'माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय' (MCU) के कुलपति और देश के प्रतिष्ठित मीडिया शिक्षण संस्थान 'भारतीय जनसंचार संस्थान' (IIMC) के पूर्व महानिदेशक व वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने समाचार4मीडिया के साथ खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
आपने मीडिया जगत में पत्रकार से लेकर एक कुलपति तक के सफर को तय किया है। पत्रकार बनने का ख्याल कैसे आया?
मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ और मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे। चूंकि वो खुद सरकारी नौकरी में थे तो उनकी इच्छा भी यही थी कि मैं भी सरकारी नौकरी में ही जाऊं। मेरे पिताजी ने मेरी एक बहुत अच्छी आदत डाल दी थी और वो थी समाचार पत्रों को पढ़ना। दरअसल, मेरे पापा खुद बहुत अच्छे से समाचार पत्रों का अध्ययन करते थे और कई महत्वपूर्ण घटनाओं की तो कटिंग तक वह संभालकर रखते थे। उन्हीं के साथ-साथ मेरी भी ये आदत हो गई और धीरे-धीरे मेरी रुचि लिखने में भी आ गई। मैं संपादक के नाम पत्र लिख देता था और धीरे-धीरे वो प्रकाशित होने लगे।
समाचार पत्र में अपना नाम देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी होती थी। इसके बाद लेख लिखने का सिलसिला शुरू हो गया था। जब मेरे लेख छपते थे तो धीरे-धीरे सबको खबर होने लगी और मुझे लोगों से तारीफ भी मिलने लगी। इसके बाद स्कूल में भी कुछ निबंध प्रतियोगिताओं में मैंने पुरस्कार जीते और उसके बाद मुझे ऐसा लगने लगा कि मुझे पत्रकार बनना है।
हालांकि, मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी करूं और उनके दबाब में आकर मैंने एक अनुवादक की सरकारी नौकरी को प्राप्त भी किया, लेकिन एक बौद्धिक वातावरण नहीं मिलने के कारण दो वर्ष तक भी मैं वो नौकरी नहीं कर पाया और मैंने वो नौकरी छोड़ दी।
उसी दौरान हमारे एक मित्र दीपक चौधरी जी ‘ऊर्जा‘ नाम की पत्रिका के संपादक हुआ करते थे, किन्ही कारणों से उनकी हत्या हुई, जिसका आज भी पता नहीं चल पाया है। जब उनके परिजन कोलकाता से आए तो उन्होंने इच्छा जताई कि इस पत्रिका का प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए। उनके कई दोस्त इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं हुए। उस समय मैं एक मौके की तलाश में था तो जब मुझसे कहा गया तो मैंने हां कह दी।
हालांकि, उस समय मेरी उतनी उम्र नहीं थी और मैं संपादक बन गया था। उस वक्त कई पत्रकार और कर्मचारी मेरे नीचे काम करते थे। जैसा कि मैंने आपको बताया कि इतनी कम उम्र में मैं संपादक तो बन गया था और साहित्य के ज्ञान के कारण भाषा शैली भी ठीक थी, लेकिन मुझे अभी और अनुभव हासिल करना था।
इसके बाद मैंने ऐसी ही कई पत्रिकाओं में संपादक या सहायक संपादक के तौर पर काम किया। जब मैं किसी प्रेसवार्ता में जाता था तो देखता था कि मुख्यधारा के पत्रकारों को अधिक सम्मान मिलता था और मुझे ऐसा लगने लगा कि कहीं तो कोई कमी है।
उस समय पीटीआई में एक नियुक्ति होनी थी, लेकिन दिक्क्त ये थी कि उस दौर में सीनियर लेवल पर जगह सीधे नहीं मिलती थी, आपको ट्रेनी के तौर पर ही नियुक्ति मिलती थी। मुझे मुख्यधारा की मीडिया से जुड़ना था तो उस समय जो मेरी सैलरी थी, उससे एक चौथाई सैलरी पर मैंने पीटीआई जॉइन कर लिया।
‘एशियानेट‘ जो कि दक्षिण भारत का पहला न्यूज नेटवर्क था, उसका भी मैं संपादकीय सलाहकार बना। पीटीआई में नीचे से शुरू होकर मैं पॉलिटिकल करेसपॉन्डेंट तक के पद पर पहुंचा। उसके बाद मेरी एक यात्रा शुरू हुई, जिसमें दूरदर्शन में भी वरिष्ठ सलाहकार संपादक जैसे अहम पदों पर मैं रहा और आज ‘एमसीयू‘ के कुलपति के रूप में आप लोगों के सामने हूं।
आपको एक प्रयोगधर्मी व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। आप 'एमसीयू' में कई भाषाओं के अलावा दक्षिण की भाषा में भी कोर्स शुरू करने वाले हैं। इसके बारे में कुछ बताएं।
अगर आप आकंड़ों की ओर देखें तो आने वाले समय में भाषा में ही पत्रकारिता का भविष्य है और इस बात को हम अच्छी तरह से समझते हैं। अगर आप इंग्लिश को देखें तो उसको पढ़ने वालों की संख्या कम होती जा रही है। लोग अपनी भाषा में पढ़ना पसंद करते हैं। जब मैं 'आईआईएमसी' में था तो अमरावती परिसर से मैंने मराठी भाषा में पाठ्यक्रम शुरू करवाया।
केरल में जो परिसर है, वहां से मैंने मलयालम में पत्रकारिता शुरू करवाई। इसके अलावा लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के साथ मिलकर संस्कृत का एक एडवांस कोर्स शुरू करवाया। अगर आप देखें तो पहले अखिल भारतीय परीक्षा पास करके कुछ छात्र केरल और बाकी राज्यों में भले ही चले जाते थे, लेकिन स्थानीय भाषा के बच्चों को वो मौका नहीं मिलता था।
हम सिर्फ ओडिशा के परिसर को छोड़ दें तो हर जगह सिर्फ इंग्लिश ही पढ़ाई जाती है। जब हमने मराठी में कोर्स शुरू किया तो गरीब से गरीब बच्चे को भी ये लगा कि अब वह भी 'आईआईएमसी' में पढ़ सकता है।
विदर्भ जैसे पिछड़े इलाके के बच्चों के अंदर भी हम वो उम्मीद जगाने में कामयाब रहे। मुझे एक छात्र ने बड़ी भावुक चिठ्ठी भी लिखी थी, जिसमें उसने कहा कि आज मैं मराठी मीडिया में सक्रिय रूप से काम कर रहा हूं और उसके पीछे आपका वो निर्णय था, जिसके कारण एक पिछड़ा और गरीब बच्चा भी 'आईआईएमसी' से पढ़ सका।
आज 'एमसीयू' भले ही प्रादेशिक भाषाओं में काम कर रहा है, लेकिन हमारा दृष्टिकोण राष्ट्रीय है। इसलिए हम 'भाषाई विभाग' और 'भाषाई पत्रकारिता' पर भी ध्यान दे रहे हैं, ताकि देश भर के बच्चों को एक विश्व स्तर का वातावरण मिल सके।
डिजिटल मीडिया के इस बढ़ते दौर में हिंदी पत्रकारिता के भविष्य को आप कैसे देख रहे हैं?
अगर आज हम 'वेबदुनिया' या 'जागरण' और इसके अलावा 'भास्कर' को देखें तो आप पाएंगे कि हिंदी पत्रकारिता ने डिजिटल को बहुत पहले ही भांप लिया था और अपनाना शुरू कर दिया था। आज जो लोग अखबार नहीं पढ़ पा रहे हैं, उनको अपने फोन में ही हिंदी भाषा में विश्वसनीय कंटेंट मिल रहा है।
एक अनुमान है कि प्रिंट सिर्फ तीन फीसदी की दर से आगे बढ़ रहा है, वहीं डिजिटल 36 फीसदी की ग्रोथ की ओर देख रहा है और विज्ञापन में भी डिजिटल आगे जा रहा है। इसके अलावा हम देखें तो आज जिला स्तर पर भी प्रिंट के संस्करण खुल रहे हैं और टीवी के बड़े-बड़े नेटवर्क आप देख लीजिए जो कभी सिर्फ इंग्लिश प्रोग्राम चलाया करते थे, वो आज हर भाषा में अपने चैनल खोल रहे हैं।
आप हाल ही में 'रिपब्लिक नेटवर्क' का उदाहरण देख लीजिए, इंग्लिश के बाद वह अपना हिंदी चैनल लाया और उसके बाद उन्होंने 'बांग्ला' भाषा में उसे लांच किया और यही मैं कह रहा हूं कि आने वाले समय में पत्रकारिता का भविष्य भाषा में ही होगा।
ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की बढ़ती लोकप्रियता के बीच आपने फिल्म पत्रकारिता की ओर भी ध्यान देने की बात कही है! उसके पीछे आपको क्या कारण दिखाई दे रहे हैं?
हमने हाल ही में अपने खंडवा परिसर में फिल्म पत्रकारिता शुरू करने का निर्णय लिया है। खंडवा सिर्फ दादा माखनलाल की कर्मभूमि ही नहीं, बल्कि दादा किशोर कुमार की जन्मभूमि भी है। फिल्म स्टडी या सिनेमा के बारे में ज्ञान देना हो या फिल्म प्रोडक्शन हो, आज के समय में देश में बहुत कम जगह पर ये सिखाया जा रहा है, लेकिन पहली बार हम इसे शुरू करेंगे। हमारी इस मुहिम में देश के बड़े निर्देशक, निर्माता और कलाकार शामिल हैं जो बच्चों को मार्गदर्शन देंगे। हम सब जानते हैं कि फिल्में संवाद का एक सशक्त माध्यम हैं तो इसे क्यों नहीं पढ़ाया जाए?
आज ओटीटी के बढ़ते प्रयोग ने बाजार के लिए रास्ते खोल दिए हैं और हमें ऐसे पत्रकार तैयार करने होंगे, जिन्हें वाकई में इस पूरे प्रोसेस की समझ हो। आज इतने माध्यम हैं कि फिल्म की लागत अब उतनी नहीं रह गई है तो ऐसे समय में हमें इसे भी समानांतर तौर पर लेकर चलना होगा।
आज मैं देख रहा हूं कि भोपाल के कई कलाकार भी वेब सीरीज और फिल्मों में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। आज आम आदमी के घर तक मनोरंजन पहुंच गया है। मेरा ये आह्वान है कि छोटे-छोटे परिसरों में भी इन चीजों को लेकर जागरूक होने की जरूरत है और लोगों की सृजनात्मकता को बढ़ाने की जरूरत है।
वर्तमान समय में पत्रकारों पर दोहरे मापदंड अपनाने के आरोप लगाए जा रहे हैं और उन्हें लेकर देश के एक वर्ग में नाराजगी भी है। इसे आप किस तरह से लेते हैं?
ये सवाल बहुत महत्वपूर्ण है और इसलिए भी क्योंकि अब ये चीजें आम जनता के जहन में आ गई हैं, जिनका जवाब उन्हें मिलना भी चाहिए। दरअसल, मीडिया के एक बड़े वर्ग का ध्रुवीकरण हो गया है और अब पत्रकार कम पक्षकार अधिक हो गए हैं। पत्रकार आज भी हैं और बहुत बढ़िया काम भी कर रहे हैं।
कोरोना काल में जिस तरह से हमने फील्ड रिपोर्टिंग देखी, वो बहुत सराहनीय थी और खोजी पत्रकारिता भी बहुत बढ़िया हुई है लेकिन कई जगह पत्रकार मजबूत कम बल्कि मजबूर अधिक दिखाई देते हैं। देखिए, आज पक्षपात का आरोप तो लग रहा है लेकिन आपको पत्रकार और प्रबंधन को अलग-अलग देखना होगा। आज तमाम पत्रकार या तो अनुबंध पर हैं या बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों से जुड़े हुए हैं। कई मालिक तो खुलकर अपनी सोच को बताते हैं और अलग-अलग दलों से सांसद भी बने हैं।
आज अगर किसी पत्रकार को निलंबित कर दिया जाता है तो वो कुछ अधिक नहीं कर सकता है और दूसरे अखबार भी उसके बारे में नहीं लिखते हैं। इसके अलावा अब पत्रकारों का कोई मंच भी नहीं रह गया है। पत्रकारों के पास आज सामाजिक सुरक्षा तक नहीं है। आज जिला और गांव स्तर पर जो पत्रकार हैं, वो तो हाशिये पर हैं और न ही उनकी उतनी आय है। हम सबकी विचारधारा अलग-अलग हो सकती है, लेकिन दिक्क्त तब आती है जब हम राजनीतिक हो जाते हैं। जब आपकी चर्चा मुद्दों से भटक जाती है तो दिक्क्त आने लगती है।
हम आज-कल हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने लग गए हैं तो ये पहले नहीं होता था। समस्या यह है कि आज हम किसी और के प्रवक्ता बन गए हैं। अगर कोई अच्छा काम कर रहा है तो उसकी तारीफ हो और कोई गलत काम कर रहा है तो पूरी ईमानदारी से उसकी आलोचना हो।
एक चीज यह भी जरूरी है कि आप किसको वोट देते हैं, उसकी झलक आपकी रिपोर्ट में नहीं आनी चाहिए और सही मायनों में यही पत्रकारिता है। रिपोर्ट निष्पक्ष, सत्यपरक और वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए और इसमें समझौता नहीं होना चाहिए।
आजकल सोशल मीडिया के माध्यम से फेक न्यूज फैला दी जाती है और उससे सामाजिक सौहार्द भी बिगड़ जाता है। आप अपने छात्रों को अच्छे फैक्ट चेकर बनाने के लिए क्या कर रहे हैं?
फेक न्यूज और फेक कंटेंट इस समाज के लिए बेहद खतरनाक है और ये आज से नहीं, बल्कि कई सालों से हो रहा है। बस अब डिजिटल से इसकी ताकत बढ़ गई है। आज पेंडेमिक की तरह इंफोडेमिक आ गया है और आज इतनी सूचनाओं का भंडार है कि लोग यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी सूचना सही है और कौनसी गलत?
मुझे ‘नागरिक पत्रकारिता‘ इस शब्द से परहेज है। हर नागरिक को अपनी बात कहने का हक है, लेकिन वो पत्रकार नहीं बन सकता है। उसके लिए कुछ मापदंड और योग्यता होती है। आप चार शब्द लिख लेते हैं और मोबाइल चला लेते हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप पत्रकार बन गए। अगर यही पत्रकार बनने की योग्यता है तो फिर इन विश्वविद्यालयों को बंद कर देते हैं, हमारी जरूरत ही क्या है?
‘झोलाझाप‘ शब्द क्यों इस्तेमाल किया जाता है? क्योंकि इसमें योग्यता नहीं है, लेकिन वो ऐसा होने का दिखावा कर रहा है और उनसे समाज को बचने की जरूरत है। फैक्ट चेक पत्रकार का मूल सिद्धांत है और आज से नहीं, ये सालों से चला आ रहा है। चेक और वेरीफाई शब्द तो पत्रकार की आत्मा होते हैं। एविडेंस आधारित रिपोर्टिंग करनी जरूरी है।
हमने यूनिसेफ के साथ मिलकर भारत में पहला ‘पब्लिक हेल्थ कम्युनिकेशन‘ कोर्स जैसा प्रयोग किया है। ऑक्सफोर्ड के साथ मिलकर वर्ष 2016 में हमने ‘आईआईएमसी‘ में इसे लागू किया था। इसमें हमने पब्लिक हेल्थ को ध्यान में रखकर पत्रकारों को प्रशिक्षित किया था। आज के समय में भी हमारे सभी परिसर में लोकल स्वास्थ्य से जुड़े पत्रकारों के साथ मिलकर यह काम जारी है। आज समाज में जो गलत सूचना फैलाई जा रही है, उस पर कैसे एक करारा प्रहार हो, उसके लिए भी हम अपने छात्रों को तैयार कर रहे हैं।
कोरोना काल में परिसर में कक्षाएं कैसे हो रही हैं और आने वाले समय में कैसे तकनीक का प्रयोग आप करने वाले हैं, इसके बारे में हमे कुछ बताइये।
इस मामले में हम बड़े सक्रिय हैं। पूरे कोरोना काल में हमने तकनीक के जरिये सभी से संपर्क बनाए रखा है और सुचारु रुप से सभी चीजों को लागू किया गया है। मैं छात्रों के सहयोग से भी अभिभूत हूं और आप देखिए कि पूरा सिलेबस छात्रों को करवाया जा चुका है।
इस समय 1600 के करीब हमारे अध्ययन केंद्र हैं, जिनमें कई लाख छात्र पढ़ रहे हैं और फाइनल ईयर के जो छात्र हैं, जिनको प्रायोगिक शिक्षा मिलनी चाहिए थी, उनके साथ हम जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वो अपने आस-पास के केंद्र में जाकर अपनी प्रैक्टिकल क्लास ले सकें।
जब कोरोना की पहली लहर के बाद कैंपस थोड़े दिन खुले, उसके बाद हमने छात्रों को बुलाना शुरू किया ताकि उन्हें एक्सपोजर मिले और हमारे जनसंचार विभाग के ही बच्चों ने 200 से ऊपर वीडियो घर बैठे तैयार किए थे और आज भी बच्चे घर बैठे वीडियो और पोस्टर बना रहे हैं लेकिन मैं इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि जिस प्रभावी तरीके से उनको हम परिसर में ट्रेनिंग दे सकते थे, वो अभी नहीं दे पा रहे हैं। आज इस कठिन समय में मुझे चिंता उन विद्यार्थियों की होती है, जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है, लैपटॉप नहीं है, वो कैसे पढ़ पाएंगे और उनके नुकसान की कैसे भरपाई होगी?
आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (Artificial intelligence) का जमाना है और हमे वर्तमान समय में ही भविष्य की योजनाओं को बनाकर चलना होगा, ताकि छात्रों को भी इसका फायदा मिले, इस दिशा में आप क्या कदम उठा रहे हैं?
आपने बिल्कुल सही कहा है। अगर हम पुराने कोर्स पर चलते रहे तो आने वाले समय में मुश्किल तो होगी। एक रिपोर्ट कहती है कि आने वाले समय में कॉमिक और एनिमेशन उद्योग में सालाना 16000 लोगों की जरूरत पड़ेगी, जिसकी तैयारी आज हमारे पास नहीं है। इसी पर सोचते हुए ‘आईआईएमसी‘ में मेरे कार्यकाल में मुंबई फिल्म सिटी में 20 एकड़ जमीन ली गई थी लेकिन मेरे प्रस्थान के बाद अब ये निर्णय लिया गया कि अब सूचना प्रसारण मंत्रालय उस काम को देखेगा। इसके अलावा ग्राफिक और एनिमेशन के एक प्रोग्राम को जो कि बंद पड़ा हुआ था, उसे हमने वापस शुरू करने में सफलता हासिल की है।
वर्तमान की शिक्षा नीति को देखते हुए अब हम चार साल का यूजी प्रोग्राम शुरू कर रहे है। हमारी योजना है कि आने वाले समय में जो छात्र हम तैयार करें, वो मल्टी टास्किंग हों, जो कि प्रिंट, टीवी और डिजिटल में समान रूप से काम कर सकें।
इसके अलावा हम मोबाइल और ड्रोन पत्रकारिता पर भी ध्यान दे रहे हैं। अगर एक फोटोग्राफर शादी में ड्रोन का इस्तेमाल कर सकता है तो हमारा पत्रकार क्यों नहीं कर सकता है? अगर आप बाहर निकलने में असमर्थ हैं तो आप ड्रोन के माध्यम से रिपोर्टिंग कर सकते हैं। आने वाले भविष्य को ध्यान में रखकर ये सब चीजें हम अपने सिलेबस में समाहित करने जा रहे हैं। आज के इस समय में हम अपने छात्रों को यही सिखाते हैं कि आने वाले समय में नौकरी की कमी नहीं होगी, लेकिन मल्टीटास्किंग लोगों की जरूरत होगी और हम अब इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
समाचार4मीडिया के साथ केजी सुरेश की बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।
यह रहा आपका पूरा टेक्स्ट बहुत आसान, साफ़ और बोलचाल की हिंदी में — वाक्य विन्यास पूरी तरह सटीक रखा गया है और कहीं भी अर्थ बदला नहीं गया है:
'हम अपनी ही कल्पना से सीमित हो जाते हैं।' जियोस्टार के वाइस चेयरमैन उदय शंकर ने भारतीय मीडिया इंडस्ट्री पर यह सीधी और तीखी टिप्पणी करते हुए बातचीत की शुरुआत की। इसी के साथ उन्होंने कंटेंट, टैलेंट, रिस्क लेने और इंडस्ट्री को दोबारा गढ़ने जैसे मुद्दों पर आगे होने वाली चर्चा की दिशा तय कर दी।
उदय शंकर मुंबई में सोमवार को हुए CII बिग पिक्चर समिट के पहले दिन ‘बिल्डिंग M&E टाइटन्स: द उदय शंकर स्कूल ऑफ लीडरशिप’ सत्र में SPNI के एमडी और CEO गौरव बनर्जी से बात कर रहे थे।
अगले एक घंटे में शंकर ने उन फैसलों पर फिर बात की, जिन्होंने भारतीय टीवी को बदल दिया। उन्होंने इंडस्ट्री की उस सुस्ती पर भी चर्चा की, जिसके बारे में उनका मानना है कि यह आज मीडिया के कई हिस्सों को जकड़ रही है। उन्होंने अपनी वही बेचैनी और जिज्ञासा भी समझाई, जो आज भी उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। बातचीत में मीडिया इंडस्ट्री को आकार देने वाले कई बड़े मुद्दे शामिल रहे, जैसे- कंटेंट यूज करने के बदले पैटर्न, इंडस्ट्री की सुस्ती, टैलेंट फिलॉसफी, निवेशकों का भरोसा और AI की वजह से होने वाला रीइन्वेंशंस।
उम्मीद कहां है और अगला बड़ा मौका क्या है?
गौरव बनर्जी ने सबसे पहले पूछा कि विज्ञापनों की धीमी रफ्तार, टीवी का अनिश्चित भविष्य और स्ट्रीमिंग की असमान ग्रोथ के बीच शंकर इंडस्ट्री में उम्मीद कहां देखते हैं। उन्होंने पूछा, 'मीडिया का अगला बड़ा मौका कहां है?'
इस पर उदय शंकर ने साफ कहा कि भारतीय मीडिया अभी थका नहीं है। उन्होंने कहा, 'मैं इंडस्ट्री के भविष्य को लेकर बहुत आशावादी हूं।' उनके मुताबिक असली चुनौती यह है कि इंडस्ट्री खुद को कैसे परिभाषित करती है। मीडिया का मूल काम वही है, ऐसा कंटेंट बनाना जो उपभोक्ता का ध्यान खींचे। और यह ध्यान, उन्होंने कहा, आज सबसे ज्यादा है।
उनका कहना था कि लोग आज हर वक्त कंटेंट देख रहे हैं- बस स्टॉप पर, रिसेप्शन में, फ्लाइट का इंतजार करते हुए। लेकिन हमने अपनी इंडस्ट्री पर खुद ही सीमाएं लगा रखी हैं, यही हमारी समस्या है। उनके मुताबिक असली मौका कल्पना में है। उन्होंने कहा, 'हमारी इंडस्ट्री की संभावनाएं हमारी अपनी कल्पना और प्रयोग करने की इच्छा पर निर्भर हैं।'
उन्होंने बताया कि स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म और टेक मीडिया कंपनियां लगातार खुद को बदल रही हैं, जबकि पारंपरिक टीवी पुराने ढांचे में फंसा रह गया है। 'मुद्दा इंडस्ट्री की हालत नहीं है, बल्कि यह है कि हमने खेल कैसे खेला है। गेम बदल चुका है।'
डिस्ट्रिब्यूशन से आगे सोचने और कंटेंट कंपनियों को फिर से परिभाषित करने की जरूरत
गौरव बनर्जी ने पूछा कि क्या मीडिया कंपनियों को खुद को डिस्ट्रिब्यूटर नहीं, बल्कि कहानीकार समझने की जरूरत है?
इस पर उदय शंकर ने तुरंत कहा, 'बिल्कुल।' अपना तर्क समझाने के लिए उन्होंने कहा, 'हमने बहुत सारे ताबूत खरीद लिए, लेकिन हमारे पास डालने के लिए इतने ‘मरे हुए लोग’ ही नहीं हैं। इसलिए हम किसी के मरने का इंतजार करते रहते हैं।' मतलब- मीडिया कंपनियां पुराने मॉडल के खत्म होने का इंतजार कर रही हैं, नए बनाने के बजाय।
उन्होंने बताया कि जब स्टार ने स्ट्रीमिंग शुरू करने की सोची थी, तब डेटा बेहद महंगा था और वाई-फाई लगभग नहीं था। फिर भी उन्होंने ऐसा किया क्योंकि उनका मानना था कि क्रिएटर को डिवाइस नहीं, उपभोक्ता को फॉलो करना चाहिए।
उदय शंकर ने शुरुआती टीवी न्यूज की सीमाएं याद कीं, जब ब्रॉडकास्टर पूरे दिन दर्शकों के घर लौटने का इंतजार करते थे। जबकि आज दर्शकों तक तुरंत पहुंचा जा सकता है। उनका मानना है कि अगला बड़ा कदम मोबाइल से भी आगे जाएगा- शायद वियरेबल्स और एम्बिएंट स्क्रीन की ओर। उन्होंने कहा, असली रुकावट हमारी सोच है, डिस्ट्रिब्यूशन नहीं।
लीडर टीमों को ऐसे भविष्य के लिए कैसे तैयार करें, जो अभी बना ही नहीं
गौरव बनर्जी ने पूछा कि जब भविष्य का मॉडल बना ही नहीं है, तब टीमें कैसे तैयार हों?
इस पर उदय शंकर ने कहा कि भविष्य की तैयारी नहीं की जा सकती, केवल खुद को तैयार किया जा सकता है। 'आपको फुर्तीला, खुले दिमाग वाला और मौके पकड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।' उनके अनुसार स्किल्स हमेशा बदलती हैं, लेकिन सीखते रहने की क्षमता सबसे महत्वपूर्ण है।
उन्होंने याद किया कि पहले टीवी प्रॉडक्शन कितनी बड़ी मशीनों और मुश्किल प्रोसेस से होता था, जबकि आज वही काम फोन पर हो जाता है। उन्होंने कहा, 'यदि कोई एडिटर उन पुराने उपकरणों पर ही अटका रहता और समय के साथ आगे नहीं बढ़ता, तो वह पीछे छूट जाता।' उनका संदेश सीधा था: 'दुनिया बदलती रहेगी। आपको बस उतनी ही तेजी से बदलाव अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। किसी एक स्किल पर अटकिए मत।'
बड़े निवेशकों को बड़ी आइडियाज पर कैसे भरोसा दिलाएं
इस पर उदय शंकर ने कहा, 'आपके पास शानदार आइडिया होने चाहिए और उन पर मर मिटने जितना विश्वास भी।' लेकिन भरोसा केवल आइडिया पर नहीं, लोगों पर बनता है। 'सबसे पहले मैं देखता हूं कि उस काम के लिए सबसे सही व्यक्ति कौन है।'
उन्होंने कहा कि टैलेंट सिर्फ अपने घनिष्ठ दायरे या इंडस्ट्री के अंदर ही ढूंढने की गलती नहीं करनी चाहिए। मीडिया आज टेक, बिजनेस, मार्केटिंग और ब्रांडिंग जैसे कई नए क्षेत्रों से प्रभावित हो रहा है। 'हमने बाहर की दुनिया से सबसे अच्छा टैलेंट लाने का काम अच्छी तरह नहीं किया है।'
उदय शंकर का टैलेंट खोजने का तरीका
गौरव बनर्जी ने पूछा कि वह टैलेंट कैसे पहचानते हैं? इस पर उदय शंकर ने कहा, 'सबसे पहले, आपको यह जानना चाहिए कि आपके पास क्या नहीं है।'
वे ऐसे लोगों की तलाश करते हैं जो किसी एक काम में 100 प्रतिशत माहिर हों- भले ही बाकी सब में कमजोर हों। उनके अनुसार ऐसे विशेषज्ञ इंडस्ट्री को आगे बढ़ाते हैं और ढर्रे को चुनौती देते हैं। 'जब आप ऐसे 10–20 लोगों को साथ लाते हैं, तो आपकी पूरी टीम मजबूत बन जाती है।'
रिस्क लेने की क्षमता कहां से आती है?
गौरव बनर्जी ने पूछा कि उनकी रिस्क लेने की ताकत कहां से आती है।
उदय शंकर ने कहा, 'जिंदगी एक्सपेरीमेंट और इनोवेशन से चलती है। और यदि आपके प्रयोग फेल नहीं हो रहे, तो आप प्रयोग ही नहीं कर रहे।' उन्होंने कहा कि सफलता हमेशा असफलताओं की नींव पर खड़ी होती है, जिसे लोग बाद में भूल जाते हैं।
फिर गौरव बनर्जी ने उनका सबसे बड़ा रिस्क याद किया- 'सत्यमेव जयते' शो बनाना। यह फैसला उन्होंने तब लिया जब स्टार प्लस टॉप पर था। उदय शंकर ने कहा कि वह तभी प्रयोग करना पसंद करते हैं जब स्थिति मजबूत हो, क्योंकि डर कम होता है।
'सत्यमेव जयते' ने हर नियम तोड़ा- बोलने का तरीका, पैकेजिंग, मार्केटिंग, फॉर्मेट, यहां तक कि इसका सुबह का टाइम-स्लॉट भी। उन्होंने कहा, 'यदि आप मुझसे उस समय पूछते कि यह सफल होगा या नहीं, तो मुझे बिल्कुल पता नहीं था।' लेकिन यह आइडिया मनोरंजन की परिभाषा को आगे बढ़ाता था, इसलिए उन्होंने इसे किया।
अंत में बनर्जी ने पूछा, 'आज आपको किस बात की बेचैनी है?'
इस सवाल पर उदय शंकर ने कहा कि लाइव क्रिकेट प्रॉडक्शन को और बेहतर बनाने का जुनून तो हमेशा रहेगा, लेकिन फिलहाल वह AI को लेकर बेहद उत्साहित हैं। उनका मानना है कि AI क्रिएटिविटी को लोकतांत्रिक बना सकता है- जहां टैलेंट, प्रॉडक्शन क्षमता और लागत जैसी सीमाएं खत्म हो जाएंगी। उन्होंने कहा, 'टैलेंट नहीं मिल रहा? कोई बात नहीं, मैं उसे बना लूंगा।'
उनके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक आजादी है- एक तरीका जिससे कहानी कहने की सीमाएं खत्म हो सकती हैं। उन्होंने कहा, 'फिर हम इसके लिए उत्साहित क्यों न हों? मेरा ध्यान इस बात पर है कि इसे इस्तेमाल करके दर्शकों को और ज्यादा कैसे जोड़ा जाए।'
इस माहौल में पत्रकारिता की क्रेडिबिलिटी बचाना ही सबसे बड़ी चुनौती है: संजय कपूर
‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ के नवनिर्वाचित प्रेजिडेंट संजय कपूर का कहना है, हमारी कोशिश रहेगी कि हम सरकार और संवैधानिक संस्थानों के साथ संवाद स्थापित करें और मीडिया की ‘सेहत’ बेहतर करें।
वरिष्ठ पत्रकार और ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ (Editors Guild of India) के नवनिर्वाचित प्रेजिडेंट संजय कपूर से हाल ही में समाचार4मीडिया ने खास बातचीत की। इस दौरान संजय कपूर ने गिल्ड समेत मीडिया से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले आप अपनी पत्रकारिता यात्रा और शुरुआती दौर के अनुभवों के बारे में बताएं। ऐसा कौन सा अनुभव था, जिसने आपकी सोच और विजन को प्रभावित किया कि आपको मीडिया में जाना है?
मेरी पत्रकारिता यात्रा इसी ‘इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी’ (INS) बिल्डिंग से शुरू हुई। यहां हमारा दफ्तर था। मैं उस समय 'ब्लिट्ज' (Blitz) अखबार में काम करता था, जो मुंबई से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक अखबार था। दूसरी मंजिल पर उसका मुख्य दफ्तर था और वहीं से मैंने लेखन शुरू किया। मैं करीब 10 साल वहीं रहा और इस दौरान कई चीजें सीखीं।
उस समय यह हिन्दुस्तान का अकेला ऐसा टैबलॉयड था जो लेफ्ट ऑफ सेंटर विचारधारा वाला था और काफी दबंग पत्रकारिता करता था। मैं वर्ष 1987 में इसमें शामिल हुआ और 1998 तक वहां रहा। इस बीच मैंने 10 साल में ब्यूरो चीफ तक की पोजीशन हासिल की और कई बड़ी खबरें कीं, खासकर इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता में।
'हार्डन्यूज' (HardNews) नाम से आपका अपना मीडिया प्लेटफॉर्म है। इसके बारे में कुछ बताएं?
'ब्लिट्ज' में मेरी खोजी पत्रकारिता काफी गंभीर थी। मैंने जैन हवाला स्कैंडल को ब्रेक किया, जो उस समय चर्चा का विषय बन गया। इस खबर के बाद 1996 में नरसिम्हा राव सरकार डगमगा गई थी। विदेशी मीडिया ने इस रिपोर्टिंग को सराहा और मेरे बारे में भी लिखा।
अखबार बंद होने के बाद मैंने 'एशिया वीक', जो टाइम मैगजीन ग्रुप की हांगकांग आधारित पत्रिका थी, में इंडिया करेसपॉन्डेंट के रूप में काम किया। बाद में मैं 'मिड डे' अखबार का एडिटर बन गया और फिर मैंने अपनी पत्रिका 'हार्डन्यूज़' शुरू की। 'हार्डन्यूज' इसलिए, क्योंकि उस समय मीडिया में सॉफ्ट न्यूज पर ज्यादा जोर था। लोगों ने ट्रिविया या थर्ड-पेज की खबरों को महत्व दिया। मैंने इस माहौल में 'हार्डन्यूज' मैगजीन शुरू की। कई लोग इससे जुड़े और हमने कई गंभीर खबरें कीं। लेकिन पत्रकार होने के कारण मेरी सबसे बड़ी चुनौती मार्केटिंग थी।
वर्ष 2019–20 के आसपास मैंने इस मैगजीन की हार्ड कॉपी बंद कर ऑनलाइन संस्करण चालू किया। इसके लिए एक फ्रेंच मैगजीन 'Le Monde Diplomatique' से पार्टनरशिप थी। हमारी हार्डन्यूज महीने में एक बार प्रकाशित होती थी और वेबसाइट पर रोजाना कंटेंट अपलोड होता था।
आजकल डिजिटल और सब्सक्रिप्शन मॉडल को लेकर क्या सोचते हैं?
सबसे बड़ी समस्या यह है कि पब्लिकेशन वायबल कैसे बने। पैसा कहां से आए? एडवर्टाइजमेंट, इवेंट्स आदि से। कंटेंट तक पहुंचने के लिए सब्सक्रिप्शन मॉडल उपयोगी हो सकता है, लेकिन इंटरनेट पर इतनी सामग्री उपलब्ध है कि अगर पाठकों की लॉयल्टी नहीं बनी, तो वे कहीं और चले जाएंगे। इसलिए खबरें और लेख अनूठे, यूनिक और बेहतर होने चाहिए।
आज सबसे बड़ा खतरा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और चैटजीपीटी से है। पत्रकार की अहमियत कम होती जा रही है। यदि कंटेंट यूनिक नहीं है तो पत्रकारों की भूमिका भी कमजोर पड़ जाएगी। इसके साथ फेक न्यूज का खतरा भी बढ़ रहा है।
आप अपने ‘हार्डन्यूज’ बिजनेस मॉडल को कैसे अपडेट करेंगे?
हमें यह देखना होगा कि समय के साथ पाठकों का व्यवहार बदल गया है। मैं चाहूंगा कि हम एक डेली न्यूजपेपर या डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित करें। इसके लिए रिपोर्टर्स, टेक्नोलॉजी, और ग्राउंड कवरेज की आवश्यकता होगी। क्रेडिबिलिटी सबसे महत्वपूर्ण है।
आप हाल ही में ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ (EGI) के प्रेजिडेंट निर्वाचित हुए हैं, इस बारे में अपने अनुभव और भविष्य की योजानओं के बारे में आपका क्या कहना है?
हमारी कोशिश है कि सदस्यों की संख्या बढ़े। मीडिया के कई प्रकार आ गए हैं – प्रिंट, मैगजीन, वेबसाइट, यूट्यूब, इंफ्लुएंसर आदि। चुनौती यह है कि किसे सदस्य बनाया जाए। हम चाहते हैं कि दिल्ली के बाहर भी गतिविधियां बढ़ें, ताकि हिंदी भाषी क्षेत्र के लोग हमारी सोच से जुड़ें और मीडिया फ्रीडम के लिए संघर्ष करें।
मीडिया की फ्रीडम को लेकर तमाम बातें होती हैं, इस पर क्या कहेंगे?
मीडिया फ्रीडम पर मेरा मानना है कि यह एक क्राइसिस से गुजर रहा है। टेक्नोलॉजी और रेगुलेटरी फ्रेमवर्क हर जगह अलग-अलग चुनौती पेश कर रहे हैं। लोकतंत्र में सरकार की मदद के बिना मीडिया फ्रीडम संभव नहीं। हमारी कोशिश रहेगी कि हम सरकार और संवैधानिक संस्थानों के साथ संवाद स्थापित करें और मीडिया की ‘सेहत’ बेहतर करें।
आज के दौर में इंडिपेंडेंट मीडिया हाउसेज का महत्व कितना है?
यह बहुत चुनौतीपूर्ण है। अधिकांश मीडिया हाउसेज किसी न किसी बिजनेस ग्रुप से जुड़े हैं। ऐसे में पूरी तरह से इंडिपेंडेंट रहना कठिन है। उदाहरण के लिए, टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस अलग-अलग तरीके से काम कर रहे हैं। वास्तव में स्वतंत्र होना कठिन है, लेकिन कुछ जगहों पर प्रयोग और प्रयास जारी हैं।
न्यूज रूम पर दबाव को कैसे कम किया जा सकता है?
यह कठिन है। यदि मार्केट में प्रतिस्पर्धा हो, तो कुछ हद तक एडिटर स्वतंत्रता पा सकते हैं। लेकिन व्यावसायिक दबाव और राजनीतिक दबाव हमेशा चुनौती बने रहते हैं। इस माहौल में पत्रकारिता की क्रेडिबिलिटी बचाना ही सबसे बड़ी चुनौती है।
आपकी नजर में सरकार के पब्लिशिंग और प्रिंटिंग बजट में कटौती का प्रभाव क्या होगा?
यह इंडस्ट्री के लिए चुनौतीपूर्ण कदम है। बजट में कटौती से पब्लिशिंग और प्रिंटिंग को मिलने वाले संसाधन कम हो जाएंगे। इसका असर इंडस्ट्री पर पड़ेगा और हमें नए तरीकों से व्यवसाय को स्थिर करना होगा।
आपने ‘Bad Money, Bad Politics: The Untold Hawala Story’ नाम से किताब भी लिखी है, थोड़ा इसके बारे में बताएं
यह किताब जैन हवाला स्कैंडल पर आधारित थी। मैंने इसमें तमाम बड़ी राजनीतिक हस्तियों के षड्यंत्र और घटनाओं की व्याख्या की। यह उस समय काफी चर्चित रही और बेस्ट सेलर बनी। फिलहाल मैं नई किताब पर काम कर रहा हूं, जिसमें भारत की विभिन्न घटनाओं और इवेंट्स का विश्लेषण होगा।
आपको मीडिया में लंबा अनुभव है। नवागत पत्रकारों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
मेरा उनके लिए यही संदेश है कि खूब मेहनत करें और पढ़ाई जारी रखें। टेक्नोलॉजी को समझें और उसका सही उपयोग करें। अगर पत्रकारिता में रहना चाहते हैं तो आपको ज्ञान, संवेदनशीलता और स्किल्स को लगातार सुधारते रहना होगा। मैं हमेशा कहूंगा कि पत्रकारिता में मेहनत, ईमानदारी और पाठकों की सेवा सबसे महत्वपूर्ण हैं। हमें अपनी स्वतंत्रता और क्रेडिबिलिटी बनाए रखनी चाहिए।
देश के AI सफर का अगला अध्याय तय करेगा ‘AIAI’: डॉ. संदीप गोयल
‘एक्सचेंज4मीडिया’ के साथ खास बातचीत में ‘रेडिफ्यूजन’ के चेयरमैन डॉ. संदीप गोयल ने ‘एआई एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ की अहम भूमिका, ‘एथिकल एआई’ पर अपने विचार समेत तमाम मुद्दों पर अपने विचार शेयर किए।
भारत की ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ एआई क्रांति उसकी तैयारी से कहीं आगे निकल चुकी है। देश के रचनात्मक, सांस्कृतिक और नीतिगत इकोसिस्टम पर इसका गहरा प्रभाव महसूस किया जा रहा है। इसी के तहत देश के कुछ सबसे प्रभावशाली इंडस्ट्री लीडर्स ने मिलकर ‘एआई एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ (AIAI) की शुरुआत की है। यह अपनी तरह का पहला ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिसका उद्देश्य देश में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नैतिक, सांस्कृतिक और विनियामक मानकों को परिभाषित करना है।
‘रेडिफ्यूजन’ (Rediffusion) के चेयरमैन और देश में मीडिया व टेक सेक्टर की सबसे अनुभवी शख्सियतों में से एक डॉ. संदीप गोयल के नेतृत्व में AIAI खुद को एक वॉचडॉग नहीं, बल्कि एक आर्किटेक्ट के रूप में स्थापित कर रहा है। ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के साथ खास बातचीत में ‘रेडिफ्यूजन’ के चेयरमैन डॉ. संदीप गोयल ने ‘एआई एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ (AIAI) की अहम भूमिका, ‘एथिकल एआई’ पर अपने विचार समेत तमाम मुद्दों पर अपने विचार शेयर किए। इस दौरान उन्होंने ‘AIAI’ के गठन के पीछे की सोच के बारे में भी विस्तार से बताया है।
प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
देश का एआई इकोसिस्टम उसकी रेग्युलेटरी तैयारियों से कहीं तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह कौन-सा मुख्य गैप या खतरा था, जिसे आपने और अन्य इंडस्ट्री लीडर्स ने पहचाना और जिसकी वजह से AIAI का गठन जरूरी हो गया?
हमें आने वाले समय की तस्वीर साफ दिखाई दे रही थी। देश तेजी से जेनरेटिव एआई अपना रहा है। चाहे कोर्टरूम में बॉट द्वारा लिखे जा रहे तर्क हों या बॉलीवुड की स्क्रिप्ट्स, जिन्हें मशीन लर्निंग से तैयार किया जा रहा है, लेकिन इस तेज रफ्तार को निर्देशित, सुरक्षित या नियंत्रित करने के लिए जरूरी ढांचे लगभग नदारद हैं। असल कमी इनोवेशन में नहीं, बल्कि संस्थागत भरोसे और नैतिक ढांचे में थी।
‘AIAI’ की शुरुआत एक बहुत स्पष्ट खतरे के कारण हुई कि भारत—जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है—अनजाने में विदेशी एआई टूल्स का केवल एक निष्क्रिय उपभोक्ता बनकर रह जाए और अपने सांस्कृतिक, नैतिक और कानूनी मानक खुद परिभाषित न कर पाए।
हमें डर है डीपफेक्स के हथियार बन जाने का, कलाकारों की क्रेडिट लाइन खत्म होने का और बिना किसी जवाबदेही के ब्लैक-बॉक्स एआई टूल्स की बाढ़ से बाजार भर जाने का। इसीलिए हम अलार्मिस्ट नहीं, बल्कि आर्किटेक्ट के रूप में सामने आए हैं। AIAI हमारा जवाब है उस तत्काल जरूरत का, जिसमें एक ऐसा राष्ट्रीय जड़ों से जुड़ा, इंडस्ट्री-नेतृत्व वाला निकाय चाहिए, जो नवाचार यानी इनोवेशन को संप्रभुता (sovereignty) के साथ जोड़ सके।
AIAI का गठन इनोवेशन और नैतिकता के सवाल पर किया गया है। आज देश के संदर्भ में ‘एथिकल एआई’ का वास्तविक अर्थ क्या है? और यह प्लेटफ़ॉर्म इसे लागू करने योग्य या अपनाने योग्य मानकों में कैसे बदलेगा?
आज भारत में ‘एथिकल एआई’ का मतलब तीन प्रमुख बातें हैं:
1: सांस्कृतिक संरेखण (Cultural alignment): यह सुनिश्चित करना कि एआई सिस्टम भारत की विविधता को मिटाए या उसका गलत प्रतिनिधित्व न करें।
2: पारदर्शिता और क्रेडिट (Transparency & Attribution): खासकर रचनात्मक क्षेत्रों में—जहां मौलिकता, सहमति और लेखकीय अधिकार बेहद महत्वपूर्ण हैं।
3: डिजाइन में समावेशन (Inclusion by design): ताकि हमारे एआई टूल्स सिर्फ डिजिटल रूप से सक्षम अभिजात वर्ग नहीं, बल्कि हर भारतीय की सेवा करें।
AIAI एक ऐसा मानक ढांचा (standards framework) तैयार कर रहा है, जो यह करेगा:
मीडिया, डिज़ाइन, विज्ञापन और संगीत जैसे क्षेत्रों में एआई टूल्स का एथिकल कम्प्लायंस सर्टिफिकेशन।
ऐसे ओपन डेटासेट्स विकसित करना, जो भारत की भाषाई, क्षेत्रीय और कलात्मक विविधताओं को सही रूप में दर्शाएं।
बायस, स्रोत-प्रामाणिकता (provenance) और बौद्धिक संपदा (IP) की शुचिता के लिए ऑडिट गाइडलाइंस तैयार करना।
सबसे महत्वपूर्ण बात—हम यह काम अलग-थलग नहीं कर रहे हैं। हम इसे स्टार्टअप्स, विधि विशेषज्ञों, सांस्कृतिक संस्थाओं और सरकारी निकायों के साथ मिलकर तैयार कर रहे हैं, ताकि इन मानकों को सिर्फ सराहा ही न जाए, बल्कि वास्तव में अपनाया भी जा सके।
नेशनल संयोजक के रूप में, आप कैसे देखते हैं कि AIAI एक विश्वसनीय नीति-निर्माण वाला प्लेटफॉर्म बने? सिर्फ एक और इंडस्ट्री एसोसिएशन नहीं, बल्कि ऐसा निकाय जिसे सरकार एआई विनियमन पर गंभीरता से सलाहकार के रूप में माने?
AIAI का जो गवर्निंग बोर्ड जल्द घोषित होने वाला है, उसमें देश के शीर्ष उद्योगपति, सांस्कृतिक विशेषज्ञ, टेक्नोलॉजी लीडर्स और कई अन्य प्रख्यात नाम शामिल होंगे। विश्वसनीयता दावा करने से नहीं मिलती, यह उस कार्य से हासिल होती है, जो नियम बनने से पहले किया जाता है। हमारा लक्ष्य सिर्फ इंडस्ट्री की जार्गन-भरी गूंज बनना नहीं है। इसके बजाय AIAI खुद को भारत के ‘फर्स्ट-मूवर फोरम’ के रूप में स्थापित कर रहा है—यानी ऐसा मंच जो सरकार की जरूरत से पहले ही व्यवहारिक policy briefs जारी करेगा, ड्राफ्ट गाइडलाइंस तैयार करेगा और ethics charters का पायलट परीक्षण करेगा। हम पहले ही MeitY, नीति आयोग और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के साथ बातचीत की शुरुआत कर चुके हैं। हम जानते हैं कि एआई भारत के 50 लाख रचनात्मक पेशेवरों—लेखकों, निर्देशकों, डिजाइनरों, इन्फ्लुएंसर्स—पर कैसे असर डालता है, सिर्फ कोडर्स और CTOs पर नहीं।
भारत डेटा संप्रभुता, सांस्कृतिक पक्षपात, आईपी संरक्षण और वर्कफोर्स डिसरप्शन जैसी अनोखी एआई चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनमें से AIAI सबसे पहले किस मुद्दे को प्राथमिकता देगा और क्यों?
हमने अपनी पहली रणनीतिक प्राथमिकता के रूप में रचनात्मक कार्यों में आईपी संरक्षण (IP protection) को चुना है। क्योंकि यही सबसे महत्वपूर्ण मोर्चा है। जेनरेटिव एआई का इस्तेमाल पहले से ही विज्ञापन अभियानों, स्क्रीनप्ले, सोशल मीडिया फ़िल्टर्स और फैशन प्रोटोटाइप्स में हो रहा है। अक्सर बिना श्रेय (attribution), सहमति (consent) या किसी ट्रेसबिलिटी के। यदि हमने इसे अभी संबोधित नहीं किया, तो जोखिम सिर्फ नौकरियों का नहीं, बल्कि पहचान (identity) के खोने का भी है।
हम सक्रिय रूप से इन बिंदुओं पर काम कर रहे हैं:
Creative AI Attribution Protocol स्थापित करना
एआई-जनित कंटेंट की ओनरशिप के लिए कानूनी ढाँचे का समर्थन
क्रिएटर्स को यह गाइड करना कि वे अपने काम को कैसे लाइसेंस, वॉटरमार्क या सुरक्षित कर सकते हैं
जब यह आधार मजबूत हो जाएगा, तब हम डेटा संप्रभुता (data sovereignty) और समावेशन (inclusion) पर विस्तार करेंगे—क्योंकि यदि हमारे डेटासेट पर नियंत्रण नहीं रहा, तो हमारी नैतिकता भी बाहरी स्रोतों पर निर्भर हो जाएगी।
स्टार्टअप्स, बड़ी कंपनियां, क्रिएटर्स और नीति-निर्माता, ये सभी एआई को अलग-अलग उम्मीदों और चिंताओं के साथ देखते हैं। AIAI इन समूहों के बीच भरोसा कैसे बनाएगा?
AIAI में भरोसा कोई उप-उत्पाद नहीं, बल्कि एक डिजाइन लक्ष्य है। हम एसोसिएशन को एक सहयोगी ढांचे (collaborative architecture) के रूप में संरचित कर रहे हैं, न कि ऊपर-से-नीचे चलने वाली किसी नौकरशाही की तरह।
हर वर्किंग ग्रुप—चाहे वह नीति, रिसर्च, स्किलिंग या एथिक्स पर काम करे—में कम से कम ये लोग शामिल होंगे:
एक स्टार्टअप फाउंडर
एक बिग-टेक प्रतिनिधि
एक क्रिएटिव प्रोफेशनल
एक विधि/नीति विशेषज्ञ
यह मल्टी-स्टेकहोल्डर मॉडल सुनिश्चित करता है कि कोई भी एकल दृष्टिकोण पूरे नैरेटिव पर हावी न हो। इसके अलावा, हम AIAI Trust Index लॉन्च करने की योजना बना रहे हैं, यह अपनी तरह का पहला ढांचा होगा, जो भारतीय उपयोगकर्ताओं के लिए एआई टूल्स की पारदर्शिता, निष्पक्षता और अनुपालन के आधार पर रेटिंग करेगा। समय के साथ, यह ट्रस्ट इंडेक्स एक ऐसी प्रतिष्ठात्मक मुद्रा (reputational currency) बन जाएगा, जिसे कंपनियां और क्रिएटर्स महत्व देंगे।
एआई के तेजी से विकास को देखते हुए, पारंपरिक नियामक चक्र शायद पहले ही धीमे पड़ गए हैं। AIAI अपनी मार्गदर्शन को वास्तविक समय में प्रासंगिक बनाए रखने के लिए कौन से गतिशील और अनुकूलनीय (adaptive) तंत्र पेश करने की योजना बना रहा है?
आप बिल्कुल सही हैं, पुराने नियमों की रफ्तार एआई युग में टिक नहीं पाएगी। इसी कारण, AIAI ‘लिविंग फ्रेमवर्क्स’ बना रहा है। इसमें मॉड्यूलर, संपादन योग्य और संस्करण-नियंत्रित नीति ब्लूप्रिंट्स, जिन्हें तिमाही आधार पर विशेषज्ञों की सलाह से अपडेट किया जाएगा।
मुख्य तंत्र इस प्रकार हैं:
रीयल-टाइम एथिक्स सैंडबॉक्स (Real-Time Ethics Sandbox): जहां स्टार्टअप्स एआई टूल्स का परीक्षण कर सकते हैं और AIAI से नैतिक, सांस्कृतिक और कानूनी कमजोरियों पर प्रतिक्रिया प्राप्त कर सकते हैं।
एआई इनसिडेंट रजिस्ट्री (AI Incident Registry): भारत में सार्वजनिक रचनात्मक एआई टूल्स में दुरुपयोग या पक्षपात (bias) को ट्रैक और संबोधित करने के लिए।
फ्लैश पैनल्स (Flash Panels): तेज, 48 घंटे के विशेषज्ञ समूह जो उभरते खतरे—जैसे चुनावों में डीपफेक्स या सिंथेटिक इन्फ्लुएंसर्स—पर मार्गदर्शन तैयार करेंगे।
इस तरह, AIAI सिर्फ खबरों के पीछे नहीं भागेगा, बल्कि यह तय करेगा कि भारत अपने एआई सफर का अगला अध्याय कैसे लिखे।
महिला पत्रकारों के प्रमुख संगठन 'Indian women's Press Corps' (IWPC) ने हाल ही में अपनी 31वीं वर्षगांठ मनाई। इस मौके पर दिल्ली स्थित जवाहर भवन में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। देश के मुख्य न्यायाधीश (नामित) न्यायमूर्ति सूर्यकांत के मुख्य आतिथ्य में हुए इस कार्यक्रम में नियाजी निजामी ब्रदर्स ने शानदार प्रस्तुति देकर समां बांध दिया।
इस मौके पर 'Indian women's Press Corps' (IWPC) की प्रेजिडेंट सुजाता राघवन से समाचार4मीडिया ने विभिन्न मुद्दों पर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले तो आप हमारे पाठकों को अपने बारे में बताएं?
मैं सुजाता राघवन हूं। मैं मूल रूप से डेवलपमेंट कम्युनिकेशन से जुड़ी हूं। मैंने चरखा नाम के एक संगठन के तहत चलने वाली त्रिभाषीय (हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू) फ़ीचर सेवा की संपादक के रूप में काम किया। मैं एक सोशल डेवलपमेंट राइटर हूं। मैं वर्ष 2011 में IWPC की सदस्य बनी। वर्ष 2023 में मैं मैनेजिंग कमेटी में शामिल हुई और पिछले वर्ष मैं जॉइंट सेक्रेटरी के रूप में चुनी गई। इसके बाद अब मैं बतौर प्रेजिडेंट इस संस्था में अपनी भूमिका निभा रही हूं।
बतौर IWPC प्रेजिडेंट आपके अब तक के कार्यकाल में कोई विशेष उपलब्धि जो आप साझा करना चाहें?
यह केवल मेरी नहीं, बल्कि पूरी टीम की उपलब्धि है। अगर आज के कार्यक्रम को देखें तो इसके पीछे एक जिम्मेदारी और विश्वसनीय संस्था के तौर पर हमारी छवि झलकती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (Designate) ने भी समय देकर एक शानदार भाषण दिया। इसके साथ ही नियाजी निजामी ब्रदर्स, जो विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हैं, उन्होंने हमारे छोटे से संस्थान के लिए समय निकाला। ऑडियंस में भी ऐसे लोग आए जो समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मुझे लगता है कि ये हमारी उपलब्धि का प्रतीक हैं। IWPC कई दशकों से निरंतर काम कर रहा है और यह उसी सामूहिक प्रयास का परिणाम है।
IWPC के प्रेजिडेंट के रूप में आपके समक्ष कुछ चुनौतियां भी आती होंगी, उन्हें आप कैसे संभालती हैं?
हमारा काम संस्थान को जीवित और सक्रिय रखना है, ताकि सदस्य यहाँ सीख सकें और एक सुरक्षित, प्रेरक वातावरण पा सकें। हम विभिन्न वर्कशॉप्स और ट्रेनिंग सेशन्स आयोजित करते हैं, ताकि पत्रकारिता कौशल और ज्ञान में सुधार हो। सरकारी अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों, पार्टी प्रवक्ताओं, राजनेताओं या विदेशी मामलों के विशेषज्ञों के साथ संवाद भी करते हैं।
महिलाओं को, खासकर मीडिया में, अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। रिपोर्टिंग में या अपनी राय खुलकर रखने में, अक्सर उन्हें ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है। यह वही संघर्ष है जो हर पेशेवर महिला को किसी न किसी रूप में झेलना पड़ता है।
इस संस्था के गठन को तीन दशक पूरे हो गए हैं। क्या आपको लगता है कि संस्था अपने उद्देश्यों पर खरी उतर रही है?
हां, बिल्कुल। यह तथ्य कि संस्था 30 से अधिक वर्षों से निरंतर कार्यरत है, अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। हम किसी बड़े फंड से नहीं चलते। सदस्यता शुल्क और एक रसोई से ही संस्था चलती है। हमारा वार्षिकोत्सव कार्यक्रम एक ‘फंड रेजर’ भी होता है। हम इस अवसर पर एक पुस्तिका (स्मारिका) प्रकाशित करते हैं, जो मीडिया और विशेष रूप से महिलाओं से जुड़े विषयों पर आधारित होती है। इसमें हमारी ही सदस्याएं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अपने लेख लिखती हैं। विज्ञापनों के माध्यम से हम फंड एकत्र करते हैं, जो संस्था के संचालन के लिए पूंजी का कार्य करता है। ऐसे कार्यक्रम हम वर्षों से आयोजित करते आ रहे हैं। यह संस्था महिला पत्रकारों के लिए एक स्पेस (स्थान) प्रदान करती है। जहां वे सीख सकें, संवाद कर सकें और आगे बढ़ सकें।
आज भारतीय मीडिया में महिला नेतृत्व का भविष्य आप किस तरह देखती हैं?
महिलाएं अब हर बीट में जा रही हैं — राजनीति, अपराध, अर्थशास्त्र, विदेश मामलों में भी। पहले के जमाने में महिलाएं सिर्फ फ्लॉवर शो या बेबी शो कार्यक्रमों आदि की रिपोर्टिंग करती थीं। अब समय बदल गया है। जरूरी है कि मीडिया संस्थानों में ऐसा माहौल बने, जो महिलाओं को अवसर दे, उन्हें ग्रूम करे और ऐसा माहौल बनाए कि उन्हें आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें।
IWPC ने अपनी 31वीं वर्षगांठ मनाई। इस संस्था के प्रेजिडेंट के तौर पर इस अनुभव के बारे में कुछ बताएं?
बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। हमारी टीम में 20-25 साल का अनुभव रखने वाले सदस्य हैं, जिन्होंने मीडिया और समाज में हुए बड़े बदलावों को देखा है। उनका मार्गदर्शन अमूल्य है। साथ ही नए लोगों में नई ऊर्जा है। यह सहयोग ही हमारी असली ताकत है।
आपको क्या लगता है, आज के दौर में महिला पत्रकारों की चुनौतियां पहले से बढ़ी हैं या घटी हैं?
डिजिटल मीडिया ने पहुंच यानी रीच बढ़ाई है, लेकिन खतरे भी बढ़े हैं। अब कोई भी अपने चैनल या प्लेटफॉर्म से रिपोर्ट कर सकता है, लेकिन प्रतिक्रिया (response) तुरंत और कई बार कठोर आती है। पहले मीडिया हाउस में काम करने से एक सुरक्षा होती थी, अब स्वतंत्र पत्रकार उस सुरक्षा से वंचित हैं। इसलिए जोखिम बढ़े हैं, पर साथ ही प्रभाव और हौसला भी बढ़ा है। अगर हम इन चुनौतियों को अवसर की तरह लें, तो समाज में कुछ न कुछ बदलाव जरूर होता है।
आपकी नजर में महिलाओं के लिए मीडिया में क्या सुधार किए जाने चाहिए?
न्यूजरूम्स को अधिक इंक्लूसिव बनाया जाए। स्टोरी या बीट्स के आवंटन में महिलाओं की राय भी शामिल हो। महिलाओं के दृष्टिकोण अलग होते हैं, उन्हें जगह मिलनी चाहिए। साथ ही, जब उन्हें फील्ड असाइनमेंट पर भेजा जाए, तो सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाए, ख़ासकर संवेदनशील या संघर्ष वाले क्षेत्रों में।
महिला पत्रकारों के लिए IWPC क्या कार्य कर रहा है?
हम नियमित रूप से हेल्थ से जुड़ी बातचीत और अन्य व्यावसायिक चर्चाएं करते हैं। पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है। अब नौकरी या आय की स्थिरता नहीं रही। इसलिए हम बीमा, स्वास्थ्य, और जीवनयापन से जुड़े मुद्दों पर भी ध्यान देते हैं। हम कैंसर और डेंटल (दंत) चेकअप कैंप भी आयोजित करते हैं। इसके लिए हम सरकारी अस्पतालों से जुड़ते हैं। इन कैंपों में भाग लेने वालों के बाकायदा कार्ड बनाए जाते हैं, ताकि हमारे सदस्य कैंप समाप्त होने के बाद भी इन सेवाओं से जुड़े रह सकें।
इसके अलावा, हम रेड क्रॉस के सहयोग से रक्तदान शिविर भी आयोजित करते हैं, जिनमें हमारे सदस्यों के परिवारजन भी हिस्सा लेते हैं। रक्तदान करने वालों को डोनर कार्ड दिया जाता है, ताकि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रक्त की सुविधा आसानी से मिल सके। हम स्पोर्ट्स मीट और प्रतियोगिताएं भी आयोजित करते हैं। इसी वर्ष हमने टेबल टेनिस (TT) टूर्नामेंट का आयोजन किया। इसमें केवल सदस्यों ही नहीं, बल्कि अन्य पत्रकारों ने भी भाग लिया। पुरस्कार वितरण समारोह में केंद्रीय खेल राज्यमंत्री सुश्री रक्षा एन. खडसे को आमंत्रित किया गया। यह कार्यक्रम अत्यंत ऊर्जा से भरपूर रहा। रक्षा जी ने इस वर्ष प्रकाशित हमारी स्मारिका के लिए एक विशेष संदेश भी लिखा है।
‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ (AI) पर आपकी क्या राय है?
‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ को समझना और उसकी सीमाएं जानना बहुत जरूरी है। हमें यह सीखना होगा कि एआई को कितना अपनाया जाए और कहां सतर्क रहना चाहिए। पत्रकारिता के सिद्धांतों और नैतिकता से टकराने वाले कंटेंट को पहचानना जरूरी है।
आजकल फेक वीडियो और डीपफेक्स काफी बढ़ रहे हैं। इस पर क्या कहना चाहेंगी?
सरकार इस दिशा में कदम उठा रही है, पर हमें खुद भी जागरूक रहना होगा। फैक्ट-चेकिंग, क्रॉस-वेरिफिकेशन और रिपोर्टिंग में निष्पक्षता बनाए रखना, यही सबसे बड़े सेफगार्ड हैं। इन बातों को सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत सिस्टम की आवश्यकता है।
विज्ञापन प्रणाली की जटिलता को नहीं समझता CCI: श्रीनिवासन के. स्वामी
'एक्सचेंज4मीडिया' से एक्सक्लूसिव बातचीत में आर. के. स्वामी लिमिटेड के एग्जिक्यूटिव ग्रुप चेयरमैन श्रीनिवासन के. स्वामी ने अपना विजन साझा किया और कड़े सवालों का जवाब दिया
आर. के. स्वामी लिमिटेड के एग्जिक्यूटिव ग्रुप चेयरमैन श्रीनिवासन के. स्वामी ने हाल ही में 2025-26 के लिए ऐडवर्टाइजिंग एजेंसीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (AAAI) के अध्यक्ष का पदभार संभाला। भारतीय ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री की सबसे प्रभावशाली आवाजों में से एक माने जाने वाले स्वामी एक ऐसे इकोसिस्टम की बागडोर संभाल रहे हैं जो नियामक जांच, रुके हुए दर्शक माप सर्वेक्षणों और नए प्रतिभाओं को आकर्षित करने की तात्कालिक आवश्यकता से जूझ रहा है।
'एक्सचेंज4मीडिया' से एक्सक्लूसिव बातचीत में स्वामी ने अपना विजन साझा किया और कड़े सवालों का जवाब दिया, जिनमें शामिल थे CCI की जांच, BARC की विश्वसनीयता और इंडियन रीडरशिप सर्वे (IRS) की स्थिति। साथ ही यह भी रेखांकित किया कि इंडस्ट्री की असली चुनौती मानव संसाधन (human capital) है।
अध्यक्ष के रूप में प्राथमिकताएं
स्वामी उन लीडर्स की तरह नहीं हैं जो शीर्ष पद पर चुने जाने के बाद बड़े बदलावों का ऐलान करते हैं। वे इस स्थिर जहाज को हिलाने में सावधानी बरतना चाहते हैं। उन्होंने कहा, “यह जहाज पहले से ही अच्छी तरह चल रहा है। मेरा काम यह सुनिश्चित करना है कि हम कोई भी अनावश्यक या बाधक काम न करें। साथ ही यह मानना भी जरूरी है कि जैसे-जैसे तकनीक विकसित हो रही है, इंडस्ट्री जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है। हमें लोगों को इन जटिलताओं को समझने और समझदारी से उन्हें पार करने में मदद करनी होगी।”
सबसे बड़ी चुनौती
स्वामी के अनुसार विज्ञापन इंडस्ट्री की सबसे बड़ी समस्या है- लोग। उन्होंने साफ तौर पर कहा, “प्रतिभा को आकर्षित करना और बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है। किसी कारणवश, नई पीढ़ी अब विज्ञापन को पसंदीदा करियर नहीं मानती। हमें मास कम्युनिकेशन संस्थानों और उससे आगे तक आउटरीच अभियान चलाकर प्रतिभा की मजबूत पाइपलाइन तैयार करनी होगी।”
उन्होंने एजेंसियों की जिम्मेदारी भी साफ की और कहा, “यदि हमें उच्च-स्तरीय प्रतिभाशाली लोग चाहिए, तो हमें उन्हें उचित पारिश्रमिक देने और जोड़े रखने के लिए तैयार रहना होगा। अक्सर इंडस्ट्री के लीडर इस सच्चाई को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन भविष्य स्मार्ट निवेशों पर निर्भर है और ये निवेश प्रतिभा में होने चाहिए।”
CCI जांच: ‘कीमत मुख्य मुद्दा नहीं है’
भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) द्वारा शीर्ष मीडिया एजेंसियों के खिलाफ कथित गठजोड़ की चल रही जांच पर स्वामी ने दो टूक कहा, “एजेंसी रेट्स एक बेहद जटिल प्रक्रिया से तय होते हैं- रणनीति, टीमें, तकनीक। लेकिन कीमत का महत्व बहुत ज्यादा नहीं है। कीमत में 0.2% या 0.5% का फर्क बड़ी तस्वीर में मायने नहीं रखता।”
उन्होंने यह भी जोड़ा, “दुर्भाग्यवश, CCI विज्ञापन प्रणाली की जटिलता को पूरी तरह नहीं समझता। अब तक जो हुआ है, वह सिर्फ प्रारंभिक जांच है। अब एक विस्तृत जांच चल रही है और मुझे उम्मीद है कि यह स्पष्टता लाएगी।”
बताया जाता है कि यह केस व्हिसलब्लोअर्स के आरोपों से शुरू हुआ, जिनका कहना था कि बड़ी एजेंसियों ने विज्ञापनदाताओं को टीवी विज्ञापन इन्वेंटरी सस्ती दरों पर देने का वादा करके बड़े खातों का एकीकरण किया, जबकि प्रसारकों से अधिक निवेश के लिए सौदे किए। इस बीच, वॉचडॉग इंडियन सोसायटी ऑफ एडवर्टाइजर्स (ISA) के मॉडल एजेंसी एग्रीमेंट की भी जांच कर रहा है, जिसे अगस्त 2023 में लॉन्च किया गया था। शिकायतकर्ताओं का कहना है कि इससे विज्ञापनदाता-एजेंसी की बातचीत सीमित हुई और एजेंसियों की आय पर असर पड़ा।
एक TRP सिस्टम या कई?
मीजरमेंट सिस्टम पर उठ रहे सवालों के बीच, स्वामी ने ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) का बचाव किया, जो देश की एकमात्र टेलीविजन रेटिंग प्रणाली है। उन्होंने कहा, “मेरा मानना है कि BARC अच्छा काम कर रहा है। AAAI, ISA और IBDF सभी BARC में साझेदार हैं। वैश्विक स्तर पर ज्यादातर बाजारों में एक ही सिस्टम होता है और वह ठीक काम करता है। मुझे दूसरा सिस्टम शुरू करने का कोई औचित्य नहीं दिखता। हमें मौजूदा सिस्टम को मजबूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए, न कि कई सिस्टम्स पर पैसा खर्च करने पर।”
जब उनसे BARC पर आलोचनाओं के बारे में पूछा गया, जिसमें बेसलाइन सर्वे और कनेक्टेड टीवी स्टडी जैसी पहलों में देरी शामिल है, तो उन्होंने भरोसा दिलाया कि हां, मैं उन चिंताओं को समझता हूं। लेकिन मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि BARC बोर्ड का सदस्य होने के नाते, ये मुद्दे पूरी तरह हमारे एजेंडे में हैं। नीयत साफ है और सभी लंबित पहलें आगे की योजना का हिस्सा हैं।
IRS को पुनर्जीवित करना
लंबे समय से रुका हुआ इंडियन रीडरशिप सर्वे (IRS) भी स्वामी की प्राथमिकताओं में है। उन्होंने कहा, “IRS को पुनर्जीवित करना जरूरी है। फंडिंग अब तक की सबसे बड़ी रुकावट रही है। मुझे बताया गया है कि अब एक प्रस्ताव है जिसके तहत छोटे सैंपल साइज के साथ सर्वे किया जाएगा ताकि लागत कम की जा सके और इसके लिए जल्द ही एक RFP जारी होना चाहिए।”
प्रकाशक पद्धति को लेकर विभाजित हैं। कई लोगों को लगता है कि कोविड के बाद हाउसिंग सोसाइटियों में भौतिक सर्वे करना अब संभव नहीं होगा, गोपनीयता और प्रतिबंधों की वजह से। लेकिन स्वामी ने आगे बढ़ने की तात्कालिकता पर जोर दिया।
तकनीक और विश्वसनीयता की विरासत
भविष्य की ओर देखते हुए, स्वामी ने अपने लक्ष्य को सरल शब्दों में बताया, “मेरे लिए यह सुनिश्चित करना अहम है कि इंडस्ट्री पूरी तरह तकनीक को अपनाए और उसे हमारे हित में इस्तेमाल करे। अगर हम यह बदलाव कर सके और साथ ही विश्वसनीयता व रचनात्मकता के मूलभूत तत्वों को कायम रख सके, तो मैं अपने कार्यकाल को सार्थक मानूंगा।”
ऑफलाइन रिटेल व ई-कॉमर्स की तरह ही टीवी और डिजिटल भी बढ़ेंगे साथ: आलोक जैन, जियोस्टार
जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के क्लस्टर हेड्स में से एक आलोक जैन का मानना है कि टेलीविजन न सिर्फ अपनी पकड़ बनाए हुए है, बल्कि नए माध्यमों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।
एंटरटेनमेंट की दुनिया पहले से कहीं तेजी से बदल रही है, लेकिन जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के क्लस्टर हेड्स में से एक आलोक जैन का मानना है कि टेलीविजन न सिर्फ अपनी पकड़ बनाए हुए है, बल्कि नए माध्यमों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।
जैन के पोर्टफोलियो में कलर्स, डिजिटल हिंदी ओरिजिनल्स, यूथ, म्यूजिक व इंग्लिश, किड्स व इंफोटेनमेंट, हिंदी मूवीज और स्टूडियो बिजनेस शामिल हैं। उनका कहना है, “भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में टीवी आज भी बेहद प्रासंगिक है और निकट भविष्य में भी रहेगा।”
उन्होंने कहा, “आज भारत में 90 करोड़ लोग टीवी देखते हैं और रोजाना लगभग तीन घंटे का कंटेंट देखते हैं। डिजिटल निश्चित रूप से बढ़ेगा, लेकिन टीवी की पहुंच और जुड़ाव मजबूत है। हम खुद को प्लेटफॉर्म-एग्नॉस्टिक मानते हैं- टीवी, मोबाइल, ओटीटी और सीटीवी सभी पर दर्शकों को सहज अनुभव देना हमारा लक्ष्य है। भारत की खपत की कहानी बहुत बड़ी है और जैसे ऑफलाइन रिटेल ई-कॉमर्स के साथ मौजूद है, वैसे ही टीवी, डिजिटल और मोबाइल जैसे सभी माध्यम साथ-साथ रहेंगे और बढ़ेंगे।”
इंडस्ट्री रिपोर्ट्स भी इस बात की पुष्टि करती हैं। FICCI-EY रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में टीवी अब भी 90 करोड़ से अधिक दर्शकों तक पहुंचता है, जो इसे बेमिसाल पैमाने और गहराई वाला सबसे बड़ा मीडिया प्लेटफॉर्म बनाता है।
जैन का कहना है, “दुनिया के नैरेटिव के उलट, भारत में टीवी गिरावट में नहीं है, बल्कि विकसित हो रहा है और फल-फूल रहा है।”
टीवी का सुकून और विशाल पहुंच कायम
जैन के अनुसार, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाता हो कि टीवी की अहमियत घट रही है। वे आगे कहते हैं, “मैदान पर का अनुभव भी इसे साबित करता है,” “टीवी में ऐसे फायदे हैं—परिवार के साथ देखना, आराम और ‘एस्केपिज्म मोड’, जिन्हें डिजिटल हमेशा दोहरा नहीं सकता। भारत में इंडस्ट्रीज आसानी से खत्म नहीं होतीं; वे खुद को ढाल लेती हैं।”
जैन के मुताबिक, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाए कि टीवी की अहमियत घट रही है। वे कहते हैं, “ग्राउंड एक्सपीरियंस भी इसे साबित करते हैं। टीवी में कुछ ऐसे फायदे हैं- परिवार के साथ देखना, आराम और ‘एस्केपिज़्म मोड’—जिन्हें डिजिटल हमेशा नहीं दोहरा सकता। भारत में इंडस्ट्री आसानी से खत्म नहीं होती, बल्कि समय के साथ खुद को ढाल लेतीं हैं।”
कलर्स और जियोस्टार के एंटरटेनमेंट बिजनेस के लिए उनकी रणनीति साफ है- ऐसे आईपी में निवेश करना जो पीढ़ियों, प्लेटफॉर्म्स और फॉर्मैट्स से परे जाएं, पारिवारिक दर्शकों को वापस लाना और ये संदेश मजबूती से देना कि भारत में टीवी अपनी ताकत फिर से खोज रहा है।
नॉस्टेल्जिया और नए फॉर्मैट्स का संतुलन
बीते दिनों के लोकप्रिय शो फिर से दर्शकों के बीच आ रहे हैं और प्रोग्रामिंग ट्रेंड में नॉस्टेल्जिया अहम भूमिका निभा रहा है। जैन इसे अपनाते हैं, लेकिन सतर्कता के साथ। “मामला संतुलन का है। भविष्य अतीत के बराबर नहीं होता, इसलिए हम जहां सफल पुराने फॉर्मैट्स का लाभ उठाते हैं, वहीं नए प्रयोगों का जोखिम भी लेते हैं। उदाहरण के लिए, अगस्त में हम बिग बॉस के साथ-साथ ‘पति पत्नी और पंगा’ चला रहे हैं, जहां स्थापित फैनबेस और नए फॉर्मैट्स का मेल है। नॉस्टेल्जिया मूल्यवान है, लेकिन इनोवेशन जरूरी है।”
यह पुराने और नए का मेल हर जॉनर में दिखता है। कलर्स ने नॉन-फिक्शन में अपनी मजबूत पहचान बनाई है, लेकिन फिक्शन भी इसका मुख्य आधार है।
जैन आगे कहते हैं, “नॉन-फिक्शन ज्यादातर वीकेंड पर होता है, सिवाय बिग बॉस के समय के। हमारी नॉन-फिक्शन में अलग पहचान है क्योंकि टीवी और डिजिटल दोनों में इतने मजबूत फ्रैंचाइजी बहुत कम हैं। लेकिन फिक्शन अब भी बड़ा फोकस है- सालाना 8 से 10 गुना ज्यादा घंटे फिक्शन को मिलते हैं।”
विज्ञापन परिदृश्य और त्योहारी रफ्तार
विज्ञापन खर्च अब टीवी और ओटीटी में बंट रहा है, फिर भी जैन आशावादी हैं। उन्होंने कहा, “टीवी अब भी मजबूत है और सबसे बड़ा ब्रैंड-बिल्डिंग माध्यम है, इसलिए हम विज्ञापनदाताओं को डिजिटल के साथ इसका इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। पहली तिमाही में टीवी विज्ञापन राजस्व में थोड़ी नरमी थी, लेकिन त्योहारी सीजन में टीवी और डिजिटल दोनों पर तेजी दिख रही है। निविया और लोरियल जैसे एफएमसीजी ब्रैंंड वापस आ रहे हैं। नए दौर के ब्रैंंड भी मेट्रो शहरों के शुरुआती उपभोक्ताओं से आगे पहुंचने के लिए टीवी जैसे व्यापक माध्यमों की जरूरत महसूस करेंगे।”
मापदंड की चुनौती
जब दर्शक स्क्रीन-एग्नॉस्टिक हो रहे हैं, तो मापने की व्यवस्था को भी बदलना होगा। जैन कहते हैं, “मापन बेहद जरूरी है और इसे उपभोक्ता के व्यवहार के साथ विकसित होना चाहिए। एक बड़ा अवसर इस बात में है कि एक ही व्यक्ति द्वारा टीवी और डिजिटल पर देखे गए एक ही शो की संयुक्त व्यूअरशिप को मापा जाए।”
‘पति पत्नी और पंगा’ का विचार
कलर्स का नया फॉर्मैट ‘पति पत्नी और पंगा’ इस चैनल के घरेलू, रिश्तों से जुड़े और दर्शकों के करीब के आइडियाज पर फोकस को दर्शाता है। जैन कहते हैं, “हम लगातार नए आइडियाज की तलाश करते हैं। ‘पति पत्नी और पंगा’ की प्रेरणा शादीशुदा जोड़ों के रोजमर्रा के मजाक और अनोखेपन से मिली, जो हर किसी से जुड़ता है। हम एक पारिवारिक, मनोरंजक शो बनाना चाहते थे, जो अब तक अनछुए स्पेस में हो।”
इस शो में सिर्फ शादीशुदा जोड़े हिस्सा लेते हैं- सिवाय अविका गोर के, जो सगाईशुदा हैं और इसके होस्ट अलग-अलग रंगत लाते हैं: सोनाली बेंद्रे अपने गरिमामय अंदाज और नॉस्टेल्जिया के साथ, तो मुनव्वर फारूकी अपने हास्य और धार के साथ।
शो पहले ही 11 स्पॉन्सर्स जुटा चुका है, जो इसकी अपील पर भरोसा दर्शाता है।
जैन कहते हैं, “यह एक घरेलू फॉर्मैट है, देसी ड्रामा में रचा-बसा, भारतीय घरों की संवेदनाओं से प्रेरित और आज के दर्शकों के साथ जुड़ने के लिए तैयार किया गया। इसका मकसद है कि ‘पति पत्नी और पंगा’ टीवी और डिजिटल दोनों पर चमके, और सोशल मीडिया एक्सटेंशन्स, छोटे रील्स और शॉर्ट-फॉर्म स्पिन-ऑफ के लिए भी बड़ा स्कोप है।”
कलर्स का 17 साल का सफर
जैन कहते हैं, '2008 में लॉन्च होने के बाद से कलर्स सिर्फ एक ब्रॉडकास्टर नहीं, बल्कि भारतीय समाज का आईना रहा है। ‘बालिका वधू’, ‘उतरन’ और ‘ना आना इस देस लाडो’ जैसे शो ने प्राइमटाइम में सामाजिक मुद्दों- बाल विवाह से लेकर लैंगिक असमानता तक को कहानी का केंद्र बनाया।
जैन याद करते हैं, “बालिका वधू के साथ, कलर्स ने बाल विवाह के मुद्दे को प्राइमटाइम में सिर्फ पृष्ठभूमि के तौर पर नहीं, बल्कि मुख्य कथा के रूप में पेश किया, जिससे मनोरंजन सामाजिक चेतना में बदल गया। आज कलर्स सामाजिक बदलाव को छूती फिक्शन कहानियों (जैसे ‘धाकड़ बीरा’, ‘मनपसंद की शादी’) और दमदार नॉन-फिक्शन शो, दोनों का मेल प्रस्तुत करता है।”
जैन गर्व से कहते हैं, “‘लाफ्टर शेफ्स’ ने कॉमेडी-आधारित रियलिटी टीवी की परिभाषा बदल दी। कॉमेडी और कुकिंग का इसका अनोखा संगम दर्शकों को ‘डिनरटेनमेंट’ का मजा दे रहा है।”
जैन को भविष्य को लेकर पूरा भरोसा है। वे कहते हैं, “हमारी कंटेंट रणनीति के केंद्र में दर्शक हैं। हर कहानी उन्हीं से शुरू होती है- उनकी पसंद, संस्कृति और बदलती जिंदगियों से। हमारा वादा है कि हम दिल और ईमानदारी के साथ कहानियां सुनाते रहेंगे।”
उनके लिए टीवी, ओटीटी और सीटीवी का साथ रहना सिर्फ निश्चित ही नहीं, बल्कि यह पहले से ही हकीकत है। जैन दोहराते हैं, “भारत की खपत की कहानी बहुत बड़ी है। सभी माध्यम साथ रहेंगे और साथ बढ़ेंगे।”
SEBI का काम खुद चमकना नहीं, सिस्टम में विश्वास जगाना है: तुहिन कांत पांडे
यह SEBI के चेयरमैन तुहिन कांत पांडे का पहला बड़ा इंटरव्यू है। उन्होंने BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा व मैनेजिंग एडिटर पलक शाह से प्रमुख चिंताओं पर खुलकर बात की।
जेन स्ट्रीट प्रकरण और उसके बाद भारत के वित्तीय बाजारों में मचे हलचल के बीच यह SEBI के चेयरमैन तुहिन कांत पांडे का पहला बड़ा इंटरव्यू है। उन्होंने BW बिजनेसवर्ल्ड के चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा और मैनेजिंग एडिटर पलक शाह से प्रमुख चिंताओं पर खुलकर बात की। एक नियामक के रूप में अपनी सोच साझा करते हुए उन्होंने बाजार में हेरफेर, पारदर्शिता और निवेशकों की सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया। ईमानदारी के लिए चर्चित और कई ऐतिहासिक वित्तीय सुधारों के मार्गदर्शक रहे तुहिन कांत पांडे ने इस तेजी से बदलते परिदृश्य में SEBI की भूमिका, हाई-फ्रीक्वेंसी ट्रेडिंग (HFT) से निपटने की चुनौती और भारतीय पूंजी बाजार में निवेशकों का भरोसा वापस लाने की अपनी योजनाओं पर विस्तार से चर्चा की।
मिस्टर पांडे, SEBI के चेयरमैन पद की जिम्मेदारी संभालने पर आपको बधाई। जेन स्ट्रीट प्रकरण के बाद आपसे कई उम्मीदें जुड़ी हैं। SEBI ने इस मामले में महज दस दिनों के भीतर 600 मिलियन डॉलर की रकम सुरक्षित करते हुए एक असाधारण अंतरिम आदेश जारी किया। लेकिन आपने गंभीर बाजार हेरफेर की आशंकाओं के बावजूद जेन स्ट्रीट को दोबारा ट्रेडिंग की इजाजत क्यों दी? कृपया इस फैसले के पीछे की सोच समझाइए।
SEBI एक संस्थागत संरचना पर आधारित संगठन है और मैं सामूहिक निर्णय और वैधानिक प्रक्रिया में विश्वास करता हूं। जेन स्ट्रीट मामला अभी एक अंतरिम आदेश है, अंतिम निर्णय नहीं। हमारी न्याय व्यवस्था ‘प्राकृतिक न्याय’ के सिद्धांत पर टिकी है, जो यह कहती है कि स्थायी कार्रवाई से पहले नोटिस देना और पक्ष सुनना जरूरी है। सामने आए उल्लंघन इतने गंभीर थे कि पूरी जांच पूरी होने तक इंतजार करना संभव नहीं था, इसलिए हमने तुरंत कार्रवाई करते हुए 597 मिलियन डॉलर की रकम सुरक्षित की और कई प्रतिबंध लगाए, जिनमें मैनिपुलेटिव ट्रेडिंग पर रोक भी शामिल है। तब से जेन स्ट्रीट ने F&O बाजार में कोई ट्रेडिंग नहीं की है और SEBI तथा एक्सचेंज दोनों ही उनकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखे हुए हैं। यह किसी तरह की ढील नहीं है, बल्कि एक संतुलित दृष्टिकोण है, जिसमें बाजार की सुरक्षा और निष्पक्षता दोनों का ध्यान रखा गया है।
लेकिन क्या यह मिसाल अपने आप में असामान्य नहीं है? SEBI के 35 साल के इतिहास में ऐसा कोई आदेश नहीं आया जिसमें जांच के दायरे में होने के बावजूद किसी इकाई को फंड जमा करने के बाद फिर से ट्रेडिंग की अनुमति दी गई हो। क्या यह एक खतरनाक उदाहरण नहीं बनाता?
मैं इस चिंता को समझता हूं, लेकिन जरूरी है कि हम इस स्थिति की गलत व्याख्या न करें। अंतरिम आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जेन स्ट्रीट किसी भी तरह की मैनिपुलेटिव ट्रेडिंग से दूर रहेगी, और हमने सख्त निगरानी के जरिये इस अनुपालन को सुनिश्चित किया है। बिना कारण बताओ नोटिस या अंतिम आदेश के स्थायी रूप से प्रतिबंध लगाना मनमाना होता और कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं। निर्धारित शर्तों के तहत ट्रेडिंग की अनुमति देना ‘नरमी’ नहीं, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन है। हमारे न्यायशास्त्र में बिना उचित प्रक्रिया के किसी को दोषी ठहराने की अनुमति नहीं है। 597 मिलियन डॉलर की जमा रकम खुद एक मजबूत संकेत है कि SEBI इस पर कितना गंभीर है। हमारा उद्देश्य ‘हीरो’ बनना नहीं है, बल्कि न्यायपूर्ण और निरंतर नियमन के जरिये भरोसा कायम करना है।
जेन स्ट्रीट मामला मैनहट्टन कोर्ट में दायर एक फाइलिंग से सामने आया, न कि SEBI की अपनी निगरानी प्रणाली से। क्या यह आपके निगरानी तंत्र की कमजोरी को उजागर करता है? और आप इसे दुरुस्त करने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं?
मैनहट्टन में की गई फाइलिंग ने हमें सतर्क किया, लेकिन हमारी अपनी जांच में भी डेटा एनालिसिस के जरिए हेरफेर के पैटर्न सामने आए। हमने जेन स्ट्रीट की विभिन्न संस्थाओं के बीच समन्वित ट्रेडिंग की पहचान की, जो न तो हेजिंग का हिस्सा थीं और न ही लिक्विडिटी-संबंधी, बल्कि शुद्ध रूप से हेरफेर थीं। टेक्नोलॉजी लगातार बदल रही है, और कोई भी नियामक यह दावा नहीं कर सकता कि वह सर्वज्ञ है। इस केस ने हमारी निगरानी प्रणालियों को और बेहतर बनाने की जरूरत को रेखांकित किया। हम नए पैरामीटर अपना रहे हैं, AI आधारित टूल्स की संभावनाएं देख रहे हैं, जैसे कि असामान्य डेल्टा एक्सपोजर या अचानक हुए ऑप्शन ट्रेडिंग स्पाइक्स। हम विशेषज्ञता को अपनाने और मैनिपुलेटिव रणनीतियों से आगे रहने के लिए तैयार हैं। हमने F&O ट्रेडिंग की विसंगतियों पर निगरानी कड़ी की है, डेल्टा आधारित विश्लेषण शुरू किया है, और पोजीशन लिमिट्स को सख्त किया है। हमारे सुपटेक प्रयासों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा रहा है- मलेशिया और स्विट्जरलैंड जैसे देश SEBI से सीख रहे हैं। लेकिन मैं साफ कहूं तो: HFT के साथ मुकाबला एक निरंतर बिल्ली और चूहे का खेल है, और हम इस चुनौती से उभरते रहने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
जब हम अंतरराष्ट्रीय नियामकों की बात करते हैं, तो SEBI ने अडानी मामले में विदेशी एजेंसियों से अंतिम लाभकारी मालिकों (UBOs) की जानकारी मांगी थी। क्या जेन स्ट्रीट के लिए भी ऐसा ही किया गया है? क्योंकि उनकी ओनरशिप संरचना काफी जटिल मानी जाती है।
जेन स्ट्रीट मामला मुख्यतः बाजार आचरण से संबंधित है, स्वामित्व से नहीं। FPI नियम सभी पर समान रूप से लागू होते हैं, जिसमें UBO डिस्क्लोजर भी शामिल है, और जेन स्ट्रीट इसके अपवाद नहीं हैं। हम किसी साजिश की तलाश में नहीं हैं, बल्कि हमारा पूरा ध्यान उन ट्रेड्स पर है जिन्हें अंतरिम आदेश में मैनिपुलेटिव पाया गया। इसे UBO से जोड़ना अलग मुद्दा है। हमारे लिए प्राथमिकता यह है कि ऐसा व्यवहार दोबारा न दोहराया जाए- चाहे फंड के पीछे कोई भी हो। UBO प्रकटीकरण की आवश्यकता 10% या उससे अधिक हिस्सेदारी पर होती है, और जेन स्ट्रीट भी अन्य FPI की तरह इसका पालन करता है। उनके F&O ट्रेड्स में इक्विटी स्वामित्व शामिल नहीं था।
BSE की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। जानकारी है कि BSE ने जेन स्ट्रीट की ट्रेड्स से जुड़े अहम डेटा SEBI के अनुरोध पर लगभग डेढ़ साल तक साझा नहीं किए। फिर भी आपके आदेश में इसका उल्लेख क्यों नहीं है?
मुझे BSE द्वारा डेटा साझा करने में किसी विशिष्ट देरी की जानकारी नहीं है, लेकिन मैं इसे जरूर जांचूंगा। हमारा अंतरिम आदेश उन हेरफेर गतिविधियों पर केंद्रित था जिनके लिए हमारे पास पर्याप्त सबूत पहले से मौजूद थे- मुख्यतः SEBI की अपनी निगरानी प्रणाली और NSE के डेटा के आधार पर, जो अंतरिम कार्रवाई के लिए पर्याप्त था।
बीते कुछ वर्षों में कई रिटेल निवेशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है, खासकर हाई PE वाले IPOs में निवेश के चलते, जो लिस्टिंग के तुरंत बाद गिर जाते हैं- Paytm इसका उदाहरण है। क्या SEBI यह देखता है कि म्यूचुअल फंड्स इन IPOs में कैसे निवेश करते हैं, जो अक्सर प्राइवेट इक्विटी निवेशकों को निकासी का मौका देते हैं?
एकल मामले (जैसे Paytm) के आधार पर सामान्यीकरण करना उचित नहीं होगा। IPOs भविष्य की संभावनाओं पर आधारित होते हैं, केवल मौजूदा परिसंपत्तियों पर नहीं। उदाहरण के लिए Nvidia को देखिए, 25 साल पहले वह एक स्टार्टअप थी, आज वह ट्रिलियन-डॉलर कंपनी है। प्राइवेट इक्विटी से निकासी पूंजी निर्माण का एक वैध तरीका है, जो भारत की आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। SEBI की भूमिका मूल्य निर्धारण करना नहीं है, बल्कि पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया सुनिश्चित करना है। हम डिस्क्लोजर और निगरानी को मजबूत कर रहे हैं ताकि खुदरा निवेशकों की सुरक्षा हो सके, लेकिन बाजार की स्वाभाविक गति को बाधित नहीं कर सकते। निवेशकों को खुद जोखिम का मूल्यांकन करना चाहिए, और हम उन्हें बेहतर जानकारी देकर सशक्त बना रहे हैं।
NSE के IPO में हो रही देरी और SEBI के अंदर गुटबाजी की खबरें भी सामने आई हैं। इस प्रक्रिया में क्या अड़चनें हैं और कोई समयसीमा तय की गई है?
सबसे पहले तो मैं SEBI के भीतर “गुटबाजी” जैसी किसी बात से इनकार करता हूं- ऐसी कोई बात नहीं है। यह एक सख्त प्रक्रिया है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि अनुपालन, गवर्नेंस और जोखिम प्रबंधन के सभी मानक पूरे हों। मुझे भरोसा है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। NOC प्रक्रिया जल्द ही अंतिम रूप ले सकती है, संभवतः अगले कुछ महीनों में।
पारदर्शिता के संदर्भ में बात करें तो, SEBI के हालिया परिपत्र में ट्रेडमार्क से जुड़ी रॉयल्टी भुगतानों के लिए डिस्क्लोजर अनिवार्य कर दिए गए हैं। कई सूचीबद्ध कंपनियाँ ब्रैंड निर्माण का खर्च उठाती हैं, जबकि प्रमोटर की निजी इकाइयां ट्रेडमार्क का स्वामित्व रखती हैं और भारी रॉयल्टी वसूलती हैं। क्या SEBI यह सुनिश्चित करेगा कि रॉयल्टी केवल कानूनी स्वामित्व के आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक योगदान के संदर्भ में भी न्यायसंगत हो?
इस चुनौती से निपटने के लिए हमने 1 सितंबर से एक मानकीकृत डिस्क्लोजर व्यवस्था लागू की है। अब शेयरधारकों और स्वतंत्र निदेशकों को संबंधित पक्षों के बीच लेन-देन (जिसमें रॉयल्टी भुगतान भी शामिल हैं) की स्पष्ट जानकारी प्राप्त होगी। इससे वे किसी भी असमान शुल्क पर प्रश्न उठा सकते हैं। प्रॉक्सी सलाहकार और शेयरधारक ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकते हैं, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित होती है। हमारा उद्देश्य है ऐसा नियमन तैयार करना जो अल्पसंख्यक निवेशकों की रक्षा करे, लेकिन व्यवसायों पर अनावश्यक बोझ न डाले।
होल्डिंग कंपनियां अक्सर अपनी सहायक इकाइयों की गवर्नेंस में पारदर्शिता की कमी के चलते वैल्यूएशन डिस्काउंट का सामना करती हैं। KK मिस्त्री समिति के डिमर्जर्स पर काम कर रहे होने के मद्देनजर, क्या SEBI ऐसी संरचना पर विचार कर रहा है जो होल्डिंग कंपनियों को बेहतर दृश्यता और नकदी प्रवाह की पहुंच दे सके?
इस विषय को मुझे और गहराई से देखना होगा, लेकिन मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि पारदर्शिता और गवर्नेंस को लेकर हमारी प्रतिबद्धता अडिग है। KK मिस्त्री समिति डिमर्जर के मानदंडों पर विचार कर रही है और हम उन संरचनाओं पर ध्यान देंगे जो दृश्यता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा दें, बगैर कारोबारी दक्षता पर असर डाले। इस दिशा में हम सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं, बने रहिए।
आपके पूर्ववर्ती कार्यकाल में SEBI के कर्मचारियों के मनोबल में गिरावट और विरोध प्रदर्शन जैसी खबरें सामने आई थीं। आप वर्तमान में मनोबल बढ़ाने और SEBI को एक स्मार्ट रेगुलेटर बनाने के लिए क्या उपाय कर रहे हैं?
जवाब: मैं अतीत की घटनाओं पर टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा, लेकिन आज की स्थिति यह है कि हमारी टीम का मनोबल उच्च स्तर पर है। SEBI की सबसे बड़ी ताकत उसकी मानव पूंजी है, यही हमारी असली “फैक्ट्री” है। हम क्षमता निर्माण में निवेश कर रहे हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों को नियमन में एकीकृत कर रहे हैं और एक पेशेवर कार्य संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहे हैं। भारत के पूंजी बाजारों को वैश्विक मंच पर स्थापित करने का बेहतरीन अवसर मिला है, और इसके लिए प्रेरित SEBI सबसे बड़ी कुंजी है।
अंततः, खुदरा निवेशकों का विश्वास दोबारा कायम करने और जेन स्ट्रीट जैसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए SEBI की व्यापक रणनीति क्या है?
मेरी दृष्टि चार मुख्य स्तंभों पर आधारित है: विश्वास, पारदर्शिता, सहयोग और तकनीक। हम नियमों को सरल बना रहे हैं ताकि अनुपालन की प्रक्रिया अधिक सहज हो, निगरानी प्रणालियों को सशक्त बना रहे हैं ताकि अनियमितताओं का त्वरित पता चल सके, और डिस्क्लोजर की गुणवत्ता को इस प्रकार सुधार रहे हैं कि निवेशक अधिक जागरूक और सशक्त बनें। जेन स्ट्रीट प्रकरण में 597 मिलियन डॉलर की राशि सुरक्षित करना और संदिग्ध ट्रेड्स पर रोक लगाना हमारी संकल्पबद्धता का प्रमाण है। हमारा उद्देश्य अति-नियमन करना नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक निवेशकों की रक्षा करना, पूंजी निर्माण को बढ़ावा देना और भारतीय बाजारों को वैश्विक मानकों तक पहुंचाना है। SEBI एक उत्तरदायी, सक्रिय और संतुलित नियामक के रूप में बना रहेगा- विकास और निवेशक सुरक्षा के बीच उपयुक्त संतुलन के साथ।
SEBI किस तरह सूचीबद्ध कंपनियों और अपनी स्वयं की प्रक्रिया में अनुपालन का बोझ घटाते हुए प्रभावी नियमन सुनिश्चित करता है?
हम नियमों की प्रासंगिकता की लगातार समीक्षा कर रहे हैं और उन्हें सरल बना रहे हैं, विशेषकर वहां जहां प्रौद्योगिकी मैनुअल रिपोर्टिंग की जगह ले सकती है, जैसे कि API के जरिए। हम supervisory technology (SupTech) का उपयोग कर रहे हैं और कंपनियों को regulatory technology (RegTech) को अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, ताकि प्रक्रियाएं अधिक सुव्यवस्थित हों और हम उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर सकें। उदाहरण के तौर पर, हमने कंपनियों को अलग-अलग संस्थाओं में विभाजित करने की पूर्व अनिवार्यता को निलंबित किया है, इससे साझा संसाधनों का पारदर्शी उपयोग संभव हो पाया है, जटिलताएँ घटी हैं और नियामकीय स्पष्टता बनी है।
SEBI अनुपालन के सरलीकरण, निवेशक संरक्षण और बाजार विकास के बीच संतुलन किस तरह बनाए रखता है?
हम जोखिम-आधारित नियमन के सिद्धांत को अपनाते हैं, इससे अनुपालक संस्थाओं पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ता और दोषियों पर कठोर प्रवर्तन कार्रवाई की जाती है। निगरानी के लिए हम AI और SupTech जैसे आधुनिक साधनों का उपयोग करते हैं, जैसे कि IPO दस्तावेजों की स्वतः जांच, जिससे हमारी दक्षता बढ़ती है और हम गंभीर जोखिमों पर फोकस कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल अनुपालन के बोझ को घटाता है, बल्कि पूंजी निर्माण को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करता है कि व्यवसाय नियामकीय जटिलताओं से मुक्त होकर सुचारू रूप से कार्य कर सकें- SEBI के निवेशक-अनुकूल और गतिशील बाजार के लक्ष्य के अनुरूप।
बदलते हिंदुस्तान की कहानी है ‘डैला बैला’, हमने बस उसे पर्दे पर उतारा है: नीलेश कुमार जैन
यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका प्रीमियर WAVES OTT पर हुआ। इस फिल्म का डायरेक्शन नीलेश कुमार जैन ने किया है। उन्होंने ही इस फिल्म के डायलॉग्स और गीत लिखे हैं।
नई दिल्ली स्थित आकाशवाणी भवन के रंग भवन ऑडिटोरियम में हाल ही में प्रसार भारती के OTT प्लेटफॉर्म WAVES OTT पर स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध फीचर फिल्म Della Bella: Badlegi Kahaani का प्रीमियर हुआ। यह पहली ऐसी फिल्म है, जिसका प्रीमियर WAVES OTT पर हुआ। इस फिल्म का डायरेक्शन नीलेश कुमार जैन ने किया है। उन्होंने ही इस फिल्म के डायलॉग्स और गीत लिखे हैं। इस प्रीमियर के दौरान समाचार4मीडिया ने नीलेश जैन से इस फिल्म से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सबसे पहले तो आप अपने बारे में बताएं कि आपका अब तक का सफर क्या व कैसा रहा है?
बहुत छोटी सी मेरी कहानी है, बदल जाती है जब तक आती रवानी है। लखीमपुर खीरी में जन्मा मैनपुरी, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में पला-बढ़ा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शताब्दी वर्ष में सचिव रहा, अंग्रेजी पत्रकारिता को… ये कहकर छोड़ दिया कि ‘मेरा लिखा बिका नहीं क्योंकि मैं बिका नहीं’ फिर अचानक सिविल सेवा का अध्यापक बन गया, फिर पीयूष पाण्डे जी और अभिजित अवस्थी जी की प्रेरणा से एडमेकर बना और फिर निर्देशक महेश भट्ट जी के प्रोत्साहन से फिल्म मेकर।
इस तरह के सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की प्रेरणा कहां से मिली और इसकी शुरुआत कैसे हुई?
प्रेरणा अपने समाज में घटित हो रही घटनाओं से ही मिली। आसपास जो बदलाव समाज से सोच तक में देखा जा रहा है, बस उसी को कहानी में पिरोया है। हम तो बस समेटकर दिखा रहे हैं, कहानी तो समाज की ही है।
इस फिल्म को बनने में कितना समय लगा, इसकी शूटिंग किन लोकेशंस पर हुई?
पूरा प्रोसेस तो कई महीनों का था। अधिकांश शूटिंग उप्र के बाराबंकी व लखनऊ में ही हुई। थोड़ा शूट मुंबई के पास पनवेल में भी किया।
‘डैला बैला : बदलेगी कहानी’ ये शीर्षक काफी रोचक है। इसका ख्याल कैसे आया, इस बारे में बताएं?
शीर्षक का सबसे बड़ा गुण ध्यान खींचना होता है और उत्सुकता पैदा करना भी। बॉलीवुड के एक दिग्गज आशीष सिंह ने जब इस शीर्षक को पहली बार सुना तो उन्होंने इसके पीछे की सोच को सराहा। इंटरनेट पर फिल्म का नाम अनाउंस होते ही ‘डैला बैला’ का सर्च शुरू हो गया था और लोग समझ गए थे कि इस साधारण-सरल कहानी में कुछ न कुछ ज़रूर बदलेगा, उत्सुकता की उसी डोर को पकड़कर दर्शक बैठा रहा और हंसी के आंसुओं ने आखिरकार अपना रूप बदल ही लिया। वैसे ‘डैला बैला’ का समेकित अर्थ एक ऐसी लड़की से है जिसका व्यक्तित्व आकर्षक होता है, जो अपने फैसले खुद लेने की ताक़त रखती है। वो समझदार भी होती है और रचनात्मक होने के साथ-साथ एक अच्छी दोस्त भी।
फिल्म में आप 'कहानी बदलने' की बात करते हैं। आप किस सामाजिक या मानसिक बदलाव को दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं?
दरअसल, ये आज के बदलते हिंदुस्तान की कहानी है। ये समाज में आ रहे भौतिक परिवर्तनों से लेकर भाविक परिवर्तनों तक की कहानी है। इसे मैंने जीएसटी की कहानी कहा है, वो जीएसटी नहीं बल्कि ‘ग्रेट सोशल ट्रांसफॉर्मेशन’ की कहानी कहा है।
फिल्म की कहानी क्या किसी सच्ची घटना से प्रेरित है या यह पूर्ण रूप से काल्पनिक है?
एक बड़े मकसद को सामने रखकर युवा लेखिका सान्या ने इस कहानी का खांचा खींचा है। इसलिए कल्पना तो है ही लेकिन कहीं न कहीं सच्ची घटना भी पीछे से दरवाजा खटखटा रही है। उसके साथ वरिष्ठ लेखक रूप जी व नीरज ने भी स्क्रीनप्ले को सहज गति का रखा है। पटकथा में कोई भगदड़ नहीं है। न कैमरा वर्क या एडिटिंग में।
फिल्म की शूटिंग के दौरान कलाकारों और निर्देशक को किन सबसे बड़े चैलेंजों का सामना करना पड़ा?
यूपी की ठंड का और उस भोलेपन को बनाए रखने का चैलेंज था जो आज भी छोटे शहरों में अपना घोंसला बनाकर रहता है। वैसे उप्र की जनता और फिल्म बंधु के सहयोग ने हर चैलेंज को आसान बना दिया।
फिल्म की शूटिंग या स्क्रिप्टिंग के दौरान कोई ऐसा लम्हा या अनुभव रहा जो टीम के लिए हमेशा यादगार रहेगा?
टाइटल गीत की शूटिंग के दौरान फिल्म की लीड आशिमा वर्द्धन जैन के पैरों में छाले पड़ गए थे क्योंकि बेलीज पहनकर डांस करना था और कोरियोग्राफ़र मुदस्सर खान के लिए ये पहला मौका था जब किसी डायरेक्टर ने उनसे कहा था कि परफेक्शन नहीं चाहिए क्योंकि कहानी के हिसाब से डैला-बैला के पैर में चोट लगने के बाद का डांस है। इसीलिए सहज बनाने के लिए जरूरत से ज्यादा टेक लेने पड़े और आशिमा के पैरों में छाले पड़ गए।
क्या यह फिल्म स्कूल, कॉलेज या सरकारी संस्थानों में भी दिखाई जाएगी ताकि इसका सामाजिक संदेश अधिक लोगों तक पहुंचे?
बिजनौर के एक कॉलेज में ये रिलीज के दूसरे दिन ही दिखाई गई। मुंबई के एक बड़े स्कूल के मुख्य संचालक ने दिल्ली में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा आयोजित प्रीमियर में इस फिल्म को देखकर मुझसे इस फ़िल्म को अपने सभी स्कूलों कॉलेजों में स्मार्ट टीवी पर दिखाने की बात कही है। बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं, ये स्वस्थ मनोरंजन और ‘सिंपल सिनेमा’ की मेरी अवधारणा की जीत है।
इस फिल्म से समाज में लड़कियों के प्रति सोच बदलने की कितनी उम्मीद है?
समाज तो बाद में आता है पहले लड़कियों को ख़ुद इस बदलाव की मशाल उठानी होगी और इसका ये संदेश समझना होगा कि ‘ख़ुद की तलाश किसी और के साथ नहीं हो सकती’, ‘ज़िंदगी के छोटे दायरों से बाहर आना ही होता है’ और ये भी कि ‘कुछ सफ़र अकेले ही तय करने होते हैं, अपना स्ट्रगल खुद ही करना होता है।
आज की तेजी से बदलती डिजिटल दुनिया में जब व्यावसायिक कंटेंट हावी है, ऐसे में सामाजिक और संवेदनशील विषयों पर आधारित फिल्मों के लिए दर्शक कितने तैयार हैं, इस बारे में आपका क्या मानना है?
दर्शक पूरी तरह तैयार हैं पूरी दुनिया में ये फ़िल्म देखी जा रही है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो तब हुआ जब ये पता चला कि विदेशों में लोग एक-दूसरे को इस फिल्म को दिखा रहे हैं। खुद वेव्स ओटीटी डाउनलोड कर रहे हैं। अगर अमेरिका में इसे सराहा जा रहा है तो आस्ट्रेलिया में भी। ओमान, बहरीन, दुबई, सिंगापुर, जर्मनी, इंग्लैंड, साउथ अफ़्रीका व अन्य जगहों पर भी लोग इंग्लिश सबटाइटल के साथ इसे देख रहे हैं। फ़िल्म के गाने भी मिलियन व्यूज क्रास कर गये हैं। राज आशू के गीत-संगीत का ये एक नया दौर है और शान, हंसिका अय्यर, स्वाती शर्मा और सीपी झा की आवाज का भी। ये फिल्म वर्ड ऑफ माउथ से पूरी दुनिया में फैलती जा रही है। आप ख़ुद एआई के माध्यम से टाइप करें ‘ग्लोबल रिस्पांस ऑफ़ डैला बैला बदलेगी कहानी’ और स्वयं पढ़ लें कि दर्शकों की प्रतिक्रिया क्या है और वो ऐसी फिल्मों के लिए कितना तैयार हैं?
क्या भविष्य में इसी तरह के किसी अन्य सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की योजना है?
मैं हमेशा ही मनोरंजन की ऊपरी परत के नीचे किसी न किसी सामाजिक संदेश की परत लेकर ही फ़िल्में बनाऊंगा, क्योंकि मैं मानता हूं मनोरंजन फ़िल्म के साथ खत्म नहीं होना चाहिए, उसे अपने अनकहे संदेश से हमेशा मन-मानस का रंजन करना चाहिए। आगे आनेवाली फिल्म में भी एक बेहद गंभीर मुद्दा है पर वो फिल्म भी गुदगुदाते हुए ही अपनी बात कहेगी।
यह फिल्म दर्शकों को कहां देखने को मिलेगी?
सबसे अच्छी बात ये है कि ये फ़िल्म WAVES OTT पर उपलब्ध है जिसे कोई भी अपने मोबाइल फोन, स्मार्ट टीवी, लैपटॉप या कम्प्यूटर पर फ़्री डाउनलोड कर सकता है और फ़्री में देख भी सकता है। WAVES OTT को प्ले स्टोर या ऐप स्टोर से बहुत आसानी से डाउनलोड कर सकते हैं। वहां WAVES OTT या WAVES PB लिखने से ऑप्शन दिखने लगेगा। उसको डाउनलोड करके अपनी भाषा चुनिए और फिर फोन नंबर भरकर ओटीपी डालकर फ़िल्म का नाम सर्च करके मुफ़्त में इस फ़िल्म का आनंद लीजिए। यह फिल्म दूरदर्शन पर भी दिखाई जाएगी।
'यही विविधता हमें जटिल मुद्दों को समझदारी व संवेदनशीलता के साथ दिखाने में मदद करती है'
‘i24NEWS’ के चेयरमैन फ्रैंक मेलौल ने ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के सीनियर एडिटर रुहैल अमीन के साथ बातचीत में फेक न्यूज की चुनौती, मीडिया में भरोसे की बहाली और टीवी पत्रकारिता के भविष्य पर बेबाक राय साझा की है।
‘i24NEWS’ के चेयरमैन फ्रैंक मेलौल (Frank Melloul) ने इस इजरायली अंतरराष्ट्रीय न्यूज नेटवर्क को वैश्विक मीडिया में एक अलग पहचान दी है। उनका उद्देश्य था-मध्य पूर्व की स्टोरीज को दुनिया के सामने एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक दृष्टिकोण से रखना, जो सिर्फ संघर्षों तक सीमित न हों, बल्कि टेक्नोलॉजी, संस्कृति और मानवीय प्रयासों को भी दर्शाएं।
डिप्लोमेसी, मीडिया स्ट्रैटेजी और इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग के तीनों क्षेत्रों में उनके अनुभव ने उन्हें इस बात की गहरी समझ दी है कि पत्रकारिता किस तरह वैश्विक छवि और भू-राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करती है। ‘एक्सचेंज4मीडिया’ के सीनियर एडिटर रुहैल अमीन के साथ एक विस्तृत बातचीत में फ्रैंक मेलौल ने संघर्ष क्षेत्रों में पत्रकारिता की भूमिका, फेक न्यूज़ की चुनौती, न्यूज मीडिया में भरोसे की बहाली और टीवी पत्रकारिता के भविष्य पर अपनी बेबाक राय साझा की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
वैश्विक मीडिया परिदृश्य में आपने क्या कमी देखी जिसके कारण आपने इजराइल से i24NEWS की शुरुआत की?
जब मैंने i24NEWS की शुरुआत की, तब ये साफ था कि इजराइल के पास ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय मंच नहीं था जो इसकी कहानी दुनिया तक निष्पक्षता के साथ पहुंचा सके। इजराइल एक जीवंत लोकतंत्र और इनोवेशन हब है, लेकिन इसकी छवि अकसर अधूरी या पक्षपाती रूप में सामने आती थी। मैंने ऐसा प्लेटफॉर्म बनाना चाहा जो अंग्रेजी, हिब्रू, फ्रेंच और अरबी में बात कर सके और सिर्फ टकराव नहीं, बल्कि इनोवेशन, संस्कृति और मानवीय जिजीविषा की कहानियों को भी सामने लाए।
जब मैंने मीडिया की वैश्विक तस्वीर देखी, तो मुझे यह महसूस हुआ कि इजराइल या पूरे मध्य पूर्व को लेकर एकतरफा नैरेटिव चलाया जाता है। इसी असंतुलन को दूर करने के लिए हमने i24NEWS की शुरुआत की, ताकि यहां से पूरी दुनिया को तथ्यपरक, संतुलित और विविध दृष्टिकोणों से खबरें मिल सकें। यह चैनल अंग्रेज़ी, फ्रेंच और अरबी तीन भाषाओं में काम करता है ताकि अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचा जा सके।
अन्य ग्लोबल मीडिया आउटलेट्स से i24NEWS किस तरह अलग है?
हम सिर्फ इजराइल पर रिपोर्टिंग नहीं करते,बल्कि यहीं से प्रसारण भी करते हैं। इस क्षेत्र को हम अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए हमारी नजरिया भी अलग होता है। हमारी टीमों में 35 देशों के लोग शामिल हैं, जो हमारे न्यूजरूम को विविधता और संतुलन देते हैं। यही विविधता हमें जटिल मुद्दों को समझदारी और संवेदनशीलता के साथ दिखाने में मदद करती है। सबसे ज़रूरी बात यह है कि हम तथ्यों पर भरोसा करते हैं, न कि किसी राय पर। हम अपनी तरफ से स्टोरी को मोड़ते नहीं, बल्कि जैसी घटना होती है, वैसी ही रिपोर्ट करते हैं—ताकि दर्शक अपनी राय खुद बना सकें।
आप अक्सर यह कहते हैं कि पत्रकारिता में लोगों का भरोसा लौटाना बहुत जरूरी है। i24NEWS इस भरोसे के संकट को कैसे दूर करता है?
आज मीडिया पर लोगों का भरोसा कम हो गया है। क्योंकि कई बार खबरों में पक्षपात, भ्रामक बातें और सनसनी होती है। लेकिन i24NEWS में हम खबर दिखाने से पहले हर तथ्य की पूरी जांच करते हैं, राय और खबर को अलग रखते हैं। मैं मानता हूं कि भरोसा एक दिन में नहीं बनता। हर दिन, हर खबर के साथ उसे कमाना पड़ता है।
आप कहते हैं कि मीडिया इजराइल के साथ पक्षपाती व्यवहार करता है। क्या आप इसकी वजह बता सकते हैं?
हां। मेरा मानना है कि इजराइल एक खुला लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद कई बार दोहरे मापदंडों का शिकार होता है। दुनिया भर में इजराइल से जुड़ी खबरों को जिस तरह दिखाया जाता है, उसमें अक्सर संतुलन की कमी होती है। हमें आलोचना से परेशानी नहीं है, लेकिन हम चाहते हैं कि रिपोर्टिंग निष्पक्ष हो। जब भी इजराइल की खबरें दिखाई जाती हैं, तो उस समय का पूरा संदर्भ समझना जरूरी होता है और अक्सर वही संदर्भ नहीं दिखाया जाता। इसलिए मैं मानता हूँ कि मीडिया की रिपोर्टिंग में इजराइल के साथ भेदभाव हुआ है, सिर्फ खबरें दिखाने के तरीके से नहीं, बल्कि उस एकतरफा नजरिए और चुनिंदा जांच के कारण जो बार-बार सामने आता है।
युद्ध और अशांति के समय, मीडिया को क्या भूमिका निभानी चाहिए, विशेषकर इजरायल-गाजा संघर्ष जैसी घटनाओं के दौरान?
मीडिया का काम जानकारी देना है, लोगों की भावनाएं भड़काना नहीं। संघर्ष के समय सच्चाई सबसे पहले शिकार बनती है। ऐसे में हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम शांत रहें, हर तथ्य की पुष्टि करें और हर पक्ष की बात सामने लाएं, चाहे वह हमारे लिए असहज ही क्यों न हो। i24NEWS ने इज़राइल-गाजा जैसे संघर्षों के दौरान भी बिना सनसनी फैलाए रिपोर्टिंग की। यह सिर्फ हेडलाइन की बात नहीं है, यह मानव जीवन, भू‑राजनीति और दीर्घकालिक परिणामों की बात है।
तकनीकी में तेजी से हो रहे बदलावों के दौर में न्यूजरूम खुद को कैसे अपडेट रखें ताकि पीछे न छूटें?
यह बहुत जरूरी है, क्योंकि आज का दर्शक डिजिटल, मोबाइल और दुनियाभर से जुड़ा है। हमने नए स्टूडियो, आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया से जुड़ाव पर ध्यान दिया है। लेकिन बदलाव सिर्फ मशीनों से नहीं होता, सोच से होता है। इसका मतलब है नए तरीके अपनाना, दर्शकों से जुड़ना और ऐसी स्टोरीज कहना जो उन्हें गहराई से छू सकें।
क्या आपका नेटवर्क इजराइल से संचालित होने से आपकी पत्रकारिता पर किसी तरह का दबाव या निगरानी बढ़ जाती है?
बिल्कुल, इजराइल में रहते हुए हमारी पत्रकारिता पर हर वक्त नजर रखी जाती है, खासकर जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ कहते हैं। लेकिन यही बात हमें और मजबूत बनाती है। हम हर खबर को पूरी सटीकता, पारदर्शिता और जिम्मेदारी से बताते हैं। इस दबाव ने हमें बेहतर काम करना सिखाया है, क्योंकि यहां गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती।
आपके मुताबिक, एआई जैसी नई तकनीकें पत्रकारिता को कैसे बदल रही हैं, खासकर फेक न्यूज से लड़ने में?
एआई एक ताकतवर टूल है, लेकिन यह फायदे के साथ-साथ नुकसान भी पहुंचा सकता है। इससे न्यूज़रूम तेजी से काम कर सकते हैं और ज़्यादा असरदार बन सकते हैं, लेकिन अगर ठीक से इस्तेमाल न हो तो यह गलत जानकारी भी बहुत फैला सकता है। पत्रकारिता का भविष्य सच की जांच, इंसानी समझ और नैतिक मूल्यों पर टिका है। हम i24NEWS में एआई का इस्तेमाल करने के तरीके ढूंढ रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि संपादकीय नैतिकता बनी रहे।
i24NEWS की अब संयुक्त अरब अमीरात और उसके बाहर भी मौजूदगी बढ़ रही है। आप इस विस्तार को कैसे देखते हैं?
यह दिखाता है कि मध्य पूर्व अब कैसे बदल रहा है। दुबई में हमारा दफ्तर सिर्फ़ दिखावे के लिए नहीं है, बल्कि एक सोच-समझकर उठाया गया कदम है। अब्राहम समझौते ने कई नए मौके पैदा किए हैं, और हम उस बातचीत का अहम हिस्सा बनना चाहते हैं। हमारा मकसद लोगों को जोड़ना है, दूर करना नहीं।
लोगों को आप i24NEWS के बारे में सबसे ज़्यादा क्या बात समझाना चाहते हैं?
हम यहां पूरी बात तथ्यात्मक रूप से बताने के लिए हैं। चाहे वह राजनीति से जुड़ी हो, तकनीक से या किसी लोगों के अनुभव से। हमारा मकसद लोगों के सामने सच्ची बातें लाना है। हम इजराइल का प्रचार नहीं करते। हम सच्चाई के साथ हैं, बातचीत के पक्ष में हैं और सच्ची पत्रकारिता का समर्थन करते हैं।
‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर’ बनीं Stryker India की गीतिका बांगिया, साझा की अपनी जर्नी
गीतिका बांगिया ने ‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर’ अवॉर्ड जीतने के अनुभव, अपने करियर की यात्रा, इससे मिली अहम सीखों और कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में अब तक सामने आई चुनौतियों के बारे में बात की।
कम्युनिकेशन इंडस्ट्री के निर्माण में महिलाओं की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है, भले ही उनकी कहानियां हमेशा सुर्खियों में न रही हों। इस क्षेत्र में कई ऐसी असाधारण महिलाएं हैं जिनकी प्रतिभा हमारी दुनिया को आकार देती है, वे सहानुभूति और नवाचार को ऐसे जोड़ती हैं जिससे संवाद अधिक मानवीय, समावेशी और प्रभावशाली बनता है।
आज की यह प्रस्तुति गीतिका बांगिया, हेड – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशंस, स्ट्राइकर इंडिया की उपलब्धियों को समर्पित है। गीतिका को हाल ही में e4m PR & Corp Comm Women Achievers Awards 2024 में ‘कम्युनिकेटर ऑफ द ईयर (कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन प्रोफेशनल)’ का सम्मान मिला है। यहां पढ़िए उनकी सफलता की खूबियां-
कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में आपकी यात्रा कैसी रही? एक महिला लीडर के रूप में अपने अनुभव और चुनौतियां साझा करें।
मेरा कम्युनिकेशन करियर करीब दो दशकों से अधिक का है। यह उस दौर से शुरू हुआ जब प्रेस रिलीज फिजिकली भेजी जाती थी और अब डिजिटल युग और व्यापक स्टेकहोल्डर एंगेजमेंट के जमाने तक पहुंच गया है।
एक महिला लीडर के तौर पर कई बार ऐसे अनुभव हुए जब मेरी बातें तब तक अनसुनी रहीं जब तक वही बातें किसी पुरुष सहयोगी ने नहीं दोहराईं। इन अनुभवों ने मुझे नेतृत्व के तौर-तरीके सिखाए और यह भी कि महिलाओं के लिए और खुद अपने लिए, मजबूती से खड़ा होना कितना जरूरी है।
महामारी के दौर ने यह साफ कर दिया कि इमोशनल इंटेलिजेंस एक अहम बिजनेस एसेट है। संकट प्रबंधन और ब्रैंड स्टोरीटेलिंग में सहानुभूति की रणनीतिक भूमिका को पहली बार इतने व्यापक रूप में पहचाना गया। आज की सबसे बड़ी चुनौती है, हमेशा जुड़े रहने वाले इस दौर में प्रोफेशनल जिम्मेदारियों और निजी जीवन के बीच संतुलन बनाना। मैंने पाया है कि प्रामाणिक नेतृत्व हमारे हाइब्रिड कार्य वातावरण में टीमों के बीच मजबूत जुड़ाव पैदा करता है और काम की प्रभावशीलता बढ़ाता है।
PR और कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में सफलता पाने के लिए महिला लीडर्स में कौन-कौन सी स्किल्स और खूबियां होनी चाहिए?
किसी भी प्रभावशाली लीडर में तकनीकी जानकारी के साथ कुछ मूल क्षमताओं का संतुलन होना जरूरी है। सबसे पहले – स्टोरीटेलिंग की कला। यानी ऐसे नैरेटिव्स रचना जो सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में ब्रैंड की प्रासंगिकता को दर्शाएं। दूसरा – रणनीतिक लचीलापन। यानी फुर्तीले जवाबों और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के बीच संतुलन। सफल लीडर्स आने वाले बदलावों की पहले से आहट लेते हैं और जब योजनाएं बदलती हैं तब भी शांत रहते हैं। और तीसरा – इमोशनल इंटेलिजेंस। यानी स्टेकहोल्डर्स के दृष्टिकोण को समझना और प्रामाणिक संबंध बनाना। आज के माहौल में, जब दर्शक नेतृत्व से सच्चे जुड़ाव की अपेक्षा रखते हैं, यह स्किल बेहद मूल्यवान बन गई है।
इन सभी क्षमताओं को एक साथ साधना ही उन कम्युनिकेशन लीडर्स को अलग करता है जो संबंध-निर्माण और प्रामाणिकता को प्राथमिकता देते हैं।
कम्युनिकेशन इंडस्ट्री में करियर की शुरुआत कर रही युवतियों को आप क्या सलाह देंगी?
मेरी सलाह है:
दूसरों की तरह बनने की कोशिश मत करो, अपनी बात कहने का खुद का तरीका अपनाओ। तुम्हारी सोच अलग है और वही तुम्हें खास बनाती है।
पारंपरिक लेखन कौशल के साथ-साथ नए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को भी समझें। आज के कामयाब कम्युनिकेटर वही हैं जो तकनीक और मूल कौशल का मेल जानते हैं।
ऐसे प्रोफेशनल रिश्ते बनाएं जो आपसी मूल्य पर आधारित हों। विविध अनुभवों वाले मेंटर्स से जुड़ें।
रचनात्मकता और विश्लेषणात्मकता दोनों को विकसित करें। आधुनिक कम्युनिकेशन में कहानी सुनाने की कला के साथ-साथ डाटा को समझने की क्षमता भी जरूरी है।
सीखने, पुराना छोड़ने और फिर से सीखने से कभी पीछे न हटें। इससे आप लगातार बेहतर बनते हैं।
e4m PR & Corp Comm Women Achievers Awards 2024 जीतने पर आपको कैसा लग रहा है?
यह अवॉर्ड मेरे लिए प्रोफेशनल मान्यता और व्यक्तिगत विनम्रता दोनों लेकर आया है। यह सिर्फ मेरे काम का नहीं, बल्कि इस इंडस्ट्री में महिलाओं के नेतृत्व की बढ़ती स्वीकार्यता का सम्मान है।
अपने करियर के शुरुआती दिनों को याद करती हूं तो महिलाओं की नेतृत्व भूमिकाएं बेहद कम थीं। ऐसे में आज यह सम्मान मेरी टीम के साथ साझा करना और युवा प्रोफेशनल्स के लिए प्रेरणा बनना मेरे लिए बहुत मायने रखता है। एक युवा सहयोगी ने मुझसे कहा कि इस तरह की पहचान देखकर उसे पहली बार महसूस हुआ कि उसका करियर भी असीमित संभावनाओं से भरा हो सकता है।
यह सम्मान उपलब्धि भी है और जिम्मेदारी भी। अगली पीढ़ी की महिलाओं के लिए और ज्यादा अवसरों का मार्ग प्रशस्त करने की प्रेरणा।
'एक्सचेंज4मीडिया' टीम का धन्यवाद, जिन्होंने इस तरह के मंचों की रचना की।