किसानी की नई इबारत लिख रही, कभी खोजी पत्रकारिता करने वाली ये महिला पत्रकार

आलोक नंदन शर्मा वरिष्ठ पत्रकार ।। भूमिका कलम : उदय भारत की महिला किसान कुछ लोग जिंदगी में एक राह तय कर लेने के बाद उस पर मीलों चलते हैं, फिर उनके साथ कुछ ऐ

Last Modified:
Friday, 24 March, 2017
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आलोक नंदन शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार ।।

भूमिका कलम : उदय भारत की महिला किसान

कुछ लोग जिंदगी में एक राह तय कर लेने के बाद उस पर मीलों चलते हैं, फिर उनके साथ कुछ ऐसा होता है कि उनकी राह अचानक बदल जाती है। गांव और खेत उन्हें अपनी ओर बुलाते हैं और वह भी अपने आपको नए रूप में देखने लगते हैं, अपनों के बीच। सही मायने में उन्हें अपने आप से साक्षात्कार हो जाता है। कलम छोड़कर खेती की राह पकड़ने वाली भूमिका कलम को ऐसे ही लोगों में शुमार किया किया जा सकता है। खोजी पत्रकारिता को अलविदा कर भूमिका कलम  मध्य प्रदेश की युवा महिला किसान के रूप में अपनी पुश्तैनी जमीन से न सिर्फ एक बार कई-कई फसलें बो और काट रही हैं, बल्कि वहां के किसानों को भी लाभकारी खेती का नया अंदाज सिखा रही हैं।

Bhumika-in-fieldबुलंद इरादों के साथ खेती में हाथ डालने के बाद भूमिका कलम पहले की तुलना में तिगुनी कमाई कर रही हैं। वह बदलते हुए भारत की तस्वीर नहीं पेश कर रही हैं बल्कि खुद अपनी मजबूत हाथों और फौलादी इरादों से भारत को बदल रही हैं, यहां की खेती पद्धति बदल रही हैं और साथ ही किसानों के भविष्य को भी। अपनी दूरगामी नजर और अथक मेहनत की वजह से वह मध्य प्रदेश के किसानों का भविष्य गढ़ते हुए उदय भारत की कहानी बखूबी बयां कर रही हैं। एक अति आधुनिक पत्रकार के तौर पर कलम और कैमरा छोड़कर ट्रैक्टर थामने के बाद भूमिका फसलों में भी बेशुमार प्रयोग कर रहीं हैं। एक ही जमीन पर एक साथ कई फसलों को बो कर उसने खेती के पारंपपरिक तौर-तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है। उनकी प्रेरणा से अलग बगल के किसान भी उनके नक्शे कदम पर चलने लगे हैं।

भूमिका कलम मध्य प्रदेश में सामुदायिक खेती को बहुत ही तरीके से तराश रही हैं। अपनी जमीन पर फसलों के बीच में बांस बो रहीं हैं। इन बासों को पहले ही बेच चुकी हैं। इसके अलावा एक साथ कई फसलें भी काट रहीं हैं। मंडी के व्याकरण को तोड़ने के लिए किसानों की हित वाली बात साफ अंदाज में समझाते हुए कहती हैं, ‘पिछली बार किसानों ने गलती की थी। सभी किसानों ने अपनी खेतों में अरहर लगा दिया था। अरहर की पैदावार अचानक बढ़ जाने की वजह से मंडी में इसकी कद्र कम हो गई थी, इसका फायदा बिचौलियों और व्यापारियों ने उठाया। अरहर की कीमत उन्होंने कम लगाई। इसलिए इस मर्तबा यहां के सारे किसान अलग-अलग फसल लगा रहे हैं। हमलोगों ने आपस में बैठ कर निर्णय ले लिया है। थोड़ी सी सूझबूझ से काम ले तो मंडी किसानों के हिसाब से चलेगी। बस किसानों को भेड़चाल चलने से रुकना होगा।’

भूमिका कलम का अचानक पत्रकारिता से किसानी की ओर रुख करना कम रोचक नहीं है। इन्वेस्टिगेटिंग जर्नलिज्म करने के इरादे से उन्होंने पत्रकारिता की दुनिया में पेशकदमी की थी, कुछ कर गुजरने के मजबूत इरादों से लबरेज होकर। अपने इंजीनियर पिता को कम उम्र में ही वह खो चुकी की थी। जब वह नौंवी कक्षा में थी तभी पिता जी एक दिन घर से ड्यूटी के लिए निकले फिर लौट कर नहीं आये। हर्टअटैक से उनकी मौत ड्यूटी पर ही हो गई थी। उसी समय भूमिका ने तय कर लिया था कि वह सरकारी नौकरी नहीं करेगी। उन्हें एक खोजी पत्रकार बनना है।

उनकी खोजी पत्रकारिता को मध्य प्रदेश में महूसस किया गया। उन्हें भी यकीन हो गया था कि वह एक बेहतर खोजी पत्रकार बन चुकी है। खबरों की तलाश में वह जमकर पसीना बहाती थी और खबर मिल जाने के बाद उन्हें तरीके से परोसने का उनका सलीका भी उम्दा था।

bhoomikaसमाचार पत्र राजस्थान पत्रिका के तमाम अहलकार भी भूमिका के मुरीद हो गए थे। टफ वर्किंग गर्ल के तौर पर वह स्थापित हो चुकीं थीं। थोड़ा और आजमाने के लिए उन्हें एक ऐसे बीट में हाथ डालने को कहा गया जिसके बारे में कहा जाता था कि इसमें पाठकों का अकाल रहता है। वह बीट थी कृर्षि की, खेती की, किसी और किसानों की। तमाम कारणों से प्रचलित मीडिया की नजरों से ओझल रहने वाले बीट कृषि में काम करने की चुनौती भूमिका के सामने पेश की गई। इस पर विचार करने के बाद उन्होंने इस काम को करने का निर्णय ले लिया और प्रबंधन के सामने एक शर्त रखते हुए कहा, ‘पहले मैं किसानों से मिलूंगी, उन्हें समझूंगी और फिर तय करुंगी कि इस बीट में क्या करना है।’ उनकी काबिलियत को देखते हुए उन्हें अपने तरीके से काम करने की इजाजत दे दी गई और फिर उनके कदम हमेशा के लिए गांव और किसानों की तरफ बढ़ चले।

किसानों के साथ बदस्तूर राब्ता ने उनकी सोच को एक अलग दिशा में ढालना शुरू कर दिया, या यूं कहा जा सकता है उनकी जिंदगी की पुनरावृति होने लगी, कृषि के साथ जुड़े रहने की उनके मन में उनके दिवगंत पिता की इच्छाओं के जागृत हो उठने के रूप में। उनके पिता को खेत और खेती सी लगाव था। किसानों के नाम पता और फोन नंबर की फेहरिश्त बनाते हुए वह एक गांव से दूसरे गांव में भटकने लगी। उनसे मिलती, बातें करती और उनकी बातों पर स्टोरी बनाती। अखबार के पन्नों पर अपनी खबरें पढ़ते हुए किसान भूमिका की रपटों के माध्यम से एक दूसरे को जानने लगे। अब तक भूमिका किसानों को उनके नजरिये से देख रही थी और थोड़ा बहुत गुंजाइश होता तो खोजी पत्रकार वाली दृष्टि से भी टटोल लेती।

इसी दौरान आर्टिसन एग्रो-टेक के देव मुखर्जी से मुलाकात ने उन्हें उनकी जिदंगी के वास्तविक स्टफ पर लाकर खड़ा कर दिया। देव मुखर्जी किसानों पर लंबे समय से काम कर रहे थे। एग्रो-टेक के साथ कदमताल उनके सफर का एक हिस्सा था। उनके संपर्क में आने के बाद कृषि की पैतृक समझ रखने वाली भूमिका की आंखों के सामने एक नई दुनिया उभरने लगी। कृषि के मूलमंत्र को उन्होंने आत्मसात कर लिया। इस बारे में वह कहती हैं, ‘बड़ी सहजता से सबकुछ होता चला गया। बचपन में अपने पिता के मुंह से फसलों के बारे में सुना करती थी। एक बार उन्होंने खेतों में सोया लगाया था, जिसमें नुकसान हो गया था। इसके बाद वह लगातार इस बात पर चर्चा करते थे कि कैसे फसलों को लाभकारी बनाया जाये। पिता जी की बातों से मैं इतना तो समझ गई थी कि बाजारवाद के बदलते परिवेश में फसलों को लाभकारी बनाये बिना खेती की औचित्यता को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। कुछ अलग शब्दों में देव मुखर्जी भी कमोबेश यही कह रही थे कि किसानी करनी है तो फसलों से अधिक से अधिक कमाई के बारे में सोचो। मेरे सामन फार्मूला खुल चुका था- किसानी से कमाई करने का।’

इस मामले में राजस्थान पत्रिका में भूमिका कलम के इमीडिएट बॉस ने भी उन्हें पत्रकारिता से निकल कर कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। इससे उनके कॉन्फिडेंस में इजाफा हुआ और कृषि को लेकर उनकी हिचक टूटती चली गई। नौकरी को अलविदा कर किसानी करने के इरादे से उन्होंने अपने पैतृक गांव पढ़रकला की तरफ रुख किया, जो मध्य प्रदेश के हरबा जिले के सीराली तहसील में पड़ता है।

bhoomika-kalamकभी मानवीय संवेदनों से भरी हुई अपनी तीखी रपटों से लोगों को मुतासर करने वाली भूमिका इस संदर्भ में कहती हैं, ‘एक खोजी पत्रकार के रूप में मैंने  कई प्रतिष्ठित समाचार समूहों में काम किया। राजस्थान पत्रिका में करते हुए मुझे किसानी को समझने का मौका मिला। किसानों की बातों को सुनने और समझने के बाद, जब देव मुखर्जी से मेरी मुलाकात हुई है तो मैंने किसानी का पक्का इरादा कर लिया। लेकिन यह सब मेरे लिए आसान नहीं था। हम तीन बहने थीं। मैं बड़ी थी तो पिता जी की मौत के बाद मेरी जिम्मेदारी अधिक थी। मां नौकरी करती थी। घर को संभालना था। दोनों बहनों के साथ-साथ खुद की पढ़ाई को भी संभालना था। हम सब पढ़ने के लिए इंदौर में रहने लगे। सबकी पढ़ाई पूरी होती गई, नौकरी भी लग गई और शादी भी हो गई। मैं भी खोजी पत्रकारिता में अच्छा कर रही थी। पत्रकारिता को छोड़कर खेती करना मेरे लिए आसान नहीं था। दोनों बहने बाहर रहती थीं, और मैं भी बाहर ही नौकरी करती थी। पिता जी को इस बात का मलाल था कि यदि उन्हें बेटा होता तो खेती का काम आगे चलता। मुझे लगा कि अब यह काम मुझे करना है। मुझे ही अपने खेती को संभालना है। देव मुखर्जी के साथ मुलाकात के बाद तो मैं मानसिक तौर पर इसके लिए पूरी तरह से तैयार हो गई और इस तरह से किसानी शुरू हो गई है।’

देव मुखर्जी की दिशा निर्देश में भूमिका कलम ने आर्टिसन एग्रो-टेक के साथ बांस उत्पादन को लेकर एक करार कर लिया। आर्टिसन एग्रो-टेक गन्ना के निर्धारित मूल्य पर बांस खरीदने के लिए तैयार हो गया। अपने खेतों बांस लगाकर भूमिका एक ही जमीन पर कृषि में मल्टीपल फसल प्रणाली (बहुफसलीय पद्धति) को व्यवस्थित तरीके से लागू करते हुए एक साथ कई फसलें लगा रही हैं। इस बाबत वह कहती हैं, ‘अहम सवाल है कि किसानों को नुकसान क्यों होता है? खेत में सिर्फ एक फसल लगाने से यदि किसी कारणवश वह फसल मर जाती है तो किसान परेशान हो जाते हैं। इस स्थिति से बचने का सबसे अच्छा तरीका है एक ही जमीन पर एक साथ कई फसल लगाना। कुछ शॉर्ट टर्म की फसलें हो और कुछ लॉन्ग टर्म की। अरहर, मसूर, सोयाबीन आदि शॉर्ट टर्म की फसलें हो सकती हैं और बांस लॉन्ग टर्म की। खेती में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप अपनी फसलों को कैसे प्लान करते हैं। यदि किसान एक ही जमीन पर एक साथ कई उत्पादन हासिल करे और इनको बेचने का करार पहले ही कर ले तो उन्हें कभी भी अनचाहे नुकसान का सामना करना नहीं पड़ेगा। किसान तो देने वाला होता है उसे किसी से कुछ मांगने की जरूरत नहीं है, बस जमीन के मुताबिक अपनी फसलों को सही तरीके से प्लान करने की जरूरत है।’

इतना ही नहीं भूमिका कलम खेती के व्यापारिक गणित को भी हौले-से बदलने की जुगत बना रही हैं। इस बाबत वह कहती हैं, ‘अपना माल सीधे जरूरतमंद कृषि फर्मों को बेचकर हम मंडी की सौदेबादी से बाहर निकलने की योजना पर काम कर रहे हैं। आगे हम अपनी खेतों में तुलसी और अश्वगंधा लगाने जा रहे हैं। इनका इस्तेमाल चाय के साथ किया जाता है। इन फसलों को सीधे हम उन कंपनियों को बेचेंगे जो चाय बनाने के काम में लगे हुए हैं। इन्हें खेत में अन्य फसलों के साथ भी उपजाया जा सकता है। मंडी में बिचौलियों की वजह से किसानों को भी अपनी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलता है और कंपनियों को भी नुकसान होता है। और अंत में लोगों इस तरह के उत्पादनों की अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। बिचौलियों को हटाकर किसानों की खुशी भी बढ़ेगी और लोगों को भी कम कीमत पर उत्पाद मिल सकेगा। यदि कंपनी किसी फसल का न्यूनतम मूल्य फिक्स कर देते हैं तो किसान भी निश्चिंत होकर अपना काम कर सकेंगे।’

साभार: यथावत

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ऑनलाइन गेम्स पर पाबंदी सरकार का ऐतिहासिक कदम: रजत शर्मा

ये कानून बनने के बाद अगर कोई ऑनलाइन मनी गेम खिलाता है, तो उसे तीन साल तक की कैद होगी और एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ेगा। प्रमोशन पर भी पाबंदी होगी।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 23 August, 2025
Last Modified:
Saturday, 23 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

देश में ऑनलाइन मनी गेम्स पर प्रतिबंध लगाने का कानून पारित हो गया है। जिन ऑनलाइन खेलों में किसी भी प्रकार से पैसों का लेन-देन होता है, वे सभी अब प्रतिबंधित होंगे। इसका अर्थ है कि खेलों के नाम पर ऑनलाइन सट्टेबाज़ी और किसी भी प्रकार का धन लेन-देन पूरी तरह अवैध होगा। न कोई पैसा लगाएगा, न कोई जीतेगा, न कोई हारेगा और न कोई कमाएगा। जिन ऑनलाइन खेलों में लोग धन लगाते थे, वे सभी प्लेटफ़ॉर्म बंद कर दिए जाएंगे।

इससे सरकार को लगभग बीस हज़ार करोड़ रुपये के कर राजस्व का नुकसान होगा, जबकि FICCI की रिपोर्ट के अनुसार 2029 तक इन कंपनियों से सरकार को 78 हज़ार 500 करोड़ रुपये की आमदनी हो सकती थी। ऑनलाइन गेमिंग का दायरा कितना विशाल है, इसे समझने के लिए फैंटेसी क्रिकेट की कंपनी ड्रीम-11 का उदाहरण दिया जा सकता है, जिसमें टीम बनाने के लिए धन देना पड़ता है और जिसका मूल्यांकन 70 हज़ार करोड़ रुपये तक पहुँच चुका है। इसके ब्रांड एंबेसडर महेंद्र सिंह धोनी, ऋषभ पंत और जसप्रीत बुमराह जैसे खिलाड़ी हैं।

भारत में 15 करोड़ से अधिक लोग रियल मनी गेम्स खेलते हैं, जिनमें फैंटेसी स्पोर्ट्स, रमी, पोकर जैसे खेल शामिल हैं, और प्रतिदिन लगभग 11 करोड़ लोग इन खेलों में भाग लेते हैं। नए कानून के बाद ड्रीम-11, मोबाइल प्रीमियर लीग, माय 11 सर्किल, विन्ज़ो, एसजी-11 फैंटेसी, जंगली गेम्स और गेम्सक्राफ्ट जैसी कंपनियों के ऑनलाइन रियल मनी गेम्स बंद हो जाएंगे।

सरकार ने ई-स्पोर्ट्स और कौशल-आधारित खेलों को इस प्रतिबंध से छूट दी है तथा इन्हें प्रोत्साहन देने के लिए ई-स्पोर्ट्स प्राधिकरण गठित करने की घोषणा की है, जिससे रणनीतिक सोच, मानसिक चपलता और शारीरिक दक्षता को बढ़ावा मिलेगा। इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि ऑनलाइन मनी गेम्स का सबसे बुरा असर गरीब और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा था। शीघ्र धन कमाने की लालसा में लोग इनकी लत के शिकार हो रहे थे, जिससे मानसिक विकार, आर्थिक संकट और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही थी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे गेमिंग विकार घोषित किया है। इसीलिए जिन ऑनलाइन खेलों में पैसों का लेन-देन होता है, उन सबको बंद करने का निर्णय लिया गया है। नए कानून के अंतर्गत यदि कोई ऑनलाइन मनी गेम खिलाता है, तो उसे तीन वर्ष तक की कारावास और एक करोड़ रुपये तक का दंड हो सकता है, जबकि इनका प्रचार-प्रसार करने पर दो वर्ष तक की कैद और पचास लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। जो लोग ऐसे खेल खेलते हुए पाए जाएंगे, उन्हें पीड़ित माना जाएगा और उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होगी।

यह सत्य है कि ऑनलाइन गेमिंग का बाज़ार अत्यंत बड़ा है और इस प्रतिबंध से न केवल 20 हज़ार करोड़ रुपये का राजस्व घटेगा, बल्कि हज़ारों लोग बेरोज़गार भी होंगे, फिर भी सरकार ने युवाओं के भविष्य को ध्यान में रखते हुए यह जोखिम उठाया है। क्योंकि इन खेलों से होने वाला मानसिक और सामाजिक नुकसान धनहानि से कहीं अधिक गंभीर और खतरनाक है।

ये खेल युवाओं को आत्महत्या की ओर उकसाते हैं, उन्हें मानसिक रूप से बीमार बनाते हैं और उनकी ज़िंदगियाँ तबाह करते हैं। कई उदाहरण हमारे आस-पास मौजूद हैं, जहाँ कुछ लोगों को पैसा जीतता दिखाकर लाखों लोगों को गुमराह कर उनकी कमाई लूट ली जाती है। यदि देश के युवाओं को मानसिक बीमारियों और आत्मविनाश से बचाने के लिए सरकार 20 हज़ार करोड़ रुपये का त्याग करती है, तो उसकी सराहना होनी चाहिए। अश्विनी वैष्णव का यह कदम ऐतिहासिक है, जो युवाओं का भविष्य सुरक्षित करने, गरीबों की मेहनत की कमाई बचाने और अन्य देशों को भी ऑनलाइन गेमिंग के खतरे से बचाने का मार्ग दिखाता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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उपराष्ट्रपति के लिए सही चयन है सी. पी. राधाकृष्णन : रजत शर्मा

विपक्षी दलों ने पूर्व जज रेड्डी को इसलिए उम्मीदवार बनाया है क्योंकि वह अविभाजित आंध्र प्रदेश से हैं और उनकी उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष तेलुगु देशम पार्टी में दुविधा पैदा करना चाहता है।

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Published - Thursday, 21 August, 2025
Last Modified:
Thursday, 21 August, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

उपराष्ट्रपति पद के लिए 9 सितम्बर को एनडीए उम्मीदवार सी. पी. राधाकृष्णन और विपक्ष के उम्मीदवार पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जी. सुदर्शन रेड्डी के बीच सीधा मुकाबला होगा। मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खर्गे ने रेड्डी की उम्मीदवारी का ऐलान किया और कहा कि विपक्षी खेमे ने सर्वसम्मति से यह चयन किया है। उधर, सी. पी. राधाकृष्णन की उम्मीदवारी पर बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने मुहर लगा दी है।

विपक्षी दलों ने पूर्व जज रेड्डी को इसलिए उम्मीदवार बनाया है क्योंकि वह अविभाजित आंध्र प्रदेश से हैं और उनकी उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष तेलुगु देशम पार्टी में दुविधा पैदा करना चाहता है। लेकिन मंगलवार को ही टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडु के पुत्र एन. लोकेश ने सोशल मीडिया पर लिखा कि एनडीए एकजुट है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह विरोधी दलों के नेताओं से बात करके राधाकृष्णनन के नाम पर सहमति बनाने की कोशिश अब भी कर रहे हैं। लेकिन विपक्ष उपराष्ट्रपति चुनाव में सत्ता पक्ष को टक्कर देने के मूड में नज़र आ रहा है।

उपराष्ट्रपति चुनाव के आंकडों पर नज़र डालें तो सीपी राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति बनना तय है। बीजेपी और उसके साथी दलों के पास अच्छा खासा बहुमत है। कांग्रेस और उसके साथी दलों के लिए CPR का विरोध करना मुश्किल होगा क्योंकि एक तो उनका सार्वजनिक जीवन साफ सुथरा है। दूसरा, वो ओबीसी समाज से आते हैं, तमिलनाडु के हैं लेकिन उनकी जाति का प्रभाव आंध्र प्रदेश में भी है। विपक्ष का विरोध सांकेतिक होगा और CPR के उम्मीदवार होने की वजह से आक्रामक नहीं हो पाएगा।

CPR को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने का एक और पहलू भी है। बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह एहसास हुआ है कि अपने पुराने लोगों को ही जिम्मेदारी के पद देने चाहिए। जगदीप धनखड़ और सत्यपाल मलिक जैसे एक्सपेरिमेंट फेल हुए हैं। ये एहसास आने वाली राजनीतिक नियुक्तिय़ों में भी दिखाई देगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक : जयदीप कर्णिक

जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक है। सूट पहनकर दुनिया को उपदेश देने वाली ये शक्तियां अपनी नीति और नीयत में कितनी नंगी हैं, ये समझना जरूरी है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 20 August, 2025
Last Modified:
Wednesday, 20 August, 2025
jaydeep

जयदीप कर्णिक, संपादक, अमर उजाला डिजिटल।

दृश्य एक -

तारीख – 22 फरवरी 2025, स्थान - अमेरिका, वॉशिंगटन डी. सी., राष्ट्रपति का कार्यालय, किरदार - अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप , यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेन्स्की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस, कुछ पत्रकार और अन्य। इतनी बड़ी मुलाक़ात के लिए भी जेलेन्स्की अपने नियमित कपड़े ही पहन कर आए थे। टी-शर्ट और कार्गो पैंट। अपने ही अंदाज़ में वे पत्रकारों के सामने ही लाइव कैमरे पर डोनाल्ड ट्रम्प से भिड़ गए। अपने देश के लिए, उसके हितों के लिए। उस समय एक पत्रकार ने उनसे पूछ भी लिया था। आप इतनी बड़ी मुलाकात के लिए भी इतने साधारण कपड़े पहन कर आए हैं? जेलेन्स्की ने पलटकर पत्रकार से ही पूछ लिया था -आपको कोई तकलीफ है क्या?

दृश्य दो -

तारीख: 18 अगस्त 2025, स्थान – वही - अमेरिका, वॉशिंगटन डी. सी., राष्ट्रपति का कार्यालय, किरदार – ये भी वही - अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेन्स्की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैंस, कुछ पत्रकार और अन्य।

अब सब कुछ बदला हुआ था। कपड़ों से लेकर व्यवहार तक। शिष्टाचार दोनों ओर से बह रहा था। ट्रंप और जेलेन्स्की दोनों ओर से। जेलेन्स्की इस बार सूट पहनकर आए थे। उसी पत्रकार ने फिर उनसे कहा कि आप इस सूट में अच्छे लग रहे हो ! ट्रंप भी तपाक से बोले -हां मैंने भी इनसे यही कहा। फिर जेलेन्स्की से बोले ये वही पत्रकार हैं जिन्होंने आपको पिछली बार टोका था। जेलेन्स्की बोले, हां मैं इनको पहचान गया। मैंने तो सूट पहन लिया है पर इन्होंने वही सूट पहना है जो उस दिन पहना था।

बहरहाल, इस वैश्विक घटनाक्रम की संक्षिप्त लेकिन अतिशय नाटकीय दृश्यावली में फरवरी 2025 से अगस्त 2025 के इन छह महीनों में बहुत कुछ बदल गया है। जेलेन्स्की के कपड़े ही नहीं बदले हैं बल्कि हावभाव भी बदल लिए हैं। फरवरी की मुलाक़ात तीखी नोंक-झोंक में बदल गई थी। जेलेन्स्की के लिए बना भोजन धरा रह गया था और उन्हें एक तरह से धकियाकर ओवल दफ्तर से बाहर कर दिया गया था।

इस मुलाक़ात के बाद ट्रम्प और जेलेन्स्की के कई मीम भी बने थे, जिसमें दोनों को हाथापाई तक करते हुए बताया गया था।अबकी दोनों बहुत सुकून से मिले। न केवल घंटों मुलाक़ात चली, बल्कि यूरोप के अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी वहीं बुला लिए गए थे। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सब। ये ही वो शक्तियां हैं, जिन्होंने यूक्रेन को कहा था कि चिंता मत करो हम तुम्हारे साथ हैंं, हम तुम्हें रूस के खिलाफ लड़ने में पूरी मदद करेंगे।

पूरी मदद करेंगे पर खुद नहीं लड़ेंगे। हमारा एक भी नागरिक या सैनिक नहीं मरेगा। नागरिक और सैनिक सब यूक्रेन के मरेंगे। आखिर क्या बदला इन छह महीनों में? फरवरी में ट्रंप उसी गुरूर में जी रहे थे कि एक फोन करुंगा और रूस-यूक्रेन युद्ध रुकवा दूंगा!! उनको लगा जेलेन्स्की घुटनों के बल आएंगे और जो कहा जाएगा मान जाएंगे। हुआ ठीक उलट।

पुतिन को समझाने गए तो उन्होंने भी झिड़क दिया।ट्रंप को समझ आया कि मामला पेचीदा है और यूं शेखी बघारने से कुछ नहीं होगा। तो टैरिफ का दांव खेला। उसमें भी अपने ही जाल में घिर गए। आखिर पुतिन अपनी ही शर्तों पर मिलने के लिए तैयार हुए। चंद रोज पहले अलास्का में मिले भी। आसमान में गुजरते बमवर्षक अमेरिकी जहाजों के बीच नीचे जमीन पर जब ट्रंप और पुतिन मिले तो दुनिया की राजनीति का एक नया अध्याय लिखा जा रहा था। दो बड़े ध्रुव, दो बड़ी ताकतें मिल रही थीं, और जिनको समझ नहीं है उन्हें समझा रही थीं कि अब न तो दुनिया दो ध्रुवीय रह गई है, न एक ध्रुवीय, न बहुध्रुवीय।

अब दरअसल ध्रुव तो है, पर वो कोई देश नहीं हैं। वो सिर्फ एक ही चीज़ है और वो है पैसा, वो है व्यापार। अब सारे बड़े राष्ट्राध्यक्ष एक क्रूर व्यापारी की तरह व्यापार कर रहे हैं। दांव पर यूक्रेन जैसे छोटे देश लगे हैं और बिसात पर इन्हें मोहरे की तरह उपयोग में लाया जा रहा है, इसीलिए तो ट्रम्प और जेलेन्स्की की ताज़ा मुलाकात के ठीक पहले अमेरिका का ये बयान आ जाता है कि इस बातचीत में यूक्रेन के लिए नाटो की सदस्यता और डोनाबास पर रूस का कब्जा एजेंडे में नहीं हैं।

ट्रंप और पुतिन के बीच क्या बात हुई होगी उसे समझने के लिए ये इशारा ही काफी है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस नाटो की सदस्यता को लेकर ये सारा बखेड़ा खड़ा हुआ, वही एजेंडे से बाहर हो गई। यूक्रेन तो पूरी तरह ठगा गया। ऐसे में जेलेन्स्की के पास सूट पहनकर आने और अपना अस्तित्व बचाने के लिए झुककर बात करने के अलावा विकल्प ही क्या रह गया है?

दुनिया के ये व्यापारी चौधरी आखिर मसखरे से राष्ट्रपति बने और अपनी शर्तों पर जीना चाहने वाले जेलेन्स्की को झुकाकर ही माने। इस पूरे मामले में इन व्यापारी शक्तियों का कैसा दोगलापन रहा। भारत सहित दुनिया के सब देशों को रूस से व्यापार रोकने के लिए धमकाते रहे और खुद उसी रूस से व्यापार करते रहे। इधर पुतिन इनकी टेबल पर आ गए तो अब जेलेन्स्की को भी सूट पहना दिया। यही समझने वाली बात है। जेलेन्स्की का सूट आज के समय का एक बहुत बड़ा प्रतीक है।

सूट पहनकर दुनिया को उपदेश देने वाली ये शक्तियां अपनी नीति और नीयत में कितनी नंगी हैं, ये समझना जरूरी है। अपने बदन पर स्वाभिमान का टी-शर्ट पहनकर घूमने वाला कोई देश इनको पसंद नहीं आएगा। सूट की इन महाशक्तियों के सामने दुनिया के टी-शर्ट, गमछे और बंडी को अपना स्वाभिमान और अस्तित्व बचाना ही इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।

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संपादक के विस्थापन का कठिन समय : प्रो.संजय द्विवेदी

नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 20 August, 2025
Last Modified:
Wednesday, 20 August, 2025
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प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष।

हिंदी पत्रकारिता के 200 साल की यात्रा का उत्सव मनाते हुए हमें बहुत से सवाल परेशान कर रहे हैं जिनमें सबसे खास है ‘संपादक का विस्थापन’। बड़े होते मीडिया संस्थान जो स्वयं में एक शक्ति में बदल चुके हैं, वहां संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों कम हुई है। अखबारों से खबरें भी नदारद हैं और विचार की जगह भी सिकुड़ रही है। बहुत गहरे सौंदर्यबोध और तकनीकी दक्षता से भरी प्रस्तुति के बाद भी अखबार खुद को संवाद के लायक नहीं बना पा रहे हैं। यह ऐसा कठिन समय है जिसमें रंगीनियां तो हैं पर गहराई नहीं। हर तथ्य और कथ्य का बाजार पहले ढूंढा जा रहा है, लिखा बाद में जा रहा है।

नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है। जहां शब्द हैं, विचार हैं और उसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य और सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए हैं या नए जमाने में ऐसा सोचना ठीक नहीं है। डिजीटल मीडिया की मोबाइल जनित व्यस्तता ने पढ़ने, गुनने और संवाद का सारा समय खा-पचा लिया है। जो मोबाइल पर आ रहा है,वही हमें उपलब्ध है। हम इसी से बन रहे हैं, इसी को सुन और गुन रहे हैं।

ऐसे खतरनाक समय में जब अखबार पढ़े नहीं, पलटे जाने की भी प्रतीक्षा में हैं। दूसरी ओर वाट्सअप में अखबारों के पीडीएफ तैर रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो पीडीएफ पर ही छपते हैं। अखबारों को हाथ में लेकर पढ़ना और ई-पेपर की तरह पढ़ना दोनों के अलग अनुभव हैं। नई पीढ़ी मोबाइल सहज है। उसने मीडिया घरानों के एप मोबाइल पर ले रखे हैं। वे अपने काम की खबरें देखते हैं। ‘न्यूज यू कैन यूज’ का नारा अब सार्थक हुआ है। खबरें भी पाठकों को चुन रही हैं और पाठक भी खबरों को चुन रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अखबारों की जिंदगी कितनी लंबी है। 2008 में ‘प्रिंट इज डेट किताब’ लिखकर जे. गोमेज इस अवधारणा को बता चुके हैं।

सवाल यह नहीं है कि अखबार बचेंगे या नहीं मुद्दा यह है कि पत्रकारिता बचेगी या नहीं। उसकी संवेदना, उसका कहन, उसकी जनपक्षधरता बचेगी या नहीं। संपादक की सत्ता पत्रकारिता की इन्हीं भावनाओं की संरक्षक थी। संपादक अखबार की संवेदना, भाषा, उसके वैचारिक नेतृत्व,समाजबोध का संरक्षण करता था। उसकी विदाई के साथ कई मूल्य भी विदा हो जाएंगें। गुमनाम संपादकों को अब लोग समाज में नहीं जानते हैं।

खासकर हिंदी इलाकों में अब पहचान विहीन और ‘ब्रांड’ वादी अखबार निकाले जा रहे हैं। अब संपादक के होने न होने से फर्क नहीं पड़ता। उसके लिखने न लिखने से भी फर्क नहीं पड़ता। न लिखे तो अच्छा ही है। पहचानविहीन चेहरों की तलाश है, जो अखबार के ब्रांड को चमका सकें। संपादक की यह विदाई अब उस तरह से याद भी नहीं की जाती। पाठकों ने ‘नए अखबार’ के साथ अनुकूलन कर लिया है।

‘नया अखबार’ पहले पन्ने पर भी किसी भी प्रोडक्ट का एड छाप सकता है, संपादकीय पन्ने को आधा कर विचार को हाशिए लगा सकता है। खबरों के नाम पर एजेंडा चला सकता है। ‘सत्य’ के बजाए यह ‘नरेटिव’ के साथ खड़ा है। यहां सत्य रचे और तथ्य गढ़े जा सकते हैं। उसे बीते हुए समय से मोह नहीं है वह नए जमाने का ‘नया अखबार’ है। वह विचार और समाचार नहीं कंटेट गढ़ रहा है। उसे बाजार में छा जाने की ललक है। उसके टारगेट पर खाये-अघाए पाठक हैं जो उपभोक्ता में तब्दील होने पर आमादा हैं।

उसके कंटेंट में लाइफ स्टाइल की प्रमुखता है। वह जिंदगी को जीना और मौज सिखाने में जुटा है। इसलिए उसका जोर फीचर पर है, अखबार को मैग्जीन बनाने पर है। अखबार बहुत पहले ‘रंगीन’ हो चुका है, उसका सारा ध्यान अब अपने सौंदर्यबोध पर है। वह ‘प्रजेंटेबल’ बनना चाहता है। अपनी समूची प्रस्तुति में ज्यादा रोचक और ज्यादा जवान। उसे लगता है कि उसे सिर्फ युवा ही पढ़ते हैं और वह यह भी मानकर चलता है कि युवा को गंभीर चीजें रास नहीं आतीं।

यह ‘नया अखबार’ अब संपादक की निगरानी से मुक्त है। मूल्यों से मुक्त। संवेदनाओं से मुक्त। भाषा के बंधनों से मुक्त। यह भाषा सिखाने नहीं बिगाड़ने का माध्यम बन रहा है। मिश्रित भाषा बोलता हुआ। संपादक की विदा के बहुत से दर्द हैं जो दर्ज नहीं है। नए अखबार ने मान लिया है कि उसे नए पाठक चुनने हैं। बनाना है उन्हें नागरिक नहीं, उपभोक्ता। ऐसे कठिन समय में अब सक्रिय पाठकों का इंतजार है। जो इस बदलते अखबार की गिरावट को रोक सकें। जो उसे बता सकें कि उसे दृश्य माध्यमों से होड़ नहीं करनी है। उसे शब्दों के साथ होना है। विचार के साथ होना है।

हिंदी के संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कहा था, ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी।

यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।”

श्री पराड़कर की यह भविष्यवाणी आज सच होती हुई दिखती है। समानांतर प्रयासों से कुछ लोग विचार की अलख जगाए हुए हैं। लेकिन जरूरी है कि हम अपने पाठकों के सक्रिय सहभाग से मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए आगे आएं। तभी उसकी सार्थकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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चुनावी जंग में कांग्रेस का घटता हौसला: समीर चौगांवकर

पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है।

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Published - Monday, 18 August, 2025
Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

पीएम मोदी के 15 अगस्त के भाषण से कांग्रेस को चिंतित होना चाहिए। 2024 में 240 सांसदों पर सिमटे मोदी ने 2029 में फिर से सरकार बनाने के अपने संकल्प को संकेतों में बताया है। मोदी का भाषण भविष्य की बलवती वापसी से भरा हुआ था। मोदी ने अभी से 2029 की तैयारी शुरू कर दी है, और वहीं कांग्रेस चुनावी जंग के लिए कितनी तैयार है? इसके जनरलों और पैदल सैनिकों में कितना जोश है? इसके जनरल कौन-कौन हैं? सिर्फ़ मोदी को ‘वोट चोर’ कहकर मोदी सरकार को ठिकाने लगाने की उम्मीद राहुल गांधी कर रहे हैं। कांग्रेस आज क्या है? क्या वह एक राजनीतिक दल है, जो अपने जीवन-मरण की लड़ाई में उतरने जा रही है? या वह एक एनजीओ है, जो सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ निभा रही है और यह उम्मीद कर रही है कि इतने भर से दिल्ली की सत्ता बदल जाएगी?

मेरे इस आकलन से कांग्रेस-समर्थक नाराज़ हो सकते हैं मगर इस नश्तर को घाव के अंदर घुमाना ज़रूरी है। पिछले तीन चुनाव से आपका प्रतिद्वंद्वी मोदी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और 2029 में फिर वह आपको चारों खाने चित करने के लिए अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है। राहुल गांधी को चिंतित होना चाहिए कि अगर इस बार फिर कांग्रेस की हार हुई तो इसके ‘मध्य’ से इसके कई हताश और पस्त सदस्य बाहर का रास्ता पकड़ लेंगे। लगातार 20 साल सत्ता से बाहर रहना कांग्रेस अफ़ोर्ड नहीं कर सकेगी। तब कांग्रेस का क्या बचा रहेगा?

संभावना यही है कि तब भी यह उन्हीं पुराने और जर्जर स्वयंभू चाणक्यों, मेकियावेलियों और दिग्गज बुद्धिजीवियों की जमात के रूप में बनी रहेगी, जिन सबकी एक ही विशेषता होगी। न कभी चुनाव लड़े और न कभी चुनाव जीते या उसे भी गंवा दिया जो कभी उनके ज़िम्मे सौंपा गया। किसी भी राजनीतिक दल का एक ही लक्ष्य और नारा होता है, ‘चुनाव जीतो’। इसके लिए कड़ी मेहनत और गहरी निष्ठा की ज़रूरत होती है। सफल रहे तो खूब इनाम पाओ, विफल रहे तो भारी कीमत चुकाओ।

संक्षेप में, सारा दारोमदार जवाबदेही पर है। अब आप बताइए कि आपके मुताबिक, क्या कांग्रेस में इधर ऐसा कुछ हो रहा है? इस सवाल का जवाब ‘ना’ में है। 2014 के बाद कांग्रेस ज़्यादा सामंतवादी हो गई है और योग्यता के प्रति उसका आग्रह घटता गया है। इसमें जुझारू, चुनावी प्रतिभा वाले नए नेता बहुत कम उभरे हैं। जो थे, वे पार्टी से जा चुके हैं। लेकिन चापलूस तत्व तमाम संकटों के बीच भी कांग्रेस में बचे और बने रहते हैं। गांधी परिवार सहित कुछ पुराने वंशज अपनी सिकुड़ती जागीर शायद ही बचा पाए हैं।

वे अपने क्षेत्र में अपनी पार्टी का विस्तार नहीं कर सकते, न ही वे नई प्रतिभाओं के लिए जगह खाली कर सकते हैं। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने निरंतरता बनाए रखी। बेशक नाकामियों की। कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने प्रभारी के तौर पर जिस राज्य को छुआ उसे धूल बना दिया। कांग्रेस में राहुल टीम ऐसी है जो एक सिरे से पराजितों की परेड जैसी दिखती है।

राजनीति कड़ी मेहनत की मांग करती है, केवल ट्विटर के योद्धा बनकर कुछ नहीं होगा। कहीं ऐसा न हो कि 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ता राहुल गांधी को लेकर आमिर खान की फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ का यह गाना गुनगुनाते मिले,‘कहाँ से आया था वो, कहाँ गया उसे ढूँढ़ो’।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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लाल क़िले से पीएम मोदी का वैचारिक संदेश: अनंत विजय

संघ बीजेपी के बीच कथित मतभेद के क़यासों के बीच पीएम मोदी का लाल क़िले से दिया भाषण उनकी वैचारिक दृढ़ता को इंगित करता है। पूरे भाषण के दौरान एक साझा सूत्र है।

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Published - Monday, 18 August, 2025
Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किला की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें देशवासियों की भावनाओं का प्रकटीकरण और उनका अपना सोच था। अपनी समृद्ध संस्कृति और वौचारिकी का समावेश तो था ही। हम उन विचारों पर नजर डालेंगे लेकिन पहले प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ अंश देखते हैं। अपने भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं के स्मरण से किया। इसके बाद उन्होंने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया।

अंश- हम आज डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 125वीं जयंती भी मना रहे हैं। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के संविधान के लिए बलिदान देनेवाले देश के पहले महापुरुष थे। संविधान के लिए बलिदान। अनुच्छेद 370 की दीवार को गिराकर एक देश एक संविधान के मंत्र को जब हमने साकार किया तो हमने डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी।

अंश- आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का जिक्र करना चाहता हूं। आज से 100 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सौ साल की राष्ट्र की सेवा एक ही बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है। व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के इस संकल्प को लेकर के सौ साल तक मां भारती के कल्याण का लक्ष्य लेकर लाखों स्वंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया।

सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से। सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है। आज लालकिले की प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्रसेवा की यात्रा में योगदान करनेवाले सभी स्वयंसेवकों का आदरपूर्वक स्मरण करता हूं। देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य समर्पित यात्रा को जो हमें प्रेरणा देता रहेगा।

अंश- जब युद्ध के मैदान में तकनीक का विस्तार हो रहा है, तकनीक हावी हो रही है, तब राष्ट्र की रक्षा के लिए, देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमने जो महारथ पाई है उसको और विस्तार करने की जरूरत है।... मैंने एक संकल्प लिया है, उसके लिए आपका आशीर्वाद चाहिए। समृद्धि कितनी भी हो अगर सुरक्षा के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो समृद्धि भी किसी काम की नहीं रहती। मैं लाल किले की प्राचीर से कह रहा हूं कि आने वाले 10 साल में 2035 तक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण स्थलों, जिनमें सामरिक के साथ साथ सिविलियन क्षेत्र भी शामिल है, अस्पताल हो, रेलवे हो,आस्था के केंद्र हो, को तकनीक के नए प्लेटफार्म द्वारा पूरी तरह सुरक्षा का कवच दिया जाएगा।

इस सुरक्षा कवच का लगातार विस्तार होता जाए, देश का हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे। किसी भी तरह का टेक्नोलाजी हम पर वार करने आ जाए हमारी तकनीक उससे बेहतर सिद्ध हो। इसलिए आनेवाले दस साल 2035 तक मैं राष्ट्रीय सुरक्षा कवच का विस्तार करना चाहता हूं।... भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा पाकर हमने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की राह को चुना है। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि जब महाभारत की लड़ाई चल रही थी तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य के प्रकाश को रोक दिया था। दिन में ही अंधेरा कर दिया था। सूर्य प्रकाश को जब रोक दिया था तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध की प्रतिज्ञा पूरी की थी। ये सुदर्शन चक्र की रणनीति का परिणाम था। अब देश सुदर्शन चक्र मिशन लांच करेगा। ये सुदर्शन चक्र मिशन मिशन दुश्मनों के हमले को न्यीट्रलाइज तो करेगा ही पर कई गुणा अधिक शक्ति से दुश्मन को हिट भी करेगा।

अगर हम उपरोक्त तीन अंशों को देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में वैचारिकी का एक साझा सूत्र दिखाई देता है। जिस विचार को लेकर वो चल रहे हैं या जिस विचार में वो दीक्षित हुए हैं उसपर ही कायम हैं। सबसे पहले उन्होंने अपने संगठन के वैचारिक योद्धा डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को याद किया। उनके कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के स्वप्न को पूरा करने की बात की। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से देश का बताया कि किस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान को भारत भूमि पर पूरी तरह से लागू करवाने में सर्वोच्च बलिदान दिया।

इसके बाद वो अन्य बातों पर गए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा करके एक बार फिर से उन्होंने अपनी वैचारिकी को देश के सामने रखा। पूरी दुनिया को पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक रहे हैं। संघ के वैचारिक पथ पर चलते हुए ही वो राजनीति में आए और राष्ट्र सर्वप्रथम के सिद्धांत को अपनाया। यह अनायस नहीं था कि लाल किले पर जो सज्जा की गई थी उसमें एक फ्लावर वाल पर लिखा था – राष्ट्र प्रथम। पिछले दिनों संघ और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर दिल्ली में खूब चर्चा रही।

लोग तरह तरह के कयास लगाने में जुटे हुए हैं कि संघ और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्ते समान्य नहीं हैं। ऐसा करनेवाले ना तो संघ को जानते हैं और ना ही संघ के स्वयंसेवकों को। राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ और उनसे जुड़े व्यक्ति का आकलन उस प्रविधि से नहीं किया जा सकता है जिससे कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के नेता और उनके कार्यकर्ताओं के संबंधों का आकलन किया जाता रहा है।

तीसरे अंश में प्रधानमंत्री ने सुरक्षा को लेकर जिस तरह से महाभारत, श्रीकृष्ण और उनके सुदर्शन चक्र को देश के सामने रखा उससे एक बार फिर सिद्ध होता है कि प्रधानमंत्री की भारत की समृद्ध संस्कृति में कितना गहरा विश्वास है। पहलगाम के आतंकियों को मार गिराने के लिए सुरक्षा बलों ने आपरेशन महादेव चलाया था। इस नाम को लेकर भी विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। उसको भी धर्म से जोड़कर देखा गया था। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बताया कि सुरक्षा कवच देने के मिशन का नाम भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के नाम पर होगा।

भारतीय संस्कृति से जुड़े इस नाम को लेकर विपक्षी दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये देखना होगा।सुरक्षा कवच में आस्था के केंद्रों को शामिल करके प्रधानमंत्री ने भारतीयों के मन को छूने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने घुसपैठियों और डेमोग्राफी बदलने की समस्या पर जो बातें रखी उससे ये संकेत निकलता है कि ये सिर्फ अवैध तरीके से देश में घुसने का मसला नहीं है बल्कि ये सांस्कृतिक हमला है।

डेमोग्राफी बदलने से भारतीय संस्कृति प्रभावित हो रही है। जिसपर देशवासियों को विचार करना चाहिए। इस सांस्कृतिक हमले या संकट को सिर्फ भारत ही नहीं झेल रहा है बल्कि फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी जैसे कई देश डेमोग्राफी के बदलने से अपनी संस्कृति के बदल जाने का खतरा महसूस कर रहे हैं। इन देशों में भी घुसपैठ की समस्या को लेकर सरकार और वहां के मूल निवासी अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। प्रकटीकरण का तरीका अलग अलग हो सकता है। हम प्रधानमंत्री के भाषण का विश्लेषण करें तो लगता है कि ये एक ऐसे स्टेट्समैन का भाषण है जो विचार समृद्ध तो है ही अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित भी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण। 

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जीएसटी सुधार से अर्थव्यवस्था को मिलेगा बूस्टर: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

टीवी, फ़्रीज़, एसी जैसे आइटम 28% से 18% में आ सकते हैं। हमें अभी भी आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए। यह प्रस्ताव पहले जीएसटी कौंसिल में जाएगा।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 18 August, 2025
Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से घोषणा की है कि गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (GST) में दीवाली तक बड़ा बदलाव किया जाएगा। इससे रेट कम होंगे, सामान और सर्विसेज़ सस्ती होंगी। 2017 में GST लागू होने से पहले केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग टैक्स वसूली करती थीं। केंद्र सरकार सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्री पर एक्साइज ड्यूटी लगाती थी और रेस्टोरेंट में खाना खाने पर, फ़ोन बिल जैसी सर्विस पर टैक्स अलग से। फिर हर राज्य उस सामान को बेचने वाले पर सेल्स टैक्स लगाता था। नगर पालिका अपने शहर में सामान की एंट्री होने पर चुंगी यानी ऑक्ट्रॉय वसूलती थीं।

इस कारण किसी भी सामान या सर्विस के दाम देश के अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग होते थे। अब सिर्फ़ शराब, पेट्रोल-डीज़ल GST के दायरे से बाहर हैं, इसलिए इनके दाम देश भर में कम-ज़्यादा हैं। 2017 से GST लागू हुआ तो सरकार ने कहा कि एक देश में एक टैक्स होगा, लेकिन 2025 आते-आते एक देश में 50 तरह के टैक्स लग रहे हैं।

GST लागू होने से पहले अरविंद सुब्रमण्यम कमेटी ने कहा था कि तीन तरह के रेट होने चाहिए, लेकिन लागू हुए 7 रेट। ये रेट हैं 0%, 5%, 12%, 18% और 28%। इसके अलावा 0.25% और 3% का रेट है, जो मुख्य रूप से जेम्स-ज्वैलरी पर लगते हैं। यहाँ तक तो ठीक था, फिर इस पर सेस लगा दिया गया। GST के कारण जिन राज्यों को नुक़सान होना था उसकी भरपाई के लिए यह पाँच साल तक लगाया गया था। फिर कोरोनावायरस के कारण इसे मार्च 2026 तक बढ़ाया गया। अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा कि इसके चलते अब 50 तरह के रेट बन गए हैं।

GST की जटिलता के कारण व्यापारियों और कंपनियों को दिक़्क़त हो रही थी और लोगों को ज़्यादा टैक्स देना पड़ रहा था। अब सरकारी सूत्रों के हवाले से ख़बर है कि सिर्फ़ तीन तरह के रेट होंगे — 5%, 18% और 40%। इसका मतलब 12% और 28% का रेट ख़त्म होगा। 40% में तंबाकू, सिगरेट और ऑनलाइन गेम को रखा जाएगा। इससे खाने-पीने की चीज़ें सस्ती होने की संभावना है, जैसे बटर, घी, जैम, फ़्रूट जूस, ड्राय फ़्रूट जैसे आइटम 12% से 5% में आ सकते हैं। टीवी, फ़्रीज़, एसी जैसे आइटम 28% से 18% में आ सकते हैं। हमें अभी भी आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए।

यह प्रस्ताव GST कौंसिल में जाएगा, जहाँ राज्यों का बहुमत है और वहाँ पास होने पर ही यह दीवाली तक लागू हो सकता है। GST में बदलाव से सरकार को शुरू में सालाना 50 हज़ार करोड़ रुपये नुक़सान हो सकता है। 2018-19 में साल भर में टैक्स कलेक्शन क़रीब 12 लाख करोड़ रुपये हुआ था, अब 22 लाख करोड़ रुपये का कलेक्शन हो रहा है।

रेट घटने से अर्थव्यवस्था को फ़ायदा होगा क्योंकि चीज़ें सस्ती होंगी तो खपत बढ़ेगी। यह एक और बूस्टर डोज़ होगा अर्थव्यवस्था के लिए। इनकम टैक्स रेट कम करके सरकार ने एक डोज़ पहले दिया था, फिर रिज़र्व बैंक ने लोन सस्ता कर दिया। कुल मिलाकर सबके लिए अच्छी ख़बर है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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इतिहास भूलकर संघ पर हमले क्यों कर रहे हैं राहुल गांधी: आलोक मेहता

इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर वे अपने पूर्वजों और लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार लाल किले के समारोह में क्यों नहीं पहुंचे?

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Published - Monday, 18 August, 2025
Last Modified:
Monday, 18 August, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष का उल्लेख करते हुए संगठन की राष्ट्र सेवा की सराहना की। साथ ही भारत के महापुरुषों और बलिदान देने वालों का स्मरण करते हुए डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विनम्र श्रद्धांजलि भी दी। इस बात पर कांग्रेस और इस समय लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने विरोध व्यक्त करते हुए अनर्गल आरोप लगा दिए।

यह तो सड़क का विरोध है, लेकिन इससे पहले उनके पास इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर वे अपने पूर्वजों और लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार लाल किले के समारोह में क्यों नहीं पहुंचे? गणतंत्र दिवस पर भी वे नहीं दिखे। ये समारोह किसी पार्टी का नहीं होता है। फिर राहुल गांधी ने कांग्रेस और संघ तथा हिंदुत्व के प्रबल समर्थक नेताओं से रहे रिश्तों और सहायता का कांग्रेस का रिकॉर्ड देखने या किसी से समझने का प्रयास क्यों नहीं किया?

राहुल गांधी को यह जानकारी क्यों नहीं मिली कि भारतीय जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत की राजनीति में महान नेता थे। वे राष्ट्रवादी, प्रखर हिंदू नेता और विद्वान शिक्षाविद थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहली कैबिनेट (अंतरिम सरकार के बाद स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद) में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद बनी, तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया।

आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। जम्मू-कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग और पूरी तरह भारतीय संविधान के तहत रखने, अनुच्छेद 370 समाप्त करने के लिए उन्होंने जीवन का बलिदान तक किया। फिर नेहरूजी, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव, प्रणव मुखर्जी ने समय-समय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से मुलाकातें कीं और उनका सहयोग लिया। न केवल देश पर संकट और युद्ध के समय ही नहीं बल्कि सत्ता के लिए भी संघ का समर्थन लिया। राजनीतिक पूर्वाग्रहों से संघ पर प्रतिबंध लगाए और कानूनी आधार पर ही प्रतिबंध हटाने पड़े।

इसे संयोग कहें या सौभाग्य कि मुझे दिल्ली में 1971 से पत्रकारिता करने के अवसर मिले। 1971 से 1975 तक मैं हिंदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी का संवाददाता था। तब से लाल किले के समारोह से लेकर संसद की रिपोर्टिंग और सभी दलों-संगठनों के शीर्ष नेताओं से मिलता रहा हूँ। हिंदुस्थान समाचार के प्रमुख संपादक और निदेशक श्री बालेश्वर अग्रवाल, सहयोगी संपादक एन. बी. लेले और ब्यूरो प्रमुख रामशंकर अग्निहोत्री संघ के प्रमुख प्रचारक रहे थे। इन सबने मुझे अधिकांश कांग्रेस नेताओं से मिलवाया। एजेंसी को कांग्रेस सरकारों से ही समाचार सेवाएं देने के लिए नियमित रूप से फंड मिलता रहा।

फिर मैं कांग्रेस समर्थक बिरला परिवार या जैन परिवारों के प्रकाशन संस्थानों हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स समूह आदि में रहा। इसलिए इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक प्रधानमंत्रियों तथा राष्ट्रपतियों या संघ-भाजपा या सोशलिस्ट- कम्युनिस्ट नेताओं से मिलने, बात करने और उनकी अंदरूनी राजनीति समझने के अवसर मिले हैं। इसलिए कह सकता हूँ कि समय-समय पर कांग्रेस ने संघ का कितना लाभ उठाया और संघ के नेताओं से कितना संपर्क-संबंध रखा।

राहुल गांधी को नेहरू, इंदिरा गांधी युग की बात पता नहीं हो सकती है, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेता और उनके बनाए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के 7 जून 2018 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में शामिल होने की खबर तो मिली होगी। इस अवसर पर प्रणब मुखर्जी ने कहा था — 'राष्ट्रभक्ति ही भारत का मूल तत्व है।' उन्होंने संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की प्रशंसा करते हुए उन्हें महान देशभक्त बताया।

हेडगेवार का नाम लेकर कहा कि वे भारत माता की सेवा में समर्पित थे और उन्होंने युवाओं को संगठित करने का काम किया। उन्होंने आरएसएस मंच से यह संदेश दिया कि विचारधारा अलग हो सकती है, लेकिन देशहित और राष्ट्रीय एकता सर्वोपरि है। यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि पूर्व में कई कांग्रेस नेताओं का संघ से संपर्क-संबंध रहा था — जैसे बी. आर. अम्बेडकर (1939), महात्मा गांधी (1934), और जयप्रकाश नारायण। महात्मा गांधी ने संघ के शिविर की अनुशासन, जातिवाद का अभाव और सरल जीवनशैली की सराहना की। डॉ. अम्बेडकर ने संघ शिविर में सभी से बिना झिझक समान व्यवहार देखकर प्रशंसा की। जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समाज परिवर्तन में सक्षम, देशभक्ति से प्रेरित संगठन बताया था।

चीन या पाकिस्तान युद्ध के संकट काल या प्राकृतिक विपदा (भूकंप, बाढ़ आदि) में संघ के नेताओं-स्वयंसेवकों का सहयोग लेने, पूर्वोत्तर राज्यों में विदेशी ताकतों से बचाव के लिए हिंदू-हिंदी को बढ़ाने के लिए कांग्रेस सरकारें सहायता लेती रही हैं। राहुल गांधी आजकल बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के साथ गठबंधन पर बहुत आश्रित हो रहे हैं। शायद उन्हें ठाकरे परिवार के कट्टर हिंदूवादी विचारों और बाबरी मस्जिद गिराने का श्रेय लेने के दावों की जानकारी नहीं है या जानकर अनजान हैं, क्योंकि सत्ता के लिए सब जायज़ है।

बाल ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का खुलकर विरोध नहीं किया। उस समय शिवसेना कांग्रेस सरकार के साथ नरम रुख रखती थी। विपक्ष के कई नेता जेल में थे, पर ठाकरे और उनकी पार्टी पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इसीलिए उन्हें उस दौर में 'सत्ता समर्थक' माना गया। 1980 के दशक में भी शिवसेना और कांग्रेस (इंदिरा गांधी और बाद में संजय गांधी गुट) के बीच स्थानीय स्तर पर समझौते हुए ताकि 'मराठी मानुस' और हिंदुत्व के एजेंडे को राजनीतिक लाभ मिल सके। इंदिरा गांधी और बाल ठाकरे के बीच सीधा संवाद और संबंध थे। इंदिरा गांधी ठाकरे को कभी-कभी समर्थन भी देती थीं क्योंकि शिवसेना वामपंथी और कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों के खिलाफ लड़ रही थी, जो उस समय कांग्रेस के लिए भी चुनौती थे।

शिवसेना और आरएसएस दोनों की विचारधारा हिंदुत्व पर आधारित थी। ठाकरे शुरू से हिंदू पहचान की राजनीति करते रहे और उन्होंने खुलकर कहा कि — 'मैं हिंदुत्ववादी हूँ।' 1980 के दशक में, बाल ठाकरे और शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया। 1990 के दशक तक यह संबंध मजबूत हुआ और मुंबई नगर निगम व महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी-शिवसेना की साझेदारी आरएसएस की छत्रछाया में और गहरी हो गई। बाल ठाकरे कहते थे — 'मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं हिंदू हूँ और हिंदुत्व की राजनीति करता हूँ।' उन्होंने यह भी कहा था कि यदि हिंदुत्व पर हमला हुआ, तो शिवसेना तलवार की तरह खड़ी होगी।

1980 के दशक में धीरे-धीरे शिवसेना का मुख्य एजेंडा हिंदुत्व और मुस्लिम तुष्टिकरण का विरोध बन गया। 1989–90 के बाद उन्होंने बीजेपी और आरएसएस के साथ मिलकर खुलकर राम मंदिर आंदोलन का समर्थन किया। बाबरी मस्जिद विध्वंस (6 दिसम्बर 1992) पर बाल ठाकरे ने खुलेआम दावा किया कि बाबरी विध्वंस में शिवसैनिकों का हाथ था।

उनका बयान था, 'अगर मेरे शिवसैनिकों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी है, तो मुझे इस पर गर्व है।' ठाकरे ने यहाँ तक कहा: 'अगर वहाँ शिवसैनिक न होते तो बाबरी ढाँचा खड़ा रहता?' इस पृष्ठभूमि में राहुल गांधी और उनके अध्यक्ष खरगे सारे रंग-ढंग, परंपरा और विचार भूलकर केवल लालू यादव, तेजस्वी यादव की जातिगत राजनीति या विदेशी ताकतों के जाल में फँसकर सभी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता ख़त्म करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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फौजी वर्दी में ओसामा बिन लादेन है आसिम मुनीर: रजत शर्मा

भारत की नीति साफ है। भारत की सेना तैयार है। इस बार मुनीर और उसकी सेना ने कोई हरकत की, तो पाकिस्तान को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

Samachar4media Bureau by
Published - Wednesday, 13 August, 2025
Last Modified:
Wednesday, 13 August, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने एक बार फिर एटम बम की धमकी दी। जब जनरल साहब को ये याद आया कि भारत की सेना ने थोड़े दिन पहले उनकी कितनी पिटाई की थी तो जनरल मुनीर ने कहा कि अगर भारत के साथ युद्ध में पाकिस्तान कमजोर पड़ता है, तो पाकिस्तान अकेला नहीं मरेगा, ‘आधी दुनिया को साथ लेकर मरेगा’। भारत ने पाकिस्तान को फिर याद दिलाया कि अब एटम बम के ब्लैकमेल से कुछ नहीं होगा।

अब कोई गड़बड़ी हुई तो पाकिस्तान को फिर घर में घुसकर मारा जाएगा। पाकिस्तान का कोई कोना नहीं है, जो हमारी सेना की पहुंच से बाहर हो। विदेश मंत्रालय ने दुनिया के तमाम देशों से कहा कि पाकिस्तान में परमाणु बम आतंकवादियों के हाथ में हैं, दुनिया इस बात पर गंभीरता से विचार करे कि पाकिस्तान के परमाणु बम कितने सुरक्षित हैं? जिस पाकिस्तान में सरकार और सेना पूरी तरह आतंकवादियों के साथ हो, उस देश के परमाणु हथियार क्या पूरी दुनिया के लिए खतरा नहीं हैं?

जनरल मुनीर की एटम बम की धमकी का मतलब क्या है? सिंधु जल संधि स्थगित होने से जनरल क्यों बेचैन है? दिलचस्प बात ये है कि इसी भाषण में जनरल मुनीर ने अपने देश को पत्थरों से लदा एक पुराना ट्रक और भारत को एक चमचमाती मर्सिडीज कार बताया और डींग हांकी कि अगर इन दोनों के बीच टक्कर होती है तो किसे ज्यादा नुकसान पहुंचेगा। आसिम मुनीर अपने बयान को लेकर चौतरफा घिरे हुए हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के पूर्व अधिकारी माइकल रुबिन ने कहा है कि मुनीर के बयान को पढ़कर लगता है मानो “वह सूट पहने हुए ओसामा बिन लादेन हों।”

उन्होंने कहा कि जब मुनीर अमेरिका में खड़े होकर दुनिया को इस तरह की धमकी दे रहे थे तो उन्हें उसी वक्त अमेरिका से बाहर निकाल देना चाहिए था। अब पाकिस्तान के लोग भी पूछ रहे हैं कि “फेल्ड फील्ड मार्शल” ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हैं? अमेरिका इस बयान पर खामोश क्यों है? हमारे विदेश मंत्रालय ने जनरल मुनीर को उनकी औक़ात के हिसाब से जवाब दिया है।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि जनरल मुनीर के बयान के बाद दुनिया को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कितने सुरक्षित हैं, पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का नियंत्रण बिल्कुल सुरक्षित नहीं है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वह तुरंत पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की सुरक्षा पर ध्यान दे क्योंकि ये परमाणु हथियार किसी भी वक्त आतंकवादियों के हाथ में जाने का खतरा हैं, पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों के साथ मिली हुई है।

हैरानी की बात तो ये है कि इस बार आसिम मुनीर ने यह बयान पाकिस्तान में नहीं बल्कि अमेरिका की धरती से दिया है। आसिम मुनीर, दो महीने के भीतर दूसरी बार अमेरिका के दौरे पर पहुंचे हैं। वहां अमेरिकी सेना के उच्च अधिकारियों और जनरलों से मुलाकात की। मुनीर ने अमेरिका के संयुक्त मुख्यालय स्टाफ समिति के अध्यक्ष जनरल डैन केन से मुलाकात की। मुनीर, अमेरिकी सेना की केंद्रीय कमान के जनरल माइकल कुरीला के सेवा निवृत्ति समारोह में शामिल हुए।

रिटायरमेंट समारोह में शामिल होने के बाद आसिम मुनीर ने टैम्पा शहर के ग्रैंड हयात होटल में पाकिस्तानी मूल के लोगों से मुलाकात की। इस बैठक में शामिल लोगों के मोबाइल फ़ोन, कैमरा और अन्य गैजेट्स बाहर रखवाए गए थे, किसी को कोई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस अंदर ले जाने की अनुमति नहीं थी लेकिन इस कार्यक्रम में शामिल लोगों ने बाद में बताया कि आसिम मुनीर ने भारत को एटम बम की धमकी दी थी। मज़े की बात यह है कि पाकिस्तान में विपक्ष के नेताओं ने मुनीर के बयान का विरोध किया। जेल में कैद इमरान खान के पूर्व सलाहकार शहबाज़ गिल ने कहा कि उनके आर्मी चीफ ने बेहद गैर-जिम्मेदाराना बयान दिया है, अब दुनिया इसका नोटिस लेगी और पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश करेगी।

आसिम मुनीर जिस तरह की बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं, वह उनका दोष नहीं है। दोष तो उनका है जिन्होंने “फेल्ड फील्ड मार्शल” को व्हाइट हाउस में लंच कराया था। आसिम मुनीर जिस तरह से आधी दुनिया को उड़ाने की धमकी दे रहे हैं, वह उनका दोष नहीं है। दोष तो उनका है जिन्होंने दूसरी बार आतंकवाद के सरगना को अमेरिका बुलाया और अमेरिकी सेना के अधिकारियों के साथ बैठाया। दोष पिटे हुए मुनीर का नहीं है। दोष तो पाकिस्तान की थकी हुई सरकार का है जिसने युद्ध हारने वाले जनरल को फील्ड मार्शल बनाया।

अगर आसिम मुनीर का दिमाग खराब हुआ तो दोष उसका नहीं है, दोष उस सिस्टम का है जिसने उसे आतंकवाद की फैक्ट्री का मालिक बनाया। दोष उन देशों का भी है जिन्होंने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज दिलवाया। मुनीर की दहशतगर्दी के लिए फंड का इंतजाम करवाया। आसिम मुनीर से निपटना तो भारत जानता है। अभी दो दिन पहले ही हमारे वायु सेना प्रमुख ने बताया कि पाकिस्तान को कहां-कहां मारा, कितना मारा, छह विमानों को तबाह किया।

वायु रक्षा प्रणाली को बर्बाद किया, वायु सेना स्टेशन उड़ा दिए। भारत को पाकिस्तान के परमाणु ब्लैकमेल का भी कोई डर नहीं है क्योंकि वायु सेना प्रमुख और सेना प्रमुख दोनों कह चुके हैं कि भारत की मिसाइलें पाकिस्तान के हर कोने पर पहुंचती हैं। समस्या तो उन देशों से है जिन्होंने पाकिस्तान को हथियार दिए, वास्तविक समय की खुफिया जानकारी दी और पाकिस्तान को अपने हथियारों का परीक्षण स्थल बनाया। इसीलिए मुनीर की हिम्मत इतनी बढ़ी। लेकिन भारत की नीति साफ है। भारत की सेना तैयार है। इस बार मुनीर और उसकी सेना ने कोई हरकत की, तो पाकिस्तान को बर्बाद होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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संसद में मार्शलों के जरिये जबरन बाहर निकालने की मिसालें : आलोक मेहता

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा लिया गया ताकि सदन की कार्यवाही में शांति रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 11 August, 2025
Last Modified:
Monday, 11 August, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा के वेल में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के कर्मचारियों की तैनाती को अत्यंत आपत्तिजनक बताया। 2 से 5 अगस्त तक राज्यसभा में विपक्ष लगातार इस मुद्दे पर हंगामा करता रहा, और मॉनसून सत्र में कई दिनों तक विपक्षी सांसदों का प्रदर्शन जारी रहा। उपसभापति हरिवंश ने स्पष्ट किया कि इस सुरक्षा बल की तैनाती सरकार द्वारा नहीं, बल्कि सभामंडल सुरक्षा के लिए की गई है, और “राज्यसभा का संचालन गृह मंत्रालय या किसी बाहरी एजेंसी द्वारा नहीं किया जा रहा है।” उन्होंने यह भी कहा कि सदन में सुरक्षा बल की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है; वे “संसद की ही सुरक्षा व्यवस्था का अंग” हैं, और यह कवायद सदन की गरिमा बनाए रखने के लिए हुई है।

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि यह निर्णय सभापति द्वारा ही लिया गया था, ताकि सदन की कार्यवाही में शांति बनी रहे। उन्होंने विपक्ष की आपत्तियों को “गलत तथ्यों पर आधारित भ्रामक बयानबाजी” बताया। वस्तुतः 13 दिसंबर 2022 को लोकसभा के भीतर बाहरी लोगों के घुसने की घटना के बाद, संपूर्ण संसद की सुरक्षा व्यवस्था केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को सौंप दी गई थी। मई 2024 से संसद सुरक्षा बल की भूमिका बढ़ी और अंदरूनी कार्यक्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई।

इस बार के हंगामे और विवाद पर मुझे संसद में 1971, 1973, 1974 के दौरान प्रमुख सोशलिस्ट नेता राजनारायण को सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार बाकायदा कंधों पर उठाकर सदन से बाहर निकाले जाने की घटनाएं याद आईं। मैं 1971 से पत्रकार के रूप में संसद की कार्यवाही देखता और लिखता रहा हूँ। उस समय संसद की कार्यवाही का टीवी प्रसारण नहीं होता था। संसद के कर्मचारी विवरण शॉर्टहैंड से लिखकर रिकॉर्ड करते थे। एजेंसी के संवाददाता होने के कारण मुझे लगातार सदन की प्रेस दीर्घा में बैठना होता था, इसलिए वे घटनाएं आज भी याद हैं।

राजनारायण द्वारा बार-बार राज्यसभा में आंदोलनात्मक, आक्रामक और अशोभनीय भाषा का प्रयोग करने से सदन की कार्यवाही में बाधा आती थी। वे अक्सर सभापति की कुर्सी के सामने धरना देकर बैठ जाते थे। सदन के नियमों की अवहेलना के कारण उन्हें सभापति के आदेश पर मार्शलों द्वारा कई बार कंधों पर उठाकर सदन से बाहर ले जाया गया। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उस समय सभापति उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक थे। राजनारायण एक प्रखर समाजवादी नेता थे, जो कांग्रेस सरकार की नीतियों और कार्यशैली के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने बार-बार संसद में नियमों को चुनौती दी, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे उठे। उनके मामलों ने यह सवाल भी खड़ा किया कि कब विरोध जायज़ होता है और कब वह संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाता है।

राज्यसभा और लोकसभा में मार्शलों का प्रयोग केवल अत्यधिक असाधारण परिस्थितियों में किया जाता है, जब सदन की गरिमा, सुरक्षा और कार्यवाही बनाए रखने में बाधा उत्पन्न होती है। भारतीय संसदीय इतिहास में कुछ उल्लेखनीय घटनाएं हैं जब सांसदों को सदन से बाहर निकालने के लिए मार्शलों का सहारा लिया गया।

लोकसभा में 1989 में बोफोर्स तोप घोटाले पर विपक्ष ने हंगामा किया, तब कई बार मार्शल बुलाए गए। जनता दल और भाजपा के सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास जाकर नारेबाजी की। राज्यसभा में 2010 में महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान समाजवादी पार्टी और राजद के सांसदों ने भारी विरोध किया। इस दौरान 7 सांसदों को मार्शलों द्वारा बाहर निकाला गया। यह एक अत्यंत दुर्लभ घटना थी जब इतने सांसदों को एकसाथ राज्यसभा से बाहर किया गया।

मार्शल संसद भवन की सुरक्षा और अनुशासन बनाए रखने के लिए होते हैं। सभापति (राज्यसभा) या अध्यक्ष (लोकसभा) के आदेश पर ही वे किसी सदस्य को बाहर निकाल सकते हैं। आमतौर पर सदस्य को पहले नाम लेकर चेतावनी दी जाती है, उसके बाद भी नियम तोड़ने पर सस्पेंड या सदन से बाहर करने का आदेश दिया जाता है।

CISF को संसद भवन की सुरक्षा सौंपने का निर्णय भारत सरकार का एक सशक्त कदम है। इससे संसद की सुरक्षा न केवल पहले से अधिक तकनीकी और सुसंगठित हुई है, बल्कि किसी भी आतंकी या आंतरिक खतरे से निपटने की क्षमता भी बढ़ी है। संसद के अंदर 2022 में हुई एक बड़ी सुरक्षा चूक ने पूरे देश को चौंका दिया था। यह घटना 2001 के संसद हमले की 21वीं बरसी पर हुई थी। इस दिन संसद के भीतर कुछ अज्ञात घुसपैठियों ने अचानक विरोध प्रदर्शन किया और सुरक्षा प्रणाली को चुनौती दी।

संसद भवन में चल रही कार्यवाही के दौरान, दो व्यक्ति दर्शक दीर्घा से अचानक नीचे कूद गए। उन्होंने अपने हाथों में धुआँ छोड़ने वाले रंगीन यंत्र पकड़े हुए थे, जिससे पीला और हरा धुआँ निकलने लगा। साथ ही लोकसभा के बाहर (गेट नंबर 1) पर भी दो अन्य प्रदर्शनकारी धुआँ छोड़ने वाले उपकरणों का प्रयोग कर रहे थे। इस घटना ने संसद जैसी संवेदनशील जगह की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि केवल बाहरी ही नहीं, अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है।

इसके बाद संसद की सुरक्षा को और अधिक हाई-टेक और सख्त बनाया गया। मार्शलों का उपयोग आमतौर पर सदन की गरिमा बनाए रखने, वेल में अनुशासन सुनिश्चित करने, और सदस्यीय गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए किया गया है। नियम 256 (राज्यसभा) और नियम 374 (लोकसभा) के अंतर्गत सांसदों को निलंबित किया जा सकता है, लेकिन मार्शलों को भीतर भेजना 2021 में कांग्रेस और अन्य दलों के अत्यधिक विरोध और हंगामे के कारण आवश्यक हुआ। सांसदों द्वारा—पेपर फाड़ना, वेल में आना, मार्शलों से भिड़ना—इन घटनाओं ने यह दर्शाया कि संसदीय लोकतंत्र में विवाद और अनुशासन के बीच संतुलन आवश्यक है।

हाँ, कुछ संपादकों और राजनीतिक विशेषज्ञों का यह तर्क उचित है कि संसद की बाहरी सुरक्षा और अंदर की व्यवस्था में अंतर होना चाहिए। अंदर के सुरक्षा कर्मचारियों की वर्दी पुलिस जैसी न हो और उन्हें अति आधुनिक हथियारों से लैस न रखा जाए, क्योंकि सदन में उन्हें किसी हथियार से मुकाबला नहीं करना होता है। बहरहाल, उम्मीद की जाए कि संसद में नियमों का पालन हो, विरोध की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न हो, और भविष्य में सदन में बहस, सहमति-असहमति, विरोध, बहिर्गमन तक ही सीमित रहे, टकराव की नौबत न आए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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