कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
स्वाधीन भारत के इतिहास में वर्ष 1975 एक ऐसा वर्ष है जिस साल कई क्षेत्रों में अनेक तरह के बदलाव देखने को मिले। इंदिरा गांधी ने 1975 में देश की राजनीति और संविधान की आत्मा को बदलने का काम किया था। देश पर आपातकाल थोपा गया था। नागरिक अधिकारों पर पहरा लगा दिया था। राजनीति में ऐसा बदलाव देखने को मिला जो इसके पहले स्वाधीन भारत के इतिहास में लगभग नहीं के बराबर दिखता है।
कई नेता जो आपातकाल के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री थे, इंदिरा जी के साथ थे, समय भांपकर कांग्रेस को छोड़ दिया। जनता पार्टी के नेता हो गए। इंदिरा के साथ रहकर आपातकाल के भागी बने, फिर पाला बदलकर जयप्रकाश जी के साथ हो गए। 1977 में जब जनता सरकार बनी तो उसमें केंद्रीय मंत्री बन गए। आपातकाल नें राजनीति को इस कदर बदल दिया कि राजनीति सत्ता में बने रहने का खेल हो गया।
स्वाधीनता के पूर्व जिस प्रकार की राजनीति होती थी और उसके कुछ अंश स्वाधीनता के बाद भी दिखते थे वो एक झटके में 1975 में समाप्त हो गए। स्वाधीनता के बाद पहली बार 1975 में देश ने अधिनायकवाद की आहट सुनी। संजय गांधी के रूप में सत्ता का एक ऐसा केंद्र बना जो बगैर किसी शक्ति के बेहद ताकतवर था। वो जो चाहता था देश में वही होता था। संजय गांधी के साथ कई युवा नेता जुड़े जिन्होंने बाद में देश की राजनीति को अलग अलग तरह से प्रभावित किया। अधिनायकवाद के साथ साथ देश का व्यापक रूप से अवसरवादी राजनीति से भी परिचय हुआ।
सत्ता के लालची नेताओं को भी देश ने देखा। प्रतिरोध की राजनीति ने दिरा जैसी ताकतवर नेता को हरा दिया लेकिन स्वार्थ और लालच के कारण ये प्रतिरोध ढह गया। आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के दामन पर एक ऐसा स्थायी दाग है जो किसी भी तरह से धोया नहीं जा सकता है।राजनीति के अलावा कला के क्षेत्र में भी 1975 को याद किया जाएगा। 1975 में एक ऐसी फिल्म आई जिसने हिंदी सिनेमा के लैंडस्केप को बदलकर रख दिया। 1975 के पहले हिंदी फिल्मों में पारिवारिक संबंधों पर आधारित कहानियों की धूम रहती थी।
समांतर रूप से रोमांटिक कहानियों पर बनी फिल्में जनता को पसंद आती थीं। 1973 में राज कपूर की फिल्म बाबी ने बाक्स आफिस के तमाम रिकार्ड ध्वस्त कर दिए थे। युवा प्रेम का रंग ऐसा बिखरा था कि बाबी में नायक और नायिकाओं के कपड़े पहनने का स्टाइल युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ था। एक खास तरह के डिजायन का नाम ही बाबी प्रिंट पड़ गया था। 1973 में ही अमिताभ बच्चन की फिल्म जंजीर आई थी। इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सामने एक नए प्रकार के नायक की छवि प्रस्तुत की थी। जिसको बाद में एंग्री यंगमैन कहा गया।
फिल्म जंजीर की सफलता की पृष्ठभूमि में दो वर्ष बाद शोले फिल्म रिलीज होती है। इसकी सफलता की कहानी तो बहुतों को मालूम है लेकिन इस फिल्म के साथ फिल्म समीक्षा या समीक्षकों के असफलता की कहानी की चर्चा कम होती है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा हो चुकी है कि बिहार से प्रकाशित होनेवाले एक समाचारपत्र में शोले की समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था- शोले जो भड़क ना सका। इसी तर्ज पर एक अन्य लोकप्रिय हिंदी पत्रिका ने फिल्म शोले को एक स्टार दिया था। समीक्षा भी बेहद मनोरंजक लिखी गई थी, कुछ पंक्तियां देखिए- इंटरवल तक फिल्म ठीकठाक है, कुछ हद तक मजेदार भी। फिर इस खिचड़ी फिल्म के निर्देशक और लेखकद्वय सलीम जावेद को लगता है मारपीट और खून खराबे का दौरा पड़ जाता है।
लेकिन सच्चाई यह है कि मार-पीट वाले दृष्यों में न तो कोई जान है और न ही उनमें से किसी तरह की उत्तेजना हो पाती है। समीक्षक महोदय इसके बाद अभिनेताओं की खबर लेते हैं। वो अमिताभ बच्चन,धर्मेंद्र और संजीव कुमार के अभिनय पर लिखते हैं- धर्मेंद्र या अमिताभ न तो गुंडे लगते हैं, न ही भाड़े के टट्टू। धर्मेंद्र की नंगी छाती या उसके बाजुओं को देख कर फूल और पत्थर वाला वह किरदार याद नहीं आता।
अब तो वह ‘फूलफूल’ होता हुआ सा हिंदी फिल्मों का एक्टर भर लगता है। संजीव तो कांफी रेंज का अभिनेता है लेकिन शोले में वह उमर शरीफ बनने की कशिश में बिल्कुल पिछड़ गया लगता है। उसके गले से आवाज इस तरह से निकलती है जैसे भूत बंगले वाली फिल्मों के चरित्र बोलते हैं।इमरजेंसी ने जिस तरह से राजनीति की दिशा बदली उसी तरह से शोले ने फिल्म और फिल्म निर्माण की दिशा भी बदल दी। मल्टीस्टारर फिल्मों अपेक्षाकृत अधिक संख्या में बनने लगीं। हिंदी सिनेमा के जो दर्शक प्रेम के मोहपाश में थे, जो राजेश खन्ना की अदायगी के दीवाने थे, जिनको प्यार भरे संवाद अच्छे लगते थे उनकी पसंद बदल गई।
अब उनका नायक जमाने से टकरा सकता था। वो प्रेम भी करता था लेकिन विद्रोही नायक की उसकी छवि उसके प्रेमी रूप पर भारी पड़ती थी। राजनीति में भी 1975 के बाद नेताओं की छवि बदलने लगी। उनको देश की जनता अवसरवादी जमात के तौर पर देखने लगी। वादे करके मुकर जानेवाली प्रजाति के रूप में देखने लगी। नेताओं की आयडियोलाजी ते प्रति लगवा उसी तरह से घटने लगा जैसे हिंदी सिनेमा के दर्शकों का प्रेम कहानियों के प्रति लगाव कम होने लगा था। ये समाजशास्त्रीय शोध और अनुसंधान का विषय हो सकता है कि क्या आपातकाल में जिस तरह से सिस्टम या संविधान से ऊपर व्यक्ति की आकांक्षा को तरजीह दी गई उसका परिणाम ये हुआ कि जनता एक विद्रोही नायक को ढूंढने लगी।
वो विद्रोही नायक जो सड़ते जा रहे सिस्टम से टक्कर ले सके, उसको ठीक कर सके। देश के राजनीतिक सिस्टम के प्रति जनता के मन में जो गुस्सा उमड़ रहा था वो गुस्सा तब ढंडा होता था जब वो पर्दे पर नायक को सिस्टम तोड़ता देखता था। इसी संतुष्टि के लिए दर्शक बार-बार सिनेमा हाल जाते थे। आम जनता के सिस्टम के विरुद्ध उठ खड़े होने जैसी कई फिल्में 1975 के बाद बनीं। उनमें से कई बेहद सफल रहीं।
1975 में ही अमिताभ बच्चन की एक और फिल्म रिलीज हुई थी दीवार। इसमें भी नायक सिस्टम में रहकर सिस्टम को चुनौती देता है। जब फिल्म रिलीज हुई थी तब कुछ उत्साही समीक्षकों ने इसके नायक की तुलना इंदिरा गांधी के 1969 के फैसलों से की थी। तब कहा गया था कि इंदिरा गांधी ने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। वो सिस्टम में रहते हुए सिस्टम को ठीक करने का प्रयत्न कर रही थीं।
वही काम दीवार के नायक ने भी किया। ये पैरलल कुछ लोगों के गले नहीं उतर सकती है।वैश्विक स्तर पर भी 1975 में कई घटनाएं हुईं। वियतनाम युद्ध समाप्त हुआ। कुछ देशों को स्वाधीनता मिली और वहां लोकतंत्र स्थापित हुआ। कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर भी 1975 में जो घटनाएं हुईं उसने भी भारत को प्रभावित किया। इस लिहाज से 1975 का स्वाधीन भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को लाहोर और इस्लामाबाद में प्रोटेस्ट किया। शहबाज शरीफ की पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी, फिर फायरिंग की और हैडग्रेनेड तक फेंके।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
गाज़ा में शांति प्लान को लेकर पाकिस्तान में जबरदस्त हंगामा हो रहा है। पाकिस्तान की हुकूमत और आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने ट्रंप के गाजा पीस प्लान का न केवल समर्थन किया, बल्कि इस्लामिक मुल्कों का समर्थन हासिल करने में ट्रंप की मदद की थी। इससे पाकिस्तान में जबरदस्त नाराजगी है।
तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को लाहोर और इस्लामाबाद में प्रोटेस्ट किया। शहबाज शरीफ की पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी, फिर फायरिंग की और हैडग्रेनेड तक फेंके। तहरीक-ए-लब्बैक ने लाहौर से इस्लामाबाद तक मार्च निकालने और अमेरिकी दूतावास के घेराव का एलान किया था लेकिन पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोक दिया। इस्लामाबाद और रावलपिंडी में इंटरनेट सेवाओं को सस्पेंड कर दिया।
इस्लामाबाद, रावलपिंडी, पेशावर और लाहौर के एंट्री और एग्जिट प्वॉइंट्स पर कंटेनर्स लगाकर सड़कों को बंद कर दिया। तहरीक-ए-लब्बैक के लाहौर के सेंटर रहमत अली मस्जिद को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। जैसे ही प्रदर्शनकारियों मस्जिद से बाहर निकले तो पहले पुलिस ने लाठियां चलाईं और फायरिंग शुरू कर दी।
तहरीक-ए-लब्बैक के नेताओं ने कहा कि शहबाज शरीफ की हुकूमत और पाकिस्तान की फौज अमेरिका के हुक्म पर इजराय की जी हुजूरी कर रही है, इसे पाकिस्तान की आवाम कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।
पाकिस्तान की जनता की भावनाएं पूरी तरह फिलिस्तीन के साथ है। उन्हें लगता है कि शहबाज और मुनीर ने अमेरिका की जी हुजूरी करने के लिए इजरायल का साथ दिया। इसीलिए लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इन लोगों को ना तो पुलिस की लाठियों का डर है ना गोलियों का। मस्जिदों से ऐलान किए जा रहे हैं, मौलाना तकरीर कर रहे हैं, पाकिस्तान के मुसलमानों से फिलिस्तीन के हक के लिए आवाज उठाने की अपील की जा रही है। शहबाज की हुकूमत और मुनीर की फौज को ये सौदा महंगा पड़ेगा।
पाकिस्तान ने आवाम का ध्यान भटकाने के लिए नई चाल चली। पाकिस्तानी एय़र फोर्स ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में मिसाइल्स से हमला कर दिया। पाकिस्तानी फौज का दावा है कि पाकिस्तान में आंतकवादी हमले करने वाले तहरीक-ए-तालिबान के दहशतगर्द काबुल में छुपे हैं। इसलिए काबुल में तहरीक-ए-तालिबान के अड्डों को निशाना बनाया गया।
पाकिस्तानी वायु सेना ने दावा किया कि पाकिस्तान के फाइटर जैट्स ने काबुल में छुपे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के चीफ नूर वली महसूद को निशाना बनाया। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अफगान अधिकारियों के हवाले से बताया कि अब्दुल हक चौराहे के पास एक लैंड क्रूजर कार को निशाना बनाया गया। कहा जा रहा है कि इसी लैंड क्रूज़र में नूर वली महसूद था। लेकिन कुछ ही देर के बाद नूर वली महसूद की आवाज में एक ऑडियो टेप जारी किया गया जिसमें महसूद दावा कर रहा है कि वो ज़िंदा और सही सलामत है।
पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा आसिफ ने संसद में कहा कि अफगानिस्तान की सरकार अब पाकिस्तान के साथ गद्दारी कर रही है। ख्वाज़ा आसिफ ने कहा कि जो अफगान शरणार्थी तीन पीढियों से पाकिस्तान में रह रहे हैं, वो भी पाकिस्तान के साथ नमक हरामी कर रहे हैं, इसलिए अब पाकिस्तान ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं करेगा।
गौर करने वाली बात ये है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर एयर स्ट्राइक ऐसे वक्त पर की, जब अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी भारत में हैं। चार साल पहले अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद उसके किसी मंत्री का ये पहला भारत दौरा है।
शहबाज शरीफ की सरकार अफगानिस्तान से बुरी तरह चिढ़ी हुई है और अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर एयर स्ट्राइक की। बुरी तरह बौखलाए पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा आसिफ ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि ये अफगानी पाकिस्तान के साथ कभी थे ही नहीं, वो हमेशा से भारत के वफादार रहे हैं।
जब दिल्ली में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान हर मुद्दे का बातचीत से हल चाहता है, वो तनाव नहीं बढ़ाना चाहता। लेकिन मुत्ताकी ने पाकिस्तान को चेतावनी भी दी।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की सरकार अफगानिस्तान को हल्के में लेने की गलती न करे, अगर किसी ने अफगानिस्तान को छेड़ा तो उसे छोड़ेंगे नहीं, पाकिस्तान याद करे कि इससे पहले सोवियत संघ और अमेरिका का क्या हश्र हुआ।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
एक और हकीकत को हिसाब से लें तो उसका दावा और वजनदार हो जाता है। 2015 उस सिलसिले में एकमात्र अपवाद था जिसमें भाजपा और जदयू ने हमेशा गठबंधन में चुनाव लड़ा।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
बिहार के इतिहास में पहली बार बीजेपी 243 में से 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में मैदान में उतर रही है। आरजेडी के पास 77 सीटें है,तो जेडीयू 45 विधायकों के साथ मैदान में है। बिहार हिंदी पट्टी का अकेला राज्य है, जहां भाजपा ने कभी अपने दम पर सरकार नहीं बनाई और ना ही अभी तक अपना मुख्यमंत्री बना सकी है।
भगवा रणनीतिकार जानते है कि वे इतिहास के इस हिस्से को नए सिरे से लिखने के कगार पर खड़े है। 2020 की उसकी 19.46 फीसद वोट हिस्सेदारी अपने आप में तो अच्छी खासी है ही, यह उसकी एक ज्यादा गहरी लोकप्रियता छिपा लेती है, और वह यह है कि बीजेपी ने जिन 110 सीटों पर चुनाव लड़ा, वहा उसकी वोट हिस्सेदारी 42.56 फीसद थी। इसी की बदौलत उसे जदयू को अपनी लड़ी 115 सीटों पर मिले 32.83 फीसद वोटों पर काफी बढ़त हासिल है।
यही बात मुख्यमंत्री की कुर्सी के बड़े इनाम पर भाजपा के अघोषित दावे को जायज बना देती है। एक और हकीकत को हिसाब से लें तो उसका दावा और वजनदार हो जाता है। 2015 उस सिलसिले में एकमात्र अपवाद था जिसमें भाजपा और जदयू ने हमेशा गठबंधन में चुनाव लड़ा। हर बार अपनी लड़ी सीटों पर उनकी वोट हिस्सेदारी के प्रतिशत तकरीबन एक जैसे थे।
फरवरी 2005 में 24.91/26.41, अक्टूबर 2005 में 35.64/37.14 और 2010 में 39.56/38.77, लेकिन 2020 में बीजेपी और जदयू में 9.73 फीसद अंकों के भारी अंतर से वह संतुलन गड़बड़ा गया। उस वक्त जो भविष्य दूर दिखाई देता था, वह अब पहुंच के भीतर हैं।
एनडीए और महागठबंधन में ही सिर्फ़ सत्ता का संघर्ष नहीं है। एनडीए के भीतर भी एक दूसरे को निपटाने और कमजोर करने का संघर्ष जारी है। बीजेपी की कोशिश होगी कि चुनाव के बाद जेडीयू की हैसियत इतनी कमजोर हो जाए कि वह ना आरजेडी के साथ सरकार बनाने की स्थिति में रहे और ना बीजेपी को अपना मुख्यमंत्री बनाने से रोक सके वही जेडीयू की कोशिश हर हाल में बीजेपी को इस स्थिति में लाना है कि नीतीश के बिना बीजेपी के पास कोई विकल्प ना रहे।
बीजेपी और उसके गैर जदयू सहयोगी यदि साधारण बहुमत पर पहुंच जाते है तब भाजपा अपना मुख्यमंत्री बना लेगी। भाजपा ने नीतीश को अगला मुख्यमंत्री की घोषणा से परहेज किया है। चुनाव बाद सीटों की संख्या तय करेगी कि बिहार का मुख्यमंत्री कौन होगा। बिहार के इस युद्ध में कौन सामने से वार कर रहा है और कौन पीठ में छुरा घोंप रहा है, कुछ नहीं कहा जा सकता।
प्रेम और युद्ध में सब जायज मानकर बिहार के इस चुनावी रण में सारे हथकण्डे अपनाए जा रहे हैं। कौन दुश्मन के हाथों मारा जाता हैं और कौन अपनों के हाथों बस यह देखना बाकी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पहले समझ लीजिए कि टाटा परिवार टाटा ग्रुप का मालिक नहीं है जैसे अंबानी अड़ानी परिवार अपने अपने ग्रुप के सबसे बड़े शेयर होल्डर हैं। टाटा ग्रुप में 29 कंपनियाँ शेयर बाज़ार में लिस्ट हैं।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
टाटा ग्रुप मार्केट कैप के हिसाब से देश का सबसे बड़ा ग्रुप है। इसके शेयरों की क़ीमत अभी ₹26 लाख करोड़ है। इस ग्रुप में झगड़ा इतना बढ़ गया कि सरकार को सुलह करनी पड़ी, फिर भी ऐसा लगता है कि झगड़ा इतनी आसानी से नहीं सुलझेगा क्योंकि टाटा संस का 18% शेयर होल्डर मिस्री परिवार अब IPO लाने की माँग को लेकर खुलकर सामने आ गया है।
पहले समझ लीजिए कि टाटा परिवार टाटा ग्रुप का मालिक नहीं है जैसे अंबानी अड़ानी परिवार अपने अपने ग्रुप के सबसे बड़े शेयर होल्डर हैं। टाटा ग्रुप में 29 कंपनियाँ शेयर बाज़ार में लिस्ट हैं। इन सबका प्रमोटर टाटा संस है। टाटा संस में 66% शेयर टाटा ट्रस्ट के पास है। टाटा संस के डिवीडेंड से यह ट्रस्ट अस्पताल, शिक्षा संस्थान और अन्य सामाजिक संस्थाएं चलाता है। यह मॉडल टाटा ग्रुप को बाकी घरानों जैसी लड़ाई से बचाने में मददगार रहा है। टाटा परिवार के पास 3% शेयर है जबकि मिस्त्री परिवार के पास 18% है।
टाटा संस प्राइवेट कंपनी है और सारा झगड़ा चल रहा है इसका IPO लाने के लिए यानी शेयर बाज़ार में लिस्टिंग करने के लिए। झगड़ा शुरू हुआ टाटा ट्रस्ट से। रतन टाटा के निधन के बाद नोएल टाटा चेयरमैन बनें। नोएल रतन के सौतेले भाई हैं। ट्रस्ट टाटा संस के बोर्ड पर तीन सदस्यों को भेजता है। यह ट्रस्ट दो गुटों में बंट गया है।
नोएल के साथ पूर्व IAS विजय सिंह और TVS के वेणु श्रीनिवासन है जबकि दूसरे गुट में मेहिल मिस्री मिलाकर चार सदस्य। दूसरे गुट ने विजय सिंह को टाटा संस के बोर्ड में दोबारा भेजने का प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया। उनकी उम्र की दुहाई दी गई। वो 77 साल के हैं। दूसरे गुट का कहना है कि उन्हें टाटा संस के कामकाज की जानकारी नहीं मिलती है। वो पारदर्शिता की माँग कर रहे हैं।
इशारों में टाटा संस का IPO लाने की माँग कर रहे हैं। मेहिल मिस्री का उस मिस्री परिवार के रिश्तेदार है जो टाटा संस में 18% का मालिक है। हालाँकि मेहिल को ट्रस्ट में रतन टाटा ही लेकर आए थे। टाटा और मिस्री परिवार का रिश्ता खट्टा मीठा रहा है। रतन टाटा ने सायरस मिस्री को अपना उत्तराधिकारी बनाया था फिर बेदख़ल भी किया।
सायरस की मृत्यु बाद में कार दुर्घटना में हुई थी। अब मिस्री परिवार माँग कर रहा है कि टाटा संस का IPO लाया जाए। मिस्री परिवार शॉपुरजी पॉलनजी (SP) ग्रुप चलाता है मुख्य रूप से इंफ़्रास्ट्रक्चर ,रियल इस्टेट जैसे क्षेत्र में है। उसे टाटा संस में अपने शेयर बेचने है ताकि वो क़र्ज़ चुका सकें। टाटा संस की क़ीमत दस लाख करोड़ रुपये के आसपास आँकी गई है यानी मिस्री परिवार डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का मालिक है। टाटा परिवार और टाटा ट्रस्ट इसके लिए राज़ी नहीं है। वो टाटा संस को पब्लिक नहीं करना चाहते हैं।
इस लंबी कहानी में रिजर्व बैंक भी एक पात्र है बल्कि सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में। रिज़र्व बैंक ने 2022 में टाटा संस को Non Banking Finance Company ( NBFC) घोषित किया। टाटा संस को 30 सितंबर 2025 तक शेयर बाज़ार में लिस्टिंग के लिए कहा था। टाटा संस ने IPO से बचने के लिए अर्ज़ी लगा दी कि हम NBFC नहीं रहना चाहते हैं। रिज़र्व बैंक ने अब तक कोई फ़ैसला नहीं लिया है।
सरकार और रिजर्व बैंक की भूमिका यहाँ निर्णायक होगी कि टाटा संस पब्लिक कंपनी बनेगी या प्राइवेट। पब्लिक कंपनी बनने पर डेढ़ सौ से ज़्यादा सालों के इतिहास में पहली बार टाटा संस में बाहरी निवेशकों का दख़ल होगा जो ट्रस्ट टाटा ग्रुप को पारिवारिक झगड़े के कारण टूट से बचाता रहा है वहीं अब झगड़ा हो रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिल्ली के सीरी फोर्ट आडिटोरियम में अमिताभ बच्चन-धर्मेन्द्र अभिनीत फिल्म शोले का रिस्टोर्ड वर्जन प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म को बड़े पर्दे पर बेहतर आवाज के साथ देखना एक अलग ही अनुभव था। करीब बीस वर्षों का बाद शोले फिर से देख रहा था। बड़े पर्दे पर फिल्म देखना रोमांचकारी था। फिल्म के आखिरी सीन में अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र जय को जब गोली लगती है तो उसके चेहरे के भाव और पीड़ा बड़े पर्दे पर इतने प्रभावी लगते हैं कि दर्शक उस पीड़ा के साथ एकाकार हो जाता है।
जब जय, बसंती की मौसी के पास वीरू के रिश्ते की बात करने पहुंचता है तो उनके चेहरे की शरारत बड़े पर्दे पर इतना जीवंत दिखती है कि दर्शकों को खूब मजा आता है। सिर्फ अमिताभ ही नहीं बल्कि ठाकुर के रूप में संजीव कुमार, बसंती के रूप में हेमा मालिनी और बीरू के रूप में धर्मेंद्र की आदाकारी की प्रशंसा इस कारण मिल पाई की दर्शक बड़े पर्दे पर अभिनय की बारीकियों को महसूस कर सके थे।
आज जब मोबाइल पर फिल्में देखी जाने लगी हैं तो चेहरे के उन भावों को दर्शक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि आज अभिनय की बारीकियों पर बात नहीं होती है बल्कि कपड़ों के डिजायन से लेकर हिंसा के तरीकों पर बात होती है। हाल फिल्हाल में किसी फिल्म का कोई ऐसा सीन याद नहीं पड़ता जिसको लेकर चर्चा होती हो।
उसके छायांकन को लेकर उसको फिल्माने को लेकर चर्चा बहुत ही कम होती है। एक जमाना था जब अमिताभ बच्चन की फिल्मों के दृष्यों और संवादों की चर्चा होती थी। ये चर्चा फिल्म से अलग होती थी। संवादों के आडियो कैसेट अलग से बिका करते थे। अब फिल्मों को लेकर अधिक चर्चा इसकी होती है कि कितने दिनों में 100 करोड़ का बिजनेस कर लिया। फिल्म कितने दिन में 500 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई।
अमिताभ बच्चन ने रविवार को 83 वर्ष की आयु पूरी की। वो अब भी खूब सक्रिय हें। लोकप्रिय भी। इतनी लंबी आयु के बावजूद उनकी लोकप्रियकता क्यों कायम है, इसपर विचार किया जाना चाहिए। धर्मेन्द्र भी 90 वर्ष की आयु को छूने वाले हैं। वो भी इंटरनेट् मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। अपने फार्म हाउस से वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। उनके वीडियो भी लोग खूब पसंद करते हैं।
कभी शायरी सुनाते हैं, कभी अपनी तन्हाई को लेकर कमेंट करते नजर आते हैं। कई बार खेतों में घूमते उनके वीडियो भी दिख जाते हैं। इन दो अभिनेताओं के अलावा रेखा जब भी किसी अवार्ड शो में आती हैं या परफार्म करती हैं तो उसका वीडियो खूब प्रचलित होता है। लोग वीडियो को पोस्ट और रीपोस्ट करते हैं, अपनी टिप्पणियों के साथ।
अमिताभ बच्चन, धर्मन्द्र, रेखा, हेमा मालिनी और बहुत हद तक देखें तो माधुरी दीक्षित की लोकप्रियता में बड़े पर्द का बड़ा योगदान है। शोले के अलावा भी याद करिए दीवार और जंजीर में अमिताभ बच्चन की अदायगी। फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के बीच का चर्चित संवाद, मेरे पास गाड़ी है बंगला है... और जब शशि कपूर इसके उत्तर में कहते हैं मेरे पास मां है तो पूरा हाल तालियों से गूंज उठता है। आज भी इस संवाद की चर्चा होती है।
गाहे बगाहे सुनने को मिल जाता है। इसका कारण ये है कि लोगों ने बड़े पर्दे पर इस संवाद को घटित होते देखा है। दोनों अभिनेताओं के चेहरे के भाव को पढ़ा है। उसको महसूस किया है। अभिनय की गहराई ने लोगों को प्रभावित किया। इस कारण यह संवाद लगभग कालजयी हो गया। फिल्म से जुड़े शोधार्थियों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि डायलाग डिलीवरी और अभिनय के अलावा इसका बड़े पर्द पर आना भी एक कारण रहा है।
इस पीढ़ी के बाद भी अगर विचार किया जाए तो जितने भी अभिनेता और अभिनेत्री लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं वो कहीं न कहीं बड़े पर्द पर यादगार भूमिका कर चुके हैं। श्रीदेवी की फिल्में तोहफा, मवाली, जस्टिस चौधरी क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होकर इतनी सफल हो पाती। क्या तेजाब फिल्म में माधुरी दीक्षित के नृत्य का आनंद छोटी स्क्रीन पर लिया जा सकता है? आज छोटी स्क्रीन के जमाने में जब लोग मोबाइल या पैड पर फिल्में देख रहे हैं तो दर्शक अभिनय की बारीकियों को पकड़ नहीं पाता है।
वो कहानी की रफ्तार के साथ तेज गति से चलने में ही रोमांचित महसूस करता है। इसलिए फिल्मों की स्पीड पर चर्चा होती है उसके ठहराव पर नहीं। कुछ फिल्म समीक्षक तो अपनी फिल्म समीक्षा में फिल्मों के स्लो होने की बात करते हैं, यहां तक लिख देते हैं कि कहानी धीमी गति से चलती है। कहानी कही कैसे गई है इसपर बहुत कम चर्चा होती है।
शाहरुख खान, आमिर खान भी अगर सुपर स्टार बने तो बड़े पर्दे पर उनकी फिल्मों की लोकप्रियता के कारण। आज भी जिन फिल्मों को दर्शक बड़े पर्दे पर पसंद करते है उनके ही अभिनय की प्रशंसा होती है, लोकप्रियता भी उनको ही मिलती है। कुछ वेब सीरीज के अभिनेता या कलाकार इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन उनका संवाद या उनका अभिनय कालजयी साबित होगा इसका आकलन होना अभी शेष है। इतने वेब सीरीज आते हैं, बताया जाता है कि युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय भी हैं लेकिन कुछ ही समय बाद दर्शकों के मानस से ओझल भी हो जाते हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है। छोटे शहरों में सिंगल स्क्रीन सिन्मा हाल बंद हो गए हैं। लोगों के पास सिनेमा हाल का विकल्प ही नहीं है। लोगों को छोटे स्क्रीन पर फिल्म देखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
मुझे याद है कि जब हम कालेज में थे भागलपुर में छह या सात सिनेमा हाल हुआ करते थे लेकिन अब वहां एक मल्टीप्लैक्स है। सारे सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल बंद हो गए। किसी में शापिंग कांपलैक्स खुल गया। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सिंगल स्कीन सिनेमाघर को लेकर कोई नीति बनाए। इसमें कर में कुछ वर्षों की छूट हो सकती है।
सस्ते दर पर सिनेमा हाल बनाने के लिए ऋण की व्यवस्था हो सकती है। साथ ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए कि टिकट दर दर्शकों की पहुंच में रहे। ये बार बार साबित भी हो चुका है कि जब जब निर्माताओं और सिनेमा हाल मालिकों ने टिकट की दरों में कटौती की है दर्शक सिनेमा हाल तक लौटे हैं। अगर दर्शक सिनेमा हाल तक लौटते हैं तो अभिव्यक्ति के इस सबसे सशक्त माध्यम को बल मिलेगा और फिर कोई सदी का महानायक बनने की राह पर चल निकलेगा। अभी तो फिल्मों के हाल पर हरिवंश राय बच्चन जी की एक पंक्ति याद आती है- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
प्रशांत कुमार ने खूंखार अपराधियों के खिलाफ अनगिनत अभियानों का नेतृत्व किया, आतंकी मॉड्यूल पर नकेल कसी, और राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
बिहार विधानसभा चुनाव का एक बड़ा मुद्दा प्रदेश को 'जंगल राज' यानी सत्ता और अपराधियों-माफिया के गठजोड़ से बचाना भी है। निश्चित रूप से लालू यादव के शासनकाल में नेताओं और अपराधियों के गहरे संबंधों पर अनेक प्रामाणिक रिपोर्ट्स और पुस्तकें सामने आई हैं। लालू राज के शुरुआती दौर में, मैं स्वयं एक अखबार के संपादक के रूप में कई घटनाओं से परिचित रहा।
तब और बाद में भी विभिन्न अखबारों और साप्ताहिक पत्रिकाओं में इस विषय पर मेरे लेख और रिपोर्ट्स प्रकाशित होते रहे हैं। आजकल अपराध-मुक्त व्यवस्था के संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा गृह मंत्री अमित शाह के कठोर निर्णयों और पुलिस कार्रवाइयों को अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय बताया जा रहा है। हालांकि, पुलिस मुठभेड़ों में अपराधियों के मारे जाने पर सवाल भी उठते हैं। पुलिस अधिकारी, मीडिया, और कानूनविदों के बीच इस मुद्दे पर बहस जारी है।
इस पृष्ठभूमि में, मेरे जैसे पत्रकारों को गंभीरता से सोचना पड़ता है कि क्या ऐसी मुठभेड़ों में अपराधियों को कानूनी सजा के बजाय मार दिया जाता है? क्या इनमें जातीय या साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह तो नहीं शामिल हैं? या फिर, क्या पिछले वर्षों में अदालतों ने जघन्य अपराधियों को कठोर सजा दी है?
इन सवालों के दिलचस्प जवाब मुझे उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रशांत कुमार के जीवन और उनके 'एनकाउंटर एक्सपर्ट' के रूप में अनुभवों पर आधारित, पत्रकार और फिल्म निर्माता अनिरुद्ध मित्रा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'द एनफोर्सर' (The Enforcer) में मिले।
प्रशांत कुमार उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के चर्चित चेहरों में से एक रहे हैं। वर्दी में अपने शुरुआती दिनों से लेकर उत्तर प्रदेश के शीर्ष पुलिस अधिकारी बनने तक, उनका करियर भारत के सबसे जटिल राज्यों में से एक में उच्च-दांव वाले अभियानों, सांप्रदायिक दंगों, और अपराध नियंत्रण की कठिन वास्तविकताओं से भरा रहा है।
इस पुस्तक में बताया गया है कि दबाव में भी शांत रहने के लिए मशहूर प्रशांत कुमार ने खूंखार अपराधियों के खिलाफ अनगिनत अभियानों का नेतृत्व किया, आतंकी मॉड्यूल पर नकेल कसी, और राज्य के कुछ सबसे चुनौतीपूर्ण क्षणों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मुझे सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह लगा कि 'जुलाई 2023 से मई 2025' तक, उत्तर प्रदेश पुलिस ने संवेदनशील और महत्वपूर्ण मामलों में 93,000 से अधिक लोगों को दोषी ठहराया, जिनमें से 65 को अदालतों ने मृत्युदंड की सजा सुनाई। इसके अलावा, 7,800 से अधिक लोगों को आजीवन कारावास और 1,395 लोगों को 20 वर्ष से अधिक की सजा मिली।
यह आंकड़ा इस धारणा को पूरी तरह खारिज करता है कि गंभीर अपराधों के लिए अदालतें कठोर सजा नहीं देतीं। यह साबित करता है कि यदि पुलिस पर्याप्त सबूत उपलब्ध कराए, तो देश की अदालतें कठोर दंड देने में सक्षम हैं।
इसलिए, राज्यों में पुलिस बल की संख्या और संसाधनों को बढ़ाना, ईमानदार पुलिसकर्मियों को उचित संरक्षण देना, और उनके कार्य में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना आवश्यक है। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश में पुलिस बल की संख्या अब दोगुनी होकर 4 लाख से अधिक हो गई है, जबकि भाजपा सरकार के सत्ता में आने के समय यह मात्र 2 लाख थी। इसके साथ ही पुलिस बजट भी ढाई गुना बढ़ गया है।
पुस्तक में मुठभेड़ों के पीछे की रणनीतिक सोच, नैतिक अस्पष्टताओं, और कानून के शासन व राजनीतिक मजबूरियों के बीच संतुलन बनाए रखने की कहानी बयान की गई है। 'द एनफोर्सर' भारतीय पुलिस व्यवस्था की गहराइयों को उजागर करती है और बदलती सरकारों, जनता की निगरानी, और हिंसा की साये में प्रशांत कुमार के सफर को दर्शाती है।
इससे पहले, अनिरुद्ध मित्रा की बेस्टसेलर पुस्तक '90 डेज' आई थी, जो राजीव गांधी हत्या कांड की जांच के प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित है। इस पर आधारित एक टीवी सीरियल 'द हंट' ओटीटी प्लेटफॉर्म पर काफी लोकप्रिय हुआ।
अनिरुद्ध मित्रा एक अनुभवी पत्रकार और फिल्म निर्माता हैं। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'इंडिया टुडे' में अपने सफल कार्यकाल (1982-1993) के दौरान उन्होंने बोफोर्स घोटाला, राजीव गांधी हत्या, भारत-पाकिस्तान-अफगानिस्तान में ड्रग युद्ध, बीसीसीआई बैंक मनी लॉन्ड्रिंग, न्यायपालिका में भ्रष्टाचार, भारतीय मॉडल से जासूस बनी पामेला बोर्डेस, और धर्मगुरु चंद्रास्वामी पर कई खोजी रिपोर्ट्स लिखीं। उन्होंने 1994 में मुंबई में यूटीवी के साथ टेलीविजन ड्रामा सीरीज लिखना और बनाना शुरू किया और इंडोनेशिया में एक संस्थान में रहकर फिल्में लिखीं और निर्मित कीं।
प्रशांत कुमार ने माफियाओं से निपटने के लिए 'माफिया टास्क फोर्स' का गठन किया और माफिया गिरोहों की पहचान का विस्तृत विवरण दिया। उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ों पर प्रशांत कुमार ने स्पष्ट किया, पुलिस कोई घात लगाकर गोली चलाने और मारने के लिए नहीं बैठी है। हमें हथियार दिए गए हैं, ये हमारे लिए आभूषण नहीं हैं। अगर कोई हम पर गोली चलाएगा, तो हम जवाबी कार्रवाई करेंगे।
हमारे लोग भी मारे गए हैं। उनके कार्यकाल में धार्मिक स्थलों से एक लाख लाउडस्पीकर हटाने जैसे संवेदनशील मुद्दे भी शामिल हैं। उन्होंने कहा, यह धर्म-निरपेक्ष कदम है। हमने किसी एक समुदाय या धर्म को निशाना नहीं बनाया।
पुस्तक में यह भी बताया गया है कि प्रशांत कुमार ने 31 माफिया लीडरों और उनके 69 सहयोगियों को अदालत से सजा दिलाने में सफलता हासिल की। कई को आजीवन कारावास की सजा मिली और वे जेलों में हैं। संदेश साफ है, माफियाओं के लिए कोई जगह नहीं है। माफिया-विरोधी अभियान में करीब 4,059 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की गई और लगभग 14,000 करोड़ रुपये की अवैध संपत्ति को कानूनी कार्रवाई के तहत जब्त किया गया। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मोदी सरकार द्वारा पारित 'न्याय संहिता 2023' के तहत 429 अपराधियों पर कानूनी कार्रवाई की गई।
इसलिए, न केवल उत्तर प्रदेश और बिहार, बल्कि पूरे देश में अपराधियों पर नियंत्रण के लिए साहसी और ईमानदार पुलिसकर्मियों को सरकार और अदालतों से पूर्ण सहयोग और न्याय मिलना आवश्यक है। कोई भी देश पूरी तरह अपराध-मुक्त नहीं हो सकता, लेकिन भारत में प्रशांत कुमार जैसे अधिकारी अकेले नहीं हैं। उनसे पहले भी कई अच्छे अधिकारी रहे हैं और आज भी हैं।
प्रशांत कुमार मूल रूप से बिहार के सिवान के हैं। उनके अनुभवों और इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, और पूरे देश में शांति और कानून-व्यवस्था स्थापित करने का लाभ सरकारों और समाज को उठाना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
मुस्लिम समुदाय को याद है कि सीतामढ़ी से जदयू के सांसद देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि इस चुनाव में यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया। इसलिए वे उनका काम नहीं करेगे।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
अक्टूबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए को बहुमत मिला तो उसमें लालू के जंगल राज के साथ नीतीश की सेक्युलर छवि का बड़ा योगदान था। नीतीश ने पिछड़ों के बीच वंचित अति पिछड़ा वर्ग, दलितों के बीच हाशिए पर खड़े महादलित वर्ग और मुसलमानों के बीच पिछड़े पसमांदा समूह को अपने साथ जोड़ा था। पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर नीतीश के करीबी नेता थे।
नीतीश कुमार की सफलता की एक बड़ी वजह यह भी रही कि उन्होंने मुसलमानों के बीच बरसों से दबे जाति के सवाल को आवाज दी। पसमांदा आंदोलन को वैधता प्रदान की। रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर आयोग के सुझावों को मान्यता दी। अली अनवर जैसे नेता को राज्यसभा भेजा। जिनके राज्यसभा में भाषणों से संसद की बहसों में मुसलमानों की विविधता का पक्ष दर्ज हुआ।
2005 के विधानसभा चुनाव में जदयू के चार मुसलमान विधायक चुने गए थे। इससे उत्साहित नीतीश कुमार ने चारों विधायकों को बारी-बारी से मंत्री बनाया। इसका असर यह हुआ कि 2010 के विधानसभा चुनाव में जदयू के सात मुस्लिम विधायक बने और छह पर दूसरे स्थान पर रहे।
सीएसडीएस लोकनीति के सर्वेक्षण में 28 फीसद मुसलमानों ने कहा था कि बिहार में मुसलमानों के लिए जदयू ही सबसे अच्छी पार्टी है। जबकि राजद के लिए ऐसा सिर्फ 26.4 फीसद मुसलमानों ने कहा। उस समय मुसलमानों में नीतीश का ऐसा असर था कि पहली बार कोई मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत गया। वे सबा जफर थे, जो अमौर से चुनाव जीते थे। बाद में वे जदयू में शामिल हो गए।
नीतीश को मुसलमानों के समर्थन की वजह थी। वह नीतीश ही थे जिन्होंने स्थानीय निकाय चुनाव में पसमांदा जातियों को अति पिछड़ा श्रेणी में शामिल किया। उन्होंने भागलपुर दंगों का स्पीडी ट्रायल कराया। गरीब मुसलमानों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएँ शुरू की। स्थानीय निकाय और सरकारी नौकरियों में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण दिया।
नीतीश ने तमाम अवसरों पर बिहार से पाँच मुसलमानों को राज्यसभा भेजा और 16 मुसलमानों को विधान परिषद भेजा। आठ मुसलमानों को अपने मंत्रालय में जगह दी। इनमें बड़ी संख्या पसमांदा मुसलमानों की थी।
2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार करने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी प्रचार करने बिहार आना चाहते थे। लेकिन नीतीश ने यह कहकर कि हमारे पास एक मोदी है ही, दूसरे मोदी की जरूरत नहीं है, मोदी को बिहार आने नहीं दिया था। दरअसल नीतीश को अपने मुस्लिम वोट बैंक की चिंता थी।
2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने अपनी सेक्युलर छवि को बचाए रखने के लिए एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया और सिर्फ दो सीटों पर सिमट गए। 2015 में लालू के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई, लेकिन 2017 में भाजपा के साथ चले गए।
2020 के विधानसभा चुनाव में उनको मिलने वाले मुस्लिम वोट में भारी गिरावट हुई। नीतीश ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया और सभी हारे। अपनी सेक्युलर छवि बनाए रखने के लिए और मुसलमानों को संदेश देने के लिए मजबूरन नीतीश को बसपा के विधायक जमा खान को पार्टी में शामिल कराकर मंत्री बनाना पड़ा। सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे के अनुसार 2020 में नीतीश को सिर्फ 5 फीसद मुसलमानों के वोट मिले।
नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के वक्फ बिल पर समर्थन करने पर उनके ही पार्टी के मुस्लिम नेताओं ने नीतीश से दूरी बना ली। विधान परिषद सदस्य गुलाम गौस ने नीतीश पर नाराज होकर शेर पढ़ा, “मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है, क्या मेरे हक में फैसला देगा।” एक और विधान परिषद सदस्य खालिद अनवर ने बिल का विरोध किया था। नीतीश के करीबी और शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन सैयद अफजल अब्बास ने भी नीतीश से दूरी बना ली।
नीतीश के भरोसेमंद पूर्व सांसद गुलाम रसूल बलियावी ने साफ कर दिया है कि उनका संगठन “इदारा-ए-शरिया” नीतीश का विरोध करेगा। जदयू के मुस्लिम नेताओं को वक्फ बिल पर सांसद ललन सिंह के लोकसभा में संबोधन को लेकर आपत्ति है। मुस्लिम नेताओं का कहना है कि अब भाजपा और जदयू में कोई फर्क नहीं है।
एनडीए में रहने के बाद भी बिहार में मुसलमानों का एक वर्ग नीतीश कुमार को सेक्युलर मानता था और नीतीश के साथ जुड़ा हुआ था। पूर्व सांसद अली अनवर ने भी कहा है कि वह नीतीश के साथ इसलिए आए थे कि उनका मिजाज सेक्युलर था। पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर को नीतीश कुमार और बिहार के मुसलमानों के बीच रिश्ते की कड़ी के रूप में देखा जाता रहा है।
मुस्लिम समुदाय को याद है कि सीतामढ़ी से जदयू के सांसद देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि इस चुनाव में यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया, इसलिए वे उनका काम नहीं करेंगे। बंद मुट्ठी से जैसे रेत फिसल जाती है, वैसे ही नीतीश कुमार के हाथ से मुसलमान वोट फिसल गए हैं। सत्ता हाथ से फिसलती है या नहीं, चुनाव बाद साफ होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
असल में पाकिस्तान के मौलानाओं ने इस शांति प्लान का समर्थन करने वाली शहबाज शरीफ की हुकूमत और जनरल आसिम मुनीर के खिलाफ बगावत कर दी है।
रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।
गाजा में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शांति प्लान का पहला फेज लागू हो गया। हमास ने शांति प्लान को मंजूर कर लिया। अब गाजा में शान्ति है लेकिन पाकिस्तान में खून खराबा शुरू हो गया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ की पुलिस अपने ही लोगों पर गोलियां बरसा रही है। लाहौर में फायरिंग हो रही है, खून बह रहा है, दर्जनों लोग मारे गए हैं।
असल में पाकिस्तान के मौलानाओं ने इस शांति प्लान का समर्थन करने वाली शहबाज शरीफ की हुकूमत और जनरल आसिम मुनीर के खिलाफ बगावत कर दी है। मौलानाओं ने शहबाज शरीफ और आसिम मुनीर पर मुसलमानों को धोखा देने का इल्जाम लगाया और तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएल।पी) के मुखिया मौलाना साद रिज़वी ने इस्लामबाद में अमेरिकी दूतावास के घेराव की कॉल दे दी। इसके बाद शहबाज शरीफ की पुलिस ने आधी रात के बाद लाहौर में तहरीक-ए-लब्बैक के मुख्यालय को घेर लिया और मौलाना साद रिज़वी को गिरफ्तार करने की कोशिश की।
तहरीक-ए-लब्बैक के समर्थकों और पुलिस के बीच जबरदस्त झड़प हुई, पुलिस ने फायरिंग की। तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने पुलिस पर पलटवार किया, कई बार पुलिस को पीछे हटना पड़ा। चूंकि ये कार्यकर्ता देश के अलग-अलग हिस्सों से आए थे, जगह-जगह बिखरे हुए थे, इसलिए उन्होंने हर तरफ से पुलिस पर हमला किया जिसके बाद पुलिस के कदम वापस खींचने पड़े। लाहौर की पुलिस ने मरने वालों का आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक TLP के कम से कम तीन कार्यकर्ता मारे गए हैं।
तहरीक-ए-लब्बैक के नेताओं का कहना है कि ट्रंप ने ग़ाज़ा के लिए जो Peace Plan बनाया है, उसके बाद फिलस्तीन का वजूद खत्म हो जाएगा। उनका इल्ज़ाम है कि शहबाज शरीफ और आसिम मुनीर इस प्रस्ताव को मानकर दुनिया भर के मुसलमानों की पीठ में छुरा घोंपा है, इसे कोई पाकिस्तानी बर्दाश्त नहीं करेगा।
पाकिस्तान के लोगों को साफ दिखाई देता है कि मुनीर और शहबाज शरीफ ने अपनी दुकान चलाने के लिए ट्रंप के सामने सरेंडर कर दिया है। पाकिस्तान हमेशा फिलिस्तीन के साथ खड़ा रहा है। अब ट्रंप को खुश करने के चक्कर में मुनीर और शहबाज ने U-turn ले लिया। इसका गुस्सा पाकिस्तान की सड़कों पर दिखाई दे रहा है।
दूसरी तरफ ट्रंप इजरायल और हमास के बीच शांति योजना करवाने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं और इसे नोबेल शांति पुरस्कार पाने की दिशा में बड़ा कदम बता रहे हैं। लेकिन शुक्रवार को नोबेल शांति पुरस्कार वेनेज़ुएला की विपक्ष की नेता को देने का ऐलान कर दिया गया। पाकिस्तान सरकार ने ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए नामांकन भेजा था, पर ये कोई काम नहीं आया।
ट्रंप का दावा है कि उन्हने सात जंगें रुकवा दी और वही नोबेल शांति पुरस्कार के असली हक़दार हैं। लेकिन Nobel Peace Prize Committee के गले उनकी बात नहीं उतरी। सवाल ये है कि दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क के राष्ट्रपति को Nobel Peace Prize की इतनी तलब क्यों है?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
श्यामलाल जी अपनी जमीन को, माटी को, महतारी को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। सत्ता के साथ उनके निरंतर और व्यापक संपर्क थे। वे राजपुरुषों के साथ-साथ आम आदमी से भी समान रूप से संवाद कर सकते थे।
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।
वे होते तो इस साल सौ साल के हो जाते। इस साल उनका शताब्दी वर्ष है। सच में पद्मश्री से अलंकृत पं. श्यामलाल चतुर्वेदी की पावन स्मृति को भूल पाना कठिन है। वे हमारे समय के ऐसे नायक हैं जिसने पत्रकारिता, साहित्य और समाज तीनों क्षेत्रों में अपनी विरल पहचान बनाई।
वे छत्तीसगढ़ के ‘असली इंसान’ थे। जिन अर्थों में ‘सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया’ का नारा दिया गया होगा, उसके मायने शायद यही रहे होंगे कि ‘अच्छा मनुष्य’ होना। छत्तीसगढ़ उनकी वाणी,कर्म, देहभाषा से मुखरित होता था। बालसुलभ स्वभाव, सच कहने का साहस और सलीका, अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना- यह सारा कुछ एक साथ श्यामलाल जी ने अकेले संभव बनाया।
श्यामलाल जी अपनी जमीन को, माटी को, महतारी को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। सत्ता के साथ उनके निरंतर और व्यापक संपर्क थे। वे राजपुरुषों के साथ-साथ आम आदमी से भी समान रूप से संवाद कर सकते थे। वे अक्सर अपने वक्तव्यों में कहते थे- “आपको मेरी बात बुरी लग जाए तो आप मेरा क्या कर लेगें? वैसै ही मैं भी बुरा मान जाऊं तो आपका क्या कर लूंगा?”
उन्होंने कभी भी इसलिए कोई बात नहीं कि वह राजपुरुषों को अच्छी या बुरी लगे। उन्हें जो कहना था वे कहते थे। दिल से कहते थे। शायद इसीलिए उनकी तमाम बातें लोंगो को प्रभावित करती थीं।
श्यामलाल जी अप्रतिम वक्ता थे। मां सरस्वती उनकी वाणी पर विराजती थीं। हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में वे सहज थे। दिल की बात दिलों तक पहुंचाने का हुनर उनके पास था। वे बोलते तो हम मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते। रायपुर, बिलासपुर के अनेक आयोजनों में उनको सुनना हमेशा सुख देता था। अपनी साफगोई, सादगी और सरलता से वे बड़ी से बड़ी बात कह जाते थे।
उनकी बहुत कड़ी बात भी कभी किसी को बुरी नहीं लगती थी, क्योंकि उसमें उनका प्रेम और व्यंग्य की धार छुपी रहती थी। उनसे शायद ही कोई नाराज हो सकता था। मैंने उन्हें सुनते हुए पाया कि वे दिल से दिल की बात कहते थे। ऐसा संवाद हमेशा प्रभावित करता है। उनके वक्तव्यों में आलंकारिक शब्दावली के बजाए ‘लोक’ के शब्द होते। साधारण शब्दों से असाधारण संवाद करने की कला उनसे सीखी जा सकती थी।
उनकी देहभाषा (बाडी लैंग्वेज) उनके वक्तव्य को प्रभावी बनाती थी। हम यह मानकर चलते थे कि वे कह रहे हैं , तो बात ठीक ही होगी। वे किसी पर नाराज हों, मैंने सुना नहीं। मलाल या गुस्सा करना उन्हें आता नहीं था। हमेशा हंसते हुए अपनी बात कहना और अपना वात्सल्य नई पीढ़ी पर लुटाना उनसे सीखना चाहिए। आज जबकि हमारे बुर्जुग बेहद अकेले और तन्हा जिंदगी जी रहे हैं।
भरे-पूरे घरों और समाज में वे अकेले हैं। उन्हें श्यामलाल जी की जिंदगी से सीखना चाहिए। समाज में समरस होकर कैसे एक व्यक्ति अपनी अंतिम सांस तक प्रासंगिक बना रह सकता है, यह उन्होंने हमें सिखाया।
वे सक्रिय पत्रकारिता, लेखन कब का छोड़ चुके थे। लेकिन आप रायपुर से बिलासपुर तक उनकी सक्रियता और उपस्थिति को रेखांकित कर सकते थे। निजी आयोजनों से लेकर सार्वजनिक समारोहों तक में वे बिना किसी खास प्रोटोकाल की अपेक्षा के आते थे। अपना प्यार लुटाते, आशीष देते और लौट जाते। उनके परिवार को भी इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि कैसे उनके बड़े सुपुत्र श्री शशिकांत जी ने उनकी हर इच्छा का मान रखा।
वे खराब स्वास्थ्य के बाद भी जहां जाना चाहते थे, शशिकांत जी उन्हें लेकर जाते थे। श्यामलाल जी के तीन ही मंत्र थे- संपर्क,संवाद और संबंध। वे संपर्क करते थे, संवाद करते और बाद में उनकी जिंदगी में इन दो मंत्रों से करीब आए लोगों से उनके संबंध बन जाते थे। वे बिना किसी अपेक्षा के रिश्तों को जीते थे। उनका इस तरह एक महापरिवार बन गया था। जिसमें उनकी बेरोक-टोक आवाजाही थी।
अपने अंतिम दिनों में वे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष बने। किंतु पूरी जिंदगी उनके पास कोई लाभ का पद नहीं था। ऐसे समय में भी वे लोगों के लिए उतने ही सुलभ और आकर्षण का केंद्र थे। मुझे आश्चर्य होता था कि दिल्ली के शिखर संपादक श्री प्रभाष जोशी, मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा,दिग्विजय सिंह हों या बनारस के संगीतज्ञ छन्नूलाल मिश्र अथवा छत्तीसगढ़ के दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी या डा. रमन सिंह।
श्यामलाल जी के जीवन में सब थे। तमाम संपादक, पत्रकार, सांसद, मंत्री, विधायक उन्हें आदर देते थे। समाज से मिलने वाला इतना आदर भी उनमें लेशमात्र भी अहंकार की वृद्धि नहीं कर पाता था।
छत्तीसगढ़ देश का अकेला प्रदेश है, जिसकी समृद्ध भाव संपदा और लोकसंपदा है। उसके लिए ‘छत्तीसगढ़ महतारी’ शब्द का उपयोग भी होता है। अपनी जमीन, भूमि के लिए ‘मां’ शब्द उदात्त भावनाओं से ही उपजता है।
भारत मां के बाद किसी राज्य के लिए संभवतः ऐसा शब्द प्रयोग छत्तीसगढ़ में ही होता है। वैसे भी यह मां महामाया रतनपुर,मां बमलेश्वरी,मां दंतेश्वरी की धरती है, जहां लोकजीवन में ही मातृशक्ति के प्रति अपार आदर है। छत्तीसगढ़ महतारी भी लोकजीवन की ऐसी ही मान्यताओं से संयुक्त है।
अपनी माटी से मां की तरह प्यार करना और उसका सम्मान करना यही भाव इससे शब्द से जुड़े हैं। श्यामलाल जी का परिवेश भी लोकजीवन से शक्ति पाता है। इसलिए शहर आकर भी वे अपने गांव को नहीं भूलते, अपने लोकजीवन को नहीं भूलते। उसकी भाषा और भाव को नहीं भूलते। वे शहर में बसे लोकचिंतक थे, लोकसाधक थे। यह अकारण नहीं था वे प्रो. पी.डी खेड़ा जैसे नायकों के अभिन्न मित्र थे, क्योंकि दोनों के सपने एक थे- एक सुखी, समृद्ध छत्तीसगढ़।
आज जबकि प्रो. खेड़ा और श्यामलाल जी दोनों हमारे बीच नहीं हैं, पर वे हम पर कठिन उत्तराधिकार छोड़कर गए हैं। श्यामलाल जी अपने लोगों को न्याय दिलाना चाहते थे,वे चाहते थे कि छत्तीसगढ़ का सर्वांगीण विकास हो, यहां के लोकजीवन को उजाड़े बगैर इसकी प्रगति हो। इसलिए वे सत्ता का ध्यानाकर्षण अपने लेखन और वक्तव्यों के माध्यम से करते रहे। सही मायने में वे छत्तीसगढ़ी अस्मिता के प्रतीक और लोकजीवन में रचे-बसे नायक थे। उनका शब्द-शब्द इसी माटी से उपजा और इसी को समर्पित रहा।
जिस समाज की स्मृतियां जितनी सघन होतीं हैं, वह उतना ही चैतन्य समाज होता है। हम हमारे नायकों को समय के साथ भूलते जाते हैं। छत्तीसगढ़ की जमीन पर भी अनेक ऐसे नायक हैं जिन्हें याद किया जाना चाहिए।
मुझे लगता है कि श्यामलाल जी जैसे नायकों की याद ही हमारे समाज को जीवंत, प्राणवान, संवेदनशील और मानवीय बनाने की प्रक्रिया को और तेज करेगी। उनके शताब्दी वर्ष पर छत्तीसगढ़ के मित्र उन्हें याद करेगें तो उनकी स्मृति हमें और समृद्ध करेगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 20 परसेंट ऑनलाइन गेमर भारत में हैं, करीब 59 करोड़ भारतीय ऑनलाइन गेमिंग करते हैं, इसलिए साइबर अपराधों का सबसे ज्यादा शिकार लोग भारत में ही होते हैं।
रजत शर्मा, एडिटर-इन- चीफ, चेयरमैन, इंडिया टीवी।
सुपरस्टार अक्षय कुमार ने खुलासा किया कि उनकी बेटी भी ऑनलाइन गेम के चक्कर में साइबर अपराधियों का शिकार होते-होते बची। साइबर क्राइम के खिलाफ मुंबई पुलिस के जागरूकता अभियान का शुभारंभ करते हुए अक्षय कुमार ने अपने घर में हुई घटना का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि उनकी 13 साल की बेटी ऑनलाइन वीडियो गेम खेल रही थी।
इसी दौरान गेम खेल रहे एक अनजान पार्टनर ने उनकी बेटी से उसकी न्यूड फोटो मांगी। अक्षय कुमार ने कहा कि उन्होंने बच्चों को इस तरह के अपराधियों के बारे में बताया था, इसीलिए जैसे ही बेटी से इस तरह की डिमांड की गई तो उसने सिस्टम बंद कर दिया और अपनी मां को सारी बात बताई।
लेकिन कुछ बच्चे इस तरह के अपराधियों के चक्कर में फंस जाते हैं, घर में किसी के साथ कोई बात शेयर नहीं करते और फिर साइबर अपराधी बच्चों को ब्लैकमेल करते हैं।मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि साइबर अपराधियों का टारगेट ज्यादातर किशोर ही होते हैं, इसलिए बच्चों में जागरूकता पैदा करना जरूरी है।
अक्षय कुमार की ये बात सही है कि ऑनलाइन गेम के चक्कर में ज्यादातर बच्चे ही अपराधियों के शिकार बनते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 20 परसेंट ऑनलाइन गेमर भारत में हैं, करीब 59 करोड़ भारतीय ऑनलाइन गेमिंग करते हैं, इसलिए साइबर अपराधों का सबसे ज्यादा शिकार लोग भारत में ही होते हैं। ऑनलाइन गेम सिर्फ ठगी और ब्लैकमेलिंग का जरिया ही नहीं हैं। इसकी वजह से बच्चों में IGD यानी इंटरनेट गेमिंग डिसऑर्डर बड़ी बीमारी बन गई है।
करीब 9 परसेंट छात्र इससे पीड़ित हैं। इन छात्रों में नींद न आने, पढ़ाई में कमजोर होने और बात-बात पर गुस्सा होने के लक्षण दिखते हैं। भारत में ऑनलाइन गेमिंग के चक्कर में लोग हर साल 20 हजार करोड़ रुपये गंवाते हैं। कई मामलों में आत्महत्या तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। सिर्फ कर्नाटक में ऑनलाइन गेमिंग के कारण खुदकुशी के 32 मामले सामने आए। ऑनलाइन गेमिंग एक महामारी बन चुका है। कई देशों में इसके खिलाफ सख्त कानून बनाए गए हैं। ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया को पूरी तरह बैन कर दिया है।
फ्रांस में अगर बच्चे की उम्र 15 साल से कम है तो सोशल मीडिया पर अकाउंट खोलने के लिए माता-पिता की सहमति लेना जरूरी है, जबकि जर्मनी ने इसके लिए 16 साल की उम्र तय की है। ब्रिटेन में ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट के तहत बच्चों की सुरक्षा के लिए सख्त मानक तय किए गए हैं।
भारत में ऑनलाइन मनी गेम्स पर पाबंदी लगा दी गई है। एक अक्टूबर से ये कानून लागू हो गया है। लेकिन मनी गेम्स के अलावा दूसरे ऑनलाइन गेम्स आज भी चल रहे हैं जिनके जरिए अपराध होते हैं। मेरा मानना है कि ऑनलाइन गेम्स के खिलाफ कानून बनना चाहिए, लेकिन कानून बनने से समस्या खत्म हो जाएगी, साइबर अपराध बंद हो जाएंगे, इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस तरह के अपराधों को रोकने का एक ही उपाय है, जागरूकता और बच्चों का मां-बाप पर भरोसा, कि वो अपनी हर बात माता-पिता के साथ शेयर कर सकें।
अक्षय कुमार की बेटी समझदार है। वो जाल में नहीं फंसी। उसने अपने मां-बाप को समय रहते बता दिया। लेकिन सारे बच्चे ऐसे नहीं होते। ऑनलाइन गेमिंग के दो पहलू हैं, एक – ऑनलाइन गेमिंग के जरिए लोगों को लूटा जा रहा था जिसके कारण लखनऊ में किशोर ने आत्महत्या की। पहले भी ऐसे कई केस हो चुके हैं। हालांकि मनी गेम्स पर अब सरकार ने रोक लगा दी है। लेकिन गेमिंग के बहाने लड़कियों को जाल में फंसाने का सिलसिला जारी है। इससे बचने के लिए बच्चों के साथ-साथ मां-बाप को भी जागरूक बनाने की जरूरत है।
जितने बड़े पैमाने पर नाबालिग बच्चों के साथ साइबर ठगी और जालसाजी के मामले सामने आ रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि स्कूल लेवल पर शिक्षकों और छात्रों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता है। मीडिया की भी एक बड़ी जिम्मेदारी है कि ऐसे मामलों का पर्दाफाश करें, और बार-बार लोगों को जानकारी दे कि साइबर अपराधों से कैसे बचा जा सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है। यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। AI भी नौकरियाँ ले सकता है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
आप कोई भी सर्वे उठाकर देख लीजिए, लोगों की सबसे बड़ी चिंता रोज़गार है। इंडिया टुडे मूड ऑफ द नेशन में साल दर साल 70% से ज़्यादा लोग रोज़गार को लेकर चिंता जताते रहते हैं, किसी भी चुनाव से पहले पार्टियाँ रोज़गार देने का वादा करती हैं लेकिन समस्या अगले चुनाव में भी बनी रहती है। आख़िर इसका तोड़ क्या है?
पहले रोज़गार को लेकर कुछ आँकड़े समझ लीजिए। काम करने योग्य आबादी (15–64 साल) लगभग 96 करोड़ है, काम करने या ढूँढने में लगे लोग (लेबर फोर्स) करीब 55% यानी लगभग 55 करोड़ हैं, इनमें काम कर रहे लोग 50–52 करोड़ हैं जिनमें आधे लोग खेती-किसानी में लगे हैं। नियमित सैलरी वाली नौकरी सिर्फ 12–13 करोड़ में उपलब्ध हैं जबकि सरकारी नौकरी वालों की संख्या मात्र 1.5 करोड़ है।
बेरोज़गार लोग (काम खोज रहे) लगभग 3–4 करोड़ यानी 3–5% हैं, और युवाओं में बेरोज़गारी करीब 17% तक पहुँच चुकी है। मॉर्गन स्टैनली की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले वर्षों में भारत में 8.4 करोड़ नौकरियों की ज़रूरत होगी, अब यह नौकरियाँ आएँगी कहाँ से? इसके जवाब में रिपोर्ट कहती है कि अर्थव्यवस्था को 12% की रफ़्तार से ग्रो करना होगा जबकि अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है।
यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। अभी का स्तर बनाए रखने के लिए भी 9% ग्रोथ की ज़रूरत होगी। यहाँ यह ध्यान रहे कि एआई भी नौकरियाँ ले सकता है। मॉर्गन स्टैनली ने जो उपाय सुझाए हैं उसमें एक्सपोर्ट बढ़ाना शामिल है क्योंकि दुनिया के बाज़ार में हमारा हिस्सा डेढ़ प्रतिशत है।
अमेरिका ने अड़ंगा डाला है तो हमें दूसरे देशों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, इसके अलावा इन्फ़्रास्ट्रक्चर, मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर ज़ोर दिया गया है। सरकार इन सब सेक्टर पर ध्यान दे रही है लेकिन ध्यान डबल देने की ज़रूरत नहीं है, बेरोज़गारी दूर करने के लिए डबल ग्रोथ की ज़रूरत है। नहीं तो विकसित भारत जुमला बनकर रह जाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )