भारत में अजीब दुविधा है। लोकतंत्र सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, लेकिन शायद नागरिक अभी उसके लिए तैयार नहीं हैं।
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
भारत में अजीब दुविधा है। लोकतंत्र सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, लेकिन शायद नागरिक अभी उसके लिए तैयार नहीं हैं। गैर जिम्मेदारी के आलम में अक्सर वे ऐसे विचार प्रकट करते हैं, जो देश को नुकसान पहुंचाते हैं। अनजाने में जो ऐसी बात करे, उसे तो एक बार क्षमा किया जा सकता है। मगर जानबूझकर कही गई बातें किस श्रेणी में रखी जाएं? सभ्य समाज को यह समझने की जरूरत है। कश्मीर पर ताजा बहस इसी तरह की है। चंद रोज पहले कांग्रेस की प्रथम पंक्ति के एक नेता ने डिजिटल मंच पर कहा कि यदि उनका दल सत्ता में आया तो अनुच्छेद -370 फिर बहाल करने पर विचार करेगा। साफ है कि इसे सियासी रंग दिया गया है। मगर यह पार्टी की अधिकृत राय नहीं है, लेकिन क्या नेताजी को कश्मीर-प्रसंग में अपने दल की सरकार का इतिहास पता है। शायद नहीं। अन्यथा वे इस तरह नहीं कहते। क्या वे नहीं जानते थे कि अनुच्छेद-370 के समापन की शुरुआत तो जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में ही हो गई थी। पिछले साल केंद्र सरकार ने जिस 370 को खत्म किया, वह एक तरह से खोखली थी। कई प्रावधान तो नेहरू, शास्त्री और इंदिरा गांधी के समय ही नहीं रहे थे।
इसे समझने के लिए अतीत याद करना होगा। भारतीय संविधान सभा में जम्मू कश्मीर के चार लोग थे। ये थे शेखअब्दुल्ला, मिर्ज़ा अफजल बेग़, मोहम्मद सईद मसूदी और मोतीराम बागड़ा। संविधान सभा ने उनकी सहमति से अनुच्छेद-370 स्वीकार किया तो खास बिंदु थे- राज्य अपना संविधान बनाएगा, रक्षा, विदेश व संचार भारत के जिम्मे थे, संवैधानिक बदलाव के लिए राज्य की मंजूरी जरूरी थी, यह सहमति राज्य संविधान सभा से पुष्टि चाहती थी। राज्य संविधान सभा काम पूरा करने के बाद भंग हो जानी थी। राष्ट्रपति को 370 हटा सकते थे पर संविधान सभा की अनुमति जरूरी थी। लब्बोलुआब यह कि जम्मू कश्मीर संविधान सभा सर्वोच्च थी और 370 का भविष्य उसे ही तय करना था। यह अस्थायी व्यवस्था थी। सितंबर, 51 में संविधान सभा के चुनाव हुए। सारी सीटें नेशनल कांफ्रेंस ने जीतीं। वज़ीरेआज्म शेख़अब्दुल्ला चुने गए। राज्य की यह पहली निर्वाचित सरकार थी। इसके बाद जुलाई, 52 में केंद्र-नेशनल कांफ्रेंस समझौते में दोनों पक्षों ने 370 मंजूर कर ली। अब विधानसभा ही सर्वोच्च थी। केंद्र दखल देने की स्थिति में नहीं था। राज्य का झंडा भी अलग था। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार सीमित ही लागू होने थे। आंतरिक गड़बड़ी की स्थिति में ही केंद्र राज्य की मंजूरी से इमरजेंसी लगा सकता था। धारा 356 व 360 लागू नहीं की जा सकती थी। संसद व कश्मीर विधानसभा ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी। नवंबर, 52 में महाराजा की गद्दी समाप्त कर दी गई। युवराज कर्णसिंह पहले सदर ए रियासत चुने गए।
इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने रंग बदले। वे कश्मीर की आजादी की बात करने लगे। उन्हें अमेरिका ने भड़काया था। बदले रुख से जनता और मंत्रिमंडल में व्यापक असंतोष था। सदर ए रियासत कर्णसिंह ने शेखअब्दुल्ला को केबिनेट की बैठक बुलाकर शांति कायम कराने का निर्देश दिया। शेख ने निर्देश को धता बताया और गुलमर्ग घूमने चले गए। सदर ए रियासत ने सरकार बर्खास्त कर दी और शेख गिरफ्तार कर लिए गए। नेशनल कांफ्रेंस ने बख़्शी ग़ुलाम मोहम्मद को नया नेता चुना। नई सरकार बनी। नेहरू, शेख़ के धोखे से खफा थे। जनवरी, 54 में नए नेतृत्व ने दिल्ली समझौते में आस्था जताई कस्टम, आयकर और उत्पादन कर भी केंद्र को वसूलने का हक मिला। सुप्रीम कोर्ट को मान्यता दी गई। फरवरी, 54 में एक बार फिर राज्य सरकार ने भारत विलय पर मोहर लगा दी। संविधान सभा ने माना कि भारतीय संविधान कश्मीर पर लागू होगा। मई, 54 में राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान कश्मीर पर लागू कर दिया। नवंबर में नेशनल कांफ्रेंस ने ऐलान किया कि न कश्मीर कभी पाकिस्तान में मिलेगा और न आजादी की कोशिश करेगा। दरअसल शेख़अब्दुल्ला का रवैया उनकी पार्टी के लोगों ने पसंद नहीं किया था।
अक्टूबर, 56 में कश्मीर के संविधान का अंतिम मसविदा संविधान सभा में पेश हुआ। इसमें कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बताया गया। संविधान 26 जनवरी, 57 से लागू हो गया। संविधान सभा भंग हो गई। नए चुनाव हुए। इनमें नेशनल कांफ्रेंस ने 60 सीटें जीतीं। बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद ने फिर सरकार बनाई। इसके बाद 1959 में संविधान सभा ने चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर में प्रभावशील होने को मंज़ूरी दी। कश्मीर में प्रवेश परमिट 1961 में खत्म हो गया। राज्य में 62 के तीसरे चुनाव के बाद गुलाम मोहम्मद सादिक 64 में प्रधानमंत्री बने। इसी साल राष्ट्रपति ने अध्यादेश के जरिए धारा 356 व 357 कश्मीर में लागू कर दी। राज्य में राष्ट्रपति शासन का रास्ता भी साफ हो गया। इस समय शास्त्रीजी प्रधानमंत्री थे। अनुच्छेद 370 छिन्न भिन्न हो चुका था। पर अभी भी काम बाक़ी था। तीस मार्च, 65 को विधान सभा ने सर्वानुमति से संविधान संशोधन किया कि सदर ए रियासत का पद राज्यपाल कहा जाएगा। राज्य में प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री होगा। बाद के वर्ष भी 370 के निरंतर सिकुड़ते जाने की कहानी है। मसलन राज्य से लोकसभा सांसद निर्वाचित होने लगे। हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के अधीन आ गया। अनुच्छेद 226 और 249 लागू हो गए।
यहां नेहरू जी के इकोनॉमिक टाइम्स में छपे भाषण का जिक्र जरूरी है। उन्होंने कहा था, ‘अनुच्छेद 370 संविधान का स्थाई हिस्सा नहीं है। यह जब तक है, तब तक है। इसका प्रभाव कम हो चुका है। हमें इसे धीरे धीरे कम करना जारी रखना है।’ यह निष्कर्ष निकालने में हिचक नहीं कि कांग्रेस पार्टी 370 के समापन में अपने योगदान को ही याद नहीं करना चाहती।
(साभार: लोकमत समाचार)
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डॉ. अनुराग बत्रा ।।
स्पोर्ट्स यानी खेल हम सभी को पसंद हैं। जब हम कोई मैच देख रहे होते हैं तो हम कहते हैं कि सबसे अच्छा व्यक्ति अथवा सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी जीत सकता है। जीवन में भी, जब हम किसी नौकरी अथवा अन्य भूमिका के लिए किसी का चुनाव करते हैं तो हम सर्वश्रेष्ठ का चयन करने की पूरी कोशिश करते हैं। जरूरी नहीं कि वह सर्वश्रेष्ठ पुरुष हो अथवा महिला। वह दोनों में से कोई भी हो सकता है। हम उसकी क्षमताएं और उसकी लीडरशिप क्वालिटी देखते हैं। मैं करीब 22 वर्षों से एक एंटरप्रिन्योर हूं और इस दौरान मुझे सीनियर लीडरशिप पोजीशंस पर तमाम काबिल लोगों को शामिल करने का सौभाग्य मिला है। कई सीनियर महिला पब्लिशर्स और एडिटर्स मेरे साथ काम करती हैं। इनमें से किसी को भी हमने इस वजह से नियुक्त नहीं किया है कि वो महिला हैं। उन्हें नियुक्ति दी गई या बाद में पदोन्नत किया गया या उन्हें बढ़ी हुई जिम्मेदारी सौंपी गई, वह इसलिए क्योंकि वह उस भूमिका के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति के रूप में सामने आई हैं।
एडिटोरियल में हमारी सबसे सीनियर सहयोगी और ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर नूर फातिमा वारसिया ने कुछ दिनों पहले ‘हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड’ (HUL) के बारे में एक एडिटोरियल लिखा था, जिसमें उन्होंने एचयूएल में प्रिया नायर को भारत के सीईओ के रूप में मौका न दिए जाने के बारे में बात की थी। अपने एडिटोरियल में वारसिया ने लिखा था कि क्या पहली बार महिला को MD व CEO बनाने से चूक गया हिन्दुस्तान यूनिलीवर? उनका तर्क था कि ‘एचयूएल’ ने रोहित जावा को चुनकर भारत में कंपनी के पास पहली महिला एमडी और सीईओ होने का अवसर गंवा दिया।
मैं सबसे पहले उन लोगों को नूर फातिमा के बारे में बता दूं, जो उन्हें ज्यादा नहीं जानते हैं। दरअसल, नूर फातिमा मेरे साथ पिछले 20 साल से काम कर रही हैं और मेरे पास सबसे अच्छी और सबसे ज्यादा समय तक अपनी जिम्मेदारी निभाने वाली सहकर्मी हैं। उन्होंने ‘एक्सचेंज4मीडिया’ (exchange4media) में बतौर करेसपॉन्डेंट जॉइन किया था और पिछले 11 वर्षों में ‘एक्सचेंज4मीडिया’ समूह में ग्रुप एडिटर के पद तक पहुंची हैं। इस दौरान उन्होंने काफी सम्मान और प्रशंसा अर्जित की है और इंडस्ट्री में खुद की एक खास पहचान बनाई है।
नूर करीब नौ साल पहले ग्रुप एडिटर के तौर पर ‘बिजनेसवर्ल्ड’ (BW Businessworld) में शामिल हुई थीं और पिछले छह सालों में ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर बन गई हैं। नूर काफी सजग व मेहनती हैं और उनमें नेतृत्व करने के सभी गुण हैं। उन्होंने बड़ी टीमों का निर्माण और नेतृत्व किया है और पिछले दो दशकों में मैंने जिन दो एडिटोरियल प्लेटफॉर्म्स का नेतृत्व किया है, उनमें नूर ने काफी अहम योगदान दिया है।
दरअसल, कुछ दिनों पूर्व मैंने नूर को यह कहने के लिए बुलाया था कि मैं एक लेख लिख रहा हूं कि रोहित जावा की नियुक्ति कंपनी के लिए बढ़िया विकल्प क्यों है। उस समय नूर ने कहा कि वह ‘क्या पहली बार महिला को MD व CEO बनाने से चूक गया हिन्दुस्तान यूनिलीवर’? शीर्षक से एक लेख लिख रही हैं। उन्होंने इस टॉपिक पर लिखने के लिए काफी दृढ़ता से कहा, इसलिए मैंने उन्हें प्रोत्साहित किया और ‘नूरिंग्स’ (यह उनके कॉलम का नाम है) प्रकाशित हुआ। यह आर्टिकल पब्लिश होते ही इसे तमाम प्रतिक्रियाएं मिलीं और प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले इंडस्ट्री लीडर्स में महिला और पुरुष दोनों शामिल थे। मैंने अपने उस आर्टिकल को उस समय रोक रखा था, क्योंकि मैं नूर के आर्टिकल को लेकर शुरुआती प्रतिक्रिया के बाद इसे पब्लिश करना चाहता था। अब जबकि इस बात को दो हफ्ते बीत चुके हैं, मैं अपनी बात आपके सामने रख रहा हूं, जो नूर की राय से अलग है।
इस लेख का पात्र (The Characters At Play)
मैं शुरू में ही बता दूं कि मैं रोहित जावा को बहुत ज्यादा अच्छी तरह से नहीं जानता हूं और न ही मेरी उनसे लंबी मुलाकात हुई है। मेरा उनसे संक्षिप्त परिचय है, जिसके लिए मैं अपने दोस्त राहुल वेल्डे को धन्यवाद देता हूं। वर्ष 2013 में मैंने सिंगापुर की एक वेबसाइट का अधिग्रहण किया और यह 2014 में सिंगापुर की यात्रा के दौरान की बात है (उस साइट के संबंध में), जब जावा के साथ मीटिंग हुई। तब वह उस रीजन के सीईओ थे। हालांकि, तब उनसे ज्यादा बातचीत नहीं हुई, इसके बावजूद मैंने उनके करियर को फॉलो करना शुरू किया और समय के साथ वह यूनीलिवर में लगातार ऊंचाइयां छूते चले गए। वह दो दशक से ज्यादा समय से यूनीलिवर के साथ जुड़े हुए हैं और इस दौरान उन्होंने कंपनी में तमाम प्रमुख पदों पर अपनी जिम्मेदारी निभाई है। हिंदुस्तान यूनीलिवर में सीईओ के पद पर नियुक्त होने से पहले वह यूनीलिवर में एग्जिक्यूटिव वाइस प्रेजिडेंट (फिलिपींस) थे। उनके नेतृत्व में यूनिलीवर फिलीपींस ने काफी मजबूत विकास और लाभप्रदता हासिल की। तमाम चुनौती पूर्ण मार्केटिंग स्थितियों के बावजूद कंपनी को सफलता के नए मुकाम पर ले जाने का श्रेय उन्हें दिया जाता है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी से फैकल्टी मैनेजमेंट स्टडीज में ग्रेजुएट रोहित जावा एचयूएल में वैश्विक स्तर पर काम कर चुके हैं। पैरेंट कंपनी यूनीलिवर में चीफ ऑफ ट्रांजैक्शन के रूप में जॉइन करने से पहले वह नॉर्थ एशिया परिक्षेत्र में एग्जिक्यूटिव वाइस प्रेजिडेंट और यूनीलिवर चाइना के चेयरमैन थे। रोहित जावा को पर्सनल केयर, होम केयर और फूड जैसी तमाम कैटेगरीज में काम करने का काफी अनुभव है। उन्हें भारतीय मार्केट और कंज्यूमर ट्रेंड्स की काफी अच्छी समझ है और विदेश में अपनी जिम्मेदारी निभाने से पहले कई वर्षों तक भारत में काम कर चुके हैं।
दूसरी तरफ, प्रिया नायर की बात करें तो मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता हूं। एक अच्छी नेतृत्वकर्ता होने के साथ-साथ वह बहुत ही स्नेही और दयालु भी हैं, जिनके साथ मुझे कई बार बातचीत करने का सौभाग्य मिला है। वह एक उत्कृष्ट प्रफेशनल और लीडर हैं, जिनके बारे में मुझे पूरा विश्वास है कि वह आगे बढ़ेंगी और उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी गई है, उसमें चार चांद लगाएंगी।
नायर यूनीलिवर के साथ करीब तीन दशक से जुड़ी हुई हैं और इस दौरान कंपनी में तमाम प्रमुख पदों पर अपनी भूमिका निभा चुकी हैं। वह वर्तमान में कंपनी में ग्लोबल चीफ मार्केटिंग ऑफिसर (Beauty & Wellbeing) हैं। नायर पुणे की ‘सिम्बायोसिस इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट’ (Symbiosis Institute of Management) से ग्रेजुएट हैं। वह कार्यस्थल पर विविधता और समावेशन की पक्षधर भी हैं, जो आज कई कंपनियों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है। वह ‘CEAT’ और ‘ASCI’ के बोर्ड में भी कार्यरत हैं।
एक तरफ नायर हिंदुस्तान यूनिलीवर में सीईओ पद के लिए विचार करने के लिए बढ़िया विकल्प थीं, वहीं रोहित जावा का अनुभव, भारतीय बाजार की समझ और सफलता का ट्रैक रिकॉर्ड उन्हें इस भूमिका के लिए मजबूत उम्मीदवार बनाता है। आखिरकार, जावा को सीईओ के रूप में नियुक्त करने का निर्णय लीडरशिप क्वालिटी, स्ट्रैटेजिक विजन और अनुभव सहित कई कारकों पर आधारित रहा होगा।
मैं समझता हूं कि नेतृत्व विविधता के संदर्भ में यूनिलीवर ने हाल के वर्षों में प्रगति की है। वर्ष 2020 में कंपनी ने घोषणा की कि उसने अपनी लीडरशिप टीमों में लैंगिक संतुलन (gender balance) हासिल कर लिया है। जिसके तहत सभी प्रबंधन पदों पर 50 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके अतिरिक्त यूनिलीवर लीडरशिप पोजीशंस पर अश्वेत लोगों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है।
संजीव मेहता का उत्तराधिकार
मैं भारत में संजीव मेहता से एचयूएल में लगभग उसी दौरान मिला था, जब मैं सिंगापुर में जावा से पहली बार मिला था। तब से लेकर हमने कई बार उनका इंटरव्यू किया है और उन्होंने बिजनेसवर्ल्ड के विभिन्न इवेंट्स को संबोधित किया है। चार वर्षों में कई बार नॉमिनेट होने के बाद वर्ष 2021 में मेहता हमारे ‘इंपैक्ट पर्सन ऑफ द ईयर’ (IPOY) थे।
मुझे याद है कि जब 2017 में बाबा रामदेव ‘इंपैक्ट पर्सन ऑफ द ईयर’ थे और मैंने संजीव मेहता से विजेता के बारे में टिप्पणी के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि हमें आज बाबा रामदेव का जश्न मनाना चाहिए, लेकिन एक एडिटोरियल प्लेटफॉर्म के रूप में हमें कोई निर्णय लेते समय गहन रिसर्च और गहराई से चीजों को देखना चाहिए। मुझे याद है कि मेरे प्रश्न का उत्तर देते समय उन्हेंने काफी शांत, संयत और शिकायत रहित तरीके से अपनी बात कही थी।
यहां बता दूं कि मैंने भारतीय इंडस्ट्री जगत के लगभग सभी लीडर्स से मुलाकात की है और उनमें से कई के साथ बातचीत की है। इससे पहले कि मैं आपको बताऊं कि पिछले आठ सालों में मैंने मेहता के साथ बातचीत में क्या महसूस किया, उससे पहले मुझे लगता है कि आपको एक स्टोरी सुनानी चाहिए।
दो साल पहले मेरे दोस्त सुनंदन भांजा चौधरी ने मुझे बुलाया और सुझाव दिया कि हमें ऐसा आयोजन करना चाहिए, जो देश में बिजनेस की दुनिया में सबसे ज्यादा ‘कंप्लीट मैन’ (Complete Man) के बारे में हो। मुझे यह दिलचस्प लगा और मैंने उनसे कहा कि मैं इस बारे में सोचूंगा और इस तरह के पुरस्कार की रूपरेखा और मानदंड तैयार करूंगा। मुझे याद है कि मैंने कहा था कि हमें एक 'कंप्लीट पर्सन' (Complete Person) पुरस्कार देना चाहिए, जिसमें महिला और पुरुष दोनों शामिल हों। इसके बाद हमने फ्रेमवर्क तैयार किया और ‘Complete Person’, ‘Complete Woman’ और ‘Complete Man’ के लिए मानदंड के तीन सेट तैयार किए। हमने शुरुआती लिस्ट तैयार की और मानदंडों व नामों को लेकर काफी विचार-विमर्श किया और कई जानकारी लोगों के साथ इसे शेयर किया।
‘Complete Man’ के लिए मैंने जो फ्रेमवर्क और मानदंड तैयार किए, मेरे हिसाब से उसमें निम्नलिखित गुण होने चाहिए-
: जिसने लंबे समय तक उत्कृष्टता का प्रदर्शन किया हो और अपने प्रदर्शन और योगदान में निरंतरता बनाए रखी हो।
: बड़े पैमाने पर उसका प्रभाव हो।
: वह मानवीय और दयालु हो और उसने बहुत मार्केट लीडर्स तैयार किए हों।
: लंबे समय तक लीडरशिप पोजीशन में रहा हो।
: नेतृव और योगदान में उसकी बहुत ज्यादा स्वीकार्यता हो।
: अपनी कंपनी और इंडस्ट्री से हटकर भी उसका योगदान हो।
: एक ऐसा पारिवारिक व्यक्ति जो अपने परिवार के साथ सद्भाव रखता हो।
: क्या हम ऐसे व्यक्ति से तब भी मिलना चाहेंगे, जब उसने अपनी नौकरी छोड़ दी हो, उसके पास कोई नौकरी नहीं हो और कोई आधिकारिक पद नहीं हो और कोई ऐसा काम नहीं हो, जिसमें वह हमारी मदद कर सके या जिसमें सहयोग कर सके? अगर हमें कोई काम नहीं होगा तो क्या हम उससे मिलेंगे?
: उच्च सद्भाव और बेदाग चरित्र हो
: सही मायनों में राष्ट्र निर्माण में योगदान देने की क्षमता
आंतरिक प्रक्रिया में करीब दो महीने खर्च करने के बाद हमने छह नाम शॉर्टलिस्ट किए। हमने उस दौरान 200 से ज्यादा सीईओ और प्रमोटर्स को कॉल की और उनकी पसंद के बारे में पूछा। इसके बाद हम मीडिया के लोगों, बैंकरों, तमाम साथियों और वरिष्ठ एंप्लॉयीज तक पहुंचे और इस प्रक्रिया से एक सूची तैयार की। अंत में हमारे पास नौ नाम थे और हमने इसे अंतिम सूची के रूप में लिया। मैं यहां उस सूची को शेयर कर रहा हूं।
: एन चंद्रशेखरन, ग्रुप चेयरमैन, टाटा ग्रुप
: संजीव मेहता, चेयरमैन और एमडी, एचयूएल
: वी. वैद्यनाथन, सीईओ और एमडी, आईडीएफसी बैंक
: संजीव पुरी, चेयरमैन, आईटीसी
: उदय कोटक, चेयरमैन, कोटक महिंद्रा
: सुरेश नारायणना, चेयरमैन और एमडी, नेस्ले इंडिया
: आनंद महिंद्रा, चेयरमैन, महिंद्रा ग्रुप
: सीपी गुरनानी, एमडी और सीईओ, टेक महिंद्रा
: सुधीर सीतापति, एमडी और सीईओ, गोदरेज कंज्यूमर प्रॉडक्ट्स
इसके बाद हमने फिर आंतरिक और बाहरी दोनों तरीके से सलाह मशविरा किया और संजीव मेहता पहली पसंद बने। हालांकि मुझे यह जोड़ना चाहिए कि हमारे इस सलाह-मशविरे के पूरे क्रम में शीर्ष तीन विकल्पों में बहुत कम अंतर था, लेकिन मैं इस चर्चा को संजीव मेहता तक ही सीमित रखूंगा।
मैं यहां जो बात कह रहा हूं, वह यह है कि वह शाब्दिक तरीके से ‘कंप्लीट मैन’ हैं, जिन्होंने पिछले दशक में एचयूएल को बदलकर रख दिया और विकसित किया है।उनके नेतृत्व में कंपनी ने सभी श्रेणियों और सभी दौर में चुनौती देने वाले तूफान का सामना किया है। उनके कार्यकाल के दौरान एचयूएल के कारोबार और बाजार पूंजीकरण में वृद्धि हुई और यह ग्लोबल कंपनी भारत में अपने निवेश के मामले में दोगुना हो गई।
संजीव मेहता ने बड़े अधिग्रहण किए, वह विवादों से दूर रहे, मिलनसार और हमेशा संतुलित रहे। किसी को भी उनके साथ बातचीत में एक निष्पक्ष चर्चा करने और किसी भी चीज में एक निष्पक्ष निर्णय पर पहुंचने में संतुष्टि हुई, फिर चाहे वह कोई छोटी बात हो या बड़ी। वरिष्ठ या कनिष्ठ अथवा बाहरी और भीतरी रूप से वे जिस किसी के साथ भी पेशेवर या व्यक्तिगत रूप से बातचीत करते हैं, उसमें गर्मजोशी होती हैं। वह एक ‘कंप्लीट मैन’ का प्रतीक हैं और पिछले एक दशक में भारत में एचयूएल का पर्याय बन गए हैं। उनका विकास और प्रभाव उनकी स्थिति और प्रदर्शन से नहीं निकला, जो दोनों ही बेजोड़ थे, बल्कि इस तथ्य से कि उन्होंने जो कुछ भी किया उसमें ईमानदारी, गर्मजोशी और मानवीय दृष्टिकोण था।
स्वाभाविक रूप से जब यूनिलीवर संजीव मेहता के उत्तराधिकारी की तलाश कर रहा था तो भरने के लिए कुछ बहुत बड़ी जगह रही होगी। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का चयन करना था, जिसका कंपनी के भीतर और बाहर सम्मान हो और जिसमें उसके समान गुण हों। कोई भी दो लीडर एक जैसे नहीं होते हैं और जब आप उत्तराधिकारी के लिए सही चुनाव करना चाहते हैं तो समानता की तलाश करना सबसे अच्छा होता है। इसमें कल्चरल ओरियंटेशन भी महत्वपूर्ण है।
करीब दस वर्षों तक एचयूएल की कमान संभालने के बाद संजीव मेहता यहां से रिटायर होंगे। एचयूएल का करीब 7 बिलियन यूएस डॉलर का कारोबार है और बाजार पूंजीकरण (Market Cap) 75 बिलियन यूएस डॉलर के दायरे में है और बढ़ रहा है। एक दशक तक एचयूएल में रहते हुए, उन्होंने मार्केट कैप को 17 बिलियन अमेरिकी डॉलर से लगभग पांच गुना बढ़ाकर 75 बिलियन यूएस डॉलर करने में मदद की, जिससे एचयूएल देश का सबसे मूल्यवान बिजनेस बन गया। वह फिक्की (FICCI) के प्रेजिडेंट भी बने और टाटा संस द्वारा एयर इंडिया के बोर्ड में भी आमंत्रित किए गए।
रोहित जावा 27 जून 2023 से नए एमडी और सीईओ के रूप में कार्यभार संभालेंगे, लेकिन एक अप्रैल 2023 से नामित सीईओ और पूर्णकालिक निदेशक के रूप में कंपनी में शामिल होंगे। रोहित एक अप्रैल 2023 से यूनिलीवर, दक्षिण एशिया के प्रेजिडेंट के रूप में भी कार्यभार संभालेंगे और यूनिलीवर लीडरशिप एग्जिक्यूटिव के रूप में शामिल होंगे। संजीव मेहता और रोहित जावा दोनों के पास बेहतर विचारधारा और अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड है।
जब जावा के नाम की घोषणा की गई तो मैंने उन लोगों को बुलाया जो उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते थे और उनके बारे में बारीक दृष्टिकोण रखते थे। मुझे उनके बारे में ताजा सकारात्मक के रूप में जो जानकारी मिली और विभिन्न लोगों से एक लीडर के रूप में उनके बारे में जो प्रतिक्रिया मिली, उसमें समानता थी, जिसे मैं यहां उल्लेखित कर रहा हूं।
: काफी मेहनती हैं।
: बहुत दिलकश हैं और लोग काफी पसंद करते हैं।
: आंतरिक रूप से दृढ़ और स्थिरता।
: यूनिलीवर के सभी मार्केट्स की समझ और सांस्कृतिक संवेदनशीलता, जो उन्हें एक आदर्श उत्तराधिकारी बनाता है।
: एचयूएल के मुंबई कार्यालय से अपनी यात्रा शुरू करने के बाद वियतनाम, थाईलैंड, सिंगापुर, फिलीपींस, चीन और ब्रिटेन में काम किया
: चीन और फिलीपींस में असाधारण प्रदर्शन किया
: एक हेड के रूप में भविष्य के एचयूएल को आकार देने में क्या चाहिए, उस बारे में पता है
मैंने जिन 15 वरिष्ठ लोगों को फोन किया, उनमें से 12 ने स्पष्ट रूप से इस निर्णय का समर्थन किया
चीजों को देखने का नजरिया
मैं नूर और उनके नजरिये का बहुत सम्मान करता हूं। जब नूर ने उक्त एडिटोरियल लिखा, तो मैं इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हूं कि नूर कहां से आई थीं। मुझे लगता है कि उनका आर्टिकल एक बड़ा मुद्दा बना रहा था। संजीव मेहता के लिए उनकी प्रशंसा और सम्मान को जानते हुए मैं बिना किसी संदेह के जानता हूं कि उनका मानना है कि एलन जोप, नितिन परांजपे और यूनिलीवर बोर्ड सहित इस प्रक्रिया में भाग लेने वाले सभी लोगों के साथ-साथ उन्होंने सबसे अच्छा निर्णय लिया होगा। प्रिया नायर और रोहित जावा काफी अनुभवी हैं, नायर भी प्रतिभाशाली हैं, लेकिन यह जावा का क्षण है।
मेरे विचार से, ऐसा नहीं है कि वे समकालीन या ऐसे ही थे और एक जीत गया जबकि दूसरा हार गया। तुलना से बचा जा सकता है और तुलना हमेशा स्वस्थ नहीं होती है। और मेरे दृष्टिकोण से यह एक जैसी तुलना नहीं थी। अपने विचारों के लिए नूर स्वतंत्र हैं और मुझे यकीन है कि वह मेरे दृष्टिकोण पर टिप्पणी करेंगी, लेकिन ठीक है। मैं उनके नजरिये का सम्मान करता हूं और मुझे यकीन है कि वह मेरे नजरिये का सम्मान करेंगी। जिस तरह से मैं इसे देखता हूं, यह स्थिति एक सेलिब्रिटी या किसी अन्य व्यक्ति की शादी में दूल्हा या दुल्हन से लाइमलाइट चुराने के समान है।
स्पॉटलाइट सही कारणों से रोहित जावा पर होना चाहिए। वह यह है कि वह संजीव मेहता के उत्तराधिकारी के लिए एचयूएल के लिए सही विकल्प हैं। मेरा दृष्टिकोण और लेख प्रतिभा या व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी नहीं है। मुझे लगता है कि नूर के लेख में यह वह एंगल है, जो अलग होना चाहिए था। मेरा दृढ़ विश्वास है कि आने वाला समय बताएगा कि रोहित जावा उनके उत्तराधिकारी के रूप में सही विकल्प हैं।
परिप्रेक्ष्य
जैसा कि मैंने निष्कर्ष निकाला है, मेरे पास इस नौकरी की कड़ी आवश्यकताओं के लिए एक और परिप्रेक्ष्य है। यह न केवल भारत में, बल्कि बड़े पैमाने पर दुनिया की सबसे बड़ी कॉर्पोरेट नौकरियों में से एक है। आइए विचार करें कि हिंदुस्तान यूनिलीवर, जो यूनिलीवर की भारतीय सहायक कंपनी है, कारोबार, लाभप्रदता और बाजार की स्थिति के मामले में अन्य यूनिलीवर सहायक कंपनियों और अन्य बड़ी एफएमसीजी कंपनियों से मुकाबला करती है।
सबसे पहले बात करें तो हिंदुस्तान यूनिलीवर वॉल्यूम के मामले में यूनिलीवर की सबसे बड़ी सहायक कंपनी है। वित्तीय वर्ष 2022 (FY22) में लगभग सात बिलियन यूएस डॉलर के कथित टर्नओवर के साथ और वित्तीय वर्ष 2023 (FY23) में नौ महीने के टर्नओवर के आधार पर पांच बिलियन यूएस डॉलर से अधिक– 17 प्रतिशत साल दर साल (YoY) वृद्धि से पूरे वर्ष की संख्या संभवतः आठ बिलियन यूएस डॉलर के करीब हो सकती है। यह इसे यूनिलीवर, उत्तरी अमेरिका और यूनिलीवर, यूरोप जैसी अन्य प्रमुख सहायक कंपनियों से आगे रखता है। इसके अलावा, एचयूएल का बाजार पूंजीकरण (market capitalisation) ‘Benckiser’, ‘Colgate Palmolive’, ‘General Mills’ और ‘Kraft Heinz’ जैसी ग्लोबल एफएमसीजी (FMCG) कंपनियों से बड़ा है।
लाभप्रदता की बात आती है तो हिंदुस्तान यूनिलीवर ने लगातार मजबूत वित्तीय परिणाम दिए हैं। वित्तीय वर्ष 2020-21 में कंपनी ने एक बिलियन यूएस डॉलर से अधिक का शुद्ध लाभ दर्ज किया। जब मार्केट की स्थिति की बात आती है तो हिंदुस्तान यूनिलीवर देश में अग्रणी एफएमसीजी कंपनियों में से एक है। पर्सनल केयर, होम केयर, फूड और रिफ्रेशमेंट जैसी कई प्रॉडक्ट कैटेगरी में इसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। डव, सर्फ एक्सेल और लिप्टन जैसे कंपनी के ब्रैंड देश में घर-घर में पहचाने जाने वाले नाम हैं, जो अपनी मजबूत ब्रैंड पहचान और लोगों के बीच अपनी खास जगह रखते हैं।
रोहित जावा को भारतीय लोकाचार और भारतीय संस्कृति की काफी समझ है। उन्होंने कई देशों में और विभिन्न भूमिकाओं में काम किया है। वह मिलनसार हैं और साथियों द्वारा उन्हें पसंद किया जाता है। मेरा मानना है कि इस पैमाने के संचालन के लिए पूर्ण अर्थों में वह सबसे उपयुक्त हैं।
अंत में यह सवाल
हालांकि विचार करने के लिए एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यूनिलीवर के पास भारतीय सीईओ कब होगा? क्या नितिन परांजपे अगले कुछ वर्षों में यूनिलीवर के सीईओ होंगे? क्या संजीव मेहता को यहां अधिक महत्वपूर्ण भूमिका मिलेगी और भविष्य में वह ग्लोबल सीओओ या ग्लोबल सीईओ बनने की दौड़ में होंगे? मैं यह सवाल महज इसलिए नहीं पूछ रहा हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि कोई भारतीय यूनिलीवर का प्रमुख बने। मुझे लगता है कि नितिन परांजपे और संजीव मेहता जैसे लीडर दुनिया में किसी से भी अच्छे या बेहतर हैं, क्योंकि उन्होंने सफलतापूर्वक बड़े पैमाने पर और चुनौतियों के साथ हिंदुस्तान यूनिलीवर का संचालन किया है।
स्पष्टीकरण: यह कॉलम रेमंड द्वारा प्रायोजित नहीं है, हालांकि मैं रेमंड द्वारा इसे प्रायोजित करने का स्वागत करूंगा, क्योंकि यह पूरा कॉलम है।
(मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस आर्टिकल को आप exchange4media.com पर पढ़ सकते हैं। लेखक ‘बिजनेसवर्ल्ड’ समूह के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ और ‘एक्सचेंज4मीडिया’ समूह के फाउंडर व एडिटर-इन-चीफ हैं। लेखक दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया पर लिख रहे हैं।)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।मानहानि के कानून की आपराधिक धारा को हटाने के लिए मैं वर्ष 2006 से कुछ वर्षों तक एडिटर्स गिल्ड के माध्यम से आवाज उठाता रहा हूं।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार।।
राहुल गांधी देश की पुरानी बड़ी पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री पद के दावेदार कहे जाते हैं। इसलिए सूरत की अदालत द्वारा मानहानि के चार साल से चल रहे मामले में दो वर्ष की सजा और इसके कारण संसद सदस्यता रद्द होने के विरुद्ध ऊंची अदालतों से राहत पा सकते हैं और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर जमीनी लड़ाई लड़ सकते हैं। लेकिन यह अदालती फैसला नेताओं और पत्रकारों के लिए गंभीर चेतावनी की घंटी है।
मानहानि के कानून की आपराधिक धारा को हटाने के लिए मैं वर्ष 2006 से कुछ वर्षों तक एडिटर्स गिल्ड के माध्यम से आवाज उठाता रहा हूं और सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डॉक्टर के.जी बालकृष्णनन और अन्य प्रमुख जजों, कानून मंत्रियों व विशेषज्ञों से विस्तृत चर्चा की गई थी। न्यायमूर्ति बालकृष्णनन ने इस मामले में कोई अपील आने पर विचार का आश्वासन भी दिया था, लेकिन उनके सेवानिवृत्त होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने और भी कड़ा रुख अपना लिया। वहीं सर्वोच्च न्यायालय के बजाय जिला अदालत से भी सजा होने पर संसद सदस्यता समाप्त होने के निर्णय पर कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार नया कानून पास करना चाहती थी, लेकिन स्वयं राहुल गांधी ने नाटकीय ढंग से प्रेस के सामने आकर उस दस्तावेज को फाड़कर उसका विरोध कर दिया। अब अपने ही बनाए गड्ढे से वह कानूनी दांवपेंच में फंस गए हैं।
नेता ही नहीं संपादक, प्रकाशक, संवाददाता या मीडिया से जुड़े व्यक्ति वर्षों से ऐसे प्रकरणों का सामना करते रहे हैं। कई नेता इस कानून का प्रयोग कर पत्रकारों को परेशान करते या दबाव बनाते रहे हैं। इनमें कांग्रेस के नेता भी हैं। मानहानि के आपराधिक प्रकरण की सुनवाई में राहुल गांधी जैसे नेता दो-तीन बार उपस्थित होकर निर्णय के समय जाने का रास्ता अपना सकते हैं, लेकिन यदि जज चाहे तो हर तारीख पर व्यक्ति को उपस्थित रहना पड़ता है।
मेरा अनुभव कुछ मामलों में दिलचस्प रहा है। हरियाणा के एक कांग्रेसी नेता ने लगभग 25 साल पहले दिल्ली और चंडीगढ़ के दो संपादकों, प्रकाशकों और संवाददाताओं पर मानहानि का मुकदमा एक जिला अदालत में किया। वही खबर दिल्ली के एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार में हूबहू छपी थी, लेकिन नेता ने उस पर प्रकरण दर्ज नहीं किया। जज साहब ने नेता के वकील के आग्रह पर हर तारीख पर हमें उपस्थित रहने का आदेश दिया। वर्षों तक सुनवाई हुई। अंत में मुझे दोषमुक्त कर दिया गया, लेकिन चंडीगढ़ के संपादक को निचली अदालत ने एक साल की सजा सुना दी। बहरहाल, उच्च न्यायालय ने उस निर्णय को रद्द कर दिया।
बिहार, छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी नेताओं ने भी इस तरह के मामले दर्ज कर मुझे ही नहीं, कई पत्रकारों को अनावश्यक तंग किया। हां, कांग्रेस ही नहीं अन्य पार्टियों के नेता, उनके समर्थक या अधिकारी इस कानून का उपयोग करते रहे हैं। सामान्यतः अदालत में खेद और क्षमा मांगने के लिए तैयार होने पर जज उदारतापूर्वक सजा से माफी दे देते हैं। पत्रकार\प्रकाशक संबंधित नेता का पक्ष प्रकाशित कर मामला निपटाने के लिए भी सहमत हो जाते हैं। राहुल गांधी ने सूरत की अदालत में अपने वक्तव्य पर खेद या क्षमा व्यक्त नहीं की। अन्यथा संभव था कि जज सजा कम कर देते या रद्द कर देते।
राहुल गांधी के खिलाफ यह मामला उनकी उस टिप्पणी को लेकर दर्ज किया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘सभी चोरों का समान उपनाम मोदी ही कैसे है?’ राहुल गांधी की इस टिप्पणी के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता एवं विधायक और गुजरात के पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने शिकायत दर्ज कराई थी। सूरत की जिला अदालत ने ‘मोदी उपनाम’ बयान को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ 2019 में दर्ज आपराधिक मानहानि के एक मामले में दो साल कारावास की सजा सुनाई।
राहुल गांधी के वकील बाबू मंगुकिया ने बताया कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एच एच वर्मा की अदालत ने राहुल गांधी को जमानत भी दे दी और उनकी सजा पर 30 दिन की रोक लगा दी, ताकि कांग्रेस नेता उसके फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दे सकें। अदालत ने कांग्रेस नेता को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 499 और 500 के तहत दोषी करार दिया। ये धाराएं मानहानि और उससे संबंधित सजा से जुड़ी हैं। यह फैसला सुनाए जाते समय राहुल गांधी अदालत में मौजूद थे।
सजा का ऐलान किए जाने के बाद आरोपी राहुल गांधी से जब सजा को लेकर पूछा गया, तो कांग्रेस नेता ने अदालत में कहा कि उन्होंने जो भी भाषण दिया था वह प्रजा के हित में उनके कर्तव्य के हिसाब से दिया था। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि आरोपी के द्वारा विवादित बयान को ध्यान में लिया गया है और नामदार सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरोपी को अलर्ट रहने की सलाह दिए जाने के बावजूद आरोपी के कंडक्ट में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है। इसके अलावा आरोपी खुद सांसद हैं और सांसद के तौर पर प्रजा को इस तरह से संबोधित करना बेहद गंभीर है क्योंकि सांसद की हैसियत से किसी व्यक्ति अथवा प्रजा को संबोधन करते वक्त इसका असर बड़े पैमाने पर होता है और उसके चलते गुनाह की गंभीरता ज्यादा है।
अदालत ने कहा, ‘आरोपी को कम सजा दी जाए, तो जनता में गलत संदेश जाएगा और यह बदनामी के लिए पूर्ण नहीं होगा और कोई भी व्यक्ति फिर बाद में आसानी से किसी भी व्यक्ति की बदनामी करेगा। इन तमाम हकीकत को ध्यान में लेते हुए आरोपी को कथित गुनाह के संबंध में दो साल की सजा करने का फरमान किया जाता है।'
गुजरात के बाद अब एक और राज्य में मुश्किलें राहुल गांधी का इंतजार कर रही हैं।दरअसल, झारखंड राज्य में भी राहुल गांधी के खिलाफ तीन मामले चल रहे हैं। माना जा रहा है कि इन मामलों में भी राहुल के खिलाफ फैसला आ सकता है। ऐसे में कांग्रेस सांसद के लिए मुश्किलों का दौर थमने वाला नहीं है बल्कि बढ़ने वाला दिखाई दे रहा है। झारखंड में राहुल गांधी के खिलाफ कुल तीन मामले चल रहे हैं, लेकिन इनमें से एक मामला मोदी सरनेम से भी जुड़ा हुआ है।
2019 में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने झारखंड की राजधानी रांची से रैली की शुरुआत की थी। इस दौरान राहुल गांधी ने रैली को संबोधित भी किया था और इस दौरान उन्होंने कहा था कि 'सभी चौकीदार चोर हैं' कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने इसी भाषण को फिर आगे बढ़ाया और एक आपत्तिजनक बयान भी दे डाला था। राहुल गांधी के इसी बयान को लेकर इसके बाद लगातार कई राज्यों में शिकायतें दर्ज की गई थीं। इनमें रांची के साथ-साथ बिहार की राजधानी पटना, मुजफ्फरपुर, कटिहार और देश के दक्षिण राज्य कर्नाटक में भी शिकायत दर्ज की गई थी। यानी राहुल गांधी के खिलाफ मोदी सरनेम को लेकर कई कोर्ट में मामला चल रहा है।
इसके अलावा राहुल गांधी पर झारखंड में जो दो मामले चल रहे हैं, वे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर दिए विवादित बयान के चलते चल रहे हैं। दरअसल, राहुल गांधी ने कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान कहा था कि, कांग्रेस में कोई हत्यारा राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बन सकता है, ऐसा सिर्फ भारतीय जनता पार्टी में हो सकता है। कांग्रेस सांसद के इस बयान को लेकर चाईबासा और रांची में मामला दर्ज किया गया था।
यही कारण है कि अब बड़े वकील, पूर्व महाधिवक्ता या पूर्व न्यायाधीश इस बात पर जोर दे रहे हैं कि नेता बड़ा हो या छोटा अथवा संपादक हो या पत्रकार, अपनी बात कहते, लिखते या प्रकाशित/प्रसारित करते हुए कानून और मर्यादा का ध्यान रखें। अभिव्यक्ति के अधिकार की भी संवैधानिक सीमाएं तय हैं। स्वतंत्रता को स्वछंदता में नहीं अपनाया जा सकता है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं।)
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
तेईस मार्च की सुबह यकीनन मनहूस थी। पहली खबर हिंदी पत्रकारिता में राजेंद्र माथुर युग के अंतिम सशक्त हस्ताक्षर अभय छजलानी के अपने आखिरी सफर पर जाने की मिली। भले ही कुछ बरस से वे अपनी अस्वस्थता तथा पारिवारिक कारणों के चलते सक्रिय नहीं थे, लेकिन अपने जीवन काल में लगभग आधी शताब्दी तक शानदार अखबारनवीसी के कारण उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। भारतीय हिंदी पत्रकारिता जब उनींदी और परंपरागत ढर्रे पर अलसाई सी चल रही थी, तो राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के मार्गदर्शन में उसे आधुनिक तकनीक और प्रामाणिकता का स्वर देने का काम अभय जी ने किया।
यही वजह थी कि ‘नईदुनिया’ ने कई साल श्रेष्ठता के राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त किए। बेशक इसमें उनके पिता स्वर्गीय लाभ चंद छजलानी और स्वर्गीय नरेंद्र तिवारी का भी भरपूर योगदान था, फिर भी अभय जी ने इंदौर को पत्रकारिता का घराना बनाने का शानदार काम किया। ‘नईदुनिया’ ने विश्वसनीयता के जो कीर्तिमान गढ़े, वैसे देश के किसी अन्य समाचार पत्र ने नहीं।
मुझे उनके सानिध्य में कई साल काम करने का अवसर मिला। यूं तो ‘नईदुनिया’ से मेरा संबंध जोड़ने वाले राजेंद्र माथुर ही थे, किंतु अभय जी की उसमें बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा रोजमर्रा के कामकाज में प्रबंध संपादक होने के कारण अभय जी का समन्वय कौशल अदभुत था। जब राजेंद्र माथुर जी उन्नीस सौ बयासी के आखिरी दिनों में ‘नवभारत टाइम्स’ के प्रधान संपादक होकर नई दिल्ली चले गए तो हम सब एक तरह से अनाथ हो गए। उस दौर में पूर्व प्रधान संपादक राहुल बारपुते और पूर्व संपादक डॉक्टर रणवीर सक्सेना के साथ अभय जी ने अखबार का स्तर बनाए रखने में बड़ी जिम्मेदारी निभाई। उनमें प्रबंधकीय नेतृत्व की बेजोड़ क्षमता थी। बड़ी से बड़ी खबर आने पर भी शांत भाव से उसके साथ न्याय करने का हुनर संभवतया उन्होंने राजेंद्र माथुर से सीखा होगा।
यह उनका भरोसा ही था कि बाईस तेईस बरस के मुझ जैसे अपेक्षाकृत अनुभवहीन पत्रकार को उन्होंने समाचार पत्र की कमोबेश अनेक जिम्मेदारियां सौंप दी थीं। चाहे वह संपादकीय पृष्ठ रहा हो या संपादक के नाम पत्र स्तंभ (उन दिनों अखबार का संपादक के नाम पत्र सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्तंभ था और राजेंद्र माथुर जी स्वयं पत्र छांटते थे)। रविवारीय परिशिष्ट रहा हो या मध्य साप्ताहिक के स्तंभ। भोपाल संस्करण की स्वतंत्र जिम्मेदारी रही हो अथवा विशेष कवरेज का समन्वय। यह अभय छजलानी जी का विश्वास ही था कि उन्होंने मुझे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत से ठीक एक सप्ताह पहले उनकी मध्य प्रदेश यात्रा की कवरेज पर भेजा। वह मेरे लिए कभी न भूलने वाला अनुभव था।
इसके चंद रोज बाद ही इंदिराजी शहीद हुईं तो उस दिन सुबह-सुबह अभय जी ने मुझे गाड़ी भेजकर बुलाया और जब तक संपादकीय विभाग के अन्य सदस्य आते, तब तक हम दोनों अखबार के अनेक विशेष ‘बच्चा संस्करण’ निकाल चुके थे। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे खास संस्करण आज भी विशिष्ट हैं। उन्होंने पहले बच्चा संस्करण का शीर्षक दिया था, इंदिरा जी शहीद। इसके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहली मध्य प्रदेश यात्रा, भोपाल गैस त्रासदी, भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा की यात्रा, उन्नीस सौ तिरासी में सुनील दत्त की मुंबई से अमृतसर पदयात्रा या चंद्रशेखर की कन्याकुमारी से नई दिल्ली तक पदयात्रा, अभय जी ने मुझे कवरेज की पूरी छूट दी।
डेस्क जिम्मेदारियों में गुट निरपेक्ष देशों का सम्मेलन रहा हो या प्रूडेंशियल क्रिकेट कप में भारत की जीत की खबर हो, उन्होंने मुझ पर यकीन किया। गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन के मौके पर भी हमने विशेष बच्चा संस्करण निकाले थे, जो अत्यंत लोकप्रिय हुए और सराहे गए थे। एशियाड 82 पर भी हमने नायाब बच्चा संस्करण निकाले थे। इन सबके सूत्रधार भी अभय जी ही थे। ठाकुर जयसिंह न्यूज रूम के अघोषित कप्तान थे। उनके बगल में मेरी कुर्सी थी। अभय जी सामने आकर डट जाते और देखते ही देखते विशेष संस्करण निकल जाता।
हालांकि, अभय जी एकदम से किसी भी नए साथी पर भरोसा नहीं करते थे। इस कारण ही उन्होंने मुझे शुरू में नगर निगम की रिपोर्टिंग का दायित्व सौंपा था। मुझे ऑफिस की ओर से रिपोर्टिंग के लिए नई साइकल खरीदकर दी गई थी। इसके बाद उन्होंने मुझसे रामचंद्र नीमा वॉलीबाल स्पर्धा और ‘नईदुनिया’ फुटबाल टूर्नामेंट का कवरेज कराया। उन दिनों ‘नईदुनिया’ में कोई फुल टाइम खेल पत्रकार नहीं था। कुछ समय बाद मुझे लगा कि यदि मैं खेल पत्रकार बन गया तो फिर मेरी दिलचस्पी के अन्य क्षेत्र पिछड़ जाएंगे, तो मैंने उनसे खेल डेस्क से हटाने का अनुरोध किया। उन्होंने मान लिया, लेकिन कोई पूर्णकालिक खेल पत्रकार के ज्वाइन करने तक काम देखते रहने को कहा। जब प्रशांत राय चौधरी ने ज्वाइन किया, तब मुझे मुक्ति मिली।
अभय जी चुटकियों में अखबार के लेआउट की कायापलट करने की कला में बेजोड़ थे। कोई बड़ा अवसर आता तो वे न्यूज डेस्क पर कॉपी लिखने से लेकर लेआउट देने का काम करते थे। शीर्षक संपादन में उन्हें महारथ हासिल थी। यह हुनर उन्होंने राजेंद्र माथुर जी से प्राप्त किया था। जिस तरह माथुर जी किसी समाचार या आलेख की कॉपी को पलक झपकते ही तराशते थे, वही कला थोड़ा-बहुत हम लोगों ने भी उनकी संपादित कॉपियां देख-देखकर सीख ली थी। हम सब उन्हें देखकर हैरान रह जाते थे। किसी बड़ी घटना विशेष पर जब हम उत्तेजित हो जाते और न्यूज रूम सिर पर उठा लेते, तो अभय जी प्रकट होते और एकदम शांत भाव से काम करते। उन्हें काम करते देखना अपने आप में सुखद था।
पंजाब में जब आतंकवाद सर उठा रहा था, तो विश्व सिख सम्मेलन और भिंडरावाले पर केंद्रित मेरे अनेक आलेखों का संवेदनशील संपादन उन्होंने किया था। मुझे याद है कि श्रीलंका उन दिनों बेहद अशांत था। रविवारीय परिशिष्ट में पूरे पृष्ठ की मुख्य आमुख कथा प्रकाशित हो रही थी। वह मैंने लिखी थी तो कुछ जानकारियां स्थान अभाव के कारण छोड़नी पड़ रही थीं। मैं उलझन में था। इतने में अभय जी आए और कुछ तस्वीरों का संपादन किया। सारी सामग्री आ गई। वे मुस्कुराते हुए लौट गए। मैंने इस तरह उनसे फोटो संपादन का हुनर हासिल किया। आगे जाकर वह हुनर मेरे बड़े काम आया।
इसका अर्थ यह नहीं था कि मेरे उनसे कभी मतभेद नहीं हुए। अनेक अवसरों पर मुझे उनका मालिक वाला भाव पसंद नहीं आता था। वे कुछ कुछ रौबीले और सामंती मिजाज के थे। सुंदरता उन्हें भाती थी। दूसरी ओर मैं एक अक्खड़ जवान, पांच-सात साल की पत्रकारिता के बाद ही अपने भीतर कुछ कुछ ठसक महसूस करता था। शायद मेरे इलाके का असर था। कभी मतभेद होता तो मैं कुछ दिन उनसे बात ही नहीं करता। आज सोचता हूं तो अपने इस बचपने पर हंसी आती है। आखिर कुछ दिनों के बाद वे ही चटका हुआ संवाद दुबारा जोड़ते थे। जब मैं छतरपुर जैसे दूरस्थ-पिछड़े जिले में पत्रकारिता कर रहा था तो ‘नईदुनिया’ का संवाददाता बनाने के लिए उन्हें और राजेंद्र माथुर को कम से कम पचास पत्र तो लिखे ही होंगे। मैंने जिद ठान ली थी। मैं एक पत्र भेजता। अभय जी का खेद भरा उत्तर आता। मैं दो-चार दिन बाद फिर नई चिठ्ठी भेज देता। उनका फिर संवाददाता नहीं बनाने का पत्र आ जाता। मगर देखिए संवाददाता न बनाते हुए भी मेरी खबरें, रिपोर्ताज और रूपक प्रकाशित करते रहे और अंततः मुझे उसी समाचारपत्र में सह संपादक पद पर काम करने का निमंत्रण भी राजेंद्र माथुर ने दे दिया।
हां, एक बार वे गंभीर रूप से मुझसे गुस्सा हो गए थे। कहानी यह है कि राजेंद्र माथुर मुझे खोजी रिपोर्टिंग के काम में लगाना चाहते थे और अभय जी मुझे भोपाल संस्करण का प्रभारी बनाए रखना चाहते थे। मेरे प्रभार संभालने के बाद एक पन्ना प्रादेशिक खबरों के लिए मैंने बढ़ाया था और अखबार का समय भी नियमित हो गया था। इससे कोई दस हज़ार प्रसार संख्या में बढ़ोतरी हुई थी। इसी बीच रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह इंदौर आए। वे वसंत पोतदार के घर रुके थे। हम सबके लिए वे वसंत दा थे। एसपी ‘नईदुनिया‘ दफ्तर आए और समाचारपत्र में काम करने की शैली से बड़े प्रभावित हुए। जाने लगे तो उन्होंने हॉल में लगी घड़ी पर नजर डाली और बोले, ‘अरे! बहुत देर हो गई। साढ़े तीन बज गए। चलता हूं।‘ अभय जी ने एक ठहाका लगाया और उन्हें बताया कि ‘नईदुनिया‘ की घड़ी आधा घंटे आगे चलती है। इसके अनेक फायदे उन्होंने गिनाए। एसपी दंग रह गए। माथुर जी भी साथ में थे। तब एसपी ने राजेंद्र माथुर जी से पूछा कि क्या वे रविवार के लिए राजेश को ‘नईदुनिया‘ से मुक्त कर सकते हैं। माथुर जी ने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी राजेश का प्रशिक्षण काल चल रहा है। बीच में छोड़ना उचित नहीं है। तब एसपी ने कहा कि संभव हो तो रविवार के लिए कभी-कभी रिपोर्टिंग की अनुमति दे दें। माथुर जी ने यह इजाजत दे दी, लेकिन अभय जी की त्यौरियां चढ़ गईं।
ज़ाहिर है एक मालिक के रूप में वे इसे कैसे पसंद कर सकते थे। कुछ दिन बाद मेरा लिखना शुरू हो गया। मैं देखता कि अभय जी की टेबल पर वह रविवार पड़ा रहता। अभय जी इससे प्रसन्न नहीं थे। एक बार रविवार में अर्जुन सिंह के ख़िलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे और हमारी (पटैरया और विभूति जी के साथ) कवर स्टोरी छपी। अर्जुन सिंह से अभय जी के मधुर संबंध थे। अर्जुन सिंह सरकार ने विज्ञापन बंद करने की धमकी दी और मुझे निकालने का दबाव बनाया। उन दिनों अभय जी बड़े ग़ुस्से में थे। अंततः राजेंद्र माथुर और नरेंद्र तिवारी जी ने मामला शांत कराया। वह एक लंबी कहानी है। लेकिन बताने की आवश्यकता नहीं कि अभय जी दो-तीन महीने बाद ही मेरे साथ सामान्य हो पाए।
उनके बारे में कितना लिखूं ? बरसों तक साथ महसूस तो किया जा सकता है, लेकिन अक्सर शब्द कम पड़ते हैं। जब राजेंद्र माथुर जी लखनऊ से ‘नवभारत टाइम्स‘ निकालने जा रहे थे तो उस टीम में मेरा भी नाम था। सौजन्यतावश और पेशेवर शिष्टाचार के नाते अभय जी से उन्होंने बात की। अभय जी ने उनसे असमर्थता जताई, क्योंकि अखबार की अनेक जिम्मेदारियां मुझ पर थीं। इसके बाद फरवरी 1985 में माथुर जी ने फिर अभय जी से बात की। ‘नवभारत टाइम्स‘ का जयपुर संस्करण प्रारंभ होने जा रहा था। उसके लिए वे मुझे जयपुर में चाहते थे। इस बार अभय जी ने हां कर दी। कारण यह था कि कुछ महीने पहले ही अभय जी ने तैयारी कर ली थी कि मेरे नहीं रहने पर कौन सी टीम ‘नईदुनिया‘ ज्वाइन करेगी ।
दिलचस्प यह कि उन्होंने इस काम में मुझे ही शामिल किया था। उन्होंने चार-पांच प्रशिक्षु पत्रकारों के नाम एक भारी भरकम फाइल से छांटने के लिए कहा था। उन दिनों अख़बार में काम करने के लिए रोज ही दस से पंद्रह आवेदन प्राप्त होते थे। प्राथमिक तौर पर उन्हें शॉर्ट लिस्ट करने के बाद मैं उन्हें संदर्भ और पुस्तकालय विभाग के सदस्य अशोक जोशी जी को दे देता था। इस भारी फाइल से चार नाम मोती की तरह निकाले गए। ये थे यशवंत व्यास, रवींद्र शाह, दिलीप ठाकुर और भानु चौबे। इन लोगों ने मेरे बाद कमान संभाली थी। अभय जी जानते थे कि मैं जयपुर जा रहा हूं और मुझे इसकी खबर नहीं थी। उनका यह प्रबंधकीय कौशल था कि मुझे ही उन्होंने समाचार पत्र की अगली पीढ़ी के चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी थी।
उनके मानवीय रूप को क्या कहूं। जब मैंने इंदौर ज्वाइन किया तो वहां के होटलों के खाने में मिर्च तेज होती थी। एक दिन बातों ही बातों में यह जानकारी उन्हें मिल गई। फिर तो अगले दिन से भाभी जी का संदेश मिलने लगा और बड़े दिनों तक उनके यहां भोजन के लिए जाता रहा। डायनिंग टेबल पर खाने की परंपरा उनके घर में उन दिनों तो नही थी। एक बड़े कमरे में नीचे बैठकर सभी भोजन करते थे। सामने एक लकड़ी का पटा होता था। उस पर थाली रखी जाती थी।
जब अभय जी के न्यौते पर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर अपने जन्म स्थान इंदौर में अपना पहला गायन शो करने आईं तो अभय जी के घर इसी पद्धति से जमीन पर बैठकर उन्होंने दाल बाफले खाए थे। जब मेरा विवाह हुआ तो उन्होंने खास तौर पर संदेश भेजा कि बहू को घर लेकर आना। दाल बाफले का न्यौता है। हम लोग गए। उनका आशीर्वाद लिया। उन्होंने एक शानदार उपहार दिया। संस्था छोड़ने के बाद आजकल कौन याद रखता है? इन दिनों मेरे दौर के अधिकांश वरिष्ठ साथी यह लोक छोड़कर जा चुके हैं। शिखर पुरुष के रूप में अभय जी ही बचे थे, वे भी चले गए।
पत्रकारिता के इस विलक्षण व्यक्तित्व को मेरा नमन।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।अभयजी के कई रूप थे और उनमें से हर रूप अपने आप में एक उपन्यास। और उनका हर रूप एक अंतहीनसंघर्ष की दास्तान है। बाहर-भीतर हर तरह का संघर्ष।
जयदीप कर्णिक, एडिटर, अमर उजाला (डिजिटल) ।।
बात सन 1998 के अक्टूबर की है। मालवा की खुशनुमा सर्दी की बस शुरुआत ही थी। सुबह ठीक 6.30 बजे इंदौर के साकेत चौराहे पर स्टील ट्यूब्स ऑफ इंडिया की बस आ जाती थी। हर रोज़ की तरह उस दिन भी मैं बस में चढ़ गया। पिछले लगभग तीन साल से मैं यही तो कर रहा था!! और क्या मैं ज़िंदगी भर यही करते रहना चाहूंगा? रात भर ज़ेहन को मथते रहे इस सवाल ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। बल्कि और मजबूती से घेर लिया था। क्या मैं इस तरह 4.75 और 6.35 की (संदर्भ फिर कभी) कॉर्पोरेट नौकरी के लिए ही बना हूँ? फिर मर्म में छिपे उस सृजन, लेखन, पठन और पत्रकारिता के उस तीव्र मनोभाव का क्या जिसे मैंने जैसे-तैसे दबाया हुआ था? कंपनी की बस तय समय पर देवास परिसर में दाखिल हो चुकी थी। इस तीखे वैचारिक संघर्ष के बीच सुबह ठीक आठ बजे टेबल पर आने वाली चाय आ चुकी थी और मैं अपना निर्णय ले चुका था। चाय का प्याला रखते हुए ही संयोगवश वो मुहावरा मन में गूंज उठा– दिस इज नॉट माय कप ऑफ टी!! प्याला रखते ही मैं अपना इस्तीफा लिखना शुरू कर चुका था। इस्तीफा स्वीकृत होने में वक्त लगा और वो कहानी फिर कभी। पर जैसे ही मंजूरी मिली अगला फोन अभयजी को ही किया था।
तराणेकर मैडम ने फोन उठाया था और मेरे निवेदन पर अभयजी से पूछकर हमें जोड़ दिया। जुड़े हुए तो हम पहले से थे। आना-जाना मिलना बचपन से था। पर यह एक अलग जुड़ाव की शुरुआत थी।
मैंने कहा आपसे जरूरी में मिलना है अभयजी!
बोलो – क्या बात है?
मिलकर ही बता पाऊंगा, मैंने कहा।
शाम को आ जाओ, तुरंत उत्तर मिला और फोन बंद।
तो उस शाम मेरा जीवन बदल देने वाली वो मुलाक़ात हुई। अभयजी अपने चिर-परिचित सफ़ेद कलफ वाले कुर्ते और पजामे में ‘नईदुनिया’के खुले दफ्तर की उसी बाहर वाली मेज पर बैठे थे जिसकी दाहिनी खिड़की से उन्हें बाबू लाभचंदजी की प्रतिमा और हर आने-जाने वाला व्यक्ति दिखाई देता था। किसी ज़रूरी कागज को पढ़ते हुए ही उन्होंने मुझसे कहा था, आओ जयदीप, बैठो। कागज पर कोई टीप लगाकर उसेजावक ट्रे में रखने के बाद बोले, अब बताओ ऐसी क्या ज़रूरी बात हो गई? मैंने तपाक से कहा– सर पत्रकारिता करना है। आपके यहां जगह हो तो बताइए? वो थोड़ा सा ठिठके। उनसे बहुत बरसों के संबंध रखने वाला मैं, अचानक उनसे बहुत औपचारिक और गंभीर हो गया था। वो इस गंभीरता को ही भांपते हुए बोले– क्या तुमने ठीक से सोच लिया है, तुम्हारी नौकरी तो अच्छी चल रही है! मैंने कहा– अभयजी, मैं तो सोच चुका हूं। आप बताइए। एकदम सीधा और सपाट। उन्होंने फिर थोड़ा समझाइश देने या यों कहें कि मेरे इरादे की मजबूती भांपने की कोशिश की। मैं तो ठान कर ही आया था। फिर मैंने एक ऐसा वाक्य कहा जिसने विमर्श की दिशा ही बदल दी–
मैंने कहा अभयजी पत्रकारिता तो करनी ही है और अगर मध्यप्रदेश में करूंगा तो ‘नईदुनिया’में ही, अगर आप ना कहेंगे तो मैं तुरंत दिल्ली चला जाऊंगा।
अभयजी समझ गए और सीधा सवाल किया– क्या तुमने रमेश (बाहेती जी) को सब बता दिया है? क्या वो सहमत हैं? चूंकि अभयजी और डॉक साब यानि डॉक्टर रमेश बाहेती जिनके यहां स्टील ट्यूब्स में मैं कार्यरत था, दोनों अभिन्न मित्र थे, अभयजी नहीं चाहते थे कि उस स्तर पर कोई दिक्कत हो। इसको मैं पहले ही साध चुका था।
इसके बाद अभयजी ने कहा हम उतने कॉर्पोरेट वाले पैसे नहीं दे पाएंगे।
मैंने कहा – वो मैं सोच चुका हूं।
कब से आना चाहोगे – अभयजी ने पूछा।
मैंने कहा वहां 30 नवंबर आखिरी कार्यदिवस है। एक दिसंबर से आना चाहूंगा – एक दिन भी बिना रुके।
उन्होंने कहा – ठीक है।
तो इस तरह 1 दिसंबर 1998 को ‘नईदुनिया’के साथ मेरा औपचारिक सफर शुरु हुआ।
आज अभयजी के चले जाने के बाद यही मुलाक़ात बार-बार ज़ेहन में घुमड़ रही है। ये मुलाक़ात यों बहुत आसान नहीं थी। पर ये आसान हो गई थी महाविद्यालय के दिनों की अभयजी से हुई मुलाकातों से।
वाद-विवाद और रचनात्मक लेखन से जुड़े हम साथियों ने उससे कहीं आगे बढ़कर एक अखबार निकाल दिया था– ‘उद्घोष प्रयास’। अभयजी इसकी पूरी यात्रा के साक्षी रहे, मार्गदर्शक और आलोचक दोनों ही रूपों में। अभयजी उन दिनों एक विराट व्यक्तित्त्व थे। बहुत प्रभावी आभामंडल वाले। लार्जर देन लाइफ! इन्हीं अभयजी को हम साथियों ने उद्घोष प्रयास का एक साल पूरा होने पर अपने कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया था। बहुत जिद के साथ। कार्यक्रम का नाम था युवार्पण। युवाओं को अर्पित एक समाचार पत्र।
मेरी अभयजी से इस मुलाक़ात और फिर नईदुनिया से औपचारिक जुड़ाव में इस युवार्पण का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। शायद अभयजी ने उस दिन उस जिद और जुनून को भांप लिया था।
तो 1998 के बाद जिस तरीके से अभयजी ने मुझे अपनाया, आगे बढ़ाया वो अपने आप में एक इतिहास है।
एक दिसंबर को नौकरी के पहले दिन ही उन्होंने मुझे ‘लंबी टेबल’ यानि प्रूफ डेस्क के प्रभारी किशोर शर्मा ‘दादा’ के हवाले कर दिया था और कहा था इसे काम सिखाओ। मैं अवाक था। देश दुनिया की भाषण प्रतियोगिताएं जीतने और कॉलेज में ही अखबार निकाल देने वाला मैं, यहां प्रूफ रीडिंग के लिए तो नहीं आया था!! यही गुरूर मेरे मन में आया था उस दिन। पर दो-तीन दिन प्रूफ की टेबल पर बैठने के बाद ही दिमाग के जाले साफ हो गए और अहंकार का तिलिस्म टूट गया। पता चल गया कि नईदुनिया– नईदुनिया क्यों है?
बाबू लाभचंदजी, राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते और रणवीर सक्सेना जैसे कई दिग्गजों की नईदुनिया, जो अपने आप में पत्रकारिता के एक गुरुकुल के रूप में स्थापित हो चुकी थी। अब उस गुरुकुल को अभयजी नेतृत्व दे रहे थे। अभयजी और महेन्द्रजी की दो मेजों से चलने वाली नईदुनिया की धाक बरकरार थी और अभयजी का व्यक्तित्त्व विशाल होता जा रहा था।
इसी छत्र-छाया में मैं गुरुकुल का नया सदस्य था और अभयजी की स्नेह वर्षा से तर-बतर। वो भी इतनी कि आस-पास जलन और ईर्ष्या का गुबार उठने लगे। पर इस सबसे अनभिज्ञ मैं अपने काम में डटा हुआ था। प्रूफ, फिर फीचर डेस्क साथ में सिटी रिपोर्टिंग, कभी डाक, कभी टेलीप्रिंटर कभी दिवाली विशेषांक। हर तरह का काम सौंपा। सुबह दस बजे से देर रात सिटी रिपोर्टिंग तक, अभयजी ने इतना काम करवाया, जिसे मैं उस समय रगड़ना समझ रहा था और अभयजी मुझे तैयार कर रहे थे, तराश रहे थे।
बहुत सारे अनुभव हैं अभयजी के साथ। ना यादें कम हो पाएंगी ना कलम रुक पाएगी।
दरअसल अभयजी के कई रूप थे और उनमें से हर रूप अपने आप में एक उपन्यास। और उनका हर रूप एक अंतहीनसंघर्ष की दास्तान है। बाहर-भीतर हर तरह का संघर्ष।
उनका सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष था मालिक-संपादक होने का संघर्ष। एक ऐसी नईदुनिया जिसे खुद उनके पिता बाबू लाभचंदजी ने गढ़ा था। जिसमें संपादक एक पूरी संस्था थी और लगातार पत्रकारिता के मूल्यों को परिभाषित कर रही थी। संपादक सर्वोपरि था। उस नईदुनिया में एक मालिक का संपादक बन जाना एक ऐसी अग्निपरीक्षा थी जिसे अभयजी ताउम्र देते रहे। इस संघर्ष में ही उनका जीवन निकल गया। अपनीतमाम पत्रकारीय समझ, दूरदृष्टि, लेखकीय पकड़, कुशल प्रबंधन, सतत नवाचार के आग्रह और ऐसे ही अनेक विलक्षण गुणों के बाद भी वो उन अंगारों पर चलते रहे।
उनके अन्य रूपों की भी बहुत विस्तार से चर्चा हो सकती है पर पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका योगदान और एक मालिक-संपादक के तौर पर उनका संघर्ष अभूतपूर्व और अतुलनीय है।
अभयजी से बहुत कुछ सीखा और वो सब आज भी साथ है और काम आ रहा है। मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि उनका ऐसा सान्निध्य मुझे मिला।
पिछले कुछ समय से अभयजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। जब तक वो अभय प्रशाल जा पा रहे थे, मिलना अधिक होता था। हर बार इंदौर आने पर तय था। फिर तबीयत ने साथ नहीं दिया और हमेशा सक्रिय रहने वाले अभयजी घर तक ही सिमट गए। कभी मुलाकात हो पाती थी कभी नहीं। असल में तो उनके जीवन के इतने संघर्ष देखने के बाद इस एक और संघर्ष को देखना भी थोड़ा कठिन ही था। पर जीवट उनका पूरा था।
उनके स्वास्थ्य को देखते हुए यह तो पता था कि अब उनके पास बहुत समय नहीं है। पर व्यक्ति के होने और ना होने में फिर भी बहुत बड़ा फर्क है, आज यानि 23 मार्च की सुबह जब ये समाचार आया कि समाचारों की दुनिया का एक बड़ा नक्षत्र अस्त हो गया है, अभयजी नहीं रहे तो एक अजीब तरह की रिक्तता ने घेर लिया। चीजें तय होने पर भी जब होती हैं तब उसकी गंभीरता का एहसास होता है। एक उम्मीद टूटती है, एक विराम लगता है। जीवान का दर्शन घेर लेता है।
आप मेरे साथ हमेशा रहेंगे अभयजी। मेरा शत शत नमन। विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर से प्रार्थना है कि अब वो अभयजी के तमाम संघर्षों को यहां इस लोक में ही विराम दें और उस लोक में उन्हें वो सब मिले जिसके वो हकदार हैं।
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
उफ्फ! यह कैसी होड़ है? सब इतनी जल्दी में हैं जाने के लिए। कोई नहीं रुक रहा है। पिछले बरस कमल दीक्षित, राजकुमार केसवानी, शिव अनुराग पटेरिया, प्रभु जोशी और महेंद्र गगन से जो सिलसिला शुरू हुआ, तो शरद दत्त, राजुरकर राज, पुष्पेंद्र पाल सिंह और दिलीप ठाकुर तक जारी है। कुछ उमर में बड़े, कुछ बराबरी के और बहुत से उमर में छोटे। मन अवसाद और हताशा के भाव से भरा हुआ है। जाना तो एक न एक दिन सबको है। कोई अमृत छक कर नही आता, लेकिन इस तरह जाने को मन कैसे स्वीकार करे?
पिछले दिनों सोचा था कि अब किसी के जाने पर कोई शोकांजलि नही लिखूंगा। पर ऐसा कर न सका। रात को आंख बंद करता, तो वे चेहरे आकर सवाल करते थे। कहते थे, बस यहीं तक रिश्ता था। अभी तो हमें गए साल भर भी नहीं हुआ और तुमने सारी यादें डिलीट कर दीं। मैं अपराधी सा सुन लेता। नहीं रहा गया तो फिर यादों की घाटियों का विचरण आपसे साझा करने लगा।
दस बारह बरस छोटे पुष्पेंद्र पाल सिंह की तो अभी त्रयोदशी भी नहीं हुई कि दिलीप ठाकुर की खबर आ गई। साल यदि ठीक ठीक याद है तो शायद जनवरी या फरवरी 1985 रही होगी। मैं ‘नईदुनिया’में सहायक संपादक था। काम का बोझ बहुत था। संपादकीय पन्ना, संपादक के नाम पत्र, भोपाल संस्करण, मध्य साप्ताहिक और रविवारीय स्तंभों की बड़ी जिम्मेदारी थी। मैं अक्सर अभय जी से कहता कि मुझे कुछ और नए साथी चाहिए। काम अधिक है और मैं गुणवत्ता के मान से न्याय नहीं कर पा रहा हूं। अभय जी सुनते और मुस्कुरा देते। कहते कुछ नहीं। धीरे-धीरे मुझे उनकी मुस्कुराहट पर खीझ आने लगी। एक दिन अचानक उन्होंने रात को ऑफिस से घर जाते समय करीब दस बजे कहा कि कल सुबह नौ बजे आओ।
अगले दिन सुबह जब मैं पहुंचा तो उन्होंने दो कप की चाय ट्रे का ऑर्डर दिया और मुझे एक फाइल पकड़ा दी। बोले, तुम पर काम अधिक था। वाकई। लेकिन मैं जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं करता। नईदुनिया की अपनी परंपरा है। तुम जानते ही हो। मैं दो महीने से भरोसे के और योग्य नौजवानों के बारे में जानकारी एकत्रित कर रहा था। ये कुछ बायोडाटा हैं। इनमें से चार पांच छांट लो और उनके बारे में पता करके एक दिन मिलने के लिए बुला लो। मैंनें फाइल ली और अपनी डेस्क पर आ गया। फाइल से चार अच्छे नाम निकले। ये थे, दिलीप ठाकुर, यशवंत व्यास, रवींद्र शाह और भानु चौबे। एकाध नाम और था। पर, इन चार लोगों को नईदुनिया परिवार का सदस्य बनाने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। सभी एक से बढ़कर एक थे। दिलीप ठाकुर को मैं भोपाल डेस्क पर चाहता था। मगर उस पर गोपी जी ने वीटो कर दिया। इस तरह दिलीप सिटी डेस्क पर गोपी जी के साथी बन गए। तबसे जितना भी दिलीप मेरे संपर्क में आए, मैनें उन्हें शिष्ट, मृदुभाषी और अच्छी भाषा का मालिक पाया। एक बार तो मैंनें उनसे मजाक भी किया। कहा, यार दिलीप कहां तुम पत्रकारिता में फंस गए। तुम इतने हैंडसम हो कि फिल्म संसार में जाकर किस्मत आजमाओ। दिलीप आंखों में आंखें डालकर मुस्कुरा दिए। बाद में पता चला कि राजेंद्र माथुर जी ने अभय जी को फरवरी में ही बता दिया था कि मुझे ‘नवभारत टाइम्स’के जयपुर संस्करण में ले रहे हैं। अभय जी ने मेरे नहीं रहने के बाद काम और गुणवत्ता पर उल्टा असर नहीं पड़े इस कारण ही वह फाइल मुझे सौंपी थी। तब तक तो मैं भी नही जानता था कि मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ जयपुर शुरू करने जाना है। दिलीप के रूप में हमने एक शानदार इंसान और बेहतरीन पत्रकार को खो दिया। ऐसे पत्रकार आज दुर्लभ हैं। भाई दिलीप ठाकुर को श्रद्धांजलि।
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उमेश उपाध्याय, वरिष्ठ पत्रकार ।।
1985 की बात है। मुझे पीटीआई भाषा में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी मिले हुए कुछ ही दिन हुए थे। सुबह की पारी आठ बजे शुरू होती थी। सरोजिनी नगर से 50 नंबर की बस पकड़कर आपाधापी में संसद मार्ग स्थित पीटीआई की पहली मंजिल के समाचार डेस्क पर पहुंचा ही था कि सामने से संपादक पास आकर खड़े हो गए। संयोग था कि उस समय डेस्क पर मैं अकेला ही पहुंच पाया था। अब एक प्रशिक्षु की हालत अपने सबसे शीर्षतम अधिकारी को अपने सामने पाकर क्या होगी अंदाजा लगा सकते हैं। उनके पास हाथ से लिखे कुछ पन्ने थे। मुझे पकड़ाते हुए बोले, 'जरा देखो इसमें कोई गलती तो नहीं।' वे तो ऐसा कहकर अपने कक्ष में चले गए। लेकिन मैं हतप्रभ था। भला मैं संपादक के लेख में कोई गलती कैसे निकालता?
थोड़ी देर बाद उन्होंने बुलवाकर पूछा, 'तुमने पढ़ा, कोई गलती तो नहीं हैं लेख में?' मैं अभी भी सकपकाया हुआ था। धीमे से बोला 'सर मैं क्या देखता इसमें?' मेरा कहने का अर्थ था कि मेरी क्या औकात कि आप जैसे बड़े पत्रकार के लेख को देखूं। मेरी स्वाभाविक झिझक को भांपकर थोड़े स्नेहवत आधिकारिक स्वर बोले, 'यहां मैं संपादक नहीं और तुम प्रशिक्षु नहीं। हम दो पत्रकार हैं। और पत्रकारिता का मूल नियम है कि कोई कॉपी बिना दो नज़रों से गुजरे छपने के लिए नहीं दी जाती। इसलिए जाओ और इसे ठीक से पढ़कर वापस लाओ।'
ऐसे मेरे पहले संपादक थे डॉ. वेद प्रताप वैदिक। पत्रकारिता का मेरा यह पहला सबक था जो जीवन भर याद रहा। वैदिक जी इतने ख्याति प्राप्त और बड़े संपादक होते हुए भी सुबह की शिफ्ट में अक्सर आठ बजे से पहले दफ्तर पहुंच जाया करते थे। मेरी दफ्तर समय से पहुंचने की आदत उन्हीं से पड़ी। उसके थोड़े दिनों बाद की ही बात है।
मेरी एक कॉपी कई सारे लाल निशानों के साथ मुझे वापस मिली। मुझे लगा कि मेरी अनुवाद की हुई कॉपी तो ठीक ही थी। वैदिक जी ने मुझे बुलवाकर कहा, 'तुमने अपनी कॉपी पढ़ी? जरा पहला वाक्य देखो। 15 शब्दों का है। इतना बड़ा वाक्य कौन पढ़ पायेगा?' फिर बड़े प्रेम से कहा कि एक वाक्य में 5/7 से अधिक शब्द न हों। छोटे वाक्य लिखने की ये सीख डॉ. वैदिक से ही मिली।
उसके बाद से डॉ. वैदिक से एक अंतरंगता का नाता जुड़ गया जो जीवन भर चलता रहा। संबंध बनाने और उन्हें जीवनभर निभाने की विलक्षण सामाजिकता वैदिक जी की खासियत थी। काश सब लोग ऐसा कर पाते! उनके ये सम्बन्ध बिना किसी आडम्बर, लोभ, दिखाबे या स्वार्थ के थे। उनके संबंध विचारधारात्मकया राजनैतिक संबद्धता से भी परे होते थे। सभी दलों और उनके नेताओं से उनका आत्मीयता का नाता रहा। वे पुरानी बातें भी खूब याद रखते थे। तीन साल पहले जब वे बिटिया दीक्षा के विवा हमें आशीर्वाद देने पहुंचे तो सीमा से बोले थे। 'बहू, तुम्हारे विवाह में भी में सरोजिनी नगर आया था, तुम्हें याद हैं न?' वे मेरे विवाह का जिक्र कर रहे थे। सीमा को वे बहू कहकर ही बुलातेथे।
हर महीने दो महीने में उनसे बात होती ही थी। अक्सर उन्हीं का फोन आता था। कोई महीने भर पहले वैदिक जी का फोन आया था। तब उन्होंने दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों का एक साझा गैर सरकारी मंच बनाने की बात कही थी। वे चाहते थे कि भारत के नेतृत्व में बनने वाले इस प्रयास में मैं भी रहूं। भारत के दूरगामी हितों की चिंता और उन्हें आगे ले जाने के प्रयास- ये वैदिक जी के वजूद का अभिन्न अंग था। उनके लेखों और व्याख्यानों में भी यही मूल विषय रहता था। इस नए संगठन के बारे में उनसे मिलकर बातकर ने का वादा हुआ था। आप तो चले गए। अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी!!!
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आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार ।।
भारत की पत्रकारिता, समाज को एक अपूरणीय क्षति; डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने एक बड़ा आंदोलन हिंदी के लिए खड़ा किया
डॉ. वेद प्रताप वैदिक हिंदी के मूर्धन्य पत्रकार, सम्पादक, लेखक ही नहीं थे, एक व्यक्ति के रूप में भी वे बड़े ईमानदार, चरित्रवान, संस्कारवान थे। विचारों पर मत-भिन्नता से उन्हें आपत्ति नहीं होती थी। आर्यसमाजी परिवार से वो आए थे। दिल्ली में छात्र-जीवन के दौरान जेएनयू में उन्होंने इस बात के लिए संघर्ष किया कि मैं हिंदी में ही अपना शोध-पत्र लिखूंगा।
एक बड़ा आंदोलन उन्होंने हिंदी के लिए खड़ा किया और अपनी बात को मनवाकर माने। लेकिन अंग्रेजी और शेष भारतीय भाषाओं से उनका कोई विरोध नहीं था। उनकी जीवनशैली सादगी से भरी थी। प्रगतिशील, समाजवादी विचारधारा के लोगों से भी उनके सम्बंध सदैव आत्मीय रहे। उनमें किसी के प्रति व्यक्तिगत दुर्भावना या विद्वेष नहीं रहता था।
तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा को उन्होंने हिंदी सिखाई थी। नरसिंहराव से लेकर अटलजी तक से उनकी मैत्री रही। पीटीआई का तो संस्थापक-सम्पादक उन्हें माना जाता है और उस समाचार-एजेंसी को हिंदी को नए सिरे से जीवित करने का काम उन्होंने किया।
नवभारत टाइम्स में जब राजेंद्र माथुर प्रधान सम्पादक थे, तब वैदिकजी को उसमें सम्पादक (विचार) का पद दिया गया था। इस पद के ही कारण उन्हें पीटीआई (भाषा) में काम करने का अवसर मिला था। भारत में समाचार-एजेंसियां तो पहले भी थीं, हिंदुस्तान समाचार थी, अंग्रेजी में पीटीआई-यूएनआई आदि थीं, लेकिन पीटीआई (भाषा) में उन्होंने हिंदी को समृद्ध करने का बड़ा काम किया।
समाजवादी झुकाव वाले नेताओं राज नारायण, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस से उनकी निकटता रही थी। दूसरी तरफ चरण सिंह, राजीव गांधी और बाद में सोनिया गांधी तक से उनका संवाद रहा। सुषमा स्वराज उन्हें अग्रज कहती थीं। सबसे मधुर सम्बंध रखना और साथ ही अपनी बातों को निडर होकर कहना उनकी विशिष्टता रही।
78 वर्ष की उम्र तक वे सक्रिय रहे और जीवन के अंतिम दिन तक कॉलम लिखते रहे। वे भारत के हितों की रक्षा को लेकर चिंतित रहते थे। अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनके जितनी पकड़ रखने वाला पत्रकार हिंदी में राजेंद्र माथुर के बाद कोई और नहीं हुआ है। भारत का विदेश मंत्रालय भी समय-समय पर उनसे राय लेता था। भारतीय कूटनीति में परोक्ष रूप से उनके विचारों का प्रभाव रहता था।
अमेरिका, ब्रिटेन, मॉरिशस आदि में उनको भाषण देने के लिए बुलाया जाता रहा था। हिंदी के तमाम सम्मेलनों में वे जाते थे। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल आदि के शीर्ष नेताओं से भी उनकी व्यक्तिगत मैत्री रही थी। हाफिज सईद से हुई उनकी भेंट तो विवाद का विषय भी बनी थी, पर उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हम तो पत्रकार हैं, किसी से भी मिल सकते हैं।
वे खुलकर आलोचना करने का माद्दा रखते थे, पर किसी के प्रति कटुता नहीं रखते थे। अथक यात्राएं करते और किसी भी व्याख्यान के निमंत्रण को स्वीकारने को हमेशा तत्पर रहते। धार्मिक कार्यक्रमों को भी सम्बोधित करते थे। एडिटर्स गिल्ड की बैठकों में वे जोरदार तरीके से अपनी बातें रखते थे।
धर्मयुग जैसी पत्रिका को चलाने का बीड़ा उन्होंने उठाया था। उनका जीवन बड़ा जुझारू रहा और कोई भी चुनौती लेने से वे कभी पीछे नहीं हटे। यह बहुत प्रेरणा देने वाला है। हिंदी के सौ-डेढ़ सौ अखबारों के लिए कॉलम लिखना उन्हीं के बूते का था। नियमित लिखने से उन्होंने कभी कोताही नहीं की। अपने लिए पांच सितारा सुविधाओं की मांग भी उन्होंने कभी नहीं की।
मेरा उनसे कोई पचास साल पुराना परिचय रहा। व्यक्तिगत रूप से वे बड़े निश्छल थे और सबसे इतने स्नेह से बात करते थे, मानो वह उनके परिवार का सदस्य हो। इस कारण अगर कभी उनके विचारों से असहमति भी रहती हो, तब भी कटुता की स्थिति निर्मित नहीं होती थी। किसी की भी व्यक्तिगत मदद के लिए वो हमेशा तैयार रहते थे। वैदिकजी के निधन से भारतीय पत्रकारिता, साहित्य और समाज को एक अपूरणीय क्षति हुई है।
(साभार: दैनिक भास्कर)
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वैदिक जी का जाना अभी तक समझ मैं ही नहीं आ रहा। अभी 2 दिन पहले उनसे बातचीत हुई थी, इसमें उन्होंने दक्षेस के गठन की पूरी रूपरेखा बताई थी। वे दक्षेस को लेकर बहुत उत्साहित थे।
वैदिक जी ने हिंदी को लेकर जितना काम किया, जितना उसके प्रसार के लिए कोशिश की, उसका संपूर्ण देश में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। वे दरअसल भारत में पैदा हुए विश्व मानव थे। दुनिया के अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनके व्यक्तिगत मित्र थे।
वे जहां भी जाते थे उनके अंदर का पत्रकार उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता था। वे जब पाकिस्तान थे, तो उन्हें हाफिज सईद से मिलने का मौका मिला। वैदिक जी ने एक देशभक्त पत्रकार की तरह हाफिज सईद से बात की और भारत आकर सारी बातचीत सरकार को भी बतायी और देश को भी बतायी। बहुत सारे न्यूज चैनल ने उनसे खोद खोद कर सब पूछा, लेकिन एक चैनल ने जब कहा कि आपने यह देशद्रोह जैसा काम किया है, तो उन्होंने उसी समय कहा, तुम कभी संपादक नहीं बन सकते तुम हमेशा रिपोर्टर ही रहोगे।
वैदिक जी बहुत बड़े संपादक थे और सारे राजनेताओं के मित्र थे, पर उन्होंने कभी अंतरंग बातों को या ऑफ द रिकॉर्ड बातों को ना सार्वजनिक किया, ना कभी उसकी चर्चा की। देश के सारे प्रधानमंत्री उनके मित्र थे और वे भी सबके प्रिय थे। मैंने अपने स्टार जर्नलिस्ट सीरीज में उनसे बातचीत की थी, जिस बातचीत को सभी ने पसंद किया और अभी टीवी टिप्पणी कार बसंत पांडे ने सलाह दी कि मैं उस इंटरव्यू को दोबारा लोगों के सामने लाऊं।
हर नए पत्रकार की मदद के लिए वे तैयार रहते थे। किसी को उन्होंने कभी ना अपमानित और ना किसी का अनादर किया। वे अजातशत्रु थे।
क्या बाथरूम में गिरने से किसी की जान जा सकती हैं, विश्वास ही नहीं होता। पर हमारे यहां गांव में कहा जाता है की मौत आती है कोई बहाना लेकर आती है। इस पर बहुत सारी कथाएं है। वैदिक जी की मृत्यु भी एक कथा बन गई है। अब सिर्फ यादें हैं और उनका मुस्कुराता चेहरा है। वैदिक जी आप हमेशा याद आएंगे।
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विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ पत्रकार ।।
सर्वाधिक युवा बुजुर्ग पत्रकार थे डॉ. वेद प्रताप वैदिक
वेद प्रताप वैदिक जी से मेरी मुलाकात पहली बार तब हुई जब मैने नवभारत टाइम्स में बतौर उप संपादक काम करना शुरू किया। ये 1985 की बात होगी। हालांकि उनका नाम और उनके भाषा आंदोलन समाजवादी विचारों के कारण मैं उनके व्यक्तित्व से परिचित था। जल्दी ही मेरा परिचय निकटता में बदल गया। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने और हिंदी सहित संविधान की आठवीं सूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में कराने का आंदोलन। धरना और अनशन शुरू हुआ तो मेरी वैदिक जी से निकटता और बढ़ गई।हालांकि तब वो नवभारत टाइम्स छोड़कर हिन्दी समाचार एजेंसी 'भाषा' के संपादक बन चुके थे। इसके बाद भाषा स्वदेशी जैसे मुद्दों और धार्मिक पाखंड सांप्रदायिकता जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में हम लगातार साथ रहे। स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी द्वारा चलाये गये तमाम अभियानों आंदोलनों में वैदिक जी की सक्रिय भागीदारी होती थी और बतौर पत्रकार मैं भी उनसे जुड़ता था।
वैदिक जी के साथ मेरा मिलना जुलना और संवाद लगातार बना रहा। उनकी अंतरराष्ट्रीय समझ और संपर्कों के सभी कायल थे। देश विदेश के हर बड़े राजनेता के साथ उनका सीधा रिश्ता था। अपने लेखन और संबोधन में वो बेहद बेबाक थे। उन्होंने सत्ता या सरकार से कभी कोई सौदा या समझौता नहीं किया। जिन मुद्दों और मूल्यों के लिए उन्होंने संघर्ष किया उन्होंने आजीवन उनका पालन किया। उम्र पद और अनुभव की वरिष्ठता उन पर कभी भी हावी नहीं रही।
छोटा हो या बड़ा सबसे वो सहज भाव से मिलते थे। युवा पत्रकारों के लिए वो प्रेरणा स्रोत थे तो समकालीनों के लिए हमेशा सखा भाव उनके भीतर था। 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' उनके जीवन का मूल मंत्र था। आतंकवादी संगठन लश्कर ए तैयबा प्रमुख हफीज सईद से उनकी मुलाकात बेहद चर्चित हुई। उन्हें तारीफ और आलोचना दोनों मिली पर वो अविचलित रहे और अपनी बात पर डटे रहे। कई मामलों में वेद प्रताप वैदिक बेजोड़ थे और जीवन के चौथे पहर में भी उनकी सक्रियता किसी युवा से भी ज्यादा थी। इस लिहाज से उन्हें वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता का सर्वाधिक युवा बुजुर्ग पत्रकार माना जा सकता है। पत्रकारिता के शिखर पुरुष वेद प्रताप वैदिक के अचानक चले जाने से देश ने एक बुजुर्ग लेकिन बेहद सक्रिय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता खो दिया है। विनम्र श्रद्धांजलि!
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उमाकांत लखेड़ा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक हिंदी पत्रकारिता और लेखन में करीब छह दशक तक अपनी गहरी पकड़ बनाकर छाये रहे। इंदौर की पत्रकारिता से दिल्ली में संपादक होने के साथ ही देश की राजनीति में दक्षिण पंथियों से लेकर लेफ्ट के प्रमुख नेताओं से उनके सहज रिश्ते थे। सरल प्रकृति के कारण आसानी से लोगों से घुल मिल जाना उनके स्वभाव में था।
देश विदेश खास तौर पर दक्षिण एशिया, पाक, अफगानिस्तान, नेपाल और उप महाद्वीप के कई नेताओं से उनकी मित्रता थी। भाजपा और संघ के दिग्गजों के एजेंडे पर चलने के बावजूद नई-पुरानी भाजपा में उनकी उपेक्षा कइयों को चौंकाती रही है। उनका लंबा चौड़ा सामाजिक दायरा था। भारतीय भाषा आन्दोलन के अग्रणी थे। देश की सभी भाषाओं को आगे बढ़ाने की मुहीम से लंबे समय तक सक्रियता से जुड़े रहे।
मेरी वेद प्रताप जी से पहली मुलाकात 1988 में दिल्ली में कई कार्यक्रमों से शुरू हुई। बाद में भेंट-मुलाकातों का सिलसिला पीटीआई-भाषा में उनके दफ्तर व बाद में साउथ एक्स में चलता रहा। जब वे जहां भी मिले बहुत स्नेह से मिलते थे। छोटे और बड़े का भेद महसूस नहीं होने देते थे।
पिछले साल काबुल में तालीबानी सत्ता के काबिज होने पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदूतों से संवाद कार्यक्रम में उनको वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया तो वे सहजता से तैयार हो गए।
उम्र के इस मुकाम पर भी आए दिन कुछ ना कुछ नया लिखना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। उनके लेखन का एक खास गुण था कि कठिन से कठिन विषय पर सरल भाषा में आम पाठकों को जानकारी देना, ताकि विकट मसलों को हर कोई आसानी से समझ सके।
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