न्यूज चैनल्स पर होने वाली टेलिविजन डिबेट किसी की जिंदगी भी बर्बाद कर सकती हैं, ये हमने साल 2022 में देखा। मुझे लगता है कि मीडिया के माथे पर लगा ये कलंक साल की सबसे बड़ी खबर है।
अशोक श्रीवास्तव।।
न्यूज चैनल्स पर होने वाली टेलिविजन डिबेट किसी की जिंदगी भी बर्बाद कर सकती हैं, ये हमने साल 2022 में देखा। मुझे लगता है कि मीडिया के माथे पर लगा ये कलंक साल की सबसे बड़ी खबर है। कल तक नूपुर शर्मा भाजपा की एक उभरती हुई तेजतर्रार प्रवक्ता थीं, प्रतिभाशाली वकील थीं, लेकिन आज वो कहीं नहीं हैं। एक न्यूज चैनल की डिबेट में तस्लीम रहमानी के आपत्तिजनक बयान पर नूपुर शर्मा ने जो कुछ कहा उसने उनके करियर के साथ-साथ उनकी सुरक्षा पर भी जिंदगी भर के लिए सवालिया निशान लग गया है।
सुरक्षा के लिहाज से अब वह सार्वजनिक जीवन में कहीं नजर नहीं आतीं। ये हालत कभी बदलेंगे, दुर्भाग्य से इसकी उम्मीद किसी को नहीं है। हालांकि ये बहस भी हर रोज टीवी चैनल्स पर होने वालीं दर्जनों डिबेट्स की तरह इतिहास के पन्नों में दबकर रह जाती, लेकिन ये ‘श्रेय’ भी एक कथित मीडियाकर्मी (कृपया ‘कथित’ कहने का दोष मुझे न दें, यहां मैं जिनका जिक्र कर रहा हूं, वे स्वयं भी कहीं खुद को पत्रकार बताने के मौन समर्थक हो जाते हैं तो कहीं खुलकर खुद को मीडियाकर्मी मानने से इनकार कर देते हैं) को ही जाता है कि उसने इस डिबेट्स के कुछ हिस्से इस तरह से वायरल किए कि न सिर्फ नूपुर शर्मा की जिंदगी दांव पर लग गई बल्कि भारत में रातों रातों एक ‘सर तन से जुदा’ गैंग खड़ा हो गया और जिसने नफरत से भरे नारे ही नहीं लगाए बल्कि एक गरीब टेलर मास्टर सहित कुछ सरों को तन से जुदा भी कर दिया।
क्या इन सारी हत्याओं का जिम्मेदार मीडिया है? साल 2022 में तो कभी इस पर बहस नहीं हुई पर मैं उम्मीद करता हूं कि भारत में मीडिया के इतिहास पर जब कभी चर्चा होगी तो देर सबेर ये सवाल जरूर उठेगा। इस घटना से इतर बात करूं तो साल के शुरू में भारतीय मीडिया यूपी चुनावों में उलझा रहा तो साल के अंत में गुजरात चुनावों में। अब क्यूंकि भारत में हर साल एक या दो ‘सेमीफाइनल’ होते ही रहते हैं तो मीडिया भी उसमें रमे रहना खूब सीख गया है।
इसी साल एक चैनल भी बिक गया, जिसने कुछ लोगों को फिर से ‘डर‘ का माहौल बनाने का मौका दे दिया कि भारत में पत्रकारिता अब तो बस खत्म हो ही गई। ये तो अच्छा हुआ कि साल खत्म होने से पहले-पहले चैनल के संस्थापक ने बयान जारी करके स्पष्ट कर दिया कि रचनात्मक बातचीत के बाद पूरा ‘लेन-देन’ हुआ। खैर, जो हुआ सो हुआ...पर पत्रकारिता जिंदा है। साल 2023 में पत्रकारिता भी चलती रहेगी, ‘लेन-देन’ भी चलता रहेगा और एजेंडा कुछ ज्यादा रफ्तार से चलेगा..देखते रहिये।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ’डीडी न्यूज' में सीनियर कंसल्टिंग एडिटर हैं।)
हादसे के बाद हमें पता लगता है कि अरे, अहमदाबाद में ये हज़ारों बांग्लादेशी अवैध तरीके से झुग्गियां बनाकर क्यों रह रहे हैं। मेरठ के ईंट भट्टों पर दस साल से 90 बांग्लादेशी अवैध तरीके से रह रहे थे।
नीरज बधवार, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पहलगाम हादसे से लेकर ज्योति मल्होत्रा की गिरफ्तारी की घटनाओं पर नज़र डालें तो साफ है कि हमारी इंटरनल सिक्योरिटी के साथ कुछ तो भारी गड़बड़ है। मतलब, पहलगाम हादसा होता है तो पता चलता है कि हज़ारों पाकिस्तानी महिलाएं सालों-साल से बिना भारत की नागरिकता लिए भारत में रह रही हैं। कश्मीर में सीआरपीएफ के जवान ने बिना विभाग को बताए पाकिस्तानी महिला से शादी कर ली है। पाकिस्तानी लड़का 17 सालों से अवैध तरीके से कश्मीर में पढ़ने-रहने के बाद यहां का वोटर बन जाता है।
हादसे के बाद हमें पता लगता है कि अरे, अहमदाबाद में ये हज़ारों बांग्लादेशी अवैध तरीके से झुग्गियां बनाकर क्यों रह रहे हैं। आज की ख़बर है कि मेरठ के ईंट भट्टों पर दस साल से 90 बांग्लादेशी अवैध तरीके से रह रहे थे। एक यूट्यूबर एक-दो साल में तीन बार पाकिस्तान चली जाती है। वहां की उच्चायोग में पार्टियां कर रही है। वहां के जासूसों से इश्क फरमा रही है।
पहलगाम हादसे से पहले और बाद में पाकिस्तान जाती है। ट्विटर पर बैठा एक शख्स ये नोट कर-करके इस मुद्दे को उठाता है, मगर हमारी एजेंसियां ऐसा कोई पैटर्न नहीं देख पातीं। दुश्मन देश तुर्की की फौज से रिटायर्ड पायलट हमारे हवाई अड्डों पर आ जा रहे हैं। ये बात भी हमें दो दिन पहले पता लगती है।
ये कोई छोटी-मोटी गलतियां नहीं हैं। ये तो कुछ मामले हैं जो सामने आए हैं। ऐसे न जाने कितने लोग अब भी देश में मौजूद हैं। ऊपर से हमारे यहां सारे मैसेजिंग ऐप भी विदेशी यूज़ करते हैं। देश में बिकने वाले कुल मोबाइल फोन में 75 परसेंट उस चाइना के हैं जो हमारी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
इन फोन्स के ज़रिए किस तरह का यूज़र डेटा लिया जा रहा है, किसी को नहीं पता। इज़राइल ने जिस तरह लेबनान में पेजर धमाके किए थे, उससे ये पहले ही प्रूव हो चुका है कि किसी भी तरह की कम्यूनिकेशन डिवाइस आप ही के खिलाफ हथियार बन सकती है। बावजूद इसके, इससे निपटने की क्या तैयारी है, कोई नहीं जानता।
एक कड़वी सच्चाई ये है कि इंटरनल सिक्योरिटी में इस बात की कोई शाबाशी नहीं मिलती कि आपने सौ में से 97 हमले रोक दिए। उसी तरह जैसे कोई बैट्समैन एक ओवर में दो इनस्विंगिंग यॉर्कर डिफेंड कर ले तो उसकी कोई शाबाशी नहीं, लेकिन अगर वो उसी ओवर में बाउंसर पर आउट हो गया तो ये माना जाएगा कि उसकी तकनीक अच्छी नहीं है। अगर पिच मुश्किल हो तो आपका डिफेंस सौ प्रतिशत एरर-प्रूफ होना चाहिए।
अगर 100 में से एक हमले की भी गुंजाइश बनी हुई है तो आप चैन से नहीं बैठ सकते। लेकिन पिछले तीन हफ्तों में सामने आए मामले बताते हैं कि ऐसे हमलों के लिए हमारे यहां खुला मैदान है, और हमारी तैयारी शायद उतनी गंभीर नहीं है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
Apple को लुभाने के लिए भारत सरकार ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। भारत सरकार ने Performance Linked Incentives ( PLI) स्कीम निकाली। कंपनियों को बिक्री के अनुपात में हर साल सरकार पैसे देती है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पर बयानबाज़ी के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत में iPhone बनने के बारे में भी बयान दे डाला। ट्रंप ने Apple के CEO टिम कुक से कहा कि iPhone भारत में बनाना बंद करें। उस बाज़ार के लिए बना रहे हो तो ठीक है उसे अमेरिका में मत बेचो। अमेरिका में iPhone बनाओ।
हिसाब किताब में चर्चा iPhone के बारे में। iPhone बनाने वाली कंपनी Apple अमेरिका की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है। मुनाफ़ा और मार्केट कैप दोनों पैमाने पर लेकिन उसका सबसे सफल प्रोडक्ट iPhone अमेरिका में बनता नहीं है। 2020 तक तो सारे iPhone चीन में बनते थे। अमेरिका- चीन के टैरिफ़ वॉर और कोरोनावायरस लॉक डाउन के बाद सभी कंपनियों ने चीन पर निर्भरता कम करना शुरू किया। चीन प्लस वन की नीति पर काम करना शुरू किया यानी चीन के साथ साथ किसी और देश में सामान बनाना शुरू किया।
इसका नतीजा है कि चीन में अब 80% iPhone बनते हैं जबकि भारत में 20%, Apple अगले साल तक भारत में 25% iPhone बनाना चाहता है। Apple को लुभाने के लिए भारत सरकार ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। भारत सरकार ने Performance Linked Incentives ( PLI) स्कीम निकाली। कंपनियों को बिक्री के अनुपात में हर साल सरकार पैसे देती है। भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए यह स्कीम लायी गई। चीन से भारत में नहीं आने का कारण कंपनियों ने यह भी बताया था कि वहाँ अड़चनें कम है, यहाँ सामान बनाना महँगा पड़ता है।
PLI स्कीम के ज़रिए सरकार ने इसकी भरपाई करने की कोशिश की है। इसका नतीजा है कि भारत में हर साल लगभग पाँच करोड़ iPhone बन रहे हैं जबकि पाँच साल पहले तक यह आँकड़ा कुछ लाख तक था। ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिकी कंपनियाँ सामान अमेरिका में बनाएँ ताकि वहाँ नौकरियाँ मिलेगी। इसी कारण उन्होंने दूसरे देशों से आने वाले सामान पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा की है। चीन को छोड़कर बाक़ी देशों को उन्होंने बाक़ी देशों को 90 दिन के लिए बख्श दिया था।
इसमें भारत भी शामिल है। Apple ने इसका फ़ायदा उठाकर जून तिमाही में अमेरिका में बिकने वाले सारे iPhone भारत से बनाकर मँगवा लिए। अब तो खैर अमेरिका ने चीन के साथ भी टैरिफ़ समझौता कर लिया है। Apple ने ट्रंप को खुश करने के लिए 500 बिलियन डॉलर अमेरिका में इन्वेस्टमेंट करने की घोषणा की है लेकिन इसमें iPhone बनाना शामिल नहीं है। ट्रंप चाहे कितना दबाव डाल दें Apple नहीं मानेगा। इसका एकमात्र कारण है चीन और भारत में iPhone बनाना सस्ता पड़ता है। अभी iPhone की क़ीमत $1000 डॉलर के आसपास है। अगर अमेरिका में iPhone बनाया तो क़ीमत पड़ेगी $3000, वहाँ मज़दूर महँगे हैं और भारत में सस्ते। यह इकनॉमिक्स ट्रंप की पॉलिटिक्स पर भारी पड़ेगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
उस समय जवाहरलाल नेहरू की छवि शांति चाहनेवाले नेता के रूप में थी। जब चीन, भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगा था तब दिनकर की इस कविता से नेहरू को ललकारा गया था।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया तो देश के माहौल में अलग ही स्तर की राष्ट्रभक्ति दिखाई दे रही थी। हर भारतीय अपनी इस राष्ट्रभक्ति को भिन्न भिन्न तरीके से प्रकट कर रहा था। आतंकी हमले के बाद और इसके पहले भी कई महत्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों से लोग और संस्थाएं अपनी भावनाओं को प्रकट करती रहीं।
आपरेशन सिंदूर के बाद जब भारतीय सेना पूरे घटनाक्रम की जानकारी देने आई तो दिनकर की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियों से आरंभ किया। वे पंक्तियां कुछ इस तरह से हैं –हित वचन नहीं तूने माना/मैत्री का मूल्य न पहचाना/तो ले, मैं भी अब जाता हूं/अंतिम संकल्प सुनाता हूं/याचना नहीं, अब रण होगा/जीवन जय या कि मरण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां रश्मिरथी के तृतीय सर्ग में है। इस कविता के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को संदेश देते हुए अपना अंतिम संकल्प सुना दिया।
इसके पहले जब पहलगाम आतंकी हमला हुआ था। जनता आतंकवादियों से प्रतिशोध की अपेक्षा कर रही थी, तब भी दिनकर की पंक्तियां सुनाई दे रही थीं। रे रोक युधिष्ठिर को न यहां/ जाने दे उसको स्वर्ग धीर/ पर फिरा हमें गांडीव गदा/ लौटा दे अर्जुन भीम वीर। कह दे शंकर से आज, करें वो प्रलय नृत्य फिर एक बार/सारे भारत में गूंज उठे, हर हर बम का फिर महोच्चार। दिनकर की इस कविता का शीर्षक हिमालय है।
जनता के मन में आतंकवादी हमला का बदला लेने की आकांक्षा प्रबल होने लगी तो वे इन पंक्तियों के माध्यम से अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण कर रहे थे। आशय ये था कि बहुत हुई बातचीत, बहुत हुई समाझाने बुझाने की प्रक्रिया। अब समय है सबक सिखाने का । सबक सिखाने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर की आवश्यकता नहीं है उसके लिए बलशाली अर्जुन और भीम की जरूरत है।
दिनकर की ये कविता हिमालय, भारत चीन युद्ध के दौरान भी खूब गाई गई थी। उस समय जवाहरलाल नेहरू की छवि शांति चाहनेवाले नेता के रूप में थी। जब चीन, भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगा था तब दिनकर की इस कविता से नेहरू को ललकारा गया था। इसी तरह से दिनकर के प्रबंध काव्य रश्मिरथी के तीसरे सर्ग की ही कुछ और पंक्तियां बहुधा सुनाई देती हैं।
वे पंक्तियां हैं, जब नाश मनुज पर छाता है तो पहले विवेक मर जाता है। दिनकर हिंदी कविता के ऐसे कवि हैं जो देश काल और परिस्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। सही मायनों में अगर देखा जाए तो तुलसीदास के बाद दिनकर ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं लोक में काफी पसंद की जाती हैं। कई लोगों को कंठस्थ भी हैं। चाहे वो उर्वशी के सर्ग हों या कुरुक्षेत्र या रश्मिरथी के। सिर्फ युद्ध ही नहीं, इमरजेंसी के दौरान भी दिनकर की कविताएं गाई जा रही थीं। पूरा देश इंदिरा गांधी के विरुद्ध खड़ा था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन जोर पकड़ रहा था।
कहा तो यहां तक जाता है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की कविता का पाठ किया था। इसकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं, फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं /धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो /सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। समय का घर्घर-नाद है उसके माद्यम से इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण संदेश दे रहे थे।
क्या जनता पार्ची का चुनाव चिन्ह हलधर किसान भी इस कविता से ही प्रेरित है? दिनकर की यही पंक्तियां 2011 में दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भी सुनने को मिली थीं। दिनकर ने ये कविता देश में इमरजेंसी लगाए जाने के दशकों पहले लिखी थी। इतने वर्षों बाद भी लोगों के मानस पर अंकित थीं। इसी तरह से रश्मिरथी का रचनाकाल भी 1952 का है, लेकिन जब सेना को 2025 में पाकिस्तान को संदेश देना था तो उसने दिनकर की कविता चुनी।
इतना ही नहीं आप न्यूज चैनलों पर चलनेवाले डिबेट्स में या विचार गोष्ठियों में एक पंक्ति अवश्य सुनते होंगे। कई बार नेता अपनी चुनावी रैलियों में भी इस पंक्ति का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध। अब दिनकर की कविता के साथ एक खूबसूरत बात ये है कि अलग अलग पक्षों के लोग उनकी पंक्तियों का उपयोग अपने तर्कों को बल प्रदान करने के लिए करते हैं।
अगर विपक्षी दलों को प्रधानमंत्री मोदी के समर्थकों को घेरना होता है तो वो इस पंक्ति का उपयोग करते हैं। मोदी के कुछ समर्थक जिनका दिनकर की इस कविता से परिचय है वो विपक्षी दलों को इसी कविता की अन्य पंक्ति से घेर लेते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल। इस तरह से देखें तो दिनकर की एक ही कविता पक्ष और विपक्ष दोनों उद्धृत करते हैं। इतना ही नहीं जब देश में जाति गणना की बात हुई तो समाचार चैनलों पर बहस चलने लगी थी।
अलग अलग पक्ष के लोग अलग अलग दलीलें दे रहे थे। जाति गणना में भी दिनकर की कविता की पंक्ति सामने आ रही थी। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में जब कर्ण से कहा जाता है कि वो अगर अर्जुन से लड़ना चाहता है तो उसको अपनी जाति बतानी होगी। तब कर्ण व्यथित होता है। झुब्ध भी। कर्ण की मनोदशा को चित्रित करते हुए दिनकर रचते हैं- ‘जाति!, हाय री जाति!’ कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला/कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला/जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड/मैं क्या जानूं जाति?/जाति हैं मेरे ये भुजदंड। इस कविता की पंक्ति जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड जमकर उद्धृत होती है।
दरअसल दिनकर की कविताओं विशेषकर उनके प्रबंध काव्य या कथा काव्य पर गंभीरता से विचार करें तो ये स्पष्ट होता है कि दिनकर अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलते हैं। ना केवल साथ लेकर चलते हैं बल्कि परंपरा और आधुनिकता का निर्वाह भी करते हैं। कई लोग उनके इन काव्यों को युद्ध काव्य कहते हैं लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो दिनकर अपने इन प्रबंध काव्यों में कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं करते हैं।
दिनकर का कवित्व इन्हीं गुणों के कारण समकालीन बना रहता है। दिनकर की सिर्फ कविताएं ही नहीं बल्कि उनके लिखे गद्या भी असाधारण रूप से काल की चौहद्दी को तोड़ते चलते हैं। इसी असाधारण गुण के कारण उनकी रचनाएं कालजयी हो गई हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
यह आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में फैले एक लाल गलियारे के साथ 10 राज्यों में फैला हुआ था।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
पाकिस्तान के आतंकवाद से लड़ाई लम्बी चल सकती है और इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग भी चाहिए। लेकिन देश के अंदर माओवादी नक्सल आतंक को अपने अर्द्धसैनिक बलों, प्रादेशिक पुलिस और केंद्र सरकार के दृढ निश्चय से ख़त्म करना बहुत बड़ी चुनौती रही है। लगता है कि लाल आतंक के पहाड़ पर तिरंगे की विजय का अंतिम निर्णायक दौर है। पिछले दो दशकों में नक्सली हमलों में 6,258 लोग मारे गए। करीब 20 वर्षों में, 2,344 सुरक्षाकर्मियों ने नक्सलियों से लड़ते हुए अपनी जान गंवाई है, जो 1999 के कारगिल युद्ध में मारे गए भारतीय सेना के जवानों की संख्या से चार गुना अधिक है। वास्तव में, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ने की तुलना में नक्सलियों से लड़ने में अधिक सशस्त्र कर्मियों की मृत्यु हुई है।
नक्सल आतंक राज्यों की लगभग 8 करोड़ जनता प्रभावित रही है। जिनमें मुख्य रूप से आदिवासी हैं। यह आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में फैले एक लाल गलियारे के साथ 10 राज्यों में फैला हुआ था। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तब 10 राज्यों के 126 जिलों को सबसे ज़्यादा प्रभावित थे। 2025 की शुरुआत में यह संख्या घटकर केवल 12 रह गई हैं जिनमें से ज़्यादातर बस्तर में और बाकी ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के पड़ोसी जिलों में बचे हैं।
पिछले पांच वर्षों के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने नक्सल मुक्त भारत के लिए विभिन्न स्तरों पर तैयारियां की। अर्द्ध सैनिक बलों और राज्य सरकारों को अधिकाधिक धनराशि केंद्र से उपलब्ध कराई। छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करने के लिए 870 करोड़ रुपये का बजट रखा। हाँ, छत्तीसगढ़ में कुछ समय कांग्रेस सरकार आने से गति थोड़ी धीमी हुई , लेकिन भाजपा सरकार वापस आने के बाद आपरेशन तेज हो गया। पिछले तीन महीनों में बस्तर में करीब 130 खुंखार नक्सली पुलिस मुठभेड़ में मारे गए।
इस सन्दर्भ में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि नक्सल मुक्त भारत के संकल्प में एक ऐतिहासिक सफलता प्राप्त करते हुए सुरक्षा बलों ने नक्सलवाद के विरुद्ध अब तक के सबसे बड़े ऑपरेशन में हाल में छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा के कुर्रगुट्टालू पहाड़ पर 31 कुख्यात नक्सलियों को मार गिराया। उन्होंने कहा कि जिस पहाड़ पर कभी लाल आतंक का राज था, वहां आज शान से तिरंगा लहरा रहा है। इसके साथ ही अमित शाह ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में हम नक्सलवाद को जड़ से मिटाने के लिए संकल्पित हैं। मैं देशवासियों को पुनः विश्वास दिलाता हूँ कि 31 मार्च 2026 तक भारत का नक्सलमुक्त होना तय है।
केंद्र और राज्य सरकारों ने कड़ी कार्रवाई के साथ माओवादियों के भ्रम जाल में फंसे लोगों को समर्पण कर सामान्य जीवनयापन के पर्याप्त अवसर भी दिए हैं। 2014 से आत्मसमर्पण करने वाले 7,500 नक्सलियों में से कई इन बलों में शामिल हो गए हैं, जो नक्सलियों के काम करने के तरीके और उनके ठिकानों के बारे में जानकारी दे रहे हैं। इन उपायों के परिणामस्वरूप, अभियान तेज हो गए हैं और 15 महीनों में छत्तीसगढ़ में 305 नक्सलियों का सफाया कर दिया गया। 2024 में अकेले बस्तर संभाग में 217 नक्सलियों का सफाया कर दिया गया है, जो राज्य में उग्रवाद के इतिहास के बाद से किसी भी वर्ष के लिए सबसे अधिक रहा है।
जगदलपुर में स्थित कमांडो बटालियन फॉर रेसोल्यूट एक्शन (कोबरा) केंद्र में अधिकांश जवानों को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाता है। यह कभी अविभाजित बस्तर की राजधानी हुआ करती थी। यह केरल के आकार का है और छत्तीसगढ़ के सात घने जंगलों वाले जिलों में फैला हुआ है। इस क्षेत्र के अधिकारी कमांडर ने एक बार बताया था, हम एक युद्ध-प्रशिक्षित दुश्मन से लड़ रहे हैं, जो इस क्षेत्र का निवासी है, इलाके से अच्छी तरह वाकिफ है, जंगलों में बहुत सक्रिय है और धोखे और धैर्य की कला का इस्तेमाल करके IED या घात लगाकर हम पर चुपके से हमला करता है। इसलिए उनके तरीकों ठिकानों को समझकर और अब उपलब्ध अत्याधुनिक द्रोन और हथियारों से नक्सलियों को नियंत्रित किया जा रहा है।
इस अभियान के दौरान नक्सल क्षेत्रों में केंद्र और राज्य सरकारों ने नक्सलियों द्वारा जबरन एकत्र किए जा रहे धन के स्रोत पर अंकुश लगाया। आय का मुख्य स्रोत गर्मियों के महीनों में तेंदू पत्ता ठेकेदारों से लिया जाने वाला लेवी और वन तथा सड़क ठेकेदारों से जबरन वसूली थी। नक्सली इनसे अनुमानित 150 करोड़ रुपये जुटाने में सफल होते रहे। सीमा सड़क संगठन, जो कि केंद्र सरकार की इकाई है, को सिविल कार्यों को सौंपने से धन का वह स्रोत बंद हो गया है, साथ ही खुफिया एजेंसियों द्वारा तेंदू पत्ता ठेकेदारों पर कड़ी निगरानी रखी गई।
कांग्रेस राज में तो कुछ पार्टी नेता, मंत्री,अफसर और ठेकेदार ही नक्सलियों के साथ कमाई की साझेदारी करते थे। यह अलग बात है कि कई नक्सल विरोधी कांग्रेस नेता पहले उनकी हिंसा के शिकार रहे थे। नक्सल प्रभावित सुकमा जिले के किनारे बसा पुवर्ती, सीआरपीएफ की 150वीं बटालियन के अधीन है जिसका नाम है 'वन-फाइव जीरो, जंगल हीरो'। पुवर्ती कभी खूंखार माड़वी हिडमा का गढ़ हुआ करता था, नक्सल कमांडर के बारे में कहा जाता है कि वह सुरक्षा बलों पर दो दर्जन से अधिक घातक हमलों का मास्टरमाइंड था जिसमें 2010 में पास के ताड़मेटला गांव में हुआ हमला भी शामिल है जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे।
पहले किसी भी सरकारी व्यक्ति, वर्दीधारी या अन्य के लिए पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) की अनुमति के बिना पुवर्ती में प्रवेश करना असंभव था लेकिन समय बदला गया है। इसी तरह दंतेवाड़ा में आदिवासी भयमुक्त होकर बच्च्चों को शिक्षा और रोजगार दिला रहे हैं। यहाँ का हाट बाजार और उद्यम केंद्र किसी शहर के बाजार से अधिक व्यवस्थित और खुशहाल दिख रहे हैं। जगदलपुर और दांतवाड़ा के सरकारी कौशल विकास केंद्र ( स्किल डेवलपमेन्ट सेंटर ) के सभी प्रशिक्षुओं को रोजगार मिल रहा है। नक्सल संगठन पोलित ब्यूरो, केंद्रीय समिति और केंद्रीय सैन्य आयोग द्वारा संचालित रहे हैं। बताते हैं कि पोलित ब्यूरो का नेतृत्व 70 वर्षीय महासचिव नंबाला केशव राव कर रहे हैं, जो कई उपनामों से जाने जाते हैं, जिनमें बसवराज और गगनना शामिल हैं।
सैन्य शाखा में क्षेत्रीय, राज्य और क्षेत्रीय कमान हैं, जिसमें सशस्त्र मिलिशिया पिरामिड का आधार बनाती है। पता लगाओ, निशाना बनाओ और बेअसर करो के दृष्टिकोण को अपनाते हुए, मोदी सरकार ने पिछले वर्षों में 15 शीर्ष नक्सल नेताओं को मार गिराया जिनमें तीन पोलित ब्यूरो और 12 केंद्रीय समिति के सदस्य शामिल हैं।
पुलिस सूत्रों का कहना है कि पिछले साल की परिचालन सफलताओं के कारण, बस्तर में नक्सलियों के कट्टर लड़ाकों की संख्या 1,400 से घटकर 600 रह गई है।उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह 2026 में देश को नक्सल आतंक से मुक्ति दिला दें और नक्सलियों को दिल्ली मुंबई से साधन दिला दे रहे अर्बन नक्सल और विदेशी ताकतों को भी कठोर कार्रवाई से नियंत्रित कर सकें।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
दरअसल हमारी राजनीति ही नहीं, हमारे समूचे सार्वजनिक विमर्श की भाषा बहुत सपाट, अश्लील और निरर्थक हो चुकी है। इस विमर्श में सिर्फ़ नफ़रत है और शब्द अपने अर्थ जैसे खो चुके हैं।
समीर चौगांवकर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
विजय शाह जैसे नेता समाज और सियासत दोनों के लिए कलंक है। विजय शाह का बयान माफ़ी लायक़ नहीं है। समाज,सेना और देश का गर्व कर्नल सोफिया कुरैशी के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा दरअसल सांप्रदायिक नफ़रत की ख़ाद से पैदा हुई है और इसके पीछे बस मुस्लिम घृणा का इकलौता एजेंडा है। विजय शाह जैसे लोग राजनीति में आते हैं तो वे राजनीति का बहुत भला नहीं करते।
बीजेपी की राजनीतिक संस्कृति में विजय शाह जैसे लोग स्वीकार्य नहीं होने चाहिए। बीजेपी का चाल,चरित्र और चेहरा बाक़ी दलों से अलग है। संघ के संस्कार से बीजेपी निकली है। बीजेपी “पार्टी विथ डिफरेंस” का दंभ भरती है, तों उसे अन्य राजनीतिक दलों से अलग दिखना भी चाहिए।
सेना का सम्मान बड़ा है या विजय शाह का आदिवासी होना? पूरे देश में अपनी छीछालेदार कराना स्वीकार्य है, लेकिन विजय शाह अपरिहार्य है? दरअसल हमारी राजनीति ही नहीं, हमारे समूचे सार्वजनिक विमर्श की भाषा बहुत सपाट,अश्लील और निरर्थक हो चुकी है।
इस विमर्श में सिर्फ़ नफ़रत है और शब्द अपने अर्थ जैसे खो चुके हैं। शब्द या किसी का बयान तभी चुभते या तंग करते हैं जब वे बहुत अश्लील या फूहड़ ढंग से इस्तेमाल किए जाते हैं। राजनीतिक दलों को कुछ नहीं चुभता, बस वे उसे अपने राजनीतिक इस्तेमाल के लायक बना लेते है। हम भी अपना पक्ष देखकर उनका विरोध या बचाव करते हैं। दरअसल यह समाज का संकट है।
हम सूक्ष्मता और गहराई में सोचने और जीने का अभ्यास खो बैठे हैं। समझने की ज़रूरत है कि राजनीति का शील सिर्फ़ शब्दों का शील नहीं होता। वह मुद्दों और आचरण का भी शील होता है। विजय शाह के शब्दों के चयन में दिख रहा है कि पुराने पूर्वग्रह कैसे शब्दों के चयन से बाहर आते हैं। विजय शाह के बयान में सत्ता का दर्प झलक रहा है। इसे कोई संवेदनशील व्यक्ति लक्ष्य कर सकता है।
विजय शाह को माफ़ी से मुक्ति नहीं मिलना चाहिए। शाह का इस्तीफा नहीं होने की सबसे अहम वजह आदिवासी वोटर्स की मजबूरी भी है। हरसूद और आसपास के आदिवासी क्षेत्रों में शाह का काफी प्रभाव है। वे पिछले 40 साल से इस इलाके से जनप्रतिनिधि हैं।
विजय शाह 12 साल पहले 14 अप्रैल 2013 को भी महिलाओं को लेकर झाबुआ में बेहद अभद्र और अश्लील टिप्पणी की थी, तब उनसे केवल 4 महीने के लिए मंत्री पद छीना था लेकिन बाद में विजय शाह के बग़ावती तेवर देखकर तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान विजय शाह को गले लगाते हुए आदिवासी वोट बैंक की खातिर वापस अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी। मैं बीजेपी का प्रशंसक हूँ, लेकिन विजय शाह के बयान से शर्मिंदा हूँ।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सीजफायर का अनुरोध पाकिस्तान के DGMO से आया, सीज़फायर ट्रंप ने नहीं करवाया। पर ट्रंप कई बार कह चुके थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच सीज़फायर मैंने करवाया।
रजत शर्मा , इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी बात से पलट गए। ट्रम्प ने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर उन्होंने नहीं करवाया, उन्होंने तो दोनों देशों के बीच चल रही प्रॉब्लम को सॉल्व करने की कोशिश की। ट्रम्प ने कहा, भारत और पाकिस्तान के बीच झगड़ा बढ़ता जा रहा था, दोनों तरफ से अलग-अलग किस्म की मिसाइलें चल रहीं थीं। मुझे लगा ये मामला बढ़ेगा... मैं ये तो नहीं कहता कि मैंने सीजफायर करवाया लेकिन मैंने ये प्रॉब्लम सेटल करने में भारत और पाकिस्तान की मदद की।
इसके बाद ट्रंप ने कहा कि मुझे उम्मीद है कि दो दिन बाद कम से कम ये नहीं होगा कि ये सेटल नहीं हुआ और ये दोनों फिर से लड़ने लगें। हालांकि मुझे लगता है कि ये सेटल हो गया है। इसलिए अब ट्रेड (व्यापार) की बात करो और ट्रेड करो। डोनाल्ड ट्रंप ने वही कहा जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, जो विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था, जो हमारी फौज ने कहा था।
सीजफायर का अनुरोध पाकिस्तान के DGMO से आया, सीज़फायर ट्रंप ने नहीं करवाया। पर ट्रंप कई बार कह चुके थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच सीज़फायर मैंने करवाया। ट्रंप गुरुवार को अपनी बात से पलटे। ट्रंप वही कह रहे हैं जो भारत का विदेश मंत्रालय बार बार दोहरा रहा था कि ये बात भारत और पाकिस्तान के बीच हुई। इसमें तीसरा कोई बीच में नहीं था। लेकिन ट्रंप तो ट्रंप हैं।
उन्होंने तो ये भी कहा था कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का मसला एक हजार साल से चला आ रहा है और वो इसमें मध्यस्थता करने को तैयार हैं। भारत की तरफ से कई बार ये कहा जा चुका है कि जम्मू कश्मीर का मसला द्विपक्षीय है, पाकिस्तान बार बार दूसरे देशों के पास जाता है, मध्यस्थता चाहता है, लेकिन भारत को किसी तीसरे मुल्क की जरूरत न पहले थी, न अब है, और न आगे होगी।
जहां तक सीजफायर का सवाल है, ट्रंप के दावे से भारत सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन कांग्रेस को मसाला मिल गया। ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कांग्रेस और तो कुछ नहीं कर पाई, कांग्रेस के नेता बार-बार ये पूछते रहे कि मोदी जवाब दें, क्या ट्रंप ने प्रेशर डाला? क्या वो ट्रंप से डर गए? मोदी ने तो जवाब नहीं दिया पर आज ट्रंप ने ही एक्सप्लेन कर दिया।
ट्रंप ने ये भी कहा कि मैंने दोनों देशों से कहा कि व्यापार करें। लेकिन ट्रम्प को भारत की नीति के बारे में पता है। कारोबार और आतंकवाद साथ साथ नहीं चल सकते। मोदी ये बात कई बार कह चुके हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
यदि बालीवुड सितारे एक सुर में सेना के साथ खड़े दिखाई दिए होते तो हमारी मिसाइलों को न तो ज्यादा गति मिलने वाली थी और न ही वे ज्यादा दूरी तक मार करने वाली थी।
राजीव सचान, वरिष्ठ पत्रकार।
1948 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर में कबाइली हमले की आड़ में आक्रमण किया, तब राज कपूर, नर्गिस, गीता बाली, आइएस जौहर, कामिनी कौशल, मुकेश और अन्य तमाम सितारों ने युद्ध के लिए लाखों रुपये जमा किए। 1962 और 1965 के युद्ध में भी लताजी, सुनील दत्त, नर्गिस, किशोर कुमार, वहीदा रहमान आदि ने मोर्चे पर जाकर सैनिकों का मनोबल बढ़ाया और धन जमा किया।
1971 में भी लताजी, प्राण, शम्मी कपूर, वहीदा रहमान, कल्याणजी-आनंदजी, सुनील दत्त, नर्गिस जैसे सितारों ने बांग्लादेश सहायता समिति बनाई। कारगिल संघर्ष के दौरान तो नाना पाटेकर मोर्चे पर ही चले गए थे। आपरेशन सिंदूर के समय चंद कलाकारों को छोड़कर अनेक ने जो किया, उसे बेशर्मी, बेगैरती और कायरता के अलावा और क्या कह सकते हैं? इनसे नाराजगी स्वाभाविक है, लेकिन क्या हमारी यह नाराजगी कायम और नियंत्रित रहेगी?
हम ऐसा कुछ न करें, जिससे फर्जी सितारों की सजा बालीवुड के सब लोगों को भुगतनी पड़ी। कुछ के किए की सजा सबको नहीं दी जा सकती। सब एक जैसे नहीं होते। कुछ तो बोले भी हैं। क्या हम सब उनसे परिचित हैं? कुछ चाहकर भी बोल नहीं सके होंगे। कुछ की मजबूरी भी रही होगी।
बालीवुड का एक बड़ा हिस्सा पर्दे के पीछे भी होता है। उसमें हमारे-आपके जैसे आम लोग ही हैं। आक्रोश अनियंत्रित हो जाए तो उलटे खुद को या फिर जिनका कोई लेना-देना नहीं होता, उन्हें भी नुकसान उठाना पड़ता है। गुस्सा स्वाभाविक है, लेकिन वह नियंत्रित और मर्यादित रहे।
हमें तो बस यह संदेश देना है कि जब आपको बोलना चाहिए था, तब आपने अपनी चुप्पी से अपने को ही पतित किया और हमारी नजरों से गिर गए-शायद सदा के लिए। यदि बालीवुड सितारे एक सुर में सेना के साथ खड़े दिखाई दिए होते तो हमारी मिसाइलों को न तो ज्यादा गति मिलने वाली थी और न ही वे ज्यादा दूरी तक मार करने वाली थी, लेकिन सैनिकों के साथ जनता का मनोबल बढ़ता और देश में और अधिक सकारात्मक वातावरण निर्मित होता।
अब ये नकली, फर्जी, दब्बू सितारे किसी भी मसले पर कुछ भी कहेंगे तो वह रत्ती भर भी असर न करेगा। हमें आक्रोशित होने के साथ ही खुश भी होना चाहिए कि हमारी आंखे खुल गईं और यह पता चल गया कि हम कैसे थोथे, खोखले लोगों को अपना नायक माने बैठे थे। हमें अपने असली नायकों की पहचान करना और उन्हें सम्मान देना अभी भी सीखना शेष है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जैसे-जैसे भारतीय टेलीविज़न न्यूज़ ज़्यादा नाटकीय और अति-राष्ट्रवादी होती जा रही है, वैसे-वैसे पत्रकारिता की विश्वसनीयता व ईमानदारी को बचाने के लिए सिर्फ सुधार की बात करना काफी नहीं है
रुहैल अमीन, सीनियर स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट, एक्सचेंज4मीडिया ग्रुप ।।
क्या युद्ध के दौरान मीडिया तंत्र केवल तभी सक्रिय होता है जब युद्ध शुरू होता है, या क्या यह पहले से ही अस्तित्व में होता है, धीरे-धीरे आकार लेता है, और संघर्ष के समय पूरी ताकत से सामने आता है। भारतीय संदर्भ में, खासकर सैन्य या भू-राजनीतिक तनाव के दौरान, मीडिया केवल युद्ध की रिपोर्टिंग नहीं करता—वह संघर्ष के रंगमंच में सक्रिय भागीदार बन जाता है। यह परिवर्तन इतना सहज होता है कि कई लोग यह पहचान नहीं पाते कि पत्रकारिता और उग्र राष्ट्रवाद के बीच की रेखा कब मिट जाती है।
आजकल के भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक अलग पहचान बनाई है, जो अकसर चिल्ला-चिल्लाकर हर बार खुद को बिना किसी झिझक के राष्ट्रवादी कहता है। यह सवाल उठता है कि क्या यह किसी वैश्विक उदाहरणों से प्रेरित है। चैनल जैसे BBC, Al Jazeera या CNN, अपनी कमियों के बावजूद, संघर्ष की रिपोर्टिंग में कुछ पत्रकारिता की मर्यादा बनाए रखने की कोशिश करते हैं। वहीं इसके उलट, भारतीय टीवी न्यूज चैनल्स ने लगभग नाटकीय रूप से अति-राष्ट्रवाद को अपनाया है, जहां सूचित करने और लोगों को उत्तेजित करने के बीच की रेखा खतरनाक तरीके से धुंधली हो जाती है।
वहीं अब, इस युद्ध-तंत्र में एक नया मोर्चा शामिल हो गया है और वह है सोशल मीडिया। पहले इसे जानकारी को लोकतांत्रिक बनाने और अनसुनी आवाजों को आवाज देने के लिए सराहा गया था, लेकिन अब यह कहीं ज्यादा जटिल और खतरनाक रूप में बदल चुका है। इसका ढांचा- एल्गोरिदमिक, अपारदर्शी और वायरल अब पूरी तरह से समझ लिया गया है। सोशल मीडिया अब मासूम डिजिटल मंच नहीं है। यह एक सहेजा हुआ युद्धक्षेत्र बन गया है, जहां गुमनाम अकाउंट्स, राजनीतिक उन्मादी और समन्वित बॉट नेटवर्क मानसिक युद्ध लड़ते हैं। जिसे कभी जनता की आवाज माना जाता था, अब वह अक्सर एक हथियारबंद प्रतिध्वनि कक्ष बन चुका है।
अब कल्पना कीजिए, यदि ये मीडिया प्लेटफॉर्म भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान होते, तो इतिहास कुछ अलग होता। क्या गांधीजी का ‘अहिंसा’ और ‘असहयोग’ का संदेश ट्रेंड करता या डिजिटल भीड़ उन्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ बताकर चुप करा देती? क्या असहमति की बहादुर आवाजें सार्थक बहस की जमीन बनतीं या खुद को डॉक्सिंग, ट्रोलिंग और डिजिटल बहिष्कार का शिकार पातीं, जिन्हें खुद को देशभक्ति का रक्षक मानने वाले लोग बाहर कर देते?
अब वर्तमान में आते हैं: युद्धविराम का समझौता कई दिनों से लागू है, लेकिन हमारे मीडिया में कोई युद्धविराम नहीं है। न्यूज स्टूडियो अब भी युद्ध के खेल में लगे हैं, जबकि मैदान पर बंदूकें बहुत पहले खामोश हो चुकी हैं। सवाल यह है कि मीडिया में युद्धविराम कौन घोषित करता है? असली युद्धक्षेत्र की तरह पत्रकारिता के लिए कोई जिनेवा कन्वेंशन नहीं है। टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स (TRPs) की निरंतर खोज यह सुनिश्चित करती है कि एक बार संघर्ष की कहानी शुरू हो जाए, तो उसे हर भाव, गुस्से और दर्शकों की आँखों के लिए पूरी तरह से निचोड़ लिया जाता है।
हाल ही में भारत-पाक संघर्ष एक बड़ा उदाहरण था। देशभक्ति के नाम पर पत्रकारिता की बलि चढ़ा दी गई। टेलीविजन स्टूडियो युद्ध कक्षों में बदल गए। एंकर पैनलिस्टों पर चिल्लाते रहे। दुश्मन के हताहत होने की खबरें बिना किसी पुष्टि के प्रसारित की गईं। “बदला,” “सफाया,” और “अंतिम प्रहार” जैसे शब्द प्राइम-टाइम की चर्चाओं में प्रमुख हो गए। वस्तुनिष्ठता की जगह नाटकीय राष्ट्रवाद ने ले ली। सच्चाई को तमाशे के लिए किनारे कर दिया गया। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने का विचार अब मजाक बनकर रह गया।
जो बहसें विभिन्न दृष्टिकोणों को सामने लानी चाहिए थीं, वे अब आक्रामक देशभक्ति की गूंज में बदल गईं। जो भी बात में संतुलन या तथ्यात्मक सुधार की कोशिश करता, उसे तुरंत ‘राष्ट्रविरोधी’ करार दे दिया जाता। सत्यापित जानकारी की जगह अफवाहें फैलने लगीं। प्राइम-टाइम अब एक जंगली राष्ट्रवाद का मंच बन गया था, जहां एंकर जनरल के रूप में और पैनलिस्ट सैनिकों की तरह दिखाई दे रहे थे।
सोशल मीडिया पर भी यही गिरावट देखने को मिली। पुलवामा आतंकवादी हमले में शहीद हुए जवान की पत्नी को सिर्फ अपनी व्यक्तिगत राय रखने के लिए घृणित ऑनलाइन गालियों का सामना करना पड़ा। जब भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने युद्धविराम पर संतुलित बयान दिया, तो उन्हें संगठित ट्रोलिंग का शिकार बनाया गया। इसके बाद कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई। आजकल, ट्रोल सेनाएं सरकारों से भी ज्यादा शक्तिशाली नजर आती हैं। वे बिना किसी डर के काम करती हैं और नफरत फैलाती हैं, जो असहमति जताने वालों को दंडित करती हैं।
जो एक समय संवाद का स्थान माना जाता था, वह अब असहमति को दबाने का युद्धक्षेत्र बन चुका है। नागरिक संवाद खतरे में है। डिजिटल प्लेटफॉर्म की गुमनामी और उनकी पहुंच ने वर्चुअल सतर्कता-प्रहरी खड़े कर दिए हैं—जो एक क्लिक में किसी की छवि को नष्ट कर सकते हैं। इसका परिणाम है: एक गहरी रूप से विभाजित समाज, जहां राय को तथ्य माना जाता है और शोर को खबर।
प्रसिद्ध भाषाविद् और राजनीतिक टिप्पणीकार नोम चॉम्स्की ने बहुत पहले "manufacture of consent" की चेतावनी दी थी—जिसमें मीडिया का काम जनमत को शक्तिशाली हितों के अनुसार ढालना होता है। आज हम एक और खतरनाक रूप का सामना कर रहे हैं: "manufacture of misinformation". चतुराई से परोसी गई आधी सच्चाई, चयनात्मक गुस्सा और बिना प्रमाणित सामग्री के जरिए मीडिया अब सिर्फ सूचना नहीं देता—वह लोगों के विचारों को बदलता है। इससे जनता भ्रमित, खंडित और भावनात्मक शोषण के लिए संवेदनशील हो जाती है।
युद्धविराम के बाद, मुख्यधारा मीडिया में आत्ममंथन या पश्चाताप के कोई संकेत नहीं थे। वह आत्मचिंतन, जिसकी उम्मीद पत्रकारिता जैसे पेशे से की जाती है, कभी आया ही नहीं। इसके बजाय वही घिसे-पिटे विचार दोहराए गए। बयानबाजी थोड़ी थकी हुई जरूर लग सकती थी, लेकिन वह खत्म नहीं हुई। सवाल यह उठता है कि क्या मीडिया ने अपनी राह खो दी है—या जानबूझकर एक नई राह चुनी है, जो TRP के हिसाब से उपयुक्त है, न कि सच्चाई के हिसाब से।
अब आगे क्या किया जाए? पत्रकारिता में विश्वसनीयता और ईमानदारी की बहाली के लिए संरचनात्मक सुधार अब केवल एक विकल्प नहीं—बल्कि एक जरूरत बन चुकी है। भारत को एक मजबूत, स्वतंत्र मीडिया नियामक ढांचे की आवश्यकता है, जिसमें जानबूझकर फैलाई गई गलत सूचना और भ्रम के खिलाफ वास्तविक सजा देने की शक्ति हो। सिर्फ सलाह देने वाली कमजोर संस्थाएं पर्याप्त नहीं होंगी। मीडिया संस्थाओं और डिजिटल प्लेटफॉर्मों को केवल नैतिक रूप से नहीं, बल्कि कानूनी रूप से भी जवाबदेह ठहराना होगा।
तकनीकी समाधान भी इस बदलाव का हिस्सा हो सकते हैं। AI-आधारित फैक्ट-चेकिंग टूल्स झूठी खबरों को वायरल होने से पहले रोकने में मदद कर सकते हैं। प्लेटफॉर्मों को पारदर्शी कंटेंट मॉडरेशन नीतियों को लागू करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, मीडिया के लिए एक वैधानिक लोकपाल या सार्वजनिक शिकायत परिषद जनता की शिकायतों का शीघ्र और निष्पक्ष समाधान कर सकती है।
हालांकि, बेहतरीन कानून और तकनीकें भी तब तक विफल रहेंगी जब तक जनता बेहतर पत्रकारिता की मांग नहीं करेगी। दर्शकों को तमाशे की जगह तथ्य और सच्चाई को प्राथमिकता देनी होगी। आम जनता को मीडिया को सिर्फ सोशल मीडिया पर ही नहीं, बल्कि उपभोक्ता विकल्प, शिकायत और नागरिक दबाव के माध्यम से भी जवाबदेह ठहराना होगा।
आख़िरकार, हमें खुद से पूछना होगा: क्या यही नया सामान्य है? क्या मीडिया की सनसनीखेजी और डिजिटल भीड़-तंत्र का यह संलयन अब स्थायी बन चुका है? या क्या हम अब भी एक ऐसी मीडिया व्यवस्था को बचा सकते हैं जो लोकतंत्र की सेवा करे, उसे विकृत न करे?
इसका उत्तर केवल स्टूडियो या सर्वर में नहीं—बल्कि हर उस नागरिक की जागरूकता में है जो गुमराह होने से इनकार करता है। जब तक ऐसा नहीं होता, सीमाओं पर भले युद्ध समाप्त हो जाए, लेकिन पत्रकारिता की आत्मा के लिए लड़ाई अब भी जारी है।
पाकिस्तान ने अपने झूठे प्रोपेगैंडा में इंडिया टीवी की फुटेज का इस्तेमाल किया। प्रेस कॉन्फ्रेंस में लाइव शो की क्लिप को कांट छांट कर ऐसे दिखाया मानो उनकी मिसाइल ने हमारे एयरबेस को हिट किया है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
दिलचस्प बात ये है कि पाकिस्तान के 11 एयरबेस तबाह हो गए, 40 पाकिस्तानी फौजी और अफसर ऑपरेशन सिंदूर में मारे गए, सारे पाकिस्तानी ड्रोन और मिसाइल्स नष्ट कर दी गई, पाकिस्तान के दुलारे सौ से ज्यादा दहशतगर्द मार दिए गए। इतनी मार खाने के बाद भी पाकिस्तानी फौज बेशर्मी से जीत के दावे कर रही है और सबूत के तौर पर फर्जी वीडियो दिखा रही है।
पाकिस्तानी फौज एक घोषित अंतरराष्ट्रीय आतंकी हाफिज अब्दुर रऊफ को सामने लाई, कहा कि वो आंतकवादी नहीं है, वो तो मौलवी है, हाफिज है, दीन का सिपाही है, शादीशुदा है और उसकी तीन बेटियां हैं। लश्कर और जैश के अड्डों पर हमारी वायु सेना के हमले में सौ से ज्यादा आतंकवादी मारे गए थे, अगले दिन उनके जनाजे निकले, दहशतगर्दों को पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया, राजकीय सम्मान के साथ उन्हें सुपुर्दे खाक किया गया।
पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर ने दहशतगर्दों के जनाजों पर फूल भेजे। सेना के अफसर जनाजे की नमाज में शामिल हुए। नोट करने वाली बात ये थी कि मुरीदके में मारे गए लश्कर के आतंकवादियों के जनाजे पर फातेहा ग्लोबल टेरेरिस्ट अब्दुर रऊफ से पढ़वाया। उसके पीछे फौज के अफसर खड़े थे। ये तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी लेकिन पाकिस्तानी सेना ने लोगों की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की।
झूठ कितना भी जोर से बोला जाए, सच खुद-ब-खुद सामने आ जाता है। अमेरिका के Department of Treasury की 24 नवंबर 2010 की प्रेस रिलीज़ में साफ लिखा है कि अब्दुर रऊफ लश्कर का सदस्य और फाइनेंसर है। उसे ग्लोबल टेरेरिस्ट घोषित किया गया है। मतलब साफ है कि पाकिस्तान सफेद झूठ बोल रहा है। दूसरी चौंकाने वाली जानकारी, पाकिस्तान की फौज के प्रवक्ता ISPR के DG लेफ्टीनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी खुद भी एक ग्लोबल टेरेरिस्ट के बेटे हैं। उनके वालिद सुल्तान बशीरुद्दीन महमूद एटमी इंजीनियर थे।
1999 में बशीरुद्दीन ने इंजीनियरिंग छोड़कर जिहाद का रास्ता अपनाया, वो ओसामा बिन लादेन के साथ चले गए, बशीरुद्दीन ने ओसामा बिन लादेन की अल काय़दा तंज़ीम को केमिकल, बायोलॉजिकल और न्यूक्लियर हथियारों के फॉर्मूले भी बता दिए। 2001 में संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका ने उनको ग्लोबल टेररिस्ट घोषित कर दिया। तीसरी, पाकिस्तान ने अपने झूठे प्रोपेगैंडा में इंडिया टीवी की फुटेज का इस्तेमाल किया। सेना ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंडिया टीवी के लाइव शो की क्लिप को कांट छांट कर ऐसे दिखाया मानो पाकिस्तान की मिसाइल ने हमारे एयरबेस को हिट किया है।
असल में पाकिस्तान की एक मिसाइल को हमारे एयर डिफेंस सिस्टम ने मार गिराया था। इंडिया टीवी ने पाकिस्तानी मिसाइल के जमीन पर गिरे हुए टुकड़े दिखाए थे। पूरी बातचीत पांच मिनट की थी लेकिन पाकिस्तानी फौज ने सिर्फ 27 सेंकेंड की क्लिप दिखाकर ये दावा किया कि पाकिस्तानी मिसाइल ने भारत के एयर बेस को नुकसान पहुंचाया। भारत सरकार के प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो की फैक्ट चेक टीम ने बिना देर किए पाकिस्तान के इस झूठ का पर्दाफाश कर दिया।
PIB ने अपने ट्वीट में कहा कि इंडिया टीवी के इस वीडियो को पाकिस्तान ने अपने तरीके से एडिट किया, अपने नैरेटिव को सेट करने वाले हिस्से आपस में जोड़े और झूठ परोस दिया। चौथी, पाकिस्तान सरकार के ट्विटर हैंडल पर एक वीडियो में दावा किया गया कि पाकिस्तानी एयरफोर्स ने भारत के फाइटर जैट को गिरा दिया। लेकिन फैक्ट चैक में ये दावा झूठा निकला।
पता चला वीडियो पाकिस्तानी एयरफोर्स का नहीं, बल्कि आर्मा-3 नाम के एक वीडियो गेम की स्क्रीन रिकॉर्डिंग है। आर्मा-3 एक military simulation गेम है और इसका रियल वॉर से कोई लेना देना नहीं है। पाकिस्तान सरकार वीडियो गेम की तस्वीरों को अपनी एयरफोर्स की जांबाजी के सबूत के तौर पर पेश कर रही है। इससे ये तो साफ है कि पाकिस्तान की फौज और पाकिस्तानी हुकूमत की हालत किस कदर खराब है।
मुझे तो हैरानी इस बात की है कि पाकिस्तान के नेता और वहां के फौजी अफसर किस जमाने में जी रहे हैं। उन्हें इतना भी नहीं पता कि टैक्नोलॉजी के जमाने में इस तरह के झूठ कोई बच्चा भी पकड़ा लेगा। कहते हैं कि नकल करने के लिए भी अक्ल चाहिए। हमारी तीनों सेनाओं के अफसरों ने पाकिस्तान में तबाही के सबूत दिखाए तो इसकी नकल करके पाकिस्तानी फौज के अफसर भी सामने आए लेकिन दिखाने के लिए कुछ था नहीं। जल्दीबाजी में वीडियो गेम के सबूत उठा लाए, लेकिन कुछ ही मिनटों में असलियत सामने आ गई। फिर भी पाकिस्तानी फौज को कोई शर्म नहीं है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
कोटक म्यूचुअल फंड की रिपोर्ट के मुताबिक़ सरकार की कार्रवाई से लगता है कि बड़े युद्ध की आशंका कम है। शेयर बाज़ार में शॉर्ट टर्म में ऊपर नीचे जा सकता है। लाँग टर्म में कोई दिक़्क़त नहीं होना चाहिए।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव है। शेयर बाज़ार में शुक्रवार को गिरावट आयी है। सबके मन में सवाल है कि तनाव लंबे समय तक बना रहा तो शेयर बाज़ार में क्या होगा? अर्थव्यवस्था का क्या होगा? हिसाब किताब में इन सवालों का जवाब ढूँढेंगे। पहले तो समझ लेते हैं कि युद्ध का अर्थव्यवस्था पर असर क्या होता है? आम तौर पर सरकार का रक्षा खर्च बढ़ जाता है। इससे सरकार का घाटा यानी Fiscal Deficit बढ़ने की आशंका रहती है।
इससे महंगाई भी बढ़ती है। Moody’s की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत पर इसका असर बहुत कम पड़ेगा क्योंकि पाकिस्तान के साथ व्यापार बहुत कम है। हमारा एक्सपोर्ट ₹100 है तो पाकिस्तान में सिर्फ़ 50 पैसे का माल जाता है। रक्षा खर्च बढ़ने से सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ पड़ने की आशंका ज़रूर रिपोर्ट में जताई गई है। ये बोझ इतना भी नहीं है कि अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी।
इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान युद्ध का बोझ नहीं झेल सकता है। उस पर 131 बिलियन डॉलर का विदेशी क़र्ज़ है। उसके पास तीन महीने इंपोर्ट करने के लिए ही विदेशी मुद्रा भंडार है। कोटक म्यूचुअल फंड की रिपोर्ट के मुताबिक़ सरकार की कार्रवाई से लगता है कि बड़े युद्ध की आशंका कम है, शेयर बाज़ार में शॉर्ट टर्म में ऊपर नीचे जा सकता है। लाँग टर्म में कोई दिक़्क़त नहीं होना चाहिए।
2016 में उरी और 2019 में पुलवामा आतंकी हमले से लेकर भारत के जवाब तक बाज़ार 1% से कम की रेंज में ऊपर नीचे रहा लेकिन साल भर बाद ठीक ठाक रिटर्न मिला। उरी के एक साल बाद रिटर्न 11% रहा जबकि पुलवामा के बाद 9%, वैसे तो बड़े युद्ध की आशंका नहीं है लेकिन 1999 के करगिल युद्ध के दौरान ( 3 मई -26 जुलाई 1999) बाज़ार 36% ऊपर गया और साल भर बाद 29%. 1962, 1965 और 1971 की लड़ाई के दौरान सरकारी घाटा और महंगाई तो बढ़ी थी लेकिन ग्रोथ पर असर नहीं पड़ा था। इसी आधार पर निवेशकों को सलाह दी गई है कि वो हड़बड़ी में SIP बंद करने या यूनिट बेचने का फ़ैसला नहीं करें।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )