Published At: Wednesday, 23 January, 2019 Last Modified: Thursday, 24 January, 2019
राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार।।
चोरी न करें, झूठ न बोलें तो क्या करें? चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को।
कुछ साल पुरानी बात है। एक दिन एक फोन आया। एक प्रदेश की राजधानी से। वो जनाब ख़ुद को पत्रकार बता रहे थे। बोले-एक चैनल दिला दीजिए। ऊपर वाले की मेहरबानी से पैसे का संकट नहीं है। इसलिए पैसे नहीं चाहिए। केवल चैनल का लोगो वाला माइक चाहिए। जो भी इसकी क़ीमत होगी, दे दूंगा।
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मैंने कहा, ‘भई! ऐसा कहीं होता है? चैनल वाले बेचते नहीं हैं। आपको तो रिपोर्टिंग का पैसा देंगे चैनल वाले। आपसे पैसा क्यों लेंगे’? बोले, ‘सर! अब इलाक़े के कई चैनल ऐसे ही चल रहे हैं। माइक आईडी मिलती है। ज़िले वाले को उसका मंथली देना होता है प्रदेश वाले हेड को। प्रदेश वाले ने फ्रेंचाइजी ली है। वह ऊपर देता है। जिसके पास लाइसेंस है उसको। हर महीने ऊपर वाला तकाज़ा करता है प्रदेश वाले को। प्रदेश वाला पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट से मांगता है। मलाई वाले विभागों के अफसरों से मांगता है। पुलिस वालों से मांगता है। रिपोर्टरों से मांगता है। रिपोर्टर खबर के पैसे मांगता है। फिर कोटा पूरा होता है।‘ मैंने सुनकर हाथ जोड़ लिए। बात आई गई हो गई।
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अब एक बार फिर से ख़बरें मिलने लगी हैं। फ्रेंचाइजी धंधा ज़ोरों पर है। लोगो-धंधा ज़ोरों पर है। नए नवेले छोटे-छोटे चैनल कैसे चलेंगे? विधानसभा चुनाव में रैलियों का कवरेज सरकारी ख़र्चे पर हुआ। एक-एक मिनट जोड़कर बिल लगे। भुगतान हुआ। कई छोटे चैनलों के भी बिल कटे। भुगतान नहीं हुआ। पार्टी हार गई। अब शायद होगा भी नहीं। इसलिए अब ख़र्च निकालने के लिए चैनलों के सामने संकट है। इसलिए लोगो बेचने का धंधा फिर ज़ोरों पर है। तक़लीफ़ यह है कि गेहूं के साथ घुन भी पिस रहा है। अच्छे चैनल भी हैं और पत्रकार भी हैं। मगर चंद मछलियां सारे तालाब को गंदा करने में लगी हुई हैं। लोग यही समझने लगते हैं कि सारे पत्रकार ऐसा करते हैं या पत्रकारिता ऐसी ही होती है। हर खबर बिकने लगी है-यह धारणा बनती जा रही है।
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और बेचारे स्ट्रिंगर्स क्या करें? उनकी तो और भी मुसीबत है। चैनलों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। खबर न भेजो तो एक झटके में बाहर। अगर भेजो तो हर समाचार के लिए कैमरामैन, कैमरा, कवरेज स्थल तक जाने -आने का डीज़ल/पेट्रोल खर्च हो जाता है। दिन भर का कवरेज या आधा दिन का कवरेज हो तो चाय-पानी या भोजन का खर्च अलग से। लौटकर एफटीपी के लिए कम्प्यूटर, इंटरनेट और बिजली का बोझ भी उठाना पड़ता है। चैनल की मेहरबानी से खबर लग गई तो उसका भुगतान हो जाता है। नहीं लगी तो जयहिन्द। दिन भर की मेहनत पानी में। और मिलता भी है तो एक खबर का कहीं 500, कहीं 800, कहीं 1000 तो कहीं 1200 रुपए। वह भी चार से छह महीने बाद। इतने में क्या किसी पत्रकार का घर चलता है? फिर रोज़ तो ख़बर लगती नहीं। महीने में बमुश्किल दस-पंद्रह खबरें हो पाती हैं। स्ट्रिंगर दूसरा धंधा न करे तो क्या करे-मैंने अदब से हाथ उठाया सलाम को/समझा उन्होंने, इससे है ख़तरा निज़ाम को/चोरी न करे, झूठ न बोले तो क्या करे?चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को/माइक आईडी किराए पर देकर या बेचकर, स्ट्रिंगर्स का शोषण करके पत्रकारिता का भला नहीं कर रहे हैं हम मिस्टर मीडिया!
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