समय का समकाल अगर कुछ है तो वह अनिश्चितता है। उसी अनिश्चितता के गर्भ में उम्मीद, संभावना और आशंका होती हैं। जो बीता हुआ समय है, वह संदर्भ, संदेश और सबक के काम आता है।
राणा यशवंत।।
समय का समकाल अगर कुछ है तो वह अनिश्चितता है। उसी अनिश्चितता के गर्भ में उम्मीद, संभावना और आशंका होती हैं। जो बीता हुआ समय है, वह संदर्भ, संदेश और सबक के काम आता है। उसके पास घटित चीजें होती हैं-अच्छी या बुरी। 2022 पिछले तीन वर्षों में सबसे अच्छा माना जाएगा। 2020 और 2021 में कोरोना का कहर देश और दुनिया पर जिस तरह से टूटा, उसने सब कुछ उलट-पलटकर रख दिया। लेकिन उन्हीं दो वर्षों के महासंकट के भीतर दुनिया ने अपने लिए कुछ नए उपाय-उपकरण खोजे, जिनका 2022 ने भरपूर इस्तेमाल किया।
सोशल डिस्टेंसिंग के कारण डिस्टेंट सोशलाइजेशन शुरू हुआ। बंद सिनेमाघरों की जगह ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने ले ली और वेब सीरीज बड़ी तादाद में बनने लगीं। आज मोशन पिक्चर्स से कहीं अधिक पैसा वेब सीरीज में खर्च हो रहा है। उस कंटेंट का कंजम्पशन बढ़ा है। न्यूज चैनल्स की ओबी वैन और लाइव यू की जगह जूम और स्काइप जैसे ऐप से काम चलने लगा। लोग जहां थे, वहीं से वे टीवी स्क्रीन पर जुड़ने लगे सिर्फ अपने मोबाइल के जरिये।
अखबारों ने सब्स्क्रिप्शन बेस्ड पोर्टल और ऐप के जरिये खुद को नए तरीके से बाजार में बनाए रखने और बेहतरी की गुंजाइश निकालने के प्रयोग शुरू किए। सोनी लाइव, जी-5, शेयरचैट, डेलीहंट जैसे कंटेंट एग्रीगेटर डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने नई ऊंचाई हासिल की। जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो ये कि यूटूयबर्स और सोशल मीडिया एंफ्लुएंसर्स की एक नई जमात सामने आई है। आम लोगों को स्टारडम मिलने लगा और इसके लिए किसी इंडस्ट्री या ब्रेक की जरूरत नहीं थी। वे अपना कंटेंट बनाने और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर डालने लगे। लोग उनको पसंद करते गए और धीरे-धीरे वे लोकप्रियता हासिल करते चले गए। 2022 इन सब के लिहाज से अब तक का बेहतरीन साल रहा।
देश की राजनीति पिछले तीन वर्षों में सबसे अधिक सक्रिय रही। जाहिर है कि मीडिया भी रहा। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बीजेपी ने लगातार दो बार सरकार बनाकर न सिर्फ रिवाज तोड़ा, बल्कि उसका चुनाव प्रबंधन और नेतृत्व पारंपरिक चुनावी रणनीति पर चलने वाले दलों को रौंदता दिखने लगा। गुजरात की जीत भी उसी की ताजा कड़ी रही। मगर आम आदमी पार्टी ने पंजाब में सरकार बनाकर और गुजरात के चुनावों में 13 फीसद वोट लेकर अपने लिए 2024 की संभावनाएं काफी मजबूत कर लीं। यह भी साफ हो गया कि केजरीवाल कांग्रेस के लिए बड़ा खतरा बन रहे हैं।
बहुत संभव है कि अगले आम चुनावों में कांग्रेस की हालत आम आदमी पार्टी के चलते और लचर हो जाए। मीडिया के लिए यही नए साल का प्रस्थान बिंदु होगा। अगले साल आधा दर्जन से अधिक राज्यों में चुनाव हैं और उनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य भी हैं, जो 2024 की पूर्वपीठिका तैयार करेंगे। भारत जी-20 की मेजबानी करेगा। इसके चलते भी साल भर आयोजन और जलसों का दौर चलेगा। मीडिया के लिए नया साल इस लिहाज से हलचल भरा रहेगा।
सोशल मीडिया का दायरा और बढ़ेगा। 5-जी का विस्तार जैसे-जैसे होगा, एक नई तरह की क्रांति देखने को मिलेगी। मगर एक बड़े खतरे की आहट आने लगी है और डर इस बात का है कि फिर से 2020-21 वाली स्थिति न पैदा हो जाए। चीन में कोरोना का फिर से विस्फोट हुआ है। बेहिसाब मौतें हो रही हैं। शव दफनाने के लिए दो-दो हजार की लाइन है। अगले 90 दिनों के भीतर 60 फीसदी चीन के कोरोना पॉजिटिव होने की आशंका है। अमेरिका, जापान, ब्राजील, दक्षिण कोरिया जैसे देशों में कोरोना मरीजों की तादाद बढ़ रही है। ऐसे में भारत बचा रहेगा, यह ‘ऊपरवाला’ ही बता सकता है। खबरों की दुनिया में कोरोना का खात्मा ही हो जाए, यही हम सबकी कामना होगी। 2023 मीडिया और देश-दुनिया के लिहाज से ट्रैक ऑफ ईयर साबित हो, यह जरूरी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक ‘इंडिया न्यूज’ में मैनेजिंग एडिटर हैं।)
शिक्षा के क्षेत्र को भी सर्वोच्च प्राथमिकता देकर हार्वर्ड, ऑक्सफ़ोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने और उनकी तरह श्रेष्ठ शिक्षा के केंद्र बनाने को भी प्राथमिकता दी जाये।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
अमेरिका और ब्रिटिश सरकारें भारतीय छात्रों से करोड़ों की कमाई के बाद अधिकांश युवाओं को फरमान जारी कर रही हैं कि अपने घर लौट जाएं। राष्ट्रपति ट्रम्प और ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टारमर के सत्ता में आने के बाद नए नियम कानून थोपकर अन्य विदेशियों के साथ भारतीय युवाओं को भी कुछ तनाव और मुसीबत पैदा कर दी है। हजारों छात्र और उनके माता पिता लाखों या एक से पांच करोड़ तक के खर्च या कर्ज का इंतजाम करते हैं। बहुतों को यह आशा या विश्वास रहता है कि पढाई ख़त्म करने के बाद दो चार साल परदेस में नौकरी या कोई काम करके कमाई से कर्ज पूरा कर देंगें।
भारत में भी अच्छे उच्च शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार की संभावनाएं बढ़ी हैं। भारतीय कंपनियों के अलावा बड़े पैमाने पर विदेशी कंपनियां उन्हें नौकरियां दे रही हैं लेकिन वे भारतीय बाजार क्षमता के अनुसार प्रारम्भ में उतना वेतन नहीं देती हैं। इसी तरह स्व रोजगार के लिए अच्छी खासी बड़ी धनराशि की जरुरत होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता के 11 साल पूरे होने पर अब तक की उपलब्धियों के साथ भविष्य के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आत्म निर्भरता के साथ विकसित भारत 2047 का लक्ष्य सामने रखा है।
इसलिए दुनिया की चौथी बड़ी अर्थ व्यवस्था के साथ डिजिटल क्रांति, रक्षा क्षेत्र के उत्पादन, विज्ञानं टेक्नोलॉजी, अंतरिक्ष ,स्वास्थ्य चिकित्सा आदि में आत्म निर्भरता के अभियान चलाए जा रहे हैं। तब शिक्षा की नई नीति लाने के बाद शिक्षा के क्षेत्र को भी सर्वोच्च प्राथमिकता देकर हार्वर्ड ऑक्सफ़ोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने और भारत के अपने चुनिंदा विश्वविद्यालयों को उनकी तरह श्रेष्ठ शिक्षा के केंद्र बनाने को भी प्राथमिकता क्यों नहीं दी जा सकती है? हाल के महीनों में यह तथ्य सामने आए हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़ाई के बाद रुकना अब कठिन हो रहा है।
छात्रों के वीज़ा रद्द होने और देश से निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है। करीब 3 लाख से अधिक भारतीय छात्र अमेरिका में पढ़ाई के बाद पुराने नियम की ऑप्शनल ट्रेनिंग योजना के अंतर्गत काम करना चाहते हैं, लेकिन अब इसे बंद करने का प्रस्ताव सामने आया है। इससे छात्रों को पढ़ाई के तुरंत बाद भारत लौटने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। मई 2025 तक 69,000 भारतीय छात्रों को अधिकारियों द्वारा चेतावनी पत्र मिले हैं कि वे बेरोजगारी की सीमा पार कर चुके हैं, जिससे उनका वीजा रद्द हो सकता है और देश छोड़ने के आदेश दिए जा सकते हैं।
छोटे-मोटे नियम उल्लंघन या राजनैतिक गतिविधियों (जैसे फिलिस्तीन समर्थन) के कारण कई छात्रों का वीजा तुरंत रद्द किया जा रहा है। इसी तरह "सेल्फ-डीपोर्ट" (स्वेच्छा से देश छोड़ने) का दबाव बनाया जा रहा है। जिन छात्रों का वीजा रद्द हुआ है, उन्हें 15 दिनों के भीतर अमेरिका छोड़ने का आदेश दिया गया है। कई छात्र नौकरियाँ छोड़ रहे हैं या डर के कारण कोई नौकरी नहीं ले पा रहे हैं। इसी तरह ब्रिटेन में पढ़ाई के बाद नौकरी मिलना अब और मुश्किल हो रहा है।
पहले की तरह नियमानुसार काम करने की अनुमति का समय घटा दिया गया है। पहले पढाई के साथ हफ्ते में निर्धारित घंटे किसी तरह के पार्ट टाइम काम करने का प्रावधान रहा है। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय छात्रों के लिए ग्रेजुएट रुट वीसा की अवधि 2 साल से घटाकर 18 महीने कर दी है। साथ ही, परिवार के साथ वीजा लेने पर भी कई नई बंदिशें लगाई गई हैं। हाल की रिपोर्ट्स के अनुसार, 90% से अधिक भारतीय छात्र पढ़ाई के बाद भारत लौट आए, क्योंकि उन्हें नौकरी नहीं मिली या वीज़ा विस्तार नहीं मिला।
इससे मानसिक तनाव बढ़ रहा और पढ़ाई अधूरी लग रही है। दूसरी तरफ ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि रिज़र्व बैंक के रिकॉर्ड के अनुसार 2023–24 में भारतीय छात्र और अन्य उद्देश्य के लिए भारत से भेजी गई शिक्षा एवं यात्रा सम्बंधित राशि $3.47 बिलियन थी। 2024–25 में इससे जुड़ी कुल धनराशि करीब $31.7 बिलियन है और इस में कुल शिक्षा संबंधित राशि करीब $3.5 बिलियन है।
एक मोटे अनुमान के अनुसार भारतीय छात्रों द्वारा विदेश में शिक्षा के लिए सालाना लगभग ₹30–₹35 हजार करोड़ (US $3.4–3.5 B) का विदेशी मुद्रा खर्च किया जा रहा है। 2025 में भारत में करीब 1,150 विश्वविद्यालय और 40,000 से अधिक कॉलेज चल रहे हैं। इनमें केंद्रीय विश्वविद्यालय 55, राज्य विश्वविद्यालय 479 , डीम्ड विश्वविद्यालय 137 और निजी विश्वविद्यालय 455 बताए जाते हैं।
वित्त वर्ष 2025–26) में कुल शिक्षा बजट: ₹1,28,650 करोड़ है। इसमें स्कूल शिक्षा को ₹78,572 करोड़ (61%) और उच्च शिक्षा को ₹50,078 करोड़ (39%) आवंटित किया गया है। भारत ने आधिकारिक तौर पर विदेशी विश्वविद्यालयों को 2023 में शाखा कैंपस खोलने की अनुमति दे दी है। इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमानुसारवैश्विक प्रतिष्ठित (टॉप 500 रैंकिंग) विश्वविद्यालय भारत में स्वतंत्र कैंपस खोल सकते हैं। ये संस्थान स्व निर्धारित प्रवेश नीति, शुल्क संरचना, और बुनियादी ढांचे के साथ पूरी स्वायत्तता में काम करेंगे।
ऑन कैंपस शुरुआत होगी, 10% से अधिक ऑनलाइन शिक्षा की अनुमति नहीं है। एक विश्वविद्यालय एक से अधिक कैंपस खोल सकता है। अब तक 5 विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति मिल चुकी है। इनमें अमेरिका की इलिनोइस इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी , Illinois Institute of Technology , ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीवरपूल ( University of Liverpool ) ऑस्ट्रेलिया की विक्टोरिया यूनिवर्सिटी (Victoria यूनिवर्सिटी ) और वेस्टर्न सिडनी Western Sydney University ) और इटली की इंस्टिट्यूट यूरोपा डी डिज़ाइन शामिल है।
अगले चरण में अब तक लगभग 15 विश्वविद्यालयों को भारत में शाखा कैंपस खोलने के लिए अनुमति जारी हुई है। ये 2025–26 में परिचालन शुरू कर सकते हैं। भारत में हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जैसे विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए सिर्फ बुनियादी ढांचे या इमारतों की जरूरत नहीं होती। इसके लिए एक नीति, संस्कृति और संसाधनों की अनुकूल स्थितियों की आवश्यकता है।
जैसे शैक्षणिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता और विश्वविद्यालयों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखना होगा। फिर कोर्स डिज़ाइन, प्रवेश प्रक्रिया, नियुक्ति और शोध दिशा में स्वतंत्रता आवश्यक है। मौजूदा नियामकों यू जी सी और ए आई सी टी ई को सुधार कर विश्वविद्यालयों को अधिक स्वतंत्रता देनी होगी। विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों को प्रति विद्यार्थी ₹25–50 लाख तक सालाना निवेश की जरूरत होती है। भारत को सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल अपनाना चाहिए।
एंडॉवमेंट फंड्स की संस्कृति विकसित करनी होगी। जैसे हार्वर्ड के पास $50 बिलियन से अधिक है। भारत को विश्व स्तर की फैकल्टी को आकर्षित करने के लिए: ₹1–2 करोड़ का वेतन देना होगा। रिसर्च फंडिंग, आवास और स्वतंत्रता देना होगा। प्रवासी भारतीय शिक्षाविद, नोबेल विजेता, और भारतीय मूल के प्रोफेसरों को भारत लौटने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। अनुसंधान और नवाचार को प्राथमिकता देनी होगी।
भारत के विश्वविद्यालयों को विश्व रैंकिंग के मानदंडों और पारदर्शिता पर ध्यान देना होगा। जैसे छात्र-शिक्षक अनुपात, अंतरराष्ट्रीय विविधता, रिसर्च प्रभाव भारत के विश्वविद्यालयों का 90% ध्यान अभी पढ़ाने पर है, रिसर्च पर बहुत कम है। केंद्र सरकार को टॉप विश्वविद्यालयों को रिसर्च बजट 500 से 1000 करोड़ देना चाहिए।यह काम बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां भी कर सकती हैं। यही नहीं शिक्षा के लिए धार्मिक संस्थानों ट्रस्टों से अरबों रुपया मिल सकता हैं। वहां तो उनके खजाने में अरबों का सोना चांदी भरा है। उसका उपयोग बैंकों से धन लेने में हो सकता है। शिक्षा से बड़ा पुण्य क्या हो सकता है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
आज से दो दशक पहले मैत्रेयी पुष्पा ने जब ऐसा बोला था तब शायद ही सोचा होगा कि मोबाइल स्त्रियों और पुरुषों की दबी आकांक्षाओं के प्रदर्शन का भी कारक भी बनेगा।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
आज से करीब दो दशक पूर्व की बात है। तब मैत्रेयी पुष्पा का हिंदी साहित्य में डंका बज रहा था। एक के बाद एक चर्चित उपन्यास लिखकर उन्होंने साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की थी। गोष्ठियों में भी उनकी मांग थी। लोग उनको सुनना चाहते थे। मैत्रेयी पुष्पा भी अपने ग्रामीण अनुभवों के आधार पर बात रखती तो महानगरीय परिवेश में रहनेवालों को नया जैसा लगता।
मुझे जहां तक याद पड़ता है कि दिल्ली के हिंदी भवन में एक गोष्ठी थी। उसमें मैत्रेयी पुष्पा भी वक्ता थीं। विषय स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ था। मैत्रेयी के अलावा जो भी वक्ता थीं वो स्त्री विमर्श को लेकर सैद्धांतिक बातें कर रही थी। मंच से बार बार सीमोन द बोव्आर के उपन्यास सेकेंड सेक्स का नाम लिया जा रहा था। सीमोन की स्थापनाओं पर बात हो रही थी और उसको भारतीय परिदृष्य से जोड़कर बातें रखी जा रही थीं।
उनमें से अधिकतर ऐसी बातें थीं जो अमूमन स्त्री विमर्श की गोष्ठियों में सुनाई पड़ती ही थीं। अब बारी मैत्रेयी के बोलने की थी। उन्होंने माइक संभाला और फिर बोलना आरंभ किया। स्त्री विमर्श पर आने के पहले उन्होंने एक ऐसी बात कही जो उस समय नितांत मौलिक और उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जब से औरतों के हाथ में मोबाइल पहुंचा है वो बहुत सश्कत हो गई हैं। उनको एक ऐसा सहारा या साथी मिल गया जो वक्त वेवक्त उनके काम आता है, उनकी मदद करता है।
गांव की महिलाएं भी घूंघट की आड़ से अपनी पीड़ा दूर बैठे अपने हितचिंतकों को या अपने रिश्तेदारों को बता सकती हैं। संकट के समय मदद मांग सकती हैं। इस संबंध में मैत्रेयी पुष्पा ने कई किस्से बताए जो उनकी भाभी से जुड़े हुए थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने गंवई अंदाज में मोबाइल को स्त्री सशक्तीकरण से जोड़कर ऐसी बात कह दी जो उनके साथ मंच पर बैठी अन्य स्त्रियों ने शायद सोची भी न होगी। जब मैत्रेयी बोल रही थीं तो सभागार में जिस प्रकार की चुप्पी थी उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकतर लोग उनकी इस स्थापना से सहमत हों।
आज से दो दशक पहले मैत्रेयी पुष्पा ने जब ऐसा बोला था तब शायद ही सोचा होगा कि मोबाइल स्त्रियों और पुरुषों की दबी आकांक्षाओं के प्रदर्शन का भी कारक भी बनेगा। पिछले दिनों मित्रों के साथ स्क्रीन पर व्यतीत होनेवाले समय पर बातचीत हो रही थी। चर्चा में सभी ये बताने में लगे थे कि किन किन प्लेटफार्म पर उनका अधिक समय व्यतीत होता है। ज्यादातर मित्रों का कहना था कि इंस्टा और एक्स की रील्स देखने में समय जाता है।
इस चर्चा में ही एक मित्र ने कहा कि वो जब घरेलू और अन्य महिलाओं के वीडियो देखते हैं तो आनंद दुगुना हो जाता है। जिनको डांस करना नहीं आता वो भी डांस करते हुए वीडियो डालती हैं। कई बार तो पति पत्नी के बीच के संवाद भी रील्स में नजर आते हैं। उसमें वो रितेश देशमुख और जेनेलिया की भोंडी नकल करने का प्रयास करते हैं। इस चर्चा के बीच एक बहुत मार्के की बात निकल कर आई।
इंस्टा की रील्स एक ऐसा मंच बन गया है जो महिलाओं और पुरुषों के मन में दबी आकांक्षाओं को भी सामने ला रही हैं। जिन महिलाओं को चर्चित होने का शौक था, जिनको पर्दे पर आने की इच्छा थी, जिनको डांस सीखने और मंच पर अपनी कला को प्रदर्शित करने की इच्छा थी वो सारी इच्छाएं पूरी हो रही हैं। रील्स और इंस्टा के पहले इस तरह की आकांक्षाएं मन में ही दबी रही जाती थीं। उनके अंदर कुंठा पैदा करती थीं। मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा नहीं होने से जो महिलाएं नृत्य कला का प्रदर्शन करना चाहती थीं वो कर नहीं पाती थीं।
इसमें बहुत सी अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी रील्स में देखा जा सकता है। कई तो अजीबोगरीब करतब करते हुए नजर आती हैं। लेकिन अपने मन का कर तो रही हैं। रील्स का ये एक सकारात्मक पक्ष माना जा सकता है। जैसे मोबाइल फोन ने महिलाओं को सशक्त किया उसी तरह से इंटरनेट और इंटरनेट प्लेटफार्म्स ने महिलाओं की आकांक्षाओं को पंख दिए। अब वो बगैर किसी लज्जा के, संकोच के अपने मन का कर रही हैं और समाज के सामने उसको प्रदर्शित भी कर रही हैं।
रील्स को लेकर पहले भी इस स्तंभ में चर्चा हो चुकी है जिसमें रोग से लेकर शेयर बाजार में निवेश के टिप्स तक और धन कमाने से लेकर भाग्योदय तक के नुस्खों को केंद्र में रखा गया था। रील्स पर हो रही चर्चा में एक चिकित्सक मित्र ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि रील्स ने डाक्टरों का बहुत फायदा करवाया है। रील्स देखकर स्वस्थ रहने के नुस्खे अपनाने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं।
स्वस्थ रहने के तरीकों को देखकर उनको अपनाने से बहुधा समस्या हो जा रही है। जैसे रील्स में सेंधा नमक को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही जाती हैं। सलाह देनेवाले सेंधा नमक को स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बताते हैं। रील्स देखकर लोग सेंधा नमक खाने लग जाते हैं। बगैर ये सोचे समझे कि आयोडाइज्ड नमक खाने के क्या लाभ थे और छोड़ देने के क्या नुकसान।
जब शरीर में सोडियम पोटाशियम का संतुलन बिगड़ता है तो चिकित्सकों के पास भागते हैं। पता चलता है कि ये असंतुलन निरंतर सेंधा नमक ही खाते रहने से हुआ। अगर आयोडाइज्ड नमक भी खाते रहते तो सभवत: ऐसा नहीं होता। स्वस्थ रहने के इसी तरह के कई नुस्खे आपको इंस्टाग्राम पर मिल जाएंगे। सभी इस तरह से बताए जाते हैं कि देखनेवालों का एक बार तो मन कर ही जाता है कि वो उसको अपना लें। इस बात का उल्लेख रील्स में नहीं होता है कि सलाह देनेवाले चिकित्सक या न्यूट्रिशनिस्ट हैं या नहीं।
रील की दुनिया बहुत मनोरंजक है। समय बहुत सोखती है। कई बार वहां अच्छी सामग्री भी मिल जाती है लेकिन एआई के इस दौर में प्रामाणिकता को लेकर संशय मन में बना रहता है। किसी का भी वीडियो बनाकर उसमें उनकी ही आवाज पिरोकर वायरल करने का चलन भी बढ़ रहा है। ऐसे में इस आभासी दुनिया को सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए ही उपयोग किया जाना चाहिए। मन में दबी इच्छाओं को पूर्ण करने का मंच माना या बनाया जा सकता है। इस माध्यम को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि वो दिन दूर नहीं जब लोग इससे ऊबकर फिर से छपे हुए अक्षरों की ओर लौटेंगे। जिस प्रकार की प्रामाणिकता प्रकाशित शब्दों या अक्षरों की होती है वैसी इन आभासी माध्यमों में नहीं होती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस माध्यम का समाज पर प्रभाव पड़ रहा है। लोग कई बार यहां सुझाई या कही गई बातों को सही मानकर अपनी राय बना लेते हैं। लेकिन जैसे-जैसे देश में शिक्षितों की संख्या बढ़ेगी, लोगों की समझ बनेगी तो इसको विशुद्ध मनोरंजन के तौर पर ही देखा जाएगा सूचना के माध्यम के तौर पर नहीं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
आज का भारत, युवा शक्ति से भरपूर है। देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या यानी लगभग 85 करोड़ युवा अपनी रचनात्मक शक्ति के बल पर हमारे देश को प्रगति की नई ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं।
प्रो. संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली।
भारत अध्यात्म, ज्ञान, कर्म, सेवा, साधना और करुणा का देश रहा है। भारत, राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए युवाओं की भूमिका का महत्व पहचानने वालों का देश रहा है। ऋषियों, शिक्षकों, कवियों, गुरुओं और वरिष्ठ-जनों ने युवा-शक्ति का यथेष्ट मार्गदर्शन करके उन्हें समाज, देश और दुनिया के कल्याण की ओर सदैव प्रेरित किया है। राष्ट्र-निर्माण के कार्य में युवाओं को प्रेरित करने में समाज की, मनीषियों और चिंतकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ये मनीषी और चिंतक युवा शक्ति के लिए सदैव प्रेरक होते हैं। उनके ‘रोल मॉडल’ होते हैं। सामान्य तौर पर, ये रोल मॉडल समय-समय पर, देश-काल और परिस्थिति के अनुसार, बदलते रहते हैं। लेकिन कुछ रोल मॉडल कभी नहीं बदलते। ऐसे ही एक कालजयी रोल मॉडल हैं - स्वामी विवेकाननंद। स्वामी विवेकानंद के विचार दुनियाभर के युवाओं को प्रेरित करते रहे हैं। उन्हें युवाओं की ऊर्जा पर बहुत भरोसा था।
वे कहते थे कि – ‘युवा वो होता है जो बिना अतीत की चिंता किए अपने भविष्य के लक्ष्यों की दिशा में काम करता है’। स्वामी विवेकानंद भारत के युवा को अपने गौरवशाली अतीत और वैभवशाली भविष्य की एक मजबूत कड़ी के रूप में देखते थे। आप सभी को आज बस अपने अतीत को जानना है। क्योंकि अतीत को जानकर, उसे समझकर, आपको भविष्य के लक्ष्य तय करने हैं। अपने लिए, समाज के लिए, देश के लिए जो कुछ भी उत्तम और कल्याणकारी है, उसे प्राप्त करने के लिए काम करना है।
आज का भारत, युवा शक्ति से भरपूर है। देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या यानी लगभग 85 करोड़ युवा अपनी रचनात्मक शक्ति के बल पर हमारे देश को प्रगति की, मानव सभ्यता की नई ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो आज से लगभग 9 वर्ष पहले शुरू किए गए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की सफलता में युवाओं का अभूतपूर्व योगदान रहा है। स्वच्छता के प्रति जागरुकता बढ़ाने में, लोगों को प्रेरित करने में युवाओं ने प्रभावशाली योगदान दिया है।
हमारे युवाओं में असीम प्रतिभा और ऊर्जा है। इस प्रतिभा और ऊर्जा का समुचित विकास और उपयोग किए जाने की जरूरत है। इस दिशा में प्रयास तेजी से किए जा रहे हैं और इन प्रयासों के परिणाम भी सामने आने लगे हैं। ज्ञान-विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर, खेल के मैदान तक भारत के बेटे-बेटियां विश्व समुदाय पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं। देश के कोने-कोने से नई-नई खेल प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। खेल-कूद से हमारे अंदर टीम भावना का संचार होता है। सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता के लिए टीम भावना जगाने वाले ऐसे प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है।
आज Innovation, Incubation और Start-Up की नई धारा का नेतृत्व भारत में कौन कर रहा है? आज अगर भारत दुनिया के Start-Up Eco System में टॉप तीन देशों में आ गया है, तो इसके पीछे किसका परिश्रम है? आज भारत दुनिया में यूनिकॉर्न पैदा करने वाला, एक बिलियन डॉलर से ज्यादा की नई कंपनी बनाने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश बना है, तो इसके पीछे किसकी ताकत है? इन सब सवालों का एक ही जवाब है, युवा। युवाओं की मेहनत और समर्पण के दम पर ही भारत आज नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा है।
आज से 10 साल पहले हमारे देश में औसतन चार हजार पेटेंट प्रतिवर्ष होते थे। अब इसकी संख्या बढ़कर सालाना 15 हजार पेटेंट से ज्यादा हो गई है, यानि करीब-करीब चार गुना। ये किसकी मेहनत से हो रहा है। कौन है इसके पीछे? मैं फिर से दोहराता हूं। इसके पीछे युवा ही हैं, नौजवान साथी हैं, युवाओं की ताकत है। 26 हजार नए स्टार्टअप का खुलना दुनिया के किसी भी देश का सपना हो सकता है। ये सपना आज भारत में सच हुआ है। तो इसके पीछे भारत के नौजवानों की ही शक्ति है, उन्हीं के सपने हैं। भारत के नौजवानों ने अपने सपनों को देश की जरूरतों से जोड़ा है, देश की आशाओं और आकांक्षाओं से जोड़ा है।
देश के निर्माण का काम मेरा है, मेरे लिए है और मुझे ही करना है। इस भावना से भारत का नौजवान आज भरा हुआ है। आज देश का युवा नए-नए ऐप्स बना रहा है, ताकि खुद की जिंदगी भी आसान हो जाए और देशवासियों की भी मदद हो जाए।
आज देश का युवा हेकाथॉन के माध्यम से, तकनीक के माध्यम से, देश की हजारों समस्याओं का समाधान खोज रहा है। आज देश का युवा ये नहीं देख रहा कि ये योजना शुरू किसने की, वो आज खुद नेतृत्व करने के लिए आगे आ रहा है। आज देश के युवाओं के सामर्थ्य से नए भारत का निर्माण हो रहा है। एक ऐसा नया भारत, जिसमें Ease of Doing Business भी हो और Ease of Living भी हो। एक ऐसा नया भारत, जिसमें लाल बत्ती कल्चर नहीं है, जिसमें हर इंसान बराबर है, हर इंसान महत्वपूर्ण है। एक ऐसा नया भारत, जिसमें अवसर भी हैं और उड़ने के लिए पूरा आसमान भी।
विश्व स्तर पर श्रेष्ठ प्रदर्शन करके भारत के युवा आज आर्थिक विकास और राष्ट्रीय अर्थव्यस्था के लिए 'मेरूदंड' सिद्ध हो रहे है। ऐसा नहीं है की भारत ने अपनी वैश्विक शक्ति किसी से उधार में ली है। अतीत में भी भारत विश्व गुरु की उपाधि से विभूषित रहा है। भारतीय युवा शक्ति का लोहा अमेरिकी के भूतपूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी मानते थे, तभी उन्होंने समय समय पर भोग में लिप्त अमेरिका के युवाओं को भारत से सीख लेने का परामर्श दिया था।
भारत इस समय बहुत ही सुनहरे दौर से गुजर रहा है। हमारे देश में इस समय युवाओं की संख्या ज्यादा है। जिस देश में युवाओं की आबादी जितनी ज्यादा हो, वह उतनी ही तेजी से तरक्की करता है। इतिहास इसका गवाह है। ऐसे में यह सभी की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि युवाओं की ऊर्जा नष्ट न होने पाए। उन्हें सभी क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा अवसर मुहैया कराए जाने चाहिए।
हमारे ऋषियों ने उपनिषदों में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय’ की प्रार्थना की है। यानी, हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ें। परेशानियों से अमृत की ओर बढ़ें। अमृत और अमरत्व का रास्ता बिना ज्ञान के प्रकाशित नहीं होता। इसलिए, अमृतकाल का ये समय हमारे ज्ञान, शोध और इनोवेशन का समय है। हमें एक ऐसा भारत बनाना है, जिसकी जड़ें प्राचीन परंपराओं और विरासत से जुड़ी होंगी और जिसका विस्तार आधुनिकता के आकाश में अनंत तक होगा।
हमें अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता, अपने संस्कारों को जीवंत रखना है। अपनी आध्यात्मिकता को, अपनी विविधता को संरक्षित और संवर्धित करना है। और साथ ही, टेक्नोलॉजी, इंफ्रास्ट्रक्चर, एजुकेशन, हेल्थ की व्यवस्थाओं को निरंतर आधुनिक भी बनाना है।
प्रख्यात कवि भीम भोई जी की कविता की एक पंक्ति है। "मो जीवन पछे नर्के पड़ी थाउ,जगत उद्धार हेउ”। अर्थात्, अपने जीवन के हित-अहित से बड़ा जगत कल्याण के लिए कार्य करना होता है। जगत कल्याण की इसी भावना के साथ हमारा कर्तव्य है कि हम सभी को पूरी निष्ठा व लगन के साथ काम करना होगा। हम सभी एकजुट होकर समर्पित भाव से कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ेंगे, तभी वैभवशाली और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
प्रख्यात कम्युनिकेशन कंसल्टेंट और पॉलिटिकल कैंपेन एडवाइजर दिलीप चेरियन ने एयर इंडिया हादसे को लेकर गहरी चिंता जताई है।
प्रख्यात कम्युनिकेशन कंसल्टेंट और पॉलिटिकल कैंपेन एडवाइजर दिलीप चेरियन ने एयर इंडिया हादसे को लेकर गहरी चिंता जताई है। उनका मानना है कि लंदन के गैटविक एयरपोर्ट जा रहे बोइंग 787-8 ड्रीमलाइनर विमान (फ्लाइट AI171) का दुर्घटनाग्रस्त होना न केवल यात्रियों के लिए एक त्रासदी है, बल्कि यह एयर इंडिया की वर्षों से संजोई जा रही नई पहचान पर भी एक करारा प्रहार है।
चेरियन लिखते हैं, "मैं अहमदाबाद एक दिन की क्लाइंट मीटिंग के लिए पहुंचा था, हादसे से ठीक दो घंटे पहले। शहर के गम में डूबने और देश के शोक में शामिल होने से पहले मैं वहां से निकल आया। लेकिन मेरे जहन में वही मंजर ठहरा रहा- जले हुए मलबे में सिर्फ शव नहीं थे, वहां एयर इंडिया की वह छवि भी पड़ी थी जिसे प्राइवेटाइजेशन के बाद बड़े जतन से संवारा जा रहा था। बीते कुछ वर्षों में इसे चमकाने की भरपूर कोशिशें हुईं, लेकिन यह हादसा उस पूरी कोशिश को (फिलहाल के लिए) दफना गया।”
चेरियन साफ कहते हैं कि यह दौर एयर इंडिया मैनेजमेंट के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा है। उन्होंने कहा, “ग्राहकों की असंतुष्टि और खराब रखरखाव वाले पुराने जहाजों को लेकर पहले ही नाराजगी थी। हालांकि यात्रा को बेहतर बनाने के लिए फ्लाइट क्रू ने हालात संभालने की कोशिशें लगातार जारी रखीं, लेकिन कम्युनिकेशन टीमों की ओर से जो स्पष्टीकरण और छवि बचाने की कोशिशें हुईं, वे नाकाफी रहीं।”
हालांकि कंपनी की ओर से दुर्घटना के बाद त्वरित और सहानुभूतिपूर्ण मुआवजे की घोषणा की गई है, लेकिन चेरियन मानते हैं कि इससे छवि की भरपाई नहीं हो सकती। वे कहते हैं, “अब एयर इंडिया को अगले दो साल तक सिर्फ और सिर्फ छवि सुधार पर ध्यान देना होगा। सवाल अब भी हवा में हैं- क्या टॉप मैनेजमेंट को इस हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए, भले ही प्रत्यक्ष दोष किसी और का हो? क्या कंपनी पूरी जांच रिपोर्ट का इंतजार किए बिना ही कोई बड़ा कदम उठाएगी? बोइंग जैसे विमान निर्माता पर कितनी जिम्मेदारी डाली जाएगी और क्या वह बहस पब्लिक डोमेन में पारदर्शिता से लड़ी जाएगी, जबकि वैश्विक स्तर पर विमानों की भारी कमी चल रही है?”
चेरियन यह भी सवाल उठाते हैं कि इस संकट को कम्युनिकेशन के स्तर पर कैसे हैंडल किया जाएगा, यह आने वाले समय में एयर इंडिया की दिशा तय करेगा। “जो कुछ भी छवि निर्माण के स्तर पर किया जाएगा, कानूनी रणनीति कैसे बनेगी और कंपनी आगे क्या करती है, इन सभी पहलुओं को बहुत बारीकी से देखा जाएगा। यही चीज उपभोक्ताओं की सोच पर असर डालेगी और तय करेगी कि भविष्य में एयर इंडिया को वे कैसे देखेंगे।”
वे याद दिलाते हैं कि 2019 की इथियोपियन एयरलाइंस दुर्घटना के बाद कंपनी ने बोइंग पर आरोप तय करते हुए साफ और त्वरित स्टैंड लिया, जिससे अफ्रीका में उसकी साख लौट आई। लेकिन 2014 में मलेशियन एयरलाइंस की फ्लाइट MH370 के गायब होने के बाद, भारी रीब्रांडिंग के बावजूद कंपनी विश्वास नहीं लौटा सकी।
अंत में चेरियन की सीधी बात- “क्या एयर इंडिया इस हादसे की बदनामी से ऊपर उठ पाएगी?” यही सवाल अब कंपनी के लिए अगली सबसे बड़ी उड़ान बन गया है।
इस घटना को ऐसे प्रचारित किया है मानों मेघालय में टूरिस्ट के साथ लूटपाट होती है, बाहर से आने वालों को मारकर फेंक दिया जाता है और पुलिस कुछ नहीं करती।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
राजा रघुवंशी मर्डर केस में मुख्य आरोपी सोनम और चार अन्य आरोपियों ने मेघालय पुलिस के सामने कबूल कर लिया है कि उन्होंने मिल कर ये हत्या की थी। मेघालय के पुलिस महानिदेशक ने बताया कि सभी पांच आरोपियों ने अपना जुर्म कबूल कर लिया है और सारे सबूत मिल गए हैं। इस वक्त ये पांचों आरोपी 8 दिन की पुलिस हिरासत में हैं और जांच करने वाले अधिकारी पूरे हत्या प्रकरण की सारी गुत्थियों को सुलझा रहे हैं।
राजा रघुवंशी की हत्या का केस तो लगभग सुलझ गया लेकिन इस केस को लेकर जिस तरह मेघालय को बदनाम किया गया, वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इस घटना को ऐसे प्रचारित किया है मानों मेघालय में टूरिस्ट के साथ लूटपाट होती है, बाहर से आने वालों को मारकर फेंक दिया जाता है और पुलिस कुछ नहीं करती। मैं मेघालय की पुलिस की तारीफ करूंगा कि उसने इन सारी धारणाओं को गलत साबित कर दिया। बड़ी तेज़ी से इतने उलझे हुए केस को सुलझा दिया। जो-जो इस हत्या प्रकरण में शामिल थे, सबकी पहचान की, उन्हें पकड़ लिया और सबूत हासिल कर लिए।
बदनामी इंदौर की भी हुई क्योंकि सारे हत्यारे इंदौर के ही रहने वाले हैं। हत्या की प्लानिंग इंदौर में हुई। इंदौर के लोगों को अपने शहर पर बहुत गर्व है। वे कहते हैं जैसे इंदौर साफ-सुथरा शहर है, वैसे इंदौर के लोगों के दिल भी साफ हैं। इंदौरिए रिश्तों को निभाने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इंदौर की एक लड़की ने सबसे पवित्र रिश्ते का ही कत्ल कर दिया। उसका साथ देने वाले हत्यारों ने इंदौर का नाम खराब कर दिया लेकिन अच्छी बात ये है कि इंदौर के लोगों ने इसको सुधारने का फैसला किया है।
अब इंदौर के लोग शिलॉन्ग जाकर मेघालय की जनता से माफी मांगेंगे। वो पूरी दुनिया को बताएंगे कि मेघालय सुंदर है, सुरक्षित है, ताकि मेघालय के टूरिज्म को जो भी नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई हो सके और मेघालय एक बार फिर टूरिज्म के मैप पर आ सके। इंदौर के लोग दुखी जरूर हैं, पर इंदौर की छवि बरसों की मेहनत से बनी है। मुझे विश्वास है कि एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना से इंदौर की इमेज को कोई डैमेज नहीं होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
एक इंसान अगर इस उम्र तक अपने लिए सही जीवनसाथी चुनने की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकता या उसे ऐसा करने की छूट नहीं है तो ये उस बच्चे और मां-बाप दोनों के लिए सोचने की बात है।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
सोनम रघुवंशी का मामला एक आपराधिक मामले से कहीं ज़्यादा एक सामाजिक समस्या का मामला है। ये मामला बताता है कि मोटे तौर पर भारतीय मां-बाप की परवरिश के साथ क्या दिक्कत है। और उस दिक्कत पर बात करने के बजाए अगर हमने इसे सिर्फ एक 'हत्यारिन दुल्हन' की चटखारेदार स्टोरी मानकर छोड़ दिया तो ऐसे मामले फिर होते रहेंगे।
अब जो मैं कहने वाला हूं वो बातें बहुत लोगों को अच्छी नहीं लगेंगी लेकिन अच्छा लगने की सोचकर अगर बात की गई तो फिर कुछ कहने का मतलब ही क्या है। तो पहली बात तो ये है कि भारतीय समाज अभी भी बुरी तरह से जातिवाद से जकड़ा हुआ है। ज़्यादातर भारतीय मां-बाप को पता ही नहीं बच्चों को बड़ा कैसे करना है। उन्हें ज़िम्मेदार कैसे बनाना है। उन्हें अपने फैसले कैसे लेने देने हैं और किस वक्त उनकी ज़िंदगी में दखल देना बंद कर देना है। और जो भी मां-बाप अपने बच्चों की ज़िंदगी को जकड़कर रखते हैं तो वहां बच्चे या तो कुंठित होकर बेहद आक्रामक हो जाते हैं या फिर एकदम ही दब्बू और डरपोक बन जाते हैं। और सोनम और राजा इसी अतिवाद के, इसी Extreme के दो उदाहरण हैं।
सोनम और राजा के केस में दोनों ही सम्पन्न परिवारों से आते हैं। दोनों अच्छे स्कूल-कॉलेजों में भी गए होंगे। दोनों के दोस्त भी रहे होंगे। फिर आखिर वो कौन सी मजबूरी आ जाती है कि 27-28 साल के बच्चों की शादी के वक्त आपके 'उचित रिश्ता' ढूंढने के लिए समाज के रजिस्टर में नाम लिखवाना पड़ता है। एक इंसान अगर इस उम्र तक अपने लिए सही जीवनसाथी चुनने की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकता या उसे ऐसा करने की छूट नहीं है तो ये उस बच्चे और मां-बाप दोनों के लिए सोचने की बात है।
अगर आपको एक शर्ट भी खरीदनी होती है तो आप ये चेक करते हैं कि शर्ट का साइज़, रंग और फैब्रिक आपकी पसंद हो। आप शर्ट खरीदने मां-बाप को नहीं भेजते खुद जाते हैं। तो फिर जिस इंसान के साथ आपको सारी ज़िंदगी निभानी है। उसकी तरबीयत आपके जैसी है या नहीं, उसके जीवन मूल्य आपसे मेल खाते हैं या नहीं। उसकी वेव लेंथ आपसे मिलती है या नहीं, ये आपके मां-बाप या समाज के रजिस्टर में नाम लिखवाने पर हुई एक-आध मुलाकात कैसे तय कर सकती है!
सोनम के पिता से जब एक रिपोर्टर ने पूछा कि क्या उसकी किसी लड़के से दोस्ती थी, तो उनका जवाब था कि नहीं 'हमारी बच्ची तो बड़ी सीधी है'। वो तो भाई के साथ ऑफिस जाती थी और वहीं से वापस आ जाती थी। वो ऐसे किसी 'फालतू काम' में नहीं थी।
उनका ये बयान बहुत कुछ बताता है। अगर मां-बाप की नज़र में 26-27 साल के लड़के या लड़की का किसी से दोस्ती करना फालतू चीज़ है, तो ऐसा बच्चा किसी से दोस्ती होने पर भी कभी घर पर बताने की हिम्मत नहीं करेगा और शादी करने की तो भूल ही जाओ। ऐसे में फिर होता ये है कि आप जिस भी पहले मर्द या औरत के साथ संपर्क में आते हैं, आपको उसमें ही आकर्षण लगने लगता है।
चूंकि आपके पास opposite gender के साथ एक सहज संवाद का कोई अनुभव नहीं है, आपकी किसी से दोस्ती नहीं रही इसलिए ऐसा पहला अनुभव ही आपको रोमांचित कर देता है। उस रोमांच की तीव्रता, उसकी शिद्दत इतनी ज़्यादा हो जाती है कि अगर उसकी नाक टेढ़ी है, तो दो-चार दिनों में वो सीधी हो जाती है। उसकी देह दुर्बल सुडौल हो जाती है। उसकी आवाज़ दबी हुई है तो उसमें एक बैरी टोन आ जाती है और देखते-देखते ही वो इंसान आपको अपने सपनों के राजकुमार या राजकुमारी जैसा लगने लग जाता है।
मतलब आप सामने वाले से नहीं, जीवन में पहली बार 'चुनाव करने की अपनी स्वतंत्रता' से प्यार करने लगते हो। और किसी भी इंसान को गुलामी का चयन भी थोपी हुई स्वतंत्रता से प्यारा लगता है।
इसी के उलट अगर आप पर कोई बंधन न हो। आपको पता हो कि मैं वयस्क हूं। मैं अपने हिसाब से किसी से भी दोस्ती कर या तोड़ सकता हूं। नए दोस्त बना सकता हूं और अपना जीवनसाथी खुद चुन सकता हूं। तो आप अपने फैसलों में उतने भावुक और जल्दबाज़ नहीं होते। लेकिन सोनम जैसे केस में जब इंसान पहली बार कोई रिश्ता बनाता है और उस पर भी आपको पता हो कि घरवाले इसके लिए तो नहीं मानेंगे, तो आप दिमाग से नहीं पूरी तरह दिल से सोचने लगते हो।
फिर आप अपनी कंपनी के औसत दिखने वाले एक छोटे कर्मचारी के लिए अपने करोड़पति अच्छे दिखने वाले पति तक को मरवाने के लिए तैयार हो जाते हो।
जिन भी लोगों ने ज़िंदगी में प्यार किया है वो जानते हैं कि पहला ब्रेकअप बहुत मुश्किल होता है। फिर चाहे वो किसी भी उम्र में क्यों न हो। आप अपने रिश्ते को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार होते हैं। आप emotionally vulnerable होते हैं। अब इस emotional vulnerability की स्टेज में कौन आदमी कैसे रिएक्ट करेगा ये उसके मूल स्वभाव पर निर्भर करता है।
ज़्यादातर मामलों में लड़के-लड़कियां इसे अपनी नियति मानकर उससे समझौता कर लेते हैं। शादी के कुछ वक्त बाद तक सामने वाले को याद कर भावुक भी होते हैं। मगर फिर बच्चे होने पर धीरे-धीरे सामान्य जिंदगी में लौट जाते हैं और एक वक्त आता है जब आपको अपने उस प्यार की याद भी नहीं आती।
लेकिन कुछ केस सोनम जैसे भी होते हैं। जब लड़का और लड़की दोनों अपनी-अपनी वजहों से रिश्ते में बने रहने के लिए क्राइम तक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। और वही इस केस में हुआ भी। लेकिन जैसा मैंने शुरू में कहा कि अगर इस मामले को हमने एक हत्यारिन बहू की कहानी भर बताकर पल्ला झाड़ लिया तो इससे कुछ बदलेगा नहीं। समस्या इससे बहुत गहरे बच्चों की परवरिश में है। जैसा कि खलील जिब्रान ने कहा था कि हर मां-बाप को ये समझना चाहिए कि बच्चे आपके माध्यम से इस दुनिया में आए हैं लेकिन वो आपके नहीं हैं! वो अपनी स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र आत्मा लेकर पैदा हुए हैं। लेकिन जब आप 28-30 के बच्चों को भी ऐसे ट्रीट करते हैं जैसे वो 10-12 साल के हों, तो आप बच्चों और अपनी दोनों की ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हो।
हमने सोनम की बात की, उनके पिता की भी बात की। मगर राजा रघुवंशी की माताजी की मैंने जितनी बातें सुनी हैं वो भी इसी समस्या की तरफ इशारा करती हैं। फोन पर बेटे को इस बात पर डांट रही हैं कि मैंने तुझे कहा था कि सोने की चेन मत पहनकर जाना, फिर क्यों गया। अरे तुमने अभी तक अपने वीडियो नहीं भेजे, अब तुम्हारे वापसी को कितने दिन रह गए। घूमने गई बहू से पूछ रही हैं कि मुझे याद आया कि आज तो तुम्हारा व्रत होगा, तुमने कुछ खाया या नहीं। अब ये सब बातें बहुत सारे लोगों को मां का बच्चों के लिए प्यार लगेंगी लेकिन यकीन मानिए दोस्तों, इसे प्यार नहीं घुसपैठ कहते हैं।
अगर बहू ने कह दिया कि तुम सोने की चेन पहनकर चलना, तो बेटे को क्या करना है ये उस पर छोड़ दीजिए। अगर वो पहनकर चला जाता है तो उसे दस साल के बच्चे की तरह डांटिए मत। अगर हनीमून के दौरान कोई व्रत पड़ भी गया तो खुद बहू को कहिए कोई बात नहीं बेटा तुम व्रत मत रखना। हनीमून आदमी ज़िंदगी में एक बार जाता है। जब इंसान घूमने जाता है तो असली मज़ा खाने-पीने का ही होता है। ऐसे में तुम व्रत नहीं रखोगे तो कोई बात नहीं। तुमने वीडियो नहीं भेजे, तुम कब आओगे ,मैं जानता हूं ये सब सवाल भारतीय घरों में बहुत सामान्य हैं। लेकिन इसे ही रिश्तों में overlapping कहते हैं।
सामने वाले को स्पेस दीजिए। फिर चाहे वो आपके बच्चे हों या आपके मां-बाप। अपनी सारी भावनात्मक ऊर्जा बच्चों में मत खपा दीजिए। उम्र होने के बावजूद अपनी ही भी एक लाइफ रखिए। कुछ शौक रखिए। और बच्चों को भी क्लियरली पता हो कि मां-बाप की भी अपनी ज़िंदगी है। वो हर वक्त हमें बैकअप देने के लिए या हमारे बच्चों की रखवाली के लिए नहीं हैं। इस तरह के स्पेस से हर किसी की ज़िंदगी खुशहाल रहती है।
अगर आप 30 साल के शादीशुदा आदमी को भी हर चीज़ के लिए टोकेंगे तो उसमें कॉन्फिडेंस कहां से आएगा। मैं कुछ दिन पहले एक पेरेंटिंग कोच से पॉडकास्ट कर रहा था, उन्होंने कहा कि एक लेडी अपने 36 साल के लड़के को मेरे पास लेकर आई। साथ में उसके बेटे के बच्चे भी थे। कोच ने बताया कि उस 36 साल के बच्चों में उस आदमी से ज़्यादा कॉन्फिडेंस था और वो मां अपने 36 साल के लड़के के बारे में ऐसे बात कर रही थी जैसे वो 15 साल का हो।
राजा के एक करीबी दोस्त का मैं टीवी पर इंटरव्यू सुन रहा था। वो बता रहे थे कि वो तो बहुत शरीफ था। कुछ हद तक डरपोक भी था। और यही बात मैंने शुरू में कही थी कि अगर मां-बाप बहुत dominating होंगे तो या तो बच्चा कुंठित होकर बागी हो जाएगा या फिर वो दब्बू बन जाएगा। लेकिन वो सहज नहीं बन पाएगा। उसकी पर्सनैलिटी में खुलापन नहीं होगा।
अब ये सवाल किया जा सकता है कि लेकिन जिन घरों में मां-बाप बच्चों को छूट देते हैं वो भी तो एग्रेसिव बन जाते हैं या कुछ बच्चे तमाम छूट के बाद भी दब्बू रह जाते हैं। इस पर यही कहूंगा कि स्वतंत्रता ultimate चीज़ है। एक उम्र के बाद पूरी तरह आज़ाद होकर अपने लिए हर तरह के फैसले कर पाना हर इंसान का हक है। अब वो उस स्वतंत्रता के साथ क्या करता है, ये उसका चयन है। किसी के खराब चयन से स्वतंत्रता बदनाम नहीं हो जाती। उसी तरह अगर लोकतंत्र में कुछ खामियां हैं तो ये अपने आप में कोई दलील नहीं है कि तानाशाही या राजशाही ज़्यादा बेहतर व्यवस्था है।
असल चुनौती है राष्ट्रों या व्यक्तियों को मिली स्वतंत्रता का ज़िम्मेदार इस्तेमाल। और राष्ट्रों या व्यक्तियों को ये बात समझ एकदम से नहीं आती। अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे आधुनिक देश को आज़ाद होने के 146 साल बाद समझ आया कि महिलाओं को भी वोटिंग का अधिकार देना चाहिए। अमेरिका को अपनी आज़ादी के 90 साल बाद समझ में आया कि दासप्रथा को ख़त्म करना चाहिए।
इसी तरह हाइवे में ज़मीन आने पर मिले पैसों से थार लेकर हुड़दंग करने वाली एक पूरी पीढ़ी को भी ये समझने में वक्त लगेगा कि पैसा आने के मतलब ये नहीं कि सड़क पर गंदे तरीके से गाड़ी चलाओ। बॉडी बनाकर किसी से लड़ने का बहाना ढूंढो। कॉरपोरेट में नौकरी कर मोटा पैसा कमाने वालों की भी एक पूरी पीढ़ी को ये पता लगने में वक्त लगेगा कि जीवन का मतलब सिर्फ उस पैसे के दम पर भौतिकता खरीदना नहीं है। स्टार्टअप के नाम पर सिर्फ फंडिंग उठाकर खुद की वैल्यूएशन 100 करोड़ दिखाने वालों की भी पूरी एक-दो पीढ़ी के बाद पता लगेगा कि धंधा बनाने और सोसाइटी के लिए वैल्यू क्रिएट करने में क्या फर्क है।
इसी तरह हमें अपने बच्चों को बिना घबराए एक दोस्त की तरह उनके साथ चलते-चलते, दुनिया के लिए उन्हें तैयार करते-करते, एक वक्त बाद उन्हें आज़ाद कर देना चाहिए। और यकीन मानिए इस देश की सारी आर्थिक तरक्की, सारा इनोवेशन, सारी क्रिएटिविटी और सारा नैतिक विकास उस आज़ादी से ही निकलेगा। और जब तक हम ऐसा नहीं करते तब तक सामाजिक समस्याओं को क्राइम थ्रिलर मानकर उसके चटखारे लेते रहेंगे। इससे हमें तो मज़ा तो बहुत आएगा मगर हकीकत वैसी ही बेस्वाद बनी रहेगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
उन्होंने आरोप लगाया कि बच्चों और कम उम्र की लड़कियों के यौन शोषण के आरोपी जेफरी एप्स्टीन की फाइल में ट्रंप का भी नाम है, इसीलिए ट्रंप ने एप्स्टीन फाइल्स को सार्वजनिक नहीं किया।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
अमेरिका की राजनीति में एक बड़ा तूफान आया। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और खरबपति एलन मस्क ने एक दूसरे के खिलाफ खुलेआम जंग का ऐलान कर दिया। दो दिन पहले तक जो दोस्त नंबर वन थे, वो अब दुश्मन नंबर वन हो गए। ट्रंप ने खुलेआम धमकी दी कि वो मस्क की कंपनियों को मिलने वाली सरकारी सहायता और ठेकों को रद्द कर देंगे। ट्रंप का कहना है कि अमेरिकी जनता के अरबों डॉलर बचाने का ये सबसे आसान तरीक़ा है। एलन मस्क ने जवाबी हमला करते हुए ट्रंप को अहसान फ़रामोश करार दिया।
ट्रंप को राष्ट्रपति के पद से हटाने के लिए उनके ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव लाने की मांग की। यहां तक कह दिया कि ट्रंप पर यौन उत्पीड़न के इल्ज़ाम हैं। कुछ ही घंटों में मस्क ने अपने सोशल मीडिया पर ट्रंप के ख़िलाफ़ आरोपों की बौछार कर दी। मस्क ने X पर लिखा कि उन्होंने ट्रंप को चुनाव जितवाया, राष्ट्रपति बनवाया। मस्क ने ट्विटर पर लिखा कि उनकी मदद के बग़ैर ट्रंप चुनाव नहीं जीत सकते थे। इसके बाद ट्रंप ने खुलासा किया कि मस्क ने अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा को चलाने के लिए जिस उम्मीदवार के नाम की सिफारिश की थी, वो उन्हें ठीक नहीं लगा।
वो डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक निकला। ये बात सुनकर मस्क और भड़क गए। जवाब में मस्क ने ट्वीट किया कि अब एक बड़ा बम फोड़ने का टाइम आ गया है। उन्होंने आरोप लगाया कि बच्चों और कम उम्र की लड़कियों के यौन शोषण के आरोपी जेफरी एप्स्टीन की फाइल में ट्रंप का भी नाम है, इसीलिए ट्रंप ने एप्स्टीन फाइल्स को सार्वजनिक नहीं किया। एपस्टीन फाइल्स का ज़िक्र बहुत सनसनीखेज़ है क्योंकि जेफरी एप्स्टीन सेक्सुअल pervert के तौर पर बहुत बदनाम थे।
उनका केस सामने आने के बाद अमेरिका और यूरोप में तहलका मच गया था। ब्रिटेन के राजा चार्ल्स के भाई, प्रिंस एंड्र्यू भी इसकी चपेट में आ गए थे। अब एलन मस्क ने एक वीडियो पोस्ट करके धमकी दी कि वो जेफरी एपस्टीन और डॉनल्ड ट्रंप के कनेक्शन को एक्सपोज़ करेंगे। ट्रंप के साथ दोस्ती में दरार का मस्क को भारी नुकसान हुआ है।
एक ही दिन में टेस्ला के शेयर में भारी गिरावट आई। कंपनी का नेटवर्थ 150 अरब डॉलर गिर गया। सवाल ये है कि जब अमेरिका के सबसे ताकतवर ट्रंप और सबसे अमीर मस्क के बीच लड़ाई होगी तो इसका असर क्या होगा? दोनों की ego है। दोनों hot headed हैं। दोनों पावरफुल हैं। एक दूसरे का जबरदस्त नुकसान कर सकते हैं। ट्रंप ने कॉन्ट्रैक्ट खत्म किए तो मस्क की कंपनियों को अरबों डालर का नुकसान होगा। Self driving cars का प्रोजेक्ट Roll-out करने के लिए मस्क को ट्रंप की परमिशन की जरूरत होगी।
व्हाइट हाउस ने emission rules बदले तो TESLA की millions of dollars की कमाई बंद हो जाएगी। दूसरी तरफ मस्क की स्पेस X कंपनी अमेरिका की इकलौती space firm है जो NASA को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन जाने के लिए स्पेसक्राफ्ट उपलब्ध कराती है। मस्क ने धमकी दी है कि वो इसमें अड़ंगा डाल सकते हैं। इससे अमेरिका के स्पेस प्रोग्राम पर असर पड़ेगा।
मस्क ने ट्रंप को चुनाव जिताने के लिए 28.8 करोड डॉलर चंदा दिया था। अब वो Republicans को ट्रंप के बिल के खिलाफ वोट देने के लिए फायनेंस कर सकते हैं। मस्क अपनी एक नई पॉलिटिकल पार्टी बना सकते हैं। लेकिन मस्क का सबसे खतरनाक हथियार है, ट्रंप को यौन अपराधों से जूड़ें एप्स्टीन से जोड़ने की धमकी। लेकिन ट्रंप तो ट्रंप हैं। वो इससे भी खतरनाक रास्तों से गुजर चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका में प्रेसिडेंट की ताकत असीमित होती है। किसी भी बिजनेसमैन को व्हाइट हाउस में दोस्त की जरूरत होती है। राष्ट्रपति से दुश्मनी बहुत महंगी पड़ सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हिंदी आलोचना में नामवर सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता रहा है। आरंभिक दिनों में उन्होंने विपुल लेखन किया। कालांतर में लेखन उनसे छूटा। वो भाषण और व्याख्यान की ओर मुड़ गए। दोनों स्थितियों में नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य किया। उनके निर्देशों के आधार पर नैरेटिव बनाने और बिगाड़ने का खेल खेला। आलोचना में भी उन्होंने नैरेटिव ही गढ़ा। उनके लेखों के विश्लेषण से ये स्पष्ट है।
नामवर सिंह के शिष्यों ने उनके व्याख्यानों का लिप्यांतरण करके पुस्तकें प्रकाशित करवाईं। पिछले दिनों नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह और उनके जीवनीकार अंकित नरवाल ने एक पुस्तक संकलित-संपादित की, जमाने के नायक। प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की भूमिका में नरवाल ने नामवर सिंह के बनने और सुदृढ होने को रेखांकित किया। उनकी प्रशंसा की, जो स्वाभाविक ही है। इस पुस्तक के लेखों में नामवर सिंह की आलोचना में फांक दिखती है। आलोचक कम पार्टी कार्यकर्ता अधिक लगते हैं। जिन साहित्यिक घटनाओं और कथनों को उद्धृत करके स्थापना देते हैं वो उनकी आलोचकीय ईमानदारी और विवेकको संदिग्ध बनाती है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘लेनिन और भारतीय साहित्य’ से साभार नामवर सिंह का एक लेख इस पुस्तक में है। नामवरीय आलोचना का ऐसा उदाहरण जो उनकी छवि को धूमिल करता है। नामवर सिंह 1917 के बाद भारत की राजनीति को लेनिन से जोड़कर रूसी क्रांति के प्रभाव की पताका फहराते हैं। साहित्य में भी। वो लिखते हैं, साहित्य का इस वातावरण से सर्वथा अस्पृष्ट रहना असंभव था।
1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना आकस्मिक नहीं बल्कि इन घटनाओं की सहज परिणति थी जिसके संगठनकर्ता लेनिन के विचारों को मानने वाले नौजवान कम्युनिस्ट थे, किंतु जिसमें निराला और पंत जैसे हिंदी के कवियों ने सहर्ष भाग लिया और अखिल भारतीय ख्याति के कथाकार प्रेमचंद ने जिसके अधिवेशन की अध्यक्षता की।इसी पुस्तक में एक और लेख संकलित है, गोर्की और हिंदी साहित्य।
यहां वो जोर देकर कहते हैं कि, तथ्य है कि गोर्की की मृत्यु से तीन महीने पहले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में योग देकर भारत में प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया था, वो गोर्की के विचारों का भारतीय भाष्य मात्र नहीं बल्कि भारत को अपने ऐतिहासिक संदर्भ में निर्मित साहित्य का सर्जनात्मक दस्तावेज है। यहां वो फिर से ये कहते हैं कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता की।
नामवर ऐसा कहते हुए कहीं भी किसी सोर्स का उल्लेख नहीं करते हैं। सुनी-सुनाई बातें बार-बार लिखते हैं। नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था। उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि प्रेमचंद जैनेन्द्र के कहने पर अधिवेशन में शामिल होने चले गए थे। उनका भाषण देने का कार्यक्रम नहीं था। जब अधिवेशन में पहुंचे तो वहां उपस्थित साहित्यकारों ने उनसे आग्रह किया और वो मंच से बोले।
इसको प्रचारित करवा दिया गया कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से थे। बाद में संशोधन कर कहा जाने लगा कि वो पहले अधिवेशन के अध्यक्ष थे। अब प्रेमचंद के प्रगतिशील लेख संघ में दिए गए भाषण के अंश को देखते हैं, ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘
सामान्य सी बात है कि अगर वो अध्यक्षता कर रहे होते तो ये प्रश्न नहीं उठाते। नामवर सिंह कहते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनका योगदान था। अगर योगदान होता तो प्रगतिशीलता के नाम पर प्रेमचंद संघ के संस्थापकों के साथ पहले चर्चा करते। मंच से आपत्ति क्यों करते। अजीब मनोरंजक बात है कि लेखक संघ का नाम तय हो रहा था और स्थापना में योगदान करनेवाले को पता नहीं था।नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। पार्टी के बाहर के लेखकों को वो येन केन प्रकारेण कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित साबित करने में लगे रहते थे।
इसके लिए चाहे किसी भी शब्द की कैसी भी व्याख्या क्यों न करनी पड़े। इसके पीछे भी लेनिन की सीख थी। उक्त लेख में नामवर सिंह ने उल्लेख किया है, लेनिन का एक निबंध पार्टी साहित्य और पार्टी संगठन, जिसमें पार्टी लेखकों से पूरी पक्षधरता का आग्रह किया गया था। नामवर सिंह ने लेनिन की पक्षधरता वाली बात अपना ली। अब निराला को लेनिन के प्रभाव में बताने के लिए वो उनकी 1920 की एक कविता बादल राग की पंक्तियां लेकर आए। पंक्ति है- तुझे बुलाता कृषक अधीर/ऐ विप्लव के वीर। अब इस पंक्ति में चूंकि कृषक भी है और विप्लव भी तो निराला कम्युनिस्ट हो गए।
विप्लव शब्द का प्रयोग निराला बांग्ला के प्रभाव में करते रहे हैं। राम की शक्ति पूजा से लेकर तुलसीदास जैसी उनकी लंबी कविता में भी ये प्रभाव दिखता है। खेत-खलिहान, किसान-मजदूर को बहुत आसानी से नामवर सिंह जैसे नैरेटिव-मेकर्स ने सर्वाहारा बना दिया था। नामवर सिंह ने तो जयशंकर प्रसाद को भी लेनिन से प्रभावित बता दिया। दिनकर की कविता में लेनिन शब्द आया तो उसपर लेनिन के विचारों का प्रभाव। वो स्वाधीनता के आंदोलन और आंदोलनकर्ताओं की भावनाओं को नजरअंदाज करके उसपर लेनिन की छाप बताने में लगे रहे।
लेखकों को कम्युनिस्ट घोषित और स्थापित करते रहे, तथ्यों की व्याख्या से छल करते हुए। प्रेमचंद अगर कह रहे हैं कि आनेवाला जमाना अब किसानों मजदूरों का है तो उनको कम्युनिस्ट या लेनिन के प्रभाव वाले बताने में नामवर ने जरा भी विलंब नहीं किया। वो कम्युनिस्टों को लाभ पहुंचानेवाला नैरेटिव गढ़ रहे थे। नामवरी आलोचना का एक और उदाहरण देखिए, ‘निराला ने भी प्रेमचंद की तरह लेनिन पर स्पष्टत: कहीं कुछ नहीं लिखा पर उनकी विद्रोही प्रतिभा में लेनिन का प्रभाव बीज रूप में सुरक्षित अवश्य था।‘
ये विद्रोही प्रतिभा अंग्रेजों के खिलाफ उस दौर के सभी लेखकों कवियों में मिलता है। एक जगह कहते हैं कि प्रेमचंद समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि...। यह वही प्रविधि है जिसका निर्वाह इतिहास लेखन में रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे इतिहासकारों ने किया। वो अपनी स्थापना तो देते हैं लेकिन साथ ही लिख देते हैं, इट अपीयर्स टू बी, पासेबली, प्रोबैबिली आदि।
इस प्रविधि का लाभ ये होता है कि आम पाठक वही समझता है जो लेखक कहना चाहता है। कभी अगर स्थापना पर सवाल उठे तो इन शब्दों की आड़ लेकर बचकर निकल सके। आज इस बात की आवश्कता प्रबल होती जा रही है कि नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जो नैरेटिव गढ़ा उसको उजागर किया जाए क्योंकि उस नैरेटिव से किसी भी रचनाकार का सही आकलन संभव नहीं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।
प्रो.संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान-आईआईएमसी।
कृत्रिम बुद्धिमता के दौर में मीडिया और जनसंचार शिक्षा फिर चुनौतियों से घिरी है। बहुत सारे सामान्य काम अब एआई के माध्यम से संभव हो रहे हैं, जिनके लिए विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है। एआई की गति, त्वरा और शुद्धता ने सामान्य पत्रकारों के लिए संकट खड़ा कर दिया है। एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 में भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था।
लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की।
इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है। आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं।
भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है।
भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो।
ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं। पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है?
दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।
मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं।
इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है।
ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।
एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, “यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप कॉल’ की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है।” वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे।
मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें।
देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और उद्योग व्यापार जैसे हर क्षेत्र में जन कल्याण के लिए आने वाली कठिनाइयों से निपटने के प्रयासों का लाभ करोड़ों लोगों को मिल रहा है।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र में तीसरी बार सरकार बनने का एक साल 9 जून को पूरा हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी ही नहीं विरोधी और दुनिया भर के नेता लगातार सफलताओं का श्रेय नरेंद्र मोदी के करिश्माई राजनीतिक सामाजिक व्यक्तित्व को देते हैं लेकिन इसे सत्ता के 11 वर्ष की उपलब्धि के बजाय मोदी की सत्ता के 25 वर्षों के कामकाज, सामाजिक आर्थिक विकास की दूरदर्शिता के परिणामों के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। मेरी नजर में सन 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी जी ने पुराने सरकारी ढर्रे में बदलाव के साथ विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए नई योजनाएं, कार्यक्रमों का जो सिलसिला शुरु किया वह 2014 में प्रधान मंत्री का दायित्व सँभालने के बाद व्यापक रुप लेता चला गया।
शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, सड़क, पानी, बिजली, खेती और उद्योग व्यापार जैसे हर क्षेत्र में जन कल्याण के लिए आने वाली कठिनाइयों से निपटने और विकास की गति तेज करने के प्रयासों का लाभ न केवल करोड़ों लोगों को मिल रहा है बल्कि विश्व आर्थिक दौड़ में भारत चौथे स्थान पर पहुँच गया है और विकसित भारत 2047 के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ने के हर संभव प्रयास हो रहे हैं। दूसरी तरफ इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दुनिया के शक्ति संपन्न देश अमेरिका रुस, चीन के शीर्ष नेता डोनाल्ड ट्रम्प, व्लादिमीर पुतिन और शी जिन पिंग को भी लगातार 25 वर्षों तक लगातार सत्ता के कार्यों का अनुभव नहीं है और न ही भारत जैसी चुनौतियां है।
आतंकवाद से लड़ने में भी हाल के सिंदूर आपरेशन में आतंकी अड्डों को नष्ट करने और पाकिस्तान के सैन्य हवाई अड्डों आदि को निशाना बनाकर विश्व में भारत की सुरक्षा व्यवस्था और क्षमता का डंका बजा दिया गया है। पहलगाम में पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा पर्यटकों पर धार्मिक आधार पर किए गए हमले का दूसरा जवाब विश्व के सबसे ऊँचे चिनाब रेल ब्रिज के उद्घाटन के साथ जम्मू कश्मीर और देश को रेल मार्ग से जोड़कर लाखों भारतीयों के जाने की सुविधा से दिया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इस बात से प्रसन्न हैं कि बीते 11 साल में उनकी सरकार का हर कदम सेवा, सुशासन और गरीब कल्याण को समर्पित रहा है।
उन्होंने पिछले दिनों एक सन्देश में कहा कि, इस दौरान हमारी उपलब्धियां ना सिर्फ अभूतपूर्व हैं, बल्कि 140 करोड़ देशवासियों के जीवन को आसान बनाने वाली हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि देश को आगे ले जाने के अपने इन प्रयासों के साथ हम विकसित और आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को जरूर हासिल करेंगे। पहले घर का चूल्हा ठंडा पड़ जाता था, दो वक्त के खाने के लिए सोचना पड़ता था। अब हर महीने पीएम गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन मिल रहा है। वीडियो में पिछली सरकारों पर निशाना साधते हुए बताया गया कि पहले सरकारी योजना के पैसे लोगों तक नहीं पहुंचते थे, बिचौलिये पैसे खा जाते थे, लेकिन अब सीधे जनता के अकाउंट में पैसे भेजे जा रहे हैं।
पहले कोई बीमार पड़ता था, तो इलाज के खर्चे के बारे में सोचकर ही जान पर बन आती थी, लेकिन अब आयुष्मान भारत योजना से अस्पतालों में मुफ्त इलाज होता है। इस दौरान देश प्रगति के साथ नया इतिहास भी रचा गया है। इन 11 सालों में 'डिजिटल इंडिया' और 'मेक इन इंडिया' जैसे अभियानों के माध्यम से भारत ने तकनीकी क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिससे देश की वैश्विक पहचान मजबूत हुई है। इसके साथ ही देश की सुरक्षा में मजबूती आई है। मेरा मानना है कि भारत की प्रगति के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देना आवश्यक है। इसके बिना किसी अन्य क्षेत्र में विकास संभव नहीं है।
इस दृष्टि से नई शिक्षा नीति लाने के बाद मोदी सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए हैं। पिछले दशक में देश ने उच्च शिक्षा के बुनियादी ढांचे में अभूतपूर्व वृद्धि देखी है। उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या में 13.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो 2014-15 में 51,534 से बढ़कर मई 2025 तक 70,683 से अधिक हो गई है। इसी अवधि के दौरान विश्वविद्यालयों की संख्या 760 से बढ़कर 1,334 हो गई और कॉलेजों की संख्या 38,498 से बढ़कर 51,959 हो गई।
यह उछाल सभी के लिए सुलभ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) जैसे प्रमुख संस्थानों का भी काफी विस्तार किया गया है। 2014 से, इन संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है। आईआईटी 16 से बढ़कर 23 हो गए, जबकि आईआईएम 13 से बढ़कर 21 हो गए। एम्स संस्थानों की संख्या तीन गुनी से अधिक बढ़कर 7 से 23 हो गई है। मेडिकल कॉलेजों की संख्या भी 387 से बढ़कर 2,045 से अधिक हो गई है, जो सामूहिक रूप से 2024 तक 1.9 लाख से अधिक मेडिकल सीटें प्रदान करते हैं।
स्कूली शिक्षा को और मजबूत करने के लिए, पीएम श्री (पीएम स्कूल फॉर राइजिंग इंडिया) योजना सितंबर 2022 में शुरू की गई थी। पांच वर्षों में 27,360 करोड़ रुपये के केंद्रीय परिव्यय के साथ, इस योजना का लक्ष्य 14,500 स्कूलों को मॉडल संस्थानों में अपग्रेड करना है जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। अकादमिक शिक्षा से परे, कौशल विकास भारत की युवा सशक्तिकरण रणनीति के केंद्र में रहा है। 2015 में कौशल भारत मिशन के शुभारंभ के बाद से, 1.63 करोड़ से अधिक युवाओं ने विभिन्न कौशल क्षेत्रों में प्रशिक्षण प्राप्त किया है। दूसरी तरफ दस करोड़ से अधिक लोग आयुष्मान भारत और जन औषधि योजना से करोड़ों लाभान्वित हो रहे हैं।
शिक्षित स्वस्थ नागरिक ही विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के लिए निरंतर काम कर सकते हैं। अयोध्या , सोमनाथ , काशी , मथुरा , उज्जैन सहित धार्मिक सांस्कृतिक नगरों को सुन्दर और पर्यटन के आकर्षण केंद्र बनाए जाने से भावनात्मक एकता बढ़ाने का पुनीत कार्य जारी है। धर्म के साथ राष्ट्र सुरक्षा के लिए तीनों सेनाओं के आधुनिकीकरण और स्वदेशी हथियारों के निर्माण की दिशा में रिकॉर्ड उपलब्धियां हो रही है। अब तो देश की आवश्यकता के अलावा हथियारों के निर्यात में विकसित देशों से प्रतियोगिता के लिए भारत तैयार है। भारत ने फ्रांस से राफेल फाइटर जेट खरीदे। अब राफेल बनाने वाली कंपनी दसॉ एविएशन हैदराबाद में अपना प्लांट लगाने जा रही है।
इस संयंत्र में टाटा एडवांस्ड सिस्टम के साथ राफेल युद्धक विमान की बॉडी बनाएगी जिसे एविएशन की भाषा में फ्यूजलेज कहते हैं। दसॉ ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि यह एयरोस्पेस सेक्टर में मैन्युफैक्चरिंग की भारत की क्षमता बढ़ाने और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को सुचारू रखने की दिशा में बड़ा कदम है। दसॉ ने कहा कि हैदराबाद प्लांट के जरिए भारत एयरोस्पेस इन्फ्रास्ट्रक्चर में अहम निवेश कर रहा है और यह प्लांट हाई-प्रेसिजन मैन्युफैक्चरिंग का महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा। राफेल फाइटर जेट की पहली बॉडी वित्त वर्ष 2028 में बनकर तैयार हो जाएगी। तभी तो यह दावा किया जाता है कि मोदी के नेतृत्व में हर मोर्चे पर विजय की पताका फहराना मुमकिन है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )