी।
दो साल पहले 2 अक्टूबर को प्रशांत किशोर ने चंपारण से जनसुराज यात्रा की शुरुआत की थी। 2 साल में उनकी यात्रा बिहार के साढ़े 5 हजार गांवों में गई, 17 जिलों में घूम कर प्रशांत किशोर ने लोगों को अपने साथ जोड़ा। इसके बाद जनसुराज पार्टी का एलान किया। जनसुराज पार्टी बिहार के अगले इलेक्शन में सभी 242 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। मंच पर प्रशांत किशोर के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव, पूर्व सांसद मुनाज़िर हसन, पूर्व एमएलसी रामबली चंद्रवंशी, कर्पूरी ठाकुर की पोती जागृति ठाकुर, मनोज भारती भी मौजूद थे।
प्रशांत किशोर की टीम में कई अनुभवी अफसर हैं, जो अच्छी नौकरी छोड़कर उनके साथ जुड़े हैं। असम में तैनात तेजतर्रार IPS अफसर आनंद मिश्रा मूलरूप से बिहार के हैं। उन्हें असम में सिंघम कहा जाता है। अब आनंद मिश्रा टीम प्रशांत किशोर का हिस्सा हैं।
प्रशान्त किशोर के मैदान में उतरने से बिहार की राजनीतिक पार्टियों में हलचल है। सबकी नजर प्रशान्त किशोर की रणनीति पर है। JD-U के महासचिव अशोक चौधरी ने कहा कि प्रशांत किशोर पहले पैसा लेकर चुनाव लड़वाते थे और अब पैसा बनाने के लिए खुद चुनाव लड़ेंगे। केन्द्रीय मंत्री और LJP अध्यक्ष चिराग पासवान ने कहा, चुनाव कोई भी लड़ सकता है, लेकिन फैसला तो जनता करती है।
लालू यादव की बेटी मीसा भारती ने प्रशान्त किशोर की पार्टी को बीजेपी की बी टीम बता दिया। बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू के नेताओं की बात सुनकर एक बात तो साफ दिख रही है कि प्रशान्त किशोर की एंट्री से सब परेशान हैं। प्रशान्त किशोर राजनीति में नया नाम नहीं है, लेकिन नेता के तौर पर नए हैं। वह अचानक राजनीति में नहीं कूदे हैं। दो साल तक बिहार के गांव-गांव की खाक छानने के बाद मैदान में उतरे हैं, इसलिए उन्हें जनता की नब्ज़ पता है, उनका विजन स्पष्ट है, उन्हें रास्ता भी पता है, लक्ष्य भी है। प्रशान्त किशोर ने पार्टी बनाई, अच्छा किया। बिहार को एक नई सोच की जरूरत है। साफ और सच्ची बात कहने वाले लीडर की आवश्यकता है।
प्रशांत किशोर ने जिस तरह से पार्टी में फैसले लेने की और उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया तैयार की है, वो भी इंप्रैसिव है। मैं उनकी बस एक ही बात से सहमत नहीं हूं। प्रशांत किशोर का ये कहना कि मैं मुख्यमंत्री नहीं बनूंगा सही विचार नहीं है। अगर वह वाकई में बिहार और बिहारियों को उनका हक दिलाने के लिए लड़ना चाहते हैं, तो उन्हें front foot पर आकर खेलना होगा, राजनीति में non playing captain की कोई जगह नहीं होती। ये कहने से काम नहीं चलेगा कि मैं नहीं बनूंगा, पार्टी किसी और को चुनेगी, मैं तो फिर से पैदल चलूंगा, इससे बिहार के लोगों के मन में भ्रम पैदा होगा।
प्रशांत किशोर को बिहार की जनता के सामने साफ विकल्प देना चाहिए। अपने आप को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। लोगों के सामने स्पष्ट विकल्प हो कि वो प्रशांत किशोर को अपना नेता मानते हैं या नहीं, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं या नहीं। पिछले दो साल में जहां जहां प्रशांत किशोर गए हैं, लोगों ने उनकी बात सुनी है, उन पर भरोसा किया है। उन्हें जन सुराज के नेता के तौर पर देखा है।
इसलिए कोई और नेता कैसे हो सकता है? प्रशांत किशोर के पास जिम्मेदारी से पीछे हटने का ऑप्शन नहीं है। वह जन सुराज का फेस हैं और ये फैसला बिहार की जनता करेगी कि वो इस face को पसंद करती है या नहीं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
किशोरावस्था में हरिश्चंद्र नाटक से प्रभावित गांधी आजीवन फिल्मों के प्रति क्यों उदासीन बने रहे? फिल्म राम राज्य देखने के लिए उनको किसने तैयार किया। बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है।
ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर।
इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है।
इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था।
इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए।
क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।
संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया।
मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है।
जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं।
थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे।
उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए।
इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया।
1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया।
भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी। 1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में हुए।
मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।
भारत और चीन की जीडीपी 1990 में लगभग बराबर थी यानी दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का आकार एक जैसा था। अब क़रीब 35 साल बाद चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 6 गुना बड़ी है। चीन दुनिया का कारख़ाना बन गया है, हम मेक इन इंडिया के ज़रिए अब यही कोशिश कर रहे हैं। दस साल में यह कोशिश कितनी रंग लायी है उसका हिसाब किताब। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर को मेक इन इंडिया के दस साल होने पर LinkedIn पर ब्लॉग लिखा। इसका सार है कि मेक इन इंडिया सफल है।
भारत मोबाइल फ़ोन, डिफ़ेंस और खिलौने बनाने में काफ़ी आगे बढ़ा है। 2014 में मोबाइल फ़ोन बनाने के दो कारख़ाने थे अब 200, भारत में इस्तेमाल हो रहे 99% फ़ोन यहीं बने हैं। तब 1500 करोड़ रुपये के फ़ोन एक्सपोर्ट हो रहे थे अब 1.28 लाख करोड़ रुपये। 2014 में डिफ़ेंस का सामान का एक्सपोर्ट 1000 करोड़ रुपये था, अब 21 हज़ार करोड़ रुपये। 85 देशों में हम डिफ़ेंस एक्सपोर्ट कर रहे हैं। 2014 के मुक़ाबले खिलौनों का एक्सपोर्ट 239% बढ़ा है। प्रधानमंत्री ने मन की बात में अपील की थी कि बच्चों के खिलौने तो हम अपने देश में बना सकते हैं।
सरकार ने जो आँकड़े दिए हैं वो सारे सही है लेकिन इसका दूसरा पहलू भी देखिए। मैन्युफ़ैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 2013-14 में 17.3% था, दस साल भी उतना ही है मतलब अर्थव्यवस्था में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी मेक इन इंडिया के बाद भी बढ़ी नहीं है। सरकार का लक्ष्य 2030 तक इसे 25% तक ले जाने का है। यह इतना आसान नहीं है। रोज़गार में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी थोड़ी सी कम हुई है। पहले हर 100 में से 12 लोग कारख़ाने में काम कर रहे थे और अब 11, दुनिया के एक्सपोर्ट में भारत की हिस्सेदारी पिछले 18 साल में दो गुना नहीं हो पायीं है।
2006 में 1% थी और अब 1.8%, दस साल पहले 1.6%. तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में। चीन का फ़ोकस मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर था। कारख़ानों से ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिलता है जबकि हमारी अर्थव्यवस्था सर्विसेज़ की तरफ़ मुड़ गई। चीन दुनिया का कारख़ाना बना तो हम दुनिया के कॉल सेंटर। सर्विसेज़ उतनी नौकरियाँ नहीं दे सकता है जितना मैन्यूफ़ैक्चरिंग।
दुनिया की बड़ी कंपनियाँ चीन में सामान बनाना पसंद करती रही है क्योंकि वहाँ सस्ते मज़दूर थे, कारख़ाने लगाना आसान था और इंफ़्रास्ट्रक्चर अच्छा। भारत में सस्ते मज़दूर तो है लेकिन कारख़ाना लगाना या वहाँ से सामान पोर्ट तक पहुँचाना मुश्किल। पिछले दस सालों में इस पर काम हुआ है। इस सबके बीच कोरोनावायरस में चीन पर निर्भरता की क़ीमत दुनिया को चुकाना पड़ी है, इसलिए सभी कंपनियाँ चाइना प्लस वन की नीति पर काम कर रहे हैं यानी चीन के अलावा भी किसी दूसरे देश में सामान बनाना।
जैसे एप्पल iPhone में भी बना रहा है। यहाँ भी मुक़ाबला मैक्सिको, वियतनाम जैसे देशों से है। इन देशों के मुक़ाबले भारत में सामान बनाना महँगा है। सरकार का कहना है कारख़ाने के गेट पर तो सामान की क़ीमत बराबर है लेकिन इसे पोर्ट तक पहुँचाना भारत में महँगा पड़ता है। यही वजह है कि हमें सड़के, रेलवे, पोर्ट पर और काम करने की ज़रूरत है।
(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)
संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह स्वीकारने में संकोच नहीं होगा कि महात्मा गाँधी के आदर्शों के साथ वह लालबहादुर शास्त्री के बताए रास्तों से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रयास कर रहे हैं।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हर वर्ष की तरह 2 अक्टूबर को महात्मा गाँधी और भारत में आत्म विश्वास और उदार आर्थिक क्रांति के जनक लालबहादुर शास्त्री को सादर नमन के साथ स्मरण किया जाएगा। महात्मा गाँधी के लिए देश दुनिया को अधिक बताने की आवश्यकता नहीं होती। शास्त्रीजी भी देश में 'जय जवान जय किसान' के नारे को लेकर अधिक याद किए जाते हैं। उनकी ईमानदारी, त्याग और पाकिस्तान को पहले युद्ध में पराजित करके ऐतिहासिक समझौते की भी चर्चा अधिक होती है। लेकिन क्या वर्तमान राजनीतिक आर्थिक परिवर्तनों के दौर में क्या यह कहना गलत होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शास्त्रीजी द्वारा शुरु की गई उदार आर्थिक नीतियों, कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में आत्म निर्भरता, दुग्ध क्रांति, पाकिस्तान चीन को करारे जवाब देने की सुरक्षा व्यवस्था और राजनेताओं के भ्र्ष्टाचार को कठोरता से रोकने का प्रयास कर रहे हैं?
दुखद बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने शास्त्रीजी को मरणोपरांत समुचित सम्मान और कार्यों का श्रेय नहीं दिया। यदि प्रामाणिक तथ्यों को सामने रखा जाए तो नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह से बहुत पहले प्रधानमंत्री के रुप में लालबहादुर शास्त्री ने ही `भारत को समाजवादी के नाम पर मूलतः कम्युनिस्ट विचारधारा और राजसत्ता पर नियंत्रित अर्थ व्यवस्था को बदलने के क्रन्तिकारी निर्णय लिए थे। इसलिए` संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह स्वीकारने में संकोच नहीं होगा कि महात्मा गाँधी के आदर्शों के साथ वह लाल बहादुर शास्त्री के बताए रास्तों से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रयास कर रहे हैं।
वास्तव में, शास्त्री जी को आज़ादी के बाद भारत का पहला आर्थिक सुधारक कहा जा सकता है। शास्त्री जी को उनका उचित सम्मान न मिलने का एक कारण शायद यह है कि सुधारों के पहले चरण की शुरुआत करने का उनका प्रयास कई गलतफहमियों से घिरा हुआ है। उदाहरण के लिए, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि 1966 में भारतीय रुपये के अवमूल्यन का निर्णय और क्रियान्वयन इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद किया था। यह सच है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही रुपये का अवमूल्यन किया गया था, लेकिन भारत सरकार की फाइलों में रिकॉर्ड मिल सकता है कि मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय, जो एक आवश्यक कदम था, शास्त्री जी द्वारा लिया गया था।
उस समय वित्त मंत्रालय में कार्यरत आई.जी. पटेल ने अपने संस्मरण में बताया था कि कैसे शास्त्री जी के प्रधानमंत्री रहते हुए मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय सैद्धांतिक रूप से लिया गया था और अनौपचारिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) को इसकी जानकारी दी गई थी। उनके वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी अवमूल्यन के निर्णय के विरुद्ध थे। वह आयात और औद्योगिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण हटाने और मुद्रा का अवमूल्यन करने के खिलाफ भी थे। शास्त्री जी के लिए, युद्ध की तबाही के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि देश के पास आर्थिक उदारीकरण और मुद्रा अवमूल्यन के लिए आईएमएफ-विश्व बैंक के नुस्खों को मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इसलिए, शास्त्री जी ने कृष्णमाचारी को वित्त मंत्री पद से हटाने के लिए एक राजनैतिक और नैतिक तरीका निकाला।
कृष्णमाचारी के लिए, यह उनके राजनीतिक जीवन में दूसरी बार था जब उन्हें वित्त मंत्री के पद से हटना पड़ा। एक बार नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में, मुंद्रा कांड के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। अब, शास्त्री जी के अधीन, कृष्णमाचारी के बेटे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। शास्त्री जी ने जांच पूरी होने तक उन आरोपों से उन्हें मुक्त करने से इनकार कर दिया और वे चाहते थे कि उनके वित्त मंत्री तब तक पद से हट जाएं जब तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वारा की जाने वाली जांच में उन्हें क्लीन चिट न मिल जाए। कृष्णमाचारी ने इसे अपमान के रूप में लिया और अपना इस्तीफा दे दिया, जिसे शास्त्री जी ने तुरंत स्वीकार कर लिया और सचिन चौधरी को नया वित्त मंत्री नियुक्त किया।
शास्त्री जी उसके बाद ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे। उनकी उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी ने चौधरी को वित्त मंत्री के रूप में बनाए रखा और शास्त्री द्वारा लिए गए मुद्रा अवमूल्यन के निर्णय को लागू किया। शास्त्री की सुधारवादी साख उनकी आर्थिक टीम से भी स्पष्ट थी। उनकी टीम के सभी सदस्य -एस भूतलिंगम, धर्म वीर, आईजी पटेल और एलके झा - अर्थव्यवस्था को मुक्त करने और कृषि को आधुनिक बनाकर और निजी क्षेत्र को नियंत्रण से अपेक्षाकृत स्वतंत्रता के साथ काम करने की अनुमति देकर भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता को साकार करने के लिए सुधारों की तत्काल आवश्यकता में विश्वास करते थे। यहां तक कि नेहरु के सबसे करीबी वी.के. कृष्ण मेनन और के.डी. मालवीय को भी शास्त्री जी के मंत्रिमंडल से हटना पड़ा। इस बात का संकेत था कि शास्त्री ऐसी व्यवस्था चाहते थे जो लाइसेंस राज से दूर होकर बाजार पर अधिक निर्भर हो।
शास्त्री जी के नेतृत्व वाली सरकार के कुछ फैसलों में भी बदलाव की बयार महसूस की गई। जब शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला, तब तक तीसरी पंचवर्षीय योजना की विफलता स्पष्ट हो चुकी थी। अगस्त 1965 में प्रधानमंत्री ने संसद में घोषणा की कि आर्थिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण पर पुनर्विचार किया जाएगा। इसके तुरंत बाद, स्टील और सीमेंट जैसे क्षेत्रों के लिए विनियमन में ढील दी गई। इतना ही नहीं, शास्त्री जी ने उन सभी प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र परियोजनाओं की समीक्षा का आदेश भी दिया जो तब तक शुरू नहीं हुई थीं।
शास्त्री जी ने परियोजनाओं पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को योजना आयोग से अलग-अलग आर्थिक मंत्रालयों में स्थानांतरित करके शासन को विकेंद्रीकृत करने की भी कोशिश की। शास्त्री जी ने आयोग के लिए अनिश्चित कार्यकाल के आधार पर नियुक्ति योजना को निश्चित अनुबंधों में बदल दिया। उन्होंने विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और वैज्ञानिकों से नीतिगत अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए 1964 में राष्ट्रीय विकास परिषद नामक एक समानांतर निकाय की भी स्थापना की। जिसने योजना आयोग के दायरे और भूमिका को कम कर दिया।
शास्त्री की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, खाद्यान्न की कमी को कृषि में निवेश को स्थानांतरित करके हल किया जा सकता था। कालाबाज़ारी का समाधान प्रोत्साहन में था, न कि दबाव में; सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता के लिए निजी क्षेत्र में जाना ज़रूरी था और आयात विकल्प के लिए निर्यात प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी योजना आयोग के पर क़तर कर उसे नीति आयोग में बदला तथा राज्यों की आवश्यकताओं के अनुसार वित्तीय प्रबंधन पर जोर दिया। इस दृष्टि से राहुल गांधी और उनसे बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे सहित कांग्रेस पार्टी को शास्त्रीजी की नीतियों निर्णयों को भी याद कर लेना चाहिए।
इन दिनों राहुल कांग्रेस की कर्नाटक और अन्य राज्य सरकारें अमूल दूध डेयरी के प्रवेश का विरोध कर रहे हैं। जबकि शास्त्री जी ने श्वेत क्रांति, दूध के उत्पादन और आपूर्ति को बढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान , आनंद, गुजरात के अमूल दूध सहकारी को समर्थन देकर और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड बनवाया था। उन्होंने कंजरी में अमूल के मवेशी चारा भंडार के उद्घाटन के लिए 31 अक्टूबर 1964 को आनंद का दौरा किया। चूंकि उन्हें इस सहकारी की सफलता जानने में गहरी दिलचस्पी थी, इसलिए वे एक गांव में किसानों के साथ रात रुके, और यहां तक कि एक किसान परिवार के साथ रात का भोजन भी किया। उन्होंने किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए देश के अन्य हिस्सों में इस मॉडल को दोहराने के लिए कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड (अमूल) के तत्कालीन महाप्रबंधक वर्गीज कुरियन के साथ विचार विमर्श किया।
चीन और पाकिस्तान से मुकाबले के लिए भारत की परमाणु शक्ति का कार्यक्रम भी शास्त्रीजी के कार्यकाल में शरु हुआ। 24 अक्तूबर, 1964 को महान वैज्ञानिक होमी भाभा ने आकाशवाणी पर परमाणु शक्ति पर बोलते हुए कहा था, "पचास परमाणु बमों का ज़ख़ीरा बनाने में सिर्फ़ 10 करोड़ रुपयों का ख़र्च आएगा और दो मेगाटन के 50 बनाने का ख़र्च 15 करोड़ से ज़्यादा नहीं होगा। दिसंबर 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने भाभा से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु विस्फोट के काम को तेज़ी देने के लिए कहा। दूसरे बड़े वैज्ञानिक होमी सेठना के अनुसार पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के दौरान शास्त्री ने भाभा से कुछ ख़ास करने के लिए कहा।
भाभा ने कहा कि इस दिशा में काम हो रहा है। इस पर शास्त्री ने कहा आप अपना काम जारी रखिए लेकिन कैबिनेट की मंज़ूरी के बिना कोई प्रयोग मत करिएगा। 1965 में पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जंग छेड़ दी। शास्त्री ने जंग और आर्थिक चुनौतियों के बीच प्रसिद्ध नारा ‘जय जवान जय किसान’ दिया। साथ ही अन्न बचाने के मकसद से लोगों को एक समय का खाना नहीं खाने का आह्वान भी किया। शास्त्रीजी ने कहा कि देश का हर नागरिक एक दिन का व्रत करे तो भुखमरी खत्म हो जाएगी। खुद शास्त्रीजी नियमित व्रत रखा करते थे और परिवार को भी यही आदेश था।
भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ इस जंग में बड़ी जीत हासिल की। 26 सितंबर, 1965 को भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़त्म हुए चार दिन ही हुए थे जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान में हज़ारों लोगों के सामने ऐलान किया, "सदर अयूब ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएंगे। वो इतने बड़े आदमी हैं। लहीम शहीम हैं। मैंने सोचा कि उन्हें दिल्ली तक चलने की तकलीफ़ क्यों दी जाए। हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तक़बाल करे।
मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे शास्त्री परिवार के तीन सदस्य हरेकृष्ण शास्त्री, सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री से कई बार मिलने बात करने और उनके राजनीतिक शैक्षणिक सामाजिक कार्यों को देखने समझने के अवसर मिले। कांग्रेस और भाजपा ने भी उनकी सेवाओं का उपयोग किया लेकिन वे शायद वर्तमान राजनीति की जोड़ तोड़ में अधिक सफल नहीं हो सके। शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री बताते थे कि 'बाबूजी देश में शिक्षा सुधारों को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। अक्सर हम भाई-बहनों से कहते थे कि देश में रोजगार के अवसर बढ़ें। इसके लिए बेहतर मूल्यपरकर शिक्षा की जरूरत है।'
अनिल शास्त्री अब भी लालबहादुर शास्त्री प्रबंधन और टेक्नोलॉजी संस्थान को बहुत कुशलता से संचालित कर रहे हैं। पिता के संस्मरण पर लिखी एक किताब में शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री ने लिखा है, बाबूजी की टेबल पर हमेशा हरी घास रहती थी। एक बार उन्होंने बताया था कि सुंदर फूल लोगों को आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ दिन में मुरझाकर गिर जाते हैं। घास वह आधार है जो हमेशा रहती है। मैं लोगों के जीवन में घास की तरह ही एक आधार और खुशी की वजह बनकर रहना चाहता हूं।' महात्मा गांधी और लालबाहदुर शास्त्री का पुण्य स्मरण करते हुए यही संकल्प दोहराने की जरुरत है कि करोड़ों लोगों के जीवन में खुशियां बढ़ती रहे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
विक्रमादित्य सिंह ने कहा था कि जो फैसला यूपी सरकार ने किया है, उसी तर्ज पर उन्होंने भी हिमाचल में दुकानदारों का वेरिफिकेशन, उनके नाम पते डिस्प्ले करने को अनिवार्य बनाने का आदेश दिया है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
योगी आदित्यनाथ के चक्कर में कांग्रेस के नेताओं में झगड़ा शुरू हो गया। हिमाचल के लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने ऐलान किया कि योगी आदित्यनाथ ने यूपी में खाने पीने की दुकानों में नेम प्लेट और मालिक का नाम पता लिखने को जिस तरह अनिवार्य बनाया है, उसी तरह हिमाचल प्रदेश में भी खाने पीने के दुकानदारों और रेहड़ी पटरी वालों को नेमप्लेट लगाना जरूरी होगा।
विक्रमादित्य सिंह के इस फैसले को लेकर कांग्रेस के तमाम नेताओं को आपत्ति है, जैसे टीएस सिंह देव, तारिक अनवर और इमरान प्रतापगढ़ी। तमाम नेताओं ने कांग्रेस हाईकमान से शिकायत की और हिमाचल सरकार से अपना फैसला वापस लेने की मांग की। हालत ये हो गई शाम होते होते हिमाचल प्रदेश सरकार की तरफ से ऐलान हो गया कि इस तरह का कोई फैसला नहीं हुआ है, इस मामले में विधानसभा की कमेटी बनी है, वही जो तय करेगी, वही होगा।
इसके बाद विक्रमादित्य सिंह को भी कहना पड़ा कि फिलहाल कोई फैसला नहीं लिया गया है। कमेटी रेहड़ी पटरी और दुकानदारों को आईकार्ड जारी करेगी, और वही आईकार्ड सबको डिस्प्ले करना होगा। लेकिन कांग्रेस के नाराज नेताओं को सिर्फ इतने से संतोष नहीं हैं, वे चाहते हैं कि कांग्रेस हाईकमान इस मामले में दखल दे, ये पता लगाए कि आखिर विक्रमादित्य सिंह ने बिना सलाह मशविरे के इस तरह के नाज़ुक मसले पर बयान क्यों दे दिया। लेकिन सवाल ये है कि क्या विक्रमादित्य सिंह ने वाकई में बिना सोचे विचारे फैसला सुना दिया। अगर वह कुछ करना ही चाहते थे तो फिर योगी आदित्यनाथ का नाम लेकर उन्हें श्रेय देने की जरूरत क्या थी?
कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने राहुल गांधी से बात करके विक्रमादित्य सिंह की शिकायत की, फैसला वापस लेने की मांग की। कांग्रेस के एक और सांसद तारिक अनवर ने कह दिया कि वो कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिख कर इस मामले में दखल देने की मांग करेंगे। छत्तीसगढ़ के पूर्व उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव ने भी विक्रमादित्य सिंह के फैसले पर आपत्ति जताई। टीएस सिंहदेव ने कहा कि अगर पहचान जरूरी है, तो इसके लिए नियम कानून पहले से ही हैं, दुकानदारों को नगर निगम से लाइसेंस मिलता है।
सिंहदेव ने कहा कि ऐसा लगता है कि किसी एक वर्ग को अलग-थलग करने की नीयत से इस तरह की बातें हो रही हैं। जब विवाद बढ़ा तो विक्रमादित्य सिंह की मां और हिमाचल कांग्रेस की अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनके बचाव में सामने आईं। प्रतिभा सिंह ने कहा कि वो सरकार के फ़ैसले के साथ हैं। लेकिन पार्टी हाईकमान की तरफ से संदेश पहुंच गया। विक्रमादित्य सिंह और प्रतिभा सिंह दोनों को दिल्ली तलब किया गया। विक्रमादित्य सिंह से कहा गया कि वो ऐसे बयान न दें कि विपक्षी दलों को मौक़ा मिले, पार्टी के नेता नाराज़ हों।
इसके बाद विक्रमादित्य सिंह अपने बयान से पीछे हट गए। उन्होंने कहा कि उनके आदेश का यूपी से कोई लेना देना नहीं है, हिमाचल प्रदेश एक अलग राज्य है। वह तो हाई कोर्ट के ऑर्डर का ही अनुपालन कर रहे हैं। विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि हिमाचल प्रदेश में किसी से भी भेदभाव नहीं होगा, देश का कोई भी नागरिक हिमाचल में आकर दुकान लगा सकता है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने भी सफ़ाई दी। कहा कि अभी तो इस मामले पर सिर्फ़ बातचीत हो रही है। एक सर्वदलीय कमेटी बनाई गई है। कमेटी सभी से बात करके कैबिनेट को अपनी सिफ़ारिश देगी।
शिमला में तूफान खड़ा करने की क्या जरूरत थी? इसकी असली वजह है, मुस्लिम वोटों के खोने का डर। कांग्रेस के जिन नेताओं ने सबसे पहले आवाज उठाई, इमरान प्रतापगढ़ी और तारिक अनवर जैसे नेता मुस्लिम वोटों के चैंपियन हैं। उन्हें लगता है कि योगी के रास्ते पर चले तो मुसलमान कांग्रेस से नाराज हो जाएंगे। इसीलिए मंत्री को अपने बयान से पलटवा दिया।
पहले भी शिमला की मस्जिद को कांग्रेस के मंत्री ने ही गैरकानूनी बताया था। विधानसभा में खड़े होकर कांग्रेस के मंत्री ने ही शिमला की शांति पर खतरे को लेकर आगाह कराया था लेकिन अगले दिन वो भी अपनी बात से पलट गए। विक्रमादित्य के बयानों और फिर सुक्खू सरकार की सफाई से इतना तो साफ है कि दुकानों पर साफ सफाई कराने और नेमप्लेट लगाने का ये आदेश लागू नहीं होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ताजमहल के गुंबद के आसपास पौधे का उगना लापरवाही नहीं बल्कि एएसआई की कार्य संस्कृति का उदाहरण है। संस्कृति मंत्रालय को अपेक्षाकृत सक्रियता के साथ काम करने की आवश्यकता है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
पिछले दिनों ये आगरा के ताजमहल के गुंबद से पानी टपकने का समाचार चर्चा में आया। कारण ये बताया गया कि ताजमहल के गुंबद पर एक पौधा उग आया था और उसकी जड़ों से होकर पानी टपका। उस पौधे का वीडियो और फोटो इंटरनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हुआ। तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं। ताजमहल वैश्विक धरोहर की श्रेणी में आता है और इसके रख-रखाव का दायित्व भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का है।
गुंबद से पानी टपकने के समाचार को पढ़ने के बाद जिज्ञासा हुई कि देखा जाए भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर ताजमहल के सबंध में क्या जानकारियां हैं। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट खोलते ही इसके मुख्य पृष्ठ पर ताजमहल की तस्वीर नजर आती है जहां लिखा भी है कि ये वैश्विक धरोहर है। वैश्विक धरोहर की देखरेख या रखरखाव इस तरह से की जाती है कि उसके ऊपर पौधा उग आए और अधिकारियों को हवा तक नहीं लगे।
यहां ये बात ध्यान दिलाने योग्य है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का एक कार्यालय आगरा में भी है। इतना ही नहीं आगारा किला की एक दीवार पर भी छोटे-छोटे पौधे उग आए हैं और वो बढ़ रहे हैं। उसपर पता नहीं कब तक भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के जिम्मेदार अफसरों का ध्यान जाएगा। दरअसल इस बात को संस्कृति मंत्रालय के रहनुमाओं को समझना होगा कि संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को संभालने और सहेजने के लिए संवेदनशील मानव संसाधन की आवश्यकता है। ऐसे मानव संसाधन की जिनको संस्कृति की समझ भी हो और उसको सहेजने को लेकर एक उत्साह भी हो।
ताजमहल की ही अगर बात करें तो ना सिर्फ गुंबद में पौधे उग आए हैं बल्कि ध्यान से देखें तो मुख्य मकबरे में पश्चिम की दिशा में जो पत्थरों के बीच बीच लगे हुए कई शीशे टूटे हुए हैं। शीशे के अलावा भी दीवारों और गुंबदों के अंदर की तरफ की गई पच्चीकारी के रंगीन पत्थर कई जगह से निकले हुए हैं। पच्चीकारी के उन पत्थरों के निकल जाने से उतना क्षेत्र अजीब सा लगता है। पच्चीकारी के पत्थरों की कीमत को कम ही होती है फिर क्या समस्या है।
जानकारों का कहना है कि पत्थरों की कीमत भले ही कम होती है लेकिन उसको लगाने में बहुत श्रम और समय लगता है। इस कारण उसको तत्काल नहीं बनवाया जाता है। दूसरा पक्ष ये है कि अगर पच्चीकारी के पत्थरों के टूटने के बाद अविलंब उसकी मरम्मत नहीं की जाती है तो पत्थरों को जोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के अधिकारी या कर्मचारी ताजमहल का चक्कर नहीं लगाते या उनको ये सब दिखाई नहीं देता है या देखकर अनदेखा किया जाता है।
बात तो इस पर भी होनी चाहिए कि क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के पास इस वैश्विक धरोहर की देखभाल करने के लिए पर्याप्त धन है या नहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ ताजमहल में ही आपको इस तरह के लापरवाही दिखाई देगी बल्कि कई विश्व प्रसिद्ध धरोहरों में और सैकड़ों वर्षों से भारतीय शिल्पकला के उदाहरण के तौर पर सीना ताने खड़े इमारतों में भी इस तरह के उदाहरण आपको मिल सकते हैं।
इस स्तंभ में ही पूर्व में इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि किस तरह से ओडिशा के कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे हाथी की सूंढ में दरार आ जाने के बाद उसको सीमेंट-बालू से भर दिया गया था। कोणार्क सूर्य मंदिर भी यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में है। कोणार्क मंदिर में इस तरह की लापरवाही ना केवल भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही बल्कि अपने धरोहर को सहेजने की असंवेदनशील प्रवृत्ति को भी सामने लाता है। इसी तरह कभी आप त्रिपुरा के उनकोटि चले जाइए। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही का उदाहरण आपको पूरे परिसर में सर्वत्र बिखरा हुआ नजर आएगा।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लाल किला की प्राचीर से देशवासियों से पंच प्रण की बात करते हैं जिसमें अपनी विरासत पर गर्व की बात करते हैं। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए थे।
रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/ भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी भी की थी। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने कठोर टिप्पणियां की थी।
पता नही उसके बाद क्या हुआ। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में विशेषज्ञों की नियुक्ति हुई या अफसरों के भरोसे ही कार्य चलाया जा रहा है। तब समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली थे। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 थे जिनमें से 452 पद रिक्त थे। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई थी कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण इस बात का आकलन नहीं कर पाई थी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं।
दरअसल संस्कृति मंत्रालय में कामकाज की एक अजीब सी संस्कृति पनप गई है। मंत्रालय में संवेदनहीन अधिकारियों के साथ साथ उन बाहरी संस्थाओं को कई कार्य करने का दायित्व दिया गया है जिनको संस्कृति की समझ ही नहीं है। किसी पब्लिक रिलेशन एजेंसी को भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर छवि बनाने के काम में लगाया गया था। उनके लोग संस्कृति से संबंद्ध लेखकों-कलाकारों की बैठकों में नोट्स लेते हैं।
उसके आधार पर पावर प्वाइंट बनाकर भारतीय संस्कृति की छवि बनाने का कार्य करने का प्रयास करते हैं। पता नहीं ये कार्य हो पाया नहीं लेकिन इन बैठकों में जब पब्लिक रिलेशन कंपनी से जुड़े लोग कलाकारों या शिक्षाविदों से पूछते कि नृत्य या संगीत की इतनी शैलियों को कैसे समेटा जाए तो हास्यास्पद स्थिति बन जाती। सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक भारतीय सांस्कृतिक विरासत को लेकर गंभीरता से संवाद और कार्य करने के पक्षधर हैं।
बावजूद इसके संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सिस्टम अपनी गति से ही चलता रहता है। संस्कृति मंत्रालय में यथास्थितिवाद को झकझोरनेवाला नेतृत्व चाहिए जो संस्कृति की बारीकियों को समझ सके, उसके विविध रूपों को लेकर गंभीर हो और अधिकारियों को प्रधानमंत्री की नीतियों को लागू करने के लिए ना केवल प्रेरित कर सके बल्कि कस भी सके।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अलग अलग इंटरव्यू में सलाह दी थी कि शेयरों में पैसे लगाए। चार जून के बाद बाज़ार में ज़बरदस्त तेज़ी आएगी।
मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।
ब्रेकिंग फ़र्म CLSA ने लोकसभा चुनाव से पहले ‘मोदी स्टॉक्स’ की लिस्ट बनाई थी। इसमें 54 कंपनियों के शेयर थे। आधी कंपनियाँ सरकारी थी। तीसरी बार मोदी सरकार बनने से इन कंपनियों के शेयरों में उछाल आने की उम्मीद थी। ब्लूमबर्ग ने सरकार के 100 दिन पूरे होने पर आकलन किया है कि ‘मोदी स्टॉक्स’ सिर्फ़ 2% बढ़े हैं जबकि FMCG 20% और IT शेयरों में 34% तक तेज़ी आईं है।
चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अलग अलग इंटरव्यू में सलाह दी थी कि शेयरों में पैसे लगाए, चार जून के बाद बाज़ार में ज़बरदस्त तेज़ी आएगी। बाज़ार में तेज़ी का अनुमान बड़े बहुमत के साथ बीजेपी सरकार बनने से जुड़ा था। चुनाव के नतीजे अनुमान के उलट आएँ। बीजेपी को बहुमत नहीं मिला। सहयोगी दलों के भरोसे सरकार चल रही है। इसका असर सरकार की नीतियों पर भी पड़ा है। फिर भी Nifty 50 और BSE Sensex क़रीब 9% बढ़ा है। यह तेज़ी ‘मोदी स्टॉक्स’ में नहीं देखने मिली है।
CLSA ने चुनाव से पहले ने चुनाव से पहले L&T, NTPC, NHPC, PFC, ONGC, Indraprastha Gas, Mahanagar Gas, Reliance Industries, Bharti Airtel and Indus Tower जैसे शेयर ख़रीदने की सिफ़ारिश की थी। उसका आकलन था कि सरकार की नीतियों का फ़ायदा इन कंपनियों को मिलेगा। इनमें सरकार की कंपनियों के नाम थे। साथ में इंफ़्रास्ट्रक्चर सेक्टर की कंपनियों भी थी। सरकार इंफ़्रास्ट्रक्चर खर्च करने के फ़ैसले पर आगे बढ़ रही है। 100 दिन पूरे होने पर सरकार ने दावा किया कि 3 लाख करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी गई है,फिर भी बाज़ार उत्साहित नहीं लग रहा है।
Jeffries ने रिपोर्ट में कहा है कि सरकार कैपिटल खर्च के लक्ष्य से चूक सकती है। बाज़ार के जानकारों को लगता है कि राजनीतिक दबाव में सरकार को लोक लुभावने फ़ैसले करने पड़ सकते हैं। ‘मोदी स्टॉक्स’ का प्रदर्शन पिछले तीन महीने भले ही शानदार नहीं रहा हो लेकिन इस साल के पहले पाँच महीनों में रिटर्न 24% तक रहा है।
पिछले चार साल से इसका रिटर्न बाज़ार के इंडेक्स से बेहतर रहा है, लेकिन आगे की राह कैसे होगी यह अभी कहना मुश्किल है। म्यूचुअल फंड ने कैपिटल गुड्स बनाने वाली कंपनियों के शेयरों को पोर्टफ़ोलियो से कम किया है। विदेशी निवेशकों ने सीमेंट, मेटल, फ़ाइनेंस कंपनी के शेयर अगस्त में बेचे हैं। बाज़ार का रुझान कृषि और कंज्यूमर शेयरों की तरफ़ बढ़ा है। कुछ हद तक मोदी स्टॉक्स की क़िस्मत शॉर्ट टर्म में देश की राजनीति की दिशा और दशा से जुड़ी हुई है।
(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)
जनता की आस्था ही नहीं उनके स्वास्थ्य और जीवन से जुड़ी बातों पर प्राथमिकता के साथ अभियान की आवश्यकता है। आंध्र में जून में सत्ता परिवर्तन हुआ था।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर के लड्डूओं में मिलावट पर देश दुनिया में हंगामा हो गया है। आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने स्वयं बाकायदा लेबोरटरी की प्रामाणिक रिपोर्ट के साथ यह भंडाफोड़ किया। उन्होंने बताया कि पिछली वाईएसआरसीपी के नेतृत्व वाली जगनमोहन रेड्डी सरकार के दौरान तिरुपति के श्रीवेंकटेश्वर मंदिर में पवित्र प्रसाद लड्डू बनाने में घटिया सामग्री और जानवरों की चर्बी, मछली के तेल आदि का उपयोग किया गया। स्वाभाविक है कि इस गंभीर मामले पर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
वही इस पूरे विवाद के बीच एक बार फिर से देशभर के मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने की मांग उठने लगी है। प्रसाद में मिलावट पर राजनीति से हटकर एक और गंभीर मुद्दा देश भर में दूध, घी, तेल, मसाले, सब्जी, फल सहित अनेक खाद्य वस्तुओं में मिलावट के मामलों पर कठोर सजा न होने , सरकारी खाद्य संरक्षण संस्थानों और नियम कानूनों की कमियों, मामलों के मामले लटके रहने का है। जनता की आस्था ही नहीं उनके स्वास्थ्य और जीवन से जुड़ी बातों पर प्राथमिकता के साथ अभियान की आवश्यकता है।
आंध्र में जून में सत्ता परिवर्तन हुआ था। जिसके बाद चंद्रबाबू नायडू की पार्टी सत्ता में वापस आई है। मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद चंद्रबाबू नायडू ने मंदिर के लड्डुओं में मिलावट की आशंका जाहिर की थी। जिसके बाद मंदिर प्रशासन ने सप्लाई किए गए घी के सैंपल लेकर जांच के लिए गुजरात स्थित डेयरी विकास बोर्ड की लैब 'सेंटर ऑफ एनालिसिस एंड लर्निंग इन लाइव स्टॉक एंड फूड' ( भेजे थे। जिसके बाद लैब की रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे हुए। एनडीडीबी लैब की रिपोर्ट से पता चला कि शुद्ध घी में शुद्ध दूध में वसा की मात्रा 95.68 से लेकर 104.32 तक होना चाहिए था। लेकिन सैंपल्स में मिल्क फैट की वेल्यू 20 ही पाई गई थी। जिससे इस मिलावटी घी के बारे में खुलासा हुआ।
जिसके बाद बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ। लैब की रिपोर्ट के मुताबिक इन सैंपल में सोयाबीन, सूरजमुखी, जैतून का तेल, गेंहू, मक्का, कॉटन सीड, मछली का तेल, नारियल, पाम ऑयल, बीफ टैलो, लार्ड जैसे तत्व पाए गए हैं। इस घी को चेन्नई की एक कंपनी की कंपनी ने सप्लाई किया था। आरोप यह भी आया कि उस कंपनी के प्रबंधन में पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी के रिश्तेदार भी शामिल हैं। आंध्र के पूर्व सीएम जगन मोहने ने कहा कि घी की सप्लाई के लिए हर 6 महीने में टीटीडी टेंडर जारी करता है। रूटीन के तहत ही जो लोग चुने जाते हैं, उन्हें टेंडर दिया जाता है। ये मानदंड कोई आज तय नहीं हुए है। वे 10 साल से इसी तरह चले आ रहे हैं।
इस पूरे मामले पर मंदिर समिति तिरुमला तिरुपति देवस्थानम की ओर से भी बयान जारी किया गया है। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम मंदिर के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर श्यामला राव ने भी स्वीकार किया है कि हमारे मंदिर की पवित्रता भंग हुई है। पिछली सरकार ने मिलावट की जांच के लिए कोई कदम नहीं उठाए थे।जब मैंने टीटीडी की कार्यकारी अधिकारी का पदभार संभाला था, तो मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने खरीदे गए घी और लड्डू की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त की थी। राव ने कहा कि, वह चाहते थे कि मैं यह सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाऊं। हमने इस पर मामले पर काम करना शुरू किया है।
तब हमने पाया कि हमारे पास घी में मिलावट की जांच करने के लिए कोई आंतरिक प्रयोगशाला नहीं है। बाहरी प्रयोगशालाओं में भी घी की गुणवत्ता की जांच करने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा भगवान को चढ़ने प्रयोग किए जा रहे शुद्ध घी कीमत 320 रुपये रखी गई थी। जो संदेह पैदा कर रही थीं। शुद्ध घी की कीमत कम से कम 500 रुपये प्रति किलो होने चाहिए थी। तिरुपति बालाजी के प्रसाद में मिलने वाले लड्डू पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। इन्हें जीआई का टैग भी मिला है। मंदिर प्रशासन हर रोज शुद्ध देसी घी के 3.50 लाख लड्डू तैयार करता है।
इन लड्डुओं को बनाने में शुद्ध बेसन की बूंदी, चीनी, काजू और शुद्ध घी का इस्तेमाल किया जाता है। यहीं लड्डू तिरुपति मंदिर का मुख्य प्रसाद होते है। मंदिर के प्रसाद को बनाने के लिए मंदिर हर साल करीब 5 लाख किलो और हर महीने 42000 किलो घी तिरुमला तिरुपति देवस्थानम की ओर से खरीदता है। इस घी की खरीद के लिए मंदिर प्रशासन टेंडर जारी करता है। नए मुख्यमंत्री ने कहा है कि इस भ्रष्टाचार में शामिल किसी भी व्यक्ति को बख्शा नहीं जाएगा। इस मामले में सरकार की ओर से कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई शुरु हो गई है।
कंपनी को सरकार की ओर से प्रतिबंधित कर दिया गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू से इस मामले में विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा कि है उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू से बात की है और तिरुपति लड्डू मुद्दे पर रिपोर्ट मांगी है। उन्होंने कहा कि केंद्र इस मामले में खाद्य सुरक्षा नियमों के तहत कार्रवाई करेगा। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) इसकी जांच करेगा, रिपोर्ट देगा और फिर हम कार्रवाई करेंगे।
सवाल यह है कि यह प्राधिकरण कितना सक्षम है। उसके प्रशासन, व्यवस्था , अधिकार आदि पर केंद्र सरकारों ने कितना ध्यान दिया। गड़बड़ियों और भ्र्ष्टाचार की शिकायतों पर कितनी कार्रवाई हुई? वहीँ मिलावट पर राज्य सरकारों और स्थानीय नगर निगम पालिका मिलावट रोकने के लिए क्या पर्याप्त कार्रवाई कर रही हैं?लचर प्रशासनिक कार्यप्रणाली के कारण मिलावटखोरों पर पूरी तरह से शिकंजा नहीं कस पाता है। मिलावट के लगभग सभी मामलों में जुर्माना लगता है, सजा नहीं हो पाती है।
पिछले पांच साल में सजा का कोई बड़ा फैसला नहीं हुआ है। हालांकि, भारतीय दंड संहिता में मिलावटखोरों पर कड़ी सजा का प्रावधान है, लेकिन मिलावट से संबंधित 90 फीसदी मामले प्रशासनिक कोर्ट में स्थानांतरित हो जाते हैं, जिस कारण वह न्यायालय की कार्रवाई से बच जाते हैं। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए सख्त सजा की सिफारिश की है। खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण द्वारा 2006 के खाद्य सुरक्षा एवं मानक कानून में प्रस्तावित संशोधनों के अनुसार खाद्य उत्पादों में मिलावट करने वालों को आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 के क्रियान्वयन और प्रवर्तन का दायित्व राज्य सरकारों का है। राज्य खाद्य सुरक्षा अधिकारियों द्वारा खाद्य पदार्थों के नमूने लिए जाते हैं और विश्लेषण के लिए द्वारा मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में भेजे जाते हैं। जिन मामलों में नमूनों में मिलावट पाई जाती है, वहां अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई की जाती है।
मजेदार बात यह है कि यह प्राधिकरण केवल भारत की खाद्य बल्कि विश्व भर से आने वाली खाद्य वस्तुओं, सौंदर्य प्रसाधन की मान्यता स्वीकृति देने का अधिकार रखता है। विदेशी वस्तुओं के आयात की अनुमति में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है जबकि भारत कोडेक्स ( खाद्य पदार्थों के संरक्षण की संहिता का विश्व संगठन का सदस्य है। भारत के विशेषज्ञों को विदेशों में ज्ञान देने बुलाया जाता है। लेकिन भारत में अपनी ही सरकार उनकी लिखित सिफारिशों को समुचित महत्व देकर लागू नहीं कर पा रही है।
दूसरा मुद्दा देश के मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का है। देशभर में मंदिरों पर से सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से आंदोलन हो रहे हैं। लोगों की मांग है कि सरकार इन मंदिरों को अपने नियंत्रण से मुक्त करे। इससे मंदिर बोर्ड में हो रहे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। कई लोग मानते हैं, ‘हिंदू मंदिरों की स्वतंत्रता’ आंदोलन न तो 2014 के बाद शुरू हुआ कोई नया संघर्ष है और न ही यह सांप्रदायिक एजेंडे का हिस्सा है। सुधार के बाद के भारत में जहां राज्य अपनी अधिकांश संपत्तियों, कंपनियों और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को उदार बना रहा है, मंदिर अभी भी उसके नियंत्रण में हैं।
मंदिरों को मुक्त करने के आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण धार्मिक क्षेत्र में ‘लाइसेंस परमिट राज’ का दर्श उदाहरण है। सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग कर रहे लोगों का कहना है कि भारतीय लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य 1947 से अस्तित्व में है जबकि अधिकांश हिंदू मंदिर सदियों पुराने हैं। यह तथ्य कि वे अभी भी फल-फूल रहे हैं, इस बात का प्रमाण है कि दशकों तक स्थानीय भक्तों द्वारा उनका प्रबंधन कैसे किया गया था।
दूसरी तरफ सरकार की तरफ से नए-नए कानून के जरिये मंदिरों पर नियंत्रण का दायरा बढ़ाया जाता रहा है। मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है। शीर्ष अदालत की तरफ से भी मंदिरों पर सरकार के नियंत्रण को अनुचित ठहराय जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट में जज रहे रिटार्यड जस्टिस एसए बोबडे ने 2019 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर से संदर्भ में कहा था कि मैं नहीं समझ पाता कि क्यों सरकारी अफसरों को मंदिर का संचालन करना चाहिए? एक अनुमान के अनुसार देशभर के करीब 4 लाख मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण है। इससे पहले साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में तमिलनाडु के नटराज मंदिर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने को लेकर फैसला भी सुनाया था। उत्तराखंड में यह चुनावी मुद्दा बन गया था।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
लेकिन ये सारा मामला इतना साधारण नहीं है जितना दिखाई देता है। भारत के चीफ जस्टिस को घेरने की ये साजिश बहुत सोच समझकर की गई है, पूरी योजना के साथ की गई है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बारे में प्रतिपक्ष के कुछ नेताओं ने जो टिप्पणियां की हैं, वे वाकई चितंजनक है। सोमवार शाम को प्रधानमंत्री मोदी चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ के घर गणपति की पूजा करने क्या चले गए, कई लोगों की नींद उड़ गई, उन्हें मिर्ची लग गई। प्रधानमंत्री मोदी ने चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के यहां सिद्धिविनायक के दर्शन किए।
30 सेकेंड के वीडियो पर कैसे 30 घंटे सियासत हुई, लोगों ने राई का पहाड़ बना दिया, ये हैरान करने वाली बात है। कई नेताओं ने तो चीफ जस्टिस की ईमानदारी पर सवाल उठा दिए। जो एक सामान्य-सा शिष्टाचार था, पूजा-पाठ था, उसे न्यायपालिका की आज़ादी से जोड़ दिया। उद्धव ठाकरे की शिवसेना को इस बात से समस्य़ा है कि उनका केस सुप्रीम कोर्ट में है, अब उन्हें न्याय कैसे मिलेगा? क्या वो ये कहना चाहते हैं कि चीफ जस्टिस के घर गणपति पूजा में प्रधानमंत्री के शामिल होने से मुख्य न्यायाधीश रातों रात पक्षपाती हो गए? पूजा की थाली क्या घुमाई, न्यायपालिका संदेह के दायरे में आ गई? ये तो कमाल की बात है।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल राजनीति में हैं। उन्होंने इस मामले को सियासी मोड़ दे दिया। कहा, चीफ जस्टिस का पीएम को बुलाना तो ठीक है, उन्हें चीफ जस्टिस की ईमानदारी पर पूरा भरोसा है लेकिन प्रधानमंत्री ने वीडियो को सार्वजनिक क्यों किया? क्या प्रधानमंत्री ने पहली बार कोई वीडियो पोस्ट किया है? जब कांग्रेस के नेता बोले तो बीजेपी ने उन्हें याद दिलाया डॉ. मनमोहन सिंह के समय पीएम हाउस में इफ्तार पार्टी होती थी तो चीफ जस्टिस उस में जाते थे, तब किसी के पेट में दर्द क्यों नहीं हुआ? इस मामले में प्रशांत भूषण और इंदिरा जय सिंह जैसे वकील भी बोले। इन्हें बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन मिश्रा ने करारा जवाब दिया। मनन मिश्रा ने कहा कुछ गिने-चुने वकील हैं जो हर बात का बतंगड़ बनाते हैं।
लेकिन ये सारा मामला इतना साधारण नहीं है जितना दिखाई देता है। भारत के चीफ जस्टिस को घेरने की ये साजिश बहुत सोच समझकर की गई है, पूरी योजना के साथ की गई है। इस तरह की बयानबाजी करने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि न तो चीफ जस्टिस का पीएम को बुलाना गलत है और न पीएम का उनके घर जाकर गणपति पूजा करना गलत है, पर जानबूझकर इसे मुद्दा बनाया गया।
ये वीडियो सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा। चीफ जस्टिस के घर पूजा में प्रधानमंत्री के शामिल होने को संविधान और न्यायपालिका की आज़ादी के लिए खतरा बताया गया, इंसाफ़ की उम्मीद लगाए बैठे लोगों का दिल तोड़ने वाला कहा गया। वीडियो को सोशल मीडिया पर घुमा-घुमाकर ये साबित करने की कोशिश की गई कि जैसे चीफ जस्टिस ने प्रधानमंत्री को अपने घर बुलाकर कोई बड़ा भारी अपराध कर दिया हो, जजों की आचार संहिता को तोड़ा हो।
सबसे पहले उद्धव ठाकरे की शिव सेना के नेता संजय राउत ने कहा कि अब उन्हें जस्टिस चन्द्रचूड़ से न्याय की उम्मीद नहीं है, चीफ जस्टिस को शिवसेना के मुक़दमे से ख़ुद को हट जाना चाहिए, अब अगर पीएम चीफ जस्टिस के घर जाकर पूजा कर रहे हैं, तो चीफ जस्टिस से निष्पक्ष फ़ैसले की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
सहयोगी पार्टी कांग्रेस के नेता विजय वडेट्टिवार ने कहा कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से दूरी बनाकर रखनी चाहिए, न चीफ जस्टिस को प्रधानमंत्री को बुलाना चाहिए और न प्रधानमंत्री को चीफ जस्टिस के घर जाना चाहिए, जो हुआ, वो गलत था। सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों ने भी इसे मुद्दा बनाया। इंदिरा जय सिंह ने ट्विटर पर लिखा कि चीफ जस्टिस ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की संवैधानिक दूरी का उल्लंघन किया है।
सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि चीफ जस्टिस ने अपने घर की पूजा में प्रधानमंत्री को बुलाकर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है क्योंकि संविधान में साफ़ लिखा है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से दूरी बनाकर रखनी चाहिए। इन आरोपों का जवाब बार काउंसिल के अध्यक्ष मनन मिश्रा ने दिया। मनन मिश्रा ने कहा कि कुछ वकील हैं, जो इस मामूली बात को तिल का ताड़ बना रहे हैं, संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चीफ जस्टिस के निजी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नहीं जा सकते।
जिन लोगों ने चीफ जस्टिस के घर प्रधानमंत्री की गणेश पूजा को लेकर सवाल उठाए हैं, उन्होंने जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ बहुत नाइंसाफी की है। जो लोग ये इल्ज़ाम लगा रहे हैं कि गणेश पूजन के बहाने मोदी ने चीफ जस्टिस के साथ setting कर ली, उनके कान में कोई मंत्र फूंक दिया, क्या ये लोग ये नहीं जानते कि अगर प्रधानमंत्री को चीफ जस्टिस से बात करनी हो, तो उन्हें पूजा का मौका ढूंढने की जरूरत नहीं है? ऐसे तमाम अवसर होते हैं, जब प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस एक साथ होते हैं।
ये कहना बेमानी है कि प्रधानमंत्री ने वीडियो क्यों जारी किया? अगर मोदी वीडियो जारी न करते तो यही लोग कहते कि मोदी की CJI से सीक्रेट मीटिंग हुई। यही लोग कहते कि जब मोदी हर जगह का वीडियो पोस्ट करते हैं तो पूजा का क्यों नहीं किया? क्या CJI का PM को पूजा के लिए बुलाना गैरकानूनी है? क्या ये संविधान के खिलाफ है? क्या ये कोई आधी रात को हुई कोई secret meeting थी जिसको लेकर इतना बड़ा बवाल खड़ा किया गया? जो लोग इस साधारण से शिष्टाचार को मुद्दा बना रहे हैं उनका असली मकसद चीफ जस्टिस पर दबाव बनाना है।
ये लोग जानते हैं चीफ जस्टिस ऐसे मुद्दे पर बयान नहीं देंगे क्योंकि पद की अपनी मर्यादा है। प्रधानमंत्री इस पर कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी भी सीमाएं हैं। इसीलिए बयानबाज़ी करने वालों ने जम कर फायदा उठाया। इनका इतिहास उठाकर देखिए, ये लोग हर चीफ जस्टिस के साथ यही करते आए हैं।
ये वही लोग हैं जो चुनाव के नतीजे आने से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त को बिका हुआ कहते थे, EVM की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते थे। ये वही लोग हैं जिन्होंने सेना की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे। ये वही लोग हैं जो बार बार मीडिया को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। ये लोग ईमानदारी के ठेकेदार बन कर हर किसी पर कीचड़ उछालते हैं, सब को डराने की कोशिश करते हैं। अब इनकी बातों की उपेक्षा करने की बजाय उन्हें करारा जवाब देने की ज़रूरत है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
कंगना रनौत की फिल्म तक इसलिए रिलीज नहीं हो पा रही क्योंकि कुछ सिख संगठन उसमें भिंडरावाले को आतंकी बताया जाने से नाराज हैं और राहुल गांधी हैं कि सिखों को इतना लाचार बता रहे हैं।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राहुल गांधी अमेरिका में कह रहे हैं कि आज भारत में इस बात की लड़ाई चल रही है कि सिख पगड़ी पहन सकते हैं या नहीं। सच पूछें, तो मुझे इस बात से कोई दिक्कत नहीं है कि विपक्ष ऐसी बातें करें जिससे सरकार को असहज महसूस कराया जा सके मगर पॉलिटिकल नैरेटिव गढ़ने के चक्कर में आप ऐसा झूठ कैसे बोल सकते हैं जिसकी दूर-दूर तक कोई मिसाल ही नहीं है। पंजाब तो भूल जाइए, पंजाब के बाहर ऐसी कौनसी घटना आपने देखी या सुनी जिसमें किसी सिख को पगड़ी पहनने से रोका गया हो।
जिस देश का लोकतंत्र विरोधी आवाज़ों को इतना स्पेस देता है कि वहां अमृतपाल जैसा खालिस्तानी और इंजीनियर राशिद जैसा अलगाववादी जेल से चुनाव लड़कर निर्दलीय जीत सकता है वहां ये बात कहां से आ गई कि नॉर्मल सिख को दबाया जा रहा है। हकीकत तो ये है कि किसान आंदोलन की आड़ में एक बड़े सेगमेंट ने खालिस्तानी सेंटीमेंट को हवा दी। किसान आंदोलन के दौरान ही खुलेआम भिंडरावाले के समर्थन वाली टीशर्ट पहनी गईं। नरेंद्र मोदी को जान से मारने की धमकी दी गई। लाल किले तक पर चढ़कर कुछ लोगों ने खालिस्तान की झंडा फहरा दिया।
आज कंगना रनौत की फिल्म तक इसलिए रिलीज़ नहीं हो पा रही क्योंकि कुछ सिख संगठन उसमें भिंडरावाले को आतंकी बताया जाने से नाराज़ हैं और राहुल गांधी हैं कि सिखों को इतना लाचार बता रहे हैं कि उन्हें पगड़ी तक पहनने नहीं दी जा रही। आज देश की हॉकी टीम का कप्तान हरमनप्रीत सिख हैं। महिला क्रिकेट टीम की कप्तान हरमनप्रीत कौर सिख हैं। देश की हॉकी टीम में तो आधे से ज़्यादा खिलाड़ी सिख हैं।
दिलजीत दोसांज देश के सबसे बड़े सिंगिंग सुपरस्टार एक सिख हैं। एंटरटेनमेंट से लेकर स्पोर्ट्स तक और राजनीति से लेकर सेना तक ऐसी कौनसी जगह है जहां सिख नहीं हैं और बड़े पदों पर नहीं हैं मगर राहुल गांधी को देश का सिख इतना दबा हुआ लग रहा है कि उस बेचारे को पगड़ी तक नहीं पहनने दी जा रही।
मैंने शुरू में कहा कि आप बेशक ऐसी बात कीजिए जिससे सरकार दबाव में आए, वो असहज महसूस करे, आप विदेश जाकर भी ऐसा कुछ बोल रहे हैं मुझे उसमें भी दिक्कत नहीं है मगर पॉलिटिकल स्कोर करने के क्रम में आप ऐसी बात नहीं कर सकते जो आखिर में देश को कमज़ोर करने वाली हो और जिसका कोई वजूद ही न हो।
क्या राहुल गांधी नहीं जानते पंजाब में एक बड़ा खालिस्तानी वर्ग यही झूठ बेचने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में सिखों को दबाया जा रहा है। वो झूठ इसलिए बोल रहे हैं ताकि अपने आंदोलन के लिए समर्थन जुटा सके लेकिन जब यही बात विपक्षी पार्टी का नेता भी बोलने लगेगा तो उनके झूठ को ही मज़बूती मिलेगी। यही खालिस्तानी पंजाब में अपने लोगों को बोलेंगे कि देखो, हम नहीं कहते थे कि सिखों से उनकी पहचान छीनी जा रही है।
इस झूठ का जो सबसे बड़ा खतरा ये है कि जब आप ये स्थापित करते हैं कि देश का पीएम सिखों का दुश्मन है तो उस कौम का गुस्सा पीएम से आगे निकलकर देश के लिए पैदा होने लगता है। और अगर वही पीएम या पार्टी फिर से चुनाव जीतती है तो उस कौम को लगेगा कि इस ज़ुल्म से मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि हम देश से अलग हो जाएं।
उन पर ज़ुल्म हो रहा है ये झूठ उन्हें खालिस्तानी बेच रहे हैं फिर राहुल गांधी जैसे बड़े नेता उस पर विदेशों में बयान देकर उस झूठ की पुष्टि करके ये साबित कर देते हैं कि हां, ऐसा ही है। और इसके बावजूद केंद्र में अगर सत्ता परिवर्तन नहीं होता तो उस कौम के लिए मुक्ति का एक ही रास्ता बचता है, अलगाववाद। इसीलिए मैंने कहा कि जब राहुल गांधी ये कहते हैं कि देश में सिखों को पगड़ी पहनने से रोका जा रहा है तो ये सिर्फ राजनीतिक इल्जा़म नहीं बल्कि अलगाववादियों के एजेंडे पर मुहर है। देश तोड़ने की कोशिश है।
एक पंजाबी हिंदू होने के नाते मुझे सिखों के उन धार्मिक सिख नेताओं पर भी तरस आता है जो बार-बार ये साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सिख, हिन्दू नहीं हैं। अरे भाई, आपको ये साबित करने को ज़रूरत पड़ क्यों रही हैं। क्या पंजाब में या कहीं भी सिखों को उनका धर्म मानने से रोका गया है।
सच तो ये है कि पंजाब, हरियाणा या दिल्ली जहां भी बड़ी तादाद में सिख और पंजाबी हिंदू रहते हैं वहां दोनों अपने कल्चर में इस हद तक घुले मिले हुए हैं कि आपको कभी ये ज़रूरत ही महसूस नहीं होती कि दोनों में फर्क किया जाए। पंजाब या दिल्ली में रहने वाला हिंदू भी गुरुद्वारे जाता है। सिख भी हिंदुओं के सारे त्यौहार मनाते है। पंजाब-हरियाणा में तो बहुत सारी हिंदू शादियां तक गुरूद्वारे में होती है।
अब एक बहुसंख्यक कौम अगर अपनी शादियां तक गुरुद्वारे में कर रही है इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि वो आपमें और खुद में फर्क नहीं समझती। वो आपके गुरु को इतना ऊंचा रखती है कि उसको हाज़िर-नाज़िर जानकर शादियां तक करती है। सच तो ये है कि ऐसा करते वो ये बात भी नहीं सोचती। दरअसल वो इस हद तक खुद को आपका और आपको अपना मानती है कि उसने कभी ये फर्क समझा ही नहीं।
इसलिए बचपन से ऐसे माहौल में बड़े हुए मुझ जैसे शख्स के लिए ये देखना बहुत ज़्यादा दर्दनाक है जब कुछ लोग ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि सिख-हिंदुओं से अलग हैं। या वो हिंदुओं को अपना दुश्मन साबित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में राहुल गांधी जैसे कुछ लोग उस प्रोपेगेंडा पर मुहर लगाने की कोशिश करते हैं तो उससे खतरनाक कुछ हो ही नहीं सकता।
21वीं शताब्दी में ज़्यादातर बड़े देश एक दूसरे के खिलाफ सीधा हमला करने के बजाए अपने दुश्मन देश की Fault Lines को Exploit करने की कोशिश करते हैं। अमेरिका को अगर लगता है कि वो चीन से सीधी टक्कर नहीं ले सकता है, तो वो हांगकांग में लोकतंत्र के लिए चल रहे आंदोलन को हवा देता है। वो ताइवान को हथियार देता है। उसके डेलिगेशन धर्मशाला में दलाई लामा से मिलकर उसे चिढ़ाता है। अमेरिका को रूस को कमज़ोर करना है तो वो यूक्रेन को हथियार देकर उसे वहां उलझाकर रखता है। एक बंदरगाह न मिलने पर वो शेख हसीन सरकार का तख्तापलट करवा देता है।
सालों से पाकिस्तान ऐसी ही कोशिशें कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट और पंजाब तक कर रहा है। मगर चुनाव जीतने के लिए कोई नेता अगर अपने ही देश की Fault Lines का इस्तेमाल करे, तो इससे ज़्यादा खतरनाक और कुछ नहीं हो सकता। फिर चाहे वो पंजाब हो, मणिपुर हो, कश्मीर में दोबारा 370 लाने की बात करना हो या जातिगत राजनीति। आप जानबूझकर ऐसी हर कमज़ोर कड़ी को अपने फायदे में भुनाना चाहते हैं जिससे एक वर्ग में गुस्सा पैदा करके उसे सरकार के खिलाफ खड़ा किया जा सके। आप ये भूल जाते हैं कि ये गुस्सा सरकार से निकलकर देश के खिलाफ भी पैदा हो सकता है।
बांग्लादेश में जब कथित छात्र आंदोलन के दौरान हिंसा हुई और उस हिंसा के बाद जब शेख हसीना का तख्तापलट हुआ तो कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने कहा था कि भारत में भी ऐसा हो सकता है। लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर हिंसा करके उसे उखाड़ सकते हैं। और भी कई लोगों ने ऐसी बात कही। फिर अगले कुछ दिनों में वहां हिंदुओं के खिलाफ जैसी हिंसा हुई, जमात ए इस्लामी जैसे संगठनों पर लगा बैन हटाया गया, हिंदू टीचर्स से इस्तीफे लिए गए, उनके मकानों को लूटा गया, सड़कों पर भारत के खिलाफ नारेबाज़ी की गई, और जल्द ही ये साफ हो गया कि ये कभी छात्र आंदोलन था ही नहीं।छात्र आंदोलन के मुखौटे के पीछे ऐसे तत्व थे जिनके अपने स्वार्थ थे। जिन्हें अपना एजेंडा पूरा करना था। अपनी विचारधारा लागू करनी थी।
इसलिए राहुल गांधी अगर विदेश में जाकर ये कहते हैं कि सिखों को पगड़ी पहनने नहीं दी जा रही है, तो ये कोई मासूमियत में दिया बयान नहीं है। ये कोशिश है हर उस फॉल्ट लाइन को भुनाने की जिससे देश में अराजकता फैलाई जा सके। फिर चाहे उस अराजकता की आग में देश ही क्यों न झुलस जाए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )