पिछले एक महीने में पश्चिम बंगाल, असम और झारखंड में छह से ज्यादा ट्रेनों के पटरी से उतरने की घटनाएं हुईं। ये घटनाएं महज संयोग नहीं, बड़ी साजिश का प्रयोग हैं। आखिर इनके पीछे कौन है?
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
रविवार को कानपुर और अजमेर में रेलगाड़ियों को पटरी से उतारने की कोशिश की दो बड़ी घटनाएं सामने आई। कानपुर के पास एक बार फिर भीषण रेल हादसा होते होते बचा। प्रयागराज से भिवानी जा रही कालिंदी एक्सप्रेस पटरी पर एक भरे हुए गैस सिलेंडर से टकराई। लोको पायलट ने तुरंत ब्रेक लगाई। पटरी के पास सिलेंडर के अलावा, बारूद से भरा थैला, पेट्रोल की बोतल और माचिसें रखी पाई गई।
ड्राइवर की सावधानी ने बड़ा हादसा होने से बचा लिया। इसी तरह अजमेर के पास रविवार को रेल पटरी पर 70-70 किलो वजन के पत्थर रखे ऐन वक्त पर पाये गये और Western Dedicated Freight Corridor पर एक मालगाड़ी पटरी से उतरने से बच गई। ट्रेन को पटरी से उतारने की, रेल हादसा करवाने की जो कोशिशें हो रही है, उसे आप एक isolated घटना के रूप में देखेंगे तो ये आपको शरारत नज़र आएगी, किसी बदमाश की करतूत दिखाई देगी, लेकिन पिछले कुछ महीनों मे हुई सारी घटनाओं को अगर आप मिलाकर देखेंगे तो इसके पीछे की मंशा और नापाक इरादे नज़र आएंगे।
कानपुर के पास रेलवे ट्रैक पर सिलेंडर रखा गया, इससे पहले 17 अगस्त को कानपुर में ही रेलवे ट्रैक पर भारी बोल्डर रखकर साबरमती एक्सप्रेस को पटरी से उतारा गया था। 20 अगस्त को अलीगढ़ में रेलवे ट्रैक पर अलॉय व्हील्स रखे गए थे। 27 अगस्त को फर्रूखाबाद में रेल पटरी पर लकड़ी के बड़े-बड़े बोल्डर रखे गए थे। 23 अगस्त को राजस्थान के पाली में रेलवे ट्रैक पर सीमेंट के गार्डर रखकर वंदे भारत एक्सप्रेस को डिरेल करने की कोशिश हुई।
पिछले एक महीने में पश्चिम बंगाल, असम और झारखंड में छह से ज्यादा रेल पटरी से उतरने की घटनाएं हुई। ये सब घटनाएं न तो शरारत है, न सिर्फ संयोग है, ये साज़िश के तहत किए जा रहे प्रयोग हैं। हर जगह मॉडस ऑपरेंडी एक जैसी है।
इससे साफ पता चलता है कि ये बड़े रेल हादसे कराने को कोशिश है, रेलवे को बदनाम करने की साजिश है, क्योंकि रेलवे में अच्छा काम हुआ है, इससे सरकार की छवि बेहतर हुई है। रेलवे में हुआ बदलाव लोगों को नज़र आता है, इसीलिए बहुत सोच-समझकर रेलवे के खिलाफ साज़िश रची जा रही है और इसके पीछे कौन हैं, ये पता लगाना सुरक्षा एजेंसियों के लिए बड़ी चुनौती है। लेकिन इसके प्रति सबको सावधान रहने की ज़रूरत है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
यानी चाहे ऑपरेशन सिंदूर हो या मतदाता सूची के पुनरीक्षण का चुनाव आयोग का विशेष अभियान दोनों को बिहार की जनता की अदालत की कसौटी पर ही कसा जाएगा।
विनोद अग्निहोत्री, वरिष्ठ सलाहकार संपादक, अमर उजाला समूह।
ऑपरेशन सिंदूर की गर्मी अभी पूरी तरह ठंडी नहीं हुई है और बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण के लिए चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे विशेष अभियान (एसआईआर) से पैदा हुआ विवाद दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। बिहार में जैसे जैसे चुनाव का वक्त नजदीक आ रहा है, सड़क से लेकर मीडिया तक सियासी घमासान तेज हो गया है। मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के विशेष अभियान को लेकर विपक्ष सड़कों पर है और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की कवायद पर रोक लगाने की बजाय उसे सलाह दी है कि वह आधार कार्ड राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्रों को भी उन जरूरी दस्तावेजों में शामिल करने पर विचार करे जो मतदाता सूची में नाम आने के लिए जरूरी हैं। न्यायालय ने सुनवाई की अगली तारीख 28 जुलाई तय की है, जबकि चुनाव आयोग मतदाता फॉर्म जमा करने का काम 25 जुलाई तक पूरा कर लेगा। अदालत के रुख को दोनों ही पक्ष अपनी अपनी जीत बता रहे हैं।
लोकतंत्र में हर मुद्दे की कसौटी जनता का फैसला है और इसी साल अक्तूबर नवंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। यानी चाहे ऑपरेशन सिंदूर हो या मतदाता सूची के पुनरीक्षण का चुनाव आयोग का विशेष अभियान दोनों को बिहार की जनता की अदालत की कसौटी पर ही कसा जाएगा। बिहार चुनाव में क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों के अलावा जो ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे होंगे, उनमें ये तीनों मुद्दे सबसे प्रमुख होंगे।
पहलगाम की आतंकवादी हिंसा के बाद पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर किए गए भारतीय वायुसेना के हमलों और उसके बाद अचानक हुए संघर्ष विराम को देश के जनमानस ने किस रूप में लिया है बिहार चुनाव का नतीजा इसका संकेत होगा। क्योंकि पहलगाम में आतंकवादियों द्वारा की गई निर्दोष पर्यटकों की हत्या के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली जनसभा बिहार में ही की थी, जिसमें उन्होंने घोषणा की थी कि इस हमले के दोषी दुनिया के किसी भी कोने में छिपे हों उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा और ऐसी सजा दी जाएगी कि उनकी रूह कांपेगी।
ऑपरेशन सिंदूर की कामयाबी को भाजपा और एनडीए प्रधानमंत्री के इस संकल्प के पूरा होने का दावा कर सकते हैं और करेंगे भी। लेकिन विपक्ष यानी कांग्रेस राजद वामदलों का महागठबंधन सेना की शानदार कामयाबी के बाद अचानक युद्धविराम क्यों हुआ और क्या भारत ने ऐसा अमेरिका के दबाव में किया जैसा कि दावा राष्ट्रपति ट्रंप लगातार कर रहे हैं और इस लड़ाई में भारत का भी क्या नुकसान हुआ, इसे मुद्दा बना एक सत्ता पक्ष को घेरेंगे।
जहां भाजपा जद(यू) लोजपा और हम के गठबंधन वाला सत्ताधारी एनडीए विपक्ष के आरोपों को पाकिस्तान की भाषा कह कर कठघरे में खड़ा करेंगे, वहीं विपक्ष ट्रंप के बयानों, सिंगापुर में सीडीएस के बयान और इंडोनेशिया में भारतीय नौसेना के कैप्टन के बयान का हवाला देकर सरकार पर हमला करेगा। अब जनता दोनों पक्षों के आरोप प्रत्यारोपों को कैसे लेती है इसका संकेत चुनाव नतीजे देंगे।
दूसरा बड़ा मुद्दा बिहार में चुनाव आयोग के मतदाता सूची के पुनरीक्षण के लिए चलाए जा रहे विशेष अभियान एसआईआर है। ये ऐसा मुद्दा है जो अगर पूरी तरह अमल में आ गया तो भी चुनाव को प्रभावित करेगा और अगर अमल में नहीं आ सका तो भी इसका असर चुनाव पर पड़ेगा। अमल में आने पर जिनके नाम मतदाता सूची से बाहर होंगे, उन्हें लेकर विपक्ष चुनावी मुद्दा बनाएगा और अगर अमल में कोई कमी रह गई तो विपक्ष इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित करके उसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश करेगा।
वहीं सत्ता पक्ष इस अभियान को फर्जी मतदाताओं और घुसपैठियों के खिलाफ एक शुद्धीकरण अभियान बताकर इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करेगा। अभी जब यह अभियान 25 जुलाई तक पूरा होने जा रहा है और सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाने इनकार करते हुए मतदाताओं की पहचान के लिए मांगे जाने वाले 11 दस्तावेजों के साथ आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को भी शामिल करने की सलाह चुनाव आयोग को दी है।
अब ये चुनाव आयोग पर है कि वह इन्हें शामिल करता है या नहीं। अगर आयोग ने इन्हें शामिल कर लिया तो काफी हद तक विपक्ष का यह आरोप कि इस अभियान से करीब पौने दो करोड़ लोग मतदाता सूची से बाहर हो जाएंगे जो उनके मताधिकार की खुली अवहेलना होगी, भोथरा हो जाएगा बल्कि तब ज्यादा लोगों के मतदाता सूची से बाहर होने की आशंका भी खत्म हो जाएगी।
विपक्ष इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर सकता है। लेकिन अगर चुनाव आयोग ने इसे नहीं माना तो विपक्ष उसकी सत्तापक्ष से साठगांठ का आरोप लगाते हुए इसे सर्वोच्च न्यायालय के अपमान का भी मुद्दा बनाएगा। इसे भी बिहार की जनता किस रूप में लेगी इसका पता चुनाव नतीजों से ही लगेगा। क्या चुनाव आयोग का विशेष अभियान बिहार में मतदाताओं के कथित फर्जीवाड़े को रोककर पारदर्शी चुनाव कराएगा जिसका फायदा क्या सत्ता पक्ष को मिल सकता है या इसे लेकर होने वाली परेशानी बिहार में एक नया मुद्दा बनकर विपक्ष की राह आसान करेगी।
बिहार चुनाव का तीसरा बड़ा मुद्दा खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं।उनके स्वास्थ्य को लेकर चलने वाली चर्चाओं के साथ ही उनकी उम्र और लंबी पारी भी एक मुद्दा है। नीतीश कुमार करीब 20 साल से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं। बीच के एक छोटे काल खंड को छोड़कर भाजपा उनके साथ सत्ता में साझीदार रही है। नीतीश कुमार और भाजपा हर चुनाव में लालू राज के जंगल राज की याद दिलाकर बिहार की जनता का भयादोहन करती रही है, लेकिन इधर जिस तरह बिहार में अचानक अपराधों हत्या लूट आदि में तेजी आई है और उसे लेकर खुद भाजपा के नेता तक परेशान हैं।
केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान तो खुलकर कानून व्यवस्था पर चिंता जताने लगे हैं। जबकि उप मुख्यमंत्री विजय सिन्हा पुलिस तंत्र को इसके लिए जिम्मेदार बता रहे हैं और दूसरे उपमुख्यमंत्री नित्यानंद राय इसका दोष रेत माफिया और शराब माफिया पर मढ़ रहे हैं। उधर राजद ने कानून व्यवस्था को लेकर सीधे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को घेरा है।
कुल मिलाकर नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव में जाना भाजपा की मजबूरी भी है और समस्या भी। सरकार की हर नाकामी की जिम्मेदारी जद(यू) के साथ भाजपा की भी है और अगर राज्य की कानून व्यवस्था का यही हाल रहा तो हर बार की तरह एनडीए का जंगल राज वाला ब्रह्मास्त्र इस बार कमजोर हो सकता है।
दूसरा बड़ा सवाल है कि सीट बंटवारे में जद(यू) सौ से कम सीटें नहीं लड़ेगा और अगर उसके जीत का स्ट्राईक रेट पिछली बार से भी कम रह गया तो एनडीए को बहुमत का आंकड़ा पाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि भाजपा भी सौ से ज्यादा सीटें नहीं लड़ पाएगी। बाकी 43 सीटें चिराग पासवान जीतनराम मांझी उपेंद्र कुशवाहा के दलों के बीच बंटेगीं। ऐसे में अगर विधानसभा त्रिशंकु हो गई तो भले ही तोड़ फोड़ करके एनडीए सरकार बना ले, लेकिन यह उसकी नैतिक हार होगी।
सवाल यह भी है कि चुनाव के बाद सरकार बनने की स्थिति में क्या एनडीए फिर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाएगा या महाराष्ट्र की तरह चुनाव तो उनके नेतृत्व में लड़ेगा, लेकिन बाद में अपने किसी विधायक को मुख्यमंत्री भाजपा बनाएगी। ये सारे सवाल विपक्ष की तरफ से एनडीए पर दागे जाने शुरु हो गए हैं और इन्हें लेकर फिलहाल भाजपा जद(यू) बचाव की मुद्रा में हैं। हालांकि, अभी चुनाव में तीन से चार महीने का समय है और एनडीए को प्रधानमंत्री मोदी के करिश्मे से बड़ी उम्मीद है कि वह आखिर में बिहार का परिदृश्य बदल सकते हैं।
वहीं विपक्ष राजद कांग्रेस वाम गठबंधन में भी तेजस्वी की आक्रामकता राहुल गांधी का सामाजिक न्याय और वाम दलों की संगठन की ताकत की भी परीक्षा होगी, क्योंकि जहां राजद ने तेजस्वी को अपना चेहरा घोषित कर रखा है, वहीं कांग्रेस ये तो कह रही है कि गठबंधन के नेता तेजस्वी हैं, लेकिन सरकार बनने पर मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव बाद होगा।
उधर राहुल गांधी लगातार अपने संविधान बचाओ सम्मेलनों के जरिए सामाजिक न्याय के अपने नारे को बुलंद कर रहे हैं और कांग्रेस की कोशिश दलित और ईबीसी मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने की है। मुसलमानों का बहुमत को इंडिया गठबंधन के साथ है, इसका उन्हें पूरा भरोसा है। इसलिए बिहार चुनाव में मुद्दों के साथ ही नीतीश मोदी राहुल और तेजस्वी के तेज की भी परीक्षा होगी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - अमर उजाला डिजिटल।
हिंडनबर्ग आपको याद होगा। अदाणी ग्रुप पर रिपोर्ट निकालने से पहले उसने शेयरों में शॉर्ट पोज़ीशन ले रखी थी। यानी शेयरों के भाव गिरने से उसको फ़ायदा हुआ।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
अनिल अग्रवाल के वीडियो आपने देखे होंगे। वो बताते हैं कि कभी पटना में कबाड़ बेचने का काम करते थे। 19 साल की उम्र में पटना से मुंबई में सूटकेस लेकर पहुँचे थे। अब लंदन में रहते हैं। क़रीब 35 हज़ार करोड़ रुपये की संपत्ति है। वेदांता रिसोर्सेज़ लिमिटेड ( VRL) के चेयरमैन हैं। यह सपने जैसा सफ़र है। अब अमेरिकी रिसर्च कंपनी वायसराय ने VRL पर सवाल उठाए हैं। उसका आरोप है कि यह कंपनी भारतीय बाज़ार में लिस्ट वेदांता लिमिटेड (VEDL) की ‘पैरासाइट’ है। डिवीडेंड और ब्रांड फ़ीस लेकर काम चला रही है। ‘दिवालियेपन की स्थिति’ है। वेदांता ने ज़ाहिर तौर पर इसका खंडन किया है। हिसाब किताब में समझेंगे कि क्या है पूरा मामला?
हिंडनबर्ग आपको याद होगा। अदाणी ग्रुप पर रिपोर्ट निकालने से पहले उसने शेयरों में शॉर्ट पोज़ीशन ले रखी थी यानी शेयरों के भाव गिरने से उसको फ़ायदा हुआ। उसी तरह वायसराय ने VRL के क़र्ज़ यानी बॉन्ड पर शॉर्ट पोज़ीशन ले रखी है। उसको लगता है कि रिपोर्ट के बाद VRL की पोल खुलेगी। उसे क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपये का लोन चुकाने में दिक़्क़त आएगी। बॉन्ड के दाम गिरेंगे। वायसराय को फ़ायदा मिलेगा।
वायसराय का दावा है कि VRL का अपना कोई बिज़नेस नहीं है। वो वेदांता ग्रुप की कंपनियों से डिवीडेंड, ब्रांड फ़ी और क़र्ज़ लेकर क़र्ज़ चुकाता है। वेदांता ग्रुप में वेदांता लिमिटेड के अलावा हिंदुस्तान जिंक, BALCO, Cairns energy जैसी कंपनियाँ है। मुख्य रुप से यह ग्रुप मेटल का कारोबार करता है। कॉपर, एल्यूमिनियम, जिंक जैसे क्षेत्रों में। इसके अलावा ऑयल गैस का भी काम है। हिंदुस्तान जिंक और BALCO अनिल अग्रवाल ने भारत सरकार से ख़रीदी थी। इसमें अब भी सरकार के शेयर हैं बल्कि हिंदुस्तान जिंक ग्रुप की आँख का तारा है। लगभग आधी कमाई इस कंपनी से आती है।
वायसराय का आरोप है कि VEDL ने पिछले तीन सालों में डिवीडेंड के ज़रिए VRL को क़रीब 42 हज़ार करोड़ रुपये दिए। अगर डिवीडेंड प्रोफ़िट से दिया जाता को कोई दिक़्क़त नहीं थी। डिवीडेंड देने के लिए VEDL ने क़र्ज़ लिया। उसका क़र्ज़ पिछले तीन साल में 200% बढ़ गया है। इसी तरह VRL अपनी कंपनियों से ब्रांड फ़ी लेती है वेदांता ब्रांड इस्तेमाल करने के लिए। वायसराय का कहना है कि हिंदुस्तान जिंक जैसी कंपनी ब्रांड का इस्तेमाल नहीं करती है। फिर भी फ़ी देती है। उसका दावा है कि यह पैसा नहीं आने पर VRL का दिवाला निकल जाएगा। वह क़र्ज़ नहीं चुका पाएगी।
वायसराय की रिपोर्ट के बाद वेदांता ग्रुप के शेयरों में गिरावट आई थी, फिर रिकवरी हुई। इसी तरह VRL के बॉन्ड में भी गिरावट आयी थी अब रिकवरी हो गई है। ध्यान रहे कि VRL के बॉन्ड की क़ीमत गिरने में ही वायसराय का फ़ायदा है। रिपोर्ट आने के बाद वेदांत ग्रुप ने कहा कि कि यह रिपोर्ट ग़लत है। कुछ भी नयी बात नहीं है। सारी बातें पहले ही कंपनी शेयर बाज़ार को दे चुकी है। अब देखना है कि अनिल अग्रवाल इस चुनौती से कैसे निपटते हैं? विवाद उनके लिए नए नहीं है पर इस बार आरोप बड़ा है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
जब भी हिंदी फिल्मों के इतिहास पर बात होगी तो देविका रानी की बात होगी और फिल्मितान का जिक्र भी होगा। इसके बनने की कहानी एक महिला के स्वयं को साबित करने और उसके संघर्ष को दर्शाता है।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
हिंदी फिल्मों में जब स्टूडियो युग का आरंभ हुआ तो न्यू थिएटर्स और प्रभात स्टूडियो ने कई फिल्में बनाई। अनेक फिल्मी प्रतिभाओं को तराश कर दर्शकों के सामने पेश किया। यह कालखंड 1935 से 1955 तक का रहा। एक और स्टूडियो की स्थापना हुई थी जिसका नाम था बंबई टाकीज। हिमांशु राय और देविका रानी ने मिलकर इसे स्थापित किया था। विदेश से वापस भारत लौटे हिमांशु राय और देविका रानी ने बंबई टाकीज को प्रोफेशनल तरीके से स्थापित ही नहीं किया उसी ढंग से चलाया भी। स्टूडियो की स्थापना के लिए हिमांशु राय ने फरवरी 1934 में अपनी कंपनी के 100 रुपए के शेयर जारी किए थे।
25 हजार शेयर बेचकर जुटाई पूंजी से बंबई टाकीज की स्थापना की गई। कंपनी को चलाने के लिए एक बोर्ड का गठन हुआ। इस स्टूडियो से बनी पहली कुछ फिल्में असफल हुईं। बंबई टाकीज ने धीरे-धीरे भारतीय दर्शकों की पसंद के हिसाब से फिल्में बनानी आरंभ की और सफलता मिलने लगी। हिमांशु राय ने देशभर से कई युवाओं को फिल्म से जोड़ा। इन युवाओं ने कालांतर में हिंदी सिनेमा को अपनी प्रतिभा और मेहनत से समृद्ध किया। इनमें शशधर मुखर्जी, सेवक वाचा, आर के परीजा, अशोक कुमार आदि प्रमुख हैं। अशोक कुमार को तो हिमांशु राय ने लैब सहायक से सुपरस्टार बना दिया।
वो फिल्मों में अभिनेता का काम नहीं करना चाहते थे लेकिन राय के दबाव में अभिनेता बने। ये बेहद ही दिलचस्प किस्सा है जिसके बारे में फिर कभी चर्चा होगी।स्टूडियो की स्थापना के करीब 6 वर्ष बाद हिमांशु राय के असामयिक निधन ने बंबई टाकीज की नींव हिला दी थी। उसके बाद इस कंपनी के शेयरधारकों और हिमांशु राय के प्रिय कलाकारों में से कुछ ने मिलकर देविका रानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस मोर्चे का नेतृत्व शशधर मुखर्जी कर रहे थे। शशधर मुखर्जी हिमांशु राय के जीवनकाल में ही बंबई टाकीज में महत्वपूर्ण हो गए थे।
कुछ फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि देविका रानी के व्यवहार और उनके अपने पसंदीदा लोगों को बढ़ाने के निर्णयों से शशधर मुखर्जी आहत थे। हिमांशु राय के निधन के बाद बंबई टाकीज में जो घटा वो एक फिल्मी कहानी है। शशधर मुखर्जी चाहते थे कि बंबई टाकीज उनकी मर्जी से चले और देविका रानी उनके हिसाब से निर्णय लें। ये देविका रानी को स्वेकार्य नहीं था। वो अपनी मर्जी से निर्णय ले रही थीं। अमिय मुखर्जी उनको सहयोग कर रहे थे। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से संकेत मिलता है बंबई टाकिज में कुछ लोगों को देविका रानी के महिला होने के कारण उनको संस्था प्रमुख मानने और उनसे निर्देश लेने में दिक्कत होती थी।
चूंकि बंबई टाकीज में होनेवाले प्रमुख निर्णयों को कंपनी का बोर्ड तय करता था। इस कारण जब देविका रानी ने अपने निर्णयों को लागू करना आरंभ किया तो कारपोरेट दांव पेच भी चले गए। शेयरधारकों का बहुमत जुटाने के लिए भी देविका रानी ने भी प्रयास किया। इस काम में उनको सहयोग मिला केशवलाल का। देविका प्रतिदिन सुबह आठ बजे कार्यलय पहुंच जातीं और देर रात तक वहीं रहती। शशधर मुखर्जी समेत अन्य लोगों के निर्णयों की समीक्षा होने लगी थी। देविका रानी के दखल के बाद शशधर मुखर्जी आदि असहज होने लगे थे।
शशधर मुखर्जी प्रोडक्शन का पूरा काम संभालते थे लेकिन देविका रानी ने इस विभाग में भी दखल देना आरंभ कर दिया था। फिल्मों की स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रोडक्शन तक हर विभाग पर वो नजर ही नहीं रखती बल्कि अपने निर्णयों को लागू भी करवाने लगीं। उधर बंबई टाकीज के शेयरों को लेकर मामला कोर्ट कचहरी तक गया। बोर्ड में देविका रानी का बहुमत होने के कारण उनको अपने निर्णयों को लागू करवाने में परेशानी नहीं हुई। बंबई टाकीज के इतिहास में जून 1942 में हुई बोर्ड मीटिंग बहुत महत्वपूर्ण है।
इस दिन बोर्ड ने ये फैसला लिया कि बंबई टाकीज में देविका रानी प्रोडक्शन कंट्रोलर होंगी और शशधर मुखर्जी प्रोड्यूसर होंगे। देविका रानी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो बंबई टाकीज की हर फिल्म में उनका दखल होगा। इसके पहले ये व्यवस्था थी कि एक फिल्म शशधर मुखर्जी प्रोड्यूस करेंगे और उसके बाद देविका रानी फिर शशधर। बोर्ड के निर्णय के बाद देविका रानी बंबई टाकीज में उस पद पर पहुंच जगई जहां हिमांशु राय होते थे। इन दो वर्षों में बंबई टाकीज में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए थे।
एक गुट में देविका रानी और अमिय मुखर्जी थे और दूसरे में शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नी लाल, ज्ञान मुखर्जी आदि प्रमुख थे। बंबई टाकीज की इसी गुटबाजी और कारपोरेट वार ने फिल्मिस्तान की नींव डाली। शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नीलाल और ज्ञान मुखर्जी ने बंबई टाकीज से इस्तीफा दे दिया जिसे देविका रानी से फौरन स्वीकार कर लिया। फिल्मिस्तान की स्थापना बंबई (अब मुंबई) के गोरेगांव में स्थापित की गई। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज छोड़ा था तब उनका मासिक वेतन एक हजार रु था।
ये वो दौर था जब फिल्म अभिनेता और अन्य मासिक वेतन पर स्टूडियो में नौकरी करते थे। फिल्मिस्तान ने अशोक कुमार को रु 2000 प्रतिमाह देना तय किया था।फिल्मिस्तान आरंभ हुआ तो कंपनी ने देविका रानी को भी इसके उद्घाटन समारोह का आमंत्रण भेजा। देविका रानी इस समारोह में नहीं गई लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा उसमें खुद को मिसेज हिमांशु राय बताते हुए अपनी व्यस्तता का हवाला दिया था। फिल्मिस्तान ने जो पहली फिल्म बनाई उसका नाम था चल चल रे नौजवान।
उसके बाद भी फिल्मिस्तान ने कई फिल्में बनाई। थोड़े दिनों तक तो उत्साह रहा लेकिन फिर इसके संस्थापकों को एहसास होने लगा था कि फिल्म कंपनी चलाना आसान नहीं। इसके लिए काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। संसाधान जुटाना एक बड़ी समस्या थी। पांच वर्ष होते होते फिल्मिस्तान के संस्थापकों के बीच मतभेद उभरने लगे थे। उधर बंबई टाकीज भी देविका रानी के छोड़ने के बाद सही नहीं चल रहा था। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में निवेश किया और उसका आंशिक मालिकाना हक ले लिया। पांच वर्षों बाद जब अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में कदम रखा तो हिमांशु राय की अर्ध प्रतिमा (बस्ट) को देखकर भावुक हो गए थे और उसको गले लगा लिया था।
कहना न होगा कि फिल्मिस्तान की स्थापना फिल्म जगत के पहले कारपोर्ट वार के परिणामस्वरूप हुई थी। मुंबई के गोरेगांव में करीब 5 एकड़ में फैले इस स्टूडियो में कई अच्छी फिल्में भी बनीं जिनमें सरगम, मजदूर, शिकारी दो भाई आदि प्रमुख हैं। बाद में फिल्मिस्तान का मालिकाना हक बदला। फिल्में बनती रहीं। हाल के कुछ वर्षों में फिल्मिस्तान में गाने या टीवी सीरियल आदि शूट होने लगे थे। हाल में फिल्मिस्तान के मालिकों ने इसको बेच दिया। खबरों के मुताबिक इसकी जगह अब अपार्टमेंट बनाए जाएंगे। आरे के स्टूडियो के बाद फिल्मिस्तान का बिकना भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरूप का संकेत है। लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के इतिहास पर बात होगी तो देविका रानी की बात होगी और देविका रानी के साथ साथ फिल्मितान का जिक्र भी होगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
हम जैसे पत्रकार या कोई भी नागरिक अपराध बढ़ने की बात से चिंतित होते हैं, लिखते बोलते भी हैं, लेकिन यदि सही ढंग से सोचे विचारें तो सुधार की बात पर जोर देना चाहते हैं।
आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
आपने कभी यह गाना सुना होगा, 'दीवानों ऐसा काम न करो राम का नाम बदनाम न करो', इसलिए मुझे सत्ता के खिलाडियों से एक अनुरोध करने की इच्छा होती है 'सत्ता के दीवानों कृपया बिहार, मुंबई, दिल्ली सहित भारत को बदनाम न करो।' इन दिनों बिहार चुनाव से पहले 'लालू के जंगल राज' या 'नीतीश राज में अपराध बेकाबू' के आरोपों पर जमकर राजनीति हो रही है। मुंबई में राज उद्धव ठाकरे को मुंबई महानगरपालिका के 75 हजार करोड़ के बजट वाले खजाने पर चुनाव में जीत से कब्जे के लिए भाषा के नाम पर मारपीट की गूंज देश दुनिया तक पहुँच रही है।
दिल्ली चुनाव में चुनावी पराजय से घायल केजरीवाल राहुल गाँधी कभी पानी कभी अपराध पर हाय हाय कर रहे हैं। हम जैसे पत्रकार या कोई भी नागरिक अपराध बढ़ने की बात से चिंतित होते हैं, लिखते बोलते भी हैं, लेकिन यदि सही ढंग से सोचे विचारें तो सुधार की बात पर जोर देना चाहते हैं। यह बात इसलिए कहना पड़ी कि लंदन में भारत के लिए पूंजी निवेश के लिए एक बड़ी फाइनेंस कंपनी में बड़े पद पर कार्य कर रही रीतिका लंगर ने फोन पर हमसे पूछा कि 'क्या मुंबई दिल्ली पटना की तरह अन्य बड़े शहरों में भी भयानक अपराध और राजनीतिक अस्थिरता है?
कई इन्वेस्टर इस तरह की आशंका करने लगे हैं। मेरा उत्तर था , उनसे कहो अपने लन्दन और न्यूयार्क का क्राइम रिकॉर्ड देख लें। बहुत हद तक उनसे अधिक सुरक्षित भारत के अधिकांश इलाके हैं। इसी तरह किसी का पक्ष लिए बिना हम राहुल गाँधी, तेजस्वी यादव, अरविन्द केजरीवाल तथा उनके सलाहकारों को अपने नेता के पसंदीदा लंदन के बढ़ते अपराधों रिकॉर्ड को देखने का कष्ट करने के लिए कहेंगे, तो शायद उन्हें अपने आरोपों के बोर्ड हटाकर कुछ और मुद्दे ढूंढने पढ़ेंगे।
कृपया इस बात को मेरा पूर्वाग्रह मत मानिये। ब्रिटिश रिटेल कंसोर्टियम के अनुसार पिछले साल 2023 - 24 में दुकानों को लूटने की दो करोड़ घटनाएं हुई, जिससे करीब दो अरब पाउंड्स यानी 200 अरब रुपयों का सामान लूटा गया। प्रतिदिन लूटमार की करीब दो हजार घटनाएं हो रही है। क्या भारत के किसी प्रमुख शहर में रोज बाजार की दुकानों से चार पांच के गिरोह में आकर मनचाहा सामान लूटने की घटनाएं सामने आती है? क्या स्टोर के प्रबंधन से स्टाफ को उन्हें न रोकने के निर्देश हैं? जी नहीं।
राजनीतिक प्रशासनिक भ्रष्टाचार अलग बात है लेकिन लन्दन और ब्रिटेन के स्टोर्स के प्रबंधन के यही निर्देश हैं। वहां बड़े सूटकेस या ट्रॉली लेकर आने वाले गिरोह कई दुकानों को एक साथ लूटते हैं। एक दुकान को एक ही दिन में तीन बार लूटा गया। पुलिस की निष्क्रियता का फायदा लेते हुए ऐसे गिरोह इसे अधिकार / लाइसेंस समझते हैं , क्योंकि जब दस चोरी हुई, लेकिन रिपोर्ट दर्ज ही नहीं हुई। स्टोर स्टाफ के साथ 1,300 हिंसा की घटनाएँ हुई जो पिछले वर्ष से 50 प्रतिशत अधिक है।
यह अपराध अक्सर संगठित गिरोहों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से हो रहे हैं। 2023– 2024 में लंदन में 116 हत्याएँ दर्ज की गईं—जो 2022–23 में 112 से थोड़ी बढ़ोतरी थी। बिहार और भारत को कोसने वाले यह तथ्य भी देखें कि लंदन में करीब 55,860 चोरी के मामले दर्ज हुए और उनमें से केवल 3,462 मामलों में ही आरोप तय हुए।
लंदन में अपराध बढ़ने के कारण महंगाई और बेरोजगारी, युवाओं में गैंग गतिविधि और नशे ड्रग्स की लत बताए जाते हैं लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह है कि सारी समस्याओं के बावजूद राज्यों की सरकारें और गृह मंत्री अमित शाह कानून व्यवस्था को सुधरने, पुलिस बल की संख्या, साधन बजट बढाने के निर्णय बराबर कर रहे हैं लेकिन अपराधों में लगातार वृद्धि के बावजूद सम्पन्न विकसित देश ब्रिटेन की सरकार पुलिस की संख्या में कमी के बावजूद उसमें कटौती छंटनी और इस साल के बजट में कटौती तक कर रही। ग्रेटर लंदन की आबादी लगभग 90 लाख है।
लंदन यूरोप का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। ब्रिटेन की आबादी करीब 7 करोड़ है। मार्च 2025 तक लंदन की मेट्रो पुलिस में लगभग 33,201 नियमित और 1,127 विशेष पुलिस अधिकारी हैं। इस तरह प्रति 100,000 लंदनवासियों लगभग 310 पुलिस अधिकारी हैं। 2025–26 में मेट्रो पुलिस के पास लगभग £400–450 मिलियन की बजट कमी बताई जाती है, जिससे लगभग 2,300 अधिकारी और 400 स्टाफ की कटौती हो सकती है।
यह अधिकारियों को "सबसे कम स्टाफ स्तर" पर पहुँचा सकता है, जिससे सार्वजनिक सुरक्षा और गश्त प्रभावित हो सकते हैं। इधर पटना मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र की जनसंख्या लगभग 27 लाख है। बिहार की आबादी लगभग 13 करोड़ है। यह भारत का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य माना जाता है। बिहार में हत्याओं में से लगभग 72–73% घटनाएं व्यक्तिगत दुश्मनी, जमीन, अनैतिक रिश्तों के कारण होती हैं। बिहार पुलिस दावा करती है कि संज्ञेय अपराध दर भारत औसत से कम है यानी 277.1 प्रति लाख जबकि 422.2 राष्ट्रीय औसत है।
बिहार में हत्या की दर पिछले दो दशकों में लगभग आधी हुई है, और 2023 में 24 वर्षों में सबसे कम हुआ है। पिछले महीनों में 14,962 गिरफ्तारियां हुई हैं। पटना में हालिया गिराफ्तारी और गश्त से हत्या तथा अन्य अपराधों में कमी देखी गई है। पुलिस पर हमले और व्यापारी हत्याएं चिंताजनक बनी हैं, जिससे कानून व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं। पुलिस दावा करती है कि बिहार पूरे देश की तुलना में स्थिति बेहतर है, हालांकि विपक्ष गहरी असुरक्षा की बात कर रहा है।
इसलिए लंदन या फिर कभी अमेरिका के अपराधों, गोलीबारी की घटनाओं पर ध्यान दीजिये और निश्चित रुप से भारत में अपराधों को रोकने के लिए राजनीतिक प्रशासनिक सामाजिक आर्थिक प्रयास भी निरंतर किए जाएं। एक दल और प्रदेश की नहीं देश की प्रतिष्ठा की रक्षा की जाए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
इसमें कोई दो राय नहीं कि कोई भी व्यक्ति विचारधारा या राजनैतिक सोच से मुक्त नहीं हो सकता। हर व्यक्ति का अपना राजनीतिक चिंतन है, जिसके आधार पर वह दुनिया की बेहतरी के सपने देखता है।
प्रो. संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष।
भारतीय मीडिया अपने पारंपरिक अधिष्ठान में भले ही राष्ट्रभक्ति, जनसेवा और लोकमंगल के मूल्यों से अनुप्राणित होती रही हो, किंतु ताजा समय में उस पर सवालिया निशान बहुत हैं। ‘एजेंडा आधारित पत्रकारिता’ के चलते समूची मीडिया की नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है। सही मायने में पत्रकारिता में अब ‘गैरपत्रकारीय शक्तियां’ ज्यादा प्रभावी होती हुयी दिखती हैं। जो कहने को तो मीडिया में उपस्थित हैं, किंतु मीडिया की नैतिक शक्ति और उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करना उनका स्वभाव बन गया है। इस कठिन समय में टीवी मीडिया के शोर और कोलाहल ने जहां उसे ‘न्यूज चैनल’ के बजाए ‘व्यूज चैनल’ बना दिया है। वहीं सोशल मीडिया में आ रही अधकचरी और तथ्यहीन सूचनाओं की बाढ़ ने नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं।
जर्नलिस्ट या एक्टिविस्ट
पत्रकार और एक्टिविस्ट का बहुत दूर का फासला है। किंतु हम देख रहे हैं कि हमारे बीच पत्रकार अब सूचना देने वाले कम, एक्टिविस्ट की तरह ज्यादा व्यवहार कर रहे हैं। एक्टिविस्ट के मायने साफ हैं, वह किसी उद्देश्य या मिशन से अपने विचार के साथ आंदोलनकारी भूमिका में खड़ा होता है। किंतु एक पत्रकार के लिए यह आजादी नहीं है कि वह सूचना देने की शक्ति का अतिक्रमण करे और उसके पक्ष में वातावरण भी बनाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोई भी व्यक्ति विचारधारा या राजनैतिक सोच से मुक्त नहीं हो सकता।
हर व्यक्ति का अपना राजनीतिक चिंतन है, जिसके आधार पर वह दुनिया की बेहतरी के सपने देखता है। यहां हमारे समय के महान संपादक स्व. श्री प्रभाष जोशी हमें रास्ता दिखाते हैं। वे कहते थे “पत्रकार की पोलिटिकल लाइन तो हो, किंतु उसकी पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए।” यह एक ऐसा सूत्र वाक्य है, जिसे लेकर हम हमारी पत्रकारीय जिम्मेदारियों का पूरी निष्ठा से निर्वहन कर सकते हैं। मीडिया में प्रकट पक्षधरता का ऐसा चलन उसकी विश्वसनीयता और प्रामणिकता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
हमारे संपादकों, मीडिया समूहों के मालिकों और शेष पत्रकारों को इस पर विचार करना होगा कि वे मीडिया के पवित्र मंच का इस्तेमाल भावनाओं को भड़काने, राजनीतिक दुरभिसंधियों, एजेंडा सेटिंग अथवा ‘नैरेटिव’ बनाने के लिए न होने दें। हम विचार करें तो पाएंगें कि बहुत कम प्रतिशत पत्रकार इस रोग से ग्रस्त हैं। किंतु इतने लोग ही समूची मीडिया को पक्षधर मीडिया बनाने और लांछित करने के लिए काफी हैं। हम जानते हैं कि औसत पत्रकार अपनी सेवाओं को बहुत ईमानदारी से कर रहा है। पूरी नैतिकता के साथ, सत्य के साथ खड़े होकर अपनी खबरों से मीडिया को समृद्ध कर रहा है।
देश में आज लोकतंत्र की जीवंतता का सबसे बड़ा कारण मीडियाकर्मियों की सक्रियता ही है। मीडिया ने हर स्तर पर नागरिकों को जागरूक किया है तो राजनेता और नौकरशाहों को चौकन्ना भी किया है। इसी कारण समाज आज भी मीडिया की ओर बहुत उम्मीदों से देखता है। किंतु कुछ मुठ्ठी भर लोग जो मीडिया में किन्हीं अन्य कारणों से हैं और वे इस मंच का राजनीतिक कारणों और नरेटिव सेट के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें पहचानना जरुरी है। क्योंकि ये थोड़े से ही लोग लाखों-लाख ईमानदार पत्रकारों की तपस्या पर भारी पड़ रहे हैं। बेहतर हो कि एक्टिविस्ट का मन रखने वाले पत्रकार इस दुनिया को नमस्कार कह दें ताकि मीडिया का क्षेत्र पवित्र बना रहे।
हमें यह मानना होगा कि मीडिया का काम सत्यान्वेषण है, नरेटिव सेट करना, एजेंडा तय करना उसका काम नहीं है। पत्रकारिता को एक ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग अपना और मीडिया दोनों का भला नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उनकी पत्रकारिता स्वार्थों के लिए है, इसलिए वे तथ्यों की मनमानी व्याख्या कर समाज में तनाव और वैमनस्य फैलाते हैं।
तकनीक से पैदा हुए संकट
सूचना प्रौद्योगिकी ने पत्रकारिता के पूरे स्वरूप को बदल दिया है। अब सूचनाएं सिर्फ संवाददाताओं की चीज नहीं रहीं। विचार अब संपादकों के बंधक नहीं रहे। सूचनाएं अब उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों पर। सोशल मीडिया और वेब मीडिया ने हर व्यक्ति को पत्रकार तो नहीं पर संचारक या कम्युनिकेटर तो बना ही दिया है। वह फोटोग्राफर भी है। उसके पास विचारों, सूचनाओं और चित्रों की जैसी भी पूंजी है, वह उसे शेयर कर रहा है। इस होड़ में संपादन के मायने बेमानी हैं, तथ्यों की पड़ताल बेमतलब है, जिम्मेदारी का भाव तो कहीं है ही नहीं।
सूचना की इस लोकतांत्रिकता ने आम आदमी को आवाज दी है, शक्ति भी दी है। किंतु नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं। सूचना देना अब जिम्मेदारी और सावधानी का काम नहीं रहा। स्मार्ट होते मोबाइल ने सूचनाओं को लाइव देना संभव किया है। समाज के तमाम रूप इससे सामने आ रहे हैं। इसके अच्छे और बुरे दोनों तरह के प्रयोग सामने आने लगे हैं। सरकारें आज साइबर ला के बारे में काम रही हैं। साइबर के माध्यम से आर्थिक अपराध तो बढ़े ही हैं, सूचना और संवाद की दुनिया में भी कम अपराध नहीं हो रहे। संवाद और सूचना से लोंगो को भ्रमित करना, उन्हें भड़काना आसान हुआ है।
कंटेट को सृजित करनेवाले प्रशिक्षित लोग नहीं है, इसलिए दुर्घटना स्वाभाविक है। ऐसे में तथ्यहीन, अप्रामणिक, आधारहीन सामग्री की भरमार है, जिसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। यहां साधारण बात को बड़ा बनाने की छोड़ दें, बिना बात के भी बात बनाने की भी होड़ है। फेक न्यूज का पूरा उद्योग यहां पल रहा है। यह भी ठीक है कि परंपरागत मीडिया के दौर में भी फेक न्यूज होती थी, किंतु इसकी इतनी विपुलता कभी नहीं देखी गई। ‘वाट्सअप यूनिर्वसिटी’ जैसे शब्द बताते हैं कि सूचनाएं किस स्तर पर संदिग्ध हो गयी हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में सच कहीं सहमा सा खड़ा है। इसलिए सोशल मीडिया अपनी अपार लोकप्रियता के बाद भी भरोसा हासिल करने में विफल है।
सबसे ताकतवर हैं फेसबुक और यूट्यूब
आज बड़े से बड़े मीडिया हाउस से ताकतवर फेसबुक और यू-ट्यूब हैं, जो कोई कंटेट निर्माण नहीं करते। आपकी खबरों, आपके फोटो और आपकी सांस्कृतिक, कलात्मक अभिरुचियों को प्लेटफार्म प्रदान कर ये सर्वाधिक पैसे कमा रहे हैं। गूगल, फेसबुक, यू-ट्यूब, ट्विटर जैसे संगठन आज किसी भी मीडिया हाउस के लिए चुनौती की तरह हैं। बिना कोई कंटेट क्रियेट किए भी ये प्लेटफार्म आपकी सूचनाओं और आपके कंटेट के दम पर बाजार में छाए हुए हैं और बड़ी कमाई कर रहे हैं।
बड़े से बड़े मीडिया हाउस को इन प्लेटफार्म पर आकर अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए जतन करने पड़ रहे हैं। यह एक अद्भुत समय है। जब भरोसा, प्रामणिकता, विश्वसनीयता जैसे शब्द बेमानी लगने लगे हैं। माध्यम बड़ा हो गया है, विचार और सूचनाएं उसके सामने सहमी हुयी हैं। सूचनाओं को इतना बेबस कभी नहीं देखा गया, सूचना तो शक्ति थी। किंतु सूचना के साथ हो रहे प्रयोगों और मिलावट ने सूचनाओं की पवित्रता पर भी ग्रहण लगा दिए हैं। व्यक्ति की रूचि रही है कि वह सर्वश्रेष्ठ को ही प्राप्त करे। उसे सूचनाओं में मिलावट नहीं चाहिए। वह भ्रमित है कि कौन सा माध्यम उसे सही रूप में सूचनाओं को प्रदान करेगा। बिना मिलावट और बिना एजेंडा सेंटिग के।
विकल्पों पर भी हो बात
ऐसे कठिन समय में अपने माध्यमों को बेलगाम छोड़ देना ठीक नहीं है। नागरिक पत्रकारिता के उन्नयन के लिए हमें इसे शक्ति देने की जरुरत है। एजेंडा के आधार पर चलने वाली पत्रकारिता के बजाए सत्य पर आधारित पत्रकारिता समय की मांग है। पत्रकारिता का एक ऐसा माडल सामने आना चाहिए जहां सत्य अपने वास्तविक स्वरूप में स्थान पा सके। मूल्य आधारित पत्रकारिता या मूल्यानुगत पत्रकारिता ही किसी भी समाज का लक्ष्य है। पत्रकारिता का एक ऐसा माडल भी प्रतीक्षित है, जहां सूचनाओं के लिए समाज स्वयं खर्च वहन करे।
समाज पर आधारित होने से मीडिया ज्यादा स्वतंत्र और ज्यादा लोकतांत्रिक हो सकेगा। अफसोस है कि ऐसे अनेक माडल हमारे बीच आए किंतु वे जनता के साथ न होकर ‘एजेंडा पत्रकारिता’ में लग गए, इससे वो लोगों का भरोसा तो नहीं जीत सके। साथ ही वैकल्पिक माध्यमों से भी लोगों का भरोसा जाता रहा। इस भरोसे को जोड़ने की जिम्मेदारी भी मीडिया के प्रबंधकों और संपादकों की है। क्योंकि कोई भी मीडिया प्रामणिकता और विश्वसनीयता के आधार पर ही लोकप्रिय बनता है।
प्रामणिकता उसकी पहली शर्त है। आज संकट यह है कि अखबारों के स्तंभों में छपे हुए नामों और उनके लेखकों के चित्रों से ही पता चल जाता है कि इन साहब ने आज क्या लिखा होगा। बहसों (डिबेट) के बीच टीवी न्यूज चैनलों की आवाज को बंद कर दें और चेहरे देखकर आप बता सकते हैं कि यह व्यक्ति क्या बोल रहा होगा।
ऐसे समय में मीडिया को अपनी छवि पर विचार करने की जरुरत है। सब पर सवाल उठाने वाले माध्यम ही जब सवालों के घेरे में हों तो हमें सोचना होगा कि रास्ता सरल नहीं है। इन सवालों पर सोचना, इनके ठोस और वाजिब हल निकालना पत्रकारिता से प्यार करने वाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। हमारी, आपकी, सबकी।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
उनकी जन्मशती के अवसर पर हम न केवल एक महान फिल्मकार को याद कर रहे हैं, बल्कि उस विरासत को भी सलाम कर रहे हैं जिसने भारतीय सिनेमा की भाषा ही बदल दी।
ए.पी पारिगि, को-फाउंडर (Radio Mirchi & Times OOH)।।
गुरुदत्त की सिनेमाई प्रतिभा से मेरी पहली मुलाकात वर्ष 1964 में हुई, उसी साल जब वे हमें बहुत ही कम उम्र में अलविदा कह गए। उस वक्त मैं दिल्ली में दसवीं कक्षा का छात्र था, और शायद अनजान था कि एक दिन उनकी विरासत मुझे इतना गहराई से बांध लेगी।
लेकिन वह सम्मोहन जल्द ही सामने आया, जब मैंने उनकी दो कालजयी फिल्में 'साहिब बीबी और गुलाम' और 'प्यासा' देखीं। ये फिल्में मैंने सिर्फ एक बार नहीं, दो या तीन बार भी नहीं, कई बार देखीं और हर बार पहले से ज्यादा डूब गया। उनकी कहानियों में जो गहराई थी, जो संवेदनशीलता थी और जो समय से परे की प्रासंगिकता थी उसने मुझे पूरी तरह मंत्रमुग्ध कर दिया।
आज भी, गुरुदत्त की फिल्में दर्शकों के दिलों को वैसे ही छूती हैं, जैसे पहले छुआ करती थीं। यह उनके इनोवेशन, सामाजिक टिप्पणियों और मानव स्वभाव की गहरी समझ का प्रमाण है। उनकी जन्मशती के अवसर पर हम न केवल एक महान फिल्मकार को याद कर रहे हैं, बल्कि उस विरासत को भी सलाम कर रहे हैं जिसने भारतीय सिनेमा की भाषा ही बदल दी।
आज जब मैं 76 वर्ष का हूं और पीछे मुड़कर गुरुदत्त के सिनेमा को देखता हूं, तो हर बार कोई नई परत खुलती है। हर बार लगता है कि इस कहानी में अब भी कुछ है, जो मैं पहले नहीं देख पाया था। यह उनकी कहानी कहने की विलक्षण शैली और समय की कसौटी पर खरा उतरने वाली कला का जादू है।
हर बार जब मैं उनकी कोई फिल्म देखता हूं, तो लगता है जैसे मैं किसी नए संसार में दाखिल हो गया हूं। एक ऐसा संसार जहां मानव रिश्तों की बारीकियां, अंदरूनी द्वंद्व और संवेदनशील संघर्ष एक गहरे स्तर पर आत्मा को छू जाते हैं।
उनकी फिल्में गुजरे वक्त की झलक भर नहीं हैं, बल्कि वे हमें इंसानी अनुभव की सार्वभौमिकता का बोध कराती हैं। चाहे रिश्तों की बुनावट हो या चाहत और संघर्ष का तूफान, गुरुदत्त की फिल्में सिनेमा की कक्षाओं में पढ़ाए जाने लायक उदाहरण हैं।
उनके पात्र इतनी बारीकी से रचे गए हैं कि वे परदे से निकलकर जैसे हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। उनकी तकलीफ, उनकी उम्मीद, उनकी हार-जीत, हमें अंदर तक छू जाती है। आज जब हम उनके जन्म के 100 साल पूरे होने पर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं, तो ये महज जश्न नहीं, उनकी कला की ताकत को सिर झुकाकर सलाम करने का वक्त है। एक ऐसी कला, जो आज भी हमें सोचने, महसूस करने और जुड़ने के लिए मजबूर करती है।
बहुतों ने कहा है, ‘उन्होंने फिल्ममेकर्स को कैमरे से लिखना सिखाया।‘ उनकी लाइटिंग, फ्रेमिंग, कम्पोज़ीशन और बिना बोले कहानी कहने की कला आज भी दुनिया के फिल्मकारों को प्रेरित करती है। आज जब मैं उनकी फिल्मों को दोबारा देखता हूं, तो भीतर एक गहरा कृतज्ञता का भाव उमड़ता है। कृतज्ञता उस उपहार के लिए, जो उन्होंने हमें दिया। एक ऐसा उपहार जो हमें न सिर्फ मनोरंजन देता है, बल्कि जिंदगी की परतों को समझने की नई दृष्टि भी देता है
जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, गुरुदत्त नाम के इंसान को जानने की मेरी जिज्ञासा बढ़ती गई। उनकी कला तो सामने थी, लेकिन उसके पीछे वो इंसान कौन था? कौन थे वो जो इतनी मार्मिक कहानियां कह गए? कैसे उनके निजी अनुभवों ने उनकी फिल्मों को इतना भावनात्मक बना दिया?
गुरुदत्त का जीवन विरोधाभासों से भरा हुआ कैनवास था। एक ओर कल्पनाशीलता और चमकदार रचनात्मकता, तो दूसरी ओर अकेलापन और भीतर की पीड़ा। उनके व्यक्तिगत रिश्ते, संघर्ष, और अंदरूनी उलझनें। ये सब उनके सिनेमा में बार-बार झलकते हैं। शायद इसी वजह से उनकी फिल्में सिर्फ फिल्में नहीं रहीं, वे आत्मा की भाषा बन गईं।
गुरुदत्त की फिल्में नॉस्टैल्जिया नहीं, जीवित दस्तावेज हैं। वे हमें सिखाती हैं कि सिनेमा केवल एंटरटेनमेंट नहीं, बल्कि लोगों के अनुभव की अनकही भाषा भी हो सकती है। उनकी हर फिल्म, हर फ्रेम, हर दृश्य में ऐसा कुछ छुपा होता है, जो बार-बार देखने पर भी नया लगता है और शायद यही एक सच्चे कलाकार की सबसे बड़ी पहचान होती है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
इस पूरे मामले की गंभीरता को देखते हुए करुणानिधि-मारन परिवार के वरिष्ठ सदस्य और डीएमके अध्यक्ष व तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने हस्तक्षेप किया।
वी.सी. भारती, एक्सपर्ट, तमिल टेलीविजन इंडस्ट्री ।।
तमिलनाडु की सियासी और कारोबारी हलचल उस वक्त हिल गई जब देश की सबसे प्रभावशाली मीडिया कंपनियों में से एक सन टीवी नेटवर्क के उत्तराधिकारी- कलानिधि मारन और दयानिधि मारन के बीच पारिवारिक और कॉर्पोरेट स्तर पर तीखा विवाद सामने आया। इस टकराव का केंद्र है वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप, शेयरों के फर्जी आवंटन को लेकर कानूनी लड़ाई, और एक ऐसे मीडिया साम्राज्य पर नियंत्रण की जंग जिसकी अनुमानित कीमत जून 2025 तक ₹24,400 करोड़ से अधिक आंकी गई है।
इस पूरे मामले की गंभीरता को देखते हुए करुणानिधि-मारन परिवार के वरिष्ठ सदस्य और डीएमके अध्यक्ष व तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने हस्तक्षेप किया। उन्होंने न सिर्फ पार्टी की छवि को संभावित नुकसान से बचाने की कोशिश की बल्कि पारिवारिक साख को भी सुरक्षित रखने की पहल की।
दरअसल, मामला डीएमके के लिए पीआर डिजास्टर बन सकता था। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, स्टालिन, जो कि न सिर्फ सीएम हैं बल्कि इस पारिवारिक नाटक में खुद भी गहरे जुड़े हैं, ने दोनों भाइयों को एक समझौते की ओर लाने की भरपूर कोशिश की। बताया जाता है कि जून 2025 से पहले तीन महीनों में कम से कम दो बार स्टालिन ने इस सुलह की कोशिश की थी। और क्यों न करते? परिवार का झगड़ा अगर चुनाव से पहले मीडिया में सुर्खियों में आ जाता, तो पार्टी की साख पर बट्टा लगना तय था।
सूत्रों के अनुसार, स्टालिन की कोशिश थी कि दयानिधि को एक मोटी वित्तीय राशि देकर शांत किया जाए, जबकि कलानिधि को सन टीवी का संचालन जारी रखने दिया जाए। माना जाता है कि कलानिधि और उनकी बहन अंबुकरसी इस प्रस्ताव को लेकर कुछ हद तक तैयार थे, यहां तक कि अंबुकरसी को बतौर शांति प्रस्ताव ₹500 करोड़ तक की राशि भी मिली। लेकिन दयानिधि? उन्होंने इस डील को सीधे खारिज कर दिया और कानूनी रास्ता चुन लिया। एक वरिष्ठ डीएमके नेता के शब्दों में, यह "ज्यादा फायदा न देने वाला राजनीतिक जुआ" था क्योंकि पहले से ही पारिवारिक दौलत को लेकर जनता की नजर उन पर टिकी हुई थी।
दयानिधि की मांग थी कि सब कुछ 2003 से पहले की स्थिति में लौटाया जाए ताकि वह, अंबुकरसी और बाकी करुणानिधि परिवार मिलकर सन टीवी पर नियंत्रण हासिल कर सकें। लेकिन कलानिधि, जिन्होंने बीते तीन दशकों में इस मीडिया साम्राज्य को खड़ा किया है, अपने हाथ से इसकी चाबी इतनी आसानी से नहीं सौंपने वाले थे। यानी स्थिति जैसे थी, वैसे ही बनी रही: एक ठहराव।
हालांकि 6 जुलाई 2025 के बाद से मुख्यमंत्री स्टालिन की मध्यस्थता फिर से तेज़ हो गई। एक समय पर दयानिधि की मांग थी कि उन्हें 'दिनकरन' अखबार और सुमंगली पब्लिकेशंस का स्वामित्व दे दिया जाए, लेकिन कलानिधि ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
भले ही इस संभावित समझौते की शर्तें अब तक सार्वजनिक नहीं हुई हैं, लेकिन सूत्रों की मानें तो दयानिधि को नकद मुआवज़ा देने की बात सामने आई है। कानाफूसी ये भी है कि उन्हें और अंबुकरसी को लाभांश के ज़रिए या शेयर होल्डिंग स्ट्रक्चर को दोबारा गढ़कर एक मोटी रकम दी जा सकती है, बशर्ते दयानिधि कोर्ट केस वापस ले लें। इसके अलावा, उन्हें डीएमके के साथ जोड़े रखने की भी कोशिश की जा रही है, क्योंकि चेन्नई सेंट्रल से सांसद होना और स्टालिन के बेटे उदयनिधि के साथ सीधा संपर्क उनकी पार्टी में स्थिति को बनाए रखने का जरिया हैं।
फिलहाल जो संकेत हैं, वे यही बताते हैं कि दोनों पक्षों के बीच एक तरह का युद्धविराम है। सार्वजनिक तौर पर विवाद शांत है, लेकिन यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि यह लड़ाई अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है या नहीं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने बिहार में पांच सीटें जीती थीं इसलिए ओवैसी कम से कम दस सीटों की मांग करेंगे। सीमांचल की ज्यादातर सीटों पर दावा ठोकेंगे। ये मुस्लिम बहुल इलाका है।
रजत शर्मा, इंडिया टीवी के चेयरमैन एवं एडिटर-इन-चीफ।
AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने लालू यादव को चिट्ठी लिख कर महागठबंधन को बड़ी टेंशन में डाल दिया है। ओवैसी की तरफ से लिखी चिट्ठी में लालू यादव से कहा गया है कि AIMIM महागठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती हैं। इस चिट्ठी में कहा गया कि ओवैसी नहीं चाहते कि बिहार के चुनाव में मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो और बीजेपी को इसका फायदा हो, इसलिए AIMIM को महागठबंधन में शामिल किया जाए। ओवैसी का ये दांव RJD के गले की हड्डी बन गया है, न उगलते बन रहा है, न निगलते।
शुक्रवार को पटना में RJD की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई। लालू यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव समेत सभी बड़े नेता मौजूद थे , लेकिन ओवैसी के प्रस्ताव पर RJD के नेताओं ने चुप्पी साध ली। ओवैसी राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्होंने एक चिट्ठी लिखकर कई तीर एक साथ छोड़े हैं। चुनाव के दौरान विरोधी दलों के नेता उन्हें बीजेपी की बी टीम बताते थे लेकिन एक चिठ्ठी लिखकर खुद को एंटी मोदी मोर्चे की बी टीम साबित कर दिया।
ओवैसी जानते हैं कि अगर लालू उन्हें महागठबंधन में साथ लेने का फैसला करते हैं तो उतनी सीटें नहीं देंगे, जितनी वो मांगेंगे क्योंकि चिट्ठी लिखने से पहले ओवैसी कह चुके हैं कि गुलामी और हिस्सेदारी में फर्क होता है, हम दरी बिछाने का काम नहीं करेंगे, गठबंधन तभी होगा, जब सम्मानजनक हिस्सेदारी मिलेगी।
पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने बिहार में पांच सीटें जीती थीं इसलिए ओवैसी कम से कम दस सीटों की मांग करेंगे। सीमांचल की ज्यादातर सीटों पर दावा ठोकेंगे। ये मुस्लिम बहुल इलाका है। महागठबंधन की स्थिति यहां मजबूत है, इसलिए तेजस्वी ओवैसी को इतनी सीटें देने पर राजी होंगे इसकी उम्मीद कम हैं।
कुल मिलाकर ओवैसी ने तेजस्वी को फंसा दिया। तेजस्वी ओवैसी का प्रस्ताव स्वीकर करेंगे तो औवैसी का कद राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ेगा और तेजस्वी उनके प्रस्ताव को ठुकराएंगे तो चुनाव में नुकसान होगा। तेजस्वी के लिए इधर कुंआ, उधर खाई वाली स्थिति है। लेकिन ओवैसी के लिए दोनों ही परिस्थितियों में win-win situation है। इसीलिए लालू और तेजस्वी फिलहाल मौन हैं।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
SEBI ने Jane Street की चार कंपनियों को पकड़ा है। पिछले सवा दो साल की अवधि में 30 सबसे ज़्यादा मुनाफ़े वाले दिन के सौदों को समझा तो उसमें से 18 दिन Bank Nifty जबकि 3 दिन Nifty में खेल हुआ।
मिलिंद खांडेकर, वरिष्ठ पत्रकार।
शेयर बाज़ार की देखरेख करने वाली संस्था SEBI ( Securities and Exchange Board of India) ने विदेशी निवेशक Jane Street को कारोबार से रोक दिया है। उसके ₹4843 करोड़ ज़ब्त कर लिए हैं। SEBI का कहना है कि 1 जनवरी 2023 से 31 मार्च 2025 के बीच Jane Street ने ग़लत तरीक़े से 36 हज़ार करोड़ रुपये का लाभ कमाया। यह लाभ कहीं ना कहीं हम और आप जैसे छोटे निवेशकों की क़ीमत पर कमाया गया है।
Jane street दुनिया की बड़ी Quant Firms यानी Quantitative Trading करने वाली कंपनी है। Quantitative का मतलब है कि यह ट्रेडिंग कम्प्यूटर प्रोग्राम, गणित और Algorithm से होती है। यह ट्रेडिंग माइक्रो सेकंड में होती है जब तक इंसान सोचेगा तब तक सौदा हो चुका होगा। Jane street अपने पैसे से कारोबार करती है, निवेशकों के पैसे से नहीं। MIT, IIT के इंजीनियर, गणितज्ञ को मोटी सैलरी पर हायरिंग करती है। यही ट्रेडिंग के गणित पर काम करते हैं।
SEBI ने Jane Street की चार कंपनियों को पकड़ा है। पिछले सवा दो साल की अवधि में 30 सबसे ज़्यादा मुनाफ़े वाले दिन के सौदों को समझा तो उसमें से 18 दिन Bank Nifty जबकि 3 दिन Nifty में खेल हुआ। पिछले साल 17 जनवरी का उदाहरण देकर SEBI ने केस समझाया है। 17 जनवरी 2024 को BANK NIFTY क़रीब 2000 प्वाइंट नीचे खुला था। इस गिरते बाज़ार में Jane Street ने Cash और Futures Market में ₹4370 करोड़ के बैंक शेयर ख़रीदना शुरू किए। इससे BANK NIFTY ऊपर जाने लगा। Future Options पर इसका असर यह हुआ।
Call option महँगा होने लगा क्योंकि बाज़ार ऊपर जाने की संभावना बढ़ गई थी। इस Option में आप दांव लगाते हो कि शेयर या इंडेक्स का ऊपर जाएगा। सुबह से Jane Street की ख़रीदारी से बाज़ार चढ़ने लगा था। दूसरी तरफ़, Put Option यानी Bank NIFTY के गिरने का सौदा ,ये सस्ता होने लगा, क्योंकि जब बाज़ार ऊपर जा रहा हो तो बहुत कम लोग दांव लगाते हैं कि वो नीचे जाएगा।
Jane Street ने सुबह सवा नौ बजे से पौने बारह बजे तक लगभग ₹32 हज़ार करोड़ रुपये के सौदे Future Options में किए। इसके बाद जो बैंक शेयर सुबह ख़रीदे थे, उन्हें धीरे-धीरे बेचना शुरू किया। यह सिलसिला बाज़ार बंद होने तक चलता रहा। बैंक शेयर और Bank NIFTY दोनों नीचे जाने लगे। Jane Street ने Option में पैसे बना लिए, क्योंकि उसने पहले से गिरावट पर पोज़िशन ले रखी थी।
आप कह सकते है कि बाज़ार में लाभ तो ख़रीद बेच कर कमाते हैं तो इसमें ग़लत क्या है? ग़लत कुछ नहीं था अगर Jane Street अपने रिसर्च या आकलन के आधार पर Call या Put Option लगाता इसके बजाय उसने दूसरे तरीक़े से बाज़ार को चढ़ाया और फिर गिराया। SEBI ने इस पर अपना केस बनाया है। Jane Street को 21 दिन में जवाब देना है। केस चलता रहेगा लेकिन छोटे निवेशकों के नुक़सान की भरपाई कौन करेगा?
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
फिल्म को 17 जून को फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिल गया। फिल्म समय पर रिलीज भी हो गई। आमिर खान तमाम छोटे बड़े मीडिया संस्थानों में घंटों इस फिल्म के प्रचार के लिए बैठे।
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।
तीन वर्ष बाद आमिर खान की फिल्म सितारे जमीं पर रिलीज होनेवाली थी। लंबे अंतराल के बाद आमिर खान की फिल्म रूपहले पर्दे पर आ रही थी। इसको लेकर दर्शकों में जिस तरह का उत्साह होना चाहिए था वो दिख नहीं रहा था। तीन वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा आई थी जो बुरी तरह फ्लाप रही थी। दर्शकों ने उसको नकार दिया था।
जब सितारे जमीं पर का ट्रेलर लांच हुआ था तो इस फिल्म की थोड़ी चर्चा हुई थी। लेकिन जब इसके गाने रिलीज हुए तो वो दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाए। फिल्म मार्केटिंग की भाषा में कहें तो इस फिल्म को लेकर बज नहीं क्रिएट हो सका। यहां तक तो बहुत सामान्य बात थी। उसके बाद इस तरह के समाचार प्रकाशित होने लगे कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, जिसको बोलचाल में सेंसर बोर्ड कहा जाता है, ने फिल्म में कट लगाने को कहा है, जिसके लिए आमिर तैयार नहीं हैं। विभिन्न माध्यमों में इस पर चर्चा होने लगी कि सेंसर बोर्ड आमिर खान की फिल्म को रोक रहा है।
फिर ये बात सामने आई कि आमिर और फिल्म के निर्देशक सेंसर बोर्ड की समिति से मिलकर अपनी बात कहेंगे। इस तरह का समाचार भी सामने आया कि चूंकि सेंसर बोर्ड फिल्म को अटका रहा है इस कारण फिल्म की एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो पा रही है। बताया जाता है कि ऐसा नियम है कि जबतक फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिल जाता है तब तक एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो सकती है।
ये सब जून के दूसरे सप्ताह में घटित हो रहा था। फिल्म के प्रदर्शन की तिथि 20 जून थी। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन इसके बाद इसमें प्रधानमंत्री मोदी का नाम भी समाचार में आया। कहा गया कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म निर्माताओं को आरंभ में प्रधानमंत्री की विकसित भारत को लेकर कही एक बात उद्धृत करने का आदेश दिया है। आमिर खान की फिल्म, सेंसर बोर्ड की तरफ से कट्स लगाने का आदेश और फिर प्रघानमंत्री मोदी का नाम। फिल्म को प्रचार मिलने लगा। वेबसाइट्स के अलावा समाचारपत्रों में भी इसको जगह मिल गई। जिस फिल्म को लेकर दर्शक लगभग उदासीन से थे उसको लेकर अचानक एक वातावरण बना।
फिल्म को 17 जून को फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिल गया। फिल्म समय पर रिलीज भी हो गई। आमिर खान तमाम छोटे बड़े मीडिया संस्थानों में घंटों इस फिल्म के प्रचार के लिए बैठे, इंटरव्यू दिया। परिणाम क्या रहा वो सबको पता है। फिल्म सफल नहीं हो पाई। यह फिल्म 2018 में स्पेनिश भाषा में रिलीज फिल्म चैंपियंस का रीमेक है। आमिर और जेनेलिया इसमें लीड रोल में हैं।
इसके अलावा कुछ स्पेशल बच्चों ने भी अभिनय किया है। फिल्म के रिलीज होते ही या यों कहें कि सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलते ही इसको लेकर हो रही चर्चा बंद हो गई। ये सिर्फ आमिर खान की फिल्म के साथ ही नहीं हुआ। इसके पहले अनंत महादेवन की फिल्म फुले आई थी जो ज्योतिराव फुले और सावित्री फुले की जिंदगी पर आधारित थी। इस फिल्म और सेंसर बोर्ड को लेकर भी तमाम तरह की खबरें आईं। इंटरनेट मीडिया पर सेंसर बोर्ड के विरोध में काफी कुछ लिखा गया। एक विशेष इकोसिस्टम के लोगों ने इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर भी देखा।
समुदाय विशेष की अस्मिता से जोड़कर भी देखा गया। वर्तमान सरकार को भी इस विवाद में खींचने की कोशिश की गई। फिल्म के प्रदर्शन के बाद सब ठंडा पर गया। ऐसा क्यों होता है। इसको समझने की आवश्यकता है। दरअसल कुछ निर्माता अब सेंसर बोर्ड को अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। जिन फिल्मों को लेकर उसके मार्केटिंग गुरु दर्शकों के बीच उत्सुकता नहीं जगा पाते हैं वो इसको चर्चित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं।
कुछ वर्षों पूर्व जब दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज होनेवाली थी तो उस फिल्म का पीआर करनेवालों ने दीपिका को सलाह दी थी कि वो दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करें। दीपिका वहां पहुंची भी थीं। पर फिल्म फिर भी नहीं चल पाई थी।
फिल्मकारों को मालूम होता है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड किन परिस्थितियों में कट्स लगाने या दृश्यों को बदलने का आदेश देता है। दरअसल होता ये है कि जब फिल्मकार या फिल्म कंपनी सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करती है तो आवेदन के साथ फिल्म की अवधि, उसकी स्क्रिप्ट, फिल्म का नाम और उसकी भाषा का उल्लेख करना होता है। अगर आवेदन के समय फिल्म की अवधि तीन घंटे बताई गई है और जब फिल्म देखी जा रही है और वो तीन घंटे तीन मिनट की निकलती है तो बोर्ड ये कह सकता है कि फिल्म को तय सीमा में खत्म करें।
फिर संबंधित से एक अंडरटेकिंग ली जाती है कि उसकी फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और अब उसकी अवधि तीन घंटे तीन मिनट ही मानी जाए। इसके अलावा अगर एक्जामिनिंग कमेटी को किसी संवाद पर संशय होता है तो वो फिल्म के मूल स्क्रिप्ट से उसका मिलान करती है। अगर वहां विचलन पाया जाता है तो उसको भी ठीक करने को कहा जाता है। जो भी कट्स लगाने के लिए बोर्ड कहता है वो फिल्मकार की सहमति के बाद ही संभव हो पाता है।
अन्यथा उसको रिवाइजिंग कमेटी के पास जाने का अधिकार होता है। कई बार फिल्म की श्रेणी को लेकर भी फिल्मकार और सेंसर बोर्ड के बीच मतैक्य नहीं होता है तो मामला लंबा खिंच जाता है। पर इन दिनों एक नई प्रवृत्ति सामने आई है कि सेंसर बोर्ड के क्रियाकलापों को फिल्म के प्रचार के लिए उपयोग किया जाने लगा है। इंटरनेट मीडिया के युग में ये आसान भी हो गया है।
कुछ फिल्मकार ऐसे होते हैं जो सेंसर बोर्ड की सलाह को सकारात्मक तरीके से लेते हैं। रोहित शेट्टी की एक फिल्म आई थी सिंघम अगेन। इसमें रामकथा को आधुनिक तरीके से दिखाया गया था। फिल्म सेंसर में अटकी क्योंकि राम और हनुमान के बीच का संवाद बेहद अनौपचारिक और हल्की फुल्की भाषा में था। राम और हनुमान का संबंध भी दोस्ताना दिखाया गया था।
भक्त और भगवान का भाव अनुपस्थित था। इस फिल्म में गृहमंत्री को भी नकारात्मक तरीके से दिखाया गया था। विशेषज्ञों की समिति ने फिल्म देखी। फिल्मकार रोहित शेट्टी और अभिनेता अजय देवगन के साथ संवाद किया, उनको वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। दोनों ने इस बात को समझा और अपेक्षित बदलाव करके फिल्म समय पर रिलीज हो गई।
प्रश्न यही है कि जो निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म के प्रमोशन से अपेक्षित परिणाम नहीं पाते हैं वो सेंसर बोर्ड को प्रचार के औजार के तौर पर उपयोग करने की चेष्टा करते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि ऐसा करके वो एक संवैधानिक संस्था के क्रियाकलापों को लेकर जनता के मन में भ्रम उत्पन्न करते हैं। यह लोकतांत्रिक नहीं बल्कि एक आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आ सकता है। अनैतिक तो है ही।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।