हृदय विदारक यह खबर ‘समाचार4मीडिया’ में पढ़कर दंग रह गया कि सहाराश्री यानी सुब्रत रॉय नहीं रहे। वह एक ऐसे इंसान थे, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया।
निर्मलेंदु साहा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
इन दिनों मैं कोलकाता में हूं। सुबह करीब-करीब आठ बजे अपने परम मित्रों को प्रणाम नमस्ते मैसेज भेजने के बाद, जब अचानक मैंने मेल चेक किया, तो हृदय विदारक यह खबर ‘समाचार4मीडिया’ में पढ़कर दंग रह गया कि सहाराश्री यानी सुब्रत रॉय नहीं रहे। वह एक ऐसे इंसान थे, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया। मैंने जिसे चाहा, उसे उन्होंने रख लिया। वह दिन मैं कभी भूल नहीं सकता कि जब वह मुझे सहारा में एंट्री लेते ही आगे बढ़कर गले लगा लेते और पूछते कि कैसे हो निर्मल।
सहाराश्री के निधन की खबर पढ़ते ही मुझे वो सब बातें याद आ गयीं, जब वह मेरे जैसे नाचीज को अपने पास बिठाकर पत्रकारिता पर जिस तरह से बातें किया करते थे। इसके साथ ही याद आ गये मेरे गुरु, मेरे मेंटर, मेरे पथप्रदर्शक एस.पी. सिंह और याद आ गये दिनेश चंद्र श्रीवास्तव जी, जिन्होंने मुझे गले से लगा लिया था, जिन्होंने मेरे कहने पर टीआरएफ के कई बच्चों को नौकरी दी। सच कहूं, तो एक पूरी की पूरी टीम को ही सहाराश्री ने ऐब्जर्ब कर लिया था। ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने के बाद किस तरह से एस.पी. सिंह सहारा पहुंचे और उसके बाद क्या हुआ, क्यों वे वहां केवल चार दिनों तक रहे, लेकिन मुझे मजबूरत 15 दिनों तक रहना पड़ा। वे यादें आज भी मेरे दिमाग में ताजी हवा की झोके की तरह हिचकोले खा रही हैं।
दरअसल, उस दिन समीर जैन से मिलने के बाद मैं बहुत खुश था। मैं खुश इसलिए भी था, क्योंकि मेरी एक अलग पहचान बन गयी थी और वह भी एक ही दिन में। अखबार को मैंने और नवभारत के सभी वरिष्ठ साथी मिलकर कई दिनों के अथक मेहनत के बाद मॉड्यूलर ले आउट के साथ लॉन्च करने में सक्षम हो पाये थे। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस टीम का लीडर मैं ही था। मेरे कंधों पर ही यह जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, लेकिन एस.पी. के नहीं होने के कारण खुशी का इजहार खुल कर नहीं कर सका, क्योंकि एस.पी. भैया बाहर गये हुए थे। कहीं-न-कहीं मन में एक ‘किंतु’ था। एस.पी. के बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। जब मैं समीर जैन से मिलने गया, तो वहां ‘नवभारत टाइम्स’ के दो-तीन वरिष्ठ पत्रकार मौजूद थे। समीर जैन से मिलकर अपने विभाग में लौटते ही सभी मुझे बधाई देने लगे। बधाई और प्यार मोहब्बत का यह सिलसिला दिनभर चलता रहा। शाम को एस.पी. का फोन आया। मुझसे नीरज, एस.पी. के पीए ने कहा कि एस.पी. का फोन है। मुझे पहले लगा कि एस.पी. हॉलीडे टूर से लौट आए हैं, लेकिन उनके साथ फोन पर बात की, तो पता चला कि वे दो दिन बाद आएंगे। फोन पर उन्होंने पूछा कि क्या हो रहा है। मैंने विस्तारपूर्वक सब बताया। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने फोन पर दोबारा कहा, निर्मल अब तुम्हारे भगवान पर मेरी आस्था और बढ़ गई है।’
उन्होंने कहा, ‘रविवार की सुबह घर आना।’ वे दो दिन बाद लौट आए। उस दिन शायद शनिवार था। एस.पी. ऑफिस नहीं आए। मैं रविवार को उनके घर गया। उन्होंने काफी बातें की। फिर कहा, निर्मल लगता है हम सबके अच्छे दिन आ रहे हैं। मैंने पूछा कि ऐसी क्या खास बात है। उन्होंने कहा, निर्मल खुद समीर जैन ‘नवभारत टाइम्स’ में रुचि ले रहे हैं। इसलिए अब लगता है कि हम जैसा अखबार निकालना चाहते हैं, वैसा संभव हो जाएगा।
दरअसल, एस.पी. ‘बेखौफ’ पत्रकारिता करना चाहते थे, जो वे कर नहीं पा रहे थे। उन्हें लगा कि समीर जैन के आते ही यह संभव हो जाएगा, इसलिए वे बहुत खुश थे। मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं देखा था! उस दिन मैं उनके घर तीन-चार घंटे तक था। उन्हें बेइंतहा खुश देख कर मैं बेहद ‘गदगद’ हो गया। उनका उस तरह से खुलकर हंसना और भाभी जी का उस हंसी में शामिल होना मुझे आज भी याद है। भाभी जी ने वहां से किचन की ओर जाते-जाते मुझसे कहा, ‘खाना खाकर जाना। आज मछली बनी है।’
अगले दिन से मैं अपने काम में फिर व्यस्त हो गया। उन्हीं दिनों अचानक एस.पी. ने एक दिन शाम को कहा कि घर जाने से पहले मिलकर जाना। कुछ लोग एस.पी. के सामने खड़े थे, इसलिए मैंने कुछ नहीं पूछा। मैंने जाने से पहले उन्हें इंटरकॉम पर फोन किया कि भैया, मैं जा रहा हूं। उन्होंने कहा, ‘मैं भी निकल रहा हूं। तुम नीचे मेरी गाड़ी के पास प्रतीक्षा करो।’ मैं तुरंत नीचे गया। थोड़ी देर बाद वे आए और मुझे कहा कि चलो, रास्ते में बताते हैं। गाड़ी में बैठने के बाद उन्होंने कहा, टीआरएफ (टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन) के तहत जिन लोगों ने पत्रकारिता का कोर्स किया है, उनके संबंध में डिसीजन हुआ है कि उन्हें इस बार ‘ऐब्जॉर्ब’ नहीं किया जाएगा।’ मैं चौंका, ऐसा कैसे हो गया! उन्होंने जवाब में उस समय बस इतना ही कहा, तुम्हारी दूसरे अखबारों में जान-पहचान बहुत है। कुछ अच्छे नवयुवक हैं, उन्हें एडजस्ट करवाओ। मेरी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मैं उन्हें कहीं-न-कहीं एडजस्ट करवाऊं!’ मैंने कहा कि ठीक है भैया।
दरअसल, हुआ यह था कि किसी लड़की को नौकरी दिलवाने के लिए मैं गोपाल टावर में दिनेश जी से मिलने गया था। उस लड़की का नाम मैं भूल गया। उसी लड़की ने मुझे बताया कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ अखबार बहुत जल्द निकलने वाला है। मैं वहां पहुंचा तो दिनेश जी ने मुझे ही ऑफर दे दिया। सुब्रत रॉय साब ने मुझे डबल सैलरी देने की बात कही। मैंने जवाब में कहा था कि 25000 रुपये भी देंगे, तो भी मैं एस.पी. सिंह को छोड़कर नहीं आऊंगा। हालांकि उस लड़की को तुरंत रख लिया गया था। यहीं से मेरी रॉय साब के साथ ट्यूनिंग बननी शुरू हो गयी। सच तो यही है कि मेरी एस.पी. सिंह के प्रति भक्ति देखकर रॉय साब खुश हो गये। जवाब से रॉय साहब और दिनेश जी अति प्रसन्न हुए। फिर मैंने एस.पी. को कहा, दिनेश चंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे इंसान हैं। उनसे बात करता हूं।’ उस दिन एस.पी. बहुत गंभीर थे, लेकिन उन्होंने और कुछ नहीं कहा। मेरी भी हिम्मत नहीं हुई कि उनसे पूछूं, ‘अचानक यह क्या हुआ कि.. मैं कुछ पूछ नहीं पाया! दरअसल, मुझे मालूम था कि जब वे खुलते हैं, तो बहुत खुलते हैं और जब वे गंभीर हो जाते हैं, तो बहुत गंभीर रहते हैं। हिम्मत नहीं होती थी कि उनसे बात करूं ! दरअसल, उनका वह गंभीर रूप देख कर हम सबकी घिग्घी बंद हो जाती थी।
एस.पी. को गंभीर देख कर मैं परेशान हो गया। उसी दिन रात को दिनेश जी से होटल में संपर्क किया। फिर सुब्रत रॉय (राष्ट्रीय सहारा के मालिक) से भी मिला। दिनेश जी और सुब्रत रॉय ने सात-आठ लड़के-लड़कियों को नौकरी पर रख लिया। उन लोगों में विनोद रतूड़ी और उनकी पत्नी भी थी। दो तीन लोगों के लिए एस.पी. ने भी ‘हिन्दुस्तान’ और ‘जनसत्ता’ में बात की। ‘दैनिक जागरण’ में नरेंद्र मोहन जी को कह कर दिलीप मंडल और तीन लोगों को रखवाया! ‘अमर उजाला’ में भी अतुल माहेश्वरी जी ने चार लोगों को रखवाया! चार पांच दिन इसी काम में व्यस्त होने के कारण मेरी एस.पी. से कोई खास बात नहीं हो पाई। तभी मेरी तबियत खराब हो गई। दमे ने बुरी तरह जकड़ लिया था। शुक्रवार का दिन था। मैं दफ्तर नहीं गया। उसी दिन शाम को जब मैंने एस.पी. के घर पर फोन किया, तो उन्होंने मुझे अगले दिन सुबह घर पर बुलाया। मैं सुबह-सुबह उनके घर गया। तबियत बहुत खराब थी, यह मैंने एस.पी. को फोन पर बताया नहीं था। तबियत बहुत खराब देखकर वे चौंके, फिर डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें बताना चाहिए था! तुम्हें नहीं आना चाहिए था।’ मैंने कहा, भैया आप परेशान क्यों हैं \ पहले तो उन्होंने टालने की कोशिश की, लेकिन कई बार पूछने के बाद उन्होंने कहा, निर्मल, समीर जैन का मानना है कि ‘नवभारत टाइम्स’ में इकोनोमिक अखबार को भी समाहित कर दें, तो अच्छा होगा।’ मैंने पूछा, आपने क्या कहा \‘नहीं, यह हिंदी के पाठकों के साथ अन्याय होगा और इससे ‘नवभारत टाइम्स’ की इमेज खराब होगी’, मैंने कहा।
मैंने फिर पूछा कि क्या वे प्रेशर क्रिएट कर रहे हैं\ उन्होंने कहा,‘नहीं, वे सिर्फ सजेशन दे रहे हैं।’ फिर मैंने उनसे कहा कि फिर आप चिंतित क्यों हैं\ आप मना कर दीजिए! आपकी बात मानते हैं। मैंने एस.पी. को इस तरह से समझाया कि आपके बिना यह अखबार अच्छा नहीं निकल सकता... कि सारे लोग आपको पसंद करते हैं... कि कोई भी नहीं चाहेगा कि हिंदी में अंग्रेजी समाहित हो... वगैरह। इसके बाद मैं घर चला गया और वे दफ्तर। मेरी तबियत काफी खराब थी, इसीलिए रात को एस.पी. को फोन नहीं किया। तबियत खराब होने के कारण मैं सोमवार दफ्तर भी नहीं जा पाया। उसी दिन रात को जब मैंने एस.पी. को फोन किया, तो उन्होंने कहा, निर्मल, मैं कल नौकरी छोड़ रहा हूं।’ सुनते ही मैं परेशान हो गया। मैंने पूछा, यह क्या कह रहे हैं आप! आप अभी घर पर ही होंगे न? उन्होंने कहा, ‘हां, घर पर ही रहूंगा।’ उस समय रात के नौ बज रहे थे। मैंने अपना वेस्पा स्कूटर उठाया और तुरंत उनके घर गया। उनसे मिलने के बाद पता चला कि रविवार के दिन समीर जैने ने एस.पी. को आईटीओ एरिया के पास जो कोठी है, वहां बुलवाया। फिर दिन भर ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की बातें करते रहे। रविवार का दिन था। एस.पी. को शुगर की बीमारी थी, इसलिए घर पर ही खाते थे। वे दिन भर कुछ नहीं खा पाए। दिन भर समीर जैन एस.पी. को समझाते रहे। एस.पी. ने वहां कुछ नहीं कहा, क्योंकि उन्होंने तय कर लिया था कि अब उन्हें ऐसी हालत में क्या करना चाहिए- इस्तीफा लिख लिया था। टेबल पर पड़ा था। देखा। चूंकि मैं एस.पी. को अच्छी तरह जानता था कि डिसीजन ले लेने के बाद उन्हें कोई नहीं समझा सकता, इसलिए मैंने केवल गीता के उस वचन को दोहराया - जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है।
पहले तो एस.पी. ने घूर कर देखा, फिर हंसने लगे। वह हंसी मैं आज भी भूल नहीं सकता। हंसते-हंसते उन्होंने कहा था – निर्मल, इसमें क्या अच्छा हुआ! मैंने कहा था- आपको फिलहाल पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है! फिर वे हंसे थे और हंसते-हंसते टिप्पणी की थी, ‘हां अब बेकार बूढ़ों में एक और गिनती बढ़ जाएगी!’ उस समय मैं उन्हें समझा नहीं पाया कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है। चूंकि उस समय हम तत्काल क्या हुआ है, उस पर ज्यादा सोचते हैं। हमें पता नहीं होता है कि कल क्या होने वाला है। यानी भगवान जो करता है, वह अच्छे के लिए ही करता है।
अगले दिन एस.पी. के ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने की खबर चर्चा का विषय बन गया। मैं सुबह आठ बजे दफ्तर पहुंच चुका था। बहुत ज्यादा परेशान होने की वजह से काम में मन नहीं लग रहा था। थोड़ी देर इधर-उधर घूमने के बाद मैं ऊपर जिंदल साहब के केबिन के पास पहुंचा। जिंदल जी का इंतजार करने लगा। देखा, जिंदल जी आ रहे हैं।
जिंदल जी उन दिनों करीब-करीब साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंच जाते थे। देखते ही उन्होंने बातचीत की शुरुआत की। पूछा, क्या बात है, निर्मलेंदु। मैंने कहा, ‘सर आपको पता है कि नहीं एस.पी. नौकरी छोड़ रहे हैं।’ उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे इसकी जानकारी नहीं।’ फिर उन्होंने अपने केबिन से एस.पी. को तुरंत फोन करके पूछा, तो एस.पी. ने कहा, अभी तक तो नहीं छोड़ा, लेकिन छुट्टी जरूर ले रहा हूं। जिंदल साहब को बात समझ में आ गई थी। वे तुरंत नीचे उनके केबिन में चले आए। मैं उनके पीछे-पीछे अपने विभाग में पहुंचा। देखा, नवभारत टाइम्स के सभी साथी आपस में इसी बात को लेकर चर्चा कर रहे हैं। मुझे देखते ही कुछ साथी-मित्रों ने मुझसे खबर की पुष्टि की। मैंने सबको यही समझाया कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है। कुछ साथियों ने यह भी कहा कि यदि एस.पी. कहें, तो हम भूख हड़ताल शुरू कर देंगे। मैंनेजमेंट को यह बता देंगे कि एस.पी. के साथ अन्याय होते देखकर हम चुप नहीं बैठेंगे। लगभग दो घंटे तक जिंदल साहब एस.पी. से उनके केबिन में बातें करते रहे। फिर वे चले गए। अब ‘नवभारत टाइम्स’ के सभी साथियों ने एस.पी. को घेर लिया। सभी ने उन्हें यही कहा कि आप हमें छोड़ कर न जाएं। एस.पी. ने वही बातें दोहराई, मैं फिलहाल छुट्टी ले रहा हूं। बहुत काम किया...। ’ वगैरह। वगैरह!
इस तरह उस दिन वहां दिन भर किसी ने भी मन से काम नहीं किया। अखबार किसी तरह निकला जरूर, लेकिन उस दिन के अखबार में वह बात नहीं थी, जो अमूमन हुआ करती थी। दिन भर स्टाफ को समझाते-बुझाते शायद एस.पी. भी थक चुके थे। वे लगभग शाम चार बजे चले गए। जाते वक्त मुझे साथ ले गए। हम लोग वहां से सीधे एस.पी. के घर गए। वहां पहुंचने के बाद एस.पी. ने एक राज खोला, ‘निर्मल, कपिल देव अपनी एजेंसी को और बेहतर बनाने चाहते हैं। दो दिन पहले उनका फोन आया था। मैं उनसे मिल भी आया। वे चाहते हैं कि मैं तत्काल उनके दफ्तर में बैठना शुरू कर दूं।’ ‘हां, उत्तम है’ मैंने कहा, ‘वैसे आप कल से ही यदि वहां जाना शुरू कर दें, तो बेहतर होगा! लोगों को यह नहीं लगना चाहिए कि आपके पास काम नहीं है!’ परंतु वे शायद यह सोच रहे थे कि ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़कर वहां जाना चाहिए था या नहीं।
मैंने कहा, तुरंत कहीं लग जाने और काम करने से एक तो आपको मानसिक शांति मिलेगी और दूसरा, हो सकता है कि कपिल देव की एजेंसी चल जाए, तो बाद में आप अपना कुछ शुरू कर सकें।’ बाद के दिनों में उन्होंने मुझे बताया कि वे कपिल देव की एजेंसी को ज्वॉइन करने का निर्णय ले चुके थे। बस, हमेशा की तरह वे मुझे टटोल कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि मेरी सोच हर बार की तरह एक जैसी है या नहीं है!
अगले दिन या एक-दो दिन बाद उन्होंने कपिल देव की एजेंसी में जॉइन कर ली। उसी दौरान उन्होंने अपना एक साप्ताहिक कॉलम भी चलाया, जो कि देश के सभी बड़े-बड़े हिंदी के अखबारों में छपा करता था। सुबह आठ बजे वे मुझे कॉलम का मैटर दे देते थे, जिसे मैं टाइप करके उसके 15 जिरॉक्स (फोटो कॉपी) निकलवाता और फिर वे पैकेट बनवाकर सभी संबंधित अखबारों को भिजवा देता। उन्हीं दिनों वे ‘इंडिया टुडे’ के सलाहकार संपादक भी बन गए और कुछ ही दिनों में बीबीसी (लंदन) के लिए भारतीय अखबारों की समीक्षा करने लगे। ‘नवभारत टाइम्स’ में एस.पी. को उस समय कार्यकारी संपादक के रूप में तकरीबन 40 हजार रुपये मिलते थे, लेकिन ‘नवभारत टाइम्स’ से निकलने के बाद चार-पांच महीने में उनकी आमदनी 80 हजार रुपये तक पहुंच गई। तभी एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, ‘निर्मल, तुम ठीक ही कहते थे कि आगे क्या होने वाला है, वह हमें पता नहीं होता, इसीलिए हम परेशान हो जाते हैं। तुम्हारे साथ रहकर मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है।’ और यह कहकर उन्होंने मुझे गले लगा लिया और कहा कि निर्मल तुम एक अच्छे दोस्त ही नहीं, अच्छे भाई भी हो! मुझे इस बात का फक्र है कि तुम हमेशा मेरे साथ रहे। तुममें कोई लोभ नहीं है। तुम एक दिन जरूर नाम कमाओगे और सच तो यही है कि आज उन्हीं के आशीर्वाद से मैं यहां तक पहुंच पाया हूं।
दरअसल, मुझे याद है कि उसी दिन उन्होंने यह भी कहा था कि हरेक व्यक्ति को एक बार ‘कुर्सी’ छोड़कर रास्ते पर आना चाहिए। इससे पांचों इंद्रियां खुल जाती हैं। कौन अपना है और कौन पराया, इसका भी सम्यक ज्ञान हो जाता है। खैर, कपिल देव की एजेंसी खूब चली। एक दिन कपिल देव स्वयं एस.पी. की तारीफ उन्हीं के सामने करने लगे। दरअसल, एस.पी. के जॉइन करने से पहले एजेंसी के लगभग 52 लाख रुपये अखबारों के दफ्तरों में पड़े हुए थे, लेकिन एस.पी. के जॉइन करने के कुछ महीनों के अंदर ही वे पैसे एजेंसी को मिल गए, इसीलिए कपिल देव उन्हें बधाई दे रहे थे।
कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि दैनिक अखबार की पत्रकारिता से दूर होकर एस.पी. छटपटा रहे हैं। जो व्यक्ति रोज खबरों के साथ खेलते थे, झूठ को झूठ और सच को सच कहने में दिन-रात व्यस्त रहते थे, वे अब उन कामों को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं, इसकी छटपटाहट देखकर मैं भी परेशान रहता। उन दिनों मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से फीचर एडिटर बनने का ऑफर मिला। तभी मैंने ‘राष्ट्रीय सहारा’ के महाप्रबंधक दिनेश चंद्र श्रीवास्तव जी से यह चर्चा भी की कि एस.पी. जैसे वरिष्ठ पत्रकार को ‘राष्ट्रीय सहारा’ की टीम में शामिल करना बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। इससे अखबार की न केवल गरिमा बढ़ेगी, बल्कि अखबार को एक अच्छा और ‘प्रतिबद्ध’ संपादक भी मिलेगा। इस बात की चर्चा छिड़ते ही दिनेश जी ने कहा, हम भी चाहते हैं कि एस.पी. यहां आएं।’ फिर दिनेश जी ने मुझसे कहा, ‘तुम कुछ करो। तुम एस.पी. से कहो।’
मैंने कहा, केवल मेरे कहने से वे नहीं आएंगे, मेरी बात मानते जरूर हैं, लेकिन अखबार की तरफ से दो वरिष्ठ लोग मिलकर उनसे आग्रह करें, तो ज्यादा बेहतर होगा। पूरी तरह से ऑफर लेकर जाएं, पूरी थाली सजाकर ले जाएं, तभी बात बन सकती है। उसके बाद मेरा काम है, मैं उन्हें समझा दूंगा।’ साथ ही मैंने यह भी कहा कि मैं एस.पी. के साथ ही जॉइन करूंगा। दरअसल, मैंने कुछ दिनों पहले एस.पी. को टटोला था कि यदि ‘राष्ट्रीय सहारा’ से उन्हें ऑफर मिले, तो क्या वे जाएंगे। यह उस दिन की बात है, जब मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से ऑफर मिला था। उन्होंने जवाब में कहा था, सही ऑफर मिला, तो जरूर जाएंगे।’ लेकिन तुरंत यह भी कहा था, निर्मल, ‘राष्ट्रीय सहारा’ में तुम्हीं तो कहते हो कि बहुत राजनीति होती है और आज तुम्हीं वहां जाने के लिए कह रहे हो!’ मैंने कहा, ‘नहीं जमेगी, तो दोनों छोड़ देंगे! ट्राई करने में क्या हर्ज है!’ हां, मेरे पापा हमेशा यही कहते थे कि ट्राई करने में क्या हर्ज है! इसके आद उन्होंने कुछ नहीं कहा।
दरअसल, मुझे यह समझ में आ गया कि सही तरह से ऑफर मिलेगा, तो वे जरूर जाएंगे। नहीं तो वे अचानक चुप नहीं हो जाते! इसीलिए उस दिन मैंने दिनेश जी से आग्रह किया कि एस.पी. को ऑफर भिजवाइए। इस घटना के ठीक दो या तीन दिन बाद मैं एस.पी. से दोपहर (3-4 के बीच) मिलने गया, तो देखा वहां ‘राष्ट्रीय सहारा’ के दो लोग (राजीव सक्सेना और एक सज्जन, शायद निशीथ जोशी) बैठे हुए हैं। मुझे देखते ही वे चुप हो गए। एस.पी. ने तुरंत कहा कि नहीं-नहीं, इसके सामने आप कह सकते हैं, लेकिन मैंने वहां बैठना उचित नहीं समझा, इसलिए मैं स्वयं बाहर आ गया। लगभग 25-30 मिनट बाद वे लोग एस.पी. के केबिन से बाहर आए। जाते वक्त उन दोनों में से एक ने मुझसे कहा (वे लोग मुझे जानते थे) - निर्मल जी, एस.पी. साहब को जल्दी जॉइन करवाइए, बात हो गई है। दिनेश जी ने भी फोन पर उनसे बातचीत कर ली है। वे दोनों चले गए। उनके जाने के बाद एस.पी. ने हंसते हुए टिप्पणी की- लगता है, तुमने गेम खेल लिया है। मैंने कहा, भैया, वे लोग खुद चाहते हैं कि आप वहां जॉइन करें, बल्कि अगर यह कहें कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ज्यादातर लोग यही चाहते हैं, तो शायद गलत नहीं होगा।’ उन्होंने फिर टिप्पणी की, हां, एक को छोड़कर, सभी चाहते होंगे।’ मैंने उस व्यक्ति का नाम पूछा, जो नहीं चाहते, लेकिन एस.पी. ने नहीं बताया।
शायद एक या दो दिन बाद हम दोनों ने एक साथ जॉइन किया। जब हम दोनों गाड़ी से उतरे, तो देखा कि माधवकांत मिश्र (संपादक- ‘राष्ट्रीय सहारा - उनका नाम नहीं जाता था, पर सभी काम वही करते थे) एस.पी. का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े हैं। एस.पी. उस दिन कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे। पता नहीं क्यों, माधवकांत जी एस.पी. को बार-बार देखते रहे। उस समय मुझे यह समझ में नहीं आया कि क्यों देख रहे हैं! बाद में मुझे पता चला कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ में कुर्ता-पायजामा पहनने पर पाबंदी है। हुआ यूं कि उस दिन एस.पी. माधवकांत मिश्र के साथ अंदर गए। दिन भर वे ‘राष्ट्रीय सहारा’ के स्टाफ से मिलते रहे। मैंने महसूस किया कि एस.पी. के जॉइन करने से ‘राष्ट्रीय सहारा’ के सभी लोग न केवल बहुत खुश हैं, बल्कि उत्साहित भी हो गए हैं। वहां के ज्यादातर पत्रकार-गैर पत्रकार मुझे जानते थे, इसलिए लगभग सभी ने कहा, यह बहुत अच्छा काम हुआ है।’ मुझे सभी एस.पी. को जॉइन करवाने के लिए बधाई दे रहे थे। उस दिन मिलने-मिलाने का कार्यक्रम दिन भर चलता रहा। शाम को मैं और एस.पी. एक साथ ऑफिस से निकले और अपने-अपने घर चले गए। रास्ते में कुछ खास बात नहीं हुई। दूसरे दिन भी हम दोनों एक साथ आए और इसी तरह मिलने-मिलाने का कार्यक्रम चलता रहा।
इस तरह तीसरे दिन तक मैं अपने काम में उलझा रहा और एस.पी. मीटिंग व जान-पहचान करने में व्यस्त रहे। तीसरे दिन शाम को हमें कहा गया कि सुब्रत रॉय के साथ कल सभी पत्रकारों की मीटिंग होगी, इसीलिए सभी 10 बजे तक मीटिंग हॉल में पहुंच जाएं। चौथे दिन हम लोग एक साथ दफ्तर पहुंचे। रास्ते में एस.पी. से अपने काम के बारे में बातचीत करता रहा। उन्होंने मुझे कुछ सुझाव भी दिए। मीटिंग शुरू हुई। सुब्रत रॉय (कंपनी के चेयरमैन) ने एस.पी. के ज्वॉइन करने की खुशी का इजहार किया। उनके भाषण के बाद एस.पी. को कुछ कहने के लिए कहा गया। मैंने देखा कि एस.पी. ने इशारे से और धीमी आवाज में कहा, ‘दांत में दर्द है, इसलिए कुछ कह पाना संभव नहीं है।’ मैं चौंका! अभी-अभी तो रास्ते में मुझसे बात कर रहे थे, अचानक क्या हो गया, मीटिंग में कुछ बोल नहीं पा रहा था, इसलिए चुपचाप कई तरह की शंकाओं से मैं घिर गया... कि किसी ने कुछ कह दिया होगा... कि एस.पी. को ये सब मीटिंग वगैरह पसंद नहीं है... कि वे शायद कल से नहीं आएंगे... कि एस.पी. ने कहा था कि मेरे जाने से एक व्यक्ति खुश नहीं होंगे... वह व्यक्ति कौन है, उस मीटिंग में राज बब्बर (टॉप मैनेजमेंट के एक बड़े अधिकारी और बॉलीवुड एक्टर) और दिनेश जी भी मौजूद थे। थोड़ी देर में मीटिंग खत्म हो गई। एस.पी. ने मुझे इशारे से बुलाकर पूछा, चलोगे क्या? मैं कुछ कहता कि माधवकांत जी ने मुझसे कहा, ‘जाइए, एस.पी. की तबियत खराब है।’ मैंने कहा, ‘भैया, मैं दिनेश जी से कहकर आता हूं।’ दिनेश जी से कहकर हम दोनों एक साथ निकले। कार में बैठते ही मैंने उत्सुकतावश पूछा, ‘भैया, आपकी तबियत ठीक है न? सवाल सुनते ही वे हंसने लगे। एक-दो मिनट तक वे हंसते ही रहे और मैं उनका हाथ पकड़कर आग्रह करता कि भैया, क्या हुआ, प्लीज बताइए न! ‘दांत में दर्द है’, कहकर फिर ठहाका मारकर हंसने लगे एस.पी.। अब तक मैं समझ नहीं पाया। मैंने फिर पूछा, भैया, प्लीज बताइए।’ उन्होंने कहा, आज अंतिम दिन है।’ मैं चौंका। कुछ पूछता, तभी उन्होंने कहा, ‘तुम ही कहते हो कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। फिर अब चौंक क्यों हो रहे हो।’ उन्होंने मेरा जूता मेरे ही सर पर दे मारा। उस दिन उनका मूड कुछ ज्यादा ही रोमांचित था। लोगों को नौकरी छोड़ते वक्त कष्ट होता है, लेकिन उस दिन मैंने देखा कि एस.पी. के चेहरे पर गजब की खुशी थी। एस.पी. की उस दिन की वह हंसी और उनका खुशनुमा चेहरा मुझे आज भी रोमांचित कर देता है। रास्ते भर उन्होंने इधर-उधर की थोड़ी बात की। मुझे घर के पास छोड़कर वे अपने घर चले गए और मैं अपने घर चला गया।
एस.पी. कपिल देव की एजेंसी छोड़ चुके थे, इसलिए घर पर ही थे। दूसरे दिन मैंने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने घर पर बुलाया। घर पहुंच कर मेरा पहला सवाल यही था कि भैया क्या हुआ था, बताइए प्लीज। उन्होंने कहा, तुम टेंशन के मारे रात भर सो नहीं पाए होगे, लेकिन मेरी नींद बहुत अच्छी रही, कहकर शिखा भाभी की तरफ देखा और कहा, क्यों शिखा, फिर हंसने लगे। अब मैंने उनसे फिर कहा, भैया, क्यों मजाक कर रहे हैं? बताइए न, क्या हुआ? फिर उन्होंने कहा, माधवकांत ने मुझसे पहले दिन कहा कि एस.पी. साहब, आप कुर्ते-पायजामे में आए हैं। यहां तो पाबंदी है। मैंने तुरंत कहा कि माधव जी, यहां चड्ढी-बनियान पहनकर आता, तो ज्यादा मजा आता! माधव जी कुछ नहीं बोल पाए। चुपचाप चले गए। फिर शाम को माधवकांत जी ने कहा कि हमें तो रात को 4, 5 बजे तक रुकना पड़ता है। मैंने कहा कि मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा है। इस तरह से माधवकांत जी ने मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ में चल रहे कई डरावने पहलुओं से परिचित करवाया, अनुशासन के नाम पर वहां होने वाली ज्यादतियों से परिचित करवाया। दरअसल, माधवकांत जी नहीं चाहते थे कि मैं जॉइन करूं, इसीलिए जॉइन करने से पहले ही मुझे डराने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि मैंने दूसरे ही दिन सोच लिया था कि यहां व्यर्थ समय नष्ट करने का कोई फायदा नहीं। फिर भी मैंने सोचा कि दो दिन और देखते हैं। मुझे समझ में आ गया था कि जिस पत्रकारिता की नींव हमने रखी थी, वहां रह कर पूरी नहीं हो सकती। इसीलिए उस दिन मीटिंग में न बोलने का निर्णय मैंने पहले ही कर लिया था।’ दरअसल, उन्होंने बाद के दिनों में कभी मुझे समझाते हुए कहा था कि शब्द वहीं खर्च करो, जहां उसका दाम मिले, जहां उसका सम्मान हो और जहां उन शब्दों को और उन शब्दों के भावों को तरजीह दी जाए।
दरअसल, एस.पी. को पता था कि सुब्रत रॉय की मीटिंग में रॉय साहब ही बोलते हैं और सब ‘मूकदर्शक’ बन कर सुनते हैं, लेकिन एस.पी. प्रवचन सुनना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। फिर भी इसलिए गए, ताकि उन्हें मीटिंग में क्या बोला जाता है, पता चले। उनसे कई और विषयों पर बातचीत होने के बाद मैं ‘राष्ट्रीय सहारा’ चला गया। दिनेश जी ने मुझसे एस.पी. के छोड़ने का कारण पूछा और कई लोगों ने भी इस तरह की पूछताछ की। मैं सबको यही कह कर टाल गया कि मुझे नहीं पता। सुब्रत रॉय साब ने भी मुझसे एस.पी. के छोड़ने का कारण पूछा, लेकिन मैंने सबसे यही कहा कि उनकी तबियत अचानक खराब होने के कारण वह नहीं आये। हालांकि न चाहते हुए भी मैं 15 दिनों तक ‘नवभारत टाइम्स’ से छुट्टी लेकर ‘राष्ट्रीय सहारा’ जाता रहा। मेरा उस दिन आखिरी दिन था। 10 जून। उसी दिन मुझे वहां से विदा लेना था। दस जून को ही सुब्रत रॉय साहब का जन्मदिन है। मुझे पता था, फिर भी मैं वहां उसी दिन छोड़ना चाहता था। मैं जब सुब्रह रॉय साब से मिलने उनके दरबार पहुंचा, हां वह दरबार जैसा ही हॉल था, उनके रूम में गया, तो देखा कि वहां दिनेश जी भी बैठे हुए हैं। मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है। सुब्रत रॉय साब ने मुझसे पूछा, बांग्ला में ...एकला कथा बोलते चाव कि ...अकेले बात करना चाहते हो क्या ... मैंने कहा, नहीं दिनेश जी तो आपके प्राण हैं। प्राण को कैसे अलग करके बात करूं! मेरा जवाब सुनकर दोनों हंसने लगे। और उसके बाद मुझे बैठने को कहा।
मैंने कहा, मुझे आज जाना है। मुझे आज्ञा दें। उन्होंने कहा, क्या तुम्हें माधव ने कुछ कहा है। मैंने कहा नहीं, लेकिन यहां राजनीति बहुत है और राजनीति मुझे आती नहीं। उन्होंने समझाते हुए कहा कि तुम तो पढ़े लिखे हो। कुर्सी तो मिल जाती है, लेकिन कुर्सी को बचाने के लिए आजीवन राजनीति करनी पड़ती है। तुम यहां भविष्य के संपादक हो। थोड़ा वेट करो! यहां सफाई करनी है। उस सफाई में तुम हमारी मदद करो। तभी दिनेश जी ने बीच में टोकते हुए कहा, तुम्हें यहां इसीलिए लाया गया है कि तुम अखबार को सुधारो। तुम्हारी एक कोशिश तो बेकार गयी, एस.पी. नहीं आये लौटकर, अब तुम भी जाना चाहते हो! हमें पता है कि माधव तुम्हें परेशान कर रहा है, उसे भगाना है। तुम कहीं मत जाओ। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी और वहां से निकल आया।
दरअसल, वी.जी. जिंदल उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ के निदेशक थे। उनसे मैंने कह दिया था कि मैं ‘राष्ट्रीय सहारा’ 15 दिनों के लिए एस.पी. के साथ जा रहा हूं। 15 दिन बाद मैं दोबारा नवभारत टाइम्स लौट आया। लौटने के बाद एक दिन मुझे एस.पी. ने घर बुलाया। कहा, तुम चाहते हो कि तुम हमेशा मेरे आसपास रहो। मैं टाइम्स टीवी में कल से जॉइन कर रहा हूं। अब मैं तुम्हारी बिल्डिंग से एक बिल्डिंग पहले बैठूंगा। फिर उन्होंने टाइम्स टीवी जॉइन किया। यहीं से टीवी के काम की बारीकियां, कैमरा आदि का ज्ञान उन्हें हुआ, लेकिन टाइम्स टीवी में उनका मन नहीं लग रहा था, क्योंकि टाइम्स टीवी के कार्यक्रमों के दर्शकों की संख्या बहुत कम थी। उसी दौरान एक दिन अभीक सरकार ने एस.पी. को बुलाकर ‘टेलीग्राफ’ (कोलकाता से निकलने वाला अंग्रेजी दैनिक) में राजनीतिक संपादक बनने का ऑफर दिया। टाइम्स टीवी छोड़कर उन्होंने ‘टेलीग्राफ’ जॉइन कर लिया।’ उस दिन भी एस.पी. भैया ने मेरी तारीफ करते हुए मुझसे कहा कि तुम ठीक कहते हो। जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। अभीक बाबू ने मुझे जिस सम्मान के साथ बुलाया, वह सम्मान कहीं और नहीं मिलता। अब तो केवल टेलीग्राफ में ही मुझे 90 हजार मिल रहे हैं। बीबीसी का पैसा जोड़कर लगभग डेढ़ लाख की कमाई हो जाती है। तुम्हारे भगवान को अब मैं मानने लगा हूं और उन्होंने इसके बाद गणेश जी की एक मूर्ति घर में रख ली।
सहाराश्री को भावभीनी श्रद्धांजलि !
( यह वरिष्ठ पत्रकार के निजी विचार हैं, जोकि उनकी किताब 'शिला पर आखिरी अभिलेख' का एक हिस्सा है। कुछ हिस्सों का संपादन करके लेखक ने दोबारा से लिखा है।)
इन विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव की बारी है। इस दृष्टि से मौजूदा नतीजे और महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
आशुतोष चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार, प्रधान संपादक, प्रभात खबर।
विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी की जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को सिर माथे पर बिठाया है। प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा भाजपा की नैया पार करने में कामयाब रहा। जनता जनार्दन ने एक बार फिर मोदी के नाम पर हिंदी पट्टी के राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को भारी जनादेश दिया है। प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी सभाओं में भारी भीड़ जुट रही थी और उन्होंने जनता से कहा था कि जो वादे किये जा रहे हैं, वह उनकी गारंटी देते हैं। चुनाव नतीजे दर्शाते हैं कि जनता ने उन पर भरोसा किया। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं। नतीजे किस करवट बैठेंगे, इसको लेकर सबकी धड़कनें तेज थीं। वैसे तो हर विधानसभा चुनाव हर दल के लिए एक चुनौती होता है और सभी दल पूरी ताकत लगाकर उसे जीतने की कोशिश भी करते हैं।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ने इस चुनाव में अपने शस्त्रागार से ऐसा कोई अस्त्र बाकी नहीं रखा था, जो न चला हो। हर विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जाता है। यह जुमला पुराना हो गया है। मुझे लगता है कि सांप-सीढ़ी के खेल से इसकी तुलना उपयुक्त होगी। 2024 से पहले का हरेक विधानसभा चुनाव आपको लोकसभा चुनाव की ऊपरी सीढ़ी के नजदीक ले जाता है। भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक और सीढ़ी सफलतापूर्वक चढ़ गये हैं। इसके बाद 2024 की लोकसभा की सीढ़ी थोड़ी आसान हो जायेगी। हालांकि यह भी सही है कि कई बार लोकसभा और विधानसभा चुनावों के नतीजे एकदम उलट आते देखे गये हैं, लेकिन अब बहुत समय नहीं बचा है।
इन विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव की बारी है। इस दृष्टि से मौजूदा नतीजे और महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि विधानसभा चुनावों के नतीजे पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर असर डालेंगे। इन विधानसभा चुनावों में असफलता ने विपक्ष और खासकर कांग्रेस की राह मुश्किल कर दी है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की जोड़ी कोई कमाल नहीं दिखा पायी। कांग्रेस के लिए दो सरकारों- राजस्थान और छत्तीसगढ़ का चला जाना एक बड़ा झटका है। हालांकि तेलंगाना की जीत ने उसे थोड़ी राहत दी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
रैलियों में कितनी ही भीड़ इकट्ठी कर ली जाए, लेकिन क्षेत्रीय नेता जमीन पर यदि काम ना कर पाएं तो चुनाव जीतना आसान नहीं होता।
सारंग उपाध्याय, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, अमर उजाला
राजनीति पहुंचने से ज्यादा यात्रा की महत्वाकांक्षा है और मंजिल से ज्यादा सफर की इच्छा। जो यहां अनुभव से सधा है वह धैर्य से बंधा है, और जो धैर्य से गुंथा है वह सत्ता में दीर्घकाल तक स्थापित रहा है- फिर चाहे वह दो दशक से ज्यादा तक पश्चिम बंगाल पर राज करने वाले मुख्यमंत्री ज्योतिबसु रहे हों या फिर 2023 के विधानसभा चुनावों में टिकट तक ना मिल पाने की अफवाहों में करियर की सांझ तक करा बैठे मप्र के सीएम शिवराज सिंह चौहान हों--दोनों ही सीएम सियासत की बिसात पर अनुभव की लंबी यात्रा की बानगी हैं। फिलहाल वामपंथ का सियासी सितारा अस्त हो चुका है, लेकिन देश की दक्षिणपंथ की राजनीति में एक तारा सियासत का थोड़ा नायाब सितारा बनने की जगह तलाश रहा है। दरअसल, मप्र की सियासत में शिवराज सिंह चौहान राजनीतिक कीर्तिमानों का सबसे उभरता हुआ स्तंभ हैं।
भारतीय जनता पार्टी को दिया गया लंबा छात्र जीवन, आरएसएस के सामाजिक और राजनीतिक अनुषांगिक संगठनों में आंदोलन में होम हुई उम्र, संसद में पांच बार की सांसदी और तकरीबन तीन दशक तक फैला हुआ मप्र के सबसे ज्यादा बार सीएम पद के कार्यकाल का खिताब संजोने वाले शिवराज को गर भाजपा में भरोसे का उभरता हुआ साइलैंट ब्रैंड कहा जाए तो अतिशियोक्ति नहीं होगी।खास यह कि साइलैंट होता हुआ ये ब्रैंड यदि 2023 के इन चुनावों में दोबारा मप्र का सीएम बनता है, तो भाजपा में वे वाइब्रैंट भी होंगे, जिसकी संभावना कभी भाजपा के उस सबसे बुजुर्ग राजनेता ने जताई थी जो अपने सियासी जीवन में देश के पीएम बनने की इच्छा पूरी किए बिना ही राजनीति से रिटायर हो गया।
बानगी दूं तो यूट्यूब पर उस वीडियो को खंगाला जा सकता है, जब आडवाणी ने कभी उनकी तुलना करते हुए उन्हें मोदी से श्रेष्ठ बताया था। यह वह दौर था जब मोदी गुजरात की सरहदों से पहली बार संसद में पहुंचने की तैयारियां कर रहे थे जबकि मोदी के बरक्स पीएम पद के लिए शिवराज अपनी बेहद शाइस्ता सी नजर रखते थे। बहरहाल, सियासत में वर्तमान की जड़ें सुदूर अतीत से रिसते किस्सों और इतिहास की पेचीदा घटनाओं से सिंचित होती रहीं हैं। दौर बदलते हैं और राजनीति अपने औजारों में धार करती चलती है। आज प्रधानमंत्री मोदी का रसूख, रुतबा और लोकप्रियता आसमान की बुलंदियों पर है। मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय नेता नहीं बल्कि उनका चेहरा चुनावी जीत की गारंटी था। ऐसा उन्होंने हर रैली से जयघोष किया। यह एक तरह से 2024 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के तीसरे कार्यकाल की गारंटी का शंखनाद ही रहा।
परिवर्तन भी ऐसे ही हुए। मप्र में जब टिकट बंटे तो प्रदेश भाजपा में हलचल हुई। दिग्गज अपनी-अपनी सीटों पर विधायकी जीतने दिल्ली से उतारे गए। लेकिन बदलाव के इस दौर में सबसे आखिर में करियर की सांझ ढलने की अफवाह के बीच टिकट मिला भाजपा के सबसे अनुभवी शख्स को। भाजपा संगठन में देश के इस हृदय प्रदेश में चुनावी सियासत को लेकर इस बार अलग गणित था। हालांकि देर से ही सही शिवराज को टिकट मिला लेकिन प्रदेश में लगे उन पोस्टर में जगह नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। इस समय मप्र में चुनावी रिजल्ट सामने हैं।
सीटों के समीकरण में पिछला रिकॉर्ड और बेहतर हुआ है। जीत का सहरा भले ही पीएम मोदी की गारंटी के माथे बांधा जा रहा है लेकिन प्रदेश की राजनीति को करीब से जानने वाले और जमीनी पत्रकार, राजनीतिक पंडित इस बात को मुखरता से कहते रहे हैं कि भाजपा की इस जीत के असली नायक शिवराज सिंह चौहान ही हैं। लंबी यात्राएं, जमीनी संपर्क, ग्रामीण और आंचलिक जीवन में गाहे-बगाहे हिस्सेदारी, सत्ता में रहते हुए जनप्रिय योजनाओं के बीच जनता से सीधा संपर्क और अंत में मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना का चमत्कार, यह सब भाजपा की झोली में जीत की असली वजह हैं।
अतीत पर नजर डालें तो कभी 2018 में मंदसौर किसान गोली कांड, भ्रष्टाचार के आरोप और आंतरिक सियासत से अपनी ही छवि में कैद रहे शिवराज सिंह के लिए कांग्रेस एक चुनौती बनी थी। लेकिन उस दौर के बाद साइलैंट काम करने वाला यह वाइब्रैंट नेता अपनी कार्य की शैली बदल चुका है। शिवराज विनम्र हुए हैं जो वे पहले से थे ही।
राजनीति में छवि की कीमत समझने लगे हैं और दिए जाने बयानों की संवदेनशीलता भी। वे छवि सुधारने को आतुर दिखते हैं। आदिवासी पर पेशाब कांड जैसी घटना पर पैर धोकर देशभर के आदिवासियों से तुरंत माफी, लॉ एंड ऑर्डर, किसानों से संपर्क और काम का सबसे ज्यादा फोकस महिलाओं से जुड़ी योजनाओं पर होना और उसकी डायरेक्ट मॉनिटरिंग करना, दरअसल ऐसा बहुत कुछ है जो शिवराज सिंह चौहान को भाजपा में एक सधा, कुशल और अनुभव में पका हुआ राजनेता बनाती है।
अच्छी बात यही रही कि वे भाजपा ने अपने इस नेता के तजुर्बे को सर्वे के तराजू में तौलकर जगह दे दी क्योंकि गारंटी के कितने ही शंखनाद लाउड स्पीकर में छोड़ दिए जाएं और हेलिकॉप्टर से कितने ही नेता उतार लिए जाएं और रैलियों में भीड़ इकट्ठी कर ली जाए, लेकिन क्षेत्रीय नेता जमीन पर यदि काम ना कर पाएं तो चुनाव जीतना आसान नहीं होता।
साभार - अमर उजाला डिजिटल।
बीजेपी ने चुनाव में जिस तरह धर्म को मुद्दा बनाया, जिस तरह वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की, उसमें बीजेपी अगर कामयाब हुई तो बात अलग है।
रजत शर्मा, चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ (इंडिया टीवी)
राजस्थान से भी कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है। बीजेपी को राजस्थान से बहुत उम्मीद है लेकिन एग्जिट पोल्स के नतीजे राजस्थान में कांग्रेस की सरकार रिपीट होने का इशारा कर रहे हैं। अशोक गहलोत के जादू का असर दिख रहा है। एग्जिट पोल के मुताबिक राजस्थान में कांग्रेस को 94 से 104 के बीच सीट मिलती दिख रही हैं। बहुमत का आंकड़ा 100 का है। बीजेपी को 80 से 90 सीटें मिलने का अनुमान है। दिलचस्प बात ये है कि पिछली बार की तरह राजस्थान में इस बार भी छोटी पार्टियों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी क्योंकि एक्जिट पोल्स के मुताबिक राजस्थान में छोटी पार्टियां और निर्दलीयों को भी 14 से 18 सीट मिल सकती हैं।
सीटों के मामले में भले ही कांग्रेस का आंकड़ा बीजेपी से 10 से 15 सीट ज्यादा दिख रहा हो लेकिन वोट शेयर के मामले में दोनों ही पार्टियां बराबरी पर हैं। बीजेपी को 42 परसेंट वोट और कांग्रेस को 43 परसेंट वोट मिल सकते हैं। एग्जिट पोल के नतीजों से अशोक गहलोत जोश में हैं। गहलोत ने कहा कि वो तो शुरू से कह रहे हैं कि इस बार तीस साल का रिकॉर्ड टूटेगा, राजस्थान में तीस साल के बाद पहली बार सरकार रिपीट होगी, उन्हें हमेशा से भरोसा था कि उनकी सरकार रिपीट हो रही है।
गहलोत ने कहा कि राजस्थान में मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई हवा नहीं थी और कैंपेन के दौरान बीजेपी के नेताओं ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, उससे भी कांग्रेस को फायदा हुआ। गहलोत ने एक गौर करने वाली बात कही। कहा, कि बीजेपी ने चुनाव में जिस तरह धर्म को मुद्दा बनाया, जिस तरह वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की, उसमें बीजेपी अगर कामयाब हुई तो बात अलग है, वरना सरकार तो कांग्रेस की ही बनेगी। वैसे जीत के दावे करने में बीजेपी के नेता भी पीछे नहीं हैं।
बीजेपी नेता राजेंद्र राठौर ने कहा कि बीजेपी को 135 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। एक्जिट पोल्स के नतीजे राजस्थान में कांटे की टक्कर दिखा रहे हैं, कांग्रेस थोड़ी आगे है, ये बीजेपी के नेताओं के लिए परेशान कर सकता है लेकिन अगर एक्जिट पोल के नतीजे सही साबित होते हैं तो कांग्रेस को फायदा का सारा श्रेय अशोक गहलोत को देना पड़ेगा।
राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस की रणनीति में एक बुनियादी फर्क था। कांग्रेस ने वक्त रहते अशोक गहलोत को खुला हाथ देने का फैसला किया, चुनाव की कमान पूरी तरह गहलोत को सौंप दी लेकिन बीजेपी ने वसुंधरा राजे को मंच पर लाने में देर कर दी, इसलिए पार्टी के कार्यकर्ताओं में भ्रम वाली स्थिति रही और इसका फायदा गहलोत को मिलता दिख रहा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा 'मोरिया' नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था।
अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें वीर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है, 'हिंदुत्व' के पैरोकार होने के कारण भारत में मार्क्सवादियों के निशाने पर रहे हैं। मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों, विश्लेषकों व इतिहासकारों ने उनकी स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को लेकर भी लगातार सवाल उठाए और सावरकर को नाजीवाद व फासीवाद से जोड़ने की भी भरपूर कोशिश की। पर उस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बारे में वे क्या कहना चाहेंगे जब कार्ल मार्क्स के पोते ने हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर का एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न केवल बचाव किया था बल्कि उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका की जबरदस्त प्रशंसा भी की थी। इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा 'मोरिया' नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था।
सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए लंदन में गिरफ्तार कर उन्हें इस जहाज द्वारा भारत में उन पर मुकदमा चलाने के लिए बंबई भेजा रहा था। 8 जुलाई 1910 को यह जहाज फ्रांस के मार्सेई नामक शहर के पास था, सावरकर ने अवसर पाते ही समुद्र में छलांग लगा दी और कई मील तैरकर वह फ्रांस के तट पर आ पहुंचे। ब्रिटिश पुलिस के अधिकारियों ने वहां पहुंच कर 'चोर—चोर' का शोर मचा दिया और सावरकर को चोर बताकर धोखे से वापिस जहाज पर ले आए। बाद में जब पता चला कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी हैं तो फ्रांसीसी सरकार ने आपत्ति जताई व ब्रिटेन से सावरकर को फ्रांस को वापिस लौटाने को कहा। ब्रिटेन ने यह बात मानने से इंकार कर दिया और यह विवाद नीदरलैंड में हेग नामक जगह पर स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पहुंच गया जहां दो देशों के बीच कानूनी विवादों का निपटारा होता है।
सावरकर को लेकर हेग में इस मुकदमें में दलीलें 14 फरवरी, 1911 से शुरू हुईं और 17 फरवरी, 1911 को समाप्त हुईं। फैसला 24 फरवरी, 1911 को ब्रिटेन के पक्ष में दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत ने इस जीत का फायदा उठाते हुए भारत में सावरकर को काले पानी की सजा दी और उन्हें अंडमान में सेल्युलर जेल भेज दिया गया। अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने बाद में 'मेरा आजीवन कारावास' पुस्तक भी लिखी जिसमें वहां दी गई यातनाओं का लोमहर्षक विवरण है। बहरहाल बात करते हैं हेग में हुए इस मुकदमे की। इस मामले में सावरकर की ओर से पैरवी करने वाले कोई और नहीं बल्कि मार्क्सवाद की विचारधारा के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के पोते थे। उनका नाम था जीन-लॉरेंट-फ्रेडरिक लोंगुएट (1876-1938)। लोंगुएट स्वयं समाजवादी राजनीतिज्ञ और पत्रकार थे, जो न केवल अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सावरकर का बचाव करने के लिए खड़े हुए बल्कि उन्होंने सावरकर की बहादुरी, देशभक्ति और प्रखर लेखन के लिए उनकी खूब प्रशंसा भी की।
लोंगुएट का जन्म लंदन में चार्ल्स और जेनी लॉन्गुएट के घर हुआ था। उनका परिवार बाद में फ्रांस चला आया। जेनी, कार्ल मार्क्स की बेटी थी। जीन लॉन्गुएट ने एक पत्रकार के रूप में काम किया और एक वकील के रूप में योग्यता हासिल की। वह फ्रांसीसी समाचार पत्र 'ला पॉपुलेयर' के संस्थापक और संपादक भी थे और फ्रांस के प्रमुख समाजवादी नेताओं में से एक थे। हेग में सावरकर के लिए अपनी दलील में कहा ब्रिटिश सरकार सावरकर को इसलिए निशाना बना रही है क्योंकि वे भारत को आजाद करवाने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ले रहे हैं। उन्होंने सावरकर का वर्णन इन शब्दों में किया, "श्रीमान! सावरकर ने कम उम्र से ही, राष्ट्रवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उनके दो भाइयों, जो उनसे कम क्रांतिकारी नहीं थे, को इस राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेने के लिए सजा सुनाई गई, एक को आजीवन कारावास और दूसरे को कई महीनों तक कारावास की सजा सुनाई गई।
22 साल की उम्र से, जब वह बंबई विश्वविद्यालय में कानून के छात्र थे, वे तिलक के सहायक बन गए, और लगभग उसी समय, अपने पैतृक शहर, नासिक में, उन्होंने 'मित्र मेला' नाम की राष्ट्रवादी संस्था का गठन किया।'' मित्रमेला के बारे में भी लोंगुएट ने बताया कि किस प्रकार पूरे दक्खन में राष्ट्रीय आंदोलन चलाने में यह संगठन सक्रिय भूमिका निभा रहा था। सावरकर की पुस्तक '1857 का स्वातंत्र्य समर' जिस पर अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध लगा दिया था , उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, ''यह पुस्तक वैज्ञानिक दृष्टि अत्यंत मूल्यवान है और इसका अंग्रेजी अनुवाद कई लोगों ने मिलकर किया और उसे अज्ञात नाम से प्रकाशित किया।'' लोंगुएट की दलीलों का सार यही था कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी व प्रबुद्ध विचारक हैं और भारत को आजाद करवाने के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार उनके पीछे पड़ी है।
लोंगुएट की दलीलों से इतना तो साफ होता है कि मार्क्स का पोता होने तथा समाजवादी होने के बावजूद उन्हें सावरकर की राष्ट्रवादी अवधारणा से कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि लोंगुएट के लिए तो वह प्रशंसा के पात्र थे। ऐसे में भारत के मार्क्सवादियों द्वारा सावरकर के व्यक्तित्व व कर्तृत्व का विरोध कितना तर्कसंगत है?
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
तो ऐसे भाई, दोस्त राजकुमार केसवानी को उस दिन सप्रे संग्रहालय के सभागार में याद करने के लिए उनके सैकड़ों चाहने वाले पहुँचे।
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
यूं तो वे जन्मदिन मनाने के मामले में बहुत संवेदन शील नहीं थे। लेकिन हम मित्रों ने उनके जाने के दो बरस बाद जन्म दिन मना ही लिया। यह सोचकर कि जन्नत में बैठकर राजकुमार भाई अपने स्वभाव के मुताबिक गुस्सा हो रहे हों तो हो लें। हम नहीं सुनेंगे। छब्बीस नवंबर राजकुमार केसवानी जी का जन्मदिवस था और उस दिन एक ऐसा कार्यक्रम हो गया, जो आमतौर पर किसी के अलविदा कहने के बाद भारत में कम ही होता है। महीनों से यह कवायद चल रही थी कि भाई राजकुमार केसवानी की याद में क्या किया जाना चाहिए। उनके कौन से रूप को नई पीढ़ियों तक पहुंचाना चाहिए। क्या नहीं थे वे? किसी एक इंसान के भीतर इतने हुनर हो सकते हैं, कल्पना से परे हैं।
एक संवेदनशीन और नरम दिल के कवि, संगीत की महीन स्वर लहरियों के दीवाने और उसके एक अनमोल खजाने के मालिक, बेजोड़ किस्सागो, फिल्मों की अनगिनत छिपी हुई दास्तानों को सामने लाने वाले शब्द सितारे, बेहतरीन खोजी पत्रकार,टीवी पत्रकारिता में तमाम कीर्तिमान रचने वाले संवाददाता, अखबार की कायापलट करने की क्षमता रखने वाले विलक्षण संपादक, पुरानी शैली के पेशेवर फिल्म वितरक, उर्दू, सिंधी, हिंदी और अंग्रेजी के अदभुत जानकार और भी पता नहीं, क्या क्या थे वे। लेकिन सबसे ऊपर एक शानदार इंसान। जब कोई ऐसी शख्सियत हमारे बीच से अचानक चली जाती है तो लगता है कि अजीब सा खालीपन जिंदगी में आ गया।
तो ऐसे भाई, दोस्त राजकुमार केसवानी को उस दिन सप्रे संग्रहालय के सभागार में याद करने के लिए उनके सैकड़ों चाहने वाले पहुंचे। ठसाठस भरे हॉल में तिल रखने के लिए भी जगह नहीं थी। संग्रहालय के संस्थापक संयोजक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर के चेहरे पर अपने पड़ोसी को शिद्दत से याद करने का संतोष पढ़ा जा सकता था। उन्होंने याद किया कि घर से बाहर निकलते ही नजरें मिलतीं तो लपक कर केसवानी आते और पेट भर बतियाते। वैसे वे कम लोगों से ही खुलते थे। राजकुमार को याद करने के लिए मंच पर अभिव्यक्ति के तीन सितारे मौजूद थे। मुंबई की मायानगरी में परदे पर कहानी के जरिए अनूठी छाप छोड़ने वाले रूमी जाफरी, परदे पर ही कविता का हैरत में डालने वाला संसार रचने वाले इरशाद कामिल और फिल्मों में अभिनय से धूम मचाने वाले जाने माने रंगकर्म सितारे राजीव वर्मा, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर और मैं स्वयं याने राजेश बादल भी था।
सबने शिद्दत से याद किया। भरपूर याद किया। उसे लिखूंगा तो अलग से किताब बन जाएगी। राजकुमार जी आप होते तो देखते कि जिन्हें आप छोड़ कर गए हैं, उनके दिलों में आप कैसे बैठे हुए हैं। यह भी तय हुआ था कि राजकुमार जी की याद का सिलसिला जारी रहना चाहिए। इसलिए हर साल खोजी और मानवीय सरोकारों पर श्रेष्ठ काम करने वाले रचनाकर्मी को हर साल सम्मानित किया जाए। चाहे वह पत्रकारिता से हो या लेखन विधा से या फिर फिल्म संसार से। इस साल पहला सम्मान पत्रकार लेखिका और क़ैदियों के अधिकारों पर काम करने वाली वर्तिकानंदा को देने का फैसला हुआ। उन्हें सम्मान में एक लाख रूपए, प्रशस्ति पत्र और स्मृतिचिह्न दिया गया।
वर्तिका राजकुमार जी के साथ एनडीटीवी में काम कर चुकी हैं। यह भी निश्चय हुआ कि अगले साल से पत्रकारिता की विधाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले मेधावी छात्रों छात्राओं को भी सम्मानित किया जाए। इस कार्यक्रम का संयोजन सप्रे संग्रहालय ने किया लेकिन स्वर्गीय केसवानी जी के बेटे रौनक ने इसे कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर दिया। आदरणीया भाभी जी श्रीमती सुनीता केसवानी की गरिमामय उपस्थिति ने सारे समय राजकुमार जी के वहां होने का अहसास बनाए रखा ।
इस आयोजन में यदि वरिष्ठ मीडिया कर्मी और रंगकर्मी अशोक मनवानी का जिक्र नहीं हो तो यह सूचना अधूरी रहेगी। उन्होंने सफल संचालन किया और दैनिक भास्कर परिवार के मनीष समंदर ने आभार माना।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
पीएम मोदी ने कहा, भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई हो रही है तो कांग्रेस घबरा गई है। जिन्होंने प्रदेश को लूटा है उन्हें जेल जाना होगा।
श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
तेलंगाना के साथ संपन्न होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव नतीजे चाहे जैसे निकलें,एक बात तय मानकर चल सकते हैं कि तीन दिसंबर के तत्काल बाद प्रारंभ होने वाले लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान विपक्षी दलों(यहाँ गांधी परिवार ही पढ़ें) के ख़िलाफ़ सत्तारूढ़ दल भाजपा के हमलों की आक्रामकता पराकाष्ठा पर पहुँचने वाली है।
विधानसभा चुनावों में भाजपा के धुआँधार प्रचार के दौरान देश की जनता ने प्रधानमंत्री के भाषणों में कांग्रेस के प्रति जिस तरह के क्रोध और वैचारिक हिंसा से भरे शब्दों से साक्षात्कार किया उसे लोकसभा चुनावों की रिहर्सल भी माना जा सकता है। चुनावों में पड़े मतों की तीन दिसंबर को होने वाली गिनती में सत्तारूढ़ दल को अगर उसकी ‘अंदरूनी’ उम्मीदों के मुताबिक़ भी कामयाबी नहीं हासिल होती है तो पार्टी में व्याप्त होने वाली निराशा उसकी विभाजन की राजनीति की धार को और तेज कर सकती है।
प्रधानमंत्री द्वारा राज्यों के चुनाव भी स्वयं का चेहरा ही सामने रखकर लड़ने की रणनीति को लोकसभा चुनावों के लिए व्यक्तिगत लोकप्रियता और जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता पर प्रारंभिक जनमत-संग्रह भी माना जा सकता है। पाँचों राज्यों की आबादी भी लगभग पच्चीस करोड़ है और वे उत्तर-पूर्व (मिज़ोरम) से पश्चिम और दक्षिण(तेलंगाना) तक फैले हुए हैं। आत्मविश्वास से भरा एक ऐसा राजनेता जिसने पहले से घोषणा कर रखी हो कि लालक़िले से अगले साल भी तिरंगा वही फहराने वाला है ,विधानसभा चुनावों में पार्टी की पराजय को लोकसभा चुनावों के दौरान अपनी व्यक्तिगत जीत में बदल देने की सामर्थ्य भी प्रकट कर सकता है ! महाभारत के अर्जुन को जिस तरह मछली की आँख ही नज़र आती थी ,प्रधानमंत्री की दृष्टि भी भारत को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और अपने आप को ‘विश्वगुरु’ के रूप में स्थापित करने पर टिकी हुई है !
विधानसभा चुनाव-प्रचार के दौरान, विशेषकर राजस्थान के विभिन्न स्थानों यथा चित्तौड़गढ़, उदयपुर, भीलवाड़ा और बाड़मेर,आदि में मोदी द्वारा अपनाई गई आक्रामक भाव-भंगिमा और स्थान की ज़रूरत के मुताबिक़ दिए गए भाषणों की अगर निष्पक्ष शल्यक्रिया की जाए तो प्रधानमंत्री का एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जो राजनीतिक विरोधियों के प्रति क्रोध से भरा हुआ है और समर्थकों-मतदाताओं को कुछ ऐसा करने के लिए प्रेरित करता नज़र आता है जैसा पिछले किसी भी चुनाव या उपचुनाव में नहीं देखा गया।
देश के प्रधानमंत्री के इस स्वरूप का दर्शन कल्पना से परे माना जा सकता है जब माथे पर जोधपुरी साफ़ा धारण किए उन्होंने बाड़मेर के ‘बायतु’ की सभा में लोगों का आह्वान करते हुए कहा : भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई हो रही है तो कांग्रेस घबरा गई है। जिन्होंने प्रदेश को लूटा है उन्हें जेल जाना होगा। ‘जैसे उन्हें फाँसी दे रहे हो न कमल के निशान पर ऐसे बटन दबाओ।’ कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने बाद में प्रतिक्रिया व्यक्त की कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस के प्रति घृणा का सहज अंदाज़ा उनके बयान से लगाया जा सकता है। प्रधानमंत्री के पद पर बैठा कोई व्यक्ति वोट के ज़रिए फाँसी देने की बात कैसे कर सकता है ?
कमल के निशान वाले बटन को दबाते हुए फाँसी देने की बात उसी तरह के विचार की पुनराभिव्यक्ति है जो पार्टी के असहिष्णु मुख्यमंत्रियों/नेताओं द्वारा सांप्रदायिक आधार पर दी जाने वाली इस तरह की चेतावनियों में सामने आता रहा है कि : ’बुलडोज़र चलवा दूँगा’, ‘ज़मीन में गड़वा दूँगा’ और ‘देश के ग़द्दारों को, गोली मारी सालों को’। या फिर जो पिछले कुछ सालों में सड़कों पर देखी गई मॉब लिंचिंग की घटनाओं अथवा कथित ‘धार्मिक संसदों’ के उत्तेजक संबोधनों में प्रकट हो चुका है !
प्रधानमंत्री ने अपने प्रथम कार्यकाल की शुरुआत ही देश को कांग्रेस से मुक्त करने के नारे के साथ की थी। अब तीसरी पारी की शुरुआत के पहले देश की सबसे पुरानी पार्टी को चुनावी बटन के ज़रिए फाँसी देने का विचार देश में विपक्ष की ज़रूरत के प्रति उनके तीव्र विरोध को उजागर करता है।
विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री के भाषणों से जो ध्वनि निकली उसमें जनता से जुड़े मुद्दों पर संवाद के ज़रिए पार्टी को जीत हासिल कराने की कोशिशों के बजाय पराजय को किसी भी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने का भाव ही ज़्यादा मुखरता से व्यक्त हुआ। ठीक उसी तरह जैसे अत्यधिक आत्मविश्वास के बावजूद जब अमेरिकी जनता ने डॉनल्ड ट्रम्प को हरा दिया तो वे अपनी पराजय को इतने सालों के बाद आज तक भी स्वीकार नहीं कर पाए हैं। यही कारण रहा कि उनके समर्थक भी हार मानने के लिए तैयार नहीं हुए और 6 जनवरी 2020 को वाशिंगटन स्थित अमेरिकी संसद पर जो कुछ हुआ उसे भारत सहित सारी दुनिया ने देखा।
तीन दिसंबर की मतगणना के बाद मनोवैज्ञानिकों/ चुनावी विशेषज्ञों की किसी टीम को ‘बायतु’ के नतीजों का विश्लेषण करने के लिए रवाना किया जाना चाहिए। वह टीम वहाँ पहुँचकर न सिर्फ़ इतने अधिक मतदान (83.44 प्रतिशत) के कारणों का पता लगाए, इस बात का विश्लेषण भी करे कि प्रधानमंत्री की ‘फाँसी वाली’ अपील का क्षेत्र के मतदाताओं के दिलो-दिमाग़ पर क्या प्रभाव पड़ा ? टीम द्वारा जुटाई जाने वाली जानकारी लोकसभा चुनावों की दृष्टि से देश के राजनीतिक दलों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
बहरहाल यह स्वीकारना होगा कि बाबा रामदेव के योग प्रचार और आयुर्वेद के उपयोग पर भी किसी को आपत्ति नहीं है।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
बाबा रामदेव ने योग के प्रचार-प्रसार के साथ न केवल सत्ता की राजनीति में प्रभाव बनाया बल्कि अब देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चुनौती देते हुए दवाइयों के व्यापार से अपना आर्थिक साम्राज्य सा खड़ा कर लिया है। विभिन्न राज्यों में जमीन लेने और दवाइयों और घातक बीमारियों से बचाव के दावों से विवादों में उलझते जा रहे हैं। इसलिए भारत में नेहरू इंदिरा सत्ता काल में योग शिक्षा से सरकारों में प्रभाव और जमीनों, विमानों की खरीदी तथा हथियारों की फैक्ट्री और धंधों के कारण संकट में पड़ गए थे। उन्हें फ्लाइंग गुरु कहा जाता था। भारत के पहले समाचार टेलीविजन दूरदर्शन से धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने योग शिक्षा शुरु की थी, लेकिन बहुत धंधा करने पर रातों रात वह कार्यक्रम बंद हुआ था।
बहरहाल यह स्वीकारना होगा कि बाबा रामदेव के योग प्रचार और आयुर्वेद के उपयोग पर भी किसी को आपत्ति नहीं है। उनके गलत दावों और व्यापार के लिए देश दुनिया में कमाई, जमीन लेने, नियम कानून का पालन नहीं करने के आरोप गंभीर हैं। वह तो सुप्रीम कोर्ट को भी चुनौती दे रहे हैं कि चाहे एक हजार करोड़ का जुर्माना करें या फांसी की सजा दे दें , उनके दावे, दवा, इलाज ही सही है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों बाबा रामदेव और उनकी कंपनी पतंजलि आयुर्वेद को फटकार लगाई है। मॉडर्न मेडिसिन सिस्टम यानी आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ भ्रामक दावे और विज्ञापन प्रचार करने को लेकर ये फटकार लगाई गई है। भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने याचिका दायर की थी।
जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की। जस्टिस अमानुल्लाह ने कहा- पतंजलि आयुर्वेद को सभी झूठे और भ्रामक दावों वाले विज्ञापनों को तुरंत बंद करना होगा। कोर्ट ऐसे किसी भी उल्लंघन को बहुत गंभीरता से लेगा और हर एक प्रोडक्ट के झूठे दावे पर एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना भी लगा सकता है। इसके बाद कोर्ट ने निर्देश दिया कि पतंजलि आयुर्वेद भविष्य में ऐसा कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं करेगा और यह भी सुनिश्चित करेगा कि प्रेस में उसकी ओर से इस तरह के कैज़ुअल स्टेटमेंट न दिए जाएं। बेंच ने यह भी कहा कि वह इस मुद्दे को 'एलोपैथी बनाम आयुर्वेद' की बहस नहीं बनाना चाहती बल्कि भ्रामक चिकित्सा विज्ञापनों की समस्या का वास्तविक समाधान ढूंढना चाहती है।
बेंच ने भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से कहा कि केंद्र सरकार को समस्या से निपटने के लिए एक व्यवहारपूर्ण समाधान ढूंढना होगा। कोर्ट ने सरकार से कंसल्टेशन के बाद कोर्ट में आने को कहा है। इस मामले पर अगली सुनवाई 5 फरवरी 2024 को होगी। पिछले साल भी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की याचिका पर नोटिस जारी करते हुए कोर्ट ने एलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ बयान देने के लिए बाबा रामदेव को फटकार लगाई थी। तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने तब कहा था 'बाबा रामदेव अपनी चिकित्सा प्रणाली को लोकप्रिय बना सकते हैं, लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना क्यों करनी चाहिए। हम सभी उनका सम्मान करते हैं, उन्होंने योग को लोकप्रिय बनाया लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना नहीं करनी चाहिए।
रामदेव बाबा ने दावा किया था कि उनके प्रोडक्ट कोरोनिल और स्वसारी से कोरोना का इलाज किया जा सकता है। इस दावे के बाद कंपनी को आयुष मंत्रालय ने फटकार लगाई और इसके प्रमोशन पर तुरंत रोक लगाने को कहा था। 2015 में कंपनी ने इंस्टेंट आटा नूडल्स लॉन्च करने से पहले फूड सेफ्टी एंड रेगुलेरिटी ऑथोरिटी ऑफ इंडिया (FSSAI) से लाइसेंस नहीं लिया था। इसके बाद पतंजलि को फूड सेफ्टी के नियम तोड़ने के लिए लीगल नोटिस का सामना करना पड़ा था।
2015 में कैन्टीन स्टोर्स डिपार्टमेंट ने पतंजलि के आंवला जूस को पीने के लिए अनफिट बताया था। इसके बाद सीएसडी ने अपने सारे स्टोर्स से आंवला जूस हटा दिया था। 2015 में ही हरिद्वार में लोगों ने पतंजलि घी में फंगस और अशुद्धियां मिलने की शिकायत की थी। 2018 में भी FSSAI ने पतंजलि को मेडिसिनल प्रोडक्ट गिलोय घनवटी पर एक महीने आगे की मैन्युफैक्चरिंग डेट लिखने के लिए फटकार लगाई थी। कोरोना के अलावा, रामदेव बाबा कई बार योग और पतंजलि के प्रोडक्ट्स से कैंसर, एड्स और होमोसेक्सुअलिटी तक ठीक करने के दावे को लेकर विवादों में रहे हैं।
पतंजलि फूड्स के नए प्रोडक्ट लॉन्च करने के मौके पर बाबा रामदेव ने कहा था कि अभी पतंजलि ग्रुप का टर्नओवर करीब 45 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है और दुनिया में क़रीब 200 करोड़ और भारत में 70 करोड़ लोगों तक हमारी पहुंच है। बाबा रामदेव ने अनाज, दूध की तरह खाद्य तेलों में भी देश को आत्मनिर्भर बनाने का अपना विजन रखते हुए कहा है कि 20 लाख एकड़ जमीन पर पाम प्लांटेशन का काम करना। उन्होंने कहा कि अगले पांच साल में पतंजलि का टर्नओवर 1 लाख करोड़ तक करने का लक्ष्य रखा गया है, जो अभी पतंजलि ग्रुप का टर्नओवर करीब 45 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है। एक लाख करोड़ रुपये कारोबार का लक्ष्य हासिल करने में समूह की कंपनी पतंजलि फूड्स (पूर्व में रुचि सोया) अहम भूमिका निभाएगी।
बाबा रामदेव ने दावा किया है कि पतंजलि खुद पाम ऑयल का उत्पादन करेगा। इसकी खेती के लिए 40 से 50 हजार किसान पतंजलि से जुड़ चुके हैं और आने वाले समय में किसानों की संख्या 5 लाख तक करनी है। ऐसे में पतंजलि में पाम ऑयल का उत्पादन शुरू होने से 5 लाख किसानों को सीधे रोजगार मिल सकेगा। असम, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश सहित 12 राज्यों में किसान पतंजलि से जुड़कर पाम ऑयल की खेती कर रहे हैं। अभी बंजर जमीन समेत उस जमीन पर प्लांटेशन हो रहा है, जो उपजाऊ नहीं है। इससे जंगल बढ़ेगा, पेड़ बढ़ेंगे, आक्सीनजन की मात्रा बढ़गी, बारिश ज्यादा होगी, जमीन उपजाऊ होगी और किसान की समृद्धि बढ़ेगी। पर्यावरण का नुकसान का सवाल ही नहीं है। खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता कम होगी। उन्होंने कहा कि खाद्य तेलों में पतंजलि की ओर से सालाना दस लाख टन का प्रोडक्शन हो सकेगा। यह पांच साल का प्रोजेक्ट है।
एक दिन में पाम बोया जाता है, लगभग 35 से 40 साल तक चलता है। पतंजलि फूड्स के नए प्रोडक्ट लॉन्च करने के मौके पर बाबा रामदेव ने कहा कि अभी पतंजलि ग्रुप का टर्नओवर करीब 45 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है और दुनिया में क़रीब 200 करोड़ और भारत में 70 करोड़ लोगों तक हमारी पहुंच है। उन्होंने कहा कि हमने कई विदेशी कंपनियों को शीर्षासन कराकर भारतीय बाज़ार से विदा किया है। पतंजलि फूड्स ने 14 नए प्रोडक्ट लॉन्च किए हैं। पतंजलि फूड्स ने प्रीमियम प्रोडक्ट लॉन्च करने के अभियान में बिस्कुट, न्यूट्रेला के बाजरे से बने उत्पाद और प्रीमियम सूखे मेवों समेत कई उत्पाद लॉन्च किए । बाबा रामदेव ने कहा कि पतंजलि ने गाय के घी का 1500 करोड़ रुपये का ब्रांड बनाया है और जल्द ही पतंजलि की तरफ से बफेलो घी भी लॉन्च किया जाएगा। पतंजलि फूड्स लिमिटेड का नाम पहले रुचि सोया इंडस्ट्रीज था और पतंजलि के इसका अधिग्रहण करने के बाद रुचि सोया का नाम बदलकर पतंजलि फूड्स किया है। पतंजलि का नाम सामने आते ही हर किसी के जेहन में बाबा रामदेव की तस्वीर उतर आती है।
ज्यादातर लोगों को यही लगता है कि बाबा रामदेव ही इस कंपनी के असली मालिक हैं, लेकिन वास्तविकता इससे इतर है। पतंजलि की शुरुआत साल 2006 में हरिद्वार से हुई थी और योग गुरु बाबा रामदेव शुरुआत में इस कंपनी के सिर्फ ब्रांड प्रमोटर थे। कॉरपारेट मंत्रालय के अनुसार, कंपनी की 93 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी आचार्य बालकृष्ण के पास है, जो अभी पतंजलि आयुर्वेद के एमडी, चेयरमैन और सीईओ हैं। बाबा रामदेव की कुल संपत्ति करीब 20 हजार करोड़ रुपये है, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा रॉयल्टी के तौर पर आता है। बाबा रामदेव कंपनी के ब्रांडिंग प्रमोटर हैं और कंपनी की मार्केटिंग के लिए योग गुरु के तौर पर अपने चेहरे का इस्तेमाल करते हैं। बालकृष्ण सुवेदी, जिन्हें आचार्य बालकृष्ण के नाम से जाना जाता है, उनके माता-पिता नेपाल के रहने वाले थे और बाद में भारत आ गए थे।
हरियाणा के एक गुरुकुल में साल 1995 में उनकी मुलाकात बाबा रामदेव से हुई थी। शुरुआत में उन्होंने दिव्य फार्मेसी के नाम से कारोबार शुरू किया, जो बाद में पतंजलि ब्रांड बन गया। कंपनी में शीर्ष पदों पर भर्ती से लेकर मार्केटिंग और ब्रांडिंग तक सभी काम आचार्य बालकृष्ण ही देखते हैं। करीब 40 हजार करोड़ रुपये के पतंजलि समूह के मालिक और सीईओ आचार्य बालकृष्ण हैं। समूह के तहत वे करीब 34 कंपनियों और तीन ट्रस्ट की अगुवाई करते हैं। बाबा रामदेव को गाड़ियों का काफी शौक है। योग गुरू को हाल ही में Mahindra XUV700 को चलाते हुए देखा गया है। सोशल मीडिया पर शेयर एक वीडियो में रामदेव अपने साथी के साथ नई कार में घूमते हुए दिखाई दे रहे हैं।
बाबा रामदेव जिस XUV700 को चलाते हुए देखे गए हैं, उसमें पैनोरमिक सनरूफ दिखाई दे रहा है, इसका मतलब साफ है कि ये गाड़ी टॉप मॉडल है। उन्हें कुछ समय पहले जगुआर एक्सजे एल में देखा गया था। बालकृष्ण के पास लैंड रोवर रेंज रोवर लग्जरी गाड़ी है। बाबा रामदेव एक उत्साही बाइकर रहे हैं। अब तो वह विशेष निजी विमानों से देश विदेश की यात्राएं भी करने का दावा करने लगे हैं। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी विमानों के शौक़ीन थे और योग शिक्षा के लिए जयप्रकाश नारायण और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ पंडित नेहरू और श्रीमती इंदिरा गाँधी को प्रभावित कर बाद में सत्ता की राजनीति तथा आर्थिक धंधों में लग गए थे। बाबा रामदेव ने भी योग के जरिये ही देश के विभिन्न दलों के नेताओं और फिर अन्ना आंदोलन के बाद भाजपा की सत्ता का हर संभव लाभ उठाते रहे हैं।
लेकिन योग से अधिक कंपनियों के व्यापार से आर्थिक साम्राज्य बना रहे हैं। लेकिन नियम कानून की अनदेखी और अहंकार के साथ यह आर्थिक उड़ानें कहीं उनके लिए गंभीर संकट न पैदा कर दे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
देश में चुनाव होते हैं तो कभी पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा जाता है तो कभी असहिष्णुता को लेकर असहमति निर्माण का प्रयास किया जाता है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।।
शुक्रवार को भुनेश्वर में आयोजित एसओए साहित्य उत्सव में भाग लेने का अवसर मिला। इसके उद्घाटन सत्र में प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी का वक्तव्य हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में आशीष नंदी ने कई बार डिस्सेंट (असहमति) शब्द का उपयोग किया। उन्होंने साहित्यकारों की रचनाओं में असहमति के तत्व की बात की। उसकी महत्ता को भी स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपने भाषण के आरंभ में उन्होंने कहा था कि वो कोई विवादित बयान नहीं देंगे। लेकिन असहमति की बात करते हुए उन्होंने एक किस्सा सुनाया। कहा कि एक कवयित्री हैं जो नरेन्द्र मोदी के बारे में हमेशा अच्छा अच्छा लिखती थी। उनकी प्रशंसा करती थी। उस कवयित्री को उन्होंने नरेन्द्र मोदी का प्रशंसक तक बताया। फिर आगे बढ़े और कहा कि एक दिन उस कवयित्री ने गंगा नदी में बहती लाशों के बारे में लिख दिया। इसके बाद उसके प्रति कुछ लोगों का नजरिया बदल गया।
वो इंटरनेट मीडिया पर ट्रोल होने लगी। इस किस्से के बाद वो अन्य मुद्दों पर चले गए। कहना न होगा कि आशीष नंदी का इशारा कोविड महामारी के दौरान गंगा नदी में बहती लाशों की ओर था। वो इतना कहकर आगे अवश्य बढ़ गए लेकिन वहां उपस्थित लोगों के मन में असहमति को लेकर एक संदेह खड़ा कर गए। परोक्ष रूप से वो ये कह गए कि वर्तमान केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर असहमति प्रकट करने के बाद प्रहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। यहां आशीष नंदी ये बताना भूल गए कि कोविड महामारी के दौरान गंगा में बहती लाशों को लेकर जो भ्रम फैलाया गया था वो एक षडयंत्र का हिस्सा था। केंद्र के साथ साथ उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा करने की मंशा से ये नैरेटिव बनाने का प्रयास किया गया था।
उसी समय दैनिक जागरण ने गंगा नदी में बहती लाशों को लेकर उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक पड़ताल की थी। उस झूठ का पर्दाफाश किया था कि लाशें महामारी की भयावहता को छिपाने के लिए गंगा में बहा दी गईं थीं। बाद में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने भी गंगा में तैरती लाशों वाले उस नैरेटिव पर ध्यान नहीं दिया। किड महामारी के बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में फिर से योगी आदित्यनाथ की सरकार को जनादेश देकर उस विमर्श को खत्म कर दिया था।
इन दिनों असहमति को लेकर खूब चर्चा होती है। यह भी कहा जाता है कि असहमति को दबाने का प्रयास किया जाता है। कई बार ये कहते हुए केंद्र सरकार के विरोध में अपनी राय रखनेवाले कथित बुद्धिजीवि असहमति को दबाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर आरोप भी लगाते हैं। यहां वो असहमति का एक महत्वपूर्ण पक्ष बताना भूल जाते हैं। असहमति का अधिकार लोकतंत्र में होता है, होना भी चाहिए लेकिन असहमति के साथ साथ उसकी मंशा और उद्देश्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। डिस्सेंट जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है उस डिसेंट के पीछे का इंटेंट। अगर असहमति के पीछे छिपी मंशा किसी दल या विचारधारा का विरोध है तो उसको भी उजागर करना चाहिए।
उसको भी असहमति के साथ ही रखकर विचार किया जाना चाहिए। अगर किसी विचार से असहमति हो और उसके पीछे मंशा वोटरों को लुभाने की हो तो उसपर खुलकर बात की जानी चाहिए। बौद्धिक और साहित्य जगत में असहमति होना आम बात है लेकिन अगर किसी रचना का उद्देश्य किसी विचारधारा विशेष को पोषित करना और उसके माध्यम से पार्टी विशेष को लाभ पहुंचना है तो फिर उस असहमति का प्रतिकार करने का अधिकार सामने वाले को भी होना ही चाहिए। वामपंथ में आस्था रखनेवाले बुद्धिजीवियों ने वर्षों तक ये किया। इल तरह का बौद्धिक छल कहानी, कविता और आलोचना के माध्यम से हिंदी जगत में वर्षों तक चला, अब भी चल ही रहा है। वामपंथी पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ट की तरह कार्य करनेवाले लेखक संगठनों से जुड़े लेखकों ने अपनी रचनाओं में वामपंथी विचारों को परोसने का काम किया।
पाठकों को जब उनकी ये प्रवृति समझ में आई तो वो इस तरह की रचनाओं को खारिज करने लगे। इस तरह की रचना करनेवाले लेखकों की विश्वसनीयता भी पाठकों के बीच संदिग्ध हो गई। ये अकारण नहीं है कि एक जमाने में वामपंथ को पोषित करनेवाली लघुपत्रिकाएं धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। उनके बंद होने के पीछे इन लेखक संगठनों के मातृ संगठनों का कमजोर होना भी अन्य कारणों में से एक कारण रहा। इन मातृ संगठनों के कमजोर होने की वजह उनमें लोगों का भरोसा कम होना भी रहा। आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री जब असहमति की पैरोकारी करते हैं तो इस महत्वपूर्ण पक्ष को ओझल कर देते हैं।
अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन ने 1922 में जनमत के प्रबंधन के लिए एक शब्द युग्म प्रयोग किया था, मैनुफैक्चरिंग कसेंट (सहमति निर्माण)। उसके बाद कई विद्वानों ने इस शब्द युग्म को अपने अपने तरीके से व्याख्यायित किया। एडवर्ड हरमन और नोम चोमस्की ने 1988 में एक पुस्तक लिखी मैनुफैक्चरिंग कंसेंट, द पालिटिकल इकोनामी आफ द मास मीडिया। इस पुस्तक में लेखकों का तर्क था कि अमेरिका में जनसंचार के माध्यम सरकारी प्रोपगैंडा का शक्तिशाली औजार है और उसके माध्यम से सरकारें अपने पक्ष में सहमति का निर्माण करती हैं।
उनके ही तर्कों को मानते हुए अगर थोड़ा अलग तरीके से देखें तो हम कह सकते हैं कि हमारे देश में एक खास विचारधारा के पोषक मैनुफैक्चरिंग डिस्सेंट में लगे हैं। यानि वो अपने विचारों से, अपने वक्तव्यों से, अपने लेखन से असहमति का निर्माण करने का प्रयास करते हैं जिससे परोक्ष रूप से सरकार के विरोधी राजनीतिक दलों के प्रोपैगैंडा को बल प्रदान किया जा सके। इस असहमति के निर्माण में लोकतंत्र, जनतंत्र, संवैधानिक अधिकारों की एकांगी व्याख्या आदि का सहारा लिया जाता है ताकि उनको तर्कों को विश्वसनीयता का बाना पहनाकर जनता के सामने पेश किया जा सके। यहां वो यह भूल जाते हैं कि भारत और यहां की जनता अब पहले की अपेक्षा अधिक समझदार हो गई है, शिक्षा का स्तर बढ़ने और लोकतंत्र के गाढ़ा होने के कारण असहमति निर्माण का खेल बहुधा खुल जाता है। बौद्धिक जगत में भी अब असहमति निर्माण करनेवालों के सामने उनके उद्देश्य को लेकर प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं। परिणाम यह होने लगा है कि जनता को समग्रता में सोचने विचारने का अवसर मिलने लगा है।
हमारे देश में असहमति निर्माण का ये खेल चुनावों के समय ज्यादा दिखाई देता है। जब जब देश में चुनाव होते हैं तो कभी पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा जाता है तो कभी असहिष्णुता को लेकर असहमति निर्माण का प्रयास किया जाता है तो कभी फासीवाद का नारा लगाकर तो कभी संस्थाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कब्जे का भ्रम फैलाकर। कई बार हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस चलाकर भी। लेकिन इन सबके पीछे का उद्देश्य एक ही होता है कि किसी तरह से मोदी सरकार की छवि धूमिल हो सके ताकि चुनाव में विपक्षी दलों को उसका लाभ मिल सके।
लेकिन हो ये रहा है कि न तो पुरस्कार वापसी का प्रपंच चल पाया, न ही असहिष्णुता का आरोप गाढ़ा हो पाया। फासीवाद फासीवाद का नारा लगाने वाले भी अब ये जान चुके हैं कि ये शब्द भारत और यहां की राजनीति के संदर्भ में अपना अर्थ खो चुके हैं। हिंदुत्व और हिंदूवाद की बहस भी अब मंचों तक सीमित होकर रह गई है। अगले वर्ष के आरंभ में आम चुनाव होनेवाले हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि असहमति निर्माण के इस खेल में नए नए तर्क ढूंढे जाएं। पर असहमति निर्माण में लगे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये जो जनता है वो सब जानने लगी है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
यह हमारी तरह या हमसे बेहतर लिख सकता है। दुनिया की लगभग हर जानकारी इसके पास है जिसे प्रोसेस कर कुछ पलों में जवाब मिल जाता है।
मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।
Open AI दुनिया का सबसे क़ीमती स्टार्ट अप है। इसने पिछले साल ChatGPT लाँच किया है। इस कंपनी की कीमत 86 बिलियन अमेरिकी डॉलर है यानी 72 लाख करोड़ रुपये। भारत के शेयर बाजार में दस क़ीमती कंपनियों (जैसे रिलायंस, TCS, HDFC, हिंदुस्तान लीवर) का जोड़ इसके बराबर बैठता है। पिछले हफ़्ते Open AI के बोर्ड ने CEO सैम अल्टमैन को निकाल दिया। कंपनी में कर्मचारियों ने बग़ावत कर दी। फिर सबसे बड़े शेयर होल्डर माइक्रोसॉफ़्ट ने दबाव बनाया। काफी नाटक हुआ। सैम अल्टमैन फिर CEO बन गए। उनको निकालने वाले बोर्ड को ही निकाल दिया गया। इस घटनाक्रम के बाद आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस (AI) की दुनिया बदल जाएगी।
AI को लेकर दो विचार है। पहला विचार कहता है कि यह दुनिया में क्रांति लाने वाला आइडिया है। जैसे भाप का इंजन, बिजली, पर्सनल कंप्यूटर या इंटरनेट ने हमारी दुनिया बदल दी। पिछले साल भर में हमें इसकी झलक मिली है ChatGPT से। यह हमारी तरह या हमसे बेहतर लिख सकता है। दुनिया की लगभग हर जानकारी इसके पास है जिसे प्रोसेस कर कुछ पलों में जवाब मिल जाता है। ये कम्प्यूटर कोड लिख सकता है। इससे नौकरी जाने का ख़तरा है। इस विचार के समर्थक कहते हैं कि AI हमें बाक़ी चीज़ों के लिए फ़्री कर देगा। जीवन बेहतर होगा।
दूसरा विचार AI को लेकर आशंकित हैं। यह विचार कहता है कि AI मानवता को ख़त्म कर सकता है। इसके डेवलपमेंट में सोच समझ कर आगे बढ़ना चाहिए। इसी विचार ने Open AI को 2015 में नॉन प्रॉफिट कंपनी बनाया था। इसका उद्देश्य प्रॉफिट कमाना नहीं था। AI का उपयोग मानवता की भलाई के लिए करना था। कंपनी के बोर्ड के मेंबर इसी विचार के समर्थक थे। सैम अल्टमैन कंपनी के फाउंडर हैं पर बोर्ड के इन विचारों से सहमत नहीं थे। 2019 में उन्होंने प्रॉफिट का रास्ता चुना। माइक्रोसॉफ़्ट ने इन्वेस्टमेंट किया।
बोर्ड अपनी जगह बना रहा। पिछले साल ChatGPT के लाँच ने अल्टमैन को सुपर स्टार बना दिया। वो कमर्शियल इस्तेमाल के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ना चाहते थे। बोर्ड से इसी बात पर टकराव हुआ। अल्टमैन की जीत हुई। न्यूयार्क टाइम्स ने हेडलाइन दी कि AI now belongs to capitalists यानी AI पर अब पूँजीवादियों का क़ब्ज़ा हो गया है। सैम अल्टमैन को निकालते समय बोर्ड ने कहा था कि वो हमसे कुछ बातें छिपा रहे थे। अभी तक साफ़ नहीं है कि वो क्या छिपा रहे थे।
रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ Open AI ने Q* ( Q Star) प्रोजेक्ट बना लिया है। ये AI यानी आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस का अगला चरण है। इसे AGI यानी आर्टिफिशयल जनरल इंटेलिजेंस कहते हैं। Open AI के मुताबिक़ AGI वो ज़्यादातर काम कर लेगा जो मानव कर सकता है। मानव की तरह सोच सकता है। AI को ट्रेनिंग देनी पड़ती है। वो वही काम या जवाब दे सकता है जिसकी ट्रेनिंग मिली है जबकि AGI ख़ुद भी सीख सकता है। इसीलिए मानवता के लिए ख़तरा माना जा रहा है। क्या होगा यदि मशीन ने तय कर लिया कि मानवता को नष्ट कर देना है? अभी इसका कोई जवाब नहीं है। इतना ज़रूर कह सकते हैं कि AI पर सतर्कता बरतने वाले विचार की हार हो गई है।
(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)
प्रख्यात पत्रकार एवं साहित्यकार राजेश बादल जी ने मध्य प्रदेश चुनाव के संदर्भ में वर्ष 1993 और वर्ष 2003 की कुछ चुनावी रिपोर्ट्स रखीं तो लगता है कि आज भी वही मुद्दे, वही विश्लेषण है।
पूरन डावर, सामाजिक चिंतक एवं विश्लेषक।।
प्रख्यात पत्रकार एवं साहित्यकार राजेश बादल जी ने मध्य प्रदेश चुनाव के संदर्भ में वर्ष 1993 और वर्ष 2003 की कुछ चुनावी रिपोर्ट्स रखीं तो लगता है कि आज भी वही मुद्दे, वही विश्लेषण है। यदि उसी रिपोर्ट को आज अक्षरश: प्रस्तुत कर दिया जाए तो कतई अंतर नहीं आएगा। शत प्रतिशत चुनाव उन्हीं मुद्दों पर हो रहा है, लेकिन लोकसभा की वोटिंग बड़े और अलग मुद्दों पर हो रही है।
देश एक बड़े परिवर्तन की ओर है। अभी तक अगर हमने बबूल के पेड़ बोए हैं तो आम तो लगेंगे नहीं। हमने शिक्षा दी है और हुनर छीना है। सबका मकसद नौकरी कर दिया है। मात्र 7.3% नौकरियां हैं और हम उसकी लाइन में लगे हैं तो निराशा हाथ लगना स्वाभाविक है। कूट-कूटकर भर दिया गया है कि अंग्रेजी बोलने वाले ही पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेज़ी प्रोडक्ट ही अच्छा है। जो अंग्रेज कहते हैं, वही सही है।
युवाओं को समझना होगा कि टाटा से लेकर अंबानी तक तमाम बड़ी हस्तियों ने अपने सफर की शुरुआत जमीनी स्तर से की है। 'उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख समान' यह समझना पड़ेगा और डिग्री आपको कोई भी काम करने से रोकती है तो उसे साइड में उठाकर रखना होगा।
भाषा वही रखनी होगी जो आम आदमी तक पहुंच सके। अंग्रेजी झाड़कर रौब बनाकर या प्रभावी साहित्यिक भाषा में बातकर आम आदमी का जीवन नहीं बदला जा सकता। विलायती बबूल की जरूरत उस समय जंगल के लिए जमीन घेरने के लिए थी, उसी तरह शिक्षित करने के लिए जो व्यवस्था मिली, स्थान दिया।
विडंबना यह है कि आजादी और भ्रष्टाचार के उन्माद में अपनी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गईं और विलायती बबूल के जंगल में हम खो गए और जंगलों से जंगली भी सड़कों पर आ गए। आज सड़कों पर बंदरों का आतंक भी कम नहीं है। छायादार, फलदार पेड़ ही लगाने होंगे, विलायती बबूल को अब साफ करने का समय है।
इतिहास के प्रस्तुतिकरण में जो गलतियां हुई हैं, वह सुधारनी होंगी। तुष्टिकरण के मुद्दे, जातिवादी मुद्दे हल करने ही होंगे। इतिहास की गलतियों और उनके दूरगामी परिणामों पर दृष्टि भी रखनी होगी और सुधार भी करना होगा। यह कड़वी अवश्य लगती है और वर्तमान में उथल-पथल भी कर सकती हैं। प्रजातंत्र की प्रक्रिया इसलिये धीमी है।
बिलकुल! यही तो महात्मा गांधी के स्वराज की भावना थी। उसी भावना पर काम हो रहा है। बाकी सरकार चलानी है तो राजनीति भी करनी ही होगी। व्यवस्था सुधारने में लंबा समय लगेगा। जनसंख्या कानून, एक देश एक कानून, एक देश एक चुनाव (स्थानीय निकायों से लेकर राज्य और लोकसभा तक एक साथ) न्याय प्रक्रिया में बड़ा सुधार और पुराने एक्ट समाप्त कर समयबद्ध न्याय, इन्हीं की आशा मोदी जी से है और उसी पर जनता वोट कर रही है, साल 2024 निर्णायक होने वाला है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)