दो वर्षों के कोरोना महामारी काल के बाद वर्ष 2022 में नई आशा प्रिंट, टीवी और डिजिटल में दिखने लगी। ‘जूम’ जैसे साधनों के बढ़ते उपयोग से सुविधाएं हुई।
आलोक मेहता।।
दो वर्षों के कोरोना महामारी काल के बाद वर्ष 2022 में नई आशा प्रिंट, टीवी और डिजिटल में दिखने लगी। ‘जूम’ जैसे साधनों के बढ़ते उपयोग से सुविधाएं हुई। कई नए चैनल विभिन्न भाषाओं में आने से युवाओं के लिए अवसर बढ़ रहे हैं। प्रतियोगिता भी बढ़ रही है। आर्थिक समस्याएं संपूर्ण विश्व को प्रभावित कर रही हैं। इसलिए मीडिया में भी वित्तीय उतार-चढ़ाव की स्थिति 2022 में दिखती रही।
प्रिंट में कागज का मूल्य कई गुना बढ़ने से पत्र-पत्रिकाओं का प्रसार तेजी से नहीं हो पा रहा है, लेकिन हिंदी और भारतीय भाषाओँ के अखबार के पाठकों में कमी नहीं हुई। छपी हुई सामग्री डिजिटल और टीवी न्यूज चैनल के साथ देखने-पढ़ने का सिलसिला नहीं थमा है। मेरी राय में ये एक-दूसरे के पूरक हैं। अखबार में पढ़ने के बाद उसे देखने या सुनने की इच्छा बनी रहती है या टीवी के बाद उसका विवरण या विश्लेषण फुर्सत में पढ़ने का प्रयास होता है।
नया वर्ष 2023 अधिक चुनौती और अवसरों का है। यदि कोई समूह बड़े लक्ष्य और अंतर्राष्ट्रीय विस्तार के लिए पूंजी लगाएगा तो भारतीय मीडिया अधिक प्रतिष्ठित होगा। प्रदेशों में विस्तार और काम के अवसर बढ़ेंगे। पिछले डेढ़ वर्ष में कई क्षेत्रीय टीवी या यूट्यूब चैनल आए और उनके दर्शकों की संख्या भी बढ़ती गई |
मध्य प्रदेश में 'द सूत्र' जैसे यूट्यूब चैनल ने प्रदेश की समस्याओं, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनीति पर जिस निष्पक्षता के साथ अपनी पहचान बनाई, वह इस बात का प्रमाण है कि केवल भंडाफोड़ या सरकार के विरुद्ध अभियान के बजाय तथ्यों के साथ सरकार की कमियों, गड़बड़ियों को उजागर करने से समाज और सरकार को कुछ उपयोगी जानकारी दी जा सकती है। असल में सत्ता परिवर्तन की ठेकेदारी को निष्पक्ष या साहसिक पत्रकारिता नहीं कहा जाना चाहिए। इसी तरह केवल सरकार या अपने मीडिया कर्म पर आत्ममुग्धता भी अच्छी नहीं है। इससे मीडिया की साख ही खराब होती है।
उम्मीद करनी चाहिए कि नए वर्ष में कुछ और नए संस्थान, चैनल या प्रकाशन भी स्वस्थ्य प्रतियोगिता और दूरगामी लक्ष्य के साथ भारत में आएंगे| वहीँ, वर्तमान में चल रहे संस्थान भी प्रगति के रास्ते बना सकेंगे| डिजिटल क्रांति का लाभ होगा। आर्थिक स्थिति में सुधार का असर मीडिया में भी होगा। मीडिया के लिए हर युग में चुनौतियों के बीच बढ़ने, संघर्ष और सफल होने के अवसर रहे हैं और रहेंगे। शुभकामनाएं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं।)
सोने में पैसे लगाए या शेयर बाज़ार में, यह पुरानी बहस है। हमारे बड़े बुजुर्ग सोने को सेफ़ ऑप्शन मानते थे। सोना बुरे वक़्त में काम आएगा। सोने के भाव तब चढ़ने लगते हैं जब अनिश्चितता बढ़ती है।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
दुनिया शेयर बाज़ार को लेकर परेशान है जबकि सोना नए रिकॉर्ड बना रहा है। इस हफ़्ते दस ग्राम सोने का दाम ₹90 हज़ार पार हो गया। आपको पता है कि सोने का रिटर्न अब शेयर बाज़ार से बेहतर हो गया है। 25 साल पहले अगर आपने एक लाख रुपये का सोना ख़रीदा होता तो आज उसकी क़ीमत होती क़रीब 19 लाख रुपये जबकि यही निवेश Nifty में किया होता तो क़ीमत होती क़रीब 18 लाख रुपये।
सोने में पैसे लगाए या शेयर बाज़ार में, यह पुरानी बहस है। हमारे बड़े बुजुर्ग सोने को सेफ़ ऑप्शन मानते थे। सोना बुरे वक़्त में काम आएगा। दुनिया में भी सोने के भाव तब चढ़ने लगते हैं जब अनिश्चितता बढ़ती है जैसे अभी टैरिफ़ वॉर को लेकर दुनिया परेशान है। इससे सोने के दाम बढ़ रहे हैं जबकि शेयर बाज़ार नीचे की तरफ़ जा रहा है। सिर्फ़ 25 ही नहीं, लगभग हर अवधि में सोना या तो शेयर बाज़ार से बेहतर कर रहा है या बराबरी पर है।
पाँच साल पहले सोने में एक लाख रुपये लगाए होते तो आज उसकी क़ीमत 1.88 लाख रुपये होती जबकि Nifty में 1.65 लाख रुपये। दस साल पहले सोने में यही निवेश 3.30 लाख रुपये होता जबकि शेयर बाज़ार में 2.91 लाख रुपये। फिर दुनिया शेयर बाज़ार के पीछे क्यों भागती है? जाने माने इन्वेस्टर वॉरेन बफे का कहना है सोने की कोई उपयोगिता नहीं है।
अभी पूरी दुनिया में 2.16 लाख मैट्रिक टन सोना है। अगर आप सारा सोना पिघला कर एक Cube की शक्ल दे देंगे तो इसकी एक दीवार 68 फ़ीट की होगी। गहने बनाने के अलावा इसका कोई उपयोग नहीं है। इसके उलट आपके पास ज़मीन है तो खेती कर सकते है। साल दर साल आमदनी हो सकती है। कंपनियों के शेयरों में पैसे लगाएँगे तो वो बिज़नेस करेगी। लंबे समय तक पैसे बना सकते है। बफ़ेट सोने को डेड इन्वेस्टमेंट कहते हैं।
तो फिर आप क्या करें? जानकार कहते हैं कि किसी एक टोकरी में सारे अंडे ना रख दें, इसी कारण पोर्टफ़ोलियो में दस प्रतिशत तक सोना रखने की सलाह दी जाती है। ज़्यादा भी हो सकता है अगर आप कम से कम रिस्क लेना चाहते हैं तो।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
रील्स की दुनिया को हल्के फुल्के मनोरंजन के तौर पर लिया जाना चाहिए। लिया जा भी रहा है। लेकिन इन दिनों साहित्य, कला और कविता से जुड़े कुछ ऐसे रील्स देखने को मिले जो चिंतित करते हैं।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
इन दिनों रील्स और उसके कटेंट की अच्छे और बुरे कारणों से खूब चर्चा होती रहती है। रील्स देखना भी लोकप्रिय होता जा रहा है। चकित करने वाली बात ये है कि रील्स के विषयों का फलक इतना व्यापक है कि वो किसी को भी घंटों तक रोके रख सकता है। अब तो स्थिति ये हो गई है कि रील्स में दिखाई गई बातों को सत्य माना जाने लगा है। रील्स की दुनिया में भविष्यवक्ताओं की बाढ़ आई हुई है।
कोई आपके नाम के आधार पर तो कोई आपके नाम में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या को जोड़कर आपका भविष्य बता रहा है। कई महिलाएं भी भविष्य के बारे में बात करती नजर आएंगी। वो भी बता रही हैं कि कैसे शुक्रवार को पति के साथ व्यवहार करने से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। कोई बताती हैं कि पत्नी को हर दिन पति के पांब दबाने चाहिए। क्योंकि लक्ष्मी जी भी विष्णु जी के पांव दबाती हैं। कोई महिला ये बताती है कि अमुक अंक लिखकर अपने घर की तिजोरी में रख दो या अमुक नंबर के नोट अगर आपने अपने घर में पैसे रखने के स्थान पर रख दिया तो पैसौं की कमी नहीं होगी।
इतना ही नहीं रील्स की दुनिया में बिजनेस करने के तौर तरीकों और और जमाधन को दुगुना और तिगुना करने के नुस्खे भी बताए जाने लगे हैं। ये सब इतने रोचक अंदाज में बताया जाता है कि देखनेवाला मोबाइल से चिपका रहता है। आमतौर पर यह देखा जाता है कि अगर रील्स देखना आरंभ कर दें तो घंटे दो घंटे तो ऐसे ही निकल जाते हैं। कहना न होगा कि रील्स की दुनिया एक ऐसी मनोरंजक दुनिया है जो लोगों को बेहतर भविष्य का सपना भी दिखाती है।
लोगों को पैसे कमाने से लेकर घर परिवार की सुख समृद्धि के नुस्खे बताती है। ये नुस्खे कितने सफल होते हैं ये पता नहीं क्योंकि इस तरह का कोई रील देखने में नहीं आता है कि फलां नुस्खे ये उनका लाभ हुआ या इस तरह की कोई केस स्टडी भी सामने नहीं आई है कि फलां नंबर के नोट तिजोरी में रखने से उसकी आमदनी निरंतर बढ़ती चली गई। पर हां इतना अवश्य है कि रील्स एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में ले जाता है जहां सबकुछ मोहक और मायावी लगता है।
रील्स की दुनिया को हल्के फुल्के मनोरंजन के तौर पर लिया जाना चाहिए। लिया जा भी रहा है। लेकिन इन दिनों साहित्य, कला और कविता से जुड़े कुछ ऐसे रील्स देखने को मिले जो चिंतित करते हैं। हाल के दिनों में कई ऐसे रील्स देखने को मिले जिनमें सेलिब्रेटी कविता पढ़ते नजर आ रहे हैं। वो कविता किसी और की पढ़ते हैं और रील्स के डिस्क्रप्शन में कवि का नाम लिख देते हैं। रील में कहीं कवि का नाम नहीं होता है।
सेलिब्रिटी की टीम उसको इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर पोस्ट कर देती है और अश्वत्थामा हतो नरो...वाली ईमानदारी के साथ वीडियो के डिस्क्रिप्शन में कवि का नाम लिख देती है। होता ये है कि सेलिब्रटी की पढ़ी गई कविताओं का वीडियो इन प्लेटफार्म्स से डाउनलोड करके उनके प्रशंसक उसको फिर से उन्हीं प्लेटफार्म्स पर साझा करना आरंभ कर देते हैं।
प्रशंसक अश्वत्थामा वाली ईमानदारी को समझ नहीं पाते और वो सेलिब्रिटी की कविता के नाम से ही उसको साझा करना आरंभ कर देते हैं। दिनकर जी जैसे श्रेष्ठ कवियों की कविताएं तो लोगों को पता है तो उसमें ये खेल नहीं हो पाता है लेकिन कई नवोदित कवि की कविताएँ सेलिब्रिटि के नाम से चलने लगती हैं। कवि को पता भी नहीं चलता और वो कविता सेलिब्रिटी के नाम हो जाती है। रील्स की दुनिया में इस बेईमानी से कई साहित्यिक प्रतिभा कुंद हो जा रही हैं। इसका निदान कहीं न कहीं बौदधिक जगत को ढूंढना ही चाहिए।
एक और नुकसान जो साहित्य का हो रहा है वो ये कि पौराणिक ग्रंथों से बगैर संदर्भ के किस्सों को उठाकर प्रमाणिक तरीके से पेश कर दिया जा रहा है। पिछले दिनों जब अल्लाबदिया का केस हुआ था तो उसके कुछ दिनों बाद एक रील मेरी नजर से गुजरा। एक बेहद लोकप्रिय व्यक्ति उसमें एक किस्सा सुना रहे थे। किस्से में वो बता रहे थे कि कालिदास अपना ग्रंथ कुमारसंभव पूरा क्यों नहीं कर पाए?
उनके हिसाब से कालिदास जब कुमारसंभव में पार्वती और शंकर जी की रतिक्रिया के बारे में लिखने जा रहे थे तब पार्वती जी को पता चल गया। उन्होंने सरस्वती जी तो बुलाया और कहा कि ये कौन सा कवि है और क्या लिखने जा रहा है। इसको रोकना होगा। फिर किस्सागोई के अंदाज में ये प्रसंग आगे बढ़ता है। वो बताते हैं कि सरस्वती जी ने क्रोधित होकर उनको श्राप दे दिया और वो बीमार हो गए। इस कारण से कुमारसंभव पूरा नहीं हो पाया। कालिदास बीमार अवश्य हुए थे। उनको पक्षाघात हो गया और वो भी सरस्वती के श्राप के कारण इसको कहां से उद्धृत किया गया था यह सामने आना चाहिए।
इस पूरे प्रसंग में शब्द कुछ अलग हो सकते हैं पर उनका भाव यही था। चिंता की बात ये है कि ये पूरा प्रसंग जैसे सुनाया गया वो विश्वसनीय सा लगता है। इसको सुनकर नई पीढ़ी के लोगों में से कई सच मान सकते हैं, विशेषकर वो जो उनके प्रशंसक हैं। इससे तो एक अलग तरह का इतिहास बनता है। बौद्धिक समाज को इस तरह के प्रसंगों पर विचार करते हुए इसपर विमर्श को बढ़ावा देना चाहिए। चिंता तब और अधिक होती है जब इस तरह के रील बनानेवाले लोग बेहद लोकप्रिय होते हैं।
रील्स की दुनिया के पहले फेसबुक ने साहित्य का बहुत नुकसान किया, विशेषकर कविता का। फेसबुक के लाइक्स और कमेंट ने कवियों औ रचनाकारों के दिमाग में ये बैठा दिया कि अब उनके आलोचकों की आवश्यकता ही नहीं है। वो सीधे पाठक तक पहुंच रहे हैं। ऐसे लोग ये मानते थे कि आलोचक पाठकों तक पहुंचने का एक जरिया है। जबकि आलोचकों की भूमिका उससे कहीं अलग होती है।
आलोचक रचना के अंदर प्रवेश करके उसकी गांठों को खोलकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। रचनाओं में अंतर्निहित भावों को आसान शब्दों में पाठकों को समझाने का प्रयत्न करता है। इससे रचनाकार और पाठक के बीच एक ऐसा संबंध बनता था जो फेसबुक के कमेंट से नहीं बन सकता है। फेसबुक पर जिस तरह के कमेंट आते हैं उनमें से अधिकतर तो प्रशंसा के ही होते हैं जो रचना का ना तो आकलन कर पातें हैं और ना ही रचना के भीतर प्रवेश करके उसकी परतों को पाठकों के लिए खोलते हैं।
कुल मिलाकार आज जो परिस्थितियां बन रही हैं उनमें प्रमाणिक स्त्रोंतो के आधार पर तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए साहित्यकारों को आगे आना होगा। प्रो जगदीश्वर चतुर्वेदी कई वर्षों से ये आह्वान कर रहे हैं कि साहित्यकारों को इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर लिखना चाहिए। उनके नहीं लिखने से अनर्गल लिखनेवालों का बोलबाला होता जा रहा है। तकनीक को साहित्यकारों को अपनाना चाहिए और उसके नए माध्यमों को पाठकों तक पहुंचने का औजार बनाना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघको हिन्दू राष्ट्रवादी, स्वयंसेवी संगठन के रूप में जाना जाता है। 27 सितंबर 1925 विजयादशमी के दिन डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने संगठन की स्थापना की थी।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हर कार्यक्रम का प्रारम्भ 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते' मंत्र से होता है, जिसका अर्थ है ,हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें, हमारे मन एक हों, जैसे प्राचीन देवता एक साथ रहते थे और एक साथ पूजा करते थे। प्रभु हमें ऐसी शक्ति दे, जिसे विश्व में कभी कोई चुनौती न दे सके, ऐसा शुद्ध चारित्र्य दे जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक हो जाए। ऐसा ज्ञान दे कि स्वयं के द्वारा स्वीकृत किया गया यह कंटकाकीर्ण मार्ग सुगम हो जाये।
इसी तरह संघ की मुख्य प्रार्थना इन पंक्तियों से प्रारम्भ होती है, नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोsहम्। महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते। हे, प्यार करने वाली मातृभूमि ! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि ! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूं। संघ की यह प्रार्थना अब इसके कामकाज का अनिवार्य अंग ही नहीं पहचान भी बन चुकी है। अब संघ की प्रतिनिधि सभा ने शताब्दी वर्ष में विस्तार और कार्यों, आनुषंगिक संगठनों की गतिविधियों के लिए बेंगलुरु में विचार विमर्श कर भावी दिशा तय की है। इस दृष्टि से देश में एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि संगठन के बढ़ने, धार्मिक विवादों और सत्ता से कभी मधुर कभी तीखे संबंधों पर सार्वजनिक चर्चा स्वाभाविक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू राष्ट्रवादी, स्वयंसेवी संगठन के रूप में जाना जाता है। 27 सितंबर 1925 विजयादशमी के दिन डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने संगठन की स्थापना की थी। इसमें कोई शक नहीं कि इसे विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन माना जा रहा है। संघ स्वयं एक करोड़ सदस्य बता रहा है। साथ ही संघ को देश की वर्तमान में सबसे बड़ी पार्टी भाजपा का पैतृक संगठन भी माना जाता है। मतलब वर्तमान दौर में भारतीय समाज ही नहीं विश्व समुदाय इन संगठनों के कामकाज और भविष्य के लिए ध्यान दे रहा है।
इसीलिए मैंने मन्त्र और प्रार्थना का उल्लेख किया। धर्म, मन्त्र और प्रार्थना केवल औपचारिकता समझने वाले लोग भी होते हैं, लेकिन ऐसे संगठन के घोषित सदस्यों से अपेक्षा यही होती है कि वे मूल भावना को अपने जीवन में सही ढंग से अपनाने का प्रयास करेंगे ताकि निर्धारित मानदंड और लक्ष्य पूरे हो सकें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार भारत की सत्ता में आने वाली भारतीय पार्टी के प्रभाव और सारी स्वायत्तता के बावजूद पार्टी के अधिकृत या अनधिकृत नेता के वक्तव्यों, टिप्पणियों का सम्पूर्ण समाज और व्यवस्था पर प्रभाव पढता है और इसके परिणाम गंभीर होते हैं।
जैसे जब संघ प्रमुख मोहन भागवत करीब दो वर्षों से सार्वजनिक रुप से कह रहे हैं कि 'हर जगह पर शिवलिंग या अन्य देवी देवता की मूर्तियां निकालकर दावे नहीं किए जाएं। हमारा लक्ष्य अयोध्या कशी मथुरा तक रहा है। लेकिन देखने में आया है कि कई जिम्मेदार पदों पर विराजमान नेता या हिन्दू धर्म के नाम पर स्वघोषित ठेकेदार गैर जिम्मेदाराना साम्प्रदायिक भड़काऊ बयान देते रहते हैं। इससे केंद्र या राज्यों की उनकी भाजपा सरकारों और शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की टीम और प्रशासन के लिए प्रशासनिक नैतिक संकट खड़े हो जाते हैं।
ताजा मामला एक फिल्म और औरंगजेब के भयावह अत्याचारों के तथ्य से आगे बढाकर उसकी कब्र पर विवाद जारी है , जबकि संघ के अधिकृत प्रचार प्रमुख स्पष्ट कह चुके हैं कि 'औरंगजेब की चर्चा ही प्रासंगिक नहीं है। यह बात सही है, क्योंकि औरंगजेब या किसी मुग़ल या ब्रिटिश शासक की कब्र की जानकारी तक करोड़ों लोगों को नहीं है। फिर यदि प्राचीन अवशेषों के नाम पर अन्य स्थानों की तरह उन क्षेत्रों पर भारत सरकार के आर्कोलॉजिकल विभाग का ही निंत्रण है। कब्र खोदने लगेंगे तो देश के जाने कितने स्थानों पर खुदाई की अनावशयक बातें होने लगेगी।
ऐसी स्थिति में भारत को सबसे बेहतर लोकतान्त्रिक और विकसित होता देख पूंजी लगाने और सम्बन्ध बढ़ा रहे दुनिया के देशों पर क्या बुरा असर नहीं पड़ेगा? इसी तरह संघ और भाजपा के संबंधों पर बीस वर्ष पहले अधिक चर्चा नहीं होती थी। तब संघ बहुत हद तक शांत और अनुशासित ढंग से काम करता था। वर्ष में दो चार बार ही उसके बयान आते थे। फिर अटल आडवाणी राज में अयोध्या अथवा कुछ अन्य विषयों पर संघ के विश्व हिन्दू परिषद् के अथवा अन्य नेताओं से कतिपय मतभेदों की चर्चाएं सामने आई। जबकि वे दोनों नेता और अब प्रधानमंत्रीं नरेंद्र मोदी हमेशा संघ के संस्कारों और संबंधों को गौरव के साथ स्वीकारते हैं।
मोदी तो अंतर्राष्ट्रीय मंचों या इंटरव्यू में इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। सच तो यह है कि इस समय दोनों संगठनों में कोई छोटा बड़ा नहीं है और न ही वर्चस्व की लड़ाई है। निश्चित रुप से घर परिवार की तरह कुछ विषयों पर शीर्ष नेताओं की राय अलग अलग हो सकती है लेकिन इन संगठनों से जुड़े तीसरी चौथी पंक्ति का कोई व्यक्ति अथवा रास्ता बदल चूका कोई नेता सोशल मीडिया पर बयानबाजी करता है तो उससे भ्रम पैदा होते हैं। इस तरह की समस्या का समाधान आसान नहीं है। लेकिन नेतृत्व दूसरी पंक्ति के लोगों को नियंत्रित क्यों नहीं कर सकते हैं।
संघ और भाजपा हिन्दू धर्म और हर भारतीय को अपना मानती है। हाल के वर्षों में धर्म के प्रतिष्ठित शंकराचार्यों, महात्माओं को सत्ता से अधिकाधिक अधिकाधिक सम्मान मिलने लगा है। आश्रमों और मठों की सम्पन्नता और सुख सुविधाएं भी बढ़ती गई हैं। समाज में धार्मिक भावनाओं के बढ़ने से अयोध्या, काशी, प्रयाग, मथुरा , तिरुपति , पूरी , बदरीनाथ ,केदारनाथ , द्वारका , वैष्णों देवी जैसे धार्मिक स्थानों और कुम्भ में करोड़ों लोग जाने लगे हैं। तब जाने कितने स्व घोषित और सीमित ज्ञानी धर्म के नाम पर अनर्गल प्रचार और उत्तेजक भाषण देने लगे हैं। इसका नई पीढ़ी में ख़राब असर हो रहा है।
वे असली नकली की पहचान कैसे करें? कुछ राज्यों या संसद में किसी मठ, आश्रम या धार्मिक संगठन से आए कुछ लोग चुनाव जीते हैं और सत्ता में भी हैं। लेकिन उनके लिए धर्म के साथ संविधान और अपने संगठन की लक्ष्मण रेखाएं हैं। उन पर नियंत्रण संभव है। लेकिन देश के कई हिस्सों में भगवा या अन्य धर्म के प्रतीकात्मक वेश में जाने कितने नेता या ठेकेदार खड़े हो रहे हैं, जो अकारण विवाद और संकट पैदा कर रहे हैं। वे न केवल धन सम्पत्ति और साम्राज्य बना रहे , बल्कि भारत की छवि भी ख़राब कर रहे हैं। इसलिए अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा , सरकार और वास्तविक मान्यता प्राप्त धार्मिक नेताओं को सत्ता या प्रतिपक्ष अथवा धर्म के नाम पर गड़बड़ी करने वालों को नियंत्रित करने के प्रयास करने होंगे।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
सालार मसूद की कब्र भी बहराइच में ही है। हर साल लाखों लोग सालार मसूद की मजार पर आते हैं। योगी ने कहा कि महाराजा सुहेलदेव बहराइच की पहचान हैं।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि औरंगज़ेब और सालार मसूद गाज़ी जैसे आक्रमणकारियों की शान में कसीदे नया भारत बर्दाश्त नहीं करेगा। योगी ने बहराइच में कहा कि सनातन को खत्म करने की कोशिश करने वालों का, आस्था को रौंदने वालों का महिमामंडन करना देशद्रोह है। जिन आक्रांताओं ने भारत में जुल्म किए हों, उनका गुणगान नए भारत के लोगों को स्वीकार्य नहीं है।
यूपी में आजकल सालार मसूद गाजी की याद में लगने वाले नेजा मेले को लेकर विवाद चल रहा है। संभल में नेजा मेले की अनुमति नहीं दी गई, लेकिन सालार मसूद गाजी की याद में सबसे बड़ा मेला बहराइच में लगता है। इस मेले का भी विरोध हो रहा है। योगी ने कहा कि सन् 1034 में बहराइच में महाराजा सुहेलदेव ने चित्तौरा झील के किनारे सालार मसूद गाजी को युद्ध में मार गिराया था।
सालार मसूद की कब्र भी बहराइच में ही है। हर साल लाखों लोग सालार मसूद की मजार पर आते हैं। योगी ने कहा कि महाराजा सुहेलदेव बहराइच की पहचान हैं, ऋषि बालार्क के नाम पर बहराइच का नाम है, यहां किसी आक्रांता के लिए कोई जगह नहीं है, बहराइच में किसी की चर्चा होनी चाहिए तो वो महाराजा सुहेलदेव की होना चाहिए, जिन्होंने एक विदेशी आक्रांता को ऐसी धूल चटाई कि डेढ़ सौ साल तक किसी ने भारत की तरफ आंख उठाने की हिम्मत तक नहीं की।
विश्व हिन्दू परिषद ने जिला प्रशासन से बहराइच मेले को इजाज़त न देने की मांग की है। परिषद का कहना है लोगों को ये भ्रम है कि उनकी मन्नत, उनकी बीमारियां सालार मसूद गाज़ी के चमत्कार की वजह से ठीक होती हैं, लेकिन सच ये है कि जिस जगह ये दरगाह बनी है, वहां सूर्य मंदिर था, सूर्य कुंड था, जिसमें स्नान करने से बीमारियां ठीक होती थीं। 12वीं सदी में फिरोज़ शाह तुगलक ने मंदिर को तोड़ दिया था।
इसलिए बहराइच में फिर से सूर्य मंदिर स्थापित होना चाहिए। योगी आदित्यनाथ की बात सही है कि विदेशी आक्रमणकारियों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए। इस देश की विरासत सबकी है। इस देश की संस्कृति पूरे समाज की है। जिसने इस विरासत को मिटाने की कोशिश की, संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की, उसका महिमामंडन कैसे हो सकता है?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
बॉलीवुड की जानी-मानी अभिनेत्री रवीना टंडन ने हाल ही में e4m प्ले स्ट्रीमिंग मीडिया अवॉर्ड्स में जूरी सदस्य के तौर पर भूमिका निभाई।
बॉलीवुड की जानी-मानी अभिनेत्री रवीना टंडन ने हाल ही में e4m प्ले स्ट्रीमिंग मीडिया अवॉर्ड्स में जूरी सदस्य के तौर पर भूमिका निभाई। इस अवॉर्ड्स उद्देश्य भारत के तेजी से विकसित हो रहे स्ट्रीमिंग इकोसिस्टम में उत्कृष्टता का जश्न मनाना और उन प्लेटफॉर्म्स व क्रिएटर्स को पहचान दिलाना हैं, जो डिजिटल स्टोरीटेलिंग की सीमाओं को आगे बढ़ा रहे हैं। जूरी सदस्य के रूप में बातचीत के दौरान, रवीना टंडन ने मीडिया के निरंतर विकसित हो रहे परिदृश्य में निरंतर विकास, बदलाव और समावेशिता के महत्व पर जोर दिया।
रवीना टंडन ने कहा, "हमेशा आगे बढ़ने की गुंजाइश होती है, और किसी को भी सीखना बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि यही विकास का सार है।" उन्होंने कलाकारों और कंटेंट क्रिएटर्स को तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी के साथ तालमेल बिठाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा, "खुद को प्रेरित करें, खुद को हर चीज में चुनौती दें।"
कंटेंट निर्माण में हो रहे बदलावों को स्वीकार करते हुए, रवीना टंडन ने बताया कि कैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म महिलाओं के लिए नए अवसर खोल रहे हैं, चाहे वह कैमरे के सामने हों या उसके पीछे। उन्होंने कहा, "मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि महिलाओं के लिए बहुत अधिक समावेशिता देखी जा रही है, क्योंकि इनमें से कई प्लेटफॉर्म खुद महिलाओं द्वारा संचालित किए जा रहे हैं।" उन्होंने इस बदलाव को महिला अभिनेत्रियों और क्रिएटर्स के लिए अभूतपूर्व अवसरों के रूप में देखा।
अपने करियर से प्रेरणा लेते हुए, रवीना टंडन ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि उन्होंने बहुत पहले से महिला-केंद्रित दमदार भूमिकाएं निभाई हैं, जब समावेशिता पर अधिक चर्चा नहीं होती थी। उन्होंने "मात्र", "शूल", "सत्ता" और "दमन" जैसी फिल्मों का जिक्र किया, जिनमें उन्होंने ऐसी भूमिकाएं निभाईं जो बतौर अभिनेत्री उनके लिए चुनौतीपूर्ण थीं। उन्होंने कहा, "पहले भी हमारे पास ऐसी फिल्में थीं जिनमें महिलाएं केंद्र में थीं और मुझे ऐसे दमदार किरदार निभाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह दर्शाते हुए कि वह हमेशा ऐसे प्रोजेक्ट्स का हिस्सा रही हैं जो पारंपरिक सांचों को तोड़ते हैं।"
रवीना टंडन ने अपने सामाजिक कार्यों को लेकर भी चर्चा की और बताया कि वह कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) के व्यापक होने से पहले से ही समाजसेवा में सक्रिय थीं। उन्होंने कहा, "80, 90 और 2000 के दशक में CSR जैसी कोई अवधारणा नहीं थी, लेकिन अनजाने में मैंने वही किया जिसे अब आप CSR कहते हैं।" उन्होंने अपने शुरुआती प्रयासों को याद करते हुए बताया कि कैसे वह अनाथ बच्चों को मीडिया शूट और त्योहारों के समारोहों में शामिल करती थीं ताकि वे भी समाज का अहम हिस्सा महसूस कर सकें।
अब उनके समाजसेवी कार्य रुद्र फाउंडेशन के तहत संगठित रूप से संचालित होते हैं, जो बालिका शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और वृद्धजनों की देखभाल जैसे क्षेत्रों में काम करता है। उन्होंने बताया, "पहले मैं अपनी मां के नक्शे कदम पर चलती थी, जिन्होंने विभिन्न चैरिटी संगठनों के लिए व्यापक रूप से काम किया। अब यह सब अधिक संगठित रूप से एक ही छतरी के नीचे हो गया है।" उन्होंने अपने सामाजिक कार्यों को संरचित और स्थायी रूप से आगे बढ़ाने की अपनी प्रतिबद्धता को उजागर किया।
E4M प्ले स्ट्रीमिंग मीडिया अवॉर्ड्स की जूरी के रूप में, टंडन ने स्ट्रीमिंग स्पेस में होने वाले नए बदलावों को देखने को लेकर उत्साह व्यक्त किया। उन्होंने कहा, "हमेशा अपने सहयोगियों—चाहे वे सीनियर हों या समकक्ष—के साथ रहना और देखना कि यह इंडस्ट्री कैसे विकसित हो रही है, बेहद रोमांचक होता है।"
बदलाव, समावेशिता और रचनात्मकता के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता के साथ, रवीना टंडन भारतीय मनोरंजन जगत में एक प्रेरणादायक शक्ति बनी हुई हैं—जो पर्दे पर और पर्दे के पीछे, दोनों जगह सीमाओं को लगातार आगे बढ़ा रही हैं।
जंतर मंतर पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रदर्शन में सब ने एक सुर में कहा कि जो पार्टियां वक्फ बिल का समर्थन कर रही हैं, वे मुस्लिम विरोधी हैं, बीजेपी के साथ हैं।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने वक्फ संशोधन बिल के खिलाफ आर-पार की जंग का ऐलान कर दिया। ज्यादातर विरोधी दलों जैसे कांग्रेस, सपा, तृणमूल कांग्रेस, मुस्लिम लीग, एनसीपी, AIMIM, Left Front ने बोर्ड का साथ दिया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि सरकार इस बिल के जरिए मुसलमानों की जायदाद छीनना चाहती है, मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना चाहती है और वो इस साजिश को कामयाब नहीं होने देंगे।
जंतर मंतर पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रदर्शन में सब ने एक सुर में कहा कि जो पार्टियां वक्फ बिल का समर्थन कर रही हैं, वे मुस्लिम विरोधी हैं, बीजेपी के साथ हैं, इसलिए मुसलमानों को ऐसी पार्टियों का बॉयकॉट करना चाहिए। असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू को वो सेक्युलर मानते हैं, लेकिन उन्हें इस बात पर हैरानी है कि ये नेता भी नरेन्द्र मोदी के मुस्लिम विरोधी एजेंडे का समर्थन कर रहे हैं।
कांग्रेस की तरफ से सलमान खुर्शीद, गौरव गोगोई और इमरान मसूद इस धरने में पहुंचे। सलमान खुर्शीद ने कहा कि वक्फ प्रॉपर्टी के प्रबंध में अगर कमियां हैं तो वक्फ बोर्ड इन खामियों को खुद दूर करेगा। गौरव गोगोई ने कहा कि वह जेपीसी में थे लेकिन विपक्ष की बात नहीं सुनी गई, इसलिए आंदोलन का रास्ता बचा है। इस बीच केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि जो लोग सरकार पर इल्जाम लगा रहे हैं, असल में उन्होंने बिल पढ़ा ही नहीं हैं, ये लोग मुसलमानों को गुमराह कर रहे हैं।
विपक्षी नेताओं और मौलानाओं की बातों से ये तो स्पष्ट है कि सबके अपने अपने हित हैं। वक्फ बिल से किसी को मतलब नहीं हैं। किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि वक्फ बिल में है क्या, इसके प्रावधान क्या है, ये बिल किसी ने पढ़ा नहीं है क्योंकि ये अभी सामने आया ही नहीं है। ये तो सबको पता है कि देशभर में नौ लाख से ज्यादा प्रॉपर्टी वक्फ बोर्ड के पास हैं। रेलवे और रक्षा मंत्रालय के बाद सबसे ज्यादा जमीन वक्फ बोर्ड के पास हैं।
आपको जानकर हैरानी होगी कि देशभर में वक्फ बोर्ड की सवा लाख करोड़ रूपए की प्रॉपर्टीज हैं और सवा लाख करोड़ की प्रॉपर्टी से साल भर में सवा करोड़ रूपए की आमदनी हुई जबकि इतनी प्रॉपर्टी से कम से कम साढ़े बारह हजार करोड़ रूपए की इनकम होनी चाहिए। अब मुस्लिम भाईयों-बहनों को सोचना है कि ये साढ़े बारह हजार करोड़ रूपए किसकी जेब में जा रहे हैं? नुकसान किसका हो रहा है?
अगर वक्फ की संपत्ति से आय होगी तो वो पैसा मुसलमानों के विकास के कामों में ही लगेगा। अब सवाल ये है कि फिर इतनी हायतौबा क्यों मची है? हकीकत ये है कि अभी तक वक्फ प्रॉपर्टीज का रेगुलेशन वक्फ बोर्ड के हाथ में है, वक्फ बोर्ड्स पर गिने चुने लोगों का कब्जा है, उनकी मनमानी चलती है। अगर वक्फ कानून में संशोधन हो गया तो इन लोगों की दुकानदारी खत्म हो जाएगी।
इसीलिए इतना शोर मचाया जा रहा है। जहां तक राजनीतिक दलों के नेताओं का सवाल है, तो इनमें विरोधी दलों का वोट बैंक है, इसलिए वो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ खड़े हैं। लेकिन सरकार के पास बहुमत है। बहुत से मुस्लिम संगठन, उलेमा और मौलाना वक्फ बिल के पक्ष में है। इसलिए सरकार इस बिल को संसद में लाएगी और पास करवाएगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
टाइम्स नाउ और टाइम्स नाउ नवभारत की ग्रुप एडिटर-इन-चीफ नाविका कुमार ने e4m Women In Media, Digital & Creative Economy के पहले संस्करण में अपना मुख्य भाषण दिया।
टाइम्स नाउ और टाइम्स नाउ नवभारत की ग्रुप एडिटर-इन-चीफ नाविका कुमार ने e4m Women In Media, Digital & Creative Economy के पहले संस्करण में "Women in Prime Time: The Weight of Influence & Responsibility" विषय पर अपना मुख्य भाषण दिया। इस दौरान उन्होंने मीडिया में महिलाओं की भागीदारी, उनके सामने आने वाली चुनौतियों और उनके सशक्तिकरण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि महिलाओं के योगदान को न केवल पहचाना जाना चाहिए, बल्कि उन्हें लीडरशिप की भूमिका में आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी मीडिया इंडस्ट्री की है।
नाविका ने कहा, "आज यहां खड़े होकर मैं सिर्फ एक एंकर, न्यूज पर्सन या एडिटर के रूप में नहीं, बल्कि महिलाओं का जश्न मनाने के लिए खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं। हमें यह समझना होगा कि हम कर सकते हैं, हम कर रहे हैं और हम जीतेंगे। लेकिन मेरी एकमात्र चिंता यह है कि यह प्रक्रिया बहुत धीमी है और हमें इसे तेज करने की आवश्यकता है।"
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि महिलाओं के लिए सफलता का कोई तय फॉर्मूला नहीं होता। शादीशुदा महिलाएं, माताएं और बेटियां भी उतनी ही कुशल प्रोफेशनल हो सकती हैं, जितनी कि अविवाहित महिलाएं। उन्होंने कहा, "महिलाएं मल्टीटास्किंग में माहिर होती हैं, वे एक ही समय में दस काम कर सकती हैं और उनकी सांसों की रफ्तार भी नहीं बदलती। यह कुदरत का दिया हुआ हुनर है, जिसे हमें और निखारना चाहिए।"
मीडिया इंडस्ट्री में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करते हुए उन्होंने एक सर्वेक्षण का हवाला दिया, जिसमें बताया गया कि 55 न्यूज ऑर्गनाइजेशंस में पत्रिकाओं में केवल 13% महिलाएं निर्णय लेने की भूमिका में हैं। टीवी चैनलों में यह संख्या 20% है और अखबारों में 26%। उन्होंने सवाल उठाया कि जब महिलाएं समाज का 50% हिस्सा हैं, तो मीडिया में उनका नेतृत्व केवल 13-26% तक ही सीमित क्यों है?
उन्होंने इस असमानता को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि मीडिया में नेतृत्व कर रही महिलाओं को अपनी साथी महिलाओं का मार्गदर्शन करना चाहिए और उन्हें आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए। नाविका ने यह भी कहा कि क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी मीडिया में नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं की संख्या अंग्रेजी मीडिया की तुलना में कम है, जिसे बदलने की जरूरत है।
उन्होंने मीडिया इंडस्ट्री में प्रतिस्पर्धा को लेकर भी अहम टिप्पणी की। उन्होंने कहा, "प्रतिस्पर्धा बाहर से होनी चाहिए, अपने न्यूजरूम के अंदर नहीं। न्यूजरूम में हमें एक-दूसरे की ताकत बनना चाहिए। मीडिया में राजनीति इस हद तक बढ़ गई है कि इसने राजनीति को भी शर्मिंदा कर दिया है। हमें इसे बदलना होगा।"
महिला पत्रकारों के सामने आने वाली चुनौतियों का जिक्र करते हुए नाविका ने बताया कि पुरुष पत्रकारों को अपने सूत्रों के साथ संबंध बनाने के अधिक अवसर मिलते हैं, जैसे कि अनौपचारिक मुलाकातें या साथ बैठकर ड्रिंक करना। लेकिन महिलाओं के लिए यह इतना आसान नहीं होता, जिससे उनकी नेटवर्किंग सीमित हो जाती है। उन्होंने कहा, "हमने अपने करियर के शुरुआती दिनों में ऑफिस में ही लोगों से मुलाकात की, बाहर जाकर नेटवर्किंग करना हमारे लिए संभव नहीं था। लेकिन क्या इससे हमारे करियर पर असर पड़ा? हां, पड़ा।"
अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि महिला पत्रकारों को अपने स्रोतों तक पहुंच बनाने के लिए अलग रास्ते अपनाने पड़ते हैं। उन्होंने कहा, "हमें सिर्फ अपने काम और रिपोर्टिंग के दम पर पहचान बनानी होगी। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत सपोर्ट सिस्टम बनाया जाए।"
नाविका कुमार ने अपने भाषण के अंत में कहा कि यह जरूरी है कि महिलाएं एक-दूसरे का साथ दें और एक-दूसरे को आगे बढ़ाएं। उन्होंने कहा, "हमें सिर्फ महिलाओं के संघर्ष की कहानियां नहीं दिखानी चाहिए, बल्कि उनकी उपलब्धियों को भी सामने लाना चाहिए। हमें अपनी सोच बदलनी होगी और यह समझना होगा कि महिलाओं की शक्ति केवल सामाजिक बदलाव लाने में ही नहीं, बल्कि आर्थिक क्रांति लाने में भी है।"
उन्होंने अपने संबोधन का समापन इस प्रेरणादायक संदेश के साथ किया कि महिलाओं को केवल सहयोग की जरूरत नहीं है, बल्कि नेतृत्व की जिम्मेदारी भी संभालनी होगी। उन्होंने कहा, "हम केवल बदलाव की प्रतीक्षा नहीं कर सकते, हमें खुद बदलाव बनना होगा।"
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लोकसभा सांसद बांसुरी ने पत्रकारिता में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वैश्विक स्तर पर न्यूजरूम में महिलाओं की हिस्सेदारी 20% से भी कम है।
सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता और लोकसभा सांसद बांसुरी स्वराज ने 'e4m Women in Media, Digital and Creative Economy' के उद्घाटन संस्करण में “जेंडर, कानून और न्यूजरूम: समावेशी मीडिया परिदृश्य का निर्माण” (Gender, Law & Newsrooms: Building an Inclusive Media Landscape) विषय पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने पत्रकारिता में लैंगिक पूर्वाग्रह और महिलाओं को मीडिया और अन्य क्षेत्रों में सशक्त बनाने के लिए आवश्यक कानूनी ढांचे पर चर्चा की।
अपने भाषण की शुरुआत स्वाभाविक चतुराई के साथ करते हुए, स्वराज ने खुद की तुलना एक "ओपनिंग बैट्समैन" से की, जो मीडिया में लैंगिक प्रतिनिधित्व, कानून में निहित अचेतन पूर्वाग्रह और विभिन्न उद्योगों में कार्यस्थलों की संरचनात्मक चुनौतियों पर एक व्यापक चर्चा की नींव रख रही थीं।
स्वराज ने पत्रकारिता में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वैश्विक स्तर पर न्यूजरूम में महिलाओं की हिस्सेदारी 20% से भी कम है। उन्होंने बताया कि प्रगति के बावजूद, खोजी पत्रकारिता और राजनीतिक रिपोर्टिंग अब भी पुरुष-प्रधान क्षेत्र बने हुए हैं, जबकि महिलाओं को अक्सर "सॉफ्ट" बीट्स जैसे लाइफस्टाइल और मानव-रुचि की खबरों की जिम्मेदारी दी जाती है।
उन्होंने इस पूर्वाग्रह को उजागर करने के लिए एक दिलचस्प उदाहरण दिया कि किस प्रकार महिला पत्रकारों के करियर की दिशा उनके पुरुष सहयोगियों की तुलना में अलग निर्धारित की जाती है। जहां एक पुरुष पत्रकार को राजनीतिक घोटाले पर रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी जाती है, वहीं महिला पत्रकार को फीचर लेखन या मनोरंजन खबरों तक सीमित रखा जाता है।
हालांकि, उन्होंने उन महिला पत्रकारों की सराहना की जिन्होंने इन सीमाओं को तोड़ा और नेतृत्वकारी भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने दूरदर्शन की ग़जाला अमीन, ऊषा राय और शोभना भरतिया जैसी अग्रणी महिलाओं का उल्लेख किया, जिन्होंने साबित किया कि महिलाएं न्यूजरूम की संस्कृति को पुनर्परिभाषित कर सकती हैं और नेतृत्व कर सकती हैं।
अपने कानूनी अनुभवों से उदाहरण देते हुए, स्वराज ने अपने करियर की एक घटना साझा की। उन्होंने बताया कि एक मामले में सफलतापूर्वक बहस करने के बाद, एक कोर्ट अधिकारी जो पहले उन्हें "मैडम" कहकर संबोधित कर रहा था- अचानक उन्हें "सर" कहने लगा, मानो उनकी योग्यता ने उनके लिंग की सीमाओं को पार कर लिया हो।
उन्होंने कहा, "यह अचेतन पूर्वाग्रह सिर्फ कानून में नहीं है- यह न्यूजरूम, राजनीति और हर पेशे में मौजूद है। महिलाओं से अक्सर दोगुना परिश्रम करने की अपेक्षा की जाती है ताकि उन्हें गंभीरता से लिया जाए।"
स्वराज ने कहा कि लैंगिक पूर्वाग्रह केवल प्रत्यक्ष भेदभाव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भाषा, अपेक्षाओं और संस्थागत कार्यप्रणाली में गहराई से समाया हुआ है। उन्होंने मीडिया में भर्ती प्रक्रिया, कार्यस्थल पर टिके रहने की नीतियों और नेतृत्व की संरचना में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया ताकि अधिक महिलाएं निर्णय लेने की भूमिकाओं तक पहुंच सकें।
स्वराज ने अपने भाषण में कार्यस्थलों में महिलाओं के लिए उपलब्ध कानूनी सुरक्षा उपायों पर भी बात की। उन्होंने विशाखा दिशानिर्देश और 2013 के पॉश (POSH) एक्ट को याद किया और कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया।
हालांकि, उन्होंने यह भी इंगित किया कि कई मीडिया संगठनों में अब भी मजबूत आंतरिक शिकायत समितियों का अभाव है, जिससे महिलाओं के लिए उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराना मुश्किल हो जाता है। उन्होंने कहा, "एक न्यूजरूम जिसमें स्पष्ट शिकायत निवारण तंत्र नहीं है, वह अपनी फीमेल एम्प्लॉयीज को विफल कर रहा है।'' उन्होंने यौन उत्पीड़न विरोधी कानूनों के सख्त क्रियान्वयन की मांग की।
स्वराज ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को नीतियों के निर्माण के लिए आवश्यक बताया। उन्होंने नारी शक्ति वंदन अधिनियम (महिला आरक्षण विधेयक) के पारित होने की सराहना की, जो 2029 तक संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण को अनिवार्य करेगा।
उन्होंने कहा, "जब अधिक महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिकाओं में होंगी, तो मीडिया की धारणाएं बदलेंगी और नीतियां भी बदलेंगी जो हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं।"
स्वराज ने पत्रकारिता, कानून और राजनीति से जुड़ी महिलाओं से आग्रह किया कि वे चुप्पी की संस्कृति को तोड़ें। आपकी चुप्पी आपको बचाती नहीं है। यह सिर्फ किसी और को पीड़ित होने का एक और मौका देती है।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि लैंगिक समानता अब केवल सशक्तिकरण तक सीमित नहीं है—बल्कि यह नेतृत्व से जुड़ी हुई है। उन्होंने कहा, "भविष्य महिलाओं का है और भविष्य अभी है।" इसके अलावा उन्होंने पुरुषों व महिलाओं दोनों से आग्रह किया कि वे पूर्वाग्रहों को खत्म करने और एक अधिक समावेशी मीडिया परिदृश्य बनाने के लिए सक्रिय रूप से काम करें।
तमिलनाडु के आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर वहां के मुख्यमंत्री स्टालिन अकारण हिंदी विरोधी बयान दे रहे हैं। भारतीय भाषाओं के बीच दरार पैदा करने की कोशिश नई नहीं है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
अगले वर्ष तमिलनाडु में विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। चुनाव की आहट से ही वहां के मुख्यमंत्री और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के नेता एम के स्टालिन को हिंदी की याद आ आई। उनको लगने लगा केंद्र सरकार तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का षडयंत्र कर रही है। दरअसल तमिलनाडु में जब भी कोई चुनाव आता है तो वहां के स्थानीय दलों को भाषा की याद सताने लगती है। उनको लगता है कि तमिल को नीचा दिखाकर हिंदी को उच्च स्थान पर स्थापित करने का षडयंत्र किया जा रहा है।
स्टालिन को करीब पांच साल बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति की याद आई। शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले पर उनको आपत्ति है। उसके माध्यम से ही वो तमिल पर हिंदी के वर्चस्व की राजनीति को देखते हैं। यह एक राजनीतिक वातावरण बनाने की योजनाबद्ध चाल है जिसमें तथ्य का अभाव है। 105 पृष्ठों की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कहीं भी हिंदी शब्द तक का उल्लेख नहीं है। पहले भी इस स्तंभ में इस बात की चर्चा की जा चुकी है। संभवत: शिक्षा नीति बनाने वालों को भारतीय भाषाओं की भावनाओं का ख्याल रहा होगा।
संभव है कि वो तमिल राजनीति से आशंकित रहे होंगे। इस कारण उन्होंने पूरे दस्तावेज में कहीं भी हिंदी शब्द नहीं हे। पता नहीं क्यों स्टालिन को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के किस प्रविधान के अंतर्गत हिंदी थोपने का उपक्रम नजर आ गया है। स्टालिन तमिलनाडु की जनता की संवेदनाओं को भड़काने का खेल खेल रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिसने भी तमिलनाडु पर हिंदी थोपने की कोशिश की वो या तो हार गए या बाद में अपना रुख बदलकर डीएमके के साथ हो गए।
तमिलनाडु हिंदी उपनिवेशवाद को स्वीकार नहीं करेगा। कौन सा हिंदी उपनिवेशवाद और हिंदी थोपने की कौन सी कोशिश। स्टालिन इसको स्थापित नहीं कर पा रहे हैं तो हिंदी विरोध के नाम पर कभी तमिल अस्मिता की बात करने लग जाते हैं तो कभी कुछ अन्य। संभव है कि उनको तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में तात्कालिक लाभ मिले लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर उनकी स्थिति हास्यास्पद हो रही है।
विगत दस वर्षों में तमिल और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रोन्नयन के लिए केंद्र सरकार के स्तर पर कई तरह के कार्यक्रम चलाए गए हैं। आज से करीब तीन वर्ष पहले काशी तमिल संगमम नाम से एक कार्यक्रम काशी में आरंभ किया गया था। इसका शुभारंभ स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। ये कार्यक्रम तमिलनाडु और काशी के ऐतिहासिक संबंधों को फिर से याद करने और समृद्ध करने के लिए आयोजित किया गया था।
तमिल को लेकर महाराष्ट्र और कश्मीर में भी कार्यक्रम आयोजित किए गए। इससे पूर्व 2021 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमिल के महान कवि सुब्रह्ण्य भारती के सौवीं पुण्यतिथि पर काशी हिंदी विश्वविद्यालय के कला विभाग में महाकवि के नाम पर सुब्रह्ण्य भारती चेयर आन तमिल स्टडीज स्थापित करने की घोषणा की थी। ऐसे प्रकल्पों की लंबी सूची है।
सिर्फ तमिल ही क्यों, ओडिया, मराठी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय बढ़ाने को लेकर भी अनेक कार्य किए जा रहे है। इस पूरे प्रसंग को देखने के बाद हिंदी के अप्रतिम लेखक कुबेरनाथ राय का एक निबंध जम्बुक की कुछ पंक्तियों का स्मरण हो उठता है। कुबेरनाथ राय ने इस निबंघ में बंगला के श्रेष्ठ साहित्यकार ताराशंकर बनर्जी की एक पंक्ति उद्धत की है। उन्होंने लिखा है कि ताराशंकर बनर्जी ने बताया कि था कि बिना एक अखिल भारतीय जीवन-दृष्टि विकसित किए हम अपना अस्तित्व बचा नहीं पाएंगे।
यहां पर कुबेरनाथ जी आशंकित होते हुए लिखते हैं कि बनर्जी बात तो ठीक कर रहे हैं परंतु क्षेत्रीय जीवन दृष्टि के बढ़ते जोर के सामने कोई अखिल भारतीय जीवन दर्शन की रचना करने में समर्थ हो सकेगा इसमें संदेह है। क्रांतियुग में तिलक ने एक अखिल भारतीय जीवन दर्शन ‘कर्मयोग’ को सामने रखा था। इसके बाद महात्मा गांधी ने चरखा ( स्वावलंबन और सर्वोदय) हिंदी (राष्ट्रीय एकता) और अध्यात्म का त्रिकोणात्मक जीवन दर्शन सामने रखा।
परंतु राजपट्ट बांधकर उनके शिष्य ही उसे अस्वीकृत कर गए। इसके बाद लोहिया ने एक अखिल भारतीय जीवन दृष्टि विकसित करने की चेष्टा की। परंतु न तो उनके पास पर्याप्त साधन थे और न ही कोई सुयोग्य उत्तराधिकारी था जो उनके बोध को विकसित कर सके।
महात्मा गांधी हिंदी को राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक मानते थे। यह अकारण नहीं था कि उन्होंने स्वाधीनता के आंदोलन में बड़े अभियानों का नाम हिंदी में रखा था। सविनय अवज्ञा, अंग्रेजो भारत छोड़ो, नमक सत्याग्रह आदि। लेकिन स्वाधीनता के बाद जब भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन आरंभ हुआ तब क्षेत्रीय जीवन दृष्टि को ना सिर्फ मजबूती मिली बल्कि वो राजनीति के एक औजार की तरह भी विकसित होने लगा।
भाषा विवाद के बाद जिस तरह से केंद्र सरकार ने घुटने टेके थे उसपर कुबेरनाथ राय की टिप्पणी गौर करने लायक है। एक तरफ वो मुट्ठी भर तमिल उपद्रवियों को कोसते हैं तो दूसरी तरफ कहते हैं कि हिंदी प्रातों के कुछ राजनीति-व्यवसायी या कुछ किताबी बुद्धीजीवी जो मौज से हर एक बात पर वाम बनाम दक्षिण की शैली में सोचते हैं।...
1947 से पूर्व ऐसे ही आंख मूंदकर ऐसे प्रगतिशील पाकिस्तान का समर्थन करते थे (देखिए श्री राहुल की कहानी सुमेरपण्डित) और फिर वैसे ही आंख मूंदकर सोचते हैं कि इस देश में वर्ग युद्ध तो संभव नहीं अत: संप्रदाय युद्ध, जाति युद्ध, भाषा युद्ध कराओ जिससे बंसी लगाने का मौका मिल सके। कुबेरनाथ राय भाषा विवाद के समय देश के नेतृत्व पर बहुत कठोर टिप्पणी भी करते हैं और कहते हैं कि वर्तमान धृतराष्ट्र इस बार केवल अंधा ही नहीं बल्कि बहरा भी है। कुबेरनाथ राय जब ऐसा कह रहे होंगे तो उनके मष्तिष्क में नेहरू रहे होंगे। ऐसा इस लेख के अन्य हिस्सों को पढ़कर प्रतीत होता है।
दरअसल काफी लंबे समय से इस बात को कहा जाता रहा है कि हिंदी, हिंदू हिन्दुस्तान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर रहा है। 1965 में अंग्रेजी पत्रिका क्वेस्ट में अन्नदाशंकर राय की टिप्पणी है कि, भाषा संदर्भ में हिंदी का वही स्थान है जो राजनीतिक संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेक संघ या जनसंघ का है। अत: धर्मनिरपेक्ष शासनतंत्र में दोनों के लिए कोई खास जगह नहीं है।
उस टिप्पणी में अन्नदाशंकर राय के निष्कर्ष का आधार था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हिंदी का प्रयोग करता है इस कारण हिंदी का संबंध हिंदू धर्म से है। विद्वान लोग भी कैसे भ्रमित होते हैं ये उसका उदाहरण है। तभी तो कुबेरनाथ राय को उस लेख के प्रतिकार में लिखना पड़ा- मुखौटा उतार लो, राय महाशय ! आज अगर स्टालिन तमिल को हिंदी के सामने खड़ा करके अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते हैं तो करें पर ये न तो देश हित में है और ना ही स्टालिन को राजनीति में किसी प्रकार से दीर्घकालीन लाभ होगा।
संभव है कि वो हिंदी उपनिवेशवाद जैसे छद्म नारों के आधार पर कुछ सीटें जीत जाएं लेकिन ये तय है कि उनकी राजनीति एक न एक दिन हारेगी। जब तक उनको ये समझ आएगा तबतक बहुत देर हो चुकी होगी। वो तबतक तमिल का भी नुकसान कर चुके होंगे। ये समय भारतीय भाषाओं का स्वर्णकाल है, स्टालिन को समझना चाहिए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
ट्रंप ने टैरिफ लगाने का फैसला अचानक नहीं लिया है। पहली टर्म में भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था और दूसरे टर्म के प्रचार के दौरान बार बार कहा कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ लगा दूंगा।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति बनकर अभी 50 दिन ही हुए हैं, लेकिन इतने कम समय में उन्होंने चीजें उलट पुलट कर दी है। उनके फैसलों के केंद्र में है टैरिफ। यह एक ऐसा टैक्स है जो सरकार अपने देश में आने वाले सामान पर लगाती है। ट्रंप अमेरिका में सामान बेचने वाले हर देश पर टैरिफ लगाना चाहते हैं ताकि व्यापार घाटा कम किया जा सकें। टैरिफ टैरिफ उन्होंने इतना खेल लिया है कि अब अमेरिका में मंदी की आशंका जताई जा रही है। इसी कारण शेयर बाजार में भी गिरावट आयी है।
ट्रंप ने टैरिफ लगाने का फैसला अचानक नहीं लिया है। पहली टर्म में भी उन्होंने इसका इस्तेमाल किया था और दूसरे टर्म के प्रचार के दौरान बार बार कहा कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही टैरिफ लगा दूंगा। अब तक चीन, कनाडा और मैक्सिको पर टैक्स लगा चुके हैं। सभी देशों से आने वाले स्टील , एलुमिनियम पर टैरिफ लगा दिया है। अगले महीने से सभी देशों पर Reciprocal टैरिफ लगाने जा रहे हैं यानी जो देश अमेरिका के सामान पर जितना टैरिफ लगाता है अमेरिका भी उस पर उतना ही टैरिफ लगा देगा। भारत भी इसकी चपेट में आ सकता है।
टैरिफ लगाने के पीछे ट्रंप की तर्क है MAGA यानी Make America Great Again, वो चाहते हैं कि दूसरे देशों की कंपनियां अमेरिका में ही सामान बनाएं। इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। लोगों को रोजगार मिलेगा। टैरिफ लगाकर वो सरकार की आमदनी बढ़ाना चाहते हैं। इस बढ़ी हुई आमदनी से वो लोगों को इनकम टैक्स में छूट देना चाहते हैं। हालाँकि गणित इसके पक्ष में नहीं है। अमेरिका सरकार की $100 कमाई में से $1.20 ही टैरिफ से आते हैं। जानकारों को संदेह है कि टैरिफ बढ़ाने से इतनी कमाई हो जाएगी कि इनकम टैक्स में कटौती की जा सकें।
टैरिफ का खेल उल्टा पड़ने लग गया है। अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट आई है। S&P 500 में 4% और NASDAQ में 8% की गिरावट आ चुकी है। बाजार को चिंता है कि कहीं मंदी नहीं आ जाएं। HSBC, Citi, Goldman Sachs ने अमेरिका में मंदी की आशंका को बढ़ा दिया हैं। बाजार की चिंता महंगाई को लेकर भी है। टैरिफ लगाने से दाम बढ़ेंगे, महंगाई बढ़ेगी तो फेड रिजर्व ब्याज दरों में कटौती की रफ्तार धीमी कर सकता है। इसका असर आगे चलकर ग्रोथ पर पड़ सकता है। हालाँकि ताजा आँकड़ों में अमेरिका में महंगाई की दर कम हुई है।
ट्रंप को शेयर बाजार के ऊपर नीचे जाने की चिंता रहती है। उन्हें लोकप्रियता का प्रमाण लगता रहा है, लेकिन अब वो कह रहे हैं कि संक्रमण काल है। चीन एक सदी के बारे में सोचता है हम क्वार्टर (तिमाही) के बारे में। यही सपना बेचकर ट्रंप अपनी नीतियों को फिलहाल लागू कर रहे हैं, लेकिन यह उलटी पड़ी तो खामियाजा सबको झेलना पड़ेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )