ट्रंप ने टैरिफ लगाने का फैसला अचानक नहीं लिया है। पहली टर्म में भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था और दूसरे टर्म के प्रचार के दौरान बार बार कहा कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ लगा दूंगा।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति बनकर अभी 50 दिन ही हुए हैं, लेकिन इतने कम समय में उन्होंने चीजें उलट पुलट कर दी है। उनके फैसलों के केंद्र में है टैरिफ। यह एक ऐसा टैक्स है जो सरकार अपने देश में आने वाले सामान पर लगाती है। ट्रंप अमेरिका में सामान बेचने वाले हर देश पर टैरिफ लगाना चाहते हैं ताकि व्यापार घाटा कम किया जा सकें। टैरिफ टैरिफ उन्होंने इतना खेल लिया है कि अब अमेरिका में मंदी की आशंका जताई जा रही है। इसी कारण शेयर बाजार में भी गिरावट आयी है।
ट्रंप ने टैरिफ लगाने का फैसला अचानक नहीं लिया है। पहली टर्म में भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था और दूसरे टर्म के प्रचार के दौरान बार बार कहा कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ लगा दूंगा। अब तक चीन, कनाडा और मैक्सिको पर टैक्स लगा चुके हैं। सभी देशों से आने वाले स्टील , एलुमिनियम पर टैरिफ लगा दिया है। अगले महीने से सभी देशों पर Reciprocal टैरिफ लगाने जा रहे हैं यानी जो देश अमेरिका के सामान पर जितना टैरिफ लगाता है अमेरिका भी उस पर उतना ही टैरिफ लगा देगा। भारत भी इसकी चपेट में आ सकता है।
टैरिफ लगाने के पीछे ट्रंप की तर्क है MAGA यानी Make America Great Again, वो चाहते हैं कि दूसरे देशों की कंपनियां अमेरिका में ही सामान बनाएं। इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। लोगों को रोजगार मिलेगा। टैरिफ लगाकर वो सरकार की आमदनी बढ़ाना चाहते हैं। इस बढ़ी हुई आमदनी से वो लोगों को इनकम टैक्स में छूट देना चाहते हैं। हालाँकि गणित इसके पक्ष में नहीं है। अमेरिका सरकार की $100 कमाई में से $1.20 ही टैरिफ से आते हैं। जानकारों को संदेह है कि टैरिफ बढ़ाने से इतनी कमाई हो जाएगी कि इनकम टैक्स में कटौती की जा सकें।
टैरिफ का खेल उल्टा पड़ने लग गया है। अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट आई है। S&P 500 में 4% और NASDAQ में 8% की गिरावट आ चुकी है। बाजार को चिंता है कि कहीं मंदी नहीं आ जाएं। HSBC, Citi, Goldman Sachs ने अमेरिका में मंदी की आशंका को बढ़ा दिया हैं। बाजार की चिंता महंगाई को लेकर भी है। टैरिफ लगाने से दाम बढ़ेंगे, महंगाई बढ़ेगी तो फेड रिजर्व ब्याज दरों में कटौती की रफ्तार धीमी कर सकता है। इसका असर आगे चलकर ग्रोथ पर पड़ सकता है। हालाँकि ताजा आँकड़ों में अमेरिका में महंगाई की दर कम हुई है।
ट्रंप को शेयर बाजार के ऊपर नीचे जाने की चिंता रहती है। उन्हें लोकप्रियता का प्रमाण लगता रहा है, लेकिन अब वो कह रहे हैं कि संक्रमण काल है। चीन एक सदी के बारे में सोचता है हम क्वार्टर (तिमाही) के बारे में। यही सपना बेचकर ट्रंप अपनी नीतियों को फिलहाल लागू कर रहे हैं, लेकिन यह उलटी पड़ी तो खामियाजा सबको झेलना पड़ेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सुप्रीमकोर्ट ने हाल ही में एक जजमेंट में हिंदी-उर्दू को लेकर विस्तार से बातें कीं। अपने जजमेंट में कोर्ट ने कांग्रेस के संविधान से लेकर नेहरू तक को कोट किया। पर क्या भाषा के विषय ऐसे तय होंगे?
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हिंदी से उर्दू बनी है, उर्दू से हिंदी नहीं। हिंदी में अरबी, फारसी, तुर्की शब्द बढ़ा देने और फारसी मुहावरे चला देने से उर्दू का जन्म हुआ। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी के बिना उर्दू एक पग नहीं धर सकती और उर्दू के बिना हिंदी के महाग्रंथ लिखे जा सकते हैं- पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी।
आज से उन्नीस वर्ष पहले जब हिंदी साहित्य सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था- गणेश शंकर विद्यार्थी- 2 मार्च 1930, गोरखपुर।
उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है. वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों- प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन अपनी पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) में।
इन तीन विद्वानों के उर्दू के संबंध में जो बात कही है लगभग वही बात 15 अप्रैल 2025 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों ने कही। दो जजों की बेंच ने अपने फैसले में हिंदी और उर्दू के विद्वानों के कथन के आधार पर हिंदी और उर्दू को एक ही माना प्रतीत होता है। जब अपने जमनेंट में डा रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि, हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएं नहीं है बल्कि मूलत: दोनों एक ही हैं।
दोनों के सर्वनाम, क्रिया और शब्द भंडार भी लगभग एक जैसे हैं। पूरी दुनिया में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां दो भाषाओं के सर्वनाम और क्रिया एक ही हों। रूसी और यूक्रेनियन भाषा एक जैसे हैं लेकिन उनमें भी वो समानता नहीं है जो हिंदी और उर्दू में है। इसके अलावा भी कई लोगों के लेखन को विद्वान जजों ने उद्धृत करते हुए हिंदी और उर्दू को एक ही बताया है। बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बहुत ही करीने से उर्दू को अलग भाषा के तौर पर स्थापित करने वाली टिप्पणियां देखने को मिली। कुछ लोगों ने लेख लिखकर उर्दू को बहुत खूबसूरत भाषा के तौर पर रेखांकित करने का प्रयास किया।
अपने इस जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से हिन्दुस्तानी का उल्लेख किया है। हिन्दुस्तानी के पक्ष में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान को भी देखा और उसके अंश फैसले में लिखे। 1923 के एक संशोधन का उल्लेख करते हुए जजों ने हिन्दुस्तानी को भाषा के तौर पर लिखा है। कांग्रेस पार्टी ने अगर तय कर लिया कि उसकी कार्यवाही हिन्दुस्तानी में लिखी जाएगी तो उससे ये कैसे तय होता है कि हिन्दुस्तानी एक भाषा के तौर पर चलन में आ गया था। किसी भी भाषा का अपना विज्ञान और व्याकरण होता है। हिन्दुस्तानी का क्या है ?
भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर विवाद उठा था। तब राजा शिव प्रसाद ने जो भाषा फारसी में चल रही थी उसको देवनागरी में लिखने का दुस्साहस किया, लेकिन उनको सफलता नहीं मिली। राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों की नौकरी ही नहीं कर रहे थे उनके हिसाब से कार्य भी कर रहे थे। अंग्रेजों ने उनको सितारे-हिंद का खिताब भी दिया। दिनकर जी ने लिखा है कि राजा शिवप्रसाद जिसको हिंदुस्तानी कहकर चलाना चाहते थे वो चली नहीं, चली वो हिंदी जो फोर्ट विलियम में पंडित सदल मिश्र ने लिखी थी अथवा जिस शैली का प्रवर्तन मुंशी सदासुखलाल ने सन 1800 के आसपास किया था अथवा जो हिंदी काशी में हरिश्चंद्र लिख रहे थे।
इस पर भी विद्वान जजों को ध्यान देना चाहिए कि भाषा किसी राजनीतिक दल के संविधान से नहीं बनती भाषा बनती है जनस्वीकार्यता और अपने स्वभाव से। गांधी जी ने हिंदुस्तानी की बहुत वकालत की थी। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के लोगों को मना लिया था लेकिन उस समय मुसलमानों ने गांधी पर आरोप लगा दिया कि वो हिन्दुस्तानी कि आड़ में हिंदी का प्रचार कर रहे हैं और उर्दू की हस्ती को मिटाना चाहते हैं। तब गांधी जी को 1 फरवरी 1942 के हरिजन में लिखना पड़ा- कभी कभी लोग उर्दू को ही हिन्दुस्तानी कहते हैं। तो क्या कांग्रेस ने अपने विधान में उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना है। क्या उसमें हिंदी का, जो सबसे अधिक बोली जाती है, कोई स्थान नहीं है। यह तो अर्थ का अनर्थ करना होगा। कहना ना होगा कि हिन्दुस्तानी के नाम पर हर जगह भ्रम की स्थिति बनी रही।
दरअसल हिंदी की बोली उर्दू को अलग करने का काम अंग्रेजों ने आरंभ किया जब वो फोर्ट विलियम में भाषा पर काम करने लगे। अंग्रेजों ने हिंदी और उर्दू को दो अलग अलग भाषा माना और उसके आधार पर ही काम करवाना आरंभ किया। इसका कारण भी दिनकर बताते हैं जब वो कहते हैं कि नागरी का आंदोलन अगर 1857 की क्रांति की पीठ पर चलकर आया होता तो अंग्रेज इस मांग को तुरंत स्वीकार कर लेते।
मगर अंग्रेज अबतक समझ चुके थे कि भारत में राष्ट्रीयता की रीढ हिंदू जाति है, अतएव, मुसलमानों का पक्ष लिए बिना हिंदुओं का उत्थान रोका नहीं जा सकता। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलामानों को उर्दू के पक्ष में गोलबंद करना आरंभ कर दिया। इसका भयंकर परिणाम विभाजन के समय देखने को मिला। जब इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान अलग देश बना तो जिन्ना ने उर्दू को मुसलमानौं की भाषा करार दे दिया। जो बीज अंग्रेजों ने बोया था उसको जिन्ना ने खूब सींचा। हिंदुओं में इसकी प्रतिक्रिया हुई। वो हिंदी के पक्ष में खड़े हो गए।
बाद में कुछ लोगों ने हिंदी को सांप्रदायिक भाषा भी कहा। संस्कृत के शब्दों को लेकर फिर उसके कठिन होने को लेकर प्रश्न खड़े किए गए। लेकिन अगर समग्रता में विचार करेंगे तो पाएंगे कि मजहब के नाम पर देश बनानेवालों मे उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिंदी की बोली को सांप्रदायिक बना दिया। संस्कृत के शब्द तो कई भारतीय भाषाओं में मिलते हैं। आज अगर उर्दू को लेकर हिंदुओं के एक वर्ग के मन में शंका है तो उसके ऐतिहासिक कारण हैं। इसके लिए मुसलमानों का एक वर्ग जिम्मेदार है।
हंस पत्रिका में एक लेख बासी भात में खुदा का साझा में नामवर सिंह ने भी स्पष्ट किया था कैसे सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ में उर्दू डिफेंस एकेडमी कायम किया था। जब 1900 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैकडानल ने हिंदी को उर्दू के बराबर दर्जा देने का ऐलान किया तो सर सैयद अहमद के उत्तराधिकारी नवाब मोहसिन ने विरोध की अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट को भाषा जैसे मुद्दे पर निर्णय देते समय समग्रता का ध्यान रखना चाहिए था।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
यहीं से चर्चा फिर शुरू हुई कि UPI कब तक फ़्री रहेगा? हालांकि केंद्र सरकार ने शुक्रवार को सफ़ाई भी दे दी कि UPI के ₹2000 से ज़्यादा खर्च करने पर GST लगाने का कोई इरादा नहीं है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
UPI यानी Unified Payment Interface के बिना ज़िंदगी की कल्पना मुश्किल हो गईं हैं जैसे हमारे साथ हर दम फ़ोन रहता है तो मानकर चलते हैं कि UPI भी चलेगा। इस पर हमारी बढ़ती निर्भरता का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि 2019 में हर महीने 100 करोड़ ट्रांजेक्शन होते थे और अब 1800 करोड़। सिस्टम यह लोड नहीं ले पा रहा है, इसलिए पिछले महीने भर में चार बार UPI बैठ गया। हिसाब किताब में चर्चा करेंगे कि ऐसा क्यों हो रहा है?
UPI के बार-बार बैठने का एक कारण इसका फ़्री होना भी है। यहीं से चर्चा फिर शुरू हुई कि UPI कब तक फ़्री रहेगा? हालांकि केंद्र सरकार ने शुक्रवार को सफ़ाई भी दे दी कि UPI के ₹2000 से ज़्यादा खर्च करने पर GST लगाने का कोई इरादा नहीं है। सरकार ₹2000 से कम सौदों पर सब्सिडी देती है ताकि UPI के रखरखाव के लिए खर्च की भरपाई हो सकेगी।
पहले पैसे ट्रांसफ़र का गणित समझ लेते हैं। अभी आप एक बैंक खाते से तुरंत दूसरे खाते में (IMPS) पैसे भेजते हैं तो उसमें चार्ज देना पड़ता है। यह चार्ज ₹2 से ₹₹15 तक होता है प्लस GST, क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं तो दुकानदार 1% से 3% तक मर्चेंट डिस्काउंट रेट (MDR) पेमेंट कंपनी ( Visa, Master, Rupay) और बैंकों को देता है। MDR के पीछे सोच यह है कि इससे पेमेंट सिस्टम सुचारू रूप से चलाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। दुकानदार इसी कारण आप से कहता है कि कैश या UPI देने पर छूट दे देंगे।
आप जब UPI का इस्तेमाल करते हैं तो कोई चार्ज नहीं लगता है। पैसे एक बैंक अकाउंट से दूसरे अकाउंट में जाते है। एक या दो पेमेंट एप जैसे Phone Pe, Paytm शामिल होते हैं। रोज़ करोड़ों बार इस्तेमाल होने के बाद भी बैंक या पेमेंट एप को कोई पैसा नहीं मिलता है क्योंकि UPI पर MDR नहीं लगता है। केंद्र सरकार डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देना चाहती है इस कारण UPI को फ़्री रखना चाहती है।
दिक़्क़त यह है कि UPI का फ़ायदा ग्राहकों को मिल रहा है लेकिन बोझ बैंकों और पेमेंट कंपनियों पर पड़ रहा है। PWC का अनुमान है कि UPI से जब आप ₹1000 भेज रहे हैं तो इसका खर्च होता है ₹2.50 , सरकार इनको सब्सिडी देती है 20 पैसे। वो भी ₹2000 से कम के सौदे पर। UPI फ़्री नहीं रहने की अटकलें बजट पेश होने के बाद लगने लगीं। बजट में सरकार ने सब्सिडी के लिए ₹437 करोड़ का प्रावधान रखा है। यह सब्सिडी लगातार घट रही है जबकि सौदे बढ़ रहे हैं। 2021-22: ₹1,389 करोड़, 2022-23: ₹2,210 करोड़, 2023-24: ₹3,631 करोड़ , 2024-25: ₹2000 करोड़, 2025-26: ₹437 करोड़।
सब्सिडी कम होने का एक मतलब यह निकाला गया कि सरकार UPI के बड़े सौदे पर चार्ज लगाने की अनुमति दे सकती है। फिर यह ख़बर भी आयी कि जिन दुकानदारों या कंपनियों का टर्न ओवर ₹40 लाख से ज़्यादा होगा उन पर MDR लगाने का विचार किया जा रहा है। सरकार ने अब खंडन किया है कि UPI पर MDR नहीं लगता है इसलिए GST लगाने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। फ़िलहाल मानकर चल सकते है कि UPI फ़्री रहेगा।
फिर भी सवाल है कि बैंकों और पेमेंट कंपनियाँ बढ़ते लोड को सँभालने के लिए पैसे कहाँ से लगाएँगे। उनसे उम्मीद की जाती है कि जो ग्राहक UPI का इस्तेमाल करने के लिए App का इस्तेमाल कर रहा है उसे कोई सर्विस या सामान बेचकर पैसे कमा लेंगे। फ़िलहाल दूसरे सोर्स से इतने पैसे बन नहीं रहे हैं और इसका असर कहीं ना कहीं UPI की सर्विस पर पड़ रहा है। आगे चलकर दो विकल्प होंगे या तो UPI पर पैसे लिए जाएँ या सरकार सब्सिडी बढ़ाएँ।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
यह कैसी विडम्बना है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दल सत्ता की घिनौनी राजनीति के लिए जाति और भाषा के नाम पर विभिन्न प्रदेशों में अलगाव की आग लगा रहे हैं।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
शिक्षित समाज के लिए एक भाषा अवश्य होनी चाहिए। वह हिंदी ही हो सकती है। हिंदी द्वारा करोड़ों लोगों को साथ लेकर काम किया जा सकता है। इसलिए हिंदी को उचित स्थान मिलने में जितनी देरी हो रही है, उतना ही अधिक देश का नुकसान हो रहा है। यह बात क्या देश में नई शिक्षा नीति लागू करने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कही है? जी नहीं यह बात 1917 में महत्मा गाँधी ने बाकायदा एक सर्कुलर में अपने लाखों समर्थकों को लिखकर भेजी थी। यही नहीं कुछ महीने बाद 1918 में उन्होंने तमिल प्रदेश मद्रास में सी पी रामस्वामी की अध्यक्षता में एक सम्मेलन करवाया जिसका उद्घाटन एनी बेसेंट ने किया और 'हिंदी वर्ष' मनाए जाने का प्रस्ताव पारित किया।
इस आयोजन और आगे अभियान बढ़ाने के लिए अपने बेटे देवदास गांधी को भेजा। फिर अपने एक तमिल सहयोगी को पत्र लिखकर कहा, जब तक तमिल प्रदेश के प्रतिनिधि सचमुच हिंदी के बारे में सख्त नहीं बनेंगे, तब तक महासभा में से अंग्रेजी का बहिष्कार नहीं होगा। मैं देखता हूं कि हिंदी के बारे में करीब-करीब खादी के जैसा हो रहा है। वहां जितना संभव हो, आंदोलन किया करो। महात्मा गांधी ने विखंडित पड़े संपूर्ण भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए,उसे संगठित करने के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता का अहसास करते हुए कहा था 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।
तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र में मोदी की शिक्षा नीति के अंतर्गत मराठी की अनिवार्यता के साथ पहली से पांचवी कक्षा तक हिंदी को भी आवश्यक रखे जाने पर कांग्रेस की सहयोगी उद्धव ठाकरे की सेना, राज ठाकरे की मनसे और कुछ अन्य संगठनों के नेता महात्मा गांधी के मूलभूत आदर्शों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं। यह कैसी विडम्बना है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दल सत्ता की घिनौनी राजनीति के लिए जाति और भाषा के नाम पर विभिन्न प्रदेशों में अलगाव की आग लगा रहे हैं।
पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन सहित द्रमुक नेताओं ने शिक्षा नीति में हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ के महत्व को प्रादेशिक स्वयत्तता के नाम पर कड़ा विरोध व्यक्त किया। अब महाराष्ट्र में मराठी और इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों के लिए कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को तीसरी भाषा के तौर पर अनिवार्य
किए जाने पर प्रतिपक्ष उग्र विरोध कर रहा है जबकि सीएम देवेंद्र फडणवीस ने स्पष्ट कहा है कि 'राज्य में मराठी बोलना अनिवार्य होगा। हमने पहले ही नई शिक्षा नीति लागू कर दी है। नीति के अनुसार, हम प्रयास कर रहे हैं कि सभी को मराठी के साथ-साथ देश की भाषा भी आनी चाहिए।
नीति पूरे भारत में एक आम संवादात्मक भाषा के प्रयोग की वकालत करती है, और महाराष्ट्र सरकार ने मराठी का व्यापक प्रयोग सुनिश्चित करने के लिए पहले ही कदम उठाए हैं। सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को एकेडमिक सत्र 2025-26 से लागू करने के लिए विस्तृत योजना बनाई है। 'महाराष्ट्र सरकार की ओर से बताया गया है कि प्रदेश के इंग्लिश और मराठी माध्यम वाले स्कूलों में सिर्फ दो भाषाएं पढ़ाई जाती हैं जबकि अन्य माध्यम वाले स्कूल पहले से ही तीन भाषा फॉर्मूले का पालन किया जा रहा है।
राज्य में अंग्रेजी और मराठी अनिवार्य है और वे वही भाषा पढ़ते हैं जो उनकी शिक्षा का माध्यम है। अब तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य करने का निर्णय लिया गया है। मौजूदा सत्र 2025-26 में कक्षा 1 से हिंदी की पढ़ाई शुरू होगी और सरकार का लक्ष्य है कि 2028-29 शैक्षणिक सत्र तक सभी कक्षाओं में हिंदी पढ़ाई जाने लगे। महाराष्ट्र जैसे राज्य में, जहां मराठी प्रमुख भाषा है, वहां हिंदी को अनिवार्य करना एक रणनीतिक फैसला माना जा रहा है। इसका उद्देश्य विद्यार्थियों को बहुभाषी बनाना और राष्ट्रीय स्तर पर संवाद और अवसरों के द्वार खोलना है।
हिंदी भाषी राज्यों के विद्यार्थियों को भी महाराष्ट्र में शिक्षा प्राप्त करने में सुविधा होगी। यह बदलाव छात्रों के समग्र भाषा विकास और संचार कौशल को बेहतर बनाने के लिए किया जा रहा है। सरकार का मानना है कि इससे बच्चों में भाषाई विविधता को लेकर सम्मान बढ़ेगा और देश की एकता को भी मजबूती मिलेगी।
हालांकि इस फैसले के खिलाफ कुछ क्षेत्रीय दल और संगठन विरोध जता सकते हैं, जो राज्य में क्षेत्रीय भाषाओं की प्राथमिकता बनाए रखने की बात करते रहे हैं। उद्धव ठाकरे की सेना के प्रवक्ता संजय राउत और राज ठाकरे इसे ' हिंदी ' के बजाय ' हिंन्दू ' की मान्यता जैसे कुतर्क दे रहे हैं।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गहन विचार विमर्श और संसद में बहस के बाद 2020 की शिक्षा नीति में हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ को सर्वोच्च प्राथमिकता देने का आग्रह किया है। इसमें बच्चे चाहें तो अपनी मातृभाषा के साथ कोई दो अन्य भारतीय भाषा ले सकते हैं या तीसरी भाषा के रुप में अंग्रेजी फ्रेंच जैसी विदेशी भाषा भी पढ़ सकते हैं। इतनी व्याहारिक स्पष्टता के बावजूद समाज को बांटकर वोट की राजनीति करने वाले नेता और उनके संगठन तमिलनाडु विधान सभा या इसी साल होने वाले मुंबई महानगरपालिका के चुनावों के लिए हिंदी के उपयोग के विरुद्ध जनता को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कमल हासन जैसे अच्छे अभिनेता भी अन्य नेताओं की तरह हिंदी की शिक्षा का विरोध कर रहे हैं। तमिलनाडु , कर्णाटक , आंध्र , तेलंगाना , केरल और महाराष्ट्र के मोदी और हिंदी शिक्षा विरोधी नेता अभिनेता यह कैसे भूल जाते हैं कि हाल के पांच वर्षों के दौरान उनकी ही क्षेत्रीय भाषाओँ तमिल, तेलगु , कन्नड़ , मलयालम की हिंदी डबिंग फिल्मों ने हजारों करोड़ कमाए हैं और बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड को चकित कर दिया है। कमल हासन ही नहीं सिनेमा के अनेक दक्षिण भारत या बंगाल सहित पूर्वी भारत के अनेक कलाकारों, निर्माता, निदेशकों को हिंदी की फिल्मों से सर्वाधिक लोकप्रियता मिली है।
नेताओं में वर्तमान कांग्रेसी पी चिदंबरम अवश्य घोर हिंदी विरोधी हैं, लेकिन कांग्रेस के इंदिरा युग के चाणक्य कामराज या बाद में प्रधान मंत्री भी बने नरसिंहा राव और एच डी देवेगौड़ा हिंदी सीख बोलकर गौरवान्वित महसूस करते रहे हैं। वास्तव में आज़ादी से पहले भी हिंदी का महत्व समझने और समझने वालों में हिंदी भाषी प्रदेशों के बजाय अन्य भारतीय भाषाओँ के नेताओं, विद्वानों और शिक्षाविदों की भमिका थी। यहाँ तक कि सत्रहवीं शताब्दी के अमीर खुसरो ने' हिंदवी ' शब्द का उपयोग कर हिंदी की उपयोगिता बताई थी।
आर्य समाज के महान प्रवर्तक स्वामी दयानन्द ने अपना 'सत्यार्थ प्रकाश' हिंदी में लिखा। स्वामी दयानन्द, राजाराम मोहनरॉय ,महत्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक , सुभाषचंद्र बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर, विनोबा भावे जैसे सभी महान नेताओं ने हिंदी को देश को जोड़ने वाली भाषा के रुप में स्वीकारने पर जोर दिया। संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा के दर्जे का प्रावधान किया। इसलिए अब हिंदी और भारतीय भाषाओँ की शिक्षा का विरोध करने वाले इसे संविधान विरोधी तक कह रहे हैं, जो पूरी तरह गलत है।
संविधान के अनुच्छेद 29 -30 , 120 , 210 , 343 , 351 , 394 में हिंदी को विभिन्न स्तरों पर अपनाने के प्रावधान किया है। अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा के रुप में रखा। अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि 'संघ का कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए। उसका विकास करे ताकि वह भारत की संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। आठवीं सूची की अन्य भारतीय भाषाओँ को आत्मसात करे। इसी लक्ष्य के अनुसार नई शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओँ को लागू करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार तेजी से आगे बढ़ रही है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पाकिस्तानी फौज का काम दहशतगर्दों को पनाह देने से शुरू होता है और आर्मी के बड़े बड़े जनरल को ज़मीन जायदाद देने पर खत्म होता है। इसी वजह से आज पाकिस्तान अंधकार में है।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर ने इस्लामाबाद में कहा है कि पाकिस्तान के बच्चे-बच्चे को पता होना चाहिए कि मुसलमान हिन्दुओं से बिल्कुल अलग हैं, न हमारे ज़ेहन मिलते हैं, न रवायतें, न ख्यालात, इसीलिए मजहब के आधार पर पाकिस्तान बना। वैसे जनरल आसिम मुनीर मुल्ला जनरल के नाम से मशहूर हैं और उन्होंने इस्लामाबाद में जो तकरीर की उसने इस टाइटल को सच साबित कर दिया।
हैरानी की बात ये है कि पाकिस्तान के आर्मी चीफ ने ये बातें मौलानाओं के जलसे में नहीं कही, इस्लामाबाद में ओवरसीज़ पाकिस्तानी कन्वेंशन हुआ। तकरीर सुनने वालों में पाकिस्तान के वजीरे आजम शहबाज शरीफ और उनके मंत्रिमंडल के तमाम वज़ीर थे। प्रोग्राम पाकिस्तान में इन्वेस्टमेंट लाने के मकसद से हुआ था, लेकिन जनरल आसिम मुनीर इस जलसे में मौलाना बन गए।
जनरल मुनीर ने कहा कि आज के दौर में पाकिस्तान दुनिया का पहला ऐसा मुल्क है, जिसकी बुनियाद इस्लाम का पहला फर्ज यानी कलमा है, पाकिस्तान बनने से पहले केवल पैग़ंबर साहब ने कलमे की बुनियाद पर रियासत ए मदीना बनाई थी। मुल्ला जनरल ने हिंदुओं के ख़िलाफ़ ज़हर उगला। जनरल ने अपनी क़ौम को याद दिलाया कि पाकिस्तान को टू-नेशन थ्योरी के आधार पर बनाया गया था।
जनरल ने कहा कि कश्मीर हमारा शाहरग है और हम कश्मीर के आतंकवादियों को पूरी मदद देंगे। भारत ने फ़ौरन जवाब दिया। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि कश्मीर में पाकिस्तान का सिर्फ़ एक ही रोल है, वो POK पर अपना अवैध क़ब्ज़ा ख़ाली कर दे। तीन साल पहले जनरल मुनीर आर्मी चीफ बने, उनका कार्यकाल इसी साल ख़त्म होने वाला है।
हालांकि, इस बात की पक्की संभावना है कि शहबाज़ शरीफ़ की सरकार उन्हें एक्सटेंशन दे देगी। इसका संकेत शहबाज़ शरीफ़ ने उसी कन्वेंशन में दिया, शहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि जनरल मुनीर बहुत अच्छे कमांडर हैं, उनकी अगुवाई में पाकिस्तान पूरी तरह महफ़ूज़ है।
पाकिस्तानी फौज का वजूद भारत के खिलाफ ज़हर उगलने से शुरू होता है और कश्मीर का मसला जिंदा रखने पर खत्म होता है। पाकिस्तानी फौज का काम दहशतगर्दों को पनाह देने से शुरू होता है और आर्मी के बड़े बड़े जनरल को ज़मीन जायदाद देने पर खत्म होता है।
इसी वजह से आज पाकिस्तान अंधकार में है, कर्ज में डूबा हुआ है, वहां के लोग भुखमरी के शिकार हैं, पूरी दुनिया में पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है। अब कोई उसे कर्ज देने को भी तैयार नहीं है, लेकिन पाकिस्तान सुधरने को तैयार नहीं है। इसे कहते हैं, रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आज चंद्रशेखर की 98वीं जयंती है। उनके असाधारण नेतृत्व के स्मरण का अवसर। 1990-91 के आर्थिक संकट में कैसे उन्होंने मुल्क को दिवालियापन से बचाया? देश की साख डूबने ही वाली थी।
हरिवंश नरायण सिंह, उपसभापति, राज्यसभा ।।
आज चंद्रशेखर की 98वीं जयंती है। उनके असाधारण नेतृत्व के स्मरण का अवसर। 1990-91 के आर्थिक संकट में कैसे उन्होंने मुल्क को दिवालियापन से बचाया? देश की साख डूबने ही वाली थी। कुछ दिनों का भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं था। महज एक सप्ताह के आयात बिल का भुगतान संभव था। इस संकट की जड़ें लंबी व गहरी थीं। इंदिरा गांधी के कार्यकाल (1971-72) में इसकी शुरूआत हुई। राजीव गांधी और वी।पी। सिंह की सरकारों ने इस संकट को आगे बढ़ाया। बार-बार चेतावनी के बाद समाधान नहीं निकाला। नतीजतन यह और गहरा हुआ। 1991 में देश ने निर्णायक अर्थसंकट का दौर देखा। जयतीरथ राव जैसे कई जाने–माने अर्थशास्त्री कहते हैं कि उस वक्त चंद्रशेखर सरकार ने सोना गिरवी रखने का साहसिक कदम नहीं उठाया होता, तो 1991 में ही भारत कथा का अंत हो गया होता। बहुत संक्षेप में जानें कि यह मामला क्या था? 1991 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। उन्हें पूर्ववर्ती सरकारों से किस स्थिति में मुल्क की बागडोर मिली?
चंद्रशेखर का व्यक्तित्व अनूठा था। वह स्पष्टवादी थे। उनके व्यक्तित्व के कई असाधारण पहलू थे। पर, आज सिर्फ एक प्रसंग पर चर्चा। साहस उनकी पहचान था। समाजवादी विचारों से प्रेरित थे। लेकिन सोच व्यावहारिक थी। उन्होंने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की। देशहित उनके लिए सर्वोपरि था। 1970-71 में उन्होंने इंदिरा गांधी को चुनौती दी। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव में वह उनकी इच्छा के खिलाफ चुने गए। यह उनकी लोकप्रियता का सबूत था। सुभाषचंद्र बोस के बाद वह पहले नेता थे, जिन्होंने शक्तिशाली कांग्रेस हाईकमान के प्रत्याशी को पराजित किया। उस दौर में इंदिरा जी का एकछत्र राज था। उनकी नीतियों पर सवाल उठाना आसान नहीं था। चंद्रशेखर ने यह साहस दिखाया। ‘युवा तुर्क’ के दिनों से ही देश के गंभीर सामाजिक-आर्थिक सवालों को मुख्य राजनीति का मुद्दा बनाया। उन्होंने वैकल्पिक रास्ता सुझाया। जब मुल्क में इमरजेंसी लगी, उसके पहले ही अपनी पत्रिका ‘यंग इंडियन’ में खुला लेख लिखकर तत्कालीन सत्ता (श्रीमती गांधी) को जेपी (जयप्रकाश नारायण) जैसे संत से टकराव से बचने की सलाह दी। वह चाहते थे कि राजनीति संवाद पर आधारित हो। सत्ता की जिद पर नहीं।
1970-71 में मशहूर अर्थशास्त्री प्रो. जयदेव शेट्टी ने किताब लिखी। ‘इंडिया इन क्राइसिस’। इसमें मुल्क के गहराते आर्थिक संकट का जिक्र था। 1980 के बाद पुन: इंदिरा जी की लोकलुभावन नीतियों ने राजकोष पर बोझ डाला। उच्च ब्याजदर पर विदेशी ऋण लिए गए। इससे देश कर्ज के जाल में फंसा। इसकी चेतावनी कई बड़े अर्थशास्त्रियों ने दी। इससे पहले एक और बड़ा संकट लालबहादुर शास्त्री के समय आया। खाद्यान्न की कमी थी। सूखा पड़ा। देश हिल गया था। लेकिन इंदिरा जी की नीतियों ने संकट को और गहराया। उन्होंने ‘सत्ता’ के लिए अनेक लोकलुभावन नीतियों को अपनाया। इनमें ‘लीकेज’ (भ्रष्टाचार व कुशासन) की शुरुआत हुई। उनकी योजनाएं वोट की दृष्टि से आकर्षक थी। उन्हें सत्ता तो मिली, पर इसका खामियाजा मुल्क की दीर्घकालिक आर्थिक नीतियों ने भुगता। चंद्रशेखर ने यह खतरा भांपा। उन्होंने चेतावनी दी। ऐसी नीतियां देश को मंझधार में ले जाएंगी। यह दूरदृष्टि उनकी वैचारिकी का हिस्सा थी।
जनता सरकार भी जन उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मुल्क की आर्थिक सेहत सुधारने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई। फिर इंदिरा जी की सरकार आयी। फिर राजीव गांधी का कार्यकाल। देश पश्चिमी बाजारों की ओर बढ़ा। यह दौर उत्साह का था। लगा, भारत रातोंरात बदल जाएगा। वी।पी। सिंह वित्त मंत्री थे। उन्होंने राजीव को ‘विवेकानंद का अवतार’ कहा। लेकिन संकट गहराता गया। शासक वर्ग की विलासिता चर्चा में रही। एक घटना मशहूर हुई। प्रधानमंत्री के विमान में इटली की कटलरी मंगवाई गई। गवर्नेंस में अनेक कमियां दिखीं। 1987 में पालिसी पैरालाइसिस का दौर शुरू हुआ। मुल्क की रहनुमाई जिन हाथों में थी, उनमें साहस की कमी थी। व्यापक दृष्टिकोण का अभाव था। देश की माटी-पानी से जुड़ाव कम था। नतीजा हालात बिगड़ते गए। 1980 के दशक के अंत में हालात और खराब हुए। वी।पी। सिंह की सरकार बनी। उन्होंने संकट को अनदेखा किया। वह राजीव के वित्त मंत्री रह चुके थे। आर्थिक स्थिति से वाकिफ थे। लेकिन सत्ता की राजनीति में उलझे रहे। कोई कदम नहीं उठाया। मधु दंडवते उनके वित्त मंत्री थे। संकट को जानते-समझते हुए भी वह संकट रोकने में नाकाम रहे। रिजर्व बैंक के गवर्नर चेतावनी देते रहे। वित्त सचिवों ने भी आगाह किया। देश की साख खतरे में थी। उनकी बातें अनसुनी रहीं। देश मंझधार में फंस गया।
1990 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। उन्हें संकटग्रस्त देश मिला। शपथ लेते ही वित्त सचिव विमल जालान मिलने को बेचैन थे। न मंत्रिमंडल बना था, न सरकार ने संसद में विश्वास मत पाया था। पर वित्त सचिव ने कहा, नहीं मिलना अत्यंत आवश्यक है। चंद्रशेखर मिले। उन्होंने गंभीर स्थिति बताई। विदेशी मुद्रा भंडार खत्म होने की कगार पर था। केवल सात दिन का भुगतान संभव था। चंद्रशेखर ने पूछा। क्या यह संकट मेरे शपथ की प्रतीक्षा में था? या पहले से था? जालान ने बताया। यह पहले से ही था। पर, राजीव गांधी के समय से बढ़ा था। वी।पी। सिंह के कार्यकाल में बदतर हुआ। दोनों को जानकारी थी। लेकिन किसी ने कदम नहीं उठाया। चंद्रशेखर ने चुनौती स्वीकार की।
शंकर आचार्य ने अपनी किताब—‘Essay on Macroeconomic policy and Growth in India’ में इस आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि पर विस्तार से बताया है। 1991 में, भारत में एक बड़ा आर्थिक संकट आया था, जिसमें विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम हो गया था। निर्यात गिर गया था। महंगाई बढ़ गई थी। इस संकट के कई कारण थे। मसलन सरकार का लंबे समय से ज़्यादा ख़र्च। व्यापार के नियमन और विदेशी निवेश को लेकर नकारात्मक रवैया। ऐसी नीतियाँ बनाना जिनसे निर्यात को बढ़ावा न मिले और आयात को बढ़ावा मिला। व्यापार घाटे को पूरा करने के लिए विदेशों से ज़्यादा कर्ज़ लिया गया। कमज़ोर वित्तीय क्षेत्र। खाड़ी युद्ध के कारण तेल की क़ीमतें बढ़ने से स्थिति और बिगड़ गई।
चुनौतियां कई थीं। पंजाब में आतंकवाद। असम में चुनावी अशांति। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद। श्रीलंका में लिट्टे का संघर्ष। हर तरफ अस्थिरता थी। आर्थिक स्थिति भयावह थी। ये सारे मुद्दे पहले की सरकारों की सौगात थी। चंद्रशेखर के सामने।
नरेश चंद्रा, कैबिनेट सचिव थे। उन्होंने अपने लेख ‘Selling the Country’s Jewels’ (देखें, ‘द हिंदू’, 01 अगस्त, 2016) में जिक्र किया है। अर्थव्यवस्था के पैरामीटर बेहद खराब थे। बड़े ऋण चुकाने की क्षमता नहीं थी। ऋणदाता चिंतित थे। क्या भारत कर्ज के जाल में फंस गया है? संकट असाधारण था। आम आदमी भी समझ सकता था। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता ने इसे जटिल बनाया।
चंद्रशेखर की सरकार अल्पमत में थी। कांग्रेस का बाहरी समर्थन था। राष्ट्रपति वेंकट्टरमण ने अपने संस्मरणों में लिखा है। राजीव गांधी ने एक साल तक समर्थन का भरोसा दिया था। लेकिन यह वादा टूटा। नरेश चंद्रा ने लिखा कि चंद्रशेखर ने कठिन निर्णय लिए। तमिलनाडु और असम की सरकारें बर्खास्त कीं। कुछ राज्यपाल बदले। विदेश नीति में कदम उठाए। अमेरिकी विमानों को ईंधन भरने की अनुमति दी। लेकिन समर्थन की कमी थी। स्थिति नहीं बदली। असम में चुनाव। पंजाब चुनाव (नरसिंह राव सत्ता में आये, रोक लगी)।
आर्थिक संकट से निपटने का फैसला ऐतिहासिक था। चंद्रशेखर ने सोना गिरवी रखा। नरेश चंद्रा ने इसका वर्णन किया। यह आसान नहीं था। चंद्रशेखर को पता था, इसकी क्या राजनीतिक कीमत उन्हें चुकानी होगी? डर था। वह सोना बेचने वाले प्रधानमंत्री कहे जाएंगे। अधिकारियों ने समझाया। यही एकमात्र विकल्प है, नहीं तो देश दिवालिया होगा। दो विकल्प थे। खाई में गिरना। या समुद्र में डूबना। चंद्रशेखर ने कठिन रास्ता चुना। चर्चाएं हुईं। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा। यह नीतिगत फैसला है। सरकार को निर्देश देना होगा। 25 टन सोना गिरवी रखा गया। तस्करी में जब्त यह सोना, सरकारी खजाने में था। 400-500 मिलियन डॉलर मिले। राशि बड़ी नहीं थी। लेकिन साख पर असर हुआ। बैंकों को भरोसा मिला। भारत डिफॉल्ट से बचेगा। नरेश चंद्रा ने इसके बारे में विस्तार से बताया है। विश्व बैंक की आशंकाएं दूर हुईं। ऋण देना शुरू किया।
चंद्रशेखर जन सभाओं में बताते, देश पर संकट था, हम किसान परिवार से हैं। हमने अपनी परंपराओं से सीखा है। खेत रेहन पर रहता है। घर का जेवर दे कर छुड़ाते हैं। फिर श्रम से कमाते हैं। जेवर वापस लाते हैं। हम यही करेंगे। आर्थिक सुधार की असल शुरुआत उन्होंने ही की। पर, बाद की सरकार को इसका क्रेडिट मिला।
जयतीरथ राव जैसे अर्थशास्त्री ने भी अपनी किताब में लिखा है। यह फैसला निर्णायक था। इसके बिना भारत 1991 में बिखर जाता। हमेशा के लिए साख खो देता। यह भारतीय परंपरा जैसा था। संकट में लोग गहने गिरवी रखते हैं। बाद में मेहनत से छुड़ाते हैं। चंद्रशेखर ने यही सोचा। यह देश की अस्मिता बचाने का उपाय था। उन्होंने कभी किसी पर दोषारोपण नहीं किया। पीएम मैं, दायित्व मेरा। मुँह नहीं मोड़ कर आगे आनेवाले प्रधानमंत्री पर देश की अस्मत बचाने का दायित्व छोड़, अपने फर्ज से मुँह नहीं मोड़ूँगा। जो पहले के लोगों ने किया है, लज्जाहीनता, अदूरदर्शिता, अविवेक के साथ।
चंद्रशेखर ने अन्य विकल्प देखे। निजाम के गहनों को बेचने का प्रस्ताव आया। क्रिस्टीज ने 850 करोड़ की पेशकश की। चंद्रशेखर ने ठुकराया। टोक्यो में दूतावास की संपत्ति बेचने का सुझाव था। 900 करोड़ की पेशकश थी। विदेश मंत्रालय ने मना किया। चंद्रशेखर ने सबसे प्रभावी रास्ता चुना।
उनकी कार्यशैली तार्किक थी। वह समस्याओं को जटिल नहीं बनाते थे। अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोशिश की। सभी पक्षों से संवाद किया। शरद पवार ने लिखा है, अपनी आत्मकथा में। यह मसला हल होने वाला था। लेकिन राजीव ने समर्थन वापस लिया। हरियाणा के दो कांस्टेबल की जासूसी की घटना को समर्थन वापसी का आधार बनाया गया। कांग्रेस ने हरियाणा सरकार बर्खास्त करने की मांग की। चंद्रशेखर नहीं झुके। उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लेकिन वोट ऑन अकाउंट पास कराया। ताकि सरकारी खर्च रुके नहीं। राजीव गांधी स्तब्ध। शरद पवार को दो उनके घर भेजा। चंद्रशेखर बोले। निर्णय नहीं बदलता।
चंद्रशेखर का व्यक्तित्व सादगी से भरा था। वह साहसी थे। सत्ता की लालसा नहीं थी। देशहित पहले था। वह जनता की भावनाओं को समझते थे। लेकिन लोकलुभावन वादों में नहीं फंसे। उनकी सरकार का कार्यकाल छोटा था। लेकिन प्रभाव बड़ा था। उनकी 98वीं जयंती पर यह याद करना जरूरी है। संकट में साहसिक निर्णय ही देश को बचाते हैं।
चंद्रशेखर की वैचारिकी समाजवादी थी। वह अव्यावहारिक आदर्शवाद में विश्वास नहीं करते थे। जमीन से जुड़े थे। उनकी बातें स्पष्ट थीं। वह लोकप्रियता के पीछे नहीं भागे।
आज उनकी जयंती पर उनकी दूरदृष्टि याद करनी चाहिए। वह समस्याओं को भविष्य के नजरिए से देखते थे। उनकी सरकार ने अल्प समय में बहुत कुछ किया। वह आज भी प्रेरणादायक है। उनकी सादगी और साहस नेताओं के लिए मिसाल है।
आज फिर राज्य सरकारें लोकलुभावन वादे कर रही हैं। उच्च ब्याज पर ऋण ले रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी चेतावनी दी है। मुफ्त रेवड़ियां खतरनाक हैं। ये लोगों को परजीवी बना रही हैं। कोर्ट ने कहा है, मुफ्त राशन और पैसा काम से दूर कर रहा है। यह सामाजिक और आर्थिक खतरा है।
थिंक टैंक एमके ग्लोबल की रिपोर्ट बताती है। चुनावी वर्षों में राजकोषीय घाटा बढ़ता है। इससे कई राज्य बहुत गंभीरता से प्रभावित हैं। दक्षिण के एक राज्य पर 20,000 करोड़ से ज्यादा बकाया है। बैंकों की हालत बिगड़ रही है। क्रिसिल रेटिंग्स का अनुमान है। इस साल राज्यों का घाटा 1.1 लाख करोड़ तक पहुंचेगा। यह स्थिति है।
लोकलुभावन नीतियों का लालच छोड़ना होगा। कठोर निर्णय लेने की हिम्मत चाहिए। उनकी कार्यशैली प्रेरणा देती है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने बहस को गंभीर किया है। क्या राजनीतिक दल इसे समझेंगे?
चंद्रशेखर का पूरा जीवन एक सबक है। संकट में साहस और समझदारी जरूरी है। उनकी सादगी प्रेरित करती है। उनकी स्पष्टता रास्ता दिखाती है। उनकी 98वीं जयंती पर हम संकल्प लें। उनके आदर्श अपनाएं। देश को संकट से बचाएं। उनकी विरासत हमें मजबूत भविष्य की ओर ले जाए।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अमेरिका के साथ जल्द से जल्द व्यापार समझौता कर लेना चाहिए ताकि भारत से होने वाले निर्यात को रफ़्तार मिल सके।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
टैरिफ के मुद्दे पर दुनिया की दो सबसे बड़ी ताक़तों अमेरिका और चीन के बीच ज़बरदस्त व्यापार युद्ध शुरू हो गया है। चीन ने अमेरिका पर टैरिफ़ को बढ़ाकर 125 प्रतिशत कर दिया। अब अमेरिका चीन से आने वाली वस्तुओं पर 145 प्रतिशत टैरिफ वसूल रहा है। चीन ने दुनिया के बाक़ी देशों से अपील की कि वो ट्रंप की दादागीरी से मुक़ाबला करने के लिए उसके साथ आ जाएं।
विशेषज्ञों का कहना है कि चीन और अमेरिका का टैरिफ युद्ध भारत के लिए अच्छा मौक़ा है। भारत के पास इतनी क्षमता है कि वह अमेरिका को कुछ सामानों की सप्लाई करने में चीन की जगह ले सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल, गारमेंट और खिलौनों के सेक्टर में जगह बनाने का ये भारत के लिए ये सुनहरा अवसर है। टैरिफ वॉर से बड़ी बड़ी कंपनियां कितनी परेशान हैं, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ट्रंप का टैरिफ प्लान लागू होने से पहले एपल ने 600 टन iphone, यानी लगभग 15 लाख मोबाइल फोन के सेट, भारत से अमेरिका भेजे।
इसके लिए स्पेशल कार्गो प्लेन भारत भेजा। सरकार से सिर्फ छह घंटे में कस्टम क्लियरेंस की अनुमति ली ताकि, टैरिफ लागू होने से पहले ज़्यादा से ज़्यादा सामान अमेरिका भेजा जा सके। एपल अमेरिका में जितने फ़ोन बेचता है, उसके 20 परसेंट फोन भारत में बनते हैं, बाक़ी के 80 परसेंट चीन से आते हैं। एपल ने भारत में अपनी प्रोडक्शन कैपेसिटी 20 परसेंट बढ़ा दी है और भारत में बने ज़्यादा से ज़्यादा फ़ोन अमेरिका ले जा रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अमेरिका के साथ जल्द से जल्द व्यापार समझौता कर लेना चाहिए ताकि भारत से होने वाले निर्यात को रफ़्तार मिल सके, हालांकि वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने साफ़ किया कि भारत बंदूक की नोंक पर किसी से व्यापार समझौता नहीं करता, जब तक भारतीय कारोबारियों के हित सुरक्षित नहीं होंगे, तब तक व्यापार समझौता नहीं होगा।
सवाल ये है कि टैरिफ पर ट्रंप और शी जिनपिंग के बीच जो जंग जारी है, क्या इसका फायदा भारत को होगा? क्या भारत में स्मार्टफोन, AC, TV, फ्रिज सस्ते हो जाएंगे? ट्रेड एक्सपर्ट्स का कहना है कि अमेरिका के दबाव की वजह से भारत को इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट एक्सपोर्ट करने वाली चीनी कंपनियां अपनी कीमतें 5 परसेंट तक कम करने के लिए मजबूर हो जाएंगी।
भारत में इस्तेमाल होने वाले 75 प्रतिशत इलेक्ट्रोनिक कंपोनेंट्स चीन में बनते हैं, इन दोनों बातों को जोड़कर देखा जाए तो साफ है कि भारत में स्मार्टफोन, AC, TV, फ्रिज जैसी सारी इलेक्ट्रॉनिक चीजों के दाम कम होंगे जो हमारे देश के उपभोक्ताओं के लिए फायदे का सौदा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार। प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं?
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
कुछ दिनों पूर्व मेरे एक मित्र का फोन आया। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला कि यार! मैं कविताएं लिखना चाहता हूं। मुझे लगा ये सनक गया है या मजाक कर रहा है। हमाररी मित्रता लंबे समय से है उसने कभी इस तरह की बातें नहीं की। बात टालने के लिए मैंने कहा कविताएं लिखना तुम्हारे वश में नहीं है। तुम अपने करियर में अच्छा कर रहे हो वहीं ध्यान दो। उसने बहुत प्यार से उत्तर दिया। कहा मैं इस बात से सहमत हूं कि कविता लिखना कठिन है।
पर सोचो अगर अनामिका जी जैसी सिद्धहस्त कवयित्री कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगीं तो मेरे जैसा व्यक्ति भी कविता लिख लेगा। अब मैं थोड़ा घबराया कि वो मुझे इस बात के लिए कहेगा कि मैं अनामिका जी से उसको समय दिला दूं। उसको टालने के लिए मैंने कहा कि अनामिका जी बहुत व्यस्त रहती हैं। उनका अपना लेखन है, कालेज की व्यस्तता है और पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हैं, वो समय नहीं दे पाएंगी।
उसने तपाक से उत्तर दिया कि मुझे तो अनामिका जी का समय मिल गया है। वो हमें कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगी। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। उसने मेरे मनोभाव को समझकर पूरी बात बताई कि साहित्यिक पत्रिका नईधारा ने कविता लेखन वर्कशाप का आयोजन किया है। इस वर्कशाप का विज्ञापन उसने फेसबुक पर देखा था। विज्ञापन में वकर्शाप में भाग लेने की पूरी प्रक्रिया थी। उसने प्रक्रिया पूरी की और निर्धारित शुल्क जमाकर वो निश्चिंत हो गया था। इस बात से प्रसन्न भी कि अनामिका जी से वो कविता लेखन की बारीकियां सीखने जा रहा है।
हमारी बातचीत समाप्त हो गई लेकिन बाद में मैं सोचने लगा कि चार घंटे के वर्कशाप में कोई कविता लेखन की बारीकियां कैसे सीख सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अनामिका जी कविता लेखन पर विस्तार से बात कर सकती हैं। कविता का स्ट्रक्चर बता सकती हैं। हिंदी-अंग्रेजी कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा पर बात कर सकती हैं। पर कोई किसी वर्कशाप में बारीकियां सीख कर कवि कैसे बन सकता है।
कविता की उन परिभाषाओं का क्या होगा जो विभिन्न भाषाओं में प्रचलित है। हम तो बचपन से सुनते आए हैं कि वियोगी होगा पहला वो कवि आह से उपजा होगा गान। अगर वर्कशाप से कविता लिखना सीख जाएगा तो फिर न तो वियोग की आवश्यकता होगी और न ही आह की। विलियम वर्ड्सवर्थ की उस उक्ति का क्या होगा जिसमें वो कहते हैं, पोएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो आफ पावरफुल फीलिंग्स, इट टेक्स इट्स आरिजन फ्राम इमोशंस रिकलेक्टेड इन ट्रैंक्विलिटि। वर्ड्सवर्थ भी पावरफुल फीलिंग्स की बात कर रहे हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक लंबा लेख है कविता क्या है? उसमें एक जगह शुक्ल कहते हैं, जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। विचार करने की बात है कि कुछ घंटों में ह्रदय की मुक्ति साधना के लिए शब्द विधान सीखा जा सकता है।
इन प्रश्नों के बारे में विचार किया जाना चाहिए। वरिष्ठ कवियों की नियमित संगति कविता से, उसकी लेखन पद्धति से हमें परिचित करवा सकती है पर लिखना तो अलग ही बात है। इन दिनों कविता छंद आदि से भी दूर हो गई है तो कह सकते हैं कि बारीकियां तो बची नहीं। छंद, मीटर आदि की आवश्यकता रही नहीं।
इन दिनों होता ये है कि जैसे ही आप फेसबुक पर कोई एक विषय सर्च करते हैं तो उसी से संबंधित पोस्ट आपकी टाइमलाइन पर आने लग जाती है। चूंकि मैंने नईधारा का विज्ञापन उनकी पोस्ट पर जाकर देखा था। विज्ञापन के नीचे लिखे विवरण को पढ़ा भी था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी टाइमलाइन पर विभिन्न प्रकार के साहित्य लेखन सिखानेवाले पोस्ट आने लग गए।
उनमें से तो कई लेखक ऐसे हैं जो उपन्यास और गद्य लिखना सिखा रहे हैं। उनकी अच्छी खासी फीस है। सिखानेवाले भी इस तरह के लेखक हैं जिनको अभी लेखक के तौर पर स्वयं को स्थापित करना है। स्वयं शुद्ध हिंदी लिखना सीखना है। वाक्य विन्यास ठीक हो इसपर मेहनत करने की आवश्यकता है। इन सबको देखकर मैं इस सोच में पड़ गया कि हिंदी साहित्य कितना विविधरंगी हो गया है।
जो हिंदी साहित्य कभी बाजार के विरुद्ध चीखता नहीं थकता था आज उसी हिंदी साहित्य में लिखना सिखाना कारोबार हो गया है। साहित्य का बाजार सज चुका है। आकांक्षी लेखकों के लिए तरह-तरह की दुकानें हैं जिनपर विभिन्न विधाओं के बोर्ड लगे हुए हैं। उन बोर्ड को देखिए और अपनी पसंद की विधा का चयन कीजिए। भुगतान करिए और लेखक बनने की राह पर आगे बढ़ जाइए। कविता लिखना सीखिए, उपन्यास लेखन करिए, कहानियां लिखना सीखिए जो चाहें वो सीख सकते हैं। और अब तो आनलाइन के इस युग में सीखना भी आसान हो गया है। आप गाड़ी चलाते हुए सीख सकते हैं, जिम करते हुए सीख सकते हैं।
प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं और उनको पैसे देकर सीखने वाले मिल कहां से रहे हैं। ये जानने के लिए मैंने अपने मित्र को ही फोन मिलाया। मैंने उससे वर्कशाप के बारे में तो नहीं पूछा लेकिन कहा कि आप कवि बनकर क्या हासिल करना चाहते हैं। उन्होंने चहकते हुए कहा कि दोस्त तुम पता नहीं क्यों, समझना नहीं चाहते हो? अगर कविताएं लिखने लग गया तो रोज लिखूंगा। फेसबुक पर डालता रहूंगा।
लाइक्स आदि तो मिल ही जाएंगे। सौ दिन में सौ कविताएं लिख दूंगा। आजकल दर्जनों ऐसे प्रकाशक हैं जो पैसे लेकर पुस्तकें छाप दे रहे हैं। उनसे अपनी कविताओं का संकलन छपवा लूंगा। सौ दो सौ प्रतियां बांट दूंगा। हो गया कवि। लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाया जाने लगूंगा। कविता पाठ करने लग जाऊंगा। समाज में एक प्रतिष्ठा बन जाएगी।
इसके बाद मैंने एक दूसरे आकांक्षी लेखक को फोन किया। उसने पिछले साल उपन्यास लेखन की वर्कशाप की थी। उसने बताया कि कहानी लिखना तो बहुत ही आसान है। आप किसी घटना को जैसे देखते हैं लिख दीजिए। अधिक से अधिक 1000 शब्द में। दस-बीस कहानी हो गई तो संग्रह प्रकाशित करवा लीजिए। एक प्रकाशक के पास पैकेज है, सिल्वर, गोल्ड और डायमंड। अगर आप डायमंड पैकेज लेते हैं तो वो आपकी पुस्तक और आपको प्रमोट करेगा, लिट फेस्ट में भी भेजने की व्यवस्था करेगा।
ऐसे कई कथित उपन्यासकार या कहानीकार समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया में विचरण कर रहे हैं। और तो और ऐसे ही एक उपन्यासकार कहानी लिखना सिखाने की कार्यशाला का आयोजन भी करने जा रहे हैं। दरअसल साहित्य की दुनिया पिछले दिनों इतनी ग्लैमरस हो गई है कि हर कोई उस दुनिया में जाना चाहता है। वहां मंच है, सेल्फी है, सेल्फ प्रमोशन है, नेटवर्किंग का अवसर है, गासिप है। कहना ना होगा कि वहां हर चीज है जो ग्लैमरस दुनिया में होनी चाहिए। पर सबको ये समझना होगा कि साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
ट्रंप ने गाजे बाजे के साथ दो अप्रैल को 86 देशों पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा की थी। 10% बेसिक टैरिफ़ सभी देशों पर पाँच अप्रैल से लागू हो गया। नौ अप्रैल से हर देश पर अलग-अलग अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया गया था।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार की सुबह नौ बजे सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि यह शेयर ख़रीदने का समय है। टैरिफ़ लगाने के बाद से शेयर बाज़ार नीचे था। दोपहर दो बजे तक वो पलट गए। चीन को छोड़कर बाक़ी देशों पर अतिरिक्त टैरिफ़ पर 90 दिन की रोक लगा दी। हिसाब किताब में चर्चा करेंगे कि ट्रंप क्यों पलटे और आगे अब क्या करेंगे?
ट्रंप ने गाजे बाजे के साथ दो अप्रैल को 86 देशों पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा की थी। 10% बेसिक टैरिफ़ सभी देशों पर पाँच अप्रैल से लागू हो गया। नौ अप्रैल से हर देश पर अलग-अलग अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया गया था जो जितना टैरिफ़ अमेरिका पर लगाते हैं उतना अमेरिका उस पर लगा देगा। शेयर बाज़ार गिरना तय था। ट्रंप कहते रहे कि उन्हें बाज़ार की परवाह नहीं है। यह अमेरिका के भविष्य के लिए उठाया गया कदम है। खेल तब पलट गया जब शेयर बाज़ार के साथ साथ बॉन्ड बाज़ार भी गिर गया। इसका मतलब था कि अमेरिकी सरकार को क़र्ज़ पर ज़्यादा ब्याज चुकाना पड़ सकता है। ट्रंप इस डर से पलट गए।
पहले समझ लेते हैं कि बॉन्ड होते क्या है?
किसी भी देश की सरकार आम तौर पर खर्च ज़्यादा करती है और कमाई कम। घाटा पूरा करने के लिए सरकार बाज़ार से क़र्ज़ लेती है। यह क़र्ज़ उठाने के लिए सरकार बॉन्ड जारी करती है। ये बॉन्ड दस साल या उससे ज़्यादा अवधि की होते हैं। बॉन्ड पर सरकार समय समय पर क़र्ज़ चुकाती रहती है। अमेरिकी सरकार के बॉन्ड सबसे सेफ़ माने जाते हैं। इसमें दूसरे देशों की सरकारें भी पैसे लगाती हैं जैसे भारत, चीन, जापान। ये बॉन्ड बाज़ार में लिस्ट होते हैं और शेयरों की तरह उनकी ख़रीद फ़रोख़्त होती है।
शेयर बाज़ार और बॉन्ड बाज़ार आमतौर पर विपरीत दिशा में चलते हैं। शेयर बाज़ार नीचे जाता है तो निवेशक बॉन्ड बाज़ार की शरण में आते हैं। वहाँ 4% से ज़्यादा रिटर्न मिलता रहता है। रिस्क ना के बराबर। इस बार शेयर बाज़ार के साथ साथ बॉन्ड बाज़ार में भी बिकवाली हो गई। निवेशकों को लगा कि टैरिफ़ लगने से महंगाई बढ़ेगी। ब्याज दरों में बढ़ोतरी होगी। इसका सीधा नुक़सान अमेरिका की सरकार को है। आख़िर बॉन्ड पर ब्याज तो उसे ही चुकाना होगा। बॉन्ड बाज़ार में बिकवाली चीन की तरफ़ से करने की चर्चा रही है लेकिन कोई पुष्टि नहीं हुई है।
कितना बड़ा असर?
टैरिफ़ की घोषणा के बाद 10 साल के बॉन्ड का रेट क़रीब 4% से बढ़कर 4.5% तक पहुँच गया यानी क़रीब 0.5% , अमेरिका का कुल सरकारी कर्ज़ लगभग 30 ट्रिलियन डॉलर है और 2023 में ब्याज पर कुल खर्च करीब 875 अरब डॉलर सालाना है। अगर बॉन्ड रेट 0.5% (यानी आधा प्रतिशत) बढ़ता है तो अमेरिका को सालाना 150 अरब डॉलर ज़्यादा ब्याज चुकाना पड़ सकता है। न्यूयार्क टाइम्स के मुताबिक़ बॉन्ड बाज़ार के दबाव में ट्रंप ने फ़ैसला बदल दिया। इसके अलावा ट्रंप समर्थकों का दबाव, अमेरिका में मंदी की आशंका भी कारण बने।
अब सवाल है कि आगे क्या होगा?
ट्रंप का पुराना रिकॉर्ड देखें तो 90 दिन की रोक को एक्सटेंशन मिलता रहेगा। उन्होंने कहा कि 75 देश बातचीत के लिए हमारे संपर्क में है। भारत तो पहले से बातचीत कर रहा है, इसलिए कम से कम भारत अब इसके चपेट में आने की आशंका कम है। वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका असर पड़ने की आशंका कम थी। इसकी चर्चा हमने पिछले हफ़्ते की थी। अमेरिका में मंदी की आशंका भारत के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती थी।
फिर भी ख़तरा बना हुआ है। वो हैं अमेरिका और चीन की लड़ाई। दोनों देश एक दूसरे पर डेढ़ सौ परसेंट टैरिफ़ लगा चुके हैं। ट्रंप का कहना है कि चीन ने बदले की कार्रवाई की है इसलिए वो उसे छूट नहीं देंगे। यह लड़ाई भी लंबी चलने की संभावना कम है। एक तरफ़ है दुनिया का सबसे बड़ा कारख़ाना यानी चीन और दूसरे तरफ़ उस कारख़ाने का सबसे बड़ा बाज़ार यानी अमेरिका। दोनों जानते हैं कि इसमें नुक़सान दोनों देशों का है। बातचीत के दरवाज़े दोनों तरफ़ से खुल रहे हैं, रास्ता भी जल्द खुलना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
उन्हें यह भय लगा रहता है कि प्रियंका के रहने पर लोग राहुल गाँधी के प्रति अधिक न आशा रखते हैं और न कोई आकर्षण। कई तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के नारे लगा देते हैं।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
इंदिरा राज के दौरान 1973 -74 में गुजरात में असंतुष्ट कांग्रेसी कहते थे कि मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल अपने भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों की आवाज़ बंद करने के लिए 'प्रपंचवटी' में षड्यंत्र करते थे। चिमनभाई के मंत्रणा कक्ष को यही नाम दिया गया। कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी उसी गुजरात से सत्ता की लड़ाई का एलान करते हुए अपने सलाहकारों से मंत्रणा कर पार्टी में असंतुष्टों को हटाने की घोषणा कर रहे हैं और इसका कारण मंदिर, हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर उन लोगों के कुछ विचार भारतीय जनता पार्टी से मिलते जुलते हैं।
राहुल गाँधी ने अहमदाबाद के कांग्रेस महाधिवेशन से पहले और बाद में भी बड़े बदलाव और भाजपा खसकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अभियान के लिए आक्रामक भाषण दिए। इसलिए गुजरात के पुराने कांग्रेसी या पत्रकार प्रपंचवटी को याद कर रहे हैं। वे यह भी याद दिला रहे कि इसी गुजरात से चिमनभाई पटेल जैसे नेताओं के कारण कांग्रेस का पतन हुआ।
सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी के सलाहकार प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष भारत सिंह सोलंकी जैसे नेताओं को पार्टी से निकालना चाहते हैं? तभी तो कांग्रेस महाधिवेशन के दौरान उन्हें कहीं सामने नहीं आने दिया। राहुल के सेनापति वेणुगोपाल भले ही नए हैं लेकिन क्या सोनिया गाँधी और उनकी करीबी पुरानी सहयोगी अम्बिका सोनी तो जानती हैं कि भारत सिंह के पिता माधव सिंह सोलंकी ने न केवल गुजरात कांग्रेस में बल्कि केंद्र में विदेश मंत्री रहते बोफोर्स कांड सहित कई मामलों में गांधी परिवार की कितनी सहायता की थी।
महाधिवेशन में प्रियंका गांधी की अनुपस्थिति को भी प्रपंचकारियों का षड्यंत्र माना जा रहा है। उन्हें यह भय लगा रहता है कि प्रियंका के रहने पर लोग राहुल गाँधी के प्रति अधिक न आशा रखते हैं और न कोई आकर्षण। कई तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के नारे लगा देते हैं। सचमुच यह बहाना अजीब लगता है कि निजी विदेश यात्रा के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण प्रियंका नहीं रही। क्या पार्टी के ऐतिहासिक महत्वपूर्ण सम्मेलन के लिए परिवार की एक जिम्मेदार सांसद अपने यात्रा टिकट नहीं बदल सकती हैं?
यही नहीं जिस वक्फ कानून में संशोधन के पारित होने पर राहुल आग उगल रहे हैं, उस प्रस्ताव पर मतदान के समय उनकी 'प्रिय बहन' सांसद विरोध का वोट देने तक नहीं आई। वहां तो बड़ा भाई ही प्रतिपक्ष का नेता है तो क्या प्रियंका भी सरकारी कानून से सहमत रही हैं। तो क्या उन पर भी अनुशासन कार्रवाई हो सकती है। कांग्रेस की कोशिश गुजरात की धरती से भारतीय जनता पार्टी, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देने की रही है।
पिछले महीने राहुल गांधी गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में थे, तब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओं पर भाजपा के लिए काम करने का आरोप लगाया था। राहुल गांधी ने अधिवेशन में दिए अपने भाषण में कहा कि कांग्रेस दलित, मुस्लिम व ब्राह्मण को साधती रही और अति पिछड़ा जातियां (ओबीसी) हमसे दूर चली गईं। यह और बात है कि एक समय कांग्रेस का नारा था कि न जात पर-न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।
ओबीसी को आरक्षण की सिफारिश करने वाले मंडल आयोग के विरोध में राहुल गांधी के पिता स्वर्गीय राजीव गांधी ने संसद में सबसे तीखा भाषण दिया था। आरक्षण का दायरा बढ़ाने के विरुद्ध इंटरव्यू दिए थे। धीरे धीरे पिछड़े, दलित, आदिवासी और मुस्लिम कांग्रेस से दूर होते गए और क्षेत्रीय पार्टियों में चले गए। वहीँ ब्राह्मण क्षत्रिय और वणिक समुदाय राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा के साथ अधिक जुड़ते चले गए।
जहां-जहां क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सत्ता में आए, वहां मुस्लिम कांग्रेस से छिंटक गया। हालांकि, मुस्लिमों को दोबारा अपने साथ लाने की कांग्रेस की कोशिशें तेज हो रही हैं। राहुल गांधी कह रहे हैं कि मुस्लिम हितों को लेकर वो पीछे नहीं हटेंगे। यह और बात है कि यह कोशिशें उसके सहयोगी दलों को रास नहीं आ रही हैं। जम्मू कश्मीर के अनुच्छेद ३७० को ख़त्म करने, नागरिकता संशोधन कानून और अब वक्फ संशोधन कानून पर कांग्रेस का रुख देश के बहुसंख्यकों को रास नहीं आया है।
पिछले दिनों संपन्न प्रयागराज महाकुंभ और सद्गुरु के कार्यक्रम में शामिल होने पर जिस तरह से कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार की पार्टी के अंदर से आलोचना हुई, उसने भी कांग्रेस को लेकर बहुसंख्यकों को निराश किया। अहमदाबाद अधिवेशन प्रतीक के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल स्मृति स्थल पर हुआ और उनका नाम लेकर भाजपा संघ पर हमले किए गए लेकिन गुजरात में ही सरदार पटेल के लिए बने विश्व के सबसे बड़े 'स्टैचू ऑफ यूनिटी 'को देखने आज तक राहुल गांधी नहीं गए हैं।
कांग्रेस के नेता स्टैचू ऑफ यूनिटी पर जाने से परहेज करते हैं, क्योंकि इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनवाया है। सरदार पटेल की विरासत को अपने हाथों से जाता देख कांग्रेस परेशान भी है। गुजरात में पिछले तीन दशक से कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर है। विगत् विधानसभा चुनाव में तो उसका अब तक का सबसे निराशाजनक प्रदर्शन रहा था। लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को बहुत अधिक सफलता गुजरात में नहीं मिली, लेकिन राहुल गांधी को शायद लग रहा है कि गुजरात के रास्ते वह देश की सत्ता को पुनः हासिल कर सकते हैं। शायद राहुल गांधी गुजरात से नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देकर अपने कथित विपक्षी गठबंधन के सहयोगियों को बताना चाहते हैं कि वो गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि राहुल गाँधी और उनकी प्रपंच चौकड़ी संसद से सड़क तक जिन अम्बानी अडानी समूहों के विरुद्ध लगातार गंभीरतम हमले कर रही है, वे गुजराती ही हैं और उनके औद्योगिक समूहों से लाखों लोगों को रोजगार मिल रहा है और उनकी कंपनियों में करोड़ों रुपयों के शेयर भी लगे हुए हैं। यही नहीं अन्य उद्योगपति भी इस तरह की दबावी राजनीति से विचलित हैं। कांग्रेस की राजनीति को जानने वाले क्या यह भूल सकते हैं कि इन्ही अम्बानी अडानी , टाटा, बिरला, डालमिया, हिंदुजा समूहों ने ही कांग्रेस को अधिकाधिक मदद की, फंडिंग की, देश विदेश में बचाया।
आखिरकार मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता के परिवार ही तो इन समूहों से कांग्रेस को सहायता दिलाते थे। वह तो गनीमत है कि वे पुराने बहीखातों के राज नहीं खोल रहे हैं। मुस्लिम नेताओं में गुलाम नबी आज़ाद जैसे दिग्गज राहुल टीम से तंग आकर बाहर गए। सबसे वफादार अहमद पटेल की बेटी मुमताज को पिछले चुनाव में टिकट तक नहीं दिया और सीट केजरीवाल पार्टी को दे दी। बिहार में इसी साल चुनाव है, लेकिन पुराने कांग्रेसी नेता या कार्यकर्त्ता क्या तेजस्वी की पालकी उठाने को तैयार होंगे?
बिहार उत्तर प्रदेश आदि में वेणुगोपाल क्या किसी एक चुनाव क्षेत्र में किसी को जितवा सकते हैं? दक्षिण में राजीव की हत्या में लिट्टे का साथ देने के आरोप तो सोनिया गाँधी की कांग्रेस ने लगाए और नरसिंह राव को सहित पार्टी तुड़वा दी और हरवा दी। अब राहुल को उसी द्रमुक प्रिय है, लेकिन क्या दिल दिमाग से उसका साथ देंगें। इसलिए 'प्रपंचवटी" से राहुल के सिंहासन का रास्ता कैसे निकलेगा?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
इस वर्ष कई साहित्य उत्सवों में जाने का अवसर मिला। विभिन्न विषयों पर विभिन्न श्रोताओं को सुना भी। बहुत कुछ सीखने को मिला। एक साहित्य उत्सव में अजीब घटना घटी। एक सत्र में हिंदी उपन्यास पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उपन्यास की कथावस्तु पर बात होते-होते उसके आकार-प्रकार पर चली गई। इस चर्चा में तीन अलग अलग पीढ़ियों के उपन्यासकार थे। इनमें से एक कथित नई वाली हिंदी के युवा उपन्यासकार थे। एक वरिष्ठ पीढ़ी के उपन्यासकार ने समकालीन युवा लेखकों के उपन्यासों पर कहा कि आज तो सौ डेढ सौ पेज के उपन्यास लिखे जा रहे हैं।
हलांकि उन्होंने इसके बाद आज के पाठकों की रुचि पर भी विस्तार से बोला लेकिन नई वाली हिंदी के उपन्यासकार का मन सौ डेढ़ सौ पेज पर ही अटक गया। उन्होंने जिस प्रकार की टिप्पणी की उससे लगा कि वो सौ डेढ सौ पेज वाली टिप्पणी से आहत हो गए हैं। यह बात सही है कि आजकल मोटे उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। चंद्रकिशोर जायसवाल का चिरंजीव या दीर्घ नारायण का रामघाट में कोरोना आठ सौ से अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
पर इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अमरकांत का इन्हीं हथियारों से, भगवानदास मोरवाल का बाबल तेरे देस में, असगर वजाहत का कैसी आग लगाई जैसे चार पांच सौ पन्नों के उपन्यास प्रकाशित होते थे। अब ज्यादातर उपन्यास सौ से सवा सौ पेज का होता है। उस समय भी पतले उपन्यास प्रकाशित होते थे लेकिन इतने पतले नहीं होते थे कि मंचों पर उनकी चर्चा हो।
सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है। गांव और कस्बों की कहानियों में उलझा रहा हिंदी उपन्यास। इस क्रम में उन्होंने प्रेमचंद से लेकर रेणु और मोरवाल तक के नाम गिना दिए। वो इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
उनकी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। उत्तेजना में तो वो यहां तक कह गए कि परंपरा आदि बेकार की बातें हैं और ये सब कोर्स के लिए ठीक हो सकती हैं, साहित्य के लिए नहीं। मामला उलझता इसके पहले ही संवादकर्ता ने बहुत चतुराई से विषय बदल दिया। लेकिन मेरे दिमाग में उनकी बात अटकी रह गई।
कुछ दिनों बाद एक अन्य साहित्य उत्सव में कविता पर हो रही एक चर्चा सत्र में बैठा कवियों को सुन रहा था। वहां भी इस बात की चर्चा होने लगी कि आज के कवियों को हिंदी कविता की परंपरा का ज्ञान है या नहीं। छह प्रतिभागी थे जिनमें से अधिकतर की ये राय थी कि परंपरा हमको रचना सिखाती है। यहां भी एक युवा कवि एकदम से ये मानने को तैयार नहीं थे कि परंपरा से साहित्य सृजन का कोई लेना देना है।
वो यहीं पर नहीं रुके बल्कि आत्मप्रशंसा में जुट गए कि वो कितने महान हैं। उनकी कविताएं इंटरनेट ममीडिया पर कितनी लोकप्रिय होती हैं। उनको हजारों लाइक्स मिलते हैं आदि आदि। इस पैनल में ही एक और युवा कवि था। वो बार बार कहने का प्रयास कर रहा था कि परंपरा हमें बहुत सिखाती है। हम परंपरा को अगर जान पाएं तो हमें कविताएं लिखने में, शब्दों के चयन में, कविताओं में भावों को अभिव्यक्ति करने में मदद मिलती है।
इससे रचने में बड़ा लाभ होता है। पर दूसरा युवा कवि सुनने को तैयार नहीं था। वो तो बस परंपरा को ही नकार रहा था। जोश में तो यहां तक कह गया कि हमें निराला और पंत से सीखने की क्या जरूरत है। अगर हम उनकी कविताएं अधिक पढ़ेंगे तो उनके जैसे ही लिखने लग जाएंगे, आदि आदि। इस सत्र की बातें सुनकर उपन्यास वाले सत्र का स्मरण हो उठा। सत्र के बाद ये सोचने लगा कि आज के कुछ युवा लेखक स्वयं को इतना महान क्यों समझते हैं।
महान समझने को लेकर मैंने स्वयं को समझा लिया कि आत्मप्रशंसा हर अवस्था के लेखकों में पाई जाती है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन परंपरा का नकार क्यों। अपने पूर्वज लेखकों की कृतियों को लेकर उपेक्षा भाव क्यों। इस बात का उत्तर नहीं मिल पा रहा था।
इसी साहित्य उत्सव में अपने एक मित्र से दोनों घटनाओं की चर्चा की और बुझे मन से पूछा कि साहित्य की युवा पीढ़ी के कुछ लेखक क्यों सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करते हैं। मित्र ने फटाक से कहा कि तुम नाहक इस बात को लेकर परेशान हो। जो लोग अपनी परंपरा को या पूर्वज लेखकों को नकारते हैं उन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान होता है और ना ही उन्होंने पूर्वज लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा है।
आप इसको इस तरह से समझिए कि ज्ञान तो सीमित होता है जबकि अज्ञान असीमित होता है। जो चीज असीमित होती है उसके बारे में सोचकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। परंपरा को समझने और उसको अपनी रचनाओँ में बरतने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। परंपरा से जुड़े लेखन का संपूर्ण अध्ययन आवश्यक ना भी हो लेकिन उससे परिचय तो होना ही चाहिए। उन्होंने एक वाकया बताया।
कुछ दिनों पहले महिला दिवस पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसका विषय था – रामचरितमानस और स्त्रियां। एक से एक धुरंधर वक्ता उसमें उपस्थित थीं। उनमें से एक ने बहुत जोशीला भाषण दिया। इसी क्रम में श्रीराम को सीता को त्यागने को लेकर कठघरे में खड़ा करने लगीं। एक श्रोता अचानक खड़े हो गए, कहा कि आपने ये कहां पढ़ लिया कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया था।
उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब विषय ही रामचरितमानस है तो और कहां पढेंगी, वहीं पढ़ी है पूरी कहानी। इस पर श्रोता ने उनको आड़े हाथों लेते हुए खूब खरी खोटी सुना दी। कहा कि रामचरितमानस तो प्रभु श्रीराम के राज्याभिषेक के साथ समाप्त हो जाता है। उसके बाद कागभुसुंडि और गरुड़ जी का संवाद है जिसको विद्वान मानस वेदांत कहते हैं। पर वो महिला नहीं मानीं।
इन प्रसंगों को सुनने के बाद ये लगा कि हमारे समाज में भांति भांति के लोग हैं। भांति-भांति की भ्रांतियां हैं। इतिहास से लेकर साहित्य तक में भ्रम की स्थिति बनाई गई। इन्हीं भ्रम और भ्रांतियों का जब अज्ञान से मिलन होता है तो उससे अहंकार का जन्म होता है। यही अहंकार परंपरा को नकारता है। रचनात्मकता को कुंद करता है। हर दौर में इस प्रकार की घटनाएं होती होंगी परंतु इंटरनेट मीडिया के इस दौर में इस तरह की घटनाएं अधिक होने लगी हैं।
युवा रचनाकार अपनी थोड़ी सी प्रशंसा पर स्वयं को निर्मल और अज्ञेय मानने लगते हैं। आज स्वयं को दिनकर और निराला से श्रेष्ठ मानने वाले कई कवि आपको फेसबुक पर नजर आएंगे। उनकी श्रेष्ठता बोध का आधार फेसबुक के लाइक्स हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा को पहचानें, अध्ययन करें और स्वयं को उस परंपरा में रखकर देखें कि हम कहां हैं, अन्यथा इतिहास के बियावान में खोते समय नहीं लगता।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।