न्यूज चैनल्स पर होने वाली टेलिविजन डिबेट किसी की जिंदगी भी बर्बाद कर सकती हैं, ये हमने साल 2022 में देखा। मुझे लगता है कि मीडिया के माथे पर लगा ये कलंक साल की सबसे बड़ी खबर है।
अशोक श्रीवास्तव।।
न्यूज चैनल्स पर होने वाली टेलिविजन डिबेट किसी की जिंदगी भी बर्बाद कर सकती हैं, ये हमने साल 2022 में देखा। मुझे लगता है कि मीडिया के माथे पर लगा ये कलंक साल की सबसे बड़ी खबर है। कल तक नूपुर शर्मा भाजपा की एक उभरती हुई तेजतर्रार प्रवक्ता थीं, प्रतिभाशाली वकील थीं, लेकिन आज वो कहीं नहीं हैं। एक न्यूज चैनल की डिबेट में तस्लीम रहमानी के आपत्तिजनक बयान पर नूपुर शर्मा ने जो कुछ कहा उसने उनके करियर के साथ-साथ उनकी सुरक्षा पर भी जिंदगी भर के लिए सवालिया निशान लग गया है।
सुरक्षा के लिहाज से अब वह सार्वजनिक जीवन में कहीं नजर नहीं आतीं। ये हालत कभी बदलेंगे, दुर्भाग्य से इसकी उम्मीद किसी को नहीं है। हालांकि ये बहस भी हर रोज टीवी चैनल्स पर होने वालीं दर्जनों डिबेट्स की तरह इतिहास के पन्नों में दबकर रह जाती, लेकिन ये ‘श्रेय’ भी एक कथित मीडियाकर्मी (कृपया ‘कथित’ कहने का दोष मुझे न दें, यहां मैं जिनका जिक्र कर रहा हूं, वे स्वयं भी कहीं खुद को पत्रकार बताने के मौन समर्थक हो जाते हैं तो कहीं खुलकर खुद को मीडियाकर्मी मानने से इनकार कर देते हैं) को ही जाता है कि उसने इस डिबेट्स के कुछ हिस्से इस तरह से वायरल किए कि न सिर्फ नूपुर शर्मा की जिंदगी दांव पर लग गई बल्कि भारत में रातों रातों एक ‘सर तन से जुदा’ गैंग खड़ा हो गया और जिसने नफरत से भरे नारे ही नहीं लगाए बल्कि एक गरीब टेलर मास्टर सहित कुछ सरों को तन से जुदा भी कर दिया।
क्या इन सारी हत्याओं का जिम्मेदार मीडिया है? साल 2022 में तो कभी इस पर बहस नहीं हुई पर मैं उम्मीद करता हूं कि भारत में मीडिया के इतिहास पर जब कभी चर्चा होगी तो देर सबेर ये सवाल जरूर उठेगा। इस घटना से इतर बात करूं तो साल के शुरू में भारतीय मीडिया यूपी चुनावों में उलझा रहा तो साल के अंत में गुजरात चुनावों में। अब क्यूंकि भारत में हर साल एक या दो ‘सेमीफाइनल’ होते ही रहते हैं तो मीडिया भी उसमें रमे रहना खूब सीख गया है।
इसी साल एक चैनल भी बिक गया, जिसने कुछ लोगों को फिर से ‘डर‘ का माहौल बनाने का मौका दे दिया कि भारत में पत्रकारिता अब तो बस खत्म हो ही गई। ये तो अच्छा हुआ कि साल खत्म होने से पहले-पहले चैनल के संस्थापक ने बयान जारी करके स्पष्ट कर दिया कि रचनात्मक बातचीत के बाद पूरा ‘लेन-देन’ हुआ। खैर, जो हुआ सो हुआ...पर पत्रकारिता जिंदा है। साल 2023 में पत्रकारिता भी चलती रहेगी, ‘लेन-देन’ भी चलता रहेगा और एजेंडा कुछ ज्यादा रफ्तार से चलेगा..देखते रहिये।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ’डीडी न्यूज' में सीनियर कंसल्टिंग एडिटर हैं।)
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।पिछले दिनों सोचा था कि अब किसी के जाने पर कोई शोकांजलि नही लिखूंगा। पर ऐसा कर न सका। रात को आंख बंद करता, तो वे चेहरे आकर सवाल करते थे। कहते थे, बस यहीं तक रिश्ता था।
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
उफ्फ! यह कैसी होड़ है? सब इतनी जल्दी में हैं जाने के लिए। कोई नहीं रुक रहा है। पिछले बरस कमल दीक्षित, राजकुमार केसवानी, शिव अनुराग पटेरिया, प्रभु जोशी और महेंद्र गगन से जो सिलसिला शुरू हुआ, तो शरद दत्त, राजुरकर राज, पुष्पेंद्र पाल सिंह और दिलीप ठाकुर तक जारी है। कुछ उमर में बड़े, कुछ बराबरी के और बहुत से उमर में छोटे। मन अवसाद और हताशा के भाव से भरा हुआ है। जाना तो एक न एक दिन सबको है। कोई अमृत छक कर नही आता, लेकिन इस तरह जाने को मन कैसे स्वीकार करे?
पिछले दिनों सोचा था कि अब किसी के जाने पर कोई शोकांजलि नही लिखूंगा। पर ऐसा कर न सका। रात को आंख बंद करता, तो वे चेहरे आकर सवाल करते थे। कहते थे, बस यहीं तक रिश्ता था। अभी तो हमें गए साल भर भी नहीं हुआ और तुमने सारी यादें डिलीट कर दीं। मैं अपराधी सा सुन लेता। नहीं रहा गया तो फिर यादों की घाटियों का विचरण आपसे साझा करने लगा।
दस बारह बरस छोटे पुष्पेंद्र पाल सिंह की तो अभी त्रयोदशी भी नहीं हुई कि दिलीप ठाकुर की खबर आ गई। साल यदि ठीक ठीक याद है तो शायद जनवरी या फरवरी 1985 रही होगी। मैं ‘नईदुनिया’में सहायक संपादक था। काम का बोझ बहुत था। संपादकीय पन्ना, संपादक के नाम पत्र, भोपाल संस्करण, मध्य साप्ताहिक और रविवारीय स्तंभों की बड़ी जिम्मेदारी थी। मैं अक्सर अभय जी से कहता कि मुझे कुछ और नए साथी चाहिए। काम अधिक है और मैं गुणवत्ता के मान से न्याय नहीं कर पा रहा हूं। अभय जी सुनते और मुस्कुरा देते। कहते कुछ नहीं। धीरे-धीरे मुझे उनकी मुस्कुराहट पर खीझ आने लगी। एक दिन अचानक उन्होंने रात को ऑफिस से घर जाते समय करीब दस बजे कहा कि कल सुबह नौ बजे आओ।
अगले दिन सुबह जब मैं पहुंचा तो उन्होंने दो कप की चाय ट्रे का ऑर्डर दिया और मुझे एक फाइल पकड़ा दी। बोले, तुम पर काम अधिक था। वाकई। लेकिन मैं जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं करता। नईदुनिया की अपनी परंपरा है। तुम जानते ही हो। मैं दो महीने से भरोसे के और योग्य नौजवानों के बारे में जानकारी एकत्रित कर रहा था। ये कुछ बायोडाटा हैं। इनमें से चार पांच छांट लो और उनके बारे में पता करके एक दिन मिलने के लिए बुला लो। मैंनें फाइल ली और अपनी डेस्क पर आ गया। फाइल से चार अच्छे नाम निकले। ये थे, दिलीप ठाकुर, यशवंत व्यास, रवींद्र शाह और भानु चौबे। एकाध नाम और था। पर, इन चार लोगों को नईदुनिया परिवार का सदस्य बनाने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। सभी एक से बढ़कर एक थे। दिलीप ठाकुर को मैं भोपाल डेस्क पर चाहता था। मगर उस पर गोपी जी ने वीटो कर दिया। इस तरह दिलीप सिटी डेस्क पर गोपी जी के साथी बन गए। तबसे जितना भी दिलीप मेरे संपर्क में आए, मैनें उन्हें शिष्ट, मृदुभाषी और अच्छी भाषा का मालिक पाया। एक बार तो मैंनें उनसे मजाक भी किया। कहा, यार दिलीप कहां तुम पत्रकारिता में फंस गए। तुम इतने हैंडसम हो कि फिल्म संसार में जाकर किस्मत आजमाओ। दिलीप आंखों में आंखें डालकर मुस्कुरा दिए। बाद में पता चला कि राजेंद्र माथुर जी ने अभय जी को फरवरी में ही बता दिया था कि मुझे ‘नवभारत टाइम्स’के जयपुर संस्करण में ले रहे हैं। अभय जी ने मेरे नहीं रहने के बाद काम और गुणवत्ता पर उल्टा असर नहीं पड़े इस कारण ही वह फाइल मुझे सौंपी थी। तब तक तो मैं भी नही जानता था कि मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ जयपुर शुरू करने जाना है। दिलीप के रूप में हमने एक शानदार इंसान और बेहतरीन पत्रकार को खो दिया। ऐसे पत्रकार आज दुर्लभ हैं। भाई दिलीप ठाकुर को श्रद्धांजलि।
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उमेश उपाध्याय, वरिष्ठ पत्रकार ।।
1985 की बात है। मुझे पीटीआई भाषा में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी मिले हुए कुछ ही दिन हुए थे। सुबह की पारी आठ बजे शुरू होती थी। सरोजिनी नगर से 50 नंबर की बस पकड़कर आपाधापी में संसद मार्ग स्थित पीटीआई की पहली मंजिल के समाचार डेस्क पर पहुंचा ही था कि सामने से संपादक पास आकर खड़े हो गए। संयोग था कि उस समय डेस्क पर मैं अकेला ही पहुंच पाया था। अब एक प्रशिक्षु की हालत अपने सबसे शीर्षतम अधिकारी को अपने सामने पाकर क्या होगी अंदाजा लगा सकते हैं। उनके पास हाथ से लिखे कुछ पन्ने थे। मुझे पकड़ाते हुए बोले, 'जरा देखो इसमें कोई गलती तो नहीं।' वे तो ऐसा कहकर अपने कक्ष में चले गए। लेकिन मैं हतप्रभ था। भला मैं संपादक के लेख में कोई गलती कैसे निकालता?
थोड़ी देर बाद उन्होंने बुलवाकर पूछा, 'तुमने पढ़ा, कोई गलती तो नहीं हैं लेख में?' मैं अभी भी सकपकाया हुआ था। धीमे से बोला 'सर मैं क्या देखता इसमें?' मेरा कहने का अर्थ था कि मेरी क्या औकात कि आप जैसे बड़े पत्रकार के लेख को देखूं। मेरी स्वाभाविक झिझक को भांपकर थोड़े स्नेहवत आधिकारिक स्वर बोले, 'यहां मैं संपादक नहीं और तुम प्रशिक्षु नहीं। हम दो पत्रकार हैं। और पत्रकारिता का मूल नियम है कि कोई कॉपी बिना दो नज़रों से गुजरे छपने के लिए नहीं दी जाती। इसलिए जाओ और इसे ठीक से पढ़कर वापस लाओ।'
ऐसे मेरे पहले संपादक थे डॉ. वेद प्रताप वैदिक। पत्रकारिता का मेरा यह पहला सबक था जो जीवन भर याद रहा। वैदिक जी इतने ख्याति प्राप्त और बड़े संपादक होते हुए भी सुबह की शिफ्ट में अक्सर आठ बजे से पहले दफ्तर पहुंच जाया करते थे। मेरी दफ्तर समय से पहुंचने की आदत उन्हीं से पड़ी। उसके थोड़े दिनों बाद की ही बात है।
मेरी एक कॉपी कई सारे लाल निशानों के साथ मुझे वापस मिली। मुझे लगा कि मेरी अनुवाद की हुई कॉपी तो ठीक ही थी। वैदिक जी ने मुझे बुलवाकर कहा, 'तुमने अपनी कॉपी पढ़ी? जरा पहला वाक्य देखो। 15 शब्दों का है। इतना बड़ा वाक्य कौन पढ़ पायेगा?' फिर बड़े प्रेम से कहा कि एक वाक्य में 5/7 से अधिक शब्द न हों। छोटे वाक्य लिखने की ये सीख डॉ. वैदिक से ही मिली।
उसके बाद से डॉ. वैदिक से एक अंतरंगता का नाता जुड़ गया जो जीवन भर चलता रहा। संबंध बनाने और उन्हें जीवनभर निभाने की विलक्षण सामाजिकता वैदिक जी की खासियत थी। काश सब लोग ऐसा कर पाते! उनके ये सम्बन्ध बिना किसी आडम्बर, लोभ, दिखाबे या स्वार्थ के थे। उनके संबंध विचारधारात्मकया राजनैतिक संबद्धता से भी परे होते थे। सभी दलों और उनके नेताओं से उनका आत्मीयता का नाता रहा। वे पुरानी बातें भी खूब याद रखते थे। तीन साल पहले जब वे बिटिया दीक्षा के विवा हमें आशीर्वाद देने पहुंचे तो सीमा से बोले थे। 'बहू, तुम्हारे विवाह में भी में सरोजिनी नगर आया था, तुम्हें याद हैं न?' वे मेरे विवाह का जिक्र कर रहे थे। सीमा को वे बहू कहकर ही बुलातेथे।
हर महीने दो महीने में उनसे बात होती ही थी। अक्सर उन्हीं का फोन आता था। कोई महीने भर पहले वैदिक जी का फोन आया था। तब उन्होंने दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों का एक साझा गैर सरकारी मंच बनाने की बात कही थी। वे चाहते थे कि भारत के नेतृत्व में बनने वाले इस प्रयास में मैं भी रहूं। भारत के दूरगामी हितों की चिंता और उन्हें आगे ले जाने के प्रयास- ये वैदिक जी के वजूद का अभिन्न अंग था। उनके लेखों और व्याख्यानों में भी यही मूल विषय रहता था। इस नए संगठन के बारे में उनसे मिलकर बातकर ने का वादा हुआ था। आप तो चले गए। अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी!!!
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आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार ।।
भारत की पत्रकारिता, समाज को एक अपूरणीय क्षति; डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने एक बड़ा आंदोलन हिंदी के लिए खड़ा किया
डॉ. वेद प्रताप वैदिक हिंदी के मूर्धन्य पत्रकार, सम्पादक, लेखक ही नहीं थे, एक व्यक्ति के रूप में भी वे बड़े ईमानदार, चरित्रवान, संस्कारवान थे। विचारों पर मत-भिन्नता से उन्हें आपत्ति नहीं होती थी। आर्यसमाजी परिवार से वो आए थे। दिल्ली में छात्र-जीवन के दौरान जेएनयू में उन्होंने इस बात के लिए संघर्ष किया कि मैं हिंदी में ही अपना शोध-पत्र लिखूंगा।
एक बड़ा आंदोलन उन्होंने हिंदी के लिए खड़ा किया और अपनी बात को मनवाकर माने। लेकिन अंग्रेजी और शेष भारतीय भाषाओं से उनका कोई विरोध नहीं था। उनकी जीवनशैली सादगी से भरी थी। प्रगतिशील, समाजवादी विचारधारा के लोगों से भी उनके सम्बंध सदैव आत्मीय रहे। उनमें किसी के प्रति व्यक्तिगत दुर्भावना या विद्वेष नहीं रहता था।
तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा को उन्होंने हिंदी सिखाई थी। नरसिंहराव से लेकर अटलजी तक से उनकी मैत्री रही। पीटीआई का तो संस्थापक-सम्पादक उन्हें माना जाता है और उस समाचार-एजेंसी को हिंदी को नए सिरे से जीवित करने का काम उन्होंने किया।
नवभारत टाइम्स में जब राजेंद्र माथुर प्रधान सम्पादक थे, तब वैदिकजी को उसमें सम्पादक (विचार) का पद दिया गया था। इस पद के ही कारण उन्हें पीटीआई (भाषा) में काम करने का अवसर मिला था। भारत में समाचार-एजेंसियां तो पहले भी थीं, हिंदुस्तान समाचार थी, अंग्रेजी में पीटीआई-यूएनआई आदि थीं, लेकिन पीटीआई (भाषा) में उन्होंने हिंदी को समृद्ध करने का बड़ा काम किया।
समाजवादी झुकाव वाले नेताओं राज नारायण, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस से उनकी निकटता रही थी। दूसरी तरफ चरण सिंह, राजीव गांधी और बाद में सोनिया गांधी तक से उनका संवाद रहा। सुषमा स्वराज उन्हें अग्रज कहती थीं। सबसे मधुर सम्बंध रखना और साथ ही अपनी बातों को निडर होकर कहना उनकी विशिष्टता रही।
78 वर्ष की उम्र तक वे सक्रिय रहे और जीवन के अंतिम दिन तक कॉलम लिखते रहे। वे भारत के हितों की रक्षा को लेकर चिंतित रहते थे। अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनके जितनी पकड़ रखने वाला पत्रकार हिंदी में राजेंद्र माथुर के बाद कोई और नहीं हुआ है। भारत का विदेश मंत्रालय भी समय-समय पर उनसे राय लेता था। भारतीय कूटनीति में परोक्ष रूप से उनके विचारों का प्रभाव रहता था।
अमेरिका, ब्रिटेन, मॉरिशस आदि में उनको भाषण देने के लिए बुलाया जाता रहा था। हिंदी के तमाम सम्मेलनों में वे जाते थे। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल आदि के शीर्ष नेताओं से भी उनकी व्यक्तिगत मैत्री रही थी। हाफिज सईद से हुई उनकी भेंट तो विवाद का विषय भी बनी थी, पर उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हम तो पत्रकार हैं, किसी से भी मिल सकते हैं।
वे खुलकर आलोचना करने का माद्दा रखते थे, पर किसी के प्रति कटुता नहीं रखते थे। अथक यात्राएं करते और किसी भी व्याख्यान के निमंत्रण को स्वीकारने को हमेशा तत्पर रहते। धार्मिक कार्यक्रमों को भी सम्बोधित करते थे। एडिटर्स गिल्ड की बैठकों में वे जोरदार तरीके से अपनी बातें रखते थे।
धर्मयुग जैसी पत्रिका को चलाने का बीड़ा उन्होंने उठाया था। उनका जीवन बड़ा जुझारू रहा और कोई भी चुनौती लेने से वे कभी पीछे नहीं हटे। यह बहुत प्रेरणा देने वाला है। हिंदी के सौ-डेढ़ सौ अखबारों के लिए कॉलम लिखना उन्हीं के बूते का था। नियमित लिखने से उन्होंने कभी कोताही नहीं की। अपने लिए पांच सितारा सुविधाओं की मांग भी उन्होंने कभी नहीं की।
मेरा उनसे कोई पचास साल पुराना परिचय रहा। व्यक्तिगत रूप से वे बड़े निश्छल थे और सबसे इतने स्नेह से बात करते थे, मानो वह उनके परिवार का सदस्य हो। इस कारण अगर कभी उनके विचारों से असहमति भी रहती हो, तब भी कटुता की स्थिति निर्मित नहीं होती थी। किसी की भी व्यक्तिगत मदद के लिए वो हमेशा तैयार रहते थे। वैदिकजी के निधन से भारतीय पत्रकारिता, साहित्य और समाज को एक अपूरणीय क्षति हुई है।
(साभार: दैनिक भास्कर)
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वैदिक जी का जाना अभी तक समझ मैं ही नहीं आ रहा। अभी 2 दिन पहले उनसे बातचीत हुई थी, इसमें उन्होंने दक्षेस के गठन की पूरी रूपरेखा बताई थी। वे दक्षेस को लेकर बहुत उत्साहित थे।
वैदिक जी ने हिंदी को लेकर जितना काम किया, जितना उसके प्रसार के लिए कोशिश की, उसका संपूर्ण देश में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। वे दरअसल भारत में पैदा हुए विश्व मानव थे। दुनिया के अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनके व्यक्तिगत मित्र थे।
वे जहां भी जाते थे उनके अंदर का पत्रकार उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता था। वे जब पाकिस्तान थे, तो उन्हें हाफिज सईद से मिलने का मौका मिला। वैदिक जी ने एक देशभक्त पत्रकार की तरह हाफिज सईद से बात की और भारत आकर सारी बातचीत सरकार को भी बतायी और देश को भी बतायी। बहुत सारे न्यूज चैनल ने उनसे खोद खोद कर सब पूछा, लेकिन एक चैनल ने जब कहा कि आपने यह देशद्रोह जैसा काम किया है, तो उन्होंने उसी समय कहा, तुम कभी संपादक नहीं बन सकते तुम हमेशा रिपोर्टर ही रहोगे।
वैदिक जी बहुत बड़े संपादक थे और सारे राजनेताओं के मित्र थे, पर उन्होंने कभी अंतरंग बातों को या ऑफ द रिकॉर्ड बातों को ना सार्वजनिक किया, ना कभी उसकी चर्चा की। देश के सारे प्रधानमंत्री उनके मित्र थे और वे भी सबके प्रिय थे। मैंने अपने स्टार जर्नलिस्ट सीरीज में उनसे बातचीत की थी, जिस बातचीत को सभी ने पसंद किया और अभी टीवी टिप्पणी कार बसंत पांडे ने सलाह दी कि मैं उस इंटरव्यू को दोबारा लोगों के सामने लाऊं।
हर नए पत्रकार की मदद के लिए वे तैयार रहते थे। किसी को उन्होंने कभी ना अपमानित और ना किसी का अनादर किया। वे अजातशत्रु थे।
क्या बाथरूम में गिरने से किसी की जान जा सकती हैं, विश्वास ही नहीं होता। पर हमारे यहां गांव में कहा जाता है की मौत आती है कोई बहाना लेकर आती है। इस पर बहुत सारी कथाएं है। वैदिक जी की मृत्यु भी एक कथा बन गई है। अब सिर्फ यादें हैं और उनका मुस्कुराता चेहरा है। वैदिक जी आप हमेशा याद आएंगे।
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विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ पत्रकार ।।
सर्वाधिक युवा बुजुर्ग पत्रकार थे डॉ. वेद प्रताप वैदिक
वेद प्रताप वैदिक जी से मेरी मुलाकात पहली बार तब हुई जब मैने नवभारत टाइम्स में बतौर उप संपादक काम करना शुरू किया। ये 1985 की बात होगी। हालांकि उनका नाम और उनके भाषा आंदोलन समाजवादी विचारों के कारण मैं उनके व्यक्तित्व से परिचित था। जल्दी ही मेरा परिचय निकटता में बदल गया। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने और हिंदी सहित संविधान की आठवीं सूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में कराने का आंदोलन। धरना और अनशन शुरू हुआ तो मेरी वैदिक जी से निकटता और बढ़ गई।हालांकि तब वो नवभारत टाइम्स छोड़कर हिन्दी समाचार एजेंसी 'भाषा' के संपादक बन चुके थे। इसके बाद भाषा स्वदेशी जैसे मुद्दों और धार्मिक पाखंड सांप्रदायिकता जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में हम लगातार साथ रहे। स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी द्वारा चलाये गये तमाम अभियानों आंदोलनों में वैदिक जी की सक्रिय भागीदारी होती थी और बतौर पत्रकार मैं भी उनसे जुड़ता था।
वैदिक जी के साथ मेरा मिलना जुलना और संवाद लगातार बना रहा। उनकी अंतरराष्ट्रीय समझ और संपर्कों के सभी कायल थे। देश विदेश के हर बड़े राजनेता के साथ उनका सीधा रिश्ता था। अपने लेखन और संबोधन में वो बेहद बेबाक थे। उन्होंने सत्ता या सरकार से कभी कोई सौदा या समझौता नहीं किया। जिन मुद्दों और मूल्यों के लिए उन्होंने संघर्ष किया उन्होंने आजीवन उनका पालन किया। उम्र पद और अनुभव की वरिष्ठता उन पर कभी भी हावी नहीं रही।
छोटा हो या बड़ा सबसे वो सहज भाव से मिलते थे। युवा पत्रकारों के लिए वो प्रेरणा स्रोत थे तो समकालीनों के लिए हमेशा सखा भाव उनके भीतर था। 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' उनके जीवन का मूल मंत्र था। आतंकवादी संगठन लश्कर ए तैयबा प्रमुख हफीज सईद से उनकी मुलाकात बेहद चर्चित हुई। उन्हें तारीफ और आलोचना दोनों मिली पर वो अविचलित रहे और अपनी बात पर डटे रहे। कई मामलों में वेद प्रताप वैदिक बेजोड़ थे और जीवन के चौथे पहर में भी उनकी सक्रियता किसी युवा से भी ज्यादा थी। इस लिहाज से उन्हें वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता का सर्वाधिक युवा बुजुर्ग पत्रकार माना जा सकता है। पत्रकारिता के शिखर पुरुष वेद प्रताप वैदिक के अचानक चले जाने से देश ने एक बुजुर्ग लेकिन बेहद सक्रिय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता खो दिया है। विनम्र श्रद्धांजलि!
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उमाकांत लखेड़ा, वरिष्ठ पत्रकार ।।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक हिंदी पत्रकारिता और लेखन में करीब छह दशक तक अपनी गहरी पकड़ बनाकर छाये रहे। इंदौर की पत्रकारिता से दिल्ली में संपादक होने के साथ ही देश की राजनीति में दक्षिण पंथियों से लेकर लेफ्ट के प्रमुख नेताओं से उनके सहज रिश्ते थे। सरल प्रकृति के कारण आसानी से लोगों से घुल मिल जाना उनके स्वभाव में था।
देश विदेश खास तौर पर दक्षिण एशिया, पाक, अफगानिस्तान, नेपाल और उप महाद्वीप के कई नेताओं से उनकी मित्रता थी। भाजपा और संघ के दिग्गजों के एजेंडे पर चलने के बावजूद नई-पुरानी भाजपा में उनकी उपेक्षा कइयों को चौंकाती रही है। उनका लंबा चौड़ा सामाजिक दायरा था। भारतीय भाषा आन्दोलन के अग्रणी थे। देश की सभी भाषाओं को आगे बढ़ाने की मुहीम से लंबे समय तक सक्रियता से जुड़े रहे।
मेरी वेद प्रताप जी से पहली मुलाकात 1988 में दिल्ली में कई कार्यक्रमों से शुरू हुई। बाद में भेंट-मुलाकातों का सिलसिला पीटीआई-भाषा में उनके दफ्तर व बाद में साउथ एक्स में चलता रहा। जब वे जहां भी मिले बहुत स्नेह से मिलते थे। छोटे और बड़े का भेद महसूस नहीं होने देते थे।
पिछले साल काबुल में तालीबानी सत्ता के काबिज होने पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदूतों से संवाद कार्यक्रम में उनको वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया तो वे सहजता से तैयार हो गए।
उम्र के इस मुकाम पर भी आए दिन कुछ ना कुछ नया लिखना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। उनके लेखन का एक खास गुण था कि कठिन से कठिन विषय पर सरल भाषा में आम पाठकों को जानकारी देना, ताकि विकट मसलों को हर कोई आसानी से समझ सके।
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पंकज शर्मा, संपादक, समाचार4मीडिया ।।
यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि डॉ. वेद प्रताप वैदिक जैसी पत्रकारिता जगत की शख्सियत से मुझे कभी निजी तौर पर ज्यादा देर तक मिलने और लंबी बातचीत करने का मौका नहीं मिला। हां, फोन पर उनसे समय-समय पर जरूर मार्गदर्शन मिलता रहता था।
हालांकि, समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40अंडर40 के फर्स्ट एडिशन में जब वह आए थे, तब उनसे संक्षिप्त वार्तालाप अवश्य हुआ था। उस दौरान उन्होंने कहा भी था कि जल्द ही वह मुझसे विस्तार से बातचीत करेंगे और मुझे बुलाएंगे। इस बीच एक-दो बार जब मैंने इस बारे में फोन कर उनसे मुलाकात का समय मांगा तो उन्होंने व्यस्तता का हवाला देते हुए जल्द ही मिलने की बात कही थी।
उस समय मैंने नहीं सोचा था कि वह हम सभी को इतनी जल्दी छोड़कर चले जाएंगे। मुझे इतना यकीन अवश्य था कि इस बार समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40अंडर40 के दूसरे एडिशन के दौरान उनसे अवश्य मुलाकात होगी और तब मैं उनसे इस बारे में बात करूंगा और मिलने का समय तय कर लूंगा। लेकिन इसी बीच काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया।
डॉ. वैदिक ने मुझे भी अपने वॉट्सऐप ग्रुप में जोड़ा हुआ था, जिस पर वह अपने आर्टिकल शेयर करते रहते थे और हम समय-समय पर उनके आर्टिकल को साभार प्रकाशित भी करते रहते थे। आज सुबह ‘समाचार4मीडिया’ के फाउंडर और एडिटर-इन-चीफ डॉ. अनुराग बत्रा जी ने जब वैदिक जी के निधन का समाचार दिया तो दिल को एक बड़ा झटका सा लगा। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। बस, अफसोस यही रहेगा कि उनसे विस्तार से मुलाकात की इच्छा अधूरी ही रह गई, जो अब कभी पूरी नहीं हो सकेगी।
वैदिक जी के निधन का समाचार सुनते ही मैंने उनके सहयोगी मोहन जी को फोन लगाया और पूछा कि आखिर अचानक यह सब कैसे हो गया, तब उन्होंने बताया कि आज सुबह वह बाथरूम में गिरे मिले। आनन-फानन में डॉ. वैदिक को अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
बेशक अब डॉ. वैदिक इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन इस नश्वर संसार में वह हम सभी के दिल में हमेशा रहेंगे। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह डॉ. वैदिक को अपने श्रीचरणों में स्थान दें। एक बार फिर पत्रकारिता जगत के जाने-माने हस्ताक्षर डॉ. वैदिक जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है।
भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। वह 78 वर्ष के थे। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा के लिए किए गए डॉ. वैदिक के प्रयास हम सभी के लिए प्रेरणादायक हैं। उनका लेखन युवाओं का सदैव मागदर्शन करता रहेगा।
प्रो. द्विवेदी ने कहा कि वैदिक जी के निधन से हिंदी पत्रकारिता में एक बड़ा स्थान खाली हो गया है। वे देश-विदेश के घटनाक्रम पर पैनी निगाह रखने वाले समीक्षक थे। पड़ोसी देशों को लेकर उनकी जानकारी बेजोड़ थी। उनका निधन भारतीय पत्रकारिता के लिए अपूरणीय क्षति है। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा को लेकर जो आंदोलन उन्होंने शुरू किया, उसे कोई नहीं भूल सकता। ऐसे संवेदनशील पत्रकार का हमारे बीच न होना बहुत दुखी करने वाला क्षण है।
बुधवार को सुबह 9 बजे से 1 बजे तक डॉ. वैदिक का पार्थिव शरीर अंतिम दर्शन के लिए उनके निवास स्थान गुरुग्राम (242, सेक्टर 55, गुरुग्राम) में रखा जाएगा। उनका अंतिम संस्कार लोधी क्रेमेटोरियम, नई दिल्ली में बुधवार शाम 4 बजे होगा।
30 दिसंबर, 1944 को इंदौर में जन्मे डॉ. वेदप्रताप वैदिक को हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाने और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए किये गए उनके संघर्ष के लिए याद किया जाता है। डॉ. वैदिक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज’ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। वे भारत के ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध ग्रंथ हिंदी में लिखा था।
समाचार4मीडिया की नवीनतम खबरें अब आपको हमारे नए वॉट्सऐप नंबर (9958894163) से मिलेंगी। हमारी इस सेवा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए इस नंबर को आप अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट में सेव करें।संबंधों को कितनी तरजीह देते थे, इसका उदाहरण ‘नया इंडिया’ अखबार है। हरिशंकर व्यास के साथ अपने संबंधों के चलते ही वह उनके लिए नियमित तौर पर कॉलम लिखते रहे।
अभिषेक मेहरोत्रा, संपादक, बिजनेस वर्ल्ड हिंदी ।।
वैदिक जी नहीं रहे, उनको मैं ‘वैदिक जी’ से ही संबोधित करता था। उनसे संबंध करीब डेढ़ दशक से ही ज्यादा समय से थे, वैदिक जी का अपार स्नेह सदैव मिला। मुझे याद है कि वो दौर, जब मैं `समाचार4मीडिया’ का प्रभारी बना, तो वैदिक जी से कॉलम लिखने का आग्रह किया, उस समय उनको देश का प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ साप्ताहिक कॉलम के 5000 रुपए बतौर पारिश्रामिक दिया करता था। दशक भर पहले ये हिंदी मीडिया संस्थान के लिए बड़ा अमाउंट होता था, जैसे ही मुझे इस बात की जानकारी हुई, मैंने उनको सकुचाते हुए कहा कि सर, मेरा संस्थान आपको इतना बड़ा पारिश्रमिक नहीं दे पाएगा, आपसे हम बाद में कॉलम लिखवाएंगे।
बस इतना सुनना था कि तुरंत बोले, मीडिया मेरा परिवार है, तुम मीडिया पर साइट चला रहे हो, तुमसे 11 रुपए ही लूंगा। आज इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि वैदिक जी किस तरह निजी संबंधों को महत्व देते थे, ये उसकी बानगी है। समाचार4मीडिया के फाउंडर और एडिटर-इन-चीफ अनुराग बत्रा जी के साथ भी वैदिक जी के बड़े अच्छे संबंध थे। अनुराग जी हिंदी प्रेम के चलते वैदिक जी को अपना गुरु भी मानते हैं, पर वैदिक जी ने कॉलम के पारिश्रमिक के लिए कभी भी अनुराग जी को नहीं बोला, एक बार मैंने कहा भी कि आप बॉस को कह दीजिए, तो उनका जवाब था कि संबंध नैसर्गिक होते हैं, जब तुम्हारे लिए लिख रहा हूं तो पारिश्रमिक के लिए किसी को क्यों बोलूं।
मुझे आज भी याद है वो 13 जुलाई की शाम 8 बजे जब मैं आगरा के आहार रेस्टोरेंट में परिवार संग अपनी बर्थडे पार्टी मना रहा था कि अचानक वैदिक जी का फोन बजा। मैंने मोबाइल उठाया तो उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में हाफिज सईद से मुलाकात की है। इतना सुनना था कि मुझे लगा कि अरे, ये क्या हुआ। उस वक्त मेरा पत्रकारिता का शैशवाकाल था, समझ नहीं आया कि उस वक्त के सबसे खतरनाक आतंकी के साथ वैदिक जी की मुलाकात जैसी अतिसंवेदनशील जानकारी को कैसे प्रयोग किया जाए और इसी सोच-विचार और बर्थडे पार्टी के जश्न में ये खबर ब्रेक करने से चूक गया।
चूंकि मैं तड़के जल्दी उठ जाता हूं, तो सबसे पहले रूटीन तौर पर मेल चेक की, तो वैदिक जी ने हाफिज सईद के साथ अपनी मुलाकात की दो फोटो मेल की हुई थीं, पर उसके बाद किस तरह वह खबर पूरी मीडिया में चली, ये सबको पता ही है।
वैदिक जी के साथ निरंतर संवाद होता था। आज भी याद है कि करीब 8 साल पहले गुरुग्राम वाले घर पर जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो तीन बजे थे। वह सबसे पहले बोले कि डाइनिंग टेबल पर बैठो और भोजन करो। मैंने कहा कि सर अब तो 3 बज गए हैं, तो बोले मुझे पता है नोएडा से आए हो, दो घंटे लग गए होंगे तुम्हें। ये कहते हुए तुरंत घर की सहायिका से कहा कि बालक को भोजन कराओ। वाकई उस दोपहर पत्तागोभी और फुलका का जो भोजन वैदिक जी ने कराया, उसकी आत्मीयता आज भी दिल में जिंदा है।
संबंधों को कितनी तरजीह देते थे, इसका उदाहरण ‘नया इंडिया’ अखबार है। हरिशंकर व्यास के साथ अपने संबंधों के चलते ही वह उनके लिए नियमित तौर पर कॉलम लिखते रहे। मैं उनको कभी कभी मजाक में कहता भी था कि सर, आप असल में आज के दौर में कलम के धनी हैं, क्योंकि वैदिक जी अपने लेख पेन से ही लिखते थे। बाद में उनके सहायक मोहन जी उसको टाइप कराते थे।
International Relations पर उनकी जैसी जानकारी और समझ मैंने अपने जीवन पर्यन्त किसी पत्रकार या संपादक में नहीं देखी है। कई देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राजनयिक उनके साथ हॉटलाइन पर रहते थे। रोज सुबह उनके लेख को पढ़कर हम जैसे पत्रकारों की पीढ़ी बहुत कुछ जानती और सीखती थी, पर अब ये सिलसिला टूट गया है।
आज भी उनका लेख लोकमत में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने ईरान और सऊदी अरब के बीच के समझौते में जिस तरह चीन की चाल को परिभाषित किया है, वह इस विषय को समझने में बहुत सहायक है। आप उनका ये अंतिम लेख नीचे पढ़ सकते हैं-
एक बात जो मुझे उन्हें लेकर सालती रही, वो ये कि मोदी सरकार ने उनकी उपयोगिता नहीं की। जिस तरह मोदी सरकार ने अपने पहले शपथ ग्रहण में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नए परिभाषा देते हुए पड़ोसी मुल्क के शीर्षस्थ को निमंत्रित किया था, उससे उम्मीद थी कि वैदिक जी के अनुभव का फायदा सरकार लेगी, पर....
वैसे 14 मार्च को इस दुनिया के तीन गजब के लोगों की डेथ एनिवर्सरी है- कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइंस्टाइन और स्टीफन हॉकिंग। तीनों अपने अपने फील्ड में शीर्ष व्यक्तित्व। तीनों ने दुनिया को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। अब वैदिक जी भी इसी तारीख को दुनिया को अलविदा कह गए हैं।
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वरिष्ठ पत्रकार डाॅ. वेदप्रताप वैदिक अब इस दुनिया में नहीं रहे। वह करीब 78 साल के थे। बताया जा रहा है कि वह मंगलवार सुबह नहाने के समय बाथरूम में गिर गए और बेसुध हो गए थे। काफी देर तक बाहर न आने के बाद परिजनों ने दरवाजा तोड़ा और उन्हें बाहर निकाला। इसके बाद तत्काल उन्हें नजदीक में ही प्रतीक्षा अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। डॉ. वैदिक के आकस्मिक निधन पर वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
वैदिक जी के निधन के साथ ही हमने हिंदी पत्रकारिता की उस पीढ़ी के अंतिम हस्ताक्षर को खो दिया, जो आजादी के बाद उभरी थी। पत्रकारिता के इंदौर घराने ने ही उनको पत्रकारिता के संस्कार दिए। भारतीय हिंदी पत्रकारिता के इतिहास पर उनका शोध अद्भुत और चमत्कृत करने वाला है। खास तौर पर उस जमाने में, जबकि इंटरनेट या सूचना प्राप्ति के आधुनिक संचार साधन नही थे। यह ग्रंथ अपने आप में एक संपूर्ण ज्ञान कोष है। अफगानिस्तान पर उनकी पीएचडी उनकी एक और नायाब प्रस्तुति है। बुनियादी तौर पर अफगानिस्तान के अतीत और चरित्र को समझने वालों के लिए यह शोध प्रबंध इन साईक्लोपीडिया से कम नही है।
हिंदी पत्रकारिता में उनका एक और योगदान प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की हिंदी एजेंसी भाषा की शुरुआत है। हिंदी पत्रकारिता में भाषा का आना एक क्रांति से कम नही था। हिंदी समाचारपत्रों को अनुवाद करने की झंझट से बचना पड़ा। इसके अलावा भाषा ने इस मिथक को तोड़ा कि हिंदी एजेंसी के लिए टेलीप्रिंटर पर इस भाषा को लाना आसान नही है। इसके बाद यूएनआई की वार्ता भी आई थी। वैसे तो आपातकाल के समय समाचार भारती और हिन्दुस्तान समाचार नाम से संवाद समितियां काम कर रही थीं ,मगर उनकी हालत दुबली पतली ही रही। जो काम भाषा ने किया,वह कोई अन्य संवाद समिति नही कर पाई।
नवभारत टाइम्स में सहायक संपादक के नाते उनके वैचारिक लेखन को खूब सराहा गया। प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर के मार्गदर्शन में उनकी पत्रकारिता फली फूली। समसामयिक विषयों पर प्रतिदिन लिखना आसान नही था, लेकिन उन्होंने बखूबी यह काम किया। उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क विराट थे। इधर हाल के वर्षों में उनकी पत्नी के निधन के बाद से वे अनमने थे और सेहत भी साथ छोड़ने लगी थी। हिंदी के इस शिखर हस्ताक्षर को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
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