महात्मा गांधी की अर्थनीति अहिंसा और बराबरी पर आधारित थी। उसके केंद्र में न तो...
अरुण कुमार त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार ।।
अहिंसा और बराबरी पर आधारित थी गांधी की अर्थनीति
महात्मा गांधी की अर्थनीति अहिंसा और बराबरी पर आधारित थी। उसके केंद्र में न तो बड़े-बड़े उद्योग और बाजार थे और न ही राज्य की असाधारण शक्ति। उसके केंद्र में थी राजनीति और पूंजी की विकेंद्रित सत्ता और नैतिक मनुष्य। इसलिए पारंपरिक अर्थशास्त्र के दायरे में उन्हें रख पाना और अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को उनके विचार समझा पाना आसान नहीं है। उनके आर्थिक विचार जहां भारत की वैष्णवी परंपरा से प्रभावित थे, वहीं यूरोप के लेखक जान रस्किन की `अनटू दिस लास्ट’ से भी। उन पर टालस्टाय का `ब्रेड लेबर’ यानी रोटी के लिए श्रम के सिद्धांत का भी प्रभाव था। एक तरह से वे ऐसे भारतीय चिंतक थे, जो यूरोप के अच्छे और अनुकूल विचारों को मिलाकर अपनी अर्थनीति निर्मित कर रहे थे। रस्किन के `अनटू दिस लास्ट’ का सर्वोदय नाम से अनुवाद करने वाले गांधी ने उससे जो तीन सूत्र ग्रहण किए थे, वह उनकी अर्थनीति को समझाने में काफी मददगार साबित हो सकते हैः—
1- व्यक्ति की भलाई सबकी भलाई में निहित है। (यहां सबके आगे व्यक्ति का समर्पण नहीं है।)
2- वकील के कार्य का भी वही मूल्य है, जो नाई के कार्य का है। क्योंकि सभी को अपने काम से आजीविका कमाने का हक है।
3- एक मजदूर का जीवन यानी खेत जोतने वाले किसान और शिल्पकार का जीवन श्रेष्ठ जीवन है।
उन्हें टालस्टाय के ब्रेड लेबर सिद्धांत ने भी बहुत प्रभावित किया था और उसका अर्थ था कि हर किसी को अपने जीवन की मूल आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए श्रम करना चाहिए। यहां तक कि एक बौद्धिक को भी उससे मुक्त नहीं रखना चाहिए।
गांधी की अर्थनीति भौतिक सुख-सुविधाओं की चिंता करती थी, लेकिन नैतिकता की कीमत पर नहीं। यानी जो अर्थनीति मनुष्य और राष्ट्र के नैतिक कल्याण को आहत करती है, वह अनैतिक कही जाएगी और पापपूर्ण है। इसी तरह जो अर्थशास्त्र एक देश को दूसरे का शिकार करने की अनुमति देता है, वह अनैतिक है। अब अगर गांधी के इस अर्थशास्त्र को पारंपरिक अर्थशास्त्र की परिभाषा के समक्ष रखकर देखेंगे तो वे एक उटोपिया रचते दिखाई देंगे, जिसे इक्कीसवीं सदी की तीसरी औद्योगिक लहर में व्यावहारिक बना पाना बेहद कठिन लगेगा। जो भी कक्षाओं में पढ़ाया जाने वाला अर्थशास्त्र है, वह तो यही कहता है कि मनुष्य की विभिन्न आर्थिक गतिविधियों का अध्ययन और उसमें किसी नियम की तलाश ही अर्थशास्त्र है।
अल्फ्रेड मार्शल कहते हैं कि अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो जीवन के सामान्य व्यापार में मनुष्य के कल्याण का अध्ययन करता है। कार्ल मार्क्स अगर अर्थशास्त्र में अतिरिक्त मूल्य और उससे पूंजी के निर्माण का सिद्धांत देते हैं तो वे उससे बढ़ने वाली असमानता और शोषण का हल वर्ग संघर्ष और हिंसक क्रांति में देखते हैं। मौजूदा दौर पर सर्वाधिक प्रभावी ढंग से हावी और मार्शल के शिष्य जान मेनार्ड कीन्स ने रोजगार ब्याज और मुद्रा के सामान्य सिद्धांत के ग्रंथ की रचना 1936 में की। उनका उद्देश्य मंदी में फंसे विकसित देशों को बाहर निकालना था और इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय आय और मांग का सिद्धांत दिया। उन्होंने कहा कि अगर रोजगार बढ़ाना है तो उपभोग बढ़ाना होगा।
गांधी इन सभी अर्थशास्त्रियों से एकदम अलग थे। वे न तो सुखी मानव जीवन के लिए निरंतर मांग बढ़ाते जाने में यकीन करते थे और न ही पूंजीपतियों की सत्ता को ध्वस्त करने के लिए वर्ग संघर्ष और हिंसक क्रांति की बात करते थे। वे सर्वहारा की तानाशाही की बात भी नहीं करते। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उनके आदर्श छोटे हैं और न ही इसका यह मतलब है कि वे अव्यावहारिक हैं।
वे पूंजी को सामाजिक रूप से जरूरी भी मानते थे लेकिन उसे किसी एक के हाथ में केंद्रित होने को अनुचित मानते थे। पूंजीपतियों को बेहद नजदीक से देखने वाले गांधी का विश्वास था कि बड़े पैमाने पर पूंजी हिंसा से ही इकट्ठा की जा सकती है। उसके लिए चाहे परोक्ष हिंसा हो या प्रत्यक्ष। जाहिर है कि जो चीज हिंसा से जमा की जा रही है, उसे अहिंसा से संरक्षित नहीं किया जा सकता। उसकी रक्षा तो हिंसा से ही हो सकती है। हम देख सकते हैं कि पूंजी ने अपनी रक्षा के लिए राज्य को किस तरह अपना औजार बना रखा है। चाहे कारखाना लगाने के लिए किसानों की जमीन हथियाने के लिए किया जाने वाला बल प्रयोग हो या कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की हड़ताल को दबाने का सवाल हो, हर जगह हिंसा उपस्थित है। सिंगुर और नंदीग्राम तो एक प्रत्यय बन गया, लेकिन गुड़गांव और दिल्ली के आसपास नोएडा और ग्रेटर नोएडा के घोड़ी बछेड़ा गांव भी कम चर्चित नहीं हुए। दक्षिण के तूतीकोरन में स्टरलाइट के विरुद्ध हुए आंदोलन की हिंसा की स्मृति भी ताजा ही होगी। वह स्पष्ट तौर पर पूंजी का क्रूर चरित्र था, जिसमें राज्य उसके साथ खड़ा था। यानी, पूंजी हिंसा से अपनी रक्षा करती है और हिंसा की वह शक्ति वह राज्य से प्राप्त करती है। जनता ने राज्य को अन्याय से लड़ने के लिए दंड देने और हिंसा रोकने के नाम पर हिंसा करने का वैध अधिकार जो दे रखा है।
इसका मतलब यह नहीं कि वे पूंजीपतियों के विरुद्ध थे। वे जानते थे कि पूंजीपतियों और उद्यमियों के पास वह हुनर होता है, जिससे वे धन कमा सकें। इसलिए वे उन्हें धन कमाने और उनके हुनर के इस्तेमाल की छूट दिए जाने के पक्ष में थे। पर वे यह चाहते थे कि पूंजीपति जो धन कमाए उसे समाज के हित में लगाए और उस पर निजी अधिकार न माने। पूंजीपति अपनी जरूरत का धन इकट्ठा करे और उसके बाद की जो कमाई है, वह सामाजिक कल्याण में लगाए। इसलिए वे न सिर्फ पूंजी पर सामुदायिक स्वामित्व कायम करने के हिमायती थे, बल्कि उत्पादन के साधनों पर भी सामुदायिक स्वामित्व चाहते थे। यहीं पर उनके ट्रस्टीशिप का सिद्धांत आता है और उसके अनुसार पूंजीपति अपनी कमाई गई संपत्ति का मालिक नहीं है, बल्कि ट्रस्टी है और वह उसका सामाजिक हित में इस्तेमाल कर रहा है।
गांधी यहीं पर आदर्श और साध्य के रूप में समाजवाद के करीब जाते हैं। जहां न तो किसी के पास आवश्यकता से अधिक संपत्ति होनी चाहिए और न ही संपत्ति के उत्तराधिकार की परंपरा होनी चाहिए। लेकिन उसे प्राप्त करने के उनके तरीके अलग हैं। वे न तो ट्रस्टीशिप का आदर्श हिंसक क्रांति से हासिल करना चाहते हैं और न ही उसे बनाए रखने के लिए सर्वहारा की तानाशाही या राज्य के कठोर कानूनों की हिमायत करते हैं। वे राज्य को अतिरिक्त शक्ति देने के पक्ष में नहीं हैं। वे साम्राज्यवाद से लड़ते हुए देख रहे थे कि इंग्लैंड ने अपनी जो भी समृद्धि हासिल की वह दूसरे देशों के संसाधनों के शोषण पर आधारित थी। उसने राज्य के माध्यम से उन देशों की जनता को गुलाम बनाने, मारने और कुचलने की नीति अपनाई, जिनके संसाधनों को उनके पूंजीपति छीनना चाहते थे। इसलिए वे नहीं चाहते थे कि भारत की तरक्की इंग्लैंड की तरह उद्योगीकरण के रास्ते हो, क्योंकि अगर भारत को उस तरह समृद्ध बनना है तो दुनिया के कई देशों का शोषण करना पड़ेगा।
गांधी उन्नीसवीं सदी में इंग्लैंड में रहे थे और उन्होंने वहां औद्योगीकरण के बुरे परिणाम अपनी आंख से देखे थे। इसलिए वे क्रोपटकिन जैसे अराजकतावादियों की ओर भी आकर्षित हुए थे। हालांकि गांधी के किसी लेखन में क्रोपटकिन का जिक्र नहीं है लेकिन उस समय लंदन में रह रहे क्रोपटकिन के विचारों का उन पर प्रभाव दिखता है।
गांधी विशाल आधुनिक मशीनों पर आधारित थोक उत्पादन से दो तरह से भयभीत थे। एक तो वे मानते थे कि मशीनें आदमी के हाथ से रोजगार छीन लेती हैं और दूसरे वे अपने थोक उत्पादन को बेचने के लिए दुनिया में बाजार ढूंढती हैं। जिनके हाथ में मशीनें होती हैं, वे दूसरों को कम तनख्वाह और विस्थापन देते हैं और असमानता पैदा करते हैं। दूसरी ओर मशीन और सामान बेचने के लिए गरीब और पिछड़े देशों की तलाश की जाती है और उनका दोहन किया जाता है। इसीलिए पंडित नेहरू से असहमत होते हुए वे 1940 में लिखते हैः—
`पंडित नेहरू चाहते हैं कि उद्योगीकरण हो क्योंकि वे सोचते हैं कि अगर इसका सामाजीकरण कर दिया गया तो वह पूंजीवाद की बुराई से मुक्त हो जाएगा। मेरा विचार यह है कि औद्योगीकरण में बुराई अंतर्निहित है। उसमें कितना भी समाजवाद डालो वह दूर नहीं होगी।’
सोवियत संघ और यूरोप के अन्य समाजवादी देशों ने सत्तर सालों तक उद्योगों पर राज्य का स्वामित्व रखा और बाद में वे विफल हुए। आज चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने बचे रहने का ढिंढोरा भले पीटती हो लेकिन उसकी समाजवादी आर्थिक नीतियों पर पूंजीवाद का कब्जा हो चुका है। विडंबना यह है कि वह अपने औद्योगिक ढांचे को चलाए रखने के लिए न सिर्फ अमेरिका से व्यापारिक युद्ध कर रहा है बल्कि दुनिया के कई देशों में निवेश करते हुए उन्हें अपना उपनिवेश बना रहा है।
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के साथ 1990 में शुरू हुए पूंजीवाद के नए दौर ने साबित कर दिया है कि नए बाजार को खोजे बिना और दूसरे देशों के संसाधनों के दोहन के बिना उद्योगों का थोक उत्पादन न तो चल सकता है और न ही नई मशीनों का आविष्कार प्रासंगिक रह सकता है। शीत युध्द समाप्त होने के साथ रोनाल्ड रेगन और मार्गरेट थैचर की पहल पर वाशिंगटन सहमति के नाम से शुरू हुई इस नई अर्थनीति ने जहां भारत समेत दुनिया के तमाम देशों को अपनी चपेट में लिया है वहीं सबसे बड़ी चुनौती महात्मा गांधी की अर्थनीति के समक्ष प्रस्तुत की है। गांधी की अर्थनीति को सिर्फ नेहरू ने ही ठुकराया उदारीकरण ने अपने 30 साल के कठोर प्रहार से गांधी के सोच को ध्वस्त करने की कोशिश की है। लेकिन यहीं बढ़ते शहरीकरण, केंद्रीकरण, पर्यावरण विनाश, मानवाधिकार उल्लंघन और युद्ध और आतंकवाद के खतरों के बीच गांधी फिर प्रासंगिक हो रहे हैं।
यह महज संयोग नहीं है कि आदिवासियों के शोषण से आहत डा ब्रह्मदेव शर्मा लोकलाइजेशन अगेंस्ट ग्लोबलाइजेशन की बात करते थे, बल्कि पूरी दुनिया में एक तरह की स्थानीयकरण की लहर भी शुरू हुई है। यह लहर लैटिन अमेरिका जैसे देशों के नेता फीदल कास्त्रो और ह्यूगो चावेज ने ही नहीं शुरू की यूरोप में भी कृषि के तमाम उत्पादों की स्थानीय उत्पादन और स्थानीय उपभोग की चर्चाएं भी तेज हुई हैं। यह बात तेजी से महसूस की जा रही है कि अगर आदिवासियों और मूल निवासियों को सम्मानजनक जीवन देना है तो उनके संसाधनों जैसे जल जंगल और जमीन को बचाना होगा और उन्हें वहीं पर अपनी जरूरत की चीजों के आत्मनिर्भर बनाना होगा। इससे पर्यावरण भी संरक्षित होगा और मानवाधिकार की भी रक्षा होगी।
गांधी जिस शहरीकरण का विरोध करते थे, वही आज सभ्यता का आदर्श बनता जा रहा है। लेकिन शहरों में बढ़ते ट्रैफिक जाम, प्रदूषण और परायापन अब लोगों को अखरने लगा है। शहरों का बुनियादी ढांचा बनाने में जो संसाधन लगते हैं और उसे व्यवस्थित करने में जिस बड़ी नौकरशाही की जरूरत होती है, वह सरकारों पर एक बोझ साबित हो रही है। एक प्रकार से शहर और गांव के भीतर लगातार तनाव बढ़ रहा है और पूंजी और सत्ता का केंद्रीकरण भी निर्मित हो रहा है। यूरोप में अगर भोजन के अंत और तेल व पानी के अंत की घोषणाएं हो रही हैं तो उनकी नींव में शहरों का अंधाधुंध विस्तार ही है। शहरों के उपभोग की जो वस्तुएं दूर उत्पादित होती हैं उनको लाने और संरक्षित करने में भारी खर्च आता था। आज तमाम नियोजक महसूस कर रहे हैं कि खाद्य का यह व्यापार विशुद्ध रूप से मूर्खता है। इसलिए शहरों के उपयोग की चीजें उनके आसपास ही पैदा की जानी चाहिए और उनका वहीं उपभोग कर लेना चाहिए। गांधी के विकेंद्रीकरण का यही रूप है।
गांधी की अर्थनीति में उपभोग, प्रौद्योगिकी, उत्पादन के परिमाण, विकेंद्रीकरण, शहरीकरण , समता और विशेषीकरण का एक रिश्ता है। गांधी दो बातों में सबसे ज्यादा पिछड़े और मध्ययुगीन लगते हैं। एक तो वे मशीनों के प्रति बहुत ज्यादा झिझक रखते हैं और दूसरी बात यह है कि वे खेती को सबसे ज्यादा सही व्यवसाय मानते हैं। लेकिन मशीनों के बारे में गांधी का वह चित्र बड़ा मशहूर है जिसमें वे माइक्रोसकोप में कुष्ठरोग के कीटाणुओं का निरीक्षण कर रहे हैं। लंदन में जब चार्ली चैपलिन उनसे पूछते हैं कि वे मशीनों का विरोध क्यों करते हैं तो वे कहते हैं कि हम तो जहाज से आए हैं। साइकिल से लेकर रेलगाड़ी तक का प्रयोग करते हैं इसलिए मशीनों का अंध विरोध कहां है। लेकिन आपने हमें अनावश्यक मशीनें दे दी हैं। जैसे हम तो हाथ से खाना खाते हैं लेकिन आपने हमें छूरी कांटा दे दिया। इसलिए हम वैसी मशीनों का विरोध करते हैं जो गैर जरूरी हैं और हमें गुलाम बनाती हैं।
गांधी स्वयं एक व्यवसायी परिवार से थे, लेकिन उनकी अर्थनीति घाघ की उस कहावत पर आधारित थी कि `उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी भीख निदान’। उनके शिष्य और अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा ने इकानमी आफ परमानेंस नाम की ग्रंथ रचना की है। उनका कहना था कि औद्योगिक अर्थव्यवस्था हिंसा की अर्थव्यवस्था है। वह प्रकृति का अतिरिक्त दोहन करती है और इनसानों को उजाड़ती, मारती और बेरोजगार बनाती है। इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था अहिंसक है तो शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था हिंसक है। गांधी के शिष्य डा राममनोहर लोहिया ने 1966 में निजी सदस्य के रूप में ट्रस्टीशिप का बिल भी संसद में पेश किया था और विनोबा भावे ने जबरदस्त भूदान आंदोलन चलाया। हालांकि यह दोनों प्रयास विफल रहे।
गांधी की अर्थनीति के केंद्र में मनुष्य है। वह पूंजीपति और राज्य दोनों को अथाह शक्ति नहीं देना चाहती। वह न तो पूंजीपतियों के हाथ में उत्पादन के ऐसे साधन देना चाहती है जिससे वे मनुष्य को गुलाम बना लें और न ही राज्य के हाथ में ऐसा हथियार देना चाहती है जिससे वे मानवता का विनाश करें। आज अगर थामस पिकेटी, जोसेफ स्टीग्लिट्ज बढ़ती असमानता से चिंतित हैं और कारपोरेट को नियंत्रित करने के लिए नए सिरे से टैक्स लगाने की बात करते हैं तो परमाणु हथियारों से भी दुनिया चिंतित है। जिन्होंने परमाणु हथियार बना लिए हैं वे चाहते हैं कि कोई और देश न बनाए। दूसरी ओर जो नहीं बना पाए हैं वे उसे बनाने और संरक्षित करने में लगे हैं। हथियारों का बजट हर देश जरूरी मानता है और उस पर बड़े बड़े लोकतंत्र में सवाल नहीं उठते हैं। इसकी कीमत पर शिक्षा और स्वास्थ्य में चाहे जितनी कटौती हो जाए और चाहे जितनी बदहाली।
इस बीच मशीनों और संचार प्रौद्योगिकी ने एक ओर झूठ(उत्तर सत्य) और उससे डरी राजनीतिक व्यवस्थाओं की चुनौती पेश की है तो दूसरी ओर `आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस’ जैसा आविष्कार मनुष्य पर ही कब्जा करने को तैयार बैठा है। गांधी की नैतिक अर्थव्यवस्था एक बार फिर हम से पूछ रही है कि हम कहां जा रहे हैं और क्या कर रहे हैं। धरती पूछ रही है कि हमें कितना विनाश सहना होगा। धार्मिक समूह पूछ रहे हैं कि हमें कितने आतंकी पैदा करने होंगे तो सैनिक पूछ रहे हैं कि हमें कितने आपरेशन करने होंगे। जबकि सेनाध्यक्ष कह रहे हैं कि सैनिक वर्चस्व का सारा खेल तो अर्थव्यवस्था का है। ऐसे में गांधी की 150 वीं जयंती पर उनके बारे में कही गई सरोजिनी नायडू की वह बात याद आती है कि हम चाहते हैं कि उनकी आत्मा को शांति न मिले और वह इस दुनिया में तब तक भटकते रहें, जब तक एक अंहिसक समाज (अर्थव्यवस्था) का निर्माण न हो जाए।
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प्रवीण तिवारी ।।
आलाकमान से मुलाकात करने के लिए गहलोत और पायलट का तैयार होना यह अपने आप में इशारा करता है कि गहलोत और पायलट दोनों ही कांग्रेस के साथ खुद को बेहतर स्थिति में पाते हैं। इसके अलावा इनके पास फिलहाल चुनाव से पहले कोई विकल्प भी नहीं दिखाई देता। ऐसे में बीजेपी की तरफ से किसी तरह के प्रस्ताव के बारे में सूचना अभी जल्दबाजी होगी, क्योंकि पहले यह चर्चाएं चल रहीं थीं कि क्या पायलट बीजेपी के साथ जा सकते हैं।
कुल मिलाकर सचिन पायलट अपना फैसला ले चुके हैं। वह कांग्रेस के साथ बने रहेंगे। हां, उनकी नजर हमेशा सीएम की कुर्सी पर रही है और सही बात यह है कि वह इसके लायक भी हैं। पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के तमाम प्रयास भी किए लेकिन संख्या बल के आधार पर अशोक गहलोत हमेशा उन पर भारी पड़ जाते हैं।
अब स्थितियां बदलती दिखाई दे रही हैं, क्योंकि आलाकमान भी जानते हैं कि अशोक गहलोत ने जिस तरीके से इस बार राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव लड़कर और सीएम की कुर्सी पर बने रहने के लिए बागी तेवर दिखाए हैं वह आने वाले समय में आलाकमान की राजस्थान में पकड़ को कमजोर होता दिखाई देते हैं। लिहाजा कहीं ना कहीं शीर्ष नेतृत्व पायलट के साथ खड़ा दिखाई देता है।
अभी तक कोई फार्मूला सामने नहीं आया है कि पायलट आखिर कांग्रेस के साथ बने रहने में कोई परेशानी तो महसूस नहीं कर रहे हैं, पर यह माना जा रहा है कि उनको स्क्रीनिंग कमेटी पीसीसी चीफ के तौर पर सामने रखा जा सकता है। यह बात सही है कि सचिन पायलट और गहलोत मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो कांग्रेस राजस्थान में मजबूत स्थिति में दिखाई देगी। बीजेपी भी इस बात को भांप गई है ! यही वजह है कि बीजेपी ने आनन-फानन में प्रधानमंत्री मोदी की रैली में वसुंधरा राजे सिंधिया को काफी सम्मान दिया।
यह इशारा है कि वसुंधरा राजे सिंधिया अभी बीजेपी का चेहरा है। बीजेपी अभी तक इंतजार कर रही थी कि कांग्रेस के सिर फुट्टवल से उनको कितना फायदा हो सकता है लेकिन अब यह है कि कांग्रेस अपने दोस्तों के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी। देखना दिलचस्प होगा कि जिन तीन मांगों को लेकर पायलट प्रदर्शन करते रहे हैं उन मांगों पर अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व और अशोक गहलोत का रुख क्या रहता है क्योंकि ज्यादातर मांगे गहलोत के लिए परेशानी का सबब मानी जा रही थी।
इनमें से एक बड़ी बात जो वसुंधरा राजे सिंधिया के कार्यकाल के दौरान हुए कथित भ्रष्टाचार की जांच की मांग है। वह कांग्रेस को सूट करती है लिहाजा कांग्रेस पायलट और गहलोत के अलग-अलग रहते हुए साथ चलने की रणनीति पर काम कर रही है यह झगड़ा एक बड़ी रणनीति का हिस्सा भी दिखाई पड़ता है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं और वह 'अमर उजाला डिजिटल' में कार्यरत हैं)
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रजत शर्मा, एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी ।।
मोदी को मालूम है कि राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस के सामने एक ही समस्या है – गुटबाजी। अगर इसे दूर कर लिया, तो बात बन सकती है, इसलिये मोदी ने सबसे पहले गुटबाजी को खत्म करने में ताकत लगाई। काफी हद तक इसे दूर कर किया, बुधवार को अजमेर रैली के मंच पर वसुंधरा राजे, गजेंद्र सिंह शेखावत, राजेंद्र सिंह राठौर और सी. पी. जोशी सभी एक साथ दिखाई दिए। ऐसा लग रहा है कि राजस्थान बीजेपी के नेताओं को साफ बता दिया गया है कि अगला चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।
दूसरी तरफ कांग्रेस मुश्किल में है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट की दूरियां खत्म करने की सारी कोशिशें नाकाम होती दिख रही है। बुधवार को सचिन पायलट अपने चुनाव क्षेत्र टोंक में थे। पायलट ने रैली में कहा कि वसुंधरा राजे शासन के दौरान हुए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए उन्होंने गहलोत सरकार को जो अल्टीमेटम दिया था, वह खत्म हो गया है, अब उन्हें आगे क्या करना है, इसका फैसला जल्दी करेंगे। गहलोत ने कहा था कि सबको धैर्य रखना चाहिए, सब्र का फल मीठा होता है, इस पर सचिन पायलट ने कहा कि उम्र में बड़े नेताओं को चाहिए कि वो नौजवानों को आगे आने का मौका दें, कुछ बुजुर्ग नेता खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, इसीलिए वो युवा नेताओं को पैर पकड़कर नीचे खींच लेते हैं।
सचिन पायलट द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई और रोजगार का मुद्दा तो गहलोत को घेरने के लिए है। हकीकत ये है कि सचिन पायलट चाहते हैं कि कांग्रेस राजस्थान में चुनाव से पहले उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करे. पांच साल पहले किया गया अपना वादा पूरा करे। लेकिन आजकल अशोक गहलोत को कांग्रेस हाईकमान का समर्थन है, इसलिए उन्होंने साफ कह दिया है कांग्रेस हाईकमान को कोई मजबूर नहीं कर सकता, उन्होंने सचिन पायलट को धैर्य रखने का उपदेश दिया।
मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी को लगता है कि सचिन पायलट की नाराजगी झेली जा सकती है लेकिन चुनाव से पहले अशोक गहलोत को नाराज करना पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। सचिन पायलट सब्र करने के लिए तैयार होंगे, ये मुश्किल लगता है. सचिन का अल्टिमेटम राजस्थान में कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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राहुल गांधी ने बुधवार सुबह कैलिफोर्निया के सांता क्लारा में एक कार्यक्रम में भारतीयों को संबोधित किया। सैन फ्रांसिस्को में राहुल गांधी ने अपने संबोधन के दौरान भारत के मुसलमानों के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए कहा, 'जो हाल 80 के दशक में दलितों का था, वही हाल अब मुसलमानों का हो गया है।
उनके इस बयान पर समाचार4मीडिया से बात करते हुए आलोक मेहता ने कहा कि सचमुच विदेशों में राहुल गांधी के भाषण भारत के सम्बन्ध में एक नेता के बजाय एक्टिविस्ट की तरह हैं जो भारत की सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों को भयावह रूप में पेश कर रहे हैं।
अब 80 के दशक में कांग्रेस राज के दौरान दलितों की स्थिति बदतर होने की तुलना वर्तमान में मुस्लिम की हालत से कर रहे हैं। उनके सलाहकार शायद यह ध्यान नहीं दिला रहें कि भारत के मुस्लिम समुदाय के गरीब लोग अन्य करोड़ों भारतीयों के साथ समान अनाज,आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा, खेती या रोजगार के प्रशिक्षण की सुविधाएं पा रहे हैं, क्योंकि भाजपा या कांग्रेस अथवा अन्य गैर भाजपा शासित राज्यों में किसी भी योजना में धर्म के आधार पर भेदभाव संभव नहीं है।
यही नहीं, उनके सांसद रहते कांग्रेस सरकार के बजट में अल्पसंख्यक मंत्रालय में रही धनराशि का 600 से 800 करोड़ रुपए तक की धनराशि साल में खर्च ही नहीं हो पाती थी, रिकॉर्ड चेक कर लें। अब भी कांग्रेस के नेता और उनके कार्यकर्त्ता क्या उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे राज्यों में मुस्लिमों के बीच सक्रिय रहकर उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने में क्या कोई सहायता कर रहे हैं?
दुनिया के मुस्लिम देश तो मोदी सरकार का समर्थन कर बड़े पैमाने पर पूंजी लगा रहे हैं। पाकिस्तान के कई नेता और अन्य लोग भारत की हालत बेहतर बता रहे हैं। बहरहाल,अभिव्यक्ति के दुरुपयोग से विदेशी समर्थन और लाभ लेने के दूरगामी परिणाम घातक भी हो सकते हैं। कुछ विदेशी ताकतें तो हमेशा भारत में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता पैदा करने के लिए अवसर और मोहरे तलाशती रहती है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं।)
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वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है। इस सप्ताह मिलिंद खांडेकर ने भारतीय उघोगपति गौतम अडानी के बारे में बात की है। उन्होंने लिखा, अमेरिका की रिसर्च फ़र्म हिंडनबर्ग ने जनवरी में अडानी ग्रुप की कंपनियों पर सवाल खड़े कर दिए थे। गौतम अडानी दुनिया के तीसरे नंबर के अमीर व्यक्ति थे, रिपोर्ट आने के बाद वो पहले 30 अमीरों की लिस्ट से भी बाहर हो गए थे और अब वो 24 वें नंबर पर हैं। शेयर बाज़ार में उनकी कंपनियों की क़ीमत 19 लाख करोड़ रुपये थी, ये गिरते गिरते 6 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गई थी। अब क़ीमत दस लाख करोड़ रुपये के पार है।
हिंडनबर्ग के आरोप यह थे कि अडानी ग्रुप के शेयरों की क़ीमत 85% से ज़्यादा है। अडानी ग्रुप ने हेराफेरी से शेयरों के दाम बढ़वाए हैं। अडानी ग्रुप पर 2.20 लाख रुपये का भारी क़र्ज़ है। इन आरोपों का नतीजा यह हुआ कि अडानी ग्रुप के शेयरों की क़ीमत धड़ाम से गिर गई। शेयरों के दाम हेराफेरी से बढ़ाने के आरोप की जांच का अधिकार शेयर बाज़ार की देखरेख करने वाली सेबी को है जबकि कर्ज बैंकों का मामला था। अडानी ग्रुप ने क़र्ज़ घटाने की दिशा में कदम उठाए। कर्ज समय से पहले चुकाना शुरू किया और कारोबार को फैलाने की गति कम कर दी।
इस बीच, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया और कोर्ट ने कमेटी बना दी। कमेटी का काम अडानी की जांच करना नहीं था बल्कि ये देखना था कि कहीं अडानी की जांच में सेबी से चूक तो नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी को मोटे तौर पर तीन काम दिए थे कि क्या सेबी इन आरोपों की जांच में चूक गई है। क्या अडानी ग्रुप की कंपनियों ने न्यूनतम पब्लिक शेयर होल्डिंग के नियम को तोड़ा है। पब्लिक कंपनी यानी जो शेयर बाजार में लिस्ट है उसमें किसी एक ग्रुप की शेयर होल्डिंग्स 75% से ज़्यादा नहीं हो सकती है।
हिंडनबर्ग का आरोप है कि विदेशी फंड के ज़रिए अडानी की शेयर होल्डिंग्स 75% से ज़्यादा है यानी नियम तोड़ा है। क्या अडानी ग्रुप ने भाईचारे वाले यानी रिलेटेड पार्टी सौदे किए हैं। हिंडनबर्ग का आरोप है कि अडानी के भाई विनोद के साथ ऐसे सौदे हुए हैं। अडानी ग्रुप पहले से ही इन आरोपों को ग़लत बताता रहा है। Bloomberg के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट को कमेटी ने 173 पेज की रिपोर्ट दी है। इसका सार है कि 13 विदेशी फंड के अडानी ग्रुप की कंपनियों में 14% से 20% शेयर हैं। सेबी ने इन फंड में पैसा लगाने वाले 42 लोगों का नाम पता भी खोज लिया है। अब यही असली मालिक है या इनके पीछे कोई और है, यह पता नहीं चल पाया है। अगर अडानी ग्रुप इसके पीछे है तो मिनिमम शेयर होल्डिंग्स का नियम टूटा है।
अडानी ग्रुप का कहना है कि इन लोगों से उसका कोई लेना-देना नहीं है। सेबी की जांच आगे नहीं बढ़ पा रही है क्योंकि 2019 में उसने ही नियम बदल दिया था। फंड पर असली मालिक बताने की बाध्यता ख़त्म कर दी गई थी बाकी दो आरोपों पर सेबी के हाथ कुछ नहीं लगा है। यही रिपोर्ट अडानी ग्रुप के शेयरों की क़ीमत में उछाल का कारण बनी हुई है। सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 14 अगस्त को है, तब साफ हो जाएगा कि अडानी को आरोपों से आजादी मिलेगी या नहीं। इस सारी उठापटक में NRI इनवेस्टर राज जैन सबसे फ़ायदे में रहे हैं।
उन्होंने मार्च में अडानी ग्रुप के शेयरों में करीब 15 हज़ार करोड़ रुपए लगाए थे, ढाईं महीने में उनकी कीमत 25 हजार करोड़ रुपये हो गई है यानी दस हजार करोड़ रुपये का फायदा। कहते हैं कि शेयर तभी खरीदना चाहिए जब वो मंदी में हो, तेजी में नहीं और राज जैन का सौदा इसका साक्षात उदाहरण है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक 'टीवी टुडे ग्रुप' में कार्यरत हैं)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद क्षेत्र का राजनीतिक वातावरण बदलता रहा है। 2014 में पार्टी ने अरुणाचल प्रदेश में 11 सीटें जीतने के साथ ही अपना वोट 6 गुना बढ़ा लिया।
आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार।।
सत्ता, संपन्नता, शिखर-सफलता से अधिक महत्वपूर्ण है- संघर्ष की क्षमता और जीवन मूल्यों की दृढ़ता। इसलिए नरेन्द्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री पद और नौ वर्षों की सफलताओं के विश्लेषण से अधिक महत्ता उनकी संघर्ष यात्रा और हर पड़ाव पर विजय की चर्चा करना मुझे श्रेयस्कर लगता है। सत्ता और संबंधों को बनाने से अधिक महत्व उनकी निरंतरता का है। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए अनथक कार्यों और उपलब्धियों के बावजूद 2023 –2024 न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वरन उनकी पार्टी भाजपा और लोकतंत्र के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की योजनाओं को जनता तक पहुंचाने का दायित्व प्रशासन से अधिक कार्यकर्ताओं और समर्थकों , सामाजिक संगठनों का है।
राजधानी में संभवतः ऐसे बहुत कम पत्रकार इस समय होंगे, जो 1972 से 1976 के दौरान गुजरात में संवाददाता के रूप में रहकर आए हों। इसलिए मैं वहीं से बात शुरू करना चाहता हूं। 'हिन्दुस्तान समाचार' (न्यूज एजेंसी) के संवाददाता के रूप में मुझे 1973-76 के दौरान कांग्रेस के एक अधिवेशन, फिर चिमन भाई पटेल के विरुद्ध हुए गुजरात छात्र आंदोलन और 1975 में इमरजेंसी रहते हुए लगभग 8 महीने अहमदाबाद में पूर्णकालिक रहकर काम करने का अवसर मिला था। इमरजेंसी के दौरान नरेन्द्र मोदी भूमिगत रूप से संघ-जनसंघ तथा विरोधी नेताओं के बीच संपर्क तथा सरकार के दमन संबंधी समाचार-विचार की सामग्री गोपनीय रूप से पहुंचाने का साहसिक काम कर रहे थे।
प्रारंभिक दौर में वहां इमरजेंसी का दबाव अधिक नहीं दिख रहा था। उन्हीं दिनों ‘साधना’ के संपादक विष्णु पंडयाजी से भी उनके दफ्तर में जाकर राजनीति तथा साहित्य पर चर्चा के अवसर मिले। बाद में संपादक-साहित्यकार विष्णु पंडया के अलावा नरेन्द्र मोदी ने इमरजेंसी पर गुजराती में पुस्तक भी लिखी। इसलिए यह कहने का अधिकारी हूं कि सुरक्षित जेल (और बड़े नेताओं के लिए कुछ हद तक न्यून्तम सुविधा साथी भी) की अपेक्षा गुपचुप वेशभूषा बदलकर इमरजेंसी और सरकार के विरुद्ध संघर्ष की गतिविधयां चलाने में नरेन्द्र मोदी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गिरफ्तारी से पहले सोशलिस्ट जार्ज फर्नांडीस भी भेस बदलकर गुजरात पहुंच थे और नरेन्द्र भाई से सहायता ली थी। मूलतः कांग्रेसी लेकिन इमरजेंसी विरोधी रवीन्द्र वर्मा जैसे अन्य दलों के नेता भी उनके संपर्क से काम कर रहे थे। संघर्ष के इस दौर ने संभवतः नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति की कटीली-पथरीली सीढ़ियों पर आगे बढ़ना सिखा दिया। लक्ष्य भले ही सत्ता नहीं रहा हो, लेकिन कठिन से कठिन स्थितियों में समाज और राष्ट्र के लिए निरंतर कार्य करने का संकल्प उनके जीवन में देखने को मिलता है।
इस संकल्प का सबसे बड़ा प्रमाण भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ दूसरी बार सत्ता में आने के कुछ ही महीनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने बाकायदा संसद की स्वीकृति के साथ कश्मीर के लिए बनी अस्थायी व्यवस्था की धारा 370 की दीवार ध्वस्त कर लोकतांत्रिक इतिहास का नया अध्याय लिख दिया। सामान्यतः लोगों को गलतफहमी है कि मोदी जी को यह विचार तात्कालिक राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों के कारण आया। हम जैसे पत्रकारों को याद है कि 1995-96 से भारतीय जनता पार्टी के महासचिव के रूप में हरियाणा, पंजाब, हिमाचल के साथ जम्मू-कश्मीर में संगठन को सक्रिय करने के लिए पूरे सामर्थ्य के साथ जुट गए थे।
हम लोगों से चर्चा के दौरान भी जम्मू-कश्मीर अधिक केन्द्रित होता था, क्योंकि भाजपा को वहां राजनीतिक जमीन तैयार करनी थी। संघ में रहते हुए भी वह जम्मू-कश्मीर की यात्राएं करते रहे थे। लेकिन नब्बे के दशक में आतंकवाद चरम पर था। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत-यात्रा के दौरान कश्मीर के छत्तीसिंगपुरा में आतंकवादियों ने 36 सिखों की नृशंस हत्या कर दी। प्रदेश प्रभारी के नाते नरेन्द्र मोदी तत्काल कश्मीर रवाना हो गए। बिना किसी सुरक्षाकर्मी या पुलिस सहायता के नरेन्द्र मोदी सड़क मार्ग से प्रभावित क्षेत्र में पहुंच गए। तब फारूख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। जब पता लगा तो उन्होंने फोन कर जानना चाहा कि 'आप वहां कैसे पहुंच गए। आतंकवादियों द्वारा यहां वहां रास्तों में भी बारूद बिछाए जाने की सूचना है। आपके खतरा मोल लेने से मैं स्वयं मुश्किल में पड़ जाऊंगा।’ यही नहीं उन्होंने पार्टी प्रमुख लालकृष्ण आडवाणी जी से शिकायत की कि, ‘आपका यह सहयोगी बिना बताए किसी भी समय सुरक्षा के बिना घूम रहा है। यह गलत है।’ आडवाणी जी ने भी फोन किया। तब भी नरेन्द्र भाई ने विनम्रता से उत्तर दिया कि मृतकों के अंतिम संस्कार के बाद ही वापस आऊंगा। असल में सबको उनका जवाब होता था कि ‘अपना कर्तव्य पालन करने के लिए मुझे जीवन-मृत्यु की परवाह नहीं होती’।
जम्मू-कश्मीर के दुर्गम इलाकों-गांवों में निर्भीक यात्राओं के कारण वह जम्मू-कश्मीर की समस्याओं को समझते हुए उसे भारत के सुखी-संपन्न प्रदेशों की तरह विकसित करने का संकल्प संजोए हुए थे। वैसे भी हिमालय की वादियां युवा काल से उनके दिल दिमाग पर छाई रही हैं। लेह-लद्दाख में जहां लोग ऑक्सीजन की कमी से विचलित हो जाते हैं, नरेन्द्र मोदी को कोई समस्या नहीं होती। उन दिनों लद्दाख के अलावा वह तिब्बत, मानसरोवर और कैलाश पर्वत की यात्रा भी 2001 से पहले कर आए थे।
तभी उन्होंने यह सपना भी देखा कि कभी लेह के रास्ते हजारों भारतीय कैलाश मानसरोवर जा सकेंगे। यह रास्ता सबसे सुगम होगा। पिछले कुछ महीनों में दिख रहे बदलाव से विश्वास होने लगा है कि कि लद्दाख और कश्मीर आने वाले वर्षों में स्विजरलैंड से अधिक सुगम, आकर्षक और सुविधा संपन्न हो जाएगा। अमेरिका, यूरोप ही नहीं चीन के साथ भी सम्बन्ध सुधारने के प्रयास सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर लद्दाख को सुखी संपन्न बनाना रहा है | सारे तनाव के बावजूद जी -20 देशों के संगठन की अध्यक्षता मिलने से चीन और पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने की सुविधा हो गई है।
लद्दाख को केंद्र शासित बनाने की मांग को पूरी करने के साथ जम्मू कश्मीर को भी फिलहाल केंद्र शासित रखा और नागरिकों को भी सम्पूर्ण भारत में लागू सुविधाओं–कानूनों का प्रावधान कर दिया तभी तो पाकिस्तान के साथ चीन भड़का लेकिन सेना को पूरी छूट देकर मोदी सरकार ने सुनिश्चित किया कि भारत की एक इंच जमीन पर भी चीन के दानवी पैर न पड़ सकें।
इसमें कोई शक नहीं कि नरेन्द्र मोदी के विचार दर्शन का आधार ज्ञान शक्ति, जन शक्ति जल शक्ति, ऊर्जा शक्ति, आर्थिक शक्ति और रक्षा शक्ति है। लगता है दिन-रात उनका ध्यान इसी तरफ रहता है। इसलिये भारत की ग्राम पंचायतों से लेकर दूर देशों में बैठे प्रवासी भारतीयों को अपने कार्यक्रमों, योजनाओं से जोड़ने मे उन्हें सुविधा रहती है। योग, स्वच्छ भारत, आयुष्मान भारत – स्वस्थ भारत , शिक्षित भारत जैसे अभियान सही अर्थों में भारत को शक्तिशाली और संपन्न बना सकते हैं। कोरोना महामारी से निपटने में में भारत की स्थिति दुनिया के अधिकांश संपन्न विकसित देशों से बेहतर रहने कि बात विश्व समुदाय मान रहा है, विशालतम आबादी के अनुपात में मृत्यु दर सबसे कम और कोरोना से प्रभावित होकर ठीक होने वालों की संख्या सर्वाधिक है। आतंकवाद से निपटने के लिए आतंकवादियों के खात्मे के साथ रचनात्मक रास्ता भी सामाजिक-आर्थिक विकास है। तभी तो नरेंद्र मोदी के प्रयासों से दुनिया भारत के साथ खड़ी है और इस्लामिक देश भी पाक से दूर हो गए हैं।
कश्मीर की तरह पूर्वोत्तर राज्यों को मोदी ने पिछले नौ वर्षों के दौरान अधिकाधिक महत्व दिया। 2011 की जनगणना के अनुसार पूर्वोत्तर में हिंदुओं की आबादी 54 प्रतिशत है लेकिन यह असम में बड़ी हिंदू आबादी के कारण है जो पूर्वोत्तर की कुल आबादी के करीब 70 प्रतिशत भाग के साथ क्षेत्र के अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक आबादी वाला राज्य है। क्षेत्र के करीब 80 प्रतिशत हिंदू यहीं रहते हैं। असम में मुस्लिम भी आबादी का एक तिहाई से अधिक हैं जिनमें कई जनपद तो मुस्लिम बहुल हैं। मणिपुर और त्रिपुरा में मुस्लिम आबादी 10 प्रतिशत से कुछ कम है। ईसाई जिनकी उत्तरपूर्व में आबादी बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक 1 प्रतिशत से भी कम थी,अब नागालैंड, मेघालय, मिजोरम में उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक है। अरुणाचल प्रदेश में दोनों समुदायों की संख्या लगभग बराबर है। मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद क्षेत्र का राजनीतिक वातावरण बदलता रहा है। 2014 में पार्टी ने अरुणाचल प्रदेश में 11 सीटें जीतने के साथ ही अपना वोट 6 गुना बढ़ा लिया। 2016 में इसने असम विधान सभा में अपनी उपस्थिति बढ़ाकर 5 सीट से 60 सीट कर ली और असम गण परिषद व बोडो पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर राज्य में सरकार बनाई।
2017 में इसने मणिपुर में 21 सीटें जीतीं और दूसरी गठबंधन सरकार बनाई। 2018 में इसने वामपंथ के गढ़ त्रिपुरा में 35 सीटें जीतीं जहां पहले कभी इसका एक भी विधायक निर्वाचित नहीं हुआ था और इस बार 2023 में भी बड़ी चुनौतियों तथा कांग्रेस कम्युनिस्ट गठबंधन तथा तृणमूल के सारे प्रयासों के बाद भी भाजपा विजयी हो गई। पूर्वोत्तर या अन्य छोटे राज्यों में उस पार्टी के साथ जाने की प्रवृत्ति है जो केंद्र में सत्ता में होती है। छोटे राज्यों के पास राजस्व पैदा करने के अवसर कम होते हैं उन्हें अनुदान और सहायता के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है इसीलिए वे राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों के साथ चले जाते हैं।
आजादी के बाद से कांग्रेस इस प्रवृत्ति का लाभ उठाती रही है और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्वोत्तर को विशेष महत्व देने, निरंतर यात्रा करने, सांसदों, विधायकों और पार्टी के नेताओं को इन राज्यों में सक्रिय रखने से भाजपा का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। भाजपा की कामयाबी का प्रमुख कारण पूरे क्षेत्र में उसका सहयोग पा लेने की क्षमता है। पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन की छतरी के नीचे पार्टी उत्तरपूर्व के सभी आठ राज्यों में गठबंधन सरकारों का हिस्सा है। इसका लाभ 2024 के चुनाव और उसके बाद केंद्र में सहयोगी दलों को जोड़ने में मिलेगा।
इस समय कांग्रेस और प्रतिपक्ष के दल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर साम्प्रदायिक भेदभाव और नफ़रत के गंभीर आरोप लगाकर मुस्लिम वोट पर कब्जे के प्रयास कर रहे हैं। कर्नाटक में कांग्रेस ने पिछड़ी जाति और मुस्लिम कार्ड खेलकर सफलता पाई लेकिन इसका दूसरा बड़ा कारण स्थानीय नेताओं की निष्क्रियता और भ्रष्टाचार था। बहरहाल शायद अन्य राज्य इस पराजय से सबक लेंगे। डिजिटल क्रांति पर भरोसे के बजाय घर घर संपर्क और लोगों को अच्छे कार्यक्रमों का लाभ दिलवाना जरुरी है। भाजपा के नेताओं का मानना है कि मोदी सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सभी गरीब और जरूरतमंदों को समान रूप से मिल रहा है। इनमें शौचालय, घर, बिजली, सिलेंडर और फ्री राशन जैसी योजनाएं लाभार्थियों का बड़ा वर्ग तैयार किया है, जिनमें पसमांदा मुस्लिम भी शामिल है।
इसके लिए आजमगढ़ और रामपुर जैसे मुस्लिम बहुल सीटों पर भाजपा की जीत का उदाहरण दिया जा रहा है। विपक्षी दलों के आदिवासी और दलित वोटबैंक में सेंध लगाने के बाद भाजपा यदि 80 फीसद मुस्लिम आबादी वाले पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने में सफल होती है, तो 2024 में भाजपा की जीत काफी बड़ी हो सकती है। इस दृष्टि से मोदी की कोशिश रही है कि विभिन्न राज्यों में मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने के लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय के अलावा अन्य मंत्रालयों की कल्याण योजनाओं का लाभ अधिकाधिक मुस्लिम लोगों को भी मिले। असल में हर वर्ग के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ग्रामीण विकास, किसानों को उनकी खेती का सही लाभ और सामाजिक जागरुकता के निरंतर प्रयासों से केवल चुनावी सफलता नहीं मिलेगी, देश और लोकतंत्र का भविष्य उज्जवल हो सकेगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं।)
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पीएम मोदी अपनी छह दिवसीय विदेश यात्रा को सम्पूर्ण करके वतन आ गए हैं। उनकी यह विदेश यात्रा बेहद सफल हुई और उन्हें अभूतपूर्व सम्मान प्राप्त हुआ है। उनकी इस विदेश यात्रा के पूरे होने पर वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा ने अपने ब्लॉग में इस विदेश यात्रा का विश्लेषण किया है।
उन्होंने लिखा, ऑस्ट्रेलिया में नए भारत की ताकत दिखाई दी। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने स्टेडियम में तीस हजार लोगों के सामने कहा, मोदी इज द बॉस, सिडनी के कुडोस बैंक अरेना में प्रोग्राम तो ऑस्ट्रेलिया में बसे भारतीयों के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इंटरैक्शन का था, लेकिन इस प्रोग्राम में ऑस्ट्रेलिया की पूरी सरकार, विपक्ष के नेता और दूसरे दलों के नेता भी पहुंचे। यहां ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने जो माहौल देखा, लोगों में जोश देखा,मोदी के प्रति लोगों की जो दीवानगी देखी, तो वो भी हैरत में पड़ गए। लेकिन मोदी ने न सियासत की बात की, न किसी की आलोचना की, सिर्फ भारत और भारतीयों की बात की।
मोदी ने बताया कि आजकल दुनिया भारत को क्यों सलाम कर रही है! उनकी सरकार का मंत्र क्या है,उनकी सरकार के काम क्या हैं और उसका असर क्या हो रहा है। इस प्रोग्राम में मोदी ने आज जो कहा, उसे सुनना और देखना जरूरी है क्योंकि इससे पता चलता है कि मोदी को अब वर्ल्ड लीडर क्यों कहा जाता है।
मोदी के प्रति लोगों में इतना भरोसा क्यों है.. 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे, तो बहुत सारे लोग पूछते थे कि ये विदेश नीति कैसे चलाएंगे, ये बड़े बड़े मुल्कों के नेताओं से संबंध कैसे बनाएंगे? आज उन लोगों को देखना और सुनना चाहिए कि कैसे ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने मोदी को बॉस कहा, सिर्फ पिछले चार दिन में हमने देखा अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन मोदी को ढूढ़ते हुए आए और उन्हें गले लगाया।
अमेरिका के प्रेसीडेंट ने कहा कि मोदी की लोकप्रियता इतनी है कि लगता है उन्हें भी मोदी का ऑटोग्राफ लेना पड़ेगा। पापुआ न्यू गिनी के प्राइम मिनिस्टर ने मोदी के पैर छुए, ये छोटी बात नहीं है। पिछले नौ साल में मोदी जिस भी देश में गए उन्होंने वहां नेताओं से संबंध बनाए और भारत का मान बढ़ाया।
इस बात में कोई शक नहीं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पूरी दुनिया में भारत के प्रति लोगों का नजरिया बदला है। मैं जब भी विदेशों में रहने वाले भारतीय लोगों से बात करता हूं तो वो कहते हैं इस बदलाव को हर रोज अपने लाइफ में महसूस करते हैं, चाहे अमेरिका हो ,यूरोप हो या अफ्रीकी देश हर जगह भारत भारतीय और भारतीयता का सम्मान दिखाई देता है और इसका बहुत बड़ा श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाना ही चाहिए।
मोदी ने देश के लिए प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए बहुत मेहनत की बहुत दिमाग लगाया, छोटी छोटी चीजों का ध्यान रखा, बड़े बड़े फैसले लिए और ये काम आसान नहीं था। आज अगर कोई देश यूक्रेन और रशिया दोनों से आंख में आंख डालकर बात कर सकता है तो वो भारत है। मुसीबत के वक्त दुनिया का कोई देश किसी दूसरे मुल्क से मदद की उम्मीद करता है. तो वो भारत है। दुनिया के किसी भी कोने में फंसे अपने नागरिकों की सबसे पहले हिफाजत करता है तो वो भारत है।
अगर तरक्की के लिए, बढ़ते प्रभाव के लिए किसी देश की मिसाल दी जाती है. तो वो भारत है। हिन्दुस्तान की ये पहचान नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में बनी है इसीलिए नरेन्द्र मोदी को आज वर्ल्ड लीडर माना जाता है, और ये मान सम्मान सिर्फ तस्वीरों और स्पीचेज तक सीमित नहीं रहता है। पूरे मुल्क को इसका फायदा व्यापार में होता है, टूरिज्म में होता है, इन्वेस्टमेंट में होता है। जब किसी देश का नेता बड़ा बनता है तो दुनिया में उसका मान बढता है, उसका फायदा देश के ओवरऑल डेवलपमेंट को होता है।
रोचक बात ये है कि पूरी दुनिया नरेन्द्र मोदी का स्वागत कर रही है लेकिन हमारे देश में तमाम विरोधी दल इस वक्त मिलकर मोदी को हराने मोदी को हटाने के फॉर्मूले खोज रहे हैं।
(यह खबर वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा के ब्लॉग को आधार बनाकर लिखी गई है। रजत शर्मा हिंदी न्यूज चैनल 'इंडिया टीवी' के एडिटर-इन-चीफ हैं)
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विवादों में चल रही 'द केरल स्टोरी' थिएटर्स में कमाई के रिकॉर्ड तोड़ती जा रही है। बड़े-बड़े सुपरस्टार की फिल्में जो कमाल नहीं कर पाईं, वह कमाल अभिनेत्री अदा शर्मा की इस फिल्म ने करके दिखा दिया है। सोमवार के कलेक्शन के साथ फिल्म अब 200 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है। बेहद कम बजट में बनी इस फिल्म की सफलता को लेकर 'समाचार4मीडिया' ने पत्रकार और फिल्म समीक्षक विष्णु शर्मा से बात की और उनसे सवाल पूछा कि क्या वाकई में भारतीय समाज फिल्मों के चयन को लेकर जागरूक हो रहा है?
इस सवाल के जवाब में विष्णु शर्मा ने कहा कि ‘द केरल स्टोरी’ ने 2 हफ्तों में केवल भारतीय बॉक्स ऑफिस पर 200 करोड़ कमा लिए, इंटरनेशनल कमाई और जोड़ दी जाए तो ये 275 करोड़ के आसपास बैठती है और वह भी केवल एक अदा शर्मा व फिल्म की कहानी के कंधों पर। ऐसे में जबकि बड़े स्टार्स, बड़े बजट की फिल्मों जैसे 'किसी का भाई किसी की जान', 'लाल सिंह चड्ढा', 'सर्कस', 'शमशेरा', 'जयेश भाई जोरदार' जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सिरे से नकार दी गईं, ‘द केरल स्टोरी’ की कामयाबी चौंकाती है।
इस बदलाव को समझने के लिए आपको रामगोपाल वर्मा के एक के बाद एक 4 ट्वीट को पढ़ना पड़ेगा, जो ‘द केरला स्टोरी’ के समर्थन में उन्होंने किए हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गजों का इस फिल्म के बारे में ना लिखना, ना बोलना इसे उन्होंने ‘मौत जैसी चुप्पी’ बताया है। ये ट्वीट बताती हैं कि कैसे ये फिल्म हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को आइना दिखा रही है कि तुम्हें फिल्म बनाना नहीं आता। ‘कश्मीर फाइल्स’ की कामयाबी के बाद ‘द केरल स्टोरी’ की कामयाबी, ये दिखाती है कि आज दौर है सच्चाई दिखाने का, बिना इसकी परवाह किए बिना कि संवेदनशीलता के नाम पर कौन-कौन इसका विरोध करेगा।
उन्होंने आगे कहा कि क्या पश्चिमी फिल्मों के निर्देशकों ने यहूदियों पर अत्याचार, अफ्रीकियों पर गोरों का कहर, अमरीकी फौजों का वहशीपन, चर्चों का करप्शन दिखाने में किसी की परवाह की? फिर भारतीय फिल्म निर्देशक क्यों करते हैं? अगर प्रोपेगेंडा होता तो सेंसर बोर्ड, सुप्रीम कोर्ट और खुद जनता तय कर लेगी, हम कुछ वोटों के सौदागरों के कहने पर क्यों मान लें कि सच नहीं है और आज का सबसे बड़ा सच यही है कि वाकई में दिल से हिम्मत के साथ समाज की किसी विकृति का सच दिखाओगे तो फिल्म को बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोड़ने से कोई नहीं रोक सकता। यही ‘द केरल स्टोरी’ का असल मैसेज है। इसके लिए उनके डायरेक्टर सुदीप्तो सेन बधाई के पात्र हैं।
(यह खबर विष्णु शर्मा से बातचीत के आधार पर लिखी गई है। विष्णु शर्मा एक पत्रकार और लेखक होने के साथ ही फिल्म समीक्षक भी है)
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नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर एक नया सियासी संग्राम शुरू हो गया है। पीएम मोदी 28 मई को इस नए संसद भवन का उद्घाटन करने वाले हैं, हालांकि विपक्षी दलों का कहना है कि ‘सर्वोच्च संवैधानिक पद’ पर होने के नाते राष्ट्रपति को इसका उद्घाटन करना चाहिए और इसकी शुरुआत खुद राहुल गांधी ने ट्वीट करके की थी।
28 मई को वीर सावरकर की जयंती है, जो बीजेपी के सबसे बड़े आदर्श माने जाते रहे है वहीं कांग्रेस का आरोप है कि इस तारीख का चयन देश के संस्थापक पिताओं का 'अपमान' है। इस मामले पर 'समाचार4मीडिया' ने वरिष्ठ पत्रकार जयदीप कर्णिक से बात की।
उन्होंने कहा, नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर जो विवाद है वो मूलतः राजनीतिक है। सौ बरस पुराने भवन के स्थान पर भविष्य की आवश्यकताओं को देखते हुए नया भवन बनना चाहिए ये तो सभी दल मान रहे थे। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल से ही इसे प्राथमिकता दी और अब दूसरा कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इसका उद्घाटन होने जा रहा है, तो ये बड़ी उपलब्धि है।
सरकार इसे अपने पक्ष में भुनाएगी ही। अगर इसकी बनावट में कोई गड़बड़ हुई है, कोई घोटाला हुआ है, कोई काम सही नहीं हुआ है तो विपक्ष को उसे उठाना चाहिए। उद्घाटन कौन कर रहा है, इस मुद्दे को उठाने से विपक्ष को कोई लाभ नहीं मिलने वाला।
आपको बता दें कि आम आदमी पार्टी ने भी यह कहा है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की जगह प्रधानमंत्री मोदी को नए संसद भवन का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया जाना उनके साथ-साथ देश के आदिवासी और पिछड़े समुदायों का ‘अपमान’ है।
(यह खबर वरिष्ठ पत्रकार जयदीप कर्णिक से की गई बातचीत के आधार पर लिखी गई है। वह वर्तमान में अमर उजाला डिजिटल के संपादक है)
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भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने छह दिवसीय विदेशी दौरे पर हैं और उन्हें जिस तरह से सम्मान मिल रहा है उससे एक बड़ा सवाल यह खड़ा हो जाता है कि क्या इस समय पीएम मोदी इस दुनिया के सबसे प्रसिद्द नेता बन चुके हैं। इस मामले पर 'समाचार4मीडिया' ने वरिष्ठ पत्रकार और लेखक प्रवीण तिवारी से बात की और सवाल पूछा कि क्या अगले आम चुनाव में पीएम मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं है?
इस सवाल के जवाब में प्रवीण तिवारी ने कहा कि निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री मोदी बीजेपी को उस जगह पर ले आए हैं, जहां पर अभी तक भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता नहीं ला पाया था।
ऐसा नहीं है कि अन्य नेताओं में करिश्मा नहीं था, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह विदेशी धरती से देश को संबोधित किया और कई बार कई मुद्दों को उठाया वह प्रयोग काफी सफल दिखाई देता है। इस प्रयोग से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी रणनीतियों का भी हिस्सा रहा है कि वह विदेशी धरती पर जाकर अपनी बात को पुरजोर तरीके से रखें।
निश्चित तौर पर भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय जगत में प्रधानमंत्री मोदी की वजह से काफी संवरी है। इन सब के बाद यह देखने वाली बात होगी कि 2024 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी किस तरीके से अपनी स्थिति को और मजबूत करते हैं और कैसे आने वाले समय में एक बार फिर बीजेपी को मजबूत करते हैं।
दरअसल यह बात कहने की जरूरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि हिमाचल,कर्नाटक के नतीजों के बाद बीजेपी के माथे पर शिकन जरूर पड़ी है, हालांकि यह भी पुराना चुनावी गणित है कि विधानसभा चुनाव का लोकसभा चुनाव पर असर नहीं पड़ता है। पिछले चुनाव में भी कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हाथ से निकल जाने के बावजूद बीजेपी को लोकसभा में जबरदस्त जीत मिली थी।
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने विदेशी दौरों को बढ़ा सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी जिस समय जापान में थे, उस समय 2000 के नोट पर आरबीआई का बड़ा फैसला और अब उनका ऑस्ट्रेलिया में जाना यह मैसेज तक नहीं लगता, हालांकि इस तरह के कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं लेकिन एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी विदेशी धरती से देश को संबोधित कर रहे हैं।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी की बड़ी लोकप्रियता में पीएम मोदी के चेहरे का जादू साफ देखने को मिलता है। अब वह अपने जादू को कितना बरकरार रखते हैं इसकी अग्नि परीक्षा 2024 में देखने को मिलेगी।
(यह खबर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक प्रवीण तिवारी से बातचीत के आधार पर बनाई गई है। प्रवीण तिवारी वर्तमान में अमर उजाला में वीडियो हेड के तौर पर कार्यरत है)
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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
दो गुट हैं। एक तरफ फौज और शाहबाज शरीफ की गठबंधन सरकार है। दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय तथा पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी। इन दो पाटों के बीच पिस रही है आम अवाम। पर इस बार लोग सेना से तंग आकर पूरी तरह लोकतंत्र चाहते हैं। पहले फौज और इमरान खान की सरकार एकजुट थी तो नवाज शरीफ के मामले आला अदालत में थे। उस समय भी उनकी पार्टी सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर बैठी थी। अब न्यायपालिका का पलड़ा इमरान खान के पक्ष में झुका है तो सरकार न्यायपालिका के रवैए के ख़िलाफ धरने पर बैठी है।सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी को गैर कानूनी बताते हुए उनको रिहा करने के आदेश दिए थे। इमरान खान के ख़िलाफ पद पर रहते हुए मिले तोहफों की हेराफेरी के आरोप हैं। यह अलग बात है कि इमरान खान के पार्टी कार्यकर्ता देश भर में हिंसा और उपद्रव कर रहे हैं। इस हिंसा में अनेक जानें जा चुकी हैं, लेकिन इन सबके पीछे सकारात्मक बात यह है कि पहली बार पाकिस्तानी जनता का अपनी ही सेना से मोहभंग हुआ है। लोग जान की परवाह न करते हुए फौज के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं। सेना के लिए यह बड़ा झटका है।
सवाल यह है कि क्या इस तरह सेना का बैकफुट पर जाना पाकिस्तान के भविष्य के लिए बेहतर है? इस देश ने जबसे दुनिया के नक्शे में आकार लिया, तबसे कुछ अपवाद छोड़कर फौज ही उस पर हुकूमत करती रही है। उसने न तो लोकतंत्र पनपने दिया और न निर्वाचित सरकारें उसके इशारे के बिना ढंग से राज कर पाईं हैं । संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की अत्यंत संक्षिप्त सी पारी छोड़ दें तो कोई भी राजनेता सेना के साथ तालमेल बिठाकर ही काम कर पाया है। सेना के बिना उसका अस्तित्व अधूरा रहा है। हालांकि अंतिम दिनों में जिन्ना भी अपनी छबि में दाग़ लगने से नहीं रोक पाए थे। उनको उपेक्षित और हताशा भरी ज़िंदगी जीनी पड़ी थी। वे अवसाद में चले गए थे। फौज शनैः शनैः निरंकुश होती गई और उसके अफसर अपने अपने धंधे करते रहे। छबि कुछ ऐसी बनी कि यह मुहावरा प्रचलित हो गया कि विश्व के देशों की हिफाजत के लिए सेना होती है ,लेकिन एक सेना ऐसी है ,जिसके पास पाकिस्तान नामक एक देश है। जाहिर है कि सेना निरंकुश और क्रूर होती गई है।
यह फौज जुल्फिकार अली भुट्टो को प्रधानमंत्री भी बनवाती है और सरेआम फांसी पर भी लटकाती है, बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भी बंगबंधु शेख मुजीब उर रहमान को जेल में डाल सकती है और अपने पागलपन तथा वहशी रवैए से मुल्क़ के दो टुकड़े भी होने दे सकती है । बेनज़ीर भुट्टो की हत्या भी ऐसी ही साज़िश का परिणाम थी। कारगिल में घुसपैठ कराके अपनी किरकिरी कराने वाली भी यही फौज है। याने इस सेना को जम्हूरियत तभी तक अच्छी लगती है ,जबकि हुक़्मरान उसकी जेब में बैठे रहें और उसके इशारों पर नाचते रहें । देश का पिछड़ापन और तमाम गंभीर मसले उसे परेशान नहीं करते।वह यह भी जानती है कि हज़ार साल तक साझा विरासत के साथ रहते आए लोग जब तक हिन्दुस्तान से नफरत नहीं करेंगे ,तब तक उसकी दुकान ठंडी रहेगी। इसलिए वह जब तब कोशिश करती है कि भारत और पाकिस्तान की अवाम के दिलों में एक दूसरे के प्रति नफरत और घृणा बनी रहे। काफी हद तक उसके ऐसे प्रयास कारग़र भी रहे और मुल्क़ का एक वर्ग फौज को अपना नायक मानता रहा।
अब अपने इसी हीरो से पाकिस्तान के आम नागरिक का मोहभंग हो रहा है।नागरिकों ने देख लिया है कि सेना उसकी समस्याओं का समाधान करने में नाकाम रही है। देश में मंहगाई चरम पर है, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है ,आतंकवादी वारदातें कम नहीं हो रही हैं, उद्योग धंधे चौपट हैं, सारे विश्व में पाकिस्तान की किरकिरी हो रही है और यह देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। इमरान और शाहबाज शरीफ कल भी फौज की कठपुतली थे ,आज भी हैं और कल भी रहेंगे। आज यदि सेना इमरान को प्रधानमंत्री बना दे तो वे फिर फौज के गीत गाने लगेंगे और शाहबाज शरीफ को सेना गद्दी से उतार दे तो वे उसके ख़िलाफ धरने पर बैठ जाएंगे।तात्पर्य यह है कि हुक्मरानों और सेना से जनता त्रस्त हो चुकी है।फौज के ख़िलाफ आम नागरिक सड़कों पर उतर आएं और फौजी अफसर उनका मुकाबला न कर पाएं, देश के इतिहास में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है, जब जनरल अय्यूब खान को राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने पाकिस्तानी सेना का मुखिया बनाया था। बीस दिन बीते थे कि अयूब खान ने सैनिक विद्रोह के जरिए मिर्ज़ा को ही पद से हटा दिया। वे ग्यारह साल तक पाकिस्तान के सैनिक शासक रहे। इस दरम्यान अवाम कुशासन से त्रस्त हो गई।लोग सड़कों पर उतर आए । अयूब खान के लिए देश चलाना कठिन हो गया। देश भर में अराजकता फैल गई। जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया और अयूब खान को सत्ता छोड़नी पड़ी। उन दिनों सैनिक शासन से लोग दुःखी हो गए थे। पाकिस्तान के इतिहास में यह सबसे बड़ा जन आंदोलन था। अयूब खान की फौज कुछ नहीं कर पाई। यह अलग बात है कि अयूब खान जब देश छोड़कर भागे ,तो अपना उत्तराधिकार भी एक जनरल याह्या खान को सौंप गए। इस प्रकार फिर फौजी हुकूमत देश में आ गई।
अयूब खान के बाद यह दूसरा अवसर आया है ,जब भारत का यह पड़ोसी लोकतंत्र के लिए सड़कों पर है। जनता अब जम्हूरियत चाहती है। उधर फौज अपना अस्तित्व और साख़ बचाने के लिए लड़ रही है।राहत की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट नाजुक वक्त पर मजबूती दिखा रहा है। यह पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली के लिए आवश्यक है। भारतीय उप महाद्वीप भी अब यही चाहता है कि शांति और स्थिरता के लिए पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल हो। एक ऐसा लोकतंत्र ,जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और करोड़ों लोगों का भला हो सके।
(साभार: लोकमत समाचार)
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