‘जिस वैकल्पिक मीडिया की बात सबसे कम होती है, मुझे उसी में एक तिनका उम्मीद दिखाई दे रही है’

मेरी नजर में मीडिया के लिए साल 2022 डर, अपराध, जेल, भ्रष्टाचार व शोर और उससे मिल सकने वाले मुनाफे का साल रहा। मीडिया ने साल की शुरुआत से लेकर अंत तक इन्हें भरपूर प्राथमिकता दी।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by
Published - Thursday, 29 December, 2022
Last Modified:
Thursday, 29 December, 2022
Dr Vartika Nanda


डॉ. वर्तिका नंदा।।

मेरी नजर में मीडिया के लिए साल 2022 डर, अपराध, जेल, भ्रष्टाचार व शोर और उससे मिल सकने वाले मुनाफे का साल रहा। मीडिया ने साल की शुरुआत से लेकर अंत तक इन्हें भरपूर प्राथमिकता दी। अपराधों की नई किस्मों को परोसा। अपराध करने के नुस्खे-तरीके बताए और साथ में चलते-चलते अपराध की खबर भी बताई। पूरे साल कई बड़े नामों को जेल में जाते और जेल से बाहर आते हुए देखा गया। जेल में मालिश से लेकर जेल से रिहा हुए चार्ल्स शोभराज तक, टुकड़ों में गर्लफ्रेंड को काट देने वाले से लेकर काली कमाई के मामले में गिरफ्त में आए नामचीन लोगों तक मीडिया ऐसी तमाम खबरें ढूंढता रहा, जो उसे टीआरपी बटोरने में मदद करतीं। लेकिन, इनमें सामाजिक सरोकार नहीं था। विशुद्ध मुनाफा था। मीडिया कारोबार और मुनाफे से चिपका रहा। पूंजी में जान अटकी रही।

2022 गलतफहमियों में गुजर गया। ढेर सारे चैनलों के बीच में किसी एक पत्रकार की मजबूत छवि बनने का दौर कभी का चला गया। अब न ही जनता को बहुत सारे पत्रकारों के चैनल याद रहते हैं और न ही खुद उनके नाम। जो पत्रकार कुछ दिन तक टीवी पर नहीं दिखता, जनता उसका नाम भूलने लगती है। मतलब यह कि अब नाम गुमने लगे हैं। इसके बावजूद आत्ममुग्धता और गुमान के नकली संसार में जी रहे मीडिया को अपना अक्स देखने की फुर्सत अब तक नहीं मिली है। फिर पत्रकारों का वर्गीकरण भी हुआ है। स्टार एंकर-रिपोर्टरों को छोड़ दें तो बाकी की स्थिति में कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ है। वे आज भी उतने ही लाचार हैं, जितने पहले थे। चैनलों को किसी के होने या न होने से लेशमात्र भी फर्क नहीं पड़ता। यह तबका संवेदना के लायक है, लेकिन उससे हमदर्दी करने वाले भी नदारद हैं।

वैसे नामों का गुम जाना इस बात को साबित करता है कि भीड़ में  जगह बनाना मुश्किल काम है। दूसरा संकट मीडिया की उस गिरती विश्वसनीयता का है, जिसे वो मानने को राजी नहीं है। इसलिए मैं मिसाल जेल की ही देना चाहूंगी। भारतभर की जितनी जेलों में मैं गई, उसमें बंदियों ने इस बात को बड़ा जोर देकर कहा कि उनका विश्वास न तो कानून पर है और न ही मीडिया पर। कानून पर विश्वास न होने की वजह समझ में आ सकती है, लेकिन जेल की कोठरी में बैठा कोई बंदी मीडिया पर भरोसा न रखता हो, यह बात सोचने की जरूर है। कड़वी बात शायद बंदी ही कह सकता है। लेकिन, उसकी भी सुनता कोई नहीं।

ठीक 10 साल पहले तक नया साल आने पर ज्यादा चर्चा इस बात पर होती थी कि क्या प्रिंट मीडिया अपने अस्तित्व को बचा पाएगा और क्या निजी चैनलों के बीच में उसको खुद को संभाल पाना मुश्किल होगा? आज 2022 में चिंता इस बात की नहीं है कि प्रिंट का क्या होगा, चिंता इस बात की जरूर है कि टीवी न्यूज के शोर के बीच अब खबर का क्या होगा? खबरों के खालिसपन पर अब खुद खबरनवीसों का यकीन नहीं रहा। दर्शक भी खबर परोसने वाले को देखकर हौले-से मुस्कुरा देता है। देखते ही देखते न्यूज मनोरंजन में बदल गई और मनोरंजन न्यूज में। भाषा और व्याकरण दयनीय बना दिए गए हैं। सही भाषा लिखने वाले ढूंढने की कोशिशें भी अब नहीं होतीं। बाजार में सब स्वीकार्य है बशर्ते पैसा आता हो। तिजोरी ने भाषा को शर्म से भर दिया है। इस सारे गड़बड़झाले के बीच खबर की स्थिति सर्कस के जोकर की तरह होने लगी है। हां, एक फर्क यह जरूर है कि सर्कस में एक ही जोकर होता है और वही सर्कस का नायक भी बना रहता है।

एक और चिंता मीडिया की पढ़ाई को लेकर है। अब क्या पढ़ाया जाए, क्या बताया जाए और क्या सिखाया जाए। छात्र जो सीखता है वो न्यूजरूम में मिलता नहीं और न्यूजरूम में है, उसे पढ़ाया नहीं जा सकता। मीडिया शिक्षण एक ऐसे चौराहे पर आ खड़ा हो गया है, जहां बैलेंस और वैरिफिकेशन की बात को छात्र हजम नहीं कर पाता। क्लासरूम की पढ़ाई जिस शालीन खबर की बात करती है, वो टीवी के पर्दे पर दिखती नहीं। दंगल में बदल चुके टीवी न्यूज चैनलों की भीड़ में यह लेखा-जोखा करना मुश्किल लगता है कि मीडिया आने वाले सालों में अपनी छवि को कैसे सुधारेगा।

दर्शक को वैसा ही मीडिया मिल रहा है, जिसके वह योग्य है। मीडिया का स्तर दर्शक के स्तर को भी रेखांकित कर रहा है। इसलिए अब मीडिया से शिकायत न कीजिए। गौर कीजिए कि आप दिनभर क्या सुनना, देखना, बोलना और पढ़ना पसंद करते हैं। पढ़ने की घटती परंपरा ने तेजी से परोसे जा रहे समाचारों की जमीन तैयार की है। आपके जायके का स्वाद ही मौजूदा मीडिया है और जायके में सुधार है-वैकल्पिक मीडिया। इसलिए जिस मीडिया की बात सबसे कम होती है, मुझे उसी में उम्मीद दिखाई दे रही है।

पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टर की अपनी सीमाएं और प्राथमिकताएं हैं। प्राइवेट मीडिया अपनी साख के संकट से जूझ रहा है। तीनों तरह के मीडिया में यह बात साफ तरह से उभरने लगी कि आने वाला साल वैकल्पिक मीडिया के लिए एक नई जगह खड़ी कर सकता है। दिल्ली पुलिस ने 2022 की जनवरी को अपने पॉडकास्ट ‘किस्सा खाकी का’ की शुरुआत की। हर रविवार को प्रसारित होने वाली इस कड़ी में हर बार एक नया किस्सा होता है। पुलिस जैसा बड़ा और दमदार महकमा भी अब अपने लिए वैकल्पिक प्लेफार्म तैयार कर चुका है। यह एक शुरुआत है। नागरिक पत्रकारिता बड़ा आकार ले रही है। सोशल मीडिया ने जैसे पत्रकारों की फौज ही खड़ी कर दी है। हर किसी के पास कहने-पोस्ट करने के लिए कुछ है। वे अब किसी पर आश्रित नहीं। ऐसे में एक तिनका उम्मीद बाकी है, क्योंकि उम्मीद और हौसले के लिए तिनका भी बहुत होता है।

(यह लेखिका के निजी विचार हैं। लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख हैं और जेलों की सुधार की दिशा में चल रही मुहिम ‘तिनका तिनका’ की संस्थापक हैं।)

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अपनी कहानियों से देश को जोड़ने वाले विज्ञापन गुरु थे पीयूष पांडेय: प्रो. साजल मुखर्जी

पीयूष पांडेय के निधन की खबर भारतीय विज्ञापन जगत के लिए एक युग के अंत जैसी महसूस हो रही है।

Samachar4media Bureau by
Published - Saturday, 25 October, 2025
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Saturday, 25 October, 2025
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प्रो. साजल मुखर्जी- डायरेक्टर, एपीजे इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन, द्वारका, नई दिल्ली ।।

पीयूष पांडेय के निधन की खबर भारतीय विज्ञापन जगत के लिए एक युग के अंत जैसी महसूस हो रही है। जिन लोगों ने इस इंडस्ट्री में दशकों बिताए हैं, उनके लिए वे सिर्फ एक क्रिएटिव लीडर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे कहानीकार थे जो भारत को बहुत गहराई से समझते थे। उनके विज्ञापन आम लोगों की भाषा बोलते थे। उनमें अपनापन, हंसी-मजाक और सच्चाई थी। यही वो खूबियां थीं जिन्होंने भारतीय विज्ञापन को एक अलग पहचान दी, जबकि दुनिया के ज्यादातर विज्ञापन विदेशी अंदाज की नकल से भरे होते थे।

पीयूष पांडेय का काम भावनात्मक जुड़ाव का बेहतरीन उदाहरण है। 'हर घर कुछ कहता है' (एशियन पेंट्स), 'मिले सुर मेरा तुम्हारा', 'कुछ खास है जिंदगी में' (कैडबरी) और 'तोड़ो नहीं, जोड़ो' (फेविक्विक) जैसी मुहिमें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। ये सिर्फ विज्ञापन नहीं थे, बल्कि हमारी जिंदगी और समाज का आईना थे। वह जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को इस तरह पेश करते थे कि वह हर किसी के चेहरे पर मुस्कान ले आती थी।

उनकी किताब ‘Pandeymonium’ उनके रचनात्मक सफर को ईमानदारी से बयां करती है। यह किताब विज्ञापन की कला और संवाद की सोच को समझने वाली सबसे गहरी पुस्तकों में से एक है। हर अध्याय ये सिखाता है कि अच्छा विज्ञापन चतुराई नहीं, बल्कि सादगी और इंसानी समझ पर टिका होता है।

एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जिसने इस पेशे में चार दशक से ज्यादा समय बिताया है और अब नए विद्यार्थियों को पढ़ाता हूं, मैं अक्सर अपने क्लासरूम में उनके कामों का जिक्र करता हूं। उनके विज्ञापन सिर्फ रचनात्मक उदाहरण नहीं, बल्कि सहानुभूति, सादगी और जीवन के प्रति नजरिए के पाठ हैं। छात्र तुरंत उनसे जुड़ जाते हैं, क्योंकि उनमें उन्हें जिंदगी दिखाई देती है, सिर्फ रणनीति नहीं।

पीयूष पांडेय की विरासत उनके विज्ञापनों से कहीं बड़ी है। वह हजारों लोगों को इस क्षेत्र में आने और कुछ नया करने के लिए प्रेरित कर गए। उनका जीवन इस बात का सबूत है कि इस प्रोफेशन में असली सफलता ईमानदारी, जिज्ञासा और अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साहस से मिलती है।

हममें से बहुतों के लिए वे हमेशा वो विज्ञापन गुरु रहेंगे, जिन्होंने भारत को अपनी कहानियों से प्यार करना सिखाया। उनके विचार, उनकी आवाज और उनकी आत्मा हमेशा हर क्लासरूम, हर कैंपेन और हर उस रचनात्मक दिल में जिंदा रहेगी जो कहानी कहने की ताकत पर विश्वास रखता है।

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छठ की भीड़, रेलवे से कहां चूक हुई : रजत शर्मा

अंबाला स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ थी, अमृतसर से पूर्णिया की तरफ जाने वाली ट्रेन जैसे ही स्टेशन पर पहुंची तो धक्कामुक्की शुरू हो गई। तुंरत जालंधर से एक स्पेशल ट्रेन भेजी गई।

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Published - Saturday, 25 October, 2025
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Saturday, 25 October, 2025
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रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

बिहार के लोगों में महापर्व छठ को लेकर इस बार काफी उत्साह है। बिहार के जो लोग देश के दूसरे राज्यों में रहते हैं, वे छठ के मौके पर अपने घर लौटना चाहते हैं। यही वजह है कि ट्रेनों में जबरदस्त भीड़ देखने को मिल रही है। गुजरात के रेलवे स्टेशनों के बाहर दो किलोमीटर लंबी लाइनें लगी हुई देखी गईं। रेलवे ने छठ के लिए 13,000 विशेष ट्रेनों का इंतजाम किया है, लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा है कि सारे इंतजाम कम पड़ रहे हैं।

गुरुवार को खुद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मोर्चा संभाला। स्टेशनों पर भीड़ प्रबंधन और ट्रेनों की लोकेशन पर नजर रखने के लिए तीन वॉर रूम बनाए गए। इनकी फीड सीधे रेल भवन में बने मुख्य वॉर रूम में पहुंच रही थी, जहां रेल मंत्री स्वयं मौजूद थे। जिस स्टेशन पर ज्यादा भीड़ दिखती है, वहां तुरंत ट्रेन भेजी जा रही है।

जैसे अंबाला स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ थी। अमृतसर से पूर्णिया की ओर जाने वाली ट्रेन जैसे ही स्टेशन पर पहुंची, धक्का-मुक्की शुरू हो गई। तुरंत जालंधर से एक स्पेशल ट्रेन भेजी गई और यात्री उस ट्रेन से बिहार के लिए रवाना हो गए। बीते सालों से सबक लेकर इस बार रेलवे ने भीड़ प्रबंधन के लिए नया मैकेनिज्म (mechanism) तैयार किया है।

देश के ऐसे 35 रेलवे स्टेशन चिह्नित किए गए हैं, जहां त्योहारों के वक्त सबसे ज्यादा भीड़ होती है। इन स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरों के जरिए 24 घंटे मॉनिटरिंग की जा रही है। किसी भी स्टेशन पर भीड़ बढ़ने पर स्थानीय अधिकारियों से फीडबैक लेकर तुरंत स्पेशल ट्रेन पहुंचाई जाती है।

छठ पूजा के लिए लोग पहले भी घर लौटते थे। ट्रेनों में भीड़ पहले भी होती थी। कई लोग ट्रेन की छत पर बैठकर सफर करते थे, कुछ ट्रेन से लटककर जान जोखिम में डालकर घर जाते थे और कोई इसकी परवाह नहीं करता था। रेलवे में इस तरह की यात्रा को कभी सामान्य (normal) माना जाता था।

भीड़ अब भी है, ट्रेनें अब भी कम पड़ रही हैं, लेकिन अब रेलवे को लोगों की परवाह है। इसकी वजह है रेल मंत्री की व्यक्तिगत दिलचस्पी। अश्विनी वैष्णव ने डेटा स्टडी (Data Study) करके प्लान बनाया, स्पेशल ट्रेनें चलाईं, सुविधाएं बढ़ाईं। पर जब लोगों को पता चला कि अब स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं और ज्यादा सहूलियतें हैं, तो जो लोग पहले छठ पर घर नहीं जाते थे, उन्होंने भी अपने बैग पैक कर लिए। नतीजा, भीड़ और बढ़ गई।

अंदाजा गलत निकला, इंतजाम कम पड़ने लगे। पर लोगों को इस बात का संतोष है कि रेलवे उनकी यात्रा और सुविधाओं की चिंता करता है और यह विश्वास, बहुत बड़ी बात है। एक बात और, सोशल मीडिया पर जो भी दावे किए जा रहे हैं, उन पर आंख मूंदकर भरोसा न करें। सरकार की तरफ से जो औपचारिक जानकारी दी जाती है, उसी पर यकीन करें, क्योंकि आजकल सोशल मीडिया के चक्कर में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां होती हैं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सिर्फ चुनाव में क्यों याद आता है संविधान : प्रो. संजय द्विवेदी

संविधान सभा को इस बात की जानकारी थी, कि संविधान को नए सूत्रों में पिरोना होगा। एक गतिशील विश्व मे, यह जनता और समग्र राष्ट्र की सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम बनेगा।

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Published - Saturday, 25 October, 2025
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Saturday, 25 October, 2025
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प्रो. संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान।

देश में जब भी चुनाव आते हैं, संविधान की याद आती है। गत लोकसभा चुनावों में संविधान बदलने के शिगूफे से विपक्ष को अनेक स्थानों पर चुनावी लाभ भी मिला। अब एक बार फिर बिहार चुनाव के बहाने संविधान चर्चा में है। जबकि भारत के संविधान की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसका विचार-दर्शन चिरस्थाई है, लेकिन इसका ढांचा और अनुच्छेद लचीले हैं।

हमारे संविधान निर्माता समय के साथ अनुच्छेदों के संशोधन और परिवर्तन के लिए भावी पीढ़ी को पर्याप्त शक्ति प्रदान करने के मामले में प्रबुद्ध और दूरदर्शी थे। हमारा संविधान गतिहीन नहीं है, बल्कि एक सजीव दस्तावेज है। संविधान सभा को इस बात की जानकारी थी, कि संविधान को नए सूत्रों में पिरोना होगा। एक गतिशील विश्व मे, यह जनता और समग्र राष्ट्र की सेवा करने का सर्वोत्तम माध्यम बनेगा। भारतीय संविधान को हमने अनेकों बार संशोधित किया है, जिससे यह परिलक्षित होता है कि हम कितनी सक्रियता से यह सुनिश्चित करने में लगे हैं, कि तेजी से रूपांतरित हो रहे इस देश में इसकी प्रासंगिकता कम न पड़ जाए।

संविधान निर्माताओं ने अनुभव किया था कि संविधान, चाहे कितना बढ़िया लिखा गया हो और कितना बड़ा हो, अमल में लाए और मूल्यों का अनुकरण किए बिना उसका कोई अर्थ नहीं है। इसलिए हमने भावी पीढ़ियों पर विश्वास जताया है। संविधान लोगों को उतना ही सशक्त बनाता है, जितना लोग संविधान को सशक्त बनाते हैं। जब व्यक्ति और संस्थाएं पूछती हैं कि संविधान ने उनके लिए क्या किया है और इसने उनकी क्षमता को कितना बढ़ाया है, उन्हें यह भी विचार करना चाहिए कि उन्होंने संविधान के अनुपालन के लिए क्या किया है?

उन्होंने इसके मूल्य तंत्र के समर्थन के लिए क्या किया है? संविधान का अर्थ ‘हम लोग’ हैं और ‘हम लोग, संविधान’ हैं। भारतीय संविधान प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देने का वादा करता है और उन्हें किसी प्रकार के भेदभाव से भी बचाता है। हमने इसे हमेशा बनाए रखने और प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित करने का संकल्प गणतंत्र की शुरुआत में ही लिया था। यह हमारी प्रगति का मूल्यांकन और विश्लेषण करने का भी समय है कि हमने आम आदमी के लिए इस वादे को कितने अच्छे तरीके से निभाया है।

राष्ट्र केवल सीमाओं, प्रतीकों और संस्थाओं का समूह नहीं है, बल्कि राष्ट्र उसके लोगों में निहित होता है। राष्ट्र की तीन शाखाओं - न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के संबंधों को खोजते हुए इनके जटिल और नाजुक संतुलन का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। सभी एक समान हैं। इन्हें अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक होना चाहिए तथा स्वायतत्ता की रक्षा करने का प्रयास करना चाहिए। हमारे स्तंभों में से प्रत्येक स्तंभ को अपनी शक्तियों के प्रयोग में स्वतंत्र होने की आवश्यकता है, लेकिन राष्ट्रीय एकता, अखंडता और खुशहाली के लिए संगठित रूप से अन्य दो स्तंभों के साथ कड़ी के रूप काम करने की भी जरूरत है।

पिछले आठ दशकों में हमारा लोकतांत्रिक अनुभव सकारात्मक रहा है। अपनी इस यात्रा में हमें अत्यंत गौरव के साथ पीछे मुड़ कर देखना चाहिए कि हमारे देश ने, न केवल अपने लोकतांत्रिक संविधान का पालन किया है, बल्कि इस दस्तावेज में नए प्राण फूंकने और लोकतांत्रिक चरित्र को मजबूत करने में भी अत्यधिक प्रगति की है। हमने 'जन' को अपने 'जनतंत्र' के केंद्र में रखा है और हमारा देश न केवल सबसे बड़े जनतंत्र के रूप में, बल्कि एक ऐसे देश के रूप में उभर कर सामने आया है, जो निरंतर पल्लवित होने वाली संसदीय प्रणाली के साथ जीवंत और बहुलतावादी संस्कृति का उज्ज्वल प्रतीक है।

हमने संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक समावेशी और विकसित भारत के निर्माण के लिए न केवल अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को साकार करने पर ध्यान केंद्रित किया है, बल्कि हम शासन-प्रणाली में भी रूपांतरण कर रहे हैं। यह वास्तव में एक आदर्श परिवर्तन है, जिसमें लोग अब निष्क्रिय और मूकदर्शक या 'लाभार्थी' नहीं रह गए हैं, बल्कि परिवर्तन लाने वाले सक्रिय अभिकर्ता हैं। जब तक हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करेगा, तब तक अन्य लोगों के अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता।

भारत के पास ऐसी बहुत सी शक्तियां और क्षमताएं हैं, जो हमें उच्च विकास के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती हैं। हमारा समृद्ध मानव संसाधन उनमें से एक है। हमारे पास सक्षम सिविल सेवा के रूप में एक मजबूत ढांचा है, जिसे सरदार पटेल के नेतृत्व में हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था। हमारी प्रमुख निष्ठा हमारे संविधान के मूल्यों तथा हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के फायदों को समाज के निचले पायदान तक ले जाने की होनी चाहिए। इसके लिए, हमें अधीनस्थ संस्थानों के स्तर को उठाने का निरंतर प्रयास करना चाहिए और उन्हें सभी क्षेत्रों की उच्च संस्थाओं के बराबर लाना चाहिए।

यदि हम राष्ट्रीय उद्देश्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा एवं प्रतिबद्धता के साथ करें, तो विकास पथ पर देश तीव्र गति से अग्रसर होगा और हमारा लोकतंत्र ओर अधिक परिपक्व लोकतंत्र बनेगा। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्व में हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन हो। हमें 'विचारशील' व्यक्ति भी बनना चाहिए और यह देखना चाहिए कि हम मौजूदा प्रक्रियाओं एवं प्रणालियों को कैसे 'सुधार' सकते हैं। भारत अपने इतिहास के ऐसे महत्वपूर्ण समय में हैं, जहां हम एक प्रमुख विश्व अर्थव्यवस्था के रूप में निरंतर विकास कर रहे हैं।

हम लगातार अपने लोकतंत्र को कार्यशील बनाए हुए हैं और यह सुनिश्चित करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं कि इसका लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। यही समय है कि हम संविधान में प्रस्तावित कर्तव्यों को याद रखें। यही समय है कि भारत का प्रत्येक नागरिक इस उत्साहपूर्ण भावी यात्रा का हिस्सा बनने की शपथ ले। आज जब देश अमृतकाल में अपने लिए असाधारण लक्ष्य तय कर रहा है, दशकों पुरानी समस्याओं के समाधान तलाशकर नए भविष्य के लिए संकल्प ले रहा है, तो ये सिद्धि सबके साथ से ही पूरी होगी।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पीयूष जी ने मुझे सोचने और बड़े सपने देखने की प्रेरणा दी: अरनब गोस्वामी

पद्मश्री पीयूष पांडेय एक लेजेंड थे और इतिहास हमेशा उन्हें ऐसे ही याद रखेगा। लेकिन मेरे लिए, उनकी सबसे बड़ी खासियत थी उनकी गर्मजोशी और साफगोई, जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मिस करूंगा।

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Published - Friday, 24 October, 2025
Last Modified:
Friday, 24 October, 2025
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अरनब गोस्वामी- फाउंडर, चेयरमैन व एडिटर-इन-चीफ, रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क ।।

पद्मश्री पीयूष पांडेय एक लेजेंड थे और इतिहास हमेशा उन्हें ऐसे ही याद रखेगा। लेकिन मेरे लिए, उनकी सबसे बड़ी खासियत थी उनकी गर्मजोशी और साफगोई, जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मिस करूंगा।

सालों से मुझे पीयूष जी के साथ कई खूबसूरत पल बिताने का मौका मिला। ये यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी। सब कुछ लिख पाना मुश्किल है, लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा याद रहेगी, वह है उनका लगातार दिया गया फीडबैक, उनकी सटीक और तेज आलोचना और हमारा हौसला बढ़ाने का उनका अंदाज- खासकर जब हम रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क को बना रहे थे।

मुझे याद हैं रिपब्लिक के शुरुआती दिन, जब हम बहुत छोटी टीम के साथ दिन-रात मेहनत कर रहे थे ताकि एक सपना हकीकत बन सके। उन्हीं दिनों मेरी पीयूष जी से लंबी बातचीत हुई थी कि मैं क्या करने जा रहा हूं। उनके सुझाव बेहद ही ईमानदारी भरे, गहरे और दूरदर्शी थे। उन्होंने हमें पूरा चित्र देखने और हर चीज को बड़े परिप्रेक्ष्य में समझने की सीख दी।

फरवरी, मार्च और अप्रैल 2017 के महीनों में उन्होंने रिपब्लिक के लॉन्च कैंपेन के लिए इतना समय दिया कि रविवार को भी वे प्रेजेंटेशन के लिए मौजूद रहते थे।

मुझे अब भी याद है, वह अक्सर कमरे के सबसे पीछे बैठते थे चुपचाप सब सुनते और सोचते रहते। जब प्रेजेंटेशन खत्म होता और सब उनकी राय का इंतजार करते, तब वह अचानक उठकर कोई बेहद रचनात्मक और अप्रत्याशित आइडिया देते, जो अंत में हमारे पूरे लॉन्च कैंपेन की बुनियाद बन जाता था। उस कैंपेन की सफलता में उनका योगदान बेहद अहम था।

क्रिएटिव मीटिंग्स से परे, पीयूष जी अक्सर हमारे ब्रैंड की आत्मा और सोच पर बात करते थे। वह बड़ी खूबी से हमारे मिशन और उद्देश्य को कलात्मक रूप में बदलते थे, ताकि वह जनता तक सही भाव से पहुंचे। मैं हमेशा आभारी रहूंगा उस वक्त के लिए जो उन्होंने और उनकी ओगिल्वी टीम ने रिपब्लिक की शुरुआत में हमें दिया। वे दिन मेरे लिए बहुत कीमती हैं।

लेकिन मेरा रिश्ता पीयूष जी से सिर्फ रिपब्लिक कैंपेन तक सीमित नहीं था। पिछले दो दशकों में हमने देश से जुड़ी कई बातों पर निजी स्तर पर चर्चा की। 'टाइम्स नाउ' के दिनों से ही वह मेरा शो देखने के बाद मुझे कॉल करते थे, कभी-कभी डिबेट के बीच में मैसेज भेज देते थे। यदि वे किसी बात से असहमत होते तो खुलकर कहते और अगर सहमत होते तो उतनी ही गर्मजोशी से तारीफ भी करते। यही बात उन्हें सबसे अलग बनाती थी- उनकी ईमानदारी और खुलापन।

हमने 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत के कुछ ही हफ्तों बाद RedInk Awards में मंच साझा किया था। विषय था “क्या मीडिया ने NaMo Wave बनाई?” और पीयूष जी के विचार बिल्कुल सटीक और बेबाक थे। जब बाकी मीडिया उस समय असमंजस में था, तब उन्होंने तथ्यों और समझ के साथ साफ कहा कि असली बात क्या है। यही थे पीयूष जी -हमेशा निडर, साफ सोच वाले और ट्रेंड्स से अप्रभावित।

सितंबर 2022 में जब रिपब्लिक ने #UnitedByLanguage कैंपेन शुरू किया, उन्होंने मुझे शो के दौरान मैसेज किया। मैंने उसी वक्त 1990 के दशक में लिखा उनका एक शानदार लेख याद किया, जो शहरी भारत के लिए एक आईना था। पीयूष जी सचमुच भारत की विविधता और एकता की भावना से जुड़े हुए व्यक्ति थे।

जब भारत ने अपनी 71वीं आजादी का जश्न मनाया, वह मुंबई स्टूडियो आए और अपनी यात्रा के बारे में बात की। मुझे हमेशा यही बात सबसे खास लगी। उन्होंने हर चीज में भारतीयता को केंद्र में रखा, उस दौर में जब कई लोग पश्चिमी ढर्रे की नकल करने में लगे थे। यही थे पीयूष जी- एक सच्चे भारतीय, जिन्होंने लगभग चार दशकों तक भारतीय विज्ञापन जगत को नई पहचान दी।

कोविड के मुश्किल भरे दिनों में, जब हर तरफ अंधकार था, वह मेरे Sunday Debate शो में आए और पूरे देश को यह भरोसा दिया कि “हम जीत रहे हैं।” यही थे पीयूष जी- उम्मीद देने वाले, लोगों को प्रेरित करने वाले और मुश्किल वक्त में हौसला बढ़ाने वाले।

देश के लिए पीयूष जी विज्ञापन जगत के एक संस्थान के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे। मेरे लिए वह हमेशा ऐसे व्यक्ति रहेंगे जिन्होंने मुझे और गहराई से सोचने, बड़े सपने देखने और अपने मूल्यों पर डटे रहने की प्रेरणा दी।

सिर्फ मैं ही नहीं पूरा देश हमेशा आपको याद करेगा, पीयूष जी।

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पीयूष पांडेय ने सिखाया कि इंसानियत ही सबसे बड़ी कला है: संतोष देसाई

पीयूष पांडेय का दिल बहुत बड़ा था। वह हर उस व्यक्ति को गले लगाते थे जो उनसे जुड़ता था।

Samachar4media Bureau by
Published - Friday, 24 October, 2025
Last Modified:
Friday, 24 October, 2025
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फ्यूचरब्रैंड्स इंडिया के सीईओ संतोष देसाई ने विज्ञापन जगत के दिग्गज पीयूष पांडेय के निधन पर गहरा दुख जताया। उन्होंने कहा कि पीयूष पांडेय ऐसे इंसान थे जो अपने आस-पास के हर व्यक्ति को यह एहसास कराते थे कि वह खास है, उसकी बात सुनी जा रही है और उसकी कद्र की जा रही है।

संतोष देसाई ने कहा, “पीयूष का दिल बहुत बड़ा था। वह हर उस व्यक्ति को गले लगाते थे जो उनसे जुड़ता था। उनकी गर्मजोशी और उत्साह हर किसी को छू जाता था। उन्होंने हमेशा लोगों को दिया ही दिया है, चाहे वह उनके युवा सहयोगी हों, क्लाइंट हों या उनके दोस्त, जो उन्हें बेहद प्यार करते थे।”

उन्होंने आगे कहा, “विज्ञापन की दुनिया में उनके योगदान को किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। उनकी असली खूबी थी उनका बेहद मानवीय स्वभाव। वह अपने आसपास के हर व्यक्ति को यह महसूस कराते थे कि वह महत्वपूर्ण है। आखिरी बार मैं उनसे इस साल गोवा में अपने घर पर मिला था। तब उनकी तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं थी, लेकिन उनका वही जोश और वही जोरदार हंसी अब भी वैसी ही थी, जो पूरे कमरे को रोशनी से भर देती थी। वह पल भुलाए नहीं जा सकते।”

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रामबहादुर राय होने का अर्थ समझाती एक किताब: प्रोफेसर संजय द्विवेदी

भारतीय जीवन मूल्यों और पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने वाले रामबहादुर राय ने राजनीति के शिखर पुरुषों से रिश्तों के बावजूद कभी कलम को ठिठकने नहीं दिया।

Samachar4media Bureau by
Published - Thursday, 16 October, 2025
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Thursday, 16 October, 2025
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प्रोफेसर संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष।

कभी जनांदोलनों से जुड़े रहे, पदम भूषण और पद्मश्री सम्मानों से अलंकृत श्री रामबहादुर राय का समूचा जीवन रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी लंबी जीवन यात्रा में सबसे ज्यादा समय उन्होंने पत्रकार के रूप में गुजारा है। इसलिए वे संगठनकर्ता, आंदोलनकारी, संपूर्ण क्रांति के नायक के साथ-साथ महान पत्रकार हैं और लेखक भी।

अपने समय के नायकों से निरंतर संवाद और साहचर्य ने उनके लेखन को समृद्ध किया है। हमारे समय में उनकी उपस्थिति ऐसे नायक की उपस्थिति है, जिसके सान्निध्य का सुख हमारे जीवन को शक्ति और लेखन को खुराक देता है। उनका समावेशी स्वभाव, मानवीय संवेदना से रसपगा व्यक्तित्व भीड़ में उन्हें अलग पहचान देता है। ‘दिल्ली’ में ‘भारत’ को जीने वाले बौद्धिक योद्धा के रूप में पूरा देश उन्हें देखता, सुनता और प्रेरणा लेता है।

जिस दौर की पत्रकारिता की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर ढेरों सवाल हों, ऐसे समय में राम बहादुर राय की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। सही मायने में उनकी मौजूदगी हिन्दी पत्रकारिता की उस परंपरा की याद दिलाती है, जो बाबूराव विष्णुराव पराड़कर से होती हुई राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी तक जाती है।

4 फरवरी, 1946 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव में जन्में श्री राय सही मायने में पत्रकारिता क्षेत्र में शुचिता और पवित्रता के जीवंत उदाहरण हैं। वे एक अध्येता, लेखक, दृष्टि संपन्न संपादक, मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रेरक छवि रखते हैं। भारतीय जीवन मूल्यों और पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने वाले रामबहादुर राय ने राजनीति के शिखर पुरुषों से रिश्तों के बावजूद कभी कलम को ठिठकने नहीं दिया।

उन्होंने वही लिखा और कहा जो उन्हें सच लगा। राय साहब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर छात्र राजनीति में सक्रिय रहते हुए, ऐतिहासिक जयप्रकाश आंदोलन के नायकों में रहे। दैनिक 'आज' में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का आंखों देखा वर्णन लिखकर आपने अपनी पत्रकारीय पारी की एक सार्थक शुरुआत की। युगवार्ता फीचर सेवा, हिन्दुस्तान समाचार संवाद समिति में कार्य करने के बाद आप 'जनसत्ता' से जुड़ गए।

'जनसत्ता' में एक संवाददाता के रूप में कार्य प्रारंभ कर वे उसी संस्थान में मुख्य संवाददाता, समाचार ब्यूरो प्रमुख, संपादक, जनसत्ता समाचार सेवा के पदों पर रहे। आप नवभारत टाइम्स, दिल्ली में विशेष संवाददाता भी रहे। आप देश की अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं जिनमें प्रज्ञा संस्थान, युगवार्ता ट्रस्ट, दशमेश एजुकेशनल चेरिटेबल ट्रस्ट, इंडियन नेशनल कमीशन फॉर यूनेस्को, प्रभाष परंपरा न्यास, भानुप्रताप शुक्ल न्यास के नाम प्रमुख हैं।

आपकी चर्चित किताबों में आजादी के बाद का भारत झांकता है। ये किताबें राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र की मूल्यवान किताबें हैं। जिनमें भारतीय संविधानःएक अनकही कहानी, रहबरी के सवाल (पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी), मंजिल से ज्यादा सफर (पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की जीवनी), काली खबरों की कहानी (पेड न्यूज पर केंद्रित), भानुप्रताप शुक्ल- व्यक्तित्व और विचार प्रमुख हैं।

भारतीय पत्रकारिता की उजली परंपरा के नायक के रूप में रामबहादुर राय आज भी निराश नहीं हैं, बदलाव और परिवर्तन की चेतना उनमें आज भी जिंदा है। स्वास्थ्यगत समस्याओं के बावजूद आयु के इस मोड़ पर भी वे उतने ही तरोताजा हैं।

पत्रकारिता के इस अनूठे नायक पर प्रो. कृपाशंकर चौबे की नई किताब ‘रामबहादुर रायःचिंतन के विविध आयाम’( प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित) उनके अवदान को अच्छी तरह से रेखांकित करती है। एक पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में बहुज्ञात राय साहब को इस तरह देखना निश्चित ही कृपाजी की उपलब्धि है। उनकी यह किताब राय साहब के संपूर्ण रचनाधर्मी स्वभाव का जिस तरह मूल्यांकन करती है, वह अप्रतिम है। किताब में उनका व्यक्तित्व, उनकी किताबें, उनके रिश्ते और रचना कर्म दिखता है।

इस तरह यह किताब उन्हें जानने का सबसे बेहतरीन जरिया है। क्योंकि रामबहादुर राय जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व को आप उनकी किसी एक किताब, एक मुलाकात, एक व्याख्यान से नहीं समझ सकते। किंतु यह किताब बड़ी सरलता से उनके बारे में सब कुछ कह देती है। किताब में अंत में छपा उनका साक्षात्कार तो अद्भुत है, एक यात्रा की तरह और फीचर का सुख देता हुआ।

संवाद ऐसा कि चित्र और दृश्य साकार हो जाएं। रामबहादुर राय से यह सब कुछ कहलवा लेना लेखक के बूते ही बात है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती है, तो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है।

किताब की सबसे बड़ी विशेषता इसकी समग्रता है। वह बताती है कि किसी खास व्यक्ति का मूल्यांकन किस तरह किया जाना चाहिए। हिंदी पत्रकारिता में आलोचना की परंपरा बहुत समृद्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि साहित्यिक आलोचना में सक्रिय लोग पत्रकारिता को बहुत गंभीरता से नहीं लेते, मीडिया अध्ययन संस्थानों में भी पत्रकारों के काम पर शोध का अभ्यास नहीं है।

ऐसे में यह किताब हमें पत्रकारीय व्यक्तित्व की आलोचना का पाठ भी सिखाती है। 11 अध्यायों में फैली इस किताब का हर अध्याय समग्रता लिए हुए है। हमारे बीते दिनों की यात्राएं, आजादी के बाद एक बनते हुए देश की चिंताएं, सरकारों की आवाजाही, हमारे नायकों की मनोदशा सबकुछ। पहले अध्याय में संघर्ष और सरोकार के तहत उनके बचपन,स्कूली शिक्षा, कालेज जीवन, अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद में उनकी सक्रियता, संघर्ष, जेल यात्रा सब कुछ जीवंत हो उठा है। उनके आंदोलनकारी और छात्र राजनीति के पक्ष को यहां समझा जा सकता है। जयप्रकाश नारायण से उनका रिश्ता कैसे उन्हें रूपांतरित करता है, कैसे वे आंदोलन के मार्ग से लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के मार्ग पर आते हैं, इसे पढ़ना सुख देता है।

अध्याय दो में ‘प्रश्नोत्तर शैली में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी’ शीर्षक अध्याय में राय साहब की किताब ‘रहबरी के सवाल’ की चर्चा है। चंद्रशेखर जी के साथ संवाद से बनी यह किताब राजनीति, समाज और समय के संदर्भों की अनोखी व्याख्या है। जहां संवाद एक तरह के शिक्षण में बदल जाता है। पुस्तक में एक भाषण में भारत को पारिभाषित करते हुए चंद्रशेखर जी कहते हैं,-“भारत सिर्फ मिट्टी का नाम नहीं है। कुछ नदियों और पहाड़ों का समुच्चय नहीं है। भारत सत्य, एक सतत, शास्वत गवेषणा का नाम है। सत्य की इस धारा से दुनिया बार-बार आलोकित होती रही है।”

अध्याय तीन में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीवनी (मंजिल से ज्यादा सफर) भी संवाद शैली में ही लिखी गयी है। इस स्तर के राजनेताओं के अनुभव निश्चय ही हमें समृद्ध करते हैं। क्योंकि वे आजादी के बाद के भारत की राजनीति, संसद और समाज की गहरी समझ लेकर आते हैं। पत्रकार राय साहब इस तरह समाजविज्ञानियों और राजनीतिशास्त्रियों के लिए मौलिक पाठ रचते नजर आते हैं। इस किताब की भूमिका में यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी लिखते हैं -“रामबहादुर राय देश के एक बहुत विश्वसनीय और प्रामाणिक पत्रकार हैं। यह जल्दी में काता-कूता कपास नहीं है। बड़े जतन से बुनी गयी चादर है। ”

अध्याय चार और पांच महान समाजवादी चिंतक और राजनेता जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण को समझने में मदद करते हैं। अध्याय –छह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे बालासाहब देवरस की विचार दृष्टि पर चर्चा है। यह पाठ ‘हमारे बालासाहब देवरस’ नामक पुस्तक पर केंद्रित है जिसका संपादन राय साहब और राजीव गुप्ता ने किया था। अध्याय सात में गोविंदाचार्य पर संपादित किताब की चर्चा है। गोविंदाचार्य के बहाने यह किताब राजनीति की लोकसंस्कृति पर विमर्श खड़ा करती है। अध्याय आठ में पड़ताल शीर्षक से छपे उनके स्तंभ का विश्वेषण है।

इस स्तंभ पर केंद्रित चार पुस्तकें अरुण भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित हुई हैं। जिनका प्रो. कृपाशंकर चौबे ने नीर-क्षीर विवेचन किया है। अध्याय- नौ में राय साहब की बहुचर्चित किताब ‘भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी’ की चर्चा है। इस किताब में संविधान सभा की बहसें हमारे सामने चलचित्र की तरह चलती हैं। बहुत मर्यादित और गरिमामय टिप्पणियों के साथ। शायद लेखक चाहते हैं कि उनके पाठक भी वही भाव और स्पंदन महसूस कर सकें, जिसे संविधान सभा में उपस्थित महापुरुषों ने उस समय महसूस किया होगा।

रामबहादुर जी की कलम उस ताप को ठीक से महसूस और व्यक्त करती है। जैसे राजेंद्र प्रसाद जी को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष बनाते समय श्री सच्चिदानंद सिन्हा और अंत में बोलने वाली भारत कोकिला सरोजनी नायडू जी के वक्तव्य को पढ़ते हुए होता है। अध्याय-10 में राय साहब के निबंधों की चर्चा है। अध्याय-11 में राय साहब से कृपाशंकर जी का संवाद अद्भुत है।

उसे पढ़ना पत्रकारिता में उनके अनुभवों के साथ बहुत सी बातें सामने आती हैं। खासकर नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंद्र माथुर की मृत्य के कारणों पर उन्होंने जो कहा वह बहुत साहसिक है। यह वही समय है जब हमारी पत्रकारिता से संपादक के विस्थापन और कारपोरेट के पंजों की पकड़ मजबूत हो रही है।

अपनी आधी सदी की पत्रकारिता में रामबहादुर राय ने जिन आदर्शों और लोकधर्म का पालन किया है, यह किताब उनके जीवन मूल्यों को लोक तक लाने में सफल रही है। इस बहाने उनके जीवन, कृतित्व और सरोकारों से परिचित होने का मौका यह पुस्तक दे रही है। लेखक को इस शानदार किताब के लिए बधाई। राय साहब के लिए प्रार्थनाएं कि वे शतायु हों।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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पाकिस्तान ने काबुल पर हमला क्यों किया: रजत शर्मा

तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को लाहोर और इस्लामाबाद में प्रोटेस्ट किया। शहबाज शरीफ की पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी, फिर फायरिंग की और हैडग्रेनेड तक फेंके।

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Published - Tuesday, 14 October, 2025
Last Modified:
Tuesday, 14 October, 2025
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रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।

गाज़ा में शांति प्लान को लेकर पाकिस्तान में जबरदस्त हंगामा हो रहा है। पाकिस्तान की हुकूमत और आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने ट्रंप के गाजा पीस प्लान का न केवल समर्थन किया, बल्कि इस्लामिक मुल्कों का समर्थन हासिल करने में ट्रंप की मदद की थी। इससे पाकिस्तान में जबरदस्त नाराजगी है।

तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को लाहोर और इस्लामाबाद में प्रोटेस्ट किया। शहबाज शरीफ की पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी, फिर फायरिंग की और हैडग्रेनेड तक फेंके। तहरीक-ए-लब्बैक ने लाहौर से इस्लामाबाद तक मार्च निकालने और अमेरिकी दूतावास के घेराव का एलान किया था लेकिन पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोक दिया। इस्लामाबाद और रावलपिंडी में इंटरनेट सेवाओं को सस्पेंड कर दिया।

इस्लामाबाद, रावलपिंडी, पेशावर और लाहौर के एंट्री और एग्जिट प्वॉइंट्स पर कंटेनर्स लगाकर सड़कों को बंद कर दिया। तहरीक-ए-लब्बैक के लाहौर के सेंटर रहमत अली मस्जिद को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। जैसे ही प्रदर्शनकारियों मस्जिद से बाहर निकले तो पहले पुलिस ने लाठियां चलाईं और फायरिंग शुरू कर दी।

तहरीक-ए-लब्बैक के नेताओं ने कहा कि शहबाज शरीफ की हुकूमत और पाकिस्तान की फौज अमेरिका के हुक्म पर इजराय की जी हुजूरी कर रही है, इसे पाकिस्तान की आवाम कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।

पाकिस्तान की जनता की भावनाएं पूरी तरह फिलिस्तीन के साथ है। उन्हें लगता है कि शहबाज और मुनीर ने अमेरिका की जी हुजूरी करने के लिए इजरायल का साथ दिया। इसीलिए लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इन लोगों को ना तो पुलिस की लाठियों का डर है ना गोलियों का। मस्जिदों से ऐलान किए जा रहे हैं, मौलाना तकरीर कर रहे हैं, पाकिस्तान के मुसलमानों से फिलिस्तीन के हक के लिए आवाज उठाने की अपील की जा रही है। शहबाज की हुकूमत और मुनीर की फौज को ये सौदा महंगा पड़ेगा।

पाकिस्तान ने आवाम का ध्यान भटकाने के लिए नई चाल चली। पाकिस्तानी एय़र फोर्स ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में मिसाइल्स से हमला कर दिया। पाकिस्तानी फौज का दावा है कि पाकिस्तान में आंतकवादी हमले करने वाले तहरीक-ए-तालिबान के दहशतगर्द काबुल में छुपे हैं। इसलिए काबुल में तहरीक-ए-तालिबान के अड्डों को निशाना बनाया गया।

पाकिस्तानी वायु सेना ने दावा किया कि पाकिस्तान के फाइटर जैट्स ने काबुल में छुपे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के चीफ नूर वली महसूद को निशाना बनाया। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अफगान अधिकारियों के हवाले से बताया कि अब्दुल हक चौराहे के पास एक लैंड क्रूजर कार को निशाना बनाया गया। कहा जा रहा है कि इसी लैंड क्रूज़र में नूर वली महसूद था। लेकिन कुछ ही देर के बाद नूर वली महसूद की आवाज में एक ऑडियो टेप जारी किया गया जिसमें महसूद दावा कर रहा है कि वो ज़िंदा और सही सलामत है।

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा आसिफ ने संसद में कहा कि अफगानिस्तान की सरकार अब पाकिस्तान के साथ गद्दारी कर रही है। ख्वाज़ा आसिफ ने कहा कि जो अफगान शरणार्थी तीन पीढियों से पाकिस्तान में रह रहे हैं, वो भी पाकिस्तान के साथ नमक हरामी कर रहे हैं, इसलिए अब पाकिस्तान ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं करेगा।

गौर करने वाली बात ये है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर एयर स्ट्राइक ऐसे वक्त पर की, जब अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी भारत में हैं। चार साल पहले अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद उसके किसी मंत्री का ये पहला भारत दौरा है।

शहबाज शरीफ की सरकार अफगानिस्तान से बुरी तरह चिढ़ी हुई है और अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर एयर स्ट्राइक की। बुरी तरह बौखलाए पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा आसिफ ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि ये अफगानी पाकिस्तान के साथ कभी थे ही नहीं, वो हमेशा से भारत के वफादार रहे हैं।

जब दिल्ली में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान हर मुद्दे का बातचीत से हल चाहता है, वो तनाव नहीं बढ़ाना चाहता। लेकिन मुत्ताकी ने पाकिस्तान को चेतावनी भी दी।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की सरकार अफगानिस्तान को हल्के में लेने की गलती न करे, अगर किसी ने अफगानिस्तान को छेड़ा तो उसे छोड़ेंगे नहीं, पाकिस्तान याद करे कि इससे पहले सोवियत संघ और अमेरिका का क्या हश्र हुआ।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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इतिहास को नए सिरे से लिखने के कगार पर बीजेपी: समीर चौगांवकर

एक और हकीकत को हिसाब से लें तो उसका दावा और वजनदार हो जाता है। 2015 उस सिलसिले में एकमात्र अपवाद था जिसमें भाजपा और जदयू ने हमेशा गठबंधन में चुनाव लड़ा।

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Published - Monday, 13 October, 2025
Last Modified:
Monday, 13 October, 2025
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समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

बिहार के इतिहास में पहली बार बीजेपी 243 में से 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में मैदान में उतर रही है। आरजेडी के पास 77 सीटें है,तो जेडीयू 45 विधायकों के साथ मैदान में है। बिहार हिंदी पट्टी का अकेला राज्य है, जहां भाजपा ने कभी अपने दम पर सरकार नहीं बनाई और ना ही अभी तक अपना मुख्यमंत्री बना सकी है।

भगवा रणनीतिकार जानते है कि वे इतिहास के इस हिस्से को नए सिरे से लिखने के कगार पर खड़े है। 2020 की उसकी 19.46 फीसद वोट हिस्सेदारी अपने आप में तो अच्छी खासी है ही, यह उसकी एक ज्यादा गहरी लोकप्रियता छिपा लेती है, और वह यह है कि बीजेपी ने जिन 110 सीटों पर चुनाव लड़ा, वहा उसकी वोट हिस्सेदारी 42.56 फीसद थी। इसी की बदौलत उसे जदयू को अपनी लड़ी 115 सीटों पर मिले 32.83 फीसद वोटों पर काफी बढ़त हासिल है।

यही बात मुख्यमंत्री की कुर्सी के बड़े इनाम पर भाजपा के अघोषित दावे को जायज बना देती है। एक और हकीकत को हिसाब से लें तो उसका दावा और वजनदार हो जाता है। 2015 उस सिलसिले में एकमात्र अपवाद था जिसमें भाजपा और जदयू ने हमेशा गठबंधन में चुनाव लड़ा। हर बार अपनी लड़ी सीटों पर उनकी वोट हिस्सेदारी के प्रतिशत तकरीबन एक जैसे थे।

फरवरी 2005 में 24.91/26.41, अक्टूबर 2005 में 35.64/37.14 और 2010 में 39.56/38.77, लेकिन 2020 में बीजेपी और जदयू में 9.73 फीसद अंकों के भारी अंतर से वह संतुलन गड़बड़ा गया। उस वक्त जो भविष्य दूर दिखाई देता था, वह अब पहुंच के भीतर हैं।

एनडीए और महागठबंधन में ही सिर्फ़ सत्ता का संघर्ष नहीं है। एनडीए के भीतर भी एक दूसरे को निपटाने और कमजोर करने का संघर्ष जारी है। बीजेपी की कोशिश होगी कि चुनाव के बाद जेडीयू की हैसियत इतनी कमजोर हो जाए कि वह ना आरजेडी के साथ सरकार बनाने की स्थिति में रहे और ना बीजेपी को अपना मुख्यमंत्री बनाने से रोक सके वही जेडीयू की कोशिश हर हाल में बीजेपी को इस स्थिति में लाना है कि नीतीश के बिना बीजेपी के पास कोई विकल्प ना रहे।

बीजेपी और उसके गैर जदयू सहयोगी यदि साधारण बहुमत पर पहुंच जाते है तब भाजपा अपना मुख्यमंत्री बना लेगी। भाजपा ने नीतीश को अगला मुख्यमंत्री की घोषणा से परहेज किया है। चुनाव बाद सीटों की संख्या तय करेगी कि बिहार का मुख्यमंत्री कौन होगा। बिहार के इस युद्ध में कौन सामने से वार कर रहा है और कौन पीठ में छुरा घोंप रहा है, कुछ नहीं कहा जा सकता।

प्रेम और युद्ध में सब जायज मानकर बिहार के इस चुनावी रण में सारे हथकण्डे अपनाए जा रहे हैं। कौन दुश्मन के हाथों मारा जाता हैं और कौन अपनों के हाथों बस यह देखना बाकी है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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टाटा ग्रुप में झगड़ा क्यों हो रहा है? पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब किताब'

पहले समझ लीजिए कि टाटा परिवार टाटा ग्रुप का मालिक नहीं है जैसे अंबानी अड़ानी परिवार अपने अपने ग्रुप के सबसे बड़े शेयर होल्डर हैं। टाटा ग्रुप में 29 कंपनियाँ शेयर बाज़ार में लिस्ट हैं।

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Published - Monday, 13 October, 2025
Last Modified:
Monday, 13 October, 2025
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मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।

टाटा ग्रुप मार्केट कैप के हिसाब से देश का सबसे बड़ा ग्रुप है। इसके शेयरों की क़ीमत अभी ₹26 लाख करोड़ है। इस ग्रुप में झगड़ा इतना बढ़ गया कि सरकार को सुलह करनी पड़ी, फिर भी ऐसा लगता है कि झगड़ा इतनी आसानी से नहीं सुलझेगा क्योंकि टाटा संस का 18% शेयर होल्डर मिस्री परिवार अब IPO लाने की माँग को लेकर खुलकर सामने आ गया है।

पहले समझ लीजिए कि टाटा परिवार टाटा ग्रुप का मालिक नहीं है जैसे अंबानी अड़ानी परिवार अपने अपने ग्रुप के सबसे बड़े शेयर होल्डर हैं। टाटा ग्रुप में 29 कंपनियाँ शेयर बाज़ार में लिस्ट हैं। इन सबका प्रमोटर टाटा संस है। टाटा संस में 66% शेयर टाटा ट्रस्ट के पास है। टाटा संस के डिवीडेंड से यह ट्रस्ट अस्पताल, शिक्षा संस्थान और अन्य सामाजिक संस्थाएं चलाता है। यह मॉडल टाटा ग्रुप को बाकी घरानों जैसी लड़ाई से बचाने में मददगार रहा है। टाटा परिवार के पास 3% शेयर है जबकि मिस्त्री परिवार के पास 18% है।

टाटा संस प्राइवेट कंपनी है और सारा झगड़ा चल रहा है इसका IPO लाने के लिए यानी शेयर बाज़ार में लिस्टिंग करने के लिए। झगड़ा शुरू हुआ टाटा ट्रस्ट से। रतन टाटा के निधन के बाद नोएल टाटा चेयरमैन बनें। नोएल रतन के सौतेले भाई हैं। ट्रस्ट टाटा संस के बोर्ड पर तीन सदस्यों को भेजता है। यह ट्रस्ट दो गुटों में बंट गया है।

नोएल के साथ पूर्व IAS विजय सिंह और TVS के वेणु श्रीनिवासन है जबकि दूसरे गुट में मेहिल मिस्री मिलाकर चार सदस्य। दूसरे गुट ने विजय सिंह को टाटा संस के बोर्ड में दोबारा भेजने का प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया। उनकी उम्र की दुहाई दी गई। वो 77 साल के हैं। दूसरे गुट का कहना है कि उन्हें टाटा संस के कामकाज की जानकारी नहीं मिलती है। वो पारदर्शिता की माँग कर रहे हैं।

इशारों में टाटा संस का IPO लाने की माँग कर रहे हैं। मेहिल मिस्री का उस मिस्री परिवार के रिश्तेदार है जो टाटा संस में 18% का मालिक है। हालाँकि मेहिल को ट्रस्ट में रतन टाटा ही लेकर आए थे। टाटा और मिस्री परिवार का रिश्ता खट्टा मीठा रहा है। रतन टाटा ने सायरस मिस्री को अपना उत्तराधिकारी बनाया था फिर बेदख़ल भी किया।

सायरस की मृत्यु बाद में कार दुर्घटना में हुई थी। अब मिस्री परिवार माँग कर रहा है कि टाटा संस का IPO लाया जाए। मिस्री परिवार शॉपुरजी पॉलनजी (SP) ग्रुप चलाता है मुख्य रूप से इंफ़्रास्ट्रक्चर ,रियल इस्टेट जैसे क्षेत्र में है। उसे टाटा संस में अपने शेयर बेचने है ताकि वो क़र्ज़ चुका सकें। टाटा संस की क़ीमत दस लाख करोड़ रुपये के आसपास आँकी गई है यानी मिस्री परिवार डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का मालिक है। टाटा परिवार और टाटा ट्रस्ट इसके लिए राज़ी नहीं है। वो टाटा संस को पब्लिक नहीं करना चाहते हैं।

इस लंबी कहानी में रिजर्व बैंक भी एक पात्र है बल्कि सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में। रिज़र्व बैंक ने 2022 में टाटा संस को Non Banking Finance Company ( NBFC) घोषित किया। टाटा संस को 30 सितंबर 2025 तक शेयर बाज़ार में लिस्टिंग के लिए कहा था। टाटा संस ने IPO से बचने के लिए अर्ज़ी लगा दी कि हम NBFC नहीं रहना चाहते हैं। रिज़र्व बैंक ने अब तक कोई फ़ैसला नहीं लिया है।

सरकार और रिजर्व बैंक की भूमिका यहाँ निर्णायक होगी कि टाटा संस पब्लिक कंपनी बनेगी या प्राइवेट। पब्लिक कंपनी बनने पर डेढ़ सौ से ज़्यादा सालों के इतिहास में पहली बार टाटा संस में बाहरी निवेशकों का दख़ल होगा जो ट्रस्ट टाटा ग्रुप को पारिवारिक झगड़े के कारण टूट से बचाता रहा है वहीं अब झगड़ा हो रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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सिंगल स्कीन सिनेमाघर को लेकर नीति बनाए सरकार: अनंत विजय

आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है।

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Published - Monday, 13 October, 2025
Last Modified:
Monday, 13 October, 2025
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अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिल्ली के सीरी फोर्ट आडिटोरियम में अमिताभ बच्चन-धर्मेन्द्र अभिनीत फिल्म शोले का रिस्टोर्ड वर्जन प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म को बड़े पर्दे पर बेहतर आवाज के साथ देखना एक अलग ही अनुभव था। करीब बीस वर्षों का बाद शोले फिर से देख रहा था। बड़े पर्दे पर फिल्म देखना रोमांचकारी था। फिल्म के आखिरी सीन में अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र जय को जब गोली लगती है तो उसके चेहरे के भाव और पीड़ा बड़े पर्दे पर इतने प्रभावी लगते हैं कि दर्शक उस पीड़ा के साथ एकाकार हो जाता है।

जब जय, बसंती की मौसी के पास वीरू के रिश्ते की बात करने पहुंचता है तो उनके चेहरे की शरारत बड़े पर्दे पर इतना जीवंत दिखती है कि दर्शकों को खूब मजा आता है। सिर्फ अमिताभ ही नहीं बल्कि ठाकुर के रूप में संजीव कुमार, बसंती के रूप में हेमा मालिनी और बीरू के रूप में धर्मेंद्र की आदाकारी की प्रशंसा इस कारण मिल पाई की दर्शक बड़े पर्दे पर अभिनय की बारीकियों को महसूस कर सके थे।

आज जब मोबाइल पर फिल्में देखी जाने लगी हैं तो चेहरे के उन भावों को दर्शक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि आज अभिनय की बारीकियों पर बात नहीं होती है बल्कि कपड़ों के डिजायन से लेकर हिंसा के तरीकों पर बात होती है। हाल फिल्हाल में किसी फिल्म का कोई ऐसा सीन याद नहीं पड़ता जिसको लेकर चर्चा होती हो।

उसके छायांकन को लेकर उसको फिल्माने को लेकर चर्चा बहुत ही कम होती है। एक जमाना था जब अमिताभ बच्चन की फिल्मों के दृष्यों और संवादों की चर्चा होती थी। ये चर्चा फिल्म से अलग होती थी। संवादों के आडियो कैसेट अलग से बिका करते थे। अब फिल्मों को लेकर अधिक चर्चा इसकी होती है कि कितने दिनों में 100 करोड़ का बिजनेस कर लिया। फिल्म कितने दिन में 500 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई।

अमिताभ बच्चन ने रविवार को 83 वर्ष की आयु पूरी की। वो अब भी खूब सक्रिय हें। लोकप्रिय भी। इतनी लंबी आयु के बावजूद उनकी लोकप्रियकता क्यों कायम है, इसपर विचार किया जाना चाहिए। धर्मेन्द्र भी 90 वर्ष की आयु को छूने वाले हैं। वो भी इंटरनेट् मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। अपने फार्म हाउस से वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। उनके वीडियो भी लोग खूब पसंद करते हैं।

कभी शायरी सुनाते हैं, कभी अपनी तन्हाई को लेकर कमेंट करते नजर आते हैं। कई बार खेतों में घूमते उनके वीडियो भी दिख जाते हैं। इन दो अभिनेताओं के अलावा रेखा जब भी किसी अवार्ड शो में आती हैं या परफार्म करती हैं तो उसका वीडियो खूब प्रचलित होता है। लोग वीडियो को पोस्ट और रीपोस्ट करते हैं, अपनी टिप्पणियों के साथ।

अमिताभ बच्चन, धर्मन्द्र, रेखा, हेमा मालिनी और बहुत हद तक देखें तो माधुरी दीक्षित की लोकप्रियता में बड़े पर्द का बड़ा योगदान है। शोले के अलावा भी याद करिए दीवार और जंजीर में अमिताभ बच्चन की अदायगी। फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के बीच का चर्चित संवाद, मेरे पास गाड़ी है बंगला है... और जब शशि कपूर इसके उत्तर में कहते हैं मेरे पास मां है तो पूरा हाल तालियों से गूंज उठता है। आज भी इस संवाद की चर्चा होती है।

गाहे बगाहे सुनने को मिल जाता है। इसका कारण ये है कि लोगों ने बड़े पर्दे पर इस संवाद को घटित होते देखा है। दोनों अभिनेताओं के चेहरे के भाव को पढ़ा है। उसको महसूस किया है। अभिनय की गहराई ने लोगों को प्रभावित किया। इस कारण यह संवाद लगभग कालजयी हो गया। फिल्म से जुड़े शोधार्थियों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि डायलाग डिलीवरी और अभिनय के अलावा इसका बड़े पर्द पर आना भी एक कारण रहा है।

इस पीढ़ी के बाद भी अगर विचार किया जाए तो जितने भी अभिनेता और अभिनेत्री लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं वो कहीं न कहीं बड़े पर्द पर यादगार भूमिका कर चुके हैं। श्रीदेवी की फिल्में तोहफा, मवाली, जस्टिस चौधरी क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होकर इतनी सफल हो पाती। क्या तेजाब फिल्म में माधुरी दीक्षित के नृत्य का आनंद छोटी स्क्रीन पर लिया जा सकता है? आज छोटी स्क्रीन के जमाने में जब लोग मोबाइल या पैड पर फिल्में देख रहे हैं तो दर्शक अभिनय की बारीकियों को पकड़ नहीं पाता है।

वो कहानी की रफ्तार के साथ तेज गति से चलने में ही रोमांचित महसूस करता है। इसलिए फिल्मों की स्पीड पर चर्चा होती है उसके ठहराव पर नहीं। कुछ फिल्म समीक्षक तो अपनी फिल्म समीक्षा में फिल्मों के स्लो होने की बात करते हैं, यहां तक लिख देते हैं कि कहानी धीमी गति से चलती है। कहानी कही कैसे गई है इसपर बहुत कम चर्चा होती है।

शाहरुख खान, आमिर खान भी अगर सुपर स्टार बने तो बड़े पर्दे पर उनकी फिल्मों की लोकप्रियता के कारण। आज भी जिन फिल्मों को दर्शक बड़े पर्दे पर पसंद करते है उनके ही अभिनय की प्रशंसा होती है, लोकप्रियता भी उनको ही मिलती है। कुछ वेब सीरीज के अभिनेता या कलाकार इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन उनका संवाद या उनका अभिनय कालजयी साबित होगा इसका आकलन होना अभी शेष है। इतने वेब सीरीज आते हैं, बताया जाता है कि युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय भी हैं लेकिन कुछ ही समय बाद दर्शकों के मानस से ओझल भी हो जाते हैं।

आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है। छोटे शहरों में सिंगल स्क्रीन सिन्मा हाल बंद हो गए हैं। लोगों के पास सिनेमा हाल का विकल्प ही नहीं है। लोगों को छोटे स्क्रीन पर फिल्म देखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

मुझे याद है कि जब हम कालेज में थे भागलपुर में छह या सात सिनेमा हाल हुआ करते थे लेकिन अब वहां एक मल्टीप्लैक्स है। सारे सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल बंद हो गए। किसी में शापिंग कांपलैक्स खुल गया। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सिंगल स्कीन सिनेमाघर को लेकर कोई नीति बनाए। इसमें कर में कुछ वर्षों की छूट हो सकती है।

सस्ते दर पर सिनेमा हाल बनाने के लिए ऋण की व्यवस्था हो सकती है। साथ ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए कि टिकट दर दर्शकों की पहुंच में रहे। ये बार बार साबित भी हो चुका है कि जब जब निर्माताओं और सिनेमा हाल मालिकों ने टिकट की दरों में कटौती की है दर्शक सिनेमा हाल तक लौटे हैं। अगर दर्शक सिनेमा हाल तक लौटते हैं तो अभिव्यक्ति के इस सबसे सशक्त माध्यम को बल मिलेगा और फिर कोई सदी का महानायक बनने की राह पर चल निकलेगा। अभी तो फिल्मों के हाल पर हरिवंश राय बच्चन जी की एक पंक्ति याद आती है- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।

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