जून 1975 का महीना था। देश में इमरजेंसी लग चुकी थी। जेपी आंदोलन से डरीं इंदिरा गांधी...
अजीत अंजुम
वरिष्ठ पत्रकार ।।
जून 1975 का महीना था। देश में इमरजेंसी लग चुकी थी। जेपी आंदोलन से डरीं इंदिरा गांधी और उनके सिपहसालारों की टोली अखबार मालिकों और संपादकों को सेंसरशिप से हंटर हांक रही थी। ज्यादातर संपादक साष्टांग दंडवत कर चुके थे। कोई आधा झुका था। कोई लेट चुका था। संजय गांधी सरकार में सीधे तौर पर नहीं कुछ होते हुए भी सब कुछ थे। मां देश की प्रधानमंत्री थीं। बेटा उनके नाम पर कुछ भी करने की हैसियत रखता था। प्रेस को कैसे काबू में रखना है और संपादकों से कैसे अपने पक्ष में मुनादी करवानी है, इसकी प्लानिंग संजय गांधी और उनके हुकुम के गुलाम मंत्री दिन रात कर रहे थे। तीन दिन के भीतर सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को सिर्फ इसलिए योजना आयोग में शंट कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने मां की जगह बेटे की बात न मानकर हुक्म उदूली करने की गुस्ताफी कर दी थी।
गुजराल की जगह संजय के सबसे खास दरबारी और ढिंढोरची विद्या चरण शुक्ला को सूचना प्रसारण मंत्रालय की कमान सौंप दी गई थी। शुक्ला संजय का हुक्म बजाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। इमरजेंसी के नाम पर कायदे-कानून को अपने जेब में रखने वाले वीसी शुक्ला को संजय गांधी ने कुलदीप नैयर को कंट्रोल करने का टास्क दिया था।
खुशवंत सिंह जैसे मठाधीश पत्रकार इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शान में सजदे कर रहे थे, तब कुलदीप नैयर जैसे फाइटर पत्रकार-संपादक ही थे, जो सलाखों की परवाह किए बगैर चौथे खंभे की बुनियाद थामे बैठे थे। एक तरफ अखबारों का गला घोंटकर घुटने पर लाने की कवायद में जुटी संजय गांधी की सेना, दूसरी तरफ कुलदीप नैयर जैसे चंद पत्रकार। इमरजेंसी पर लिखी उनकी किताब - EMERGENCY RETOLD और ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में उस दौर की दास्तान दर्ज हैं।
वो कुलदीप नैयर ही थे, जिन्होंने इमरजेंसी लागू होने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखकर उनके तानाशाही रवैये की न सिर्फ जोरदार मुखालफत की थी, बल्कि इमरजेंसी के खिलाफ पत्रकारों को लामबंद करना शुरू किया था। वो तारीख थी 3 जुलाई 1975, जब कुलदीप नैयर की अपील पर दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों के जमावड़ा लगा था। कुलदीप नैयर की तरफ से तैयार प्रस्ताव पर बहुत से पत्रकारों ने दस्तखत किए थे और उसे पीएम, प्रेसिडेंट और सूचना प्रसारण मंत्री को भेज दिया गया। कुछ ही मिनटों बाद संजय गांधी के हुक्म के गुलाम और इंदिरा गांधी की किचन कैबिनेट के ताकतवर सदस्य वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को फोन करके मिलने बुलाया। उनका पहला सवाल था- ‘वह लव लेटर कहां है?’ कुलदीप नैयर ने हंसते हुए कहा- ‘मेरी तिजोरी में।’ नैयर को बेफिक्र देखकर वीसी शुक्ला ने पैंतरा बदला। धमकाने वाले अंदाज में कहा- ‘मुझसे बहुत से लोग कह चुके हैं कि आपको गिरफ्तार कर लेना चाहिए। आपको कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है।’
सरकार और शुक्ला जैसे मंत्रियों को इतनी ताकत उन बड़े पत्रकारों के समर्थन से भी मिली थी, जो इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे। जिस दिन वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को गिरफ्तारी का डर दिखाने के लिए बुलाया था, उसी दिन इंडियन एक्सप्रेस में उनका साप्ताहिक कॉलम छपा था- ‘नाट इनफ्फ मिस्टर भुट्टो’। लेख लिखा तो गया था पाकिस्तान के बारे में लेकिन इशारा भारत के हालात की तरफ था। पाकिस्तान में जुल्फीकार अली भुट्टो और फील्ड मार्शल अयूब खान के कार्यकाल की तुलना करते हुए नैयर ने लिखा था- ‘सबसे बुरा कदम उन्होंने लोगों का मुंह बंद करके उठाया है। प्रेस के मुंह पर ताला लगा है और विपक्ष के बयानों को सामने नहीं आने दिया जा रहा है। मामूली सी आलोचना भी बर्दाश्त नहीं की जा रही है।’
चूंकि इमरजेंसी की वजह से सीधे तौर पर इंदिरा सरकार के खिलाफ नहीं लिखा जा सकता था इसलिए कुलदीप नैयर ने चालाकी से पाक के बहाने भारत का हाल बयान किया था। वीसी शुक्ला ने नैयर को कहा कि ‘सरकार में बैठे लोग बेवकूफ नहीं है। कोई भी समझ सकता है कि इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की बात की जा रही है।’
कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ ऐसा मोर्चा खोल रखा था कि सरकार के सिपहसालार बौखलाए हुए थे। सेंसर को चमका देने के लिए कुलदीप नैयर ने वीसी शुक्ला की धमकी के बाद दो लेख और लिखे। इस बार दोनों लेखों में अमेरिका के बहाने इशारों में भारत की बात की गई। कुलदीप नैयर ने 10 जुलाई 1975 को लिखा- प्रजातंत्र का उपदेश देने वालों के हाथ खून से रंगे पाए गए। राष्ट्रपति निकसन किसी भी दूसरे राष्ट्रपति की तुलना में ज्यादा मतों से जीते थे फिर प्रेस और जनमानस के आगे उन्हें झुकना पड़ा और सत्ता से बाहर होना पड़ा। इस लेख के छपते ही सेंसर अधिकारियों ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को निर्देश दिया कि कुलदीप नैयर या उनके किसी छद्म नाम से कोई भी लेख सेंसर को दिखाए बिना अखबार में नहीं छपना चाहिए। इसी के बाद कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी हो गई थी।
गिरफ्तारी के पहले कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी के खिलाफ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कड़ी चिट्ठी लिखी थी। कुलदीप नैयर लिखा था-
‘मैडम, किसी अखबार वाले के लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि उसे कब मुंह खोलना चाहिए। वह जानता है कि ऐसा करके वह कहीं न कहीं किसी न किसी को नाराज करने का खतरा उठा रहा है। एक आम आदमी की तुलना में सरकार में सच्चाई को छिपाने और इसके प्रकट होने पर भयभीत होने की प्रवृति कहीं ज्यादा होती है। प्रशासन में ऊंचे पदों पर बैठे व्यक्ति यह मानकर चलते हैं कि वे और सिर्फ वे यही बात जानते हैं कि राष्ट्र को कब, कैसे और कितना बताना चाहिए। इसलिए अगर कोई ऐसी खबर छपती है, जिसे वो नहीं बताना चाहते तो उन्हें बहुत गुस्सा आता है। एक स्वतंत्र समाज में इमरजेंसी के बाद आप कई बार कह चुकी हैं कि आप इस धारणा में निष्ठा रखती हैं। प्रेस को जनता को सूचित करने के अपने कर्तव्य का पालन करना पड़ता है। अगर प्रेस सिर्फ सरकारी वक्तव्यों और सूचनाओं का प्रकाशन करता रहेगा तो चूकों, कमियों और गलतियों पर कौन उंगली उठाएगा?’
कुलदीप नैयर के इस पत्र का जवाब इंदिरा गांधी की तरफ से उनके सूचना सलाहकार शारदा प्रसाद ने दिया। शारदा प्रसाद ने इमरजेंसी के दौरान प्रेस सेंसर को सही ठहराते हुए लिखा- ‘अगर पिछले कुछ हफ्तों से सेंसरशिप लागू की गई है तो इसका कारण कोई व्यक्तिगत या सरकारी अति संवेदनशीलता नहीं है। इसका कारण यह है कि कुछ अखबार विपक्षी मोर्चे का अभिन्न अंग बन गए थे। इन पार्टियों को राष्ट्रीय जीवन को अस्त व्यस्त करने की उनकी योजना को कार्यान्वित करने से रोकना जरुरी हो गया था। प्रेस पर लगाए प्रतिबंधों के बाद पिछले कुछ दिनों में स्थिति में सचमुच सुधार हुआ है। प्रेस की आजादी व्यक्तिगत आजादी का ही हिस्सा है, जिसे किसी भी देश को राष्ट्रीय आपातकाल के समय में अस्थाई रुप से सीमित करना पड़ता है।’
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है- मुझे सबसे ज्यादा ठेस यह सुनकर पहुंची थी कि कुछ संपादक इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे तो उन्होंने पूछा था कि हमारे ‘नामी’ पत्रकारों को क्या हो गया था क्योंकि एक भी कुत्ता नहीं ‘भौंका’ था। मैंने कुछ अखबारों और न्यूज एजेंसियों के चक्कर लगाकर 28 जून की सुबह दस बजे प्रेस क्लब में जमा होने को कहा। अगली सुबह मैं वहां पत्रकारों का जमघट देखकर हैरान रह गया था, जिनमें कुछ संपादक भी शामिल थे। बकौल कुलदीप नैयर उस दिन प्रेस क्लब में उनकी तरफ से तैयार सेंसर विरोधी प्रस्ताव पर एन मुखर्जी, आर वाजपेयी, बीएच सिन्हा, राजू नागराजन, एन मणि, वीरेन्द्र कपूर, आनंद वर्धन, बलवीर पुंज, विजय क्रांति, सुभाष किरपेकर, प्रभाष जोशी, वेदप्रताप वैदिक, चांद जोशी समेत 27 पत्रकारों ने दस्तखत किए थे। बाद में इसी प्रस्ताव के बारे में जानने के लिए वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को अपने दफ्तर बुलाया था, जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।
बाद के सालों में इंदिरा के करीबी रहे आरके धवन ने सफाई देते हुए कुलदीप नैयर को कहा था कि संजय गांधी चाहते थे कि सभी बड़े पत्रकारों का मुंह बंद कर दिया जाए। धवन ने नैयर साहब को ये भी बताया था कि एक गोपनीय बैठक में सबसे पहले गिरफ्तारी के लिए उनका ही नाम लिया गया था क्योंकि उन्हें बड़ा पत्रकार माना जाता था। नैयर को गिरफ्तार करने वाले असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बरार तक ने अपनी बेचारगी जाहिर करते हुए कहा था कि यह गिरफ्तारी मेरी आत्मा पर बोझ बनी रहेगी क्योंकि मैं एक निर्दोष आदमी को गिरफ्तार कर रहा हूं।
(नोट- ये सारी जानकारियां कुलदीप नैयर की किताब एक जिंदगी काफी नहीं से ली गई हैं।)
बारिश की वजह से साइबर सिटी गुरुग्राम का पिछले तीन दिनों में जो हाल हुआ, उसकी तस्वीरें आईं डराने वाली है। मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम के ज्यादातर पॉश इलाके पानी में डूब गए।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
इस समय पंजाब के अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के कई इलाकों में भारी बारिश से हालात खराब हैं। हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और भूस्खलन की वजह से 300 से ज़्यादा लोगों की जान जा चुकी है। दिल्ली में यमुना नदी खतरे के निशान के ऊपर बह रही है और बहुत से निचले इलाकों में बाढ़ का पानी भर गया है।
दिल्ली में पुराने लोहे के रेलवे पुल को बंद कर दिया गया है। बारिश की वजह से साइबर सिटी गुरुग्राम का पिछले तीन दिनों में जो हाल हुआ, उसकी तस्वीरें डराने वाली हैं। मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम के ज्यादातर पॉश इलाके पानी में डूब गए। हर जगह पानी भरा, हर जगह जाम लगा। गुरुग्राम के राजीव चौक, हीरो होंडा चौक, इफको चौक और खिड़की दौला टोल प्लाज़ा की सड़कों पर कई फीट पानी भरा रहा।
इसके अलावा, गुरुग्राम के सदर, नरसिंहपुर, शीतला माता मंदिर रोड, अग्रसेन चौक, सेक्टर 15, मेहरौली रोड, ओल्ड दिल्ली रोड और द्वारका रोड जैसी सड़कों पर इतना पानी था कि लोगों का निकलना मुश्किल हो गया। लगातार बारिश की वजह से राजीव चौक और बजघेरा अंडरपास जैसे प्रमुख मार्गों पर ट्रैफिक थम गया।
दिल्ली से गुरुग्राम जाने वाली और गुरुग्राम से दिल्ली और जयपुर आने वाली सड़कों पर आठ किलोमीटर लंबा ट्रैफिक जाम लगा रहा। जो लोग शाम को दफ्तर से निकले, वे आधी रात के बाद घर पहुंचे। जो दूरी 20 मिनट में तय हो जाती थी, उसे तय करने में चार-पांच घंटे लग गए। गुरुग्राम में जलभराव और जाम के बाद लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकाली। कहा कि सरकार के ख़ज़ाने में हज़ारों करोड़ रुपये देने वाला गुरुग्राम अनाथ है। यहां नगर प्रशासन की पूरी व्यवस्था फेल हो गई है।
गुरुग्राम में करोड़ों के फ्लैट ख़रीदने वाले कीड़े-मकोड़ों जैसी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। आखिर गुरुग्राम के लोगों का कसूर क्या है? उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा है कि उन्हें दो-दो घंटे जाम में खड़े रहना पड़ता है? क्या उनका गुनाह यह है कि गुरुग्राम में रहने वाले और काम करने वाले हर साल एक लाख करोड़ रुपये का टैक्स देते हैं? क्या उनका कसूर यह है कि हरियाणा का 45% जीएसटी सिर्फ गुरुग्राम से आता है? इसी जीएसटी की वजह से हरियाणा का जीएसटी कलेक्शन पंजाब से पांच गुना है।
क्या गुरुग्राम के लोगों का कसूर यह है कि वे एक्साइज के नाम पर हरियाणा को 27% राजस्व देते हैं? गुरुग्राम में रहने वाले लोग रोड टैक्स देते हैं, टोल देते हैं और इन सारे टैक्सों के बदले हर साल गुरुग्राम की सड़कें नदी और नालों में बदल जाती हैं। 50-50 करोड़ के फ्लैट में रहने वालों का घर से बाहर निकलना बंद हो जाता है।
गुरुग्राम में बहुत सारी मल्टीनैशनल कंपनियां हैं, जिनमें काम करने वाले लोग दुनिया के बड़े-बड़े शहरों से आते हैं। बात दूर तक जाती है और पूरी दुनिया में गुरुग्राम का नाम खराब होता है। और यह कोई एक बार की बात नहीं है। हर साल यही कहानी दोहराई जाती है। इसे कौन ठीक करेगा? गुरुग्राम के लोगों की सुध कौन लेगा? इसका जवाब देने वाला भी कोई नहीं है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं।
प्रो .संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष।
भारत का संकट यही है कि हमने आजादी के बाद भारत प्रेमी समाज खड़ा नहीं किया। समूची शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक-प्रशासनिक-न्याय तंत्र में पश्चिम से आरोपित विचारों ने हमारे पैर जमीन से उखाड़ दिए। औपनिवेशिक काल की गुलामी दिमाग में भी बैठ गई। उससे उपजे आत्मदैन्य ने हमें भारत की चिति(आत्मा) से अलग कर दिया। वैचारिक उपनिवेशवाद ने हमारा बुरा हाल कर दिया है।
यह संकट निरंतर है। भारत को न जानने से ही भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। जबकि एक गहरी आध्यात्मिक चेतना से उपजी भारतीयता किसी के विरुद्ध नहीं है। हमारी संस्कृति विश्व बंधुत्व, विश्व मंगल और लोक-मंगल की वाहक है। आध्यात्मिक भाव इसी जमीन की देन है जिसने बताया कि सारी दुनिया के मनुष्य एक ही हैं। मनुष्य और उसके दुखों का समाधान खोजने राम, बुद्ध, महावीर जैसे राजपुत्र वनों में जाते रहे।
वसुधा को कुटुम्ब (विस्तृत परिवार) की संकल्पना भारत की अप्रतिम देन है। धरती के सभी मनुष्य, सभी जीव और सभी अजीव भी इस कुटुम्ब में शामिल हैं। अतः समूची सृष्टि के योगक्षेम की कामना करते हुए भारत सुख पाता है। यही भाव सबके संरक्षण और सबके संवर्धन का प्रेरक है। इसी भावना से 'पृथिव्या लाभे पालने च..' लिखते हुए आचार्य चाणक्य अपने 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अधिकरण में ही पृथ्वी के पालन की कामना की है। यूएनओ अर्थ चार्टर 2000 में धरती जीवंत है, ऐसा मान लिया है।
प्रकृति है ईश्वर का विस्तार-
प्रकृति को लेकर भारत की अपनी समझ है। हम संपूर्ण प्रकृति को ईश्वर का ही विस्तार मानते हैं। हमारी मान्यता है कि देव स्वयं प्रकृति में आया। सृष्टि का निर्माता सृष्टि के साथ ही है। हमारे जीवन के नियंता भी प्रकृति के सूर्य,जल, वायु, अग्नि,वन जैसे अवयव ही हैं। इससे हममें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव आता है। इसलिए हम इन सबको देवता कहकर संबोधित करने लगे। सूर्य देवता, अग्नि देव आदि। यह कृतज्ञता का चरम और प्रकृति से संवाद का अप्रतिम उदाहरण भी है। हम मानते हैं कि जो देता वह देवता है। इसी से हम देव और असुर में भेद करते आए हैं। हमारे वैदिक मंत्र सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस तरह हम एक ऐसी संस्कृति के उत्तराधिकारी बन जाते हैं जो प्रकृति सेवक या पूजक है।
'श्वेताश्वतरोपिषद्'(6.11) कहता है, "एको देव: सर्वभूतेषू गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा" इसलिए हममें प्रकृति के मालिक या स्वामी होने का भाव नहीं आया। प्रकृति के दोहन का विचार हमारा है, शोषण का विचार पराया है। भारतबोध इन्हीं तत्वों से विकसित होता है। भारत ने ज्ञान भूमि के रूप में स्वयं को विकसित किया। जहां 'भा' यानी ज्ञान और 'रत' का मतलब लीन। इस तरह यह ज्ञान की साधना में लीन भूमि है। जिसने मानवता के समक्ष प्रश्नों के ठोस और वाजिब उत्तर खोजे।
कालिदास भी ‘कुमारसंभवम्’ में भारत की उत्तर दिशा में हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं। अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:। पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म स्थित पृथिव्या इव मापदण्ड:।
हिमालय से समुद्र तक इस पवित्र भूमि का विस्तार है। व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि से लेकर आधुनिक समय में बंकिमचंद्र चटोपाध्याय (वंदेमातरम), मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे कवि इसी भूमि का मंगलगान करते हैं। बावजूद इसके किंतु कुछ मूढ़ मति मानते हैं कि अंग्रेजों ने हमें आज का भारत दिया।
जबकि अंग्रेज़ों ने हमारी सांस्कृतिक, सामुदायिक एकता को तोड़कर हमें विखंडित भारत दिया। बंग भंग में असफल रहे अंग्रेज़ों जो बंटवारे का जो दंश हमें दिया, उसे हम आज भी भोग रहे हैं। जिन्हें यह भ्रम है कि हमें 1947 में अंग्रेजों ने भारत बनाकर दिया वे ‘विष्णु पुराण’ के इस श्लोक का पाठ जरूर करें। उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः। यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत, तथा उनकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।
अपने देश के व्यापक भूगोल की समझ होनी ही चाहिए। देश को जोड़ने वाले तत्व क्या हैं, हमें खोजने और बताने चाहिए। क्योंकि कुछ लोग तोड़ने वाले तत्वों (फाल्ट लाइंस) की ही चर्चा करते हैं। जबकि सच यह है कि हर देश में कुछ अच्छी और बुरी बातें होती हैं। कोई भी राष्ट्र जीवन समस्या मुक्त नहीं है। किंतु सिर्फ देश तोड़क बातें करना और उसके लिए संदर्भ गढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता।
हालांकि सच सामने आ जाता है। बावजूद इसके नरेटिव की एक गहरी जंग देश झेल रहा है। यह कितना गजब है कि अकादमिक विमर्श जैसे भी चलते रहे हों, नरेटिव जैसे भी गढ़े जाते रहे हों। किंतु देश पिछले आठ दशकों में निरंतर आगे बढ़ा है। लोगों की अपने मान बिंदुओं के प्रति आस्था बढ़ी है। अपनी माटी के प्रति प्रेम बढ़ा है, भारत प्रेम बढ़ा है। एकत्व और एकात्म भारत हमारी आज हमारी शक्ति है। पूरी दुनिया भी इसे स्वीकार करती है।
सांस्कृतिक एकता के प्रतीक-
भारत की इस पवित्र भूमि पर ही राम, कृष्ण, शिव, गौतम बुद्ध, महावीर,नानक, गुरु गोविंद सिंह, ऋषि वाल्मिकि, गुरु घासीदास, संत रैदास, आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ, स्वामी दयानंद जन्में और सैकड़ों तीर्थों-मठों की स्थापना हुई। चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ के साथ अनेक सिद्धपीठ और मंदिर इसके उदाहरण हैं। जो समाज में सेवा,संवाद और आध्यात्म के वाहक बने हुए हैं। हमारी सप्त पुरियां अयोध्या, मथुरा,माया, काशी, कांची, अवंतिका, द्वारिका हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख गुरुओं के पवित्र स्थान हैं। जो समूचे देश को जोड़ते हैं। नदियों के तट, सरोवर, पर्वतों इसे लोक स्वीकृति प्राप्त है।
असल भारत यही है। ऐसा भाव दुनिया में कहीं विकसित नहीं हुआ। स्थान-स्थान की परिक्रमाएं काशी, ब्रज-गोवर्धन, अयोध्या, चित्रकूट, चारधाम, उत्तराखंड के पृथक चार धाम, नर्मदा, कृष्णा परिक्रमा भारत को जोड़ने वाली कड़ियां हैं। इन यात्राओं से भारत धीरे-धीरे मन में उतरता है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, हिंगलाज से परशुराम कुण्ड तक पुण्य भूमि स्थापित है। अमरनाथ और ननकाना साहिब की कठिन यात्राएं भी इसी भाव बोध का सृजन करती हैं। इस भारत को जीते हुए ही हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी का कवि मन बोल पड़ा- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं/ जीता जागता राष्ट्रपुरुष है/ इसका कंकर कंकर शंकर है/ इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।
सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं। इनसे गुजरता भारत खुद का आत्मसाक्षात्कार करता रहा है। वह प्रक्रिया धीमी हो सकती है, पर रुकी नहीं है। इसे तेज करने से न सिर्फ राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी बल्कि दुनिया में भी सुख, शांति और समृद्धि का विचार प्रसारित होगा।
एक सशक्त भारत ही विश्व शांति और विश्व मंगल की गारंटी है। अरसे बाद भारत में विचारों की घर वापसी हो रही है। वह अपने आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है। आइए, हम भी इस महान देश को जानने की खिड़कियां खोलें और भारत मां को जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजता हुआ देखें।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जल्द ही IPG इतिहास बन जाएगा। इंटरपब्लिक ग्रुप, जो विज्ञापन व्यवसाय की पहली होल्डिंग कंपनी थी और जो कभी इस इंडस्ट्री में सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली मानी जाती थी
चिंतामणि रॉव, स्ट्रैटजिक मार्केटिंग व मीडिया एडवाइजर ।।
जल्द ही IPG इतिहास बन जाएगा। इंटरपब्लिक ग्रुप, जो विज्ञापन व्यवसाय की पहली होल्डिंग कंपनी थी और जो कभी इस इंडस्ट्री में सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली मानी जाती थी, अब डोडो और जे.डब्ल्यू.टी. की तरह खत्म हो जाएगी।
मैंने अपने करियर के 26 सालों में से 12 साल से ज्यादा IPB में दो अलग-अलग नेटवर्क्स में काम किया।
IPG से मेरा पहला सामना मेरे करियर के लिए निर्णायक रहा, एक कठिन शुरुआत जिसने मुझे आगे के पूरे करियर में सहारा दिया।
तब मेरी उम्र 27 थी, मैं मद्रास में एचटीए में सीनियर एई था। मुझे अभी-अभी पोंड्स का जिम्मा सौंपा गया था, जो एजेंसी का सबसे प्रतिष्ठित खाता था और उस बाजार में सबसे बड़ा एफएमसीजी अकाउंट था। कोलकाता के राम रे इस खाते की निगरानी करते और मुझे सीधे उन्हें रिपोर्ट करना था। जिंदगी अच्छी चल रही थी।
फिर एक दोपहर, लिंटास से कॉल आया, अगले दिन सुबह बैगू ओचाने से नाश्ते पर मिलने का न्योता था। उन्होंने मुझे मद्रास ब्रांच मैनेजर का पद ऑफर किया। एचटीए में मेरी संभावनाएं बेहद अच्छी थीं, लेकिन ब्रांच मैनेजर का पद, और वह भी हिंदुस्तान लीवर की एजेंसी में...!
कुछ दिनों बाद, मैं एक दिन के लिए बॉम्बे गया और गेरसन दा कुन्हा और एलीक पदमसी से मिला; और उसके तुरंत बाद, 1 जुलाई को मैंने लिंटास जॉइन कर लिया।
इस बीच, गेरसन यूनिसेफ चले गए और एलीक चीफ एग्जिक्यूटिव बन गए।
ब्रांच एक छोटा-सा दफ्तर था, जिसमें कुल चार लोग थे, जिनमें मैं भी शामिल था। विजय जेवियर अकाउंट एग्जिक्यूटिव थे और हमारे पास एक सचिव और एक चपरासी था। पूरा काम– क्रिएटिव, मीडिया, सबकुछ बॉम्बे में होता था।
शुरुआत से ही, बैगू से मेरी पहली मुलाकात में ही काम साफ हो गया था: इस ऑफिस को बढ़ाना है। खुला ब्रीफ, कोई डेडलाइन नहीं। एलीक ने बॉम्बे में मुलाकात के दौरान कहा, “हम तुम्हें बिजनेस करने का मौका दे रहे हैं। जो तुम करते अगर एजेंसी तुम्हारी होती, वही करो। बस फर्क इतना है कि नुकसान हम उठाएंगे और तुम्हें हर महीने सैलरी मिलेगी।” उन्होंने क्यों 27 साल के एक सीनियर एई को यह काम सौंपा, मुझे तब भी समझ नहीं आया था और अब भी नहीं आता।
ऑफिस आठ साल पुराना था और हमेशा घाटे में चल रहा था। हमारे पास दो क्लाइंट्स थे, पोंड्स और एमआरएफ। लेकिन यह बात मुझे किसी ने नहीं बताई थी कि एमआरएफ पहले ही हमें निकाल चुका था और हम सिर्फ नोटिस पीरियड पूरा कर रहे थे, जो उस साल के अंत तक था। मुझे पता था कि उन्होंने रेडिफ्यूजन को चुना है (मैं एचटीए में उस पिच का हिस्सा था), लेकिन बाहर किसी को नहीं पता था कि लिंटास को हटा दिया गया है। यही हाल था, और मैं वहां था।
हर साल सितंबर में रीजनल डायरेक्टर जीन फ्रांस्वा लाकुर अपने क्षेत्र के दफ्तरों का दौरा करते थे – भारत में सिर्फ बॉम्बे – ताकि सालाना प्लान्स की लंदन मीटिंग्स की तैयारी हो सके। मैं उनसे मिलने बॉम्बे गया। मेरा ऑफिस बहुत छोटा था और मैं बहुत नया था, इसलिए उन्हें प्रस्तुति देने का सवाल ही नहीं था, यह सिर्फ औपचारिक परिचय होना था।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
औपचारिकताओं और जान-पहचान के बाद आया बड़ा झटका। मेरे बॉस बैगू उतने ही अनजान थे जितना मैं।
तब लिंटास का स्वामित्व यूनिलीवर और एसएससी एंड बी (न्यूयॉर्क की एजेंसी) के पास था। लाकुर ने हमें बताया कि IPG ने एसएससी एंड बी का अधिग्रहण कर लिया है, इसलिए अब वह लिंटास का सह-मालिक है, और यूनिलीवर भी अपने शेयर IPG को बेच रहा है। मार्च 1980 के अंत तक(यानी छह महीने बाद) लिंटास पूरी तरह IPG के स्वामित्व में होगा, वही अमेरिकी होल्डिंग कंपनी जिसके पास मैककैन था।
तो, इसका मेरे लिए क्या मतलब था? “अब हम यूरोपीय कंपनी नहीं रहेंगे। अब अच्छे दिनों का दौर खत्म।” उन्होंने कहा कि IPG, एक अमेरिकी सूचीबद्ध कंपनी होने के नाते, मुनाफे पर केंद्रित है और घाटे वाले संचालन नहीं रखती। “तुम्हारा ऑफिस 1980 में ब्रेक-ईवन होना चाहिए। अगर नहीं हुआ, तो हम इसे बंद कर देंगे। मुझे यक़ीन है कि तुम पूरी कोशिश करोगे, लेकिन यही है।”
उस साल के लिए बजट घाटा राजस्व का 150% था, और सिर्फ तीन महीने बाकी थे। मुझे अगले साल इसे शून्य पर लाना था, वरना नौकरी चली जाती।
तीन महीने पहले, मैं एक खुश युवा अकाउंट मैनेजर था। अब असफल होने और अपना पहला प्रॉफिट सेंटर खोने की शर्मिंदगी सामने थी, और एजेंसी हेड बनने का सपना राख में बदलने वाला था। और मैंने नेतृत्व की तन्हाई सीखी: तीन और लोग, तीन और परिवार मेरे साथ डूबते, लेकिन इस आसन्न खतरे की जानकारी सिर्फ मुझे थी।
ऑफिस लौटकर मैंने समझ लिया कि मेरे पास समय नहीं है। ऐसी स्थिति में सबसे पहले क्या किया जाता है? खर्च कम।
मैंने पी एंड एल देखा। किराया और वेतन 80% खर्च था। किराया तो अल्पावधि में तय था, और जहां तक वेतन का सवाल था, हमारी संख्या चार से घटाना मुमकिन नहीं था!
अगर खर्च कम नहीं कर सकते, तो राजस्व बढ़ाओ।
बाजार में राष्ट्रीय एजेंसियों के फुल-सर्विस ऑफिस पहले से मौजूद थे, जैसे एचटीए और ओबीएम, और मद्रास-आधारित आर.के. स्वामी, जो तब सिर्फ छह साल पुरानी थी, और कई अन्य। ऐसे में हमारा छोटा-सा ऑफिस नया बिजनेस कैसे लाएगा?
लेकिन जैसा कहा जाता है, पुराना बिजनेस ही असली बिजनेस है। इसलिए पहला कदम यही था – न सिर्फ विजय और मैंने बल्कि हमारे दोनों सहयोगियों ने भी – कि एमआरएफ अकाउंट को लगातार, थकान रहित सेवा दी। कोई मेहनत ज्यादा नहीं थी, और ख़र्च – खासकर बॉम्बे जाने का, जहां सारा काम होता था – कोई मायने नहीं रखता था। मेरा ब्रेक-ईवन टारगेट अगले साल के लिए था, इसलिए मौजूदा साल के ख़र्च की मुझे परवाह नहीं करनी थी। वैसे भी, बजट घाटे के पैमाने को देखते हुए, तीन महीने में हम उसमें बस छोटी-सी कमी ही ला सकते थे।
साल के अंत तक, एमआरएफ ने टर्मिनेशन नोटिस वापस ले लिया: हम फिर से साथ थे। यानी हमने साल को एमआरएफ अकाउंट बचाकर बंद किया। और उससे भी बढ़कर, अगले साल की शुरुआत में उन्होंने हमें अतिरिक्त बिजनेस दिया। 1980 के ‘मेक ऑर ब्रेक’ साल की शुरुआत उत्साहजनक थी।
अब तक सब ठीक था, लेकिन अच्छी शुरुआत सिर्फ शुरुआत होती है। साल बीतने के साथ, एमआरएफ और पोंड्स दोनों से और बिजनेस आने लगा, और हम 1980 में ब्रेक-ईवन की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन फिर? उसके बाद क्या?
लाभप्रदता का रास्ता साफ था: विकास। और इसका मतलब था नया बिजनेस। भले ही हमारे दोनों क्लाइंट्स ने हम पर भरोसा जताया था, हमें नए क्लाइंट्स लाने और अपना पोर्टफोलियो विविध बनाने की जरूरत थी, ताकि सतत विकास हो और जोखिम फैले। और फिर वही सवाल: कोई क्यों अपना बिजनेस हमारे छोटे-से ऑफिस को सौंपेगा?
तो, युवा जोश की मासूम आशावादिता के साथ, मैंने एक प्रस्ताव तैयार किया और पेश किया: ब्रांच को फुल-सर्विस ऑफिस में बदलना, शुरुआत एक क्रिएटिव टीम जोड़ने से। खर्च घटाने के बजाय खर्च बढ़ाना, इस उम्मीद में (या कहें आशा में) कि बिजनेस बनेगा। मैंने इसे मंजूरी के लिए भेजा, थोड़े डर के साथ।
एलीक पदमसी को यह बेहद पसंद आया! उन्होंने न सिर्फ इसे मंजूरी दी, बल्कि इसे अपने बॉसेस को लंदन में बेच दिया। अगर कोई ऐसा कर सकता था, तो वह एलीक ही थे।
यह था लिंटास मद्रास का पुनर्जन्म। जब तक मैं 1983 के अंत में बॉम्बे ऑफिस गया, यानी साढ़े चार साल बाद, तब तक हमने चार लोगों के छोटे आउटपोस्ट से 35 लोगों की फुल-सर्विस एजेंसी का रूप ले लिया था और हम बेहद लाभप्रद हो चुके थे।
जब मैंने संकट के समय खर्च घटाने के बजाय विकास में निवेश करने का यह पागलपन भरा प्रस्ताव पेश किया, तो कोई और इसे एक हताश युवा मैनेजर की लापरवाह प्रतिक्रिया मानकर खारिज कर देता। लेकिन एलीक ने कुछ अलग देखा: उन्होंने पहचाना कि कभी-कभी सबसे उलटे कदम ही सबसे जरूरी होते हैं। उनकी यह क्षमता कि उन्होंने न सिर्फ इस असामान्य रणनीति को अपनाया, बल्कि उसे अपने लंदन बॉसेस को जुनून के साथ बेच दिया, वही नेतृत्व था जिसने उन्हें भारतीय विज्ञापन जगत में दिग्गज बनाया। उन्हें पता था कि महान एजेंसियां सुरक्षित खेलकर नहीं बनतीं, बल्कि साहसी विचारों और उन लोगों का समर्थन करके बनती हैं जो उन्हें पेश करने की हिम्मत रखते हैं – चाहे वह बहादुरी हो या मूर्खता।
जैसे IPG दशकों तक वैश्विक विज्ञापन परिदृश्य को बदलने के बाद मंच से विदा लेने की तैयारी कर रहा है, मैं एलीक जैसे नेताओं के बारे में सोचने से खुद को रोक नहीं पाता, जिन्होंने उस दौर में उद्यमशील साहस को साकार किया था। आज जब होल्डिंग कंपनियां एल्गोरिद्म और तिमाही नतीजों से चलती हैं, तो यह याद करना बेहद भावुक करता है कि कभी एक क्रिएटिव दूरदर्शी एक युवा मैनेजर के साहसी दांव का समर्थन कर सकता था, भले ही बंद होने का ख़तरा सामने हो। एलीक ने उस दिन सिर्फ लिंटास मद्रास को बचाया नहीं, बल्कि यह साबित किया कि सबसे बड़े बिजनेस ट्रांसफॉर्मेशन तब होते हैं जब नेता असामान्य प्रस्तावों में छुपी संभावनाओं को पहचानने की दूरदर्शिता रखते हैं और उन पर लड़ने का साहस भी।
IPG शायद जल्द ही इतिहास बन जाएगा, लेकिन वे नेता जिन्होंने सुरक्षा पर विकास को चुना, उनकी विरासत हमेशा वही असली नींव होगी जिस पर महान एजेंसियां खड़ी होती हैं।
(यह केवल लेखक के निजी विचार हैं)
असल दुनिया के उस 'मैंगो विलेज' की रेत अब कभी उमेश जी का स्वागत नहीं करेंगी। हममें से बहुत लोग उन्हें याद करते हैं- जैसे हम हर उस दोस्त को याद करते हैं, जिसके साथ हमारे सबसे ज्यादा मतभेद रहे।
रोहित बंसल, ग्रुप हेड ऑफ कम्युनिकेशंस, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ।।
एक साल पहले, 31 अगस्त को, मेरी और श्री उमेश उपाध्याय की पश्चिमी मीडिया में छपे एक पक्षपाती लेख (biased article) पर काफी बहस हो गई थी। उमेश जी अपने उस विचार पर अडिग थे, जैसा कि उनकी किताब में पश्चिमी मीडिया नैरेटिव्स पर मुख्य विचार है- “जाने दीजिए, ये लोग ऐसे ही हैं?”। मेरा मानना था कि बात इतनी छोटी नहीं है, दांव बहुत बड़े हैं, इसलिए इसे बस “जाने दीजिए” कहकर छोड़ना सही नहीं होगा।
रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड में दस साल पहले जब हमने साथ काम करना शुरू किया था, तो यही तय किया था कि “हीट इन द किचन” यानी मुश्किल हालात और तीखी बहसें काम का हिस्सा होंगी। हम दोनों अपने-अपने विचारों में जुनूनी थे, लेकिन साथ ही निजी रिश्ता भी बराबर चलता रहा।
पूरी सच्चाई बताऊं तो, उमेश-जी और मेरे बीच एक फैमिली वॉट्सऐप ग्रुप भी था जिसका नाम था “मैंगो विलेज”। इसका नाम उस बीच हट के नाम पर रखा गया था, जहां मैं उन्हें एक दिन मेजबान के तौर पर बुलाना चाहता था।
“मैंगो विलेज” पर एक असहमति इतनी बढ़ गई कि मैंने वास्तव में ग्रुप छोड़ दिया!! उमेश-जी ने मुझे बिना कुछ कहे दोबारा जोड़ लिया और फिर उन्होंने कुछ ऐसा पोस्ट किया, जो बिल्कुल उन्हीं जैसा था: “मैंगो विलेज आपका घर है, रोहित। कोई अपना घर नहीं छोड़ता!” इस पर कोई क्या कह सकता था!
उमेश जी असहमतियों को संभालने में एकदम “मैनेजमेंट 101” (मैनेजमेंट का सबसे बुनियादी सिद्धांत) जैसे थे। उनका मानना था कि आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप अप्रिय या कटु हो जाएं। उनकी और मेरी असहमतियां अक्सर नए और बेहतर विचारों का मिश्रण बनाती थीं, न कि यह गिनती कि असल विचार किसका था। मुझे शक है कि हमारी 27+ साल की दोस्ती और 15 साल की सहकर्मी यात्रा (जी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइजेज लिमिटेड, रॉकलैंड हॉस्पिटल्स और आखिर में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड) में ज्यादातर उमेश-जी की शांति-पसंद रणनीति “जाने दीजिए, रोहित-जी” ही हावी रही।
फिर आया वो काला दिन, 1 सितंबर 2025। रोहित दुबे का फोन आया कि उमेश-जी के साथ एक गंभीर हादसा हुआ है और अब वे नहीं रहे। अस्पताल, पुलिस, भारी भीड़ वाला अंतिम संस्कार, अस्थि-विसर्जन के समय मंत्र- लगभग सब कुछ अवास्तविक और निरर्थक सा लग रहा था और वहीं वे प्रभु श्रीराम के साथ एक हो गए। जब शलभ, उनका बहादुर बेटा, उनकी अस्थियां विसर्जित कर रहा था, तब उमेश-जी ने नहीं कहा, “जाने दीजिए, रोहित-जी”। वे बस चले गए…
असल दुनिया के उस 'मैंगो विलेज' की रेत अब कभी उमेश जी का स्वागत नहीं करेंगी। हममें से बहुत लोग उन्हें याद करते हैं- जैसे हम हर उस दोस्त को याद करते हैं, जिसके साथ हमारे सबसे ज्यादा मतभेद रहे।
काश, हमें वह दोस्त एक बार फिर मिल जाता- सिर्फ यह मानने और कहने के लिए कि आप सही थे…। दिमाग में वही गीत गूंजता है-
“दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाता है कहां! कैसे ढूंढे कोई उनको, नहीं कदमों के भी निशान।”
(लेखक पूर्व संपादक चुके हैं।)
वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस पूरे साल वृद्धि दर 6.3% से 6.8% बनी रहेगी। शुल्क का तोड़ तो सरकार ने फ़िलहाल ढूँढ लिया है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अमेरिका ने भारत से आने वाले सामान पर 50% शुल्क 27 अगस्त से लगा दिया है। इससे अटकलें लगने लगीं कि भारत की अर्थव्यवस्था मुश्किल में आ सकती है। शेयर बाज़ार में डर का माहौल है। हिसाब–किताब में समझेंगे कि शुल्क का असर कितना पड़ेगा?
आपको याद होगा कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को ‘मरी हुई अर्थव्यवस्था’ कहा था। शुक्रवार को सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के जो आँकड़े जारी किए, उससे पता चल गया कि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में वृद्धि दर 7.8% रही है। आप कह सकते हैं कि पहली तिमाही में शुल्क लागू नहीं हुआ था। अब लागू हुआ है तो आने वाले महीनों में इसका असर दिखेगा।
शुल्क का कोई असर नहीं पड़ेगा यह कहना ग़लत होगा। भारत हर साल अमेरिका को 86 अरब डॉलर (₹7.3 लाख करोड़) का सामान बेचता है। इसमें से आधे से ज़्यादा सामान पर अब 50% शुल्क लगेगा, जैसे कपड़े, हीरे–जवाहरात। बाक़ी देशों पर शुल्क कम है, इसलिए भारत को यह सामान अमेरिका में बेचने में दिक़्क़त होगी। इतना महँगा कौन ख़रीदेगा? रॉयटर्स के मुताबिक़ इसके चलते भारत में 20 लाख लोगों की नौकरी जा सकती है। भारतीय स्टेट बैंक की रिपोर्ट कहती है कि इससे जीडीपी में 0.2% नुक़सान हो सकता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पूरे साल भर की वृद्धि दर 6% से नीचे जा सकती है।
इस आपदा में ही अवसर है। सरकार ने दो ऐसे फ़ैसले किए हैं, जिससे शुल्क के नुक़सान की भरपाई होने की उम्मीद है। पहला फ़ैसला बजट में ही हो गया था कि ₹12 लाख तक कोई आयकर नहीं लगेगा। दूसरा फ़ैसला यह कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के ज़्यादातर सामान 5% और 18% के दायरे में लाए जाएँगे। जीएसटी का सुधार बहुत समय से लंबित था, लेकिन शुल्क के बाद इस पर तेज़ी से फ़ैसला लिया जा रहा है।
भारतीय स्टेट बैंक की अनुसंधान रिपोर्ट कहती है कि दोनों फ़ैसलों से लोगों के हाथ में पैसा आएगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ साल भर में ₹5 लाख करोड़ की खपत बढ़ेगी। वृद्धि दर में 1.6% की बढ़ोतरी होगी यानी शुल्क से जो नुक़सान होगा, उससे कहीं ज़्यादा फ़ायदा इन फ़ैसलों से होने की उम्मीद है।
वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस पूरे साल वृद्धि दर 6.3% से 6.8% बनी रहेगी यानी जो अनुमान शुल्क से पहले लगाया गया था, सरकार उस पर क़ायम है। उन्होंने यह भी कहा कि शुल्क का मसला इस वित्त वर्ष के दौरान सुलझने की उम्मीद है। शुल्क का तोड़ तो सरकार ने फ़िलहाल ढूँढ लिया है लेकिन अमेरिका के साथ व्यापार को सुगम बनाने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
स्वाधीनता संग्राम में संघ की सहभागिता पर झूठा नैरेटिव गढ़कर और डंके की चोट पर उसको प्रचारित कर भ्रम का वातावरण बनाया गया। सरसंघचालक ने इस झूठे नैरेटिव को ध्वस्त किया।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
समाचार चैनलों पर चलवनेवाली डिबेट में कई लोग डंके की चोट पर ये पूछते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वाधीनता आंदोलन से क्या संबंध था। फिर स्वयं ही निर्णयात्मक उत्तर देते हैं कि संघ का स्वाधीनता आंदोलन में ना तो कोई योगदान था ना ही संबंध। ये नैरेटिव वर्षों से चलाया जा रहा है। हर कालखंड में कई लोग इसको गाढ़ा करने के उपक्रम में जुटे रहते हैं। अब भी हैं।
लेख आदि में भी इस बात का उल्लेख प्रमुखता से किया जाता है कि संघ का देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान रहा ही नहीं है। ऐसा करके वो जनमानस में भ्रामक अवधारणा का रोपण करते चलते हैं। जब तटस्थ विश्लेषक तथ्य रखने लगते हैं तो उनको दबाने का प्रयास किया जाता है। अर्धसत्य को सामने रखकर उनको चुप कराने का प्रयास किया जाता है। कहा भी गया है कि अगर एक झूठ को बार-बार कहेंगे तो उसको सच नहीं तो सच के करीब तो मान ही लिया जाएगा।
तब ऐसा और भी संभव हो जाता है जब कहे हुए को पुस्तकों के माध्यम से पुष्ट किया जाता रहा हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में ऐसा ही होता आ रहा है। ऐसा कहनेवाले कुछ तथ्यों को दबा देते हैं। वो ये नहीं बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी और देश 1947 में आजाद हो गया। उस समय संघ की ताकत कितनी रही होगी, एक संगठन के तौर पर संघ का कितना विस्तार रहा होगा, संघ से कितने कार्यकर्ता जुड़े होंगे, इसको बगैर बताए निर्णय हो जाता है।
जैसे-जैसे संघ का विस्तार होता गया ये नैरेटिव जोर-शोर से चलाया जाने लगा। संघ शताब्दी वर्ष में इस विमर्श को और गाढ़ा करने का उपक्रम हो रहा है बल्कि कह सकते हैं कि संगठित होकर किया जा रहा है।हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा मोहन भागवत को दो अवसरों पर सुना। एक पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम था। दूसरा संघ शताब्दी वर्ष पर दिल्ली में तीन दिनों का व्याख्यानमाला। सरसंघचालक ने पहले कार्यक्रम में बताया कि अंग्रेज अफसर नागपुर और उसके आसपास चलनेवाली शाखाओं की ना सिर्फ निगरानी करते थे बल्कि हर शाखा से संबंधित जानकारी को जमा कर उसका विश्लेषण भी करते थे।
वो आशंकित रहते थे कि अगर शाखाओं का विस्तार हो गया तो अंग्रेजों के लिए दिक्कत खड़ी हो सकती है। व्याख्यानमाला में डा भागवत ने बताया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक डा हेडगेवार स्वाधीनता आंदोलन में बाल्यकाल से सक्रिय थे। नागपुर के स्कूलों में 1905-06 में वंदेमातरम आंदोलन हुआ था। इसमें शामिल छात्र हेडगेवार ने अंग्रेजों से माफी मांगने से इंकार कर दिया था। उनको स्कूल से निष्कासित कर दिया गया था। बाद में हेडगेवार डाक्टरी की पढ़ाई करने कलकत्ता (अब कोलकाता) गए।
पढ़ाई पूरी करने के बाद तीन हजार रु मासिक वेतन वाली नौकरी को ठुकराकर डा हेडगेवार ने देशसेवा की ठानी। वो अनुशीलन समिति में भी शामिल हुए थे। 1920 में उनपर देशद्रोह का मुकदमा चला। कोर्ट में अपने बचाव में उन्होंने स्वयं दलील पेश की थी। उद्देश्य था कि पत्रकार आदि केस सुनने आएंगे तो उनके विचार जनता तक पहुंच पाएंगे। न्यायालय का जब निर्णय आया तो जज ने लिखा, जिन भाषणों के कारण इन पर यह आरोप लगा है, इनका बचाव का भाषण उन भाषणों से अधिक ‘सेडिशियस’ है।
उनको एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। जेल से बाहर निकलने के बाद डा हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। 1930 में जंगल सत्याग्रह आरंभ हुआ तो उन्होने सरसंघचालक का दायित्व छोड़ दिया। आंदोलन में शामिल हुए। उनको फिर से एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। सजा काटकर वापस आने पर सरसंघचालक का कार्यभार संभाला। इस दौरान वो सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के संपर्क में भी आए। राजगुरु को तो उन्होंने महाराष्ट्र में अंडरग्राउंड रखने में मदद की।
नागपुर में भी रखा। बाद में उनको अकोला भेजने की भी व्यवस्था की। इलके अलावा भी संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की एक लंबी सूची है जो स्वाधीनता आंदोलन में जेल गए थे। पर विचारधारा विशेष के लोगों ने इन तथ्यों को आम जनता से दूर रखा। भ्रामक बातें करते रहे।नैरेटिव के खेल को इस तरह से समझा जा सकता है। कम्युनिस्टों ने स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया, अंग्रेजों का साथ दिया, सुभाष बाबू को जापान और जर्मनी के हाथों की कठपुतली बताते हुए धोखेबाज तक कहा। इसकी चर्चा नहीं होती है। बल्कि इस तथ्य को दबा दिया जाता है।
इस खेल में ट्विस्ट तब आया जब हिटलर ने सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया। कम्युनिस्ट पहले जिस युद्ध को साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध कहते थे उसको ही हिटलर के रूस पर हमले के बाद जनयुद्ध कहने लगे। इसके बाद वो अंग्रेजों के साथ हो गए और उनके हाथ मजबूत करने लगे। जब गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ किया तो कम्युनिस्टों ने इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों का साथ दिया। फिल्म इतिहासकार मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सुभाष बाबू के विश्वस्त कम्युनिस्ट साथी भगत राम तलवार ने अंग्रेजों के लिए जासूसी की थी।
विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग की तरह पाकिस्तान बनाने का समर्थन किया था। 1946 में तेलांगना में सशस्त्र विद्रोह आरंभ किया। पहले ये निजाम के खिलाफ था लेकिन स्वाधीनता के बाद ये भारत सरकार के खिलाफ हो गया क्योंकि वो स्वाधीनता के बाद बनी सरकार को राष्ट्रीय धोखा कहते थे। वो तो भला हो स्टालिन का कि 1950 में उन्होंने भारत के कम्युनिस्ट नेताओं को मास्को बुलाकर बात की। उस बातचीत के बाद भारत के कम्युनिस्टों ने सशस्त्र विद्रोह खत्म किया। देश के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन के बावजूद भी नेहरू ने कम्युनिस्टों पर पाबंदी नहीं लगाई।
स्टालिन के साथ मीटिंग के बाद कम्युनिस्टों ने 1952 के पहले आमचुनाव में हिस्सा भी लिया था। दरअसल कम्युनिस्टों की आस्था राष्ट्र से अधिक विचार और विचारधारा में रही है। उनके लिए विचारधारा सर्वप्रथम है जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए राष्ट्र सर्वप्रथम है। यही बुनियादी अंतर है।कालांतर में कम्युनिस्टों और कांग्रेस के बीच एक अंडरस्टैंडिंग बनी। जब स्वाधीन भारत में स्वाधीनता का इतिहास लेखन आरंभ हुआ तो उपरोक्त तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया। स्कूल में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकों में भी इन बातों को छोड़ दिया गया।
परिणाम ये हुआ कि कम्युनिस्टों पर स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भागीदारी को लेकर प्रश्न नहीं उठे। एक ऐसा नैरेटिव खड़ा किया जिसमें संघ तो निशाने पर रहा लेकिन कम्युनिस्टों के कारगुजारियों पर चर्चा नहीं हुई। 1925 में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी और 1925 में ही कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था।
दोनों संगठनों की स्थापना के सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। एक विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बनकर निरंतर मजबूत हो रहा है और कम्युनिस्ट पार्टी अपने अतित्व के लिए संघर्ष कर रही है। कहा जा सकता है कि भारत का जनमानस जैसे जैसे परिपक्व हो रहा है वैसे वैसे जनता राष्ट्रहित सोचनेवालों के साथ होती जा रही है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
श्री बालेश्वर अग्रवाल संघ के वरिष्ठ प्रचारक होने के बावजूद संपादक के नाते कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों में भी सम्मान पाते थे और एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से सहयोग मिलता था।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष की पायदान पर अधिक सफल, पारदर्शी और संगठन के साथ राष्ट्र में बदलाव के लिए तत्पर दिख रहा है। सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में तीन दिनों के संवाद कार्यक्रम में संघ से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों को स्पष्ट किया। विशेष रूप से सत्ता, भाजपा और प्रधानमंत्री के साथ संबंधों, उम्र विवाद, हिन्दू राष्ट्र, धार्मिक मान्यता, मुस्लिम–इस्लाम के अस्तित्व, काशी–मथुरा आंदोलन जैसे मुद्दों पर विरोधियों या समर्थकों के बीच रहे भ्रम के जाले साफ़ किए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन सौ वर्षों में बहुत उतार-चढ़ाव देखे और चुनौतियों का सामना किया। लम्बे समय तक सामाजिक–सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करना बहुत कठिन होता है। इस दृष्टि से विश्व में इसे एक हद तक अनूठा संगठन कहा जा सकता है। सबसे रोचक बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अन्यान्य कारणों से वर्षों तक अपनी गतिविधियों को प्रचारित करना तो दूर रहा, उन्हें गोपनीय रखने का प्रयास भी करता रहा।
बचपन से मैंने उज्जैन, शाजापुर और इंदौर जैसे शहरों से लेकर बाद में राजधानी दिल्ली में संघ की शाखा की गतिविधियों को देखा और समझने का प्रयास किया। कम आयु में हिन्दुस्थान समाचार से अंशकालिक संवाददाता के रूप में जुड़ा और फिर 1971 से 1975 तक दिल्ली में पूर्णकालिक पत्रकार के रूप में कार्य किया। हिन्दुस्थान समाचार में भी राजनीतिक गतिविधियों के समाचार संकलन का काम किया। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं से मिलने के अवसर भी हुए।
1975 में आपातकाल के दौरान मैंने कई महीने हिन्दुस्थान समाचार के अहमदाबाद कार्यालय में कार्य किया। संस्थान के प्रधान संपादक और महाप्रबंधक श्री बालेश्वर अग्रवाल ने मुझे नियुक्त किया था। दिल्ली में समाचार विभाग में श्री एन. बी. लेले और श्री रामशंकर अग्निहोत्री के मार्गदर्शन में काम किया। इसलिए यह कह सकता हूँ कि सरसंघचालक श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) के कार्यकाल से लेकर वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत की कार्यावधि तक संघ की गतिविधियों के प्रचार कार्य में हुए बदलावों को देखने–समझने के अवसर मिले।
श्री बालेश्वर अग्रवाल संघ के वरिष्ठ प्रचारक होने के बावजूद संपादक के नाते कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों में भी सम्मान पाते थे और एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से सहयोग मिलता था। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं से उन्होंने ही मेरा परिचय कराया, जिससे मुझे काम करने में सुविधा हुई।लगभग 55 वर्ष पहले दिल्ली के झंडेवालान स्थित कार्यालय में समर्पित पदाधिकारी और प्रचारक बेहद सादगी से रहते थे। संघ की शाखा या बौद्धिक विचार-विमर्श के कार्यक्रम सामान्यतः प्रचारित नहीं किए जाते थे। सरसंघचालक नागपुर से समय-समय पर दिल्ली आते लेकिन कोई धूमधाम या प्रचार नहीं होता था। संघ का कोई सदस्यता फार्म या औपचारिक रिकॉर्ड पहले कभी नहीं रहा।
पदाधिकारियों और प्रचारकों के पास अधिकाधिक संपर्क के लिए लोगों के फोन या पते किसी रजिस्टर या डायरी में दर्ज रहते थे।संघ की गतिविधियाँ पहले भी औपचारिक रूप से प्रसारित नहीं होती थीं, लेकिन नागपुर, पुणे, इंदौर, ग्वालियर, लखनऊ, अहमदाबाद और दिल्ली में संघ ने अपनी विचारधारा को समाज में पहुँचाने के लिए अपने समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, के. आर. मलकानी, भानु प्रताप शुक्ल, देवेंद्र स्वरुप, रामशंकर अग्निहोत्री, माणक चंद वाजपेयी, यादवराव देशमुख, विष्णु पंड्या, शेषाद्रि चारी और अच्युतानन्द मिश्र जैसे वरिष्ठ प्रचारक इन पत्र–पत्रिकाओं के संपादन और लेखन का काम भी करते थे।
आपातकाल (1975) में संघ पर प्रतिबंध लगा। तब देशभर में संघ के सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारियाँ हुईं, लेकिन अनेक समर्पित प्रचारकों और स्वयंसेवकों ने भूमिगत रहकर सूचनाओं और विचारों को विभिन्न क्षेत्रों तक पहुँचाने का कार्य किया। मुझे स्मरण है कि उन दिनों गुजरात में श्री नरेंद्र मोदी भूमिगत रहकर समाचारों और विचारों की सामग्री तैयार कर गुपचुप बाँटते थे। तब वे संघ के किसी पद पर नहीं थे, मात्र स्वयंसेवक के रूप में सक्रिय थे। अपना वेश बदलकर जेलों में बंद संघ, जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियों के नेताओं को सामग्री पहुँचाने का साहसिक कार्य वे करते थे। नागपुर, लखनऊ और दिल्ली में भी संघ पृष्ठभूमि वाले कुछ पत्रकार भूमिगत रहकर इसी तरह का प्रचार कार्य कर रहे थे।
आपातकाल अधिक समय तक नहीं चला और 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर लालकृष्ण आडवाणी सूचना–प्रसारण मंत्री बने। यह पहला अवसर था जब संघ–जनसंघ से जुड़े नेता भारतीय सूचना–प्रचार तंत्र के शीर्ष पद पर पहुँचे। फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना प्रचार तंत्र उस दौर में भी विकसित नहीं किया। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के शीर्ष नेता श्री नानाजी देशमुख जनता पार्टी के साथ सहअस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण सेतु की भूमिका निभा रहे थे।जनता पार्टी आने के बाद संघ की गतिविधियों पर अख़बारों–पत्रिकाओं में लेख छपने लगे। विजयादशमी के अवसर पर संघ को लेकर प्रमुख लोगों से बातचीत करके रिपोर्ट या लेख लिखने का अवसर मुझे भी मिला।
पहले सरसंघचालक संघ के प्रकाशन संस्थानों के अलावा किसी अन्य प्रकाशन को इंटरव्यू नहीं दिया करते थे। मुझे सबसे पहले सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जु भैया) से विस्तारपूर्वक बातचीत कर इंटरव्यू (अक्टूबर 1997) प्रकाशित करने का अवसर मिला। इसके कुछ वर्ष बाद सरसंघचालक श्री के. सी. सुदर्शन से भी मुझे लम्बा इंटरव्यू (जून 2003) मिला। ये दोनों ऐतिहासिक इंटरव्यू मेरी पुस्तक ‘नामी चेहरों से यादगार मुलाकातें’ में प्रकाशित हैं।उस दौर में तरुण भारत के संपादक रहे श्री एम. जी. वैद्य संघ के बौद्धिक प्रमुख होने के साथ पहले प्रचार प्रमुख भी बने।
श्री वैद्य के प्रयासों से संघ की गतिविधियों की जानकारी समय-समय पर समाज तक पहुँचने लगी। संघ को भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी की मातृसंस्था के रूप में देखा जाता है।समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में सुनियोजित ढंग से संघ से सैकड़ों लोग जुड़ते रहे। इसी तरह धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक सक्रिय रहे। लेकिन संघ अपने सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों का सार्वजनिक प्रचार क्यों नहीं करता — इस पर जब भी मैंने नेताओं से प्रश्न किया, उनका उत्तर यही रहा कि “हमें राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित भाव से कार्य करना है, प्रचार की भूख नहीं है।”90 के दशक के बाद संघ ने अपने प्रचार तंत्र की ओर ध्यान दिया।
श्री एम. जी. वैद्य के बाद राम माधव, मदन मोहन वैद्य और सुनील आंबेकर घोषित रूप से प्रचार प्रमुख बने। धीरे-धीरे संघ के दरवाजे और खिड़कियाँ लक्ष्मण रेखा के साथ खुलने लगीं। भाजपा के सत्ता में आने पर समाचार माध्यमों में संघ की अधिकाधिक चर्चा होने लगी। सूचना और कंप्यूटर क्रांति आने के बाद पत्र–पत्रिकाओं, टेलीविज़न, वेबसाइट, यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर सहित हर प्रचार माध्यम से संघ की गतिविधियों की जानकारी मिलने लगी। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि संघ का प्रचार तंत्र भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों तक फैल गया है।
बताते हैं कि आज संघ की शाखाएँ 68,651 तक पहुँच गई हैं। लक्ष्य है इसे 1,00,000 तक ले जाना। भाजपा सरकार होने से उसे सिर्फ़ तार्किक रूप से ही लाभ नहीं मिला, बल्कि समाज में उसकी दृश्यता और स्वीकार्यता भी बढ़ी। अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति, पाकिस्तान–चीन को करारा जवाब देने की क्षमता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, हिन्दू धर्म–मंदिरों का वैश्विक प्रचार–प्रसार, समान नागरिक संहिता पर पहल — क्या यह सब संघ के लक्ष्यों की पूर्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के बिना संभव था?
सितंबर 2018 में सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट कहा था:“संघ ने अपने जन्म से ही स्वयं तय किया है कि रोज़मर्रा की राजनीति में हम नहीं जाएँगे। राज कौन करे यह चुनाव जनता करती है। हम राष्ट्रहित पर अपने विचार और प्रयास करते हैं। प्रधानमंत्री और अन्य नेता स्वयंसेवक रहे हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे नागपुर के निर्देश पर चलते हैं। राजनीति में कार्य करने वाले मुझसे अधिक अनुभवी हैं। उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता हो तो हम राय देते हैं, लेकिन उनकी राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है।”
भागवत ने अगस्त 2025 में भी इन बातों को एक बार फिर स्पष्ट किया।संघ के शीर्ष नेता हमेशा इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि भारत में जन्मे लगभग 98% लोग भारतीय हिन्दू हैं — चाहे वे सिख हों, मुस्लिम हों, ईसाई, बौद्ध या अन्य। सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह ने 4 अक्टूबर 1997 को मुझे दिए इंटरव्यू में कहा था:“भारत में मुसलमानों में केवल 2% के पूर्वज बाहर से आए थे, शेष के पूर्वज इसी देश के थे।
हम उन्हें यह अनुभूति कराना चाहते हैं कि तुम मुसलमान हो, पर भारतीय मुसलमान हो। हमारे यहाँ दर्जनों पूजा पद्धतियाँ हैं, तो एक तुम्हारी भी चल सकती है। इसमें हमें क्या आपत्ति होगी? लेकिन पहचान तुम्हारी इस देश के साथ होनी चाहिए।”हाँ, निचले स्तर पर कुछ अतिवादी नेता हाल के वर्षों में कटुता की भाषा इस्तेमाल करने लगे हैं। यह निश्चित रूप से न केवल मोदी सरकार की, बल्कि भारत की छवि भी दुनिया में खराब करते हैं। उन्हें मोदी का असली दुश्मन कहा जा सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
डोनाल्ड ट्रंप के एक एडवाइजर ने कहा कि ट्रंप ने भारत पर इतना टैरिफ इसीलिए लगाया क्योंकि ट्रंप मानते हैं कि रूस और यूक्रेन की जंग के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हैं।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
पूरी दुनिया में आज इस बात की चर्चा है कि अमेरिका ने भारत पर सब ज्यादा टैरिफ क्यों लगाया? अमेरिका में भी लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगाकर चीजों को महंगा क्यों कर दिया। इसको लेकर जितने मुंह, उतनी बातें। ट्रंप के एक एडवाइजर ने कहा कि ट्रंप ने भारत पर इतना टैरिफ इसीलिए लगाया क्योंकि ट्रंप मानते हैं कि रूस और यूक्रेन की जंग के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हैं।
ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो ने दावा किया कि रूस से तेल खरीदकर भारत पुतिन को जंग के लिए पैसे देता है। अगर मोदी रूस से खरीदना बंद कर दें तो टैरिफ भी वापस हो जाएगा और रूस यूक्रेन की जंग भी रुक जाएगी।
अमेरिका के इस तर्क में कोई दम नहीं है क्योंकि अमेरिका के एक और एक्सपर्ट ने दूसरा लॉजिक दिया। ये भी ट्रंप के सलाहकार हैं। अमेरिका की नेशनल इकॉनमिक काउंसिल के डायरेक्टर केविन हैसेट ने कहा भारत पर इतना टैरिफ लगाने की वजह ये है कि भारत ने कृषि और डेयरी सेक्टर अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलने से मना कर दिया, मोदी इस बात पर अड़े हुए हैं और ट्रंप भी अड़े हुए हैं, इसीलिए रास्ता निकलने की उम्मीद कम है।
ट्रंप ख़ुद ये मान रहे हैं कि यूक्रेन में युद्ध से अमेरिका को भारी मुनाफ़ा हो रहा है। फिर भी उन्होंने युद्ध के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराया। एक्सपर्ट्स ने इसकी 4 वजह बताई। एक तो ये कि जुलाई 2019 में जब इमरान ख़ान अमेरिका गए थे तो ट्रंप ने उनसे कह दिया था कि कश्मीर के मसले पर मोदी ने उनसे मध्यस्थता करने को कहा है। ट्रंप के इस बयान पर मोदी ने नाराजगी जाहिर की और ट्रंप को बता दिया कि भारत, कश्मीर के मसले पर किसी तीसरे देश की मध्यस्थता को स्वीकार नहीं करेगा।
ट्रंप और मोदी के बीच तल्ख़ी की दूसरी वजह, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में हुई एक घटना है। मोदी ने ट्रंप और कमला हैरिस दोनों उम्मीदवारों से मिलने का समय मांगा, ट्रंप ने समय दिया, ट्रंप ने अपनी रैली में इसकी घोषणा भी कर दी कि मोदी मुझसे मिलने आ रहे हैं। लेकिन अन्तिम क्षण में कमला हैरिस ने मोदी को मिलने का समय नहीं दिया। मोदी को लगा कि सिर्फ़ एक पार्टी के उम्मीदवार से मिलना ठीक नहीं होगा, इसलिए मोदी ने ट्रंप के साथ मुलाकात कैंसिल कर दी। ट्रंप को ये बात बहुत नागवार गुजरी।
तीसरी बात, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम। ट्रंप अब तक 42 बार कह चुके हैं कि भारत पाकिस्तान का युद्ध उन्होंने रुकवाया। सीजफायर का फैसला करवाया। भारत कई बार ये साफ़ कर चुका है कि सीज़फ़ायर का फ़ैसला पाकिस्तान के अनुरोध पर हुआ लेकिन ट्रंप सुनने को तैयार नहीं हैं।
चौथी वजह, ट्रंप और मोदी की बात कनाडा में होनी थी। G-7 शिखर सम्मेलन के दौरान मीटिंग तय थी लेकिन ट्रंप अचानक अमेरिका लौट गए। फिर उन्होंने मोदी को फोन किया, वॉशिंगटन आने के लिए कहा। ये वही दिन था जब पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर व्हाइट हाउस में ट्रंप से लंच पर मिलने वाले थे। मोदी ने वॉशिंगटन जाने से इनकार कर दिया। ट्रंप को ये बात चुभ गई। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि इन 4 कारणों की वजह से ट्रंप ने टैरिफ को लेकर भारत को निशाना बनाया।
ट्रंप और मोदी के रिश्तों में खटास की एक वजह जर्मनी के अख़बार 'Frankfurter Allgemeine Zeitung' ने भी बताई। जर्मनी के इस बड़े अखबार का दावा है कि ट्रंप ने मोदी को चार बार कॉल किया लेकिन मोदी ने ट्रंप की कॉल रिसीव नहीं की। इसकी वजह क्या थी? ये औपचारिक रूप से किसी ने नहीं बताया। लेकिन पता ये चला है कि ट्रंप अक्सर दुनिया के नेताओं को अपने निजी नंबर से कॉल करते हैं।
जिन नेताओं को ट्रंप ने अपने निजी नंबर दिए हैं, उनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हैं। अपने पिछले कार्यकाल में ट्रंप ने मोदी को अपना निजी नंबर दिया था। लेकिन इस बार राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप ने सुरक्षा एजेंसियों के कहने पर अपना फ़ोन और नंबर दोनों बदल दिया। शायद उन्होंने अपने नए नंबर से ही प्रधानमंत्री मोदी के मोबाइल पर कॉल किया था। अंजान नंबर होने की वजह से प्रधानमंत्री ने ट्रंप की कॉल रिसीव नहीं की। लगता है ट्रंप ने इस बात को दिल पर ले लिया और अब टैरिफ को बदले का हथियार बना रहे हैं।
एक बात तो पक्की है कि ट्रंप को भारत से जो भी समस्या है, वह बहुत बड़ी है। इतनी बड़ी समस्या सिर्फ रूस से तेल खरीदने को लेकर तो नहीं हो सकती क्योंकि यूक्रेन को अमेरिका और यूरोप इतनी मदद भेजते हैं कि उसके आगे रूस को भारत के तेल से होने वाली कमाई आटे में नमक के बराबर है।
ट्रंप की समस्या इतनी बड़ी है कि उन्होंने आसिम मुनीर को गोद में बिठा लिया। युद्धविराम को टैरिफ से जोड़कर बार-बार मोदी को शर्मिंदा किया, भारत पर सबसे ज्यादा टैरिफ लगा दिया। भारत के साथ इतने वर्षों की दोस्ती का कोई ख्याल नहीं किया।
जिस चीन से अमेरिका की दुश्मनी है, उसे छूट दी। ट्रंप के इस रवैये की सिर्फ एक ही वजह हो सकती है कि 'नरेंद्र' ने झुकने से इनकार कर दिया। मोदी ने ट्रंप के आगे हार मानने से मना कर दिया। ट्रंप ने मोदी को कम आंक लिया।
वैसे भी ट्रंप का काम करने का अपना तरीका है। वो रोज़ मीडिया से सीधे बात करते हैं, किसी भी राष्ट्र प्रमुख के बारे में कुछ भी कह देते हैं। बड़े-बड़े फैसले सोशल मीडिया पोस्ट करके घोषणाएं करते हैं। दूसरे देशों के प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों को सीधे मोबाइल पर फोन करते हैं। ऐसा अमेरिका में पहले कभी किसी राष्ट्रपति ने नहीं किया। अब अमेरिका के लोग भी कह रहे हैं कि ट्रंप सिर्फ एक व्यापारी हैं, सौदा करने वाले हैं। इसीलिए भारत को ट्रंप से समझौता करने के नए और अलग तरीके ढूंढने होंगे और मुझे विश्वास है कि इसकी कोशिश ज़रूर की जा रही होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर 33 वर्ष तक संघ प्रमुख रहे। संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहेब देवरस 20 वर्ष तक इस पद पर रहे।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार।
मोहन जी और मोदी जी उम्र के 75 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी अपने-अपने पद पर बने रहेंगे। कब तक बने रहेंगे, यह मोहन जी के मामले में संघ और स्वयं मोहन जी को तय करना है, वहीं मोदी जी के मामले में यह निर्णय भाजपा और स्वयं मोदी जी को करना है। ना तो संघ के संविधान में और ना ही भाजपा के संविधान में 75 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर पद छोड़ने का कोई उल्लेख है। यह पूरी तरह संस्था के समर्थन, व्यक्तिगत स्वास्थ्य और विवेक पर निर्भर करता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर 33 वर्ष तक संघ प्रमुख रहे। संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहेब देवरस 20 वर्ष तक इस पद पर रहे। मोहन भागवत जी को संघ प्रमुख बने अभी मात्र 16 वर्ष हुए हैं और 13 दिन बाद, यानी 11 सितंबर को, वह 75 वर्ष के हो जाएंगे। वह पूर्णतः स्वस्थ हैं और संघ भी उनके साथ खड़ा है।
2009 में संघ प्रमुख बनने के बाद मोहन भागवत को लगा कि दिल्ली भाजपा में एक प्रकार का “सिंडिकेट” सक्रिय है और दिल्ली के दादाओं का दबदबा समाप्त करना आवश्यक है। इसी कारण उन्होंने नागपुर से सीधे नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर भेजा।
भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी जी 2009 में 82 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने थे। उस समय पार्टी और संघ ने उन्हें पूरा समर्थन दिया। आडवाणी जी जब संघ का समर्थन लेने नागपुर गए थे, तब भी संघ प्रमुख मोहन भागवत ही थे और आज भी वही इस पद पर हैं।
2014 में यही मोहन भागवत जी थे, जिन्हें लगा कि अब आडवाणी जी को सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहिए और प्रधानमंत्री पद के लिए नए चेहरे को आगे बढ़ाना चाहिए। आडवाणी जी के तमाम विरोध के बावजूद मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी के नाम पर मुहर लगाई।
मोहन भागवत भली-भांति जानते हैं कि भाजपा में कब किस नेता के पर कतरने हैं और कब किसे विश्राम देना है। वर्तमान में मोहन जी और मोदी जी दोनों अपनी-अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे हैं। एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन के प्रमुख के रूप में मोहन जी संघ का विस्तार करने और समाज को उससे जोड़ने में लगे हैं। वहीं, प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए दिन-रात प्रयासरत हैं।
विज्ञान भवन में संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण और सभी प्रश्नों के उत्तर देने के बाद अब उनके 75 वर्ष पूर्ण होने पर पद छोड़ने की चर्चा और बहस पर पूर्णविराम लग जाना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सही मायनों में यह भारत का समय है। भारत में बैठकर शायद कम महसूस हो, किंतु दुनिया के ताकतवर देशों में जाकर भारत की शक्ति और उसके बारे में की जा रही बातें महसूस की जा सकती हैं।
प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जन संचार विभाग में प्रोफेसर।
बीते एक दशक में आत्मविश्वास हर भारतवासी में आया है, जो कुछ समय पहले तक अवसाद और निराशा से घिरा था। भरोसा जगाने वाला यह समय हमें जगा कर कुछ कह गया और लोग राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका को रेखांकित और पुनःपरिभाषित करने लगे। ‘इस देश का कुछ नहीं हो सकता’ से ‘यह देश सब कुछ कर सकता है’ तक हम पहुंचे हैं। यह आकांक्षावान भारत है, उम्मीदों से भरा भारत है, अपने सपनों की ओर दौड़ लगाता भारत है। लक्ष्यनिष्ठ भारत है, कर्तव्यनिष्ठ भारत है। यह सिर्फ अधिकारों के लिए लड़ने वाला नहीं बल्कि कर्तव्यबोध से भरा भारत है। आत्मविश्वास से भरे युवा नयी राहें बना रहे हैं।
सही मायनों में यह भारत का समय है। भारत में बैठकर शायद कम महसूस हो, किंतु दुनिया के ताकतवर देशों में जाकर भारत की शक्ति और उसके बारे में की जा रही बातें महसूस की जा सकती हैं। सांप-संपेरों के देश की कहानियां अब पुरानी बातें हैं। भारत पांचवीं बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में विश्व मंच पर अपनी गाथा स्वयं कह रहा है। अर्थव्यवस्था, भू-राजनीति, कूटनीति, डिजिटलीकरण से लेकर मनोरंजन के मंच पर सफलता की कहानियां कह रहा है।
सबसे ज्यादा आबादी के साथ हम सर्वाधिक संभावनाओं वाले देश भी बन गए हैं, जिसकी क्षमताओं का दोहन होना अभी शेष है। भारत के एक अरब लोग नौजवान यानी 35 साल से कम आयु के हैं। स्टार्टअप इकोसिस्टम, जलवायु परिवर्तन के लिए किए जा रहे प्रयासों, कोविड के विरुद्ध जुटाई गई व्यवस्थाएं, जी 20 के अध्यक्ष के नाते मिले अवसर, जीवंत लोकतंत्र, स्वतंत्र मीडिया हमें खास बनाते हैं। चुनौतियों से जूझने की क्षमता भारत दिखा चुका है। संकटों से पार पाने की संकल्प शक्ति वह व्यक्त कर चुका है। अब बात है उसके सर्वश्रेष्ठ होने की। अव्वल होने की। दुनिया को कुछ देने की।
नया भारत अपने सपनों में रंग भरने के लिए चल पड़ा है। भारत सरकार की विकास योजनाओं और उसके संकल्पों का चतुर्दिक असर दिखने लगा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक उत्साह से भरे हिंदुस्तानी दिखने लगे हैं। जाति, पंथ, भाषावाद, क्षेत्रीयता की बाधाओं को तोड़ता नया भारत बुलंदियों की ओर है। नीति आयोग के पूर्व सीईओ श्री अमिताभ कांत की सुनें तो “2070 तक हम बाकी दुनिया को 20-30 प्रतिशत वर्कफोर्स उपलब्ध करवा सकते हैं और यह बड़ा मौका है।”
ऐसे अनेक विचार भारत की संभावनाओं को बता रहे हैं। अपनी अनेक जटिल समस्याओं से जूझता, उनके समाधान खोजता भारत अपना पुन: आविष्कार कर रहा है। जड़ों से जुड़े रहकर भी वह वैश्विक बनना चाहता है। उसकी सोच और यात्रा वैश्विक नागरिक गढ़ने की है। यह वैश्चिक चेतना ही उसे समावेशी, सरोकारी, आत्मीय और लोकतांत्रिक बना रही है। लोगों का स्वीकार और उनके सुख का विस्तार भारत की संस्कृति रही है। वह अतिथि देवो भवः को मानता है और आंक्राताओं का प्रतिकार भी करना जानता है। अपनी परंपरा से जुड़कर वैश्विक सुख, शांति और साफ्ट पावर का केंद्र भी बनना चाहता है।
वर्तमान में अमेरिकी की ट्रेड टैरिफ की चुनौती हो या हमारे आंतरिक संकट हमें साथ मिलकर रास्ता निकालना है। भारत की वैश्विक चेतना और महत्व हमारे भारतवंशी स्थापित कर रहे हैं। हमें समविचारी राष्ट्रों को साथ लेकर अपनी छवि बनानी होगी। स्वदेशी और स्वावलंबन के मंत्र से ही एक नया भारत बनेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )