यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा करना असंभव हो जाएगा मिस्टर मीडिया!

‘न्यूजक्लिक’ पर सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई और उसके पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में देश के तमाम पत्रकार संघों ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़ को चिठ्ठी लिखी है।

राजेश बादल by
Published - Thursday, 05 October, 2023
Last Modified:
Thursday, 05 October, 2023
Mister Media


एक और औजार का परीक्षण हुआ

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।

‘न्यूजक्लिक’ (Newsclick) पर सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई और उसके पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में देश के तमाम पत्रकार संघों ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़ को चिठ्ठी लिखी है। अभी तक इस चिठ्ठी पर किसी तरह के संज्ञान की सूचना तो नहीं है, लेकिन इस देश की पत्रकारिता उनसे आशा करती है कि वे भारतीय संविधान में आम नागरिक को प्राप्त अभिव्यक्ति की आजादी और असहमति के सुरों को संरक्षण देने का काम करेंगे।

इस मुल्क के पत्रकार अपने लिए कोई विशेषाधिकार नहीं मांगते। वे सिर्फ यह बात समाज, देश और दुनिया के सामने रखना चाहते हैं कि यदि कोई निर्वाचित सरकार इस तरह से काम करे, जिसे वे उचित नहीं समझते तो कम से कम अपनी बात को अपने मंच और माध्यम से प्रकट करने का अवसर नहीं छीना जाना चाहिए। यही पत्रकारिता का कर्तव्य और धर्म है।

हिंदुस्तान के पत्रकार यह समझते हैं कि किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो, वह अपनी स्वस्थ आलोचना भी बर्दाश्त नहीं करना चाहती। अलबत्ता स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक मुखर आलोचना को पर्याप्त संरक्षण मिलता रहा है। धीरे-धीरे सियासत में घुल रहे सामंती जहर ने पत्रकारिता में भी दरबारी प्रवृति विकसित कर दी। इन दरबारियों को धन या अन्य प्रलोभन देकर अपनी पसंद की धुनों पर नाचने को बाध्य किया जाता है। जो ऐसा करने या नाचने से इनकार करते हैं, वे प्रताड़ना के शिकार होते हैं।

मौजूदा दौर में असहमत पत्रकारों को परेशान करने की प्रवृति तेज हो रही है। इसकी हर स्तर पर निंदा की जानी चाहिए। ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ से लेकर ‘प्रेस क्लब ऑफ इंडिया’ तक और अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता संगठनों का एक साथ, एक मंच पर आना इस बात का प्रमाण है कि लोकतांत्रिक अधिकारों को लंबे समय तक दबाया नहीं जा सकता।

हम यह नहीं कहते कि ‘न्यूजक्लिक’ ने अगर कुछ गैरकानूनी किया है तो उसके विरुद्ध कार्रवाई नहीं की जाए। उसके लिए तो सारी आजादी सरकार और जांच एजेंसियों को है। लेकिन अगर चीन से अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं आर्थिक मदद दे रही हैं तो वह भी तो भारतीय विधि विधान के तहत ही मिली है। कोई हवाला के जरिये तो नहीं मिली है। चीन से भारत का औपचारिक कारोबार साल दर साल बढ़ रहा है। सरदार पटेल की मूर्ति से लेकर इस राष्ट्र में अनेक आध्यात्मिक और धार्मिक प्रतीक पुरुषों की प्रतिमाएं या उनके हिस्से तक चीन से बनकर आ रहे हैं। तो फिर वहां की संस्था से पैसा लेना कौन सा पाप है? यह किसी की समझ में नहीं आ रहा है।

यदि सरकार चीन से इतना ही दूरी बनाए रखना चाहती है तो उसे सारा व्यापार बंद कर देना चाहिए। वहां एशियाड खेलने के लिए खिलाड़ियों को नहीं भेजना चाहिए और उसे दुश्मन देश घोषित कर देना चाहिए। इसके बाद भी कोई चोरी से लेन-देन करता है तो कार्रवाई होनी चाहिए। भारत ने तो पाकिस्तान तक को सर्वाधिक पसंदीदा देश का दर्जा दे रखा था, जिसने चार बार भारत से युद्ध छेड़ा। जब कश्मीर से अनुच्छेद 370 का विलोपन हुआ तो पाकिस्तान ने अपनी ओर से व्यापार बंद कर दिया। किसी भी मामले में दो तरह के पैमाने नहीं हो सकते। ‘न्यूजक्लिक’ पर कार्रवाई इस बात का उदाहरण है कि अगले साल 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले पत्रकारिता पर व्यवस्था ने अपने एक नए औजार का परीक्षण कर लिया है। इसकी काट के लिए पत्रकार और संपादक एक न हुए तो फिर अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा करना असंभव हो जाएगा मिस्टर मीडिया!

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

अपनी बिरादरी के उपहास व अपमान की इजाजत आपको भारतीय समाज नहीं देता मिस्टर मीडिया!

यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन जबान और कलम पर पहरा बिठा दिया जाएगा मिस्टर मीडिया!

पुलिस अधिकारी की इस करतूत ने पूरे पत्रकारिता जगत को करारा तमाचा मारा है मिस्टर मीडिया!

हम अपने दौर में पत्रकारिता की कलंक कथाएं रच रहे हैं मिस्टर मीडिया!

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संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव बनाने का खेल: अनंत विजय

वोट चोरी का आरोप हो या चुनाव आयोग पर हमला या फिर मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश पर महाभियोग की जुगत, राजनीति का ये खतरनाक खेल लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 15 December, 2025
Last Modified:
Monday, 15 December, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

संसद के शीतकालीन सत्र चुनाव सुधार को लेकर चर्चा हुई। यह चर्चा चुनाव सुधार पर कम मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर केंद्रित हो गई। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर अपने हमले को सदन में भी जारी रखा। वोट चोरी के आरोप दोहराए। अपनी पिछली प्रेस कांफ्रेस में कही गई बातों को दोहराते हुए चुनाव आयुक्त की आलोचना की।

कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने तो एसआईआर कराने के चुनाव आयोग के अधिकार पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। सत्ता पक्ष के सांसदों ने भी अपनी बात रखी। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में चर्चा का उत्तर देते हुए विपक्ष के सभी आरोपों को ना केवल खारिज किया बल्कि कांग्रेस को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। इस चर्चा से भ्रम भी दूर हुआ।

कांग्रेसी ईकोसिस्टम निरंतर ये नैरेटिव बनाने का प्रयास कर रही थी कि मोदी सरकार ने चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में बदलाव किया। समिति से उच्चतम न्यायाल के मुख्य न्यायाधीश को कानून बनाकर बाहर कर दिया। कानून बनाकर चुनाव आयुक्तों को जीवनभर के लिए केस मुकदमे से बचाने के लिए कानूनी कवच दे दिया। तीसरा कानून बनाकर वोटिंग के दौरान के सीसीटीवी फुटेज को 45 दिनों तक ही रखने का नियम बना दिया।

गृह मंत्री अमित शाह ने तीनों आरोपों की धज्जियां उड़ा दीं। 2023 में पहली बार चुनाव आयुक्तों के चयन को एक समिति से कराने का कानून पास हुआ। उसी समय केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने बताया था कि मुख्य न्यायाधीश को हटाने की बात गलत है। दरअसल 2023 के पहले प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होती थी।

सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद अंतरिम व्यवस्था बनी थी। मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति का सदस्य बनाया गया था। सरकार ने जब कानून बनाया तो अंतरिम व्यवस्था समाप्त हो गई। इसको ही कांग्रेसी इकोसिस्टम जोर-शोर से प्रचारित कर रहा था, अर्धसत्य के साथ । मतदान के दौरान की सीसीटीवी फुटेज को सहेजने को लेकर भी भ्रम फैलाया गया था।

चुनाव से संबंधित विवाद पर वाद दायर करने की अवधि ही 45 दिनों तक है तो सीसीटीवी फुटेज को वर्षों तक सहेजने का क्या औचित्य । चुनाव विवाद पर यदि कोई वाद दायर होता है तो कोर्ट के आदेश पर फुटेज को सहेजा जा सकता है। चुनाव आयोग के कर्मचारियों को 1951 के कानून के मुताबिक चुनाव के दौरान किए गए कार्यों के लिए केस मुकदमे से मुक्त रखा गया है। कोई नया नियम नहीं बनाया गया है। लोकसभा में अमित शाह ने स्थिति साफ की लेकिन इकोसिस्म अब भी अर्धसत्य फैलाने में लगा हुआ है।

इस दौरान ही एक और महत्वपूर्ण घटना हुई। तमिलनाडू हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जी आर स्वामीनाथन पर विपक्षी दलों ने महाभियोग चलाने का मांग पत्र लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिड़ला को सौंपा। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव, कांग्रेस की सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की सांसद कनिमोई समेत सौ से अधिक सांसदों ने जस्टिस स्वामीनाथन पर महाभियोग के प्रस्ताव पत्र पर हस्ताक्षर किए।

विपक्षी दलों के इन सांसदों ने मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस स्वामीनाथन पर आरोप लगाया है कि वो विष्पक्ष होकर अपने न्यायिक दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहे । उनपर एक वकील का पक्ष लेने का आरोप भी लगाया गया है। विपक्ष को महाभियोग का अधिकार है लेकिन महाभियोग की टाइमिंग को लेकर प्रश्न खड़े हो रहे हैं। दरअसल तमिलनाडु के मदुरै में थिरुपनकुंद्रम पहाड़ियों पर स्थित मंदिर में दीपक जलाने से जुड़ा मामला है। पहाड़ी पर स्थित मंदिर के पास दीपथून में दीप जलाने की मान्यता है।

दीप जलाने को लेकर पास के दरगाह से जुड़े लोगों ने आपत्ति की थी। मामला कोर्ट में गया तो कोर्ट ने दीपस्थान पर दीप जलाने की अनुमति दे दी। इसके विरोध में कुछ लोग हाईकोर्ट पहुंचे। हाईकोर्ट में जस्टिस स्वामीनाथन ने दीप जलाने की अनुमति दी। ये भी आदश दिया गया कि सिर्फ 10 लोग दीप जलाने के समय दीपस्थान पर उपस्थित रहें। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद पुलिस प्रशासन ने दीप जलाने की अनुमति नहीं दी।

हाईकोर्ट के दीप जलाने के आदेश के विरुद्ध राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। सुप्रीम कोर्ट में ये मामला लंबित है। लेकिन राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन दीप नहीं जलाने देने पर अड़ी है। सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर कोई फैसला आने के पहले ही तमिलनाडू की डीएमके ने आईएनडीआईए गठबंधन के अपने साथियों के साथ मिलकर लोकसभा अध्यक्ष को दीप जलाने का आदेश देनेवाले जस्टिस स्वामीनाथन के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव दे दिया।

दरअसल मदुरै की पहाडी पर स्थित मंदिर के पास एक दरगाह है। मंदिर दूसरी शताब्दी का बताया जाता है और दरगाह बहुत बाद में बना। दरगाह के बनने के बाद से ही पहाड़ी की जमीन को लेकर विवाद आरंभ हो गया था। 1920 में पहली बार मामला कोर्ट पहुंचा था। मंदिर और दरगाह के बीच को जमीन को लेकर एक प्रकार की सहमति बनी हुई है। 1994 में कार्तिगई दीपक के समय मंदिर में दीप जलाने की मांग की गई क्योंकि पहाड़ी पर दीप जलाने की मान्यता रही है।

1996 में कोर्ट ने पारंपरिक स्थान पर दीपक जलाने की अनुमति दी। 2014 में दीपाथुन पर दीप जलाने पर रोक लग गई और तब से रहकर रहकर ये विवाद उठता रहता है। तमिलनाडू में डीएमके की सरकार है और उनके मंत्रियों का सनातन को लेकर बयान आते रहते हैं । इस कारण सनातन मान्यताओं और परंपराओं पर राज्य सरकार के रुख पर कुछ कहना व्यर्थ है।

इस आलेख का उद्देश्य इस विवाद पर लिखना नहीं है बल्कि चुनाव आयोग और न्यापालिका पर विपक्ष के दबाव को रेखांकित करना है। अनेक अवसरों पर संविधान का गुटका संस्करण लहरानेवाले विपक्ष के नेता और उनकी पार्टी के सांसद देश के संवैधानिक संस्थानों पर अनावश्यक दबाव बनाने की चेष्टा करते हुए नजर आते हैं। उपरोक्त दो मामले इसके सटीक उदाहरण हैं।

चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्त को लेकर विपक्षी नेताओं ने कई बार अपमानजनक टिप्पणियां की हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त को तो सरकार में आने पर देख लेने तक की धमकी भी दी गई। कहा गया कि अगर कांग्रेस की सरकार कंद्र में आ गई को उनको छोड़ा नहीं जाएगा। देश में संवैधानिक सस्थाओं को दबाब में लेने की विपक्ष की ये जुगत खतरनाक है और एक गलत परंपरा की नींव डाल रही है। अगर आप चुनाव नहीं जीत पा रहे हैं तो दलों को मंथन करने की आवश्यकता है।

अपनी पार्टी संगठन को कसने की जरूरत है। कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करने वाले कार्यक्रम आरंभ करने की आवश्यकता है। अपनी नाकामी छिपाने के लिए संवैधानिक संस्थाओं को जिम्मेदार ठहराना ना तो संविधान सम्मत है और ना ही राजनीतिक रूप से ठीक है। विपक्षी दलों के नेताओं को इस बारे में विचार करना चाहिए। अगर इसी तरह से संवैधानिक संस्थाओं पर दबाब डाला जाता रहा तो संभव है कि इन संस्थाओं से कोई गलत कदम उठ जाए। ये ना तो विपक्ष के हित में होगा और ना ही लोकतंत्र के हित में।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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SIP करते रहें या निकल जाएं: पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

SIP से पैसा लगाने वाले निवेशकों में भी बेचैनी है ख़ासकर जिन्होंने साल भर पहले पैसे लगाने शुरू किए थे। लार्ज कैप स्कीम में रिटर्न 5% तक है जबकि मिड कैप और स्मॉलकैप में तो निगेटिव रिटर्न है।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 15 December, 2025
Last Modified:
Monday, 15 December, 2025
milindkhandekar

मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

उदय कोटक, कोटक महिंद्रा बैंक के संस्थापक, ने X पर पोस्ट किया कि विदेशी निवेशक बेच रहे हैं जबकि भारतीय ख़रीद रहे हैं। अभी तक तो लग रहा है कि FII यानी विदेशी निवेशक स्मार्ट हैं। पिछले साल भर शेयर बाज़ार का डॉलर में रिटर्न ज़ीरो रहा है।

उदय कोटक विदेशी निवेशकों को स्मार्ट कह रहे हैं क्योंकि उन्होंने इस साल में अब तक दो लाख करोड़ रुपये ज़्यादा के शेयर बेच दिए हैं जबकि भारतीय निवेशक म्यूचुअल फंड की SIP के ज़रिए अब तक क़रीब तीन लाख करोड़ रुपये लगा चुके हैं।

भारतीय शेयर बाज़ार का रिटर्न 5% तक रहा है लेकिन रुपया गिरने के कारण विदेशी निवेशकों को रिटर्न ज़ीरो या निगेटिव हो गया है। विदेशी निवेशक जब शेयर बेचते हैं तो उन्हें वापस ले जाने के लिए रुपये देकर डॉलर ख़रीदने पड़ते हैं। इस वजह से रिटर्न ज़ीरो हो रहा है।

SIP से पैसा लगाने वाले निवेशकों में भी बेचैनी है ख़ासकर जिन्होंने साल भर पहले पैसे लगाने शुरू किए थे। लार्ज कैप स्कीम में रिटर्न 5% तक है जबकि मिड कैप और स्मॉलकैप में तो निगेटिव रिटर्न है। जिन्होंने दो या तीन साल पहले SIP शुरू किया था वो फिर भी फायदे में हैं।

फिर भी सवाल बना हुआ है कि शेयर बाज़ार में तेज़ी क्यों नहीं आ रही है? सबसे बड़ा कारण है विदेशी निवेशकों की बिकवाली। विदेशी निवेशक को भारतीय शेयर अब भी महंगे लग रहे हैं। Nifty का PE Ratio 22 के आसपास है यानी जिस शेयर को आप ख़रीद रहे हैं उसकी क़ीमत वसूल करने में अभी के मुनाफ़े के हिसाब से 22 साल लग जाएँगे।

विदेशी निवेशक को भारत में रिटर्न कम मिल रहा है जबकि अमेरिकी बाज़ार में 15-20% रिटर्न मिल रहा है। भारत के अलावा बाक़ी Emerging markets में रिटर्न 5 से 10% है। रुपये के गिरने से रिटर्न और कम हो गया है। भारत और अमेरिका की ट्रेड डील फँसी हुई है।

विदेशी निवेशकों को भी इसका इंतज़ार है। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने पहले कहा था कि नवंबर तक डील हो सकती है, अब वो मार्च की बात कर रहे हैं। बाज़ार में उतार-चढ़ाव बना रह सकता है। अगर आप SIP कर रहे हैं तो धीरज रखना पड़ेगा। यह लॉन्ग टर्म गेम है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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टीवी, प्रिंट और डिजिटल की लड़ाई नहीं, साथ चलने की जरूरत: आलोक मेहता

एक्सचेंज4मीडिया न्यूजनेक्स्ट समिट 2025 (e4m NewsNext Summit 2025) की शुरुआत शनिवार को हुई। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार और पद्मश्री से सम्मानित आलोक मेहता का एक भावुक और निजी अनुभवों से भरा सत्र हुआ।

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Published - Monday, 15 December, 2025
Last Modified:
Monday, 15 December, 2025
AlokMehta541

एक्सचेंज4मीडिया न्यूजनेक्स्ट समिट 2025 (e4m NewsNext Summit 2025) की शुरुआत शनिवार को हुई। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार और पद्मश्री से सम्मानित आलोक मेहता का एक भावुक और निजी अनुभवों से भरा सत्र हुआ। उन्होंने भारतीय मीडिया के बदलाव, प्लेटफॉर्म्स के बीच कथित प्रतिस्पर्धा के मिथक और पत्रकारिता में टीवी, प्रिंट और रिश्तों की आज भी बनी हुई अहमियत पर खुलकर बात की।

अपने संबोधन की शुरुआत करते हुए आलोक मेहता ने टीवी के खत्म होने की लगातार चल रही चर्चा पर सीधे जवाब दिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, 'टीवी जिंदा है। टीवी हमेशा जिंदा रहेगा।' उन्होंने मीडिया इंडस्ट्री से अपील की कि पुराने मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए जल्दबाजी में शोक संदेश लिखना बंद किया जाए।

उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत का जिक्र करते हुए बताया कि उनका सफर 1971 में शुरू हुआ था। मेहता ने कहा कि पत्रकारिता में बदलाव कोई नई बात नहीं है। उन्होंने कहा, 'हमने टाइपराइटर से शुरुआत की थी, मैंने टेलीग्राम से काम शुरू किया था, आज वाले टेलीग्राम से नहीं बल्कि तार से।'  उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने एजेंसियों, रेडियो, टेलीविजन, अंतरराष्ट्रीय मीडिया सहयोग और शुरुआती डिजिटल प्रयोगों में काम किया है और हर बदलाव को बहुत करीब से देखा है।

अपने अनुभवों के आधार पर आलोक मेहता ने इस सोच को चुनौती दी कि अलग-अलग प्लेटफॉर्म एक-दूसरे के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा, 'हम एक-दूसरे से मुकाबला नहीं कर रहे हैं। हम एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं।' उनके मुताबिक दर्शक अपनी जरूरत के हिसाब से टीवी, डिजिटल और प्रिंट के बीच आते-जाते रहते हैं। कहीं गहराई चाहिए, कहीं विस्तार और कहीं सहूलियत, इसलिए सभी प्लेटफॉर्म का साथ-साथ चलना जरूरी है और यही सच है।

उन्होंने एक्सचेंज4मीडिया के शुरुआती दिनों को भी याद किया। मेहता ने बताया कि जब 'एक्सचेंज4मीडिया' की शुरुआत हुई थी, तब माहौल बहुत छोटा और अनिश्चित था। उन्होंने कहा, 'जब 'एक्सचेंज4मीडिया' शुरू हुआ था तो यह एक छोटा सा गेट-टुगेदर था… तब भी हम पूछते थे कि यह कैसे चलेगा?' उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इंडस्ट्री का इकोसिस्टम धैर्य, भरोसे और लगातार मेहनत से ही मजबूत बनता है।

कुछ बड़े इंटरव्यू और वैश्विक मीडिया घटनाओं का जिक्र करते हुए आलोक मेहता ने सवाल उठाया कि संपादकीय फैसलों को अक्सर आपसी प्रतिस्पर्धा के नजरिये से क्यों देखा जाता है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के इंटरव्यू का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, 'यदि राष्ट्रपति पुतिन ने इंटरव्यू दिया है तो यह भारतीय मीडिया की अहमियत दिखाता है। इसे गर्व की बात मानना चाहिए, घर की लड़ाई नहीं।' उन्होंने कहा कि संपादकीय फैसले रणनीति और हालात के हिसाब से लिए जाते हैं, किसी के खिलाफ नहीं होते।

न्यूजरूम कल्चर पर बात करते हुए मेहता ने चेतावनी दी कि मालिकाना हक या बाजार की ताकतों से पैदा किए गए टकराव को पत्रकारों को अपने भीतर नहीं बैठाना चाहिए। उन्होंने कहा, 'मैनेजमेंट चाहेगा कि आलोक मेहता और दूसरे लोग आपस में लड़ें। लेकिन जब विज्ञापन दरों की बात आती है तो सारे मालिक एक हो जाते हैं।' उन्होंने पत्रकारों से अपील की कि वे मीडिया के आर्थिक पहलू को समझें लेकिन इसका असर अपने पेशेवर रिश्तों पर न पड़ने दें।

राजनीतिक रूप से संवेदनशील माहौल में रिपोर्टिंग के अपने लंबे अनुभव को साझा करते हुए आलोक मेहता ने कहा कि दुश्मनी से ज्यादा संवाद जरूरी है। उन्होंने कहा, 'जो भी सत्ता में है वह आपका दुश्मन नहीं होता।' उन्होंने कई ऐसे मौके याद किए जब बातचीत, सम्मान और मजबूती के साथ खड़े रहने से उन्होंने धमकियों, राजनीतिक दबाव और टकराव का सामना किया और अपनी पत्रकारिता की सच्चाई से समझौता नहीं किया।

जोखिम को लेकर उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में जोखिम हमेशा रहता है, चाहे वह जंग के मैदान में रिपोर्टिंग हो या खोजी पत्रकारिता। लेकिन इसके साथ संस्थागत जिम्मेदारी भी जरूरी है। उन्होंने कहा, 'यदि आप जोखिम लेना चाहते हैं तो आपको सुरक्षा भी मांगनी चाहिए।' उन्होंने संघर्ष क्षेत्रों और संवेदनशील बीट्स पर काम करने वाले पत्रकारों के खतरों को भी स्वीकार किया।

टीवी के भविष्य पर लौटते हुए आलोक मेहता ने लोगों की सोच के बजाय उनके व्यवहार की ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा, 'देखिए आज भी कितने टीवी सेट बिक रहे हैं… लोग आज भी टेलीविजन खरीद रहे हैं।' उनके मुताबिक बड़े स्क्रीन, परिवार के साथ बैठकर देखने का अनुभव और भरोसे पर आधारित कंटेंट आज भी टीवी को मजबूत बनाए हुए हैं, भले ही दौर मोबाइल का हो।

अपने भाषण के अंत में आलोक मेहता ने पत्रकारिता की तुलना सर्जरी से की। उन्होंने कहा, 'जो डॉक्टर ऑपरेशन करता है, वह कभी नहीं पूछता कि यह खून किसका है।' उन्होंने कहा कि मीडिया की ताकत भी यही होनी चाहिए कि वह निजी रिश्तों से ऊपर उठकर अपना काम करे। मेहता के मुताबिक आने वाले 50 सालों में पत्रकारिता का भविष्य प्रतिस्पर्धा नहीं बल्कि रिश्तों, मजबूती और जिम्मेदारी पर टिका होगा।

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2025 ने रफ्तार दी, 2026 भरोसे की असली कसौटी बनेगा: शमशेर सिंह

वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।

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Published - Thursday, 11 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 11 December, 2025
yearender2025

शमशेर सिंह, वरिष्ठ पत्रकार।

साल 2025 मीडिया और पत्रकारिता के लिए तेज़ बदलावों, नई तकनीकों और नई आदतों का साल बनकर सामने आया। डिजिटल न्यूज़ कंजम्पशन में लगभग 22 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई, जिसने साफ कर दिया कि दर्शक अब परंपरागत माध्यमों से आगे निकल चुका है।

मोबाइल फ़र्स्ट रिपोर्टिंग ने न्यूज़ रूम के काम करने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया। अब खबरों का निर्माण कैमरों से नहीं, बल्कि हथेली में मौजूद स्मार्टफोन से हो रहा है। वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।

गांव, कस्बे, शहर और मोहल्ले की खबरें अब राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन रही हैं। न्यूज़ की स्पीड पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ हो गई है और प्लेटफ़ॉर्म भी लगातार बदल रहे हैं। लेकिन 2025 सिर्फ़ विकास का साल नहीं था, इसने आने वाले खतरे की चेतावनी भी दी।

फेक न्यूज़ में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी, एआई-निर्मित कंटेंट का दुरुपयोग, डीपफेक वीडियो और सोशल मीडिया का दबाव, इन सबने पत्रकारिता की साख को गहरी चुनौती दी। कई मौकों पर वायरल होने की होड़ में तथ्य पीछे छूटते दिखे, और भरोसा कमजोर पड़ा।

अब नज़र 2026 पर है। यह साल 'डिजिटल + डेटा + एआई' का साल होगा। पत्रकारिता और ज़्यादा डिजिटल-फ़र्स्ट, वीडियो-हेवी और एआई-ड्रिवन होती जाएगी। एआई टूल्स काम की रफ्तार को कई गुना बढ़ा देंगे, लेकिन साथ ही गलत सूचना का खतरा भी उतना ही बढ़ जाएगा।

2026 में पत्रकारिता का असली इम्तिहान यही होगा। तेज़ भी रहना है, और सही भी। स्पीड और फैक्ट्स के बीच संतुलन सबसे बड़ी चुनौती बनेगा। 2025 ने रास्ता दिखाया था, 2026 यह तय करेगा कि मीडिया तकनीक को अपनाते हुए जनता का भरोसा बनाए रख पाता है या नहीं। आने वाला साल सिर्फ़ तकनीकी बदलाव का नहीं, पत्रकारिता की विश्वसनीयता की अग्निपरीक्षा का साल होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता के वाहक हैं डिजिटल माध्यम: प्रो. संजय द्विवेदी

कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करें।

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Published - Thursday, 11 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 11 December, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

इन दिनों सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन या समय बिताने का साधन नहीं रह गया है। सही मायनों में यह शक्तिशाली डिजिटल आंदोलन है, जिसने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मंच दिया है। छोटे गाँवों और कस्बों के युवा भी वैश्विक दर्शकों तक पहुँच रहे हैं। एक साधारण-सा मोबाइल फोन अब दुनिया से संवाद का प्रभावशाली माध्यम है। इस परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स केवल तकनीकी क्रिएटर नहीं हैं, बल्कि वे डिजिटल युग के नेता, कथाकार और समाज के प्रेरक बन गए हैं। उनकी एक पोस्ट सोच बदल सकती है, एक वीडियो नया रुझान बना सकता है और एक अभियान समाज के भीतर सकारात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रारंभ कर सकता है।

यह दुधारी तलवार है, अचानक हम प्रसिद्धि के शिखर पर होते हैं और एक दिन हमारी एक लापरवाही हमें जमीन पर गिरा देती है। हमारा सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिए इस राह के खतरे भी क्रिएटर्स से समझने होंगे। सोशल मीडिया की बढ़ी शक्ति के कारण आज हर व्यक्ति यहां दिखना चाहता है। बावजूद इसके हर शक्ति के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी जुड़ जाती है। करोड़ों लोगों तक पहुँचने वाला प्रत्येक शब्द, प्रत्येक विचार और प्रत्येक दृश्य अपने आप में एक संदेश है। इसलिए यह आवश्यक है कि ट्रोलिंग, फेक न्यूज़ और नकारात्मकता के शोर के बीच सच, संवेदनशीलता और सकारात्मकता की आवाज़ बुलंद हो।

कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करे और संवाद की संस्कृति को मजबूत करे। पारंपरिक मीडिया की बंधी-बंधाई और एकरस शैली से अलग हटकर जब भारतीय नागरिक इस पर विचरण करने लगे तो लगा कि रचनात्मकता और सृजनात्मकता का यहां विस्फोट हो रहा है। दृश्य, विचार, कमेंट्स और निजी सृजनात्मकता के अनुभव जब यहां तैरने शुरू हुए तो लोकतंत्र के पहरुओं और सरकारों का भी इसका अहसास हुआ।

आज वे सब भी अपनी सामाजिकता के विस्तार के लिए सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं भी कहा कि “सोशल मीडिया नहीं होता तो हिंदुस्तान की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता।” सोशल मीडिया अपने स्वभाव में ही बेहद लोकतांत्रिक है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग की सीमाएं तोड़कर इसने न सिर्फ पारंपरिक मीडिया को चुनौती दी है वरन् यह सही मायने में आम आदमी का माध्यम बन गया है। इसने संवाद को निंरतर, समय से पार और लगातार बना दिया है। इसने न सिर्फ आपकी निजता को स्थापित किया है, वरन एकांत को भी भर दिया है।

यह देखना सुखद है कि युवा क्रिएटर्स महानगरों से आगे निकलकर आंचलिक भाषाओं, ग्रामीण कथाओं और लोक संस्कृति को विश्व के सामने ला रहे हैं। यह भारत की जीवंत आत्मा है, जो अब डिजिटल माध्यमों के द्वारा वैश्विक स्तर पर स्वयं को व्यक्त कर रही है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और वोकल फॉर लोकल जैसी योजनाओं की सफलता काफी हद तक इसी पर निर्भर करती है कि सोशल मीडिया की यह नई पीढ़ी इन्हें किस सहजता और स्पष्टता के साथ आम जनता तक पहुँचाती है। सोशल मीडिया अब शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता और सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है।

ब्रांड्स आपकी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन समय की मांग यह है कि आप स्वयं भी एक जिम्मेदार और विश्वसनीय ब्रांड के रूप में विकसित हों। सरकार और समाज के बीच भी सोशल मीडिया सेतु का काम रहा है क्योंकि संवाद यहां निरंतर है और एकतरफा भी नहीं है। सरकार के सभी अंग इसीलिए अब सोशल प्लेटफार्म पर हैं और अपने तमाम कामों में क्रिएटर्स की मदद भी ले रहे हैं। सोशल मीडिया एक साधन है, परंतु गलत दिशा में प्रवाहित होने पर यह एक खतरनाक हथियार भी बन सकता है। यह मनोरंजन का माध्यम है, पर समाज-निर्माण का आयाम भी इसके भीतर निहित है।

यह दोहरा स्वरूप अवसर भी प्रदान करता है और चुनौती भी। सोशल मीडिया उचित दृष्टिकोण के साथ उपयोग हो तो वह ‘ग्लोबल वॉयस फॉर लोकल इशूज़’ बन सकता है। कंटेंट क्रिएटर्स की शक्ति यदि ज्ञान और जिम्मेदारी से न जुड़ी हो, तो वह समाज के लिए खतरनाक हो सकती है। सामाजिक सोच के साथ किए गए प्रयासों से सोशल मीडिया केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक सामाजिक मिशन का माध्यम भी हो सकता है। हमें सोचना होगा कि आखिर हमारे कंटेंट का उद्देश्य क्या है। क्या सिर्फ आनंद और लाइक्स के लिए हम समझौते करते रहेंगें।

सोशल मीडिया की चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। फेक न्यूज़, तथ्यहीन दावे और सनसनीखेज प्रस्तुति विश्वसनीयता के संकट को जन्म दे रहे हैं। एल्गोरिद्म की मजबूरी क्रिएटर्स को रचनात्मकता से दूर ले जाकर केवल ट्रेंड के पीछे भागने के लिए विवश कर रही है। लाइक्स, फॉलोअर्स और व्यूज़ की अनवरत दौड़ मानसिक तनाव और आत्मसम्मान के संकट को बढ़ा रही है।

ध्रुवीकरण और ट्रोल संस्कृति समाज के ताने-बाने को कमजोर कर रही है। इन परिस्थितियों में क्रिएटर्स के सामने तीन मार्ग हैं, ट्रेंड का अनुकरण करने वाला कंटेंट क्रिएटर, नए ट्रेंड स्थापित करने वाला कंटेंट लीडर या समाज को दिशा देने वाला कंटेंट रिफॉर्मर।

जिम्मेदार क्रिएटर की पहचान सत्य, संवेदना और सामाजिक हित से होती है। विश्वसनीय जानकारी देना, सकारात्मक संवाद स्थापित करना, आंचलिक भाषाओं और स्थानीय मुद्दों को महत्व देना, जनता की समस्याओं को स्वर देना और स्वस्थ हास्य तथा मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखना आज की डिजिटल नैतिकता के प्रमुख तत्व हैं। वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर दो तरह के लोग सक्रिय दिखाई देते हैं, एक वे जो समाज को बाँटते हैं और दूसरे वे जो समाज को जोड़ते हैं। विश्वास है कि नई पीढ़ी जोड़ने वालों की भूमिका निभाएगी।

आपके पास केवल कैमरा या रिंग लाइट नहीं है; आपके पास समाज को रोशन करने की रोशनी है। आप वह पीढ़ी हैं जो बिना न्यूज़रूम के पत्रकार, बिना स्टूडियो के कलाकार और बिना मंच के विचारक हैं। जाहिर है तोड़ने वाले बहुत हैं अब कुछ ऐसे लोग चाहिए जो देश और दिलों को जोड़ने का काम करें। आपमें परिवर्तन की शक्ति है। यदि आप सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ अपनी भूमिका निभाएँ, तो डिजिटल परिदृश्य को अधिक संवेदनशील, अधिक सकारात्मक और अधिक प्रेरणादायक बना सकते हैं।

महाभारत का संदेश यहाँ स्मरणीय है, युधिष्ठिर सत्यवादी थे, पर कृष्ण सत्यनिष्ठ थे। सत्य कहना ही पर्याप्त नहीं है; सत्य के प्रति निष्ठा और समाज के हित में समर्पण ही असली धर्म है। सोशल मीडिया की दुनिया में यही दृष्टि हमें प्रभावशाली और विश्वसनीय बनाएगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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वंदे मातरम् इस्लाम विरोधी नहीं है: समीर चौगांवकर

वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

Samachar4media Bureau by
Published - Tuesday, 09 December, 2025
Last Modified:
Tuesday, 09 December, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

वंदे मातरम् हर कसौटी पर सौ टंच खरा उतरता है। वंदे मातरम् के पहले दो पद तो ऐसे है कि जिन्हें भारत ही नहीं दुनिया का कोई भी राष्ट्र अपना राष्ट्रगीत घोषित कर सकता है। इस अर्थ में वंदे मातरम् विश्व गीत हैं। वंदे मातरम् में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मुसलमान विरोधी या इस्लाम विरोधी कहा जाए।

वंदे मातरम् को हिंदू धर्म से सिर्फ इसलिए जोड़ दिया गया क्योकि बंकिमचंद चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ में उसे सन्यासियों से गवाया है और गाने वाले संन्यासी हिंदू थे। वंदे मातरम् बंकिमचंद्र ने 1875 में लिखा। यह “बंग दर्शन” पत्रिका में पहले छपा बाद में 1882 में आनंद मठ में इस गीत का जिक्र हुआ है।

इस गीत को बंगाल के हिंदू और मुसलमान मिलकर गाते थे। यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे देश का प्रेरणा बना। वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

कांग्रेस के मुसलमान नेता और कार्यकर्ता वंदे मातरम् गाते रहे। इस गीत का विरोध 1906 में मुस्लिम लीग बनने के बाद मुस्लिम लीग ने शुरू किया और मुस्लिम लीग के भड़काने पर मुसलमानों नें। जिन्ना ने भी तब विरोध किया जब मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और पाकिस्तान दिखने लगा।

मद्रास विधानसभा में वंदे मातरम् के साथ साथ कुरान की आयते पढ़ी जाने लगी। इस धर्मनिरपेक्ष गीत को धार्मिक गीत में तब्दील कर दिया गया। मुस्लिम लीग को राजनीति करनी थी। इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं था। मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करना था, सो वंदे मातरम् को आगे कर किया गया।

मुस्लिम लीग के मुसलमानों को मातृभूमि नहीं मात्र भूमि चाहिए थी और वह पाकिस्तान के रूप में मिली। पाकिस्तान गए मुसलमानों के पास कोई मातृभूमि नहीं थी इस कारण पाकिस्तान के राष्ट्रगान में मातृभूमि का जिक्र नहीं है। अल्लामा इकबाल ने लिखा है ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा‘।

ताज बीबी ने कन्हैया के घुंघराले बालों की तुलना अल्लाह के लाम से की है। रसखान ने कन्हैया के कुंजन पर चाँदी के महल वार दिए। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत की रचना की। नजीर बनारसी ने गंगा को अपनी मैया कह दिया तो क्या वे काफिर हो गए? बिस्मिल्लाह खान बाबा विश्वनाथ के मंदिर में बैठकर राग भैरव बजाते थे तो क्या वे हिंदू हो गए?

उनके जैसे अच्छे और सच्चे मुसलमान बनने में क्या दिक्कत है? भारत में मुसलमानों को जितना मुसलमान रहना है, उतना ही भारतीय भी रहना है। इस लक्ष्य की पूर्ति में वंदे मातरम् कही आडे नहीं आता। अच्छा मुसलमान बनने का मतलब मतांध मुसलमान बनना नहीं है। खुल कर और सबसे साथ मिलकर बोलिए ,वंदे मातरम्।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम: अनंत विजय

जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी।

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Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था।

उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है।

राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है।

कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है।

वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था।

जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था।

उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है।

बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे।

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया।

हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे।

प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले?

ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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Gemini या ChatGPT कौन बेहतर? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

कौन सा AI मॉडल बेहतर है? इस समझने के लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam, हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

ChatGPT को आए 30 नवंबर को तीन साल हो गए। यह पहला Generative AI App था। इसके बाद से AI का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। तीन साल पूरे होने पर ChatGPT बनाने वाली कंपनी Open AI ने जश्न मनाने के बजाय अपने लिए ख़तरे की घंटी बजाई है।

Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन ने कोड रेड जारी किया है। अपने स्टाफ़ से कहा कि सारे नए काम बंद कर ChatGPT पर ध्यान दें क्योंकि Google Gemini और Claude जैसे एप अब उसे टक्कर दे रहे हैं। आज हिसाब किताब करेंगे कि ChatGPT और Google Gemini में बेहतर कौन है।

कौन सा AI मॉडल बेहतर है। इसके लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam। हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं। ढाई से तीन हज़ार सवाल होते हैं। इस परीक्षा में Gemini का स्कोर 37% रहा है जबकि ChatGPT का 31%। यानी Gemini आगे निकल गया है।

पर परीक्षा से आपको क्या मतलब है। आपको तो रोज़ाना के कामों में इसे इस्तेमाल करना है। अगर एक लाइन में कहा जाए तो Gemini साइंस का अच्छा स्टूडेंट है जबकि ChatGPT लिबरल आर्ट्स का। Gemini आँकड़ों से खेल सकता है जबकि ChatGPT शब्दों से। इसका मतलब यह नहीं है कि ChatGPT गणित में कमजोर है या Gemini भाषा में।

जो तीन काम आपके लिए ChatGPT अच्छा कर सकता है वह है लिखना। ई-मेल, लेख। दूसरा काम है समझाना। किसी अच्छे टीचर की तरह यह मुश्किल विषय आसान भाषा में समझा सकता है। तीसरा काम है सलाहकार का। जैसे करियर को लेकर CV बनाने या इंटरव्यू की तैयारी को लेकर यह आपकी मदद कर सकता है।

अब बात करते हैं Gemini के तीन कामों के बारे में। यह आपको फ़ाइनेंस, बिज़नेस और इन्वेस्टमेंट जैसे विषयों में फ़ैसले में मदद कर सकता है। Google का रियल टाइम डेटा इसे बेहतर बनाता है। दूसरा काम है रिपोर्ट पढ़ने का।

यह Multi Modal है यानी अलग-अलग इनपुट जैसे फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो, टेक्स्ट को एक साथ समझने की क्षमता रखता है। सारी बातें लिखकर बताना ज़रूरी नहीं है। तीसरा काम जो यह बेहतर कर सकता है वह है ट्रैवल एजेंट का। आपके Gmail, कैलेंडर का उसे पता है। Google Flights से उसके पास रियल टाइम डेटा है जो आपको बुकिंग में मदद करेगा। सिर्फ पेमेंट आपको करना है।

फ़ैसला आपका है कि किसे चुनना है। दोनों की खूबियाँ आपको बता दी गई हैं। मेरी सलाह है कि यूज़ करना शुरू कीजिए। यह ध्यान रखना होगा कि AI गलती कर सकता है। उसे सब पता नहीं है। परीक्षा में उसका स्कोर पासिंग परसेंट पर ही है फ़िलहाल।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हवाई सपनों की उड़ानें खतरों को कब तक बढ़ाएंगी: आलोक मेहता

इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था।

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Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

भारतीय विमानन उद्योग पिछले तीन दशकों से 'उड़ने की महत्वाकांक्षा और गिरने की मजबूरी' दोनों का प्रतीक रहा है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद निजी एयरलाइंस का दौर शुरू हुआ। लोगों ने पहली बार एयर-ट्रैवल को राजसी विलासिता से निकालकर आम मध्यम वर्ग की पहुँच में आते देखा। लेकिन यह कहानी उतनी सरल नहीं थी।

जहाँ एक ओर इंडियन एयरलाइंस और बाद में एयर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियाँ भ्रष्टाचार, खराब प्रबंधन और राजनीतिक दख़ल से लगातार घाटे में डूबी रहीं, वहीं निजी क्षेत्र की किंगफिशर, जेट एयरवेज, सहारा एयरलाइंस और अन्य ब्रांड शुरुआती चमक-दमक के बाद दिवालियेपन, कर्ज़, अनियमितताओं और जाँचों में फँसते चले गए।

आज, जब इंडिगो जो कभी भारत का सबसे मजबूत और कुशल एयरलाइन मॉडल माना जाता था, लागत दबाव, परिचालन चुनौतियों और बाजार की उथल-पुथल से जूझ रहा है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर भारतीय विमानन में गड़बड़ी कहाँ है? और इस गड़बड़ी का ज़िम्मेदार कौन है—कंपनी मालिक, रेगुलेटर, नीति-निर्माता या सम्पूर्ण तंत्र?

इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक—राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल—का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था। यही कारण था कि उद्योग में उन्हें “नये खिलाड़ी” माना गया, लेकिन उनकी रणनीति बेहद आक्रामक और पेशेवर थी। एक ही मॉडल के विमान (A320/A321), समय पर उड़ान, कम किराए और तेज़ी से बेड़ा बढ़ाने की रणनीतियों ने इंडिगो को 50% से अधिक घरेलू मार्केट शेयर तक पहुँचा दिया।

लेकिन आज इंडिगो नई चुनौतियों से जूझ रहा है। बढ़ती परिचालन लागत—ईंधन, हवाईअड्डा शुल्क और रखरखाव लागत में भारी वृद्धि, पायलट और केबिन कर्मचारियों की कमी, ड्यूटी के दबाव की स्थिति, हड़ताल जैसी तकनीकी समस्याएँ, इंजन विवाद के कारण सैकड़ों उड़ानें रद्द, विमान ग्राउंडेड। अंतरराष्ट्रीय विस्तार में अनिश्चितता।

फिर प्रतिस्पर्धा का नया दौर—टाटा समूह की एयर इंडिया और उसकी साथी सिंगापुर एयरलाइन्स, आकासा जैसी एयरलाइंस चुनौती दे रही हैं। वैसे एयर इंडिया भी पूरी तरह सफल नहीं हो रही है और चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं। इंडिगो को अभी “वित्तीय पतन” की स्थिति में नहीं कहा जा सकता, लेकिन लाभ में गिरावट और ऑपरेशनल गड़बड़ियाँ साफ संकेत देती हैं कि भारत के सबसे मजबूत ब्रांड को भी संकट से गुज़रने का खतरा है।

सरकारी एयरलाइंस के रूप में विमान सेवाओं का घाटे का सिलसिला कभी रुका ही नहीं। असफलताओं के कई कारण दशकों से सामने आते रहे, जैसे राजनीतिक दख़ल, ख़रीद–फ़रोख़्त में गड़बड़ी, महँगे विमान सौदे, अक्षम प्रबंधन, कर्मचारियों की अधिक संख्या, भ्रष्टाचार के आरोप और विदेशी रूट्स का दबाव। एयर इंडिया की हालत इतनी ख़राब थी कि उसे चलाने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये की सरकारी सब्सिडी और सहायता देनी पड़ती थी। अंततः 2022 में इसे टाटा समूह को बेचकर सरकार ने अपने कंधे हल्के किए।

निजी एयरलाइनों ने शुरुआत में चमचमाते विज्ञापनों, मॉडल-आधारित प्रचार और “लक्ज़री” की छवि से यात्रियों को लुभाया। लेकिन कई कंपनियों का पतन अव्यवस्थित बिज़नेस मॉडल, अनियंत्रित विस्तार, कर्ज़ और नियामकीय ढिलाई के कारण तेज़ हो गया। किंगफिशर को कभी भारत की “फाइव-स्टार एयरलाइन” कहा जाता था।

अत्यधिक खर्च, महँगा ब्रांडिंग मॉडल और गलत अधिग्रहण (Air Deccan) ने किंगफिशर को कर्ज़ के पहाड़ में धकेल दिया। करीब 7000+ करोड़ बैंक कर्ज़, टैक्स बकाया, कर्मचारियों के वेतन लंबित और कई जाँच और कानूनी विवाद से हालत ख़राब हुई। विजय माल्या पर धन शोधन और बैंक धोखाधड़ी के मामले दर्ज हुए, जिसके बाद वह देश छोड़कर चला गया और भारत के लिए “वित्तीय भगोड़े” का प्रतीक बन गए।

इसी तरह सहारा एयरलाइंस की विमान सेवाएँ 90 के दशक में काफी लोकप्रिय हुईं, लेकिन धीरे-धीरे वित्तीय विवाद और नियामकीय दबाव बढ़ते गए। बाद में यह कंपनी जेट एयरवेज को बेच दी गई। सहारा समूह के खिलाफ बड़े पैमाने पर सेबी के केस चले, और सुब्रत रॉय को लंबे समय तक जेल का सामना करना पड़ा।

जेट एयरवेज कभी भारत की सबसे प्रतिष्ठित निजी एयरलाइन थी, लेकिन 2015–2018 के बीच लागत बढ़ने, खतरनाक कर्ज़ और प्रबंधन विवादों ने इसे धराशायी कर दिया। मालिक नरेश गोयल पर वित्तीय अनियमितताओं, विदेशी फंडिंग संबंधी जाँच और मनी लॉन्ड्रिंग आरोप के मामले चले और वे जेल तक पहुँचे। जेट के बंद होने से लाखों यात्रियों, हजारों कर्मचारियों और सप्लाई-चेन कंपनियों को भारी नुकसान हुआ।

देश में हवाई सेवाओं को लेकर भारतीय विमानन नियामक और नागरिक उड्डयन मंत्रालय पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। समय पर हस्तक्षेप की कमी रही। कई एयरलाइनों के वित्तीय संकेत वर्षों तक खराब रहे, लेकिन नियामक ने देर से कदम उठाए। सर्दियों में कोहरा या कम विज़िबिलिटी में उड़ान के लिए पायलटों को विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है।

लेकिन यह प्रशिक्षण महँगा पड़ता है, इसलिए कई निजी एयरलाइन्स पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं करातीं। नियामक कई बार सलाह जारी करता रहा, परंतु कठोर कार्रवाई कभी नहीं की गई। सुरक्षा निरीक्षण सिर्फ “औपचारिकता” के रूप में किए जाते रहे। यही नहीं, दबाव में एयरलाइन लाइसेंस देने में जल्दबाज़ी की गई। व्यावसायिक मॉडल कमजोर होने के बावजूद कई कंपनियों को उड़ान की अनुमति दे दी गई।

इन कमज़ोरियों ने भारतीय विमानन को “उड़ान के पहले ही ख़तरे” में झोंक दिया। एक तथ्य यह भी है कि भारत की एयरलाइंस विदेशी लीज़िंग कंपनियों और डॉलर आधारित लागत पर अत्यधिक निर्भर हैं, जिससे वित्तीय जोखिम बढ़ता है। लेकिन जब भी कोई एयरलाइन बंद होती है, यात्रियों का पैसा फँसता है, टिकट रद्द होते हैं, किराए अचानक बढ़ जाते हैं, कर्मचारियों की नौकरियाँ जाती हैं। किंगफिशर, जेट और सहारा के बंद होने से जनता ने भारी नुकसान झेला। और यही चक्र दोहराया जा रहा है, बस नाम बदलते रहते हैं।

भारत के विमानन संकट की जड़ें, लागत बहुत अधिक, किराया बहुत कम। कंपनियाँ लंबे समय तक सस्ते टिकट देकर बाजार कब्जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नुकसान बढ़ता जाता है। डॉलर में लागत, रुपये में आय—ईंधन, लीज़िंग, इंजन, मेंटेनेंस—सब का भुगतान डॉलर में, लेकिन कमाई रुपये में होती है। डीजीसीए की निगरानी मजबूत नहीं रही है। सरकारी एयरलाइनों में तो यह स्थायी समस्या रही है।

टाटा समूह के हाथों में एयर इंडिया का पुनर्जीवन एक उम्मीद जगाता है। इंडिगो अभी भी एक बड़ी और महत्वपूर्ण एयरलाइन है, लेकिन उसे अपनी रणनीति नए दौर के अनुसार बदलनी होगी।

आकासा जैसी नई एयरलाइंस सादगी और दक्षता पर जोर दे रही हैं। लेकिन जब तक डीजीसीए वास्तविक निगरानी नहीं करेगा, पायलट प्रशिक्षण में सुधार नहीं होगा, वित्तीय पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी, राजनीति और विमानन का रिश्ता साफ नहीं होगा, कंपनियों के दिवालिया होने पर जनता को सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक भारत विमानन उद्योग उछाल और गिरावट के इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाएगा। विमानन सिर्फ उड़ान भरना नहीं है; यह उस भरोसे का प्रश्न है जिसे यात्री हर बार अपनी जान सौंपकर बनाते हैं। यदि यह भरोसा बार-बार टूटा, तो एयरलाइनें नहीं, बल्कि पूरा देश कीमत चुकाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत-रूस दोस्ती अब और मजबूत होगी: रजत शर्मा

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 06 December, 2025
Last Modified:
Saturday, 06 December, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

भारत और रूस ने विज़न 2030 आर्थिक और व्यापार सहयोग समझौते पर दस्तखत किया। इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यापार,पूंजी निवेश,आवागमन और उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में आपसी सहयोग को तेज करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने उम्मीद जतायी कि दोनों देशों के बीच सालाना कारोबार 65 अरब डॉलर से बढ़ कर 100 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और रूस भारत को तेल की सप्लाई जारी रखने के लिए तैयार है।

अमेरिका के यूक्रेन शांति प्रस्ताव को ठुकराने के बाद पुतिन और मोदी की ये मुलाकात बहुत महत्वपूर्ण थी। मोदी के लिए भी पुतिन के आगमन का समय बहुत खास था। अमेरिका ने भारत पर टैरिफ असामान्य तरीके से बढ़ाया है। टैरिफ बढ़ाने के लिए भारत के रूस से तेल खरीदने को बहाना बनाया है। कुछ हफ्ते पहले चीन में मोदी, शी जिनपिंग और पुतिन की तस्वीरें देखकर अमेरिका के तेवर ढीले हुए थे।

रक्षा के मामले में रूस भारत का सबसे विश्वसनीय दोस्त है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत अब रूस से नए हथियार खरीदेगा। रूस भारत को मिसाइल सप्लाई करेगा। भारत के एयर डिफेंस सिस्टम को मजबूत करने के लिए रूस मदद करेगा। भारत और रूस के बीच जो रक्षा सौदे होंगे, उनको लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी पाकिस्तान और चीन को है। कहने को तो ये रूस और भारत की सालाना समिट थी लेकिन पूरी दुनिया में इस मीटिंग की चर्चा है।

रूस और भारत अच्छे दोस्त हैं, अच्छे ट्रेड पार्टनर हैं। रक्षा के मामलों में एक दूसरे के भरोसेमंद दोस्त हैं लेकिन दोनों मुल्कों के रिश्ते मजबूत हुए, मोदी और पुतिन की व्यक्तिगत दोस्ती की वजह से। प्रधानमंत्री बनने के बाद आज नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे क्योंकि उन्हें पहले से नहीं बताया गया था कि मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट आएंगे।

जब पुतिन दिल्ली पहुंचे तो उनका स्वागत गर्मजोशी के साथ हुआ। ऐसा स्वागत किसी दोस्त के लिए होता है। प्रधानमंत्री मोदी प्रोटोकॉल की सीमा लांघकर पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे और अपनी कार में बिठाकर प्रधानमंत्री आवास तक ले गए।

मोदी और पुतिन की अक्सर फोन पर बात होती है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल भी मॉस्को जाकर कई बार पुतिन से मिल चुके हैं। इसीलिए भारत और रूस दोनों मिलकर एक महाशक्ति बन सकते हैं और एक नया वर्ल्ड आर्डर तैयार कर सकते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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