सोने में पैसे लगाएं या शेयर बाजार में? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

सोने में पैसे लगाए या शेयर बाज़ार में, यह पुरानी बहस है। हमारे बड़े बुजुर्ग सोने को सेफ़ ऑप्शन मानते थे। सोना बुरे वक़्त में काम आएगा। सोने के भाव तब चढ़ने लगते हैं जब अनिश्चितता बढ़ती है।

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Monday, 24 March, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

दुनिया शेयर बाज़ार को लेकर परेशान है जबकि सोना नए रिकॉर्ड बना रहा है। इस हफ़्ते दस ग्राम सोने का दाम ₹90 हज़ार पार हो गया। आपको पता है कि सोने का रिटर्न अब शेयर बाज़ार से बेहतर हो गया है। 25 साल पहले अगर आपने एक लाख रुपये का सोना ख़रीदा होता तो आज उसकी क़ीमत होती क़रीब 19 लाख रुपये जबकि यही निवेश Nifty में किया होता तो क़ीमत होती क़रीब 18 लाख रुपये।

सोने में पैसे लगाए या शेयर बाज़ार में, यह पुरानी बहस है। हमारे बड़े बुजुर्ग सोने को सेफ़ ऑप्शन मानते थे। सोना बुरे वक़्त में काम आएगा। दुनिया में भी सोने के भाव तब चढ़ने लगते हैं जब अनिश्चितता बढ़ती है जैसे अभी टैरिफ़ वॉर को लेकर दुनिया परेशान है। इससे सोने के दाम बढ़ रहे हैं जबकि शेयर बाज़ार नीचे की तरफ़ जा रहा है। सिर्फ़ 25 ही नहीं, लगभग हर अवधि में सोना या तो शेयर बाज़ार से बेहतर कर रहा है या बराबरी पर है।

पाँच साल पहले सोने में एक लाख रुपये लगाए होते तो आज उसकी क़ीमत 1.88 लाख रुपये होती जबकि Nifty में 1.65 लाख रुपये। दस साल पहले सोने में यही निवेश 3.30 लाख रुपये होता जबकि शेयर बाज़ार में 2.91 लाख रुपये। फिर दुनिया शेयर बाज़ार के पीछे क्यों भागती है? जाने माने इन्वेस्टर वॉरेन बफे का कहना है सोने की कोई उपयोगिता नहीं है।

अभी पूरी दुनिया में 2.16 लाख मैट्रिक टन सोना है। अगर आप सारा सोना पिघला कर एक Cube की शक्ल दे देंगे तो इसकी एक दीवार 68 फ़ीट की होगी। गहने बनाने के अलावा इसका कोई उपयोग नहीं है। इसके उलट आपके पास ज़मीन है तो खेती कर सकते है। साल दर साल आमदनी हो सकती है। कंपनियों के शेयरों में पैसे लगाएँगे तो वो बिज़नेस करेगी। लंबे समय तक पैसे बना सकते है। बफ़ेट सोने को डेड इन्वेस्टमेंट कहते हैं।

तो फिर आप क्या करें? जानकार कहते हैं कि किसी एक टोकरी में सारे अंडे ना रख दें, इसी कारण पोर्टफ़ोलियो में दस प्रतिशत तक सोना रखने की सलाह दी जाती है। ज़्यादा भी हो सकता है अगर आप कम से कम रिस्क लेना चाहते हैं तो।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पूर्व पीएम चंद्रशेखर की 98वीं जयंती: जब एक साहसी फैसले ने भारत को दिवालिया होने से बचाया

आज चंद्रशेखर की 98वीं जयंती है। उनके असाधारण नेतृत्व के स्मरण का अवसर। 1990-91 के आर्थिक संकट में कैसे उन्होंने मुल्क को दिवालियापन से बचाया? देश की साख डूबने ही वाली थी।

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Thursday, 17 April, 2025
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हरिवंश नरायण सिंह, उपसभापति, राज्यसभा ।।

आज चंद्रशेखर की 98वीं जयंती है। उनके असाधारण नेतृत्व के स्मरण का अवसर। 1990-91 के आर्थिक संकट में कैसे उन्होंने मुल्क को दिवालियापन से बचाया? देश की साख डूबने ही वाली थी।  कुछ दिनों का भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं था। महज एक सप्ताह के आयात बिल का भुगतान संभव था। इस संकट की जड़ें लंबी व गहरी थीं। इंदिरा गांधी के कार्यकाल (1971-72) में इसकी शुरूआत हुई। राजीव गांधी और वी।पी। सिंह की सरकारों ने इस संकट को आगे बढ़ाया। बार-बार चेतावनी के बाद समाधान नहीं निकाला। नतीजतन यह और गहरा हुआ। 1991 में देश ने निर्णायक अर्थसंकट का दौर देखा। जयतीरथ राव जैसे कई जाने–माने अर्थशास्त्री कहते हैं कि उस वक्त चंद्रशेखर सरकार ने सोना गिरवी रखने का साहसिक कदम नहीं उठाया होता, तो 1991 में ही भारत कथा का अंत हो गया होता। बहुत संक्षेप में जानें कि यह मामला क्या था? 1991 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। उन्हें पूर्ववर्ती सरकारों से किस स्थिति में मुल्क की बागडोर मिली? 

चंद्रशेखर का व्यक्तित्व अनूठा था। वह स्पष्टवादी थे। उनके व्यक्तित्व के कई असाधारण पहलू थे। पर, आज सिर्फ एक प्रसंग पर चर्चा। साहस उनकी पहचान था। समाजवादी विचारों से प्रेरित थे। लेकिन सोच व्यावहारिक थी। उन्होंने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की। देशहित उनके लिए सर्वोपरि था। 1970-71 में उन्होंने इंदिरा गांधी को चुनौती दी। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव में वह उनकी इच्छा के खिलाफ चुने गए। यह उनकी लोकप्रियता का सबूत था। सुभाषचंद्र बोस के बाद वह पहले नेता थे, जिन्होंने शक्तिशाली कांग्रेस हाईकमान के प्रत्याशी को पराजित किया। उस दौर में इंदिरा जी का एकछत्र राज था। उनकी नीतियों पर सवाल उठाना आसान नहीं था। चंद्रशेखर ने यह साहस दिखाया। ‘युवा तुर्क’ के दिनों से ही देश के गंभीर सामाजिक-आर्थिक सवालों को मुख्य राजनीति का मुद्दा बनाया। उन्होंने वैकल्पिक रास्ता सुझाया। जब मुल्क में इमरजेंसी लगी, उसके पहले ही अपनी पत्रिका ‘यंग इंडियन’ में खुला लेख लिखकर तत्कालीन सत्ता (श्रीमती गांधी) को जेपी (जयप्रकाश नारायण) जैसे संत से टकराव से बचने की सलाह दी। वह चाहते थे कि राजनीति संवाद पर आधारित हो। सत्ता की जिद पर नहीं।

1970-71 में मशहूर अर्थशास्त्री प्रो. जयदेव शेट्टी ने किताब लिखी। ‘इंडिया इन क्राइसिस’। इसमें मुल्क के गहराते आर्थिक संकट का जिक्र था। 1980 के बाद पुन: इंदिरा जी की लोकलुभावन नीतियों ने राजकोष पर बोझ डाला। उच्च ब्याजदर पर विदेशी ऋण लिए गए। इससे देश कर्ज के जाल में फंसा। इसकी चेतावनी कई बड़े अर्थशास्त्रियों ने दी। इससे पहले एक और बड़ा संकट लालबहादुर शास्त्री के समय आया। खाद्यान्न की कमी थी। सूखा पड़ा। देश हिल गया था। लेकिन इंदिरा जी की नीतियों ने संकट को और गहराया। उन्होंने ‘सत्ता’ के लिए अनेक लोकलुभावन नीतियों को अपनाया। इनमें ‘लीकेज’ (भ्रष्टाचार व कुशासन) की शुरुआत हुई। उनकी योजनाएं वोट की दृष्टि से आकर्षक थी। उन्हें सत्ता तो मिली, पर इसका खामियाजा मुल्क की दीर्घकालिक आर्थिक नीतियों ने भुगता। चंद्रशेखर ने यह खतरा भांपा। उन्होंने चेतावनी दी। ऐसी नीतियां देश को मंझधार में ले जाएंगी। यह दूरदृष्टि उनकी वैचारिकी का हिस्सा थी। 

जनता सरकार भी जन उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मुल्क की आर्थिक सेहत सुधारने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई। फिर इंदिरा जी की सरकार आयी। फिर राजीव गांधी का कार्यकाल। देश पश्चिमी बाजारों की ओर बढ़ा। यह दौर उत्साह का था। लगा, भारत रातोंरात बदल जाएगा। वी।पी। सिंह वित्त मंत्री थे। उन्होंने राजीव को ‘विवेकानंद का अवतार’ कहा। लेकिन संकट गहराता गया। शासक वर्ग की विलासिता चर्चा में रही। एक घटना मशहूर हुई। प्रधानमंत्री के विमान में इटली की कटलरी मंगवाई गई। गवर्नेंस में अनेक कमियां दिखीं। 1987 में पालिसी पैरालाइसिस का दौर शुरू हुआ। मुल्क की रहनुमाई  जिन हाथों में थी, उनमें साहस की कमी थी। व्यापक दृष्टिकोण का अभाव था। देश की माटी-पानी से जुड़ाव कम था। नतीजा हालात बिगड़ते गए। 1980 के दशक के अंत में हालात और खराब हुए। वी।पी। सिंह की सरकार बनी। उन्होंने संकट को अनदेखा किया। वह राजीव के वित्त मंत्री रह चुके थे। आर्थिक स्थिति से वाकिफ थे। लेकिन सत्ता की राजनीति में उलझे रहे। कोई कदम नहीं उठाया। मधु दंडवते उनके वित्त मंत्री थे। संकट को जानते-समझते हुए भी वह संकट रोकने में नाकाम रहे। रिजर्व बैंक के गवर्नर चेतावनी देते रहे। वित्त सचिवों ने भी आगाह किया। देश की साख खतरे में थी। उनकी बातें अनसुनी रहीं। देश मंझधार में फंस गया।

1990 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। उन्हें संकटग्रस्त देश मिला। शपथ लेते ही वित्त सचिव विमल जालान मिलने को बेचैन थे। न मंत्रिमंडल बना था, न सरकार ने संसद में विश्वास मत पाया था। पर वित्त सचिव ने कहा, नहीं मिलना अत्यंत आवश्यक है। चंद्रशेखर मिले। उन्होंने गंभीर स्थिति बताई। विदेशी मुद्रा भंडार खत्म होने की कगार पर था। केवल सात दिन का भुगतान संभव था। चंद्रशेखर ने पूछा। क्या यह संकट मेरे शपथ की प्रतीक्षा में था? या पहले से था? जालान ने बताया। यह पहले से ही था। पर,  राजीव गांधी के समय से बढ़ा था। वी।पी। सिंह के कार्यकाल में बदतर हुआ। दोनों को जानकारी थी। लेकिन किसी ने कदम नहीं उठाया। चंद्रशेखर ने चुनौती स्वीकार की।

शंकर आचार्य ने अपनी किताब—‘Essay on Macroeconomic policy and Growth in India’ में इस आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि पर विस्तार से बताया है। 1991 में, भारत में एक बड़ा आर्थिक संकट आया था, जिसमें विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम हो गया था। निर्यात गिर गया था। महंगाई बढ़ गई थी।  इस संकट के कई कारण थे। मसलन सरकार का लंबे समय से ज़्यादा ख़र्च। व्यापार के नियमन और विदेशी निवेश को लेकर नकारात्मक रवैया। ऐसी नीतियाँ बनाना जिनसे निर्यात को बढ़ावा न मिले और आयात को बढ़ावा मिला। व्यापार घाटे को पूरा करने के लिए विदेशों से ज़्यादा कर्ज़ लिया गया।   कमज़ोर वित्तीय क्षेत्र।  खाड़ी युद्ध के कारण तेल की क़ीमतें बढ़ने से स्थिति और बिगड़ गई।

चुनौतियां कई थीं। पंजाब में आतंकवाद। असम में चुनावी अशांति। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद। श्रीलंका में लिट्टे का संघर्ष। हर तरफ अस्थिरता थी। आर्थिक स्थिति भयावह थी। ये सारे मुद्दे पहले की सरकारों की सौगात थी। चंद्रशेखर के सामने।

नरेश चंद्रा, कैबिनेट सचिव थे। उन्होंने अपने लेख ‘Selling the Country’s Jewels’ (देखें, ‘द हिंदू’, 01 अगस्त, 2016) में जिक्र किया है। अर्थव्यवस्था के पैरामीटर बेहद खराब थे। बड़े ऋण चुकाने की क्षमता नहीं थी। ऋणदाता चिंतित थे। क्या भारत कर्ज के जाल में फंस गया है? संकट असाधारण था। आम आदमी भी समझ सकता था। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता ने इसे जटिल बनाया।

चंद्रशेखर की सरकार अल्पमत में थी। कांग्रेस का बाहरी समर्थन था। राष्ट्रपति वेंकट्टरमण ने अपने संस्मरणों में लिखा है। राजीव गांधी ने एक साल तक समर्थन का भरोसा दिया था। लेकिन यह वादा टूटा। नरेश चंद्रा ने लिखा कि चंद्रशेखर ने कठिन निर्णय लिए। तमिलनाडु और असम की सरकारें बर्खास्त कीं। कुछ राज्यपाल बदले। विदेश नीति में कदम उठाए। अमेरिकी विमानों को ईंधन भरने की अनुमति दी। लेकिन समर्थन की कमी थी। स्थिति नहीं बदली। असम में चुनाव। पंजाब चुनाव (नरसिंह राव सत्ता में आये, रोक लगी)।

आर्थिक संकट से निपटने का फैसला ऐतिहासिक था। चंद्रशेखर ने सोना गिरवी रखा। नरेश चंद्रा ने इसका वर्णन किया। यह आसान नहीं था। चंद्रशेखर को पता था, इसकी क्या राजनीतिक कीमत उन्हें चुकानी होगी? डर था। वह सोना बेचने वाले प्रधानमंत्री कहे जाएंगे। अधिकारियों ने समझाया। यही एकमात्र विकल्प है, नहीं तो देश दिवालिया होगा। दो विकल्प थे। खाई में गिरना। या समुद्र में डूबना। चंद्रशेखर ने कठिन रास्ता चुना। चर्चाएं हुईं। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा। यह नीतिगत फैसला है। सरकार को निर्देश देना होगा। 25 टन सोना गिरवी रखा गया। तस्करी में जब्त यह सोना, सरकारी खजाने में था। 400-500 मिलियन डॉलर मिले। राशि बड़ी नहीं थी। लेकिन साख पर असर हुआ। बैंकों को भरोसा मिला। भारत डिफॉल्ट से बचेगा। नरेश चंद्रा ने इसके बारे में विस्तार से बताया है। विश्व बैंक की आशंकाएं दूर हुईं। ऋण देना शुरू किया।

चंद्रशेखर जन सभाओं में बताते, देश पर संकट था, हम किसान परिवार से हैं। हमने अपनी परंपराओं से सीखा है। खेत रेहन पर रहता है। घर का जेवर दे कर छुड़ाते हैं। फिर श्रम से कमाते हैं। जेवर वापस लाते हैं। हम यही करेंगे। आर्थिक सुधार की असल शुरुआत उन्होंने ही की। पर, बाद की सरकार को इसका क्रेडिट मिला।

जयतीरथ राव जैसे अर्थशास्त्री ने भी अपनी किताब में लिखा है। यह फैसला निर्णायक था। इसके बिना भारत 1991 में बिखर जाता। हमेशा के लिए साख खो देता। यह भारतीय परंपरा जैसा था। संकट में लोग गहने गिरवी रखते हैं। बाद में मेहनत से छुड़ाते हैं। चंद्रशेखर ने यही सोचा। यह देश की अस्मिता बचाने का उपाय था। उन्होंने कभी किसी पर दोषारोपण नहीं किया। पीएम मैं, दायित्व मेरा। मुँह नहीं मोड़ कर आगे आनेवाले प्रधानमंत्री पर देश की अस्मत बचाने का दायित्व छोड़, अपने फर्ज से मुँह नहीं मोड़ूँगा। जो पहले के लोगों ने किया है, लज्जाहीनता, अदूरदर्शिता, अविवेक के साथ।

चंद्रशेखर ने अन्य विकल्प देखे। निजाम के गहनों को बेचने का प्रस्ताव आया। क्रिस्टीज ने 850 करोड़ की पेशकश की। चंद्रशेखर ने ठुकराया। टोक्यो में दूतावास की संपत्ति बेचने का सुझाव था। 900 करोड़ की पेशकश थी। विदेश मंत्रालय ने मना किया। चंद्रशेखर ने सबसे प्रभावी रास्ता चुना।

उनकी कार्यशैली तार्किक थी। वह समस्याओं को जटिल नहीं बनाते थे। अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोशिश की। सभी पक्षों से संवाद किया। शरद पवार ने लिखा है, अपनी आत्मकथा में। यह मसला हल होने वाला था। लेकिन राजीव ने समर्थन वापस लिया। हरियाणा के दो कांस्टेबल की जासूसी की घटना को समर्थन वापसी का आधार बनाया गया। कांग्रेस ने हरियाणा सरकार बर्खास्त करने की मांग की। चंद्रशेखर नहीं झुके। उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लेकिन वोट ऑन अकाउंट पास कराया। ताकि सरकारी खर्च रुके नहीं। राजीव गांधी स्तब्ध। शरद पवार को दो उनके घर भेजा। चंद्रशेखर बोले। निर्णय नहीं बदलता।

चंद्रशेखर का व्यक्तित्व सादगी से भरा था। वह साहसी थे। सत्ता की लालसा नहीं थी। देशहित पहले था। वह जनता की भावनाओं को समझते थे। लेकिन लोकलुभावन वादों में नहीं फंसे। उनकी सरकार का कार्यकाल छोटा था। लेकिन प्रभाव बड़ा था। उनकी 98वीं जयंती पर यह याद करना जरूरी है। संकट में साहसिक निर्णय ही देश को बचाते हैं।

 चंद्रशेखर की वैचारिकी समाजवादी थी। वह अव्यावहारिक आदर्शवाद में विश्वास नहीं करते थे। जमीन से जुड़े थे। उनकी बातें स्पष्ट थीं। वह लोकप्रियता के पीछे नहीं भागे।

आज उनकी जयंती पर उनकी दूरदृष्टि याद करनी चाहिए। वह समस्याओं को भविष्य के नजरिए से देखते थे। उनकी सरकार ने अल्प समय में बहुत कुछ किया। वह आज भी प्रेरणादायक है। उनकी सादगी और साहस नेताओं के लिए मिसाल है।

आज फिर राज्य सरकारें लोकलुभावन वादे कर रही हैं। उच्च ब्याज पर ऋण ले रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी चेतावनी दी है। मुफ्त रेवड़ियां खतरनाक हैं। ये लोगों को परजीवी बना रही हैं। कोर्ट ने कहा है, मुफ्त राशन और पैसा काम से दूर कर रहा है। यह सामाजिक और आर्थिक खतरा है।

थिंक टैंक एमके ग्लोबल की रिपोर्ट बताती है। चुनावी वर्षों में राजकोषीय घाटा बढ़ता है। इससे कई राज्य बहुत गंभीरता से प्रभावित हैं। दक्षिण के एक राज्य पर 20,000 करोड़ से ज्यादा बकाया है। बैंकों की हालत बिगड़ रही है। क्रिसिल रेटिंग्स का अनुमान है। इस साल राज्यों का घाटा 1.1 लाख करोड़ तक पहुंचेगा। यह स्थिति है।

लोकलुभावन नीतियों का लालच छोड़ना होगा। कठोर निर्णय लेने की हिम्मत चाहिए। उनकी कार्यशैली प्रेरणा देती है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने बहस को गंभीर किया है। क्या राजनीतिक दल इसे समझेंगे?

चंद्रशेखर का पूरा जीवन एक सबक है। संकट में साहस और समझदारी जरूरी है। उनकी सादगी प्रेरित करती है। उनकी स्पष्टता रास्ता दिखाती है। उनकी 98वीं जयंती पर हम संकल्प लें। उनके आदर्श अपनाएं। देश को संकट से बचाएं। उनकी विरासत हमें मजबूत भविष्य की ओर ले जाए।

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अमेरिका-चीन टैरिफ युद्ध से क्या भारत को फायदा होगा : रजत शर्मा

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अमेरिका के साथ जल्द से जल्द व्यापार समझौता कर लेना चाहिए ताकि भारत से होने वाले निर्यात को रफ़्तार मिल सके।

Last Modified:
Monday, 14 April, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

टैरिफ के मुद्दे पर दुनिया की दो सबसे बड़ी ताक़तों अमेरिका और चीन के बीच ज़बरदस्त व्यापार युद्ध शुरू हो गया है। चीन ने अमेरिका पर टैरिफ़ को बढ़ाकर 125 प्रतिशत कर दिया। अब अमेरिका चीन से आने वाली वस्तुओं पर 145 प्रतिशत टैरिफ वसूल रहा है। चीन ने दुनिया के बाक़ी देशों से अपील की कि वो ट्रंप की दादागीरी से मुक़ाबला करने के लिए उसके साथ आ जाएं।

विशेषज्ञों का कहना है कि चीन और अमेरिका का टैरिफ युद्ध भारत के लिए अच्छा मौक़ा है। भारत के पास इतनी क्षमता है कि वह अमेरिका को कुछ सामानों की सप्लाई करने में चीन की जगह ले सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल, गारमेंट और खिलौनों के सेक्टर में जगह बनाने का ये भारत के लिए ये सुनहरा अवसर है। टैरिफ वॉर से बड़ी बड़ी कंपनियां कितनी परेशान हैं, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ट्रंप का टैरिफ प्लान लागू होने से पहले एपल ने 600 टन iphone, यानी लगभग 15 लाख मोबाइल फोन के सेट, भारत से अमेरिका भेजे।

इसके लिए स्पेशल कार्गो प्लेन भारत भेजा। सरकार से सिर्फ छह घंटे में कस्टम क्लियरेंस की अनुमति ली ताकि, टैरिफ लागू होने से पहले ज़्यादा से ज़्यादा सामान अमेरिका भेजा जा सके। एपल अमेरिका में जितने फ़ोन बेचता है, उसके 20 परसेंट फोन भारत में बनते हैं, बाक़ी के 80 परसेंट चीन से आते हैं। एपल ने भारत में अपनी प्रोडक्शन कैपेसिटी 20 परसेंट बढ़ा दी है और भारत में बने ज़्यादा से ज़्यादा फ़ोन अमेरिका ले जा रहा है।

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अमेरिका के साथ जल्द से जल्द व्यापार समझौता कर लेना चाहिए ताकि भारत से होने वाले निर्यात को रफ़्तार मिल सके, हालांकि वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने साफ़ किया कि भारत बंदूक की नोंक पर किसी से व्यापार समझौता नहीं करता, जब तक भारतीय कारोबारियों के हित सुरक्षित नहीं होंगे, तब तक व्यापार समझौता नहीं होगा।

सवाल ये है कि टैरिफ पर ट्रंप और शी जिनपिंग के बीच जो जंग जारी है, क्या इसका फायदा भारत को होगा? क्या भारत में स्मार्टफोन, AC, TV, फ्रिज सस्ते हो जाएंगे? ट्रेड एक्सपर्ट्स का कहना है कि अमेरिका के दबाव की वजह से भारत को इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट एक्सपोर्ट करने वाली चीनी कंपनियां अपनी कीमतें 5 परसेंट तक कम करने के लिए मजबूर हो जाएंगी।

भारत में इस्तेमाल होने वाले 75 प्रतिशत इलेक्ट्रोनिक कंपोनेंट्स चीन में बनते हैं, इन दोनों बातों को जोड़कर देखा जाए तो साफ है कि भारत में स्मार्टफोन, AC, TV, फ्रिज जैसी सारी इलेक्ट्रॉनिक चीजों के दाम कम होंगे जो हमारे देश के उपभोक्ताओं के लिए फायदे का सौदा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है, इंस्टैंट नुडल नहीं : अनंत विजय

साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार। प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं?

Last Modified:
Monday, 14 April, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

कुछ दिनों पूर्व मेरे एक मित्र का फोन आया। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला कि यार! मैं कविताएं लिखना चाहता हूं। मुझे लगा ये सनक गया है या मजाक कर रहा है। हमाररी मित्रता लंबे समय से है उसने कभी इस तरह की बातें नहीं की। बात टालने के लिए मैंने कहा कविताएं लिखना तुम्हारे वश में नहीं है। तुम अपने करियर में अच्छा कर रहे हो वहीं ध्यान दो। उसने बहुत प्यार से उत्तर दिया। कहा मैं इस बात से सहमत हूं कि कविता लिखना कठिन है।

पर सोचो अगर अनामिका जी जैसी सिद्धहस्त कवयित्री कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगीं तो मेरे जैसा व्यक्ति भी कविता लिख लेगा। अब मैं थोड़ा घबराया कि वो मुझे इस बात के लिए कहेगा कि मैं अनामिका जी से उसको समय दिला दूं। उसको टालने के लिए मैंने कहा कि अनामिका जी बहुत व्यस्त रहती हैं। उनका अपना लेखन है, कालेज की व्यस्तता है और पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हैं, वो समय नहीं दे पाएंगी।

उसने तपाक से उत्तर दिया कि मुझे तो अनामिका जी का समय मिल गया है। वो हमें कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगी। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। उसने मेरे मनोभाव को समझकर पूरी बात बताई कि साहित्यिक पत्रिका नईधारा ने कविता लेखन वर्कशाप का आयोजन किया है। इस वर्कशाप का विज्ञापन उसने फेसबुक पर देखा था। विज्ञापन में वकर्शाप में भाग लेने की पूरी प्रक्रिया थी। उसने प्रक्रिया पूरी की और निर्धारित शुल्क जमाकर वो निश्चिंत हो गया था। इस बात से प्रसन्न भी कि अनामिका जी से वो कविता लेखन की बारीकियां सीखने जा रहा है।

हमारी बातचीत समाप्त हो गई लेकिन बाद में मैं सोचने लगा कि चार घंटे के वर्कशाप में कोई कविता लेखन की बारीकियां कैसे सीख सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अनामिका जी कविता लेखन पर विस्तार से बात कर सकती हैं। कविता का स्ट्रक्चर बता सकती हैं। हिंदी-अंग्रेजी कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा पर बात कर सकती हैं। पर कोई किसी वर्कशाप में बारीकियां सीख कर कवि कैसे बन सकता है।

कविता की उन परिभाषाओं का क्या होगा जो विभिन्न भाषाओं में प्रचलित है। हम तो बचपन से सुनते आए हैं कि वियोगी होगा पहला वो कवि आह से उपजा होगा गान। अगर वर्कशाप से कविता लिखना सीख जाएगा तो फिर न तो वियोग की आवश्यकता होगी और न ही आह की। विलियम वर्ड्सवर्थ की उस उक्ति का क्या होगा जिसमें वो कहते हैं, पोएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो आफ पावरफुल फीलिंग्स, इट टेक्स इट्स आरिजन फ्राम इमोशंस रिकलेक्टेड इन ट्रैंक्विलिटि। वर्ड्सवर्थ भी पावरफुल फीलिंग्स की बात कर रहे हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक लंबा लेख है कविता क्या है? उसमें एक जगह शुक्ल कहते हैं, जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। विचार करने की बात है कि कुछ घंटों में ह्रदय की मुक्ति साधना के लिए शब्द विधान सीखा जा सकता है।

इन प्रश्नों के बारे में विचार किया जाना चाहिए। वरिष्ठ कवियों की नियमित संगति कविता से, उसकी लेखन पद्धति से हमें परिचित करवा सकती है पर लिखना तो अलग ही बात है। इन दिनों कविता छंद आदि से भी दूर हो गई है तो कह सकते हैं कि बारीकियां तो बची नहीं। छंद, मीटर आदि की आवश्यकता रही नहीं।

इन दिनों होता ये है कि जैसे ही आप फेसबुक पर कोई एक विषय सर्च करते हैं तो उसी से संबंधित पोस्ट आपकी टाइमलाइन पर आने लग जाती है। चूंकि मैंने नईधारा का विज्ञापन उनकी पोस्ट पर जाकर देखा था। विज्ञापन के नीचे लिखे विवरण को पढ़ा भी था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी टाइमलाइन पर विभिन्न प्रकार के साहित्य लेखन सिखानेवाले पोस्ट आने लग गए।

उनमें से तो कई लेखक ऐसे हैं जो उपन्यास और गद्य लिखना सिखा रहे हैं। उनकी अच्छी खासी फीस है। सिखानेवाले भी इस तरह के लेखक हैं जिनको अभी लेखक के तौर पर स्वयं को स्थापित करना है। स्वयं शुद्ध हिंदी लिखना सीखना है। वाक्य विन्यास ठीक हो इसपर मेहनत करने की आवश्यकता है। इन सबको देखकर मैं इस सोच में पड़ गया कि हिंदी साहित्य कितना विविधरंगी हो गया है।

जो हिंदी साहित्य कभी बाजार के विरुद्ध चीखता नहीं थकता था आज उसी हिंदी साहित्य में लिखना सिखाना कारोबार हो गया है। साहित्य का बाजार सज चुका है। आकांक्षी लेखकों के लिए तरह-तरह की दुकानें हैं जिनपर विभिन्न विधाओं के बोर्ड लगे हुए हैं। उन बोर्ड को देखिए और अपनी पसंद की विधा का चयन कीजिए। भुगतान करिए और लेखक बनने की राह पर आगे बढ़ जाइए। कविता लिखना सीखिए, उपन्यास लेखन करिए, कहानियां लिखना सीखिए जो चाहें वो सीख सकते हैं। और अब तो आनलाइन के इस युग में सीखना भी आसान हो गया है। आप गाड़ी चलाते हुए सीख सकते हैं, जिम करते हुए सीख सकते हैं।

प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं और उनको पैसे देकर सीखने वाले मिल कहां से रहे हैं। ये जानने के लिए मैंने अपने मित्र को ही फोन मिलाया। मैंने उससे वर्कशाप के बारे में तो नहीं पूछा लेकिन कहा कि आप कवि बनकर क्या हासिल करना चाहते हैं। उन्होंने चहकते हुए कहा कि दोस्त तुम पता नहीं क्यों, समझना नहीं चाहते हो? अगर कविताएं लिखने लग गया तो रोज लिखूंगा। फेसबुक पर डालता रहूंगा।

लाइक्स आदि तो मिल ही जाएंगे। सौ दिन में सौ कविताएं लिख दूंगा। आजकल दर्जनों ऐसे प्रकाशक हैं जो पैसे लेकर पुस्तकें छाप दे रहे हैं। उनसे अपनी कविताओं का संकलन छपवा लूंगा। सौ दो सौ प्रतियां बांट दूंगा। हो गया कवि। लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाया जाने लगूंगा। कविता पाठ करने लग जाऊंगा। समाज में एक प्रतिष्ठा बन जाएगी।

इसके बाद मैंने एक दूसरे आकांक्षी लेखक को फोन किया। उसने पिछले साल उपन्यास लेखन की वर्कशाप की थी। उसने बताया कि कहानी लिखना तो बहुत ही आसान है। आप किसी घटना को जैसे देखते हैं लिख दीजिए। अधिक से अधिक 1000 शब्द में। दस-बीस कहानी हो गई तो संग्रह प्रकाशित करवा लीजिए। एक प्रकाशक के पास पैकेज है, सिल्वर, गोल्ड और डायमंड। अगर आप डायमंड पैकेज लेते हैं तो वो आपकी पुस्तक और आपको प्रमोट करेगा, लिट फेस्ट में भी भेजने की व्यवस्था करेगा।

ऐसे कई कथित उपन्यासकार या कहानीकार समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया में विचरण कर रहे हैं। और तो और ऐसे ही एक उपन्यासकार कहानी लिखना सिखाने की कार्यशाला का आयोजन भी करने जा रहे हैं। दरअसल साहित्य की दुनिया पिछले दिनों इतनी ग्लैमरस हो गई है कि हर कोई उस दुनिया में जाना चाहता है। वहां मंच है, सेल्फी है, सेल्फ प्रमोशन है, नेटवर्किंग का अवसर है, गासिप है। कहना ना होगा कि वहां हर चीज है जो ग्लैमरस दुनिया में होनी चाहिए। पर सबको ये समझना होगा कि साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप क्यों पलट गए? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

ट्रंप ने गाजे बाजे के साथ दो अप्रैल को 86 देशों पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा की थी। 10% बेसिक टैरिफ़ सभी देशों पर पाँच अप्रैल से लागू हो गया। नौ अप्रैल से हर देश पर अलग-अलग अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया गया था।

Last Modified:
Monday, 14 April, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार की सुबह नौ बजे सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि यह शेयर ख़रीदने का समय है। टैरिफ़ लगाने के बाद से शेयर बाज़ार नीचे था। दोपहर दो बजे तक वो पलट गए। चीन को छोड़कर बाक़ी देशों पर अतिरिक्त टैरिफ़ पर 90 दिन की रोक लगा दी। हिसाब किताब में चर्चा करेंगे कि ट्रंप क्यों पलटे और आगे अब क्या करेंगे?

ट्रंप ने गाजे बाजे के साथ दो अप्रैल को 86 देशों पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा की थी। 10% बेसिक टैरिफ़ सभी देशों पर पाँच अप्रैल से लागू हो गया। नौ अप्रैल से हर देश पर अलग-अलग अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया गया था जो जितना टैरिफ़ अमेरिका पर लगाते हैं उतना अमेरिका उस पर लगा देगा। शेयर बाज़ार गिरना तय था। ट्रंप कहते रहे कि उन्हें बाज़ार की परवाह नहीं है। यह अमेरिका के भविष्य के लिए उठाया गया कदम है। खेल तब पलट गया जब शेयर बाज़ार के साथ साथ बॉन्ड बाज़ार भी गिर गया। इसका मतलब था कि अमेरिकी सरकार को क़र्ज़ पर ज़्यादा ब्याज चुकाना पड़ सकता है। ट्रंप इस डर से पलट गए।

पहले समझ लेते हैं कि बॉन्ड होते क्या है?

किसी भी देश की सरकार आम तौर पर खर्च ज़्यादा करती है और कमाई कम। घाटा पूरा करने के लिए सरकार बाज़ार से क़र्ज़ लेती है। यह क़र्ज़ उठाने के लिए सरकार बॉन्ड जारी करती है। ये बॉन्ड दस साल या उससे ज़्यादा अवधि की होते हैं। बॉन्ड पर सरकार समय समय पर क़र्ज़ चुकाती रहती है। अमेरिकी सरकार के बॉन्ड सबसे सेफ़ माने जाते हैं। इसमें दूसरे देशों की सरकारें भी पैसे लगाती हैं जैसे भारत, चीन, जापान। ये बॉन्ड बाज़ार में लिस्ट होते हैं और शेयरों की तरह उनकी ख़रीद फ़रोख़्त होती है।

शेयर बाज़ार और बॉन्ड बाज़ार आमतौर पर विपरीत दिशा में चलते हैं। शेयर बाज़ार नीचे जाता है तो निवेशक बॉन्ड बाज़ार की शरण में आते हैं। वहाँ 4% से ज़्यादा रिटर्न मिलता रहता है। रिस्क ना के बराबर। इस बार शेयर बाज़ार के साथ साथ बॉन्ड बाज़ार में भी बिकवाली हो गई। निवेशकों को लगा कि टैरिफ़ लगने से महंगाई बढ़ेगी। ब्याज दरों में बढ़ोतरी होगी। इसका सीधा नुक़सान अमेरिका की सरकार को है। आख़िर बॉन्ड पर ब्याज तो उसे ही चुकाना होगा। बॉन्ड बाज़ार में बिकवाली चीन की तरफ़ से करने की चर्चा रही है लेकिन कोई पुष्टि नहीं हुई है।

कितना बड़ा असर?

टैरिफ़ की घोषणा के बाद 10 साल के बॉन्ड का रेट क़रीब 4% से बढ़कर 4.5% तक पहुँच गया यानी क़रीब 0.5% , अमेरिका का कुल सरकारी कर्ज़ लगभग 30 ट्रिलियन डॉलर है और 2023 में ब्याज पर कुल खर्च करीब 875 अरब डॉलर सालाना है। अगर बॉन्ड रेट 0.5% (यानी आधा प्रतिशत) बढ़ता है तो अमेरिका को सालाना 150 अरब डॉलर ज़्यादा ब्याज चुकाना पड़ सकता है। न्यूयार्क टाइम्स के मुताबिक़ बॉन्ड बाज़ार के दबाव में ट्रंप ने फ़ैसला बदल दिया। इसके अलावा ट्रंप समर्थकों का दबाव, अमेरिका में मंदी की आशंका भी कारण बने।

अब सवाल है कि आगे क्या होगा?

ट्रंप का पुराना रिकॉर्ड देखें तो 90 दिन की रोक को एक्सटेंशन मिलता रहेगा। उन्होंने कहा कि 75 देश बातचीत के लिए हमारे संपर्क में है। भारत तो पहले से बातचीत कर रहा है, इसलिए कम से कम भारत अब इसके चपेट में आने की आशंका कम है। वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका असर पड़ने की आशंका कम थी। इसकी चर्चा हमने पिछले हफ़्ते की थी। अमेरिका में मंदी की आशंका भारत के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती थी।

फिर भी ख़तरा बना हुआ है। वो हैं अमेरिका और चीन की लड़ाई। दोनों देश एक दूसरे पर डेढ़ सौ परसेंट टैरिफ़ लगा चुके हैं। ट्रंप का कहना है कि चीन ने बदले की कार्रवाई की है इसलिए वो उसे छूट नहीं देंगे। यह लड़ाई भी लंबी चलने की संभावना कम है। एक तरफ़ है दुनिया का सबसे बड़ा कारख़ाना यानी चीन और दूसरे तरफ़ उस कारख़ाने का सबसे बड़ा बाज़ार यानी अमेरिका। दोनों जानते हैं कि इसमें नुक़सान दोनों देशों का है। बातचीत के दरवाज़े दोनों तरफ़ से खुल रहे हैं, रास्ता भी जल्द खुलना चाहिए।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रपंचवटी से राहुल गाँधी कांग्रेस को सत्ता में लाने का दिवा स्वप्न : आलोक मेहता

उन्हें यह भय लगा रहता है कि प्रियंका के रहने पर लोग राहुल गाँधी के प्रति अधिक न आशा रखते हैं और न कोई आकर्षण। कई तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के नारे लगा देते हैं।

Last Modified:
Monday, 14 April, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

इंदिरा राज के दौरान 1973 -74 में गुजरात में असंतुष्ट कांग्रेसी कहते थे कि मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल अपने भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों की आवाज़ बंद करने के लिए 'प्रपंचवटी' में षड्यंत्र करते थे। चिमनभाई के मंत्रणा कक्ष को यही नाम दिया गया। कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी उसी गुजरात से सत्ता की लड़ाई का एलान करते हुए अपने सलाहकारों से मंत्रणा कर पार्टी में असंतुष्टों को हटाने की घोषणा कर रहे हैं और इसका कारण मंदिर, हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर उन लोगों के कुछ विचार भारतीय जनता पार्टी से मिलते जुलते हैं।

राहुल गाँधी ने अहमदाबाद के कांग्रेस महाधिवेशन से पहले और बाद में भी बड़े बदलाव और भाजपा खसकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अभियान के लिए आक्रामक भाषण दिए। इसलिए गुजरात के पुराने कांग्रेसी या पत्रकार प्रपंचवटी को याद कर रहे हैं। वे यह भी याद दिला रहे कि इसी गुजरात से चिमनभाई पटेल जैसे नेताओं के कारण कांग्रेस का पतन हुआ।

सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी के सलाहकार प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष भारत सिंह सोलंकी जैसे नेताओं को पार्टी से निकालना चाहते हैं? तभी तो कांग्रेस महाधिवेशन के दौरान उन्हें कहीं सामने नहीं आने दिया। राहुल के सेनापति वेणुगोपाल भले ही नए हैं लेकिन क्या सोनिया गाँधी और उनकी करीबी पुरानी सहयोगी अम्बिका सोनी तो जानती हैं कि भारत सिंह के पिता माधव सिंह सोलंकी ने न केवल गुजरात कांग्रेस में बल्कि केंद्र में विदेश मंत्री रहते बोफोर्स कांड सहित कई मामलों में गांधी परिवार की कितनी सहायता की थी।

महाधिवेशन में प्रियंका गांधी की अनुपस्थिति को भी प्रपंचकारियों का षड्यंत्र माना जा रहा है। उन्हें यह भय लगा रहता है कि प्रियंका के रहने पर लोग राहुल गाँधी के प्रति अधिक न आशा रखते हैं और न कोई आकर्षण। कई तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के नारे लगा देते हैं। सचमुच यह बहाना अजीब लगता है कि निजी विदेश यात्रा के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण प्रियंका नहीं रही। क्या पार्टी के ऐतिहासिक महत्वपूर्ण सम्मेलन के लिए परिवार की एक जिम्मेदार सांसद अपने यात्रा टिकट नहीं बदल सकती हैं?

यही नहीं जिस वक्फ कानून में संशोधन के पारित होने पर राहुल आग उगल रहे हैं, उस प्रस्ताव पर मतदान के समय उनकी 'प्रिय बहन' सांसद विरोध का वोट देने तक नहीं आई। वहां तो बड़ा भाई ही प्रतिपक्ष का नेता है तो क्या प्रियंका भी सरकारी कानून से सहमत रही हैं। तो क्या उन पर भी अनुशासन कार्रवाई हो सकती है। कांग्रेस की कोशिश गुजरात की धरती से भारतीय जनता पार्टी, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देने की रही है।

पिछले महीने राहुल गांधी गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में थे, तब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओं पर भाजपा के लिए काम करने का आरोप लगाया था। राहुल गांधी ने अधिवेशन में दिए अपने भाषण में कहा कि कांग्रेस दलित, मुस्लिम व ब्राह्मण को साधती रही और अति पिछड़ा जातियां (ओबीसी) हमसे दूर चली गईं। यह और बात है कि एक समय कांग्रेस का नारा था कि न जात पर-न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।

ओबीसी को आरक्षण की सिफारिश करने वाले मंडल आयोग के विरोध में राहुल गांधी के पिता स्वर्गीय राजीव गांधी ने संसद में सबसे तीखा भाषण दिया था। आरक्षण का दायरा बढ़ाने के विरुद्ध इंटरव्यू दिए थे। धीरे धीरे पिछड़े, दलित, आदिवासी और मुस्लिम कांग्रेस से दूर होते गए और क्षेत्रीय पार्टियों में चले गए। वहीँ ब्राह्मण क्षत्रिय और वणिक समुदाय राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा के साथ अधिक जुड़ते चले गए।

जहां-जहां क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सत्ता में आए, वहां मुस्लिम कांग्रेस से छिंटक गया। हालांकि, मुस्लिमों को दोबारा अपने साथ लाने की कांग्रेस की कोशिशें तेज हो रही हैं। राहुल गांधी कह रहे हैं कि मुस्लिम हितों को लेकर वो पीछे नहीं हटेंगे। यह और बात है कि यह कोशिशें उसके सहयोगी दलों को रास नहीं आ रही हैं। जम्मू कश्मीर के अनुच्छेद ३७० को ख़त्म करने, नागरिकता संशोधन कानून और अब वक्फ संशोधन कानून पर कांग्रेस का रुख देश के बहुसंख्यकों को रास नहीं आया है।

पिछले दिनों संपन्न प्रयागराज महाकुंभ और सद्गुरु के कार्यक्रम में शामिल होने पर जिस तरह से कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार की पार्टी के अंदर से आलोचना हुई, उसने भी कांग्रेस को लेकर बहुसंख्यकों को निराश किया। अहमदाबाद अधिवेशन प्रतीक के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल स्मृति स्थल पर हुआ और उनका नाम लेकर भाजपा संघ पर हमले किए गए लेकिन गुजरात में ही सरदार पटेल के लिए बने विश्व के सबसे बड़े 'स्टैचू ऑफ यूनिटी 'को देखने आज तक राहुल गांधी नहीं गए हैं।

कांग्रेस के नेता स्टैचू ऑफ यूनिटी पर जाने से परहेज करते हैं, क्योंकि इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनवाया है। सरदार पटेल की विरासत को अपने हाथों से जाता देख कांग्रेस परेशान भी है। गुजरात में पिछले तीन दशक से कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर है। विगत् विधानसभा चुनाव में तो उसका अब तक का सबसे निराशाजनक प्रदर्शन रहा था। लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को बहुत अधिक सफलता गुजरात में नहीं मिली, लेकिन राहुल गांधी को शायद लग रहा है कि गुजरात के रास्ते वह देश की सत्ता को पुनः हासिल कर सकते हैं। शायद राहुल गांधी गुजरात से नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देकर अपने कथित विपक्षी गठबंधन के सहयोगियों को बताना चाहते हैं कि वो गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि राहुल गाँधी और उनकी प्रपंच चौकड़ी संसद से सड़क तक जिन अम्बानी अडानी समूहों के विरुद्ध लगातार गंभीरतम हमले कर रही है, वे गुजराती ही हैं और उनके औद्योगिक समूहों से लाखों लोगों को रोजगार मिल रहा है और उनकी कंपनियों में करोड़ों रुपयों के शेयर भी लगे हुए हैं। यही नहीं अन्य उद्योगपति भी इस तरह की दबावी राजनीति से विचलित हैं। कांग्रेस की राजनीति को जानने वाले क्या यह भूल सकते हैं कि इन्ही अम्बानी अडानी , टाटा, बिरला, डालमिया, हिंदुजा समूहों ने ही कांग्रेस को अधिकाधिक मदद की, फंडिंग की, देश विदेश में बचाया।

आखिरकार मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता के परिवार ही तो इन समूहों से कांग्रेस को सहायता दिलाते थे। वह तो गनीमत है कि वे पुराने बहीखातों के राज नहीं खोल रहे हैं। मुस्लिम नेताओं में गुलाम नबी आज़ाद जैसे दिग्गज राहुल टीम से तंग आकर बाहर गए। सबसे वफादार अहमद पटेल की बेटी मुमताज को पिछले चुनाव में टिकट तक नहीं दिया और सीट केजरीवाल पार्टी को दे दी। बिहार में इसी साल चुनाव है, लेकिन पुराने कांग्रेसी नेता या कार्यकर्त्ता क्या तेजस्वी की पालकी उठाने को तैयार होंगे?

बिहार उत्तर प्रदेश आदि में वेणुगोपाल क्या किसी एक चुनाव क्षेत्र में किसी को जितवा सकते हैं? दक्षिण में राजीव की हत्या में लिट्टे का साथ देने के आरोप तो सोनिया गाँधी की कांग्रेस ने लगाए और नरसिंह राव को सहित पार्टी तुड़वा दी और हरवा दी। अब राहुल को उसी द्रमुक प्रिय है, लेकिन क्या दिल दिमाग से उसका साथ देंगें। इसलिए 'प्रपंचवटी" से राहुल के सिंहासन का रास्ता कैसे निकलेगा?

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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युवा रचनाकारों के अज्ञान से उपजता अहंकार: अनंत विजय

सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है।

Last Modified:
Monday, 07 April, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

इस वर्ष कई साहित्य उत्सवों में जाने का अवसर मिला। विभिन्न विषयों पर विभिन्न श्रोताओं को सुना भी। बहुत कुछ सीखने को मिला। एक साहित्य उत्सव में अजीब घटना घटी। एक सत्र में हिंदी उपन्यास पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उपन्यास की कथावस्तु पर बात होते-होते उसके आकार-प्रकार पर चली गई। इस चर्चा में तीन अलग अलग पीढ़ियों के उपन्यासकार थे। इनमें से एक कथित नई वाली हिंदी के युवा उपन्यासकार थे। एक वरिष्ठ पीढ़ी के उपन्यासकार ने समकालीन युवा लेखकों के उपन्यासों पर कहा कि आज तो सौ डेढ सौ पेज के उपन्यास लिखे जा रहे हैं।

हलांकि उन्होंने इसके बाद आज के पाठकों की रुचि पर भी विस्तार से बोला लेकिन नई वाली हिंदी के उपन्यासकार का मन सौ डेढ़ सौ पेज पर ही अटक गया। उन्होंने जिस प्रकार की टिप्पणी की उससे लगा कि वो सौ डेढ सौ पेज वाली टिप्पणी से आहत हो गए हैं। यह बात सही है कि आजकल मोटे उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। चंद्रकिशोर जायसवाल का चिरंजीव या दीर्घ नारायण का रामघाट में कोरोना आठ सौ से अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।

पर इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अमरकांत का इन्हीं हथियारों से, भगवानदास मोरवाल का बाबल तेरे देस में, असगर वजाहत का कैसी आग लगाई जैसे चार पांच सौ पन्नों के उपन्यास प्रकाशित होते थे। अब ज्यादातर उपन्यास सौ से सवा सौ पेज का होता है। उस समय भी पतले उपन्यास प्रकाशित होते थे लेकिन इतने पतले नहीं होते थे कि मंचों पर उनकी चर्चा हो।

सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है। गांव और कस्बों की कहानियों में उलझा रहा हिंदी उपन्यास। इस क्रम में उन्होंने प्रेमचंद से लेकर रेणु और मोरवाल तक के नाम गिना दिए। वो इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।

उनकी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। उत्तेजना में तो वो यहां तक कह गए कि परंपरा आदि बेकार की बातें हैं और ये सब कोर्स के लिए ठीक हो सकती हैं, साहित्य के लिए नहीं। मामला उलझता इसके पहले ही संवादकर्ता ने बहुत चतुराई से विषय बदल दिया। लेकिन मेरे दिमाग में उनकी बात अटकी रह गई।

कुछ दिनों बाद एक अन्य साहित्य उत्सव में कविता पर हो रही एक चर्चा सत्र में बैठा कवियों को सुन रहा था। वहां भी इस बात की चर्चा होने लगी कि आज के कवियों को हिंदी कविता की परंपरा का ज्ञान है या नहीं। छह प्रतिभागी थे जिनमें से अधिकतर की ये राय थी कि परंपरा हमको रचना सिखाती है। यहां भी एक युवा कवि एकदम से ये मानने को तैयार नहीं थे कि परंपरा से साहित्य सृजन का कोई लेना देना है।

वो यहीं पर नहीं रुके बल्कि आत्मप्रशंसा में जुट गए कि वो कितने महान हैं। उनकी कविताएं इंटरनेट ममीडिया पर कितनी लोकप्रिय होती हैं। उनको हजारों लाइक्स मिलते हैं आदि आदि। इस पैनल में ही एक और युवा कवि था। वो बार बार कहने का प्रयास कर रहा था कि परंपरा हमें बहुत सिखाती है। हम परंपरा को अगर जान पाएं तो हमें कविताएं लिखने में, शब्दों के चयन में, कविताओं में भावों को अभिव्यक्ति करने में मदद मिलती है।

इससे रचने में बड़ा लाभ होता है। पर दूसरा युवा कवि सुनने को तैयार नहीं था। वो तो बस परंपरा को ही नकार रहा था। जोश में तो यहां तक कह गया कि हमें निराला और पंत से सीखने की क्या जरूरत है। अगर हम उनकी कविताएं अधिक पढ़ेंगे तो उनके जैसे ही लिखने लग जाएंगे, आदि आदि। इस सत्र की बातें सुनकर उपन्यास वाले सत्र का स्मरण हो उठा। सत्र के बाद ये सोचने लगा कि आज के कुछ युवा लेखक स्वयं को इतना महान क्यों समझते हैं।

महान समझने को लेकर मैंने स्वयं को समझा लिया कि आत्मप्रशंसा हर अवस्था के लेखकों में पाई जाती है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन परंपरा का नकार क्यों। अपने पूर्वज लेखकों की कृतियों को लेकर उपेक्षा भाव क्यों। इस बात का उत्तर नहीं मिल पा रहा था।

इसी साहित्य उत्सव में अपने एक मित्र से दोनों घटनाओं की चर्चा की और बुझे मन से पूछा कि साहित्य की युवा पीढ़ी के कुछ लेखक क्यों सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करते हैं। मित्र ने फटाक से कहा कि तुम नाहक इस बात को लेकर परेशान हो। जो लोग अपनी परंपरा को या पूर्वज लेखकों को नकारते हैं उन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान होता है और ना ही उन्होंने पूर्वज लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा है।

आप इसको इस तरह से समझिए कि ज्ञान तो सीमित होता है जबकि अज्ञान असीमित होता है। जो चीज असीमित होती है उसके बारे में सोचकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। परंपरा को समझने और उसको अपनी रचनाओँ में बरतने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। परंपरा से जुड़े लेखन का संपूर्ण अध्ययन आवश्यक ना भी हो लेकिन उससे परिचय तो होना ही चाहिए। उन्होंने एक वाकया बताया।

कुछ दिनों पहले महिला दिवस पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसका विषय था – रामचरितमानस और स्त्रियां। एक से एक धुरंधर वक्ता उसमें उपस्थित थीं। उनमें से एक ने बहुत जोशीला भाषण दिया। इसी क्रम में श्रीराम को सीता को त्यागने को लेकर कठघरे में खड़ा करने लगीं। एक श्रोता अचानक खड़े हो गए, कहा कि आपने ये कहां पढ़ लिया कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया था।

उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब विषय ही रामचरितमानस है तो और कहां पढेंगी, वहीं पढ़ी है पूरी कहानी। इस पर श्रोता ने उनको आड़े हाथों लेते हुए खूब खरी खोटी सुना दी। कहा कि रामचरितमानस तो प्रभु श्रीराम के राज्याभिषेक के साथ समाप्त हो जाता है। उसके बाद कागभुसुंडि और गरुड़ जी का संवाद है जिसको विद्वान मानस वेदांत कहते हैं। पर वो महिला नहीं मानीं।

इन प्रसंगों को सुनने के बाद ये लगा कि हमारे समाज में भांति भांति के लोग हैं। भांति-भांति की भ्रांतियां हैं। इतिहास से लेकर साहित्य तक में भ्रम की स्थिति बनाई गई। इन्हीं भ्रम और भ्रांतियों का जब अज्ञान से मिलन होता है तो उससे अहंकार का जन्म होता है। यही अहंकार परंपरा को नकारता है। रचनात्मकता को कुंद करता है। हर दौर में इस प्रकार की घटनाएं होती होंगी परंतु इंटरनेट मीडिया के इस दौर में इस तरह की घटनाएं अधिक होने लगी हैं।

युवा रचनाकार अपनी थोड़ी सी प्रशंसा पर स्वयं को निर्मल और अज्ञेय मानने लगते हैं। आज स्वयं को दिनकर और निराला से श्रेष्ठ मानने वाले कई कवि आपको फेसबुक पर नजर आएंगे। उनकी श्रेष्ठता बोध का आधार फेसबुक के लाइक्स हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा को पहचानें, अध्ययन करें और स्वयं को उस परंपरा में रखकर देखें कि हम कहां हैं, अन्यथा इतिहास के बियावान में खोते समय नहीं लगता।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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टैरिफ का भारत की अर्थव्यवस्था पर क्या असर? पढ़ें इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

शेयर बाज़ार में गिरावट हो रही है लेकिन टैरिफ़ का भारत की अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ने की आशंका कम है। अमेरिका में भारत का एक्सपोर्ट GDP का 2.4% है।

Last Modified:
Monday, 07 April, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया भर के देशों पर टैरिफ़ लगाकर आर्थिक आपदा ला दी है। शेयर बाज़ार में लगातार गिरावट हो रही है। अमेरिका पर मंदी का ख़तरा मंडरा रहा है। ट्रंप ने ये जो आफ़त खड़ी की है उसका नतीजा क्या होगा किसी को नहीं पता। हिसाब किताब में चर्चा करेंगे कि भारत पर इसका क्या असर होगा? इस आपदा में भी कोई अवसर है क्या?

सबसे पहले तो यह समझ लेते हैं कि ट्रंप ने घोषणा क्या की है? चुनाव से पहले वो अमेरिका में आने वाले सामान पर टैक्स यानी टैरिफ़ लगाने की धमकी दे रहे थे। उनका तर्क है कि बाक़ी देश अमेरिका में सामान भेज रहे हैं। टैरिफ़ कम है इसलिए कंपनियाँ अमेरिका में सामान नहीं बनाती है। इससे अमेरिका में रोज़गार कम हो रहा है। यही देश जब अमेरिका से सामान लेते हैं तो ज़्यादा टैरिफ़ लगाते हैं। इस कारण अमेरिकी सामान इन देशों में बिकता नहीं है।

अमेरिका सामान ख़रीदता ज़्यादा है, बेचता कम है। इस कारण व्यापार घाटा है। एक लाइन में कहें तो वो अमेरिका को ‘आत्मनिर्भर’ बनाना चाहते हैं। उन्होंने दो अप्रैल को टैरिफ़ की लिस्ट जारी कर दी। इस दिन को उन्होंने Liberation Day यानी मुक्ति दिवस का नाम दिया। 9 अप्रैल से अमेरिका में आने वाले सभी सामान पर नया टैरिफ़ लग जाएगा। भारत के सामान पर 26% टैरिफ़ लगेगा।

भारत पर कितना असर?

शेयर बाज़ार में गिरावट हो रही है लेकिन टैरिफ़ का भारत की अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ने की आशंका कम है। अमेरिका में भारत का एक्सपोर्ट GDP का 2.4% है। भारत की GDP यानी कुल उत्पाद ₹100 है तो अमेरिका में सामान बेचने की हिस्सेदारी ₹2.40 , ऐसा तो है नहीं कि टैरिफ़ लगने से वहाँ भारत का एक्सपोर्ट ज़ीरो हो जाएगा बल्कि दवाइयों को फ़िलहाल छूट मिलने से भारत को राहत मिली है। इसका ग्रोथ पर असर 0.2% से लेकर 0.6% तक पड़ने की आशंका है यानी इतनी ग्रोथ कम हो सकती है।

टैरिफ़ में भी मौक़ा

टैरिफ़ अकेले भारत पर तो लगा नहीं है। आसपास के सभी देशों पर लगा है जो भारत की तरह अमेरिका को सामान बेचते हैं। भारत पर टैरिफ़ इन देशों से कम है। अमेरिका में भारत में बने कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान चीन, वियतनाम, बांग्लादेश जैसे देशों ख़रीदना सस्ता पड़ेगा। आपदा में यह बड़ा अवसर है। दूसरा बड़ा मौक़ा है अमेरिका के साथ व्यापार समझौता। ट्रंप ने कहा है कि जो देश अमेरिका के सामान पर टैरिफ़ कम करेंगे उन्हें वो छूट दे देंगे। अमेरिका और भारत के बीच बातचीत चल रही है।

अमेरिका चाहता है कि भारत टैरिफ़ कम करें। इसमें कृषि उत्पादों पर टैरिफ़ कम करने में दिक़्क़त है क्योंकि इससे किसान दिक़्क़त में आ सकते हैं। बाक़ी सामान पर टैरिफ़ कम करने में दिक़्क़त नहीं होना चाहिए। कॉमर्स मंत्री पीयूष गोयल ने इंडस्ट्री को पहले ही चेतावनी दी है कि सब्सिडी और इंपोर्ट ड्यूटी की आड़ से बाहर निकलना होगा। भारतीय कंपनियों को बचाने के लिए सरकार ने टैरिफ़ बढ़ा रखा है। टैरिफ़ कम होने पर भारतीय कंपनियों को विदेशी कंपनियों से मुक़ाबला करना होगा। ख़ासतौर पर क्वालिटी में.सरकार संकेत दे रही है कि वो टैरिफ़ कम करने के तैयार है। यहाँ टैरिफ़ कम होगा तो अमेरिका भी टैरिफ़ कम करेगा।

टैरिफ़ से उतना बड़ा ख़तरा नहीं है जितना इसके कारण अमेरिका में मंदी आने की आशंका से है। वहाँ मंदी आयी तो उसका असर भारत पर पड़ सकता है। जानकार लगातार कह रहे हैं कि टैरिफ़ से अमेरिका में महंगाई बढ़ सकती हैं, ग्रोथ कम हो सकती है। अमेरिका इस दुश्चक्र में फँसा तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में संकट आ सकता है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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प्रधानमंत्री पद के लिए उम्र की सीमा का विवाद निरर्थक: आलोक मेहता

इमरजेंसी के बाद 1977 में भारी बहुमत से आई जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई 81 वर्ष के थे। यदि पार्टी में विद्रोह नहीं होता, तो वह 86 वर्ष की उम्र में अपना कार्यकाल पूरा करते।

Last Modified:
Monday, 07 April, 2025
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

दुनिया के शक्तिशाली नेता डोनाल्ड ट्रम्प, व्लादिमीर पुतिन, शी जिन पिंग को क्या उम्र के आधार पर अमेरिका, रुस और चीन की जनता ही नहीं दुनिया स्वीकारती या अस्वीकारती है। ट्रम्प 79 पार हैं , पुतिन और शी जिन पिंग 70 पार कर चुके हैं। इस समय भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा सत्ता या प्रतिपक्ष में कौन सा ऐसा नेता हैं, जो इन महाशक्तियों की क्षमता और कमजोरियों को करीब से समझते जानते हों और उनके साथ भारत का पलड़ा भारी रखकर संवाद कर सकता हो?

मोदी को देश में भी जितनी व्यापक लोकप्रियता है वह भी देश दुनिया के लोग समझते हैं। शायद यही कारण है कि उनके घोर कुछ विरोधी नेता, कुछ संगठन या विदेशी ताकतें नरेंद्र मोदी को सितम्बर में 75 वर्ष की आयु में प्रवेश करने पर प्रधानमंत्री पद से हटने की निरर्थक बातें उठा रहे हैं। भ्रम यह फैलाया जा रहा है कि 2014 में उन्होंने या भाजपा ने स्वयं महत्वपूर्ण पदों के लिए यह आयु सीमा तय की थी। आप दस ग्यारह नहीं पंद्रह वर्षों का प्रिंट, आडिओ, वीडियो का रिकॉर्ड छान लीजिये कहीं ऐसी कोई स्पष्ट घोषणा नहीं मिलेगी।

इसके साथ पिछले दशकों के पूर्व प्रधानमंत्रियों या पद के दावेदार शीर्ष नेताओं की उम्र का रिकॉर्ड देख लीजिये। इमरजेंसी के बाद 1977 में भारी बहुमत से आई जनता पार्टी के प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई 81 वर्ष के थे। यदि पार्टी में विद्रोह नहीं होता तो वह 86 वर्ष की उम्र में अपना कार्यकाल पूरा करते। विद्रोही नेता के रुप में कांग्रेस के भ्रामक समर्थन से 1979 में प्रधान मंत्री बने चौधरी चरण सिंह 76 वर्ष के थे। इसी तरह पुराने कांग्रेसी कम्युनिस्टों का समर्थन लेकर प्रधानमंत्री बने इन्दर कुमार गुजराल 1997 में 77 वर्ष की आयु में प्रधान मंत्री बने।

भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी जब 1999 में पुनः प्रधान मंत्री बने तो 74 वर्ष के थे और 2004 में 79 के हो गए थे। उनके बाद कांग्रेस गठबंधन के डॉक्टर मनमोहन सिंह 71 की उम्र में बने और 2014 में 81 वर्ष की आयु तक प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे। भाजपा यदि 2009 में सत्ता में आ जाती और यदि पार्टी लालकृष्ण आडवाणी को अपना प्रधान मंत्री बनाती तो उनकी उम्र 82 वर्ष की थी और पांच साल राज भी राज करते तो 87 के हो चुके होते। दूसरे प्रबल दावेदार और पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी भी 80 पार कर चुके थे।

इन सभी नेताओं को अपनी पार्टी और जनता में अच्छा स्थान भी रहा। इसलिए उम्र से राजनीतिक पद पर रहने या रिटायर होने का निर्णय पार्टियां, जनता और नेता स्वयं तय कर सकते हैं। केवल जोड़ तोड़, अस्थिरता अराजकता और भ्रष्टाचार के लिए पदासीन प्रधानमंत्री को हटाने की किसी भी मुहीम को सही समय पर रोकने की जरुरत होती है। हाँ, दूसरी पंक्ति यानी भविष्य के नेतृत्व तैयार करने का काम पदासीन प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को अवश्य करते रहना चाहिए। पुराना इतिहास गवाह है कि अति महत्वाकांक्षी नेता जोड़ तोड़ या षडयंत्रों से प्रधानमंत्री नहीं बन सकते और किसी कारण से बन भी गए तो अधिक समय तक पद पर टिके नहीं रह सकते।

उदाहरण के लिए कांग्रेस के बड़े दावेदार यशवंतराव चव्हाण, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद पवार, अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की तत्कालीन गतिविधियों के गवाह हम जैसे पत्रकार भी हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गाँधी की भारी बहुमत वाली सरकार गिराकर प्रधानमंत्री पद पाया तो कितने समय टिके और खुद की पार्टी का क्या हश्र हुआ।

बहरहाल इस वर्तमान विवाद का एक कारण भाजपा के पिछले कुछ कुछ राजनीतिक निर्णय अवश्य माने जा सकते हैं। वैसे तो भाजपा की ऐसी कोई नीति नहीं है कि शीर्ष पद के लिए उम्र निर्धारित हो। लेकिन अतीत में लालकृष्ण आडवाणी, सुमित्रा महाजन से लेकर मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता भी 75 साल की उम्र के बाद राजनीति से हट गए थे। मई 2024 में लोकसभा चुनाव के दौरानप्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के 75 साल के होने के बाद रिटायरमेंट अफवाएं अरविन्द केजरीवाल जैसे नेताओं द्वारा उड़ाई गई थी।

वरिष्ठ नेता अमित शाह और राजनाथ सिंह ने ऐसी अफवाह का खंडन किया था। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताया था , मैं अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी और पूरे इंडिया ब्लॉक को बताना चाहूंगा कि आपको इस बात से खुश होने की कोई जरूरत नहीं है कि मोदी जी 75 वर्ष के हो रहे हैं। भाजपा के संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि आपको रिटायर होना है। मोदी जी कार्यकाल पूरा करेंगे और देश का नेतृत्व करते रहेंगे। इस पर बीजेपी में कोई भ्रम नहीं है। वहीँ भारतीय संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री को लोकसभा के लिए चुने जाने पर कम से कम 25 साल या राज्यसभा के लिए चुने जाने पर 30 वर्ष की आयु जरूरी है और संविधान में प्रधानमंत्री की अधिकतम आयु या रिटायरमेंट के बारे में कोई नियम नहीं है।

भाजपा ने कभी भी इस 75 पार वाले नियम को लिखित में दर्ज नहीं किया, लेकिन यह बात 2014 से ही चर्चा में रही। 2016 में इसी आधार पर गुजरात की तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने गुजराती में लिखी एक फेसबुक पोस्ट में पार्टी नेतृत्व से अनुरोध किया था कि उन्हें इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए क्योंकि वे नवंबर में 75 वर्ष की होने वाली थीं। 2016 में भी आनंदीबेन पटेल के फैसले को पार्टी नेतृत्व के 75 साल से अधिक उम्र के नेताओं को रिटायर करने के अघोषित नियम से जोड़कर देखा जा रहा था लेकिन उन्हें और कलराज मिश्र जैसे नेता राज्यपाल बने। इससे पहले जुलाई, 2016 में नजमा हेपतुल्ला ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था, जो तब 76 साल की थीं।

इनके अलावा यशवंत सिन्हा, उत्तराखंड के पूर्व सीएम बीसी खंडूरी, जसवंत सिंह, अरुण शौरी, लालजी टंडन, कल्याण सिंह, केशरी नाथ त्रिपाठी समेत कई नेता उम्र की वजह से सक्रिय राजनीति से दूर हो गए। दूसरी तरफ 75 पार करने के बावजूद कर्णाटक में येदुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया गया। अब नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री पद पर रहते हुए नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय जाने और सरसंघचालक मोहन भागवत के साथ कार्यक्रम में रहने पर उद्धव ठाकरे गुट की शिव सेना के संजय राउत और सोशल मीडिया में मोदी के रिटायरमेंट प्लान की अफवाहें चलाई गई।

तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने उद्धव ठाकरे की पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय राउत की बात का जवाब देते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी 2029 में भी प्रधानमंत्री बनेंगे। उनका यह बयान संजय राउत के बयान की प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि भाजपा की आगे की राजनीति की दिशा उन्होंने मोदी को भाजपा का पिता कहा और इस बात पर जोर दिया कि पिता के रहते उत्तराधिकारी की चर्चा नहीं होती है। फड़नवीस ने कहा कि पिता के रहते उत्तराधिकारी की चर्चा मुगल संस्कृति में होती है।

सो, फड़नवीस के हिसाब से मोदी ‘मैन ऑफ द फैमिली’ हैं, पिता हैं और वे प्रधानमंत्री बने रहेंगे। यह पहले से लग रहा था कि जिस 75 साल के सिद्धांत के आधार पर भाजपा के कई पुराने नेता रिटायर हुए वह मोदी पर लागू नहीं होगा। मोदी न केवल संघ के सिद्धांतों और हिंदुत्व के आदर्शों को क्रियान्वित कर रहे, जन कल्याण की अनेक योजनाओं को लागू करके लोकप्रियता के शिखर पर हैं। अब फड़नवीस की बातों ने इस पर मुहर लगा दी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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अफवाहें फैलाने वालों को पीएम मोदी ने हमेशा गलत साबित किया: रजत शर्मा

अब पिछले कई दिनों से ये चर्चा चलाई गई कि आरएसएस और प्रधानमंत्री के बीच दरार है। ये कहा गया कि आरएसएस मोदी से नाराज़ है। पर कहते हैं कि सौ सुनार की, एक लुहार की।

Last Modified:
Wednesday, 02 April, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘रिटायरमेंट’ को लेकर उड़ाई जा रही अफवाहों पर फुल स्टॉप लगा दी। संघ के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी एक स्वयंसेवक की तरह नागपुर में रविवार को आरएसएस मुख्यालय आए थे। उनके साथ आरएसएस के शताब्दी वर्ष की योजना पर बात हुई, लेकिन उत्तराधिकारी को लेकर न बात हुई, न चर्चा हुई, ये सब बेकार की बातें हैं।

दरअसल, उद्धव ठाकरे की शिवसेना के नेता संजय राउत ने ये शिगूफा छोड़ा था। संजय राउत ने कहा कि नरेंद्र मोदी के रिटायरमेंट का वक्त आ गया है, वह सितंबर में रिटायर हो रहे हैं, आरएसएस भी नेतृत्व में बदलाव चाहता है। संजय राउत ने ये भी दावा कर दिया कि उन्हें तो यहां तक संकेत मिले हैं कि मोदी का उत्तराधिकारी महाराष्ट्र से होगा, मराठी मानुष होगा।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि मोदी जी का उत्तराधिकारी खोजने का कोई कारण ही नहीं, मोदीजी हमारे नेता हैं, अगले कई साल तक मोदी जी काम करेंगे, हम सभी का आग्रह है, साल 2029 में मोदी जी प्रधानमंत्री बनें, यह पूरा देश चाहता है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की इच्छा रखने वालों की कमी नहीं है। जो पिछले तीन चुनाव में मोदी को नहीं हरा पाए, वो कभी चीन से, तो कभी अमेरिका से उम्मीद लगाते हैं, कभी कहते हैं कि किसान या फिर मुसलमान मोदी को हटा देंगे।

कुछ लोग तो ये भी उम्मीद लगाये बैठे हैं कि मोदी अपने आप तपस्या करने हिमालय की ओर चले जाएंगे। पर शेखचिल्ली को सपने देखने से आजतक कौन रोक पाया है? लोकसभा के चुनाव के दौरान केजरीवाल ने कहा था कि मोदी अमित शाह को पीएम बनाने के लिए वोट मांग रहे हैं। जनता ने केजरीवाल को ही साफ कर दिया।

अब पिछले कई दिनों से ये चर्चा चलाई गई कि आरएसएस और प्रधानमंत्री के बीच दरार है। ये कहा गया कि आरएसएस मोदी से नाराज़ है। पर कहते हैं कि सौ सुनार की, एक लुहार की। मोदी ने नागपुर जाकर इन सारी अटकलों को धराशायी कर दिया। आज नया शिगुफा छोड़ा गया। मोदी को हटाने की wishful thinking अगर किसी की है, तो उसे कोई नहीं रोक सकता। लेकिन सच ये है कि नरेंद्र मोदी अपना कार्यकाल आराम से पूरा करेंगे।

जनता ने जिताया तो 2029 में फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे। मोदी का न तो कोई विकल्प है, न कोई उत्तराधिकारी और न कोई नंबर 2। मैं तो कहता हूं कि नंबर 1 से लेकर नंबर 10 तक फिलहाल कोई नहीं है। मोदी के पद छोड़ने, उत्तराधिकारी चुनने की बातें पूरी तरह हवा-हवाई हैं। ये सिर्फ नरेंद्र मोदी तय करेंगे कि उन्हें कब तक बीजेपी को लीड करना है।

जितना परिश्रम वो कर रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि अभी 5-10 साल तो किसी का कोई चांस नहीं है। टॉप पर कोई वैकेंसी नहीं है। अटकलें लगाने वालों को, अफवाहें फैलाने वालों को मोदी ने बार-बार गलत साबित किया है। और इस बार ये लोग फिर गलत साबित होंगे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सोने की लत से हारी सरकार, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

सरकार के लिए यह घाटे का सौदा साबित हुआ। स्कीम बंद नहीं की है लेकिन इस साल सरकार कोई नया बॉन्ड नहीं लायीं। 2032 तक सरकार को 1.12 लाख करोड़ रुपये बॉन्ड धारकों को चुकाने होंगे।

Last Modified:
Monday, 31 March, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

आपको पता है कि हर साल भारत में 700 टन से ज़्यादा सोना विदेश से आता है। इस पर 3.5 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा विदेशी मुद्रा खर्च होती है। केंद्र सरकार ने सोने की लत छुड़ाने के लिए दस साल पहले बड़ी योजना बनाई थी ताकि विदेशी मुद्रा की बचत हो सकेगी। दस साल बाद सरकार ने भी घुटने टेक दिए हैं। सोने का इंपोर्ट कम ही नहीं हो रहा है। Gold Monetization Scheme को बंद कर दिया गया है जबकि इस साल कोई नया गोल्ड बॉण्ड जारी नहीं किया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में सोने के लिए तीन स्कीम लाँच की थीं। Gold Monetization Scheme मतलब आप अपना सोना बैंक में जमा करिए और हर साल 2.5% ब्याज पाते रहें। घर या मंदिरों में जो सोना रखा है उस पर कोई आमदनी नहीं हो रही है। यहाँ ब्याज मिलेगा। अवधि ख़त्म होने पर सोना वापस ले जाइये। बैंक सोने को सुनारों को क़र्ज़ पर देगा। सुनार गहने बनाकर बेचेंगे। विदेश से सोना कम मँगवाना पड़ेगा।

देश में उस समय 20 हज़ार टन सोना था। हर साल 5% यानी 1 हज़ार टन सोना भी बैंकों में आ जाता तो इंपोर्ट की ज़रूरत नहीं होती। बैंकों में सोना दस साल में आया सिर्फ़ 31 टन। स्कीम फेल होने का बड़ा कारण रहा गहनों से लोगों का लगाव। बैंक में गहने जमा करने पर उन्हें पिघलाया जाता था ताकि ज्वैलर नये गहने बना सकें। अवधि पूरी होने पर बैंक आपको ब्याज समेत सोना लौटाता था, गहने नहीं मिलते थे। सोने की सिल्ली मिलती थी।

स्कीम में सोना जमा करने के लिए तीन अवधि थी , लाँग टर्म ( 12-15 साल), मीडियम टर्म (5-7 साल) और शॉर्ट टर्म (1-3 साल) , सरकार ने लाँग टर्म और मीडियम टर्म स्कीम को 26 मार्च से बंद कर दिया है। जिन्होंने पहले से सोना जमा कर रखा है उन्हें अवधि पूरी होने तक ब्याज मिलेगा। शॉर्ट टर्म स्कीम चलाना है या नहीं? यह फ़ैसला बैंकों पर छोड़ दिया गया है।

दूसरी स्कीम थी Sovereign Gold Bond, रिज़र्व बैंक ने भारत सरकार की तरफ़ से बॉन्ड जारी किए। आइडिया था कि असली सोना मत ख़रीदिए, काग़ज़ का सोना ख़रीदिए। अवधि पूरी होने पर काग़ज़ का सोने का दाम उतना ही मिलेगा जितना बाज़ार में असली सोने का चल रहा है। इसके ऊपर ब्याज भी मिलेगा। यह स्कीम सरकार को ही उलटी पड़ गई। सरकार ने सोचा था कि 2.5% ब्याज पर पैसा मिलेगा जो बाज़ार के 8-9% से सस्ता है। सरकार ने यह नहीं सोचा था कि सोने के दाम तीन गुना बढ़ जाएँगे। 2015 में दस ग्राम सोना ₹25 हज़ार में मिलता था और अब ₹90 हज़ार।

सरकार के लिए यह घाटे का सौदा साबित हुआ। स्कीम बंद नहीं की है लेकिन इस साल सरकार कोई नया बॉन्ड नहीं लायीं है। अनुमान है कि 2032 तक सरकार को 1.12 लाख करोड़ रुपये बॉन्ड धारकों को चुकाने होंगे। दस साल में लोगों ने 147 टन काग़ज़ का सोना यानी इतनी क़ीमत के बॉन्ड ख़रीदें लेकिन असली सोने की माँग भी बढ़ती रहीं। स्कीम का मक़सद फेल हो गया।

तीसरी स्कीम थी सोने के सिक्के सरकार खुद ही बेच रही थीं। यह सोना Gold Monetization Scheme से आना था। यह भी चल नहीं सकीं, तीनों स्कीम की नाकामी यह बात साबित करती है कि सोने की लत भारतीय लोगों में इतनी ज़्यादा है कि सरकार भी इसे छुड़ा नहीं सकीं। हमने पिछले हफ़्ते ही लिखा था कि सोने को सेफ़ मानकर ख़रीदा जाता है। शेयर बाज़ार के मुक़ाबले यह यह बेहतर या बराबरी का इन्वेस्टमेंट साबित हुआ है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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