आवारा कुत्तों की पूजनीयता का समाज-शास्त्र: पंकज शर्मा

देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया।

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Monday, 25 August, 2025
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पंकज शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार।

देश भर के शहरों, कस्बों और गांवों में बेलगाम घूम रहे छह-सात करोड़ आवारा कुत्तों की हिफ़ाज़त करने के लिए भारतीय कुलीन वर्ग की संवेदनशीलता और एकजुटता देख कर मेरा तो, सच्ची, मन भर आया। ऐसा इत्तेहाद कि दस दिन में सुप्रीम कोर्ट के घुटने टिकवा लिए। मेरा दिल द्रवित है। मेरी आंखें भरी हुई हैं। मेरे होंठ सुबक रहे हैं। इस कलियुग में, और तिस पर पिछले ग्यारह बरस के घनघोर भोथरे माहौल के दरमियान, हमारे समाज के एक ख़ास तबके का बेठिकाना कुत्तों के प्रति ऐसा सहानुभूति-भाव देख कर क्या आप की छाती चौड़ी हो कर आज छप्पन इंच की नहीं हो गई है? मेरी तो हो गई है।

बच्चों के, बुजु़र्गों के, महिलाओं के पीछे लपक-लपक कर, उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर, गिरा-गिरा कर, नोच-खसोट कर अधमरा कर देने वाले कुत्तों की आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए दस दिन-रात जंतर-मंतर पर बैठे रहने वालों से अगर मैं यह पूछूं कि बेग़ुनाह मनुष्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होते प्रहारों को नंगी आंखों से देखते रहने के बावजूद उन्होंने एक दिन भी जंतर-मंतर जाने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई तो आप मुझे असामाजिक तत्व तो घोषित नहीं कर देंगे? अगर मैं सवाल उठाऊं कि 2024 में जब कुत्तों द्वारा मनुष्यों को काटने के 37 लाख मामले बाक़ायदा दर्ज़ हुए और इन में से सैकड़ों लोग हमेशा के लिए चल बसे – तब आप अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम से क्यों बाहर नहीं निकले तो आप मुझे मूक प्राणियों का दुश्मन तो करार नहीं दे देंगे?

11 साल पहले, 2014 में, देश में आवारा कुत्तों की तादाद सवा करोड़ के आसपास थी। 2016 में डेढ़ करोड़ पार कर गई। 2018 में 2 करोड़ से ऊपर हो गई। अब 6-7 करोड़ के बीच है। आवारा कुत्ते देश भर में हर रोज़ कम-से-कम दस हज़ार लोगों को काटते हैं। काटने के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं। 2021 में 17 लाख लोगों के कुत्तों द्वारा काटने के मामले दर्ज़ हुए थे। तीन साल में इन घटनाओं में 20 लाख का इजाफ़ा हो गया है। जो मामले दर्ज़ नहीं होते हैं, उन का तो कहना ही क्या?

यूं आवारा कुत्तों की गिनती के सभी आंकड़े अनुमानित ही हैं, मगर दुनिया भर में ख़ानाबदोश कुत्तों की तादाद 20 करोड़ से कुछ ज़्यादा है। दुनिया की मानव आबादी में भारत का हिस्सा तक़रीबन पौने अठारह प्रतिषत है, मगर संसार भर के आवारा कुत्तों की संख्या में भारतीय कुत्तों का हिस्सा तीस फ़ीसदी से ऊपर है। हमारे देश में प्रति एक हज़ार की आबादी पर क़रीब 35 आवारा कुत्ते सड़कों पर घूम रहे हैं। मज़े की बात यह है कि सरकार के पास इस का कोई निश्चित आंकड़ा है ही नहीं कि देश में कितने आवारा कुत्ते हैं और कितने पालतू? कितने पालतू कुत्तों का पंजीकरण है और कितनों का नहीं? पालतू कुत्तों में से कितनों को अनिवार्य टीके नियमित तौर पर लग रहे हैं और कितनों को नहीं? जब पालतू कुत्तों का ही कोई नियमन नहीं हो पा रहा है तो आवारा कुत्तों की कौन परवाह करे?

मैं हलके-फुलके ढंग से नहीं, पूरी संजीदगी के साथ, यह सवाल भी उठाना चाहता हूं कि अगर लोग अपने घरों में कुत्ते पाल सकते हैं तो वे गाय, भैंस, बकरी, भेड़, वग़ैरह क्यों नहीं पाल सकते? अगर कोई चाहे तो अपने फ्लैट में गधा क्यों नहीं पाल सकता है? ‘आवारा’ कुत्तों को ‘सामुदायिक’ कुत्ते मानने वाले भद्रलोकवासी बताएं कि क्या कोई आवासीय सोसाइटी अपने परिसर में सामुदायिक ऊंट-घोड़े पाल सकती है? सारा सामुदायिक प्रेम कुत्ते-बिल्लियों पर ही क्यों उंडे़ला जा रहा है? पक्षियों को पिंजरे में रखना अगर ज़ुर्म है तो पालतू कुत्ते-बिल्लियों को दड़बेनुमा फ्लैट के कारावास में रखना जु़र्म क्यों नहीं है? अगर यह मांग ले कर भी जंतर-मंतर पर धरने-प्रदर्शन होने लगें कि सारे कुत्ते-बिल्लियों को मानव समाज की क़ैद से मुक्त कर सड़कों पर छोड़ा जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट अपने घुटने टेक देगा?

पहले ऐसे घरों की कमी नहीं थी, जहां तोता पाला जाता था। हम में से बहुत-से लोग ‘मिट्ठू चिटरगोटी’ सुन-सुन कर बड़े हुए हैं। फिर सरकार को अहसास हुआ कि तोता तो वन्यजीव है, जैसे कि शेर, हाथी, हिरण और बाघ। तो फ़रमान ज़ारी हो गया कि अगर कोई घर में तोता रखेगा तो तीन साल के लिए जेल हो सकती है। कुत्ता क्या तोते से ज़्यादा मासूम प्राणी है?

आप ने कोई हिंसक तोता कभी देखा क्या? मगर हिंसक कुत्ता तो ज़रूर देखा होगा? हिंसक बिल्लियां भी देखी होंगी। सो, यह कैसे तय हुआ और किस ने किया कि कौन-कौन से पशु-पक्षी वन्यजीव हैं और कौन-कौन से घरेलू जीव? जब सर्कस वाले शेर, चीते, हाथी, भालू – सब पालते थे, तब उन में से कितनों ने मनुष्यों की जान ले ली? मगर आज सड़कों पर घूम रहे आवरा कुत्ते तो हर साल सैकड़ों की जान ले रहे हैं। फिर क्यों न कुत्ते को वन्यजीव घोषित कर दिया जाए?

सच तो यही है कि कुत्ता है तो मूलतः भेड़िए का ही वशंज। कुत्तों को पालतू बनाने का काम प्लीस्टोसीन युग से शुरू हुआ। भोजन की तलाश में जब भेड़िए मनुष्यों की बस्तियों के क़रीब आने लगे तो चतुर मनुष्यों ने उन में से कुछ दब्बू भेडियों को चुना और उन्हें चयनात्मक प्रजनन के तरीके अपना कर धीरे-धीरे पालतू कुत्तों में तब्दील करना शुरू कर दिया। मनुष्यों ने कुत्तों को शिकार के लिए इस्तेमाल करना आरंभ किया। फिर जब खेती शुरू हुई तो उन्हें खेतों की रखवाली में लगाया। बरस-दर-बरस बीतते कुत्ते कारों में घूमने लगे, कुलीनों के कालीनों पर विराजने लगे, उन के गुदगुदे बिस्तरों पर उन के साथ सोने लगे। लेकिन क्या इस से कुत्तों में मौजूद भेड़िया-अंश पूरी तरह समाप्त हो गया होगा?

मेरी अंतआर्त्मा गदगद है कि ईएमआई-युग में अपनी गुज़र-बसर कर रहे हमारे नौनिहाल अपने पालतू कुत्तों के सौंदर्य प्रसाधनों पर हज़ारों रुपए महीने खर्च कर देते हैं। अपने ‘सामुदायिक श्वान बच्चों’ के लिए उन की आंखों से आंसू उमड़ते हैं। बावजूद इस के कि मैं नहीं जानता कि उन में से कितने साल में एकाध बार किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम जा कर किसी का हालचाल पूछते हैं, प्राणीमात्र के लिए उन की इतनी दया, इतनी करुणा मुझे भीतर तक भिगो देती है।

मुझे यह भी नहीं मालूम कि सर्दियों में रैनबसेरों में सोने वाले लोगों की इन कुलीन जंतरमंतरियों को कितनी फ़िक्र है, कूड़े के ढेर में से कबाड़ चुनते बच्चे उन की चिंताओं में शामिल हैं या नहीं और ज़िंदगी भर चीथड़ों में ऐड़ियां रगड-रगड़ कर मर जाने वाले कुपोषित स्त्री-पुरुष उन के सपनों में कभी आते हैं या नहीं। मगर क्या यह कोई कम बड़ी बात है कि बेघर कुत्ते-बिल्लियों का सहारा बनने के अपने कर्तव्य पथ पर चलने से उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ताक़त भी नहीं रोक पा रही है।

मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मैं कुत्ता-विरोधी नहीं हूं। आज के दौर में कुत्ता-विरोधी हो कर कोई जी सकता है क्या? कुत्ता तो हमारे वर्तमान जीवन दर्शन का प्रतिमान है। उस की पूंछ हमारे राष्ट्रीय आचरण का तेज़ी से प्रतीक बनती जा रही है। इसलिए कुत्ता मेरे लिए पूज्य है। उस की अवहेलना करने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता। कुत्ते हमारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की नींव हैं। वे हैं तो हम हैं। वे हमारे बावजूद हैं। कोई रहे-न-रहे, वे सदा के लिए हैं। सो, उन के साथ सार्वजनिक तौर पर रहना सीखिए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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नीतीश कुमार के पास अब मुसलमान वोट नहीं : समीर चौगांवकर

मुस्लिम समुदाय को याद है कि सीतामढ़ी से जदयू के सांसद देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि इस चुनाव में यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया। इसलिए वे उनका काम नहीं करेगे।

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Saturday, 11 October, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

अक्टूबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए को बहुमत मिला तो उसमें लालू के जंगल राज के साथ नीतीश की सेक्युलर छवि का बड़ा योगदान था। नीतीश ने पिछड़ों के बीच वंचित अति पिछड़ा वर्ग, दलितों के बीच हाशिए पर खड़े महादलित वर्ग और मुसलमानों के बीच पिछड़े पसमांदा समूह को अपने साथ जोड़ा था। पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर नीतीश के करीबी नेता थे।

नीतीश कुमार की सफलता की एक बड़ी वजह यह भी रही कि उन्होंने मुसलमानों के बीच बरसों से दबे जाति के सवाल को आवाज दी। पसमांदा आंदोलन को वैधता प्रदान की। रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर आयोग के सुझावों को मान्यता दी। अली अनवर जैसे नेता को राज्यसभा भेजा। जिनके राज्यसभा में भाषणों से संसद की बहसों में मुसलमानों की विविधता का पक्ष दर्ज हुआ।

2005 के विधानसभा चुनाव में जदयू के चार मुसलमान विधायक चुने गए थे। इससे उत्साहित नीतीश कुमार ने चारों विधायकों को बारी-बारी से मंत्री बनाया। इसका असर यह हुआ कि 2010 के विधानसभा चुनाव में जदयू के सात मुस्लिम विधायक बने और छह पर दूसरे स्थान पर रहे।

सीएसडीएस लोकनीति के सर्वेक्षण में 28 फीसद मुसलमानों ने कहा था कि बिहार में मुसलमानों के लिए जदयू ही सबसे अच्छी पार्टी है। जबकि राजद के लिए ऐसा सिर्फ 26.4 फीसद मुसलमानों ने कहा। उस समय मुसलमानों में नीतीश का ऐसा असर था कि पहली बार कोई मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत गया। वे सबा जफर थे, जो अमौर से चुनाव जीते थे। बाद में वे जदयू में शामिल हो गए।

नीतीश को मुसलमानों के समर्थन की वजह थी। वह नीतीश ही थे जिन्होंने स्थानीय निकाय चुनाव में पसमांदा जातियों को अति पिछड़ा श्रेणी में शामिल किया। उन्होंने भागलपुर दंगों का स्पीडी ट्रायल कराया। गरीब मुसलमानों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएँ शुरू की। स्थानीय निकाय और सरकारी नौकरियों में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण दिया।

नीतीश ने तमाम अवसरों पर बिहार से पाँच मुसलमानों को राज्यसभा भेजा और 16 मुसलमानों को विधान परिषद भेजा। आठ मुसलमानों को अपने मंत्रालय में जगह दी। इनमें बड़ी संख्या पसमांदा मुसलमानों की थी।

2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार करने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी प्रचार करने बिहार आना चाहते थे। लेकिन नीतीश ने यह कहकर कि हमारे पास एक मोदी है ही, दूसरे मोदी की जरूरत नहीं है, मोदी को बिहार आने नहीं दिया था। दरअसल नीतीश को अपने मुस्लिम वोट बैंक की चिंता थी।

2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने अपनी सेक्युलर छवि को बचाए रखने के लिए एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया और सिर्फ दो सीटों पर सिमट गए। 2015 में लालू के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई, लेकिन 2017 में भाजपा के साथ चले गए।

2020 के विधानसभा चुनाव में उनको मिलने वाले मुस्लिम वोट में भारी गिरावट हुई। नीतीश ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया और सभी हारे। अपनी सेक्युलर छवि बनाए रखने के लिए और मुसलमानों को संदेश देने के लिए मजबूरन नीतीश को बसपा के विधायक जमा खान को पार्टी में शामिल कराकर मंत्री बनाना पड़ा। सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे के अनुसार 2020 में नीतीश को सिर्फ 5 फीसद मुसलमानों के वोट मिले।

नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के वक्फ बिल पर समर्थन करने पर उनके ही पार्टी के मुस्लिम नेताओं ने नीतीश से दूरी बना ली। विधान परिषद सदस्य गुलाम गौस ने नीतीश पर नाराज होकर शेर पढ़ा, “मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है, क्या मेरे हक में फैसला देगा।” एक और विधान परिषद सदस्य खालिद अनवर ने बिल का विरोध किया था। नीतीश के करीबी और शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन सैयद अफजल अब्बास ने भी नीतीश से दूरी बना ली।

नीतीश के भरोसेमंद पूर्व सांसद गुलाम रसूल बलियावी ने साफ कर दिया है कि उनका संगठन “इदारा-ए-शरिया” नीतीश का विरोध करेगा। जदयू के मुस्लिम नेताओं को वक्फ बिल पर सांसद ललन सिंह के लोकसभा में संबोधन को लेकर आपत्ति है। मुस्लिम नेताओं का कहना है कि अब भाजपा और जदयू में कोई फर्क नहीं है।

एनडीए में रहने के बाद भी बिहार में मुसलमानों का एक वर्ग नीतीश कुमार को सेक्युलर मानता था और नीतीश के साथ जुड़ा हुआ था। पूर्व सांसद अली अनवर ने भी कहा है कि वह नीतीश के साथ इसलिए आए थे कि उनका मिजाज सेक्युलर था। पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर को नीतीश कुमार और बिहार के मुसलमानों के बीच रिश्ते की कड़ी के रूप में देखा जाता रहा है।

मुस्लिम समुदाय को याद है कि सीतामढ़ी से जदयू के सांसद देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि इस चुनाव में यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया, इसलिए वे उनका काम नहीं करेंगे। बंद मुट्ठी से जैसे रेत फिसल जाती है, वैसे ही नीतीश कुमार के हाथ से मुसलमान वोट फिसल गए हैं। सत्ता हाथ से फिसलती है या नहीं, चुनाव बाद साफ होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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क्या शहबाज शरीफ ने मुसलमानों को धोखा दिया : रजत शर्मा

असल में पाकिस्तान के मौलानाओं ने इस शांति प्लान का समर्थन करने वाली शहबाज शरीफ की हुकूमत और जनरल आसिम मुनीर के खिलाफ बगावत कर दी है।

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Saturday, 11 October, 2025
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रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।

गाजा में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शांति प्लान का पहला फेज लागू हो गया। हमास ने शांति प्लान को मंजूर कर लिया। अब गाजा में शान्ति है लेकिन पाकिस्तान में खून खराबा शुरू हो गया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ की पुलिस अपने ही लोगों पर गोलियां बरसा रही है। लाहौर में फायरिंग हो रही है, खून बह रहा है, दर्जनों लोग मारे गए हैं।

असल में पाकिस्तान के मौलानाओं ने इस शांति प्लान का समर्थन करने वाली शहबाज शरीफ की हुकूमत और जनरल आसिम मुनीर के खिलाफ बगावत कर दी है। मौलानाओं ने शहबाज शरीफ और आसिम मुनीर पर मुसलमानों को धोखा देने का इल्जाम लगाया और तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएल।पी) के मुखिया मौलाना साद रिज़वी ने इस्लामबाद में अमेरिकी दूतावास के घेराव की कॉल दे दी। इसके बाद शहबाज शरीफ की पुलिस ने आधी रात के बाद लाहौर में तहरीक-ए-लब्बैक के मुख्यालय को घेर लिया और मौलाना साद रिज़वी को गिरफ्तार करने की कोशिश की।

तहरीक-ए-लब्बैक के समर्थकों और पुलिस के बीच जबरदस्त झड़प हुई, पुलिस ने फायरिंग की। तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने पुलिस पर पलटवार किया, कई बार पुलिस को पीछे हटना पड़ा। चूंकि ये कार्यकर्ता देश के अलग-अलग हिस्सों से आए थे, जगह-जगह बिखरे हुए थे, इसलिए उन्होंने हर तरफ से पुलिस पर हमला किया जिसके बाद पुलिस के कदम वापस खींचने पड़े। लाहौर की पुलिस ने मरने वालों का आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक TLP के कम से कम तीन कार्यकर्ता मारे गए हैं।

तहरीक-ए-लब्बैक के नेताओं का कहना है कि ट्रंप ने ग़ाज़ा के लिए जो Peace Plan बनाया है, उसके बाद फिलस्तीन का वजूद खत्म हो जाएगा। उनका इल्ज़ाम है कि शहबाज शरीफ और आसिम मुनीर इस प्रस्ताव को मानकर दुनिया भर के मुसलमानों की पीठ में छुरा घोंपा है, इसे कोई पाकिस्तानी बर्दाश्त नहीं करेगा।

पाकिस्तान के लोगों को साफ दिखाई देता है कि मुनीर और शहबाज शरीफ ने अपनी दुकान चलाने के लिए ट्रंप के सामने सरेंडर कर दिया है। पाकिस्तान हमेशा फिलिस्तीन के साथ खड़ा रहा है। अब ट्रंप को खुश करने के चक्कर में मुनीर और शहबाज ने U-turn ले लिया। इसका गुस्सा पाकिस्तान की सड़कों पर दिखाई दे रहा है।

दूसरी तरफ ट्रंप इजरायल और हमास के बीच शांति योजना करवाने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं और इसे नोबेल शांति पुरस्कार पाने की दिशा में बड़ा कदम बता रहे हैं। लेकिन शुक्रवार को नोबेल शांति पुरस्कार वेनेज़ुएला की विपक्ष की नेता को देने का ऐलान कर दिया गया। पाकिस्तान सरकार ने ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए नामांकन भेजा था, पर ये कोई काम नहीं आया।

ट्रंप का दावा है कि उन्हने सात जंगें रुकवा दी और वही नोबेल शांति पुरस्कार के असली हक़दार हैं। लेकिन Nobel Peace Prize Committee के गले उनकी बात नहीं उतरी। सवाल ये है कि दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क के राष्ट्रपति को Nobel Peace Prize की इतनी तलब क्यों है?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जन्मशती वर्ष पर विशेष, पद्मश्री से अलंकृत एक देसी पत्रकार : -प्रो.संजय द्विवेदी

श्यामलाल जी अपनी जमीन को, माटी को, महतारी को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। सत्ता के साथ उनके निरंतर और व्यापक संपर्क थे। वे राजपुरुषों के साथ-साथ आम आदमी से भी समान रूप से संवाद कर सकते थे।

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Saturday, 11 October, 2025
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प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

वे होते तो इस साल सौ साल के हो जाते। इस साल उनका शताब्दी वर्ष है। सच में पद्मश्री से अलंकृत पं. श्यामलाल चतुर्वेदी की पावन स्मृति को भूल पाना कठिन है। वे हमारे समय के ऐसे नायक हैं जिसने पत्रकारिता, साहित्य और समाज तीनों क्षेत्रों में अपनी विरल पहचान बनाई।

वे छत्तीसगढ़ के ‘असली इंसान’ थे। जिन अर्थों में ‘सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया’ का नारा दिया गया होगा, उसके मायने शायद यही रहे होंगे कि ‘अच्छा मनुष्य’ होना। छत्तीसगढ़ उनकी वाणी,कर्म, देहभाषा से मुखरित होता था। बालसुलभ स्वभाव, सच कहने का साहस और सलीका, अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना- यह सारा कुछ एक साथ श्यामलाल जी ने अकेले संभव बनाया।

श्यामलाल जी अपनी जमीन को, माटी को, महतारी को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। सत्ता के साथ उनके निरंतर और व्यापक संपर्क थे। वे राजपुरुषों के साथ-साथ आम आदमी से भी समान रूप से संवाद कर सकते थे। वे अक्सर अपने वक्तव्यों में कहते थे- “आपको मेरी बात बुरी लग जाए तो आप मेरा क्या कर लेगें? वैसै ही मैं भी बुरा मान जाऊं तो आपका क्या कर लूंगा?”

उन्होंने कभी भी इसलिए कोई बात नहीं कि वह राजपुरुषों को अच्छी या बुरी लगे। उन्हें जो कहना था वे कहते थे। दिल से कहते थे। शायद इसीलिए उनकी तमाम बातें लोंगो को प्रभावित करती थीं।

श्यामलाल जी अप्रतिम वक्ता थे। मां सरस्वती उनकी वाणी पर विराजती थीं। हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में वे सहज थे। दिल की बात दिलों तक पहुंचाने का हुनर उनके पास था। वे बोलते तो हम मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते। रायपुर, बिलासपुर के अनेक आयोजनों में उनको सुनना हमेशा सुख देता था। अपनी साफगोई, सादगी और सरलता से वे बड़ी से बड़ी बात कह जाते थे।

उनकी बहुत कड़ी बात भी कभी किसी को बुरी नहीं लगती थी, क्योंकि उसमें उनका प्रेम और व्यंग्य की धार छुपी रहती थी। उनसे शायद ही कोई नाराज हो सकता था। मैंने उन्हें सुनते हुए पाया कि वे दिल से दिल की बात कहते थे। ऐसा संवाद हमेशा प्रभावित करता है। उनके वक्तव्यों में आलंकारिक शब्दावली के बजाए ‘लोक’ के शब्द होते। साधारण शब्दों से असाधारण संवाद करने की कला उनसे सीखी जा सकती थी।

उनकी देहभाषा (बाडी लैंग्वेज) उनके वक्तव्य को प्रभावी बनाती थी। हम यह मानकर चलते थे कि वे कह रहे हैं , तो बात ठीक ही होगी। वे किसी पर नाराज हों, मैंने सुना नहीं। मलाल या गुस्सा करना उन्हें आता नहीं था। हमेशा हंसते हुए अपनी बात कहना और अपना वात्सल्य नई पीढ़ी पर लुटाना उनसे सीखना चाहिए। आज जबकि हमारे बुर्जुग बेहद अकेले और तन्हा जिंदगी जी रहे हैं।

भरे-पूरे घरों और समाज में वे अकेले हैं। उन्हें श्यामलाल जी की जिंदगी से सीखना चाहिए। समाज में समरस होकर कैसे एक व्यक्ति अपनी अंतिम सांस तक प्रासंगिक बना रह सकता है, यह उन्होंने हमें सिखाया।

वे सक्रिय पत्रकारिता, लेखन कब का छोड़ चुके थे। लेकिन आप रायपुर से बिलासपुर तक उनकी सक्रियता और उपस्थिति को रेखांकित कर सकते थे। निजी आयोजनों से लेकर सार्वजनिक समारोहों तक में वे बिना किसी खास प्रोटोकाल की अपेक्षा के आते थे। अपना प्यार लुटाते, आशीष देते और लौट जाते। उनके परिवार को भी इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि कैसे उनके बड़े सुपुत्र श्री शशिकांत जी ने उनकी हर इच्छा का मान रखा।

वे खराब स्वास्थ्य के बाद भी जहां जाना चाहते थे, शशिकांत जी उन्हें लेकर जाते थे। श्यामलाल जी के तीन ही मंत्र थे- संपर्क,संवाद और संबंध। वे संपर्क करते थे, संवाद करते और बाद में उनकी जिंदगी में इन दो मंत्रों से करीब आए लोगों से उनके संबंध बन जाते थे। वे बिना किसी अपेक्षा के रिश्तों को जीते थे। उनका इस तरह एक महापरिवार बन गया था। जिसमें उनकी बेरोक-टोक आवाजाही थी।

अपने अंतिम दिनों में वे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष बने। किंतु पूरी जिंदगी उनके पास कोई लाभ का पद नहीं था। ऐसे समय में भी वे लोगों के लिए उतने ही सुलभ और आकर्षण का केंद्र थे। मुझे आश्चर्य होता था कि दिल्ली के शिखर संपादक श्री प्रभाष जोशी, मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा,दिग्विजय सिंह हों या बनारस के संगीतज्ञ छन्नूलाल मिश्र अथवा छत्तीसगढ़ के दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी या डा. रमन सिंह।

श्यामलाल जी के जीवन में सब थे। तमाम संपादक, पत्रकार, सांसद, मंत्री, विधायक उन्हें आदर देते थे। समाज से मिलने वाला इतना आदर भी उनमें लेशमात्र भी अहंकार की वृद्धि नहीं कर पाता था।

छत्तीसगढ़ देश का अकेला प्रदेश है, जिसकी समृद्ध भाव संपदा और लोकसंपदा है। उसके लिए ‘छत्तीसगढ़ महतारी’ शब्द का उपयोग भी होता है। अपनी जमीन, भूमि के लिए ‘मां’ शब्द उदात्त भावनाओं से ही उपजता है।

भारत मां के बाद किसी राज्य के लिए संभवतः ऐसा शब्द प्रयोग छत्तीसगढ़ में ही होता है। वैसे भी यह मां महामाया रतनपुर,मां बमलेश्वरी,मां दंतेश्वरी की धरती है, जहां लोकजीवन में ही मातृशक्ति के प्रति अपार आदर है। छत्तीसगढ़ महतारी भी लोकजीवन की ऐसी ही मान्यताओं से संयुक्त है।

अपनी माटी से मां की तरह प्यार करना और उसका सम्मान करना यही भाव इससे शब्द से जुड़े हैं। श्यामलाल जी का परिवेश भी लोकजीवन से शक्ति पाता है। इसलिए शहर आकर भी वे अपने गांव को नहीं भूलते, अपने लोकजीवन को नहीं भूलते। उसकी भाषा और भाव को नहीं भूलते। वे शहर में बसे लोकचिंतक थे, लोकसाधक थे। यह अकारण नहीं था वे प्रो. पी.डी खेड़ा जैसे नायकों के अभिन्न मित्र थे, क्योंकि दोनों के सपने एक थे- एक सुखी, समृद्ध छत्तीसगढ़।

आज जबकि प्रो. खेड़ा और श्यामलाल जी दोनों हमारे बीच नहीं हैं, पर वे हम पर कठिन उत्तराधिकार छोड़कर गए हैं। श्यामलाल जी अपने लोगों को न्याय दिलाना चाहते थे,वे चाहते थे कि छत्तीसगढ़ का सर्वांगीण विकास हो, यहां के लोकजीवन को उजाड़े बगैर इसकी प्रगति हो। इसलिए वे सत्ता का ध्यानाकर्षण अपने लेखन और वक्तव्यों के माध्यम से करते रहे। सही मायने में वे छत्तीसगढ़ी अस्मिता के प्रतीक और लोकजीवन में रचे-बसे नायक थे। उनका शब्द-शब्द इसी माटी से उपजा और इसी को समर्पित रहा।

जिस समाज की स्मृतियां जितनी सघन होतीं हैं, वह उतना ही चैतन्य समाज होता है। हम हमारे नायकों को समय के साथ भूलते जाते हैं। छत्तीसगढ़ की जमीन पर भी अनेक ऐसे नायक हैं जिन्हें याद किया जाना चाहिए।

मुझे लगता है कि श्यामलाल जी जैसे नायकों की याद ही हमारे समाज को जीवंत, प्राणवान, संवेदनशील और मानवीय बनाने की प्रक्रिया को और तेज करेगी। उनके शताब्दी वर्ष पर छत्तीसगढ़ के मित्र उन्हें याद करेगें तो उनकी स्मृति हमें और समृद्ध करेगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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साइबर क्राइम को लेकर जागृति जरूरी: रजत शर्मा

आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 20 परसेंट ऑनलाइन गेमर भारत में हैं, करीब 59 करोड़ भारतीय ऑनलाइन गेमिंग करते हैं, इसलिए साइबर अपराधों का सबसे ज्यादा शिकार लोग भारत में ही होते हैं।

Last Modified:
Tuesday, 07 October, 2025
cyberattack

रजत शर्मा, एडिटर-इन- चीफ, चेयरमैन, इंडिया टीवी।

सुपरस्टार अक्षय कुमार ने खुलासा किया कि उनकी बेटी भी ऑनलाइन गेम के चक्कर में साइबर अपराधियों का शिकार होते-होते बची। साइबर क्राइम के खिलाफ मुंबई पुलिस के जागरूकता अभियान का शुभारंभ करते हुए अक्षय कुमार ने अपने घर में हुई घटना का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि उनकी 13 साल की बेटी ऑनलाइन वीडियो गेम खेल रही थी।

इसी दौरान गेम खेल रहे एक अनजान पार्टनर ने उनकी बेटी से उसकी न्यूड फोटो मांगी। अक्षय कुमार ने कहा कि उन्होंने बच्चों को इस तरह के अपराधियों के बारे में बताया था, इसीलिए जैसे ही बेटी से इस तरह की डिमांड की गई तो उसने सिस्टम बंद कर दिया और अपनी मां को सारी बात बताई।

लेकिन कुछ बच्चे इस तरह के अपराधियों के चक्कर में फंस जाते हैं, घर में किसी के साथ कोई बात शेयर नहीं करते और फिर साइबर अपराधी बच्चों को ब्लैकमेल करते हैं।मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि साइबर अपराधियों का टारगेट ज्यादातर किशोर ही होते हैं, इसलिए बच्चों में जागरूकता पैदा करना जरूरी है।

अक्षय कुमार की ये बात सही है कि ऑनलाइन गेम के चक्कर में ज्यादातर बच्चे ही अपराधियों के शिकार बनते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 20 परसेंट ऑनलाइन गेमर भारत में हैं, करीब 59 करोड़ भारतीय ऑनलाइन गेमिंग करते हैं, इसलिए साइबर अपराधों का सबसे ज्यादा शिकार लोग भारत में ही होते हैं। ऑनलाइन गेम सिर्फ ठगी और ब्लैकमेलिंग का जरिया ही नहीं हैं। इसकी वजह से बच्चों में IGD यानी इंटरनेट गेमिंग डिसऑर्डर बड़ी बीमारी बन गई है।

करीब 9 परसेंट छात्र इससे पीड़ित हैं। इन छात्रों में नींद न आने, पढ़ाई में कमजोर होने और बात-बात पर गुस्सा होने के लक्षण दिखते हैं। भारत में ऑनलाइन गेमिंग के चक्कर में लोग हर साल 20 हजार करोड़ रुपये गंवाते हैं। कई मामलों में आत्महत्या तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। सिर्फ कर्नाटक में ऑनलाइन गेमिंग के कारण खुदकुशी के 32 मामले सामने आए। ऑनलाइन गेमिंग एक महामारी बन चुका है। कई देशों में इसके खिलाफ सख्त कानून बनाए गए हैं। ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया को पूरी तरह बैन कर दिया है।

फ्रांस में अगर बच्चे की उम्र 15 साल से कम है तो सोशल मीडिया पर अकाउंट खोलने के लिए माता-पिता की सहमति लेना जरूरी है, जबकि जर्मनी ने इसके लिए 16 साल की उम्र तय की है। ब्रिटेन में ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट के तहत बच्चों की सुरक्षा के लिए सख्त मानक तय किए गए हैं।

भारत में ऑनलाइन मनी गेम्स पर पाबंदी लगा दी गई है। एक अक्टूबर से ये कानून लागू हो गया है। लेकिन मनी गेम्स के अलावा दूसरे ऑनलाइन गेम्स आज भी चल रहे हैं जिनके जरिए अपराध होते हैं। मेरा मानना है कि ऑनलाइन गेम्स के खिलाफ कानून बनना चाहिए, लेकिन कानून बनने से समस्या खत्म हो जाएगी, साइबर अपराध बंद हो जाएंगे, इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस तरह के अपराधों को रोकने का एक ही उपाय है, जागरूकता और बच्चों का मां-बाप पर भरोसा, कि वो अपनी हर बात माता-पिता के साथ शेयर कर सकें।

अक्षय कुमार की बेटी समझदार है। वो जाल में नहीं फंसी। उसने अपने मां-बाप को समय रहते बता दिया। लेकिन सारे बच्चे ऐसे नहीं होते। ऑनलाइन गेमिंग के दो पहलू हैं, एक – ऑनलाइन गेमिंग के जरिए लोगों को लूटा जा रहा था जिसके कारण लखनऊ में किशोर ने आत्महत्या की। पहले भी ऐसे कई केस हो चुके हैं। हालांकि मनी गेम्स पर अब सरकार ने रोक लगा दी है। लेकिन गेमिंग के बहाने लड़कियों को जाल में फंसाने का सिलसिला जारी है। इससे बचने के लिए बच्चों के साथ-साथ मां-बाप को भी जागरूक बनाने की जरूरत है।

जितने बड़े पैमाने पर नाबालिग बच्चों के साथ साइबर ठगी और जालसाजी के मामले सामने आ रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि स्कूल लेवल पर शिक्षकों और छात्रों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता है। मीडिया की भी एक बड़ी जिम्मेदारी है कि ऐसे मामलों का पर्दाफाश करें, और बार-बार लोगों को जानकारी दे कि साइबर अपराधों से कैसे बचा जा सकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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बेरोजगारी कैसे मिटेगी? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है। यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। AI भी नौकरियाँ ले सकता है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

आप कोई भी सर्वे उठाकर देख लीजिए, लोगों की सबसे बड़ी चिंता रोज़गार है। इंडिया टुडे मूड ऑफ द नेशन में साल दर साल 70% से ज़्यादा लोग रोज़गार को लेकर चिंता जताते रहते हैं, किसी भी चुनाव से पहले पार्टियाँ रोज़गार देने का वादा करती हैं लेकिन समस्या अगले चुनाव में भी बनी रहती है। आख़िर इसका तोड़ क्या है?

पहले रोज़गार को लेकर कुछ आँकड़े समझ लीजिए। काम करने योग्य आबादी (15–64 साल) लगभग 96 करोड़ है, काम करने या ढूँढने में लगे लोग (लेबर फोर्स) करीब 55% यानी लगभग 55 करोड़ हैं, इनमें काम कर रहे लोग 50–52 करोड़ हैं जिनमें आधे लोग खेती-किसानी में लगे हैं। नियमित सैलरी वाली नौकरी सिर्फ 12–13 करोड़ में उपलब्ध हैं जबकि सरकारी नौकरी वालों की संख्या मात्र 1.5 करोड़ है।

बेरोज़गार लोग (काम खोज रहे) लगभग 3–4 करोड़ यानी 3–5% हैं, और युवाओं में बेरोज़गारी करीब 17% तक पहुँच चुकी है। मॉर्गन स्टैनली की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले वर्षों में भारत में 8.4 करोड़ नौकरियों की ज़रूरत होगी, अब यह नौकरियाँ आएँगी कहाँ से? इसके जवाब में रिपोर्ट कहती है कि अर्थव्यवस्था को 12% की रफ़्तार से ग्रो करना होगा जबकि अभी रफ़्तार 6-7% के बीच है।

यह भी कहा गया है कि अभी जिस रफ़्तार से चल रहे हैं उससे चलते रहे तो बेरोजगारी और बढ़ जाएगी। अभी का स्तर बनाए रखने के लिए भी 9% ग्रोथ की ज़रूरत होगी। यहाँ यह ध्यान रहे कि एआई भी नौकरियाँ ले सकता है। मॉर्गन स्टैनली ने जो उपाय सुझाए हैं उसमें एक्सपोर्ट बढ़ाना शामिल है क्योंकि दुनिया के बाज़ार में हमारा हिस्सा डेढ़ प्रतिशत है।

अमेरिका ने अड़ंगा डाला है तो हमें दूसरे देशों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, इसके अलावा इन्फ़्रास्ट्रक्चर, मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर ज़ोर दिया गया है। सरकार इन सब सेक्टर पर ध्यान दे रही है लेकिन ध्यान डबल देने की ज़रूरत नहीं है, बेरोज़गारी दूर करने के लिए डबल ग्रोथ की ज़रूरत है। नहीं तो विकसित भारत जुमला बनकर रह जाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सबरीमाला मंदिर की आस्था से खिलवाड़ : अनंत विजय

केरल के सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह की स्वर्णसज्जा 25 वर्षों में पीतल में बदल गई? भगवान अयप्पा के मंदिर से सोना चोरी की घटना के बाद राजनीति तेज हो गई है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

केरल में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्टों के गठबंधन ने केरल में सरकार बनाई। पी विजयन मुख्यमंत्री बने। उनके नेतृत्व में कम्युनिस्ट गठबंधन तीसरी बार राज्य में सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी वामपंथी गठबंधन को चुनावी मात देकर दस साल बाद सत्ता में वापसी के मंसूबे पाले बैठी है।

भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से केरल की राजनीति में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में लगी है। चुनाव की आहट के साथ त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने पिछले महीने वैश्विक अयप्पा संगमम का आयोजन किया। घोषित तौर पर इस संगमम का उद्देश्य सबरीमाला मंदिर की महिमा का वैश्विक स्तर पर विस्तार करना था। केरल के राजनीतिक दलों ने कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगाया कि हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए संगमम का आयोजन किया गया।

संगमम की चर्चा के बीच सबरीमाला मंदिर प्रशासन एक अन्य कारण से विवाद में घिर गया। सबरीमाला मंदिर से करीब पांच किलो सोना चोरी होने की आशंका है। इस समाचार के बाहर आते ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी केरल की कम्युनिस्ट सरकार पर हमलावर है। सरकार ही त्रावणकोर देवोस्थानम बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करती है। बोर्ड की स्थापना तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के अलावा मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा के लिए की गई थी।

सबरीमाला मंदिर से पांच किलो सोना गायब होने का मामला केरल और दक्षिण भारत में इन दिनों खूब चर्चा में है। मंदिर प्रशासन पर आरोप लग रहे हैं मंदिर के गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की मूर्ति और अन्य जगहों पर मढ़े गए सोने का वजन उसकी सफाई या बदलाव के दौरान पांच किलो कम हो गया। पूरा मामला इस तरह से है।

1998-99 में कारोबारी विजय माल्या, जो इन दिनों आर्थिक अपराध के आरोप में देश से फरार हैं, ने सबरीमाला मंदिर में 30 किलो सोने का चढ़ावा दिया था। उस समय ये बात सामने आई थी कि मंदिर प्रशासन ने उस सोना का उपयोग गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की प्रतिमा को स्वर्णसज्जित करने में किया था। करीब बीस वर्षों के बाद जब त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने मंदिर के रखरखाव के लिए स्वर्ण परतों को हटाया तो पता चला कि वो सोने का नहीं था।

अब इस बात की जांच की जा रही है कि सोना लगाते समय ही उसकी जगह किसी अन्य धातु का उपयोग किया गया था या बाद में उसको बदला गया। इस तरह की बात भी आ रही है कि गर्भगृह की दीवारों पर लगी स्वर्ण परतों को साफ सफाई के लिए चेन्नई भेजा गया था। जब वहां से प्लेट्स वापस आईं तो उसका वजन करीब पांच किलो कम था।

त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड की विजिलेंस टीम ने कार्यालय से दस्तावेज जब्त किए हैं। अब इन दस्तावेजों और उनकी प्रामाणिकता पर भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। संपत्तियों की रजिस्टर में एंट्री पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। केरल हाईकोर्ट ने पूर्व हाईकोर्ट जज की देखरेख में मंदिर की संपत्ति का ब्योरा जुटाने का आदेश दिया है। केरल हाईकोर्ट ने त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड को सही तरीके से रिकार्ड नहीं रख पाने के लिए लताड़ लगाई है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने केरल हाईकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच की मांग की है।

जिस तरह के समाचार केरल से आ रहे हैं उससे तो ये प्रतीत होता है कि सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में और उसके बाहर लगी मूर्तियों की स्वर्णसज्जा के साथ छेड़छाड़ की गई है। आरोप ये भी लग रहे हैं कि सोने को निकालकर उसकी जगह पीतल से सज्जा कर दी गई। ये खबरें सिर्फ एक सामान्य चोरी की खबर नहीं है बल्कि भगवान अयप्पा के भक्तों की श्रद्धा पर डाका जैसा है।

केरल की कम्युनिस्ट सरकार की जिम्मेदारी है कि वो दोषियों को जल्द से जल्द पकड़कर मंदिर के सोने की बरामदगी करवाए। मंदिर की फिर से स्वर्णसज्जा हो। भगवान अयप्पा के भक्त सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे भारत और विश्व के अन्य देशों में भी हैं। सबकी आस्था और श्रद्धा इस मंदिर से जुड़ी हुई है। जैसे जैसे इस चोरी की परतें खुल रही हैं हिंदू श्रद्धालुओं के अंदर क्षोभ बढ़ता जा रहा है।

निश्चित है कि भगवान अयप्पा मंदिर से सोना चोरी चुनावी मुद्दा भी बनेगा। आपको याद होगा कि ओडीशा विधानसभा चुनाव के दौरान भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार की चाबी को लेकर विवाद हुआ था। कोर्ट के आदेश के बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की संपत्तियों की जांच और उसकी सूची को लेकर रत्न भंडार खोला गया था। जब इस कार्य को कर रहे लोग रत्न भंडार तक पहुंचे तो वहां ताला बंद था।

उस ताले की चाबी की तलाश की गई। चाबी नहीं मिली। जब 1978 में भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार का सर्वे हुआ तो वहां 149 किलो स्वर्ण आभूषण और 258 किलो के चांदी के बर्तनों की सूची बनी थी। उसके बाद 2018 में फिर से सर्वे का प्रयास हुआ तो चाबी ही नहीं मिल पाई। विधानसभा चुनाव के दौरान रत्न भंडार की चाबी गायब होने का मुद्दा बड़ा हो गया था।

नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली राज्य सरकार कठघरे में आ गई थी। भगवान जगन्नाथ और भगवान अयप्पा में हिंदुओं की आस्था इतनी गहरी है कि उसको जब भी ठेस लगती है तो जनता अपनी प्रतिक्रिया देती है। ओडिशा में नवीन पटनायक की हार का एक बड़ा कारण रत्न भंडार की चाबी का ना मिलना भी बना।

इन दो उदाहरणों से मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। भक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने आराध्य को भेंट अर्पित करते हैं। जिनपर भक्तों की भेंट को सुरक्षित रखने का दायित्व है वो उसका निर्वहन ठीक तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो उसको लेकर सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा। विचार तो इसपर भी करना चाहिए कि मंदिरों की संपत्ति का कस्टोडियन सरकार हो या हिंदू समाज।

इससे संबंधित एक एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिससे प्रभु की संपत्ति में सेंध ना लग सके। क्या अब समय आ गया है कि मंदिरों का प्रबंधन सरकार को हिंदू समाज को सौंप देना चाहिए। कोई ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सरकार और हिंदू समाज साथ मिलकर मंदिरों की संपत्ति की रक्षा कर सकें। आप इस बात की कल्पना करिए कि अगर भगवान अयप्पा के गर्भगृह की स्वर्ण सज्जा को हटाकर उसको पीतल से आच्छादित कर दिया गया तो इसके पीछे कितनी गहरी साजिश रही होगी।

कितने लोगों की मिलीभगत रही होगी तब जाकर इस पाप को किया जा सका होगा। अगर ये साबित हो जाता है कि सोना चोरी करके वहां पीतल लगा दिया गया तो भक्तों की आस्था को कितनी ठेस पहुंचेगी। हिंदू समाज को अपनी आस्था के इन केंद्रों की सुरक्षा को लेकर संगठित होकर एक कार्ययोजना पेश करना होगा, ताकि सरकार उसपर विचार कर सके। दोनों की सहमति से कोई ठोस निर्णय लिया जा सके। समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मंदिर प्रबंधन को लेकर राष्ट्रव्यापी नीति बनाने की आवश्यकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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परदेस में बदनाम करते नेता और रोशन करते असली हिंदुस्तानी : आलोक मेहता

राहुल गांधी ने विदेश मंचों पर आरोप लगाए कि भारत में आज़ादी की आवाज़ दबाई जा रही है, विपक्षी आवाज़ों को प्रताड़ित किया जा रहा है, और संस्थागत आज़ादी खतरे में है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
rahulgandhi

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पद्मश्री।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस बार भी कोलंबिया और अन्य लैटिन अमेरिकी देशों की विदेश यात्राओं के दौरान में भारत के लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था को लेकर कई गंभीर अनर्गल बयान दिए। उन्होंने दावा किया कि भारत का लोकतंत्र ख़त्म हो गया है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दबाई जा रही है, और अर्थव्यवस्था संकट में है। लेकिन आंकड़ों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टों को देखें, तो वास्तविकता पूरी तरह उनसे भिन्न नज़र आ सकती है।

राहुल गांधी ने विदेश मंचों पर आरोप लगाए कि भारत में आज़ादी की आवाज़ दबाई जा रही है, विपक्षी आवाज़ों को प्रताड़ित किया जा रहा है, और संस्थागत आज़ादी खतरे में है। उन्होंने यह दावा किया कि आज भारत की अर्थव्यवस्था में निवेश कम हो गया है, बेरोजगारी बढ़ रही है, और महंगाई नियंत्रण से बाहर है।

उनका यह आरोप है कि सरकार आर्थिक और सामाजिक असमानता को बढ़ा रही है, नीतियाँ केवल कुछ वर्गों को लाभ पहुँचाती हैं। विदेशों में वह यह कहते हैं कि भारत एक अधिनायकवादी स्वीकार्यता की ओर बढ़ रहा है, और प्रधानमंत्री मोदी की सरकार लोकतंत्र को क्षीण कर रही है। इन आरोपों को यदि गंभीरता से लिया जाए, तो उनका निहितार्थ केवल राजनीतिक लाभ लेना और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को कमजोर करना है।

दूसरी तरफ भारत के प्रवासी भारतीय न केवल विदेशों में अपनी मेहनत, प्रतिभा और नवाचार से विकसित देशों की प्रगति में योगदान दे रहे हैं, बल्कि भारत की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक छवि को भी मज़बूती प्रदान कर रहे हैं। विश्व के कोने-कोने में बसे भारतीय आज विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे हैं। तकनीक, उद्योग, वित्त, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति हर क्षेत्र में प्रवासी भारतीयों का दबदबा बढ़ता जा रहा है।

यही कारण है कि उन्हें भारत की “सॉफ्ट पावर” का सबसे प्रभावशाली प्रतिनिधि माना जाता है। प्रवासी भारतीयों की संख्या लगभग 3.5 करोड़ मानी जाती है, जो अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मध्य पूर्व और यूरोप जैसे देशों में फैले हुए हैं। उनकी मेहनत ने विकसित देशों को आर्थिक मजबूती दी है और भारत को गर्व व पहचान।

वास्तविकता यह है कि भारत का संविधान आज भी देश की सर्वोच्च शक्ति है, जो न्यायालय, चुनाव आयोग, निर्वाचन अधिकारियों और स्वतंत्र मीडिया जैसे स्तंभों को मान्यता देता है। देश में लगातार चुनाव हो रहे हैं। कई राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं और वे केंद्र की मोदी सरकार से विभिन्न मुद्दों पर टकरा रही हैं। यदि लोकतंत्र वास्तव में कमजोर हुआ होता, तो ये संस्थाएँ खुली आलोचना और वैधानिक पुनरावलोकन से बच नहीं पातीं।

मीडिया आज भी भारत में सरकार की आलोचना कर सकती है। नकारात्मक रिपोर्ट, विरोधी स्टैंड, जन–आंदोलनों की रिपोर्टिंग आज भी समाचार पत्रों एवं डिजिटल मीडिया में होती है। यदि लोकतंत्र कमजोर हुआ होता, तो ऐसे मीडिया पर पूरी तरह अंकुश लगा दिया जाता।

सरकार या भाजपा के दावे नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जुलाई 2025 की अपनी रिपोर्ट में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 6.4% रहने का अनुमान लगाया। रिपोर्ट के अनुसार भारत 2025 और 2026 दोनों वर्षों में 6.4% की वृद्धि दर दर्ज कर सकता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत 2025 में जापान को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।

रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि 2022 से 2024 के बीच भारत की औसत वास्तविक जी डी पी वृद्धि 8.8% थी, जो एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में सबसे अधिक है। भारत को वैश्विक व्यापार तनाव, अमेरिकी टैरिफ वृद्धि और निवेश अस्थिरता जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका ने अगस्त 2025 से भारत से आयात पर 50% तक शुल्क लगा दिया। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था ने इन बाहरी झटकों को अनुकूल परिस्थिति में समाहित किया है। अंदरूनी खपत और निवेश की मजबूती ने स्थिरता बनाए रखी।

अमेरिका की तकनीकी और आर्थिक प्रगति में भारतीय मूल के लोगों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। सिलिकॉन वैली की लगभग 30% स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना भारतीय मूल के उद्यमियों ने की है। गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला, एडोबी के शांतनु नारायण जैसे नेता यह प्रमाणित करते हैं कि भारतीय प्रतिभा ने अमेरिका को नई दिशा दी है।

भारतीय डॉक्टरों, इंजीनियरों और प्रोफेसरों ने अमेरिका की स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली को मज़बूती प्रदान की है। अमेरिका या यूरोप में नीतियां बदलने पर कई बड़े उद्यमी और युवा लोग भारत वापस आकर अपना उद्यम शुरु कर रहे हैं। लक्ष्मी मित्तल जैसे सम्पन्नतम उद्यमी ने दिल्ली में अपने लिए महंगा बंगला तक खरीद लिया है।

भारत सरकार भी प्रवासी भारतीयों के योगदान को पहचान रही है। सरकार न केवल उनके सम्मान को बढ़ावा देती है, बल्कि भारत में निवेश और नवाचार की संभावनाओं को भी प्रोत्साहन देती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि प्रवासी भारतीय भारत के “राष्ट्रीय दूत” हैं। भविष्य में एनआरआई भारत की आर्थिक वृद्धि, तकनीकी विकास और वैश्विक छवि निर्माण में और बड़ी भूमिका निभाएंगे। स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं में प्रवासी भारतीय पूंजी और अनुभव दोनों प्रदान कर सकते हैं।

ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग राजनीति और व्यवसाय दोनों में शीर्ष स्थान पर हैं। ऋषि सुनक का एक बार ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना न केवल वहां की राजनीति में भारतीयों की स्वीकृति को दर्शाता है, बल्कि विश्व पटल पर भारतीय मूल की क्षमताओं की पहचान को भी मजबूत करता है। लंदन में बसे बड़े भारतीय कारोबारी समूहों ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया है।

कनाडा की संसद में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के सांसद हैं। वहीं ऑस्ट्रेलिया में आईटी और शिक्षा क्षेत्र में भारतीय युवाओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। खाड़ी देशों की निर्माण और सेवाक्षेत्र की अर्थव्यवस्था में भारतीय कामगारों और उद्यमियों की मेहनत का गहरा असर है। दुबई और अबूधाबी जैसे शहरों के विकास में भारतीय इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स और उद्यमियों का योगदान ऐतिहासिक माना जाता है। भारतीय आद्योगिक समूह टाटा, अम्बानी, अडानी न केवल एशिया में वरन अन्य यूरोपीय, अमेरिका, अफ्रीका में पूंजी लगाकर अपनी उपस्थिति की साख बढ़ा रहे हैं।

प्रवासी भारतीय केवल विदेशों में नाम रोशन नहीं कर रहे, बल्कि भारत में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर देश की अर्थव्यवस्था को गति दे रहे हैं। एनआरआई द्वारा भारत में हर साल अरबों डॉलर का रिमिटेंस (विदेश से भेजी गई धनराशि) आता है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का विकास होता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सबसे अधिक रिमिटेंस पाने वाला देश है।

इसके अलावा, प्रवासी भारतीय भारत में स्टार्टअप, रियल एस्टेट, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं और भारत वैश्विक निवेश मानचित्र पर अग्रणी बन रहा है।

हिंदुजा समूह विश्व के सबसे बड़े और प्रभावशाली कारोबारी समूहों में से एक है। इनका कारोबार वित्त, ऑटोमोबाइल, ऊर्जा, आईटी, स्वास्थ्य और रियल एस्टेट जैसे कई क्षेत्रों में फैला हुआ है। हिंदुजा बंधुओं की कुल संपत्ति सैकड़ों अरब डॉलर में आंकी जाती है।

भारत में उन्होंने बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश कर देश की छवि को मजबूत किया है। स्टील के बादशाह कहे जाने वाले लक्ष्मी मित्तल दुनिया के सबसे बड़े स्टील निर्माता “आर्सेलर मित्तल” के अध्यक्ष हैं। उन्होंने यूरोप और अमेरिका में स्टील उद्योग को नई ऊंचाई दी।

भारत में भी मित्तल ने ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में निवेश किया। उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान ने भारत की औद्योगिक छवि को वैश्विक स्तर पर नई पहचान दी। यद्यपि अंबानी और अदानी एनआरआई नहीं हैं, लेकिन उनके कारोबारी साम्राज्य में प्रवासी भारतीयों के बड़े निवेश हैं। अरब देशों और यूरोप में बसे भारतीय निवेशकों ने इन समूहों के प्रोजेक्ट्स में पूंजी लगाई है।

भारत की आईटी क्रांति में प्रवासी भारतीयों ने न केवल निवेश किया बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को ब्रांड बनाया। अमेरिका और यूरोप में बसे भारतीय आईटी पेशेवरों की मेहनत ने भारत को “विश्व की आईटी हब” का दर्जा दिलाया।

प्रवासी भारतीयों ने भारत की पहचान को केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और कूटनीतिक स्तर पर भी मजबूत किया है। वे भारत की संस्कृति, योग, आयुर्वेद और अध्यात्म को विश्व के कोने-कोने में पहुंचा रहे हैं। भारतीय त्योहार, दीवाली, होली, गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा आज अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में धूमधाम से मनाए जाते हैं।

विश्व राजनीति में भारतीय मूल के नेताओं का उदय भी भारत की छवि को मजबूत कर रहा है। चाहे वह अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस हों, या कनाडा की संसद में बैठे भारतीय सांसद सभी भारत की साख बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति और मीडिया शिक्षा का भविष्य : प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी

जनसंचार का सबसे प्राचीन उदाहरण तो हमारे धर्मग्रंथों में देवर्षि नारद द्वारा सूचनाओं के सम्‍प्रेषण और महाभारत में संजय द्वारा धृतराष्‍ट्र के लिए युद्ध के सीधे प्रसारण में ही देखने को मिल जाता है।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
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प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली।

जनसंचार हमारे समाज की एक ऐसी आवश्‍यकता है, जिस पर इसका विकास, प्रगति और गतिशीलता सर्वाधिक निर्भर करती है। एक विषय के तौर पर यह भले ही नया प्रतीत होता हो, लेकिन समाज के एक अभिन्‍न अंग के रूप में यह शताब्‍दियों से हमारे साथ विद्यमान रहा है और एक समाज के तौर पर हमें हमेशा मजबूती, गति व दिशा देता रहा है। फर्क यही आया है कि पहले जनसंचार एक नैसर्गिक प्रतिभा होता था, अब एक कौशल बन गया है, जिसे प्रशिक्षण से विकसित किया जा सकता है।

पारिभाषिक रूप से जनसंचार वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत सूचनाओं को पाठ्य, श्रव्‍य या दृश्‍य रूप में बड़ी संख्‍या में लोगों तक पहुंचाया जाता है। आम तौर पर इस कार्य के लिए समाचार पत्र- पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, सोशल नेटवर्किंग, न्‍यूज पोर्टल आदि विभिन्न माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। पत्रकारिता, विज्ञापन, इवेंट मैनेजमेंट और जनसंपर्क, जनसंचार के कुछ लोकप्रिय स्‍वरूप हैं।

सदियों से अस्तित्‍व में है जनसंचार

अगर हम इतिहास की बात करें तो जनसंचार का सबसे प्राचीन उदाहरण तो हमारे धर्मग्रंथों में देवर्षि नारद द्वारा सूचनाओं के सम्‍प्रेषण और महाभारत में संजय द्वारा धृतराष्‍ट्र के लिए युद्ध के सीधे प्रसारण में ही देखने को मिल जाता है। यद्यपि आधुनिक युग के हिसाब से जनसंचार का विधिवत आगमन 15वीं सदी के अंत में माना जा सकता है, जब गुंटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का आविष्‍कार किया और शब्‍दों के लिखित रूप को जन-जन तक पहुंचाने में एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसके करीब एक शताब्‍दी बाद, वर्ष 1604 में जर्मनी में पहले मुद्रित समाचार पत्र ‘रिलेशन एलर फर्नेममेन एंड गेडेनक्वुर्डिगेन हिस्टोरियन’ से इसे एक संस्‍थागत स्‍वरूप मिला। इसके बाद वर्ष 1895 में मार्कोनी ने रेडियो की खोज कर शब्‍दों का श्रव्‍य रूप लोगों तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्‍त किया और वर्ष 1925 में जॉन लोगी बेयर्ड ने दुनिया को टेलीविजन के रूप में ऐसी सौगात दी, जिसने शब्‍दों और ध्‍वनियों के साथ-साथ दृश्‍यों को भी हम तक पहुंचाया।

इंटरनेट ने संचार को दी नई ताकत

संचार की दुनिया में सबसे बड़ी क्रांति का सूत्रपात 1990 में ‘वर्ल्‍ड वाइड वेब’ यानि इंटरनेट की खोज से हुआ। यह एक ऐसी सुविधा थी, जिसने एक साधारण व्‍यक्ति को भी संचारक बनने का अवसर उपलब्‍ध कराया। बीते 30 सालों में इसमें बहुत बदलाव आए हैं और संचार पहले की तुलना में काफी सुगम, सुलभ, सस्‍ता और द्रुतगति वाला हो गया है। आज लाखों लोग, बहुत कम बजट में और बहुत कम वक्‍त में अपनी बात दुनिया के करोड़ों लोगों तक पहुंचाने में सक्षम हैं। अनुमान है कि ऐसे लोगों की संख्‍या चार खरब से भी ज्‍यादा है, जो इंटरनेट या WWW तक पहुंच रखते हैं।

जनसंचार के इसी फैलते क्षेत्र और व्‍यापक प्रभाव ने इसे एक अकादमिक अध्‍ययन का विषय बनाया है और आज यह व्‍यावसायिक शिक्षा के अंतर्गत पढ़े जाने वाले सर्वाधिक पसंदीदा विषयों में से एक है। आज दुनिया के लगभग सभी प्रमुख विश्‍वविद्यालयों और विभिन्‍न शैक्षणिक संस्‍थानों में जनसंचार अथवा मास कम्‍युनिकेशन को स्‍नातक, स्‍नातकोत्तर उपाधि पाठ्यक्रम या स्‍नातकोत्तर डि‍प्‍लोमा पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जाता है और इनसे हर साल हजारों की संख्‍या में पत्रकार, जनसंपर्क एवं विज्ञापन विशेषज्ञ तथा संचारक प्रशिक्षित होते हैं और विभिन्‍न संस्‍थानों से जुड़कर अपनी कैरियर यात्रा आरंभ करते हैं।

राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति और जनसंचार

शिक्षा के क्षेत्र में इक्विटी (भागीदारी), अफोर्डेबिलिटी (किफायत), क्वालिटी (गुणवत्ता), एक्सेस (सब तक पहुंच) और अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) सुनिश्चित करने के लिए हमारे प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्‍व वाली केंद्र सरकार ने वर्ष 2020 में नई राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति पेश की थी। शिक्षा को सुलभ, सरल और अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्‍य से इसमें कई नए प्रावधान सम्मिलित किये गये हैं। हालांकि इसमें स्‍पष्‍ट रूप से मीडिया व जनसंचार जैसे विषयों का उल्‍लेख नहीं किया गया है। लेकिन, सच तो यह है कि ऐसे बहुत सारे विषय हैं, जो प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से मीडिया या कम्‍युनिकेशन पर निर्भर हैं।

जनसंचार में प्रौद्योगिकी के प्रवेश ने इसके प्रभाव क्षेत्र को बहुत व्‍यापक और विस्‍तृत कर दिया है। लेकिन, जिस तरह से बीते दो दशकों में मीडिया के क्षेत्र में प्रशिक्षण संस्‍थानों की संख्‍या में जो कल्‍पनातीत वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए यह बहुत आवश्‍यक हो गया है कि इसमें भी जवाबदेही और गुणवत्‍ता सुनिश्चित करने पर विचार किया जाए। मीडिया और जनसंचार लगभग सौ सालों से एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। इन सौ सालों में समाज के स्‍वरूप, स्‍वभाव, अपेक्षाओं और आवश्‍यकताओं में बहुत बदलाव आया है। इस बदलती हुई दुनिया के अनुरूप पत्रकारिता के प्रशिक्षण में भी बदलाव आवश्‍यक हैं।

नया मीडिया : संभावनाएं और चुनौतियां

21वीं सदी में जिस मीडिया उदय हुआ है, वह प्रिंट, टीवी या रेडियो तक सीमित नहीं है। इंटरनेट की पहुंच और प्रभाव ने मीडिया को बहुत सारी नई चीजें दी हैं, जिनमें समृद्धि और सफलता के लिए बहुत सारी नई संभावनाएं उत्‍पन्‍न हुई हैं। ऑनलाइन एजुकेशन, गेमिंग, एनिमेशन, ओटीटी, मल्‍टीमीडिया, ब्‍लॉकचेन, मेटावर्स जैसे ऐसे अनेक विकल्‍प हैं, जिनमें प्रशिक्षित पेशेवरों की बहुत जरूरत है।

ये वे क्षेत्र हैं, जिनके विशाल बाजार और भविष्‍य की संभावनाओं के आकलन अचंभित करते हैं। उदाहरण के लिए वीडियो गेमिंग को ही लें इसके व्यवसाय के वर्ष 2030 तक 583.69 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है।

इसी प्रकार, एनिमेशन इंडस्‍ट्री है। एनिमेशन मार्केट 2030 तक बढ़कर 587.1 बिलियन डॉलर हो जायेगा। ओटीटी वीडियो भी ऐसा ही तेजी से बढ़ता हुआ मार्केट है, जिसके यूजर्स की संख्‍या 2027 तक बढ़कर 4216.3 मिलियन हो जायेगी। जाहिर है कि जब बाजार इतना बड़ा है, तो इसे संभालने के लिए इतनी ही बड़ी संख्‍या में कुशल व प्रशिक्षित प्रतिभाओं की आवश्‍यकता भी पड़ेगी। इस जरूरत को पूरा करने में मीडिया और जनसंचार प्रशिक्षण संस्‍थान काफी सशक्‍त योगदान दे सकते हैं।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने इस आवश्‍यकता को अनुभव करते हुए काफी पहले से ही काम आरंभ कर दिया था। वर्ष 2011 में ‘न्यू मीडिया मीडिया विभाग’ आरंभ एक बड़ा कदम था। 2022 में भारतीय जन संचार संस्थान ने भी डिजिटल मीडिया का पाठ्यक्रम प्रारंभ किया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कौशल विकास और आत्मनिर्भर बनने पर काफी जोर दिया गया है। जनसंचार की शिक्षा में भी हमें इसी का ध्‍यान रखते हुए अपेक्षित बदलाव लाने होंगे, तभी हम परिवर्तन के साथ सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होंगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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'FOLK भारत' सीजन 1 का धमाकेदार समापन : विजेता वीरसेन को 5 लाख का इनाम

भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा ने FOLK भारत के अगले चार सीज़नों की आधिकारिक घोषणा की है। यह सफर अब और भी व्यापक व भव्य रूप लेगा।

Last Modified:
Monday, 06 October, 2025
folkbharat

भारत की समृद्ध लोक-संस्कृति और परंपराओं को पुनर्जीवित करने वाले मंच “FOLK भारत” के पहले सीजन का भव्य समापन हुआ। इस मंच ने भारत की मिट्टी से जुड़ी आत्मा को न केवल सजाया, बल्कि उसे देश के कोने-कोने तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया। ग्रैंड फिनाले में कुल 6 प्रतिभागियों ने अपने सुरों और लोककला की अद्भुत प्रस्तुति से समां बाँधा। इनमें 4 प्रतिभागी उत्तर प्रदेश से और 2 प्रतिभागी बिहार से थे।

फाइनल राउंड में तीन प्रतिभागियों ने जगह बनाई, जिनमें विजेता वीरसेन को 5 लाख रुपये का पुरस्कार, प्रथम रनर-अप समरेश चौबे (बिहार) को 3 लाख रुपये तथा द्वितीय रनर-अप नीरज प्रजापति (कुशीनगर, यूपी) को 2 लाख रुपये मिले। कार्यक्रम का संचालन मशहूर अभिनेत्री अक्षरा सिंह ने अपने ऊर्जावान और प्रभावशाली अंदाज़ में किया, जबकि जज की भूमिका में प्रसिद्ध गायक आलोक कुमार और भजन गायिका स्वाती मिश्रा ने प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया।

इसके अलावा, कार्यक्रम में देश के कई नामचीन कलाकारों ने गेस्ट जज के रूप में शिरकत की, जिनमें वंदना भारद्वाज, प्रिया मलिक, त्रिप्ती शाक्य, अंशुमान सिन्हा, मालिनी अवस्थी और भोजपुरी के लोकप्रिय अभिनेता एवं गायक मनोज तिवारी शामिल रहे।

इस भव्य कार्यक्रम का निर्देशन राजीव मिश्रा ने किया, जिन्होंने पूरे शो को कलात्मक दृष्टि और शानदार प्रस्तुति के साथ एक यादगार रूप दिया। भारत समाचार द्वारा आयोजित यह मेगा इवेंट केवल एक शो नहीं, बल्कि भारतीय परंपराओं, लोक गीतों, नृत्यों और विरासत को संजोने व नई पीढ़ी तक पहुँचाने का एक सशक्त आंदोलन बन गया।

इस ऐतिहासिक पहल के सूत्रधार भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा और सीईओ श्री वीरेंद्र सिंह रहे, जिन्होंने न केवल इस विचार को जन्म दिया, बल्कि इसे ज़मीन पर उतारकर लोक संस्कृति को एक भव्य मंच प्रदान किया। उनकी दूरदृष्टि और नेतृत्व में FOLK भारत गांव-देहात से लेकर शहरों तक हर आवाज़ और हर संस्कृति को सम्मान दिलाने वाला एक जनआंदोलन बन गया।

इस मंच ने अनगिनत अनसुने कलाकारों को पहचान दी और लोककला को नया जीवन प्रदान किया। सीजन 1 का समापन भले ही हो गया हो, लेकिन FOLK भारत की यह यात्रा अब यहीं नहीं रुकने वाली है। भारत समाचार के मुख्य संपादक श्री ब्रजेश मिश्रा ने FOLK भारत के अगले चार सीज़नों की आधिकारिक घोषणा की है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय लोक परंपराओं को जन-जन तक पहुँचाने का यह सफर अब और भी व्यापक व भव्य रूप लेगा।

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मोहन भागवत ने दिया एकता का संदेश: रजत शर्मा

मोहन भागवत ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर से लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ वॉर और देश में चल रहे तमाम मुद्दों पर बात की। हिन्दुओं की एकता देश के विकास की गारंटी है।

Last Modified:
Saturday, 04 October, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ, इंडिया टीवी।

नागपुर में संघ के विजयादशमी समारोह में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन लोगों को नसीहत दी, जो भारत में श्रीलंका, बांग्लादेश या फिर नेपाल जैसी GEN-Z क्रांति का ख्वाब देख रहे हैं।

मोहन भागवत ने कहा कि लोकतंत्र में जनता सरकार तक अपनी भावनाएं पहुंचा सकती है, व्यवस्था को बदल सकती है लेकिन सड़क पर उतर कर हंगामा करने से सिर्फ अराजकता फैलती है, इससे किसी का भला नहीं होता।

मोहन भागवत ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर से लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ वॉर और देश में चल रहे तमाम मुद्दों पर बात की। चूंकि आजकल कई राज्यों में “आई लव मोहम्मद” को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं, मोहन भागवत ने इसकी तरफ इशारा किया।

उन्होंने कहा कि भारत में हर महापुरूष का सम्मान किया जाता है लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस तरह कानून हाथ में लेकर गुंडागर्दी की जा रही, वो ठीक नहीं। मोहन भागवत ने कहा कि भारत सनातन काल से हिन्दू राष्ट्र है, हिन्दुओं की एकता सबकी सुरक्षा और देश के विकास की गारंटी है।

मोहन भागवत ने RSS की छवि को बदला है। उन्होंने कभी हिंदू-मुसलमान को लड़वाने की बात नहीं कही। वो अपनी हिंदू विचारधारा से पीछे भी नहीं हटते। हमेशा हिंदुओं की एकता को और मजबूत करने की बात करते हैं लेकिन संघ के स्वयंसेवकों से हमेशा कहते हैं कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूंढने की जरूरत नहीं है। इस एक वाक्य का बहुत बड़ा मतलब है कि बात-बात पर टकराने की आवश्यकता नहीं है।

RSS का विरोध करने वाले आरोप लगाते हैं कि संघ के लोग दंगा करवाते हैं, हिंसा भड़काते हैं। आज मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण से RSS को लेकर उठे बहुत सारे सवालों के जवाब मिलेंगे जिनसे संघ के 100वें वर्ष में RSS को समझने में मदद मिलेगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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