हृदय विदारक यह खबर ‘समाचार4मीडिया’ में पढ़कर दंग रह गया कि सहाराश्री यानी सुब्रत रॉय नहीं रहे। वह एक ऐसे इंसान थे, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया।
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समाचार4मीडिया ब्यूरो
निर्मलेंदु साहा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
इन दिनों मैं कोलकाता में हूं। सुबह करीब-करीब आठ बजे अपने परम मित्रों को प्रणाम नमस्ते मैसेज भेजने के बाद, जब अचानक मैंने मेल चेक किया, तो हृदय विदारक यह खबर ‘समाचार4मीडिया’ में पढ़कर दंग रह गया कि सहाराश्री यानी सुब्रत रॉय नहीं रहे। वह एक ऐसे इंसान थे, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया। मैंने जिसे चाहा, उसे उन्होंने रख लिया। वह दिन मैं कभी भूल नहीं सकता कि जब वह मुझे सहारा में एंट्री लेते ही आगे बढ़कर गले लगा लेते और पूछते कि कैसे हो निर्मल।
सहाराश्री के निधन की खबर पढ़ते ही मुझे वो सब बातें याद आ गयीं, जब वह मेरे जैसे नाचीज को अपने पास बिठाकर पत्रकारिता पर जिस तरह से बातें किया करते थे। इसके साथ ही याद आ गये मेरे गुरु, मेरे मेंटर, मेरे पथप्रदर्शक एस.पी. सिंह और याद आ गये दिनेश चंद्र श्रीवास्तव जी, जिन्होंने मुझे गले से लगा लिया था, जिन्होंने मेरे कहने पर टीआरएफ के कई बच्चों को नौकरी दी। सच कहूं, तो एक पूरी की पूरी टीम को ही सहाराश्री ने ऐब्जर्ब कर लिया था। ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने के बाद किस तरह से एस.पी. सिंह सहारा पहुंचे और उसके बाद क्या हुआ, क्यों वे वहां केवल चार दिनों तक रहे, लेकिन मुझे मजबूरत 15 दिनों तक रहना पड़ा। वे यादें आज भी मेरे दिमाग में ताजी हवा की झोके की तरह हिचकोले खा रही हैं।
दरअसल, उस दिन समीर जैन से मिलने के बाद मैं बहुत खुश था। मैं खुश इसलिए भी था, क्योंकि मेरी एक अलग पहचान बन गयी थी और वह भी एक ही दिन में। अखबार को मैंने और नवभारत के सभी वरिष्ठ साथी मिलकर कई दिनों के अथक मेहनत के बाद मॉड्यूलर ले आउट के साथ लॉन्च करने में सक्षम हो पाये थे। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस टीम का लीडर मैं ही था। मेरे कंधों पर ही यह जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, लेकिन एस.पी. के नहीं होने के कारण खुशी का इजहार खुल कर नहीं कर सका, क्योंकि एस.पी. भैया बाहर गये हुए थे। कहीं-न-कहीं मन में एक ‘किंतु’ था। एस.पी. के बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। जब मैं समीर जैन से मिलने गया, तो वहां ‘नवभारत टाइम्स’ के दो-तीन वरिष्ठ पत्रकार मौजूद थे। समीर जैन से मिलकर अपने विभाग में लौटते ही सभी मुझे बधाई देने लगे। बधाई और प्यार मोहब्बत का यह सिलसिला दिनभर चलता रहा। शाम को एस.पी. का फोन आया। मुझसे नीरज, एस.पी. के पीए ने कहा कि एस.पी. का फोन है। मुझे पहले लगा कि एस.पी. हॉलीडे टूर से लौट आए हैं, लेकिन उनके साथ फोन पर बात की, तो पता चला कि वे दो दिन बाद आएंगे। फोन पर उन्होंने पूछा कि क्या हो रहा है। मैंने विस्तारपूर्वक सब बताया। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने फोन पर दोबारा कहा, निर्मल अब तुम्हारे भगवान पर मेरी आस्था और बढ़ गई है।’
उन्होंने कहा, ‘रविवार की सुबह घर आना।’ वे दो दिन बाद लौट आए। उस दिन शायद शनिवार था। एस.पी. ऑफिस नहीं आए। मैं रविवार को उनके घर गया। उन्होंने काफी बातें की। फिर कहा, निर्मल लगता है हम सबके अच्छे दिन आ रहे हैं। मैंने पूछा कि ऐसी क्या खास बात है। उन्होंने कहा, निर्मल खुद समीर जैन ‘नवभारत टाइम्स’ में रुचि ले रहे हैं। इसलिए अब लगता है कि हम जैसा अखबार निकालना चाहते हैं, वैसा संभव हो जाएगा।
दरअसल, एस.पी. ‘बेखौफ’ पत्रकारिता करना चाहते थे, जो वे कर नहीं पा रहे थे। उन्हें लगा कि समीर जैन के आते ही यह संभव हो जाएगा, इसलिए वे बहुत खुश थे। मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं देखा था! उस दिन मैं उनके घर तीन-चार घंटे तक था। उन्हें बेइंतहा खुश देख कर मैं बेहद ‘गदगद’ हो गया। उनका उस तरह से खुलकर हंसना और भाभी जी का उस हंसी में शामिल होना मुझे आज भी याद है। भाभी जी ने वहां से किचन की ओर जाते-जाते मुझसे कहा, ‘खाना खाकर जाना। आज मछली बनी है।’
अगले दिन से मैं अपने काम में फिर व्यस्त हो गया। उन्हीं दिनों अचानक एस.पी. ने एक दिन शाम को कहा कि घर जाने से पहले मिलकर जाना। कुछ लोग एस.पी. के सामने खड़े थे, इसलिए मैंने कुछ नहीं पूछा। मैंने जाने से पहले उन्हें इंटरकॉम पर फोन किया कि भैया, मैं जा रहा हूं। उन्होंने कहा, ‘मैं भी निकल रहा हूं। तुम नीचे मेरी गाड़ी के पास प्रतीक्षा करो।’ मैं तुरंत नीचे गया। थोड़ी देर बाद वे आए और मुझे कहा कि चलो, रास्ते में बताते हैं। गाड़ी में बैठने के बाद उन्होंने कहा, टीआरएफ (टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन) के तहत जिन लोगों ने पत्रकारिता का कोर्स किया है, उनके संबंध में डिसीजन हुआ है कि उन्हें इस बार ‘ऐब्जॉर्ब’ नहीं किया जाएगा।’ मैं चौंका, ऐसा कैसे हो गया! उन्होंने जवाब में उस समय बस इतना ही कहा, तुम्हारी दूसरे अखबारों में जान-पहचान बहुत है। कुछ अच्छे नवयुवक हैं, उन्हें एडजस्ट करवाओ। मेरी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मैं उन्हें कहीं-न-कहीं एडजस्ट करवाऊं!’ मैंने कहा कि ठीक है भैया।
दरअसल, हुआ यह था कि किसी लड़की को नौकरी दिलवाने के लिए मैं गोपाल टावर में दिनेश जी से मिलने गया था। उस लड़की का नाम मैं भूल गया। उसी लड़की ने मुझे बताया कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ अखबार बहुत जल्द निकलने वाला है। मैं वहां पहुंचा तो दिनेश जी ने मुझे ही ऑफर दे दिया। सुब्रत रॉय साब ने मुझे डबल सैलरी देने की बात कही। मैंने जवाब में कहा था कि 25000 रुपये भी देंगे, तो भी मैं एस.पी. सिंह को छोड़कर नहीं आऊंगा। हालांकि उस लड़की को तुरंत रख लिया गया था। यहीं से मेरी रॉय साब के साथ ट्यूनिंग बननी शुरू हो गयी। सच तो यही है कि मेरी एस.पी. सिंह के प्रति भक्ति देखकर रॉय साब खुश हो गये। जवाब से रॉय साहब और दिनेश जी अति प्रसन्न हुए। फिर मैंने एस.पी. को कहा, दिनेश चंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे इंसान हैं। उनसे बात करता हूं।’ उस दिन एस.पी. बहुत गंभीर थे, लेकिन उन्होंने और कुछ नहीं कहा। मेरी भी हिम्मत नहीं हुई कि उनसे पूछूं, ‘अचानक यह क्या हुआ कि.. मैं कुछ पूछ नहीं पाया! दरअसल, मुझे मालूम था कि जब वे खुलते हैं, तो बहुत खुलते हैं और जब वे गंभीर हो जाते हैं, तो बहुत गंभीर रहते हैं। हिम्मत नहीं होती थी कि उनसे बात करूं ! दरअसल, उनका वह गंभीर रूप देख कर हम सबकी घिग्घी बंद हो जाती थी।
एस.पी. को गंभीर देख कर मैं परेशान हो गया। उसी दिन रात को दिनेश जी से होटल में संपर्क किया। फिर सुब्रत रॉय (राष्ट्रीय सहारा के मालिक) से भी मिला। दिनेश जी और सुब्रत रॉय ने सात-आठ लड़के-लड़कियों को नौकरी पर रख लिया। उन लोगों में विनोद रतूड़ी और उनकी पत्नी भी थी। दो तीन लोगों के लिए एस.पी. ने भी ‘हिन्दुस्तान’ और ‘जनसत्ता’ में बात की। ‘दैनिक जागरण’ में नरेंद्र मोहन जी को कह कर दिलीप मंडल और तीन लोगों को रखवाया! ‘अमर उजाला’ में भी अतुल माहेश्वरी जी ने चार लोगों को रखवाया! चार पांच दिन इसी काम में व्यस्त होने के कारण मेरी एस.पी. से कोई खास बात नहीं हो पाई। तभी मेरी तबियत खराब हो गई। दमे ने बुरी तरह जकड़ लिया था। शुक्रवार का दिन था। मैं दफ्तर नहीं गया। उसी दिन शाम को जब मैंने एस.पी. के घर पर फोन किया, तो उन्होंने मुझे अगले दिन सुबह घर पर बुलाया। मैं सुबह-सुबह उनके घर गया। तबियत बहुत खराब थी, यह मैंने एस.पी. को फोन पर बताया नहीं था। तबियत बहुत खराब देखकर वे चौंके, फिर डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें बताना चाहिए था! तुम्हें नहीं आना चाहिए था।’ मैंने कहा, भैया आप परेशान क्यों हैं \ पहले तो उन्होंने टालने की कोशिश की, लेकिन कई बार पूछने के बाद उन्होंने कहा, निर्मल, समीर जैन का मानना है कि ‘नवभारत टाइम्स’ में इकोनोमिक अखबार को भी समाहित कर दें, तो अच्छा होगा।’ मैंने पूछा, आपने क्या कहा \‘नहीं, यह हिंदी के पाठकों के साथ अन्याय होगा और इससे ‘नवभारत टाइम्स’ की इमेज खराब होगी’, मैंने कहा।
मैंने फिर पूछा कि क्या वे प्रेशर क्रिएट कर रहे हैं\ उन्होंने कहा,‘नहीं, वे सिर्फ सजेशन दे रहे हैं।’ फिर मैंने उनसे कहा कि फिर आप चिंतित क्यों हैं\ आप मना कर दीजिए! आपकी बात मानते हैं। मैंने एस.पी. को इस तरह से समझाया कि आपके बिना यह अखबार अच्छा नहीं निकल सकता... कि सारे लोग आपको पसंद करते हैं... कि कोई भी नहीं चाहेगा कि हिंदी में अंग्रेजी समाहित हो... वगैरह। इसके बाद मैं घर चला गया और वे दफ्तर। मेरी तबियत काफी खराब थी, इसीलिए रात को एस.पी. को फोन नहीं किया। तबियत खराब होने के कारण मैं सोमवार दफ्तर भी नहीं जा पाया। उसी दिन रात को जब मैंने एस.पी. को फोन किया, तो उन्होंने कहा, निर्मल, मैं कल नौकरी छोड़ रहा हूं।’ सुनते ही मैं परेशान हो गया। मैंने पूछा, यह क्या कह रहे हैं आप! आप अभी घर पर ही होंगे न? उन्होंने कहा, ‘हां, घर पर ही रहूंगा।’ उस समय रात के नौ बज रहे थे। मैंने अपना वेस्पा स्कूटर उठाया और तुरंत उनके घर गया। उनसे मिलने के बाद पता चला कि रविवार के दिन समीर जैने ने एस.पी. को आईटीओ एरिया के पास जो कोठी है, वहां बुलवाया। फिर दिन भर ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की बातें करते रहे। रविवार का दिन था। एस.पी. को शुगर की बीमारी थी, इसलिए घर पर ही खाते थे। वे दिन भर कुछ नहीं खा पाए। दिन भर समीर जैन एस.पी. को समझाते रहे। एस.पी. ने वहां कुछ नहीं कहा, क्योंकि उन्होंने तय कर लिया था कि अब उन्हें ऐसी हालत में क्या करना चाहिए- इस्तीफा लिख लिया था। टेबल पर पड़ा था। देखा। चूंकि मैं एस.पी. को अच्छी तरह जानता था कि डिसीजन ले लेने के बाद उन्हें कोई नहीं समझा सकता, इसलिए मैंने केवल गीता के उस वचन को दोहराया - जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है।
पहले तो एस.पी. ने घूर कर देखा, फिर हंसने लगे। वह हंसी मैं आज भी भूल नहीं सकता। हंसते-हंसते उन्होंने कहा था – निर्मल, इसमें क्या अच्छा हुआ! मैंने कहा था- आपको फिलहाल पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है! फिर वे हंसे थे और हंसते-हंसते टिप्पणी की थी, ‘हां अब बेकार बूढ़ों में एक और गिनती बढ़ जाएगी!’ उस समय मैं उन्हें समझा नहीं पाया कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है। चूंकि उस समय हम तत्काल क्या हुआ है, उस पर ज्यादा सोचते हैं। हमें पता नहीं होता है कि कल क्या होने वाला है। यानी भगवान जो करता है, वह अच्छे के लिए ही करता है।
अगले दिन एस.पी. के ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने की खबर चर्चा का विषय बन गया। मैं सुबह आठ बजे दफ्तर पहुंच चुका था। बहुत ज्यादा परेशान होने की वजह से काम में मन नहीं लग रहा था। थोड़ी देर इधर-उधर घूमने के बाद मैं ऊपर जिंदल साहब के केबिन के पास पहुंचा। जिंदल जी का इंतजार करने लगा। देखा, जिंदल जी आ रहे हैं।
जिंदल जी उन दिनों करीब-करीब साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंच जाते थे। देखते ही उन्होंने बातचीत की शुरुआत की। पूछा, क्या बात है, निर्मलेंदु। मैंने कहा, ‘सर आपको पता है कि नहीं एस.पी. नौकरी छोड़ रहे हैं।’ उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे इसकी जानकारी नहीं।’ फिर उन्होंने अपने केबिन से एस.पी. को तुरंत फोन करके पूछा, तो एस.पी. ने कहा, अभी तक तो नहीं छोड़ा, लेकिन छुट्टी जरूर ले रहा हूं। जिंदल साहब को बात समझ में आ गई थी। वे तुरंत नीचे उनके केबिन में चले आए। मैं उनके पीछे-पीछे अपने विभाग में पहुंचा। देखा, नवभारत टाइम्स के सभी साथी आपस में इसी बात को लेकर चर्चा कर रहे हैं। मुझे देखते ही कुछ साथी-मित्रों ने मुझसे खबर की पुष्टि की। मैंने सबको यही समझाया कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है। कुछ साथियों ने यह भी कहा कि यदि एस.पी. कहें, तो हम भूख हड़ताल शुरू कर देंगे। मैंनेजमेंट को यह बता देंगे कि एस.पी. के साथ अन्याय होते देखकर हम चुप नहीं बैठेंगे। लगभग दो घंटे तक जिंदल साहब एस.पी. से उनके केबिन में बातें करते रहे। फिर वे चले गए। अब ‘नवभारत टाइम्स’ के सभी साथियों ने एस.पी. को घेर लिया। सभी ने उन्हें यही कहा कि आप हमें छोड़ कर न जाएं। एस.पी. ने वही बातें दोहराई, मैं फिलहाल छुट्टी ले रहा हूं। बहुत काम किया...। ’ वगैरह। वगैरह!
इस तरह उस दिन वहां दिन भर किसी ने भी मन से काम नहीं किया। अखबार किसी तरह निकला जरूर, लेकिन उस दिन के अखबार में वह बात नहीं थी, जो अमूमन हुआ करती थी। दिन भर स्टाफ को समझाते-बुझाते शायद एस.पी. भी थक चुके थे। वे लगभग शाम चार बजे चले गए। जाते वक्त मुझे साथ ले गए। हम लोग वहां से सीधे एस.पी. के घर गए। वहां पहुंचने के बाद एस.पी. ने एक राज खोला, ‘निर्मल, कपिल देव अपनी एजेंसी को और बेहतर बनाने चाहते हैं। दो दिन पहले उनका फोन आया था। मैं उनसे मिल भी आया। वे चाहते हैं कि मैं तत्काल उनके दफ्तर में बैठना शुरू कर दूं।’ ‘हां, उत्तम है’ मैंने कहा, ‘वैसे आप कल से ही यदि वहां जाना शुरू कर दें, तो बेहतर होगा! लोगों को यह नहीं लगना चाहिए कि आपके पास काम नहीं है!’ परंतु वे शायद यह सोच रहे थे कि ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़कर वहां जाना चाहिए था या नहीं।
मैंने कहा, तुरंत कहीं लग जाने और काम करने से एक तो आपको मानसिक शांति मिलेगी और दूसरा, हो सकता है कि कपिल देव की एजेंसी चल जाए, तो बाद में आप अपना कुछ शुरू कर सकें।’ बाद के दिनों में उन्होंने मुझे बताया कि वे कपिल देव की एजेंसी को ज्वॉइन करने का निर्णय ले चुके थे। बस, हमेशा की तरह वे मुझे टटोल कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि मेरी सोच हर बार की तरह एक जैसी है या नहीं है!
अगले दिन या एक-दो दिन बाद उन्होंने कपिल देव की एजेंसी में जॉइन कर ली। उसी दौरान उन्होंने अपना एक साप्ताहिक कॉलम भी चलाया, जो कि देश के सभी बड़े-बड़े हिंदी के अखबारों में छपा करता था। सुबह आठ बजे वे मुझे कॉलम का मैटर दे देते थे, जिसे मैं टाइप करके उसके 15 जिरॉक्स (फोटो कॉपी) निकलवाता और फिर वे पैकेट बनवाकर सभी संबंधित अखबारों को भिजवा देता। उन्हीं दिनों वे ‘इंडिया टुडे’ के सलाहकार संपादक भी बन गए और कुछ ही दिनों में बीबीसी (लंदन) के लिए भारतीय अखबारों की समीक्षा करने लगे। ‘नवभारत टाइम्स’ में एस.पी. को उस समय कार्यकारी संपादक के रूप में तकरीबन 40 हजार रुपये मिलते थे, लेकिन ‘नवभारत टाइम्स’ से निकलने के बाद चार-पांच महीने में उनकी आमदनी 80 हजार रुपये तक पहुंच गई। तभी एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, ‘निर्मल, तुम ठीक ही कहते थे कि आगे क्या होने वाला है, वह हमें पता नहीं होता, इसीलिए हम परेशान हो जाते हैं। तुम्हारे साथ रहकर मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है।’ और यह कहकर उन्होंने मुझे गले लगा लिया और कहा कि निर्मल तुम एक अच्छे दोस्त ही नहीं, अच्छे भाई भी हो! मुझे इस बात का फक्र है कि तुम हमेशा मेरे साथ रहे। तुममें कोई लोभ नहीं है। तुम एक दिन जरूर नाम कमाओगे और सच तो यही है कि आज उन्हीं के आशीर्वाद से मैं यहां तक पहुंच पाया हूं।
दरअसल, मुझे याद है कि उसी दिन उन्होंने यह भी कहा था कि हरेक व्यक्ति को एक बार ‘कुर्सी’ छोड़कर रास्ते पर आना चाहिए। इससे पांचों इंद्रियां खुल जाती हैं। कौन अपना है और कौन पराया, इसका भी सम्यक ज्ञान हो जाता है। खैर, कपिल देव की एजेंसी खूब चली। एक दिन कपिल देव स्वयं एस.पी. की तारीफ उन्हीं के सामने करने लगे। दरअसल, एस.पी. के जॉइन करने से पहले एजेंसी के लगभग 52 लाख रुपये अखबारों के दफ्तरों में पड़े हुए थे, लेकिन एस.पी. के जॉइन करने के कुछ महीनों के अंदर ही वे पैसे एजेंसी को मिल गए, इसीलिए कपिल देव उन्हें बधाई दे रहे थे।
कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि दैनिक अखबार की पत्रकारिता से दूर होकर एस.पी. छटपटा रहे हैं। जो व्यक्ति रोज खबरों के साथ खेलते थे, झूठ को झूठ और सच को सच कहने में दिन-रात व्यस्त रहते थे, वे अब उन कामों को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं, इसकी छटपटाहट देखकर मैं भी परेशान रहता। उन दिनों मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से फीचर एडिटर बनने का ऑफर मिला। तभी मैंने ‘राष्ट्रीय सहारा’ के महाप्रबंधक दिनेश चंद्र श्रीवास्तव जी से यह चर्चा भी की कि एस.पी. जैसे वरिष्ठ पत्रकार को ‘राष्ट्रीय सहारा’ की टीम में शामिल करना बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। इससे अखबार की न केवल गरिमा बढ़ेगी, बल्कि अखबार को एक अच्छा और ‘प्रतिबद्ध’ संपादक भी मिलेगा। इस बात की चर्चा छिड़ते ही दिनेश जी ने कहा, हम भी चाहते हैं कि एस.पी. यहां आएं।’ फिर दिनेश जी ने मुझसे कहा, ‘तुम कुछ करो। तुम एस.पी. से कहो।’
मैंने कहा, केवल मेरे कहने से वे नहीं आएंगे, मेरी बात मानते जरूर हैं, लेकिन अखबार की तरफ से दो वरिष्ठ लोग मिलकर उनसे आग्रह करें, तो ज्यादा बेहतर होगा। पूरी तरह से ऑफर लेकर जाएं, पूरी थाली सजाकर ले जाएं, तभी बात बन सकती है। उसके बाद मेरा काम है, मैं उन्हें समझा दूंगा।’ साथ ही मैंने यह भी कहा कि मैं एस.पी. के साथ ही जॉइन करूंगा। दरअसल, मैंने कुछ दिनों पहले एस.पी. को टटोला था कि यदि ‘राष्ट्रीय सहारा’ से उन्हें ऑफर मिले, तो क्या वे जाएंगे। यह उस दिन की बात है, जब मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से ऑफर मिला था। उन्होंने जवाब में कहा था, सही ऑफर मिला, तो जरूर जाएंगे।’ लेकिन तुरंत यह भी कहा था, निर्मल, ‘राष्ट्रीय सहारा’ में तुम्हीं तो कहते हो कि बहुत राजनीति होती है और आज तुम्हीं वहां जाने के लिए कह रहे हो!’ मैंने कहा, ‘नहीं जमेगी, तो दोनों छोड़ देंगे! ट्राई करने में क्या हर्ज है!’ हां, मेरे पापा हमेशा यही कहते थे कि ट्राई करने में क्या हर्ज है! इसके आद उन्होंने कुछ नहीं कहा।
दरअसल, मुझे यह समझ में आ गया कि सही तरह से ऑफर मिलेगा, तो वे जरूर जाएंगे। नहीं तो वे अचानक चुप नहीं हो जाते! इसीलिए उस दिन मैंने दिनेश जी से आग्रह किया कि एस.पी. को ऑफर भिजवाइए। इस घटना के ठीक दो या तीन दिन बाद मैं एस.पी. से दोपहर (3-4 के बीच) मिलने गया, तो देखा वहां ‘राष्ट्रीय सहारा’ के दो लोग (राजीव सक्सेना और एक सज्जन, शायद निशीथ जोशी) बैठे हुए हैं। मुझे देखते ही वे चुप हो गए। एस.पी. ने तुरंत कहा कि नहीं-नहीं, इसके सामने आप कह सकते हैं, लेकिन मैंने वहां बैठना उचित नहीं समझा, इसलिए मैं स्वयं बाहर आ गया। लगभग 25-30 मिनट बाद वे लोग एस.पी. के केबिन से बाहर आए। जाते वक्त उन दोनों में से एक ने मुझसे कहा (वे लोग मुझे जानते थे) - निर्मल जी, एस.पी. साहब को जल्दी जॉइन करवाइए, बात हो गई है। दिनेश जी ने भी फोन पर उनसे बातचीत कर ली है। वे दोनों चले गए। उनके जाने के बाद एस.पी. ने हंसते हुए टिप्पणी की- लगता है, तुमने गेम खेल लिया है। मैंने कहा, भैया, वे लोग खुद चाहते हैं कि आप वहां जॉइन करें, बल्कि अगर यह कहें कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ज्यादातर लोग यही चाहते हैं, तो शायद गलत नहीं होगा।’ उन्होंने फिर टिप्पणी की, हां, एक को छोड़कर, सभी चाहते होंगे।’ मैंने उस व्यक्ति का नाम पूछा, जो नहीं चाहते, लेकिन एस.पी. ने नहीं बताया।
शायद एक या दो दिन बाद हम दोनों ने एक साथ जॉइन किया। जब हम दोनों गाड़ी से उतरे, तो देखा कि माधवकांत मिश्र (संपादक- ‘राष्ट्रीय सहारा - उनका नाम नहीं जाता था, पर सभी काम वही करते थे) एस.पी. का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े हैं। एस.पी. उस दिन कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे। पता नहीं क्यों, माधवकांत जी एस.पी. को बार-बार देखते रहे। उस समय मुझे यह समझ में नहीं आया कि क्यों देख रहे हैं! बाद में मुझे पता चला कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ में कुर्ता-पायजामा पहनने पर पाबंदी है। हुआ यूं कि उस दिन एस.पी. माधवकांत मिश्र के साथ अंदर गए। दिन भर वे ‘राष्ट्रीय सहारा’ के स्टाफ से मिलते रहे। मैंने महसूस किया कि एस.पी. के जॉइन करने से ‘राष्ट्रीय सहारा’ के सभी लोग न केवल बहुत खुश हैं, बल्कि उत्साहित भी हो गए हैं। वहां के ज्यादातर पत्रकार-गैर पत्रकार मुझे जानते थे, इसलिए लगभग सभी ने कहा, यह बहुत अच्छा काम हुआ है।’ मुझे सभी एस.पी. को जॉइन करवाने के लिए बधाई दे रहे थे। उस दिन मिलने-मिलाने का कार्यक्रम दिन भर चलता रहा। शाम को मैं और एस.पी. एक साथ ऑफिस से निकले और अपने-अपने घर चले गए। रास्ते में कुछ खास बात नहीं हुई। दूसरे दिन भी हम दोनों एक साथ आए और इसी तरह मिलने-मिलाने का कार्यक्रम चलता रहा।
इस तरह तीसरे दिन तक मैं अपने काम में उलझा रहा और एस.पी. मीटिंग व जान-पहचान करने में व्यस्त रहे। तीसरे दिन शाम को हमें कहा गया कि सुब्रत रॉय के साथ कल सभी पत्रकारों की मीटिंग होगी, इसीलिए सभी 10 बजे तक मीटिंग हॉल में पहुंच जाएं। चौथे दिन हम लोग एक साथ दफ्तर पहुंचे। रास्ते में एस.पी. से अपने काम के बारे में बातचीत करता रहा। उन्होंने मुझे कुछ सुझाव भी दिए। मीटिंग शुरू हुई। सुब्रत रॉय (कंपनी के चेयरमैन) ने एस.पी. के ज्वॉइन करने की खुशी का इजहार किया। उनके भाषण के बाद एस.पी. को कुछ कहने के लिए कहा गया। मैंने देखा कि एस.पी. ने इशारे से और धीमी आवाज में कहा, ‘दांत में दर्द है, इसलिए कुछ कह पाना संभव नहीं है।’ मैं चौंका! अभी-अभी तो रास्ते में मुझसे बात कर रहे थे, अचानक क्या हो गया, मीटिंग में कुछ बोल नहीं पा रहा था, इसलिए चुपचाप कई तरह की शंकाओं से मैं घिर गया... कि किसी ने कुछ कह दिया होगा... कि एस.पी. को ये सब मीटिंग वगैरह पसंद नहीं है... कि वे शायद कल से नहीं आएंगे... कि एस.पी. ने कहा था कि मेरे जाने से एक व्यक्ति खुश नहीं होंगे... वह व्यक्ति कौन है, उस मीटिंग में राज बब्बर (टॉप मैनेजमेंट के एक बड़े अधिकारी और बॉलीवुड एक्टर) और दिनेश जी भी मौजूद थे। थोड़ी देर में मीटिंग खत्म हो गई। एस.पी. ने मुझे इशारे से बुलाकर पूछा, चलोगे क्या? मैं कुछ कहता कि माधवकांत जी ने मुझसे कहा, ‘जाइए, एस.पी. की तबियत खराब है।’ मैंने कहा, ‘भैया, मैं दिनेश जी से कहकर आता हूं।’ दिनेश जी से कहकर हम दोनों एक साथ निकले। कार में बैठते ही मैंने उत्सुकतावश पूछा, ‘भैया, आपकी तबियत ठीक है न? सवाल सुनते ही वे हंसने लगे। एक-दो मिनट तक वे हंसते ही रहे और मैं उनका हाथ पकड़कर आग्रह करता कि भैया, क्या हुआ, प्लीज बताइए न! ‘दांत में दर्द है’, कहकर फिर ठहाका मारकर हंसने लगे एस.पी.। अब तक मैं समझ नहीं पाया। मैंने फिर पूछा, भैया, प्लीज बताइए।’ उन्होंने कहा, आज अंतिम दिन है।’ मैं चौंका। कुछ पूछता, तभी उन्होंने कहा, ‘तुम ही कहते हो कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। फिर अब चौंक क्यों हो रहे हो।’ उन्होंने मेरा जूता मेरे ही सर पर दे मारा। उस दिन उनका मूड कुछ ज्यादा ही रोमांचित था। लोगों को नौकरी छोड़ते वक्त कष्ट होता है, लेकिन उस दिन मैंने देखा कि एस.पी. के चेहरे पर गजब की खुशी थी। एस.पी. की उस दिन की वह हंसी और उनका खुशनुमा चेहरा मुझे आज भी रोमांचित कर देता है। रास्ते भर उन्होंने इधर-उधर की थोड़ी बात की। मुझे घर के पास छोड़कर वे अपने घर चले गए और मैं अपने घर चला गया।
एस.पी. कपिल देव की एजेंसी छोड़ चुके थे, इसलिए घर पर ही थे। दूसरे दिन मैंने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने घर पर बुलाया। घर पहुंच कर मेरा पहला सवाल यही था कि भैया क्या हुआ था, बताइए प्लीज। उन्होंने कहा, तुम टेंशन के मारे रात भर सो नहीं पाए होगे, लेकिन मेरी नींद बहुत अच्छी रही, कहकर शिखा भाभी की तरफ देखा और कहा, क्यों शिखा, फिर हंसने लगे। अब मैंने उनसे फिर कहा, भैया, क्यों मजाक कर रहे हैं? बताइए न, क्या हुआ? फिर उन्होंने कहा, माधवकांत ने मुझसे पहले दिन कहा कि एस.पी. साहब, आप कुर्ते-पायजामे में आए हैं। यहां तो पाबंदी है। मैंने तुरंत कहा कि माधव जी, यहां चड्ढी-बनियान पहनकर आता, तो ज्यादा मजा आता! माधव जी कुछ नहीं बोल पाए। चुपचाप चले गए। फिर शाम को माधवकांत जी ने कहा कि हमें तो रात को 4, 5 बजे तक रुकना पड़ता है। मैंने कहा कि मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा है। इस तरह से माधवकांत जी ने मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ में चल रहे कई डरावने पहलुओं से परिचित करवाया, अनुशासन के नाम पर वहां होने वाली ज्यादतियों से परिचित करवाया। दरअसल, माधवकांत जी नहीं चाहते थे कि मैं जॉइन करूं, इसीलिए जॉइन करने से पहले ही मुझे डराने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि मैंने दूसरे ही दिन सोच लिया था कि यहां व्यर्थ समय नष्ट करने का कोई फायदा नहीं। फिर भी मैंने सोचा कि दो दिन और देखते हैं। मुझे समझ में आ गया था कि जिस पत्रकारिता की नींव हमने रखी थी, वहां रह कर पूरी नहीं हो सकती। इसीलिए उस दिन मीटिंग में न बोलने का निर्णय मैंने पहले ही कर लिया था।’ दरअसल, उन्होंने बाद के दिनों में कभी मुझे समझाते हुए कहा था कि शब्द वहीं खर्च करो, जहां उसका दाम मिले, जहां उसका सम्मान हो और जहां उन शब्दों को और उन शब्दों के भावों को तरजीह दी जाए।
दरअसल, एस.पी. को पता था कि सुब्रत रॉय की मीटिंग में रॉय साहब ही बोलते हैं और सब ‘मूकदर्शक’ बन कर सुनते हैं, लेकिन एस.पी. प्रवचन सुनना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। फिर भी इसलिए गए, ताकि उन्हें मीटिंग में क्या बोला जाता है, पता चले। उनसे कई और विषयों पर बातचीत होने के बाद मैं ‘राष्ट्रीय सहारा’ चला गया। दिनेश जी ने मुझसे एस.पी. के छोड़ने का कारण पूछा और कई लोगों ने भी इस तरह की पूछताछ की। मैं सबको यही कह कर टाल गया कि मुझे नहीं पता। सुब्रत रॉय साब ने भी मुझसे एस.पी. के छोड़ने का कारण पूछा, लेकिन मैंने सबसे यही कहा कि उनकी तबियत अचानक खराब होने के कारण वह नहीं आये। हालांकि न चाहते हुए भी मैं 15 दिनों तक ‘नवभारत टाइम्स’ से छुट्टी लेकर ‘राष्ट्रीय सहारा’ जाता रहा। मेरा उस दिन आखिरी दिन था। 10 जून। उसी दिन मुझे वहां से विदा लेना था। दस जून को ही सुब्रत रॉय साहब का जन्मदिन है। मुझे पता था, फिर भी मैं वहां उसी दिन छोड़ना चाहता था। मैं जब सुब्रह रॉय साब से मिलने उनके दरबार पहुंचा, हां वह दरबार जैसा ही हॉल था, उनके रूम में गया, तो देखा कि वहां दिनेश जी भी बैठे हुए हैं। मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है। सुब्रत रॉय साब ने मुझसे पूछा, बांग्ला में ...एकला कथा बोलते चाव कि ...अकेले बात करना चाहते हो क्या ... मैंने कहा, नहीं दिनेश जी तो आपके प्राण हैं। प्राण को कैसे अलग करके बात करूं! मेरा जवाब सुनकर दोनों हंसने लगे। और उसके बाद मुझे बैठने को कहा।
मैंने कहा, मुझे आज जाना है। मुझे आज्ञा दें। उन्होंने कहा, क्या तुम्हें माधव ने कुछ कहा है। मैंने कहा नहीं, लेकिन यहां राजनीति बहुत है और राजनीति मुझे आती नहीं। उन्होंने समझाते हुए कहा कि तुम तो पढ़े लिखे हो। कुर्सी तो मिल जाती है, लेकिन कुर्सी को बचाने के लिए आजीवन राजनीति करनी पड़ती है। तुम यहां भविष्य के संपादक हो। थोड़ा वेट करो! यहां सफाई करनी है। उस सफाई में तुम हमारी मदद करो। तभी दिनेश जी ने बीच में टोकते हुए कहा, तुम्हें यहां इसीलिए लाया गया है कि तुम अखबार को सुधारो। तुम्हारी एक कोशिश तो बेकार गयी, एस.पी. नहीं आये लौटकर, अब तुम भी जाना चाहते हो! हमें पता है कि माधव तुम्हें परेशान कर रहा है, उसे भगाना है। तुम कहीं मत जाओ। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी और वहां से निकल आया।
दरअसल, वी.जी. जिंदल उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ के निदेशक थे। उनसे मैंने कह दिया था कि मैं ‘राष्ट्रीय सहारा’ 15 दिनों के लिए एस.पी. के साथ जा रहा हूं। 15 दिन बाद मैं दोबारा नवभारत टाइम्स लौट आया। लौटने के बाद एक दिन मुझे एस.पी. ने घर बुलाया। कहा, तुम चाहते हो कि तुम हमेशा मेरे आसपास रहो। मैं टाइम्स टीवी में कल से जॉइन कर रहा हूं। अब मैं तुम्हारी बिल्डिंग से एक बिल्डिंग पहले बैठूंगा। फिर उन्होंने टाइम्स टीवी जॉइन किया। यहीं से टीवी के काम की बारीकियां, कैमरा आदि का ज्ञान उन्हें हुआ, लेकिन टाइम्स टीवी में उनका मन नहीं लग रहा था, क्योंकि टाइम्स टीवी के कार्यक्रमों के दर्शकों की संख्या बहुत कम थी। उसी दौरान एक दिन अभीक सरकार ने एस.पी. को बुलाकर ‘टेलीग्राफ’ (कोलकाता से निकलने वाला अंग्रेजी दैनिक) में राजनीतिक संपादक बनने का ऑफर दिया। टाइम्स टीवी छोड़कर उन्होंने ‘टेलीग्राफ’ जॉइन कर लिया।’ उस दिन भी एस.पी. भैया ने मेरी तारीफ करते हुए मुझसे कहा कि तुम ठीक कहते हो। जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। अभीक बाबू ने मुझे जिस सम्मान के साथ बुलाया, वह सम्मान कहीं और नहीं मिलता। अब तो केवल टेलीग्राफ में ही मुझे 90 हजार मिल रहे हैं। बीबीसी का पैसा जोड़कर लगभग डेढ़ लाख की कमाई हो जाती है। तुम्हारे भगवान को अब मैं मानने लगा हूं और उन्होंने इसके बाद गणेश जी की एक मूर्ति घर में रख ली।
सहाराश्री को भावभीनी श्रद्धांजलि !
( यह वरिष्ठ पत्रकार के निजी विचार हैं, जोकि उनकी किताब 'शिला पर आखिरी अभिलेख' का एक हिस्सा है। कुछ हिस्सों का संपादन करके लेखक ने दोबारा से लिखा है।)
वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।
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Samachar4media Bureau
शमशेर सिंह, वरिष्ठ पत्रकार।
साल 2025 मीडिया और पत्रकारिता के लिए तेज़ बदलावों, नई तकनीकों और नई आदतों का साल बनकर सामने आया। डिजिटल न्यूज़ कंजम्पशन में लगभग 22 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई, जिसने साफ कर दिया कि दर्शक अब परंपरागत माध्यमों से आगे निकल चुका है।
मोबाइल फ़र्स्ट रिपोर्टिंग ने न्यूज़ रूम के काम करने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया। अब खबरों का निर्माण कैमरों से नहीं, बल्कि हथेली में मौजूद स्मार्टफोन से हो रहा है। वर्नाकुलर और हाइपर-लोकल पत्रकारिता में भी रिकॉर्ड ग्रोथ देखने को मिली। यह संकेत है कि दर्शक अब बड़ी सुर्खियों से ज़्यादा अपने आसपास की सच्चाइयों में दिलचस्पी ले रहा है।
गांव, कस्बे, शहर और मोहल्ले की खबरें अब राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन रही हैं। न्यूज़ की स्पीड पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ हो गई है और प्लेटफ़ॉर्म भी लगातार बदल रहे हैं। लेकिन 2025 सिर्फ़ विकास का साल नहीं था, इसने आने वाले खतरे की चेतावनी भी दी।
फेक न्यूज़ में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी, एआई-निर्मित कंटेंट का दुरुपयोग, डीपफेक वीडियो और सोशल मीडिया का दबाव, इन सबने पत्रकारिता की साख को गहरी चुनौती दी। कई मौकों पर वायरल होने की होड़ में तथ्य पीछे छूटते दिखे, और भरोसा कमजोर पड़ा।
अब नज़र 2026 पर है। यह साल 'डिजिटल + डेटा + एआई' का साल होगा। पत्रकारिता और ज़्यादा डिजिटल-फ़र्स्ट, वीडियो-हेवी और एआई-ड्रिवन होती जाएगी। एआई टूल्स काम की रफ्तार को कई गुना बढ़ा देंगे, लेकिन साथ ही गलत सूचना का खतरा भी उतना ही बढ़ जाएगा।
2026 में पत्रकारिता का असली इम्तिहान यही होगा। तेज़ भी रहना है, और सही भी। स्पीड और फैक्ट्स के बीच संतुलन सबसे बड़ी चुनौती बनेगा। 2025 ने रास्ता दिखाया था, 2026 यह तय करेगा कि मीडिया तकनीक को अपनाते हुए जनता का भरोसा बनाए रख पाता है या नहीं। आने वाला साल सिर्फ़ तकनीकी बदलाव का नहीं, पत्रकारिता की विश्वसनीयता की अग्निपरीक्षा का साल होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करें।
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Samachar4media Bureau
प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।
इन दिनों सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन या समय बिताने का साधन नहीं रह गया है। सही मायनों में यह शक्तिशाली डिजिटल आंदोलन है, जिसने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मंच दिया है। छोटे गाँवों और कस्बों के युवा भी वैश्विक दर्शकों तक पहुँच रहे हैं। एक साधारण-सा मोबाइल फोन अब दुनिया से संवाद का प्रभावशाली माध्यम है। इस परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स केवल तकनीकी क्रिएटर नहीं हैं, बल्कि वे डिजिटल युग के नेता, कथाकार और समाज के प्रेरक बन गए हैं। उनकी एक पोस्ट सोच बदल सकती है, एक वीडियो नया रुझान बना सकता है और एक अभियान समाज के भीतर सकारात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रारंभ कर सकता है।
यह दुधारी तलवार है, अचानक हम प्रसिद्धि के शिखर पर होते हैं और एक दिन हमारी एक लापरवाही हमें जमीन पर गिरा देती है। हमारा सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिए इस राह के खतरे भी क्रिएटर्स से समझने होंगे। सोशल मीडिया की बढ़ी शक्ति के कारण आज हर व्यक्ति यहां दिखना चाहता है। बावजूद इसके हर शक्ति के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी जुड़ जाती है। करोड़ों लोगों तक पहुँचने वाला प्रत्येक शब्द, प्रत्येक विचार और प्रत्येक दृश्य अपने आप में एक संदेश है। इसलिए यह आवश्यक है कि ट्रोलिंग, फेक न्यूज़ और नकारात्मकता के शोर के बीच सच, संवेदनशीलता और सकारात्मकता की आवाज़ बुलंद हो।
कंटेंट का लक्ष्य केवल वायरल होना नहीं, बल्कि मूल्यवान होना भी है। लोकप्रियता से अधिक जरूरी यह है कि सामग्री समाज को बेहतर बनाए, नागरिक विवेक को विकसित करे और संवाद की संस्कृति को मजबूत करे। पारंपरिक मीडिया की बंधी-बंधाई और एकरस शैली से अलग हटकर जब भारतीय नागरिक इस पर विचरण करने लगे तो लगा कि रचनात्मकता और सृजनात्मकता का यहां विस्फोट हो रहा है। दृश्य, विचार, कमेंट्स और निजी सृजनात्मकता के अनुभव जब यहां तैरने शुरू हुए तो लोकतंत्र के पहरुओं और सरकारों का भी इसका अहसास हुआ।
आज वे सब भी अपनी सामाजिकता के विस्तार के लिए सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं भी कहा कि “सोशल मीडिया नहीं होता तो हिंदुस्तान की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता।” सोशल मीडिया अपने स्वभाव में ही बेहद लोकतांत्रिक है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग की सीमाएं तोड़कर इसने न सिर्फ पारंपरिक मीडिया को चुनौती दी है वरन् यह सही मायने में आम आदमी का माध्यम बन गया है। इसने संवाद को निंरतर, समय से पार और लगातार बना दिया है। इसने न सिर्फ आपकी निजता को स्थापित किया है, वरन एकांत को भी भर दिया है।
यह देखना सुखद है कि युवा क्रिएटर्स महानगरों से आगे निकलकर आंचलिक भाषाओं, ग्रामीण कथाओं और लोक संस्कृति को विश्व के सामने ला रहे हैं। यह भारत की जीवंत आत्मा है, जो अब डिजिटल माध्यमों के द्वारा वैश्विक स्तर पर स्वयं को व्यक्त कर रही है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और वोकल फॉर लोकल जैसी योजनाओं की सफलता काफी हद तक इसी पर निर्भर करती है कि सोशल मीडिया की यह नई पीढ़ी इन्हें किस सहजता और स्पष्टता के साथ आम जनता तक पहुँचाती है। सोशल मीडिया अब शिक्षा, उद्यमिता, जागरूकता और सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है।
ब्रांड्स आपकी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन समय की मांग यह है कि आप स्वयं भी एक जिम्मेदार और विश्वसनीय ब्रांड के रूप में विकसित हों। सरकार और समाज के बीच भी सोशल मीडिया सेतु का काम रहा है क्योंकि संवाद यहां निरंतर है और एकतरफा भी नहीं है। सरकार के सभी अंग इसीलिए अब सोशल प्लेटफार्म पर हैं और अपने तमाम कामों में क्रिएटर्स की मदद भी ले रहे हैं। सोशल मीडिया एक साधन है, परंतु गलत दिशा में प्रवाहित होने पर यह एक खतरनाक हथियार भी बन सकता है। यह मनोरंजन का माध्यम है, पर समाज-निर्माण का आयाम भी इसके भीतर निहित है।
यह दोहरा स्वरूप अवसर भी प्रदान करता है और चुनौती भी। सोशल मीडिया उचित दृष्टिकोण के साथ उपयोग हो तो वह ‘ग्लोबल वॉयस फॉर लोकल इशूज़’ बन सकता है। कंटेंट क्रिएटर्स की शक्ति यदि ज्ञान और जिम्मेदारी से न जुड़ी हो, तो वह समाज के लिए खतरनाक हो सकती है। सामाजिक सोच के साथ किए गए प्रयासों से सोशल मीडिया केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक सामाजिक मिशन का माध्यम भी हो सकता है। हमें सोचना होगा कि आखिर हमारे कंटेंट का उद्देश्य क्या है। क्या सिर्फ आनंद और लाइक्स के लिए हम समझौते करते रहेंगें।
सोशल मीडिया की चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। फेक न्यूज़, तथ्यहीन दावे और सनसनीखेज प्रस्तुति विश्वसनीयता के संकट को जन्म दे रहे हैं। एल्गोरिद्म की मजबूरी क्रिएटर्स को रचनात्मकता से दूर ले जाकर केवल ट्रेंड के पीछे भागने के लिए विवश कर रही है। लाइक्स, फॉलोअर्स और व्यूज़ की अनवरत दौड़ मानसिक तनाव और आत्मसम्मान के संकट को बढ़ा रही है।
ध्रुवीकरण और ट्रोल संस्कृति समाज के ताने-बाने को कमजोर कर रही है। इन परिस्थितियों में क्रिएटर्स के सामने तीन मार्ग हैं, ट्रेंड का अनुकरण करने वाला कंटेंट क्रिएटर, नए ट्रेंड स्थापित करने वाला कंटेंट लीडर या समाज को दिशा देने वाला कंटेंट रिफॉर्मर।
जिम्मेदार क्रिएटर की पहचान सत्य, संवेदना और सामाजिक हित से होती है। विश्वसनीय जानकारी देना, सकारात्मक संवाद स्थापित करना, आंचलिक भाषाओं और स्थानीय मुद्दों को महत्व देना, जनता की समस्याओं को स्वर देना और स्वस्थ हास्य तथा मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखना आज की डिजिटल नैतिकता के प्रमुख तत्व हैं। वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर दो तरह के लोग सक्रिय दिखाई देते हैं, एक वे जो समाज को बाँटते हैं और दूसरे वे जो समाज को जोड़ते हैं। विश्वास है कि नई पीढ़ी जोड़ने वालों की भूमिका निभाएगी।
आपके पास केवल कैमरा या रिंग लाइट नहीं है; आपके पास समाज को रोशन करने की रोशनी है। आप वह पीढ़ी हैं जो बिना न्यूज़रूम के पत्रकार, बिना स्टूडियो के कलाकार और बिना मंच के विचारक हैं। जाहिर है तोड़ने वाले बहुत हैं अब कुछ ऐसे लोग चाहिए जो देश और दिलों को जोड़ने का काम करें। आपमें परिवर्तन की शक्ति है। यदि आप सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ अपनी भूमिका निभाएँ, तो डिजिटल परिदृश्य को अधिक संवेदनशील, अधिक सकारात्मक और अधिक प्रेरणादायक बना सकते हैं।
महाभारत का संदेश यहाँ स्मरणीय है, युधिष्ठिर सत्यवादी थे, पर कृष्ण सत्यनिष्ठ थे। सत्य कहना ही पर्याप्त नहीं है; सत्य के प्रति निष्ठा और समाज के हित में समर्पण ही असली धर्म है। सोशल मीडिया की दुनिया में यही दृष्टि हमें प्रभावशाली और विश्वसनीय बनाएगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।
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Samachar4media Bureau
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
वंदे मातरम् हर कसौटी पर सौ टंच खरा उतरता है। वंदे मातरम् के पहले दो पद तो ऐसे है कि जिन्हें भारत ही नहीं दुनिया का कोई भी राष्ट्र अपना राष्ट्रगीत घोषित कर सकता है। इस अर्थ में वंदे मातरम् विश्व गीत हैं। वंदे मातरम् में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मुसलमान विरोधी या इस्लाम विरोधी कहा जाए।
वंदे मातरम् को हिंदू धर्म से सिर्फ इसलिए जोड़ दिया गया क्योकि बंकिमचंद चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ में उसे सन्यासियों से गवाया है और गाने वाले संन्यासी हिंदू थे। वंदे मातरम् बंकिमचंद्र ने 1875 में लिखा। यह “बंग दर्शन” पत्रिका में पहले छपा बाद में 1882 में आनंद मठ में इस गीत का जिक्र हुआ है।
इस गीत को बंगाल के हिंदू और मुसलमान मिलकर गाते थे। यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे देश का प्रेरणा बना। वंदे मातरम् को पहली बार 1896 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। उसकी अध्यक्षता अंजुमन ए इस्लाम के अध्यक्ष रहमतुल्लाह सयानी ने की थी।
कांग्रेस के मुसलमान नेता और कार्यकर्ता वंदे मातरम् गाते रहे। इस गीत का विरोध 1906 में मुस्लिम लीग बनने के बाद मुस्लिम लीग ने शुरू किया और मुस्लिम लीग के भड़काने पर मुसलमानों नें। जिन्ना ने भी तब विरोध किया जब मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और पाकिस्तान दिखने लगा।
मद्रास विधानसभा में वंदे मातरम् के साथ साथ कुरान की आयते पढ़ी जाने लगी। इस धर्मनिरपेक्ष गीत को धार्मिक गीत में तब्दील कर दिया गया। मुस्लिम लीग को राजनीति करनी थी। इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं था। मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करना था, सो वंदे मातरम् को आगे कर किया गया।
मुस्लिम लीग के मुसलमानों को मातृभूमि नहीं मात्र भूमि चाहिए थी और वह पाकिस्तान के रूप में मिली। पाकिस्तान गए मुसलमानों के पास कोई मातृभूमि नहीं थी इस कारण पाकिस्तान के राष्ट्रगान में मातृभूमि का जिक्र नहीं है। अल्लामा इकबाल ने लिखा है ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा‘।
ताज बीबी ने कन्हैया के घुंघराले बालों की तुलना अल्लाह के लाम से की है। रसखान ने कन्हैया के कुंजन पर चाँदी के महल वार दिए। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत की रचना की। नजीर बनारसी ने गंगा को अपनी मैया कह दिया तो क्या वे काफिर हो गए? बिस्मिल्लाह खान बाबा विश्वनाथ के मंदिर में बैठकर राग भैरव बजाते थे तो क्या वे हिंदू हो गए?
उनके जैसे अच्छे और सच्चे मुसलमान बनने में क्या दिक्कत है? भारत में मुसलमानों को जितना मुसलमान रहना है, उतना ही भारतीय भी रहना है। इस लक्ष्य की पूर्ति में वंदे मातरम् कही आडे नहीं आता। अच्छा मुसलमान बनने का मतलब मतांध मुसलमान बनना नहीं है। खुल कर और सबसे साथ मिलकर बोलिए ,वंदे मातरम्।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी।
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Samachar4media Bureau
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था।
उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है।
राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है।
कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।
ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है।
वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था।
जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था।
उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है।
बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे।
नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया।
हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे।
प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले?
ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
कौन सा AI मॉडल बेहतर है? इस समझने के लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam, हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं।
by
Samachar4media Bureau
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
ChatGPT को आए 30 नवंबर को तीन साल हो गए। यह पहला Generative AI App था। इसके बाद से AI का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। तीन साल पूरे होने पर ChatGPT बनाने वाली कंपनी Open AI ने जश्न मनाने के बजाय अपने लिए ख़तरे की घंटी बजाई है।
Open AI के संस्थापक सैम अल्टमैन ने कोड रेड जारी किया है। अपने स्टाफ़ से कहा कि सारे नए काम बंद कर ChatGPT पर ध्यान दें क्योंकि Google Gemini और Claude जैसे एप अब उसे टक्कर दे रहे हैं। आज हिसाब किताब करेंगे कि ChatGPT और Google Gemini में बेहतर कौन है।
कौन सा AI मॉडल बेहतर है। इसके लिए एक परीक्षा होती है। इसका नाम है Humanities Last Exam। हर बड़े विषय के एक्सपर्ट इसका पेपर बनाते हैं। ढाई से तीन हज़ार सवाल होते हैं। इस परीक्षा में Gemini का स्कोर 37% रहा है जबकि ChatGPT का 31%। यानी Gemini आगे निकल गया है।
पर परीक्षा से आपको क्या मतलब है। आपको तो रोज़ाना के कामों में इसे इस्तेमाल करना है। अगर एक लाइन में कहा जाए तो Gemini साइंस का अच्छा स्टूडेंट है जबकि ChatGPT लिबरल आर्ट्स का। Gemini आँकड़ों से खेल सकता है जबकि ChatGPT शब्दों से। इसका मतलब यह नहीं है कि ChatGPT गणित में कमजोर है या Gemini भाषा में।
जो तीन काम आपके लिए ChatGPT अच्छा कर सकता है वह है लिखना। ई-मेल, लेख। दूसरा काम है समझाना। किसी अच्छे टीचर की तरह यह मुश्किल विषय आसान भाषा में समझा सकता है। तीसरा काम है सलाहकार का। जैसे करियर को लेकर CV बनाने या इंटरव्यू की तैयारी को लेकर यह आपकी मदद कर सकता है।
अब बात करते हैं Gemini के तीन कामों के बारे में। यह आपको फ़ाइनेंस, बिज़नेस और इन्वेस्टमेंट जैसे विषयों में फ़ैसले में मदद कर सकता है। Google का रियल टाइम डेटा इसे बेहतर बनाता है। दूसरा काम है रिपोर्ट पढ़ने का।
यह Multi Modal है यानी अलग-अलग इनपुट जैसे फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो, टेक्स्ट को एक साथ समझने की क्षमता रखता है। सारी बातें लिखकर बताना ज़रूरी नहीं है। तीसरा काम जो यह बेहतर कर सकता है वह है ट्रैवल एजेंट का। आपके Gmail, कैलेंडर का उसे पता है। Google Flights से उसके पास रियल टाइम डेटा है जो आपको बुकिंग में मदद करेगा। सिर्फ पेमेंट आपको करना है।
फ़ैसला आपका है कि किसे चुनना है। दोनों की खूबियाँ आपको बता दी गई हैं। मेरी सलाह है कि यूज़ करना शुरू कीजिए। यह ध्यान रखना होगा कि AI गलती कर सकता है। उसे सब पता नहीं है। परीक्षा में उसका स्कोर पासिंग परसेंट पर ही है फ़िलहाल।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था।
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आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
भारतीय विमानन उद्योग पिछले तीन दशकों से 'उड़ने की महत्वाकांक्षा और गिरने की मजबूरी' दोनों का प्रतीक रहा है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद निजी एयरलाइंस का दौर शुरू हुआ। लोगों ने पहली बार एयर-ट्रैवल को राजसी विलासिता से निकालकर आम मध्यम वर्ग की पहुँच में आते देखा। लेकिन यह कहानी उतनी सरल नहीं थी।
जहाँ एक ओर इंडियन एयरलाइंस और बाद में एयर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियाँ भ्रष्टाचार, खराब प्रबंधन और राजनीतिक दख़ल से लगातार घाटे में डूबी रहीं, वहीं निजी क्षेत्र की किंगफिशर, जेट एयरवेज, सहारा एयरलाइंस और अन्य ब्रांड शुरुआती चमक-दमक के बाद दिवालियेपन, कर्ज़, अनियमितताओं और जाँचों में फँसते चले गए।
आज, जब इंडिगो जो कभी भारत का सबसे मजबूत और कुशल एयरलाइन मॉडल माना जाता था, लागत दबाव, परिचालन चुनौतियों और बाजार की उथल-पुथल से जूझ रहा है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर भारतीय विमानन में गड़बड़ी कहाँ है? और इस गड़बड़ी का ज़िम्मेदार कौन है—कंपनी मालिक, रेगुलेटर, नीति-निर्माता या सम्पूर्ण तंत्र?
इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक—राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल—का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था। यही कारण था कि उद्योग में उन्हें “नये खिलाड़ी” माना गया, लेकिन उनकी रणनीति बेहद आक्रामक और पेशेवर थी। एक ही मॉडल के विमान (A320/A321), समय पर उड़ान, कम किराए और तेज़ी से बेड़ा बढ़ाने की रणनीतियों ने इंडिगो को 50% से अधिक घरेलू मार्केट शेयर तक पहुँचा दिया।
लेकिन आज इंडिगो नई चुनौतियों से जूझ रहा है। बढ़ती परिचालन लागत—ईंधन, हवाईअड्डा शुल्क और रखरखाव लागत में भारी वृद्धि, पायलट और केबिन कर्मचारियों की कमी, ड्यूटी के दबाव की स्थिति, हड़ताल जैसी तकनीकी समस्याएँ, इंजन विवाद के कारण सैकड़ों उड़ानें रद्द, विमान ग्राउंडेड। अंतरराष्ट्रीय विस्तार में अनिश्चितता।
फिर प्रतिस्पर्धा का नया दौर—टाटा समूह की एयर इंडिया और उसकी साथी सिंगापुर एयरलाइन्स, आकासा जैसी एयरलाइंस चुनौती दे रही हैं। वैसे एयर इंडिया भी पूरी तरह सफल नहीं हो रही है और चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं। इंडिगो को अभी “वित्तीय पतन” की स्थिति में नहीं कहा जा सकता, लेकिन लाभ में गिरावट और ऑपरेशनल गड़बड़ियाँ साफ संकेत देती हैं कि भारत के सबसे मजबूत ब्रांड को भी संकट से गुज़रने का खतरा है।
सरकारी एयरलाइंस के रूप में विमान सेवाओं का घाटे का सिलसिला कभी रुका ही नहीं। असफलताओं के कई कारण दशकों से सामने आते रहे, जैसे राजनीतिक दख़ल, ख़रीद–फ़रोख़्त में गड़बड़ी, महँगे विमान सौदे, अक्षम प्रबंधन, कर्मचारियों की अधिक संख्या, भ्रष्टाचार के आरोप और विदेशी रूट्स का दबाव। एयर इंडिया की हालत इतनी ख़राब थी कि उसे चलाने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये की सरकारी सब्सिडी और सहायता देनी पड़ती थी। अंततः 2022 में इसे टाटा समूह को बेचकर सरकार ने अपने कंधे हल्के किए।
निजी एयरलाइनों ने शुरुआत में चमचमाते विज्ञापनों, मॉडल-आधारित प्रचार और “लक्ज़री” की छवि से यात्रियों को लुभाया। लेकिन कई कंपनियों का पतन अव्यवस्थित बिज़नेस मॉडल, अनियंत्रित विस्तार, कर्ज़ और नियामकीय ढिलाई के कारण तेज़ हो गया। किंगफिशर को कभी भारत की “फाइव-स्टार एयरलाइन” कहा जाता था।
अत्यधिक खर्च, महँगा ब्रांडिंग मॉडल और गलत अधिग्रहण (Air Deccan) ने किंगफिशर को कर्ज़ के पहाड़ में धकेल दिया। करीब 7000+ करोड़ बैंक कर्ज़, टैक्स बकाया, कर्मचारियों के वेतन लंबित और कई जाँच और कानूनी विवाद से हालत ख़राब हुई। विजय माल्या पर धन शोधन और बैंक धोखाधड़ी के मामले दर्ज हुए, जिसके बाद वह देश छोड़कर चला गया और भारत के लिए “वित्तीय भगोड़े” का प्रतीक बन गए।
इसी तरह सहारा एयरलाइंस की विमान सेवाएँ 90 के दशक में काफी लोकप्रिय हुईं, लेकिन धीरे-धीरे वित्तीय विवाद और नियामकीय दबाव बढ़ते गए। बाद में यह कंपनी जेट एयरवेज को बेच दी गई। सहारा समूह के खिलाफ बड़े पैमाने पर सेबी के केस चले, और सुब्रत रॉय को लंबे समय तक जेल का सामना करना पड़ा।
जेट एयरवेज कभी भारत की सबसे प्रतिष्ठित निजी एयरलाइन थी, लेकिन 2015–2018 के बीच लागत बढ़ने, खतरनाक कर्ज़ और प्रबंधन विवादों ने इसे धराशायी कर दिया। मालिक नरेश गोयल पर वित्तीय अनियमितताओं, विदेशी फंडिंग संबंधी जाँच और मनी लॉन्ड्रिंग आरोप के मामले चले और वे जेल तक पहुँचे। जेट के बंद होने से लाखों यात्रियों, हजारों कर्मचारियों और सप्लाई-चेन कंपनियों को भारी नुकसान हुआ।
देश में हवाई सेवाओं को लेकर भारतीय विमानन नियामक और नागरिक उड्डयन मंत्रालय पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। समय पर हस्तक्षेप की कमी रही। कई एयरलाइनों के वित्तीय संकेत वर्षों तक खराब रहे, लेकिन नियामक ने देर से कदम उठाए। सर्दियों में कोहरा या कम विज़िबिलिटी में उड़ान के लिए पायलटों को विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है।
लेकिन यह प्रशिक्षण महँगा पड़ता है, इसलिए कई निजी एयरलाइन्स पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं करातीं। नियामक कई बार सलाह जारी करता रहा, परंतु कठोर कार्रवाई कभी नहीं की गई। सुरक्षा निरीक्षण सिर्फ “औपचारिकता” के रूप में किए जाते रहे। यही नहीं, दबाव में एयरलाइन लाइसेंस देने में जल्दबाज़ी की गई। व्यावसायिक मॉडल कमजोर होने के बावजूद कई कंपनियों को उड़ान की अनुमति दे दी गई।
इन कमज़ोरियों ने भारतीय विमानन को “उड़ान के पहले ही ख़तरे” में झोंक दिया। एक तथ्य यह भी है कि भारत की एयरलाइंस विदेशी लीज़िंग कंपनियों और डॉलर आधारित लागत पर अत्यधिक निर्भर हैं, जिससे वित्तीय जोखिम बढ़ता है। लेकिन जब भी कोई एयरलाइन बंद होती है, यात्रियों का पैसा फँसता है, टिकट रद्द होते हैं, किराए अचानक बढ़ जाते हैं, कर्मचारियों की नौकरियाँ जाती हैं। किंगफिशर, जेट और सहारा के बंद होने से जनता ने भारी नुकसान झेला। और यही चक्र दोहराया जा रहा है, बस नाम बदलते रहते हैं।
भारत के विमानन संकट की जड़ें, लागत बहुत अधिक, किराया बहुत कम। कंपनियाँ लंबे समय तक सस्ते टिकट देकर बाजार कब्जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नुकसान बढ़ता जाता है। डॉलर में लागत, रुपये में आय—ईंधन, लीज़िंग, इंजन, मेंटेनेंस—सब का भुगतान डॉलर में, लेकिन कमाई रुपये में होती है। डीजीसीए की निगरानी मजबूत नहीं रही है। सरकारी एयरलाइनों में तो यह स्थायी समस्या रही है।
टाटा समूह के हाथों में एयर इंडिया का पुनर्जीवन एक उम्मीद जगाता है। इंडिगो अभी भी एक बड़ी और महत्वपूर्ण एयरलाइन है, लेकिन उसे अपनी रणनीति नए दौर के अनुसार बदलनी होगी।
आकासा जैसी नई एयरलाइंस सादगी और दक्षता पर जोर दे रही हैं। लेकिन जब तक डीजीसीए वास्तविक निगरानी नहीं करेगा, पायलट प्रशिक्षण में सुधार नहीं होगा, वित्तीय पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी, राजनीति और विमानन का रिश्ता साफ नहीं होगा, कंपनियों के दिवालिया होने पर जनता को सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक भारत विमानन उद्योग उछाल और गिरावट के इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाएगा। विमानन सिर्फ उड़ान भरना नहीं है; यह उस भरोसे का प्रश्न है जिसे यात्री हर बार अपनी जान सौंपकर बनाते हैं। यदि यह भरोसा बार-बार टूटा, तो एयरलाइनें नहीं, बल्कि पूरा देश कीमत चुकाएगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे।
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रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
भारत और रूस ने विज़न 2030 आर्थिक और व्यापार सहयोग समझौते पर दस्तखत किया। इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यापार,पूंजी निवेश,आवागमन और उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में आपसी सहयोग को तेज करना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने उम्मीद जतायी कि दोनों देशों के बीच सालाना कारोबार 65 अरब डॉलर से बढ़ कर 100 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और रूस भारत को तेल की सप्लाई जारी रखने के लिए तैयार है।
अमेरिका के यूक्रेन शांति प्रस्ताव को ठुकराने के बाद पुतिन और मोदी की ये मुलाकात बहुत महत्वपूर्ण थी। मोदी के लिए भी पुतिन के आगमन का समय बहुत खास था। अमेरिका ने भारत पर टैरिफ असामान्य तरीके से बढ़ाया है। टैरिफ बढ़ाने के लिए भारत के रूस से तेल खरीदने को बहाना बनाया है। कुछ हफ्ते पहले चीन में मोदी, शी जिनपिंग और पुतिन की तस्वीरें देखकर अमेरिका के तेवर ढीले हुए थे।
रक्षा के मामले में रूस भारत का सबसे विश्वसनीय दोस्त है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत अब रूस से नए हथियार खरीदेगा। रूस भारत को मिसाइल सप्लाई करेगा। भारत के एयर डिफेंस सिस्टम को मजबूत करने के लिए रूस मदद करेगा। भारत और रूस के बीच जो रक्षा सौदे होंगे, उनको लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी पाकिस्तान और चीन को है। कहने को तो ये रूस और भारत की सालाना समिट थी लेकिन पूरी दुनिया में इस मीटिंग की चर्चा है।
रूस और भारत अच्छे दोस्त हैं, अच्छे ट्रेड पार्टनर हैं। रक्षा के मामलों में एक दूसरे के भरोसेमंद दोस्त हैं लेकिन दोनों मुल्कों के रिश्ते मजबूत हुए, मोदी और पुतिन की व्यक्तिगत दोस्ती की वजह से। प्रधानमंत्री बनने के बाद आज नरेंद्र मोदी की पुतिन के साथ 17वीं मुलाकात हुई। जब नरेंद्र मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे तो रूसी अधिकारी आश्चर्यचकित थे क्योंकि उन्हें पहले से नहीं बताया गया था कि मोदी पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट आएंगे।
जब पुतिन दिल्ली पहुंचे तो उनका स्वागत गर्मजोशी के साथ हुआ। ऐसा स्वागत किसी दोस्त के लिए होता है। प्रधानमंत्री मोदी प्रोटोकॉल की सीमा लांघकर पुतिन का स्वागत करने एयरपोर्ट पहुंचे और अपनी कार में बिठाकर प्रधानमंत्री आवास तक ले गए।
मोदी और पुतिन की अक्सर फोन पर बात होती है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल भी मॉस्को जाकर कई बार पुतिन से मिल चुके हैं। इसीलिए भारत और रूस दोनों मिलकर एक महाशक्ति बन सकते हैं और एक नया वर्ल्ड आर्डर तैयार कर सकते हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं।
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गणपति स्वामिनाथन, इंडिपेंडेंट कम्युनिकेशन कंसल्टेंट ।।
AU Small Finance Bank इन दिनों काफी चर्चा में है। वजह है इसका नया ऐड कैंपेन, जिसमें रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना नजर आ रहे हैं। इससे पहले बैंक ने आमिर खान और कियारा आडवाणी के साथ भी काम किया था। इतने जल्दी-जल्दी चेहरे बदलने से जाहिर है लोगों की नजर इस पर जाती है। और AU अकेला नहीं है- फेडरल बैंक के लिए विद्या बालन, ICICI के लिए अमिताभ बच्चन, HSBC के लिए विराट कोहली और एक्सिस बैंक के लिए दीपिका पादुकोण… बैंकिंग सेक्टर को बॉलीवुड का सहारा लेना जैसे आम बात हो गई है। मगर बड़ा सवाल ये है कि आखिर फिल्म स्टार बैंक जैसे भरोसे और सावधानी पर आधारित सेक्टर के लिए क्या कर पाते हैं?
सच कहें तो बैंकिंग कोई मजेदार या ग्लैमरस कैटेगरी नहीं है। सेविंग्स अकाउंट और FD रेट्स में ग्लैमर ढूंढना मुश्किल है। ऐसे में सेलिब्रिटीज इन ads में जान डाल देते हैं। उनकी मौजूदगी से बैंक भीड़ में अलग दिखते हैं और कैंपेन को तुरंत पहचान मिल जाती है।
सेलिब्रिटीज पहले से ही लोगों की नजरों में भरोसा, सफलता, आत्मविश्वास और स्थिरता जैसी इमेज लेकर आते हैं। बैंक कोशिश करते हैं कि ये इमेज उनके ब्रांड पर भी चिपक जाए। AU जैसे नए बैंक के लिए बड़े स्टार्स के साथ काम करना यह दिखाने का तरीका भी है कि “हम छोटे नहीं हैं, बड़े खेल में आ चुके हैं।”
यहीं मामला मुश्किल हो जाता है। एक बैंक में भरोसा तब बनता है जब वह सालों तक लोगों का पैसा सुरक्षित रखे, मुश्किल समय में साथ दे, और रोजमर्रा की सेवाओं में भरोसेमंद साबित हो।
सेलिब्रिटी ध्यान जरूर खींच सकता है, लेकिन वह किसी को अपनी लाइफ सेविंग्स बदलने के लिए मनाए- ये कम ही होता है।
सेलिब्रिटी सिर्फ “पहली मुलाकात” को आसान बनाते हैं। भरोसा तो ब्रांच के काउंटर, मोबाइल ऐप या मुश्किल समय में बैंक की मदद से बनता है—30 सेकंड के खूबसूरत ऐड से नहीं।
अक्सर यहीं गलती हो जाती है। मान लीजिए बैंक की इमेज बहुत गंभीर और स्थिर है, और सेलिब्रिटी बहुत ज्यादा ग्लैमरस या फन-लविंग। तब ऐड अच्छा तो लगता है, लेकिन दिल को छू नहीं पाता—कनेक्शन मिस हो जाता है।
अच्छे पार्टनरशिप वहीं बनती हैं, जहां फिट सही हो:
अमिताभ बच्चन और ICICI की मजबूत, भरोसेमंद इमेज
विद्या बालन और फेडरल बैंक की सीधी, अपनापन भरी टोन
दीपिका और एक्सिस बैंक की स्टाइलिश, आधुनिक ब्रांडिंग
AU का आमिर–कियारा से रणबीर–रश्मिका की तरफ जाना शायद उसकी नई योजनाओं को दिखाता है- उन्हें अब और युवा, डिजिटल और आधुनिक दिखना है।
ज्यादातर बैंक सेलिब्रिटीज को लंबे समय के लिए नहीं रखते। उन्हें बस एक तेज, जोरदार कैंपेन चाहिए होता है- नई मार्केट में प्रवेश, किसी नए प्रोडक्ट का लॉन्च, या ब्रांड रिफ्रेश के समय। लेकिन मीडिया का खर्च इतना बढ़ गया है कि लंबे समय तक ऐसे ऐड चलाना मुश्किल हो गया है।
इसके अलावा, किसी स्टार को सालों तक रखना महंगा भी है, और अगर उस स्टार से जुड़ा कोई विवाद हो जाए तो बैंक की इमेज पर खतरा हो सकता है। इसलिए बैंक चाहते हैं छोटी, लेकिन प्रभावी साझेदारी।
सेलिब्रिटीज बैंक को खास तौर पर दिखाते हैं। वे कैंपेन में ऊर्जा, आकर्षण और ताजगी लाते हैं। लेकिन वो भरोसा नहीं बना सकते।
वह दरवाजा खोल देते हैं- अंदर बुलाने का हक बैंक को अपने काम से कमाना पड़ता है।
लंबे समय में बैंक की साख उन्हीं चीजों से बनती है जो दिखती नहीं हैं- बेहतर सेवा, तेज डिजिटल सुविधाएं, साफ-सुथरी कम्युनिकेशन और सबसे बढ़कर ग्राहक को ये भरोसा कि उसका पैसा सुरक्षित है।
(लेखक MASTERING THE MESSAGE नामक किताब के लेखक हैं और ये उनके निजी विचार हैं)
गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते।
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Samachar4media Bureau
नीरज बधवार, पत्रकार, लेखक।
पहले वनडे में टीम इंडिया साढ़े तीन सौ के करीब रन बनाकर हारने वाली थी और दूसरे वनडे में तो वो 359 रन बनाकर भी हार ही गई। कारण बड़ा सिंपल है। आप स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ों की इज़्ज़त नहीं करते और आपने यहाँ भी 'bits and pieces' वाले प्लेयर भर रखे हैं।
गंभीर बाबू को ये बात कब समझ आएगी कि जडेजा और सुंदर आपको बीच में कुछ टाइट ओवर तो दे सकते हैं, मगर वो अपनी बॉलिंग से आपको मैच नहीं जिता सकते। हर्षित जैसा गेंदबाज़ कभी-कभार आपको विकेट दिला सकता है, लेकिन वो इतना 'inconsistent' है कि वो कभी भी आपका मुख्य गेंदबाज़ नहीं बन सकता।
अर्शदीप अच्छे बॉलर हैं, लेकिन वनडे फॉर्मेट में वो बेहद नए हैं। सिराज और शमी जैसे गेंदबाज़ों के होते प्रसिद्ध कृष्णा टीम में क्यों हैं, इस बात पर तो खुद प्रसिद्ध कृष्णा भी हैरान हैं। मैं इस बात पर भी हैरान हूँ कि वरुण चक्रवर्ती जैसा क्लास स्पिनर वनडे टीम से क्यों बाहर है।
आप उनकी जगह जडेजा या सुंदर को इसलिए खिला रहे हैं कि वो बैटिंग भी कर सकते हैं, लेकिन भाई अगर आपके पास मैच विनर बॉलर हो तो वो ढाई सौ रन भी डिफेंड करवा सकता है। जिस दिन आप आठ बल्लेबाज़ खिलाकर साढ़े तीन सौ रन बनाने के बजाय, चार क्लास बॉलर खिलाकर 250 रन डिफेंड करने की सोचने लगेंगे, तो आपको अपने आप समझ आ जाएगा कि किसे टीम में रखना है और किसे नहीं।
मगर जब कोच के सिर पर थके हुए ऑलराउंडर्स को टीम में भर्ती करने का भूत सवार हो और स्पेशलिस्ट गेंदबाज़ जैसी चिड़िया उसके शब्दकोष में शामिल ही न हो, तो टीम का वही हाल होगा जो टेस्ट के बाद वनडे सीरीज़ में हुआ है।
जागो, बीसीसीआई जागो, इससे पहले कि गंभीर अर्शदीप और कुलदीप को टीम से निकालकर ग्यारहवें नंबर तक बैटिंग मज़बूत करने के लिए उनकी जगह शार्दुल ठाकुर और नीतीश कुमार रेड्डी को न खिला ले।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है।
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हाल ही में दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुई। ‘द फैमिली मैन’ का सीजन तीन और महारानी का सीजन चार। महारानी सीजन चार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज हुई। बिहार की राजनीति को केंद्र में रखकर बनी ये वेबसीरीज उस दौरन चर्चा में रही। प्रधानमंत्री कार्यालय के खबर रोकने के लिए फोन किए जाने के दृश्य को लेकर चुनाव के दौरान विपक्षी ईकोसिस्टम के कुछ लोगों ने माहौल बनाने का प्रयास किया था।
इन दोनों सीरीज में समानता है। दोनों कहीं न कहीं राजनीति और उसके दाव-पेंच पर आधारित है। राजनीति के साथ-साथ अपराध और आतंकवाद भी समांतर कहानी के तौर पर चलती है। दोनों वेबसीरीज में लेखक ने पिछले दशकों की राजनीतिक घटनाओं को उठाया है और उसका काकटेल बनाकर एक काल्पनिक कहानी गढ़ने का प्रयास किया है।
ऐसी काल्पनिक कहानी जिसमें भारतीय राजनीति की कुछ घटनाएं तो दिखती हैं लेकिन उसका कालखंड मेल नहीं खाता है। कई प्रधानमंत्रियों के स्वभाव और उनके कालखंड में घटी घटनाओं को जोड़कर एक ऐसा प्रधानमंत्री बना दिया गया जिससे कि इसको काल्पनिक कहा जा सके। महारानी सीरीज में जिस प्रधानमंत्री को दिखाया गया है उसमें नरसिम्हाराव से लेकर अटल जी की छवि दिखती है।
इसी तरह से फैमिली मैन में महिला प्रधानमंत्री दिखाया गया है लेकिन घटनाएं अलग अलग दौर की जोड़ दी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है। दर्शकों के सामने ये चुनौती होती है कि वो राजनीति के पात्रों को सीरीज में पहचाने और फिर घटनाओं का आनंद ले।
एक और चीज जो दोनों वेबसीरीज में समान रूप से प्रमुखता से उपस्थित है। वो है इसका अंत। फैमिली मैन के सात एपिसोड देखने के बाद भी दर्शकों को पूर्णता का एहसास नहीं होता और एक जिज्ञासा रह जाती है कि आगे क्या? म्यांमार में आपरेशन के बाद तमाम भारतीय सिपाही और एजेंट भारत लौट आते हैं लेकिन नायक मनोज वाजपेयी म्यांमार की सीमा में ही अचेत होकर गिरते दिखते हैं। सीरीज समाप्त हो जाती है।
खलनायक की भूमिका निभा रहे जयदीप अहलावत भी फरार हो जाते हैं और दर्शकों के मन में प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि उसका क्या हुआ? वो भी घायल है। महारानी सीरीज में हुमा कुरैशी ने रानी भारती का किरदार निभाया है जिसको पहले सीजन से ही राबड़ी देवी से प्रेरित बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इस सीजन में वो प्रधानमंत्री बनना चाहती है लेकिन उसके मंसूबों पर प्रधानमंत्री जोशी पानी फेर देते हैं। राजनीति के इन चालों के बीच उसके बेटे जयप्रकाश भारती और उसके दोस्त की लाश मिलती है।
जयप्रकाश क्षेत्रीय दलों को रानी भारती के समर्थन केक लिए तैयार कर रहा था। रानी भारती की बेटी जिसको बिहार की मुख्यमंत्री दिखाया गया है उसको भी एक घोटाले का आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। इस सीरीज में भी कई घटनाक्रम भारतीय राजनीति से जुड़े हैं। रानी भारती की पार्टी के अधिकतर विधायक उसका साथ छोड़कर नई पार्टी बना लेते हैं।
रानी के विश्वस्त मिश्रा के नेतृत्व में बिहार में नई सरकार बनती है। ये दृष्य कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का विभाजन याद दिलाती है। रानी भारती के बड़े बेटे की लाश मिलती है, बेटी जो मुख्यमंत्री थी अब जेल में है। रानी बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। विदेश में पढ़ रहा उसका दूसरा बेटा उसके साथ खड़ा हो जाता है। रानी भारती को पता चलता है कि उसके बेटे की योजनाबद्ध तरीके से हत्या की गई है।
जब प्रधानमंत्री जोशी उसके पुत्र के निधन पर संवेदना प्रकट करने आते हैं तो वो उनसे कहती है कि जिस तरह से उसने अपने पति भीमा भारती के हत्यारों को सजा दी उसी तरह से वो अपने बेटे जयप्रकाश के हत्यारों को भी ढूंढ निकालेगी और सजा देगी या दिलवाएगी। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।
दोनों वेब सीरीज के अंत में दर्शकों को पूर्णता का अहसास नहीं होता है। ऐसा लगता है कि निर्माता या प्लेटफार्म अगले सीजन के लिए उत्सुकता बनाए रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि निर्माता और प्लेटफार्म दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने के लिए कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं ताकि दर्शकों को इस बात का अनुमान रहे कि अगले सीजन में कहानी आगे बढ़ेगी।
प्रश्न यही उठता है कि जो दर्शक सात और आठ एपिसोड देख रहा है और तीन या चार सीजन देख रहा है उसको पूरी कहानी के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी चाहिए। सीक्वल का एक तरीका तो ये भी हो सकता है जो साधरणतया फिल्मों में अपनाया जाता है। फिल्म दबंग या फिर एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है और टाइगर 3 को देखा जा सकता है। तीनों फिल्म अपने आप में पूर्ण है लेकिन सीक्वल की संभावना भी बनी हुई है।
पर वेब सीरीज तो जैसे दर्शकों के धैर्य की प्रतीक्षा लेना चाहते हैं। क्या दर्शकों को छह सात घंटे देखने के बाद कहानी की पूर्णता नहीं मिलनी चाहिए। इन दोनों सीरीज के आखिर में लगता है कि कुछ मिसिंग है। इस मीसिंग को सीक्वल की संभावना बताकर सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह का व्यवहार दर्शकों के साथ किया जाता रहा तो संभव है कि दर्शकों का वेब सीरीज से मोहभंग हो जाए। वेब सीरीज के लेखक को, फिल्म के निर्देशक को और उसको प्रसारित करनेवाले प्लेटफार्म को इसपर विचार करना चाहिए।
एक और बात जो इन वेब सीरीज से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि जिस कालखंड की कहानी दिखा रहे हैं उस कालखंड में वो सारी चीजें होनी चाहिए जो वेब सीरीज में दिखाई जा रही हैं। अगर 2005 के कालखंड की घटनाओं को मुंबई में घटित होते दिखा रहे हैं तो बांद्रा वर्ली सी लिंक कैसे दिखा सकते हैं। 2005 में तो वो बना ही नहीं था। उस कालखंड की कहानी दिखाते समय इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि उस समय ट्वीटर प्रचलन में था या नहीं।
अगर नहीं था तो फिर उस दौर की घटनाओं को ट्वीटर पर ट्रेंड करते हुए कैसे दिखा सकते हैं। ये छोटी बाते हैं लेकिन इनका अपना एक महत्व है। घटनाओं का कोलाज बनाने के चक्कर में इस तरह की छोटी पर महत्वपूर्ण भूल दिख जाती है जो लेखक और निर्देशक की सूझबूझ पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। आज के दौर की कई वेबसीरीज में इस तरह की घटनाएं आपको दिख जाएंगी।
कहानी जिस कालखंड में सेट होती है उस कालखंड की विशेषताओं का ध्यान रखना होता है। अलग अलग समय पर हुए प्रधानमंत्रियों के गुणों और अवगुणों को मिलाकर एक चरित्र तो गढ़ सकते हैं लेकिन उस दौर की स्थायी चिन्हों को नहीं बदल सकते। किसी पात्र को संसद भवन ले जाते हैं तो उसको नई संसद के गेट पर उतरते हुए दिखाना होगा ना कि पुरानी संसद के पोर्टिको में। काल्पनिकता को भी एक प्रकार की प्रामाणिकता की जरूरत होती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।