माफ कीजिए आप सरदार भगत सिंह को रत्ती भर भी नहीं जानते: राजेश बादल

भगत सिंह जिसने असेंबली में बम फेंका था और हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था। अगर आप भी यही जानते हैं तो माफ़ कीजिए आप सरदार भगत सिंह को रत्ती भर नहीं जानते।

राजेश बादल by
Published - Monday, 28 September, 2020
Last Modified:
Monday, 28 September, 2020
bhagat singh


राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

सरदार भगत सिंह का नाम ज़ेहन में आते ही एक ऐसे जोशीले नौजवान का चेहरा उभरता है, जो अकेले दम पर हिन्दुस्तान की धरती को गोरी हुकूमत से मुक्त कराने का हौसला और जज़्बा रखता था। वही भगत सिंह जिसने असेंबली में बम फेंका था और हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था। अगर आप भी यही जानते हैं तो माफ़ कीजिए आप सरदार भगत सिंह को रत्ती भर नहीं जानते। आज मैं आपको भगत सिंह का वह रूप दिखाना चाहता हूं जो आपके लिए एकदम नया है। यह रूप एक ऐसे पत्रकार और लेखक का है, जो अपने विचारों के तेज़ से देश की देह में हरारत पैदा कर देता था। हम और आप को वहां तक पहुंचने के लिए कई उमरें चाहिए, जहां भगत सिंह सिर्फ़ तेईस-चौबीस साल की आयु में जा पहुंचा था।

दरअसल इंसान को संस्कार सिर्फ माता पिता या परिवार से ही नहीं मिलते। समाज भी अपने ढंग से संस्कारों के बीज बोता है। पिछली सदी के शुरुआती साल कुछ ऐसे ही थे। उस दौर में संस्कारों और विचारों की जो फसल समाज और देश में उगी,  उसका असर आज भी  कहीं कहीं दिखाई देता है। उन दिनों गोरी हुक़ूमत ने ज़ुल्मों की सारी सीमाएं तोड़ दीं थीं। देशभक्तों को कीड़े मकौड़ों की तरह मारा जा रहा था। किसी को भी फांसी चढ़ा देना सरकार का शग़ल बन गया था। ऐसे में जब आठ साल के बालक भगत सिंह ने किशोर क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा को वतन के लिए हंसते हंसते फांसी के तख़्ते चढ़ते देखा तो हमेशा के लिए करतार देवता की तरह उसके बालमन के मंदिर में प्रतिष्ठित हो गए। चौबीस घंटे करतार सिंह की तस्वीर भगत सिंह के साथ रहती थी। सराभा की फांसी के रोज़ क्रांतिकारियों ने जो गीत गाया था,  वो भगत सिंह अक्सर गुनगुनाया करता।  इस गीत की कुछ पंक्तियां थीं- 

फ़ख्र है भारत को ऐ करतार तू जाता है आज / जगत औ पिंगले को भी साथ ले जाता है आज / हम तुम्हारे मिशन को पूरा करेंगे संगियो / क़सम हर हिंदी तुम्हारे ख़ून की खाता है आज  

कुछ बरस ही बीते थे कि जलियां वाला बाग़ का बर्बर नरसंहार हुआ। सारा देश बदले की आग में जलने लगा। भगत सिंह का ख़ून खौल उठा। अवचेतन में कुछ संकल्प और इरादे समा गए। अठारह सौ सत्तावन के ग़दर से लेकर कूका विद्रोह तक जो भी साहित्य मिला, अपने अंदर पी लिया। एक एक क्रांतिकारी की कहानी किशोर भगत सिंह की ज़ुबान पर थी। होती भी क्यों न? परिवार की कई पीढ़ियां अंग्रेज़ी राज से लड़तीं आ रहीं थीं। दादा अर्जुन सिंह,  पिता किशन सिंह,  चाचा अजीत सिंह और चाचा स्वर्ण सिंह को देश के लिए मर मिटते भगत सिंह ने देखा था। चाचा स्वर्ण सिंह सिर्फ तेईस साल की उमर  में जेल की यातनाओं का विरोध करते हुए शहीद हो चुके थे। दूसरे चाचा अजीत सिंह को देश निकाला दिया गया था। दादा और पिता आए दिन आंदोलनों की अगुआई करते जेल जाया  करते थे। पिता गांधी और कांग्रेस के अनुयायी थे तो चाचा गरम दल की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। घर में घंटों बहसें होतीं थीं। भगत सिंह के ज़ेहन में विचारों की फसल पकती रही। इसीलिए 1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन छेड़ा तो भगत सिंह भी दसवीं की पढ़ाई छोड़ आंदोलन में कूद पड़े थे। जब आंदोलन वापस लिया गया तो सारे नौजवानों से पढ़ाई दोबारा शुरू करने के लिए कहा गया। तब इन नौजवानों के लिए लाला लाजपत राय ने नेशनल कॉलेज खोले। उनमें देशभक्त युवकों ने एडमिशन लिया था। ज़रा सोचिए! भगत सिंह पंद्रह-सोलह साल के थे और नेशनल कॉलेज लाहौर में पढ़ रहे थे। आज़ादी कैसे मिले- इस पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों से चर्चा  किया करते थे। जितनी अच्छी हिन्दी और उर्दू,  उससे बेहतर अंग्रेज़ी और पंजाबी। इसी कच्ची आयु में भगत सिंह ने पंजाब में उठे भाषा विवाद पर झकझोरने वाला लेख लिखा। लेख पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने पचास  रूपए का इनाम दिया। भगत सिंह की शहादत के बाद 28 फ़रवरी,  1933 को हिंदी संदेश में यह लेख प्रकाशित हुआ था। लेख की भाषा और विचारों का प्रवाह अदभुत है। एक हिस्सा यहां प्रस्तुत है -

"इस समय पंजाब में उर्दू का ज़ोर है। अदालतों की भाषा भी यही है। यह सब ठीक है परन्तु हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत को  एक राष्ट्र बनाना है। एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है,  परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता। उसके लिए क़दम क़दम चलना पड़ता है। यदि हम अभी भारत  की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देना चाहिए। उर्दू लिपि सर्वांग -संपूर्ण नहीं है। फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी पर है। उर्दू कवियों की उड़ान चाहे वो हिन्दी (भारतीय) ही  क्यों न हो- ईरान के साक़ी और अरब के खजूरों तक जा पहुंचती है। क़ाज़ी नज़र -उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी,  विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार बार है,  लेकिन हमारे उर्दू, हिंदी,  पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक न दे सके। क्या यह दुःख की बात नहीं? इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता  है। उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती,तो फिर उनके रचे गए साहित्य से हम कहां तक भारतीय बन सकते हैं? ..तो उर्दू अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सर्वांग-संपूर्ण हिंदी लिपि विद्यमान है, फिर उसे अपने अपनाने में हिचक क्यों? ...हिंदी के पक्षधर सज्जनों  से हम कहेंगे कि हिंदी भाषा ही अंत में एक दिन भारत की भाषा बनेगी, परंतु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी।"

 

सोलह-सत्रह बरस के भगत सिंह की  इस भाषा पर आप  क्या टिप्पणी करेंगे? इतनी सरल और कमाल के संप्रेषण वाली भाषा भगत सिंह ने चौरानवे -पंचानवे साल पहले लिखी थी। आज भी भाषा के पंडित और पत्रकारिता के पुरोधा इतनी आसान हिंदी नहीं लिख पाते और माफ़ कीजिए हमारे अपने घरों के बच्चे क्या सोलह-सत्रह की उमर में आज इतने परिपक्व हो पाते हैं? नर्सरी- के जी - वन, के जी - टू के रास्ते पर चलकर इस उमर में वे दसवीं या ग्यारहवीं में पढ़ते हैं और उनके ज्ञान का स्तर क्या होता है - बताने की ज़रूरत नहीं। इस उमर तक भगत सिंह विवेकानंद, गुरुनानक, दयानंद सरस्वती, रवींद्रनाथ ठाकुर और स्वामी रामतीर्थ जैसे अनेक भारतीय विद्वानों का एक-एक शब्द घोंट कर पी चुके थे। यही नहीं विदेशी लेखकों,  दार्शनिकों  और व्यवस्था बदलने वाले महापुरुषों में गैरीबाल्डी और मैजिनी, कार्ल मार्क्स, क्रोपाटकिन, बाकुनिन और डेनब्रीन तक भगत सिंह की आंखों के साथ अपना सफ़र तय कर चुके थे। उमर के इसी पड़ाव पर परंपरा के मुताबिक़ परिवार ने उनका ब्याह रचाना चाहा तो पिता जी को एक चिठ्ठी लिखकर चुपचाप घर छोड़ दिया। सोलह साल के भगत सिंह ने लिखा,

पूज्य पिता जी,

नमस्ते !

मेरी ज़िंदगी भारत की आज़ादी के महान संकल्प के लिए दान कर दी गई है। इसलिए मेरी ज़िंदगी में आराम और सांसारिक सुखों का कोई आकर्षण नहीं है। आपको याद होगा कि जब मैं बहुत छोटा था, तो पूज्य बापू जी (दादा जी) ने मेरे जनेऊ संस्कार के समय ऐलान किया था कि मुझे वतन की सेवा के लिए वक़्फ़ (दान) कर दिया गया है। लिहाज़ा मैं उस समय की उनकी प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूं। उम्मीद है आप मुझे माफ़ कर देंगे

आपका ताबेदार

भगत सिंह 

घर छोड़कर भगत सिंह उत्तर प्रदेश के  कानपुर जा पहुंचे। महान देशभक्त पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उन दिनों कानपुर से प्रताप का प्रकाशन करते थे। उन दिनों वे बलवंत सिंह के नाम से लिखा करते थे। उनके विचारोतेजक लेख प्रताप में छपते।  उन्हें पढ़कर लोगों के दिलो दिमाग़ में क्रांति की चिनगारी फड़कने लगती। उन्हीं दिनों कलकत्ते से साप्ताहिक ‘मतवाला’ निकलता था। ‘मतवाला’ में लिखे उनके दो लेख बेहद चर्चित हुए। एक का शीर्षक था- ‘विश्व प्रेम’। पंद्रह और बाईस नवंबर 1924  को दो किस्तों में यह लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख के एक हिस्से में देखिए भगत सिंह के विचारों की क्रांतिकारी अभिव्यक्ति -

"जब तक काला-गोरा, सभ्य-असभ्य, शासक-शासित, अमीर-ग़रीब, छूत -अछूत आदि शब्दों का प्रयोग होता है, तब तक कहां विश्व बंधुत्व और कहां विश्व प्रेम? यह उपदेश स्वतंत्र जातियां दे सकती हैं। भारत जैसा ग़ुलाम देश तो इसका नाम भी नहीं ले सकता। फिर उसका प्रचार कैसे होगा ? तुम्हें शक्ति एकत्र करनी होगी। शक्ति एकत्रित करने के लिए अपनी एकत्रित शक्ति ख़र्च कर देनी पड़ेगी। राणा प्रताप की तरह ज़िंदगी भर दर-दर ठोकरें खानी होंगी, तब कहीं जाकर उस परीक्षा में उतीर्ण हो सकोगे ....तुम विश्व प्रेम का दम भरते हो। पहले पैरों पर खड़े होना सीखो। स्वतंत्र जातियों में अभिमान के साथ सिर ऊंचा करके खड़े होने के योग्य बनो। जब तक तुम्हारे साथ कामागाटा मारु जहाज़ जैसे दुर्व्यवहार होते रहेंगे, तब तक डैम काला मैन कहलाओगे, जब तक देश में जालियांवाला बाग़ जैसे भीषण कांड होंगे, जब तक वीरागंनाओं का अपमान होगा और तुम्हारी ओर से कोई प्रतिकार न होगा, तब तक तुम्हारा यह ढ़ोंग कुछ मानी नहीं रखता। कैसी शान्ति,   कैसा सुख और कैसा विश्व प्रेम? यदि वास्तव में चाहते हो तो पहले अपमानों का प्रतिकार करना सीखो। मां को आज़ाद कराने के लिए कट मरो। बंदी मां को आज़ाद कराने के लिए आजन्म काले पानी में ठोकरें खाने को तैयार हो जाओ। मरने को तत्पर हो जाओ।" 

मतवाला में ही भगत सिंह का दूसरा लेख सोलह मई, 1925 को बलवंत सिंह के नाम से छपा। ध्यान दिलाने की ज़रूरत नहीं कि उन दिनों अनेक क्रांतिकारी छद्म नामों से लिखा करते थे। युवक शीर्षक से लिखे गए इस लेख के एक हिस्से में भगत सिंह कहते हैं -

"अगर रक्त की भेंट चाहिए तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो तो तुम्हे युवक की ओर देखना होगा। प्रत्येक जाति के भाग्य विधाता युवक ही होते हैं...सच्चा देशभक्त युवक बिना झिझक मौत का आलिंगन करता है, संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुंह पर बैठकर मुस्कुराता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फांसी के तख्ते पर हंसते हंसते चढ़ जाता है। अमेरिकी युवा पैट्रिक हेनरी ने कहा था, 'जेल की दीवारों के बाहर ज़िंदगी बड़ी महंगी है। पर, जेल की काल कोठरियों की ज़िंदगी और भी महंगी है क्योंकि वहां यह स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य रूप में चुकाई जाती है। ऐ! भारतीय युवक! तू क्यों गफ़लत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है। उठो! अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रहो .....धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर। तेरे पूर्वज भी नतमस्तक हैं  इस नपुंसत्व पर। यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं की एक एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और मुक्त कंठ से बोल -

वंदे मातरम !

प्रताप में भगत सिंह की पत्रकारिता  को पर लगे। बलवंत सिंह के नाम से छपे इन लेखों ने धूम मचा दी। शुरुआत में तो स्वयं  गणेश शंकर विद्यार्थी  को पता नहीं था कि असल में बलवंत सिंह कौन है ? और एक दिन जब पता चला तो भगत सिंह को उन्होंने गले से लगा लिया। भगत सिंह अब प्रताप के संपादकीय विभाग में काम कर रहे थे। इन्हीं दिनों दिल्ली में तनाव बढ़ा। दंगे भड़क उठे। विद्यार्थी जी ने भगत सिंह को रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली भेजा। विद्यार्थी जी दंगों की निरपेक्ष रिपोर्टिंग चाहते थे। भगत सिंह उनकी  उम्मीदों पर खरे उतरे। प्रताप में काम करते हुए उन्होंने महान क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल की आत्मकथा बंदी जीवन का पंजाबी में अनुवाद किया। इस अनुवाद ने पंजाब में देश भक्ति की एक नई लहर पैदा की।इसके बाद आयरिश क्रांतिकारी डेन ब्रीन की आत्मकथा का अँगरेजी से हिंदी अनुवाद किया। प्रताप में यह अनुवाद आयरिश स्वतंत्रता संग्राम शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस अनुवाद ने भी देश में चल रहे आज़ादी के आंदोलन को एक वैचारिक मोड़ दिया। गणेश शंकर विद्यार्थी के लाड़ले  थे भगत सिंह। उनका लिखा एक एक शब्द विद्यार्थी जी को गर्व से भर देता। ऐसे ही किसी भावुक पल में विद्यार्थी जी ने भगत सिंह को भारत में क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आज़ाद से मिलाया। आज़ादी के दीवाने दो आतिशी क्रांतिकारियों का यह अदभुत मिलन था। भगत सिंह अब क्रांतिकारी गतिविधियों में भरपूर भाग लेने लगे। साथ में पूर्ण कालिक पत्रकारिता भी चल रही थी। जब गतिविधियां बढ़ीं तो पुलिस को भी शंका हुई। खुफिया चौकसी और कड़ी कर दी गई। विद्यार्थी जी ने पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह को अलीगढ़ ज़िले के शादीपुर गांव के स्कूल में हेडमास्टर बनाकर भेज दिया। पता नहीं शादीपुर के लोगों को आज इस तथ्य की जानकारी है या नहीं। भगत सिंह शादीपुर में थे तभी विद्यार्थी जी को उनकी असली पारिवारिक कहानी पता चली थी। दरअसल भगत सिंह के घर छोड़ने के बाद उनकी दादी की हालत बिगड़ गई थी। दादी को लगता था कि शादी के लिए उनकी ज़िद के चलते ही भगत सिंह ने घर छोड़ा है। इसके लिए वो अपने को कुसूरवार मानती थीं। भगत सिंह को पता लगाने के लिए पिताजी ने अख़बारों में इश्तेहार दिए थे। ये इश्तेहार विद्यार्थी जी ने भी देखे थे,  लेकिन तब उन्हें पता नहीं था कि उनके यहां काम करने वाला बलवंत ही भगत सिंह है।बताते हैं कि इश्तेहार प्रताप में भी छपे थे। इनमें कहा गया था कि,  'प्रिय भगत सिंह अपने घर लौट आओ। तुम्हारी दादी बीमार हैं। अब तुम पर शादी के लिए कोई दबाव नहीं डालेगा। जब विद्यार्थी जी ने विज्ञापन देखा तो उनका माथा ठनका। विज्ञापन में भगत सिंह की फोटो भी छपी थी। चेहरा बलवंत सिंह से मिलता जुलता था। उन्हें लगा कि उनके यहां काम करने वाला ही असल में भगत सिंह था। इसी के बाद उन्होंने भगत सिंह के पिता को बुलाया। दोनों शादीपुर जा पहुंचे। विद्यार्थी जी ने भगत सिंह  को मनाया कि वो अपने घर लौट जाएँ।भगत सिंह विद्यार्थी जी का अनुरोध कैसे टालते। फौरन घर रवाना हो गए। दादी की सेवा की और कुछ समय बाद पत्रकारिता की पारी शुरू करने के लिए दिल्ली आ गए। दैनिक वीर अर्जुन में नौकरी शुरू कर दी। जल्द ही एक तेज तर्राट रिपोर्टर और विचारोतेजक लेखक के रूप में उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। 

इसके अलावा भगत सिंह पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ के लिए भी रिपोर्टिंग और लेखन कर रहे थे। ‘किरती’ में वे विद्रोही के नाम से लिखते थे। दिल्ली से ही प्रकाशित पत्रिका ‘महारथी’ में भी वे लगातार लिख रहे थे। विद्यार्थी जी से नियमित संपर्क बना हुआ था। इस कारण प्रताप में भी वो नियमित लेखन कर रहे थे। पंद्रह मार्च 1926 को प्रताप में उनका झन्नाटेदार आलेख प्रकाशित हुआ। एक पंजाबी युवक के नाम से लिखे गए इस आलेख का शीर्षक था - भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का परिचय और उप शीर्षक था- होली के दिन रक्त के छींटे। इस आलेख की भाषा और भाव देखिए-

"असहयोग आंदोलन पूरे यौवन पर था। पंजाब किसी से पीछे नहीं रहा। पंजाब में सिक्ख भी उठे। ख़ूब ज़ोरों के साथ। अकाली आंदोलन शुरू हुआ। बलिदानों की झड़ी लग गई।"

काकोरी केस के सेनानियों को भगत सिंह ने सलामी देते हुए एक लेख लिखा। विद्रोही के नाम से। इसमें वो लिखते हैं- "हम लोग आह भरकर समझ लेते हैं  कि हमारा फ़र्ज पूरा हो गया। हमें आग नहीं लगती। हम तड़प नहीं उठते। हम इतने मुर्दा हो गए  हैं। आज वे भूख हड़ताल कर रहे हैं । तड़प रहे  हैं। हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। ईश्वर उन्हें बल और शक्ति दे कि  वे वीरता से अपने दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएं।"

जनवरी 1928 में लिखा गया यह आलेख 'किरती' में छपा था। इन दो तीन सालों में भगत सिंह ने लिखा और खूब लिखा। अपनी  पत्रकारिता के ज़रिए वो लोगों के दिलो दिमाग पर छा गए। फ़रवरी 1928 में उन्होंने कूका विद्रोह पर दो हिस्सों में एक लेख लिखा। यह लेख उन्होंने बीएस संधु के नाम से लिखा था। इसमें भगत सिंह ने ब्यौरा दिया था कि किस तरह छियासठ कूका विद्रोहियों को तोप के मुंह से बांध कर उड़ा दिया गया था। इसके भाग- दो में उनके लेख का शीर्षक था- युग पलटने वाला अग्निकुंड। इसमें वो लिखते हैं  - "सभी आंदोलनों का इतिहास बताता है कि आज़ादी के लिए लड़ने वालों का एक अलग ही वर्ग बन जाता है,  जिनमें न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओं जैसा त्याग। जो सिपाही तो होते थे,  लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नहीं,  बल्कि अपने फ़र्ज़ के लिए निष्काम भाव से लड़ते मरते थे। सिख इतिहास यही कुछ था। मराठों का आंदोलन भी यही बताता है। राणा प्रताप के साथी राजपूत भी ऐसे ही योद्धा थे और बुंदेलखंड के वीर छत्रसाल और उनके साथी भी इसी मिट्टी और मन से बने थे"। 

यह थी भगत सिंह की पढ़ाई। बिना संचार साधनों के देश के हर इलाक़े का इतिहास भगत सिंह को कहां से मिलता था- कौन जानता है? मार्च से अक्टूबर 1928 तक किरती में ही उन्होंने एक धारावाहिक श्रृंखला लिखी। शीर्षक था आज़ादी की भेंट शहादतें । इसमें भगत सिंह ने बलिदानी क्रांतिकारियों की गाथाएं लिखीं थी। इनमें एक लेख मदनलाल धींगरा पर भी था। इसमें  भगत सिंह के शब्दों का कमाल देखिए- "फांसी के तख़्ते पर खड़े मदन से पूछा जाता है - कुछ कहना चाहते हो ? उत्तर मिलता है - वन्दे मातरम ! मां ! भारत मां तुम्हें नमस्कार और वह वीर फांसी पर लटक गया। उसकी लाश जेल में ही दफ़ना दी गई। हम हिन्दुस्तानियों को  दाह क्रिया तक नहीं करने दी गई। धन्य था वो वीर। धन्य है उसकी याद। मुर्दा देश के  इस अनमोल हीरे को बार बार प्रणाम। भगत सिंह की पत्रकारिता का यह स्वर्णकाल था। उनके लेख और रिपोर्ताज़ हिन्दुस्तान भर में उनकी कलम का डंका बजा रहे थे। वो जेल भी गए तो वहां से उन्होंने लेखों की झड़ी लगा दी। लाहौर के साप्ताहिक वन्दे मातरम में उनका एक लेख पंजाब का पहला उभार प्रकाशित हुआ। यह जेल में ही लिखा गया था। इसकी भाषा उर्दू थी। इसी तरह किरती में तीन लेखों की लेखमाला अराजकतावाद प्रकाशित हुई। इस लेखमाला ने  व्यवस्था के नियंताओं के सोच पर हमला बोला। उनीस सौ अट्ठाइस में तो भगत सिंह की कलम का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोला। ज़रा उनके लेखों के शीर्षक देखिए- धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम,  साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज,  सत्याग्रह और हड़तालें,  विद्यार्थी और राजनीति,  मैं नास्तिक क्यों हूं, नए नेताओं के अलग अलग विचार और अछूत का सवाल जैसे रिपोर्ताज़ आज भी प्रासंगिक हैं।इन दिनों दलितों की समस्याएं और धर्मांतरण के मुद्दे देश में गरमाए हुए हैं,  लेकिन देखिए भगत सिंह ने 90  साल पहले इस मसले पर क्या लिखा था- "जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया बीता समझोगे तो वो ज़रूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे। उन धर्मों में उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे,  उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा फिर यह कहना कि देखो जी ईसाई और मुसलमान हिन्दू क़ौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं,  व्यर्थ होगा। कितनी सटीक टिप्पणी है ? एकदम तिलमिला देती है।"

इसी  तरह एक और टिप्पणी देखिए- "जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं । हर कोई उन्हें अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग और संगठित ही क्यों न हो जाएं? हम मानते हैं  कि उनके अपने जन प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें। उठो ! अछूत भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोबिंद सिंह की असली ताक़त तुम्ही थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही कुछ कर सके। तुम्हारी क़ुर्बानियां स्वर्ण अक्षरों में लिखीं हुईं हैं। संगठित हो जाओ। स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिलेगा। तुम दूसरों की खुराक न बनो। सोए हुए शेरो ! उठो और बग़ावत खड़ी कर दो। 

इस तरह लिखने का साहस भगत सिंह ही कर सकते थे। गोरी हुक़ूमत  ने चांद के जिस ऐतिहासिक फांसी अंक पर पाबंदी लगाईं थी,  उसमें भी भगत सिंह  ने छद्म नामों से अनेक आलेख लिखे थे। इस अंक को भारतीय पत्रकारिता की गीता माना जाता है।और अंत में उस पर्चे का ज़िक्र,  जिसने गोरों की चूलें हिला दी थीं। आठ अप्रैल, 1929  को असेम्बली में बम के साथ जो परचा फेंका गया,  वो भगत सिंह ने ही अपने हाथों से लिखा था। यह परचा कहता है - बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की आवश्यकता होती है... जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियमेंट का पाखंड छोड़कर अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रांति के लिए तैयार करें... हम अपने विश्वास को दोहराना चाहते हैं  कि व्यक्तियों की हत्या करना सरल है,  लेकिन विचारों की हत्या नहीं की जा सकती। 

इंक़लाब ! ज़िंदाबाद ! 

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2025 ने रफ्तार दी, 2026 भरोसे की असली कसौटी बनेगा: शमशेर सिंह

वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।

Samachar4media Bureau by
Published - Thursday, 11 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 11 December, 2025
yearender2025

शमशेर सिंह, वरिष्ठ पत्रकार।

साल 2025 मीडिया और पत्रकारिता के लिए तेज़ बदलावों, नई तकनीकों और नई आदतों का साल बनकर सामने आया। डिजिटल न्यूज़ कंजम्पशन में लगभग 22 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई, जिसने साफ कर दिया कि दर्शक अब परंपरागत माध्यमों से आगे निकल चुका है।

मोबाइल फ़र्स्ट रिपोर्टिंग ने न्यूज़ रूम के काम करने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया। अब खबरों का निर्माण कैमरों से नहीं, बल्कि हथेली में मौजूद स्मार्टफोन से हो रहा है। वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।

गांव, कस्बे, शहर और मोहल्ले की खबरें अब राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन रही हैं। न्यूज़ की स्पीड पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ हो गई है और प्लेटफ़ॉर्म भी लगातार बदल रहे हैं। लेकिन 2025 सिर्फ़ विकास का साल नहीं था, इसने आने वाले खतरे की चेतावनी भी दी।

फेक न्यूज़ में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी, एआई-निर्मित कंटेंट का दुरुपयोग, डीपफेक वीडियो और सोशल मीडिया का दबाव, इन सबने पत्रकारिता की साख को गहरी चुनौती दी। कई मौकों पर वायरल होने की होड़ में तथ्य पीछे छूटते दिखे, और भरोसा कमजोर पड़ा।

अब नज़र 2026 पर है। यह साल 'डिजिटल + डेटा + एआई' का साल होगा। पत्रकारिता और ज़्यादा डिजिटल-फ़र्स्ट, वीडियो-हेवी और एआई-ड्रिवन होती जाएगी। एआई टूल्स काम की रफ्तार को कई गुना बढ़ा देंगे, लेकिन साथ ही गलत सूचना का खतरा भी उतना ही बढ़ जाएगा।

2026 में पत्रकारिता का असली इम्तिहान यही होगा। तेज़ भी रहना है, और सही भी। स्पीड और फैक्ट्स के बीच संतुलन सबसे बड़ी चुनौती बनेगा। 2025 ने रास्ता दिखाया था, 2026 यह तय करेगा कि मीडिया तकनीक को अपनाते हुए जनता का भरोसा बनाए रख पाता है या नहीं। आने वाला साल सिर्फ़ तकनीकी बदलाव का नहीं, पत्रकारिता की विश्वसनीयता की अग्निपरीक्षा का साल होगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता के वाहक हैं डिजिटल माध्यम: प्रो. संजय द्विवेदी

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Published - Thursday, 11 December, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

इन दिनों सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन या समय बिताने का साधन नहीं रह गया है। सही मायनों में यह शक्तिशाली डिजिटल आंदोलन है, जिसने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मंच दिया है। छोटे गाँवों और कस्बों के युवा भी वैश्विक दर्शकों तक पहुँच रहे हैं। एक साधारण-सा मोबाइल फोन अब दुनिया से संवाद का प्रभावशाली माध्यम है। इस परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स केवल तकनीकी क्रिएटर नहीं हैं, बल्कि वे डिजिटल युग के नेता, कथाकार और समाज के प्रेरक बन गए हैं। उनकी एक पोस्ट सोच बदल सकती है, एक वीडियो नया रुझान बना सकता है और एक अभियान समाज के भीतर सकारात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रारंभ कर सकता है।

यह दुधारी तलवार है, अचानक हम प्रसिद्धि के शिखर पर होते हैं और एक दिन हमारी एक लापरवाही हमें जमीन पर गिरा देती है। हमारा सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिए इस राह के खतरे भी क्रिएटर्स से समझने होंगे। सोशल मीडिया की बढ़ी शक्ति के कारण आज हर व्यक्ति यहां दिखना चाहता है। बावजूद इसके हर शक्ति के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी जुड़ जाती है। करोड़ों लोगों तक पहुँचने वाला प्रत्येक शब्द, प्रत्येक विचार और प्रत्येक दृश्य अपने आप में एक संदेश है। इसलिए यह आवश्यक है कि ट्रोलिंग, फेक न्यूज़ और नकारात्मकता के शोर के बीच सच, संवेदनशीलता और सकारात्मकता की आवाज़ बुलंद हो।

कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करे और संवाद की संस्कृति को मजबूत करे। पारंपरिक मीडिया की बंधी-बंधाई और एकरस शैली से अलग हटकर जब भारतीय नागरिक इस पर विचरण करने लगे तो लगा कि रचनात्मकता और सृजनात्मकता का यहां विस्फोट हो रहा है। दृश्य, विचार, कमेंट्स और निजी सृजनात्मकता के अनुभव जब यहां तैरने शुरू हुए तो लोकतंत्र के पहरुओं और सरकारों का भी इसका अहसास हुआ।

आज वे सब भी अपनी सामाजिकता के विस्तार के लिए सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं भी कहा कि “सोशल मीडिया नहीं होता तो हिंदुस्तान की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता।” सोशल मीडिया अपने स्वभाव में ही बेहद लोकतांत्रिक है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग की सीमाएं तोड़कर इसने न सिर्फ पारंपरिक मीडिया को चुनौती दी है वरन् यह सही मायने में आम आदमी का माध्यम बन गया है। इसने संवाद को निंरतर, समय से पार और लगातार बना दिया है। इसने न सिर्फ आपकी निजता को स्थापित किया है, वरन एकांत को भी भर दिया है।

यह देखना सुखद है कि युवा क्रिएटर्स महानगरों से आगे निकलकर आंचलिक भाषाओं, ग्रामीण कथाओं और लोक संस्कृति को विश्व के सामने ला रहे हैं। यह भारत की जीवंत आत्मा है, जो अब डिजिटल माध्यमों के द्वारा वैश्विक स्तर पर स्वयं को व्यक्त कर रही है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और वोकल फॉर लोकल जैसी योजनाओं की सफलता काफी हद तक इसी पर निर्भर करती है कि सोशल मीडिया की यह नई पीढ़ी इन्हें किस सहजता और स्पष्टता के साथ आम जनता तक पहुँचाती है। सोशल मीडिया अब शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता और सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है।

ब्रांड्स आपकी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन समय की मांग यह है कि आप स्वयं भी एक जिम्मेदार और विश्वसनीय ब्रांड के रूप में विकसित हों। सरकार और समाज के बीच भी सोशल मीडिया सेतु का काम रहा है क्योंकि संवाद यहां निरंतर है और एकतरफा भी नहीं है। सरकार के सभी अंग इसीलिए अब सोशल प्लेटफार्म पर हैं और अपने तमाम कामों में क्रिएटर्स की मदद भी ले रहे हैं। सोशल मीडिया एक साधन है, परंतु गलत दिशा में प्रवाहित होने पर यह एक खतरनाक हथियार भी बन सकता है। यह मनोरंजन का माध्यम है, पर समाज-निर्माण का आयाम भी इसके भीतर निहित है।

यह दोहरा स्वरूप अवसर भी प्रदान करता है और चुनौती भी। सोशल मीडिया उचित दृष्टिकोण के साथ उपयोग हो तो वह ‘ग्लोबल वॉयस फॉर लोकल इशूज़’ बन सकता है। कंटेंट क्रिएटर्स की शक्ति यदि ज्ञान और जिम्मेदारी से न जुड़ी हो, तो वह समाज के लिए खतरनाक हो सकती है। सामाजिक सोच के साथ किए गए प्रयासों से सोशल मीडिया केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक सामाजिक मिशन का माध्यम भी हो सकता है। हमें सोचना होगा कि आखिर हमारे कंटेंट का उद्देश्य क्या है। क्या सिर्फ आनंद और लाइक्स के लिए हम समझौते करते रहेंगें।

सोशल मीडिया की चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। फेक न्यूज़, तथ्यहीन दावे और सनसनीखेज प्रस्तुति विश्वसनीयता के संकट को जन्म दे रहे हैं। एल्गोरिद्म की मजबूरी क्रिएटर्स को रचनात्मकता से दूर ले जाकर केवल ट्रेंड के पीछे भागने के लिए विवश कर रही है। लाइक्स, फॉलोअर्स और व्यूज़ की अनवरत दौड़ मानसिक तनाव और आत्मसम्मान के संकट को बढ़ा रही है।

ध्रुवीकरण और ट्रोल संस्कृति समाज के ताने-बाने को कमजोर कर रही है। इन परिस्थितियों में क्रिएटर्स के सामने तीन मार्ग हैं, ट्रेंड का अनुकरण करने वाला कंटेंट क्रिएटर, नए ट्रेंड स्थापित करने वाला कंटेंट लीडर या समाज को दिशा देने वाला कंटेंट रिफॉर्मर।

जिम्मेदार क्रिएटर की पहचान सत्य, संवेदना और सामाजिक हित से होती है। विश्वसनीय जानकारी देना, सकारात्मक संवाद स्थापित करना, आंचलिक भाषाओं और स्थानीय मुद्दों को महत्व देना, जनता की समस्याओं को स्वर देना और स्वस्थ हास्य तथा मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखना आज की डिजिटल नैतिकता के प्रमुख तत्व हैं। वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर दो तरह के लोग सक्रिय दिखाई देते हैं, एक वे जो समाज को बाँटते हैं और दूसरे वे जो समाज को जोड़ते हैं। विश्वास है कि नई पीढ़ी जोड़ने वालों की भूमिका निभाएगी।

आपके पास केवल कैमरा या रिंग लाइट नहीं है; आपके पास समाज को रोशन करने की रोशनी है। आप वह पीढ़ी हैं जो बिना न्यूज़रूम के पत्रकार, बिना स्टूडियो के कलाकार और बिना मंच के विचारक हैं। जाहिर है तोड़ने वाले बहुत हैं अब कुछ ऐसे लोग चाहिए जो देश और दिलों को जोड़ने का काम करें। आपमें परिवर्तन की शक्ति है। यदि आप सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ अपनी भूमिका निभाएँ, तो डिजिटल परिदृश्य को अधिक संवेदनशील, अधिक सकारात्मक और अधिक प्रेरणादायक बना सकते हैं।

महाभारत का संदेश यहाँ स्मरणीय है, युधिष्ठिर सत्यवादी थे, पर कृष्ण सत्यनिष्ठ थे। सत्य कहना ही पर्याप्त नहीं है; सत्य के प्रति निष्ठा और समाज के हित में समर्पण ही असली धर्म है। सोशल मीडिया की दुनिया में यही दृष्टि हमें प्रभावशाली और विश्वसनीय बनाएगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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वंदे मातरम् इस्लाम विरोधी नहीं है: समीर चौगांवकर

वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

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Published - Tuesday, 09 December, 2025
Last Modified:
Tuesday, 09 December, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

वंदे मातरम् हर कसौटी पर सौ टंच खरा उतरता है। वंदे मातरम् के पहले दो पद तो ऐसे है कि जिन्हें भारत ही नहीं दुनिया का कोई भी राष्ट्र अपना राष्ट्रगीत घोषित कर सकता है। इस अर्थ में वंदे मातरम् विश्व गीत हैं। वंदे मातरम् में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मुसलमान विरोधी या इस्लाम विरोधी कहा जाए।

वंदे मातरम् को हिंदू धर्म से सिर्फ इसलिए जोड़ दिया गया क्योकि बंकिमचंद चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ में उसे सन्यासियों से गवाया है और गाने वाले संन्यासी हिंदू थे। वंदे मातरम् बंकिमचंद्र ने 1875 में लिखा। यह “बंग दर्शन” पत्रिका में पहले छपा बाद में 1882 में आनंद मठ में इस गीत का जिक्र हुआ है।

इस गीत को बंगाल के हिंदू और मुसलमान मिलकर गाते थे। यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे देश का प्रेरणा बना। वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।

कांग्रेस के मुसलमान नेता और कार्यकर्ता वंदे मातरम् गाते रहे। इस गीत का विरोध 1906 में मुस्लिम लीग बनने के बाद मुस्लिम लीग ने शुरू किया और मुस्लिम लीग के भड़काने पर मुसलमानों नें। जिन्ना ने भी तब विरोध किया जब मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और पाकिस्तान दिखने लगा।

मद्रास विधानसभा में वंदे मातरम् के साथ साथ कुरान की आयते पढ़ी जाने लगी। इस धर्मनिरपेक्ष गीत को धार्मिक गीत में तब्दील कर दिया गया। मुस्लिम लीग को राजनीति करनी थी। इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं था। मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करना था, सो वंदे मातरम् को आगे कर किया गया।

मुस्लिम लीग के मुसलमानों को मातृभूमि नहीं मात्र भूमि चाहिए थी और वह पाकिस्तान के रूप में मिली। पाकिस्तान गए मुसलमानों के पास कोई मातृभूमि नहीं थी इस कारण पाकिस्तान के राष्ट्रगान में मातृभूमि का जिक्र नहीं है। अल्लामा इकबाल ने लिखा है ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा‘।

ताज बीबी ने कन्हैया के घुंघराले बालों की तुलना अल्लाह के लाम से की है। रसखान ने कन्हैया के कुंजन पर चाँदी के महल वार दिए। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत की रचना की। नजीर बनारसी ने गंगा को अपनी मैया कह दिया तो क्या वे काफिर हो गए? बिस्मिल्लाह खान बाबा विश्वनाथ के मंदिर में बैठकर राग भैरव बजाते थे तो क्या वे हिंदू हो गए?

उनके जैसे अच्छे और सच्चे मुसलमान बनने में क्या दिक्कत है? भारत में मुसलमानों को जितना मुसलमान रहना है, उतना ही भारतीय भी रहना है। इस लक्ष्य की पूर्ति में वंदे मातरम् कही आडे नहीं आता। अच्छा मुसलमान बनने का मतलब मतांध मुसलमान बनना नहीं है। खुल कर और सबसे साथ मिलकर बोलिए ,वंदे मातरम्।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम: अनंत विजय

जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी।

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Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था।

उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है।

राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है।

कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है।

वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था।

जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था।

उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है।

बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे।

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया।

हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे।

प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले?

ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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Gemini या ChatGPT कौन बेहतर? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

कौन सा AI मॉडल बेहतर है? इस समझने के लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam, हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं।

Samachar4media Bureau by
Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

ChatGPT को आए 30 नवंबर को तीन साल हो गए। यह पहला Generative AI App था। इसके बाद से AI का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। तीन साल पूरे होने पर ChatGPT बनाने वाली कंपनी Open AI ने जश्न मनाने के बजाय अपने लिए ख़तरे की घंटी बजाई है।

Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन ने कोड रेड जारी किया है। अपने स्टाफ़ से कहा कि सारे नए काम बंद कर ChatGPT पर ध्यान दें क्योंकि Google Gemini और Claude जैसे एप अब उसे टक्कर दे रहे हैं। आज हिसाब किताब करेंगे कि ChatGPT और Google Gemini में बेहतर कौन है।

कौन सा AI मॉडल बेहतर है। इसके लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam। हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं। ढाई से तीन हज़ार सवाल होते हैं। इस परीक्षा में Gemini का स्कोर 37% रहा है जबकि ChatGPT का 31%। यानी Gemini आगे निकल गया है।

पर परीक्षा से आपको क्या मतलब है। आपको तो रोज़ाना के कामों में इसे इस्तेमाल करना है। अगर एक लाइन में कहा जाए तो Gemini साइंस का अच्छा स्टूडेंट है जबकि ChatGPT लिबरल आर्ट्स का। Gemini आँकड़ों से खेल सकता है जबकि ChatGPT शब्दों से। इसका मतलब यह नहीं है कि ChatGPT गणित में कमजोर है या Gemini भाषा में।

जो तीन काम आपके लिए ChatGPT अच्छा कर सकता है वह है लिखना। ई-मेल, लेख। दूसरा काम है समझाना। किसी अच्छे टीचर की तरह यह मुश्किल विषय आसान भाषा में समझा सकता है। तीसरा काम है सलाहकार का। जैसे करियर को लेकर CV बनाने या इंटरव्यू की तैयारी को लेकर यह आपकी मदद कर सकता है।

अब बात करते हैं Gemini के तीन कामों के बारे में। यह आपको फ़ाइनेंस, बिज़नेस और इन्वेस्टमेंट जैसे विषयों में फ़ैसले में मदद कर सकता है। Google का रियल टाइम डेटा इसे बेहतर बनाता है। दूसरा काम है रिपोर्ट पढ़ने का।

यह Multi Modal है यानी अलग-अलग इनपुट जैसे फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो, टेक्स्ट को एक साथ समझने की क्षमता रखता है। सारी बातें लिखकर बताना ज़रूरी नहीं है। तीसरा काम जो यह बेहतर कर सकता है वह है ट्रैवल एजेंट का। आपके Gmail, कैलेंडर का उसे पता है। Google Flights से उसके पास रियल टाइम डेटा है जो आपको बुकिंग में मदद करेगा। सिर्फ पेमेंट आपको करना है।

फ़ैसला आपका है कि किसे चुनना है। दोनों की खूबियाँ आपको बता दी गई हैं। मेरी सलाह है कि यूज़ करना शुरू कीजिए। यह ध्यान रखना होगा कि AI गलती कर सकता है। उसे सब पता नहीं है। परीक्षा में उसका स्कोर पासिंग परसेंट पर ही है फ़िलहाल।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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हवाई सपनों की उड़ानें खतरों को कब तक बढ़ाएंगी: आलोक मेहता

इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था।

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Published - Monday, 08 December, 2025
Last Modified:
Monday, 08 December, 2025
aalokmehta

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

भारतीय विमानन उद्योग पिछले तीन दशकों से 'उड़ने की महत्वाकांक्षा और गिरने की मजबूरी' दोनों का प्रतीक रहा है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद निजी एयरलाइंस का दौर शुरू हुआ। लोगों ने पहली बार एयर-ट्रैवल को राजसी विलासिता से निकालकर आम मध्यम वर्ग की पहुँच में आते देखा। लेकिन यह कहानी उतनी सरल नहीं थी।

जहाँ एक ओर इंडियन एयरलाइंस और बाद में एयर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियाँ भ्रष्टाचार, खराब प्रबंधन और राजनीतिक दख़ल से लगातार घाटे में डूबी रहीं, वहीं निजी क्षेत्र की किंगफिशर, जेट एयरवेज, सहारा एयरलाइंस और अन्य ब्रांड शुरुआती चमक-दमक के बाद दिवालियेपन, कर्ज़, अनियमितताओं और जाँचों में फँसते चले गए।

आज, जब इंडिगो जो कभी भारत का सबसे मजबूत और कुशल एयरलाइन मॉडल माना जाता था, लागत दबाव, परिचालन चुनौतियों और बाजार की उथल-पुथल से जूझ रहा है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर भारतीय विमानन में गड़बड़ी कहाँ है? और इस गड़बड़ी का ज़िम्मेदार कौन है—कंपनी मालिक, रेगुलेटर, नीति-निर्माता या सम्पूर्ण तंत्र?

इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक—राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल—का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था। यही कारण था कि उद्योग में उन्हें “नये खिलाड़ी” माना गया, लेकिन उनकी रणनीति बेहद आक्रामक और पेशेवर थी। एक ही मॉडल के विमान (A320/A321), समय पर उड़ान, कम किराए और तेज़ी से बेड़ा बढ़ाने की रणनीतियों ने इंडिगो को 50% से अधिक घरेलू मार्केट शेयर तक पहुँचा दिया।

लेकिन आज इंडिगो नई चुनौतियों से जूझ रहा है। बढ़ती परिचालन लागत—ईंधन, हवाईअड्डा शुल्क और रखरखाव लागत में भारी वृद्धि, पायलट और केबिन कर्मचारियों की कमी, ड्यूटी के दबाव की स्थिति, हड़ताल जैसी तकनीकी समस्याएँ, इंजन विवाद के कारण सैकड़ों उड़ानें रद्द, विमान ग्राउंडेड। अंतरराष्ट्रीय विस्तार में अनिश्चितता।

फिर प्रतिस्पर्धा का नया दौर—टाटा समूह की एयर इंडिया और उसकी साथी सिंगापुर एयरलाइन्स, आकासा जैसी एयरलाइंस चुनौती दे रही हैं। वैसे एयर इंडिया भी पूरी तरह सफल नहीं हो रही है और चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं। इंडिगो को अभी “वित्तीय पतन” की स्थिति में नहीं कहा जा सकता, लेकिन लाभ में गिरावट और ऑपरेशनल गड़बड़ियाँ साफ संकेत देती हैं कि भारत के सबसे मजबूत ब्रांड को भी संकट से गुज़रने का खतरा है।

सरकारी एयरलाइंस के रूप में विमान सेवाओं का घाटे का सिलसिला कभी रुका ही नहीं। असफलताओं के कई कारण दशकों से सामने आते रहे, जैसे राजनीतिक दख़ल, ख़रीद–फ़रोख़्त में गड़बड़ी, महँगे विमान सौदे, अक्षम प्रबंधन, कर्मचारियों की अधिक संख्या, भ्रष्टाचार के आरोप और विदेशी रूट्स का दबाव। एयर इंडिया की हालत इतनी ख़राब थी कि उसे चलाने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये की सरकारी सब्सिडी और सहायता देनी पड़ती थी। अंततः 2022 में इसे टाटा समूह को बेचकर सरकार ने अपने कंधे हल्के किए।

निजी एयरलाइनों ने शुरुआत में चमचमाते विज्ञापनों, मॉडल-आधारित प्रचार और “लक्ज़री” की छवि से यात्रियों को लुभाया। लेकिन कई कंपनियों का पतन अव्यवस्थित बिज़नेस मॉडल, अनियंत्रित विस्तार, कर्ज़ और नियामकीय ढिलाई के कारण तेज़ हो गया। किंगफिशर को कभी भारत की “फाइव-स्टार एयरलाइन” कहा जाता था।

अत्यधिक खर्च, महँगा ब्रांडिंग मॉडल और गलत अधिग्रहण (Air Deccan) ने किंगफिशर को कर्ज़ के पहाड़ में धकेल दिया। करीब 7000+ करोड़ बैंक कर्ज़, टैक्स बकाया, कर्मचारियों के वेतन लंबित और कई जाँच और कानूनी विवाद से हालत ख़राब हुई। विजय माल्या पर धन शोधन और बैंक धोखाधड़ी के मामले दर्ज हुए, जिसके बाद वह देश छोड़कर चला गया और भारत के लिए “वित्तीय भगोड़े” का प्रतीक बन गए।

इसी तरह सहारा एयरलाइंस की विमान सेवाएँ 90 के दशक में काफी लोकप्रिय हुईं, लेकिन धीरे-धीरे वित्तीय विवाद और नियामकीय दबाव बढ़ते गए। बाद में यह कंपनी जेट एयरवेज को बेच दी गई। सहारा समूह के खिलाफ बड़े पैमाने पर सेबी के केस चले, और सुब्रत रॉय को लंबे समय तक जेल का सामना करना पड़ा।

जेट एयरवेज कभी भारत की सबसे प्रतिष्ठित निजी एयरलाइन थी, लेकिन 2015–2018 के बीच लागत बढ़ने, खतरनाक कर्ज़ और प्रबंधन विवादों ने इसे धराशायी कर दिया। मालिक नरेश गोयल पर वित्तीय अनियमितताओं, विदेशी फंडिंग संबंधी जाँच और मनी लॉन्ड्रिंग आरोप के मामले चले और वे जेल तक पहुँचे। जेट के बंद होने से लाखों यात्रियों, हजारों कर्मचारियों और सप्लाई-चेन कंपनियों को भारी नुकसान हुआ।

देश में हवाई सेवाओं को लेकर भारतीय विमानन नियामक और नागरिक उड्डयन मंत्रालय पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। समय पर हस्तक्षेप की कमी रही। कई एयरलाइनों के वित्तीय संकेत वर्षों तक खराब रहे, लेकिन नियामक ने देर से कदम उठाए। सर्दियों में कोहरा या कम विज़िबिलिटी में उड़ान के लिए पायलटों को विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है।

लेकिन यह प्रशिक्षण महँगा पड़ता है, इसलिए कई निजी एयरलाइन्स पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं करातीं। नियामक कई बार सलाह जारी करता रहा, परंतु कठोर कार्रवाई कभी नहीं की गई। सुरक्षा निरीक्षण सिर्फ “औपचारिकता” के रूप में किए जाते रहे। यही नहीं, दबाव में एयरलाइन लाइसेंस देने में जल्दबाज़ी की गई। व्यावसायिक मॉडल कमजोर होने के बावजूद कई कंपनियों को उड़ान की अनुमति दे दी गई।

इन कमज़ोरियों ने भारतीय विमानन को “उड़ान के पहले ही ख़तरे” में झोंक दिया। एक तथ्य यह भी है कि भारत की एयरलाइंस विदेशी लीज़िंग कंपनियों और डॉलर आधारित लागत पर अत्यधिक निर्भर हैं, जिससे वित्तीय जोखिम बढ़ता है। लेकिन जब भी कोई एयरलाइन बंद होती है, यात्रियों का पैसा फँसता है, टिकट रद्द होते हैं, किराए अचानक बढ़ जाते हैं, कर्मचारियों की नौकरियाँ जाती हैं। किंगफिशर, जेट और सहारा के बंद होने से जनता ने भारी नुकसान झेला। और यही चक्र दोहराया जा रहा है, बस नाम बदलते रहते हैं।

भारत के विमानन संकट की जड़ें, लागत बहुत अधिक, किराया बहुत कम। कंपनियाँ लंबे समय तक सस्ते टिकट देकर बाजार कब्जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नुकसान बढ़ता जाता है। डॉलर में लागत, रुपये में आय—ईंधन, लीज़िंग, इंजन, मेंटेनेंस—सब का भुगतान डॉलर में, लेकिन कमाई रुपये में होती है। डीजीसीए की निगरानी मजबूत नहीं रही है। सरकारी एयरलाइनों में तो यह स्थायी समस्या रही है।

टाटा समूह के हाथों में एयर इंडिया का पुनर्जीवन एक उम्मीद जगाता है। इंडिगो अभी भी एक बड़ी और महत्वपूर्ण एयरलाइन है, लेकिन उसे अपनी रणनीति नए दौर के अनुसार बदलनी होगी।

आकासा जैसी नई एयरलाइंस सादगी और दक्षता पर जोर दे रही हैं। लेकिन जब तक डीजीसीए वास्तविक निगरानी नहीं करेगा, पायलट प्रशिक्षण में सुधार नहीं होगा, वित्तीय पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी, राजनीति और विमानन का रिश्ता साफ नहीं होगा, कंपनियों के दिवालिया होने पर जनता को सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक भारत विमानन उद्योग उछाल और गिरावट के इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाएगा। विमानन सिर्फ उड़ान भरना नहीं है; यह उस भरोसे का प्रश्न है जिसे यात्री हर बार अपनी जान सौंपकर बनाते हैं। यदि यह भरोसा बार-बार टूटा, तो एयरलाइनें नहीं, बल्कि पूरा देश कीमत चुकाएगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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भारत-रूस दोस्ती अब और मजबूत होगी: रजत शर्मा

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 06 December, 2025
Last Modified:
Saturday, 06 December, 2025
rajatsharma

रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

भारत और रूस ने विज़न 2030 आर्थिक और व्यापार सहयोग समझौते पर दस्तखत किया। इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यापार,पूंजी निवेश,आवागमन और उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में आपसी सहयोग को तेज करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने उम्मीद जतायी कि दोनों देशों के बीच सालाना कारोबार 65 अरब डॉलर से बढ़ कर 100 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और रूस भारत को तेल की सप्लाई जारी रखने के लिए तैयार है।

अमेरिका के यूक्रेन शांति प्रस्ताव को ठुकराने के बाद पुतिन और मोदी की ये मुलाकात बहुत महत्वपूर्ण थी। मोदी के लिए भी पुतिन के आगमन का समय बहुत खास था। अमेरिका ने भारत पर टैरिफ असामान्य तरीके से बढ़ाया है। टैरिफ बढ़ाने के लिए भारत के रूस से तेल खरीदने को बहाना बनाया है। कुछ हफ्ते पहले चीन में मोदी, शी जिनपिंग और पुतिन की तस्वीरें देखकर अमेरिका के तेवर ढीले हुए थे।

रक्षा के मामले में रूस भारत का सबसे विश्वसनीय दोस्त है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत अब रूस से नए हथियार खरीदेगा। रूस भारत को मिसाइल सप्लाई करेगा। भारत के एयर डिफेंस सिस्टम को मजबूत करने के लिए रूस मदद करेगा। भारत और रूस के बीच जो रक्षा सौदे होंगे, उनको लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी पाकिस्तान और चीन को है। कहने को तो ये रूस और भारत की सालाना समिट थी लेकिन पूरी दुनिया में इस मीटिंग की चर्चा है।

रूस और भारत अच्छे दोस्त हैं, अच्छे ट्रेड पार्टनर हैं। रक्षा के मामलों में एक दूसरे के भरोसेमंद दोस्त हैं लेकिन दोनों मुल्कों के रिश्ते मजबूत हुए, मोदी और पुतिन की व्यक्तिगत दोस्ती की वजह से। प्रधानमंत्री बनने के बाद आज नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे क्योंकि उन्हें पहले से नहीं बताया गया था कि मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट आएंगे।

जब पुतिन दिल्ली पहुंचे तो उनका स्वागत गर्मजोशी के साथ हुआ। ऐसा स्वागत किसी दोस्त के लिए होता है। प्रधानमंत्री मोदी प्रोटोकॉल की सीमा लांघकर पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे और अपनी कार में बिठाकर प्रधानमंत्री आवास तक ले गए।

मोदी और पुतिन की अक्सर फोन पर बात होती है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल भी मॉस्को जाकर कई बार पुतिन से मिल चुके हैं। इसीलिए भारत और रूस दोनों मिलकर एक महाशक्ति बन सकते हैं और एक नया वर्ल्ड आर्डर तैयार कर सकते हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सेलिब्रिटी और बैंक: क्या विज्ञापनों में स्टार्स भरोसा दिला सकते हैं?

AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं।

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Published - Friday, 05 December, 2025
Last Modified:
Friday, 05 December, 2025
Ganpathy654213

गणपति स्वामिनाथन, इंडिपेंडेंट कम्युनिकेशन कंसल्टेंट ।।

AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं। इससे पहले बैंक ने आमिर खान और कियारा आडवाणी के साथ भी काम किया था। इतने जल्दी-जल्दी चेहरे बदलने से जाहिर है लोगों की नजर इस पर जाती है। और AU अकेला नहीं है- फेडरल बैंक के लिए विद्या बालन, ICICI के लिए अमिताभ बच्चन, HSBC के लिए विराट कोहली और एक्सिस बैंक के लिए दीपिका पादुकोण… बैंकिंग सेक्टर को बॉलीवुड का सहारा लेना जैसे आम बात हो गई है। मगर बड़ा सवाल ये है कि आखिर फिल्म स्टार बैंक जैसे भरोसे और सावधानी पर आधारित सेक्टर के लिए क्या कर पाते हैं?

क्यों करते हैं बैंक सितारों का इस्तेमाल 

सच कहें तो बैंकिंग कोई मजेदार या ग्लैमरस कैटेगरी नहीं है। सेविंग्स अकाउंट और FD रेट्स में ग्लैमर ढूंढना मुश्किल है। ऐसे में सेलिब्रिटीज इन ads में जान डाल देते हैं। उनकी मौजूदगी से बैंक भीड़ में अलग दिखते हैं और कैंपेन को तुरंत पहचान मिल जाती है।

सेलिब्रिटीज पहले से ही लोगों की नजरों में भरोसा, सफलता, आत्मविश्वास और स्थिरता जैसी इमेज लेकर आते हैं। बैंक कोशिश करते हैं कि ये इमेज उनके ब्रांड पर भी चिपक जाए। AU जैसे नए बैंक के लिए बड़े स्टार्स के साथ काम करना यह दिखाने का तरीका भी है कि “हम छोटे नहीं हैं, बड़े खेल में आ चुके हैं।”

क्या कोई सेलिब्रिटी सच में भरोसा दिला सकता है?

यहीं मामला मुश्किल हो जाता है। एक बैंक में भरोसा तब बनता है जब वह सालों तक लोगों का पैसा सुरक्षित रखे, मुश्किल समय में साथ दे, और रोजमर्रा की सेवाओं में भरोसेमंद साबित हो।
सेलिब्रिटी ध्यान जरूर खींच सकता है, लेकिन वह किसी को अपनी लाइफ सेविंग्स बदलने के लिए मनाए- ये कम ही होता है।

सेलिब्रिटी सिर्फ “पहली मुलाकात” को आसान बनाते हैं। भरोसा तो ब्रांच के काउंटर, मोबाइल ऐप या मुश्किल समय में बैंक की मदद से बनता है—30 सेकंड के खूबसूरत ऐड से नहीं।

क्या सेलिब्रिटी बैंक की छवि या उसकी आइडिंटिटी से मेल खाते हैं?

अक्सर यहीं गलती हो जाती है। मान लीजिए बैंक की इमेज बहुत गंभीर और स्थिर है, और सेलिब्रिटी बहुत ज्यादा ग्लैमरस या फन-लविंग। तब ऐड अच्छा तो लगता है, लेकिन दिल को छू नहीं पाता—कनेक्शन मिस हो जाता है।

अच्छे पार्टनरशिप वहीं बनती हैं, जहां फिट सही हो:

  • अमिताभ बच्चन और ICICI की मजबूत, भरोसेमंद इमेज

  • विद्या बालन और फेडरल बैंक की सीधी, अपनापन भरी टोन

  • दीपिका और एक्सिस बैंक की स्टाइलिश, आधुनिक ब्रांडिंग

AU का आमिर–कियारा से रणबीर–रश्मिका की तरफ जाना शायद उसकी नई योजनाओं को दिखाता है- उन्हें अब और युवा, डिजिटल और आधुनिक दिखना है।

अल्पकालिक रणनीति, स्थायी योजना नहीं

ज्यादातर बैंक सेलिब्रिटीज को लंबे समय के लिए नहीं रखते। उन्हें बस एक तेज, जोरदार कैंपेन चाहिए होता है- नई मार्केट में प्रवेश, किसी नए प्रोडक्ट का लॉन्च, या ब्रांड रिफ्रेश के समय। लेकिन मीडिया का खर्च इतना बढ़ गया है कि लंबे समय तक ऐसे ऐड चलाना मुश्किल हो गया है।

इसके अलावा, किसी स्टार को सालों तक रखना महंगा भी है, और अगर उस स्टार से जुड़ा कोई विवाद हो जाए तो बैंक की इमेज पर खतरा हो सकता है। इसलिए बैंक चाहते हैं छोटी, लेकिन प्रभावी साझेदारी।

निष्कर्ष यह है कि: सेलिब्रिटीज मदद जरूर करते हैं, लेकिन सब कुछ नहीं हैं।

सेलिब्रिटीज बैंक को खास तौर पर दिखाते हैं। वे कैंपेन में ऊर्जा, आकर्षण और ताजगी लाते हैं। लेकिन वो भरोसा नहीं बना सकते।
वह दरवाजा खोल देते हैं- अंदर बुलाने का हक बैंक को अपने काम से कमाना पड़ता है।

लंबे समय में बैंक की साख उन्हीं चीजों से बनती है जो दिखती नहीं हैं- बेहतर सेवा, तेज डिजिटल सुविधाएं, साफ-सुथरी कम्युनिकेशन और सबसे बढ़कर ग्राहक को ये भरोसा कि उसका पैसा सुरक्षित है। 

(लेखक MASTERING THE MESSAGE नामक किताब के लेखक हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

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स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ नाम की भी चिड़िया होती है: नीरज बधवार

गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते।

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Published - Thursday, 04 December, 2025
Last Modified:
Thursday, 04 December, 2025
neerajbadhwar.

नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।

पहले वनडे में टीम इंडिया साढ़े तीन सौ के करीब रन बनाकर हारने वाली थी और दूसरे वनडे में तो वो 359 रन बनाकर भी हार ही गई। कारण बड़ा सिंपल है। आप स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ों की इज़्ज़त नहीं करते और आपने यहाँ भी 'bits and pieces' वाले प्लेयर भर रखे हैं।

गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते। हर्षित जैसा गेंदबाज़ कभी-कभार आपको विकेट दिला सकता है, लेकिन वो इतना 'inconsistent' है कि वो कभी भी आपका मुख्य गेंदबाज़ नहीं बन सकता।

अर्शदीप अच्छे बॉलर हैं, लेकिन वनडे फॉर्मेट में वो बेहद नए हैं। सिराज और शमी जैसे गेंदबाज़ों के होते प्रसिद्ध कृष्णा टीम में क्यों हैं, इस बात पर तो खुद प्रसिद्ध कृष्णा भी हैरान हैं। मैं इस बात पर भी हैरान हूँ कि वरुण चक्रवर्ती जैसा क्लास स्पिनर वनडे टीम से क्यों बाहर है।

आप उनकी जगह जडेजा या सुंदर को इसलिए खिला रहे हैं कि वो बैटिंग भी कर सकते हैं, लेकिन भाई अगर आपके पास मैच विनर बॉलर हो तो वो ढाई सौ रन भी डिफेंड करवा सकता है। जिस दिन आप आठ बल्लेबाज़ खिलाकर साढ़े तीन सौ रन बनाने के बजाय, चार क्लास बॉलर खिलाकर 250 रन डिफेंड करने की सोचने लगेंगे, तो आपको अपने आप समझ आ जाएगा कि किसे टीम में रखना है और किसे नहीं।

मगर जब कोच के सिर पर थके हुए ऑलराउंडर्स को टीम में भर्ती करने का भूत सवार हो और स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ जैसी चिड़िया उसके शब्दकोष में शामिल ही न हो, तो टीम का वही हाल होगा जो टेस्ट के बाद वनडे सीरीज़ में हुआ है।

जागो, बीसीसीआई जागो, इससे पहले कि गंभीर अर्शदीप और कुलदीप को टीम से निकालकर ग्यारहवें नंबर तक बैटिंग मज़बूत करने के लिए उनकी जगह शार्दुल ठाकुर और नीतीश कुमार रेड्डी को न खिला ले।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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वेब सीरीज में घटनाओं का काल्पनिक कोलाज: अनंत विजय

ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है।

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Published - Monday, 01 December, 2025
Last Modified:
Monday, 01 December, 2025
anantvijay

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हाल ही में दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुई। ‘द फैमिली मैन’ का सीजन तीन और महारानी का सीजन चार। महारानी सीजन चार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज हुई। बिहार की राजनीति को केंद्र में रखकर बनी ये वेबसीरीज उस दौरन चर्चा में रही। प्रधानमंत्री कार्यालय के खबर रोकने के लिए फोन किए जाने के दृश्य को लेकर चुनाव के दौरान विपक्षी ईकोसिस्टम के कुछ लोगों ने माहौल बनाने का प्रयास किया था।

इन दोनों सीरीज में समानता है। दोनों कहीं न कहीं राजनीति और उसके दाव-पेंच पर आधारित है। राजनीति के साथ-साथ अपराध और आतंकवाद भी समांतर कहानी के तौर पर चलती है। दोनों वेबसीरीज में लेखक ने पिछले दशकों की राजनीतिक घटनाओं को उठाया है और उसका काकटेल बनाकर एक काल्पनिक कहानी गढ़ने का प्रयास किया है।

ऐसी काल्पनिक कहानी जिसमें भारतीय राजनीति की कुछ घटनाएं तो दिखती हैं लेकिन उसका कालखंड मेल नहीं खाता है। कई प्रधानमंत्रियों के स्वभाव और उनके कालखंड में घटी घटनाओं को जोड़कर एक ऐसा प्रधानमंत्री बना दिया गया जिससे कि इसको काल्पनिक कहा जा सके। महारानी सीरीज में जिस प्रधानमंत्री को दिखाया गया है उसमें नरसिम्हाराव से लेकर अटल जी की छवि दिखती है।

इसी तरह से फैमिली मैन में महिला प्रधानमंत्री दिखाया गया है लेकिन घटनाएं अलग अलग दौर की जोड़ दी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है। दर्शकों के सामने ये चुनौती होती है कि वो राजनीति के पात्रों को सीरीज में पहचाने और फिर घटनाओं का आनंद ले।

एक और चीज जो दोनों वेबसीरीज में समान रूप से प्रमुखता से उपस्थित है। वो है इसका अंत। फैमिली मैन के सात एपिसोड देखने के बाद भी दर्शकों को पूर्णता का एहसास नहीं होता और एक जिज्ञासा रह जाती है कि आगे क्या? म्यांमार में आपरेशन के बाद तमाम भारतीय सिपाही और एजेंट भारत लौट आते हैं लेकिन नायक मनोज वाजपेयी म्यांमार की सीमा में ही अचेत होकर गिरते दिखते हैं। सीरीज समाप्त हो जाती है।

खलनायक की भूमिका निभा रहे जयदीप अहलावत भी फरार हो जाते हैं और दर्शकों के मन में प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि उसका क्या हुआ? वो भी घायल है। महारानी सीरीज में हुमा कुरैशी ने रानी भारती का किरदार निभाया है जिसको पहले सीजन से ही राबड़ी देवी से प्रेरित बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इस सीजन में वो प्रधानमंत्री बनना चाहती है लेकिन उसके मंसूबों पर प्रधानमंत्री जोशी पानी फेर देते हैं। राजनीति के इन चालों के बीच उसके बेटे जयप्रकाश भारती और उसके दोस्त की लाश मिलती है।

जयप्रकाश क्षेत्रीय दलों को रानी भारती के समर्थन केक लिए तैयार कर रहा था। रानी भारती की बेटी जिसको बिहार की मुख्यमंत्री दिखाया गया है उसको भी एक घोटाले का आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। इस सीरीज में भी कई घटनाक्रम भारतीय राजनीति से जुड़े हैं। रानी भारती की पार्टी के अधिकतर विधायक उसका साथ छोड़कर नई पार्टी बना लेते हैं।

रानी के विश्वस्त मिश्रा के नेतृत्व में बिहार में नई सरकार बनती है। ये दृष्य कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का विभाजन याद दिलाती है। रानी भारती के बड़े बेटे की लाश मिलती है, बेटी जो मुख्यमंत्री थी अब जेल में है। रानी बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। विदेश में पढ़ रहा उसका दूसरा बेटा उसके साथ खड़ा हो जाता है। रानी भारती को पता चलता है कि उसके बेटे की योजनाबद्ध तरीके से हत्या की गई है।

जब प्रधानमंत्री जोशी उसके पुत्र के निधन पर संवेदना प्रकट करने आते हैं तो वो उनसे कहती है कि जिस तरह से उसने अपने पति भीमा भारती के हत्यारों को सजा दी उसी तरह से वो अपने बेटे जयप्रकाश के हत्यारों को भी ढूंढ निकालेगी और सजा देगी या दिलवाएगी। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।

दोनों वेब सीरीज के अंत में दर्शकों को पूर्णता का अहसास नहीं होता है। ऐसा लगता है कि निर्माता या प्लेटफार्म अगले सीजन के लिए उत्सुकता बनाए रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि निर्माता और प्लेटफार्म दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने के लिए कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं ताकि दर्शकों को इस बात का अनुमान रहे कि अगले सीजन में कहानी आगे बढ़ेगी।

प्रश्न यही उठता है कि जो दर्शक सात और आठ एपिसोड देख रहा है और तीन या चार सीजन देख रहा है उसको पूरी कहानी के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी चाहिए। सीक्वल का एक तरीका तो ये भी हो सकता है जो साधरणतया फिल्मों में अपनाया जाता है। फिल्म दबंग या फिर एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है और टाइगर 3 को देखा जा सकता है। तीनों फिल्म अपने आप में पूर्ण है लेकिन सीक्वल की संभावना भी बनी हुई है।

पर वेब सीरीज तो जैसे दर्शकों के धैर्य की प्रतीक्षा लेना चाहते हैं। क्या दर्शकों को छह सात घंटे देखने के बाद कहानी की पूर्णता नहीं मिलनी चाहिए। इन दोनों सीरीज के आखिर में लगता है कि कुछ मिसिंग है। इस मीसिंग को सीक्वल की संभावना बताकर सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह का व्यवहार दर्शकों के साथ किया जाता रहा तो संभव है कि दर्शकों का वेब सीरीज से मोहभंग हो जाए। वेब सीरीज के लेखक को, फिल्म के निर्देशक को और उसको प्रसारित करनेवाले प्लेटफार्म को इसपर विचार करना चाहिए।

एक और बात जो इन वेब सीरीज से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि जिस कालखंड की कहानी दिखा रहे हैं उस कालखंड में वो सारी चीजें होनी चाहिए जो वेब सीरीज में दिखाई जा रही हैं। अगर 2005 के कालखंड की घटनाओं को मुंबई में घटित होते दिखा रहे हैं तो बांद्रा वर्ली सी लिंक कैसे दिखा सकते हैं। 2005 में तो वो बना ही नहीं था। उस कालखंड की कहानी दिखाते समय इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि उस समय ट्वीटर प्रचलन में था या नहीं।

अगर नहीं था तो फिर उस दौर की घटनाओं को ट्वीटर पर ट्रेंड करते हुए कैसे दिखा सकते हैं। ये छोटी बाते हैं लेकिन इनका अपना एक महत्व है। घटनाओं का कोलाज बनाने के चक्कर में इस तरह की छोटी पर महत्वपूर्ण भूल दिख जाती है जो लेखक और निर्देशक की सूझबूझ पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। आज के दौर की कई वेबसीरीज में इस तरह की घटनाएं आपको दिख जाएंगी।

कहानी जिस कालखंड में सेट होती है उस कालखंड की विशेषताओं का ध्यान रखना होता है। अलग अलग समय पर हुए प्रधानमंत्रियों के गुणों और अवगुणों को मिलाकर एक चरित्र तो गढ़ सकते हैं लेकिन उस दौर की स्थायी चिन्हों को नहीं बदल सकते। किसी पात्र को संसद भवन ले जाते हैं तो उसको नई संसद के गेट पर उतरते हुए दिखाना होगा ना कि पुरानी संसद के पोर्टिको में। काल्पनिकता को भी एक प्रकार की प्रामाणिकता की जरूरत होती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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